Book Title: Gora Badal Padmini Chaupai
Author(s): Hemratna Kavi, Udaysinh Bhatnagar
Publisher: Rajasthan Prachyavidya Pratishthan

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Page 25
________________ गोराबारल पदमजी पपई (घ) प्राकृत 'हन्तो के रूपों का विविध विभक्तियों में प्रयोग : 1. कर्म - वासइ ए मोलोचह कोठे (368) 2. सम्प्रदान-संबंध -पोतुं बीतुं प्रमलह तj (47) सांमी सिंघल दोपह तणुं (62) 3. अपादान - गढनी पोलि हुंति ऊतरिउ (468) (च) अनुस्वार का विभक्ति के रूप में प्रयोग : 1. कर्ता-कर्म - खवासां उजासां (286) 2. कर्म - छत्रां धरइ (286) 3. करण - प्रख्यां दीठ (58) 4. संबंध - रायां घर (286), असुरां घेह (367) (छ) 'न' के स्थान पर 'ण' का भाग्रह : विणास (362), खांण (202), समांणी (161), सामिणी (416) (ज) अन्य प्राचीन रूप : पडसाद (पट+सह < शब्द-२४६), पायालइ-१८७ (पातालइ) पछई (306), प्रछां (402) (झ) दृश्य सादृश्य के लिये अनुरणन : 1. ढलकइं...ढीकली (244) 2. दुमकि दुममा....(२४५) (ट) अपभ्रंश के 'मडडडुल्ल' से विकसित स्वाधिक प्रत्यय : इसउउ, इसडइ (435), बड्डडे, प्रियड्डठे (397), बोलग (240) पाहुणडा (295), गोरिल्ल (363) / हेमरतन और उसकी रचनाएँ 1. कालनिर्णय : वि० सं० 1500 और 1700 के बीच का युग राजस्थानी भाषा, साहित्य, संस्कृति और कला के चरम विकास का युग था। इस युग में राजस्थानी भाषा और साहित्य की बहुमुखी प्रवृत्तियों का विकास देख पड़ता है, जहां धर्म और सम्प्रदाय, भक्ति और साधना, लौकिक और पारलौकिक भावनाएं आदि का साहित्य के साथ-साथ सामंजस्य हो जाता है / साहित्य, नरक्षेत्र और माध्यात्मिक क्षेत्र में सामंजस्य स्थापित करता है। एक ओर वह मानव-व्यापारों में प्रादर्श

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