Book Title: Jain Siddhant Prakaran Sangraha
Author(s): 
Publisher: Ajramar Jain Vidyashala

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Page 210
________________ जैन सिद्धांत प्रकरण संग्रह. २०३ परिणतिये अंतरात्मा, अने जथाक्ष्यात चारित्र क्षायक केवळी चारिअनी परिणतिनि अपेक्षाये परमात्मा, वीर्यात्मामां, बाळवीर्यनी परिपति ते कहिरात्मा, बाळ पंडित वीर्यनी श्रावकनी शुध्धपरिणति ते अंतरात्मा.अशुध्ध परिणति ते बरिरात्मा.पंडित वीर्य क्षयोपशम परिपसिनी अपेक्षाये छद्ममस्तन पंडितवीर्य अंतरात्मा अने लायक केवळी पंडित वीर्यनि परिणतिनी अपेक्षाये परमात्मा.ए आठ आत्मानो लेश मात्र अधिकार कहो. पदव्य आत्म बोधनो विचार लेश मात्र निरुपणे, विस्ताररूचिये,सात नय, चार प्रमाण चार निक्षेप, षट् उपक्रम, नव अनुगम, ओघनिष्पन, नामनिष्पन, सुत्रलायकनिष्पन, निक्षेप नियुक्ति, स्याद्वादि, असंख्य प्रदेशी, अनंत नयात्मक सिध्धांतनी वाणीनी विस्तार करतां पार न पामीये, पण सार भूत एटलं जे असंख्य प्रदेशी, अनंत केवळज्ञान अनंत केवळदशन अनंत स्वरुप स्थिरता रमण, अनंत क्षायक शक्ति, अनंत परमक्षमा अनंत परम माईच, परम आजव परम संतोष, परम समता, परम शीतल दशा, परम शांति, परम दांति, परम क्षायक सम्यक्त, परमक्षायक भाव, परम शुध्ध परिणामिक भावमयि शुध्ध सत्तानी रासि, निस्पृहि, स्वतंत्री, इछा रोध निरासंती नाहं मम, अरागी,अद्वेषी, अमोहि, अविकारी, सहजानंदि, स्वरुप विलासी, स्वरुप मोक्ष कर्ता, स्वरुप मोक्ष भोक्त्ता, स्वरुप तत्व रमणीय, तत्वानंदि, तत्व विश्रामी, स्वरुप स्थायी, तत्व विलासी, तत्वानुभवी, अछेद, अभेद, अप्रतिहत अविनाशी, अजरअमर, निःकलंकी, अगम्य, अलक्ष, अकल, अगोचर, अगाध, सच्चिदानंद, पूर्णानंद, पूर्णब्रह्म, आत्मद्रव्य अनंतगुणि, अनंतपर्यायमयि, अनंतशुध्धात्मधर्ममयि, आत्मसत्तानी सदहणा प्ररुपणा स्पर्शना करवी. एहवी शुद्ध सत्ता, केवळ ज्ञानादि

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