Book Title: Jain Siddhant Prakaran Sangraha
Author(s):
Publisher: Ajramar Jain Vidyashala
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जैन सिद्धांत प्रकरण संग्रह उत्तर छोकना असंख्यातमांभा- २, ३, उ० १६२ ते १०८ गमां तो आगल्या ४ चारित्र क्षपक, ५४ उपसम०.जयाख्यात लाभे, अने एक जथाख्यात० ज० १, २, ३, उत्० १६२ ते असंख्यातमे भागे, घणे असंख्या- १०८ क्षपक० ५४ उपसम०.पूर्व तमे भागे,तेसर्व लोकने विषे लाभे. | पडिवजमाण आश्री जोहोय तो,
३३ हवे फरसना द्वार कहे | सामा० ज० उत्० प्रत्येक हजार छे ते क्षेत्र द्वारनी परे जाणवो. क्रोड. छेदो० ज० उ० प्रत्येकसे
३४ हवे भाव द्वार कहे छे. क्रोड, परिहार विशुद्ध ज०१,२, सामा०, छेदो, परिहा०, सुक्ष्म० . ३ उ० प्रत्येक हजार, सुक्ष्म० ज० ए ४मां भाव १क्षयोपशम लाभे. १, २, ३, उतू प्रत्येकसें जथाजथाख्यातमां उपशम ने क्षायक ख्यात ज० उ० प्रत्येक क्रोड. ए २ भाव लामे.
३६ अल्प बहुत्व द्वार कहे ३५ हवे परिमाण द्वार कहे | छे सर्वथी थोडा मुक्ष्म संपराय, छे. हचे पडिवजमाण आश्री जो तेथीपरिहार संख्यात गुणा,तेथी होय तो, सामा० ज० १, २, ३, जथाख्यात० संख्यात मुणा,तेथी उ० प्रत्येक हजार.छेदो०, परी- छेदो० संख्यातगुणा तेथीसामा० हार०, ज० १, २, ३, उत० संख्यातगुणा लाभे. इति संजप्रत्येकसें. सुक्ष्मसंपराय ज० १, | याना बोल संपूर्ण.
॥ अथ श्री नियंठाना बोल.॥
माथा पनघणार वेयर रागे३, कप्प४ चरित्त५पडिसेरणा नाणे: तत्थेयटलिंगेश्वरीरे१०,खेच११काल १२गइ१३संजय१४निकासे१५.

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