Book Title: Jain Siddhant Prakaran Sangraha
Author(s):
Publisher: Ajramar Jain Vidyashala
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२१२
पचीस बोलनो थाकडो.
मीनी पेरे ८. आश्रवमां संवर निपजावे तो परम कल्याण थायसंजति राजानी पेरे ९. रोग आवे हाय वोय न करे तो परम कल्याण थाय - अनाथी निग्रंथनी पेरे १०. परिसह आव्या समभाव राखे तो परम कल्याण थाय - मेतारज मुनिनी पेरे ११. तृष्णा उत्पन्न थ तेने पाछी वाळे तो परम कल्याण थाय-कपील केवळीनी पेरे १२.
तेरमे बोले तेर तणखा कछे - जन्मरुपी रु अने मरणरुपी तणखा १. संजोग रूपी रु अने विजोग रुपी तणखो २. ज्ञाता रुपी रु अने अशाता रुपी तणखो ३. संपदा रूपी रु अने आपदा रूपी वणखो ४. हरख रूपी रु अने शोग रूपी तणखो ५. शील रुपी रु अने कुशील रुपी तणखो ६. ज्ञान रुपी रु अने अज्ञान रूपी तणखो ७. समकित रुपी रु अने मिथ्यात्व रुपी तणखो ८. संजम रुपी रु अने असंजम रुपी तणख ९. तपस्या रुपी रु अने कोध रुपी तणखो १०. विवेक रुपी रु अने अभिमान रूपी तणखो ११. स्नेह रुपी रु अने माया रुपी तणखो १२. संतोष रूपो रु अने लोभ रूपो तणखा १३. ए तेर तणखा. हवे तेर काठीआ कहे छे. जुगार, आळस, शोक, भय, वीकथा, कौतक, क्रोध, कृपणबुध्धि, अज्ञान, वहेम, निद्रा, मद, मोह, ए तेर काठीआ.
चौदमे बोले व्याख्यान सांभळनारना १४ गुण कहे छे-भक्तिवंत होय १ मीठाबोलो होय २. गर्व रहीत होय ३. सांभळ्या उपर रुची होय ४. चपळता रहित एकाग्र वित्ते सांभळनार होय ५. जेतुं सांभळे तेवुं पूछनारने बराबर कहे ६ वाणीने प्रकाशमां लावनार होय ७ घणा शास्त्र सांभळीने तेना रहस्पनो जाण होय ८. धर्म कार्यमां आळस न करनार होय ९. धर्म सांभळतां निद्रा न करनार होय

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