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उपधि- परित्याग के परिणाम
पायपमज्जणहेउं केसरिया पाए पाए एक्केक्का । गोच्छगपत्तट्टवणं एक्के क्कं गणणमाणेणं ॥
पात्रस्थापन आदि का प्रयोजनपात्रस्थापन - रज आदि की सुरक्षा के लिए । गोच्छग - पात्र पटलों के प्रमार्जन के लिए । पात्र केसरिका - पात्र प्रमार्जन के लिए ।
प्रत्येक मुनि एक - एक गोच्छग और पात्रस्थापन रख सकता है । प्रत्येक पात्र की एक-एक पात्रकेसरिका होती है ।
सुलक्षण पात्र
वृत्त - समचतुरस्र
स्थिर
५. सुलक्षण पात्र तथा अलक्षण पात्र
च
वट्ट् समचउरंस होइ थिरं थावरं च वण्णं च । हुंडवायाइद्धं भिन्नं अधार णिज्जाई || (ओनि ६८६ ) वृत्त, समचतुरस्र, सुप्रतिष्ठित, दीर्घ कालस्थायी और स्निग्ध वर्ण वाला पात्र सुलक्षण होता है, वह ग्राह्य है । विषम, शुष्क, संकुचित और सच्छिद्र पात्र अपलक्षणयुक्त होता है, वह अग्राह्य I
संठियंमि भवे लाभो, पतिट्ठा निव्वणे कित्तिमारोगं, वन्नड्ढे
निश्छिद्र स्निग्ध वर्ण
(ओनि ६९५, ६९६ )
अलक्षण पात्र
विषम (निम्नोन्नत) चितकबरा
अस्थिर तथा कील संस्थान वाला (दीर्घ उच्च)
अलक्षण पात्र
हुंडे चरितभेदो सबलंमि य चित्तविभमं जाणे । दुप्पते खील ठाणे गणे च चरणे च नो ठाणं ।। सव्वणे पउमुप्पले अकुसलं, वर्णमादि से । अंत बहिं च दंमि, मरणे तत्थ निद्दिसे ॥ (ओनि ६८८, ६८९ ) उपलब्धि - चारित्रविनाश
- चित्तविभ्रम / चित्त विलुप्ति
}
गण और चारित्र में असंस्थिति
- अकुशल
पद्मोत्पल (नीचे से स्थासकआकार वाला)
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सुपतिट्ठिते । नाणसंपया ॥
( ओनि ६८७ ) उपलब्धि
१५३
लाभ प्रतिष्ठा कीर्ति, आरोग्य
ज्ञानसम्पदा
सव्रण (नख आदि से क्षत) भीतर या बाहर से दग्ध ६. औपग्रहिक उपधि
एयं चैव पमाणं सविसेसयरं कंतारे दुब्भिक्खे रोगमाईसु
उपधि
दंडए लट्ठिया चेव चम्मए चम्मकोसए । चम्मच्छेदणपट्टेवि चिलिमिली धारए गुरू ॥
(ओनि ७२८) साधु की औपग्रहिक उपधि-- दण्ड, यष्टि, वियष्टि । गुरु की औपग्रहिक उपधि – चर्मकृति, चर्म कोश, चर्मपट्टिका, चर्मच्छेदन ( कैंची आदि) योगपट्ट और चिलिमिली (पर्दा) ।
वेयावच्चगरो वा नंदीभाणं धरे उवग्गहियं । सो खलु तस्स विसेसो पमाणजुत्तं तु सेसाणं ॥ ( ओभा ३२१ )
अणुग्गहपवत्तं । भइयव्वं ॥
----व्रण
-मरण
(ओनि ६८३ )
वैयावृत्य करने वाला साधु बृहत्तर प्रमाण वाला नन्दीभाजन ( पात्र विशेष ) रख सकता है । यह औपग्रहिक उपधि है । शत्रु द्वारा नगर पर आक्रमण किये जाने पर, दुभिक्ष, अटवीगमन आदि विशेष प्रसंगों पर ही इसका उपयोग किया जाता है। शेष साधुओं के लिए प्रमाणयुक्त पात्र ही विहित है ।
७. उपधि परिग्रह नहीं
अत्थविसोही उवगरणं बाहिरं परिहरंतो । अपरिग्गहीत्ति भणिओ जिणेहि तेलुक्कदसीहिं ॥ (ओनि ७४५ )
अध्यात्म विशुद्धि के हेतु से बाह्य उपकरण धारण करने वाले मुनि को
वस्त्र - पात्र आदि त्रिलोकदर्शी अर्हतों
ने अपरिग्रही कहा है । उसके धर्मोपकरण परिग्रह नहीं हैं । ८. एषणीय उपधि-ग्रहण
उग्गम उप्पायणासुद्धं, एसा दोसवज्जियं । उहि धार भिक्खू, जोगाणं साहणट्टया ||
(ओनि ७४३ )
मुनि संयमयोगों की साधना के लिए उद्गम, उत्पाद और एषणा के दोषों से रहित उपधि धारण करता है । ६. उपधि-परित्याग के परिणाम
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.... उवहिपच्चक्खाणेणं अपलिमंथं जणयइ । निरुवहिए णं जीवे निक्कखे उवहिमंतरेण य न संकिलिस्सइ ।
( उ २९/३५ )
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