Book Title: Bhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Author(s): Vimalprajna, Siddhpragna
Publisher: Jain Vishva Bharati
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीभिक्षु आगम विषय कोश CYCLOPAEDIA OF JAIN CANONICAL Texts PART I । वाचना प्रमुख गणाधिपति तुलसी प्रधान सम्पादक आचार्य महाप्रज्ञ संपादिका साध्वी विमलप्रज्ञा साध्वी सिद्धप्रज्ञा Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निग्गंथं पावयणं श्रीभिक्षु आगम विषय कोश (पांच आगमों-आवश्यक, दशवकालिक, उत्तराध्ययन, नन्दी और अनुयोगद्वार तथा उनके व्याख्या-ग्रंथों के आधार पर) प्रधान सम्पादक वाचना प्रमुख गणाधिपति तुलसी आचार्य महाप्रज्ञ निर्देशन मुनि दुलहराज डॉ. सत्य रंजन बनर्जी संग्रहण/अनुवाद/सम्पादन साध्वी विमलप्रज्ञा साध्वी सिद्धप्रज्ञा प्रकाशन जैन विश्व भारती संस्थान [मान्य विश्वविद्यालय] लाडनूं, राजस्थान-३४१३०६ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक: जैन विश्व भारती संस्थान (मान्य विश्वविद्यालय) लाडनूं, राजस्थान सर्वाधिकार सुरक्षित जैन विश्व भारती, लाडनूं प्रथम संस्करण : सितम्बर, १९६६ मूल्य : ५००/- रुपये मुद्रक : मित्र परिषद् कलकत्ता के आर्थिक सौजन्य से स्थापित जैन विश्व भारती प्रेस, लाडनूं (राजस्थान) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Niggantharn Pavayanam SRI BHIKSU AGAMA VISAYA KOŚA CYCLOPAEDIA OF JAIN CANONICAL TEXTS-PART I (Āvaśyaka, Daśavaikālika, Uttarādyayana, Nandi and Anuyogadvāra-Compiled on the basis of these five Agamas and their different Commentaries) Synod Chief GANĀDHIPATI TULSĪ Chief Editor ĀCĀRYA MAHAPRAJNA Direction by Muni Dulaharaj Dr. Satya Ranjan Banerjee Compilation/Translation/Edition Sadhvi Vimalprajñā Sadhvi Siddhaprajñā Published by JAIN VISHVA BHARATI INSTITUTE LADNUN (Rajasthan) Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Publishers: Jain Vishva Bharati Institute (Deemed University) Ladnun © Jain Vishva Bharati, Ladnun First Edition : September, 1996 Price: Rs. 500/ Printers : Jain Vishva Bharati Press Ladoup (Raj.) Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण विलोडियं आगमदुद्धमेव, लद्धं सलद्धं णवणीयमच्छं। सज्झायसज्झाणरयस्स निच्चं, भिक्खुस्स तस्स प्पणिहाणपुत्वं ॥ जिसने आगम-दोहन कर कर, पाया प्रवर प्रचुर नवनीत । श्रुत-सद्ध्यानलीन चिर चिन्तन, आर्य भिक्षु को विमल भाव से॥ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तस्तोष अन्तस्तोष अनिर्वचनीय होता है, उस माली का जो अपने हाथों से उप्त और सिञ्चित द्रम-निकुञ्ज को पल्लवित, पुष्पित और फलित हुआ देखता है, उस कलाकार का जो अपनी तूलिका से निराकार को साकार हुआ देखता है और उस कल्पनाकार का जो अपनी कल्पना को अपने प्रयत्नों से प्राणवान् बना देखता है। चिरकाल से मेरा मन इस कल्पना से भरा था कि जैन-आगमों का शोध-पूर्ण सम्पादन हो और मेरे जीवन के बहश्रमी क्षण उसमें लगें। संकल्प फलवान बना। मुझे केन्द्र मानकर मेरा धम-परिवार उस कार्य में संलग्न हो गया और कार्य को निष्ठा तक पहुंचाने में पूर्ण श्रम किया। कुछ वर्ष पूर्व मेरे मन में कल्पना उठी कि 'जैन आगम विषय कोश' तैयार किया जाए। सभी आगमों का एक विषय कोश अभीष्ट था। परन्तु वह दीर्घ समय सापेक्ष था। अतः उस कार्य को अनेक खंडों में विभक्त कर दिया गया, जिसकी फलश्रुति प्रस्तुत खंड है । अतः मेरे इस अन्तस्तोष में मैं सबको समभागी बनाना चाहता है, जो इस प्रवृत्ति में संविभागी रहे हैं। संक्षेप में वह संविभाग इस प्रकार है प्रधान संपादक : आचार्य महाप्रज्ञ संपादिका : साध्वी विमलप्रज्ञा : साध्वी सिद्धप्रज्ञा संकलन सहयोगी : साध्वी संचितयशा : समणी उज्ज्वलप्रज्ञा संविभाग हमारा धर्म है । जिन-जिन ने इस गुरुतर प्रवृत्ति में उन्मुक्त भाव से अपना संविभाग समर्पित किया है, उन सबको मैं आशीर्वाद देता हूं और कामना करता हूं कि उनका भविष्य इस महान कार्य का भविष्य बने । गणाधिपति तुलसी Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रम ० पुरोवाक् • भूमिका (Foreword) ० सम्पादकीय • ग्रन्थ-परिचय ० सन्दर्भ-ग्रन्थ : संकेत-विवरण ० मुख्य विषय : अनुक्रम ० विषय कोश ० परिशिष्ट १: कथा-संकेत ० परिशिष्ट २: दार्शनिक और तात्त्विक चर्चास्थल-संकेत Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरोवाक् दो इन्द्रिय वाले प्राणी में भाषा की लब्धि का विकास नहीं है। तीन, चार, पांच इन्द्रिय वाले प्राणियों में भी भाषा का विकास नहीं होता । पशु और पक्षी समनस्क हैं, वे सोचते हैं, कल्पना भी करते हैं लेकिन उनमें भाषा का स्वल्प मात्रा में ही विकास हुआ है। उनका मस्तिष्क विकसित नहीं है इसलिए उनका शब्दकोश बहुत छोटा है। मनुष्य ने मस्तिष्क का विकास बहुत किया है। उसकी चिन्तनशक्ति, कल्पनाशक्ति, स्मृति और विवेक बहत विकसित है। उसने बुद्धि और मन का संयोग कर भाषा का विकास किया है। उसका शब्दकोश बहुत बड़ा है। भाषा का विकास विषय के विकास के साथ-साथ चलता है। जैसे-जैसे अर्थ या वस्तु का नया निर्माण होता है, शब्द गढ़े जाते हैं, वैसे-वैसे शब्दकोश की वृद्धि होती जाती है। ज्ञान और साधनों के विकास के साथसाथ कोशों के प्रकारों की भी वृद्धि होती जाती है। हिन्दी, राजस्थानी, संस्कृत, प्राकृत आदि सभी भाषाओं में कोशों का निर्माण हआ है। वैदिक विद्वानों ने उपनिषद् वाक्य महाकोश, प्राचीन भारतीय संस्कृति कोश, ब्राह्मणोद्धार कोश, उपनिषद् उद्धारकोश आदि कोशों का तथा बौद्ध विद्वानों ने बुद्धिस्ट एनसाइक्लोपीडिया का निर्माण किया। जैन विद्वानों ने भी इस दिशा में अपनी लेखनी उठाई है। अब तक अनेक कोश हमारे सामने आ चके हैं। कुछेक कोशों का विवरण इस प्रकार है१. पाइयलच्छीनाममाला __ यह कवि धनपाल की लघु कोशकृति है। इसकी २७९ गाथाओं में लगभग एक हजार प्राकृत शब्द हैं। उनमें तत्सम, तदभव और देशी शब्द भी हैं। इसका रचना काल वि० सं० १०२९ है। लेखक ने धारानगरी में रहकर अपनी बहिन सुन्दरी के लिए इस ग्रन्थ का निर्माण किया। लेखक का अभिप्राय है कि यह ग्रन्थ प्राकृत कवियों के कविता-प्रणयन में सहयोगी बनेगा। यह प्राकृत भाषा का पहला कोश है । २. देशीनाममाला - इसका अपर नाम है-'रत्नावली'। यह कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र की प्रसिद्ध कृति है। इसमें लगभग छह हजार शब्द ७८३ गाथाओं में संदब्ध हैं। सभी गाथाएं शब्द-प्रयोग की माध्यम हैं। इसकी संयोजना अपने आप में अपूर्व है। ३. पाइयसद्दमहण्णओ इसके प्रणेता हैं --हरगोविन्ददास सेठ, जिन्होंने २५० से भी अधिक ग्रन्थों से लगभग ७५ हजार शब्द संगृहीत किए हैं। हजार पृष्ठों का यह कोश ससन्दर्भ शब्दों का अर्थ प्रस्तुत करता है। अर्थ की दृष्टि से यह कोश अत्यन्त उपयोगी है। प्राकृत जगत् में यह अत्यधिक प्रचलित है। इसका पहला संस्करण सन् १९२८ में तथा दूसरा संस्करण सन् १९६१ में प्रकाशित हुआ है। ४. सचित्र अर्धमागधी कोश श्री रतनचन्दजी महाराज ने ४९ ग्रन्थों के आधार पर इसका प्रणयन किया। इसमें प्राकृत शब्दों के हिन्दी अर्थ के साथ गुजराती और अंग्रेजी के अर्थ भी उपलब्ध हैं। संग्रहीत शब्दों की संख्या पचास हजार है। इसका प्रथम संस्करण सन् १९२३ में हआ था। अभी-अभी यह सुन्दर साजसज्जा के साथ पांच भागों में Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ पुरोवाक् जापान से तथा मोतीलाल बनारसीदास से छपा है। मूल प्राकृत शब्द, उसका संस्कृत रूपान्तरण तथा तीन भाषाओं में अर्थ होने के कारण इसका आकार कुछ बड़ा हो गया है। ५. अल्पपरिचित सैद्धान्तिक शब्दकोश इसके प्रणेता हैं-सागरानन्दसूरि। यह पांच भागों में सन् १९५४ से १९७९ के मध्य प्रकाशित हुआ था। इसमें मूल १२५६ पृष्ठ हैं, जिनमें विशेष रूप से उन्हीं शब्दों को लिया है जो जैनदर्शन के पारिभाषिक शब्द हैं । उनका चूणि, टीका आदि में उपलब्ध अर्थ भी दिया गया है। इनमें ४५ आगमों तथा अन्य कुछेक ग्रंथों के शब्द संगहीत हैं। अन्त में ५६ पृष्ठों के परिशिष्ट में आचार्य हेमचन्द्र की देशीनाममाला के शब्द अकारादि अनुक्रम में अर्थ-सहित दिये गए हैं। ६. अभिधान राजेन्द्रकोश यह श्वेताम्बर आगम साहित्य का एक आकर कोश है। इसके निर्माता हैं-विजयराजेन्द्रसूरी और संपादक हैं-उन्हीं के दो शिष्य दीपविजय और यतीन्द्र विजय । इसका प्रकाशन सात भागों में सन् १९१०-१९२४ के मध्य नौ हजार पृष्ठों में हुआ। कोशकार ने लगभग सौ ग्रन्थों का इसमें उपयोग किया है। इस कोश का निर्माण यदि आज होता तो यह कोश और अधिक वैज्ञानिकता लिए हमारे सामने आता। इसका निर्माण विषयों के आधार पर हुआ है, लेकिन वर्तमान में उनके प्रमाण यथार्थ रूप में उपलब्ध न होने के कारण कोश की उपयोगिता में कमी अनुभव होती है। ७. जैनलक्षणावलि (जैन पारिभाषिक शब्दकोश) यह एक महत्त्वपूर्ण कोश है, जिसमें जैनधर्म-सिद्धांत के पारिभाषिक शब्दों की परिभाषाएं दो गई हैं। इसमें दिगम्बर तथा श्वेताम्बरों के ४०० ग्रन्थों से शब्द संग्रहीत हैं। इसके संपादक हैं -बालचंद्र सिद्धांतशास्त्री और यह वीर सेवा मंदिर से सन् १९७२ में प्रकाशित हुआ है। ८. जैनेन्द्र सिद्धांतकोश चार भागों में प्रकाशित इस कोश में शब्दों के अर्थ के साथ-साथ उनसे संबंधित विषयों का ससंदर्भ समावेश है। यह केवल दिगम्बर साहित्य के आधार पर निर्मित है। इसके कर्ता हैं-क्षुल्लक जिनेन्द्रवर्णी और प्रणयन काल है--सन् १९७० । ९. डिक्शनरी ऑफ वी प्राकृत लेंग्वेजेज ___ इस कोश का निर्माण पूना में डा० ए. एम. घाटगे के निर्देशन में भंडारकर ओरियन्टल रिसर्च इंस्टीट्यूट के अन्तर्गत हो रहा है। इसमें लगभग ५०० ग्रन्थों के शब्द ससंदर्भ लिए गए हैं। शब्दों का अंग्रेजी भाषा में अर्थ किया गया है। यह विशाल कोशग्रन्थ अपने आप में एक शलाकाग्रन्थ होगा। इसके दो लघ भाग प्रकाशित हो चके हैं, शेष प्रकाशाधीन हैं। १०. आगम शब्दकोश प्रस्तुत कोश में ग्यारह अंगों (आचारांग, सूत्रकृतांग आदि) के शब्द संग्रहीत हैं। प्रत्येक शब्द का संस्कृत रूपांतरण और उसके सभी प्रमाण-स्थल निर्दिष्ट हैं। इसमें तत्सम, तद्भव और देशी-तीनों प्रकार के शब्द हैं। ८५० पृष्ठों का यह कोश अंग आगमों में अनुसंधान करने वालों के लिए बहुत उपयोगी है क्योंकि ग्यारह अंगों में एक शब्द कहां-कहां आया है, उसके समस्त संदर्भ-स्थल एक ही स्थान पर प्राप्त हो जाते हैं। विभिन्न आगमों के शब्द-चयन पृथक-पृथक मुनियों ने किए और उनका समग्रता से आकलन मुनि श्रीचन्द 'कमल' ने किया। इसका प्रकाशन वर्ष है सन् १९८० । Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरोवाक् ११. एकार्थक कोश इसमें लगभग १०० ग्रन्थों से एकार्थक शब्दों का संग्रहण किया है। उनमें आगम तथा उनके व्याख्याग्रन्थों के साथ-साथ अंगविज्जा का भी समावेश है। इस कोश में लगभग १७०० एकार्थकों का अर्थ-निर्देश और प्रमाण दिया गया है। सारे शब्द लगभग ८००० हैं। इसमें धातुओं के एकार्थक भी हैं। अनेक एकार्थकों के सभी शब्द देशी हैं। उनका भी संकलन किया गया है । इसका संपादन समणी कुसुमप्रज्ञा ने सन् १९८४ में किया था । १२. निरुक्त कोश निरुक्त या निर्वचन विद्या बहुत प्राचीन है। प्रस्तुत कोश में अकारादि अनुक्रम से मूल प्राकृत शब्दों का प्राकृत या संस्कृत में निर्वचन प्रस्तुत किया गया है। इसमें मूल में १७५४ शब्दों का निर्वचन है तथा प्रथम परिशिष्ट में कृदन्तव्युत्पन्न २०८ निरुक्त और दूसरे परिशिष्ट में तीर्थकर-अभिधान निरुक्त हैं। इसमें ७४ ग्रन्थों का समावेश है । साध्वी सिद्धप्रज्ञा और साध्वी निर्वाणश्री ने सन् १९८४ में इसका संपादन किया था। १३. देशी शब्दकोश प्रस्तुत कोश में आगम, नियुक्ति, भाष्य, चूणि और टीका आदि में प्रयुक्त देशी शब्दों का सप्रमाण संकलन है। इसमें दस हजार से अधिक देशी शब्द संग्रहीत हैं। आचार्य हेमचन्द्र की देशीनाममाला का इसमें अविकल समावेश किया गया है। इसमें कुछ शब्द कन्नड, तमिल, मराठी आदि भाषाओं के भी हैं । ४३९ पृष्ठों में अकारादि क्रम से देशी शब्द. उनका अर्थ, संदर्भ-स्थल और व्यवहति का उल्लेख है। इसमें शताधिक ग्रन्थों का उपयोग हआ है। इसके दो परिशिष्ट हैं --अवशिष्ट देशी शब्द तथा देशी धातु चयनिका। इसका संपादन मुनि दुलहराज ने सन् १९८८ में किया था। १४. आगम वनस्पति कोश जैन आगमों में वनस्पतियों के नाम प्रचुरता से प्राप्त हैं। टीकाकाल में भी उनकी पहचान विस्मृत-सी हो गई थी। कुछेक वनस्पतियों की पहचान विपरीत अर्थ में की जा रही थी। प्रस्तुत कोश में लगभग ४५० वनस्पतियों का सचित्र प्रस्तुतीकरण और उनकी सप्रमाण विज्ञप्ति मुनि श्रीचन्द्र 'कमल' ने की है। यह जैन आगम वनस्पति का पहला कोश है, जिससे प्राचीन वनस्पतियों का आधुनिक परिचय प्राप्त होता है। इसका प्रकाशन वर्ष है--सन् १९९६ । (नं० १० से १४-ये पांचों कोश जैन विश्व भारती, लाडनं से प्रकाशित हैं।) १५. लेश्याकोश १६- क्रियाकोश १७. योगकोश इन तीनों के संपादक हैं -स्व. मोहनलाल बांठिया तथा श्रीचन्द्र चोरडिया। संपादकद्वय ने लेश्या, क्रिया और योग के बिखरे संदर्भो को जैन आगम साहित्य से एकत्रित कर उनके सुसंयोजित रूप को लेश्याकोश, क्रियाकोश और योगकोश के रूप में प्रकाशित किया था। सारा विषय उपबिंदुओं में विभक्त है तथा हिन्दी भाषा के अनुवाद से अन्वित है। लेश्याकोश सन् १९६६ में, क्रियाकोश १९६९ में जैन दर्शन समिति, कलकत्ता से प्रकाशित हुआ है। श्रीभिक्षु आगम विषय कोश प्रस्तुत कोश में पांच आगम-(१) आवश्यक (२) दशवकालिक (३) उत्तराध्ययन (४) नन्दी (५) अनुयोगद्वार और इनके व्याख्याग्रन्थों का समवतार किया गया है। इस लघुकाय समवतार में भी विषयों की विविधता बहल परिमाण में है। आवश्यक छोटा आगम है Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरोवाक् किन्तु उस पर सुविस्तृत व्याख्याएं लिखी गईं। आवश्यकनियुक्ति, विशेषावश्यक भाष्य, चणि, हारिभद्रीया तथा मलयगिरीया वृत्ति- इन व्याख्या ग्रन्थों में विश्वकोश बन सके उतने विषय हैं। उन सब विषयों का समाहार करना संभव नहीं था। इसलिए उनमें से प्रमुख-प्रमुख विषयों का चयन किया गया, जो आधुनिक ज्ञान, विज्ञान और आचारशास्त्रीय दृष्टि से बहत महत्त्वपूर्ण लगे। विज्ञान के क्षेत्र में परामनोविज्ञान की शाखा विकसित हई, उसमें अतीन्द्रिय ज्ञान को मान्यता दी गई। अन्य लेखकों ने भी ज्ञान के विषय में लिखा किन्तु अतीन्द्रिय ज्ञान के विषय में जितना सांगोपांग निरूपण इसमें है, उतना अन्य किसी ग्रन्थ में प्राप्त नहीं है. अतः परामनोविज्ञान के अध्येता के लिए यह कोश अत्यन्त उपयोगी होगा। इस कोश में १७५ विषयों का संग्रहण है। तत्त्व-दर्शन, आचार-शास्त्र, इतिहास आदि अनेक दष्टियों का इसमें समावेश है। जैन आगमों की व्याख्या में नयों का मुक्त प्रयोग हुआ है। जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने नय की महत्ता का प्रतिपादन इस रूप में किया है जो ज्ञाता नय-निक्षेप-विधि से अर्थ की समीक्षा नहीं करता, उसके लिए अयुक्त युक्त और युक्त अयुक्त हो जाता है। इसमें हाथी के दृष्टांत से नय को समझाया गया है । सात अंधे व्यक्ति थे। उनमें से प्रत्येक ने हाथी के एकएक अवयव का स्पर्श किया। पैर का स्पर्श करने वाले ने कहा- हाथी खंभे जैसा है। दूसरों ने हाथी के अन्यान्य अवयवों के स्पर्श के आधार पर हाथी की भिन्न-भिन्न कल्पना की। इस प्रकार एक-एक अवयव के आधार पर पूरे हाथी की कल्पना जैसे ठीक नहीं है, वैसे ही वस्तु के एक अंश को सम्पूर्ण वस्तु मानना सम्यक नहीं है। यह हस्ति-दर्शन का दृष्टांत बौद्ध साहित्य में भी उपलब्ध है। ऐतिहासिक दृष्टि से भी कुछ तथ्य बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। भद्रबाहु स्वामी ने महाप्राण ध्यान की साधना सम्पन्न की। स्थूलभद्र ने प्रतिपूर्ण नौ पूर्व पढ़ लिए। दो वस्तुओं (प्रकरणों) से न्यून दसवां पूर्व भी पढ़ लिया । भद्रबाहु और स्थूलभद्र नेपाल से प्रस्थान कर पाटलिपुत्र आ गए। एक घटना के बाद भद्रबाहु ने स्थूलभद्र को अन्तिम चार पूर्व नहीं पढ़ाए। बहुत अनुरोध करने पर उनको पढ़ाना शुरू किया। साधारणतया यह माना जाता है कि भद्रबाह स्वामी ने अन्तिम चार पूर्व पढ़ाए लेकिन उनका अर्थ नहीं बताया। किन्तु आवश्यकचूणि में ऐसा उल्लेख नहीं है। वहां उल्लेख है-भद्रबाहु स्वामी ने स्थूलभद्र से कहा--अवशिष्ट चार पूर्व तुम पढ़ो किन्तु दूसरों को उनकी वाचना नहीं दोगे । स्थूलभद्र के बाद अन्तिम चार पूर्व विच्छिन्न हो गए। दसवें पूर्व की अन्तिम दो वस्तुएं भी विच्छिन्न हो गईं। दस पूर्व की परम्परा उनके बाद भी चली। महाप्राण (महापान) ध्यान की साधना सम्पन्न होने पर चतुर्दशपूर्वी प्रयोजन उपस्थित होने पर अन्तमहत में चौदह पूर्वो की अनुप्रेक्षा -पर्यालोचन कर लेता है, अनुक्रम-व्युत्क्रम से उनका परावर्तन कर लेता है। आगमों में उपयुक्त चतुर्दशपूर्वी मुनि अन्तर्मुहर्त्तमात्र के उपयोगकाल में जितने अर्थ-पर्यायों को जान लेता है, उनमें से एक-एक समय में एक-एक पर्याय को अवहृत किया जाए तो अनन्त उत्सर्पिणी और अनन्त अवसर्पिणी में भी उनका अवहार नहीं हो सकता। इस अवसपिणी कालखंड में चतुर्दशपूर्वी हुए हैं। उनके पश्चात् दशपूर्वी ही हुए, किन्तु तेरहपूर्वी, बारहपूर्वी या ग्यारहपूर्वी नहीं हुए। १. प्रस्तुत कोश, पृ. ४५-६४, २२५-२३१, ५१०-५१४ २. वही, पृ. ३७४ ३. वही, पृ. ३७५ ४. खुद्दक निकाय, उदान, पृ. १४३-१४५ ५. प्रस्तुत कोश, पृ. ८३,८४ ६. अनुचू, पृ. ८८ ७. प्रस्तुत कोश, पृ. ४२९ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरोवाक् प्रस्तुत कोश में जीव विज्ञान की दृष्टि से भी बहुत मूल्यवान् सामग्री उपलब्ध है। जीव का व्यक्त लक्षण इन्द्रिय चेतना । इन्द्रिय चेतना के विकास के आधार पर जीवों के पांच वर्ग किए गए हैं - ( १ ) एकेन्द्रिय (२) दीन्द्रिय (३) त्रीन्द्रिय (४) चतुरिन्द्रिय और (५) पंचेन्द्रिय जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने एकेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय का दो दृष्टियों से प्रतिपादन किया है इन्द्रिय रचना और लब्धि की दृष्टि से जीवो के पांच वर्ग बनते हैं । उपयोग इन्द्रिय की अपेक्षा सब जीव एकेन्द्रिय हैं क्योंकि एक समय में एक ही इन्द्रिय का उपयोग होता है । एकेन्द्रिय में पांचों इन्द्रियों का स्वीकार जीव विज्ञान की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है। जिनभद्रगणी क्षमा श्रमण के अनुसार बकुल, चम्पक, तिलक, विरहक आदि वृक्षों में स्पर्श के अतिरिक्त शेष इन्द्रियां भी प्रतीत होती हैं, क्योंकि उनमें इन्द्रिय ज्ञानावरण का क्षयोपशम संभव है । सब विषयों को ग्रहण करने के कारण बकुल मनुष्य की तरह पंचेन्द्रिय है, फिर भी बाह्य इन्द्रियों का अभाव होने से उसे पंचेन्द्रिय नहीं कहा जा सकता । एकेन्द्रिय जीवों में श्रोत्र आदि द्रव्येन्द्रिय के अभाव में भी भावेन्द्रिय का ज्ञान कुछ अंशों में देखा जाता है। वनस्पति में इसके स्पष्ट चिह्न प्राप्त होते हैं, जैसेश्रोत्रेन्द्रिय-सुन्दर कंठ एवं पंचम स्वर में उद्गीत गीत श्रवण से 'बिरहक वृक्ष' पर पुष्प उग आते हैं। इससे उसमें धोत्रेन्द्रिय ज्ञान का स्पष्ट चिह्न परिलक्षित होता है । चक्षुरिन्द्रिय सुन्दर स्त्री की आंखों के कटाक्ष से 'तिलक वृक्ष' पर फूल खिल जाते हैं। इससे उसमें चक्षुरिन्द्रिय ज्ञान का स्पष्ट चिह्न परिभासित होता है। घ्राणेन्द्रिय - विविध सुगन्धित पदार्थों से मिश्रित निर्मल शीतल जल के सिंचन से 'चम्पक वृक्ष' पर फूल प्रगट हो जाते हैं । इससे उसमें घ्राणेन्द्रिय ज्ञान का स्पष्ट चिह्न दिखाई देता है । रसनेन्द्रिय – अतिशय रूप वाली तरुण स्त्री के मुख से प्रदत्त स्वच्छ स्वादु शराब के कुल्ले का आस्वादन करने से बकुल वृक्ष पर फूल निकल आते हैं। इससे उसमें रसनेन्द्रिय ज्ञान का स्पष्ट चिह्न देखा जाता है ।' भाषा का विषय आगम साहित्य और व्याख्या साहित्य में बहुत विस्तार से चर्चित है। दशवेकालिक नियुक्ति और अगस्त्य चूर्णि में भाषायोग्य द्रव्य, भाषा रूप में परिणामित और जल्प्यमान का अन्तर बहुत स्पष्ट किया गया है--- भाषा के योग्य द्रव्य द्रव्यवाक्य हैं। भाषा रूप में परिणत, बोले जाते हुए भाषा के द्रव्य, जो भावों को प्रकट करते हैं, वे भाववाक्य हैं जैसे वेदना की अनुभूति स्वयं को और पर को होती है वैसे ही जिस वचनप्रणिधान से व्यक्ति स्वयं अर्थ का अवधारण करता है, फिर दूसरे को अर्थबोध कराता है, वह भावभाषा है । द्रव्यभाषा के तीन प्रकार हैं १. ग्रहण - - वचनयोग में परिणत आत्मा के द्वारा ग्रहणकाल में भाषाद्रव्य का उपादान / ग्रहण | २. निस्सरण उर, कंठ, सिर, जिह्वामूल, तालु, नासिका, दांत और ओष्ठ पर यथास्थान सम्मूच्छित भाषाद्रव्यों का विसर्जन । ३. परापात निःसृष्ट द्रव्यों के द्वारा विघट्टित भाषाद्रव्यों की भाषा-परिणति । प्रस्तुत कोश विश्वकोश की परिकल्पना से निर्मित नहीं है। फिर भी विषय की विविधता और विस्तार की दृष्टि से यह विश्वकोश जैसा बन गया है। यह सामग्रीमात्र का संग्रह है। इस पर अनेक कोणों से मीमांसा की जा सकती है। मीमांसा की दृष्टि से यह कोश विशाल आकार ले सकता है आगम, कर्मग्रन्थ, निर्मुक्ति और १५ -- १. प्रस्तुत कोश, पृ. १४७ २. वही, पृ. ४८९ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरोवाक् ०४ १० व्याख्या साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन करने पर मीमांसा का क्षेत्र बहुत व्यापक बन सकता है। जयाचार्य ने आगम और नियुक्ति का तुलनात्मक अध्ययन कर दोनों के अन्तर का निर्देश दिया था। वह मीमांसा की दष्टि से एक उदाहरण के रूप में यहां प्रस्तुत है-- आगम और आवश्यक नियुक्ति में तथ्यगत अंतर---- सिद्ध की उत्कृष्ट पूर्व अवगाहना ५०० धनुष ओवाइयं १८७ ५२५ धनुष आवनि १५३,१५७,१६३ सनत्कुमार चक्रवर्ती की गति मोक्ष ठाणं ४।१ तृतीय कल्पविमान आवनि ४२४ अर्हतमल्लि की दीक्षा और पौष शुक्ला ११ नायाधम्मकहाओ ८।२२२,२२५ कैवल्य-प्राप्ति मृगशिर शुक्ला ११ आवनि २६२ अर्हत अजित के गणधर समवाओ ९०२ आवनि २८८ अर्हत् पार्श्व के गणधर समवाओ ८८ आवनि २६८ (प्रश्नोत्तर तत्त्वबोध, थिरावली अधिकार २०१३६-५१ के आधार पर) प्रस्तुत कोश में द्रव्यानुयोग, चरणकरणानुयोग, गणितानुयोग और धर्म कथानुयोग-इन चारों का समावेश है। तीन अनुयोग का संग्रह मूल में है । धर्मकथा का संकेत-संग्रह परिशिष्ट में है। वि० सं० २०१२ औरंगाबाद में महावीर जयन्ती के अवसर पर 'आगम-सम्पादन' की घोषणा की गई । सम्पादन के विविध पक्षों पर विचार चल रहा था। उस समय आगम विषय कोश की भी कल्पना की गई। यात्रा और अन्य प्रवृत्तियों के कारण यह कार्य अवरुद्ध रहा। इस अवधि में आगम शब्द कोश, एकार्थक कोश, निरुक्त कोश और देशी शब्द कोश निर्मित हुए । जैन आगम साहित्य पर इस प्रकार के कोश प्रथम बार ही सामने आये। सन् १९९० से आगम विषय कोश का कार्य प्रारम्भ हुआ। यह कोश जैन दर्शन के गंभीर चितन, अतीन्द्रिय दृष्टि और सूक्ष्म सत्यों की खोज का प्रतिनिधि ग्रन्थ बन गया है। इसका निर्माणकाल प्रारम्भ में जितनी कठिनाइयों में रहा, उतना ही निष्पत्तिकाल सुखद अनुभूतियों से भरा हआ है। इस कार्य में साध्वी विमलप्रज्ञा व साध्वी सिद्धप्रज्ञा ने श्रमपूर्ण साधना की है। मुनि दुलहराजजी उस साधना की सफलता के आरोहण में स्वयंभू सफल बने हैं। डॉ० सत्यरंजन बनर्जी भी समय-समय पर इसका निरीक्षण और परीक्षण करते रहे हैं समणी उज्ज्वलप्रज्ञा का प्रतिलिपि, परिशिष्ट आदि में पर्याप्त सहयोग रहा। साध्वी संचितयशा की प्रतिलिपि और यंत्रों के निर्माण में सहभागिता रही। यह 'श्रीभिक्ष आगम विषय कोश' कोश का प्रथम चरण है, प्रतीक्षा है अग्रिम चरणों की। वह दिन बहत उल्लासपूर्ण होगा जिस दिन कोश का समग्र रूप पाठक वर्ग के सामने प्रस्तुत होगा। तेरापंथ धर्मसंघ में यह एक नया उच्छवास है कि साध्वियां इस प्रकार के गंभीर ग्रन्थों का संग्रहण और सम्पादन कर रही हैं। जैन विश्व भारती लाडन १ सितम्बर १९९६ गणाधिपति तुलसी आचार्य महाप्रज्ञ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FOREWORD 1. This is an authentic dictionary of technical terms of Jainism, based on a limited number of books. The entries are very judiciously selected to give a comprehensive idea of the contents of the literature utilized, The translations given are very faithful and lucid. The reader can easily understand the meanings of the technical terms, and get inspiration for further thought on the ideas in allied systems. While going through the dictionary, I was specially impressed by some entries, and inspired to write comparative notes on cakravartin. deva, tirthankara, samjñā, śrutajñāna, bhāṣā and karana. 2. The concept of cakravartin in Jainism, as explained in the dictionary, has interesting features that are comparable to their counterparts in Buddhism and Hinduism. The ideas of the Buddhists concerning the miraculous cakra, and the part it plays in the success of the cakravartin, are well illustrated in passages occurring in several Pali Sutras and in the Lalitavistara. The latter describes it as follows: "For the anointed Ksatriya King, the mighty and auspicious wheel appears in the east: a wheel comprising a thousand radii ornamented with gold works, of the height of seven palm trees... When the majestic wheel proceeds in its aerial course towards the east for the promotion of prosperity, the cakravartin rajā follows it with all his army, and wherever it halts, there he likewise halts with all his forces. Thereupon all the provincial rājās of the east receive him with offerings of silver dust in golden vessels...... saying, "Hail, O Deva ! thou art welcome; all these are thine-this rich, extensive...... populous kingdom thou hast earned it; may it ever continue thine...... The anointed Ksatriya King and lord should then address them: "Virtuously rule ye these provinces, destroy not life; act not fraudulently." It is sinful to conquer him who sues for mercy. Thus, when an anointed Ksatriya King has conquered the east, bathing in the eastern sea, he crosses the same. When the wheel, having crossed the eastern sea proceeds southward, he follows it with the army, and like unto the east, conquers the south; and, as the south, so does he conquer the west and the north; then bathing in the northern sea, returns to his metropolis, and sits as an invincible monarch in the inner recesses of his palace. Thus does a cakravartin rājā acquire the cakraratna, or the jewel of a wheel”. In the same way the cakravartin attains to the six remaining ratnas, viz. elephant, the horse, the jewel (which changes night into day). the wife, the steward, and the general. The idea of a universal monarch is very ancient in India. Famous kings of old are said, after their anointing, to have conquered the earth and then to have offered the aśvamedha. A king who is acknowledged by the other kings as lord paramount is, in ancient literature, called a samrāj. The word cakravartin first occurs in the Maiträyana Upanișad (Encyclopedia of Religion and Ethics, S.V. chakravarti). 3. In Jainism the human beings by their hard austerity (tapascarya) aitain to life in heaven. The hard austerity contains elements of meditation which, however, are difficult to Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25 Foreword discern. Consequently the popular impression is that meditation did not play any vital role in attaining celestial life according to Jainism. In the Buddhist and Patañjala Yoga traditions we find a very clear statement of the vital role of meditation for birth in heaven. In Bnddhism, there are four bhümis (Abhidhammatthasargaho, Chapter V), viz. apāya bhūmi, kāmasugati bhūmi, rūpāvacarabhumi and arüdāvacara bhūmi. The infernals, animals, pretas and asuras constitute the apāya bhūmi. The kamasugati bhūmi consists of the humans, catummahārājikā, tāyatimsa, yāmā, tusita, nimmănarati, paranimmitavasavatti, all of whom owe their status of men and gods due to their good works in life, meditation not playing any important role in their career. The rūpāvacara and arūpāvacara bhūmt comprise gods in the heaven who attain these states on account of their practice of meditation as human beings. Their mental make-up is strictly in accordance with the states of meditation that they attained in human life. The rūpāvacara gods fall in sixteen categories, such as, brahmapärisajja, brahmapurohita, mahābrahma, abhāssara, asaññasatta, suddhāvāsa etc. In the arūpāvacara bhūmi there are four categories of gods who are the highest in the Buddhist pantheon. In the Pātañjala Yoga Bhāşya (3.26) there are six categories of Mahendra gods, viz. tridaśa, agnişvātta, yāmya, tuşita, aparinirmita-vaşavarti and parinirmita-vaśavarti, who are of the kāmasugati level, to use a Buddhist term. These gods are saṁkalpasiddha and endowed with animădi aisyarya. Higher than these are the prājāpatya gods, viz. kumuda, rbhu, pratardana, añjanābha and pracitábha, who attain their respective staies because of their control of the mahābhūtas through meditation. Higher than these are the gods of the janaloka who are in control of their sense-organs, comprising Brahmapurohita, Brahmapāyika, etc. Higher than them are the gods of the tapolaka who include abhāsvara, mahābhāsvara and satyamahabhāsvara, aitaining their status due to higher kind of meditation that endow them with the control over tanmātras. Still higher are the four categories of gods of the satyaloka, viz. acyuta, śuddhanivāsa, satyabha and samjñāsamjñi, who have control over pradhana. Out of these four, the acyutas enjoy the pleasure of savitarka meditation, the suddhanivāsagana, the pleasure of ānandamátra meditation, and the samjñāsarjñigāņa the pleasure of asmitāmātra meditation. The videhagana and prakstilaya. gana enjoy the state of liberation during their states of meditation. The Jaina concept of tapascaryā as the condition of heavenly status can be compared with the Mahābhārata view embodied in the following verse : yakşa-rākşasa gandharvāḥ siddhāścānye divaukasah | samsiddhāstapasā tāta ye cânye syargavāsinaḥ // (Sāntiparva 295/16) 4. The concept of tirthankara has found a comprehensive representation in the dictionary. The tīrtharkaras, unlike Buddhas in Buddhism, were never deified, though identified with Buddha, Sankara, Brahma and Vişņu with respect to the latters' qualities, as in the following hymn io Rşabha in the Bhaktāmara-stotra : buddhastvameva vibudhārcitabuddhibodhät tvam sarkarosi bhuvanatrayasankaratvät/ dhātasi dhira śivamārgavidher vidhänāt vyāktam tvameva bhagavan puruşottamosi // Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Foreword १९ In the Cauvisatthao we find the following prayers for beneficence and spiritual eleva tion titthayara me pasīyantu; samīhivaramuttamam dintu, siddha siddhim mama disantu. The commentator here explains that these are not prayers, but expression of devotion which leads to the decaying of karma stored up in the past. Jainism, however, did not remain static. In the words of R. Willams, "the changelessness of Jainism is no more than a myth. Admittedly there have been no spectacular changes in basic assumptions such as there were, for example, in Mahayana Buddhism. At most there have been variations in emphasis. Had Jainism, as at one time must have seemed possible, become a majority religion in Southern India some thing akin to a Digambara Mahayana might, with continuing favourable circumstances, have emerged. But all that But all that can be detected today are the traces of aborted development: thus in Ratna-karanda, the devādhīdeva is apostrophized as the annihilator of Kamadeva who seems from the context cast for the role of the Buddhist Mara. But whilst the dogma remains strikingly firm the ritual changes and assumes an astonishing complexity and richness of symbolism. From implying merely the feeding of religious mendicants the duty of dana comes to mean the provision of rich ecclesiastical endowments and, amongst the vetämbaras, the monk is no longer, except in theory, a homeless wanderer. It is recognized that he needs comfort, shelter, warmth to enable him to concentrate on study. The Yatra ceases to be a mere promenading of the idols through the city on a festival day and comes to denote an organized convoy going on pilgrimage to distant sacred places. And all the time more and more stress is being laid on the individual's duties to the community" (Jaina Yoga, pp. Xix-xx). 5. Samjñā as intelligence is due to the elimination-cum-suppression of the knowledge-covering karma whereas samjñā as an impulse or instinct is due to the rising of the conduct-deluding karma. Samjñā as intelligence is the common feature of all classes of living beings. The five classes of one-sensed beings possess aha-samfñd. The beings possessing two sense organs possess hetusamjñā. The denizens of heaven and hell as well as beings born of womb possess kāliki-samjñā. The samfña of the samyagdrsti chadmastha is drstivada-samjñā. The kevalins (omniscient beings), however, are free from the function of matijñāna and as such are beyond samjiä. Samjña as impulse or instinct has fourteen varieties: dhara. bhaya, malthuna, parigraha, krodha, mäna, māyā, lobha, loka, ogha, sukha-duhkha, moha, vicikitsä and dharma. The first eight are predominently impulses. the next two are of the nature of intuition. The last four are concerned with feeling, delusion and instinct. Here a reference to the concepts samjil and asamfit will not be irrelevent. Asamjña does not mean total absense of samjha, but only an indistinct presence of it. The capacity by which one remembers the bygone past and ponders over the coming future is dirghakaliki (or simply käliki) samfñd. Only those who have mind can possess this capacity. A being possessing this samfña enjoys the capacity for the utilization of all the sense-organs including mind. The human beings as well as the sub-human beings born of wombs (garbhaja) possess this samjña. The five-sensed sammurchanaja beings possess this capacity Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० Foreword in a very small measure and as such are regarded as asamjñins in comparison with those possessing a developed capacity. Those beings who can discriminate between the desirable and the undesirable and can act accordingly for maintenance of their bodies, but cannot think on the past or future are called hetuvāda-samjñins. The beings having two or more sense-organs are included in this category. The comparatively inactive one-sensed organisms such as the earth-bodied beings are called asamjñins in comparision with the organisms possessing two or more sense-organs. Now we come to the drstivādopadefiki samjñā. A being having right faith and possessed of knowledge due to elimination-cum-suppression of karmic veil is called samjñin from the viewpoint of drsti (faith) and such being having wrong faith is called asamjñin. A being possessed of perfect knowledge born of complete elimination of knowledge-covering veil is not samjñin because he, being omniscient, cannot possess the function of recollection and pondering of future, which constitute samjñā. A being having wrong or perverted faith is mithyādrsti and is also called asamjñin, because his samjñā is, from the viewpoint of drsti fajth), perverted or misplaced. Sämjñā as intelligence and instinct is present in all living beings. The Jaina thinkers held that a soul could never (except when it his attained perfect knowledge) be bereft of mati (sensuous) and śruta (verbal) knowledge, wbich are intimately connected with samjñā. Even the one-sensed organisms, which are the least developed beings, are beld to be possessed of these. To be bereft of these is to lose the nature of soul and become nonsoul. Now, the one-sensed organism has the feeling of touch and so can have matijñana (sensuous cognition), but how can it possess śruta-jñāna (verbal knowledge)? This is a difficult problem to answer. Jinabhadra says that although the one-sensed organisms do not possess dravya-śruta (symbols-written or spoken) they possess bhāya-śruia (potential verbal knowledge) which can be likened to the verbal knowledge of a sleeping ascetic (yati). But even bhāva-śruta is possible only with those who have the capacity to speak and to hear and with none else, and it is nothing but the mental disposition that precedes a speech or follows a hearing. And as such how can it be possible for the one sensed organisms who have neither the capacity to speak nor the capacity to hear ? Jinabhadra answers th's objection as follows: Even as subtle internal sensuous cognitions are possible in spite of the absence of the external physical sense-organ, so 'potential verbal knowledge' is possible even for (the one-sensed) such as the earth-bodied (beings) in spite of the absence of dravya-śruta. It is admitted that the one-sensed organisms have neither the tongue to speak nor the car to listen, nor have they any symbols of their own. But nevertheless, according to the Jaina thinkers, the one-sensed organisms are capable of potential verbal thinking. Though we are unable to know the exact nature of the process of their thinking. yet we can have some inkling of its nature by the consideration of the external activities of the one sensed organisms The Brhadvrtti on Vibh, 103 gives a number of instances from the plant world to prove by inference that even the one-sensed plants can hear sound, see colour, smell odour and experience taste, and says that as in these cases the sensuous functions are carried out by the internal capacity of the organisms even in the absence of the external sense-organs so also there can be possible the existence of bhāva-śruta in the Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Foreword २१ absence of dravya-iruta. Dravya-fruta is the exponent of thinking while bhava-fruta is such thinking itself. The question whether thinking without language is possible is the upshot of our enquiry. The Jaina scriptures recognize ten instincts (sañña) in the onesensed organisms-such as the instincts of hunger, fear, sex attraction, possession etc. The famous commentator Malayagiri maintains that the instinct is a kind of desire and quotes a passage from the Avasyakațikä, which says that the instinct for food means 'desire for food', which is born of the feeling of hunger, and is a particular disposition of the soul. He further maintains that a desire is a determinate willing for the acquisition of the object of desire. It is of the form 'such and such object is wholesome for me; it will be good if I can secure it'. Of course, in the case of one-sensed organisms the desires are not couched in articulate language. But nevertheless, they must have some sort of instrument for their formation. This leads us to the postulation of a peculiar capacity of the soul, This capacity is called bhava-fruta. It was stated that samjñā as an impulse or instinct is due to the rise of conductdeluding karma and that it had fourteen varieties: ahara, bhaya, maithuna, parigraha, etc. There are definite conditions that generate these instincts. For instance, the āhāra instinct is produced by the kṣudhavedaniya karma, bhaya by bhaya-mohanlya karma, malthuna by veda-mohaniya karma, parigraha by lobha-mohaniya karma. The instincts of krodha, māna, maya, and lobha are respectively due to attachment to kshetra (land), västu (landed property), sarira (body) and upadhi (belongings). The instinct of ogha is general sensation, common sentience irrespective of senses and the mind. The loka-samjñā is an instinct concerned with popular notions like 'a man without progeny has no future prospects in life hereafter.' 6. Śrutajñāna which originally meant 'scripture' gradually came to mean any symbol, written or spoken, and finally was even identified with inarticulate verbal knowledge. This development of meaning is not, stricity speaking, chronological. It is the gradual subtlety of speculation that is responsible for this development. The selfsame thinker could have started from the conception of fruta as scripture and reached the conception of fruta as inarticulate verbal knowledge. The speculations recorded in Jaina scriptures on this subject are so rich, subtle and varied that it is difficult to ascertain the original contribution of the later Jaina authors. Almost every idea can be traced in the scriptures in some form or other 7. Sound in Jainism is not the quality of akasa as conceived in the Nyaya-Vai esika philosophy. It is made of material clusters like our body. We take in the material cluster of sound and release it back to produce sound. Bhāsā or speech accordingly is made of material clusters. The velocity of material clusters that are released by our speech is tremendous. Those clusters reach the border of the cosmos in one time unit. The velocity thus is limitless, Sound is of two kinds, linguistic and non-linguistic. Linguistic sound can be further categorized into articulate and inarticulate. The articulate variety is the lore composed in the Aryan and non-Aryan languages. The inarticulate variety is apparent in the extra-ordinary faculties of animals with two or more senses, for instance, the abilities of Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ Foreword animals to know that there is going to be rain and to behave appropriately before its fall. Both linguistic varieties are made by effort. Non-linguistic sound is also of two varieties, that which is natural and that which is made by effort. The natural one is illustrated by thunder, the sound of clouds colliding. The variety that is made by effort is fourfold: (1) sound produced by instruments made of hide, eg. drum; (2) sound produced by stringed instruments, eg. sitar, (3) sound produced by metal instruments, eg. cymbals, (4) sound produced by wind instruments, eg, flutes, couches. 8. There are three karanas: yathapravṛtti, apurva and antvrtti. Every soul has the first which is eternally active. A karana is an urge or an activity to eliminate karma The last two karanas (kriyate karmakṣapanam aneneti karaṇam, sarvatra jivapariņāma ucyate) are not possible in reprobate souls which will never attain liberation By means of apūrvakaraṇa, the soul succeeds in considerably reducing the duration (sthiti) and potency (rasa) of the karma, which he could not in the past, and as such it attains an unprece dented (aparva) state of spiritual elevation. By means of the third karana. viz. the anivṛtti (literally, not subject to retardation) the soul ensures its spiritual progress which is now. unamenable to any set-back and dead sure in achieving liberation. There is always a tendency in the soul to run away from the circle of worldly existence, But this centrifugal tendency is thwarted by a centripetal force that keeps the soul tracing the circumference of the world process. The centripetal force consists in the passions of attraction (räga) and repulsion (dveja) or rather their root viz. perverted attitude (mithyatva) towards truth. The centrifugal tendency is that part of the charac teristic potency of the soul which still remains unhindered or unobstructed. It is this centrifugal tendency that ultimately leads the soul to the right path. The problem why. should this tendency develop into a patent force in one soul, and remain only a dormant virtue in another' is not regarded as neediag solution. It is a fact of common experience that different individuals have different degrees of power manifest in them. And this is an ultimate fact of experience incapable of being accounted for by further ultimate facts. The soul, during the course of its eternal wanderings in various forms of existence, sometimes is possessed of an indistinct vision of its goal and feels an impulse from within to realize it. This impulse is the work of the eternal centrifugal tendency already mentioned. The impulse is a kind of manifestation of energy, technically known as yathāpravṛttakarṇa. It is not always effective, and so does not always invariably lead to spiritual advancement. But sometimes it is so strong and irresistible that it goads the soul to come to grips with the centripetal force and to weaken it to an appreciable extent in the struggle that ensues. Here the soul is face to face with what is known as granthi or the Gordian knot of intense attachment and repulsion. If the impulse is strong enough to cut the knot, the soul is successful in the struggle and is now bound to be emancipated sooner or later within a The struggle consists in the two fold processes known as apurvakarana and anivrttikarana (also known as anivartikarana). 9. The dictionary contains many entries which throw light on problems of epistemology, ontology and logic. The entries on Ganadharas. Nihnavas, etc., are representatives of Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Foreword २३ many other aspects of Jainism that are important for the history of the Jain order. The two appendixes reveal the stupendous labour and ingenuity of the editors 10. The editors Sadhvi Vimalprajñā and Sadhvi Siddhaprajñā had before them the very difficult task of selecting appropriate technical terms, giving their precise definitions and providing systematic details spread over a vast mass of unorganized poorly edited literature Most creditably they fulfilled that onerous task for which they deserve all praise and appreciation. The guiding spirit behind the excellent dictionary is Muni Dulaharajji who is a silent worker commanding complete mastery over the technicalities of Jaina exegetical literature composed in difficult Prakrit and Sanskrit languages. He guided in the past the editing of many other dictionaries of equal importance and merit, and is at present engaged in editing the momentous work Shri Bhikshu Manākávyam' written in elegant Sanskrit by the late Muni Nathmalji of Bagor. I wish such dictionaries should be compiled also on other sections of Jain literature for offering to the world of researchers in Jainism comprehensive source books for comparative studies in Jainism and allied disciplines. - Nathmal Tatia Ladnun 1.9.96 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपादकीय योगक्षेम वर्ष सम्पन्न हुआ । सन् १९९० में आगम कार्य के अन्तर्गत सभी आगमों के विषयकोश की योजना बनाई गई । पूज्य गुरुदेव तथा आचार्यप्रवर ने डॉ० सत्यरंजन बनर्जी के समक्ष इस योजना की चर्चा की। उन्होंने इस उपक्रम की सराहना करते हुए कहा कि इसकी क्रियान्विति के लिए अनेक व्यक्तियों की अपेक्षा है। डॉ. बनर्जी तथा मुनिश्री महेन्द्रकुमारजी ने कोश का प्रारूप बनाया-प्रत्येक मूल विषय का प्राकृत शब्दरूप, संस्कृत रूपांतरण, रोमन स्क्रिप्ट में उसका अवतरण, हिन्दी और अंग्रेजी में अर्थ, विषय से संबद्ध ससंदर्भ मूलपाठ का उद्धरण और उसका हिन्दी अनुवाद । पूज्य गुरुदेव एवं आचार्यप्रवर ने इस कार्य के लिए हमें नियोजित किया। कार्य प्रारम्भ हुआ। लगभग दो वर्ष तक यह कार्य चला । अनेक उतार-चढ़ाव आये। सम्यग् अवगति के अभाव में, भटकाव की-सी स्थिति में गति होती रही। डॉ० बनर्जी का परामर्श रहा कि सब ग्रन्थों को एक साथ न लेकर उन्हें खंडों में विभक्त कर दिया जाए तो कार्य भी होता रहे और उसकी फलश्रुति भी सामने आती रहे। एक दिन संगोठी हई और पूज्य गुरुदेव तथा आचार्यप्रवर ने निर्णायक स्वर में यह निर्देश दिया कि समस्त आगमों के विषयकोश के अन्तर्गत प्रारम्भ में तुम पांच आगमों (आवश्यक, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, नन्दी और अनुयोगद्वार) का विषयकोश तैयार करो। इससे दिशा स्पष्ट हो जाएगी और अन्यान्य आगमों के विषय-चयन में सुविधा होगी तथा यह कार्य समुचित काल में सम्पन्न भी हो जाएगा। सन् १९९२ में हमने यथानिर्देश पुनः कार्य प्रारम्भ किया। एक दिन हम आचार्यप्रवर की सन्निधि में बैठी थीं। आचार्यप्रवर ने कार्य की अवगति ली। हमने निवेदन किया सम्यक दिशादर्शन के अभाव में हमें इस कार्य से संतोष नहीं है। तत्काल आचार्यप्रवर ने परम अनुग्रहपूर्वक सप्ताह में दो दिन इस कार्य के लिए निर्धारित किये। उस कालांश में मूल पाठ, अनुवाद, विषय और उपविषय से संबंधित समस्यायें सुलझाई जातीं । आचार्यप्रवर की सन्निधि में हमारी दृष्टि भी स्पष्ट होती चली गई। सन् १९९४, सुजानगढ़ महोत्सव के बाद पूज्य गुरुदेव और आचार्यप्रवर ने दिल्ली यात्रा के लिए प्रस्थान किया। मुनिश्री दुलहराजजी का लाडनं आना हआ। वे आचारांग भाष्य के कार्य में संलग्न थे। पूज्य गुरुदेव और आचार्यप्रवर ने हमें उनके दिशा-निर्देशन में कार्य करने की अनुज्ञा प्रदान की। हम उनकी कार्य शैली से पूर्व परिचित थीं । देशी शब्दकोश, निरुक्त कोश और एकार्थक कोश उनके निर्देशन में ही सम्पादित किए गए थे। हमने पूज्य गुरुदेव एवं आचार्यप्रवर द्वारा निर्दिष्ट कोश कार्य की बात उन्हें कही। उन्होंने कार्य प्रणाली की अवगति ली और सहयोग की स्वीकृति दी। कार्य तो चल ही रहा था, अब उसमें गति आ गई। विषय का निर्धारण कर हम निर्धारित पांच आगमों तथा उनके व्याख्या ग्रन्थों का अनुशीलन करतीं और जहां जैसी सामग्री मिलती, उसकी उपयुक्तता के आधार पर उसका संग्रहण हो जाता। एक ही विषय पर अनेक ग्रन्थों में समान या असमान सामग्री मिलती, तो हम अपनी मति से ग्राह्य-अग्राह्य का निर्णय कर, ग्राह्य का मूल पाठ (प्राकृत या संस्कृत) संग्रहीत कर, उसका उपबिंदुओं के आधार पर विभाजन और हिन्दी में अनुवाद कर यथास्थान योजित कर लेती। यह कार्य दुरूह था। एक ही विषय की जानकारी के लिए अनेक व्याख्याग्रंथ पढ़ने होते और वहां उस विषय के जो नए तथ्य प्राप्त होते, उन्हे संकलित कर लिया जाता। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपादकीय विषयकोश की पद्धति : एक परिचय शब्दकोश शब्दों के अर्थ और प्रयोग देते हैं । कुछेक कोश शब्दों के मूल स्रोत की जानकारी भी देते हैं। प्रस्तुत कोश आगम विषय कोश है। इसमें शब्दकोश की भाति प्रत्येक शब्द का अर्थ नहीं है, किन्तु विषयों का संकलन और उनकी विस्तृत विवेचना है। यह संपुर्ण आगमों का संग्राहक नहीं है, मात्र पांच आगमों के मुख्य-मुख्य विषयों का संग्राहक है। प्रस्तुत कोश में पांच आगम और उनके व्याख्या-ग्रंथों का समवतार किया गया है। वे आगम और व्याख्या ग्रन्थ ये हैं (१) आवश्यक-आवश्यक की नियुक्ति, चूणि (दो भाग), हारिभद्रीया वृत्ति (दो भाग), मलयगिरीया वृत्ति । विशेषावश्यक भाष्य (दो भाग) और उसकी मलयधारीया वृत्ति। कहीं-कहीं कोट्या चार्य की वृत्ति का भी उपयोग किया गया है । (२) दशवकालिक-दशवकालिक की नियुक्ति, भाष्य, अगस्त्य चणि, जिनदास चणि और हारिभद्रीया वत्ति । उत्तराध्ययन --उत्तराध्ययन की नियुक्ति, चूणि, शान्त्याचार्य की बृहद्वृत्ति और नेमिचन्द्र की सुखबोधा वृत्ति । नन्दी--नन्दी की चूणि, हारिभद्रीया वृत्ति और मलयगिरीया वृत्ति। कहीं-कहीं श्रीचन्द्रसूरिकृत टिप्पणक का भी उपयोग किया गया है। अनुयोगद्वार - अनुयोगद्वार की चूणि, हारिभद्रीया वृत्ति और मलयधारीया वृत्ति । इनके अतिरिक्त ओधनियंक्ति और पिडनिर्यक्ति का भी उपयोग किया गया है। लगभग ११००० पृष्ठों वाले इस विपुल साहित्य के सभी विषयों को हमने नहीं छआ है । इस कोश में १७८ विषयों का अकारादि क्रम से अंकन किया गया है। सर्वप्रथम गृहीत विषय का शब्दार्थ बताकर उसमें विवेचित बिंदुओं की सूची दी गई है। इससे पाठक दष्टिपात में ही विषयगत महत्त्वपूर्ण बिंदुओं की सूचना मिल जाती है। जैसे “आभिनिबोधिक ज्ञान मूल विषय है । उसमें उसका निर्वचन, परिभाषा, पर्याय, भेद-प्रभेद आदि बिंदुओं का विवेचन है। शब्द को अन्य शब्दों से संबद्धता (cross reference) ___ जहां एक शब्द दूसरे शब्द से संबद्ध है, वहां उस शब्द का विवेचन एक उपयुक्त स्थान पर कर, दूसरे स्थान पर उसकी संबद्धता सूचित कर दी गई है। इससे पाठक को उस शब्द की पूर्ण विवेचना उस सबद्ध स्थान के समाकलन से मिल जाती है । हमने इसके माध्यम से शताधिक शब्दों की संबद्धता सूचित की है। इसका एक लाभ यह भी है कि एक शब्द दूसरे शब्द के साथ किस प्रकार, कैसे, क्यों संबद्ध है, इसका ज्ञान होता है तथा अत्यधिक पुनरावर्तन से विराम मिल जाता है । हमने इस पद्धति में 'द्र०' (द्रष्टव्य) का प्रयोग किया है। जैसे .... अश्रुत निश्रित मति के प्रकार (द्र० बुद्धि)। इसका तात्पर्य है कि मूल विषय 'बुद्धि' के अन्तर्गत अश्रत-निश्रित मति के प्रकारों की अवगति प्राप्त हैं। . जो विषय अधिक विस्तृत हैं, उनके भेदों में कहीं सभी को, कहीं कुछ भेदों को स्वतंत्र विषय के रूप से ग्रहण किया है । जैसे अस्तिकाय में पुद्गल और जीव-ये दो भेद स्वतन्त्र रूप से गहीत हैं। ज्ञान के सभी (पांच) भेद स्वतंत्र विषय के रूप में गहीत हैं। क्रॉस रेफरेन्स के द्वारा मूल विषय के साथ उनकी संबद्धता घोतित कर दी गई है। ० जो महत्त्वपूर्ण पारिभाषिक शब्द अपने मूल विषय में व्याख्यात हैं, उन शब्दों को स्वतन्त्र रूप से ग्रहण Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपादकीय कर केवल उनका शाब्दिक अर्थ दिया है और शेष जानकारी के लिए द्रष्टव्य (द्र०) लिखकर उसकी सूचना दी गई है। जैसे--अवग्रह (द्र० आभिनिबोधिक ज्ञान)। अन्य ज्ञातव्य तथ्य जहां मूल पाठ की लम्बी संलग्नता थी, वहां उसे अनेक उपशीर्षकों में बांट दिया गया है। जैसे भिक्ष कौन ? इसका पूरा विवरण दो अध्ययनों (उत्तराध्ययन १५ और दशवकालिक १०) में है। उसे विभिन्न उपबिन्दुओं में विभक्त कर यथास्थान योजित किया गया है। इससे वह विषय विशद और सहज बुद्धिगम्य बन गया है। . कहीं-कहीं निर्यक्ति अथवा भाष्य की गाथाओं का संग्रहण कर विषय की विशदता के लिए चूणि अथवा वृत्ति के आधार पर उनका विस्तृत अनुवाद दिया गया है और अन्त में उसके संदर्भ-स्थल का निर्देश भी कर दिया गया है। जैसे ---आत्मा (आत्मा की अस्तित्व सिद्धि), तीर्थकर (संगम के उपसर्ग), बाहबली आदि । ० अपूर्ण पाठ को हमने...."इन बिन्दुओं से द्योतित किया है। • व्याख्या ग्रंथों में कुछेक विषय ऐसे हैं, जिनमें सभी मनीषी एक मत नहीं हैं । उन विषयों की खंडनमंडनात्मक चर्चा यत्र-तत्र उपलब्ध है। हमने इस जटिलता को प्रस्तुत कोश में स्थान नहीं दिया है। परिशिष्ट २ में इन विषयों के संदर्भो का सकेत कर दिया गया है, जिससे जिज्ञासु पाठक वहां उनको समग्रता से देख सके । ० कुछेक जैन पारिभाषिक शब्दों का इन निर्धारित ग्रन्थों में विवेचन नहीं है हमने उन शब्दों का संग्रहण कर उनकी मात्र परिभाषा, अर्थबोध अथवा सामान्य विवरण दिया है। जैसे--अस्पृशद्गति, ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी आदि । इसी प्रकार कुछेक शब्दों की अतिसंक्षित्त जानकारी भी इसमें दी गई है, जैसे- काकिणी, छद्मस्थ, छविपर्य, भूतिप्रज्ञ आदि । बाहुबली, भरत, मरुदेवा, राजीमती आदि के संक्षिप्त जीवनवृत्त भी उल्लिखित हैं। ० शब्द के निर्वचन आदि में हमने प्राचीनतम स्रोत को उद्धृत करने का प्रयत्न किया है। जहां व्याख्या-ग्रंथों के भिन्न-भिन्न मत हों तो वहां हमने सभी को क्रमशः उल्लिखित किया है। जहां सभी एकमत हों वहां प्राचीन स्रोत को ग्रहण किया है। विषय की विवेचना में जहां कुछ एक भिन्नता के साथ सभी एक मत हों तो वहां स्पष्ट विवेचना को स्थान दिया है । इसमें गद्य-पद्य की सुबोधता का भी ध्यान रखा है। कुछेक व्याख्याकार एक ही विषय को क्लिष्टतम शब्दों में विवेचित करते हैं तो कुछ उसी विवेचना को सहज-सरल शब्दों में प्रस्तुत करते हैं। हमने सहज सुबोध उद्धरण को प्राथमिकता दी है। ० एक ही विषय की विवेचना में यदि व्याख्याकार कोई नई बात प्रस्तुत करते हैं तो हमने उस नए तथ्य को चाहे छोटा हो या बड़ा, समादृत किया है। __० अनुयोगद्वार तथा नन्दी-इन दो आगमों तथा उनके व्याख्या-ग्रन्थों में विवेचित अनेक विषयों का हमने प्रस्तुत कोश में इसलिए ग्रहण नहीं किया कि अभी-अभी ये दोनों ग्रन्थ आचार्य महाप्रज्ञ द्वारा सुसंपादित, विवेचित और विश्लेषणात्मक टिप्पणों से युक्त तैयार हए हैं। अनुयोगद्वार प्रकाशित हो चुका है और नन्दी प्रकाशनाधीन है। उनमें विवेचित अंशों को पुन: यहां उद्धत करने के बदले उन्हीं ग्रन्थों से उन विषयों की अवगति प्राप्त करने की सूचना दे दी गई है। . जिन विषयों की विस्तृत जानकारी सूयगडो, ठाणं, समवाओ आदि आगमग्रन्थों अथवा उनके टिप्पणों में है, उनका संबंध भी प्रस्तुत कोश के साथ यथास्थान जोड़ दिया गया है। जैसे--अवधिज्ञान के संस्थान (देखें-- भगवती ८।९७-१०३ का भाष्य), लेश्या (देखें-पण्णवणा पद १७), वाद (देखें -सूयगडो १।१२।१ का टिप्पण) । विषय की स्पष्टता के लिए कहीं-कहीं ससंदर्भ कथाएं भी उद्धृत हैं। जैसे--प्रतिक्रमण, बुद्धि, सामायिक आदि । परिशिष्ट १ में कथाओं का ससंदर्भ सकेत दिया गया है । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ संपादकीय पाठक की सुगमता के लिए जीवनवृत्त आदि से संबंधित आंकड़ों के यंत्र (चार्ट) कोश में संलग्न हैं । जैसे - कुलकर, गणधर चक्रवर्ती, तीर्थकर, लेश्या, वासुदेव । कहीं-कहीं स्थापनाओं और चित्रों का भी उपयोग हुआ हैं, जैसे—आनुपूर्वी, चारित्र ( अठारह हजार शीलांग), संस्थान, काकिणी, लोक, संख्या (पल्य) और संहनन । प्रस्तुत कोश में १७८ विषय संगृहीत हैं। पहला विषय है 'अंगप्रविष्ट' और अन्तिम विषय हैस्वाध्याय । कोश के अंत में दो परिशिष्ट हैं परिशिष्ट १ : इसमें लगभग ५०० कथाओं के संकेत हैं । इसके तीन विभाग हैं 1 प्रथम विभाग में कथाओ और दृष्टांतों का विषयगत विभाजन, कथा-संकेत और सन्दर्भ-स्थल निर्दिष्ट है । जो कथा जिस विषय के प्रसंग में आई है, उसे प्रायः उसी विषय के अन्तर्गत लिया गया है । जैसे—अनुयोग, एषणा, परीषह, बुद्धि, योगसंग्रह आदि । कहीं-कहीं विषयों का निर्धारण स्वतन्त्र रूप से भी किया गया है । जैसे - अंगुलि -निर्देश, अनुग्रह, अनुशासन, ईर्ष्या, जुगुप्सा, निर्जरा आदि । यदि एक ही कथा सब व्याख्या-ग्रंथों में है तो उन सबके संदर्भ ग्रंथ के कालानुक्रम से एक साथ दे दिये गये हैं । द्वितीय विभाग में तीर्थंकर, चक्रवर्ती, प्रत्येकबुद्ध, निह्नव, नगरों की उत्पत्ति --इनसे संबद्ध जीवनवृत्तों तथा घटनाओं के ससंदर्भ संकेत हैं । तृतीय विभाग में आचार्य, मुनि, राजा तथा अन्य प्रसिद्ध कथानायकों का अकारादि क्रम से ससंदर्भ नामांकन है । परिशिष्ट २ : प्रस्तुत परिशिष्ट में पांच आगमों आवश्यक, दशवेकालिक, उत्तराध्ययन, नन्दी और अनुयोगद्वार तथा इनके व्याख्या -ग्रन्थों -निर्युक्ति, चूणि, वृत्ति आदि में विश्लेषित दार्शनिक और तात्त्विक चर्चा स्थलों का ससंदर्भ संकेत है । कहीं-कहीं आचार सम्बन्धी विमर्श भी संगृहीत है । विषयों का संकेत एक - एक ग्रन्थ के अनुसार पृथक्पृथक् दिया गया है. इसलिए कुछेक विषयों की पुनरावृत्ति भी हुई है । कृतज्ञता के स्वर आगमपुरुष गणाधिपति पूज्य गुरुदेव एवं प्रज्ञापुरुष आचार्यप्रवर की सतत प्रेरणा, मार्गदर्शन एवं समाधान ने हमारा पथ प्रशस्त किया है। इन पूज्यवरों की तीव्र अन्तः अभीप्सा का ही एक पर्याय है - प्रस्तुत आगम विषय कोश | अन्य कुछेक कार्यों को गौणकर केवल इसी कार्य में प्रमुख रूप से संलग्न रहकर हमने इस अल्पकालावधि में यह कार्य सम्पन्न किया - यह सब महाश्रमणी साध्वीप्रमुखा श्रीकनकप्रभाजी के अनुग्रह की ही फलश्रुति है । इस कोश को समृद्ध और सुव्यवस्थित बनाने में अनन्य योग रहा है मुनिश्री दुलहराजजी का । व्यवहारभाष्य के निरीक्षण और समायोजन में तथा अन्य कार्यों में संलग्न होते हुए भी उन्होंने इस कोश में निष्ठापूर्ण सहयोग किया, उसी का परिणाम है कि यह कोश इतना शीघ्र प्रकाश में आ सका । कोश निर्माण की संपूर्ण पद्धति का अवबोध मिला डॉ० सत्य रंजन बनर्जी से । गणित से संबंधित विषयों में मुनिश्री श्रीचन्दजी एवं मुनिश्री महेन्द्रकुमारजी का सहयोग रहा। साध्वी संचितयशाजी ने प्रतिलिपि, चित्र एवं चार्ट बनाने में अपना पूर्ण श्रम एवं समय लगाया । समणी उज्ज्वल प्रज्ञाजी ने प्रतिलिपि प्रूफनिरीक्षण एवं परिशिष्ट निर्माण में अनन्य सहयोग किया। साध्वी अमृतयशाजी, साध्वी दर्शनविभाजी आदि साध्वियां, समणियां Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपादकीय एवं मुमुक्षु बहनें, जिनका इसमें यत्किचित् भी उल्लेखनीय सहयोग रहा, उन सबके प्रति मंगलभावना । डॉ. नथमल टाटिया ने कोशग्रन्थ का पारायण कर उस पर विद्वत्तापूर्ण भूमिका लिखी । उनके प्रति हमारी मंगलभावना । प्रस्तुत कोश में जिनकी कृतियों का हमने उपयोग किया है, उन सबके प्रति आभार ज्ञापन । इस कोश निर्माण में हम यत् किंचित् योगभूत बन सकीं - यह हमारा परम सौभाग्य हैं और उसकी पृष्ठभूमि में वरदहस्त रहा अनुपम त्रिमूर्ति का - गणाधिपति पूज्य गुरुदेव, आचार्यप्रवर एवं महाश्रमणीजी । अनुग्रह से हमारी श्रुतमयी संयमयात्रा विविध आयामों को उद्घाटित करती हुई निर्बाध गति से चले - यही आशंसा है। ऋषभद्वार लाडनूं १-९-९६ २९ साध्वी विमलप्रज्ञा साध्वी सिद्धप्रज्ञा Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ- परिचय' १. आवश्यक साधु और श्रावक के लिए यह अवश्य करणीय है, इसलिए इसका नाम आवश्यक है । यह एक श्रुतस्कन्ध है । इसके छह अध्ययन और प्रत्येक अध्ययन का एक-एक अधिकार विषय-वस्तु है १. सामायिक सावद्ययोग विरति । २. चतुर्विंशतिस्तव - उत्कीर्तना । ३. वंदना - गुणवान् की प्रतिपत्ति । ४. प्रतिक्रमण - स्खलना की निंदा | ५. कायोत्सर्ग - व्रण - चिकित्सा । ६. प्रत्याख्यान - गुणधारण । संभव है भगवान् पार्श्व के समय तक एक सामायिक आवश्यक था और उसे षडावश्यक का रूप भगवान् महावीर के शासन में मिला । षडावश्यक के विषय का प्रतिपादन महावीर ने किया और उसका सूत्र रूप में गुम्फन गणधरों ने किया। इसके मुख्य रूप में नौ व्याख्या ग्रन्थ हैं १. आवश्यक निर्युक्ति ६. आवश्यक नियुक्ति दीपिका २. आवश्यकभाष्य ७. आवश्यकवृत्ति ३. आवश्यकचूर्ण ४. आवश्यक हारिभद्रीया वृत्ति ५. आवश्यक मलयगिरीया वृत्ति ८. आवश्यक विवरण ९. आवश्यक टिप्पणकम् नियुक्ति और निर्मुक्तिकार आगम की मूलस्पर्शी पद्यात्मक व्याख्या निर्युक्ति कहलाती है । व्याख्या साहित्य में नियुक्ति सर्वाधिक प्राचीन और प्रथम व्याख्या है, सूत्रों की अनंतर व्याख्या है। नियुक्तिकार आचार्य भद्रबाहु हैं - यह सर्वसम्मत है । वे प्रथम हैं अथवा द्वितीय- इसमें मतैक्य नहीं है । उत्तराध्ययननिर्युक्ति, पिण्डनिर्युक्ति और ओघनियुक्ति की वृत्तियों में चतुर्दशपूर्वी भद्रबाहु प्रथम को निर्मुक्तिकार कहा गया है । fig दशकालिक नियुक्ति (५५) और अगस्त्यसिंह की चूर्णि के स्पष्ट उल्लेख के आधार पर चतुर्दश पूर्वी भद्रबाहु नियुक्तिकार नहीं ठहरते ( आगमकोश पृ ३८९ ) । यह बहुत संभव है कि प्राचीन काल में लघुकाय नियुक्तियां रही हों और उनके कर्त्ता भद्रबाहु प्रथम रहे हों । उत्तराध्ययननियुक्ति (१२३) में आर्य आषाढ का प्रसंग यह प्रमाणित करता है कि नियुक्तिकार आचार्य भद्रबाहु द्वितीय हैं । उनका अस्तित्व काल विक्रम की पांचवीं छठी शताब्दी है । दशाश्रुतस्कंधनियुक्ति और पंचकल्पनिर्युक्ति में चतुर्दशपूर्वी भद्रबाहु को नमस्कार किया गया है । उत्तराध्ययननियुक्ति गाथा २३३ में कहा गया है कि पदार्थों का सम्पूर्ण और विशद वर्णन तो केवली और चतुर्दशपूर्वी ही कर सकते हैं ? १. प्रस्तुत कोश में प्रयुक्त पांच आगम तथा उनके व्याख्या - ग्रन्थ | Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ ग्रन्थ-परिचय आवश्यकनियुक्ति आचार्य भद्रबाह द्वितोय (वि. छठी शताब्दी) ने आवश्यक नियुक्ति का प्रणयन किया। सामायिक आदि छह विभाग वाले आवश्यक सूत्र की यह प्राकृत भाषा में प्रथम पद्यबद्ध व्याख्या है। इसकी १६२३ गाथाओं में विविध विषयों का समाकलन है। इसके प्रारंभ में उपोद्घात है, जिसमें पांच ज्ञान, सामायिक, ऋषभ और महावीर का जीवन-चरित्र, गणधरवाद, आर्यरक्षित-चरित्र तथा निह्नवमतों का विशद विवेचन है। उपोद्घात के पश्चात् नमस्कार, चतुर्विशति स्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग, प्रायश्चित्त, ध्यान, प्रत्याख्यान आदि की निक्षेप-पद्धति से व्याख्या की गई है। प्रतिक्रमण के प्रसंग में नागदत्त, महागिरि, स्थलभद्र, धन्वन्तरी आदि ऐतिहासिक पुरुषों के निदर्शन दिये गये हैं। चूर्णि इसमें नियुक्ति के सभी विषयों का विस्तृत विवेचन है । यत्र-तत्र विशेषावश्यकभाष्य-गाथाओं की भी व्याख्या की गई है। इसमें ओघनियुक्ति चूणि, गोविंदनियुक्ति, वसुदेवहिंडि आदि ग्रंथों का उल्लेख है । यह प्राकृत में है, किन्तु इसमें संस्कृत के अनेक श्लोक उद्धत हैं । विषय-विस्तार और ऐतिहासिक आख्यानों का यह दुर्लभ दस्तावेज है। सभ्यता एवं संस्कृति की महत्त्वपूर्ण सामग्री इसमें उपलब्ध है। जिनदासगणिमहत्तर कृत यह चणि अन्य सभी चणियों से विशाल और दो भागों में प्रकाशित है। मुद्रित चणि के अनुसार इसका ग्रंथान १९ हजार श्लोक परिमाण है। हारिभद्रीया वृत्ति इसके कर्ता आचार्य हरिभद्र (वि. ८-९ शताब्दी) हैं। इसमें नियुक्तिगाथाओं का विस्तृत विवेचन है । यत्र-तत्र भाष्य गाथाओं का उपयोग भी किया गया है। इसमें प्राकृत भाषा में अनेक कथानक उद्धत हैं। यह शिष्यहिता वृत्ति २२००० श्लोक प्रमाण है । मलयगिरीया वृत्ति यह आवश्यकनियुक्ति की अपूर्ण वृत्ति ही उपलब्ध है। १०९९ नियुक्ति गाथाओं की यह वृत्ति तीन भागों में प्रकाशित है। सरस एवं सुबोध भाषाशैली में गुंफित इस वृत्ति में प्रज्ञाकरगुप्त, आवश्यक चूर्णिकार, मूल टीकाकार, मूल भाष्यकार, अकलंक, न्यायावतारविवृतिकार आदि का उल्लेख है। वृत्ति के समर्थन के रूप में विशेषावश्यक भाष्य की गाथाएं उद्धत हैं। प्राकृत में अनेक कथानक भी हैं। आवश्यक चणि और दोनों वृत्तियों में अनेक ऐतिहासिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक तथ्यों का समाकलन है। पूर्वो के बारे में भी अनेक नवीन तथ्य उजागर हुए हैं, जो अन्यत्र दुर्लभ हैं। एक उदाहरण यहां प्रस्तुत है - “आर्य वज्र ने कहा-आर्य रक्षित ! अब तुमने दसवां पूर्व पढना प्रारंभ किया है, अत: सबसे पहले 'यविक' पढो, जो इस पूर्व के परिकर्म के रूप में हैं। यविक सूक्ष्म हैं, गणितज्ञान के कारण अति गूढ़ हैं। चौबीस यविक पढ़ने के पश्चात आर्यरक्षित ने पूछा-अब दसवें पूर्व का कितना भाग अवशिष्ट है ? आर्य वन ने कहाअभी तो तुमने बिंदु अथवा सर्षप जितना भाग पढ़ा है, समुद्र अथवा मंदर जितना भाग अवशिष्ट है। "आर्यरक्षित के साथ ही दसवां पूर्व और अर्धनाराच संहनन-ये दोनों विच्छिन्न हो गए। एक बार शक्रेन्द्र स्थविर के रूप में उपस्थित हो आर्यरक्षित से बोले-मैं महान व्याधिग्रस्त हं, अतः मुझे अनशन कराओ और यह भी बताओ कि मेरी आयु कितनी है ? १. आवचू १ पृ ४०४. हावृ १ पृ. २०२, २०३. मवृ प ३९५ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ- परिचय ३३ आरक्षित 'यविकों' के ज्ञाता थे । 'जविएहि फिर भणिया आऊसेढी' - यविकों में आयुश्रेणि प्रज्ञप्त है । वे यविकों में उपयुक्त हुए तो ज्ञात हुआ कि इसकी आयु सौ, दो सौ, तीन सौ वर्ष से भी अधिक है, यह दो सागरोपम की स्थिति वाला देव है । देव ने अपनी वस्तुस्थिति बताकर निगोदजीवों के बारे में सुनना चाहा । आर्यरक्षित ने निगोद का स्वरूप प्रतिपादित किया ।" विशेषावश्यक भाष्य विक्रम की सातवीं शताब्दी । आचार्य जिनभद्र ने आवश्यक सूत्र के प्रथम अध्ययन ' सामायिक' पर विशेषावश्यक भाष्य लिखा । ३६०३ गाथा प्रमाण यह भाष्य आवश्यकनियुक्ति के गूढ अर्थों की विस्तृत एवं विशद विवेचना है । इसमें ज्ञानवाद, नयवाद, आचारशास्त्र, कर्मशास्त्र आदि अनेक आगमिक विषयों की महत्त्वपूर्ण चर्चा है । दार्शनिक विषयों की युक्तियुक्त प्रस्तुति के साथ अपर दर्शनों की मीमांसा भी की गई है । प्रायः सभी उत्तरवर्ती आगमिक व्याख्याओं में इसका उपयोग किया गया है। स्वयं भाष्यकार ने इसकी स्वोपज्ञ वृत्ति लिखी, किंतु वह अपूर्ण रह गई, जिसकी संपूर्ति कोट्याचार्य ने की। विक्रम की बारहवीं शती में मलधारी हेमचन्द्र ने इस पर सुबोध एवं सरस शैली में शिष्यहिता वृत्ति लिखी । २. दशवेकालिक इसके दस अध्ययन हैं । यह विकाल वेला में पूर्ण हुआ, इसलिए इसका नाम दशवैकालिक रखा गया । इसके कर्त्ता श्रुतवली आचार्य शय्यंभव हैं। अपने पुत्र शिष्य मनक के लिए उन्होंने इसकी रचना वीर संवत् ७२ के आसपास चंपा नगरी में की। इसमें दो चूलिकाएं हैं। इसका समावेश चरणकरणानुयोग में होता है । इसका प्रतिपाद्य है मुनि का आचार। यह एक निर्यूहण कृति है। इसके कुछ अध्ययनों का निर्यूहण पूर्वी से हुआ है । इसके मुख्य चार व्याख्या ग्रन्थ हैं –निर्युक्ति, भाष्य, चूर्णि और वृत्ति । निर्युक्ति दशर्वकालिक नियुक्ति की ३७१ गाथाओं में दश, मंगल, द्रुम, धर्म, श्रामण्य, पूर्वक, भिक्षु, विनय, रति इत्यादि विषयों को निक्षेप पद्धति से समझाया गया है। प्रसंगवश हेतु, उदाहरण, विहंगम, पद, धान्य, रत्न, स्वर्ण, काम आदि विषयों का सूक्ष्म विश्लेषण किया गया है। चूर्णिद्वय कालिक नियुक्ति का अनुसरण करने वाली दो चूर्णियां हैं १. अगस्त्य चूर्णि – वज्रस्वामी की परम्परा के स्थविर श्री अगस्यसिंह द्वारा कृत यह चूर्णि सरल प्राकृ भाषा में है । यह सबसे प्राचीन चूर्णि है । इस चूर्ण में तत्त्वार्थ सूत्र, आवश्यक नियुक्ति, ओघनिर्युक्ति, व्यवहारभाष्य, कल्पभाष्य आदि ग्रन्थों का उल्लेख है । २. जिनदासचूर्णि - इसमें अन्यान्य विषयों के साथ ज्ञानाचार, दर्शनाचार, वीर्याचार, धर्मकथा, अर्थकथा आदि विषयों पर विशेष प्रकाश डाला गया है । यह संस्कृत मिश्रित प्राकृत में है। इसका रचनाकाल विक्रम की ७वीं, 5वीं शताब्दी है । हारिभद्रया वृत्ति हरिभद्रसूरि संविग्न- पाक्षिक थे। ये संस्कृत के प्रथम टीकाकार (वि. ८-९ शताब्दी ) थे । १. आवचू १ पृ ४११,४१२. हा १ पृ २०६, २०७. म प ३९९, ४०० Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ- परिचय आचार्य हरिभद्र ने दशर्वकालिक नियुक्ति पर 'शिष्यबोधिनी' वृत्ति लिखी। इसमें दशवैकालिक सूत्र की रचना के संदर्भ में आचार्य शय्यंभव का कथानक उद्धृत है। इसके अतिरिक्त अन्य कथानक और उद्धरण भी हैं । तप के संदर्भ में उद्धृत पांच संस्कृत श्लोकों में ध्यान का पूरा स्वरूप उजागर है । ( पत्र ३२ ) श्रोता के प्रसंग में न्याय के अवयवों का सांगोपांग विवेचन है । ( पत्र ३३ - ६८ ) ३४ षड्जीवनिका अध्ययन में जीव के अस्तित्व की सिद्धि, लक्षण आदि से संबद्ध विस्तृत दार्शनिक चर्चा की गई है । (पत्र १२१ - १३४ ) इस प्रकरण में कुछ भाष्य गाथाएं भी उद्धृत हैं । ३. उत्तराध्ययन जैन आगम चार वर्गों में विभक्त हैं -अंग, उपांग, मूल और छेद । उत्तराध्ययन 'मूल' वर्ग के अन्तर्गत परिगणित होता है। इसमें दो शब्द हैं- - उत्तर और अध्ययन | यह एककर्तृक ग्रन्थ नहीं, किन्तु संकलित सूत्र है । इसमें छत्तीस अध्ययन हैं। इनमें पांच अध्ययन - ९, १६, २३, २५ और २९ प्रश्नोत्तर शैली में लिखे गए हैं। प्रश्नोत्तर अन्य अध्ययनों में भी हैं। इसका प्रारंभिक संकलन वीर निर्वाण की पहली शताब्दी के पूर्वार्द्ध में और उत्तरार्ध का संकलन देवद्धिगणी के समय में संपन्न हुआ। इसकी नियुक्ति में प्रत्येक अध्ययन का विषय निर्दिष्ट है । उनतीसवां अध्ययन पूर्णरूपेण गद्यमय है और दूसरे तथा सोलहवें अध्ययन में गद्य-पद्य दोनों हैं। शेष अध्ययन पद्यात्मक हैं। इसके चार व्याख्या - ग्रन्थ हैं -निर्युक्ति, चूणि, बृहद्वृत्ति और सुखबोधा वृत्ति । निर्युक्ति इसका प्रथम व्याख्या-ग्रन्थ है - निर्युक्ति । इसमें ६०७ गाथाएं हैं । सर्वप्रथम उत्तर शब्द के १५ निक्षेप बताये गये हैं । द्रव्य श्रुत के प्रसंग में निह्नवों की चर्चा की गई है। संयोग के संदर्भ में परमाणुओं के परस्पर संबंध की विशद जानकारी दी गई है। परमाणु संयोग से जो संस्थान निर्मित होते हैं, उनकी स्थापनाएं भी दी गई हैं । चूर्णि यह प्राकृत संस्कृत में लिखी गई उत्तराध्ययन की महत्त्वपूर्ण व्याख्या है। अंतिम अठारह अध्ययनों की व्याख्या बहुत ही संक्षिप्त है । ग्रन्थकार ने अपना नाम 'गोपालिक महत्तर शिष्य' के रूप में उल्लिखित किया है । बृहद्वृत्ति ( शिष्यहिता या पाइयटीका) इसके कर्ता हैं - वादिवेताल शान्तिसूरि । इनका अस्तित्व-काल विक्रम की ११वीं शताब्दी है । बृहद्वृत्ति में स्थान-स्थान पर 'वृद्धसंप्रदाय' ऐसा उल्लेख मिलता है। 'वृद्ध' शब्द से उनको चूर्णिकार अभिप्रेत है। इस चूर्णि के अतिरिक्त भी कोई प्राचीन व्याख्या रही है, ऐसा प्रतीत होता है। इसमें अवतरणात्मक कथाएं प्राकृत में गृहीत हैं। उत्तराध्ययन की संस्कृत व्याख्याओं में यह सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है । सुखबोधा वृत्ति यह बृहद्वृत्ति से समुद्धृत लघु वृत्ति है । इसके कर्त्ता नेमिचन्द्रसूरी हैं । सूरिपद प्राप्ति से पूर्व इनका नाम देवेन्द्र था । इस वृत्ति का रचनाकाल वि. सं १९२९ है । यह वृत्ति प्राकृत कथाओं के कारण बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। प्राकृत भाषा की इन कथाओं का प्रणयन विशेष शैली में हुआ है। इनमें सांस्कृतिक तथ्यों की भी पूर्ण अभिव्यक्ति हुई है । ४. नन्दी नंदी का एक अर्थ है - आनन्द । ज्ञान सबसे बड़ा आनन्द है । इसमें ज्ञान का सांगोपांग वर्णन है इसलिए Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५ ग्रन्थ-परिचय इसका नाम नन्दी है | आगम संकलन की चौथी वाचना आचार्य देवद्धिगणी क्षमाश्रमण के समय में हुई। वे ही नंदी के कर्ता हैं । प्रस्तुत आगम का रचनाकाल वीर निर्वाण की दशवीं शताब्दी का दसवां दशक है । चूर्णिकार के अनुसार इसके कर्ता दूष्यगण के शिष्य देववाचक हैं। कुछ विद्वान् मानते हैं कि देवद्धगणी का अपर नाम देववाचक था । इसमें प्रारंभ की तीन गाथाओं में महावीर की स्तुति, चौदह गाथाओं में संघ की स्तुति, दो गाथाओं में तीर्थंकरावलि, दो गाथाओं में गणधरावलि, बावीस गाथाओं में स्थविरावलि और शेष की एक गाथा में परिषद् के स्वरूप का प्रतिपादन है। यह प्रश्नोत्तर शैली की रचना है। इसमें पांचों ज्ञान का सांगोपांग वर्णन है। बारह अंगों का स्वरूप निदर्शन इसमें स्पष्टरूप से हुआ है । इसमें १२७ सूत्र और मध्यगत अनेक संग्रहणी गाथाएं हैं । इसके मुख्य व्याख्या ग्रन्थ तीन हैं - १. नंदी चूणि, २. नंदी हारिभद्रीया वृत्ति, ३ नंदी मलयगिरीया वृत्ति । जैन विश्व भारती से प्रकाशित 'नवसुत्ताणि' में नंदो के साथ उसके दो परिशिष्ट भी मुद्रित हैं-१. अनुज्ञानन्दी २. योगनन्दी | चूर्णि सूत्रानुसारी नन्दी चूर्णि प्राकृत प्रधान है। नंदीगत विषयों का स्पर्श करते हुए कहीं-कहीं विशद व्याख्य' भी की गई है। तीर्थसिद्ध आदि सिद्धों के पन्द्रह प्रकारों की विस्तृत जानकारी इसमें उपलब्ध हैं । चूर्णिकार ने केवलज्ञान और केवलदर्शन के प्रसंग में तीन मत उद्धृत किए हैं - १. केवलज्ञान और केवलदर्शन का यौगपद्य । २. केवलज्ञान और केवलदर्शन का क्रमभावित्व । ३. केवलज्ञान और केवलदर्शन का अभेद । उन्होंने दूसरे मत - केवलज्ञान और केवलदर्शन का क्रमभावित्व का समर्थन किया है । इस प्रसंग में ‘विशेषणवती' की चौबीस गाथाएं भी उद्धृत हैं । (चू. पृ २८-३० ) श्रुतज्ञान की विशद विवेचना में 'अक्षर पटल' एक महत्त्वपूर्ण प्रकरण है । ( चू. पृ. ५२-५६ ) । जिनदासगणी ने सर्वप्रथम नन्दी चूर्णि शक सं. ५९८ में लिखी । ( शकराज्ञो पंचसु वर्षशतेषु व्यतिक्रांतेषु अष्टनवतेषु नन्द्यध्ययनचूर्णी समाप्ता इति चू. पृ: ८३)। इसके अनुसार ई. सन् ६७६ और वि. सं. ७३३ में यह चूर्णि लिखी गई । अनुयोगद्वारचूर्णि (पृ. १) में नंदी चूण का उल्लेख है इसका ग्रंथाग्र १५०० श्लोक है । इस चूर्णि में अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य का अंतर बहुत सुंदर ढंग से प्रतिपादित है (पृ. ५७ ) । कालिक श्रुत के प्रसंग में अरुणोपपात, उत्थानश्रुत, समुत्थानश्रुत आदि ग्रंथों की संक्षिप्त जानकारी भी दी गई है। चूर्णिकार ने प्रकीर्णक श्रुत को भी परिभाषित किया है। इसमें चित्रांतरकंडिका के संदर्भ में पूर्वाचार्यों की २२ गाथाएं उद्धृत हैं, जिनमें वर्णित भगवान् ऋषभ तथा अजित के अंतराल काल में उनके जितने वंशज राजा अनुत्तरविमानों में उत्पन्न हुए तथा मोक्ष में गए, उनकी संख्या का यंत्र भी दिया गया है । (चू. पू. ७७-७९) वृत्ति आचार्य हरिभद्रकृत नन्दी वृत्ति भी चूर्णि का अनुसरण करती है। इसमें केवलज्ञान और केवलदर्शन के यौगपद्य उपयोग के समर्थक सिद्धसेन आदि का क्रमिक उपयोग के समर्थक सिद्धांतवादी जिनभद्रगण आदि का तथा अभेद के समर्थक वृद्धाचार्यों (सिद्धसेन दिवाकर आदि) का उल्लेख है । आचार्य मलयगिरि कृत नन्दी वृत्ति सुस्पष्ट, सुविशद, विस्तृत एवं सरस है । इसमें जीव के अस्तित्व की सिद्धि, शाब्दप्रामाण्य, अपौरुषेय वचन निरास, सर्वज्ञसिद्धि, नैरात्म्यनिराकरण, सांख्यमुक्तिनिरसन, स्त्रीमुक्तिसिद्धि आदि अनेक दार्शनिक चर्चाएं प्रतिपादित हैं । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ ५. अनुयोगद्वार यह चूलिकासूत्र माना जाता है। चूलिका का अर्थ है- वर्णित विषय के व्याख्या सूत्रों का निरूपण । अनुयोगद्वार में पूर्वो की अध्ययन पद्धति का निरूपण है, इसलिए यह पूर्वज्ञान का परिशिष्ट माना जा सकता है । इस आगम का मूल ग्रन्थाग्र २१६२ श्लोक प्रमाण । यह बहुलांशतः गद्यमय । यत्र-तत्र पद्यों का भी समावेश है । इसकी रचना प्रश्नोत्तरी शैली प्रधान है। इसमें विविध विषय चर्चित हैं । इसके कर्त्ता पृथक्त्वानुयोग के प्रवर्तक आर्यरक्षित माने जाते हैं । इनका अस्तित्व काल है— वीर निर्वाण की पांचवीं छठी शताब्दी । इस पर तीन मुख्य व्याख्या ग्रन्थ हैं - चूर्णि, हारिभद्रीया वृत्ति और मलधारीया वृत्ति । चूर्णि ग्रन्थ- परिचय इसके कर्त्ता जिनदासगणी महत्तर हैं। इसका ग्रन्थाग्र २२६५ श्लोक प्रमाण है । इसकी भाषा प्राकृत है । इसमें अनुयोगविधि के विस्तृत विश्लेषण के साथ भौगोलिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक तथा सामाजिक विषयों का विवरण भी प्राप्त है । जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने 'शरीर पद' (पन्नवणा, पद १२ ) पर चूर्णि लिखी, जो इसमें अक्षरश: उद्धृत है । हारिमन्रीया वृत्ति आचार्य हरिभद्रकृत यह वृत्ति संक्षिप्त और चूर्णि की शैली में लिखी गई है । इस वृत्ति में यत्र-तत्र चूर्णि के पाठ प्राप्त होते हैं । परन्तु यह वृत्ति चूर्णि से विस्तृत विवरण देती है । मलघारीया वृत्ति मलधारी हेमचन्द्र (वि. बारहवीं शताब्दी) ने इस वृत्ति के माध्यम से चूर्णि और हारिभद्रीया वृत्ति की व्याख्या को सरस शैली में प्रस्तुत किया है। इसका ग्रन्थाग्र ५९०० श्लोक परिमाण है। इसमें कुछ नये तथ्य भी हैं। इस टीका का आधारग्रन्थ भी चूर्णि ही रहा है । ६. ओघनिर्मुक्ति यह नियुक्ति आवश्यक निर्युक्ति का एक अंग है । इसमें ओघ सामाचारी का निरूपण है। इसमें ८११ गाथाएं हैं । प्रथम गाथा में तीर्थंकर, चौदहपूर्वी, दसपूर्वी और एकादशांगधर को नमस्कार किया गया है । तत्पश्चात् प्रतिलेखना, पिण्ड, उपधिप्रमाण, अनायतन वर्जन, प्रतिसेवन, आलोचना और विशोधि - इन सात विषयों का सूक्ष्मता से प्रतिपादन किया गया है । उपसंहार में नियुक्तिकार ने बताया है कि जो निःशल्य होकर मारणांतिक आराधना करता है, वह उत्कृष्टतः तीन भवों में अवश्य मुक्त हो जाता है । ओघनिर्युक्ति-लघुभाष्य में करण, चरण, अनुयोग, सेवा, विहारविधि, भिक्षाग्रहणविधि, उपकरण, योग्यअयोग्य दाता आदि विषय प्रतिपादित हैं । इसमें ३२२ गाथाएं हैं। इसका बृहद् भाष्य अप्रकाशित है । ओघनिर्युक्तिचूर्णि का उल्लेख आवश्यक चूर्णि (पूर्वभाग, पृ ३४१ ) में मिलता है, अत: यह आवश्यक चूर्णि से प्राचीन है । ओ नियुक्ति और उसके लघु भाष्य पर द्रोणसूरि ने वृत्ति लिखी है । यह वृत्ति सरल एवं सुबोध है । इसमें कहीं-कहीं संस्कृत-प्राकृत के उद्धरण भी हैं। इसका रचनाकाल विक्रम की ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी है । वृत्ति का ग्रंथ-परिमाण लगभग ७००० श्लोक है । आचार्य मलयगिरिकृत वृत्ति अनुपलब्ध है । Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्ध-परिचय ७. पिण्डनियुक्ति यह दशवकालिकनियुक्ति का ही एक अंग है। दशवकालिक के पिण्डैषणा नामक पांचवें अध्ययन की नियुक्ति ग्रंथपरिमाण में विस्तृत थी, अतः नियुक्तिकार ने उसे पिण्डनियुक्ति के रूप में पृथक् किया। इसकी प्रथम गाथा में ही नियुक्ति के सम्पूर्ण अधिकारों की सूचना दे दी गई है-पिण्ड, उद्गम, उत्पादना, एषणा, संयोजना, प्रमाण, अंगार, धूम और कारण-इन नौ अधिकारों का विवेचन अनेक ऐतिहासिक कथानकों आदि के माध्यम से किया गया है। पिण्ड शब्द की व्याख्या में द्रव्य पिंड का विस्तृत विवेचन किया गया है। पृथ्वीकाय आदि जीवों के अनेक भेद-प्रभेद-सचित्त, अचित्त, मिश्र, व्यवहार सचित्त, निश्चत सचित्त आदि तथा उनकी उपयोगिता की चर्चा ४८ गाथाओं (९ से ५४) में की गई है। आधाकर्म (भिक्षादोष) के प्रसंग में सार्मिक के प्रकार और उनकी कल्प्याकल्प्य विधि का उल्लेख तेईस गाथाओं (१३७-१५९) में है। वृत्तिकार ने २२ पृष्ठों में इनकी सांगोपांग व्याख्या की है। इसमें ६७१ गाथाएं हैं। इन्हीं के साथ ४६ भाष्य गाथाएं भी हैं, जिनमें आधाकर्म, औद्देशिक, विशोधि-अविशोधि आदि विषयों का निरूपण है। इसकी आचार्य मलयगिरिकृत वृत्ति में नियुक्ति-भाष्यगत कथानक संस्कृत में व्याख्यायित हैं। इसका ग्रंथपरिमाण ७००० श्लोक है। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदर्भ-ग्रन्थ : संकेत - विवरण संकेत अनु अनुच् अनुमवृ अनुहावृ आव आवचू १ आव २ आवनि आव परि आवभा आवमवृ आवहाव १ आवहावृ २ उ उच् उशावृ उसुवृ ओनि ओनिवृ ओभा ग्रंथ दारा अनुयोगद्वारचूर्णि अनुयोगद्वार मलधारीया वृत्ति अनुयोगद्वार हारिभदीया वृत्ति आवश्यक (नवसुत्ताणि) आवश्यकचूर्णि (पूर्वभाग ) आवश्यकचूर्ण ( उत्तरभाग ) आवश्यक नियुक्ति आवश्यक परिशिष्ट (नवसुत्ताणि) आवश्यकभाष्य आवश्यक मलयगिरीया वृत्ति आवश्यक हारिभद्रया वृत्ति ( भाग १ ) आवश्यक हारिभद्रया वृत्ति ( भाग २ ) उत्तरज्झयणाणि उत्तराध्ययनचूर्णि उत्तराध्ययन शान्त्याचार्य बृहद्वृत्ति उत्तराध्ययन सुखबोधा वृत्ति ओर्युक्त नियुक्ति वृत्ति ओ नियुक्ति भाष्य प्रकाशन जैन विश्व भारती संस्थान, लाडनं, सन् १९९६ श्री ऋषभदेवजी केसरीमलजी प्रवेताम्बर संस्था रतलाम, वि. सं. १९८४ श्री केसरबाई ज्ञानमंदिर, पाटन, सन् १९३९ श्री ऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेतांबर संस्था, रतलाम, वि. सं. १९८४ जैन विश्व भारती, लाडनूं, सन् १९८७ श्री ऋषभदेवजी केसरीमलजी श्वेतांबर संस्था, रतलाम, सन् १९२८ वही, सन् १९२९ श्री भेरुलाल कनैयालाल कोठारी धार्मिक ट्रस्ट, मुंबई, वि. सं. २०३८ जैन विश्व भारती, लाडनूं, सन् १९८७ श्री भेरुलाल कर्नयालाल कोठारी धार्मिक ट्रस्ट, मुंबई, वि. सं. २०३८ आगमोदय समिति बम्बई, सन् १९२८ श्री भेरुलाल कनैयालाल कोठारी धार्मिक ट्रस्ट, मुंबई, वि.सं. २०३८ वही जैन विश्वभारती संस्थान, लाडनूं ( राजस्थान ) द्वितीय संस्करण : सन् १९९२ श्री ऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेताम्बर संस्था, रत्नपुर, सन् १९३३ देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार भाण्डागार संस्था, बम्बई, सं. १९७३ सेठ पुष्पचन्द्र खेमचन्द्र, बालापुर ( वलाद), सन् १९३७ आगमोदय समिति, बम्बई, सन् १९१९ वही वही Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदर्म-ग्रन्थ : संकेत-विवरण संकेत प्रय दअचू दजिच दनि दभा वही दहावृ नन्दी नन्दीचू प्रकाशन दसवेआलियं जैन विश्व भारती, लाडनूं (राजस्थान) द्वितीय संस्करण, सन् १९७४ दशवकालिक अगस्त्यसिंह स्थविर चणि प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी अहमदाबाद-९, सन् १९७३ दशवकालिक जिनदास चूर्णि श्री ऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेताम्बर संस्था, रतलाम, सन् १९३३ दशवकालिक नियुक्ति प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी अहमदाबाद-९, सन् १९७३ दशवकालिक भाष्य देवचन्द्र लालभाई जैन पस्तकोद्धार भाण्डागार संस्था, बम्बई, सन् १९१८ दशवकालिक हारिभद्रीया वृत्ति नन्दी (नवसुत्ताणि) जैन विश्व भारती, लाडनूं, सन् १९८७ नन्दी चूर्णि प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी, वाराणसी-५, सन् १९६६ नन्दी मलयगिरीया वृत्ति श्री आगमोदय समिति, सूरत, सन् १९१७ नन्दी हारिभद्रीया वृत्ति प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी, वाराणसी-५, सन् १९६६ नन्दी हारिभद्रीया वृत्ति टिप्पनकम् । वही पिण्डनियुक्ति देव चन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार, बम्बई, सन् १९१८ पिण्डनियुक्तिवृत्ति वही विशेषावश्यकभाष्य दिव्यदर्शन कार्यालय, अहमदाबाद, वीर संवत् २४८९ विशेषावश्यकभाष्य कोट्याचार्यवृत्ति प्राकृत विद्यापीठ, वैशाली, सन् १९७२ विशेषावश्यकभाष्य मलधारीया वृत्ति दिव्यदर्शन कार्यालय, जहमदाबाद, वीर संवत् २४८९ नन्दोमवृ नन्दीहाव नन्दीहावटि पिनि पिनिव विभा विभाकोव विभामवृ प्रयुक्त ग्रन्थ सूची आचारांगभाष्यम् जैन विश्व भारती, लाडनूं सन् १९९५ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा, कलकत्ता-१, सन् १९६८ ठाणं जैन विश्व भारती, लाडनं, वि. सं. २०३३ प्रश्नोत्तर तत्त्वबोध (जयाचार्यकृत) जैन विश्व भारती, लाडनूं, सन् १९८८ भगवई (खण्ड १) जैन विश्व भारती संस्थान, लाडनं, सन १९९४ जैन विश्व भारती, लाडनं, सन १९८४ सूयगडो (१) जैन विश्व भारती, लाडनूं, सन् १९८५ समवाओ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुख्य विषय : अनुक्रम १. अंगप्रविष्ट २. अंगबाह्य ३. अंगुल ४. अजीव ५. अज्ञान ६. अनशन ७. अनाचार ८. अनुप्रेक्षा ९. अनुमान १०. अनुयोग ११. अर्हत् १२. अवधिज्ञान १३. अष्टांग निमित्त १४. अस्तिकाय १५. अस्पृशद्गति १६. अस्वाध्याय १७. अहिंसा १८. आगम १९. आचार २०. आचार्य २१. आजीवक २२. आत्मा २३. आनुपूर्वी २४. आभिनिबोधिक ज्ञान (मति ज्ञान) २५. आयतन २६. आराधना २७. आलोचना २८. आवश्यक २९. आशातना ३०. आश्रव ३१. आहार ३२. इन्द्रिय ३३. ईषतप्रारभारा ३४. उपधि ३५. उपमान ३६. उपसर्ग ३७. ऊनोदरी ३८. एषणा समिति ३९. कथा ४०. करण ४१. करणसत्तरी ४२. कर्म ४३. कषाय ४४. कामभोग ४५. कायक्लेश ४६. कायोत्सर्ग ४७. काल ४८. काल-विज्ञान ४९. काव्य-रस ५०. कुत्रिकापण ५१. कुलकर ५२. केवलज्ञान ५३. केवली ५४. केवली-समुद्घात ५५. गणधर ५६. गुणस्थान Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुख्य विषय : अनुक्रम ५७. गुप्ति ५८. गोचरचर्या ५९. गौरव ६०. चक्रवर्ती ६१. चारित्र ६२. जातिस्मृति ६३. जिन ६४. जीव ६५. जीवनिकाय ६६. ज्ञान ६७. तफ ६८. तियंच ६९. तीर्थ ७०. तीथंकर ७१. त्रस ७२. दुःख ७३. दृष्टिवाद ७४. देव ७५. द्रव्य ७६. द्वीप ७७. धर्म ७८. ध्यान ७९. नक्षत्र ८०. नमस्कार महामंत्र ८१. नय ८२. नरक ८३. नाथ ८४ निक्षेप ८५. निदान ८६. नियुक्ति ८७. निषद्या ५६. निह्नव ८९. परिवह ९०. परिषद् (श्रोता) ९१. परीत ९२. परीषह ९३. पर्याप्ति ९४. पल्योपम ९५. पाषण्ड ९६. पुद्गल ९७. पुद्गलपरावर्तन ९८. पूर्व ९९. पोट्टपरिहार १००.प्रतिक्रमण १०१. प्रतिमा १०२. प्रतिलेखना १०३. प्रतिसंलीनता १०४. प्रतिसेवना १०५. प्रत्याख्यान १०६. प्रत्येकबुद्ध १०७. प्रमाण १०८. प्रमाद १०९. प्रवचन ११०.प्रायश्चित्त १११. बहुश्रुत ११२. बाहुबलि ११३. बुद्धि ११४. ब्रह्मचर्य ११५. भव्य ११६. भाव ११७. भावना ११८. भाषा ११९. भाषा समिति १२०. भिक्षाचर्या १२१. भिक्षु Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुख्य विषय अनुक्रम : १२२. मंगल १२३. मंत्र-विद्या १२४. मन १२५. मनः पर्यवज्ञान १२६. मनुष्य १२७. मरण १२८. महाव्रत १२९. मान १३०. मोक्ष १३१. योग १३२. योगसंग्रह १३३. योनि १३४. रसपरित्याग १३५. राजीमती १३६. रात्रिभोजनविरमण १३७. ल १३८. लिंग १३९. लेश्या १४०. लोक १४१. वन्दना (कृतिकमं) १४२. वर्मणा १४३. बाद १४४. वासुदेव १४५. विनय १४६. वृद्धश्रावक १४७. वैयावृत्य १४८. व्याकरण १४९. व्युत्सर्ग १५०. शकुन १५१. शरीर १५२. शासन-भेद १५३. शिक्षा १५४. मिष्य १५५. श्रमण १५६. श्रावक १५७. श्रुतज्ञान १५८. संख्या १५९. संघ १६०. संज्ञा १६१. संयम १६२. संलेखना १६३. संस्थान १६४. संहनन १६५. समवसरण १६६. समाधि १६७. समिति १६८. सम्यक्त्व १६९. साधर्मिक १७०. सामाचारी १७१. सामायिक १७२. सिद्ध १७३. सूत्र (सूत) १७४. स्तव-स्तुति १७५. स्थविरावल १७६. स्यादवाद १७७. स्वरमंडल १७८. स्वाध्याय Va Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विषय कोश अंगप्रविष्ट-गणधरों द्वारा रचित बारह अंग, भाव के यथार्थद्रष्टा अर्हतों ने जिन अर्थों की प्ररूपणा द्वादशांग, गणिपिटक । की, उन्हीं अर्थों को अर्हतों से साक्षात् प्राप्त कर परम बुद्धिसम्पन्न तथा सर्वाक्षरसन्निपातलब्धि से युक्त गणधरों १. अंगप्रविष्ट की परिभाषा ने सब प्राणियों के हित के लिए सूत्र रूप में उपनिबद्ध २. अंगप्रविष्ट के प्रकार किया। यही आचार आदि द्वादशांग अंगप्रविष्ट कहलाता * अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य : श्रुतज्ञान के भेद (द्र. श्रुतज्ञान) | २. अंगप्रविष्ट के प्रकार * अंगप्रविष्ट और अंगवाह्य की भेवरेखा। अंगपविट्ठ दुवालसविहं पण्णत्तं, तं जहा-आयारो, (द्र. अंगबाह्य) सूयगडो, ठाणं, समवाओ, वियाहपण्णत्ती, नायाधम्म३. ग्यारह अंगों का निर्वृहण कहाओ, उवासगदसाओ, अंतगडदसाओ, अणत्तरोववाइय* बारहवां अंग (द्र. दृष्टिवाद) दसाओ, पण्हावागरणाई, विवागसुयं, दिट्ठिवाओ। ४. अंगप्रविष्ट ही द्वादशांग (नन्दी ८०) ५.द्वादशांग ही गणिपिटक अंगप्रविष्ट बारह प्रकार का है६. द्वादशांग ही श्रुतज्ञान १. आचार ७. उपासकदशा ७. द्वादशांग और श्रुतपुरुष २. सूत्रकृत ८. अंतकृतदशा ८.द्वादशांग की शाश्वतता ३. स्थान ९. अनुत्तरोपपातिकदशा ९. द्वादशांग की पौरुषेयता ४. समवाय १०. प्रश्नव्याकरण * द्वादशांग के रचनाकार ५. व्याख्याप्रज्ञप्ति ११. विपाकश्रुत * रचना का प्रयोजन ६. ज्ञातधर्मकथा १२. दृष्टिवाद । १०.द्वादशांग के विषय * द्वादशांग : लोकोत्तर आगम (द. आगम) | आचारांग * आगम-रचना का आधार, निरूपण शैली और आयारे णं समणाणं निग्गंथाणं आयार-गोयर-विणय (द्र. आगम) वेणइय-सिक्खा-भासा-अभासा-चरण-करण-जाया-माया११. द्वादशांग और आज्ञा की एकार्थकता वित्तीओ आघविज्जति। से समासओ पंचविहे पण्णत्ते, तं १२. आज्ञा की विराधना-द्वादशांग की विराधना जहा-नाणायारे, सणायारे, चरित्तायारे, तवायारे, १३. आराधना-विराधना के परिणाम वीरियायारे। आयारे णं परित्ता वायणा, संखेज्जा अणुओगदारा, १. अंगप्रविष्ट की परिभाषा संखेज्जा वेढा, संखेज्जा सिलोगा, संखेज्जाओ निज्जुत्तीओ, जे अरहंतेहि भगवंतेहिं अईयाणागयवट्टमाणदव्वखेत्त- संखेज्जाओ पडिवत्तीओ। कालभावजथावत्थितदंसीहिं अत्था परूविया ते गणहरेहि से णं अंगट्टयाए पढमे अंगे, दो सुयक्खंधा, पणवीस परमबुद्धिसन्निवायगुणसंपण्णेहिं सयं चेव तित्थगरसगासाओ अभयणा, पंचासीई टेमणकाला नाही उवलभिऊणं सव्वसत्ताणं हितट्ठयाय सुतत्तेण उवणिबद्धा काला, अट्ठारसपयसहस्साणि पयग्गेणं, संखेज्जा अक्खरा, तं अंगपविठ्ठ, आयाराइ दुवालसविहं ।(आवच १ पृ८) अणंता गमा, अणंता पज्जवा, परित्ता तसा, अणंता अतीत, अनागत और वर्तमान के द्रव्य, क्षेत्र, काल, थावरा, सासय-कड-निबद्ध-निकाइया जिणपण्णत्ता भावा पाजन भाषा Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंगप्रविष्ट पण्णविज्जंति परूविज्जंति दंसिज्जंति आघविज्जंति निदंसिज्जंति । से एवं आया, एवं नाया, एवं विष्णाया, एवं चरणकरण - परूवणा आघविज्जइ । ( नन्दी ८१ ) आचार में श्रमण-निर्ग्रन्थों के आचार, गोचर, विनय, वैनयिक, शिक्षा, भाषा-अभाषा, चरण - करण, यात्रामात्रा, वृत्तियों का निरूपण किया गया है। संक्षेप में आचार पांच प्रकार का है, जैसे ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तप - आचार, वीर्याचार | आचार की वाचनाएं परिमित हैं, अनुयोगद्वार ( उपक्रम, अध्ययन ) संख्येय हैं, वेढा (वेष्टक छंद) संख्येय हैं, श्लोक (अनुष्टुप् आदि वृत्त ) संख्येय हैं, निर्युक्तियां संख्येय हैं और प्रतिपत्तियां (मतांतर) संख्येय हैं । यह अंग की दृष्टि से पहला अंग है । इसके दो श्रुतस्कंध, पच्चीस अध्ययन, पचासी उद्देशन-काल, पचासी समुद्देशन-काल, पद-परिमाण से अठारह हजार पद, संख्ये अक्षर, अनन्त गम ( अर्थ - परिच्छेद) और अनन्त पर्यव हैं। इसमें परिमित त्रस जीवों, अनन्त स्थावर जीवों तथा शाश्वत, कृत निबद्ध और निकाचित जिनप्रज्ञप्त भावों का आख्यान, प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन और निदर्शन किया गया है । इसका सम्यक् अध्ययन करने वाला 'एवमात्मा'आचारमय, ' एवं ज्ञाता' और 'एवं विज्ञाता' हो जाता । इस प्रकार आचार में चरण-करण - प्ररूपणा का आख्यान किया गया है । ( नोट वाचना, अनुयोगद्वार, वेष्टक, श्लोक, निर्युक्ति, प्रतिपत्ति, अक्षर, गम, पर्यंव, त्रस, स्थावरइनकी संख्या सूत्रकृतांग आदि शेष ग्यारह अंगों में आचारांग के समान ही जान लेनी चाहिये । ) सूत्रकृतांग .... सूयगडे णं लोए सूइज्जइ, अलोए सूइज्जइ, लोलो इज्जइ । जीवा सूइज्जति, अजीवा सूइज्जंति, जीवाजीवा सूइज्जति । ससमए सूइज्जइ, परसमए सूइज्जइ, ससमय-परसमए सूइज्जइ । सूयगडे णं आसीयस्स किरियावाइसयस्स, चउरा - सीइए अकिरियावाईणं, सत्तट्टीए अण्णाणियवाईणं, बत्तीसाए वेणइयवाईणं - तिन्हं तेसद्वाणं पावादुय-सयाणं वूहं किच्चा ससमए ठाविज्जइ । ... २ स्थानांग सेणं अंगट्टयाए बिइए अंगे, दो सुयक्खंधा, तेवीसं अज्झयणा, तेत्तीसं उद्देसणकाला, तेत्तीसं समुद्देसणकाला, छत्तीसं पयसहस्साणि पयग्गेणं । ( नन्दी ८२) सूत्रकृत में लोक की, अलोक की तथा लोक- आलोकदोनों की सूचना दी गई है। जीवों की, अजीवों की तथा जीव - अजीव - दोनों की सूचना दी गई है । स्वसमय की, परसमय की तथा स्वसमय परसमय दोनों की सूचना गई है। सूत्रकृत में एक सौ अस्सी क्रियावादियों, चौरासी अक्रियावादियों, सड़सठ अज्ञानवादियों तथा बत्तीस वैनयिकवादियों - इस प्रकार तीन सौ तिरसठ प्रावादुकोंअन्यतीर्थिकों का व्यूह ( प्रतिक्षेप) कर स्वसमय की स्थापना की गई है । यह अंग की दृष्टि से दूसरा अंग है । इसके दो श्रुतस्कन्ध, तेईस अध्ययन, तेतीस उद्देशनकाल, तेतीस समुद्देशनकाल हैं । पदप्रमाण से इसके छत्तीस हजार पद हैं । स्थानांग .....ठाणे णं जीवा ठाविज्जंति, अजीवा ठाविज्जंति, जीवाजीवा ठाविज्जंति । ससमए ठाविज्जइ, परसमए ठाविज्जइ, ससमय-परसमए ठाविज्जइ । लोए ठाविज्जइ, अलोए ठाविज्जइ, लोयालोए ठाविज्जइ । ठाणे णं टंका, कूडा, सेला, सिहरिणो, पब्भारा, कुंडाई, गुहाओ, आगरा, दहा, नईओ आघविज्जति । ठाणे णं एगाइयाए एगुत्तरियाए वुड्ढीए दसट्ठाण - विवढियाणं भावाणं परूवणा आघविज्जइ । '''' सेणं अंगट्टयाए तइए अंगे एगे सुयक्बंधे, दस अभयणा, एगवीसं उद्देसणकाला, एगवीसं समुद्देसणकाला, बावर्त्तारं पयसहस्साई पयग्गेणं... | ( नन्दी ८३ ) तथा जीवस्वसमय की, स्थानाङ्ग में जीवों की, अजीवों की अजीव दोनों की स्थापना की गई है । परसमय की तथा स्वसमय-परसमय- -दोनों की स्थापना की गई है । लोक की, अलोक की तथा लोक- अलोकदोनों की स्थापना की गई है । इसमें टंक, कूट, शैल, शिखरी, प्राग्भार, कुंड, गुफा, आकर, द्रह और नदी – इन सबका प्रतिपादन किया गया है । स्थानांग में एक-एक की अधिकता से अर्थात् एक Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञातधर्मकथा एक की वृद्धि से दस स्थानों तक विभक्त भावों का प्ररूपण किया गया है । यह अंग की दृष्टि से तीसरा अंग है । इसके एक श्रुतस्कन्ध, दस अध्ययन, इक्कीस उद्देशनकाल, इक्कीस समुद्देशनकाल हैं । पदप्रमाण से इसके बहत्तर हजार पद हैं। समवायांग समवाए णं जीवा समासिज्जंति, अजीवा समासिज्जंति, जीवाजीवा समासिज्जति । ससमए समासिज्जइ, परसमए समासिज्जइ, ससमय - परसमए समासिज्जइ । लोए समासिज्जइ, अलोए समासिज्जइ, लोयालोए समासिज्जइ । समवाए णं एगाइयाणं एगुत्तरियाणं ठाणसयविवढियाणं भावाणं परूवणा आघविज्जइ । दुवालसविहस्स य गणिपिडगस्स पल्लवग्गे समासिज्जइ । ... सेणं अंगट्टयाए चउत्थे अंगे एगे सुयक्खंधे, एगे अभयणे, एगे उद्देसणकाले, एगे समुद्देसणकाले, एगे चोयाले पयसयसहस्से पयग्गेणं... | ( नन्दी ८४ ) समवाय में जीवों की, अजीवों की तथा जीवअजीव - दोनों की सूचना दी गई है । स्वसमय की, परसमय की तथा स्वसमय परसमय- दोनों की सूचना दी गई है। लोक की, अलोक की तथा लोक अलोकदोनों की सूचना दी गई है । इसमें पदार्थों की एक, दो, तीन, चार आदि से लेकर सौ की संख्या तक एक-एक के परिमाण से वृद्धिmataरिका परिवृद्धि का प्रतिपादन किया गया है । इसमें द्वादशांग गणिपिटक का पल्लव परिमाण बतलाया गया है। यह अंग की दृष्टि से चौथा अंग है । इसमें एक अध्ययन, एक श्रुतस्कन्ध, एक उद्देशनकाल, एक समुद्देशनकाल तथा पदप्रमाण से एक लाख चौवालीस हजार पद हैं । व्याख्याप्रज्ञप्ति .....वियाहे णं जीवा विआहिज्जंति, अजीवा विआहिज्जति, जीवाजीवा विआहिज्जेति । ससमए विहिज्जति, परसमए विहिज्जति, ससमय - परसमए विहिज्जति । लोए विआहिज्जति, अलोए विआहिज्जति, लोयालोए विहिज्जति । से णं अंगट्टयाए पंचमे अंगे एगे सुयक्बंधे, एगे साइरेगे अज्झयणसए, दस उद्देसगसहस्साई, दस समुद्देसग - सहस्साइं, छत्तीसं वागरणसहस्साई, दो लक्खा अट्ठासी पयसहस्साइं पयग्गेणं... । ( नन्दी ८५ ) अंगप्रविष्ट व्याख्याप्रज्ञप्ति में जीव, अजीव तथा जीव-अजीवदोनों की व्याख्या की गई है । स्वसमय, परसमय तथा स्वसमय परसमय -- दोनों की व्याख्या की गई है। लोक, अलोक तथा लोक- अलोक दोनों की व्याख्या की गई है । यह अंग की दृष्टि से पांचवां अंग है । इसके एक श्रुतस्कन्ध, कुछ अधिक सौ अध्ययन, दस हजार उद्देशक, दस हजार समुद्देशक, छत्तीस हजार व्याकरण तथा पदप्रमाण से दो लाख अठासी हजार पद हैं । ज्ञातधर्मकथा ''''नायाधम्मकहासु णं नायाणं नगराई, उज्जाणाई, चेयाई, वणसंडाई, समोसरणाइं, रायाणो, अम्मापियरो, धम्मायरिया, धम्मकहाओ, इहलोइय-परलोइया इड्ढि - विसेसा, भोगपरिच्चाया, पव्वज्जाओ, परिआया, सुपरिग्गहा, तोवहाणाई, संलेहणाओ, भत्तपच्चक्खाणाई, पाओवगमणाई, देवलोगगमणाई, सुकुलपच्चायाईओ, पुणबोहिलाभा, अंतकिरियाओ य आघविज्जंति । दस धम्मकहाणं वग्गा । तत्थ णं एगमेगाए धम्मकहाए पंच पंच अक्खाइयासयाई । एगमेगाए अक्खाइयाए पंच पंच उवक्खाइयासयाई । एगमेगाए उवक्खाइयाए पंच पंच अक्खाइओवक्खाइयासयाइं - एवमेव सपुब्वावरेणं aagri heroinोडीओ हवंति त्ति मक्खायं । .... सेणं अंगट्टयाए छट्ठे अंगे, दो सुयक्खंधा, एगूणतीसं अज्झयणा, एगूणतीसं उद्देसणकाला, एगूणतीसं समुद्देसणकाला, संखेज्जाई पयसहस्साइं पयग्गेणं । ( नन्दी ८६) ज्ञातधर्मकथा में ज्ञातों (दृष्टान्तभूत व्यक्तियों) के नगर, उद्यान, चैत्य, वनषंड, समवसरण, राजा, माता-पिता, धर्माचार्य, धर्मकथा, इहलोक - परलोक की ऋद्धि-विशेष, भोगपरित्याग, प्रव्रज्या, दीक्षापर्याय का काल, श्रुत-ग्रहण, तप-उपधान, संलेखना, भक्तप्रत्याख्यान, प्रायोपगमन अनशन, देवलोकगमन, सुकुल में पुनरागमन, पुनः बोधिलाभ और अन्तक्रिया का आख्यान किया गया है । धर्मकथा के दस वर्ग हैं। प्रत्येक धर्मकथा में पांचपांच सौ आख्यायिकाएं हैं। प्रत्येक आख्यायिका में पांचपांच सौ उप-आख्यायिकाएं हैं। प्रत्येक उप-आख्यायिका में पांच-पांच सौ आख्यायिक - उपाख्यायिकाएं हैं । इस प्रकार कुल मिलाकर इसमें साढे तीन करोड़ आख्यायिकाएं हैं । यह अंग की दृष्टि से छठा अंग है। इसके दो Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंगप्रविष्ट अनुत्तरोपपातिकदशा भूतस्कन्ध, उनतीस अध्ययन, उनतीस उद्देशनकाल, उनतीस सूत्रपदों का परिमाण ग्यारह लाख बावन हजार समुद्देशनकाल तथा पदप्रमाण से संख्येय हजार पद हैं। है। सूत्रालापकपदों का परिमाण संख्येय हजार है। उवसग्गपदं णिवातपदं णामियपदं अक्खातपदं मिस्स- ENT पदं च, एते पदे अहिकिच्च पंचलक्खा छावत्तरि च .."अंतगडदसासु णं अंतगडाणं नगराइं, उज्जाणाई, सहस्सा पदग्गेणं भवंति। अहवा सुत्तालावयपदग्गेणं चेइयाइं, वणसंडाई, समोसरणाई, रायाणो, अम्मासंखेज्जाइं पदसहस्साई भवंति। (नन्दीचू पृ ६६) ज्ञातधर्मकथा का पदपरिमाण संख्येय हजार पद पियरो, धम्मायरिया, धम्मकहाओ, इहलोइय-परलोइया इढिविसेसा, भोगपरिच्चागा, पव्वज्जाओ, परिआया, उल्लिखित है। यह परिमाण सूत्रालापकरूप पदों की अपेक्षा से है। उपसर्ग, निपात, नाम, आख्यात और सुयपरिग्गहा, तवोवहाणाइं, संलेहणाओ, भत्तपच्चक्खा णाई, पाओवगमणाई, अंतकिरियाओ य आघमिश्र - इन पदों की अपेक्षा से इसका परिमाण पांच विज्जति ।" लाख छिहत्तर हजार है । से णं अंगट्ठयाए अट्ठमे अंगे, एगे सुयक्खंधे, अट्ठवग्गा, उपासकदशा अट्ठ उद्देसणकाला, अट्ठ समुद्देसणकाला, संखेज्जाइं पय.."उवासगदसासु णं समणोवासगाणं नगराइं, सहस्साइं पयग्गेणं ... । (नन्दी ८८) उज्जाणाई, चेइयाइं, वणसंडाई, समोसरणाई, रायाणो, अन्तकृतदशा में अन्तकृत जीवों के नगर, उद्यान, अम्मापियरो, धम्मायरिया, धम्मकहाओ, इहलोइय-पर चैत्य, वनषंड, समवसरण, राजा, माता-पिता, धर्माचार्य, लोइया इढिविसेसा, भोगपरिच्चाया, परिआया, सुय धर्मकथा, ऐहलौकिक और पारलौकिक ऋद्धि-विशेष, परिग्गहा, तवोवहाणाई, सीलव्वय-गुण-वेरमण-पच्च भोगपरित्याग, प्रव्रज्या, दीक्षा-पर्याय का काल, श्रुत-ग्रहण, क्खाण-पोसहोववास-पडिवज्जणया, पडिमाओ, उवसग्गा, तप-उपधान, संलेखना, भक्तप्रत्याख्यान, पादोपगमन, संलेहणाओ, भत्तपच्चक्खाणाइं, पाओवगमणाई, देवलोग अंतक्रिया का आख्यान किया गया है। गमणाई, सुकुलपच्चायाईओ, पुण बोहिलाभा, अंतकिरियाओ य आघविज्जति ।। यह अंग की दृष्टि से आठवां अंग है। इसमें एक ___ से णं अंगठ्ठयाए सत्तमे अंगे, एगे सुयक्खंधे, दस अज्झ- श्रुतस्कन्ध, आठ वर्ग, आठ उद्देशनकाल, आठ समूद्देशन श्रुतस्क यणा, दस उद्देसणकाला, दस समुद्देसणकाला, संखेज्जाई काल तथा पदप्रमाण से संख्येय हजार पद हैं। पयसहस्साई पयग्गेणं । (नन्दी ८७) सुत्तपदग्गं तेवीसं लक्खा चतुरो य सहस्सा पदग्गेणं । उपासकदशा में उपासकों के नगर, उद्यान, चैत्य, संखेज्जाणि वा पदसहस्साणि सुत्तालावगपदग्गेणं । वनषंड, समवसरण, राजा, माता-पिता, धर्माचार्य, (नन्दीचू पृ ६८) धर्मकथा, ऐहलौकिक और पारलौकिक ऋद्धि-विशेष, सूत्रपदों का परिमाण तेवीस लाख चार हजार है। भोग-परित्याग, दीक्षा-पर्याय का काल, श्रुत-ग्रहण, सूत्रालापकपदों का परिमाण संख्येय हजार है। तप-उपधान, शीलव्रत, गुणवत, विरमण, प्रत्याख्यान, अनुत्तरोपपातिकदशा पौषधोपवास का स्वीकरण,प्रतिमा, उपसर्ग, संलेखना, भक्तप्रत्याख्यान, पादोपगमन, देवलोकगमन, सुकुल ""अणुत्तरोववाइयदसासु णं अणुत्तरोववाइयाणं में पुनरागमन, पुनः बोधिलाभ और अन्तक्रिया का नगराइं, उज्जाणाई, चेइयाइं, वणसंडाइं, समोसरणाई, आख्यान किया गया है। रायाणो, अम्मापियरो, धम्मायरिया, धम्मकहाओ, यह अंग की दृष्टि से सातवां अंग है। इसके एक इहलोइय-परलोइया इड्ढिविसेसा, भोगपरिच्चागा, पव्वश्रतस्कन्ध, दस अध्ययन, दस उद्देशनकाल, दस समूद्देशन- ज्जाओ, परिआगा, सुयपरिग्गहा, तवोवहाणाई. पडिकाल तथा पदप्रमाण से संख्येय हजार पद हैं। माओ, उवसग्गा, संलेहणाओ, भत्तपच्चक्खाणाई, पाओसुत्तपदग्गं एक्कारस लक्खा बावण्णं च सहस्सा वगमणाई, अणुत्तरोववाइयत्ते उववत्ती, सुकुलपच्चायापदग्गेणं । सुत्तालावयपदेहिं संखेज्जाणि वा पदसहस्साइं ईओ, पुणबोहिलाभा, अंतकिरियाओ य आघपदग्गेणं । (नन्दीच पृ ६७) विज्जति ।... Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशांग गणिपिटक अंगप्रविष्ट से णं अंगट्टयाए नवमे अंगे, एगे सुयक्खंधे, तिण्णि सूत्रालापकपदों का परिमाण संख्येय हजार है। वग्गा, तिण्णि उद्देसणकाला, तिण्णि समुद्देसणकाला, विपाश्रत संखेज्जाइं पयसहस्साई पयग्गेणं"। (नन्दी ८९) . "विवागसुए णं सुकड-दुक्कडाणं कम्माणं फलअनुत्तरोपपातिकदशा में अनुत्तरविमानों में उत्पन्न विवागे आघविज्जइ । तत्थ णं दस दुहविवागा, दस व्यक्तियों के नगर, उद्यान, चैत्य, वनषंड, समवसरण, सूहविवागा।.... राजा, माता-पिता, धर्माचार्य, धर्मकथा, ऐहलौकिक ओर से गं अंगट्टयाए इक्कारसमे अंगे, दो सुयक्खंधा, पारलौकिक ऋद्धि-विशेष, भोगपरित्याग, प्रव्रज्या, दीक्षा- वीसं अज्झयणा, वीसं उद्देसणकाला, वीसं समद्देसणपर्याय का काल, श्रुतग्रहण, तप-उपधान, प्रतिमा, उपसर्ग, काला, संखेज्जाई पयसहस्साई पयग्गेणं' । (नन्दी ९१) संलेखना, भक्त-प्रत्याख्यान, पादोपगमन, अनुत्तरविमान _ विपाकश्रुत में सुकृत और दुष्कृत कर्मों के फलमें उत्पत्ति, सुकुल में पुनरागमन, पुनः बोधिलाभ और विपाक का आख्यान किया गया है। वहां दस दुःखविपाक अन्तक्रिया का आख्यान किया गया है। और दस सुखविपाक हैं। यह अंग की दृष्टि से नवमां अंग है। इसमें एक यह अंग की दृष्टि से ग्यारहवां अंग है। इसके दो श्रतस्कन्ध, तीन वर्ग, तीन उद्देशनकाल, तीन समूद्देशन- श्रुतस्कंध, बीस अध्ययन, बीस उद्देशनकाल, बीस समूद्देशनकाल तथा पद-प्रमाण से संख्येय हजार पद हैं। काल तथा पद-प्रमाण से संख्येय हजार पद हैं। पदग्गं छातालीसं लक्खा अट्ठ य सहस्सा, संखेज्जाणि सुत्तपदग्गं एगा पदकोडी चुलसीति च लक्खा बत्तीसं वा पदसहस्साणि । (नन्दीचू पृ ६९) च सहस्सा पदग्गेणं, संखेज्जाणि वा पदसहस्साई सूत्रपदों का परिमाण छियालीस लाख आठ हजार पदग्गेणं । (नन्दीच पृ७१) है। सूत्रालापकपदों का परिमाण संख्येय हजार है। __ सूत्रपदों का परिमाण एक करोड़ चौरासी लाख प्रश्नव्याकरण बत्तीस हजार है। सूत्रालापकपदों का परिमाण संख्येय "पण्हावागरणेसु णं अठ्ठत्तरं पसिणसयं, अठ्ठत्तरं हजार है। अपसिणसयं, अठ्ठत्तरं पसिणापसिणसयं, अण्णे य : ३. ग्यारह अंगों का निर्वृहण विचित्ता दिव्वा विज्जाइसया, नागसूवण्णेहिं सद्धि दिव्वा जइवि य भूतावाए सव्वस्स वओमयस्स ओयारो । संवाया आधविज्जति ।... ____ से णं अंगट्ठयाए दसमे अंगे, एगे सुयक्खंधे, पणया निज्जूहणा तहावि हु दुम्मेहे पप्प इत्थी य ॥ (विभा ५५१) लीसं अज्झयणा, पणयालीसं उद्देसणकाला, पणयालीसं यद्यपि भूतवाद-दृष्टिवाद में समस्त वाङमय का समुद्देसणकाला, संखेज्जाई पयसहस्साई पयग्गेणं" । अवतरण हो जाता है, फिर भी मन्दबुद्धि उपासक और (नन्दी ९०) स्त्रियों पर अनुग्रह कर शेष श्रुत-- ग्यारह अंगों का प्रश्नव्याकरण में एक सौ आठ प्रश्न, एक सौ आठ नि!हण किया गया है। अप्रश्न, एक सौ आठ प्रश्न-अप्रश्न, अन्य विचित्र और दिव्य विद्यातिशय तथा नाग और सुवर्ण देवों के साथ हुए । ४. अंगप्रविष्ट ही द्वादशांग दिव्य संवादों का आख्यान किया गया है। श्रुतरूपस्य परमपुरुषस्याङ्गानीवाङ्गानि द्वादशाङ्गानि यह अंग की दृष्टि से दसवां अंग है। इसमें एक आचाराङ्गादीनि यस्मिन् तत् द्वादशाङ्गम। श्रुतस्कंध, पैंतालीस अध्ययन, पैंतालीस उद्देशनकाल, (नन्दीमत् प १९३) पंतालीस समुद्देशनकाल तथा पद-प्रमाण से संख्येय हजार श्रुतपुरुष के अंगस्थानीय आचारांग आदि बारह अंग हैं । यही द्वादशांगी है। __पदग्गं बाणउति लक्खा सोलस य सहस्सा पदग्गेणं, ५. द्वादशांग ही गणिपिटक संखेज्जाणि वा पदसहस्साणि । (नन्दीचू पृ७०) गणी-आचार्यस्तस्य पिटकमिव पिटकं, सर्वस्वमित्यर्थः सूत्रपदों का परिमाण बानवे लाख सोलह हजार है। गणिपिटकम् । अथवा गणिशब्दः परिच्छेदवचनोऽप्यस्ति | Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंगप्रविष्ट आयारंमि अहीए जं नाओ होइ समणधम्मो उ । तम्हा आयारधरो भन्नइ पढमं गणिट्ठाणं ॥ ततश्च गणीनां पिटकं गणिपिटकं परिच्छेदसमूहः इत्यर्थः । ( नदीम प १९३ ) जो गण या गच्छ का अधिपति होता है, वह गणी - आचार्य कहलाता है । गणी का पिटक - सर्वस्व गणिपिटक है । अथवा गणी का अर्थ है -- परिच्छेद, अध्याय, शास्त्रविशेष | श्रमणधर्म ज्ञात हो जाता को आचारांगधर कहा आचारांग के अध्ययन से है । आचारांग के धारक मुनि जाता है । यह पहला गणिस्थान अर्थात् द्वादशांगी का पहला परिच्छेद 1 इस आधार पर गणिपिटक का अर्थ है - परिच्छेदों का समूह । ६. द्वादशांग हो श्रुतज्ञान भावे खओवसमिए दुवाल संगंपि होइ सुयनाणं । ( आवनि १०४ ) यदेव जिनप्रणीतप्रवचनार्थपरिज्ञानं तदेव परमार्थतः श्रुतज्ञानं न शेषम् । ( नन्दीवृप २५० ) वह क्षायोपशमिक भाव श्रुतज्ञान द्वादशांगात्मक है । है । अर्हत् द्वारा प्रणीत प्रवचन के है, वही परमार्थतः श्रुतज्ञान है, शेष नहीं । अर्थ का जो परिज्ञान ७. द्वादशांग और श्रुतपुरुष पुरुषस्य द्वादशाङ्गानि भवन्ति, तद्यथा द्वो पादौ द्वे जङ्घे द्वे ऊरुणी द्वे गात्रार्द्ध द्वौ बाहू ग्रीवा शिरश्च, एवं श्रुतरूपस्यापि परमपुरुषस्याऽऽचारादीनि द्वादशाङ्गानि क्रमेण वेदितव्यानि - 'पाददुगं जंघोरू गायदुगद्धं तु दो य बाहू य । गीवा सिरं च पुरिसो बारस अंगो सुयविसिट्ठी ॥ श्रुतपुरुषस्याङ्गेषु प्रविष्टमङ्गप्रविष्टम् अङ्गभावेन व्यवस्थितमित्यर्थः । (नन्दीमवृप २०३ ) जैसे पुरुष के हाथ-पैर आदि बारह अंग होते हैं, वैसे ही श्रुतरूप परम पुरुष के आचार आदि बारह अंग । जो श्रुतपुरुष के अंगरूप में व्यवस्थित है, वह अङ्गप्रविष्ट है । पुरुष के अंग दो चरण दो जंघा दो ऊरु उदर, पीठ भुजाद्वय ग्रीवा सिर द्वादशांग के विषय श्रुतपुरुष के अंग आचार, सूत्रकृत स्थान, समवाय भगवती, ज्ञातधर्मकथा उपासकदशा, अन्तकृतदशा अनुत्तरोपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण विपाकश्रुत दृष्टिवाद ८. द्वादशांग की शाश्वतता भवद इच्चेइयं दुवालसंगं गणिपिडगं न कयाइ नासी, न कयाइ न भवइ, न कयाइ न भविस्सइ । भुवि च य, भविस्सइ य । धुवे नियए सासए अक्खए अव्वए अट्ठिए निच्चे । ( नन्दी १२६ ) द्वादशांग गणिपिटक कभी नहीं था, कभी नहीं है और कभी नहीं रहेगा ऐसा नहीं है । वह था, है और रहेगा । वह ध्रुव, नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित और नित्य है । C. द्वादशांग की पौरुषेयता शास्त्रं वचनात्मकम् । वचनं तात्वोष्ठपुटपरिस्पन्दादिरूपपुरुषव्यापारान्वयव्यतिरेकानुविधायि । न खलु पुरुषव्यापारमन्तरेण वचनमाकाशे ध्वनदुपलभ्यते । ( नन्दीमवृप १६ ) शास्त्र वचनात्मक है । वचन तालु, ओष्ठ आदि के परिस्पंदन से उत्पन्न होता है। पुरुष की वाप्रवृत्ति के साथ उसका अन्वयव्यतिरेकी संबंध है - जब पुरुष में तालु, ओष्ठ आदि की प्रवृत्ति होती है, तब वचन उत्पन्न होता है, जब पुरुष की प्रवृत्ति नहीं होती, तब वह उत्पन्न नहीं होता । पुरुष की प्रवृत्ति के बिना वचन आकाश में ध्वनित नहीं होता । १०. द्वादशांग के विषय वालसंगे गणिfish अनंता भावा, अनंता अभावा, अनंता हेऊ, अनंता अहेऊ, अनंता कारणा, अनंता अकारणा, अनंता जीवा, अनंता अजीवा, अनंता भवसिद्धिया, अनंता अभवसिद्धिया, अनंता सिद्धा, अनंता असिद्धा पण्णत्ता । ( नन्दी १२४ ) Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आराधना-विराधना का परिणाम अंगबाह्य द्वादशांग गणिपिटक में अनन्त भावों, अनन्त अभावों, निवेसेण अण्णहा पण्णवेतो ताए अत्थाणाए सुत्तं विराअनन्त हेतओं, अनन्त अहेतुओं, अनन्त कारणों, अनन्त हेत्ता तीते काले अणंता जीवा संसार भमितपूव्वा, गोदाअकारणों, अनन्त जीवों, अनन्त अजीवों, अनन्त भव- माहिलवत् । (नन्दीचू पृ८१) सिद्धिकों, अनन्त अभवसिद्धिकों, अनन्त सिद्धों, अनन्त द्वादशांग गणिपिटक को सूत्रतः स्वीकार करते हए असिद्धों का उल्लेख है। भी जो अपने अभिनिवेश के कारण उसके अर्थ की अन्यथा ११. द्वादशांग और आज्ञा को एकार्थकता प्ररूपणा करते हैं, वे वास्तव में सूत्र की विराधना करते दुवालसंग"आणा य एवं एगट्रिता तहा वि अभिधाणतो है। इससे अतीत काल में अनंत जीवों ने संसार में विसेसो कज्जति-यदा आज्ञाप्यते एभिः तदा आज्ञा भ्रमण किया है, जैसे आचार्य आर्यरक्षित का शिष्य भवति । (नन्दीचू पृ८१) गोष्ठामाहिल । द्वादशांग और आज्ञा एकार्थक हैं। फिर भी उनमें जं अत्थतो दुवालसंगं गणिपिडगं तं सुत्ततो अभिणिकुछ भेद है। जब द्वादशांगी के आधार पर निर्देश दिया वेसेण अण्णहा पढंतो ताए सुत्ताणाए अत्थं विराहेत्ता तीते काले अणंता जीवा संसारं भमितपुव्वा, जमालिवत् । जाता है, तब उसे आज्ञा कहते हैं। १२. आज्ञा की विराधना-द्वादशांग की विराधना (नन्दीचू पृ८१) द्वादशांग गणिपिटक को अर्थतः स्वीकार करते हुए पंचविहायारायरणसीलस्स गुरुणो हितोवदेसवयणं भी जो अपने अभिनिवेश के कारण उसके सूत्र का अन्यथा आणा, तमण्णधा आयरतेण गणिपिडगं विराधितं भवति । पाठ करते हैं, वे वास्तव में अर्थ की विराधना करते हैं। (नन्दीचू पृ८१) इससे अतीतकाल में अनंत जीवों ने संसार में भ्रमण पांच आचार की सम्पदा से सम्पन्न आचार्य का किया है. जैसे-भगवान महावीर का शिष्य जमालि। हितोपदेशवचन आज्ञा है। जो उससे विपरीत आचरण करता है, वह गणिपिटक की विराधना करता है। अंगबाह्य-अनंगप्रविष्ट, आचार्यों तथा स्थविरों १३. आराधना-विराधना के परिणाम द्वारा रचित आगमग्रंथ, उपांग । इच्चे इयं दुवालसंगं गणिपिडगं तीए काले अणंता १. अंगबाह्य की परिभाषा जीवा आणाए विराहित्ता चाउरतं संसारकंतारं अणु- | २. अंगबाह्य की रचना का उद्देश्य परियट्टिसु ।" * अंगबाह्य : आगम का एक भेद (द्र. आगम) पडुप्पण्णकाले परित्ता जीवा"अणुपरियति । " * अंगबाह्य : श्रुतज्ञान का एक भेद (द्र. श्रुतज्ञान) अणागए काले अणंता जीवा "अणुपरियट्टिस्संति। ३. अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य की भेदरेखा इच्चेइयं वालसंगं तीए काले अणंता जीवा आणाए | ४. वाटा आराहित्ता चाउरतं संसारकतारं वीईवइंसु ।" * आवश्यक (द. आवश्यक) पडुप्पण्णकाले परित्ता जीवावीईवयंति । • आवश्यकव्यतिरिक्त "अणागए काले अणंता जीवा""वीईवइस्संति । ५. आवश्यकव्यतिरिक्त के प्रकार (नन्दी १२५) • कालिकश्रुत अतीत काल में अनंत जीव, वर्तमान में परिमित • उत्कालिकश्रुत जीव और भविष्य में अनंत जीव द्वादशांग गणिपिटक की ६. कालिकश्रुत आज्ञा की विराधना कर चार गति वाले संसारकांतार में • परिभाषा परिभ्रमण कर चुके हैं, करते हैं, करेंगे। • परिमाण अतीत काल में अनंत जीव, वर्तमान में परिमित • प्रकार और परिचय जीव और भविष्य में अनंत जीव द्वादशांग की आराधना * कालिकश्रुत : अगमिकश्रुत (प्र. श्रुतज्ञान) कर भवभ्रमण से मुक्त हुए हैं, हो रहे हैं और होंगे। • कालिकश्रुत और नय (द्र. नय) जं सुत्ततो दुवालसंगं गणिपिडगं तं अत्थतो अभि- ! ७. उत्कालिकश्रुत Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंगबाह्य ० परिभाषा • प्रकार और परिचय ८. प्रकीर्णक ९. चूला १०. अंगबाह्य और पूर्वधर १. अंगबाह्य की परिभाषा स्थविरैर्भद्रबाहुस्वामिप्रभृतिभिराचार्यैरुपनिबद्धं तदनङ्गप्रविष्टम् । तच्चावश्यक निर्युक्त्यादि । अथवा..... गणधर - प्रश्नव्यतिरेकेण शेषकृत प्रश्नपूर्वकं वा भगवतो मुत्कलं व्याकरणं, तदधिकृत्य यन्निष्पन्नं जम्बूद्वीपप्रज्ञप्त्यादि, तदनंगप्रविष्टं यच्च वा गणधरवचांस्येवोपजीव्य दृब्धमावश्यकनिर्युक्त्यादि पूर्वस्थविरैस्तदनङ्गप्रविष्टम् । यदि वा यत् सर्वतीर्थ करतीर्थेष्वनियतं तदनङ्गप्रविष्टम् । ( आवमवृप ४८ ) आचार्य भद्रबाहु स्वामी आदि स्थविरों द्वारा रचित आवश्यक नियुक्ति आदि ग्रंथ अनंगप्रविष्ट हैं । अथवा गणधरों के प्रश्नों के अतिरिक्त अन्य व्यक्तियों के प्रश्नों का जो समाधान तीर्थंकर ने दिया, उस आधार पर जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति आदि की रचना हुई । यह अनंग - प्रविष्ट है । अथवा गणधरवाणी के उपजीवी पूर्व स्थविरों द्वारा संदृब्ध आवश्यक नियुक्ति आदि ग्रंथ अनंगप्रविष्ट हैं । अथवा सब तीर्थंकरों के तीर्थों में जो अनियत श्रुत है, वह अनंगप्रविष्ट है । द्वादशाङ्गात्मकस्य श्रुतपुरुषस्य व्यतिरेकेण स्थितमङ्गबाह्यत्वेन व्यवस्थितं तदनङ्गप्रविष्टम् । अथवा ( गणधरान् विहाय ) शेषैः श्रुतस्थविरैस्तदेकदेशमुपजीव्य विराचितं तदनङ्गप्रविष्टम् । अथवा यद् श्रुतमनियतं तदनङ्ग प्रविष्टम् । ( नन्दीमवृप २०३ ) बारह अंगों वाले श्रुतपुरुष ( द्वादशांगी) के अतिरिक्त जो बाह्य अंगों के रूप में व्यवस्थित है, वह अनंगप्रविष्ट : है । अथवा गणधरों के अलावा शेष श्रुतस्थविरों द्वारा रचित शास्त्र अनंगप्रविष्ट है । अथवा अनियतश्रुत अनंगप्रविष्ट है । २. अंगबाह्य की रचना का उद्देश्य जं पुण अण्णेहिं विसुद्धागमबुद्धिजुत्ते हि थेरेहि अप्पामया अप्पबुद्धिसत्तीणं च दुग्गाहकं ति गाऊण तं चेव आयाराइसुयणाणं परंपरागतं अत्थतो गंथतो य कालिकश्रुत अब ति काऊ अणुकंपाणिमित्तं दसवेतालियमा दि परूवियं । तं अणेगभेदं अगंगपविट्ठ । ( आवचू १ पृ ८ ) परम्परा से प्राप्त आचारांग आदि श्रुतज्ञानराशि अर्थतः और ग्रन्थतः बहुत विशाल है। वह अल्प आयुष्य, अल्पमति और अल्पशक्ति वाले मनुष्यों के लिए दुर्ग्राह्य है । यह जानकर उनकी अनुकम्पा के लिए गणधरों से अतिरिक्त विशुद्ध आगमज्ञान से सम्पन्न स्थविरों ने दशवैकालिक आदि अनेक आगमग्रन्थों की रचना की, अनंगप्रविष्ट है । ३. अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य की भेदरेखा गणहर-थेरकयं वा आएसा मुक्कवागरणओ वा । धुवचलविसेसओ वा अंगाणंगे नाणत्तं ॥ ( विभा ५५० ) जो गणधरकृत है, आदेश - त्रिपदी से निष्पन्न है तथा नियत है, वह अंगप्रविष्टश्रुत है । जो स्थविरकृत है, मुक्त प्रतिपादन से गृहीत है तथा अनियत है, वह अंगबाह्य ( अनंगप्रविष्ट ) श्रुत है । ४. अंगबाह्य के प्रकार अंगबाहिर दुविहं पण्णत्तं तं जहा - आवस्सय व आवस्यवइरित्तं च । ( नन्दी ७४) अंगबाह्य के दो प्रकार हैं-- १. आवश्यक २. आवश्यक - व्यतिरिक्त । ५. आवश्यकव्यतिरिक्त के प्रकार आवस्यवइरितं दुविहं पण्णत्तं तं जहा कालिय च उक्कालियं च । ( नन्दी ७६) आवश्यकव्यतिरिक्त के दो प्रकार हैं- १. कालिक २. उत्कालिक । ६. कालिकत की परिभाषा कालिय जं दिणरातीणं पढिज्जति । पढमचरिमपो रिसीसु ( नन्दीच पृ ५७ ) श्रुत दिन और रात के प्रथम और अन्तिम प्रहर में पढ़ा जाता है, वह कालिकश्रुत है । परिमाण कालियसुयपरिमाणसंखा अणेगविहा पण्णत्ता, तं जहा - पज्जवसंखा अक्खरसंखा संघाय संखा पयसंखा पायसंखा गाहासंखा सिलोगसंखा वेढसंखा निज्जुत्तिसंखा अणु योगदारसंखा उद्देसगसंखा अज्झयणसंखा सुयबंधसंखा अंगसंखा । ( अनु ५७१ ) Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्याचूलिका अंगबाह्य _____ कालिकश्रुत की परिमाण-संख्या के अनेक प्रकार प्रज्ञप्त उत्तराध्ययन हैं, जैसे-पर्यवसंख्या, अक्षरसंख्या, संघातसंख्या, पद- सर्वाण्यपि चाध्ययनानि प्रधानान्येव तथाऽप्यमून्येव संख्या, पादसंख्या, गाथासंख्या, श्लोकसंख्या, वेष्टक- रूढयोत्तराध्ययनशब्दवाच्यत्वेन प्रसिद्धानि । संख्या, नियुक्तिसंख्या, अनुयोगद्वारसंख्या, उद्देशकसंख्या, (नन्दीमव प २०६) अध्ययनसंख्या, श्रुतस्कंधसंख्या और अंगसंख्या । सारे अध्ययन उत्तर/प्रधान ही हैं। फिर भी रूढ़ि से प्रकार उत्तराध्ययन सूत्र के लिए ही उत्तर शब्द का प्रयोग हआ .. कालियं अणेगविहं पण्णत्तं, तं जहा--- १. उत्तरज्झयणाई १६. अरुणोववाए कमउत्तरेण पगयं आयारस्सेव उवरिमाइं तु । २. दसाओ १७. वरुणोववाए तम्हा उ उत्तरा खलु अज्झयणा हुंति णायव्वा ।। ३. कप्पो १८. गरुलोववाए शय्यम्भवं यावदेष क्रमः, तदाऽऽरतस्तु दशवकालिको४, ववहारो १९. धरणोववाए त्तरकालं पठ्यन्ते। (उनि ३, शावृ प ५) ५. निसीहं २०. वेसमणोववाए प्राचीनकाल में आचारांग के बाद उत्तराध्ययन पढ़ा ६. महानिसीहं २१. वेलंधरोववाए जाता था। आचारांग के उत्तर में होने के कारण यह ७. इसिभासियाई २२. देविदोववाए उत्तराध्ययन है। आचार्य शय्यम्भव के बाद इस क्रम में ८. जंबुद्दीवपण्णत्ती २३. उट्ठाणसुयं परिवर्तन हुआ-उत्तराध्ययन के स्थान पर दशवैकालिक ९. दीवसागरपण्णत्ती २४. समुट्ठाणसुयं पढ़ा जाने लगा। १०. चंदपण्णत्ती २५. नागपरियावणियाओ अंगप्पभवा जिणभासिया य पत्तेयबद्धसंवाया । ११. खडियाविमाणपविभत्ती २६. निरयावलियाओ बंधे मुक्खे य कया छत्तीसं उत्तरज्झयणा ।। १२. महल्लियाविमाणपविभत्ती २७. कप्पवडंसियाओ (उनि ४) १३. अंगचू लिया २८. पुप्फियाओ अंगप्पभवा जहा परीसहा बारसमाओ अंगाओ कम्म१४. वियाहचुलिया २९. पुप्फचूलियाओ प्पवायपुवाओ णिज्जूढा। जिणभासिया जहा दुमपत्त१५. वग्गचूलिया ३०. वण्हिदसाओ गादि। पत्तेयबुद्धभासियाणि जहा काविलिज्जादि । (नन्दी ७८) संवाओ जहा णमिपब्वज्जा के सिगोयमेज्जं च। तं एते कालिकश्रुत अनेक प्रकार का है--- सव्वेव बंधप्पमोक्खत्थं छत्तीसं उत्तरज्झयणा कया। . (१) उत्तराध्ययन (१६) अरुणोपपात (उचि पृ ७) (२) दशाश्रुतस्कन्ध (१७) वरुणोपपात उत्तराध्ययन के छत्तीस अध्ययन कर्तृत्व की दृष्टि से (३) बृहत्कल्प (१८) गरुडोपपात चार वर्गों में विभक्त होते हैं(४) व्यवहार (१९) धरणोपपात १. अङ्गप्रभव-कर्मप्रवादपूर्व से उद्धृत परीषह अध्ययन (५) निशीथ (२०) वैश्रमणोपपात २. जिनभाषित--द्रुमपत्रक (६) महानिशीथ (२१) वेलन्धरोपपात ३. प्रत्येकबुद्धभाषित-कापिलीय .. ... (७) ऋषिभाषित . (२२) देवेन्द्रोपपात ४. संवाद समुत्थित नमिप्रव्रज्या और केशिगौतमीय (८) जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति (२३) उत्थानश्रुत (९) द्वीपसागरप्रज्ञप्ति (२४) समुपस्थानश्रुत .. अंगचूलिका (१०) चन्द्रप्रज्ञप्ति (२५) नागपरिज्ञापनिका __अंगस्स चूलिका जहा आयारस्स पंच चूलातो, (११) क्षुल्लिकाविमान- (२६) निरयावलिका दिट्टिवातस्स वा चूला। (नन्दीचू पृ ५९) __ प्रविभक्ति (२७) कल्पावतंसिका अंगों की चूलिका अंगचूलिका है। जैसे --आचारांग (१२) महाविमानप्रविभक्ति (२८) पुष्पिका की पांच चूलाएं, दृष्टिवाद की चूलाएं। (१३) अंगचूलिका (२९) पुष्पचूलिका व्याख्याचूलिका (१४) व्याख्याचूलिका (३०) वृष्णिदशा वियाहो भगवती । तीए चूला वियाहचूला। (१५) वर्गचूलिका (नन्दीचू पृ५९) Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंगबाह्य निरयावलिका व्याख्या का अपर नाम है भगवती । उसकी चूलिका से अत्यंत रुष्ट होकर जब पूरी एकाग्रता से 'उत्थानश्रुत' व्याख्याचूलिका कहलाती 1 वर्गचूलिका अध्ययन का एक, दो या तीन बार परावर्तन करता है, तब वह ग्राम, राजधानी अथवा कुल उजड़ जाता है । समुपस्थानश्रुत से चेव (रु) समणे तस्स गामस्स वा जाव रायधाणी वा समाणे पसण्णे पसण्णलेस्से सुहासणत्ये समुट्ठासुतं परियट्टेइ एक्कं दो तिण्णि वा वारे ताहे से गामे वा जाव रायहाणी वा आवासेति । अप्पणा पुव्वुट्ठियं पिकतसंकष्पस्स आवासेति । ( नन्दीचू पृ ६० ) विवखावसातो अज्झयणादिसमूहो वग्गो, जहा अंत दसाणं अट्ठ बग्गा, अणुत्तरोववातियदसाणं तिण्णि बग्गा, तेसि चूला वग्गचूला । ( नन्दीच पृ. ५९ ) अध्ययन आदि का समूह वर्ग कहलाता है । जैसे--- अन्तकृतदशा के आठ वर्ग हैं, अनुत्तरोपपातिकदशा के तीन वर्ग हैं, इन वर्गों की चूला वर्गचूला कहलाती हैं । अरुणोपपात अरु णामं देवे तस्स समयनिबद्धे अभयणे, जाहे तं अज्झयणं उवउत्ते समाणे अणगारे परियट्टेति ताहे से अरुणे देवे समयनिबद्धत्तणतो चलितासणे जेणेव से समणे तेणेव आगच्छत्ता ओवयति, ताहे समणस्स पुरतो अंतद्धिते कतंजली उवउत्ते सुणेमाणे चिट्ठति, समत्ते य भणति - सुभासितं वरेह वरं ति । इहलोगणिप्पिवासे से समणे पभिति - ण मे वरेण अट्ठो त्ति । ताहे से पदाहिणं करेत्ता णमंसित्ता य पडिगच्छति । ( नन्दी पृ ५९ ) अरुण नामक देव की वक्तव्यता का प्रतिपादक अरुणोपपात नामक कालिकश्रुत है । जब अनगार तन्मय होकर उस अध्ययन का परावर्तन करता है, तब उस अरुण देव का आसन कम्पित हो जाता है । उसी समय देव वहां उपस्थित हो जाता है, जहां वह अनगार श्रमण । उस श्रमण के सामने प्रच्छन्न रूप में बद्धांजलि हो वह देव ध्यान से सूत्र सुनता है। उसकी समाप्ति पर कहता है मुने ! आपने अच्छा सुनाया, अब वरदान मांगो। इस लोक से निस्पृह / वितृष्ण श्रमण प्रत्युत्तर में कहता है -- मुझे वरदान नहीं चाहिए। तब देव मुनि को प्रदक्षिणा दे, नमस्कार कर चला जाता है । उत्थानश्रुत उद्वाणसुतं ति अभयणं सिंगणाइयकज्जे जस्स णं गामस्स वा जाव रायहाणीए वा एगकुलस्स वा समणे आसुरुत्ते रुट्ठे उवउत्ते तं उट्ठाणसुते त्ति अज्झयणं परियट्टेति एक्कं दो तिणि वा वारे ताहे से गामे वा जाव राधाणी वा कुलं वा उट्ठेति । उव्वसइतिवृत्तं भवति । ( नन्दीच पृ ६० ) संघ संबंधी कार्य (सुरक्षा, प्रभावना ) उपस्थित होने पर मुनि जिस ग्राम, नगर, राजधानी अथवा कुल १० किसी कारणवश ग्राम, राजधानी अथवा कुल से रुष्ट मुनि पुनः तुष्ट हो, प्रसन्न मुद्रा में, प्रशस्त भावधारा से सुखासन में स्थित हो एकाग्रता से जब एक, दो या तीन बार 'समुपस्थानश्रुत' का परावर्तन करता है, तब वह उजड़ा हुआ गांव, राजधानी अथवा कुल पुनः बस जाता है । अथवा मुनि ने पहले कभी रुष्ट होकर ग्राम, नगर आदि को वीरान कर दिया हो, वह उन्हें इस समुपस्थानश्रुत से आबाद कर सकता है । नागपरिज्ञापनिका नागत्ति नागकुमारे, तेसु समयनिबद्धं अज्झयणं, तं जदा समणे उवयुक्ते परियट्टेति तया अकतसं कप्पस्स वि नागकुमारा तत्थत्था चेव परियाणंति, वंदंति णमंसंति भत्तिबहुमाणं च करेंति । सिंगणाइयकज्जेसु य वरया भवंति । ( नन्दीच पृ ६० ) नाग का अर्थ है – नागकुमार देव । उनकी वक्तव्यता का प्रतिपादक अध्ययन नागपरिज्ञापनिका है । जब श्रमण एकाग्र हो इस अध्ययन का परावर्तन करता है, तब चाहे वह देव को आह्वान करे या न करे, अपने स्थान पर स्थित नागकुमार देव इसे जान लेते हैं । वे वहीं से उस मुनि को वन्दना - नमस्कार करते हैं, भक्तिबहुमान करते हैं । वे संघ आदि के कार्यों के लिए वरदान भी देते हैं । निरयावलका निरावलियासु आवलियपविट्ठेतरे य निरया, तगामिणो य णर- तिरिया पसंगतो वण्णिज्जंति । ( नन्दीचू पृ ६० ) निरयावलिका में प्रविष्ट नारकों और नरकगामी नर- तिर्यञ्चों का जिसमें वर्णन है, वह निरयावलिका सूत्र है । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवका लिक..... कल्पावतं सिका सोहमीसा कप्पे जे कप्पविमाणा ते कप्पवडेंसया ते वण्णिता, तेसु य देवीओ जा जेण तवोविसेसेण ववण्णा तावण्णिता, ताओ य कप्पवडेंसिया भणिया । ( नन्दीच पृ ६० ) सौधर्म और ईशान कल्प में जो कल्पविमान हैं, वे कल्पावतंसक कहलाते हैं । तप-विशेष के कारण वहां उत्पन्न होने वाली देवियों का वर्णन जिस अध्ययन में है, उस अध्ययन का नाम कल्पावतंसिका है । पुष्पिका संजमभावविगसितो पुफितो, संजमभाववितोsवपुष्पितो, अगारभावं परिद्ववेत्ता पव्वज्जाभावेण विगसितो पच्छा सीयइ जो, तस्स इहभवे परभवे य विलंबणा दंसिज्जइ जत्थ ता पुफिया । ( नन्दीचू पृ ६० ) जो संयमभावना से विकसित है, वह पुष्पित है । संयम भाव से च्युत होने वाला अवपुष्पित है । जो गृहस्थ भाव को छोड़कर प्रव्रजित हो गया, पश्चात् प्रव्रज्याभाव में उदासीन हो गया, उसकी इस भव और परभव संबंधी विडम्बना जिसमें वर्णित है, वह पुष्पिका सूत्र है । वृष्णिदशा arrafort जे कुले ते अंधगसद्दलोवातो वहिणो भगिया । तेसि चरियं गती सिज्झणा य जत्थ भणिता ता वहिदसातो । दस त्ति अवस्था अज्झयणा वा । I ( नन्दीच पृ ६० ) अंधक और वृष्णिये दो कुल हैं । अंधकवृष्णिइस पद में अंधक का लोप कर वृष्णि कुल गृहीत है । इस कुल में उत्पन्न होने वालों के चारित्र, गति, सिद्धत्व की प्राप्ति आदि अवस्थाओं का वर्णन होने से इस अध्ययन का नाम है वृष्णिदशा । ७. उत्कालिकत की परिभाषा जं कालवेलवज्जं पढिज्जति तं उक्कालियं । (नन्दीचू पृ ५७ ) जिस सूत्र का पठन-पाठन / अध्ययन-अध्यापन काल की मर्यादा में बंधा हुआ नहीं है, वह उत्कालिक सूत्र है । ११ उक्कालियं अणेगविहं पण्णत्तं तं जहा १. दसवेयालियं २. कप्पियाकप्पियं १६. सूरपण्णत्ती १७. पोरिसिमंडलं १८. मंडलपवेसो १९. विज्जाचरणविणिच्छओ ३. चुल्लकप्पयं ४. महाकप्पयं ५. ओवाइयं ६. रायपसेणियं २१. भाणविभत्ती ७. जीवाजीवाभिगमो २२. मरणविभत्ती २०. गणिविज्जा ८. पण्णवणा २३. आय विसोही २४. वीयरागसुयं २५. संलेहणासु २६. विहारकप्पो ९. महापण्णवणा १०. पमायप्पमायं ११. नंदी १२. अणुओगदाराई २७. चरणविही १३. देविदत्थओ १४. तंदुल वेयालियं १५. चंदगविज्भयं उत्कालिक सूत्र अनेक प्रकार का है १. दशवेकालिक २. कल्पिक कल्पिक ३. क्षुल्लक कल्पश्रुत ४. महाकल्पश्रुत ५. औपपातिक ६. राजप्रश्नीय ७. जीवाजीवाभिगम ८. प्रज्ञापना ९. महाप्रज्ञापना १०. प्रमादाप्रमाद ११. नंदी १२. अनुयोगद्वार १३. देवेन्द्रस्तव १४. तन्दुल वैचारिक १५. चन्द्रवेध्यक २८. आउरपच्चक्खाणं २९. महापच्चक्खाणं । अंगबाह्य ( नन्दी ७७ ) १६. सूर्य प्रज्ञप्ति १७. पौरुषीमंडल १८. मंडल प्रवेश १९. विद्याचरणविनिश्चय २०. गणिविद्या २१. ध्यानविभक्ति २२. मरणविभक्ति २३. आत्मविशोधि २४. वीतरागश्रुत २५. संलेखना २६. विहारकल्प २७. चरणविधि २८. आतुरप्रत्याख्यान २९. महाप्रत्याख्यान दशवेकालिक रचना का उद्देश्य और निर्ग्रहण .....सो पव्वइओ, पच्छा आयरिया उवउत्ता - केवइ कालं एस जीवति ? जाव छम्मासा, ताहे आयरियाण बुद्धी समुप्पण्णा इमस्स थोवयं आउं कि कायव्वंति ? तं चोदसपुव्वी कहिपि कारणे समुप्पण्णे णिज्जूहइ, दसव्वी पुण अपच्छिमो अवस्समेव णिज्जूहइ । ममंपि Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंगवा इमं कारणं समुप्पण्णं, अहमवि निज्जू हामि, ताहे आढतो णिज्जू हिउं । ते य निज्जू हिज्जता वियाले निज्जूढा थोवावसेसे दिवसे, तेण तं दसवेयालियं भणिज्जति त्ति । ( दजिचू पृ७ ) बालक मनक आचार्य शय्यंभव ( संसारपक्षीय पिता ) के पास प्रव्रजित हुआ । आचार्य शय्यंभव चतुर्दशपूर्वी थे । उन्होंने विशिष्ट ज्ञान से देखा - यह अल्पायु है, केवल छह मास और जीएगा। मुझे इसके लिए क्या करना चाहिये ? उन्होंने सोचा - अपश्चिम दशपूर्वी अवश्य निर्यूहण करते हैं । विशेष प्रयोजन होने पर चतुर्दशपूर्वी निर्यूहण कर सकते हैं । मेरे समक्ष यह विशेष प्रयोजन उपस्थित हुआ है । इसलिए मुझे भी निर्यूहण करना चाहिये यह सोच उन्होंने निर्यूहण प्रारंभ किया । इस उपक्रम में विकाल वेला आ गई। दिन थोड़ा अवशिष्ट रहा । विकाल में निर्यूहण होने के कारण ( तथा दस अध्ययनों के कारण ) इस सूत्र की संज्ञा दशवैकालिक हुई। आयप्पवायपुव्वा णिज्जूढा होइ धम्मपण्णत्ती । कम्मप्पवायपुव्वा पिंडस्स तु एसणा तिविधा || सच्चप्पवातपुव्वा णिज्जूढा होति वक्कसुद्धी उ । अवसेसा णिज्जूढा णवमस्स उ तियवत्थूतो ॥ (दनि ५, ६ ) दशवैकालिक का चौथा धर्मप्रज्ञप्ति (षड्जीवनिका) अध्ययन आत्मप्रवादपूर्व से, पांचवां पिण्डेषणा अध्ययन कर्मप्रवाद पूर्व से, सातवां वाक्यशुद्धि अध्ययन सत्यप्रवाद पूर्व से और शेष सभी अध्ययन प्रत्याख्यान पूर्व की तीसरी वस्तु से निर्यूढ (उद्धृत ) किए गए I बितिओ व आदेसो गणिपिडगातो दुवालसंगातो । एयं किर णिज्जू ढं मणगस्स अणुग्गहट्ठाए । (दनि ७ ) दूसरी मान्यता के अनुसार दशर्वकालिक के दस अध्ययनों का निर्यूहण गणिपिटक द्वादशांग से मनक के अनुग्रह के लिए किया गया है । ( दशवैकालिक की दो चूलिकाएं हैं रतिवाक्या और विविक्तचर्या) | मंगलत्थं पुoad सत्थारंभो भवति, भगवया पुण अज्जसेज्जं भवेणं कहमत्रि अवरहकाले उपयोगो कतो, नन्दी कालातिवायविग्धपरिहारिणा य निज्जूढमेव, अतो विगते काले विकाले दसकमज्झयणाण कतमिति दसवेकालियं । चउपोरिसितो सज्झायकालो तम्मि विगते वि पढिज्जतीति विगयकालियं दसवेकालियं । दसमं वा वेतालियोपजातिवृतेहि नियमितमज्झयणमिति दसवेतालियौं । ( दअचू पृ ३ ) पूर्वाह्न में शास्त्र का प्रारंभ मंगल माना जाता है । किन्तु आर्य शय्यंभव ने अपराह्न में उपयोग लगाया -- दिन के तीसरे प्रहर में दस अध्ययनों का निर्यूहण किया । विकाल में रचना होने के कारण इसे दशवैकालिक कहा गया है । स्वाध्याय का काल चार प्रहर ( दिन और रात के प्रथम और चतुर्थ प्रहर ) हैं । इस काल के अतिरिक्त विकाल में भी दशवैकालिक पढा जाता है । इसका दसवां अध्ययन वैतालिक छंद ( उपजाति का एक प्रकार) में रचित होने के कारण इसे दंशवैतालिक भी कहा गया है । नन्दी गंदंति अणयेति णंदी, गंदति वा गंदी । पमोदो हरिसो कंदप्पो इत्यर्थः । ( नन्दी पृ १ ) जो आनन्दित करता है, वह नन्दी है । प्रमोद, हर्ष और कन्दर्प- ये नन्दी के पर्याय हैं । नन्दन्ति समृद्धिमवाप्नुवन्ति भव्यप्राणिनोऽनयेति वा नन्दी | ( विभामवृ पृ ४४ ) जिसके अध्ययन से भव्य प्राणी ज्ञान आदि से समृद्ध बनते हैं, वह आगम ग्रंथ नन्दी सूत्र है । रचनाकार अभीष्टदेवतास्तवादिसम्पादितसकलसौहित्यो भगवान् दूष्यगणिपादोपसेवी पूर्वान्तर्गत सूत्रार्थधारको देववाचको योग्यविनेयपरीक्षां कृत्वा सम्प्रत्यधिकृताध्ययनविषयस्य ज्ञानस्य प्ररूपणां विदधाति । ( नन्दीमवृप ६५ ) नन्दी के रचनाकार हैं -- आचार्य देववाचक । वे आचार्य दृष्यगणी के शिष्य और पूर्वान्तर्गत सूत्र और अर्थ के धारक थे । दवणंदी जागो अणुवउत्तो अहवा जाणग-भवियसरीरवतिरित्तो बारसविधो तूरसंघातो इमो -- Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक १३ अंगबाह्य भंभा मुकदमहल कडंब झल्लरि हुडुक्क कंसाला । गणी। विज्जत्ति णाणं । तं च जोइसनिमित्तगतं णातं काहल तलिमा वंसो पणवो संखो य बारसमो।। पसत्थेसू इमे कज्जे करेति, तं जहा -पब्वावणा, सामा (नन्दीचू पृ १) इयारोवणं, उवट्ठावणा, सुत्तस्स उद्देस-समुद्देसाऽणुण्णातो, भावणंदी णंदिसहोवयुत्तभावो। अहवा इमं पंचविह- गणारोवणं, दिसाणण्णा, खेत्तेसु य णिग्गम-पवेसा, णाणपरूवगं णंदि त्ति अज्झयणं । तं च सुतंसेण सव्वसुत- एमाइया कज्जा जेसु तिहि-करण-णक्खत्त-महत्त-जोगेसु अंतरभूतं । य जे जत्थ करणिज्जा ते जत्थऽज्झयणे वणिज्जति, नंदी के दो प्रकार हैं ---द्रव्य और भाव । नन्दी में तमझयणं गणिविज्जा। (नन्दीच पृ ५८) अनुपयुक्त ज्ञाता द्रव्यनन्दी है। अथवा भंभा, मुकुन्द, आबाल-वृद्धसभी मुमुक्षु व्यक्तियों का गच्छ गण मर्दल, कडंबा (करटिका) झल्लरी, हुडुक्क, कंसाल, कहलाता है। गण का अधिपति गणी कहलाता है। काहल, तलिमा, वंश, शंख और पणव ---ये बारह प्रकार विद्या का अर्थ है ज्ञान । ज्योतिष-निमित्त-विद्या के के वाद्य तद्व्यतिरिक्त द्रव्यनन्दी हैं। ज्ञाता गणी प्रशस्त काल आदि में ये कार्य करते हैं ... नन्दी शब्द में उपयुक्त ज्ञाता भावनन्दी है। अथवा प्रव्राजन (दीक्षा देना), सामायिक आरोपण, उपस्थापना मति, श्रुत आदि पांच ज्ञानों का प्रतिपादक ग्रंथ भाव श्रुत का उद्देश-समद्देश-अनुज्ञाकरण, गण-आरोपण नन्दी है । यह नन्दी पांच ज्ञान का प्रतिपादक होने के (शिष्य की गणिपद पर नियुक्ति), दिशानुज्ञा (यात्रा का कारण आगमश्रुत का अंश है, अतः सम्पूर्ण श्रुत में समा- निर्देश), नये क्षेत्र (ग्राम आदि) में प्रवेश-निर्गम आदि । हित है। जिस प्रशस्त तिथि-करण-नक्षत्र-मूहर्त-योग में जो कार्य पौरुषीमण्डल जहां करणीय हैं -- इन सबका जिस अध्ययन में प्रतिपादन पोरिसिप्रमाण उत्तरायणस्स अंते दक्षिणायणस्स य है, वह गणिविद्या अध्ययन है। आदीए एक्कं दिणं भवति । अतो परं अट्ठ एकसट्ठि- आतुर-प्रत्याख्यान भागा अंगुलस्स दक्खिणायणे वड्ढंति, उत्तरायणे य आउरो गिलाणो, तं किरियातीतं णातुं गीतत्था हस्संति । एवं मंडले मंडले अण्णोण्णा पोरिसी जत्थ पच्चक्खावेंति । दिणे दिणे दवह्रासं करेंता अंते य सव्वअज्झयणे दंसिज्जति तमज्झयणं पोरिसिमंडलं । दव्वदातणताए भत्ते वेरग्ग जणेता भत्ते नित्तण्हस्स भव(नन्दीचू पृ ५८) चरिमपच्चक्खाणं कारेंति । एवं जत्थऽज्झयणे सवित्थर उत्तरायण के अंत में, दक्षिणायन के प्रारंभ में वणिज्जइ तमज्झयणं आउर-पच्चक्खाणं । वणिज्जड : पौरुषीप्रमाण एक दिन होता है। इसके बाद इससे आगे (नन्दीच पृ ५८) दक्षिणायन में अंगुल का इकसठवां भाग बढ़ता है, जब आतुर/ग्लान साधक कार्य करने में अक्षम या उत्तरायण में घटता है। इस प्रकार हर मंडल में उदासीन हो जाता है तो गीतार्थ साधु उसको आहार अन्योन्य/परस्पर पौरुषी का जिस अध्ययन में प्रतिपादन का प्रत्याख्यान कराते हैं। प्रतिदिन खाद्यपदार्थों की है, वह पौरुषीमण्डल है। संख्या सीमित कर अंत में आहार के प्रति विरक्ति के मण्डलप्रवेश भाव जगाकर उसे अनशन करा देते हैं। इस विधि का चंदस्स सूरस्स य दाहिणुत्तरेसु मंडलेसु जहा मंड- जिस अध्ययन में विस्तृत वर्णन है, वह आतुर-प्रत्यालातो मंडले पवेसो तहा वणिज्जति जत्थऽज्झयणे ख्यानसूत्र है। तमज्झयणं मंडलपवेसो। (नन्दीचू पृ५८) ८.प्रकीर्णक जिस अध्ययन में चन्द्र और सूर्य का दक्षिण और चउरासीइं पइण्णगसहस्साई भगवओ अरहओ उसहउत्तर मंडलों में -एक मण्डल से दूसरे मण्डल में प्रवेश सामिस्स आइतित्थयरस्स। तहा संखिज्जाई पइण्णगसहका वर्णन है, वह मण्डलप्रवेश सूत्र है। स्साई मज्झिमगाणं जिणवराणं। चोइस पइण्णगसहगणिविद्या स्साणि भगवओ वद्धमाणसामिस्स। अहवा--- जस्स सबालवुड्ढाउलो गच्छो गणो, सो जस्स अत्थि सो जत्तिया सीसा उप्पत्तियाए, वेणइयाए, कम्मयाए, पारि Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंगबाह्य आचारचूला णामियाए-चउव्विहाए बुद्धीए उववेया, तस्स तत्तियाई दशवकालिक चला पइण्णगसहस्साइं । पत्तेयबुद्धावि तत्तिया चेव ।। दो अज्झयणा चूलिय विसीययंते थिरीकरणमेगं । (नन्दी ७९) बितिए विवित्तचरिया असीयणगुणातिरेगफला ॥ प्रथम अर्हत् ऋषभ के चौरासी हजार प्रकीर्णक थे। (दनि १२) मध्यम बाईस तीर्थंकरों के संख्यात हजार प्रकीर्णक थे। सेसत्थसंगहत्थं मउडमणित्थाणीयाणि दो चूलज्झयअर्हत् महावीर के चौदह हजार प्रकीर्णक थे। णाणि । (दअचू प ६) अथवा जिनके जितने शिष्य औत्पत्तिकी, वैनयिकी, दशवकालिक सूत्र में दो चूलाएं हैं--- कामिकी और पारिणामिकी बुद्धि से सम्पन्न होते हैं, रतिवाक्या-विषादग्रस्त अस्थिर साधु को संयम में उनके उतने हजार प्रकीर्णक होते हैं और प्रत्येकबुद्ध भी पुन:स्थिर करने का निर्देशक अध्ययन । उतने ही होते हैं। विविक्तचर्या--संयम में स्थिर रहने से समुत्पन्न गुणों का प्रतिपादक अध्ययन । अपरिमाणा पइण्णगा पइण्णगसामिअपरिमाणत्तणतो, ____ ग्रंथ के अवशिष्ट अर्थ का संग्रह करने के लिए चूला किंच इह सुत्ते पत्तेयबुद्धप्पणीतं पइण्णगं भाणितव्वं । का वही स्थान है, जो स्थान मुकुट में मणि का है। कम्हा? जम्हा पइण्णगपरिमाणेण चेव पत्तेयबुद्धपरिमाणं एवं च वृद्धवाद: कयाचिदार्ययाऽसहिष्णु: कूरकीरइ। (नन्दीचू पृ ६१) गडुकप्रायः संयतश्चातुर्मासिकादावुपवासं कारितः, स प्रकीर्णककार अपरिमित हैं, इसलिए प्रकीर्णक तदाराधनया मृत एव । ऋषिघातिकाऽहमित्युद्विग्ना सा अपरिमित हैं । किन्तु इस सूत्र में प्रकीर्णकों के परिमाण तीर्थकरं पृच्छामीति गुणावजितदेवतया नीता श्रीसीमन्धरके आधार पर प्रत्येकबुद्धों की संख्या का नियमन किया स्वामिसमीपं, पृष्टो भगवान । अदुष्टचित्ताऽघातिकेत्यगया है, अतः यहां प्रत्येकबुद्धों द्वारा प्रणीत अध्ययन ही भिधाय भगवतेमां चूडां ग्रा हितेति । (दहावृ प २७९) प्रकीर्णक के रूप में ग्राह्य हैं। भूख को सहने में असमर्थ मुनि ने किसी साध्वी की पइण्णगझयणा वि सव्वे कालिय-उक्कालिया... प्रेरणा से उपवास किया। उसी दिन उसकी मृत्यु हो गई। अरहंतमग्गउवदि8 जं सुतमणुसरित्ता किंचि णिज्जूते ज मतमणसरिता किंचि णिज्जते 'मैं ऋषि-घातिका है'-इस चिन्तन से वह साध्वी ते सव्वे पइणग्गा । अहवा सुतमणुस्सरतो अप्पणो वयण-... उद्विग्न हो गई। समाधान पाने के लिए देव-सहयोग से कोसल्लेण जं धम्मदेसणादिसु भासते तं सव्वं पइण्णगं। वह अर्हत सीमंधर के समवसरण में पहुंची। अर्हत ने (नन्दीचू पृ६०) कहा--तुम्हारा चित्त शुद्ध है, तुम मारने वाली नहीं हो प्रकीर्णक कालिकश्रुत और उत्कालिक श्रुत--दोनों -यह कहते हुए अर्हत् ने उसे यह चूला अध्ययन (दशवप्रकार के होते हैं। कालिक सूत्र की दूसरी चूलिका-विवित्तचरिया) प्रदान किया। अर्हत् के द्वारा उपदिष्ट श्रुत का अनुसरण कर श्रमण जिनका नि!हण करते हैं, वे प्रकीर्णक आचारचूला कहलाते हैं। अथवा श्रुत का अनुसरण कर अपने वाणी- सिरिओ पव्वइतो, अब्भत्तट्टेणं कालगतो, महाविदेहे कौशल से धर्मोपदेश आदि में जिस विषय का प्रतिपादन य पूच्छिका गता अज्जा, दोवि अज्झयणाणि भावणा करते हैं, वह प्रकीर्णक है। विमोत्ती य आणिताणि । (आव २ पृ १८८) श्रीयक मुनि का अनशन में स्वर्गवास हो गया। ६. चूला उसकी बहिन साध्वी यक्षा ने उस मृत्यु में अपने को पव्वभणितो अभणिओ य समासतो चलाए अर्थों निमित्त माना और समाधान लेने हेतु वह महाविदेह में भण्यते। (नन्दीचू पृ ५९) अर्हत् सीमंधर के समवसरण में पहुंची। वहां से वह मूलग्रन्थ में प्रतिपादित-अप्रतिपादित अर्थ का संक्षेप भावना और विमुक्ति (आयारचूला १५,१६)-ये दो में निरूपण करने वाली ग्रन्थपद्धति का नाम है चूला। अध्ययन लेकर लौटी। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मांगुल १०. अंगबाह्य और पूर्वधर दशपूर्वधरा अपि शासनस्योपकारका उपाङ्गादीनां संग्रहण्युपरचनेन हेतुना। (ओनिवृ प ३) दस पूर्वधर भी जिनशासन के उपकारक होते हैं। वे औपपातिक आदि उपांगों तथा संग्रहणी की रचना करते हैं। अंगविद्या-(द्र. अष्टांग निमित्त) अंगुल-अंगुली, माप का एक साधन । १. अंगुल के प्रकार ___ * अंगुल : क्षेत्र प्रमाण का एक भेद (द्र. प्रमाण) २. आत्मांगुल का स्वरूप ० आत्मांगुल और पुरुष को ऊंचाई • आत्मांगुल और पाद, वितस्ति आदि • आत्मांगुल का प्रयोजन * आत्मांगल : इन्द्रियों का विषय-परिमाण (द्र. इन्द्रिय) • आत्मांगुल के प्रकार--सूची, प्रतर, घन ३. उत्सेधांगल का स्वरूप ० उत्सेधांगुल और पाद, वितस्ति आदि ० उत्सेधांगल से शरीर की अवगाहना का माप ० उत्सेधांगुल के प्रकार ४. प्रमाणांगुल का स्वरूप • भगवान महावीर की अवगाहना और अंगल • उत्सेधांगुल और प्रमाणांगुल ० प्रमाणांगुल का प्रयोजन • प्रमाणांगुल के प्रकार अंगुल जिस काल में पुरुष का जो प्रमाण होता है, उस आधार पर आत्मांगुल का प्रमाण माना गया है। पुरुष का प्रमाण अनवस्थित होने के कारण आत्मांगुल का प्रमाण अनियत होता है। आयंगुले-जे णं जया मणुस्सा भवंति तेसि णं तया अप्पणो अंगुलेणं दुवालस अंगुलाई मुहं, नवमुहाइं पुरिसे पमाणजुत्ते भवइ, दोणीए पुरिसे माणजुत्ते भवइ, अद्धभारं तुल्लमाणे पुरिसे उम्माणजुत्ते भवइ । (अनु ३९०) . आत्मांगुल -जिस समय जो मनुष्य होते हैं, उनके अपने अंगुल से बारह अंगुल का मुख होता है। नव मुख जितना पुरुष प्रमाण-युक्त होता है। द्रौणिक पुरुष मानयुक्त होता है । अर्धभार जितने तोल वाला पुरुष उन्मानयुक्त होता है। द्रौणिक पुरुष द्रौणिकः पुरुषो मानयुक्तो भवति । महत्यां जलद्रोण्यां उदकपूर्णायां प्रवेशे जलद्रोणास्नात्तावन्मात्रोनायां (अनुहावृ पृ७७) पानी से भरी हुई बड़ी कुण्डिका को द्रोणी कहते हैं । उस कुण्डिका में एक व्यक्ति के प्रवेश करने पर द्रोणी जितना पानी बाहर निकल जाए अथवा उतनी खाली द्रोणी में प्रवेश करने पर वह भर जाए उसे द्रौणिक पुरुष कहते हैं। वह पुरुष मानयुक्त होता है। वइरमिव सारपोग्गलोवचियदेहे तुलारोविते अद्धभारुम्मिते ओमाणजुत्ते भवति । (अनुचू पृ ५२) सारपुद्गलोपचितत्वात्तुलारोपित: सन्नर्द्धभारं तुलयन् पुरुष उन्मानयुक्तो भवति। (अनुहावृ पृ ७८) ___ सारयुक्त पुद्गलों से निर्मित होने से अर्धभार (५२३ सेर) वजन वाला पुरुष उन्मान युक्त कहलाता है। आत्मांगुल और पुरुष की ऊंचाई माणुम्माणप्पमाणजुत्ता, लक्खणवंजणगुणे हिं उववेया । उत्तमकुलप्पसूया, उत्तमपुरिसा मुणेयव्वा । होंति पुण अह्यिपुरिसा, अट्ठसयं अंगुलाण उव्विद्धा । छण्णउइ अहमपुरिसा, चउरुत्तरा मज्झिमिल्ला उ । (अनु ३९०/१,२) मान, उन्मान और प्रमाण से युक्त, स्वस्तिक, शंख आदि लक्षण, तिल आदि व्यञ्जन और क्षान्ति आदि गुणों से उपेत तथा उत्तम कुल में उत्पन्न होने वाले उत्तम १. अंगुल के प्रकार अंगुले तिविहे पण्णत्ते, तं जहा--आयंगुले, उस्सेहंगुले, पमाणंगुले। (अनु ३८९) अंगुल के तीन प्रकार हैं १. आत्मांगुल, २. उत्सेधांगुल, ३. प्रमाणांगुल । २. आत्मांगुल का स्वरूप जे णं जता मणूसा तेसिं जं होइ माणरूवं ति । तं भणियमिहायंगुलमणियतमाणं पुण इमं तु ॥ (विभाकोव पृ १०८) Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंगुल पुरुष होते हैं । उत्तम पुरुष की ऊंचाई एक सौ आठ (१०८) अंगुल, अधम पुरुष की ऊंचाई छयानवे ( ९६ ) अंगुल और मध्यम पुरुष की ऊंचाई एक सौ चार (१०४) अंगुल की होती है । आत्मांगुल और पाद, वितस्ति आदि एएणं अंगुलप्पमाणेणं छ अंगुलाई पाओ, दो पाया विहत्थी, दो वित्थओ रयणी, दो रयणीओ कुच्छी, दो कुच्छीओ दंडं धणू जुगे नालिया अक्खे मुसले, दो धणु सहस्साई गाउयं चत्तारि गाउयाइं जोयणं । ( अनु ३९१ ) इस अंगुल प्रमाण से छह अंगुल का पाद, दो पाद की वितस्ति, दो वितस्ति की रत्नि, दो रत्नि की कुक्षि, दो कुक्षि का दंड अथवा धनुष, युग, नालिका, अक्ष और मुसल होता है । दो हजार धनुष का गव्यूत ( एक कोस ) और चार गव्यूत का एक योजन होता है । आत्मगुल का प्रयोजन एएणं आयंगुलप्पमाणेणं जे णं जया मणुस्सा भवंति तेसि णं तथा अप्पणी अंगुलेणं अगड-तलाग-दहनदी - वावी - पुक्खरिणी - दीहिया - गुंजालियाओ सरा सरपंतियाओ सरसरपंतियाओ बिलपंतियाओ आरामुज्जाणकाणण-वण-वणसंड-वणराईओ देवकुल सभा - पवा थूभ - खाइय- परिहाओ, पागार - अट्टालय - चरिय-दार - गोपुरपासाय- घर - सरण - लेण-आवण सिंघाडग-तिग- चउक्क, चच्चर - चउम्मुह - महापह पह-सगड-रह- जाण - जुग्गगिल्लि - थिल्लि - सीय-संदमाणियाओ लोही - लोहकडाह - कडुच्छ्य-आसण-सयण- खंभ- भंड- मत्तोवगरण माईणि, अज्जकालियाई च जोयणाई मविज्जति ॥ ( अनु ३९२ ) इस आत्मांगुल प्रमाण से जिस समय जो मनुष्य होते हैं, उस समय उनके अपने अंगुल से कूप, तालाब, द्रह, नदी, बावड़ी, पुष्करिणी, दीर्घिका, गुञ्जालिका, सर, सर-पंक्तिका, सर-सर- पंक्तिका, बिल-पंक्तिका, आराम, उद्यान, कानन, वन, वनषण्ड, वन-राजि देवकुल, सभा, प्रपा, स्तूप, खाई, परिखा, प्राकार, अट्टालक, चरिका, द्वार, गोपुर, प्रासाद, घर, शरण, लयन, आपण, शृंगाटक, त्रिक, चतुष्क, चत्वर, चतुर्मुख, महापथ, पथ, शकटं, रथ, यान, युग्य, गिल्लि, थिल्लि, शिविका, स्यन्दमानिका, लोही, लोहकटाह, करछी, आसन, शयन, स्तम्भ, भाण्ड, अमत्र आदि उपकरण और आजकल के १६ घन अंगुन (तत्कालीन ) योजन मापे जाते हैं । आत्मगुल के प्रकार से समासओ तिविहे पण्णत्ते, तं जहा--सूईअंगुले परंगुले घणंगुले । अंगुलायया एगपएसिया सेढी सूई - अंगुले । सूई सूईए गुणिया पयरंगुले । पयरं सूईए गुणितं घणं । ( अनु ३९३ ) वह (आत्मांगुल) संक्षेप में तीन प्रकार का है, जैसेसूची अंगुल, प्रतर अंगुल और घन अंगुल । एक अंगुल लम्बी एक प्रदेश वाली श्रेणी सूची अंगुल है । सूची अंगुल से गुणित सूची अंगुल प्रतर अंगुल है । सूची अंगुल से गुणित प्रतर अंगुल घन अंगुल है । सूची अंगुल एक अंगुल लम्बी आकाश प्रदेश की रेखा, जिसकी चौड़ाई और मोटाई दोनों एक आकाश प्रदेश जितनी ही हो, उसे सूची अंगुल कहते हैं। सूची अंगुल सरल रेखात्मक होता है । तर अंगुल एक अंगुल लम्बी और एक अंगुल चौड़ी तथा एक आकाश प्रदेश जितनी मोटाई वाली समचतुरस्र आकृति प्रतर अंगुल है । यह तलात्मक होता है । सूची- अंगुल एक ही आयाम में फैला हुआ होता है, जबकि प्रतर अंगुल दो आयामों में फैला हुआ होता है। सूची -अंगुल को सूची- अंगुल से गुणन करने पर प्रतर-अंगुल प्राप्त होता है । इस प्रकार -- प्रतर अंगुल = ( सूची अंगुल ) x ( सूची अंगुल) = ( सूची अंगुल ) ' सूची अंगुल के वर्ग को प्रतर अंगुल कहते हैं । घन अंगुल एक अंगुल लम्बी, एक अंगुल चौड़ी और एक अंगुल मोटाई वाली घन आकृति घन अंगुल कहलाता है । यह घनात्मक होता है । यह तीनों आयामों में फैला हुआ होता है । प्रतर अंगुल को सूची अंगुल से गुणा करने पर घन अंगुल प्राप्त होता है। इस प्रकार - घन अंगुल = ( प्रतर अंगुल ) x ( सूची अंगुल) - (सूची अंगुल ) ' = सूची अंगुल के घन को घन अंगुल कहते हैं । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्सेधांगुल अंगुल सव्वत्थोवे सूईअंगुले, पयरंगुले असंखेज्जगुणे, घणंगुले बालाग्र का पूर्व विदेह और अपर विदेह के मनुष्यों का एक असंखेज्जगुणे । (अनु ३९४) बालान, पूर्व विदेह और अपर विदेह के मनुष्यों के आठ __ सबसे अल्प सूची अंगुल है। प्रतर अंगुल उससे बालाग्र का भरत और ऐरवत के मनुष्यों का एक असंख्यात गुना तथा घनअंगुल उससे असंख्यात गुना है।। बालाग्र, भरत और ऐरवत के मनुष्यों के आठ बालाग्र ३. उत्सेधांगुल का स्वरूप की एक लिक्षा, आठ लिक्षा की एक यूका, आठ यूका उस्सेहंगुले अणेगविहे पण्णत्ते, तं जहा का एक यवमध्य और आठ यवमध्यों का एक उत्सेध परमाणू तसरेणू, रहरेणू अग्गयं च वालस्स । अंगुल होता है। लिक्खा जूया य जवो, अट्टगुणविवढिया कमसो ॥ उत्सेधांगुल और पाद, वितस्ति आदि (अनु ३९५) एएणं अंगुलप्पमाणेणं छ अंगुलाई पादो, बारस उत्सेध अंगुल के अनेक प्रकार हैं, जैसे-परमाणु, अंगुलाई विहत्थी, चउवीसं अंगुलाई रयणी, अडयालीसं त्रसरेणु, रथरेणु, बालाग्र, लिक्षा, यूका और यव । अंगुलाई कुच्छी, छन्नउइ अंगुलाई से एगे दंडे इ वा धण ये क्रमशः आठ-आठ गुना अधिक हैं। __ इ वा जुगे इ वा नालिया इ वा अक्खे इ वा मुसले इ वा, अणंताणं वावहारियपरमाणपोग्गलाणं समूदय-समिति- एएणं धणुप्पमाणेणं दो धणुसहस्साई गाउयं, चत्तारि समागमेणं सा एगा उसण्हसण्डिया''अट्र उसण्हसण्हियाओ गाउयाइं जोयणं । (अनु ४००) सा एगा सहसण्हिया, अट्ठ सहसण्हियाओ सा एगा इस अंगुल-प्रमाण से छह अंगुल का पाद, बारह उड्ढरेणू, अट्ठ उड्ढरेणूओ सा एगा तसरेणू, अट्ठ तस- अंगुल की वितस्ति, चौबीस अंगुल की रत्नि, अडतालीस रेणूओ सा एगा रहरेणू, अट्ठ रहरेणूओ देवकुरुउत्तरकुरु- अंगुल की कुक्षि और छयानवे अंगुल का एक दण्ड अथवा गाणं मणुस्साणं से एगे वालग्गे, अट्ठ देवकुरु-उत्तरकुरुगाणं धनुष, युग, नालिका, अक्ष अथवा मुसल होता है। इस मणस्साणं वालग्गा हरिवास-रम्मगवासाणं मणुस्साणं से धनुष-प्रमाण से दो हजार धनुष का एक गव्यूत (कोस) एगे वालग्गे, अट्ट हरिवास-रम्मगवासाणं मणुस्साणं और चार गव्यूत का एक योजन होता है। वालग्गा हेमवय-हेरण्णवयाणं मणुस्साणं से एगे वालग्गे, उत्सेधांगुल से शरीर की अवगाहना का माप अट्ट हेमवय-हेरण्णवयाणं मणुस्साणं वालग्गा पुव्वविदेहअवरविदेहाणं मणुस्साणं से एगे वालग्गे, अट्ठ पुव्वविदेह एएणं उस्सेहंगुलेणं नेरइय-तिरिक्खजोणियअवरविदेहाणं मणुस्साणं वालग्गा भरहेरवयाणं मणुस्साणं मणुस्स-देवाणं सरीरोगाहणाओ मविज्जति ।। से एगे वालग्गे, अट्ठ भरहेरवयाणं मणुस्साणं वालग्गा सा (अनु ४०१) लिक्खा, अट्ठ लिक्खाओ सा एगा जूया, अट्ठ जूयाओ से नणु भणियमुस्सयंगुलपमाणओ जीवदेहमाणाइ । एगे जवमझे, अट्ट जवमझा से एगे उस्सेहंगले । (विभा ३४१) (अनु ३९९) इस उत्सेध अंगुल से ही नैरयिक, तिर्यक्योनिक, अनन्त व्यावहारिक परमाणु पुद्गलों के समुदय, मनुष्य और देवों के शरीर की अवगाहना मापी जाती समिति और समागम से एक उत्श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका, हैं। आठ उत्श्लक्ष्ण-श्लक्ष्णिका की एक श्लष्णश्ल- से समासओ तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-सईअंगले क्षिणका, आठ श्लक्ष्णश्लक्षिणका का एक ऊर्ध्वरेण, आठ पयरंगुले घणंगुले । अंगुलायया एगपएसिया सेढी सईऊर्ध्वरेणु का (एक त्रसरेणु, आठ त्रसरेण का एक रथ- अंगुले । सूई सूईए गुणिया पयरंगुले । पयरं सूईए गुणितं रेणु, आठ रथरेणु का देवकुरु और उत्तरकुरु के मनुष्यों घणंगुले । का एक बालाग्र, देवकुरु और उत्तरकुरु के मनुष्यों के उत्सेध अंगुल के संक्षेप में तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं आठ बालाग्र का हरिवर्ष और रम्यक् वर्ष के मनुष्यों का -सूची अंगुल, प्रतर अंगुल और घन अंगुल । एक बालाग्र, हरिवर्ष और रम्यक् वर्ष के मनुष्यों के आठ एक अंगुल लम्बी एक प्रदेशवाली श्रेणी सूची अंगुल बालाग्र का हैमवत और हैरण्यवत के मनुष्यों का एक है । सूची अंगुल से गुणित सूची अंगुल प्रतर अंगुल है। बालाग्र, हैमवत और हैरण्यवत के मनुष्यों के आठ सूची अंगुल से गुणित प्रतर अंगुल घन अंगुल है । . Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. प्रमाणांगुल का स्वरूप पमाणंगले -- एगमेगस्स णं रण्णो चाउरंतचक्कवट्टि - स्स अट्ठसोवणिए कागणिरयणे छत्तले दुवाल संसिए अट्टकणिए अहिगरणिसंठाणसंठिए पण्णत्ते । तस्स णं एगमेगा कोडी उस्सेहंगुल विक्खंभा, तं समणस्स भगवओ महावीरस्स अद्धंगुलं, तं सहस्सगुणियं पमाणंगुलं भवइ । ( अनु ४०८ ) प्रत्येक चातुरंत चक्रवर्ती राजा का काकणीरत्न आठ सुवर्ण जितने वजन वाला, छह तल, बारह भुजा और आठ कोण वाला तथा अहरन के संस्थान से संस्थित होता है । उसकी प्रत्येक भुजा उत्सेध अंगुल के समान चौड़ाई वाली होती है । वह श्रमण महावीर का अर्ध अंगुल होता है । वह सहस्र गुना होने पर प्रमाण अंगुल है चत्तारि मधुरतिणफला एगो सेतसरिसवो । ते सोलससरिसवा धन्नमासफलं एगं । दो धन्नमासफला एगा गुंजा | पंच गुंजातो एगो कम्ममासगो । सोलसकम्ममासगो एगो सुवण्णो । अट्ठसोवण्णियं काकणीरयणं । एतं सुवण्णपमाणं जं भरहकाले मधुरतिणफलादिपमाणं ततो आणेतव्वं, जतो सव्वचक्कवट्टीणं काकणीरयणं एगप्पमाणंति । ( अनुचू पृ ५५ ) १ श्वेत सर्षप ४ मधुरतृणफल १६ सर्षप २ धान्यमाषफल ५ गुंजा १६ कर्ममाषक सौर्वाणक १ धान्यमाषफल १ गुंजा १ कर्म माषक १ सुवर्ण १ काकिणीरत्न सब चक्रवत्तियों का काकिणी रत्न समान प्रमाण वाला होता है । अतः भरत चक्रवर्ती के समय जो सुवर्णप्रमाण था, उसी से मधुरतृणफल आदि का प्रमाण ज्ञातव्य है । ( काकिणीरत्न द्र. चक्रवर्ती) भगवान महावीर की अवगाहना और अंगल वीरो आदेसंतरतो आयंगुलेण चुलसीतिमंगुलुव्विद्धो, उस्सेहतो पुण सत्तट्ठसतं भवति । अतो दो उस्सेहंगुला वीरस्स आतंगुलं । एवं वीरस्स आयंगुलातो अद्धं उस्सेहंगुलं दिट्ठ । जेसि पुण वीरो आयंगुलेण अट्ठत्तर उत्सेधांगुल और प्रमाणांगुल मंगलसतं तेसि वीरस्स आयंगुलेण एगं उस्सेहंगुलं उस्सेहंगुलस्स य पंच णवभागा भवंति । जेसिं पुण वीरो आयंगुलेण वीसुत्तरमंगुलसयं तेसि वीरस्स आयंगुलेणेगमुस्सेहंगुलं उस्सेहंगुलस्स य दो पंचभागा भवंति एवमेतं सव्वं तेरासियकरणेण दव्वं । ( अनुचू पृ ५५,५६ ) भगवान महावीर का शरीर उत्सेध अंगुल से सात हाथ प्रमाण था । एक हाथ के २४ उत्सेध अंगुल होते हैं । इसलिए ७ हाथ के उत्सेधांगुल २४४७=१६८ हुए । १८ १ उत्सेध अंगुल - भगवान महावीर का रे अंगुल १६८ उत्सेध अंगुल = १३ X १ = ८४ अंगुल । भगवान महावीर का शरीर आत्मांगुल अर्थात् स्वयं के अंगुल से ८४ अंगुल (३३ हाथ ) का था । ८४ + २४ = ३३ हाथ | एक मत यह है कि भगवान का शरीर आत्मांगुल से ४३ हाथ अर्थात् २४४४ = = १०८ अंगुल का था । इस मत के अनुसार भगवान महावीर का १ अंगुल उत्सेध अंगुल १ है के बराबर था । १०८ आत्मांगुल = १६८ उत्सेध अंगुल १ आत्मांगुल = १६६ ==१% एक मान्यता यह भी रही है कि भगवान महावीर का शरीर अपने अंगुल से ५ हाथ अथवा २४×५=१२० अंगुल का था । १२० आत्मांगुल=१६८ उत्सेधांगुल १ आत्मांगुल = १३5 ==१३ यह सब त्रैराशिक मत के आधार पर द्रष्टव्य है । (नोट : १. सत्तसदृसतं - इस पाठ के आधार पर १६७ अंगुल होने चाहिये, किन्तु गणित के अनुसार १६८ अंगुल होते हैं ।) उत्सेधांगुल और प्रमाणांगुल भरो आयंगुलेण वीसुतरमंगुलसतं तं च सपादं धणुयं उस्सेहंगुलमाणेण पंचधणुसते लभामि तो एगेण get fi freसामि ? आगतं चत्तारि धणुसताणि सेढीए, एवं सव्वे अंगुलजोयणादयो दट्ठव्वा । एगंमि सेढिप्पमाणंगुले चउरो उस्सेहंगुलसता भवंति । तं पमाणंगुलं उस्सेहंगुलप्पमाणेणं अद्धातियंगुलवित्थडं जं तो सेढीए चउरो सता अड्ढाइयंगुलगुणिता सहस्समुस्सेहं Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अगमिकश्रुत अंगुल गुलाण, तं एवं सहस्सगुणं भवति । (अनुचू पृ ५६) एएसि णं सेढीअंगुल-पयरंगुल-घणंगुलाणं कयरे भरत चक्रवर्ती का एक आत्मांगुल एक प्रमाणांगुल कयरेहितो अप्पे वा बहुए वा तुल्ले वा विसेसाहिए वा? के समान था। उनका शरीर अपने आत्मांगुल से सव्वत्थोवे सेढीअंगुले, पयरंगुले असंखेज्जगुणे, घणंगुले १२० अंगुल का था। उत्सेध अंगुल से वे ५०० धनुष असंखेज्जगुणे। (अनु ४११,४१२) के थे। एक धनुष ९६ अंगुल के समान होता है। प्रमाण अंगुल के तीन प्रकार हैं---- ५०० धनुष के ४८००० अंगुल होते हैं। श्रेणी अंगुल, प्रतर अंगुल और घन अंगुल । १ धनुष-९६ अंगुल असंख्य कोडाकोड़ योजन की एक श्रेणी होती है। ५०० धनुष=५००४९६-४८००० अंगुल श्रेणी को श्रेणी से गणित करने पर प्रतर और प्रतर को भरत चक्रवर्ती आत्मांगुल (प्रमाणांगुल) से १२. श्रेणी से गुणित करने पर लोक होता है। अंगल के थे और उत्सेध अंगुल से ४८००० अंगुल के लोक को संख्येय से गणित करने पर संख्येय लोक थे। इसलिए एक प्रमाणांगुल ४८०००१२०-४०० और असंख्येय से गणित करने पर असंख्येय लोक होते उत्सेध अंगुल का होता है। उत्सेधांगुल का बाहल्य हैं। (मोटाई) २३ अंगुल होता है। इसलिए ४००४२३= इन श्रेणी अंगुल, प्रतर अंगुल और घन अंगुल में १००. अंगुल हो गए। १००० उत्सेध अंगुल का एक कौन किससे अल्प, अधिक, तुल्य अथवा विशेषाधिक है ? प्रमाणांगुल जो माना है, वह बाहल्य (मोटाई) की अपेक्षा श्रेणी अंगुल सबसे छोटा है, प्रतर अंगुल उससे से है। असंख्येय गुना है, और घन अंगुल उससे असंख्येय गुना प्रमाणांगुल का प्रयोजन एएणं पमाणंगुलेणं पुढवीणं कंडाणं पातालाणं भव अंतःशल्यमरण-मरण का एक भेद। द्र. मरण) णाणं भवणपत्थडाणं निरयाणं निरयावलियाणं निरय- अतकृतदशा--जैन आगम, आठवां अंग। पत्थडाणं कप्पाणं विमाणाणं विमाणावलियाणं (द्र. अंगप्रविष्ट) विमाणपत्थडाणं टंकाणं कूडाणं सेलाणं सिहरीणं पब्भाराणं अंतरायकर्म-आत्मशक्ति के विकास और प्रयोग विजयाणं वक्खाराणं वासाणं वासहराणं पव्वयाणं वेलाणं में बाधा डालने वाला कर्म । वेइयाणं दाराणं तोरणाणं दीवाणं समूहाणं आयाम " (द्र. कर्म) विक्खंभ-उच्चत्त-उव्वेह-परिक्खेवा मविज्जति । अंतपिज-अंतर्वीपों में उत्पन्न होने वाले। (अनु ४१०) (द्र. मनुष्य) इस प्रमाण अंगुल से रत्नप्रभा आदि पृथ्वियां, अतमुहूत्त-दा समय से लेकर अड़तालीस मिनिट रत्नकाण्ड आदि काण्ड, पाताल, भवन, भवन-प्रस्तट, में एक समय कम तक का कालमान । नरक, नरकावलि, नरक-प्रस्तट, कल्प, विमान, (द्र. काल विमान श्रेणी, विमान-प्रस्तट, टंक, कूट, शैल, शिखरी, अकर्मभूमिज-जहां प्राकृतिक साधनों से जीविका प्राग्भार, विजय, वक्षस्कार, वर्ष, वर्षधर पर्वत, वेला, चलाई जाती है, वह अकर्मभूमि वेदिका, द्वार, तोरण तथा द्वीप-समुद्रों की लम्बाई, है । उसमें उत्पन्न होने वाले अकर्मचौड़ाई, ऊंचाई, गहराई और परिधि मापी जाती है। भूमिज कहलाते हैं। (द्र. मनुष्य) प्रमाणांगल के प्रकार अक्रियावाद-(द्र. वाद)। ___ से समासओ तिविहे पण्णत्ते, तं जहा -सेढीअंगुले अक्षरश्रुत-प्रतिपाद्य भावों का अक्षरों के द्वारा पयरंगुले घणंगुले । असंखेज्जाओ जोयणकोडाकोडीओ कथन करना । श्रुतज्ञान का एक भेद । सेढी, सेढी सेढीए गुणिया पयर, पयरं सेढीए गुणियं (द्र. श्रुतज्ञान) लोगो, संखेज्जएणं लोगो गुणितो संखेज्जा लोगा, असंखे- अगमिकश्रुत-असदृश पाठ वाला श्रुत । श्रुतज्ञान ज्जएणं लोगो गुणितो असंखेज्जा लोगा। का एक भेद। (द्र. श्रुतज्ञान) Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञान ज्ञान अज्ञान क्यों? अचक्षुदर्शन–(द्र. दर्शन) अज्ञान-१. ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से होने अचित्त महास्कन्ध-केवली-समुद्घात के पांचवें वाला ज्ञान का अभाव । २. ज्ञानावरणीय समय में समूचे लोक में व्याप्त कर्म के क्षयोपशम से होने वाला होने वाला कर्मपुद्गलस्कंध । मिथ्यात्वी का ज्ञान। (द्र. केवलीसमुद्घात) १. अज्ञान आवरण है स्वाभाविक रू २. ज्ञान भी अज्ञान में व्याप्त होने वाला पुद्गल * मिथ्यादष्टि : प्रथम गुणस्थान (द्र. गुणस्थान) स्कन्ध । (द्र. वर्गणा) ३. ज्ञान अज्ञान क्यों ? अचेल--(द्र. शासनभेद) ४. अज्ञान भी क्षयोपशमभाव अजितनाथ-वर्तमान चौबीसी के दूसरे तीर्थंकर । ५. मति-श्रुत : ज्ञान, अज्ञान दोनों (द्र. तीर्थंकर) ६. विभंगज्ञान अजीव-अचेतन द्रव्य । ७. अज्ञान तीन ही क्यों ? अजीवदव्वा''दुविहा पण्णत्ता, तं जहा---अरूवि- * अनुत्तर देवों में अज्ञान नहीं (द. देव) अजीवदवा य रूविअजीवदव्वा य। (अनु ४४२) अजीवद्रव्य के दो प्रकार हैं-अरूपी अजीवद्रव्य १. अज्ञान आवरण है और रूपी अजीवद्रव्य । न हि स्वयं स्वच्छस्फटिकवदति निर्मलस्य प्रकाश रूपस्यात्मनोऽप्रकाशकत्व किन्तु ज्ञानावृतिवशत एव । अरूपी अजीवद्रव्य के प्रकार उक्तं हि-- अरूविअजीवदव्वादसविहा पण्णत्ता, तं जहा ..... तत्र ज्ञानावरणीयं नाम कर्म भवति येनास्य । धम्मत्थिकाए धम्मत्थिकायस्स देसा धम्मत्थिकायस्स तत्पञ्चविधं ज्ञानमावृतं रविरिव मेघैस्तथा । पएसा, अधम्मत्थिकाए अधम्म त्थिकायस्स देसा अधम्म (उशावृ प १२६) त्थिकायस्स पएसा, आगासस्थिकाए आगासत्थिकायस्स आत्मा स्वच्छ स्फटिक मणि की तरह अत्यंत निर्मल देसा आगासत्थिकायस्स पएसा, श्रद्धासमए । (अनु ४४३) और प्रकाश स्वभाव वाली है। ज्ञान के आवरण के अरूपी अजीवद्रव्य के दस प्रकार हैं-धर्मास्ति कारण आत्मा अज्ञान का अनुभव करती है। ज्ञानावरणीय कर्म के द्वारा मति आदि पांच ज्ञान काय, धर्मास्तिकाय के देश, धर्मास्तिकाय के प्रदेश: वैसे ही आवृत हैं, जैसे बादलों से सूर्य । अधर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय के देश, अधर्मास्तिकाय के प्रदेश: आकाशास्तिकाय, आकाशास्तिकाय के देश. २. ज्ञान भा अज्ञान आकाशास्तिकाय के प्रदेश और अद्धासमय-काल । जह दुव्वयणमवयणं कुच्छियसील असीलमसईए । (द्र. अस्तिकाय) भण्णइ तह नाणं पि ह मिच्छडिट्रिस्स अण्णाणं ।। (विभा ५२०) रूपी अजीवद्रव्य के प्रकार जैसे दुर्वचन को अवचन और असती के कुत्सित रूविअजीवदव्वा'चउन्विहा पण्णत्ता, तं जहा - शील को अशील कहा जाता है, वैसे ही मिथ्यादष्टि के खंधा, खंधदेसा, खंधप्पएसा, परमाणुपोग्गला । ज्ञान को भी अज्ञान कहा जाता है। (अनु ४४४) ३. ज्ञान अज्ञान क्यों? रूपी अजीवद्रव्य के चार प्रकार हैं-स्कन्ध, सदसदविसेसणाओ भवहेउजदिच्छिओवलंभाओ। स्कन्धदेश, स्कन्धप्रदेश और परमाणुपुद्गल । नाणफलाभावाओ मिच्छहिट्रिस्स अण्णाणं ॥ (द्र. पुद्गल) (विभा ११५) मिथ्यादृष्टि का ज्ञान अज्ञान कहलाता है। उसके चार हेतु हैं - Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतीथंसिद्ध - अज्ञान तत्त्वों १. मिथ्यादृष्टि में सत्-असत् का विवेक नहीं होता। ४. अज्ञान भी क्षयोपशमभाव २. उसका ज्ञान भवभ्रमण का हेतु होता है। खओवसमिया मइअन्नाणलद्धी, खओवसमिया ३. वह अपनी इच्छा के अनुसार मोक्ष के हेतुभूत त सुयअन्नाणलद्धी, खओवस मिया विभंगनाणलद्धी"। को भवभ्रमण का हेतु मानता है। (अनु २८५) ४. उसको ज्ञान का फल (विरति) प्राप्त नहीं होता। मतिअज्ञान, श्रुतअज्ञान, विभंगज्ञान-ये क्षायोप___ मिथ्यादृष्टिः सर्वमप्येकान्तपुरस्सरं प्रतिपद्यते, न शमिकभाव हैं। भगवदुक्तस्याद्वादनीत्या । ततो घट एवायमिति यदा ब्रूते ५. मति-श्रत : ज्ञान, अज्ञान दोनों तदा तस्मिन् घटे घटपर्यायव्यतिरेकेण शेषान् सत्त्वज्ञेय अविसे सिया मई..-मइनाणं च मइअण्णाणं च। त्वप्रमेयत्वादीन्, सतोऽपि धर्मानपलपति, अन्यथा घट विसेसिया-सम्महिट्रिस्स मई मइनाणं, मिच्छद्दिट्रिस्स मई एवायमित्येकान्तेनावधारणानुपपत्तेः। घटः सन्नेवेति च । मइअण्णाणं । (नन्दी ३६) ब्रवाणः पररूपेण नास्तित्वस्यानभ्युपगमात् पररूपताम निविशेषणमति मतिज्ञान और मतिअज्ञान दोनों सतीमपि तत्र प्रतिपद्यते। ततः सन्तमसन्तं प्रतिपद्यते हैं। सविशेषणमति-सम्यग्दष्टि की मति मतिज्ञान तथा असन्तं च सन्तमिति सदसद्विशेषपरिज्ञानाभावादज्ञाने मिथ्यादष्टि की मति मतिअज्ञान कहलाती है। मिथ्यादृष्टेम तिश्रुते। (नन्दीमवृ प १४३) अविसेसियं सुयं-सुयनाणं च सुयअण्णाणं च। मिथ्यादृष्टि प्रत्येक वस्तु को एकान्तदृष्टि से विसेसियं -सम्मदिद्धिस्स सुयं सुयनाणं, मिच्छदिद्विस्स स्वीकार करता है, भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित सयं सयअण्णाणं । (नन्दी ३६) स्याद्वादपद्धति से नहीं। घट-प्रतिपत्ति के समय जब वह निविशेषणश्रुत-श्रुतज्ञान और श्रुतअज्ञान दोनों कहता है-'यह घड़ा ही है' तब वह घड़े में विद्यमान है। सविशेषणश्रुत -सम्यक्दष्टि का श्रुत श्रुतज्ञान सत्त्व, ज्ञेयत्व, प्रमेयत्व आदि अन्य पर्यायों का अपलाप तथा मिथ्यादृष्टि का श्रुत श्रुतअज्ञान कहलाता है। करता है। अन्यथा 'यह घट ही है'-ऐसी ऐकान्तिक ६. विभंगज्ञान अवधारणा नहीं हो सकती। यह घट ही है' .. इस __तं चेव ओहिणाणं मिच्छादिट्ठिस्स वितहभावकथन में घट में अविद्यमान पर-पर्यायों के नास्तित्व को गाहित्तणेण विभंगणाणं भण्णति। (आवच् १ पृ ६४) स्वीकार नहीं करता। इस प्रकार वह घट में अविद्यमान विपरीत तत्त्वग्राहिता के कारण मिथ्यादष्टि का पर्यायों को भी स्वीकार कर लेता है। वह सत् को असत् और असत् को सत् मानता है। सद्-असद् के ___ अवधिज्ञान विभंगज्ञान कहलाता है। विवेक से शून्य होने के कारण मिथ्यादृष्टि के मति और ७. अज्ञान तीन ही क्यों? श्रुत ज्ञान अज्ञान कहलाते हैं। (एकान्तवादी .."मइ-ओहिविवज्जासे वि होइ मिच्छं न उण सेसे ।। दृष्टिकोण में वस्तु का समग्रता से स्वीकार नहीं होता, (विभा ५३४) इसलिए ज्ञान भी अज्ञान कहलाता है।) - मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान का विपर्यास - __ मिथ्यादृष्टीनां मतिश्रुते ययावस्थितं वस्त्वविचार्यव। मन मति अज्ञान, श्रुत अज्ञान और विभंगज्ञान होता है। प्रवर्तते । ततो यद्यपि च ते क्वचिद्रसोऽयं स्पर्शोऽयमित्या शेष दो ज्ञानों-मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान का द्यवधारणाध्यवसायभावे संवादिनी तथापि न ते विपर्यास नहीं होता। अतः अज्ञाा तीन ही हैं...मतिस्याद्वादमुद्रापरिभावनातस्तथाप्रवत्तेः, किन्त यथा- अज्ञान, श्रुतअज्ञान और विभंगज्ञान । कथञ्चिद्, अतस्ते अज्ञाने। (नन्दीमव प १४३) अज्ञानवाद-(द्र. वाद) ___मिथ्यादृष्टि का मतिश्रुतज्ञान वस्तु की यथार्थता का अतिचार-आचार का अतिक्रमण । (द्र. आचार) चिन्तन नहीं करता। यद्यपि उससे कहीं संवादी अव- अतीर्थकरसिद्ध -तीर्थंकर के अतिरिक्त अन्य मुक्त धारण भी होता है, जैसे—यह रस है, यह स्पर्श है। होने वाले। (द्र. सिद्ध) तथापि यह स्याद्वाद की मर्यादा से परिभावित नहीं है, अतीर्थसिद्ध-तीर्थ-स्थापना से पहले मुक्त होने इसलिए उसके मतिज्ञान और श्रुतज्ञान भी अज्ञान हैं। वाले। (द्र. सिद्ध) For Private & Personal use only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधर्मलेश्या अधर्मलेश्या कृष्ण, नील और कापोत – ये तीन अधर्म (अशुभ) श्यायें हैं । (द्र. लेश्या) अधर्मास्तिकाय - जीव और पुद्गल की स्थिति में सहायक द्रव्य । (द्र अस्तिकाय) अधिगम सम्यक्त्व - गुरु के उपदेश अथवा किसी अन्य बाह्य निमित्त से मिलने वाला सम्यक्त्व | अनंत संख्या प्रमाण का एक उपभेद । अनगार — श्रमण । अनंतनाथ - चौदहवें तीर्थंकर । अनंतानुबंध - (द्र कषाय ) अनक्षरश्रुत- श्रुतज्ञान का एक भेद । संकेतात्मक ज्ञानपद्धति । (द्र श्रुतज्ञान) अगरं गृहं तं से णत्थि अणगारो । १. अनशन (दअचू पृ २३४) जिसके स्वयं का अगार - घर नहीं होता, वह अनगार है । (द्र. श्रमण ) अनवस्थाप्य - - तपस्यापूर्वक पुनर्दीक्षा । प्रायश्चित्त का एक भेद । (द्र प्रायश्चित्त) अनशन - अल्पकालिक अथवा यावज्जीवन आहार का परिहार | ० परिभाषा ० प्रकार २. इत्वरिक अनशन परिभाषा (द्र. सम्यक्त्व ) 0 (द्र संख्या) (द्र तीर्थंकर) ० प्रकार ० विधि • प्रायोपगमन का वैशिष्ट्य ० प्रकार ३. यावत्कथिक अनशन : सविचार-अविचार.. ० प्रकार - प्रायोपगमन. इंगिनी, भक्तप्रत्याख्यान | ४. प्रायोपगमन अनशन ० परिभाषा २२ ५. इंगिनी अनशन ६. भक्तप्रत्याख्यान ० परिभाषा ० विधि ७. अनशन के परिणाम * अनशन क्यों ? * अनशन : बाह्य तप का भेद * अनशन से पूर्व संलेखना * अनशन और आलोचना * अनशन और प्रतिक्रमण * प्रायोपगमन आदि अनशन इत्वरिक अनशन ( द्र. आहार ) (द्र. तप) (द्र. संलेखना ) ( द्र. आलोचना ) (व्र प्रतिक्रमण ) मरण के प्रकार ( व्र. मरण ) * तीर्थंकरों के प्रायोपगमन अनशन (द्र. तीर्थंकर) १. अनशन की परिभाषा असणं -- भोयणं । तस्स परिच्चातो अणसणं । ( अचू पृ १२ ) जं न असिज्जइ अणसणं, णो आहारिज्जइत्ति वृत्तं भवति । ( दजिचू पृ २१ ) अशन का अर्थ है - भोजन । उसका परित्याग करना अनशन है । किसी भी प्रकार का आहार ग्रहण न करना अनशन तं दुविहं इत्तिरियं आवकहियं च । है । अनशन के प्रकार इत्तिरिया मरणकाले, दुविहा अणसणा भवे । इत्तिरिया सावकंखा, निरवकखा बिइज्जिया ॥ ( उ ३०१९) (दअचू पृ १२ ) अनशन के दो प्रकार हैं १ . इत्वरिक, २. मरण काल अथवा यावत्कथिक । इत्वरिक सावकांक्ष ( अनशन के पश्चात् भोजन की इच्छा से युक्त) और यावत्कथिक निरवकांक्ष ( भोजन की इच्छा से मुक्त ) होता है । २. इत्वरिक अनशन की परिभाषा इत्तरियं णाम परिमितकालियं, तं चउत्थाउ आरद्धं जाव छम्मासा | ( दजिचू पृ २१ ) Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोपगमन २३ अनशन सीमित अवधि तक किया जाने वाला अल्पकालिक शरीर की परिचर्या, शुश्रुषा की जाती है, वह सपरिकर्म अनशन इत्वरिक कहलाता है। इसकी अवधि है -उपवास अनशन है ।। से छह मास पर्यन्त । जिसमें शारीरिक परिचर्या, शुश्रूषा नहीं की जाती, जो सो इत्तरियतवो, सो समासेण छव्विहो। वह अपरिकर्म अनशन है। सेढितवो पयरतवो, घणो य तह होइ वग्गो य । यद्वा परिकर्म-संलेखना सा यत्रास्ति तत्सपरितत्तो य वग्गवग्गो उ, पंचमो छट्ठओ पइण्णतवो । कर्म। व्याघाते गिरिभित्तिपतनाभिघातादिरूपे मणइच्छियचित्तत्थो, नायव्वो होइ इत्तरिओ॥ संलेखनामविधायव भक्तप्रत्याख्यानादि क्रियते तदपरिकर्म। (उ ३०/१०,११) (उशावृ प ६०३) इत्वरिक तप संक्षेप में छह प्रकार का है संलेखनापूर्वक किया जाने वाला अनशन सपरिकर्म १. श्रेणितप ४. वर्गतप २. प्रतरतप ५. वर्गवर्गतप शिलाखंड, भित्तिपतन आदि का व्याघात होने पर ३. धनतप ६. प्रकीर्णतप संलेखना किये बिना जो तत्काल अनशन किया जाता है, इत्वरिक तप नाना प्रकार के मनोवांछित फल देने वह अपरिकर्म है। वाला होता है। (द्र तप) प्रकार ३. यावत्कथिक अनशन : सविचार-अविचार... आवकहियं-जावज्जीविगं, तं तिविहं.---. जा सा अणसणा मरणे, दुविहा सा वियाहिया । पादोवगमणं इंगिणिमरणं भत्तपच्चक्खाणं । सवियारअवियारा, कायचिट्ठ पई भवे । (दअचू पृ १२) अहवा सपरिकम्मा, अपरिकम्मा य आहिया। यावत्कथिक-यावज्जीवन अनशन के तीन प्रकार नीहारिमणीहारी, आहारच्छेओ य दोसु वि ॥ (उ ३०/१२, १३) प्रायोपगमन, इंगिनीमरण, भक्तप्रत्याख्यान । कायचेष्टा के आधार पर यावत्कथिक (यावज्जीवन) ४. प्रायोपगमन अनशन की परिभाषा अनशन के दो भेद होते हैं पाओवगमणं णाम जो निप्पडिकम्मो पादउब्व जओ सविचार-हलन-चलन सहित । पडिओ तओ पडिओ चेव । (दजिचू पृ २१) अविचार --निश्चल, स्थिर । प्रायोपगमन अनशन निष्प्रतिकर्म होता है। इसको अथवा इसके दो भेद होते हैं स्वीकार करने वाला साधक जहां अनशन स्वीकार करता सपरिकर्म-शुश्रूषा या संलेखना सहित । है, वहीं वृक्ष की भांति निश्चेष्ट होकर पड़ा रहता है। अपरिकर्म --शुश्रुषा या संलेखना रहित । तं चिय होइ तहच्चिय णवरं चलणं परप्पओगाओ। अविचार अनशन के दो भेद होते हैं वायाईहिं तरुस्स व पडिणीयाईहिं तह तस्स ।। निर्हारि - उपाश्रय में किया जाने वाला। (उशा प ६०३) अनिर्हारि-उपाश्रय के बाहर गिरिकन्दरा आदि पर-प्रयोग के द्वारा ही उसमें हलन-चलन होती है । एकान्त स्थानों में किया जाने वाला। जैसे वायु के द्वारा वृक्ष प्रकंपित होता है, वैसे ही वह आहार का त्याग दोनों (सविचार, अविचार अथवा साधक प्रत्यनीक -देवकृत, मनुष्यकृत अथवा अन्यकृत सपरिकर्म, अपरिकर्म) में होता है । परिस्थितियों से ही प्रकम्पित होता है। सपरिकर्म-अपरिकर्म प्रकार सह परिकर्मणा -- स्थाननिषीदनत्वग्वर्तनादिना तं दुविहं-वाघातिमं निवाघातिमं च । विश्रामणादिना च वर्तते यत्तत्सपरिकर्म अपरिकर्म च (दअचू पृ १२) तद्विपरीतम् । (उशावृ प ६०२) प्रायोपगमन अनशन के दो प्रकार हैंजिसमें उठना, बैठना, सोना आदि क्रियाएं होती हैं, १. सव्याघात २. निर्व्याघात । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनशन प्रायोपगमन का वैशिष्ट्य सध्याघात समभावंमि ठियप्पा सम्म सिद्धतभणितमग्गेणं । वाघातिमं जं आउयं पहप्पंतं बला उवक्कामेति, गिरिकंदरं तु गंतुं पायवगमणं अह करेइ ।।।। वाधिगहितो वेयणाणहितासे वेहासादी वा करेति । सव्वत्थापडिबद्धो दंडाययमादिठाणमिह ठाउं । यावज्जीवं चिट्ठाइ णिच्चिद्रो पायवसमाणो । (दअचू पृ १२) किसी व्याघात-बाधा के उपस्थित होने पर आयु (उशावृ प ६०२) प्रायोपगमन अनशन करने वाला मुनि अर्हत् कर्म की उदीरणा कर जो अनशन किया जाता है, वह और गुरु को यथाविधि वंदन कर उनके पास चारों सव्याघात प्रायोपगमन है। अथवा व्याधिग्रस्त साधु आहार का प्रत्याख्यान करता है । वह समभाव में स्थित वेदना के असह्य हो जाने पर वैहायस आदि मरण हो सर्वथा अप्रतिबद्ध हो जाता है। फिर आगमिक विधि प्रकारों को अपनाता है, वह सव्याघात अनशन है। .. से गिरिकन्दरा में जाकर, दण्डायत आदि में से किसी निर्व्याघात एक आसनमुद्रा में स्थित हो जाता है। जीवनपर्यन्त वह निव्वाघातं सुत्तऽत्थ-तदुभयाणि गेण्हिऊण अव्वो- पादप के समान निश्चेष्ट होकर वहीं, उसी मुद्रा में स्थित च्छित्ति कातुं जरापरिणतो करेति। (दअचू पृ १२) रहता है। __ मुनि अपने गुरु के पास सूत्र, अर्थ और सूत्रार्थ की प्रायोपगमन का वैशिष्ट्यस्वयं वाचना लेता है तथा सूत्रार्थ परम्परा की अविच्छि भत्तपरिण्णा इंगिणी पाओवगमं च तिणि मरणाई। नता के लिए शिष्यों को वाचना देता है, फिर वृद्धावस्था कन्नसमज्झिमजेद्रा धिइसंघयणेण उ विसिट्ठा ।। में प्रायोपगमन अनशन स्वीकार करता है-यह (उनि २२५) निर्व्याघात अनशन है। भक्तपरिज्ञा, इंगिनी और प्रायोपगमन – ये तीनों निर्हारी-अनिहारी मरण क्रमशः विशिष्ट, विशिष्टतर और विशिष्टतम हैं। तिण्णि विणीहारिमा अनीहारिमा वा। धति (चित्त-स्वास्थ्य) और संहनन (शरीर-सामर्थ्य ) की (दअच पृ १२) अपेक्षा भक्तपरिज्ञा जघन्य, इंगिनी मध्यम तथा प्रायोपगमन - भक्तप्रत्याख्यान, इंगिनी और प्रायोपगमन-ये उत्तम मरण है। तीनों प्रकार के अनशन निर्हारी और अनिर्हारी-दोनों पढमंमि य संघयणे वट्टते सेलकुड्डुसमाणे । प्रकार के होते हैं। तेसिपि य वोच्छेओ चोदृसपूवीण वोच्छए । निर्झरो-गिरिकन्दरादिगमनेन ग्रामादेर्बहिर्गमनं (उशावृ प २३६) तद्विद्यते यत्र तन्निर्हारि । तदन्यदनिर्हारि यदुत्थातुकामे शैलकुड्य के समान मजबूत वज्र ऋषभनाराच संहनन प्रजिकादौ विधीयते । एतच्च प्रकारद्वयमपि पादपोपगमन वाला मुनि ही प्रायोपगमन अनशन कर सकता है। चौदह विषयम् । (उशाव प ६०३) पूर्वी के विच्छेद के साथ ही इस प्रथम संहनन का भी ( विच्छेद हो गया। प्रायोपगमन अनशन दो प्रकार का है--- निर्हारी-उपाश्रय में किया जाने वाला अनशन । पूव्वभवियवेरेणं देवो साहरइ कोऽवि पायाले । जिससे मृत्यु के पश्चात् उसका बाहर निर्हरण किया जा मा सो चरिमसरीरो न वेयणं किंपि पावेज्जा ।। सके बाहर ले जाया जा सके । देवो नेहेण नयइ. देवारण्णं व इंदभवणं वा । जहियं इट्टा कंता सव्वसुहा हुँति सुहभावा ।। अनिर्हारी-ग्राम से बाहर गिरि, कंदरा आदि उप्पण्ण उवसग्गे दिव्वे माणस्सए तिरिक्खे य । एकान्त स्थानों में किया जाने वाला अनशन । सव्वे पराजिणित्ता पाओवगया परिहरंति ।। प्रायोपगमन की विधि : पुव्वावरउत्तरेहिं दाहिणवाएहिं आवडतेहिं । अभिवंदिऊण देवे जहाविहं सेसए य गुरुमाई। जह नवि कंपइ मेरू तह झाणातो नवि चलंति ॥ पच्चक्खाइत्तु ततो तयंतिए. सव्वमाहारं ।। (उशाव प २३६) Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनशन के परिणाम अनशन - • पूर्व जन्म के वैर की स्मृति होने पर कोई देव भक्तप्रत्याख्यान अनशन नियमतः सप्रतिकर्म होता प्रायोपगमन अनशन में स्थित मुनि का संहरण कर उसे है। प्रतिकर्म का अर्थ है-उद्वर्तन-परिवर्तन (करवट पाताल में ले जाता है, तब भी वह चरमशरीरी मुनि बदलना) आदि क्रियाएं करना । किसी वेदना का संवेदन नहीं करता। विधि . ० कोई देव स्नेहवश उसे देवकानन अथवा इन्द्रभवन में ले जाता है, जहां सब प्रकार के सुख उपलब्ध हैं, वहां भक्तप्रत्याख्याने गच्छमध्यवर्ती गुरुदत्तालोचनो भी वह उन कामभोगों में लुब्ध नहीं होता। मरणायोद्यतो विधिना संलेखनां विधाय ततस्त्रिविधं वह दैविक, मानुषिक और तैरश्चिक उपसर्गों से चतुर्विधं वाऽऽहारं प्रत्याचष्टे । स च समाश्रितमृदुसंस्तारक: अभिभूत नहीं होता। समुत्सृष्टशरीराद्युपकरणममत्वः स्वयमेवोद्ग्राहितनमस्कारः पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण —चारों दिशाओं से __ समीपवत्तिसाधुदत्तनमस्कारो वा । सत्यां शक्तौ स्वयमुद्वर्त्तते। शक्तिविकलतायां चापरैरपि किञ्चित्कारयति । आने वाली वायु से जैसे मेरु प्रकंपित नहीं होता, वैसे ही उपसर्ग आने पर वह मुनि ध्यान से विचलित नहीं होता। (उशावृ प ६०२) __ भक्तप्रत्याख्यान अनशन के लिए उद्यत मुनि संघ में ५. इङ्गिनीमरण रहता हआ गुरु के पास आलोचना कर विधिपूर्वक इंगियमरणविहाणं आपव्वज्जं तु वियडणं दाउं । संलेखना करता है। फिर तीनों अथवा चारों आहारों का संलेहणं च काउं जहासमाही जहाकालं । त्याग करता है । वह मृदु संस्तारक पर सोता है, शरीर पच्चक्खति आहारं चउव्विहं णियमओ गुरुसगासे । और उपकरणों पर ममत्व नहीं करता, नमस्कार महामंत्र इंगियदेसंमि तहा चेलैंपि हु इंगियं कुणइ ॥ का स्वयं जप करता है तथा दूसरों से सुनता है । शक्ति उव्वत्तइ परियत्तइकाइयामाईसु होइ उ विभासा । होने पर स्वयं अपना कार्य करता है । शक्ति न होने पर किच्चंपि अप्पणुच्चिय मुंजइ नियमेण धीबलिओ। दूसरों से भी अपना कार्य करवाता है । (उशात् प६०२) इंगिनीमरण अनशन के लिए उद्यत मुनि गुरु के पास ७. अनशन के परिणाम आलोचना कर संलेखना प्रारंभ करता है। फिर अवसर भत्तपच्चक्खाणेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? भत्तदेखकर यथासमाधि गुरु के समक्ष नियमत: चारों आहारों पच्चक्खाणेणं अणेगाइं भवसयाई निरुंभइ। (उ २९/४१) (अशन-पान-खाद्य-स्वाद्य) का प्रत्याख्यान करता है। वह भन्ते ! भक्तप्रत्याख्यान अनशन से जीव क्या इंगित निर्दिष्ट सीमित स्थान में सीमित प्रवृत्ति करता प्राप्त करता है ? भक्तप्रत्याख्यान से जीव अनेक सैकड़ों है। वह धुतिसम्पन्न मुनि उद्वर्तन-परिवर्तन आदि क्रियाएं जन्म-मरणों का निरोध करता है। .. तथा अपनी सारी आवश्यक प्रवृत्तियां स्वयं करता है। तथाविधदृढाध्यवसायतया संसाराल्पत्वापादनात् । ६. भक्तप्रत्याख्यान की परिभाषा (उशाव प ५८९) । सव्वं च असणपाणं चउव्विहं जा य बाहिरा उवही। भक्तप्रत्याख्यान अनशन का परिणाम है-जन्म अभितरं च उहिं जावज्जीवं च वोसिरे। परम्परा का अल्पीकरण । इसका हेतु है-आहार-त्याग (उशावृ प २३५) तथा ममत्वत्याग का दृढ अध्यवसाय।। भत्तपच्चक्खाणं नियमा सपडिकम्मं । पडिकम्म एयं पच्चक्खाणं अणुपालेऊण सुविहिओ सम्म । उव्वत्तण-परियत्तणादि । (दअचू पृ १२) वेमाणितो व देवो हवेज्ज अहवाऽवि सिज्झिज्जा ॥ भक्तपरिज्ञा अनशन में चारों आहार (अशन-पान (उशाव प २३६) खाद्य-स्वाद्य), बाह्य तथा आभ्यन्तर उपधि का याव- अनशनपूर्वक जीवन यात्रा सम्पन्न करने वाला मुनि ज्जीवन के लिए त्याग किया जाता है। या तो वैमानिक देव होता है या वह सिद्ध होता है। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचार अनाचार २६ बावन अनाचार अनाचार-विहित आचार का अतिक्रमण । १. औद्देशिक-निर्ग्रन्थ के निमित्त बनाया गया आहार आदि लेना। १. अनाचार के अर्थ २. क्रीतकृत-निर्ग्रन्थ के निमित्त खरीदा गया आहार २. बावन अनाचार आदि लेना। ३. अनाचार के हेतु ३. नित्याग्र-आदरपूर्वक निमन्त्रित कर प्रतिदिन * औद्देशिक आदि अनाचार : एषणा के दोष दिया जाने वाला आहार आदि लेना।' (द्र. एषणा) • अनाचीर्ण का प्रतिक्रमण ४. अभिहृत-निर्ग्रन्थ के निमित्त दूर से सम्मुख लाया (उ. प्रतिक्रमण) * आचार के स्थान (द्र. आचार) गया आहार आदि लेना। ५. रात्रि-भक्त-रात्रि-भोजन करना। १. अनाचार के अर्थ ६. स्नान-नहाना। अणायारो अकरणीयं वत्थु । (दअचू पृ १९३) ७. गंध-गंध सूंघना या गंध-द्रव्य का विलेपन अणायारो उम्मग्गोत्ति वुत्तं भवइ । करना। (दजिचू पृ २८५) ८. माल्य-माला पहनना। अनाचारं सावद्ययोगम् । (दहावृ प २३३) ९. वीजन-पंखा झलना। अनाचार के तीन अर्थ हैं.---अकरणीय कार्य, १०. सन्निधि-खाद्यवस्तु का संग्रह करना--रात-बासी उन्मार्ग-गमन और सावध प्रवृत्ति ।। रखना। २.बावन अनाचार ११. गृहि-अमत्र-गृहस्थ के पात्र में भोजन करना । उद्देसियं कीयगडं, नियागमभिहडाणि य । १२. राजपिण्ड-मूर्धाभिषिक्त राजा के घर से भिक्षा राइभत्ते सिणाणे य, गंधमल्ले य वीयणे ।। लेना । सन्निही गिहिमत्ते य, रायपिंडे किमिच्छए । १३. किमिच्छक --'कौन क्या चाहता है ?' यों पूछकर संबाहणा दंतपहोयणा य, संपुच्छणा देहपलोयणा य॥ दिया जाने वाला भोजन आदि लेना। अट्ठावए य नालीय, छत्तस्स य धारणढाए । १४. संबाधन-अंग-मर्दन करना । तेगिच्छं पाणहा पाए, समारंभं च जोइणो ।। १५. दंत-प्रधावन-दांत पखारना । सेज्जायरपिंडं च, आसंदीपलियंकए । १६. संप्रच्छन-गृहस्थ को कुशल पूछना । गिहतरनिसेज्जा य, गायस्सुव्वट्टणाणि य ।। १७ देह-प्रलोकन-दर्पण आदि में शरीर देखना। गिहिणो वेयावडियं जा य आजीववित्तिया। १८. अष्टापद- शतरंज खेलना । तत्तानिव्वुडभोइत्तं आउरस्सरणाणि य ॥ १९. नालिका-नलिका से पासा डाल कर जुआ मूलए सिंगबेरे य, उच्छुखंडे अनिव्वुडे । खेलना। कंदे मूले य सच्चित्ते, फले बीए य आमए । २०. छत्र-विशेष प्रयोजन के बिना छत्र धारण सोवच्चले सिंधवे लोणे, रोमालोणे य आमए । करना। सामुद्दे पंसुखारे य, कालालोणे य आमए । २१. चैकित्स्य-रोग का प्रतिकार करना, चिकित्सा धवणेत्ति वमणे य, वत्थीकम्म विरेयणे । __ करना। अंजणे दंतवणे य, गायाभंगविभूसणे ॥ २२. उपानत्-जूते पहनना। (द ३२-९) २३. ज्योतिःसमारम्भ-अग्नि जलाना। बावन अनाचार जो निर्ग्रन्थ के लिए अनाचीर्ण हैं वे २४. शय्यातरपिण्ड-स्थान-दाता के घर से भिक्षा इस प्रकार हैं लेना। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनाचार के हेतु २५. आसंदी - मञ्चिका पर बैठना । २६. पर्यंक -- पलंग पर बैठना । २७. गृहांतर निषद्या - भिक्षा करते समय गृहस्थ के घर में बैठना । २८. गात्र - उद्वर्तन- उबटन करना । ३०. आजीववृत्तिता २९. गृहि-वैयापृत्य – गृहस्थ को भोजन का संविभाग देना, गृहस्थ की सेवा करना । जाति, कुल, गण, शिल्प और कर्म का अवलम्बन ले भिक्षा प्राप्त करना । ३१. तप्त - अनिर्वृतभोजित्व - अर्ध पक्व सजीव वस्तु का उपभोग करना । ३२. आतुरस्मरण – आतुर - दशा में भुक्त भोगों का स्मरण करना । ३३- ३९. सजीव मूली, अदरक, इक्षुखंड, कंद और मूल; अपक्व फल और बीज - इन्हें लेना व खाना । ४०-४५. अपक्व सौवर्चल नमक, सैन्धव नमक, रुमा नमक, समुद्र का नमक, ऊषर भूमि का नमक तथा काला नमक -- इन्हें लेना व खाना । ४६. धूम - नेत्र - धूम्रपान की नलिका रखना । ४७. वमन – रोग की संभावना से बचने के लिए तथा रूप-बल आदि को बनाए रखने के लिए वमन करना। ४८. वस्तिकर्म - विरेचन – अपान-मार्ग से तैल आदि चढ़ाना और विरेचन करना । ४९. अंजन - आंखों में अंजन आंजना । ५०. दंतवण - दांतों को दतीन से घिसना । ५१. गात्र - अभ्यंग - शरीर पर तैल-मर्दन करना । ५२. विभूषण--- शरीर को अलंकृत करना । ३. अनाचार के हेतु उद्देसियादि विभूसतं अणायरणकारणाणि उद्देसिते सत्तवहो । कीतकडे गवादिअहिकरणं । णीताए तदट्ठमुपक्खडणं । आहडे छक्कायवहो । रातिभत्ते सत्तविराहणा । सिणाणे विभूसा उप्पीलावणादि । गंध-मल्ले सुहुमघाय - उड्डाहा । वीयणे संपादिमवायुवहो । सणिही ए हिय णट्ठे पिपी लियादिवहो । गिहिमत्ते आउक्कायवहो, य दवावणं । रायपिंडे संबाहेण विराहणा उक्कोसलंभे बाह सुत्तत्पलिमंथो य एसणाघात । २७ (अ) तब्भावणं च दंतपधोवणे दंत विभूसा । संपुच्छणे पावाणुमोदणं । संलोयणेण बंभपीडा । अट्ठावय-णालीयाए हणादतो उड्डाहो य । छत्ते उड्डाहो गव्वो य । तेगिच्छे सुत्त त्यपमिंथो । उवाहणाहि गव्वादि । जोतिसमारंभे काय हो । सेज्जातरपिंडे एसणादोसा । आसंदी - पलियं सु सुसिरदोसा । गिहंतरणिसेज्जाए अगुत्ती बंभचेरस्स संकातो । गाउव्वट्टणाए गायविभूसा । गिहिणो वेतावडिए अहिकरणं । आजीववित्ती अणिस्संगता । तत्तानिव्वुडभोइयत्ते सत्तवहो । आउरसरणे उपव्वावणादि । मूला दिग्गहणे वणस्सतिघातो । सोवच्चलादीणं पुढविकाय हो । धूवणादि विभूसा । एते दोसा इति । (दअचू पृ ६२, ६३ ) अनाचार अनाचार के हेतु— १. औद्दे शिक - जीववध | २. क्रीतकृत - अधिकरण । - ३. नित्याय – मुनि के लिए भोजन का समारंभ । ४. आहृत - षट्जीवनिकाय का वध । ५. रात्रिभक्त - जीववध । - विभूषा और उत्प्लावन । ६. स्नान - ७. गंधमाल्य-सूक्ष्म जीवों की घात और लोकापवाद । ८. वीजन - संपातिम वायु का वध । ९. सन्निधि - पिपीलिका आदि जीवों का वध । १०. गृहस्थ का भाजन - अपकायिक जीवों का वध । कोई उस पात्र का हरण कर ले या नष्ट हो जाए तो दूसरा दिलाना होता है । ११. राजपिंड - भीड़ के कारण विराधना । उत्कृष्ट भोजन के प्राप्त होने से एषणा का घात । १२. संबाधन – सूत्र और अर्थ की हानि तथा शरीरासक्ति का विकास । १३ दंतधावन - दंत-विभूषा । १४. संप्रश्न - पाप का अनुमोदन । १५. संलोकन - ब्रह्मचर्य का घात । १६. द्यूत - निग्रह आदि तथा लोकापवाद । १७. नालिकाद्यूत - निग्रह आदि तथा लोकापवाद । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुप्रेक्षा बारह अनुप्रेक्षाएं १८. छत्र-लोकापवाद, अहंकार । अनुगम-व्याख्या का तीसरा द्वार। अस्तित्व, १९. चिकित्सा-सूत्र और अर्थ की हानि । नास्तित्व, द्रव्यमान, क्षेत्र, स्पर्शना, काल २०. उपानत्-गर्व आदि। .. आदि अनेक पहलुओं से व्याख्या करना । २१. अग्निसमारंभ-जीववध । (द्र. अनुयोग) २२. शय्यातरपिंड-एषणा दोष । अनुत्तरोपपातिक-अनुत्तर विमान में उत्पन्न होने २३. आसन्दी और पर्य -शुषिर में रहे जीवों की। वाले देव। (द्र. देव) विराधना की संभावना। अनुत्तरोपपातिकदशा-जैन आगम, नौवां अंग। २४. गृहान्तरनिषधा-ब्रह्मचर्य की अगुप्ति, शंका आदि (द्र. अंगप्रविष्ट) दोष । अनुप्रेक्षा--मन की मूर्छा को तोड़ने वाले विषयों २५. गात्र-उद्वर्तन -विभूषा । का अनुचिन्तन । २६. गृहिवयापृत्य-अधिकरण । १. बारह अनुप्रेक्षाएं २७. आजीववृत्तिता--आसक्ति । २. अनित्य अनुप्रेक्षा २८. तप्तानिरवतभोजित्व...- जीववध । ३. अशरण अनुप्रेक्षा २९. आतुरस्मरण-दीक्षात्याग आदि । ४. संसार अनुप्रेक्षा ३०. मूल आदि का ग्रहण-वनस्पति का घात । .. ५. एकत्व अनुप्रेक्षा ३१. सौवर्चल आदि नमक का ग्रहण-पृथ्वीकाय का | ६. अन्यस्व अनुप्रेक्षा विघात। ७. अशौच अनुप्रेक्षा ३२. धूपन आदि-विभूषा। ८. आश्रय अनुप्रेक्षा अनाथ-(द्र. नाथ) ९. संवर अनुप्रेक्षा १०. निर्जरा अनुप्रेक्षा मनादिश्रुत-वह श्रुत जो आदि रहित है।। ११. धर्म अनुप्रेक्षा श्रुतज्ञान का एक भेद । (द्र. श्रुतज्ञान) | १२. लोक अनुप्रेक्षा अनानुगामिक-अवधिज्ञान का एक प्रकार, जो | १३. बोधिदुर्लभ अनुप्रेक्षा ।.. ज्ञाता का अनुगमन नहीं करता। | १४. अनुप्रेक्षा के परिणाम (द्र. अवधिज्ञान) * अनुप्रेक्षा : स्वाध्याय का एक प्रकार (इ. स्वाध्याय) अनानुपूर्वी-(द्र. आनुपूर्वी) | * धर्मशुक्ल ध्यान की अनुप्रेक्षा (द्र. ध्यान) । • अनुप्रेक्षा और भावना (द्र. मावना), अनित्य अनुप्रेक्षा-पदार्थों की नश्वरता का - अनुचिन्तन । (द्र. अनुप्रेक्षा) १. बारह अनुप्रेक्षाएं अनिवत्तिकरण-ग्रंथि-भेद होने पर जिस परिणाम ........"अणिच्चाइभावणा.."आदिशब्दादशरणकत्व से अन्तर्महत , स्थिति वाले संसारपरिग्रहः, एताश्च द्वादशानुपंक्षा भावयितव्याः । मिथ्यात्व दलिकों का पूर्ण उप a (आवहाव २ पृ.७६) अनुप्रेक्षा के बारह प्रकार है-- शमन किया जाता है । करण का .. १. अनित्य ७. आश्रव तीसरा प्रकार। (द्र. करण) २. अशरण ८. संवर अनिवृत्तिबादर-जिस जीव के स्थूल कषाय का थोड़ा ३. संसार ९. निर्जरा अंश बाकी रहता है, उसकी . ४. एकत्व १०. धर्म आत्म-विशुद्धि । नौवां गुणस्थान ।। ५. अन्यत्व ११. लोक (द्र. गुणस्थान) ६. अशौच १२. बोधिदुर्लभ : Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Mara-भोगों की अनित्यता २. अनित्य अनुप्रेक्षा संगविजयनिमित्तमणिच्चताणुप्पेहं आरमतेसव्वाणाई असासताइं इह चेव देवलोगे य । सुर-असुर-नरादीणं रिद्धिविसेसा सुहाई वा ॥ ( अचू पृ १८ ) सक्ति-विलय के लिए अनित्य अनुप्रेक्षा का अभ्यास किया जाता है सब स्थान अशाश्वत हैं- चाहे इहलोक हो या देवलोक । सुर, असुर, मनुष्य आदि की ॠद्धि, सुख सब अनित्य हैं । दुमपत्त पंडुए जहा निवडइ राइगणाण अच्चए । एवं मणुयाण जीवियं समयं गोयम ! मा पमायए । कुसग्गे जह ओस बिंदुए, थोवं चिट्ठइ लंबमाणए । एवं मणुयाण जीवियं समयं गोयम ! मा पमायए । ( उ १०।१, २) पका हुआ पत्ता जिस प्रकार मनुष्य का जीवन इसलिए हे गौतम! तू रात्रियां बीतने पर वृक्ष का प्रकार गिर जाता है, उसी एक दिन समाप्त हो जाता है, क्षण भर भी प्रमाद मत कर । कुश की नोक पर लटकते हुए ओस बिन्दु की अवधि जैसे थोड़ी होती है, वैसे मनुष्य का जीवन भी अल्पकालिक है, इसलिए हे गौतम! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर । जीवियं चेव रूवं च विज्जुसंपायचंचलं । जत्थ तं मुज्झती रात्रं, पेच्चत्थं नावबुज्झसे ।। (उ १८ ।१३) राजन् ! तू जहां मोह कर रहा है, वह जीवन और सौन्दर्य बिजली की चमक के समान चंचल है । तू परलोक के हित को क्यों नहीं समझ रहा है ? पडंत निच्छीरं । भणइ गाहं ॥ होहिहा जहा अम्हे । किसलयाणं ॥ ( अनु ५६९।२,३) वृन्त से टूटते हुए पीले पत्तों को देख कोंपलों ने उपहास किया, तब पत्तों ने कहा - जरा ठहरो, एक दिन तुम पर भी वही बीतेगी जो आज हम पर बीत परिजू रियपेतं, चलंतबेंट पत्तं वसणप्पत्तं कालप्पत्तं हब्भे तह अम्हे तुम्हे वि अ अप्पा पडतं पंडुयपत्तं रही है। २९ अनुप्रेक्षा परिभवसि किमिति लोकं, जरसा परिजर्जरीकृतशरीरम् । अचिरात् त्वमपि भविष्यसि यौवनगर्वं किमुद्वहसि ।। ( उसुवृ प १६० ) दूसरों के जरा से जीर्ण शरीर को देख उपहास क्यों करते हो ? एक दिन तुम भी ऐसे ही हो जाओगे, इसलिए यौवन का गर्व मत करो । परिजूरइ ते सरीरयं, केसा पंडुरया हवंति ते । 'चक्खुबले य हायई... " जिब्भबले य हायई" " सव्वबले य हायई, से सोयबले य हाय ..... घाणबले य हायई" ...''फासबले य हायई” समयं गोयम ! मा पमायए ।। ( उ १०।२१-२६) तेरा शरीर जीर्ण हो रहा है, केश सफेद हो रहे हैं । श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, जिह्वा और स्पर्श – इन पांचों इन्द्रियों की शक्ति तथा पूर्ववर्ती सब प्रकार का बल क्षीण हो रहा है, इसलिए हे गौतम! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर । असासयं दट्टु इमं विहारं बहुअन्तरायं न य दीहमाउं ।'''' (उ १४।७) यह मनुष्य-जीवन अनित्य है । इसमें भी विघ्न बहुत हैं और आयु थोड़ी है । शरीर की अनित्यता असासए सरीरम्मि र नोवलभामहं । पच्छा पुरा व चइयव्वे फेणबुब्बुयसन्निभे ।। माणुसत्ते असारम्मि वाहीरोगाण आलए । जरामरणघत्थम्मि खणं पि न रमामहं || ( १९।१३,१४) इस अशाश्वत शरीर में मुझे आनन्द नहीं मिल रहा है । इसे पहले या पीछे जब कभी छोड़ना है। यह पानी के बुलबुले के समान नश्वर है । मनुष्य जीवन असार है, है, जरा और मरण से ग्रस्त है आनन्द नहीं मिल रहा है । काम-भोगों की अनित्यता अच्चेइ कालो तूरंति राइओ उविच्च भोगा पुरिसं चयंति व्याधि और रोगों का घर । इसमें मुझे एक क्षण भी न यावि भोगा पुरिसाण निच्चा । दुमं जहा खीणफलं व पक्खी ॥ ( उ १३।३१ ) Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुप्रेक्षा जीवन बीत रहा है। रात्रियां दौड़ी जा रही हैं। मनुष्यों के भोग भी नित्य नहीं हैं । वे मनुष्य को प्राप्त कर उसे छोड़ देते हैं, जैसे क्षीण फल वाले वृक्ष को पक्षी । कुसग्गमेत्ता इमे कामा सन्निरुद्धमि आउए । कस्स हेउं पुराकाउं जोगक्खेमं न संविदे ? ॥ ( उ ७/२४) इस अति - संक्षिप्त आयु में ये काम भोग कुशाग्र पर स्थित जल - बिन्दु जितने हैं । फिर भी किस हेतु को सामने रखकर मनुष्य योगक्षेम को नहीं समझता ? जया सव्वं परिच्चज्ज गंतव्वमवसस्स ते । अणिच्चे जीवलग म्मि किं रज्जम्मि पसज्जसि ? ।। (उ १८ ।१२) पराधीन है और इसलिए सब कुछ राजन् ! तू छोड़कर तुझे चले जाना है, तब इस अनित्य जीव-लोक में तू क्यों राज्य में आसक्त हो रहा है ? ३. अशरण अनुप्रेक्षा धम्मे थिरताणिमित्तं असरणतं चितयति - जम्म-जरा-मरण भएहऽभिदुते विविवाहितत्ते । लोगम्मि णत्थि सरणं जिणिदवरसासणं मोत्तुं ॥ ( दअचू पृ १८ ) धर्मनिष्ठा के विकास के लिए अशरण अनुप्रेक्षा की जाती है जन्म, जरा और मृत्यु के भय से पीड़ित तथा विविध व्याधियों से संतप्त लोक में अन्य कोई शरण नहीं है । अर्हत्-प्रज्ञप्त धर्म ही सच्ची शरण है । भज्जा पुत्ता य ओरसा । लुप्पंतस्स सकम्मुणा ॥ (3 613) जब मैं अपने द्वारा किए गए कर्मों से छिन्न-भिन्न होता हूं, तब माता-पिता, पुत्रवधू, भाई, पत्नी और पुत्र- ये सभी मेरी रक्षा करने में समर्थ नहीं होते । जह सीहो व मियं गहाय, मच्चू नरं नेइ हु अंतकाले । माया पिया ण्हुसा भाया, नालं ते मम ताणाय, न तस्स माया व पिया व भाया कालम्मि तम्मिसहरा भवंति ।। ( उ १३।२२) संसार अनुप्रेक्षा जिस प्रकार सिंह हरिण को पकड़ कर ले जाता है, उसी प्रकार अन्तकाल में मृत्यु मनुष्य को पकड़कर ले जाती है । उस समय उसके माता-पिता या भाई अंशधर नहीं होते -- अपने जीवन का भाग देकर उसे बचा नहीं पाते । ३० सव्वं जगं जइ तुहं सव्वं वावि धणं भवे । सव्वं पि ते अपज्जत्तं नेव ताणाय तं तव ।। ( उ १४१३९) यदि समूचा जगत् तुम्हें मिल जाए अथवा समूचा धन तुम्हारा हो जाए तो भी वह तुम्हारी इच्छापूर्ति के लिए पर्याप्त नहीं होगा और वह तुम्हें त्राण भी नहीं दे सकेगा । ४. संसार अनुप्रेक्षा संसारुव्वेगकरणं संसाराणुप्पेहा धी ! संसारो जहियं जुवाणओ परमरुवगव्वियओ । मरिऊण जायइ किमी तत्थेव कलेवरे नियए || ( अचू पृ १८ ) धिक्कार है इस संसार को, जहां अपने सौन्दर्य पर अभिमान करने वाला युवक मृत्यु के पश्चात् अपने ही शरीर में कृमि के रूप में उत्पन्न हो जाता है । इस प्रकार संसार से विरक्त होने के लिए संसार अनुप्रेक्षा का अभ्यास किया जाता है । असासयंमि, संसारंमि अवे दुक्खपउराए । किं नाम होज्जतं कम्मयं, जेणाहं दोग्गइं न गच्छेज्जा ॥ ( उ ८1१) अध्रुव, अशाश्वत और दुःख - बहुल संसार में ऐसा कौन-सा अनुष्ठान है, जिससे मैं दुर्गति में न जाऊं ? जम्म दुक्खं जरा दुक्खं रोगा य मरणाणि य । अहो दुक्खो हु संसारो जत्थ कीसंति जंतवो ॥ जन्म दुःख है, बुढ़ापा दुःख है, मृत्यु दुःख है । अहो ! यह संसार जीव क्लेश पा रहे हैं । ( उ १९।१५) रोग दुःख है और दुःखमय है । इसमें समावन्नाण संसारे, नाणागोत्तासु जाइसु । कम्मा नाणाविहा कट्टु, पुढो विस्संभिया पया ॥ ( उ ३/२) संसारी जीव विविध प्रकार के कर्मों का अर्जन कर Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकत्व अनुप्रेक्षा अनुप्रेक्षा विविध गोत्र वाली जातियों में उत्पन्न हो, पृथक्-पृथक् रही है, उसमें मेरा कुछ भी नहीं जल रहा है। रूप से समूचे विश्व का स्पर्श कर लेते हैं-सभी स्थानों सब बन्धनों से मुक्त, 'मैं अकेला हूं, मेरा कोई नहीं' में उत्पन्न हो जाते हैं। इस प्रकार एकत्वदर्शी, गृहत्यागी एवं तपस्वी भिक्षु को जारिसा माणसे लोए, ताया ! दीसंति वेयणा । विपुल सुख होता है। एत्तो अणंतगुणिया, नरएसु दुक्खवेयणा ॥ एकोऽहं न च मे कश्चिन, नाहमन्यस्य कस्यचित् । (उ १९/७३) न तं पश्यामि यस्याहं, नासौ दृश्योऽस्ति यो मम ॥ मनुष्य लोक में जैसी वेदना है, उससे अनन्तगुनी (उशा प ३०७) दुःखदायी वेदना नरक में है। मैं अकेला हूं, मेरा कोई नहीं है । मैं किसी का नहीं 1. सव्वभवेसु अस्साया, वेयणा वेइया मए। हूं। मैं उसको नहीं देखता, जिसका मैं हैं। जो मेरा है, निमेसंतरमित्तं पि, जं साया नत्थि वेयणा ।। वह दृश्य नहीं है। (उ १९७४) एगभूओ अरण्णे वा, जहा उ चरई मिगो। मैंने सभी जन्मों में दुःखमय वेदना का अनुभव किया एवं धम्म चरिस्सामि, संजमेण तवेण य॥ है। वहां एक निमेष का अन्तर पड़े उतनी भी सुखमय (उ १९/७७) वेदना नहीं है। जैसे जंगल में हरिण एकाकी विचरता है, वैसे मैं भी सारीरमाणसा चेव, वेयणाओ अणंतसो। संयम और तप के साथ एकाकी भाव को प्राप्त कर धर्म मए सोढाओ भीमाओ, असई दुक्खभयाणि य ।। का आचरण करूंगा। (उ १९५४५) न तस्स दुक्खं विभयंत्ति नाइओ, मैंने संसार में भयंकर शारीरिक और मानसिक न मित्तवग्गा न सुया न बंधवा । वेदनाओं को अनन्त बार सहा है और अनेक बार दुःख एक्को सयं पच्चणुहोइ दुक्खं, एवं भय का अनुभव किया है। कत्तारमेवं अणुजाइ कम्मं ।। ५. एकत्व अनुप्रेक्षा (उ १३/२३) संबंधिसंगविजताय एगत्तमणुपेहेति ज्ञाति, मित्रवर्ग, पुत्र और बान्धव-कोई दुःख नहीं बंटा सकता । व्यक्ति स्वयं अकेला दुःख का अनुभव करता एक्को करेति कम्मं, फलमवि तस्सेक्कओ समणुहोइ । है। क्योंकि कर्म केवल कर्ता का ही अनुगमन करता है। एक्को जायइ मरइ य, परलोयं एक्कओ जाइ। (दअचू पृ १८) चेच्चा दुपयं च चउप्पयं च, खेत्तं गिहं धणधन्नं च सव्वं । जीव अकेला कर्म करता है, अकेला उसका फल कम्मप्पबीओ अवसो पयाइ, परं भवं सुंदर पावगं वा ॥ भोगता है, अकेला जन्मता है, अकेला मरता है और (उ १३/२४) अकेला ही परलोक में जाता है। इस प्रकार पारिवारिक यह पराधीन आत्मा द्विपद, चतुष्पद, खेत, घर ममत्व-विसर्जन के लिए एकत्व अनुप्रेक्षा का अभ्यास धान्य, वस्त्र आदि सब कुछ छोड़कर केवल अपने किये किया जाता है। कर्मों को साथ लेकर अकेला ही सुखद या दुःखद परभव सुहं वसामो जीवामो, जेसि मो नत्थि किंचण । में जाता है। मिहिलाए डज्झमाणीए, न मे डज्झइ किंचण ।। संसारमावन्न परस्स अट्ठा, साहारणं जं च करेइ कम्म । बहुं खु मुणिणो भई, अणगारस्स भिक्खुणो । कम्मस्स ते तस्स उ वेयकाले, न बंधवा बंधवयं उति ।। सव्वओ विप्पमुक्कस्स, एगंतमणुपस्सओ॥ (उ ४/४) (उ ९/१४,१६) संसारी प्राणी अपने बन्धुजनों के लिए जो साधारण वैराग्य से ओतप्रोत महाराज नमि अभिनिष्क्रमण के कर्म (इसका फल मुझे भी मिले और उनको भी-ऐसा समय ब्राह्मण के रूप में उपस्थित देवेन्द्र को एक प्रश्न के कर्म) करता है, उस कर्म के फल-भोग के समय वे बन्धुजन उत्तर में कहते हैं जिनके पास अपना कुछ भी नहीं है, बन्धुता नहीं दिखाते-उसका भाग नहीं बंटाते। कर्म वे सुखपूर्वक रहते हैं और सुख से जीते हैं । मिथिला जल करने वाले को ही फल भुगतना पड़ता है। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुप्रेक्षा ६. अन्यत्व अनुप्रेक्षा दाराणि य सुया चेव, मित्ता य तह बंधवा । जीवंत जीवंत मयं, नाणुव्वयंति य ॥ (उ १८३१४) स्त्री, पुत्र, मित्र और बांधव जीवित व्यक्ति के साथ जीते हैं । किन्तु वे मृतक का अनुगमन नहीं करते । तं इक्कगं तुच्छसरीरगं से, चिगयं डहिय उ पावगेणं । भज्जा य पुत्ताविय नायओ थ, दायारमन्नं अणुसंकमंति ॥ ( उ १३।२५ ) ( अपने प्रिय के ) उस अकेले और असार शरीर को अग्नि से चिता में जलाकर स्त्री, पुत्र और ज्ञाति किसी दूसरे दाता (जीविका देने वाले) के पीछे चले जाते हैं । नीहरंति मयं पुत्ता, पियरं परमदुक्खिया । पियरो वि तहा पुत्ते, बंधू रायं ! तवं चरे ॥ (उ १८ ।१५) पुत्र अपने 'मृत पिता को परम दुःख के साथ श्मशान ले जाते हैं और इसी प्रकार पिता भी अपने मृत पुत्रों और बंधुओं को श्मशान ले जाता है । (कोई किसी का नहीं है ।) इसलिए हे राजन् ! तू तपश्चरण कर । ७. अशौच अनुप्रेक्षा इमं सरीरं अणिच्चं, असुइं असुइसंभवं । असासयावास मिणं, दुक्खकेसाण भायणं ॥ ( उ १९/१२) यह शरीर अनित्य है, अशुचि है और अशुचि से उत्पन्न है । यह आत्मा का अशाश्वत आवास तथा दुःख और क्लेशों का भाजन है । अरई गंडं विसूइया, आयंका विविहा फुसंति ते । विass विद्धंसइ ते सरीरयं समयं गोयम ! मा पमायए ।। ( उ १०।२७) पित्त रोग, फोड़ा - फुन्सी, हैजा और विविध प्रकार के शीघ्रघाती रोग शरीर का स्पर्श करते हैं, जिनसे यह शरीर शक्तिहीन और विनष्ट होता है । यह शरीर नरशील है । ३२ ८. आश्रव अनुप्रेक्षा ..... अज्झत्थ हेडं निययस्स संसारहेउं च वयंति ( उ १४/१९) आत्मा के आन्तरिक दोष (आश्रव) ही उसके बन्धन के हेतु हैं और बन्धन ही संसार का हेतु है । अहे वयइ कोहेणं, माणेणं अहमा गई । माया गईपडिग्घाओ, लोभाओ दुहओ भयं ॥ ( उ ९।५४) मनुष्य क्रोध से अधोगति में जाता । मान से अधम गति होती है। माया से सुगति का विनाश होता है । लोभ से दोनों प्रकार का ऐहिक और पारलौकिक भय होता है । संवर अनुप्रेक्षा एवं भवसंसारे, संसरइ सुहासुहेहि कम्मेहिं । जीवो पमायबहुलो, समयं गोयम ! मा पमायए । ( उ १०।१५) प्रमाद - बहुल जीव शुभ-अशुभ कर्मों द्वारा जन्म - मृत्युमय संसार में परिभ्रमण करता है । इसलिए भगवान् ने कहा गौतम ! समय मात्र का भी प्रमाद मत करो । बंधो । बंधं ॥ जावंत विज्जापुरिसा, सव्वे ते दुक्खसंभवा । लुप्पंति बहुसो मूढा, संसारंमि अनंतए || जितने अविद्यावान् ( मिथ्यात्व हैं, वे सब दुःख को उत्पन्न करने की भांति मूढ़ बने हुए इस अनन्त लुप्त होते हैं । नहु पाणवहं अणुजाणे, ६. संवर अनुप्रेक्षा ( उ ६।१) से अभिभूत ) पुरुष वाले हैं। वे दिङ मूढ संसार में बार-बार मुच्चेज्ज कयाइ सव्वदुक्खाणं । (3515) प्राण-वध का अनुमोदन करने वाला पुरुष कभी भी दुःखों से मुक्त नहीं हो सकता । पाणे य नाइवाज्जा, से समिए त्ति वुच्चई ताई । तओ से पावयं कम्मं, निज्जाइ उदगं व थलाओ ॥ (उ८९) जो जीवों की हिंसा नहीं करता, उसे 'समित' ( संवरयुक्त ) कहा जाता है। उससे पाप कर्म वैसे ही दूर Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म अनुप्रेक्षा अनुप्रेक्षा हो जाते हैं, जैसे उन्नत प्रदेश से पानी। जब तक बुढ़ापा पीड़ित न करे, व्याधि न बढे और पाणवहमुसावाया, अदत्तमेहुणपरिग्गहा घिरओ । इन्द्रियां क्षीण न हों, तब तक धर्म का आचरण करने में राईभोयणविरओ, जीवो भवइ अणासवो ॥ व्यक्ति तत्पर रहे। (उ ३०१२) अद्धाणं जो महंतं तु, सपाहेओ पवज्जई। प्राणवध, मृषावाद, अदत्त-ग्रहण, मैथुन, परिग्रह गच्छंतो सो सुही होइ, छुहातहाविवज्जिओ ।। और रात्रि-भोजन से विरत जीव अनाश्रव होता है। एवं धम्म पि काऊणं, जो गच्छइ परं भवं । पंचसमिओ तिगुत्तो, अकसाओ जिइंदिओ। गच्छंतो सो सही होइ, अप्पकम्मे अवेयणे ।। अगारवो य निस्सल्लो, जीवो होइ अणासवो ।। (उ १९।२०,२१) (उ ३०१३) जो मनुष्य पाथेय के साथ यात्रा का लम्बा मार्ग पांच समितियों से समित, तीन गुप्तियों से गुप्त, लेता है, वह भूख-प्यास से पीड़ित नहीं होता और सुखअकषाय, जितेन्द्रिय, ऐश्वर्य आदि का गर्व नहीं करने पूर्वक यात्रा करता है ।। वाला और निःशल्य जीव अनाश्रव होता है। इसी प्रकार जो मनुष्य धर्म की आराधना कर १०. निर्जरा अनुप्रेक्षा परभव में जाता है, वह अल्पकर्म वाला और वेदना रहित होकर जीवन-यापन करता हआ सुखी होता है। जहा महातलायस्स, सन्निरुद्ध जलागमे । जहा सागडिओ जाणं, समं हिच्चा महापहं। उस्सिचणाए तवणाए, कमेणं सोसणा भवे ।। विसमं मग्गमोइण्णो, अक्खे भग्गम्मि सोयई। एवं तु संजयस्सावि, पावकम्मनिरासवे । एवं धम्म विउक्कम्म, अहम्म पडिवज्जिया । भवकोडीसंचियं कम्म, तवसा निज्जरिज्जइ ।। बाले मच्चमुहं पत्ते, अक्खे भग्गे व सोयई ॥ (उ ३०१५,६) जिस प्रकार कोई बड़ा तालाब जल आने के मार्ग (उ ५।१४,१५) का निरोध करने से, जल को उलीचने से तथा सूर्य के जैसे कोई गाडीवान समतल राजमार्ग को जानता ताप से सूख जाता है, उसी प्रकार संयमी पुरुष के पाप हआ भी उसे छोड़कर विषम मार्ग से चल पड़ता है, कर्मों के आने के मार्ग का निरोध होने से करोडों भवों वह गाड़ी की धुरी टूट जाने पर शोक करता है। के संचित कर्म तपस्या के द्वारा निर्जीर्ण हो जाते हैं। इसी प्रकार धर्म का उल्लंघन कर, अधर्म को तवनारायजुत्तेण, भेत्तूणं कम्मकंचुयं । स्वीकार कर, मृत्यु के मुख में पड़ा हुआ अज्ञानी धुरी मुणी विगयसंगामो, भवाओ परिमुच्चए॥ टूटे हुए गाड़ीवान् की तरह शोक करता है। (उ ९।२२) सोही उज्जुयभूयस्स, धम्मो सुद्धस्स चिद्रई । तप-रूपी लोह-बाण से युक्त धनुष के द्वारा कर्म- निव्वाणं परमं जाइ, घयसित्त व्व पावए । रूपी कवच को भेद कर संग्राम का अन्त करने वाला (उ ३।१२) मुनि संसार से मुक्त हो जाता है। शुद्धि उसे प्राप्त होती है, जो ऋजुभूत होता है। धर्म उसमें ठहरता है, जो शुद्ध होता है। जिसमें धर्म जा जा वच्चइ रयणी, न सा पडिनियत्तई। ठहरता है, वह घृत से अभिषिक्त अग्नि की भांति परम धम्मं च कुणमाणस्स, सफला जंति राइओ॥ निर्वाण समाधि की तेजस्विता को प्राप्त होता है। (उ १४।२४) अज्जेव धम्म पडिवज्जयामो, जो-जो रात बीत रही है, वह लौटकर नहीं आती। जहिं पवना न पुणब्भवामो । धर्म की आराधना करने वाले की रात्रियां सफल बीतती अणागय नेव य अत्थि किंचि, सद्धाखमं णे विणइत्तु रागं ॥ जरा जाव न पीलेइ, वाही जाव न वड्ढई । (उ १४।२८) जाविदिया न हायंति, ताव धम्म समायरे ॥ भगुपूत्रों ने अपने पिता से कहा-हम आज ही उस (द ८।३५) मुनि-धर्म को स्वीकार कर रहे हैं, जहां पहुंच कर फिर ११. धर्म अनु Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुप्रेक्षा जन्म लेना न पड़े । भोग हमारे लिए अप्राप्त नहीं हैंहम उन्हें अनेक बार प्राप्त कर चुके हैं। राग-भाव को दूर कर श्रद्धापूर्वक श्रेय की प्राप्ति के लिए हमारा प्रयत्न युक्त है । जस्सत्थि मच्चुणा सक्खं, जस्स वत्थि पलायणं । जो जाणे न मरिस्सामि, सोहु कंखे सुए सिया || ( उ १४/२७ ) जिसकी मृत्यु के बच कर पलायन कल की इच्छा वही कर सकता है, साथ मैत्री हो, जो मौत के मुंह से कर सके और जो जानता हो— मैं नहीं मरूंगा । १२. लोक अनुप्रेक्षा पंचत्थिकायमइयं, लोग मणाइणिहणं जिणक्खायं । णामाइभेयविहियं, तिविहमहोलोयभेयाई ॥ ( आवहावृ २ पृ ६३ ) जहां धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और जीवास्तिकाय ये पांच अस्तिकाय हैं, वह लोक है। उसकी न आदि है और न अंत। उसके तीन विभाग हैं - ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक और अधोलोक । १३. बोधिदुर्लभ अनुप्रेक्षा ॥ भ्रूण वि माणुसत्तणं, आरिअत्तं पुणरावि दुल्लहं । बहवे दसुया मिलेक्खुया... लद्धूण वि आरियत्तणं, अहीणपंचिदियया हु दुल्लहा । विलिदियया हु दीसई" || अहीणपंचिदियत्तं पि से लहे, उत्तमधम्मसुई हु दुल्लहा । कुतित्थिनिसेवाए जणे 11 लक्षूण वि उत्तमं सुई, सद्दहणा पुणरावि दुल्लहा । मिच्छत्तनिसेवए जणे " 11 धम्मं पि हु सद्दहंतया, दुल्लहया काएण फासया । इह कामगुणेहि मुच्छिया, समयं गोयम ! मा पमायए ।। ( उ १०।१६-२० ) मनुष्य जन्म दुर्लभ है। उसके मिलने पर भी आर्यत्व पाना और भी दुर्लभ है। बहुत सारे लोग मनुष्य होकर भी दस्यु और म्लेच्छ होते हैं । आर्य देश में जन्म मिलने पर भी पांचों इन्द्रियों से पूर्ण स्वस्थ होना दुर्लभ है। बहुत सारे लोग इन्द्रियहीन दीख रहे हैं । पांचों इन्द्रियां पूर्ण होने पर भी उत्तम धर्म की अनुप्रेक्षा के परिणाम श्रुति दुर्लभ है। बहुत सारे लोग कुतीर्थिकों की सेवा करने वाले होते हैं । उत्तम धर्म की श्रुति मिलने पर भी श्रद्धा होना और अधिक दुर्लभ है। बहुत सारे लोग मिथ्यात्व का सेवन करने वाले होते हैं । उत्तम धर्म में श्रद्धा होने पर भी उसका आचरण करने वाले दुर्लभ हैं । इस लोक में बहुत सारे लोग कामगुणों में मूच्छित होते हैं, इसलिए भगवान् ने कहाहे गौतम! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर । इह जीवियं अणियमेत्ता, पन्भट्ठा समाहिजोएहि । ते कामभोगरसगिद्धा, उववज्जंति आसुरे काए ॥ ( उ ८।१४) जो इस जन्म में जीवन को अनियंत्रित रखकर समाधि - योग से परिभ्रष्ट होते हैं, वे कामभोग और रसों में आसक्त बने हुए पुरुष असुर-काय में उत्पन्न होते हैं । ३४ तत्तो वि उवट्टित्ता, संसारं बहुं अणुपरियडंति । बहुकम्मले लत्ताणं, बोही होइ सुदुल्लहा तेसिं ॥ ( उ ८।१५) वहां से निकल कर भी वे संसार में बहुत पर्यटन करते हैं । वे प्रचुर कर्मों के लेप से लिप्त होते हैं । इसलिए उन्हें बोधि प्राप्त होना अत्यन्त दुर्लभ है । १४. अनुप्रेक्षा के परिणाम अणुहाए णं आउयवज्जाओ सत्तकम्मप्पगडीओ afractureद्धाओ सिढिलबंधणबद्धाओ पकरेइ, ओहस्सकालट्ठिइयाओ पकरेइ, तिव्वाणुभावाओ मंदाणुभावाओ पकरेइ, बहुपएसग्गाओ अप्पपएसग्गाओ पकरेइ, आउयं च णं कम्मं सिय बंधइ सिय नो बंधइ | असायावेयणिज्जं च णं कम्मं उवचिणाइ | अणाइयं च णं अणवदग्गं संसारकंतारं खिप्पामेव वीइवयइ । अनुप्रेक्षा के छह परिणाम हैं१. कर्म के गाढ बंधन का शिथिलीकरण । २. दीर्घकालीन कर्म- स्थिति का अल्पीकरण । ३. तीव्र कर्म विपाक का मंदीकरण । नो भुज्जो भुज्जो दीहमद्धं चाउरंतं (उ२९/० २३) ४. प्रदेश - परिमाण का अल्पीकरण । ५ असातावेदनीय कर्म के उपचय का अभाव । ६. संसार का अल्पीकरण । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवयव से अवयवी का अनुमान ३५ अनुमान अनुमान हेतु से होने वाला साध्य का ज्ञान । कार्य, कारण, गुण, अवयव और आश्रय-इन पांच से होने वाला अनुमान शेषवत् अनुमान है । १. अनुमान को परिभाषा (न्यायभाष्यकार ने कार्य से कारण के अनुमान को २. अनुमान के प्रकार शेषवत् कहा है । अवयव के ज्ञान से संपूर्ण अवयवी का ० पूर्ववत् ज्ञान शेषवत् है -यह उपायहृदय, माठर और गौडपाद • शेषवत् का मत है । अनुयोगद्वार में निर्दिष्ट शेषवत् के पांच भेदों • दृष्टसाधर्म्यवत् ३. पूर्ववत् अनुमान का मूल क्या है - यह कहा नहीं जा सकता।) .. शेषवत् के प्रकार और दृष्टांत कार्य से कारण का अनुमान ५. दृष्टसाधर्म्यबत् कज्जेणं --संखं सद्देणं, भेरि तालिएणं, कभं ६. अनुमान के प्रकार-सादृश्य आदि ढिकिएणं, मोरं केकाइएणं, हयं हेसिएणं, हत्थि गु :*अनुमान : ज्ञानगुणप्रमाण का भेद गुलाइएणं, रहं घणघणाइएणं । (अनु ५२२) शब्द से शंख का, ताड़ना से भेरी का, रंभाने से १. अनुमान की परिभाषा वृषभ का, केका से मोर का, हिनहिनाहट से घोड़े का, ""लिंगमणु माणं"॥ (विभा ४६९) चिंघाड़ने से हाथी का और झंकार से रथ का अनुमान लिंगग्रहणसंबंधस्मरणाभ्यामनु पश्चाद् मानमनुमानं लिंगजं ज्ञानमुच्यते। (विभामवृ पृ २१९) लिंग से होने वाला ज्ञान अनुमान है। कारण से कार्य का अनुमान लिंग के ग्रहण और संबंध के स्मरण से होने वाला कारणेणं-तंतवो पडस्स कारणं न पडो तंतुकारणं, ज्ञान अनुमान कहलाता है। वीरणा कडस्स कारणं न कडो वीरणकारणं, मप्पिडो घडस्स कारणं न घडो मप्पिडकारणं । (अनु ५२३) २. अनुमान के प्रकार तंतु वस्त्र के कारण हैं, वस्त्र तंतुओं का कारण नहीं ____ अणुमाणे तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-पुव्ववं सेसवं होता। वीरण (कुश आदि के तण) चटाई के कारण हैं, दिट्ठसाहम्मवं । (अनु ५१९) चटाई वीरण का कारण नहीं होती। मृत्पिण्ड घट का अनुमान के तीन प्रकार हैं - पूर्ववत्, शेषवत् 1 कारण है, घट मृत्पिण्ड का कारण नहीं होता। और दृष्टसाधर्म्यवत् । गुण से गणी का अनुमान ३. पूर्ववत् अनुमान गुणेणं --सुवणं निकसेणं, पुप्फ गंधेणं, लवणं रसेणं, माता पुत्तं जहा नळं, जुवाणं पुणरागतं । मइरं आसाएणं, वत्थं फासेणं। काई पच्चभिजाणेज्जा, पुलिंगेण केणई। (अनु ५२४) निकष से सुवर्ण, गन्ध से पुष्प, रस से लवण, तं जहा-खतेण वा वणेण वा लंछणेण वा मसेण आस्वाद से मदिरा और स्पर्श से वस्त्र का अनुमान वा तिलएण वा । से तं पुव्ववं । (अनु ५२०) किया जाता है। कोई माता अपने खोए हुए पुत्र को युवावस्था में लौटा हआ देखकर किसी पूर्व लिंग से पहचान अवयव से अवयवी का अनुमान लेती है.---'मेरा पुत्र है' यह अनुमान कर लेती है, जैसे ___अवयवेणं-महिसं सिंगेणं, कुक्कुडं सिहाए, हत्थि क्षत से, व्रण से, चिह्न से, मष से अथवा तिल से। विसाणेणं, वराहं दाढाए, मोरं पिछेणं, आसं खुरेणं, वग्धं कारण को देखकर कार्य का अनुमान करना नहेणं, चरिं वालगुंछेणं, दुपयं मणुस्सयादि, चउप्पयं पूर्ववत् अनुमान है। गवमादि, बहुपयं गोम्हियादि, वानरं नंगुलेणं, सीहं ४. शेषवत् अनुमान के प्रकार केसरेणं, वसहं ककुहेणं, महिलं वलयबाहाए । गाहा----- सेसवं पंचविहं पण्णत्तं, तं जहा-कज्जेणं कारणेणं परियरबंधेण भडं, जाणेज्जा महिलियं निवसणेणं । गुणेणं अवयवेणं आसएणं । अनू ५२१) सित्थेण दोणपागं, कविं च एगाए गाहाए । (अनु ५२५) Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुमान हाथी, सींग से भैंस, शिखा से कुक्कुट, विषाण से दंष्ट्रा से वराह, पिच्छ से मोर, खुर से घोड़ा, नख से व्याघ्र, बाल- गुच्छ से चमरी गाय, द्विपद से मनुष्य आदि, चतुष्पद से गाय आदि, बहुपद से कनखजूरा आदि, पूंछ से बंदर, अयाल से सिंह, ककुद् से बैल और क्लय वाली भुजा से महिला का अनुमान किया जाता 1 " कवच आदि हथियारों के बंधन से योद्धा, घघरी से विवाहित स्त्री, एक चावल सिक्थ से द्रोण-पाक और एक गाथा से कवि जाना जाता है । " आश्रय से आश्रयी का अनुमान आसएणं-- अग्ग धूमेणं, सलिलं बलागाहिं, वुट्टि अब्भविकारेणं, कुलपुत्तं सीलसमायारेणं । इङ्गिता कारितैज्ञेयै:, नेत्रवक्त्रविकारैश्च, धूम से अग्नि, बलाका से पानी, अभ्रविकार से वर्षा और शीलसमाचरण से कुलपुत्र का अनुमान किया जाता हैं । सामान्यदृष्ट अनुमान क्रियाभिर्भाषितेन च । गृह्यतेऽन्तर्गतं मनः ॥ इंगित और आकाररूप ज्ञेय क्रिया, वचन, नेत्र और मुख के विकार से अन्तर्गत मन का ग्रहण किया जाता है । ५. दृष्टसाधर्म्यवत् अनुमान के प्रकार दिसाहम्मवं दुविहं पण्णत्तं तं जहा - सामन्नदिट्ठ च विसेसदिट्ठे च । ( अनु ५२७ ) दृष्टसाधर्म्यंवत् के दो प्रकार - सामान्यदृष्ट और विशेषदृष्ट | ( अनु ५२६ ) 1 सामन्नदिट्ठ-जहा एगो पुरिसो तहा बहवे पुरिसा, जहा बहवे पुरिसा तहा एगो पुरिसो । ( अनु ५२८ ) जैसे अनेक जैसे एक पुरुष है, वैसे अनेक पुरुष हैं। पुरुष हैं, वैसे एक पुरुष है - यह सामान्यदृष्ट अनुमान है । विशेषदृष्ट अनुमान विसेसदिट्ठ -- से जहानामए केइ पुरिसे बहूणं पुरिसाणं मज्भे पुण्वदिट्ठे पुरिसं पच्चभिजाणेज्जा - अयं से पुरिसे।'''' ( अनु ५२९ ) - जैसे कोई पुरुष अनेक पुरुषों के बीच उपस्थित पूर्वदृष्ट पुरुष को पहचान लेता है 'यह वह पुरुष है' यह विशेषदृष्ट अनुमान है । ३६ ६. अनुमान के प्रकार - सादृश्य आदि सारिक्ख-विवक्खोभय-मुवमा-गममेव सव्वमणुमाणं । ( विभा ४७० ) एक मान्यता के अनुसार अनुमान के ये पांच प्रकार हैं १. सादृश्य-सदृश आकृति को देखकर परिचित व्यक्ति की स्मृति होना । २. विपक्ष - सर्प को देखकर उसके प्रतिपक्षी नकुल की स्मृति होना । ३. उभय - वेग के आधार पर अश्व और खर की स्मृति होना । ४. उपमान - गौ को देखकर गवय की स्मृति होना । ५. आगम - आगम के आधार पर स्वर्ग-नरक आदि गतियों का ज्ञान होना । - अनुयोग – सूत्र के अनुरूप अर्थ की योजना । १. अनुयोग ० निर्वाचन और परिभाषा • पर्याय: भाषा-विभाषा-वातिक • चार दृष्टियां ० निक्षेप २. अनुयोग के प्रवेशद्वार ० उपक्रम * निक्षेप • अनुगम * नय ० उपक्रम - नय के क्रम का प्रयोजन ३. उपक्रम / उपोद्घात ० परिभाषा ० प्रकार * आनुपूर्वी ० नाम * प्रमाण ० वक्तव्यता • अर्थाधिकार • समवतार ४. अनुगम अनुयोग ० परिभाषा ० प्रकार ( द्र. निक्षेप) ( द्र. नय) ( द्र. आनुपूर्वी) ( द्र. प्रमाण ) Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषक, विभाषक और भाष्यकार ० • सूत्र - अनुगम : सूत्र के गुण निर्युक्ति- अनुगम उपोद्घातनिर्युक्ति सूत्रस्पर्शिक नियुक्ति • व्याख्या के लक्षण O ० ५. अनुयोग के चार विभाग ६. अपृथक्त्व अनुयोग पृथक्त्व अनुयोग ७. अनुयोगविधि १ अनुयोग निर्वाचन और परिभाषा - अणुओयणमणुओगो, सुयस्स नियएण जमभिधेएणं । वावारो वा जोगो, जो अणुरूवोऽणुकूलो वा ॥ अहवा जमत्थओ थोव - पच्छभावेहि सुयमणुं तस्स । अभिधेये वावारो, जोगो तेण व संबंधो ॥ ( विभा १३८६, १३८७) सूत्र की अर्थ के साथ योजना करना अनुयोग है । सूत्र के अभिधेय का कथन योग है । वह सूत्र के अनुरूप होने पर अनुयोग कहलाता है । ० 0 • सूत्र का अर्थ के बाद कथन होता है। सूत्र संक्षिप्त होता है, इसलिए उसका नाम अनु । उस अनु का अपने अभिधेय / प्रतिपाद्य के साथ संयोजन अनुयोग है । अध्ययनार्थकथनविधिरनुयोगः । ( अनुहावृ पृ २६ ) अनुयोग का अर्थ है -- अध्ययन के अर्थ की प्रतिपादन पद्धति । पर्याय अणुओगो य नियोगो, भास विभासा य वत्तियं चेव । अणुओगस उ एए, नामा एआ पंच ॥ ( आवनि १३१ ) ० अनुयोग के पांच पर्याय हैंअनुयोग, नियोग, भाषा, विभाषा और वार्तिक । वार्तिक (भाष्य) के अर्थ वित्तीए वक्खाणं वत्तियमिह सव्वपज्जवेहिं वा । वित्तीओ वा जायं जम्मि वजह वत्तए सुते || (विभा १४२२ ) वृत्तेः सूत्रविवरणस्य व्याख्यानं भाष्यं वार्तिकमुच्यते । यथा इदमेव विशेषावश्यकम् । अथवा उत्कृष्टश्रुतवतो गणधरादेर्भगवतः सर्व पर्यायैर्यद् व्याख्यानं तद् वार्तिकम् । ३७ वृत्तेर्वा सूत्रविवरणाद् यदायातं सूत्रार्थानुकथनरूपं तद् वार्तिकम् । यदि वा यस्मिन् सूत्रे यथा वर्तते सूत्रस्यैवोपरि गुरु पारम्पर्येणायातं व्याख्यानं तद् वार्तिकमिति ॥ ( विभामवृपृ ५२८ ) १. सूत्र की वृत्ति की व्याख्या वार्तिक या भाष्य कहलाता है । जैसे - विशेषावश्यक भाष्य । २. उत्कृष्ट श्रुतपारगामी गणधर आदि वस्तु का समग्र पर्यायों से जो व्याख्यान करते हैं, वह वार्तिक कहलाता है । ३. सूत्र की वृत्ति (विवरण) से जो ज्ञात होता है, उसके आधार पर सूत्र और अर्थ के अनुरूप कथन करना वार्तिक कहलाता है । ४. जिस सूत्र का जो अर्थ है, उसकी गुरु-परम्परा से प्राप्त जो व्याख्या है, वह वार्तिक कहलाता है । वार्तिक के अधिकारी उक्कोस सुयनाणी, निच्छयओ वत्तियं वियाणाइ । जो वा गप्पाणो, तओं व जो गिरहए सव्वं ॥ ( विभा १४२३ ) वार्तिक के अधिकारी तीन हैं। १. उत्कृष्ट श्रुतज्ञानी, जैसे – गणधर । २. युगप्रधान आचार्य, जैसे -- भद्रबाहुस्वामी । ३. युगप्रधान से जो समग्रता से श्रुतग्रहण करते हैं, जैसे - स्थूलभद्रस्वामी । भाषक, विभाषक और भाष्यकार ऊणं सममहियं वा, भणियं भासंति भासगाइया । अहवा तिष्णवि साहेज्ज कटुक माइनाहिं || पोंड - देसिए चेव । कट्ठे पोत्थे चित्ते, सिरिघरिए भासग - विभासए वा य आहरणा || वत्तीकरणे ( विभा १४२४, १४२५ ) अनुयोगाचार्य शिष्य को जितना पढ़ाते हैं, उससे कम मात्रा में वह दूसरों को बता पाता है, वह भाषक कहलाता है । आचार्य जितना पढ़ाते हैं, उतना ही दूसरों को बता देता है, वह विभाषक है । अनुयोगाचार्य से प्राप्त श्रुत को जो अपनी प्रज्ञा के अतिशय से अधिक विस्तार के साथ दूसरों को बता सकता है, वह वार्तिककार / भाष्यकार कहलाता है । निर्युक्तिकार ने भाषक, विभाषक और वार्तिककार के भेद को छह दृष्टांतों से समझाया है— Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • अनुयोग द्रव्य अनुयोग अनुयोग के सात निक्षेप हैं नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, वचन और भाव । नाम अनुयोग नामस्स जोऽणुओगो अहवा जस्साभिहाणमणुओगो। नामेण व जो जोग्गो जोगो नामाणओगो सो॥ (विभा १३८९) नाम अनुयोग के तीन रूप हैं. वीर आदि नामों का अनुयोग/व्याख्या करना नामानु काष्ठ, पुस्त (लेप्य), चित्र, श्रीगहिक, पौण्ड (कमल) और पथदर्शक । पढमो रूवागारं थलावयवोवदंसणं वीओ। तइओ सव्वावयवे निहोसे सव्यहा कुणइ ॥ कटुसमाणं सुत्तं तदत्थरूवेगभासणं भासा। थुलत्थाण विभासा सव्वेसि वत्तियं नेयं ।। (विभा १४२६, १४२७) एक व्यक्ति काष्ठपट्टिका को सामान्य आकार देता है। दूसरा उसे स्थूल अवयवों के रूप में निष्पादित करता है। तीसरा सुव्यवस्थित रूप में संपूर्ण अंगोपांगों का निर्माण कर सुन्दर कृति के रूप में प्रस्तुत करता है। प्रस्तुत संदर्भ में काष्ठ के समान है --सूत्र । प्रथम व्यक्ति के समान है भाषक, दूसरे के समान है विभाषक और तीसरे के समान है वार्तिककार । चार दृष्टियां दव्वेणेगं दव्वं संखाईयप्पएसओगाढं। कालेऽणाइ अनिहणो भावे नाणाइयाणंता ।। (विभा १३९४) जीव द्रव्य का अनुयोग चार दृष्टियों से किया गया किसी वस्तु का 'अनुयोग' नाम रखना नामानुयोग ० नाम के साथ जो कोई योग्य योग-अनुरूप संबंध है, वह नामानुयोग है। जैसे-दीप नाम का अनुकूल दीप के साथ संबंध । स्थापना अनुयोग ठवणाए जोऽणुओगो अणुओग इति वा ठविज्जए जं च । जा वेह जस्स ठवणा जोग्गा ठवणाणुओगो सो॥ (विभा १३९०) स्थापना अनुयोग के तीन रूप हैं० स्थापना का अनुयोग/व्याख्यान करना स्थापनानुयोग द्रव्य से-एक द्रव्य क्षेत्र से असंख्य प्रदेशावगाढ काल से-अनादि-अनन्त भाव से-ज्ञान आदि अनन्त अगुरुलघु पर्याय । द्रव्य, क्षेत्र आदि में नियमा-भजना दव्वे नियमा भावो न विणा ते यावि खेत्त-कालेहिं । खेत्ते तिण्ह वि भयणा कालो भयणाए तीसु पि ॥ (विभा १४०८) द्रव्य में भाव/पर्याय निश्चित रूप से होता है। क्षेत्र और काल के बिना द्रव्य-भाव नहीं होते । क्षेत्र में द्रव्यकाल-भाव की भजना है-लोकक्षेत्र में तीनों होते हैं, अलोकक्षेत्र में नहीं होते । द्रव्य-क्षेत्र-भाव में काल की भजना है-काल समयक्षेत्रवर्ती द्रव्य-क्षेत्र-भाव में होता है, उसके बाहर नहीं । अनुयोग के निक्षेप नाम ठवणा दविए खेत्ते काले वयण-भावे य। एसो अणओगस्स उ निक्खेवो होइ सत्तविहो॥ (विभा १३८८) ० अनुयोग करते हुए आचार्य आदि की काष्ठ आदि में स्थापना करना स्थापनानुयोग है। ० अनुयोगकर्ता आचार्य की लेप्यकर्म आदि में तदाकार स्थापना स्थापनानुयोग है। द्रव्य अनुयोग दव्वस्स जोऽण ओगो दव्वे दव्वेण दवहेऊ वा । दव्वस्स पज्जवेण व जोगो दव्वेण वा जोग्गो ।। बहवयणओ वि एवं नेओ जो वा कहे अणवउत्तो । दव्वाण ओग एसो एवं खेत्ताइयाणं पि॥ (विभा १३९१, १३९२) ० द्रव्य का अनुयोग- व्याख्या करना। ० निषद्या आदि द्रव्य पर स्थित (व्यक्ति) का अनुयोग करना । क्षीर, प्रस्तरखण्ड आदि करणभूत द्रव्यों के द्वारा अनुयोग करना। शिष्य-द्रव्य को प्रतिबोध देने के लिए अनुयोग करना । ० द्रव्य का पर्याय के साथ योग्य संबंध करना । • अनुपयुक्त/उपयोगशून्य अवस्था में अनुयोग करना। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपक्रमनय के क्रम का प्रयोजन क्षेत्र अनुयोग पन्नत्तिजंबुद्दीवे खेत्तस्सेमाइ होइ अणुओगो । त्ताणं अणुओगो दीव-समुद्दाण पन्नत्ती ॥ ( विभा १३९९ ) जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में जम्बूद्वीप क्षेत्र का अनुयोग है । द्वीपसागरप्रज्ञप्ति में अनेक द्वीपों और सागरों का अनुयोग 1 खेत्तं मयमागासं सव्वदव्वावगाहणा लिंगं । तं दव्वं चेव निवासमेत्तपज्जायओ खेत्तं ॥ ( विभा २०८८ ) आकाश को क्षेत्र कहते हैं । उसका लक्षण है सब द्रव्यों को स्थान देना । वह द्रव्य ही है किन्तु द्रव्यों की अवगाहना की अपेक्षा वह क्षेत्र है । काल अनुयोग कालस्स समयरूवण कालाण तदाइ जाव सव्वद्धा । .." ( विभा १४०२ ) उत्पलशतपत्रभेद आदि दृष्टान्तों से समय का प्ररूपण करना तथा काल के समस्त भेद-प्रभेदों की व्याख्या करना कानुयोग है । वचन अनुयोग ..... वयणस्सेगवयाई वयणाणं सोलसण्हं तु । ( विभा १४०३ ) लिगतियं वयrतियं कालतियं तह परोक्ख पच्चक्खं । उवणयऽवणयचउद्धा अज्झतं होइ सोलसमं ॥ ( विभामवृ पृ ५१५) एकवचन, द्विवचन तथा बहुवचन की व्याख्या करना वचन अनुयोग है । इसके सोलह अंग हैंलिंग -१ स्त्री, २ पुरुष, ३ नपुंसक लिंगप्रधान वचन वचन- ४ एक वचन, ५ द्विवचन, ६ बहुवचन काल - ७ अतीत, ८ वर्तमान, ९ अनागत परोक्ष - १० वह प्रत्यक्ष - ११ यह उपनय - १२ स्तुत्यात्मक वचन अपनय --- १३ निन्दात्मक वचन उपनय- अपनय - १४ स्तुति - निन्दात्मक वचन अपनय - उपनय - १५ निन्दा - स्तुत्यात्मक वचन अध्यात्म - १६ आंतरिक वचन । ३९ भाव अनुयोग भावस्सेगयरस्स उ अणुओगो जो दोमाइसंनिगासे अणुओगो अनुयोग होइ जहिट्टिओ भावो । भावाणं ॥ ( विभा १४०५ ) जो भाव जिस रूप में अवस्थित है, उसका उसी रूप संयुक्त भावों का प्ररूपण करना भाव अनुयोग है । में प्ररूपण करना भाव अनुयोग है। दो, तीन आदि २. अनुयोग के प्रवेशद्वार '''' चत्तारि अणुओगदारा भवंति, तं जहा - उबक्कने, णिक्खेवे, अणुगमे, नए । ( अनु ७५) चत्तारि । अणुओगद्दारा महापुरस्सेव तस्स अणुओगोति तदत्थो दाराई तस्स उ मुहाई ॥ (विभा ९०७) अनुयोग इत्यध्ययनार्थः । द्वाराणि तत्प्रवेशमुखानि । यथेह पुरमद्वारमधिगन्तुमशक्यम् । एकद्वारमपि च कृच्छेणाधिगम्यते कार्यातिपत्तये च भवति । चतुभिः पुनर्मूलद्वारैश्च सुखेनाधिगम्यते न च कार्यातिपत्तये भवति । ( उचू पृ८) अनुयोग का अर्थ है— ग्रंथ का अर्थ । उसमें प्रविष्ट होने के मार्ग द्वार कहलाते हैं । अनुयोग के चार द्वार हैं -उपक्रम, निक्षेप, अनुगम और नय । इस द्वारचतुष्टयी से शास्त्र को सुगमता से समझा जा सकता है, कार्यातिपत्ति भी नहीं होती । द्वाररहित नगर में प्रवेश नहीं किया जा सकता । एक द्वार वाले नगर में कठिनाई से प्रवेश होता है और कार्य में विलम्ब हो जाता है । चार द्वार वाले नगर में सुख से प्रवेश किया जा सकता है और कार्य में बाधा नहीं आती। इसी प्रकार श्रुतरूप महानगर में भी अर्थाधिगम के उपायरूपी द्वार के बिना प्रवेश नहीं किया जा सकता । केवल एक अनुगमद्वार से भी प्रवेश बड़ी कठिनाई और लम्बे समय से हो सकता है । उपक्रम आदि चारों द्वारों से सहज ही अल्पकाल में प्रवेश किया जा सकता है । उपक्रम "नय के क्रम का प्रयोजन दारक्कमोऽयमेव उ निक्खिप्पइ जेण नासमीवत्थं । अणुगम्मइ नाणत्थं नागमो नयमयविहूणो ॥ संबंधोaraमओ समी मणीय नत्थनिक्खेवं । नएहि नाणाविहाणे हि । सत्थं तओऽणु गम्म ( विभा ९१५,९१६) Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुयोग अनुयोगद्वारों उपक्रम, निक्षेप, अनुगम और नप का क्रम यही है क्योंकि असमीपस्थ का निक्षेप नहीं किया जाता । निक्षेप किए बिना व्याख्या नहीं की जाती और नयमत से रहित का अनुगम नहीं होता । उपक्रम संबंध रूप होता है उससे प्रारम्भ की भूमिका बनाकर उस पद को निश्चित अर्थ में स्थापित किया जाता है, फिर नाम, स्थापना आदि निक्षेपों से युक्त शास्त्र के अर्थ को नाना प्रकार के नयों से व्याख्यायित किया जाता है । ३. उपक्रम / उपोद्घात परिभाषा सत्यस्सो बक्कमणं उबनकमो तेण तस्मि व तओ वा । सत्थसमीवीकरणं आणवणं नाससम्म || (विभा ९११) उबक्कमो णासस्स अपत्तावत्वापावणं । प्रकार (आवचू १ पृ ५० 50) शास्त्र का प्रारम्भ करना उपक्रम कहलाता है । वह तीन प्रकार से होता है १ प्रतिपादन का २ शिष्य की जिज्ञासा ३ शिष्य की विनम्रता । प्रारम्भिक भूमिका बताकर ग्रन्थ को निक्षेप के योग्य बना देना उपक्रम है । - निक्षेप की अप्राप्त अवस्था का प्रापक है उपक्रम । नासस्स व संबंधणमुवनकमोऽयं तु सुत्तवखाए। संबंधोवरघाओ भण्णइ जं सा तदंतम्मि ॥ ( विभा ९९४ ) अध्ययन से संबंधित नाम आदि निक्षेपों का सम्बन्ध जोड़ना उपक्रम कहलाता है और जब सूत्र की व्याख्या के साथ उनका सम्बन्ध जोड़ा जाता है तब उसे उपोद् घात कहते हैं। उवोग्धातो णाम उद्देसनिग्गमादी णिरुवणं । मेघच्छन्नो यथा चंद्रो न राजति नभस्तले । उपोद्घातं विना शास्त्रं न तथा भ्राजते विधौ ॥ + ( आवघू १ पृ ८४) उद्देश, निर्गम आदि का निरूपण उपोद्घात कहलाता है । जैसे आकाश में बादलों से आच्छादित चन्द्रमा शोभित नहीं होता, वैसे ही उपोद्घात के बिना अपने विधि-विधान में शास्त्र शोभित नहीं होता । अर्थाधिकार उवक्कमे छव्विहे पण्णत्ते तं जहा आणुपुथ्वी नामं पमाणं वत्तव्वया अत्थाहिगारे समोयारे । ( अनु १०० ) उपक्रम के छह प्रकार हैं आनुपूर्वी, -आनुपूर्वी, नाम, प्रमाण, वक्तव्यता, अर्थाधिकार और समवतार | वक्तव्यता अझयाइसु सुक्तपगारेण तुत्तविभागेण वा इच्छा परूविज्जति सा वत्तव्वया भवति । (अनुबू पृ ८५) एक विषय की प्ररूपणा, प्रतिनियत अर्थ का प्रतिपादन वक्तव्यता कहलाता है । बत्तव्वया तिविहा पण्णत्ता, तं जहा ससमयवंतव्वया परसमयवत्तव्वया ससमय परसमयवत्तव्वया । विज्जइ । ( अनु ६०५ ) वक्तव्यता के तीन प्रकार हैं- स्वसमय वक्तव्यता, परसमय वक्तव्यता और स्वसमय-परसमय वक्तव्यता । "ससमयवत्तव्वया- - जत्थ णं ससमए आघ( अनु ६०६) ..... यत्राध्ययने सूत्रे धर्मास्तिकायद्रव्यादीनां आत्मसमयस्वरूपेण प्ररूपणा क्रियते । (अनुबू पृ ५) अपने सिद्धान्त का प्रतिपादन करना स्वसमय वक्तव्यता है । जैसे – धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आदि द्रव्यों के स्वरूप का प्रतिपादन अपने सिद्धान्त के अनुसार करना । णं आषविज्जइ''''। परसमए ( अनु ६०७ ) यत्र पुनरध्यवनादिषु जीवद्रव्यादीनां एकान्तग्राहेण नित्यत्वमनित्यत्वं वा परसमयरूपेण प्ररूपणा क्रियते । ( अनुचू पृ ८५) अन्यतीथकों के सिद्धान्त का प्रतिपादन परसमय वक्तव्यता है । जैसे जीव आदि द्रव्य एकान्त नित्य हैं अथवा एकान्त अनित्य हैं । ...परसमयवत्तव्वया जत्थ आघविज्जइ । ससमय-परसमयवत्तव्वया जत्थ ससमए परसमए ( अनु ६०८ ) अपने तथा अन्यतीर्थिकों के सिद्धान्त का प्रतिपादन करना उभयरूप वक्तव्यता है । अर्थाधिकार अत्थाहिगारे जो जस्स अज्झयणस्स अत्याहिगारो । ( अनु ६१० ) Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (अनुमवृ प २४३) उपोद्घात नियुक्ति-अनुगम अनुयोग अर्थाधिकारो ह्यध्ययने आदिपदादारभ्य सर्व- २. नियुक्ति-अनुगम सूत्र से संपृक्त अर्थ का पदेष्वनुवर्तते, पुद्गलास्तिकाये मूर्त्तत्त्ववद् । .. . प्रतिपादन करना। (अनुहावृ पृ ११८) सूत्र-अनुगम : सूत्र के गुण जिस अध्ययन या ग्रन्थ का जो प्रतिपाद्य अर्थ है, वह अष्टाभिश्च गुणरुपपेतं यत्तलक्षणयुक्तमिति वर्तते, उसका अर्थाधिकार है। ते चेमे गुणाः___ जो शास्त्र के आदि पद से लेकर अंतिम पद तक निदोसं सारवंतं च, हेउजुत्तमलंकियं । अनुवृत्त होता है, वह अर्थाधिकार है। जैसे --पुद्गला उवणीयं सोवयारं च, मियं महरमेव य । स्तिकाय में मूर्तता। (अनुमवृ प २४३) समवतार सूत्र के आठ गुणसर्व द्रव्याण्यात्मसमवतारेणात्मभावे समवतरन्ति । १. निर्दोष ५. उपनीत (अनुहावृ पृ ११८) २. सारवान् ६. सोपचार सब द्रव्य अपने-अपने भाव में समवतरित होते हैं- ३. हेतुयुक्त ७. मित और यही समवतार (अन्तर्भाव) है। ४. अलंकार युक्त ८. मधुर। __."दव्वसमोयारे तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-आयसमो- अप्पक्खरमसंदिद्धं सारवं विस्सओमुहं । यारे परसमोयारे तदुभयसमोयारे । सव्वदव्वा वि णं अत्थोभमणवज्जं च, सुत्तं सव्वण्णुभासियं ।। आयसमोयारेणं आयभावे समोयरंति, परसमोयारेणं जहा कुंडे बदराणि, तदुभयसमोयारेणं जहां घरे थंभो आयभावे प्रकारान्तर से सूत्र के छह गुणय, जहा घडे गीवा आयभावे य। (अनु ६१३) १. अल्पाक्षर द्रव्य समवतार के तीन प्रकार हैं-- २. असंदिग्ध १. आत्म-समवतार-सब द्रव्य आत्मसमवतार के ३. सारवान् द्वारा आत्मभाव में समवतरित होते हैं। ४. विश्वतोमुख (जिसका प्रत्येक सूत्र अनुयोग२. पर-समवतार--सब द्रव्य परसमवतार के द्वारा . चतुष्टय से व्याख्यात हो।) परभाव में समवतरित होते हैं, जैसे-कुण्ड में ... ५. अस्तोभक (च, वा आदि निपात से वियुक्त ।) ६. अनवद्य ३. तदुभयसमवतार- सब द्रव्य तदुभय समवतार क निर्यक्ति-अनगम द्वारा दोनों में समवतरित होते हैं, जैसे --खंभा घर निज्जुत्तिअणुगमे तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-निक्खेवमें और आत्मभाव में समवतरित है। जैसे -ग्रीवा । निज्जुत्तिअणुगमे उवग्घायनिज्जुत्तिअणुगमे सुत्तफासियघट में और आत्मभाव में समवतरित है। निज्जुत्तिअणुगमे । (अनु ७११) ४. अनुगम की परिभाषा ___नियुक्ति अनुगम के तीन प्रकार हैं -निक्षेप .."अणुणोऽणुरूवओ वा जं सुत्तत्थाणमणुसरणं ॥ नियुक्ति-अनुगम, उपोद्घात नियुक्ति-अनुगम और (विभा ९१३) सूत्रस्पशिक नियुक्ति-अनुगम। सूत्र का अनुसरण करना--व्याख्या करना अनुगम उपोद्घात नियुक्ति-अनुगम __ उवग्घायनिज्जुत्तिअणुगमे 'अणुगंतव्वे, तं जहाअनुगम के प्रकार उद्देसे निद्देसे य, निग्गमे, खेत्त काल पुरिसे य। - अणुगमे विहे पण्णत्ते, तं जहा-सुत्ताणुगमे य। कारण पच्चय लक्खण, नए समोयारण णुमए॥ निज्जुत्तिअणुगमे य। . (अनु ७१०) कि कइविहं कस्स कहि, केस कहं केच्चिरं हवइ.कालं । । अनुगम के दो प्रकार हैं कइ संतर मविरहियं, भवा गरिस फासण निरुत्ती ।। १. सूत्र-अनुगम-सूत्र का कथन करना। (अनु ७१३) बैर। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुयोग ४२ अपृथक्त्व अनुयोग उद्देश, निर्देश, निर्गम, क्षेत्र, काल, पुरुष, कारण, ये चारों क्रमश: महद्धिक (प्रतिपादन की अपेक्षा प्रत्यय, लक्षण, नय, समवतार और अनुमत तथा क्या, प्रधान) हैं। कितने प्रकार का, किसका, कहां, किनमें, कैसे, कितने चरणानयोग का प्राधान्य काल तक, कितने, अन्तर काल, अविरह काल, भव, सविसयबलवत्तं पुण जुज्जइ तहवि अमहिड्ढि चरणं । आकर्ष, स्पर्शन, निरुक्ति --इन २६ हेतुओं से उपोद्घात चारित्तरक्खणट्ठा जेणिअरे तिन्नि अणुओगा । नियुक्ति-अनुगम जाना जाता है । (ओभा ६) सूत्रस्पशिक नियुक्ति-अनुगम ये चारों अनुयोग अपने-अपने विषय में सर्वशक्ति.."सुत्तफासियनिज्जुत्तिअणुगमे सूत्तं उच्चारेयव्वं सम्पन्न है। फिर भी चरणानुयोग इन सबमें मद्धिक 1 है । चारित्र की सुरक्षा के लिए ही ये शेष तीन अनुयोग अक्खलियं अमिलियं अवच्चामेलियं पडिपूण्णं पडिपूण्णघोसं कंठोविप्पमुक्कं गुरुवायणोवगयं । तओ नज्जिहिति चरणपडिवत्तिहेउं धम्मकहा कालदिक्खमाईआ। ससमयपयं वा परसमयपयं वा बंधपयं वा मोक्खपयं वा सामाइयपयं वा नोसामाइयपयं वा"। (अनु ७१४) दविए दसणसुद्धी दंसणसुद्धस्स चरणं तु ।। सूत्रस्पशिक नियुक्ति-अनुगम में अस्खलित, अन्य (ओभा ७) तीनों अनुयोग चारित्र की प्राप्ति के कारण हैं - वर्णों से अमिश्रित, अन्य ग्रंथों के अंशों से अमिश्रित, १. धर्मकथानुयोग-आक्षेपणी आदि धर्म कथा को प्रतिपूर्ण, प्रतिपूर्ण घोषयुक्त, कण्ठ और होठ से निकला सुनकर जीव चारित्र प्राप्त करता है। हुआ, गुरु की वाचना से प्राप्त सूत्र का उच्चारण करना २. कालानुयोग (गणितानुयोग)----शुभरि चाहिए। इससे स्वसमय पद, परसमय पद, बन्ध पद, नक्षत्र आदि में दीक्षा दी जाती है। मोक्षपद, सामायिक पद और नो-सामायिक पद-ये सब ३. द्रव्यानुयोग से दर्शन की विशुद्धि होती है। दर्शन जाने जाते हैं। विशुद्धि से ही चारित्र की प्राप्ति होती है । .."संहिता य पदं चेव, पदत्थो पदविग्गहो। अनुयोग और श्रुतग्रंथ चालणा य पसिद्धी य, छव्विहं विद्धि लक्खणं ।।... (अनु ७१४) जं च महाकप्पसुयं जाणि अ सेसाणि छेअसुत्ताणि । चरणकरणाणुओगो त्ति कालियत्थे उवगयाणि ।। व्याख्या के छह लक्षण हैं -- (आवनि ७७७) १. संहिता-अस्खलित पदोच्चारण । कालियसुयं च इसिभासियाई तइओ य सूरपन्नत्ती । २. पद-एक-एक पद का निरूपण । सव्वो य दिट्ठिवाओ चउत्थओ होइ अणुओगो ॥ ३. पदार्थ -प्रत्येक पद का अर्थ । (आवभा १२४) ४. पदविग्रह ---समस्त पदों में समास विग्रह । १. चरणकरणानुयोग-कालिकश्रुत, महाकल्पसूत्र, . ५. चालना सूत्र के अर्थ में प्रश्न उपस्थित करना। छेदसूत्र । ६. प्रसिद्धि-युक्ति पुरस्सर अर्थ की स्थापना। २. धर्मकथानुयोग--ऋषिभाषित । ५. अनुयोग के चार विभाग ३. गणितानुयोग - सूर्यप्रज्ञप्ति । चत्तारि उ अणुओगा चरणे धम्मगणियाणुओगे य । ४. द्रव्यानुयोग-दृष्टिवाद। दवियणुओगे य तहा अहक्कम ते महिड्ढीया ॥ ६. अपृथक्त्व अनुयोग (ओभा ५) अपहत्तमेगभावो सुत्ते सूत्ते सवित्थर जत्थ । अनुयोग के चार विभाग हैं भण्णंतअणुओगा चरण-धम्म-संखाण-दव्वाणं ।। १. चरणानुयोग ३. गणितानुयोग (विभा २२८१) २. धर्मकथानुयोग ४. द्रव्यानुयोग । अपृथक्त्व का अर्थ है एकीभाव-अविभाग। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपर्यवसितश्रुत अनुयोग अपृथक्त्व अनुयोग में एक सूत्र की व्याख्या चरणकरणानु- अनुयोग-विधि के तीन स्थान हैं-- योग, धर्मकथानुयोग, गणितानुयोग, द्रव्यानुयोग-इन १. सूत्र और अर्थ के प्रतिपादन का क्रम । चारों अनुयोगों से की जाती है। २. नियुक्ति सहित सूत्र और अर्थ का प्रतिपादन । पृथक्त्व अनुयोग ३. निरवशेष-प्रसंग-अनुप्रसंग सहित प्रतिपादन । जावं ति अज्जवइरा अपुहत्तं कालियाणुओगस्स । सव्वे काउस्सगं करेंति सव्वे पुणोऽवि वंदति । तेणारेण पुहत्तं कालियसुय दिट्ठिवाए य ।। णासण्णे नाइदूरे गुरुवयणपडिच्छगा होति ।। (आवनि ७६३) णिद्दाविगहापरिवज्जिएहिं गुत्तेहिं पंजलिउडेहिं । आसी पुरा सो नियओ अणुओगाणमपुहुत्तभावम्मि । भत्तिबहुमाणपुव्वं उवउत्तेहिं सुणेयव्वं ।। संपइ नत्थि पुहुत्ते होज्ज व पुरिसं समासज्ज । अभिकखतेहिं सूहासियाई वयणाई अत्थसाराई। (विभा ९५०) विम्हियमुहेहिं हरिसागएहिं हरिसं जणंतेहिं ।। आर्यरक्षित से पहले अपृथक्त्व अनुयोग था- गुरुपरिओसगएणं गुरुभत्तीए तहेव विणएणं । कालिकश्रुत आदि प्रत्येक सूत्र में चारों (चरणकरण, इच्छिय सुत्तत्थाणं खिप्पं पारं समुवयंति ॥ धर्मकथा, गणित और द्रव्य) अनुयोगों का युगपत् प्रयोग (आवनि ७०६-७०९) होता था । आर्य रक्षित ने कालिकश्रुत और दृष्टिवाद में अनुयोग को प्राप्त करने के इच्छुक सभी शिष्य पृथक्त्व अनुयोग की व्यवस्था की। पृथक्त्व अनुयोग में कायोत्सर्ग करते हैं, गुरु को वंदना करते हैं। वे गुरु त्र की एक-एक अनुयोग से व्याख्या की जाती से न अधिक निकट और न अति दूर, मर्यादित दूरी तक है। यदि अध्येता प्राज्ञ हो तो चारों अनुयोगों और सब बैठते हैं। नयों से व्याख्या की जा सकती है। शिष्य निद्रा, विकथा को छोड़ कर, त्रिगुप्त, करबद्ध देविदवं दिएहि महाण भावहिं रक्खियज्जेहिं । तथा सावधान होकर भक्तिबहुमानपूर्वक गुरुवाणी को जुगमासज्ज विभत्तो अणुओगो तो कओ चउहा।। सुनते हैं। नाऊण रक्खियज्जो मइ-मेहा-धारणासमग्गं पि। उस समय वे जिज्ञासा से अर्थसार बाले सुभाषित किच्छेण धरेमाणं सुयण्णवं पूस मित्तं पि ।। वचनों को सुनते हैं और उनका वदन विस्मय और हर्ष अइसयकओवओगो मइ-मेहा-धारणाइपरिहीणे । से प्रफुल्लित हो जाता है। नाऊणमेस्सपुरिसे खेत्त-कालाणुरूवं च ।। वे विनीत शिष्य गुरु के सन्तुष्ट होने पर, गुरुभक्ति (विभा २२८८, २२९०) और विनय से सूत्र और अर्थ के अवबोध का शीघ्र ही पार पा लेते हैं। देवेन्द्र द्वारा वन्दित आर्यरक्षित ने देखा कि पुष्यमित्र जैसा बुद्धि, मेधा और धारणा से सम्पन्न प्राज्ञ शिष्य भी अनेक सिद्ध-एक समय में अनेक जीवों का सिद्ध होना। श्रुतरूप समुद्र का अवगाहन कठिनाई से कर रहा है, (द्र. सिद्ध) तब भविष्य में अल्प बुद्धि, मेधा और शिथिल धारणा अन्यत्व अनुप्रेक्षा-मैं शरीर से भिन्न हं और शरीर वाले व्यक्ति पूरे श्रुत का समग्रता से अवगाहन कैसे कर मुझ से भिन्न है-इस सचाई पायेंगे ? तब युग, क्षेत्र और काल के अनुरूप उन्होंने की अनुभूति करना। शिष्यों पर अनुग्रह कर पृथक्त्व अनुयोग की व्यवस्था (द्र. अनुप्रेक्षा) की। अन्यलिंगसिद्ध-अन्य साधुओं के वेश में मुक्त होने ७. अनुयोग-विधि वाले। (द्र. सिद्ध) सुत्तत्थो खलु पढमो, बीओ निज्जुत्तिमीसओ भणिओ। अपरिग्रह-ममत्व-विसर्जन । (द्र. महाव्रत) तइओ य निरवसेसो, एस विही होइ अणुओगे ॥ अपर्यवसितश्रुत-वह श्रुत जो अंतरहित है। (नन्दी १२७।५) ___(.श्रुतज्ञान) हा हा Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है । अपूर्वकरण अवगाहना अपूर्वकरण-आत्मा के विशिष्ट परिणाम से राग- इंदिय-विसय-कसाए परीसहे वेतणा उवस्सग्गे । द्वेषात्मक ग्रन्थि को तोड़ने की चेष्टा एते अरिणो हंता, अरिहंता तेण उच्चति ॥ करना । करण का दूसरा प्रकार । (विभा ३५६२ कोवृ पृ७०६) (द्र. करण) इंद्रिय-विषय, कषाय, वेदना, परीषह और उपअप्काय-जीवनिकाय का दूसरा भेद । सर्ग-- इन शत्रओं का नाश करने वाले अरिहंत कहलाते (द. जीवनिकाय) अरिहन्ति वन्दण-णमंसणाणि अरहन्ति पूय-सक्कारं । अप्रतिपाति-अवधिज्ञान का एक प्रकार, जो सिद्धिगमणं च अरहा अरहन्ता तेण दुचंति ।। उत्पन्न होकर नष्ट नहीं होता। देवासुरमणुआणं अरहा पूया सुरुत्तमा जम्हा । (द्र. अवधिज्ञान) ""अरिहंता तेण वुच्चंति ।। अप्रत्यख्यानचतुष्क- (द्र. कषाय) (विभा ३५६४,३५६५ कोवृ पृ ७०६) अप्रमत्तसंयत--जो पूर्ण व्रती और अप्रमादी होता जिनमें सिद्धिगमन की अर्हता है, वे अर्हत् हैं। है, उसकी आत्म-विशुद्धि । सातवां सुर, असुर, मनुष्य -ये सब जिनकी वंदना, पूजागुणस्थान । (द्र. गुणस्थान) अर्चा करते हैं, वे अर्हत् हैं। अप्रमाद-जागरूकता (द्र. प्रमाद) जस्स न रहो संभवति अरहा। अभव्य-जिसमें मुक्त होने की योग्यता नहीं है, (अनुचू पृ ४३) जिसके लिए कोई रहस्य नहीं होता, वे अरह/ वह प्राणी। (द्र. भव्य) अर्हत् हैं। अभिनन्दन--चौथे तीर्थंकर । (द्र. तीर्थंकर) अशोकाद्यष्टमहाप्रातिहार्यादिरूपां पूजामर्हन्तीअभ्युत्थान-गुरुपूजा, आचार्य आदि गरुजनों के त्यहन्तः -- तीर्थकराः। (आवमव प ७९) आने पर खडे होना, सम्मान करना । ____ जो अशोकवृक्ष, पुष्पवृष्टि, दिव्यध्वनि, देवदुंदुभि, स्फटिक सिंहासन, भामंडल, छत्र, चामर-इन आठ सामाचारी का एक भेद। महाप्रातिहार्यों के अतिशय से सम्पन्न हैं, वे अर्हत्-- (द्र. सामाचारी) तीर्थंकर हैं। (द्र. तीर्थंकर) अयोगिकेवली-जिसके सम्पूर्ण योग का निरोध जह नरवइणो आणं अइक्कमंता पमायदोसेणं । हो जाता है, जो शैलेशी अवस्था पावंति बंधवहरोहछिज्जमरणावसाणाई ॥ को प्राप्त है, उसकी आत्म- तह जिणवराण आणं अइक्कमंता पमायदोसेणं । विशुद्धि । चौदहवां गुणस्थान । पावंति दुग्गइपहे विणिवायसहस्सकोडीओ।। (द्र. गुणस्थान) (ओभा ५४,४६) अरनाथ-अठारहवें तीर्थंकर । (द्र. तीर्थंकर) । जैसे प्रमादवश राजाज्ञा का अतिक्रमण करने वाला बंध, वध, रोध (निग्रह), छेदन और अन्त में मृत्यु को अरिष्टनेमि -बाईसवें तीर्थंकर । (द्र. तीर्थंकर) __प्राप्त करता है, वैसे ही अर्हत्-आज्ञा का अतिक्रमण अर्थावग्रह --पदार्थ का जाति, द्रव्य, गुण आदि की करने वाला प्रमत्त व्यक्ति अनन्त दुःखों को प्राप्त करता कल्पना से रहित अवबोध । (द. आभिनिबोधिकज्ञान) अलोक - आकाश का वह भाग, जिसमें केवल अर्हत-तीर्थकर एक आकाश द्रव्य हो। (द्र. लोक) ..."अरिणो हंता रयं हंता अरिहंता तेण वुच्चंति ॥ अवगाहना जीव और पुद्गल के द्वारा व्याप्त (आवनि १०७६) क्षेत्र। (देखें-पन्नवणा पद २१) जो कर्मशत्रु का नाश करते हैं, कर्मों के उपादान उत्सेधांगुल से शरीर की अवगाहना का माप । का नाश करते हैं, वे अरिहंत --- अर्हत् कहलाते हैं । (द्र. अंगुल) Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवगाहना वर्गणा अवधिज्ञान . सिद्धों की अवगाहना। (द्र. सिद्ध) ११. प्रतिपाति अवधि अवगाहना वर्गणा-(द्र. भाषा) १२. अप्रतिपाति अवधि अवग्रह-इन्द्रिय और पदार्थ के संयोग से होने | १३. स्पर्धक अवधि की परिभाषा वाला सामान्य अवबोध । . स्पर्धक अवधि : आनुगामिक आदि (. आभिनिबोधिक ज्ञान)| . स्पर्धक : तीव्र, मंद, मिश्र • स्पर्धकों के स्थान अवधिज्ञान -इन्द्रिय और मन की सहायता के | १४. बाह्य लब्धि-आभ्यंतर लब्धि अवधि बिना आत्मा से होने वाला मूर्त | १५. संबद्ध-असंबद्ध अवधि पदार्थों का ज्ञान । १६. अवधिज्ञान की असंख्येयता-अनंतता . ज्ञेय वस्तु में अवधान—एकाग्रता से १७. अवस्थित-अनवस्थित अवधि होने वाला अतीन्द्रिय ज्ञान । १८. अवधिज्ञान के संस्थान १. अवधिज्ञान : निर्वचन और परिभाषा १९. अवधिज्ञान और क्षेत्रमर्यादा | २. अवधिज्ञान का विषय ० वैमानिक देवों का अवधिक्षेत्र ३. अवधिज्ञान के दो प्रकार • देवों का आयुष्य और अवधिक्षेत्र . भवप्रत्ययिक • नारकों का अवधिक्षेत्र ..क्षायोपशमिक २०. तिथंच : उत्कृष्ट-जघन्य अवधि २१. अवधिज्ञान और देशविरति सामायिक ४. अवधिज्ञान के निकोप २२. अवधिज्ञान की पूर्वप्रतिपन्नता ५. अवधिज्ञान के छह प्रकार २३. अवधिज्ञान के प्राप्ति-स्थान आनुगामिक अवधि की परिभाषा २४. अवधिज्ञान के पश्चात् अवधिदर्शन ० प्रकार-अंतगत, मध्यगत । ० अंतगत की परिभाषा २५. मति-श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान में साधर्म्य । * मनःपर्यवज्ञान और अवधिज्ञान में साधर्म्य तथा अंतर ० प्रकार-पुरतः, पृष्ठतः, पार्वतः (द्र. मनःपर्यवज्ञान) ० मध्यगत की परिभाषा * अवधिज्ञान और केवलज्ञान में साधर्म्य • अंतगत और मध्यगत में अंतर (द्र. केवलज्ञान) ७. अनानुगामिक अवधि की परिभाषा * अवधिज्ञान : ज्ञान का एक भेद (द्र. ज्ञान) • आनुगामिक और अनानुगामिक के अधिकारी * अवधिज्ञान स्वार्थ (द्र. ज्ञान) ८. वर्धमान अवधि की परिभाषा * विभंगज्ञान (द्र. अज्ञान) ० वर्धमान अवधि : द्रव्यचतुष्टयी की वृद्धि-हानि * अवधिदर्शन . (द्र. दर्शन) • वृद्धि-हानि का नियम ० वृद्धि हानि के प्रकार १. अवधिज्ञान : निर्वचन और परिभाषा ० वर्धमान अवधि का जघन्य क्षेत्र : पनक का तेणावहीयए तम्मि वाऽवहाणं तओऽवही सो य मज्जाया। दृष्टांत जं तीए दवाइ परोप्पर मुणइ तओऽवहित्ति ।। ९. वर्धमान अवधि (परमावधि) का उत्कृष्ट क्षेत्र: (विभा ८२) अग्नि जीवों का दृष्टांत .. जो अवधान से जानता है, वह अवधिज्ञान है। • परमावधि का विषय . परमावधि नौ पूर्वजन्मों को जानता है अंगुल के असंख्येय भाग क्षेत्र को जानने वाला अवधि. परमावधि की परिणति-कैवल्य प्राप्ति ज्ञानी आवलिका के असंख्येय भाग तक जानता है इस प्रकार जो परस्पर नियमित द्रव्य, क्षेत्र, काल आदि | १०. हीयमान अवधि को जानता है, वह अवधिज्ञान है। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवधिज्ञान अवधिज्ञान का विषय अवशब्दोऽधःशब्दार्थः । अव अधोऽयो विस्तृतं वस्तु अनन्त भावों (पर्यायों) को जानता-देखता है। वे अनन्त धीयते-परिच्छिद्यतेऽनेनेत्यवधिः ।। - भाव भी सब भावों का अनन्तवां भाग ही हैं। अवधिर्मर्यादा रूपिष्वेव द्रव्येषु परिच्छेदकतया .. तेआभासादव्वाण, अन्तरा इत्थ लहइ पट्टवओ। प्रवृत्तिरूपा तदुपलक्षितं ज्ञानमप्यवधिः । गुरुलहुअअगुरुलहुअं, तंपि अ तेणेव निट्ठाइ ।। अवधानम्-आत्मनोर्थसाक्षात्करणव्यापारोऽवधिः । (आवनि ३८) (नन्दीमत् प६५) । पट्टवओ नामावहिनाणस्सारंभओ तयाईए । अव शब्द का अर्थ है-अधः । अधो-अधोवर्ती रूपी उभयाजोग्गं पेच्छइ तेयाभासंतरे दवं ॥ द्रव्यों को विशेष रूप से जानता है, वह अवधिज्ञान है। गुरुलहु तेयासन्नं भासासन्नमगुरुं च पासे ।। अवधि का अर्थ है-मर्यादा । जिस ज्ञान की मर्यादा आरंभे जं दिट्ठ दणं पडइ तं चेक : है केवल रूपी द्रव्यों को जानना, वह अवधिज्ञान है । (विभा ६२८,६२९) ___ अर्थ को साक्षात् करने का जो आत्मप्रयत्न है, अवधिज्ञानी प्रारम्भ में तेजसवर्गणा और भाषावर्गणा अवधान है, वह अवधिज्ञान है। के अन्तरालवर्ती गुरुलघु और अगुरुलघुपर्याय वाले द्रव्य२. अवधिज्ञान का विषय पुद्गलों को जानता है। वे पुद्गल तैजस और भाषा के तं समासओ चउन्विहं पण्णत्तं, तं जहा-दव्वओ, अयोग्य होते हैं। उनमें तेजसद्रव्यासन्न पुद्गल गुरुलघु खेत्तओ, कालओ, भावओ। तत्थ दवओ णं ओहिनाणी और भाषाद्रव्यासन्न पुद्गल अगुरुलघ होते हैं। जहण्णेणं अणंताई रूविदव्वाइं जाणइ पासइ । उक्कोसेणं अवधिज्ञानावरण का उदय हो जाने पर प्रतिपाति सव्वाइं रूविदव्वाइं जाणइ पासइ ।। अवधिज्ञान उतने द्रव्य को जानकर समाप्त हो जाता खेत्तओ णं ओहिनाणी जहण्णणं अंगूलस्स असंखेज्जइभागं जाणइ पासइ । उक्कोसेणं असंखेज्जाइं अलोगे तेयकसरीरस्स अतिथूरत्तणेण अग्गहणपाउग्गाणि लोयमेत्ताई खंडाई जाणइ पासइ ।। दव्वाणि । भासाए य अतिसुहमत्तणेण अग्गहणपाउग्गाणि कालओ णं ओहिनाणी जहण्णेणं आवलियाए असंखे दवाणि । ताणि अंतराले वट्टमाणाणि दव्वाणि गुरुलहुज्जइभागं जाणइ पासइ। उक्कोसेणं असंखेज्जाओ याणि अगुरुलहुयाणि य भण्णं ति। (आव १५५०) ओसप्पिणीओ उस्सप्पिणीओ अईयमणागयं च कालं अतिस्थूल होने से तैजस शरीर के द्रव्य ग्रहण प्रायोग्य नहीं हैं और अतिसूक्ष्म होने से भाषा के द्रव्य जाणइ पासइ। भावओ णं ओहिनाणी जहण्णणं अणंते भावे जाणइ भी ग्रहणप्रायोग्य नहीं हैं। तैजस और भाषा के अन्तपासइ । उक्कोसेण वि अणते भावे जाणइ पासइ, सव्व रालवर्ती द्रव्य गुरुलघु और अगुरुलघु-दोनों हैं और वे भावाणमणंतभागं जाणइ पासइ। ही अवधिज्ञान के ग्रहणप्रायोग्य हैं। अवधिज्ञान का विषय चार प्रकार का है जति पसत्थेहिं अज्झवसाणेहिं वति ततो विसुद्धद्रव्य से -अवधिज्ञानी जघन्यतः अनन्त रूपी द्रव्यों परिणामगो ओहिणा परिवड्ढमाणेण उवरिं जाव अचित्तको तथा उत्कृष्टतः सब रूपी द्रव्यों को जानता-देखता महाखंधो ताव पासति । हेट्टावि जाव परमाणू पोग्गला ताव पासति। (आवचू १४८) क्षेत्र से--अवधिज्ञानी जघन्यतः अंगुल का असंख्या यदि प्रशस्त अध्यवसाय होते हैं तो विशुद्धपरिणामी तवां भाग तथा उत्कृष्टत: अलोक में लोकप्रमाण असंख्य अवधिज्ञानी वर्धमान अवधिज्ञान से अधिक से अधिक खण्डों को जानता-देखता है। अचित्तमहास्कन्ध तक और कम से कम परमाणु-पुद्गल काल से--अवधिज्ञानी जघन्यतः आवलिका के तक देखता है। असंख्यातवें भाग को जानता-देखता है तथा उत्कृष्टतः संखिज्ज मणोदव्वे, भागो लोगपलियस्स बोद्धव्वो। अतीत और अनागत काल के असंख्यात अवसर्पिणी- संखिज्ज कम्मदव्वे, लोए थोवणगं पलियं ।। उत्सर्पिणी को जानता देखता है। (आवनि ४२) भाव से-अवधिज्ञानी जघन्यतः तथा उत्कृष्टतः मनोद्रव्य को देखने वाला अवधिज्ञानी क्षेत्रतः लोक Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षायोपशमिक अवधिज्ञान ४७ अवधिज्ञान (नन्दी ७) के संख्येय भाग को तथा कालतः पल्योपम के संख्येय भवप्रत्ययिक अवधिज्ञान भाग को जानता है। कर्मद्रव्य की वर्गणाओं को देखने दुण्हं भवपच्चइयं, तं जहा ... देवाण य, नेरइयाण य । वाला अवधिज्ञानी क्षेत्रतः लोक के संख्येय भागों को और कालतः पल्योपम के संख्येय भागों को जानता है। देवता और नारक...... इन दोनों का अवधिज्ञान पूरे लोक को देखता हुआ अवधिज्ञानी कालत: कुछ कम भवप्रत्ययिक होता है। पल्योपम को जान लेता है। जहा पक्खीणं विज्जादिसयादिकारणविरहियाणवि तेयाकम्मसरीरे, तेआदब्वे अ भासदव्वे अ। भवपच्चएण चेव आगासगमणलद्धी भवति । एवं बोद्धव्वमसंखिज्जा, दीवसमुद्दा य कालो अ॥ देवणेरइयाणं भवपच्चइया ओहिणाणलद्धी भवति । (आवनि ४३) (आवचू १ पृ ३७) तैजस शरीर, कार्मण शरीर, तेजस द्रव्य और भाषा जैसे पक्षियों को बिना किसी विद्यातिशय के आकाशद्रव्य को जानने वाला अवधिज्ञानी असंख्येय द्वीप-समुद्रां गमन की लब्धि जन्म से ही प्राप्त होती है, वैसे ही देव और असंख्येय काल को जानता है। और नारकों के अवधिज्ञान भवप्रत्ययिक होता है। दवाओ असंखिज्जे, संखेज्जे आवि पज्जवे लहइ । ओही खओवसमिए भावे भणिओ भवो तहोदइए । दो पज्जवे दुगुणिए, लहइ य एगाउ दव्वाउ। तो किह भवपच्चइओ वोत्तुं जुत्तोऽवही दोण्हं।। (आवनि ६४) सो वि हु खओवसमओ किंतु स एव उ खओवसमलाभो । एगं दव्वं पेच्छं खंधमणं वा स पज्जवे तस्स । तम्मि सह होअवस्सं भण्णइ भवपच्चओ तो सो॥ उक्कोसमसंखिज्जे संखिज्जे पेच्छइ कोइ ।। (विभा ५७३,५७४) दो पज्जवे दुगुणिए सवजहण्णण पेच्छए ते य । अवधिज्ञान क्षायोपशमिक भाव है और देवगतिवण्णाईय चउरो नाणते पेच्छइ कयाइ ।। नरकगति औदयिक भाव है, तब देव और नारक का (विभा ७६१,७६२) अवधिज्ञान भवप्रत्ययिक कैसे हो सकता है ? देव-नारक अवधिज्ञानी जघन्यत: प्रत्येक द्रव्य के वर्ण, गन्ध, को अवधिज्ञान अवधिज्ञानावरण के क्षयोपशम से ही रस और स्पर्श लक्षणात्मक चार पर्यायों को जानता है। प्राप्त होता है, किन्तु उस भव में उनके अवश्य होता है. मध्यम अवधि में वह अनेक भेद वाले संख्येय पर्यायों को इसलिए वह भवप्रत्ययिक अवधि कहलाता है। जानता है। क्षायोपशमिक अवधिज्ञान उत्कृष्ट अवधिज्ञानी प्रत्येक द्रव्य के असंख्येय पर्यायों को हेऊ खोवसमियं ? खओवसमियं-तयावरणिको जानता है, अनन्त पर्यायों को कभी नहीं जानता। ज्जाणं कम्माण उदिण्णाणं खएणं, अणदिण्णाणं उवसमेणं ""खेत्त-कालदुगं । ओहिनाणं समुप्पज्जइ। (नन्दी ८) रूवाणगयं पेच्छइ न य तं चिय तं जओऽमृत्तं ।। येन कारणेन अवधिज्ञानावरणीयानां कर्मणामुदीर्णानां (विभा ६८८) क्षयेण अनुदीर्णानाम् -- उदयावलिकामप्राप्तानामुपशमेनअवधिज्ञान का विषय रूपी-मूर्त द्रव्य है, अतः वह विपाकोदयविष्कम्भणलक्षणेनावधिज्ञानमुत्पद्यते, तेन अमूर्त क्षेत्रकाल को नहीं देखता। मूर्त द्रव्य से सम्बद्ध कारणेन क्षायोपशमिकमित्युच्यते। (नन्दीमत् प ७७) क्षेत्र-काल को देखता है। उदयावलिका में प्रविष्ट अवधिज्ञानावरण कर्म के ३. अवधिज्ञान के दो प्रकार क्षय से, अनुदीर्ण अवधिज्ञानावरण कर्म के उपशम से - आहिनाणपच्चक्खं दुविहं पण्णत्तं, तं जहा.- विपाकोदय को रोक देने से जो अवधिज्ञान प्राप्त होता भवपच्चइयं च खओवसमियं च ।। (नन्दी ७) है, वह क्षायोपशमिक अवधिज्ञान है। अवधिज्ञान प्रत्यक्ष दो प्रकार का है-- "अहवा-गुणपडिवण्णस्स अणगारस्स ओहिनाणं १. भवप्रत्ययिक-भवहेतुक अवधिज्ञान । समुप्पज्जइ। (नन्दी ८) २. क्षायोपशमिक-अवधिज्ञानावरणकर्म के क्षयो- गुणप्रतिपन्न अनगार को अवधिज्ञान की प्राप्ति होती पशम से उत्पन्न अवधिज्ञान। है। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवधिज्ञान आनुगामिक अवधि गुणाः---मूलगुणादयस्तैः प्रतिपन्न:-गृहीतो गुण- ३. संस्थान क्षेत्र के आधार पर अवधिज्ञान के प्रतिपन्न इति। अनेन अतिशयपात्रतामाह"तस्य संस्थान । प्रशस्ताध्यवसायस्य तदावरणकर्मक्षयोपशमे सत्यवधिज्ञानं ४. आनुगामिक - आनुगामिक - अनानुगामिक - मिश्र समुत्पद्यते । (नन्दीहावृ पृ २२) अवधि । गुणप्रतिपन्न का अर्थ है मूलगुण और उत्तरगुणों से ५. अवस्थितलब्धि और उपयोग की अपेक्षा से अवधि प्रतिपन्न । यह अवधिज्ञान की अतिशयपात्रता है। जो का अवस्थान। इससे संयुक्त और प्रशस्त अध्यवसाय (भावधारा) वाला ६. चल-वर्धमान-हीयमान अवधि । होता है, उसको अवधिज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम ७. तीव्र-मंद-विशुद्ध-अविशुद्ध अवधि । होने पर अवधिज्ञान की प्राप्ति होती है। ८. प्रतिपात-उत्पाद -एक समय में अवधि की उत्पत्ति खयोवसमो गुणमंतरेण गुणपडिवत्तितो वा भवति । और विनाश। गुणमंतरेण जहा गगणब्भच्छादिते अहापवत्तितो छिद्देणं दिणकरकिरण व्व विणिस्सिता दव्वमुज्जोवंति तहाऽवधि- १०. दर्शन- अवधिदर्शन । आवरणखयोवसमे अवधिलंभो अधापवत्तितो विण्णेतो। ११. विभंग --मिथ्यात्वी का अवधिज्ञान । गुणपडिवत्तितो-उत्तरुत्तरचरणगुणविसुज्झमाणमवेक्खातो या देशा-सर्व शांपिक-सम्पर्ण अभिज्ञान अवधिणाणदंसणावरणाण खयोवसमो भवति। तक्खयो १३. क्षेत्र-संबद्ध-असंबद्ध आदि क्षेत्रसंबंधी अवधि । वसमे य अवधी उप्पज्जति । (नन्दीचू पृ १५) १४. गति -गति, इन्द्रिय, काय, लेश्या आदि के आधार क्षयोपशम दो तरह से होता है पर अवधि का प्रतिपादन । १. गुण की प्रतिपत्ति के बिना होने वाला क्षयोपशम १५. ऋद्धि-अवधिज्ञान-ऋद्धि के प्रसंग में अन्य ऋद्धियों जैसे बादलों से आच्छन्न आकाश में कोई छिद्र रह छिद्र रह का वर्णन । जाये, उस छिद्र में से स्वाभाविक रूप से निःसृत ५. अवधिज्ञान के छह प्रकार सूर्य की किरण द्रव्य को प्रकाशित करती है, वैसे ही अवधिज्ञानावरण का क्षयोपशम होने पर यथाप्रवृत्त तं समासओ छव्विहं पण्णत्तं, तं जहा-आणुगामियं अवधिज्ञान की प्राप्ति होती है। अणाणुगामियं वड्ढमाणयं हायमाणयं पडिवाइ अप्पडिवाइ। २. गुण की प्रतिपत्ति से होने वाला क्षयोपशम---- ___ (नन्दी ९) उत्तरोत्तर चरणगुण की विशुद्धि से अवधिज्ञानदर्शना अवधिज्ञान के छह प्रकार हैं-आनुगामिक, अनानुवरण का क्षयोपशम होने पर अवधिज्ञान की प्राप्ति गामिक, वर्धमान, हीयमान, प्रतिपाति, अप्रतिपाति । होती है। ६. आनुगामिक अवधि की परिभाषा ४. अवधिज्ञान के निक्षेप अणुगामिओऽणुगच्छइ गच्छंत लोयणं जहा पुरिसं । ओही खेत्तपरिमाणे संठाणे आणुगामिए । (विभा ७१५) अवट्रिए चले तिव्व-मंदपडिवाउप्पाई य॥ अणुगमणसीलो अणुगामितो तदावरणखयोनाण-दंसणविभंगे देसे खित्ते गई इय । वसमाऽऽतप्पदेसविसुद्धगमणत्तातो लोयणं व। (नन्दीचू पृ१५). इड्ढीपत्ताणुओगे य एमेया पडिवत्तीओ।। अवधिज्ञानावरण के क्षयोपशम से आत्मप्रदेशों की (आवनि २७,२८) विशुद्धि हो जाने पर जो ज्ञान एक स्थान से दूसरे स्थान पन्द्रह निक्षेपों (दृष्टियों) के आधार पर अवधिज्ञान की मीमांसा की गई है -- पर जाते हुए अपने स्वामी का आंख की तरह अनुगमन करता है, वह आनुगामिक अवधिज्ञान है। १. अवधि...नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, भाव । आनुगामिक अवधि के प्रकार २. क्षेत्र-परिमाण--अवधि का जघन्य-मध्यम-उत्कृष्ट आणुगामियं ओहिनाणं दुविहं पण्णत्तं, तं जहाक्षेत्र-परिमाण । अंतगयं च मझगयं च । (नन्दी १०) Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्श्वतः अंतगत आनुगामिक अवधि के दो प्रकार हैं १. अंतगत - शरीर के पर्यंत भागवर्ती चैतन्यकेन्द्रों से होने वाला अवधिज्ञान । २. मध्यगत- शरीर के मध्यभागवर्ती चैतन्यकेन्द्रों से होने वाला अवधिज्ञान । अंतगत अवधिज्ञान आत्मनोऽन्ते --- पर्यन्ते स्थितमितिकृत्वा अन्तगतमित्युच्यते । तैरेव पर्यन्तवत्तिभिरात्मप्रदेशः साक्षादवधिरूपेण ज्ञानेन ज्ञानात् न शेषैरिति । औदारिकशरीरस्यान्ते गतं स्थितं अन्तगतं, कयाचिदेकदिशोपलम्भात् । इदमपि स्पर्द्धकरूपमवधिज्ञानम् । सर्वेषामप्यात्मप्रदेशानां क्षयोपशमभावेऽपि औदारिकशरीरान्तेनैकया दिशा यद्वशादुपलभ्यते तदप्यन्तगतम् । ( नन्दीमवृप ८३ ) अंतगत अवधिज्ञान की व्याख्या तीन प्रकार से की जा सकती है जो पर्यन्तवर्ती आत्मप्रदेशों से साक्षात् जानता है, वह अन्तगत अवधिज्ञान है । जो औदारिक शरीर के अन्त किसी एक भाग से जानता है, वह स्पर्धक रूप अवधिज्ञान है । सब आत्मप्रदेशों का क्षयोपशम होने पर भी जो ज्ञान औदारिक शरीर के एक भाग से एक दिशा में जानता है, वह अन्तगत अवधिज्ञान है । अंतगत के भेद ४९ अंतगयं तिविहं पण्णत्तं तं जहा -- पुरओ अंतगयं, मग्गओ अंतगयं, पासओ अंतगयं । ( नन्दी ११ ) अंतगत अवधिज्ञान तीन प्रकार का है-१. पुरत: अंतगत, २. पृष्ठत: अंतगत, ३. पार्श्वतः अंतगत । पुरतः अंतगत पुरओ अंतगयं ---से जहानामए केइ पुरिसे उक्कं वा चुडलियं वा अलायं वा मणि वा जोई वा पईवं वा पुरओ काउं पणोल्लेमाणे- पोल्लेमाणे गच्छेज्जा । ( नन्दी १२ ) जैसे कोई एक पुरुष उल्का (दीपिका), मशाल ( पर्यन्त भाग में ज्वलित तृणपूलिका), अलात (अग्रभाग में ज्वलित काष्ठ), मणि, ज्योति (शराव आदि में स्थित अग्नि ) अथवा प्रदीप को आगे करके उसे प्रदीप्त रखता हुआ अवधिज्ञान चलता है, उसे आगे के पदार्थ दिखाई देते हैं । इसी प्रकार पुरतः अंतगत अवधिज्ञानी अपने सामने के रूपी पदार्थों को जानता - देखता है । पुरतो अंतगयं णाम तमोहिणाणि पडुच्च चक्खिदियमिव अग्गतो दरिसणसामत्थजुत्तं । जत्थ जत्थ ओहिणाणी गच्छ तत्थ तत्थ पुरतो अवट्टिया रूवावबद्धा अत्था जाणति पासति य । ( आवचू १ पृ ५६ ) पुरतः अंतगत अवधिज्ञानी चक्षुइन्द्रिय की तरह सामने के पदार्थों को देखने में समर्थ होता है । वह अवधिज्ञानी जहां-जहां जाता है, वहां-वहां सामने अवस्थित मूर्त पदार्थों को जानता देखता है । पृष्ठतः अंतगत मग्गओ अंतगयं - से जहानामए केइ पुरिसे उक्कं या चुडलियं वा अलायं वा मणि वा जोई वा पईवं वा मग्गओ काउं अणुड्डेमा अणुकड् ढेमाणे गच्छेज्जा | जत्थ जत्थ सो ओहिण्णाणी संफरिसिया फासिंदियमिव पितो अत्था ओहिणा जाणति पासति । ( नन्दी १३ ) गच्छति तत्थ तत्थ अवट्टिता रूवावबद्धा ( आवचू १ पृ ५६ ) जैसे कोई एक पुरुष दीपिका, मशाल, अलात, मणि, ज्योति अथवा प्रदीप को पीठ पीछे करके चलता है, उसे पीठ पीछे के पदार्थ दिखाई देते हैं । इसी प्रकार पृष्ठत: अंतगत अवधिज्ञानी जहां-जहां जाता है, वहां-वहां पीठ पीछे के रूपी पदार्थों को स्पर्शनइन्द्रिय से स्पृष्ट की तरह जानता देखता है । पार्श्वतः अंतगत पासओ अंतगयं से जहानामए केइ पुरिसे उक्कं वा चुडलियं वा अलायं वा मणि वा जोई वा पईवं वा पासओ काउं परिकड्ढेमाणे- परिकड्ढेमाणे गच्छेज्जा । ( नन्दी १४) जैसे कोई एक पुरुष दीपिका, मशाल, अलात, मणि, ज्योति अथवा प्रदीप को दक्षिण पार्श्व और वाम पार्श्व में करके चलता है तो उसे पार्श्व भाग के पदार्थ दिखाई देते हैं। इसी प्रकार पार्श्वतः अंतगत अवधिज्ञानी पार्श्ववर्ती भाग के रूपी पदार्थों को जानता देखता है । पासतो अंतगयं णाम वामतो दाहिणतो वत्ति । जत्थ जत्थ सो ओहिणाणी गच्छति तत्थ तत्थ सोइंदिणमिव पासतो अवत्थिता रूवावबद्धा अत्था ओहिणा जाणति पासति य । ( आवचू १ पृ ५६ ) पार्श्वत: अंतगत से तात्पर्य है - बांयें दायें भाग में Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवधिज्ञान अनानुगामिक अवधिज्ञान अवस्थित पदार्थ का ज्ञान । जहां-जहां पार्वतः अंतगत सब दिशाओं में जानता है, इसलिए मध्यगत अवधिज्ञान अवधिज्ञानी जाता है, वहां-वहां श्रोत्रेन्द्रिय की तरह उभय है। पार्श्व में अवस्थित रूपी पदार्थों को अवधि से जानता- सब आत्मप्रदेशों का क्षयोपशम होने पर भी जो ज्ञान देखता है। औदारिक शरीर के मध्य भाग से जानता है, वह मध्यगत मध्यगत अवधिज्ञान है। मझगयं-से जहानामए केइ पुरिसे उक्कं वा सब दिशाओं में अवधिज्ञान से जितना क्षेत्र प्रकाशित चुडलियं वा अलायं वा मणि वा जोइं वा पईवं वा मत्थए हुआ है, अवधिज्ञानी उस क्षेत्र के मध्य में स्थित है, काउं गच्छेज्जा। (नन्दी १५) इसलिए वह मध्यगत अवधिज्ञान है। जैसे कोई एक पुरुष दीपिका, मशाल, अलात, मणि, अंतगत और मध्यगत में अन्तर ज्योति अथवा प्रदीप को मस्तक पर रखकर चलता है, ____ अंतगयस्स मज्झगयस्स य को पइविसेसो ? पुरओ उसे चारों ओर के पदार्थ दिखाई देते हैं। इसी प्रकार अंतगएणं ओहिनाणेणं पुरओ चेव संखेज्जाणि वा मध्यगत अवधिज्ञानी सब ओर के रूपी पदार्थ जानता असंखेज्जाणि वा जोयणाई जाणइ पासइ। मग्गओ देखता है। अंतगएणं ओहिनाणेणं मग्गओ चेव संखेज्जाणि वा ____ मझगतं पुण ओरालियसरीरमझे फड्डगविसुद्धीता असंखेज्जाणि वा जोयणाइं जाणइ पासइ। पासओ सव्वातप्पदेसविसुद्धीतो वा सव्वदिसोवलंभत्तणतो मझगतो अंतगएणं ओहिनाणेणं पासओ चेव संखेज्जाणि वा त्ति भण्णति । (नन्दीचू पृ १६) असंखेज्जाणि वा जोयणाई जाणइ पासइ । मझगएणं औदारिक शरीर के मध्यवर्ती स्पर्धकों की विशुद्धि ओहिनाणेणं सव्वओ समंता संखेज्जाणि वा असंखेज्जाणि से अथवा सब आत्म-प्रदेशों की विशुद्धि से सब दिशाओं वा जोयणाइं जाणइ पासइ। (नन्दी १६) का ज्ञान मध्यगत अवधिज्ञान कहलाता है। शिष्य ने पूछा-अंतगत अवधिज्ञान और मध्यगत ___मझगतं णाम जं समंततो अत्थग्गाहि। जहा फरि ___ अवधिज्ञान में क्या अन्तर है ? आचार्य ने कहासिदिएणं समंतओ फरिसिए जीवो अत्थे उवलभति, एवं पुरतः अंतगत अवधिज्ञानी सामने स्थित संख्यात सोवि ओहिणाणी जत्थ-जत्थ गच्छति तत्थ-तत्थ समंतओ अथवा असंख्यात योजनों को ही जानता-देखता है। पृष्ठतः रूवावबद्धे अत्थे ओहिणा जाणति पासति य। अंतगत अवधिज्ञानी पीछे-पीछे के संख्यात अथवा असंख्यात (आवच १ पृ५६,५७) योजनों को ही जानता-देखता है। पार्श्वतः अंतगत अवधिमध्यगत अवधिज्ञानी चारों ओर के पदार्थों को ज्ञानी पार्श्व भागों में स्थित संख्यात अथवा असंख्यात ग्रहण करता है । जैसे जीव स्पर्शनेन्द्रिय के द्वारा चारों योजनों को ही जानता-देखता है। मध्यगत अवधिज्ञानी ओर से स्पर्श करके विषय को जान लेता है, उसी प्रकार चारों ओर के संख्यात अथवा असंख्यात योजनों को वह अवधिज्ञानी जहां-जहां जाता है, वहां-वहां चारों जानता-देखता है। ओर के रूपी पदार्थों को अवधि से जानता-देखता है। मध्यवर्तिष्वात्मप्रदेशेषु गतं --स्थितं मध्यगतम् । इदं ___७. अनानुगामिक अवधि को परिभाषा च स्पर्द्धकरूपमवधिज्ञानं सर्वदिग्पलम्भकारणं मध्य- से जहानामए केइ पूरिसे एगं महंतं जोइड्राणं काउं वत्तिनामात्मप्रदेशानामवसेयम् । तस्सेव जोइदाणस्स परिपेरंतेहि-परिपेरतेहिं परिघोलेमाणेसर्वेषामप्यात्मप्रदेशानां क्षयोपशमभावेऽप्यौदारिक- परिघोलेमाणे तमेव जोइट्राणं पासइ, अण्णत्थ गए न शरीरमध्यभागेनोपलब्धिस्तन्मध्ये गतं मध्यगतम् । पासइ । एवमेव अणाणुगामियं ओहिनाणं जत्थेव समुप्प तेनावधिज्ञानेन यदुद्योतितं क्षेत्र सर्वासु दिक्षु, तस्य ज्जइ तत्थेव संखेज्जाणि वा असंखेज्जाणि वा संबद्धाणि मध्यभागे गतं --स्थितं मध्यगतम्, अवधिज्ञानिनः तदु- वा असंबद्धाणि वा जोयणाई जाणइ पासइ, अण्णत्थ गए द्योतितक्षेत्रमध्यवर्तित्वात् । (नन्दीमड़ प ८३,८४) ण पासइ । (नन्दी १७) मध्यगत अवधि की व्याख्या के तीन कोण हैं- जैसे कोई एक पुरुष एक बहुत बड़ा ज्योति कुण्ड यह स्पर्धकरूप अवधिज्ञान मध्यवर्ती आत्मप्रदेशों से बनाकर उसके आस-पास चारों ओर चक्कर लगाता हुआ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान अवधिज्ञान उस ज्योतिस्थान को देखता है । अन्यत्र चले जाने पर उसे नहीं देखता । इसी प्रकार अनानुगामिक अवधिज्ञान जिस क्षेत्र में उत्पन्न होता है, उसी क्षेत्र से सम्बद्ध अथवा असम्बद्ध संख्येय अथवा असंख्येय योजन तक जानता देखता है, क्षेत्र का परिवर्तन होने पर नहीं देखता । इयरो य नाणुगच्छइ ठियपईवो व्व गच्छंतं । ( विभा ७१५ ) अनानुगामुकं नावधिज्ञानिनं गच्छन्तमनुगच्छति, सङ्कलाप्रतिबद्धप्रदीपवत् । ( नन्दीहावृ पृ २३ ) एक स्थान पर स्थित अथवा सांकल से प्रतिबद्ध दीपक की भांति जो ज्ञान गमनप्रवृत्त अवधिज्ञानी का अनुगमन नहीं करता, वह अनानुगामिक अवधिज्ञान है । अनुगामिक- अनानुगामिक के अधिकारी अणुगामिओ उ ओही, नेरइयाणं तहेव देवाणं । अणुगामी अणणुगामी, मीसो य मणुस्सतेरिच्छे ॥ ( आवनि ५६ ) नारक और देवों का अवधिज्ञान आनुगामिक होता है | मनुष्य और तिर्यचों का अवधिज्ञान आनुगामिक, अनुगामिक और मिश्र तीनों प्रकार का होता है । ८. वर्धमान अवधि की परिभाषा वड्ढमाणयं ओहिनाणं - पसत्थेसु अज्झवसाणट्ठाणेसु माणस्स वट्टमाणचरित्तस्स विसुज्झमाणस्स विसुज्झमाणचरितस्स सव्वओ समंता ओही वड्ढइ । ( नन्दी १८ ) जो प्रशस्त अध्यवसायों में वर्तमान और चरित्र में वर्तमान है, जो विशुद्धयमान और विशुद्ध्यमान चरित्र वाला है, उसका अवधिज्ञान सब ओर से बढ़ता हैं । यह वर्धमान अवधिज्ञान है । पुव्वावत्थातो उवरुवरि वड्ढमाणं ति । तं च उस्सण्णं चरणगुणविद्धिमपेक्ख, ततो पसत्थज्झवसाणट्ठाणा आदिपसत्थलेसाणुगता भवंति । पसत्थदव्वलेसाहि अणुरंजितं चित्तं सत्थज्भवसाणो भण्णति । पसत्थज्भवसाणातो चरणातविसुद्ध | चरणाऽऽतविसुद्धीतोय चरणपच्चतलद्वीणं वड्ढी भवति । ( नन्दी चू पृ १८ ) पूर्व अवस्था की अपेक्षा से जो उत्तरोत्तर बढ़ता है, वह वर्धमान कहलाता है । वर्धमान अवधि प्रायः चारित्रपर्यवों की विशुद्धि से होता है । चारित्रविशुद्धि से प्रशस्त तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या वाले प्रशस्त अवधिज्ञान अध्यवसाय होते हैं । प्रशस्त अध्यवसायों से चरणगुणसम्पन्न आत्मा की विशुद्धि होती है । इससे चरणशुद्धिजन्य लब्धि ( अवधिज्ञान ) की वृद्धि होती है । उत्पत्तिकालादारभ्य प्रवर्द्धमानम् । ५१ ( नन्दी हावृ पृ २३ ) जो उत्पत्तिकाल से निरन्तर बढता जाता है, वह वर्धमान अवधिज्ञान है । बहुबहुत रेन्धनप्रक्षेपादिभिर्वर्द्धमानदहन ज्वालाकलाप पूर्वावस्थातो यथायोगं प्रशस्तप्रशस्ततराध्यवसायभावतोऽभिवर्द्धमानमधिज्ञानं वर्द्धमानकं तच्चासकृद्विशिष्टगुणविशुद्धिसापेक्षत्वात् । ( नन्दीमवृप ८२ ) जैसे प्रचुर इन्धन डालने से अग्नि बढती है, वैसे ही प्रशस्त-प्रशस्ततर अध्यवसायों के कारण उत्तरोत्तर बढ़ने वाला अवधिज्ञान वर्धमान अवधिज्ञान है । उसकी बारबार वृद्धि गुण - विशुद्धि सापेक्ष होती है । वर्धमान अवधि : द्रव्यचतुष्टयी की वृद्धि-हानि अंगुलमा लिया, भागमसंखेज्ज दोसु संखेज्जा । अंगुलमावलियंतो, आवलिया अंगुलपुहत्तं ॥ हत्थम्मि मुहुत्ततो, दिवसंतो गाउयम्मि बोद्धव्वो । जोयणदिवसपुहत्तं पक्खतो पणवीसाओ ॥ भरहम्मि अद्धमासो, जंबुद्दीवम्मि साहिओ मासो । वासं च मणुयलोए, वासपुहत्तं च रुयगम्मि ।। संखेज्जम्मि उ काले, दीवसमुद्दा वि हुंति संखेज्जा । कालम्मि असंखेज्जे, दीवसमुद्दा उ भइयव्वा ॥ ( नन्दी १८/३-६) अंगुल के असंख्य भाग क्षेत्र को देखने वाला काल की दृष्टि से आवलिका के असंख्येयभाग तक देखता है । अंगुल के संख्येय भाग क्षेत्र को देखने वाला आवलिका के संख्येयभाग तक देखता है । अंगुल जितने क्षेत्र hi देखने वाला भिन्न (अपूर्ण) आवलिका तक देखता है । काल की दृष्टि से एक आवलिका तक देखने वाला क्षेत्र की दृष्टि से अंगुल पृथक्त्व ( दो से नौ अंगुल) क्षेत्र को देखता है । एक हाथ जितने क्षेत्र को देखने वाला अन्तर्मुहूर्त जितने काल तक देखता है, एक गव्यूत ( गाऊ) क्षेत्र को देखने वाला अन्तदिवस काल ( एक दिन से कुछ कम ) तक देखता है । एक योजन क्षेत्र को देखने वाला दिवस पृथक्त्व ( दो से नौ दिवस ) काल तक देखता है । पच्चीस योजन क्षेत्र को देखने वाला अन्तःपक्ष काल Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ अवधिज्ञान वृद्धि-हानि के प्रकार (कुछ कम एक पक्ष) तक देखता है। द्रव्य क्षेत्र से भी सूक्ष्म होता है। क्योंकि एक भरत जितने क्षेत्र को देवने वाला अर्द्ध मास काल आकाश प्रदेश में भी अनन्त स्कन्धों का अवगाहन हो तक देखता है, जम्बूद्वीप जितने क्षेत्र को देखने वाला सकता है। पर्याय द्रव्य से भी सूक्ष्म हैं। एक ही द्रव्य में साधिक मास (एक महिने से कुछ अधिक) काल तक अनन्त पर्याय होते हैं। द्रव्य और पर्याय की वृद्धि होने है, मनुष्यलोक जितने क्षेत्र को देखने वाला एक वर्ष पर क्षेत्र और काल की वृद्धि भजनीय है -होती भी है तक देखता है, रुचक द्वीप जितने क्षेत्र को देखने वाला और नहीं भी होती। द्रव्य की वृद्धि होने पर पर्याय की वर्ष-पृथक्त्व (दो से नौ वर्ष) तक देखता है। वृद्धि निश्चित है। अवधिज्ञानी प्रत्येक द्रव्य के संख्येय संख्येय काल तक देखने वाला संख्येय द्वीप-समुद्र और असंख्येय पर्यायों को जानता है। पर्याय की वृद्धि जितने क्षेत्र को देखता है। असंख्येय काल तक देखने होने पर द्रव्य की वृद्धि की भजना है-वद्धि होती भी वाला असंख्येय द्वीप-समुद्र जितने क्षेत्र को देख सकता है, है और नहीं भी होती। एक द्रव्य में भी पर्याय विषयक पर नियामकता नहीं है। अवधिज्ञान की वृद्धि होना संभव है। वृद्धि-हानि का नियम वृद्धि-हानि के प्रकारकाले चउण्ह वुड्ढी, कालो भइयब्बु खेत्तवुड्ढीए। वुड्ढी वा हाणी वा, चउबिहा होइ खित्तकालाणं । वुड्ढीए दव्वपज्जव, भइयव्वा खेत्तकाला उ॥ दव्वेसु होइ दुविहा, छव्विह पुण पज्जवे होइ॥ (नन्दी १८७) (आवनि ५९) कालवृद्धि के साथ द्रव्य, क्षेत्र और भाव की वृद्धि में अवधिज्ञान के विषयभूत क्षेत्र और काल में वृद्धिकाल वृद्धि की भजना है। द्रव्य और पर्याय की वृद्धि में हानि चार प्रकार की होती है। द्रव्यों में वृद्धि-हानि दो क्षेत्र और काल की वृद्धि की भजना है। प्रकार की और पर्यायों में वृद्धि-हानि छह प्रकार की सुहुमो य होइ कालो, तत्तो सुहुमयरयं हवइ खेत्तं। होती है। अंगूलसेढीमित्ते, ओसप्पिणिओ असंखेज्जा॥ पइसमयमसंखिज्जइभागहियं कोइ संखभागहियं । (नन्दी १८/८) अन्नो संखेज्जगुणं खित्तमसंखेज्जगुणमण्णो ।। काल सूक्ष्म होता है, क्षेत्र उससे सूक्ष्मतर होता है। पेच्छइ विवड्ढमाणं हायंतं वा तहेव कालं पि । अंगुलश्रेणि मात्र आकाशप्रदेश का परिमाण असंख्येय नाणंतवु ड्ढि-हाणी पेच्छइ जं दो वि नाणते ।। अवसर्पिणी की समय राशि जितना होता है। (विभा ७३०, ७३१) क्षेत्र ह्यत्यन्तसूक्ष्मम् । कालस्तु तदपेक्षया परि- क्षेत्र और काल की वृद्धि-हानि के चार प्रकार ---- स्थरः, ततो यदि प्रभूता क्षेत्रवद्धिस्ततो वर्द्धते शेषकालं १. असंख्यात भाग वृद्धि १. असंख्यात भाग हानि नेति । द्रव्यपर्यायौ तु नियमतो वर्द्धते ।। २. संख्यात भाग वृद्धि २. संख्यात भाग हानि द्रव्यं क्षेत्रादपि सूक्ष्म, एकस्मिन्नपि नभःप्रदेशे- ३. संख्यात गुण वृद्धि ३. संख्यात गुण हानि ऽनन्तस्कन्धावगाहनात् । द्रव्यादपि सूक्ष्मः पर्यायः, एक- ४. असंख्यात गुण वृद्धि ४. असंख्यात गुण हानि स्मिन्नपि द्रव्येऽनन्तपर्यायसम्भवात् । ततो द्रव्यपर्याय- दव्वमणतंसहियं अनंतगुणवढियं च पेच्छेज्जा । वद्धौ क्षेत्रकालौ भजनीयावेव भवत: । द्रव्ये च वर्धमाने हायंतं वा भावम्मि छव्विहा वुड्ढि-हाणीओ। पर्याया नियमतो वर्धन्ते, प्रतिद्रव्यं संख्येयानामसंख्येयानां (विभा ७३२) चावधिना परिच्छेदसंभवात् । पर्यायतो वर्द्धमाने द्रव्यं द्रव्य की वृद्धि-हानि के दो प्रकार -- भाज्यं, एकस्मिन्नपि द्रव्ये पर्यायविषयावधिवृद्धिसम्भ- १. अनन्त भाग वृद्धि १. अनन्त भाग हानि वात् । (नन्दीमवृ प ९५) २. अनन्त गुण वृद्धि २. अनन्त गुण हानि । क्षेत्र अत्यन्त सूक्ष्म है । उसकी अपेक्षा काल स्थूल पर्याय की वद्धि-हानि के छह प्रकारहै । इसलिए यदि अवधिज्ञान की क्षेत्र-वृद्धि प्रचुर मात्रा १. अनन्त भाग वृद्धि १. अनन्त भाग हानि में होती है तो कालवृद्धि होती है, अन्यथा नहीं। २. असंख्यात भाग वृद्धि २. असंख्यात भाग हानि द्रव्य और पर्याय की वृद्धि निश्चित रूप से होती है। ३. संख्यात भाग वृद्धि ३. संख्यात भाग हानि Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान अवधि (परमावधि) का उत्कृष्ट क्षेत्र ५३ अवधिज्ञान ४. संख्यात गुण वृद्धि ४. संख्यात गुण हानि समये सकल निजशरीरसम्बद्धमात्मप्रदेशानामायाम ५. असंख्यात गुण वृद्धि ५. असंख्यात गुण हानि संहृत्याङ गूलासंख्येयभागबाहल्यं स्वदेहविष्कम्भायाम६. अनन्त गुण वृद्धि ६. अनन्त गुण हानि विस्तारं प्रतरं करोति । तमपि द्वितीयसमये संहृत्याङ गुलावुड्ढीए चिय वुड्ढी हाणी हाणीए न उ विवज्जासो। सङ्ख्यभागबाहल्यविष्कम्भां मत्स्यदेहविष्कम्भायामात्मभागे भागो गुणणे गुणो य दवाइसंजोए॥ प्रदेशाना सूचि विरचयति । ततस्तृतीयसमये तामपि (विभा ७३३) संहृत्याङ गुलासङ ख्येयभागमात्र एवं स्वशरीरबहिःप्रदेशे द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव में परस्पर द्रव्य की वृद्धि होने सूक्ष्मपरिणामपनकरूपतयोत्पद्यते । तस्योपपातसमयादारभ्य पर क्षेत्र आदि की भी वृद्धि होती है और एक की हानि तृतीये समये वर्तमानस्य यावत्प्रमाणं शरीरं भवति होने पर दूसरे की भी हानि होती है। इनमें से परस्पर तावत्परिमाणं जघन्यमवधेः क्षेत्रमालम्बनवस्तुभाजनमएक की वृद्धि और दूसरे की हानि-यह विपर्यास नहीं वसेयम् । (नन्दीमवृ प ९१) होता। द्रव्य आदि में से एक की भाग रूप में वृद्धि- इस विषय की गुरुपरम्परा यह है-एक मत्स्य, हानि होने पर दूसरे की वृद्धि-हानि भाग रूप में ही जो हजार योजन लम्बा है, जो अपने ही शरीर के बाह्य होती है। एक की वृद्धि-हानि गुणन रूप में होने पर भाग के एक देश में उत्पन्न होने वाला है, वह पहले समय दूसरे की वृद्धि-हानि गुणन रूप में ही होती है। में अपने शरीर में व्याप्त सब आत्मप्रदेशों की लम्बाई को अवधिज्ञान का जघन्य क्षेत्र : पनक का दृष्टांत संकुचित कर प्रतर बनाता है। उस प्रतर की मोटाई जावइआ तिसमयाहारगस्स सहमस्स पणगजीवस्स । अंगुल के असंख्येयभागप्रमाण तथा लम्बाई-चौड़ाई अपने ओगाहणा जहण्णा, ओहीखेत्तं जहणं तु ॥ दहप्रमाण हाता है। (नन्दी १८११) दूसरे समय में वह उस प्रतर को संकुचित कर स्वतीन समय के आहारक सूक्ष्म पनक (वनस्पति देहप्रमाण लम्बाई-चौड़ाई वाले आत्मप्रदेशों की सूची विशेष) जीव के शरीर की जितनी जघन्य अवगाहना बनाता है। उस सूची की मोटाई और चौड़ाई अंगुल के होती है, उतना अवधि का जघन्य क्षेत्र है। असंख्येयभागप्रमाण होती है। पढम-बिईएऽतिसण्हो जमइत्थूलो चउत्थयाईसु । तीसरे समय में उस सूची को संकुचित कर अंगुल के तइयसमयम्मि जोग्गो गहिओ तो तिसमयाहारो॥ असंख्येयभागप्रमाण, अपने शरीर के बाहरी प्रदेश में (विभा ५९५) सूक्ष्म परिणति वाले पनक के रूप में उत्पन्न होता है। प्रथम और द्वितीय समय में 'पनक' की अवगाहना उत्पत्ति के तीसरे समय में पनक के शरीर का जितना अत्यन्त सूक्ष्म होती है। चतुर्थ, पंचम आदि समयों में वह प्रमाण होता है, उतने ही प्रमाण वाला जघन्य क्षेत्र है अतिस्थूल हो जाती है। तृतीय समय में उसकी जितनी ___अवधिज्ञान का। इतने क्षेत्र में अवस्थित रूपी वस्तु अवगाहना होती है, उतना क्षेत्र अवधिज्ञान का विषय अवधिज्ञानी का विषय बनती है । बनता है। इसलिए 'त्रिसमयआहारक पनक' का ग्रहण ९. वर्धमान अवधि (परमावधि) का उत्कृष्ट क्षेत्र उचित है। जो जोयणसाहस्सो मच्छो नियए सरीरदेसम्मि । सव्वबह अगणिजीवा, निरन्तरं जत्तियं भरिज्जस् । उववज्जतो पढमे समए संखिवइ आयामं ॥ खेत्तं सव्वदिसागं, परमोही खेतनिट्रिो । पयरमसंखिज्जंगुलभागतणुं मच्छदेहविच्छिण्णं । (नन्दी १८१२) बीए तइए सूई संखिविउ होइ तो पणओ ॥ जिस समय अग्नि के सर्वाधिक जीवों ने निरन्तर उववायाओ तइए जं देहमाणमेयस्स । जितने क्षेत्र को व्याप्त किया था, उतना सब दिशाओं में तण्णेयदव्वभायणमोहिक्खित्तं जहन्नं तं ।। परमावधि का क्षेत्र होता है। (विभा ५८९-५९१) उक्कोसया य सुहुमा जया तया सव्वबहुगमगणीणं । अत्र चायं सम्प्रदायः-यः किल योजनसहस्रपरिमा- परिमाणं संभवओ तं छद्धा पूरणं कुणइ ।। णायामो मत्स्यः स्वशरीरबाह्य कदेश एवोत्पद्यमानः प्रथम (विभा ६००) Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवधिज्ञान सूचीग्रहण के दो गुण जब सूक्ष्म अग्निजीव उत्कृष्ट रूप में उत्पन्न होते २. एक-एक आकाशप्रदेश में एक-एक जीव की स्थापना हैं, तब बादर अग्निजीवों के साथ मिलकर सर्वबहु आगमविरुद्ध है। क्योंकि आगम में असंख्येय अग्नि जीवों का परिमाण संभव होता है। यह आकाशप्रदेशों के बिना जीव के अवगाह का निषेध अवसर्पिणी में द्वितीय तीर्थकर के काल में हआ था। इस संभावना को छह प्रकार से व्यवस्थापित किया जा सूचीग्रहण के दो गुण सकता है। सूचिरेकैकजीवस्यासंख्येयाकाशप्रदेशावगाहे व्यवस्थाएक्केक्कागासपएसजीवरयणाए सावगाहे य । पितत्वाद् बहुतरं क्षेत्रं स्पृशति, इत्येको गुणः। अवगाहचउरंसघणं पयरं सेढी छटो सुयाएसो॥ विरोधाभावस्तु द्वितीयः। (विभामवृ पृ २७०) (विभा ६०१) १. सूची में एक-एक जीव असंख्येय आकाश प्रदेशों एक-एक आकाश-प्रदेश में जीव रचना के द्वारा और में पंक्ति रूप में अवगाढ होता है, तब बहतर क्षेत्र की स्व-अवगाह (स्थापना) द्वारा चतुरस्र संस्थान में घन, पर्णता कमा प्रतर और श्रेणि के भेद से छह प्रकार के आदेश संभव २ इस अवगाह का आगम में विरोध नहीं है। हैं। उनमें केवल छठा आदेश ही श्रुतादेश है । प्रथम पांच इसलिए सूचीलक्षणात्मक छठे विकल्प का ही आगम आदेश सदोष हैं, अतः अग्राह्य हैं। में आदेश --ग्रहण है। तैः सर्वैरप्यग्निजीवै: समचतुरस्रो घनो यतो द्विभेदः घण-पयरसेढिगणियं नण तुल्लं चिय विगप्पणा कीस । स्थाप्यते ।""एकैकाकाशप्रदेश एकैकाग्निजीवरचनया छद्धा कीरइ भण्णइ परिसपरिक्खेवओ भेओ। स्वावगाहे चासंख्येयाकाशप्रदेशलक्षण एकैकाग्निजीव (विभा ६०२) रचनयेति ।... एकैकप्रदेशावगाढजीवधनो भ्रम्यमाणो यावत् क्षेत्र एवमेकैकाकाशप्रदेशे एकैकजीवस्थापनयाऽसंख्येयप्रदेशा- स्पृशति, तस्मादसंख्येयप्रदेशावगाढजीवघनोऽसंख्येयगुणं त्मकस्वावगाहस्थापनया च प्रतरोऽपि द्विभेदः। सूचिरपि स्पृशति, ततोऽप्येकैकप्रदेशावगाढजीवप्रतरोऽसंख्येयगुणं, द्विभेदा । तत्र घनप्रतरपक्षश्चतुर्भेदः, पञ्चमश्चैकैकाकाश- तस्मादप्यसंख्येयप्रदेशावगाढजन्तुप्रतरोऽसंख्येयगुणं, ततोप्रदेशव्यवस्थापितकैकजीवलक्षणसूचिपक्षोऽपि न ग्राह्यः, ऽप्येकैकप्रदेशावगाढजीवसूचिरसंख्येयगुणं, तस्मादप्यदोषद्वयानुषङ्गात् । तथाहि-पञ्चविधयाऽप्यनया संख्येयाकाशप्रदेशावगाढेकैकाग्निजीवसूचिरवधिज्ञानिन: स्थापनया स्थापिता अग्निजीवाः षट्स्वपि दिक्ष्ववधि- सर्वासु दिक्ष भ्रम्यमाणाऽसंख्येयगुणं क्षेत्रं स्पृशति, ज्ञानिनोऽसत्कल्पनया भ्रम्यमाणा: स्तोकमेव क्षेत्रं स्पृशन्ती- तच्चाऽलोके लोकप्रमाणान्यसंख्येयाकाशखण्डानि । अत त्येको दोषः । एकैकाकाशप्रदेशे एकैकजीवस्थापनाया- एतावदेवावधेरुत्कृष्टं क्षेत्र विषयः। . मागमविरोधश्च द्वितीयदोषः, असंख्येयाकाशप्रदेशानन्त (विभामवृ पृ २७१) रेणाऽगमे जीवावगाहनिषेधात् । एक-एक प्रदेशावगाढ जीवधन भ्रमण करता हुआ (विभामवृ पृ २६९, २७०) जितना क्षेत्र स्पर्श करता है, उससे असंख्यप्रदेशावगाढ घन, प्रतर, सूची-ये दो-दो प्रकार के होते हैं- जीवघन असंख्यात गुना स्पर्श करता है। उससे एक-एक प्रदेशावगाढ जीवप्रतर असंख्यात गूना स्पर्श करता है। १. एक-एक आकाश प्रदेश में एक-एक जीव । उससे असंख्येय प्रदेशावगाढ जीवप्रतर असंख्यात गुना २. असंख्यात-असंख्यात आकाशप्रदेशों में एक-एक स्पर्श करता है। उससे एक-एक प्रदेशावगाढ जीवसूची ___ जीव । असंख्यात गुना स्पर्श करता है। उससे असंख्येय प्रदेशावइस प्रकार तीनों के छह प्रकारों में पांच सदोष गाढ जीवसूची असंख्यात गुना स्पर्श करता है। यह हैं। दोष के दो कारण हैं अग्निकाय के जीवों की सूची है। १. असत्कल्पना से अवधिज्ञानी के छहों दिशाओं में ये सर्व दिशाओं में भ्रमण करते हुए असंख्यात गुना भ्रम्यमाण ये जीव थोड़े ही क्षेत्र का स्पर्श करते हैं। क्षेत्र-स्पर्शन करते हैं। यह अलोक में लोक प्रमाण Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमावधि असंख्येय आकाशखण्ड जितना है । यह अवधिज्ञान का उत्कृष्ट क्षेत्र है । ठाइ असंखेज्जाई निययावगाहणागणिजीवसरीरावली समंते । भामिज्जइ ओहिन्नाणिदेहपज्जतओ सा य ॥ अइगंतूण अलोगं लोगागा सप्पमाणमेत्ताइं । इदमोह्खेित्तमुक्कोसं ।। ( विभा ६०३, ६०४ ) लोक के असंख्येय प्रदेशों में अवगाहित पंक्तिरूप में व्यवस्थित उन अग्निजीवों की सूची काल्पनिक रूप से अवधिज्ञानी के शरीर के चारों ओर घुमाइ जाए तो वह लोक जितने व्यापक असंख्येय आकाश खंडों का अतिक्रमण कर आलोक में जा ठहर जाती है । यह अवधि - ज्ञानी का उत्कृष्ट क्षेत्र है । सामत्थमेत्तमेयं जइ दट्ठव्वं हवेज्ज पेच्छेज्जा । न य तं तत्थत्थि जओ से रूविनिबंधणो भणिओ ॥ ( विभा ६०५ ) यदि इतने क्षेत्र में कुछ भी द्रष्टव्य रूपी पदार्थ हो तो अवधिज्ञानी उसे देख सकता है। यह अवधिज्ञान का मात्र सामर्थ्य बताया गया है। अवधिज्ञान का विषय है रूपी पदार्थ, जो आलोक में नहीं है । परमावधि का विषय परमोहि असंखिज्जा, लोगमित्ता समा असंखिज्जा । रूवगयं लहइ सव्वं, खित्तोवमिअं अगणिजीवा ॥ ( आवनि ४५ ) परमावधि क्षेत्रतः असंख्येय लोक परिमित खंडों को जानता है । कालतः वह असंख्येय उत्सर्पिणीअवसर्पिणी को जानता है । द्रव्यतः सब मूर्त्त द्रव्यों को जानता है । उसका क्षेत्रोपमान अग्नि जीवों के समान 1 वड्ढतो पुण बाहि लोगत्थं चेव पासई दव्वं । सुहुमयरं सुहुमयमं परमोही जाव परमाणुं ॥ ( विभा ६०६ ) सामर्थ्य से लोक के बाहर बढ़ता हुआ वह अवधिज्ञान लोक में स्थित द्रव्यों को ही देख सकता है। वह परमावधि सूक्ष्मतर तथा सूक्ष्मतम परमाणु को भी देख सकता है। ५५ परमावधि नौ पूर्वजन्मों को जानता है। एगपएसोगाढं परमोही लहइ कम्मगसरीरं । लहइ य अगुरुलघुअं, तेयसरीरे भवपुहत्तं ॥ ( आवनि ४४ ) यसरीरं पास पासइ सो भव हुत्तमेगभवे । सुं बहुतरए सरिज्ज न उ पासए सब्वे || ( विभा ६७७ ) प्रदेश में अवगाढ परमाणु कार्मण शरीर और गुरुलघु। जो अवधि तैजस शरीर को देखता है, वह कालतः भवपृथक्त्व (दो से नौ) भवों को देखता है उस भवपृथक्त्व के मध्य किसी भव में यदि उसे अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ हो तो उस अवधिज्ञान से दृष्ट पूर्व भवों की उसे स्मृति होती है, उनका साक्षात् नहीं होता । एगपएसोगा भणिए कि कम्मयं पुणो भणियं । ( विभा ६७८ ) यः सूक्ष्मं परमाण्वादि पश्यति तेन बादरं कार्मणशरीराद्यवश्यमेव द्रष्टव्यम्, यो वा बादरं पश्यति तेन सूक्ष्ममवश्यं ज्ञातव्यमित्ययं न कोऽपि नियमः । (विभामवृपृ २९२ ) शिष्य ने पूछा- एक प्रदेशावगाढ परमाणु आदि सूक्ष्म वस्तुओं को जानने वाला परमावधि कर्मशरीर आदि स्थूल वस्तुओं को तो जानता ही है, फिर कर्मशरीर को स्वतंत्र रूप से क्यों ग्रहण किया गया है ? परम अवधिज्ञानी एक यावत् अनंतप्रदेशी स्कन्ध, अगुरुलघु द्रव्यों को देखता अवधिज्ञान गुरु ने कहा- यह कोई नियम नहीं है कि जो सूक्ष्म परमाणु को देखता है, वह बादर कार्मणशरीर आदि को अवश्य देखता है अथवा जो बादर को देखता है, वह सूक्ष्म को अवश्य देखता है । ..... सहयरं पेच्छं तो थूलयरं न मुणइ घडाई ॥ जह वा मणोविओ नत्थि दंसणं सेसएऽतिथूले वि । ( विभा ६८०, ६८१ ) सूक्ष्मतर पदार्थों को जानने वाला अवधिज्ञानी घट आदि स्थूल पदार्थों को नहीं जानता । जैसे मनः पर्यवज्ञानी सूक्ष्म मनोद्रव्य को तो जानता है, पर वह शेष अतिस्थूल पदार्थों को नहीं जानता । परम अवधिज्ञानी को कंवल्य परमोहित्राणविओ केवलमंतोमुहुत्तमित्तेण ।......... (विभा ६८९ ) Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवधिज्ञान स्पर्धक अवधि परमोही अंतोमुहत्तं भवति । ततो परं केवलनाणं योजनपृथक्त्व, योजनशत, योजनशतपृथक्त्व, योजनसमुप्पज्जति । (आवच११४०) सहस्र, योजनसहस्रपृथक्त्व, योजनलक्ष, योजनलक्षपृथक्त्व परम अवधिज्ञान का कालमान है --अन्तर्महत । योजनकोटि, योजनकोटिपृथक्त्व, योजनकोटाकोटि, उसके पश्चात् केवलज्ञान उत्पन्न हो जाता है । योजनकोटाकोटिपृथक्त्व, अथवा उत्कृष्टतः संपूर्ण लोक को १०.हीयमान अवधिज्ञान देखकर गिर जाये-नष्ट हो जाए, वह प्रतिपाति अवधिज्ञान है। हायमाणयं ओहिनाणं अप्पसत्थेहिं अज्झवसाणट्ठाणेहि यदुत्पन्नं सत् क्षयोपशमानुरूपं कियत्कालं स्थित्वा वट्टमाणस्स वट्टमाणचरित्तस्स, संकिलिस्समाणस्स प्रदीप इव सामस्त्येन विध्वंसमुपयाति तत्प्रतिपातीत्यर्थः । संकिलिस्समाणचरित्तस्स सव्वओ समंता ओही परिहायइ । (नन्दीमवृ प ८२) (नन्दी १८) जो अवधिज्ञान उत्पन्न होने पर क्षयोपशम के अनुरूप अप्रशस्त अध्यवसायों में वर्तमान, अप्रशस्त कुछ काल तक अवस्थित रहकर बाद में प्रदीप की तरह आचरणवाले तथा उत्तरोत्तर संक्लेश को प्राप्त और पूर्ण रूप से बुझ जाता है, वह प्रतिपाति अवधिज्ञान है। संक्लिश्यमान आचरणवाले व्यक्ति का अवधिज्ञान चारों ओर से क्षीण होता है। १२. अप्रतिपाति अवधिज्ञान उदयसमयसमनन्तरमेव हीयमानं दग्धेन्धनप्रायःधम- अपडिवाइ ओहिनाणं-जेणं अलोगस्स एगमवि ध्वजाचिर्वातवदित्यर्थः। (नन्दीहावृ पृ २३) आगासपएसं पासेज्जा, तेण परं अपडिवाइ ओहिनाणं । उत्पत्तिकाल के साथ ही जो बुझती हुई अग्नि (नन्दी २१) ज्वाला की तरह क्षीण होने लगता है, वह हीयमान जो अवधिज्ञान अलोकाकाश के एक प्रदेश अथवा अवधिज्ञान है। उससे आगे देखने की क्षमता रखता हो, वह अप्रतिपाति ११. प्रतिपाति अवधिज्ञान अवधिज्ञान है। न प्रतिपाति-यत् न केवलज्ञानादर्वाक् भ्रंशमुपयाति पडिवाइ ओहिनाणं-जण्णं जहण्णेणं अंगुलस्स तदप्रतिपातीत्यर्थः। (नन्दीमत् प ८२) असंखेज्जयभागं वा संखेज्जयभागं वा, वालग्गं वा वालग्ग जो ज्ञान केवलज्ञान की प्राप्ति से पूर्व नष्ट नहीं पुहत्तं वा, लिक्खं वा लिक्खपुहत्तं वा, जूयं वा जूयपुहत्तं होता, वह अप्रतिपाति अवधिज्ञान है। वा, जवं वा जवपुहत्तं वा, अंगुलं वा अंगुलपुहत्तं वा, १३. स्पर्धक अवधि : परिभाषा और स्वरूप पायं वा पायपुहत्तं वा, विहत्थि वा विहत्थिपुहत्तं वा, रयणि वा रयणिपुहत्तं वा, कूच्छि वा कृच्छिपृहत्तं वा, जालकडगस्स अंतो दीवको पलीविओ। तओ तस्स धणुं वा धणपुहत्तं वा, गाउयं वा गाउयपूहत्तं वा, जोयणं पईवस्स लेसातो तहिं जालंतरेहिं निग्गच्छति । निग्गताओ वा जोयणपुहत्तं वा, जोयणसयं वा जोयणसयपुहत्तं वा, य समाणीओ बाहिं अवट्टियाणि रूविद्दव्वाइं उज्जोवेति । जोयणसहस्सं वा जोयणसहस्सपुहत्तं वा, जोयणलक्खं वा एवं जीवस्सवि जेसु आगासपदेसेसु ओहिण्णाणावरणिज्जाणं जोयणलक्खपुहत्तं वा, जोयणकोडिं वा जोयणकोडिपुहत्तं कम्माणं खओवसगे भवति, तेसु ओहिण्णाणं समुप्पज्जति । वा, जोयण कोडाकोडि वा जोयणकोडाकोडिपुहत्तं वा, जेसु पुण आगासपदेसेसु ओहिण्णाणावरणक्खओवसमो उक्कोसेणं लोगं वा-पासित्ताणं पडिवएज्जा। णत्थि, तेसु ओहिण्णाणं ण उप्पज्जति । जेसि जीवाणं (नन्दी २०) केसुवि आगासपदेसेसु ओही उप्पण्णो, केसुवि न उप्पन्नो, जो अवधिज्ञान जघन्यत: अंगुल का असंख्यातवां तत्थ जेसु उप्पण्णो ते फड्डगा भण्णंति । (आवचू १ पृ ६१) भाग, संख्यातवां भाग, बालाग्र, बालाग्रपृथक्त्व, लिक्षा, एक दीपक जल रहा है। उस पर जालीदार ढक्कन लिक्षापृथक्त्व, यूका, यूकापृथक्त्व, यव, यवपृथक्त्व, लगा हुआ है। उससे प्रकाश की रश्मियां छिद्रों से बाहर अंगुल, अंगुलपृथक्त्व, पाद, पादपृथक्त्व, वितस्ति, वित- आती हैं। वे रश्मियां बाहर आकर बाह्य रूपी पदार्थों स्तिपृथक्त्व, रत्नि, रत्निपृथक्त्व, कुक्षि, कुक्षिपृथक्त्व, को प्रकाशित करती हैं । इसी प्रकार जीव के भी जिन धनुष्य, धनुष्यपृथक्त्व, गव्यूत, गव्यूतपृथक्त्व, योजन, आकाशप्रदेशों (आत्मप्रदेशों) में अवधिज्ञानावरणीय कर्म Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाह्यलब्धि-आभ्यतरलब्धि अवधि अवधिज्ञान का क्षयोपशम होता है, उनमें अवधिज्ञान उत्पन्न होता है। २. अनानुगामिक ३. मिश्र । इनमें से प्रत्येक के तीन-तीन जिन आकाशप्रदेशों में अवधिज्ञानावरण का क्षयोपशम नहीं प्रकार होते हैं -१. प्रतिपाति २. अप्रतिपाति ३. मिश्र । होता, उनमें अवधिज्ञान उत्पन्न नहीं होता । जीवों के कुछ ये स्पर्धक मनुष्यों और तिर्यञ्चों के अवधिज्ञान में घटित आकाशप्रदेशों में अवधिज्ञान उत्पन्न होता है, कुछ में नहीं होते हैं। होता। जिन आकाशप्रदेशों में अवधिज्ञान उत्पन्न होता स्पर्धक : तीव. मंद मिश्र है, उन्हें स्पर्धक कहा जाता है। जालंतरत्थदीवप्पहोवमो फडगावही होइ। ___ अवधिरुत्पद्यमानः कोऽपि स्पर्धकरूपतयोत्पद्यते ।। तिव्वो विमलो मंदो मलीमसो मीसरूवो य॥ स्पर्द्धकं च नामावधिज्ञानप्रभाया गवाक्षजालादिद्वारविनि (विभा ७४०) र्गतप्रदीपप्रभाया इव प्रतिनियतो विच्छेदविशेषः । तथा चाह झरोखे की जाली में रखे दीपक की प्रभा के समान जिनभद्रक्षमाश्रमणः स्वोपज्ञभाष्यटीकायां-'स्पर्धकमवधि स्पर्धक अवधि होता है। विशुद्ध क्षयोपशमजन्य स्पर्धकों विच्छेदविशेषः' इति । तानि चैकजीवस्य सङ्खयेयान्य से उत्पन्न निर्मल अवधिज्ञान तीव्र कहलाता है। अविशुद्ध सङ्खयेयानि वा भवन्ति; यत उक्तं मूलावश्यकप्रथमपीठि क्षयोपशमजन्य स्पर्धकों से होने वाला मलिन अवधिज्ञान कायां -"फड्डा य असङ्खेज्जा सङ खेज्जा आवि एग मन्द कहलाता है। मध्यम क्षयोपशमजन्य अवधिज्ञान मिश्र जीवस्स।" स्पद्धकानि विचित्ररूपाणि। (नन्दामवृप ८३] (तीव्र-मंद) कहलाता है। __ अवधिज्ञान के अनेक प्रकार हैं। उत्पन्न होता हुआ स्पर्धकों के स्थान कोई अवधिज्ञान स्पर्धक रूप में उत्पन्न होता है। जैसे ___ कानिचित् पर्यन्तवत्तिष्वात्मप्रदेशेषुत्पद्यन्ते, तत्रापि झरोखे की जाली में से निकलने वाली दीपक की प्रभा कानिचित्पुरतः कानिचित्पृष्ठतः कानिचिदधोभागे कानिका प्रतिनियत आकार होता है, वैसे ही स्पर्धक अवधि चिदुपरितनभागे तथा कानिचिन्मध्यवत्तिष्वात्मप्रदेशेषु । ज्ञान की प्रभा का प्रतिनियत विच्छेद करते हैं । वे स्पर्धक (नन्दीमवृ प ८३) एक जीव के संख्येय अथवा असंख्येय होते हैं । वे विचित्र अवधिज्ञान के कुछ स्पर्धक पर्यन्तवर्ती आत्मप्रदेशों में (विभिन्न) आकार वाले होते हैं। उत्पन्न होते हैं । कुछ आगे के आत्मप्रदेशों में, कुछ पृष्ठअसंख्येय स्पर्धक वर्ती आत्मप्रदेशों में, कुछ अधोभाग में, कुछ उपरितन भाग में तथा कुछ मध्यवती आत्मप्रदेशों में उत्पन्न होते फड्डा य असंखिज्जा, संखेज्जा यावि एगजीवस्स । एगप्फडडवओगे, नियमा सव्वत्थ उवउत्तो ।। (आवनि ६०) १४. बाह्यलब्धि-आभ्यंतर लब्धि अवधि .."उवउज्जइ जुगवं चिय जह समयं दोहिं नयणेहिं ।।। बाहिरलंभे भज्जो, दव्वे खित्ते य कालभावे य । (विभा ७४१) उप्पा पडिवाओऽवि य तं उभयं एगसमएणं ।। एक जीव के असंख्येय अयवा संख्येय स्पर्धक होते हैं । बाहिरलंभो नाम जत्थ से ठियस्स ओहिण्णाणं समुएक स्पर्धक का उपयोग करने वाला जीव निश्चित रूप प्पण्णं तम्मि ठाणे सो ओहिण्णाणी न किंचि पासति । तं से एक साथ सब स्पर्धकों का उपयोग करता है। पुण ठाणं जाहे अंतरियं होति, तं जहा-अंगुलेण वा जैसे कि एक आंख का उपयोग करने वाला व्यक्ति दोनों अंगुलपुहत्तेण वा एवं जाव संखेज्जेहि वा असंखेज्जेहि आंखों से उपयुक्त होता है-एक साथ देखता है। वा जोधणेहि, ताहे पासइ । जेसिं दव्ववेत्तकालभावाणं स्पर्धक : आनुगामिक आदि काणिवि एगसमएण चेव पुव्वदिट्राणि ण पासति । काणिइ पुण अदिट्टपुव्वाणि पासति । फडा य आणगामी अणाणगामी य मीसया चेव । (आवनि ६२ च १ ६२,६३) पडिवाई अपडिवाई मीसा य मणुस्स-तेरिच्छे । जिस स्थान पर अवधिज्ञान उत्पन्न हआ है, उसी स्थान (आवनि ६१) पर स्थित अवधिज्ञानी कुछ नहीं देख पाता। उस स्थान स्पर्धक तीन प्रकार के होते हैं-१. आनुगामिक से हटकर अंगुल, अंगुलपृथक्त्व यावत् संख्येय योजन 'पासात। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवधिज्ञान ५८ संबद्ध-असंबद्ध अवधि अथवा असंख्येय योजन दूर जाने पर देख पाता है, यह १५. संबद्ध-असंबद्ध अवधि बाह्यलब्धि अवधिज्ञान है। ___संखिज्जमसंखिज्जो, पुरिसमबाहाइ खित्तो ओही। इसमें पूर्वदष्ट द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के कुछ संबद्धमसंबद्धो, लोगमलोगे य संबद्धो । हिस्से को जिस एक समय में नहीं देखता, उसी एक समय (आवनि ६७) में कुछ अदृष्टपूर्व को देख लेता है। इस प्रकार एक ही संबद्ध और असंबद्ध - दोनों प्रकार का अवधि क्षेत्र समय में ज्ञान का उत्पाद और प्रतिपात होता है। की दृष्टि से संख्येय अथवा असंख्येय योजन तक जानता बाहिरओ एगदिसो फड्डोही वाऽहवा असंबद्धो।'' बाह्यावधिर्देशावधिरयम्। (विभा ७४९ मव पृ ३१२) अवधिज्ञानी अपने जिस ज्ञान से एक दिशा में स्थित पुरुष आदि के अबाधा (देह और अवधिज्ञान से पदार्थों को जानता है अथवा कुछ स्पर्धक विशुद्ध, कुछ प्रकाशित क्षेत्र का अन्तर) का प्रमाण भी संख्येय या स्पर्धक अविशुद्ध होने से अनेक दिशाओं में अंतर सहित असंख्येय योजन है। यह अन्तर असम्बद्ध अवधि में ही जानता है अथवा क्षेत्रीय व्यवधान के कारण असंबद्ध होता है, सम्बद्ध अवधि में नहीं। यह अवधि लोक और जानता है, वह बाह्यावधि कहलाता है। बाह्यावधि को अलोक में भी सम्बद्ध-असम्बद्ध होता है । देशावधि कहा जाता है। ओही पुरिसे कोई संबद्धो जह पभा पदीवम्मि । अभितरलद्धीए उ तदुभयं नत्थि एगसमएणं । दूरंधयारदीवयदरिसणमिव कोइ विच्छिण्णो॥ उप्पा पडिवाओऽविय, एगयरो एगसमएणं । (विभा ७७३) अभितरलद्धी नाम जत्थ से ठियस्स ओहिनाणं किसी अवधिज्ञानी में अवधिज्ञान प्रदीप में प्रभा की गातो आरब्भ ओहिनाणी निरंतर संबद्धं तरह सम्बद्ध होता है -वह ज्ञानी अपने अवस्थिति क्षेत्र संखेज्जमसंखेज वा खेत्तं ओहिणा जाणइ पासइ । से निरन्तर द्रष्टव्य वस्तु को जान लेता है। कोई (आवनि ६३ च १ पृ ६४) अवधिज्ञान अवधिज्ञानी में असम्बद्ध होता है। जैसे दूरी आभ्यन्तरलब्धि में उत्पाद और प्रतिपात-दोनों और अन्धकार के कारण प्रदीप की प्रभा विच्छिन्न हो एक समय में नहीं होते। एक समय में उत्पात अथवा जाती है। प्रतिपात होता है। संखेज्जमसंखेज्ज देहाओ खित्तमंतरं काउं । जिस स्थान में अवधिज्ञान उत्पन्न होता है, उस संखेज्जासंखेज्ज पेच्छेज्ज तदंतरमबाहा॥ स्थान से अवधिज्ञानी निरन्तर सम्बद्ध संख्येय अथवा (विभा ७७४) असंख्येय योजन क्षेत्र को अवधि से जानता-देखता है। अवधिज्ञानी की देह से क्षेत्र का अन्तर संख्येय अथवा ___ अयं ह्यभ्यन्तरावधिः प्रदीपप्रभापटलवदवधिमता " असंख्येय योजन है । पुरुष और अबाधा की दृष्टि से इन जीवेन सह सर्वतो नैरन्तर्येण संबद्धोऽखण्डो देशरहित एक दोनों के चार-चार विकल्प बनते हैंस्वरूपः, अत एवायं सम्बद्धावधिरदेशावधिश्चोच्यते । १. संख्येय योजन अन्तर संख्येय अवधि (विभामवृ पृ ३१३) २. संख्येय योजन अन्तर असंख्येय अवधि प्रदीपप्रभा की तरह आभ्यंतर अवधि अवधिज्ञानी से ३. असंख्येय योजन अन्तर संख्येय अवधि निरंतर संबद्ध, अखंड, विभागरहित और एक स्वरूप होने ४. असंख्येय योजन अन्तर असंख्येय अवधि से अदेशावधि (सर्वावधि) कहलाता है। नेरइयदेवतित्थंकरा य, ओहिस्सबाहिरा हुँति । संबद्धाऽसंबद्धो नर-लोयंतेसु होइ चउभंगो। पासंति सव्वओ खलु, सेसा देसेण पासंति ।। संबद्धो उ अलोए नियमा पुरिसे वि संबद्धो । (नन्दी २२/२) (विभा ७७५) नैरयिक, देव और तीर्थंकर अबाह्य अवधिज्ञान वाले जो अवधि अलोक में सम्बद्ध है, वह पुरुष में भी होते हैं वे सर्वतः देखते हैं । शेष (अंतगत अवधिज्ञान सम्बद्ध ही होता है । लोकान्त और पुरुष की अपेक्षा से वाले) मनुष्य और तिर्यच एक देश से देखते हैं। चार विकल्प बनते हैं | Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपयोग की अपेक्षा अवस्थान ५९ अवधिज्ञान १. पुरुष में संबद्ध, लोकान्त में संबद्ध-लोक प्रमाण आधार क्षेत्र की अपेक्षा अवधिज्ञान उत्कृष्टतः तेतीस अवधि । सागरोपम तक अवस्थित रहता है। २. पुरुष में संबद्ध, लोकान्त में असंबद्ध-लोकदेशवर्ती खेत्तगहणणं भवखेत्तस्स गहणं कतं । तं च पडुच्च आभ्यन्तर अवधि । ओहिन्नाणं जहन्नेणं एक्कं समयं होज्जा, उक्कोसेणं तेत्तीसं ३. पुरुष में असंबद्ध, लोकान्त में सम्बद्ध-यह भंग सागरोवमाणि होज्जा। एत्थ एगो समओ तिरियस्स वा शून्य है। मणुयस्स वा भवति । जस्स कस्सइ एक्कंमि समए ओहिण्णाणं उप्पण्णं बितिए समए से आउयं पहीणं चेव । ४. पुरुष में असंबद्ध, लोकान्त में असंबद्ध-बाह्य देवस्स वा मिच्छद्दिहिस्स एगं समयं सम्मत्तं पडिवन्नस्स अवधि। नवरं बितियसमए आउयं पहीणं चेव । उक्कोसयं पण १६. अवधिज्ञान की असंख्येयता-अनंतता तेत्तीससागरोवमियं भवखेत्तावदाणं देवे रइए पडुच्च संखाईआओ खलू, ओहिनाणस्स सव्वपयडीओ। भविज्जा। (आवचू १ पृ ५८) (आवनि २५) भवक्षेत्र (आधार क्षेत्र) की अपेक्षा अवधिज्ञान की क्षेत्रकालाख्यप्रमेयापेक्षयैव संख्यातीताः, द्रव्यभावाख्य- अवस्थिति जघन्य एक समय और उत्कृष्ट तेतीस सागरोज्ञेयापेक्षया चानन्ताः। (आवहाव १ पृ १८) पम है। किसी मनुष्य या तिर्यंच को यदि प्रथम समय में क्षेत्र और काल रूप ज्ञेय की अपेक्षा से अवधिज्ञान अवधिज्ञान उत्पन्न होता है और दूसरे समय में उसकी की प्रकृतियां असंख्य हैं। ज्ञेय के भेद के आधार पर ज्ञान आयु क्षीण हो जाती है तो उसके अवधिज्ञान की स्थिति के भेद होते हैं। अतः द्रव्य और भाव रूप ज्ञेय की अपेक्षा एक समय की होती है। से अवधिज्ञान की प्रकृतियां अनंत हैं। कोई मिथ्यादृष्टि देव जब प्रथम समय में सम्यक्त्व वित्थरेण खयोवसमविसेसतो असंखेज्जविधमोधिण्णाण। प्राप्त करता है और दूसरे समय में उसकी आयु क्षीण हो जाती है, तब एक समय का अवधिज्ञान होता है। अवधि (नन्दीचू पृ २०) का उत्कृष्ट क्षेत्र-अवस्थान देव और नारक की अपेक्षा क्षयोपशम के तारतम्य के आधार पर अवधिज्ञान तेतीस सागरोपम का है। असंख्य प्रकार का है। उपयोग की अपेक्षा अवस्थान १७. अवस्थित-अनवस्थित अवधि दव्वे भिषण मुहत्तो, पज्जवलंभे य सत्तटू । द्रव्यादिषु कियन्तं कालमप्रतिपतित: सन्नुपयोगतो (आवनि ५७) लब्धितश्चाऽऽस्ते ? इत्येवमवस्थितोऽवधिर्वक्तव्यः । तथा अवधिज्ञानी उपयोग की अपेक्षा एक द्रव्य में अन्तवर्धमानतया हीयमानतया च चलोऽनवस्थितोऽवधिर्वक्तव्यः। मुंहत्तं और एक पर्याय में सात-आठ समय तक अवस्थित (विभामवृ पृ. २६२) रह सकता है। एक द्रव्य अथवा एक पर्याय में लब्धि और उपयोग भिन्नमुहुत्तं ओहिण्णाणी एकदव्वे णिरंतरोवउत्तो की अपेक्षा से अवधिज्ञान जितने समय तक स्थिर रहता अच्छेज्जा । ततो परेण निरोहमसहमाणो ण सबके ति तंमि है, वह अवस्थित अवधिज्ञान है। दव्वमि उवउत्तो अच्छिउं । जह कोइ पुरिसो अईव सण्हसूईए पासछिड़े णिरंतरोवउत्तो न सकेति दीहं कालं कोई अवधिज्ञान प्राप्ति के पश्चात् क्षेत्र आदि की अपेक्षा से बढ़ता है और कोई अवधिज्ञान क्षीण होता अच्छितुं। (आवचू १ पृ ५८) अवधिज्ञानी का एक द्रव्य में अन्तर्महर्त तक निरन्तर चला जाता है ---यही चल अथवा अनवस्थित अवधिज्ञान उपयोग रह सकता है। उससे आगे निरोध को सहन नहीं कर सकता, इसलिए उस द्रव्य में अन्तर्महत से अधिक अवधिज्ञान का अवस्थान : आधार क्षेत्र की अपेक्षा अवस्थित नहीं रह सकता। जैसे-कोई व्यक्ति अत्यन्त खित्तस्स अवदाणं, तित्तीसं सागरा उ कालेणं ।... सूक्ष्म सूई के पार्वछिद्र में लम्बे समय तक निरन्तर नहीं (आवनि ५७) देख सकता। अवधिज्ञाना उपय Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवधिज्ञान भावओऽवि अवट्ठाणं जहणणेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं सत्त समया । तिव्वयरेण उवओगेण दव्वस्स पज्जवोवलंभो भवति, अओ तिब्वोवओगेण य सुट्ठतरं निरोहमसह्णो न सक्केति तंमि पज्जए सत्तण्हं अट्ठण्हं वा समयाणं उवरि अच्छिउं । ( आवचू १ पृ ५८ ) भाव - पर्याय की अपेक्षा अवधिज्ञानी का उपयोग जघन्यतः एक समय, उत्कृष्टतः सात-आठ समय तक अवस्थित रह सकता है । द्रव्य के पर्यायों का ज्ञान तीव्रतर उपयोग (गहरी एकाग्रता ) से होता है । वह अवधिज्ञान तीव्रतर उपयोग से होने वाले सघन निरोध को सहन नहीं कर सकता । अतः वह उस पर्याय पर सात-आठ समयों से अधिक अवस्थित नहीं रह सकता । जह-जह सुहुमं वत्युं तह तह थोवोवओगया होइ। Goa - गुण - पज्जवेसुं तह पत्तेयं पि नायव्वं ॥ ( विभा ७२३ ) जितनी - जितनी सूक्ष्म होती है, उपयोग का काल उतना उतना कम होता जाता | द्रव्य, गुण और पर्याय के लिए यह एक सामान्य नियम है । वस्तु लब्धि की अपेक्षा अवस्थान अद्धाइ अवद्वाणं, छावट्ठी सागरा उ कालेणं । उक्कोसगं तु एयं, इक्को समओ जहणेणं ॥ ( आवनि ५८ ) सा सागरोवमा छावट्ठि होज्ज साइरेगाई । विजयाइ दो वारे गयस्स नरजम्मणा समयं ॥ ( विभा ७२५) अवधिज्ञान का लब्धितः उत्कृष्ट अवस्थान कुछ अधिक छियासठ सागरोपम है। जो जीव उत्कृष्ट स्थिति वाले विजय आदि अनुत्तर विमानों में दो बार उत्पन्न होता है, उसकी अपेक्षा से अवधि की अवस्थिति छियासठ सागरोपम है । मनुष्य जन्म की स्थिति साथ मिलाने से यह सातिरेक है । इसका जघन्य अवस्थान एक समय है । चरिमसमयम्म सम्मं पडिवज्जंतस्स जं चिय विभंगं । तं होइ ओहिनाणं मयस्स बीयम्मि तं पडइ ॥ (विभा ७२७ ) जीवन के अन्तिम समय में सम्यक्त्व प्राप्त होने पर विभंगज्ञान अवधिज्ञान बन जाता है । तत्काल मृत्यु होने पर दूसरे समय में वह क्षीण हो जाता है । ६० मध्यम अवधि का संस्थान १८. अवधिज्ञान के संस्थान थिबुयायार जहण्णो वट्टो उक्कोसमायओ किंची ।'' ( आवनि ५४ ) सव्वक्कोसओ ओही सो वट्टो वट्टभावो सो पुण लोगं प हुच्च किंचि आयतो भवति । ( आवचू १ पृ ५५ ) जघन्य अवधि का संस्थान जलबिन्दु के समान होता है । सर्वोत्कृष्ट अवधि का संस्थान लोक की अपेक्षा से कुछ दीर्घता लिए / आयत वृत्ताकार होता है । मध्यम अवधि का संस्थान ....अजहण्णमणुक्कोसो य खित्तओ णेगसंठाणो ॥ तप्पागारे पल्लग पडहग झल्लरि मुइंग पुप्फ जवे । ... नेरइय-भवण-वणयर- जोइस कप्पालयाणमोहिस्स । विज्जणुत्तराण य होता गिइओ जहासंखं ॥ ( आवनि ५४, ५५; विभा ७०७ ) मध्यम अवधि का संस्थान अनेक प्रकार का होता है । नारक जीवों का अवधिज्ञान तप्राकार होता है । भवनपति देवों का अवधि पल्लक ( धान्यकोष्ठक) के आकार वाला, व्यन्तर देवों का पटह के आकार वाला, ज्योतिष्क देवों का झल्लरी ( आतोद्यविशेष) के आकार वाला, सौधर्म आदि कल्पवासी देवों का मृदंग के आकार वाला, ग्रैवेयक देवों का पुष्पचंगेरी के आकार वाला तथा अनुत्तरविमानवासी देवों का अवधिज्ञान यवनालक ( कन्या चोलक / सरकंचुक) के आकार वाला होता है । नाणागारो तिरियमणुएसु मच्छा सयंभूरमणेव्व । तत्थ वलयं निसिद्धं तस्सिह पुण तं पि होज्जाहि ॥ ( विभा ७१२ ) स्वयंभूरमण समुद्र के मत्स्यों की भांति तिर्यंच और मनुष्यों का अवधिज्ञान नाना संस्थान वाला होता है । उन मत्स्यों में वलयाकार मत्स्य नहीं होते, किंतु तिर्यंच और मनुष्य के अवधिज्ञान का संस्थान वलयाकार भी होता है । मज्झिमओही सो खेत्तं पडुच्च अणेगविहसंठाणो भवति । तं जहा तप्पागारसंठाणसंठियं खेत्तं पडुच्च तप्पागारसंठितो भवति हयसंठाण-संठियं खेत्तं पडुच्च हयसंठिओ पव्वयसंठाणसंठिअं खेत्तं पडुच्च पव्वयसंठिओ भवति । ( आवचू १ पृ ५५ ) Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैमानिक देवों का अवधिक्षेत्र क्षेत्र के आधार पर मध्यम अवधिज्ञान अनेक प्रकार के संस्थान वाला होता है। जैसे तप्राकार संस्थान - संस्थित क्षेत्र की अपेक्षा से वह तप्राकार संस्थान वाला होता है । अश्व संस्थान - संस्थित क्षेत्र की अपेक्षा अश्व के संस्थान वाला होता है । पर्वत संस्थान - संस्थित क्षेत्र की अपेक्षा अवधिज्ञान का संस्थान पर्वत जैसा होता है । विशेष - नंदी में अवधिज्ञान का जघन्य क्षेत्र तीन समय का आहारक सूक्ष्म पनक जीव बतलाया गया है । आवश्यकनिर्युक्ति में जघन्य अवधिज्ञान का संस्थान जलबिन्दु बतलाया गया है । अवधिज्ञान का क्षेत्रपरिमाण और संस्थान का अंतर विमर्शनीय है । इस अन्तर का हेतु है - क्षेत्र परिमाण ज्ञेय की दृष्टि से बतलाया गया है । संस्थान ज्ञान के आकार की दृष्टि से बतलाया गया है । आवश्यक निर्युक्ति के व्याख्याकारों ने अवधिज्ञान के संस्थानों को शरीरगत संस्थान नहीं माना । गोम्मटसार और धवला में उन्हें शरीरगत संस्थान माना गया है । शरीरगत संस्थान वाला मत अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है । अवधिज्ञान की रश्मियों का निर्गमन शरीर के माध्यम से होता है, ऐसा आवश्यकवृत्ति और नंदीचूर्णि में स्पष्ट उल्लेख मिलता है । श्वेताम्बर आचार्यों ने अवधिज्ञान की प्रकाशरश्मियों के संस्थान का प्रतिपादन किया है, किंतु उनके संस्थान का आधार शरीरगत संस्थान बनते हैं, इसका उल्लेख नहीं किया है । भगवती ( ८1१०३ ) में विभंगज्ञान के संस्थानों का उल्लेख है । जैसे - वृषभ का संस्थान, हय का संस्थान, गज का संस्थान आदि । (देखें - भगवती ८।९७-१०३ का भाष्य । ) १६. अवधिज्ञान और क्षेत्र मर्यादा भवणवइ-वंतराणं उड्ढं बहुगो अहो य सेसाणं । नारग- जोइसियाणं तिरियं ओरालिओ चित्तो ॥ ( विभा ७१३ ) भवनपति और व्यंतर देवों का अवधिज्ञान ऊर्ध्व लोक को अधिक जानता है । वैमानिक देवों का अवधिज्ञान अधोलोक को अधिक जानता है । ज्योतिष्क और नारकी जीवों का अवधिज्ञान तिर्यग्लोक को अधिक जानता है । औदारिक अवधिज्ञान विविध प्रकार का होता है । तिर्यग् - मनुष्याणां तु सम्बन्धी अवधिरौदारिकावधि अवधिज्ञान रुच्यते । अयं पुनश्चित्रो नानाप्रकारः अन्येषां त्वधः, अपरेषां तु तिर्यक्; भावः । केषांचिदूर्ध्वं बहुः, केषांचित् स्वल्प इति ( विभामवृ पृ ३०१ ) तिर्यंच और मनुष्यों का अवधिज्ञान औदारिक अवधि कहलाता है । यह नाना प्रकार का होता है । किसी का यह अवधिज्ञान ऊर्ध्व लोक को अधिक जानता है, किसी का अधोलोक को और किसी का तिरछे लोक को । किसी का अवधिज्ञान स्वल्प होता है । वेमाणियाणमंगलभागमसंखं जहण्णओ होइ । उवाए परभविओ तब्भवजो होइ तो पच्छा ॥ उक्कोसोमणुए मणुस - तेरिच्छिएसु य जहण्णो । '''' ( विभा ७०२, ७०३) सौधर्म आदि वैमानिक देवों में जघन्य अवधिज्ञान अंगुल के असंख्य भाग जितना होता है- यह कथन पिछले भव की अपेक्षा से है । उपपातकाल में पारभविक अवधिज्ञान इतना हो सकता है। उपपात के अनन्तर तद्भविक — देवभवसंबंधी अवधिज्ञान होता है । ६१ उत्कृष्ट अवधिज्ञान मनुष्यों में ही होता है, अन्य योनियों में नहीं होता । मनुष्यों और तिर्यञ्चों में ही जघन्य अवधिज्ञान होता है । जहणको सवज्जो मज्झिमओधी भण्णति । सो य उवि गती भवति । ( आवचू १ पृ ५५ ) जघन्य और उत्कृष्ट को छोड़कर शेष मध्यम अवधि कहलाता है । यह चारों गतियों में होता है । वैमानिक देवों का अवधिक्षेत्र सक्कीसाणा पढमं दुच्चं च सणकुमारमाहिंदा । तच्चं च बंभलंतग, सुक्कसहस्सारय चउत्थि || आणपाणयकप्पे, देवा पासंति पंचमि पुढवि । तं चेव आरणच्चय, ओहीनाणेण पासंति ॥ छट्ठि हेट्ठिममज्झिमगे विज्जा सत्तमं च उवरिल्ला । संभिण्णलोगनालि पासंति अणत्तरा देवा ॥ ( आवनि ४८५ - ५० ) सौधर्म और ईशान कल्पवासी देव अवधिज्ञान से प्रथम ( रत्नप्रभा) पृथ्वी को देखते हैं । सनत्कुमार और माहेन्द्र कल्पवासी देव दूसरी (शर्कराप्रभा) पृथ्वी को देखते हैं । ब्रह्म और लान्तक कल्पवासी तीसरी (बालुकाप्रभा) पृथ्वी को देखते हैं। शुक्र और सहस्रार कल्पवासी देव चतुर्थ ( पंकप्रभा ) पृथ्वी को देखते हैं । आनत और Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवधिज्ञान नारक जीवों का अवधिज्ञान प्राणत कल्पवासी देव पांचवीं (धूमप्रभा) पृथ्वी को देखते सागारमणागारा ओहि-विभंगा जहण्णया तुल्ला । हैं। अधस्तन व मध्यम प्रैवेयक विमानवासी देव छठी (तमः- उवरिमगेवेज्जेसू परेण ओही असंखेज्जो । प्रभा) पृथ्वी को तथा उपरितन ग्रैवेयक विमानवासी देव (विभा ७६३) सातवीं (तमस्तमःप्रभा) पृथ्वी को देखते हैं। अनुत्तर- ग्रैवेयकविमानेभ्यः तु परतोऽनुत्तरविमानेष्वधिज्ञानाविमानवासी देव अवधिज्ञान से सम्पूर्ण लोकनाड़ी को वधिदर्शनरूपोऽवधिरेव भवति, न तु विभंगज्ञानम्, मिथ्यादेखते हैं। दृष्टेरेव तत्सद्भावात्, अनुत्तरसुरेषु च मिथ्यादृष्टेरभाजो जं पुढवि देवो ओहिणा जाणति पासति, सो तीए वात् । स चाऽनुत्तरसुरावधिः क्षेत्रतः कालतश्चाऽसंख्येपूढवीए सकातो सरीराओ आरब्भ जाव हिद्विल्लो चरि- योऽसंख्यातविषयो भवति, द्रव्यभावस्त्वनन्तविषय इति । मंतो ताव णिरंतरं संभिण्णं पव्वयकुड्डादीहिं णिरावरणं इह च तिर्यग्-मनुष्याणां तुल्यस्थितीनामपि क्षयोपशमओहिणा जाणति पासति। (आवचू १ पृ ५४) तीव्रमन्दतादिकारणवैचित्र्यात् क्षेत्रकालविषयेऽप्यवधि जो देवता जिस पृथ्वी को अवधिज्ञान से जानता- विभङ्गज्ञानदर्शनयोविचित्रता, न पुनस्तुल्यतैव। . देखता है, वह अपने शरीर से प्रारम्भ कर उस पृथ्वी के (विभामवृ पृ ३१६, ३१७) अधस्तलवर्ती चरमान्त तक जानता-देखता है। उसका भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक (वेयक ज्ञान निरन्तर परिपूर्ण होता है तथा उसमें पर्वत, भीत पर्यंत) देव- इनमें जिनकी स्थिति (आयु) तुल्य होती है, आदि का व्यवधान नहीं होता। उनका अवधिज्ञान-अवधिदर्शन अथवा विभंगज्ञान-विभंगएएसिमसंखिज्जा, तिरियं दीवा य सागरा चेव । दर्शन विषय, क्षेत्र आदि की अपेक्षा से तुल्य होता हैबहुअअरं उवरिमगा, उड्ढं सगकप्पथूभाई॥ जघन्य स्थिति वाले देवों का अवधिज्ञान जघन्य, मध्यम (आवनि ५१) स्थिति वाले देवों का मध्यम और उत्कृष्ट स्थिति वाले वैमानिक देव अवधिज्ञान से तिर्यग्लोक के असंख्येय देवों का उत्कृष्ट होता है। द्वीपों और समुद्रों को देख लेते हैं। ये देव ऊर्ध्वलोक में ग्रंवेयक विमानों से आगे पांच अनुत्तरविमानों में अपने कल्प के ही स्तूपध्वजापर्यंत देखते हैं। अवधिज्ञान ही होता है, विभंगज्ञान नहीं होता। विभंगदेवों का आयुष्य और अवधिक्षेत्र ज्ञान मिथ्यादृष्टि के ही होता है। अनुत्तर विमानों के देव सम्यग्दृष्टि ही होते हैं। अनुत्तरविमानवासी देव अवधिसंखेज्जजोयणा खलु, देवाणं अद्धसागरे ऊणे । तेण परमसंखेज्जा, जहण्णयं पंचवीसं तु ॥ ज्ञान से असंख्येय क्षेत्र और काल को जानते हैं, अनन्त (आवनि ५२) द्रव्यों और पर्यायों को जानते हैं। तुल्य स्थिति वाले पंचेन्द्रिय और मनुष्यों का अवधिपणवीसजोयणाई दसवाससहस्सिया ठिई जेसि । ज्ञान या विभंगज्ञान तुल्य नहीं होता। क्षयोपशम की विहो वि जोइसाणं संखिज्ज ठिईविसेसेणं ।। तीव्रता, मन्दता आदि कारणों की विचित्रता से उनका (विभा ७०१) अवधिज्ञान या विभंगज्ञान भी विविध प्रकार का होता है। जिन देवों का आयुष्य अर्ध सागरोपम से कुछ कम नारक जीवों का अवधिज्ञान होता है, उनके अवधिज्ञान का क्षेत्र संख्येय योजन परिमाण है। जिन देवों का आयुष्य पूर्ण अर्ध सागरोपम ..."भवपच्चइओ स चरिमपुढवीए । और उससे अधिक होता है, उनके अवधिज्ञान का क्षेत्र गाउयमुक्कोसेणं पढमाए जोयणं होइ ।। असंख्येय योजन परिमाण है। दस हजार वर्षों की जघन्य चत्तारि गाउयाइं, अद्धदाइं तिगाउयं चेव । स्थिति वाले भवनपति और व्यंतर देवों के अवधिज्ञान अड्ढाइज्जा, दोण्णि य दिवढमेगं च नरएसु ॥ का जघन्य क्षेत्र पच्चीस योजन परिमाण है। अद्भुटुंगाउयाई जहण्णयं अद्धगाउयंताई । ज्योतिष्क देवों का जघन्य और उत्कृष्ट अवधिक्षेत्र जं गाउयं ति भणियं तं पइ उक्कोसयजहण्णं ॥ संख्येय योजन ही होता है। (क्योंकि उनका जघन्य (विभा ६९२-६९४) आयुष्य पल्योपम का आठवां भाग तथा उत्कृष्ट आयुष्य सात पृथ्वियों के नारक जीव अपने भवप्रत्ययिक एक लाख वर्ष अधिक एक पल्योपम का होता है।) अवधिज्ञान से जघन्य आधा गव्यूत (कोस) तथा उत्कृष्ट Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मति-श्रतज्ञान और अवधिज्ञान में साधर्म्य अवधिज्ञान चार गव्यूत (एक योजन) क्षेत्रवर्ती पदार्थों को जानते सम्यग्दृष्टि तिर्यंच और मनुष्य जब देव और नरक गति में उत्पन्न होते हैं, तब उनका वधिज्ञान प्रतिपद्यसात पृथ्वियां जघन्य अवधि-क्षेत्र उत्कृष्ट अवधि-क्षेत्र मान (नये सिरे से प्राप्त) होता है। अनाहारक और रत्नप्रभा साढे तीन गव्यूत चार गव्यूत अपर्याप्त अवस्था मे अवधिज्ञान मतिज्ञान की भांति पूर्वशर्कराप्रभा तीन गव्यूत साढे तीन गव्यूत प्रतिपन्न हो सकता है। विकलेन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय बालुकाप्रभा ढाई गव्यूत तीन गव्यूत इस नियम के अपवाद हैं क्योंकि इनका मतिज्ञान पूर्वपंकप्रभा दो गव्यूत ढाई गव्यूत प्रतिपन्न है किन्तु अवधिज्ञान न पूर्व प्रतिपन्न है और न धूमप्रभा डेढ़ गव्यूत दो गव्यूत प्रतिपद्यमान है। तमःप्रभा एक गव्यूत डेढ गव्यूत २३. अवधिज्ञान के प्राप्ति-स्थान महातमःप्रभा अर्ध गव्यूत एक गव्यूत जे पडिवज्जति मई तेऽवहिनाणं पि समहिआ अण्णे । २०. तिथंच का उत्कृष्ट-जघन्य अवधि वेय-कसायाईया मणपज्जवनाणिणो चेव ॥ ओरालिय-वेउब्विय-आहारग-तेयगाइं तिरिएसु । (विभा ७७७) उक्कोसेणं पेच्छइ जाइं च तदंतरालेसु ॥ जो मतिज्ञान का प्रतिपत्ता (प्राप्त करने वाला) है, (विभा ६९१) वही अवधिज्ञान का प्रतिपत्ता है। अवधिज्ञान के लिए तिरिक्खजोणिया जहण्णेण ओहिणा ओरालियं कुछ अतिरिक्त स्थान हैं औपशमिक और क्षायिकश्रेणी सरीरं जाणिज्जा ।....."कम्मगसरीरं पुण ण चेव जाणंति की अवस्था में अवेदक और अकषायी को अवधिज्ञान ण वा पासंति । (आवच १ पृ ५२) प्राप्त होता है ये मतिज्ञान से अतिरिक्त स्थान हैं। तियंचयोनिक जीव अवधिज्ञान से उत्कृष्टतः जिन्हें मनःपर्यवज्ञान पहले प्राप्त हो जाता है, उन्हें अवधिओदारिक, वैक्रिय, आहारक और तैजस द्रव्यों तथा उनके ज्ञान बाद में प्राप्त होता है। इस प्रकार मतिज्ञान से अन्तरालवर्ती द्रव्यों को जानते हैं तथा जघन्यतः औदारिक अवधिज्ञान के तीन स्थान अधिक हैंशरीर को जानते हैं। किन्तु कर्म शरीर को न जानते हैं, १. अवेदक, २. अकषायी, ३. मनःपर्यव के न देखते हैं। पश्चात् । २१. अवधिज्ञान और देश विरति सामायिक २४. अवधिज्ञान के पश्चात् अवधिदर्शन श्रावकोऽप्यवधिज्ञानं प्राप्य देशविरति प्रतिपद्यत सर्वा लब्धयः साकारोपयोगोपयुक्तस्योत्पद्यन्ते । इत्येवं न। किन्तु पूर्वमभ्यस्तदेशविरतिगुणः पश्चादवधि अवधिरपि लब्धिरुपवर्ण्यते। ततः स प्रथममुत्पद्यमानो प्रतिपद्यते, देशविरत्यादिगुणप्राप्तिपूर्वकत्वादवधिज्ञान- ज्ञानरूप एवोत्पद्यते न दर्शनरूपः। ततः क्रमेणोपयोगप्रतिपत्तेरित्येतावद् गुरुभ्योऽस्माभिरवगतम् । तत्त्वं तु प्रवृत्तेर्ज्ञानोपयोगानन्तरं दर्शनरूपोऽपीति प्रथमतो ज्ञानकेवलिनो विदन्ति । (विभा २ मव' पृ १५८) मुक्तं पश्चाद्दर्शनम् । (नन्दीमत् प ९७, ९८) श्रावक अवधिज्ञान की प्राप्ति के पश्चात् देशविरति सारी लब्धियां साकार उपयोग की अवस्था में ही को प्राप्त नहीं करता । देशविरति आदि गुणों के अभ्यास उत्पन्न होती हैं। अवधि भी एक लब्धि है, इसलिए के पश्चात् ही अवधिज्ञान प्राप्त होता है-यह तथ्य हमें पहले ज्ञानरूप में ही उत्पन्न होती है। उपयोग की गुरु-परम्परा से ज्ञात हुआ है। इसका रहस्य तो केवली प्रवृत्ति का क्रम होता है-पहले ज्ञान-उपयोग और जानते हैं। पश्चात् दर्शन-उपयोग होता है, इसलिए पहले ज्ञान और पश्चात दर्शन प्रतिपादित है। २२. अवधिज्ञान की पूर्वप्रतिपन्नता सम्मा सुर-नेरइयाऽणाहारा जे य होंतपज्जत्ता। २५. मतिश्रुतज्ञान और अवधिज्ञान में साधयं ते च्चिय पुव्वपवण्णा वियलाऽसण्णी य मोतूणं ॥ काल-विवज्जय-सामित्त-लाभसाहम्मओऽवही तत्तो। (विभा ७७८) (विभा ८७) Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवधिमरण मति श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान में चार बातों में साधर्म्य है काल -- एक जीव की अपेक्षा से जितना काल मति और श्रुत ज्ञान का है उतना ही काल अवधिज्ञान का है । विपर्यय - मिथ्यात्व का उदय होने पर मति और श्रुतज्ञान अज्ञान में बदल जाते हैं, वैसे ही अवधिज्ञान विभंगज्ञान में बदल जाता है। स्वामित्व -मति और श्रुत ज्ञान का स्वामी ही अवधि का स्वामी होता है । लाभ - किसी को कभी तीनों ज्ञान एक साथ प्राप्त हो जाते हैं । अवधिमरण - (द्र. मरण) अवमान प्रमाण जिससे लम्बाई, चौड़ाई और गहराई का नाप किया जाए । (द्र. मानोन्मान) अवसर्पिणी -- १. काल चक्र का एक विभाग, जिसमें पदार्थों की गुणवत्ता का क्रमशः ह्रास होता है । २. ह्रासकाल - - सुख से दुःख की ओर अग्रसर होने वाला काल । (द्र. काल ) - किसी निश्चित प्रमाण के आधार पर वस्तु का निश्चयात्मक अवबोध । अवाय (द्र आभिनिबोधिक ज्ञान ) अविरत सम्यग्दृष्टि जो सम्यग्दृष्टि व्रती नहीं होता, उसकी आत्मविशुद्धि | चतुर्थ गुणस्थान । (द्र. गुणस्थान) अशरण अनुप्रेक्षा- दूसरों में अपनी अत्राणता और अशरणता का अनुचितन । (द्र. अनुप्रेक्षा ) अशीच अनुप्रेक्षा - शरीर की अशुचिता का अनुचिन्तन | (द्र. अनुप्रेक्षा) अश्रुतनिश्रित मति - (द्र आभिनिबोधिक ज्ञान ) अष्टांगनिमित्त अष्टांगनिमित्त-आठ अंग वाला निमित्तशास्त्र । ६४ १. निमित्त का निर्वचन २. निमित्त के आठ अंग ३. सूत्र आदि उनतीस भेद ४. अंगनिमित्त - अंगविद्या O अंगस्फुरण के परिणाम ५. स्वर निमित्त ६. लक्षण निमित्त ● लक्षणों के फल ७. स्वप्न निमित्त • स्वप्नों के फल ० स्वप्न आने के कारण ८. छिन्न निमित्त ९. भौम निमित्त १०. अंतरिक्ष निमित्त १. निमित्त का निर्वाचन इं दिए हिंदित्थे हि समाहाणं च अप्पणो । नाणं पवत्तए जम्हा, निमित्तं तेण आहियं ॥ (पिनिवृप १२१ ) निमित्तशास्त्र का अर्थ है - इन्द्रियों और इन्द्रियविषयों के माध्यम से अतीत, वर्तमान और अनागत संबंधी शुभ-अशुभ का प्रतिपादक ग्रन्थ । २. निमित्त के आठ अंग अंगं सरो लक्खणं च वंजणं सुविणो तहा । छिन्नं भोमंतलिक्खा य, एए अट्ठ वियाहिया ॥ ( पिनिवृ प १२१ ) आठ अंग ये हैं १. अंग - शारीरिक अवयवों के स्फुरण अथवा स्पन्दन के आधार पर शुभ-अशुभ फल की उद्भावना करने वाला निमित्त शास्त्र । २. स्वर - जीव और अजीव से संबद्ध स्वरों के फल का प्रतिपादक शास्त्र । ३. लक्षण - लांछन आदि लक्षणों का व्युत्पादक शास्त्र । ४. व्यंजन-मष, तिल आदि व्यञ्जनों के आधार पर शुभ-अशुभ फल का उपदर्शक शास्त्र । ५. स्वप्न - स्वप्न के फल का प्ररूपक शास्त्र । Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंगस्फुरण के परिणाम अष्टांगनिमित्त ६. छिन्न-वस्त्र आदि के छिद्रों के आधार पर अंगस्फरण के परिणाम शुभ-अशुभ का निरूपण करने वाला शास्त्र । सिरफुरणे किर रज्ज, पियमेलो होइ बाहफरणम्मि । (कहीं-कहीं छिन्न के स्थान पर उत्पात निमित्त- अच्छिफुरणम्मि च पियं, अहरे पियसंगमो होइ ।। रुधिरवष्टि आदि के आधार पर शुभ-अशुभ फल के गंडेसं थीलाभो, कन्नेसु य सोहणं सुणइ सई। प्रतिपादक शास्त्र का उल्लेख है।) नेत्तंते धणलाभो, उठे विजयं वियाणाहि ।। ७. भौम-भूकम्प आदि के परिणाम का प्रतिपादक पिढे पराजओ वि हु, भोगो अंसे तहेव कंठे य । शास्त्र । हत्थे लाभो विजओ, वच्छे नासाए पीई य॥ ८. अंतरिक्ष-आकाशीय ग्रहयुद्ध आदि के परिणाम लाभो थणेसु हियए, हाणी अंतासु कोसपरिवुड्ढी । का निरूपण करने वाला शास्त्र । नाभीए थाणभंसो, लिंगे पुण इत्थिलाभो य ।। कुल्लेसु सुउप्पत्ती, ऊरूहिं बंधुणो अणिठें तु । ३. सूत्र आदि उनतीस भेद पासेसु वल्लहत्तं, वाहणलाभो फिजे भणिओ। सुत्तं वित्ती तह वित्तियं च पावसूय अउणतीसविहं । पायतले फुरणेणं, हवइ सलाभं नरस्स अद्धाणं । गंधव्वनट्टवत्थु आउं धणुवेयसंजुत्तं ॥ उरिं च थाणलाभो, जंघाहिं थोवमद्धाणं ।। (उशाव प ६१७) पुरिसंसयमहिलाए, पुरिसस्स य दाहिणा जहुत्तफला। इन आठ निमित्तों के तीन-तीन भेद होते हैं-सत्र. माहलसपुरिसमहिलाण होति वामा जहुत्तफला ॥ वृत्ति और वार्तिक । इस प्रकार कुल चौबीस भेद हुए। (उसुवृ प १३०,१३१) शेष पांच भेद ये हैं - गांधर्व, नाट्य, वास्तु, आयुर्वेद और सिर का स्फुरण राज्य प्राप्ति और भुजा का स्फुरण प्रियमिलन का सूचक है। अक्षिस्फुरण और अधरस्फुरण धनुर्वेद । प्रियसंगम का सूचक है। अष्टांग निमित्त के इन उनतीस भेदों को पापश्रुत कपोल के स्फुरण से स्त्री की प्राप्ति होती है। भी कहा गया है। कान का स्फुरण होने पर मनोज्ञ शब्द सुनने को मिलते ४. अंगनिमित्त-अंगविद्या हैं। नेत्रान्त के स्फुरण से धन प्राप्ति और होठ के स्फुरण से विजय प्राप्त होती है। अंगविद्या नाम आरोग्यशास्त्रम् । (उचू पृ १७५) पीठस्फुरण से पराजय, कंधे और कंठ के स्फूरण अंगविद्या का अर्थ है -आरोग्यशास्त्र। से भोगों की प्राप्ति होती है। हाथ का स्फुरण लाभ अंगविद्यां च शिरःप्रभुत्यंगस्फुरणतः शुभाशुभ- और विजय का सूचक है। वक्ष और नासिका का सचिका 'सिरफरणे किर रज्जं' इत्यादिकां विद्यां प्रणव- स्फूरण प्रीति का सूचक है। मायाबीजादिवर्णविन्यासात्मिका वा। यद् वा अंगानि __ स्तनस्फुरण लाभ का, हृदयस्फुरण हानि का और अंगविद्याव्यावर्णितानि भौमान्तरिक्षादीनि विद्या 'हलि ! आंतों का स्फुरण कोशपरिवद्धि का सूचक है। नाभिहलि ! मातंगिनी स्वाहा' इत्यादयो विद्यानुवादप्रसिद्धाः । स्फुरण स्थानभ्रंश का और लिंगस्फुरण स्त्री-लाभ का (उशाव प २९५) सूचक है। अंगविद्या का अर्थ है नितंब के स्फुरण से पुत्रोत्पत्ति तथा ऊरु के स्फुरण ० शरीर के अवयवों के स्फुरण के आधार पर से बन्धुजन का अनिष्ट होता है। दोनों पाश्वों के शुभ-अशुभ बताने वाला शास्त्र । स्फूरण से प्रियता तथा टखनों के स्फूरण से वाहन का • प्रणव, माया बीज आदि वर्ण विन्यास युक्त विद्या। लाभ होता है।। • अंगविद्या में वर्णित भौम, अन्तरिक्ष आदि अंग, पैरों के स्फुरण से पंथ-गमन लाभदायक होता है। उनके शुभ-अशुभ को बताने वाली विद्या, विद्यानुवाद में परों के उपरि भाग के स्फुरण से स्थानलाभ और जंघा प्रसिद्ध विद्याएं, जैसे हलि ! हलि ! मातंगिनी के स्फुरण से लघु विहरण का योग होता है । स्वाहा । पुरुष और पुरुषत्वप्रधान स्त्री के दायें अंगस्फुरण Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टांगनिमित्त लक्षणनिमित्त तथा स्त्री और स्त्रीत्वप्रधान पुरुष के बायें अंगस्फूरण जिस व्यक्ति के हाथ और पैर के तलवे में पद्म, यथोक्त फल के सूचक हैं। वज्र, अंकुश, छत्र, शंख, मत्स्य आदि चिह्न होते हैं, वह ५. स्वरनिमित्त श्रीसम्पन्न होता है। पुरुषः दुंदुभिस्वरो काकस्वरो वा एवमादिस्वरव्या उभरे हुए स्थूल, स्निग्ध, दर्पण के समान पारदर्शी, करणं । (उच पृ२३६) रक्त आभा वाले नख सौभाग्यशाली व्यक्तियों के होते हैं और वे धन, भोग और सुख प्राप्ति कराते हैं। __ अमुक पुरुष का स्वर दुंदुभि के समान मृदु है । अमुक पुरुष का स्वर कौए के समान कर्कश है इस ___श्वेत नख श्रामण्य/साधुता के सूचक हैं । रूक्ष तथा प्रकार स्वरों को सुनकर शुभ-अशुभ का ज्ञान कर लेना फूले हुए नखों वाला व्यक्ति दुःशील होता है। स्वरनिमित्त है। शुद्ध, समश्रेणि में स्थित, शिखरी (तीक्ष्ण, उभरे ६. लक्षणनिमित्त हए), स्निग्ध और सघन दांत शुभ होते हैं.। अशुद्ध, लक्ष्यतेऽनेनेति लक्षणं, सामुद्रवत् । विषमस्थित, छोटे, रूक्ष और विरल दांत दुःख के हेतु (उचू पृ १७५) ___ लक्षणं च शुभाशुभसूचकं पुरुषलक्षणादि, रूढितः बत्तीस दांत वाला राजा होता है। इकतीस दांत तत्प्रतिपादक शास्त्रमपि लक्षणम् । (उशाव पृ २९५) वाला भोगी तथा तीस दांत वाला मध्यम होता है। शरीर के लक्षणों--चिह्नों के आधार पर शुभ-अशुभ तीस से कम दांतों वाला सुंदर नहीं होता। बत्तीस से फल का प्रतिपादन करने वाले शास्त्र को लक्षणशास्त्र कम अथवा अतिरिक्त दांत वाले, श्याम वर्ण के दांत (सामुद्रिकशास्त्र) कहा जाता है। वाले तथा चूहे के समान दांत वाले व्यक्ति पापी होते हैं। लक्षणों के फल ___ अंगूठे में जौ के चिह्न ऋद्धिसम्पन्नता के सूचक हैं। अंगुष्ठमूल में जौ के चिह्न पुत्र-प्राप्ति के सूचक हैं। अस्थिष्वर्थाः सुखं मांसे, त्वचि भोगाः स्त्रियोऽक्षिष । हथेली में ऊर्ध्वरेखा धन का हेतु है। गतौ यानं स्वरे चाऽऽज्ञा, सर्व सत्त्वे प्रतिष्ठितम् ।। पद्म-वज्रांकुशच्छत्र-शंख-मत्स्यादयस्तले वामावर्तों भवेद्यस्य, वामायां दिशि मस्तके । पाणिपादेषु दृश्यन्ते, यस्याऽसौ श्रीपतिः पुमान् ।। निर्लक्षणः क्षुधाक्षामो, भिक्षामद्यात् स रूक्षिकाम् ।। दक्षिणो दक्षिणे भागे, यस्याऽऽवतॊस्ति मस्तके । उत्तुङ्गाः पृथुलास्ताम्राः, स्निग्धा दर्पणसन्निभाः । नखा भवन्ति धन्यानां, धनभोगसुखप्रदाः ।। तस्य नित्यं प्रजायेत, कमला करवत्तिनी ।। सितैः श्रमणता ज्ञेया, रूक्षपुष्पितकः पुनः । यदि स्याइक्षिणे वामो, दक्षिणो वामपावके । जायते किल दुःशीलो, नखैर्लोकेऽत्र मानवः ।। पश्चात्काले ततस्तस्य, भोगा नास्त्यत्र संशयः ।। शुद्धाः समाः शिखरिणो, दन्ताः स्निग्धघनाः शुभाः । उरोमुखललाटानि, पृथनि सुखभागिनाम् । विपरीताः पुनर्जेया, नराणां दुःखहेतवः ॥ गम्भीराणि पुनस्त्रीणि, नाभिः सत्त्वं स्वरस्तथा । द्वात्रिंशद्दशनो राजा, भोगी स्यादेकहीनकः । केश-दन्त-नखाः सूक्ष्मा, भवन्ति सुखहेतवः । त्रिंशता मध्यमो ज्ञेयस्ततोऽधस्तान्न सुन्दरः । कण्ठः पृष्ठं तथा जङ्घ, ह्रस्वं लिङ्गश्च पूजितम् ।। स्तोकदन्ताऽतिदन्ता ये, श्यामदन्ताश्च ये नराः । रक्ता जिह्वा भवेद् धन्या, पाणिपादतलानि च । मूषकैः समदन्ताश्च ते पापाः परिकीर्तिताः । पृथलाः पाणिपादाश्च, धन्यानां दीर्घजीविनाम ।। अंगुष्ठयवैराढ्याः , सुतवन्तोऽङ गुष्ठमूलजैश्च यवैः । स्निग्धदन्तः शुभाहारः, सुभगः स्निग्धलोचनः । ऊर्ध्वाकारा रेखा, पाणितले भवति धनहेतुः ।। नरोऽतिह्रस्वदीर्घाश्च, स्थूलाः कृष्णाश्च निन्दिताः ।। (उसुव प १२९) पञ्चभिः शतमुद्दिष्टं, चतुभिर्नवतिस्तथा । अस्थि में धन, मांस में सुख, त्वचा में भोग, आंखों में त्रिभिः षष्टिः समूहिष्टा, लेखा लवतिभिः । स्त्रियां, गति में वाहन और स्वर में आज्ञा-इस प्रकार चत्वारिंशत् पुनः प्रोक्तं, वर्षाणि नरजीवितम् । सत्त्वशील पुरुष में सब कुछ प्रतिष्ठित है। ताभ्यां द्वाभ्यां तथैकेन, त्रिंशदवर्षाणि जायते ॥ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वप्ननिमित्त कुशीला श्यामलोलाक्षी, रोमजङ्घा च भर्तृहा । महिलोन्नतोत्तरोष्ठी, नित्यञ्च कलहप्रिया ॥ ( उसुवृ प १२९) जिसके मस्तक के बायें भाग में वामावर्त्त होता है, वह लक्षणहीन पुरुष भूख से क्लान्त बना रूक्ष भोजन प्राप्त करता है । जिस व्यक्ति के मस्तक के दायें भाग में दक्षिणावर्त्त होता है, उसके हाथ में सदा लक्ष्मी निवास करती है । यदि सिर के दायें भाग में वामावर्त्त और बायें भाग में दक्षिणावर्त्त हो तो उस व्यक्ति को जीवन के सन्ध्याकाल में भोग प्राप्त होते हैं । भाग्यशाली व्यक्ति का हृदय, मुंह और ललाट विशाल होता है । उसकी नाभि, सत्त्व और स्वर – ये तीनों गम्भीर होते हैं । महीन केश, सूक्ष्म दांत और सूक्ष्म नख सुख के हेतु हैं । लघु कण्ठ, पीठ, जंघा और लिंग शुभ होते हैं । जो धन्य और दीर्घजीवी हैं, उनकी जीभ, हथेली और पैर के तलवे लाल होते हैं तथा हाथ-पैर मोटे होते हैं । दांतों और आंखों की स्निग्धता, अच्छे भोजन की प्राप्ति और सुभगता - ये मनुष्य के शुभ लक्षण हैं । जो अत्यन्त नाटा, अत्यन्त लंबा, स्थूलकाय और काला होता बह निन्दनीय है । जिसके ललाट पर पांच रेखाएं होती हैं, वह शतायु होता है । चार रेखाओं वाला नब्बे वर्ष, तीन रेखाओं वाला साठ वर्ष, दो रेखाओं वाला चालीस वर्ष तथा एक रेखा वाला तीस वर्ष तक जीवित रहता है । श्यामवर्ण और चंचल आंखों वाली स्त्री होती है । जिसकी जंघा पर रोम होते हैं, अपने पति का हनन करने वाली होती है । वह स्त्री कलहप्रिय होती है, जिसके उपरितन होठ मोटे होते हैं । ७. स्वप्ननिमित्त कुशील वह स्त्री स्वप्नं चेत्यत्रापि रूढितः स्वप्नस्य शुभाशुभफलसूचकं शास्त्रमेव, तद्यथा अलंकृतानां द्रव्याणां वाजिवारणयोस्तथा । वृषभस्य च शुक्लस्य, दर्शने प्राप्नुयाद्यशः ॥ मूत्रं वा कुरुते स्वप्ने, पुरीषं चापि लोहितम् । प्रबुध्येत तदा कश्चिल्लभते सोऽर्थनाशनम् ॥ ( उशावृ प २९५) स्वप्न के शुभ-अशुभ फल का सूचक शास्त्र स्वप्न - शास्त्र कहलाता है । अष्टांगनिमित्त अलंकृत द्रव्य, घोड़ा, हाथी, श्वेत वृषभ - इनके दर्शन से यश प्राप्त होता है । जो स्वप्न में मूत्र अथवा रक्तवर्ण का मल विसर्जित करता है और फिर जाग जाता है, उसका धन नष्ट हो जाता है । स्वप्नों के फल ६७ अणु-दि- चितियविवज्जियं सव्वमेव जं सुमिणं । जायइ अवितफलयं सत्यसरीरेहि जं दिट्ठ ॥ पढमम्मि वासफलया, बीए जामम्मि होंति छम्मासा । तइयम्मि तिमासफला, चरिमे सज्जप्फला होंति ।। आरोहणं गो-विस- कुंज रेसुं, पासाय - सेलग्ग - महादुमेसु । विद्वाणुलेव रुइयं मयं च, अगम्मगम्मं सुविणेसु धन्नं ॥ तुरगारुणे पंथो, करह खरे सेरिभे हवइ मच्चू । सिरछेयम्मि य रज्जं, सिरप्पहारे धणं लहइ ॥ दहि-छत्त - सुमण - चामर - वत्थ ऽन्न फलं च दीव - तंबोलं । संख सुवन्नं मंतझओ य लद्धो धणं देइ ॥ गय-वसह - अल्लमंसाण दंसणे होइ सोक्खधणलाभो । रत्तवडखमणयाणं, मरणं पुण दंसणे होइ ॥ ( उसुवृ प १३० ) होते हैं । एक यदि वह दृश्य उस व्यक्ति का स्वप्न शुभ-अशुभ फल के सूचक स्वस्थ व्यक्ति स्वप्न में जो कुछ देखता है पूर्व अनुभूत, दृष्ट और चिंतित न हो तो स्वप्न अवश्य फलित होता है । रात्रि के पहले प्रहर में में फलित होता है । दूसरे महीनों में, तीसरे प्रहर का प्रहर का स्वप्न तत्काल फल देता है । गाय, बैल, हाथी, प्रासाद, पर्वतशिखर और विशाल वृक्ष पर आरोहण, विष्ठा - लेप, रुदन करना, मर जाना, अप्राप्त को प्राप्त कर लेना - ऐसा स्वप्न देखने वाला धन्य होता है । स्वप्न में अश्व पर आरोहण का फल है - यात्रा । करभ, गर्दभ और सेरिभ पर चढ़ने वाला मृत्यु प्राप्त करता है । स्वप्न में शिरच्छेद होने पर राज्य मिलता है। सिर पर प्रहार होने पर धन प्राप्त होता है । दही, छत्र, फूल, चामर, वस्त्र, अन्न, फल, दीप, तंबोल, शंख, स्वर्ण और मन्त्रध्वज की प्राप्ति का स्वप्नदर्शन धन देता है । हाथी, वृषभ और आर्द्र मांस का स्वप्न-दर्शन सुख For Private & 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Only देखा गया स्वप्न वर्ष भर प्रहर में दृष्ट स्वप्न छह तीन महीनों में और चौथे Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टांगनिमित्त और धन का लाभ कराता है। स्वप्न में रक्तपट भिक्षु के दर्शन से मृत्यु होती है । करह तुरंगे रिच्छम्मि वायसे देवहसियकंपे य । मरणं महाभयं वा, सुविणे दिट्ठे वियाणाहि ॥ गायंतं नच्चतं, हसमाणं चोप्पडं च अप्पाणं । कुंकुमलित्तं दट्ठ, चितेसु उवट्टियं असुहं ॥ दाहिण रम्मि सेयाऽहिभक्खणे होइ रज्जधणलाभो । नइ - सरतरणं सुरखीरपाणयं हवइ सुहहेऊ ॥ सिरे सयसहस्सं तु, सहस्सं बाहुभक्खणे । पाए पंचसओ लाभो, माणुस्सा मिसभक्खणे ॥ दारग्गल - सेज्जा - सालभंजणे भारिया विणस्सेज्जा । पिइ माइ- पुत्तमरणं, अंगच्छेए वियाणेज्जा ॥ सिंगी दाढी, उद्दवो कुणइ नूणं राजभयं । पुत्तो व पट्ठा वा नियलभुयापासबंधेसु । आसणे सयणे जाणे, सरीरे वाहणे गिहे । जलमाणे वि बुज्भेज्जा, सिरी तस्स समंतओ ॥ आरोग्गं धणलाभो वा, चंदसूराण दंसणे । रज्जं समुद्दपियणे, सूरस्स गहणे तहा ॥ ( उसुवृ प १३० ) करभ (अल्पवय हाथी या ऊंट ), घोड़ा, भालू, कौआ, देवताओं का अट्टहास और भूकंप - स्वप्न में यदि ये दिखाई दें तो उस स्वप्न का फल होता है महान् भय अथवा मृत्यु । स्वप्न में यदि अपने आपको गाते हुए, नाचते हुए, हंसते हुए, तैलमर्दन करते हुए या कुंकुम का लेप किए हुए देखे तो समझना चाहिए कि कोई अशुभ होने वाला है । स्वप्न में यदि सफेद सर्प अपने दायें हाथ को डसे तो राज्य और वैभव प्राप्त होता है । स्वप्न में नदी और सरोवर में संतरण तथा देव दर्शन तथा क्षीर-पान सुख होता है । स्वप्न में मनुष्य के सिर का मांसभक्षण करते हुए देखे तो लाख गुना लाभ होता है। इसी प्रकार मनुष्य के बाहु का मांसभक्षण हजार गुना और पैरों का मांसभक्षण पांच सौ गुना लाभदायक होता है । स्वप्न में द्वार को, अर्गला को, मकान को तथा प्राकार को भरत देखे तो भार्या का विनाश होता है । स्वप्न में अपना अंगच्छेद दिखे तो माता-पिता और पुत्र की मृत्यु होती है । भौम निमित्त स्वप्न में सींग वाले पशुओं और सुअर, वराह आदि दाढा वाले हिंस्र पशुओंके उपद्रव को देखने का फल हैराजभय । सांकल से अपनी भुजाओं को बंधा हुआ देखे तो पुत्र की या प्रतिष्ठा की प्राप्ति होती है । ६५ स्वप्न में आसन, शयन, यान, शरीर, वाहन और घर - इन्हें प्रज्वलित होते देख जाग जाए तो उसको सब ओर से लक्ष्मी प्राप्त होती है । स्वप्न में सूर्य और चन्द्र के दर्शन से आरोग्य तथा धन की प्राप्ति होती है । स्वप्न में समुद्र का पान और सूर्य का ग्रहण देखने पर राज्य की प्राप्ति होती है । स्वप्न आने के कारण अहू - दिट्ठ- चितिय सुय-पयइवियार - देवयाऽणूया । सिमिणस्स निमित्तानं पुण्णं पावं च नाभावो ॥ विष्णाणमयत्तणओ घडविण्णाणं व सुमिणओ भावो । अहवा विहियनिमित्तो घडो व्व नेमित्तियत्ताओ || ( विभा १७०३, १७०४) स्वप्न आने के कारण १. अनुभूत - पूर्व अनुभूत स्नान, भोजन, विलेपन आदि २. दृष्ट - पूर्व दृष्ट हाथी, अश्व आदि ३. चिन्तित - पूर्व चिन्तित वैभव आदि ४. श्रुत- पूर्व श्रुत स्वर्ग आदि ५. प्रकृतिविकार-वात-पित्तजनित विकार आदि ६. देवता - अनुकूल या प्रतिकूल देव - सजल प्रदेश ७. अनूप - ये सब स्वप्न में निमित्त बनते हैं । पुण्यकर्म और पापकर्म इष्ट-अनिष्ट स्वप्न में निमित्त बनते हैं । स्वप्न भाव / पदार्थ है । उसके दो हेतु हैं१. विज्ञानमय होने से घट ज्ञान की तरह । २. अनुभूति आदि निमित्तजन्य होने से । ८.छिन्ननिमित्त छिन्नमिति वस्त्रच्छेद : शुभाशुभं काष्ठादीनां वा छेदान् ( उचू पृ २३६) । वस्त्र, काष्ठ, आसन, शयन आदि में चूहे, शस्त्र, कांटे आदि से हुए छेद के द्वारा शुभाशुभ का ज्ञान करना छिन्ननिमित है । ६. भौमनिमित्त भीमादित्वात् भौमः । अकाले जं पुष्पफलं, स्थिराणां चलनं, प्रतिमानां जल्पनादि । ( उचू पृ २३६) भूकम्प, अकाल में होने वाले पुष्प फल, स्थिर Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचास्तिकाय अस्तिकाय वस्तुओं के चलन एवं प्रतिमाओं के बोलने से, भूमि की । ६. आकाशास्तिकाय स्निग्ध-रूक्ष आदि अवस्थाओं के द्वारा शुभाशुभ का ज्ञान निर्वचन करना भौमनिमित्त है। ० लक्षण १०. अंतरिक्षनिमित्त • भेद अन्तरिक्षाद्दिगुदाहपांशुवृष्ट्यादयः, दिव्या ग्रहयुद्धादि। ७. धर्म-अधर्म-आकाश : क्षेत्र काल की अपेक्षा से (उचू पृ २३६) ८. धर्मास्तिकाय आदि का सप्रदेशत्व-अप्रदेशत्व आकाश में होने वाले गन्धर्व नगर, दिग्दाह, धुलि ९. अरूपी अस्तिकाय में उत्पाद-व्यय की वृष्टि आदि के द्वारा अथवा ग्रहों के युद्ध तथा | १०. आकाश : पर्याय-परिमाण उदय-अस्त के द्वारा शुभ-अशुभ का ज्ञान करना अंतरिक्ष * लोकविभाग का हेतु :धर्म-अधर्म (द्र. लोक) निमित्त है। * आकाश के भेद : लोक-अलोक (द्र. लोक) असंख्येय--संख्या प्रमाण का एक उपभेद। (द्र. संख्या) १. अस्तिकाय के अर्थ असंज्ञिश्रुत-बिना मन वाले प्राणी का अवबोध । काया समुदाया अत्थी य काया य अत्थिकाया । (द. श्रुतज्ञान) (दअचू पृ१०) अस्तिकाय-कालिक सत्ता वाला सावयवी, अत्थि वेज्जति काया य अत्थिकाया । सप्रदेशो पदार्थ। (दजिचू पृ १६) अवयव एव समुदायशब्दोपचारादस्तिकायधर्मः । १. अस्तिकाय के अर्थ (दहावृ प २२) २. पंचास्तिकाय अस्ति का अर्थ है विद्यमानता और काय का अर्थ धर्मास्तिकाय है-समुदाय । अवयवों का समुदाय अस्तिकाय कहलाता • अधर्मास्तिकाय • आकाशास्तिकाय अस्तीति ध्रौव्यं, आयत्ति कायः उत्पादविनाशो, * जीवास्तिकाय (व. जीव) | अस्तिश्चासौ कायश्च अस्तिकायः । (अनुचू पृ २९) * पुद्गलास्तिकाय (ब्र. पुद्गल) अस्ति का अर्थ है--ध्रौव्य और काय का अर्थ * पंचास्तिकाय द्रव्य है (प्र. द्रव्य) | है— उत्पाद और विनाश। जिसमें उत्पाद, व्यय और ३. काल अस्तिकाय नहीं ध्रौव्य हो, वह अस्तिकाय है। अस्तिशब्दः प्रदेशवाचकोऽस्तित्वे वा । कायशब्दोप्यत्र _ * काल का स्वरूप (द. काल) समूहवचनः । समूहः प्रदेशानां सावयवद्रव्यसम्रहवचनो वा। ४. धर्मास्तिकाय (अनुचू पृ २९,३०) • लक्षण अस्ति शब्द के दो अर्थ हैं -प्रदेश और अस्तित्व । मेव काय का अर्थ है समूह । प्रदेशों के समूह अथवा सावयव • धर्मास्तिकाय का अस्तित्व द्रव्यों के समूह को अस्तिकाय कहते हैं। • अलोक में धर्मास्तिकाय नहीं २.पंचास्तिकाय ० परिणमन की सदशता .."अस्थिकाया, ते य इमे पंच-धम्माऽधम्मा५. अधर्मास्तिकाय गासजीवपोग्गला। (दअचू पृ१०) • लक्षण अस्तिकाय पांच हैं--- • भेद १. धर्मास्तिकाय ४. जीवास्तिकाय • पर्याय २.अधर्मास्तिकाय ५. पुद्गलास्तिकाय .धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय का भेद ३. आकाशास्तिकाय Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्तिकाय अधर्मास्तिकाय का लक्षण .."अत्थित्ति बहुपएसा तेणं पंचत्थिकाया उ॥ तीन भाग, चार भाग आदि के रूप में विशेष विवक्षा (आवनि १४३६) होती है, वह देश है। अस्तीत्ययं त्रिकालवचनो निपातः, अभूवन् भवन्ति प्रदेशा:-धर्मास्तिकायादिसम्बन्धिनो निविभागा भविष्यन्ति चेति भावना। (आवहाव २ पृ १८५) भागाः । (उशावृ प २५) अस्ति शब्द त्रिकालवाची है-था, है और रहेगा। धर्मास्तिकाय आदि स्कंधों के निरंश भाग प्रदेश जिसकी कालिक सत्ता हो, जिसके प्रचर प्रदेश हों, वह ___ कहलाते हैं। अस्तिकाय कहलाता है, अत: अस्तिकाय पांच ही हैं। धर्मास्तिकाय का अस्तित्व ३. काल अस्तिकाय नहीं अत्थि परिमाणकारी लोगस्स पमेयभावओऽवस्सं । णिच्छयणताभिप्पायतो एक एव वर्तमानसमय: नाणं पिव नेयस्सालोगत्थित्ते य सोऽवस्सं ॥ तस्स एगत्तणतो खंधदेसादिकायकप्पणा णत्थि, तीताणा (विभा १८५५) गताण य विणट्राणप्पन्नत्तणतो अभावो। आवलिकादि- __ जैसे ज्ञेय पदार्थों का प्रमाता है ज्ञान, वैसे ही लोकग्रहणं संववहारस्स हेउं । (अनुच पृ ३०) प्रमेय का प्रमाता/लोक का परिमाणकारी द्रव्य अवश्य निश्चय नय के अनुसार वर्तमान क्षण एक ही है, है और वह है धर्मास्तिकाय। अलोक के अस्तित्व से अतः उसमें स्कंध, देश आदि विभागों की कल्पना नहीं उसकी उपयोगिता सिद्ध होती है। की जा सकती। अलोक में धर्मास्तिकाय नहीं अतीत के क्षण नष्ट हो जाते हैं, अनागत का क्षण निरणग्गहत्तणाओ न गई परओ जलादिव झसस्स । उत्पन्न नहीं है। अतः काल अस्तिकाय नहीं है। काल जो गमणाणुग्गहिया सो धम्मो लोगपरिमाणो ।। के आवलिका, मुहूर्त आदि विभाग सांव्यवहारिक काल (विभा १८५४) धर्मास्तिकाय के अनुग्रह के अभाव में जीव की लोक ४. धर्मास्तिकाय का लक्षण से परे गति नहीं है। जैसे जल के अभाव में मछली की गइलक्खणो उ धम्मो। (उ २८१९) गति नहीं होती है। गति में अनुग्रह करने वाला धर्माधर्म (धर्मास्तिकाय) का लक्षण है-गति। स्तिकाय लोकपरिमाण है। जीवपोग्गलदव्वाण गतिकिरियापरिणयाण उवग्गह- धर्मास्तिकाय : परिणमन की सदृशता करणत्तणओ धम्मो। (अनुचू पृ २९) धर्मश्चासावस्तिकायश्च धर्मास्तिकायः-सकलदेशजो गतिक्रिया में परिणत जीव और पुद्गल की। प्रदेशानुगतसमानपरिणतिमद्विशिष्ट द्रव्यम् । गति में उपकारक है, वह धर्मास्तिकाय है । (उशावृ प ६७२) धर्मास्तिकाय के भेद धर्मप्रदेशों का समूह धर्मास्तिकाय है। यह एक :धम्मत्थिकाए तद्देसे, तप्पएसे य आहिए। विशिष्ट द्रव्य है-सम्पूर्ण देश और प्रदेशों से अनुगत (उ ३६।५) अखण्ड द्रव्य है। इसमें परिणमन की सदृशता है । धर्मास्तिकाय के तीन भेद हैं ५. अधर्मास्तिकाय का लक्षण धर्मास्तिकाय और उसका देश तथा प्रदेश । दिश्यते-प्रदेशापेक्षया समानपरिणतरूपत्वेऽपि अहम्मो ठाणलक्खणो । ___ (उ २८।९) देशापेक्षायां असमानपरिणतिमाश्रित्य विशिष्टरूपतया अधर्म (अधर्मास्तिकाय) का लक्षण है स्थिति ।। विवक्ष्यते-उपदिश्यत इति देशः–त्रिभागचतुर्भागादि- ठितिहेतृत्तणतो अधम्मो जीवपोग्गलाण ठितिपरिणस्तद्देशः । (उशावृ प ६७२) ताण उवग्गहकरणा वा अधम्मोति। (अनुचू पृ २९) प्रदेश की अपेक्षा समान परिणति होने पर भी देश जो स्थितिक्रिया में परिणत जीव और पुद्गल की की अपेक्षा असमान परिणति के आधार पर जिसकी स्थिति में उपकारक है, वह अधर्मास्तिकाय है। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अरूपी अस्तिकाय में उत्पाद व्यय अधर्मास्तिकाय के भेद अहम्मे तस्स देसे य, तप्पएसे य आहिए । अधर्मास्तिकाय के तीन भेद हैंअधर्मास्तिकाय, उसका देश तथा प्रदेश । ( उ ३६।५) ७१ अधर्मास्तिकाय के पर्याय अधर्मः अधर्मास्तिकायः स्थितिः स्थानं गतिनिवृत्ति - रित्यर्थः । ( उशावृ प५५९) अधर्म, अधर्मास्तिकाय, स्थिति, स्थान और गति - निवृत्ति – ये अधर्मास्तिकाय के पर्याय हैं । धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय में भेद धर्माधर्मास्तिकायौ परस्परं लोलीभावेनैकस्मिन्नाकाशदेशे व्यवस्थितो, तथापि यो गतिपरिणामपरिणतयोर्जीवपुद्गलयोर्गत्युपष्टम्भहेतुर्जलमिव मत्स्यस्य स खलु धर्मास्तिकायः । यः पुनः स्थितिपरिणामपरिणतयोर्जीवपुद्गलयोरेव स्थित्युपष्टम्भहेतुः क्षितिरिव भषस्य स खलु अधर्मास्तिकाय इति लक्षणभेदाभेदो भवति । ( नन्दीमवृप १४० ) धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय परस्पर एकीभूत हैं, एक आकाशदेश में अवस्थित हैं फिर भी दोनों के लक्षण भिन्न हैं । जो गमन में प्रवृत्त जीव और पुद्गल की गति का उपष्टम्भ - हेतु बनता है, वह धर्मास्तिकाय है । जैसे - मत्स्य के लिए जल । जो स्थिति परिणाम में परिणत जीव और पुद्गल की स्थिति का उपष्टम्भ हेतु बनता है, वह अधर्मास्तिकाय है । जैसे मछली के लिए पृथ्वी । यही इनमें भेद है । ६. आकाशास्तिकाय का निर्वचन आङिति मर्यादया - स्वस्वभावापरित्यागरूपया काशन्ते - स्वरूपेणैव प्रतिभासन्ते तस्मिन् पदार्था इत्याकाशं यदा त्वभिविधावाङ तदा अङिति - सर्वभावाभिव्याप्त्या काशत इत्याकाशं तदेवास्तिकाय आकाशास्तिकाय: । ( उशावृ प ६७२ ) जिसमें रूपी पदार्थ अपने-अपने स्वभाव का त्याग किए बिना ही अपने स्वरूप में प्रतिभासित होते हैं, वह द्रव्य है - आकाश । अथवा जो समस्त पदार्थों की व्याप्ति से शोभित होता है, वह आकाश है । वही आकाशास्तिकाय है । आकाशास्तिकाय का लक्षण भायणं सव्वदव्वाणं, नहं ओगाहलक्खणं । (3 2518) आकाश सर्व द्रव्यों का भाजन है । उसका लक्षण है - अवकाश देना । तद्ध्यवगाढुं प्रवृत्तानामालम्बनीभवति, अनेनावगाहकारणत्वमाकाशस्योक्तम् । ( उशावृ प ५६० ) अवगाह लेने में प्रवृत्त द्रव्यों को यह आलम्बन देता है । आकाश के भेद 'अस्तिकाय आगासे तस्स देसे य, तप्पएसे य आहिए । ( उ ३६।६ ) आकाशास्तिकाय के तीन भेद हैं - आकाशास्तिकाय, उसका देश तथा प्रदेश । ७. धर्म-अधर्म - आकाश : क्षेत्र काल की अपेक्षा धमाधम् य दोवेए, लोगमित्ता वियाहिया । लोगालोगे य आगासे ॥ ( उ ३६।७ ) धर्मास्ता और अधर्मास्तिकाय - ये दोनों लोकआकाश लोक और अलोक - दोनों में व्याप्त प्रमाण है । धम्माधम्मागासा, तिन्नि वि एए अणाइया । अपज्जवसिया चेव, सव्वद्धं तु वियाहिया || (उ ३६८) धर्म, अधर्म और आकाश - ये तीन द्रव्य अनादि, अनन्त और सार्वकालिक होते हैं । ८. धर्मास्तिकाय आदि का सप्रदेशत्व - अप्रदेशत्व अरूवीअजीवाणं तिन्हं अत्थिकायाणं परनिमित्तं सपदेसत्तं वा अपदेसत्तं वा । ( आवचू २ पृ ५ ) धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाश । स्तिकाय अरूपी अजीव हैं । ये पर- निमित्त से सप्रदेशी या अप्रदेशी होते हैं । ६. अरूपी अस्तिकाय में उत्पाद-व्यय अरू विदव्वाणं परपच्चया उप्पायठितिभंगा भण्णंति । जहा घडागासेणं संजुत्तस्स आगासस्स घडागाससंयोगेण उप्पायो पडागासत्तेण विगमो आगासत्तेण अवट्टिई । ( दजिचू पृ १६ ) अरूपी द्रव्यों में उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य की त्रिपदी पर Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्वाध्याय ७२. परसमुत्थ अस्वाध्याय पदार्थों के निमित्त से घटित होती है। जैसे-आकाश ५. अस्वाध्याय : महामारी, दुभिक्ष, युद्ध एक द्रव्य है । उसमें घट के संयोग से घटाकाश के रूप में ६. अस्वाध्याय : चन्द्रग्रहण-सूर्यग्रहण उत्पाद, पटाकाश के रूप में विनाश और आकाश के रूप ७. अस्वाध्याय की तिथियां में ध्रौव्य घटित होता है। ८. अस्वाध्याय काल का निर्धारण १०. आकाश : पर्याय-परिमाण * स्वाध्याय का काल (क्र. स्वाध्याय) किमणंतगुणा भणिया जमगुरुलहुपज्जया पएसम्मि। । * अस्वाध्याय : ज्ञान का अतिचार (द. आचार) एक्केक्कम्मि अणंता पण्णत्ता वीयरागेहिं॥ ९. अस्वाध्याय के हेतु (विभा ४९१)। १०. अस्वाध्याय से उत्पन्न दोष सब आकाशप्रदेशों का परिमाण सब आकाशप्रदेशों से १. अस्वाध्याय के प्रकार अनन्तगुण है । आकाशप्रदेश अगुरुलघ हैं। उनके पर्याय भी अगुरुलघु हैं। अर्हतों द्वारा प्रज्ञप्त है कि प्रत्येक असज्झायं तु दुविहं आयसमुत्थं च परसमूत्थं च ।" आकाशप्रदेश में अनन्त अगुरुलघु पर्याय हैं। (आवनि १३२२) अस्वाध्याय के दो प्रकार हैंअस्पृशद्गति- स्पर्श न करते हुए गति करना। १. आत्मसमुत्थ-अपने शरीर में व्रण आदि से रक्त अस्पृशद्गतिरिति नायमर्थो यथा नायमाकाश- झरना। २. परसमुत्थ-दूसरे से संबंधित । प्रदेशान्न स्पृशति अपि तु यावत्सु जीवोऽवगाढस्तावत एव २. परसमुत्थ अस्वाध्याय के प्रकार स्पृशति न तु ततोऽतिरिक्तमेकमपि प्रदेशम् । (उशावृ प ५९७) संजमघाउ उप्पाए सादिव्वे वुग्गहे य सारीरे ।.. अस्पृशद् गति का अर्थ यह नहीं है कि इसमें जीव (आवनि १३२३) आकाशप्रदेशों का स्पर्श नहीं करता। अस्पृशद्गति में परसमुत्थ अस्वाध्यायिक के पांच प्रकार हैंजीव उतने ही आकाशप्रदेशों का स्पर्श करता है, जितने १. संयमघाती, २. औत्पातिक, ३. देवप्रयुक्त, आकाशप्रदेशों में वह अवगाढ/व्याप्त है। उससे अतिरिक्त ४. व्युद्ग्रह, और ५. शरीर संबंधी। एक आकाशप्रदेश का भी स्पर्श नहीं करता। संयमघाती मुक्त जीव अस्पृशद्गति से ही ऊपर जाते हैं। महिया य भिन्नवासे सच्चित्तरए य संजमे तिविहं । (द्र. सिद्ध) दव्वे खित्ते काले जहियं वा जच्चिरं सव्वं ।। अस्वाध्याय-स्वाध्याय का प्रतिषेध । (आवनि १३२७) """"ठाणाइभास भावे मुत्तुं उस्सासउम्मेसे ।। १. अस्वाध्याय के प्रकार (आवमा २१७) * आत्मसमुत्थ संयमघाती अस्वाध्याय के तीन भेद हैं० परसमुत्थ १. महिका-कुहरा, २ भिन्नवर्षा-बुबुद व २. परसमुत्थ के प्रकार फुआर वाली वर्षा, ३. सचित्त रज । ० संयमघाती जिस क्षेत्र में जितने काल तक कुहरा आदि गिरता ० औत्पातिक • देवप्रयुक्त हो, उस क्षेत्र में उतने काल तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। उस समय कायोत्सर्ग, संभाषण, प्रतिलेखन, ० व्युद्ग्रह-संबंधी • शरीर-संबंधी गमनागमन आदि क्रियाएं भी प्रतिषिद्ध हैं। क्योंकि उस समय सब कुछ अप्काय से भावित हो जाता है। ३. अस्थि संबंधी अस्वाध्याय उच्छवास और उन्मेष-निमेष की क्रिया निषिद्ध नहीं है। ४. राजा आदि की मृत्यु और अस्वाध्याय Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शरीर संबंधी अस्वाध्याय ७३ अस्वाध्याय युद्ध हो मोत्पातिक उन्हें यूपक कहा जाता है। कुछ आचार्य इसमें पंसू अ मंसरुहिरे केससिलावुट्ठि तह रउग्घाए । अस्वाध्यायिक नहीं मानते। जो मानते हैं, उनके मंसरुहिरे अहोरत्तं अवसेसे जच्चिरं सुत्तं ॥ अनुसार यूपक में तीन प्रहर तक अस्वाध्यायिक (आवनि १३३१) रहता है। औत्पातिक अस्वाध्याय के छह प्रकार हैं ७. यक्षादीप्त-आकाश में कभी-कभी दिखाई देने वाला १. पांशुवृष्टि, २. मांसवृष्टि, ३. रुधिरवृष्टि, विद्युत् जैसा प्रकाश। ४. केशवृष्टि, ५. ओलावृष्टि, ६. रजोद्घात। इनमें गन्धर्वनगर और यक्षादीप्त निश्चित ही मांस और रुधिरवष्टि के समय एक अहोरात्र और देवकृत होते हैं, शेष दिग्दाह आदि देवकृत भी होते शेष चारों में जब तक उनकी वृष्टि होती हो, तब तक हैं और स्वभाविक भी। गजित में दो प्रहर तथा शेष सबमें एक-एक सूत्र का स्वाध्याय वर्जित है। प्रहर तक अस्वाध्यायिक रहता है। देवप्रयुक्त गंधव्वदिसाविज्जूक्कगज्जिए जूअजक्खआलित्ते ।। म्युग्रह संबंधी इक्किक्क पोरिसी गज्जियं तु दो पोरसी हणइ॥ सेणाहिवई भोइय मयहरपुंसित्थिमल्लजुद्धे य । दिसिदाह छिन्नमूलो उक्क सरेहा पगासजत्ता वा। लोट्टाइभंडणे वा गुज्झग उड्डाहमचियत्तं ॥ संझाछेयावरणो उ जुवओ सुक्कि दिण तिन्नि ।। (आवनि १३४५) राजा, सेनापति, ग्रामभोजिक, ग्राममहत्तर, मल्ल, केसिंचि हुंतिऽमोहा उ जूवओ ता य हुँति आइन्ना। विशिष्ट स्त्री-पुरुष, व्यंतर देव-इनमें परस्पर कलहजेसि तु अणाइन्ना तेसि किर पोरिसी तिन्नि । यद्ध हो जाने पर. पथराव या हाथापाई होने पर जब (आवनि १३३४-१३३६) तक विग्रह शांत न हो, तब तक अस्वाध्यायिक रहता है। देवप्रयुक्त अस्वाध्याय के सात प्रकार हैं विग्रहकाल में स्वाध्याय करने पर उड्डाह-अवहेलना १. गन्धर्व -गन्धर्व द्वारा नगर का निर्माण। और अप्रीति होती है। २. दिग्दाह-कभी-कभी दिशाएं प्रज्वलित जैसी हो उठती हैं। उस समय का प्रकाश छिन्नमूल होता। शरीर संबंधी अस्वाध्याय है-आकाश में स्थित दीखता है, भूमि पर स्थित सारीरंपिय दुविहं माणुस तेरिच्छियं समासेणं। नहीं दीखता। तेरिच्छं तत्थ तिहा जलथलखहज चउद्धा उ ॥ ३. विद्युत् --बिजली का चमकना। काले तिपोरसिद्ध व भावे सुत्तं तु नंदिमाईयं । ४. उल्कापात --पुच्छल तारे आदि का टूटना। कुछ सोणिय मंसं चम्मं अट्ठी विय हुँति चत्तारि ॥ उल्काएं रेखा खींचती हुई गिरती हैं और कुछ केवल माणुस्सयं चउद्धा अढेि मुत्तूण सयमहोरत्तं । उद्योत करती हुई गिरती हैं। परिआवन्नविवन्ने सेसे तियसत्त अद्वैव ॥ ५. गजित--बादलों का गर्जना। (आवनि १३४९, १३५१, १३५५; ६. यूपक-सन्ध्या के विभाग का आवरण अथवा हावृ २ पृ १६६-१६९) सन्ध्याप्रभा और चन्द्रप्रभा का मिश्रण। शुक्लपक्ष शरीर संबंधी अस्वाध्याय के दो प्रकार हैंकी प्रतिपदा, द्वितीया और तृतीया का चन्द्रमा मनुष्य संबंधी-मनुष्य का कलेवर, रुधिर आदि। सन्ध्यागत होने से सन्ध्या का यथार्थ ज्ञान नहीं होता तिर्यंच संबंधी-मत्स्य, गौ, मयूर आदि के रुधिर आदि । अतः यह अस्वाध्यायिक काल है। ___ द्रव्य आदि दृष्टियों से इन पर विचार किया गया कई आचार्यों का अभिमत है कि शुक्लपक्ष की इन प्रथम तीन तिथियों में सूर्य के उदय और अस्त द्रव्य से-अस्थि, मांस, रक्त, चर्म। के समय ताम्रवर्ण जैसे लाल और कृष्ण-श्याम अमोघ क्षेत्र से मनुष्य संबंधी हो तो सौ हाथ और मोघा (आकाश में प्रलम्ब श्वेत श्रेणियां) होते हैं, तिथंच संबंधी हो तो साठ हाथ । त प्रकार है११४१३३६) Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्वाध्याय अस्वाध्याय : चन्द्रग्रहण-सूर्यग्रहण काल से-मनुष्य संबंधी मृत्यु का एक अहोरात्र । राजा, अमात्य, सेनापति आदि विशिष्ट व्यक्तियों के हड्डियां यदि सौ हाथ के भीतर स्थित हों तो मनुष्य मर जाने पर अथवा राज्य में किसी प्रकार का क्षोभ की मत्य के दिन से लेकर बारह वर्षों तक। यदि हड्डियां उत्पन्न हो जाने पर, जब तक दूसरे राजा की नियुक्ति न चिता में दग्ध या वर्षा से प्रवाहित हों तो अस्वाध्यायिक हो अथवा क्षोभ समाप्त न हो तब तक अस्वाध्यायिक नहीं होता। लड़की उत्पन्न हो तो आठ दिन । लड़का रहता है। दूसरे राजा की नियुक्ति होने पर भी एक उत्पन्न हो तो सात दिन । तिर्यंच संबंधी हो तो जन्म- अहोरात्र तक अस्वाध्याय-काल रहता है। काल से तीसरे प्रहर तक। यदि बिल्ली चूहे आदि का ५. अस्वाध्याय : महामारी, दुभिक्ष, युद्ध घात करती हो तो एक अहोरात्र तक अस्वाध्याय रहता असिवोमाघयणेसुं बारस अविसोहियंमि न करंति । भाव से-नन्दी, अनुयोगद्वार, तन्दुलवैचारिक आदि झामिय वढे कीरइ आवासिय सोहिए चेव ।। सूत्रों के अध्ययन का वर्जन। (आवनि १३५९) अंडगमुझियकप्पे न य भूमि खणंति इहरहा तिन्नि । महामारी, दुर्भिक्ष अथवा युद्ध में अनेक व्यक्तियों की असज्झाइयपमाणं मच्छियपाओ जहि न बूड्डे॥ मृत्यु हो गई हो और वह स्थान अग्नि, जल आदि द्वारा (आवभा २१९) शुद्ध न किया गया हो तो बारह वर्ष तक अस्वाध्यायिक साधु के उपाश्रय से साठ हाथ की दूरी तक कोई रहता है। अंडा फट जाये तो तीन प्रहर तक अस्वाध्याधिक रहता ६. अस्वाध्याय : चन्द्रग्रहण-सूर्यग्रहण है। मक्खी का पंख डबे, उतना अंडे का रस हो तो उक्कोसेण दुवालस चंदु जहन्नेण पोरिसी अट्ट। अस्वाध्याय होता है। सूरो जहन्न बारस पोरिसि उक्कोस दो अट्ठ॥ ३. अस्थि संबंधी अस्वाध्याय (आवनि १३४२) दंते दिट्ठि विगिचण सेसट्ठी बारसेव वासाई । चंदो उदयकाले गहिओ संदसियराईए चउरो अण्णं झामिय वूढे सीआण पाणरुद्दे य मायहरे ।। च अहोरत्तं एवं दुवालस। अहवा उप्पायगहणे सव्वराइयं (आवनि १३५७) गहणं, सग्गहो चेव निबुड्डो संदूसियराईए चउरो अण्णं च सीयाणे जं दिठें तं तं मुत्तूणऽनाहनिहयाणि । अहोरत्तं एवं बारस । अहवा अजाणओ, अब्भछण्णे संकाए आडंबरे य रुद्दे माइसु हिट्ठट्ठिया बारे ॥ न नज्जइ, केवलं ग्रहणं, परिहरिया राई, पहाए दिलैं (आवभा २२२) सग्गहो निब्बुडो, अण्णं च अहोरत्तं एवं दुवालस । दांत-अस्थि कहीं गिर जाये तो उसे प्रयत्नपूर्वक सूरस्स अत्थमणगहणे सग्गहनिब्बुडो, उवहयरादीए खोजकर सौ हाथ की दूरी पर परिष्ठापित करे। यदि चउरो अण्णं च अहोरत्तं एवं बारस । अह उदयंतो वह न मिले तो उद्घाटन कायोत्सर्ग कर स्वाध्याय करे। गहिओ तो संदसिए अहोरत्ते अट अण्णं च अहोरत्तं शेष अस्थियों का बारह वर्ष तक अस्वाध्याय रहता है। परिहरइ एवं सोलस । श्मशान में अस्थियों के दग्ध हो जाने पर अथवा (आवहाव २ पृ१६५) जल-प्रवाह में बह जाने पर अस्वाध्याय नहीं होता। चन्द्रग्रहण में जघन्यत: आठ प्रहर (रात्रि के चार श्मशान में शव पड़ा हो, पाण-रुद्र-मातृ-गृह (यक्षायतन) प्रहर तथा दसरे दिन के चार प्रदर) और उत्कष्टतः के नीचे मृत व्यक्ति की अस्थियां स्थापित की गई हों। बारह प्रहर तक अस्वाध्यायिक रहता है। सूर्यग्रहण में और वह स्थान सौ हाथ की सीमा में हो तो बारह वर्ष जघन्यतः बारह प्रहर और उत्कृष्टत: सोलह प्रहर तक तक अस्वाध्यायिक रहता है। अस्वाध्यायिक रहता है। ४. राजा आदि की मृत्यु और अस्वाध्याय चन्द्र के उदयकाल में ही यदि ग्रहण हो जाता है तो वोग्गह दंडियमादी संखोभे दंडिए य कालगए। उस संदूषित रात्री के चार प्रहर तथा अहोरात्र के आठ अणरायए य सभए जच्चिर निद्दोच्चऽहोरत्तं ।। प्रहर- इस प्रकार बारह प्रहर का अस्वाध्याय-काल (आवनि १३४४) होता है। अथवा जब उत्पादग्रहण-चन्द्र का सार्वरात्रिक Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्वाध्याय के उत्पन्न दोष ग्रहण होता है तब वह पूरा छुप जाता है । उस संदूषित रात्री के चार प्रहर तथा अहोरात्र के आठ प्रहर - इस प्रकार बारह प्रहर का अस्वाध्याय- काल रहता है । अथवा चन्द्रग्रहण की जानकारी नहीं थी। चांद बादलों से आच्छन्न था। कुछ आशंका हुई। उस रात्रि में चार प्रहर तक अस्वाध्याविक माना प्रभात में देखा कि पूरा चांद ग्रहण के कारण डूब गया है। उस स्थिति में अहोरात्र के आठ प्रहर की अस्वाध्यायी रहेगी । इस प्रकार बारह प्रहर का अस्वाध्याय-काल रहा । यदि सूर्य ग्रहण काल में ही अस्त होता है तो उस रात्रि के चार प्रहर तथा दूसरे दिन रात के चार-चार प्रहर - इस प्रकार जघन्यतः बारह प्रहर अस्वाध्याय के होते हैं। यदि सूर्यग्रहण प्रातःकाल ही प्रारम्भ हो जाता है तो उस दिन रात के पार चार प्रहर तथा दूसरे दिन रात के चार-चार प्रहर - इस प्रकार उत्कृष्टतः सोलह प्रहर अस्वाध्याय के होते हैं । ७. अस्वाध्याय की तिथियां आसाढी इंदमहो कत्तिय सुगिम्हए य बोद्धव्वे । एए महामहा खलु एएसि चेव पाडिवया ॥ ( आवनि १३३८ ) चैत्र की पूर्णिमा, आषाढ की पूर्णिमा, आसोज की पूर्णिमा, कार्तिक की पूर्णिमा तथा उनके साथ आने वाली प्रतिपदा को भी स्वाध्याय नहीं करना चाहिए । ८. अस्वाध्याय काल का निर्धारण चंदिमसूरुवरागे निग्धाए गूंजिए अहोरतं । संझा च पाडिएया जं जहि सुगिम्हए नियमा ॥ (आवनि १३३७ ) चन्द्रग्रहण, सूर्यग्रहण तथा निर्घात (सान या निरन आकाश में व्यन्तरकृत महान् गर्जन की ध्वनि) में एक दिन-रात तक अस्वाध्यायिक रहता है । चार सन्ध्याओं सूर्यास्त होने पर एक मुहूर्त तक, आधी रात में सूर्योदय से एक मुहूर्त्त पूर्व और मध्याह्न में स्वाध्याय वर्जित है । 1 ७५ ६. अस्वाध्याय के हेत रागेण व दोसेण वऽसज्झाए जो करेइ सज्झायं । आसायणा व का से ? को वा भणिओ अणायारो ? | ( आवनि १४१२ ) जो राग और द्वेष से अस्वाध्याय में स्वाध्याय करता है, वह सोचता है अमूर्त ज्ञान की क्या आशातना ? ज्ञान से कौनसा अनाचार होता है ? १०. अस्वाध्याय से उत्पन्न दोष एए सामन्नरेऽज्झाए जो करेइ सज्झायं । सो आणाअणवत्थं मिच्छत्त विराहणं पावे ॥ सुअनामि अभत्ती लोअविरुद्धं पमत्तछलणा य । विज्जासाहृणवइगुण्णधम्मया एव मा कुणसु ॥ ( आवनि १४०२, १४०८ ) अस्वाध्याय में स्वाध्याय करने से होने वाले दोष• आज्ञा का अतिक्रमण | • अनवस्था ( दोष - शृंखला का प्रारम्भ ) । • मिध्यात्व की प्राप्ति । • ज्ञान की विराधना । • श्रुतज्ञान की अभक्ति । • लोकविरुद्ध व्यवहार । अस्वाध्याय • प्रमत्त छलना । • विद्या साधन का वैगुण्य । के आचार की विराधना । - • श्रुतज्ञान उम्मायं च लभेज्जा रोगायंकं व पाउणे दीहं । तित्यवरभासियाओ भस्सइ सो संजमाओ या ॥ इहलोए फलमेयं परलोए फलं न दिति विज्जाओ । आसायना सुवस्स उ कुब्बद्द दीहं च संसारं ॥ ( आवनि १४१४, १४१५ ) उन्माद, दीर्घकालिक रोग और सद्योचाति आतंक, तीर्थंकर प्रज्ञप्त धर्म से च्युति और चारित्र धर्म से व्युति ये इहलोक सम्बन्धी दोष हैं। परलोक (भविष्य) में ज्ञानावरणीय कर्म के उदय के कारण वह व्यक्ति किसी विद्या को नहीं साध सकता। श्रुत की आज्ञातना से वह दीर्घकाल तक संसार में भ्रमण करता है। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा ७६ अहिंसा-संयम | सब जीवों के प्रति समता । अवध । १. अहिंसा की परिभाषा २. हिंसा-अहिंसा का स्वरूप ३. हिंसा के प्रकार ४. हिंसा से दुःख ५. हिंसा में योगों की तरतमता और कर्मबन्ध ६. हिंसक कौन ? अहिंसक कौन ? ७. अव्रती हिंसक ८. अप्रमत्त नियमतः अहिंसक ९. अहिंसा का व्यावहारिक हेतु १०. हिंसा-अहिंसा और नय ११. अहिंसा : श्रमण का आचार १२. अहिंसक यज्ञ अहिंसा महाव्रत अहिंसा व्रत * रात्रिभोजनविरमण और अहिंसा + • * हिंसा के द्रव्य, क्षेत्र ... १. अहिंसा को परिभाषा .... अहिंसा निउणं दिट्ठा, सव्वभूएस संजमो ॥ २. हिंसा-अहिंसा का स्वरूप (द्र. रात्रिभोजनविरमण ) ( ब्र. महाव्रत) (द्र. महाव्रत) ( व्र. आवक ) सब जीवों के प्रति संयम रखना अहिंसा है । पमत्तजोगस्स पाणववरोवणं हिंसा । प्रमादयुक्त प्रवृत्ति से प्राणवियोजन मणवयणकाएहि जोएहि दुप्पउत्तेहिं जसा हिंसा | (द६/८) ( अचू पृ १२ ) करना हिंसा है । जं पाणववरोवणं ( दजिचू पृ २० ) हिंसा का अर्थ है- दुष्प्रयुक्त मन, वचन और काया के योगों से प्राणव्यपरोपण करना । पाणातिवातवज्जणं । ( अचू पृ ९ ) अहिंसा नाम पाणातिवायविरती | ( दजिचू पृ १५) प्राणातिपात - प्राण- वियोजन न करना अहिंसा है । हिंसा में योगों की तरतमता और कर्मबंध अणुमित्तोऽवि न कस्सई बंधो परवत्थुपच्चओ भणिओ । तहवि अ जयंति जइणो परिणामविसोहिमिच्छंता ॥ (ओनि ५७) बाह्य वस्तु के निमित्त से किसी के भी स्वल्प मात्र भी बन्ध नहीं होता फिर भी परिणामों की विशुद्धि चाहने वाले को पृथ्वी आदि जीवों तथा समस्त बाह्य वस्तुओं के प्रति संयम रखना चाहिए । ३. हिंसा के प्रकार पाणातिवादुविहे - संकप्पओ य आरंभओ य । ( आवचू २ पृ२८१) प्राणातिपात दो प्रकार से होता है१. संकल्प से २. आरंभ ( प्रवृत्ति) से । जाणमाणो नाम जेसि चितेऊण रागद्दोसाभिभूओ घाइ । अजाणमाणो नाम अपदुस्समाणो अणुवओगेणं इंदियाइणावी पमातेण घातयति । ( दजिचू पृ २१७ ) हिंसा दो प्रकार से होती है-जान में और अनजान में। जान-बूझकर हिंसा करने वालों में राग-द्वेष की प्रवृत्ति स्पष्ट होती है और अनजान में हिंसा करने वालों अनुपयोग या प्रमाद होता है । ४. हिंसा से दुःख नहु पाणवहं अणुजाणे, मुच्चेज्ज कयाइ सव्वदुक्खाणं । (3515) प्राणवध का अनुमोदन करने वाला पुरुष कभी दुःखों 'मुक्त नहीं हो सकता । ५. हिंसा में योगों की तरतमता और कर्मबंध जो य पओगं जुंजइ हिंसत्थं जो य अन्नभावेणं । अमणो उ जो पउंजइ इत्थ विसेसो महं वुत्तो ॥ हिंसत्थं जुंजतो सुमहं दोसो अनंतरं इयरो । अमणो य अप्पदोसो जोगनिमित्तं च विन्नेओ ॥ (ओनि ७५५,७५६) जो हिंसा के लिए मन, वाणी और काययोग का प्रयोग करता है, उसके महान् कर्मबन्ध होता है । जो अन्यभाव (अन्यमनस्कता) से योग का प्रयोग करता है, उसके अस्पतर कर्मबन्ध होता है । अमन ( वीतराग ) के अल्पतम कर्मबन्ध होता है । कर्मबन्ध योगनिमित्तज है । Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्रमत्त नियमत: अहिंसक : ७७ अहिंसा एक्कंमिवि पाणिवहंमि देसिअं सुमहदंतरं समए । जेवि न वावज्जंती नियमा तेसिं पहिंसओ सो उ। एमेव निज्जरफला परिणामवसा बहुविहीआ ॥ सावज्जो उ पओगेण सव्वभावेण सो जम्हा ॥ (ओनि ५२) (ओनि ७५२,७५३) एक ही समय में समान प्राणवध होने पर भी उसके जो प्रमत्त पुरुष अपने प्रमत्त योगों के प्रयोग से बंध में महान् अन्तर रह सकता है। एक जीव अति प्राणिवध करता है, वह अवश्य हिंसक है। यदि उसकी संक्लिष्ट परिणाम से प्राणवध करता हुआ सातवीं नरक प्रवत्ति से प्राणिवध न भी हो, तब भी वह निश्चयतः में उत्पन्न हो सकता है। दूसरा जीव प्राणवध करते समय हिंसक है, क्योंकि उसके मन, वचन और काया का अति संक्लिष्ट परिणाम नहीं होने के कारण दूसरी नरक प्रयोग सावद्य/सपाप है। में उत्पन्न हो सकता है। निर्जरा में भी परिणामधारा के ७. अवती हिंसक है अनुसार विसदृशता रहती है। यो यस्मादविरत: स तदकुर्वन्नपि परमार्थतः कुर्वन्नेव ६. हिंसक कौन ? अहिंसक कौन ? अवसेयो यथा रात्रिभोजनादनिवृत्तो रात्रिभोजनम् । पंचसमिओ तिगुत्तो नाणी अविहिंसओ न विवरीओ। (पिनिवृ प ३७) होउ व संपत्ती से मा वा जीवोवरोहेणं ॥ जो अविरत-असंयमी है, वह हिंसा न करता हुआ (विभा १७६५) भी वस्ततः हिंसा करता ही है। जैसे रात्रिभोजन पांच समिति से समित और तीन गुप्ति से गुप्त, जीव से जो निवृत्त नहीं है, वह रात्रिभोजन न करता हुआ भी और अजीव के ज्ञाता मुनि द्वारा यदि कोई जीव-वध हो रात्रिभोजी होता है। भी जाए तो भी वह अहिंसक है, क्योंकि वह अप्रमत्त ८. अप्रमत्त नियमतः अहिंसक होकर चलता है। अहणतो वि हु हिंसो दुटुत्तणओ मओ अहिमरो व्व । नाणी कम्मस्स खयट्ठमुट्ठिओऽणुट्ठितो य हिंसाए । बाहिंतो न वि हिंसो सुद्धत्तणओ जहा विज्जो ।। जयइ असढं अहिसत्थमुट्रिओ अवहओ सो उ । (विभा १७६४) तस्स असंचेअयओ संचेययतो य जाई सत्ताई। जिसके परिणाम अशुद्ध हैं, वह न मारता हआ भी जोगं पप्प विणस्संति नत्थि हिंसाफलं तस्स ॥ हिंसक है, जैसे- गजघातक । जिसके परिणाम शुद्ध हैं, (ओनि ७५०,७५१) वह प्राणिवध करता हुआ भी अहिंसक है, जैसे-वैद्य । जो ज्ञानी पुरुष कर्मक्षय के लिए उत्थित और हिंसा असुभो जो परिणामो सा हिंसा सो उ बाहिरनिमित्तं । में अनुत्थित है, वह कर्मबन्ध नहीं करता। अहिंसा में को वि अवेक्खेज्ज न वा जम्हाऽणेगंतियं बझं ॥ उत्थित पुरुष यदि शुद्धभाव से प्रवृत्ति करता है, उससे (विभा १७६६) जान या अनजान में सहसा प्राणिवध होने पर भी वह जो अशुभ परिणाम है, वह हिंसा है। हिंसा में अवधक है, उसे हिंसा का दोष नहीं लगता। बाहरी निमित्त अनैकान्तिक है-वहां प्राणवध होता भी रत्तो वा दुट्ठो वा मूढो वा जं पउंजइ पओगं । है और नहीं भी होता। हिंसावि तत्थ जायइ तम्हा सो हिंसओ होइ॥ असुभपरिणामहेऊ जीवाबाहो त्ति तो मयं हिंसा । न य हिंसामित्तेणं सावज्जेणावि हिंसओ होइ । जस्स उ न सो निमित्तं संतो विन तस्स सा हिंसा ।। सुद्धस्स उ संपत्ती अफला भणिया जिणवरेहिं ॥ (विभा १७६७) (ओनि ७५७,७५८) जिस जीववध का हेतु अशुभ परिणाम है, वह हिंसा राग-द्वेष और मूढ़ता के वशीभूत हो जो मन, वचन, है। जहां प्राणवध का निमित्त अशुभ परिणाम नहीं है, काया का प्रयोग करता है, उसे हिंसा का दोष लगता वहां प्राणवध होने पर भी हिंसा नहीं है। है, वह हिंसक है। हिंसामात्र से हिंसक नहीं होता। जो जो य पमत्तो पुरिसो तस्स य जोगं पड़च्च जे सत्ता। रागद्वेष मुक्त शुद्ध है, वह हिंसा से होने वाले कर्मफल का वावज्जंते नियमा तेसिं सो हिंसओ होइ।। भागी नहीं होता-ऐसा अर्हतों ने कहा है। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा जा जयमाणस्स भवे विराहणा सुत्तविहिसमग्गस्स । सा होइ निज्जरफला अज्झत्थविसोहिजुत्तस्स || परमरहस्समिसीणं समग्गणिपिडगभरितसाराणं । परिणामियं पमाणं निच्छयमवलंबमाणाणं ॥ (ओनि ७५९,७६० ) जो सूत्र और अर्थ का ज्ञाता है, जिसकी भावधारा विशुद्ध है, उस जागरूक गीतार्थ मुनि द्वारा होने वाली विराधना भी निर्जरा फल वाली होती है (एक समय में बद्धकर्म दूसरे समय में क्षीण हो जाते हैं ) - यह द्वादशांगवेत्ता ऋषियों से प्राप्त रहस्य है । निश्चयनयाव - लम्बी के लिए परिणामधारा ही प्रमाण है । नास्ति तस्य साधोहिंसाफलं - साम्परायिकम् । यदि परमीयप्रत्ययं कर्म भवति, तच्चैकस्मिन् समये बद्धमन्यस्मिन् समये क्षपयति । ( ओनिवृ प २२०, २२१) हिंसा के फलस्वरूप सांपरायिक कर्मबंध होता है । उस अप्रमत्त मुनि के साम्परायिक कर्मबन्ध नहीं होता, पथिक कर्मबन्ध होता है। प्रथम समय में बद्ध वह कर्म दूसरे समय में क्षीण हो जाता है । अविसिट्ठमिव जोगंमि बाहिरे होइ विहुरया इहरा । सुद्धस्स उ संपत्ती अफला जं देसिआ समए ॥ (ओनि ५१ ) गृहस्थ और साधु के प्राणातिपात आदि बाह्य क्रियायें समान होने पर भी उनका परिणाम असमान होता है । वीतराग साधु के प्राणातिपात आदि की क्रिया अफल हो जाती है। उससे बन्ध नहीं होता, ऐसा सिद्धांत में कहा गया है। ६. अहिंसा का व्यावहारिक हेतु सव्वे जीवा वि इच्छंति, जीविडं न मरिज्जिउं । तम्हा पाणवहं घोरं निग्गंथा वज्जयंति णं ॥ (द ६।१०) सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना नहीं । इसीलिए प्राणवध भयानक है । निर्ग्रन्थ उसका वर्जन करते हैं । अज्झत्यं सव्वओ सव्वं, दिस्स पाणे पियायए । न हणे पाणिणो पाणे, भयवेराओ उवरए । (उ६६) सब दिशाओं से होने वाला सब प्रकार का अध्यात्म (सुख) जैसे मुझे इष्ट है, वैसे ही दूसरों को इष्ट है और ७८ अहिंसा : श्रमण का आचार सब प्राणियों को अपना जीवन प्रिय है- यह देखकर भय और वैर से उपरत पुरुष प्राणियों के प्राणों की घात न करे । १०. हिंसा-अहिंसा और नय आया चेव अहिंसा आया हिंसत्ति निच्छओ एसो । जो होइ अप्पमत्तो अहिंसओ, हिंसओ इयरो ॥ (ओनि ७५४ ) निश्चय नय से आत्मा ही अहिंसा है और वही हिंसा है। जो अप्रमत्त है, वह अहिंसक है । जो प्रमत्त हैं, वह हिंसक है । नैगमस्य जीवेष्वजीवेषु च हिंसा संग्रहव्यवहारयोः षट्सु जीवनिकायेषु हिंसा, संग्रहश्चात्र देशग्राही द्रष्टव्यः सामान्यरूपश्च नैगमान्तर्भावी । व्यवहारश्च स्थूल विशेष - ग्राही लोकव्यवहरणशीलश्चायं । ऋजुसूत्रश्च प्रत्येकं प्रत्येकं जीवे जीवे हिंसां व्यतिरिक्तामिच्छतीति । शब्दसमभिरूढैवंभूताश्च नया आत्मैवाहिसा आत्मैव हिंसेति । (ओनिवृ प २२१) नगम नय के अनुसार हिंसा और अहिंसा का प्रयोग जीव और अजीव - दोनों से संबंधित है । संग्रह और व्यवहार नय के अनुसार हिंसा छह जीवनिकाय से संबंधित है- यह कथन देशग्राही संग्रह की अपेक्षा से है । सामान्य संग्रहनय नैगम के अन्तर्भूत है । व्यवहार स्थूल विशेषग्राही है । ऋजुसूत्र नय के अनुसार हिंसा प्रत्येक जीव के साथ पृथक्-पृथक् रूप से संबंधित है । शब्द, समभिरूढ़ एवं एवंभूत नय के अनुसार आत्मा ही हिंसा है और आत्मा ही अहिंसा है | ११. अहिंसा : श्रमण का आचार पुढविकायं न हिंसंति, मणसा वयसा कायसा । तिविहेण करणजोएण, संजया सुसमाहिया ॥ पुढविकायं विहिंसंतो, हिंसई उ तयस्सिए । तसे य विविहे पाणे, चक्खुसे य अक्खुसे || (द ६।२६, २७) सुसमाहित संयमी मन, वचन, काया – इस त्रिविध करण और कृत, कारित एवं अनुमति - इस त्रिविध योग से पृथ्वीकाय की हिंसा नहीं करता । जो पृथ्वीकाय की हिंसा करता है, वह उसके आश्रित अनेक प्रकार के Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसक यज्ञ अहिंसा चाक्षुष (दृश्य), अचाक्षुष (अदृश्य) त्रस और स्थावर अचाक्षुष त्रस और स्थावर प्राणियों की हिंसा करता है। प्राणियों की हिंसा करता है। तसकायं न हिंसंति, मणसा वयसा कायसा। आउकायं न हिंसंति, मणसा वयसा कायसा। तिविहेण करणजोएण, संजया सुसमाहिया ।। तिविहेण करणजोएण, संजया सुसमाहिया ॥ तसकायं विहिंसंतो, हिंसई उ तयस्सिए । आउकायं विहिंसंतो, हिंसई उ तयस्सिए। तसे य विविहे पाणे, चक्खुसे य अचक्खुसे। तसे य विविहे पाणे, चक्खुसे य अचक्खुसे । (द ६१४३,४४) (द ६२९,३०) सुसमाहित संयमी मन, वचन, काया-इस विविध ससमाहित संयमी मन, वचन, काया-इस त्रिविध करण तथा कृत, कारित और अनुमति-इस विविध करण और कृत, कारित एवं अनुमति-इस त्रिविध योग योग से त्रसकाय की हिंसा नहीं करते । जो त्रसकाय की से अप्काय की हिंसा नहीं करता। जो अप्काय की हिंसा करता है, वह उसके आश्रित अनेक प्रकार के हिंसा करता है, वह उसके आश्रित अनेक प्रकार के चाक्षुष, अचाक्षुष त्रस और स्थावर प्राणियों की हिंसा चाक्षुष, अचाक्षुष त्रस और स्थावर प्राणियों की हिंसा करता है। करता है। तसे पाणे न हिंसेज्जा, वाया अदुव कम्मणा । जायतेयं न इच्छंति पावगं जलइत्तए। उवरओ सव्वभूएसु, पासेज्ज विविहं जगं ।। तिक्खमन्नयरं सत्थं सव्वओ वि दुरासयं ।। (द ८।१२) (द ६।३२) मुनि वचन अथवा काया से त्रस प्राणियों की हिंसा मुनि जाततेज अग्नि जलाने की इच्छा नहीं करते। न करे । वह सब जीवों के वध से उपरत होकर विभिन्न क्योंकि अग्नि दूसरों शस्त्रों से तीक्ष्ण शस्त्र और सब ओर प्रकार वाले जगत् को देखे--आत्मौपम्यदृष्टि से देखे। से दुराश्रय है। अट्ट सुहुमाई पेहाए, जाई जाणित्तु संजए। अनिलस्स समारंभ बुद्धा मन्नति तारिसं । दयाहिगारी भूएसु, आस चिट्ठ सएहि वा ॥ सावज्जबहुलं चेयं नेयं ताईहिं सेवियं ॥ सिणेहं पुप्फसुहुमं च, पाणुत्तिगं तहेव य । तालियंटेण पत्तेण साहाविहुयणेण वा । पणगं बीय हरियं च, अंडसुहमं च अट्टमं ॥ न ते वीइउमिच्छन्ति वीयावेऊण वा परं। (द ८।१३,१५) (द ६।३६,३७) संयमी मुनि आठ प्रकार के सूक्ष्म शरीर वाले जीवों तीर्थंकर वायू के समारम्भ को अग्निसमारम्भ के को देखकर बैठे, खड़ा हो और सोए। इन सूक्ष्म शरीर तुल्य ही मानते हैं। यह प्रचुर पापयुक्त है। यह छहकाय वाले जीवों को जानने पर ही कोई सब जीवों की दया के त्राता मुनियों के द्वारा आसेवित नहीं है।। का अधिकारी होता है। इसलिए मुनि वीजन, पत्र, शाखा और पंखे से हवा वे आठ सूक्ष्म जीव इस प्रकार हैंकरना तथा दूसरों से हवा कराना नहीं चाहते। १. स्नेह ५. काई वणस्सई न हिंसंति, मणसा वयसा कायसा। २. पुष्प ६. बीज तिविहेण करणजोएण, संजया सुसमाहिया ॥ ३. प्राण ७. हरित वणस्सई विहिंसंतो, हिंसई उ तयस्सिए । ४. उत्तिग ८. अंडसूक्ष्म तसे य विविहे पाणे, चक्खुसे य अचक्खुसे ॥ १२. अहिंसक यज्ञ (द ६।४०,४१) तवो जोइ जीवो जोइठाणं, सुसमाहित संयमी मन, वचन, काया-इस त्रिविध जोगा सुया सरीरं कारिसंगं । करण तथा कृत, कारित और अनुमति -इस विविध ___कम्म एहा संजमजोगसंती, योग से वनस्पति की हिंसा नहीं करते । जो वनस्पति की होम हणामी इसिणं पसत्थं ॥ हिंसा करता है, वह उसके आश्रित अनेक प्रकार के चाक्षुष, (उ १२।४४) Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आगमरचना और त्रिपदी तप ज्योति है, जीव ज्योति-स्थान है। योग (मन, ६. आगमवाचना वचन और काया की सत् प्रवत्ति) घी डालने की ० आचार्य भद्रबाहु : पाटलिपुत्रीय वाचना। करछियां हैं। शरीर अग्नि जलाने के कण्डे हैं। कर्म इंधन है। संयम की प्रवृत्ति शांति-पाठ है । इस प्रकार मैं • आचार्य स्कन्दिल : माथुरी वाचना ऋषि-प्रशस्त (अहिंसक) होम करता हूं। * आगम वाचना की अहंता (द्र. शिष्य) * आगमग्रहण-विधि (द्र. शिक्षा) यज्ञ का अधिकारी * आगम व्याख्या के चार विभाग (द्र. अनुयोग) छज्जीवकाए असमारभंता, मोसं अदत्तं च असेवमाणा। आगमः ज्ञानगुणप्रमाण का भेद (द्र. ज्ञान) परिगई इथिओ माणमायं. एयं परिन्नाय चरंति दंता॥ प्रवचन का अर्थ-आगम (द्र. प्रवचन) (उ १२॥४१) * आगम का मूल : विनय (द्र. विनय) मन और इन्द्रियों का दमन करने वाले छह जीवनिकाय की हिंसा नहीं करते, असत्य और चौर्य का १. आगम का निर्वचन और परिभाषा सेवन नहीं करते, परिग्रह, स्त्री, मान और माया का आगमो णाम अत्तवयण। (आवचू १ पृ २८) परित्याग करके विचरण करते हैं, वे ही यज्ञ के अधिकारी आ-अभिविधिना सकलश्रुतविषयव्याप्तिरूपेण होते हैं। मर्यादया वा यथावस्थितप्ररूपणया गम्यन्ते-परिच्छिद्यसुसंवुडो पंचहिं संवरेहिं, इह जीवियं अणवक्खमाणो। न्तेऽर्था येन स आगमः । (नन्दीमवृ प २४९) वोसट्ठकाओ सुइचत्तदेहो, महाजय जयई जन्नसिढें ॥ आप्तवचन आगम कहलाता है। (उ १२।४२) समस्त श्रुतगत विषयों से जो व्याप्त है, मर्यादित है, जो पांच संवरों से सुसंवत होता है, जो असंयम ___यथार्थ प्ररूपणा के कारण जिससे अर्थ जाने जाते हैं, वह जीवन की इच्छा नहीं करता, जो काय का व्युत्सर्ग आगम है । (केवलज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, करता है, जो शुचि है और जो देह का त्याग करता है, चतुर्दशपूर्वी, दशपूर्वी और भिन्नदशपूर्वी - इनके द्वारा वही यज्ञ का अधिकारी है और वही यज्ञों में श्रेष्ठ रचित शास्त्र ही सूत्र-आगम हैं।) महायज्ञ करता है। २. आगम-रचना और त्रिपदी आगम-यथार्थ ज्ञाता और यथार्थ वक्ता आगमरचना के संदर्भ में तीन अभिमत प्राप्त हैंआगम कहलाते हैं । उपचार से उनके तीहिं निसेज्जाहिं चोद्दसपुव्वाणि उप्पादिताणि । वचन को भी आगम कहा जाता किं च वागरेति भगवं! उप्पन्ने विगते धुवेएताओ तिन्नि निसेज्जाओ। उप्पन्नेत्ति जे उप्पन्निमा भावा ते उवागच्छति । विगतेत्ति जे विगतिस्सभावा ते १. आगम का निर्वचन और परिभाषा विगच्छति । धुवा जे अविणासधम्मिणो। सेसाणं अणि२. आगम-रचना और त्रिपदी यता णिमेज्जा । ते य ताणि पुच्छिऊण एगतमं ते सुत्तं * आगम-रचना और गणधर (द्र. गणधर) करेति, जारिसं जहा भणितं । (आवचू १ पृ ३७०) ३. आगम रचनाकार गणधर गौतम ने तीन निषद्याओं (प्रणिपत्य पृच्छा ४. आगम की भाषा और निरूपण शैली निषद्या) से महावीरवाणी को ग्रहण कर चौदह पूर्वो का ५. आगम के प्रकार निर्माण किया। प्रश्न है-भगवान महावीर ने क्या . लौकिक आगम व्याकरण किया ? भगवान ने तीन निषद्याओं में त्रिपदी • लोकोत्तर आगम (तीन पदों) का व्याकरण किया--- + लोकोत्तर आगम के प्रकार (द. अंगप्रविष्ट, १. उत्पन्न-उत्पन्न होने वाले पर्याय । अंगबाह्य) २. विगत-विनष्ट होने वाले पर्याय । • शास्त्र के प्रकार ३. ध्रुव-ध्रुव रहने वाला द्रव्य । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम के प्रकार आगम शेष आगमनिर्माण की निषद्याएं अनियत हैं । गणधर करते हैं। उससे सूत्र का प्रवर्तन होता है। उन निषद्याओं से प्रश्न पूछकर किसी एक सूत्र का निर्माण गणधरदेवा हि मूलभूतमाचारादिकं श्रुतमुपरचयन्ति, करते हैं, जैसा भगवान् बतलाते हैं। तेषामेव सर्वोत्कृष्टश्रुतलब्धिसम्पन्नतया तद्रचयितुमीशजदा य गणहरा सव्वे पव्वजिता ताहे किर एगनि- त्वात् । (नन्दीमत् प २०३) सेज्जाए एगारस अंगाणि, चोद्दसहिं चोद्दस पुवाणि । गणधरों में सर्वोत्कृष्ट श्रुतलब्धि होती है, उसी एवं ता भगवता अत्थो कहितो, ताहे भगवंतो एगपासे से वे मूलभूत आचार आदि आगमों की रचना करने में सुत्तं करेति, तं अक्खरेहिं पदेहिं वंजणेहिं समं । समर्थ होते हैं। (आवचू १ पृ ३३७) अर्हत्प्रोक्तं गणधरदृब्धं प्रत्येकबुद्धदृब्धं च । गणधर प्रवजित हए। उन्होंने एक निषद्या में स्थविरग्रथितं च तथा प्रमाणभूतं त्रिधा सूत्रम् ।। आचारांग आदि ग्यारह अंगों को तथा चौदह निषद्याओं (ओनिवृ प ३) में चौदह पूर्वो को ग्रहण किया। अर्हत् महावीर ने अर्थ- अर्हतों द्वारा प्रतिपादित, गणधरों द्वारा सूत्रित, वाचना दी और गणधरों ने एक साथ उसे वर्ण, पद प्रत्येकबुद्ध और (पूर्वधर) स्थविरों द्वारा रचित आगमों और व्यं जन से परिपूर्ण सूत्र रूप में गुम्फित किया। --सूत्रागम, अर्थागम और तदुभयागम को प्रमाण माना गौतमस्वामिना निषद्यात्रयेण चतुर्दशपूर्वाणि गृही- गया है। तानि । "भगवांश्चाचष्टे-उप्पण्णे इ वा विगमे इ वा ४. आगम की भाषा और निरूपण शैली धुवे इ वा-एता एव तिस्रो निषद्याः । आसामेव सकाशाद् सर्वमपि हि गणभृतां 'उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सदिति' प्रतीतिरुपजायते, प्रवचनमर्द्धमागधिकभाषात्मकम् , अन्यथा सत्ताऽयोगात । ततश्च ते पूर्वभवभावितमतयो अर्द्ध मागधिकभाषया तीर्थकृतां देशनाप्रवृत्तेः। द्वादशाङ्गमुपरचयन्ति । (आवहाव १ पृ १८५) (नन्दीमवृ प ८३) गणधर गौतम ने तीन निषद्याओं से चौदह पूर्वो को (भगवं च णं अद्धमागहीए भासाए धम्ममाइक्खइ ।) ग्रहण किया। (समवाओ ३४।२२) भगवान् ने कहा--"उप्पण्णे इ वा, विगमे इ वा, सारा प्रवचन (आगम) अर्द्धमागधी भाषा में निबद्ध धुवे इ वा'-.-ये ही तीन निषद्याएं हैं। इन्हीं के आधार ___ है, क्योंकि तीर्थंकर अर्द्धमागधी भाषा में धर्मदेशना देते हैं। हा पर गणधरों को 'सत् उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य से युक्त है'----- एएहिं दिट्ठिवाए परूवणा सुत्त-अत्थकहणाए। इसकी प्रतीति होती है। तत्पश्चात् वे द्वादशांग की रचना ___इह पुण अणभुवगमो अहिगारो तीहिं ओसन्नं ॥ करते हैं। उनकी बुद्धि पूर्वजन्म में प्राप्त ज्ञान से भावित (विभा २२७५) होती है। दृष्टिवाद में सूत्र और अर्थ का निरूपण नैगम आदि ___ गणभृतः सर्वेऽपि तथाकल्पत्वाद् भगवदुपदिष्टं बम सात नयों से होता है। कालिक श्रुत में सब नयों के उप्पन्ने इ वेत्यादि मातृकापदत्रयमधिगम्य सूत्रतः सकल द्वारा व्याख्या आवश्यक नहीं है। श्रोता. के आधार पर मपि प्रवचनं दृब्धवन्तः । (नन्दीमव प ४८) वहां अर्थ-निरूपण प्रायः नंगम, संग्रह, व्यवहार इन वहा अथ-निरूपण प्रार अहंतों द्वारा उपदिष्ट तीन मातकापदों-.-.'उप्पन्ने तीन नयों से होता है। इ वा, विगमे इ वा, वे इ वा' की अवधारणा कर गण- ५. आगम के प्रकार धर समग्र प्रवचन का सूत्र रूप म गुफन करत ह' एसा आगमे तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-सुत्तागमे अत्थागमे करना गणधरों का आचार है। तदुभयागमे। ' (अनु ५५०) ३. आगम रचनाकार ___ आगम के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं -सूत्रागम, अर्थागम अत्थं भासति अरहा, सुत्तं गंथंति गणधरा णिउणं । और तदुभयागम । सासणस्स हितढाए, ततो सुत्तं पवत्तती। आगमे तिविहे पण्णत्तं, तं जहा- अत्तागमे अणंतरागमे (आवनि ९२) परंपरागमे । तित्थगराणं अत्थस्स अत्तागमे । गणहराण अर्हत् अर्थ का प्ररूपण करते हैं। गणधर शासन सुत्तस्स अत्तागमे, अत्थस्स अणंतरागमे । गणहरसीसाणं हित के लिए निपुणता के साथ उसका सूत्ररूप में गुंफन सुत्तस्स अणंतरागमे, अत्थस्स परंपरागमे । तेण परं सुत्तस्स Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आगम वाचना वि अत्थस्स वि नो अत्तागमे, नो अणंतरागमे, परंपरागमे। शास्त्र के प्रकार (अनु ५५१) . अप्पक्खरं महत्थं महक्खरऽप्पत्थ दोसुऽवि महत्थं।। आगम के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं-आत्मागम, दोसुऽवि अप्पं च तहा भणि सत्थं चउविगप्पं ।। अनन्तरागम और परम्परागम । तीर्थंकरों के लिए अर्थ आत्मागम है। गणधरों के सामायारी ओहे नायज्झयणा य दिट्टिवाओ य । लिए सूत्र आत्मागम और अर्थ अनन्तरागम है। गणधर लोइअकप्पासाई अणुक्कमा कारगा चउरो।। के शिष्यों के लिए सूत्र अनन्तरागम और अर्थ परम्परागम (ओभा ११,१२) शास्त्र के चार प्रकार हैंउसके पश्चात् सूत्र और अर्थ दोनों ही न आत्मागम १. अल्प अक्षर महान् अर्थ --जैसे ओघनिर्यक्ति । हैं, न अनन्तरागम हैं, किन्तु परम्परागम हैं। २ महान् अक्षर अल्प अर्थ-जैसे ज्ञातधर्मकथा । अविवृतमत्थतो मुकुलकप्पं सुत्तं । तदेव हि विवेचितं ३. महान् अक्षर महान् अर्थ-जैसे दृष्टिवाद । समुत्फुल्लकमलकल्पं अत्थ इति । ४. अल्प अक्षर अल्प अर्थ-जैसे कासिक आदि ' (आवचू १ पृ १०७,१०८) लौकिक शास्त्र। ____ अर्थ से अविवेचित सूत्र मुकूल -अर्धविकसित कलिका के समान होता है। वही सूत्र अर्य से विवेचित होकर ६. आगम वाचना । विकसित कमल के समान हो जाता है। आचार्य भद्रबाहु : पाटलिपुत्रीय वाचना आगमे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा - लोइए लोगुत्तरिए य। बारस वरिसो दुक्कालो उवट्टितो, (अनु ५४७) संजता इतो इतो य समुद्दतीरे अच्छित्ता पुण रवि पाडलिपुत्ते आगम के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं-लौकिक और मिलिता। तेसि अण्णस्स उद्देसओ अण्णस्स खंड । एवं लोकोत्तर। संघाडितेहिं एक्कारस अंगाणि संघातिताणि, दिद्विवादो लौकिक आगम नत्थि । लोइए आगमे ---जण्णं इमं अण्णाणिएहि मिच्छदि नेपालवत्तणीए य भद्दबाहुस्सामी अच्छंति चोद्दसपुवी। ट्ठीहि सच्छंदबुद्धिमइविगप्पियं, तं जहा- भारहं, रामायणं, तेसि संघेणं पत्थवितो संघाडओ दिट्ठिवादं वाएहित्ति । हंभीमासुरुत्तं, कोडिल्लयं, घोडमूह, सगभद्दियाओ, गतो। निवेदितं संघकज्जं तं । ते भणंति -- दुक्कालकप्पासियं, नागसुहुमं, कणगसत्तरी, वेसियं, वइसेसियं, निमित्तं महापाणं ण पविट्ठो मि, इयाणि पविट्ठो मि, तो बुद्धवयणं, काविलं, लोगायतं, सद्वितंतं, माढरं, पुराणं, न जाति वायणं दातुं । पडिनियत्तेहिं संघस्स अक्खातं । वागरणं, नाडगादि। अहवा-बावत्तरिकलाओ चत्तारि तेहि अण्णोवि संघाडओ विसज्जितो-जो संघस्स आणं वेया संगोवंगा। (अनु ५४८) अतिक्कमति तस्स को डंडो? ते गता। कहितं। तो ___ अजानी, मिथ्यादृष्टि और स्वच्छंद बुद्धि-मति द्वारा विरचित आगम लौकिक हैं। जैसे—महाभारत, रामायण, अक्खाइ-उग्घाडेज्जइ । ते भणंति-मा उग्घाडेह, पेसेह भंभी, आसुरोक्त, कौटिल्य अर्थशास्त्र, घोटकमुख, शक मेहावी । सत्त पाडिपुच्छगाणि देमि-१. भिक्खायरियाए भद्रिका, कासिक, नागसूक्ष्म, कनकसप्तति (सांख्य आगतो, २. कालवेलाए, ३. सण्णाए आगतो, ४. वेयाकारिका), वैशिक (कामशास्त्र), वैशेषिक, बुद्धवचन, लियाए, ५-७ आवस्सए पडिपुच्छा तिण्णि । कापिल, लोकायत, षष्टितन्त्र, माठर, पुराण, व्याकरण, ताहे थूलभद्दसामिप्पमुक्खाणि पंच मेहावीणं सताणि नाटक आदि । अथवा बहत्तर कलाएं और अंग-उपांग गयाणि । ते य पपढिता, मासेण एक्केण दोहिं तिहिंति सहित चार वेद-ये लौकिक आगम हैं। सव्वे ओसरिता, न तरंति पाडिपुच्छएणं पढितुं । लोकोत्तर आगम थूलभद्दसामी ठितो। थोवावसेसे महापाणे पुच्छितो-न लोगुत्तरिए आगमे -जण्णं इमं अरहतेहिं भगवंतेहिं हु किलमसि ? न किलंमामि । खमाहि कंचि कालं, तो .."पणीयं दुवालसंगं गणिपिडगं..। (अनु ५४९) दिवसं सव्वं वायणा होहिति । पुच्छति-किं पढितं ? अर्हतों द्वारा प्रणीत द्वादशांग गणिपिटक लोकोत्तर केत्तियं वा अच्छति ? आयरिया भणंति-अद्रासीति आगम है। सुत्ताणि सिद्धत्थकेण, मंदरेण य उपमाणं । भणिओ य Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम वाचना ऊणतरेणं कालेणं पढिहिसि एतो बच्चे ज्जासि । मा विसादं समते महापाणे कर पढियाणि णव पडिपुण्णाणि, दसमकं च दोहिं वत्थूहिं ऊणकं । एतंमि अंतरे विहरंता आगता पाडलिपुत्तं । थूलभद्दस्स य ताओ भगिणीओ सत्तवि पव्वइतिकाओ भांति - आयरिका ! भाउक वंदका वच्चामो, उज्जाणे किर ठितेल्लका । आयरिए वंदित्ता पुच्छंति - कहिं जेट्टभाते ? भणति - एताए देवकुलिका गुणति । तेण य चितितं - भगिणी इड्ढि दरिसेमित्ति सीहरूवं विउव्वितं, ताओ सीहं पेच्छति । ता व भीता नट्ठाओ, भांति - सीहेण खइयो । आयरिएणं भणितं - ण सो सीहो, थूलभद्दो । बितिय दिवसे उद्देसणकालो उवट्ठितो । न उद्दिसंति । किं कारणं ? अजोगो । तेण जाणितं कल्लत्तणकं । भणति - ण काहामि । भणति - ण तुमं काहिसि, अण्णे काहिति । पच्छा महता किलेसेण पडिवण्णा । उवरिल्लाणि चत्तारि पुव्वाणि पढाहि, मा अण्णस्स देज्जासि । ते चत्तारि ततो वोच्छिण्णा, दसमस्स य दो पच्छिमाणि वत्थूणि वोच्छिणाणि । दस पुव्वाणि अणुसज्जंति । ( आवचू २ पृ १८७, १८८ ) वीरनिर्वाण की दूसरी शताब्दी में बारह वर्ष का दुर्भिक्ष हुआ । साधु-संघ समुद्र के किनारे चला गया । सुभिक्ष होने पर पाटलिपुत्र में पुनः मिला । दुर्भिक्ष के समय अनेक श्रुतधर मुनि स्वर्गवासी हो गए। जो शेष बचे, उनमें से किसी को श्रुत का उद्देशक याद रहा, किसी को उसका एक अंश । संघ के अग्रणी मुनियों ने उन सबको व्यवस्थित रूप में संकलित किया। इस प्रकार ग्यारह अंग संकलित हो गए । दृष्टिवाद को जानने वाला कोई मुनि नहीं बचा । उस समय आचार्य भद्रबाहु नेपाल देश में थे । वे चतुर्दशपूर्वी थे। संघ ने परामर्श कर एक संघाटक (दो मुनि) वहां भेजा और कहलवाया आप यहां आकर दृष्टिवाद की वाचना दें। उन मुनियों ने वहां जाकर उनके सामने संघ का आवेदन प्रस्तुत किया । भद्रबाहु ने कहा---' पहले दुष्काल था, इसलिए मैं महाप्राण की साधना में प्रविष्ट नहीं हुआ। अब मैं उसकी साधना प्रारंभ की है, अतः मैं वाचना देने के लिए आने में असमर्थ हूं ।' मुनियों ने लौटकर सारा वृत्त संघ को बतलाया । ८३ आगम संघ ने दूसरा संघाटक भेजकर कहलवाया - महामुने ! जो संघ की आज्ञा का अतिक्रमण करता है, उसके लिए कौन-सा दंड है ? आचार्य भद्रबाहु ने कहा - 'संघ की आज्ञा के अतिक्रमण का अर्थ होता है-संघ से बहिष्कार | संघ मुझे बहिष्कृत न करे, इसलिए कुछ मेधावी साधुओं को भेजो। मैं प्रतिदिन सात वाचनाएं दूंगा - १. भिक्षाचरी से आने के बाद २. स्वाध्याय के समय ३. शौच से आने के बाद ४. विकाल वेला में ५-७. आवश्यक के बाद प्रतिपृच्छा के लिए तीन ।' संघ ने संघाटक से यह संवाद पाकर स्थूलभद्र आदि पांच सौ मेधावी मुनियों को वहां भेजा। उन्होंने वाचना प्रारंभ की। प्रायः सभी मुनि न पढ़ सकने के कारण एक, दो, तीन महीनों में पाटलिपुत्र लौट गए। उन्होंने कहा - 'हम प्रतिपृच्छक से पढ़ नहीं सकते।' केवल स्थूलभद्रस्वामी दृढ़ता से अध्ययन में संलग्न रहे । महाप्राण ध्यान की साधना थोड़ी शेष रही, तब भद्रबाहु ने स्थूलभद्र से पूछा- 'तुम खिन्न तो नहीं हो रहे हो ?' स्थूलभद्र बोले - 'मैं खिन्न नहीं हो रहा हूं ।' तब भद्रबाहु ने कहा – 'कुछ दिन प्रतीक्षा करो, फिर मैं तुम्हें पूरे दिन वाचना दूंगा।' स्थूलभद्र ने पूछा- 'मैंने कितना पढ़ा है, कितना शेष रहा है ?" भद्रबाहु बोले'तुमने अभी ८८ सूत्र ही पढ़े हैं। सरसों जितना पढ़े हो, मंदर पर्वत जितना पढ़ना शेष है। किंतु विषाद मत करो। जितना समय लगा है, उससे कम समय में तुम पढ़ लोगे । ' महाप्राण ध्यान संपन्न हो गया । स्थूलभद्र ने प्रतिपूर्ण नौ पूर्व पढ़ लिए। दो वस्तुओं ( विभागों) से न्यून दसवां पूर्व भी पढ़ लिया । भद्रबाहु और स्थूलभद्र नेपाल से प्रस्थान कर पाटलिपुत्र आ गए। स्थूलभद्र की सात बहिनें प्रव्रजित हुई थीं । वे आचार्य भद्रबाहु और अपने भाई स्थूलभद्र को वंदन करने गई । आचार्य भद्रबाहु उद्यान में ठहरे हुए थे। उन्होंने वंदन कर पूछा - 'भंते ! हमारा ज्येष्ठ भ्राता कहां है ? ' भद्रबाहु ने कहा 'इसी देवकुल में परावर्तन - स्वाध्याय कर रहा है ।' बहिनें स्थूलभद्र को वंदना करने गईं । स्थूलभद्र ने आती हुई Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार ६४ आचार बहिनों को देखा। उन्होंने अपनी ज्ञानलब्धि का प्रदर्शन स्कन्दिलाचार्य से सम्मत होने के कारण इसे स्कन्दिल का करने के लिए सिंह का रूप बना लिया। साध्वियों ने अनुयोग कहा गया। एक मान्यता है कि दुष्काल में सिंह को देखा। वे डरकर लौट आई और आचार्य से श्रुत नष्ट नहीं हुआ था। जो विशिष्ट अनुयोगधर साधु बोलीं-'स्थूलभद्र को सिंह खा गया।' भद्रबाहु बोले -- थे, वे कालकवलित हो गये। एकमात्र स्कन्दिलाचार्य 'वह सिंह नहीं है, स्थूलभद्र है।' ही अनुयोगधर बचे। उन्होंने मथुरा में साधुओं के लिए दूसरे दिन वाचना के समय स्थूलभद्र भद्रबाहु के पुनः अनुयोग का प्रवर्तन किया और इसलिए इसे सामने उपस्थित हुए। भद्रबाहु ने वाचना नहीं दी। माथुरी वाचना कहा गया तथा यह स्कन्दिलाचार्य का स्थूलभद्र ने सोचा, क्या कारण है जिससे मुझे वाचना के अनुयोग कहलाया। योग्य नहीं माना। उन्होंने इस पर ध्यान केन्द्रित किया (जैन परंपरा में चार आगम-वाचनाएं विश्रुत हैंऔर जाना - इसका कारण कल की घटना है। वे १. आचार्य भद्रबाहु की पाटलीपुत्रीय वाचना.. बोले- 'मैं भविष्य में ऐसा नहीं करूंगा।' भद्रबाह वीर निर्वाण दूसरी शताब्दी (आवश्यक चूर्णि) बोले . 'तुम नहीं करोगे, पर दूसरे कर लेंगे।' बहुत २. आचार्य स्कन्दिल की माथुरी वाचना- वीर प्रार्थना करने पर बड़ी कठिनाई से वाचना देना स्वीकार निर्वाण नौवीं शताब्दी (नंदी चणि) किया। उन्होंने स्थूलभद्र से कहा -- 'अवशिष्ट चार पूर्व ३. आचार्य नागार्जुन की बल्लभी वाचना - वीर तुम पढ़ो, पर दूसरों को उनकी वाचना नहीं दोगे।' निर्वाण नौंवी शताब्दी (भद्रेश्वरसूरी कृत स्थूलभद्र के बाद अंतिम चार पूर्व विच्छिन्न हो कहावली) गए। दसवें पूर्व की अंतिम दो वस्तुएं भी विच्छिन्न हो ४. आचार्य देवद्धिगणी क्षमाश्रमण की वल्लभी गईं । दस पूर्व की परम्परा उनके बाद भी चली। वाचना-वीर निर्माण दसवीं शताब्दी (समयआचार्य स्कन्दिल : माथरी वाचना सुंदरगणीकृत सामाचारी शतक)। वर्तमान में बारससंवच्छरिए महंते दुब्भिक्खकाले भत्ता . जो आगम उपलब्ध हैं, वे प्रायः देवद्धिगणी अण्णण्णतो फिडिताणं गहण-गुणणा-ऽणुप्पेहाभावातो सुते क्षमाश्रमण की वाचना के हैं।) विप्पणठे। पुणो सुभिक्खकाले जाते मधुराए महंते साहु आचार-शास्त्रविहित आचरण, मोक्ष के लिए समुदए खंदिलायरियप्पमुहसंघेण 'जो जं संभरति' त्ति किया जाने वाला अनुष्ठान । एवं संघडितं कालियसुतं । जम्हा य एतं मधुराए कतं तम्हा माधुरा बायणा भण्णति । सा य खंदिलायरिय १. आचार की परिभाषा सम्मय त्ति कातुं तस्संतियो अणुओगो भण्णति । अण्णे २. आचार के प्रकार भणंति जहा-सुतं ण णट्ठ, तम्मि दुब्भिक्खकाले जे ___* दर्शन के आचार (द्र. सम्यक्त्व) अण्णे पहाणा अणुओगधरा ते विणट्ठा, एगे खंदिलायरिए ३. ज्ञान के आचार संधरे, तेण मधुराए अणयोगो पूणो साधणं पवत्तितो ४. चारित्र के आचार त्ति माधुरा वायणा भण्णति, तस्संतितो य अणियोगो ५. तप के आचार भण्णति । (नन्दीच पृ ९) ६. वीर्य के आचार बारह वर्ष तक दुष्काल रहा । साधु आहार के लिए ७. श्रमण-आचार के स्थान दूर-दूर क्षेत्रों में जाते। समयाभाव के कारण वे सूत्र * छह व्रत और अर्थ का ग्रहण, परिवर्तन एवं अनुप्रेक्षण नहीं कर (द्र. महावत) पाते थे, इसलिए सूत्र विनष्ट/विस्मृत हो गये। दुष्काल * छह काय-संयम (द्र. अहिंसा) • अकल्प-वर्जन सम्पन्नता के बाद विशाल साधुसमुदाय मथुरा में एकत्रित हुआ । आचार्य स्कन्दिल की अध्यक्षता में आगमवाचना ० गृहस्थ-पात्र-वर्जन हुई। जिसको जो याद था, वह संकलित किया गया। ० पर्यक-वर्जन यह मथुरा में होने कारण माथुरी वाचना कहलाई। । ० गृहनिषद्या-वर्जन Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर्य आचार ० स्नान वर्जन ० विभूषा वर्जन ८. अकल्प आदि के वर्जन का प्रयोजन ९. आचार-समाधि के प्रकार १०. आचार-सम्पन्नता के परिणाम ११. आचार - अतिक्रमण के चार स्थान • अतिक्रम ● व्यतिक्रम ० अतिचार * अनाचार १२. अतिचार क्या ? १३. अतिचार का हेतु १४. ज्ञान के अतिचार • दर्शन के अतिचार भावक का आचार * श्रमण का आचार आचारपालन में प्रमत्त: पापश्रमण १. आचार की परिभाषा शिष्टाचरितो ज्ञानाद्यासेवनविधिः । ( नन्दीहाव पृ७५ ) आचारो वेषधारणादिको बाह्य क्रियाकलापः । ( उशावृप ४९९ ) (प्र. अनाचार ) आचार के पांच प्रकार हैं १. दर्शन आचार आचार का अर्थ है शिष्ट व्यक्तियों द्वारा आचीर्ण ज्ञान दर्शन आदि के आचरण – अभ्यास की विधि । आचार का अर्थ है - वेश धारण आदि बाह्य क्रिया कलाप । २. ज्ञान आचार ३. चारित्र आचार (प्र. सम्यक्त्व ) (द्र धावक ) (प्र. भ्रमण) (द्र. श्रमण ) २. आचार के प्रकार दंसण नाण चरिते तवबायारे य वीरियायारे । एसो भावायारो पंचविहो होइ नायव्वो ॥ (दनि ६६) ८५ ४. तप आचार ५. वीर्य आचार । ३. ज्ञान के आचार काले विषये बहुमाणे उवहाणे तहा अनिण्हवणे । वंजण अत्थ तदुभए अट्टविहो नाणमायारो ॥ ( दनि ८० ) ज्ञानाचार के आठ प्रकार काल श्रुत का अध्ययन करने के लिए निर्दिष्टकाल में श्रुत का अभ्यास करना । विनय - ज्ञानप्राप्ति के प्रयत्न में विनम्र रहना । बहुमान ज्ञान के प्रति आन्तरिक अनुराग रखना । उपधान - श्रुतवाचन के समय आयम्बिल आदि विशेष तप का अनुष्ठान करना । अनिवन ज्ञान और ज्ञानदाता आचार्य का गोपन न करना । आचार सूत्र - सूत्र का वाचन करना । अर्थ - अर्थ का वाचन करना । सूत्रार्थ सूत्र और अर्थ दोनों का वाचन करना । ४. चारित्र के आचार ―1 पणिहाणजोगजुत्ता पंचहि समितीहि तिहि य गुत्तीहि । एस चरितायारो अटुविहो होइ णायव्वो । (दनि ८९) चारित्राचार के आठ प्रकार पांच समिति और तीन गुप्ति । ( द्र समिति, गुप्ति ) ५. तप आचार वारसविहम्मि वि तवे सम्भितर बाहिरे कुसल दिट्ठे । अगिलाए अणाजीवी णायव्वो सो तवायारो ॥ ( दनि ९० ) पूजा-प्रतिष्ठा की आकांक्षा से विहीन, अदीनभाव से बारह प्रकार के बाह्य और आभ्यंतर तप का आचरण करना तप आचार है । ( द्र. तप ) ६. वीर्य आचार अणिगूहितबल विरिओ परक्कमति जो जहुत्तमाउस्तो । जुंज य जहाथामं णावब्बो वीरियायारो ॥ (दनि ९१ ) अपनी शक्ति का गोपन न करते हुए ज्ञान-दर्शनचारित्र-तप की आराधना में पराक्रम करना वीर्याचार है । उसके छत्तीस प्रकार हैं ज्ञान के आठ आचार Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार पर्यक-वर्जन दर्शन के आठ आचार चूला २) का अध्ययन न किया हो, उसके द्वारा याचित चारित्र के आठ आचार वसति और जिसने 'वस्त्रषणा' (आयारचूला ५) का तप के बारह आचार अध्ययन न किया हो, उसके द्वारा आनीत वस्त्र, ऋतु बद्ध काल में अयोग्य व्यक्ति को प्रवजित करना तथा ७. श्रमण-आचार के स्थान वर्षाकाल में किसी को भी प्रव्रजित करना- यह 'शैक्ष वयछक्कं कायछक्कं, अकप्पो गिहिभायणं । स्थापना अकल्प' कहलाता है। पलियंक निसेज्जा य, सिणाणं सोहवज्जणं ॥ गृहस्थपात्र-वर्जन (द ६७) कंसेसु कंसपाएसु, कुंडमोएसु वा पुणो । श्रमण-आचार के अठारह स्थान--- भुंजतो असणपाणाई, आयारा परिभस्सइ ।। १. अहिंसा १०. वायुकाय-संयम (द ६१५०) २. सत्य ११. वनस्पतिकाय-संयम जो गहस्थ के कांसे के प्याले, कांसे के पात्र और ३. अचौर्य १२. त्रसकाय-संयम कुण्डमोद (कुंडे के आकार का कांस्य भाजन) में अशन, ४. ब्रह्मचर्य १३. अकल्प वर्जन पान आदि खाता है, वह श्रमण के आचार से भ्रष्ट होता ५. अपरिग्रह १४. गृहि-भाजन-वर्जन है। ६. रात्रि-भोजन त्याग १५. पर्यक-वर्जन सीओदगसमारंभे, मत्तधोयणछड्डणे । ७. पृथ्वीकाय-संयम १६. गहान्तर निषद्या-वर्जन जाई छन्नंति भूयाई, दिट्ठो तत्थ असंजमो ॥ ८. अपकाय-संयम १७. स्नान-वर्जन ..."पच्छाकम्म पूरेकम्म, सिया तत्थ न कप्पई ।। ९. तेजस्काय-संयम १८. विभूषा-वर्जन (द ६१५१,५२) अकल्प-वर्जन बर्तनों को सचित्त जल से धोने में और बर्तनों के धोए हुए पानी को डालने में प्राणियों की हिंसा होती पढमं उत्तरगुणो अकप्पो। सो दुविधो, तं जहा है। तीर्थंकरों ने वहां असंयम देखा है। सेहट्ठवणाकप्पो अकप्पट्टवणावप्पो य। गृहस्थ के बर्तन में भोजन करने में 'पश्चात् कर्म' (दजिचू पृ० २२६) और 'पुरःकर्म' की संभावना है। वह निर्ग्रन्थ के लिए अकल्प-वर्जन प्रथम उत्तरगुण है। अकल्प के दो कल्प्य नहीं है। भेद हैं शैक्षस्थापना अकल्प, अकल्पस्थापना अकल्प । पर्यक-वर्जन पिंड सेज्जं च वत्थं च, चउत्थं पायमेव य । आसंदीपलियंकेसु, मंचमासालएसु वा। अकप्पियं न इच्छेज्जा, पडिगाहेज्ज कप्पियं ॥ अणायरियमज्जाणं, आसइत्तु सइत्तु वा ॥ (द ६१४७) गंभीरविजया एए, पाणा दुप्पडिलेहगा। मुनि अकल्पनीय पिण्ड, शय्या-वसति, वस्त्र और आसंदीपलियंका य, एयमठ्ठ विवज्जिया ।। पात्र को ग्रहण करने की इच्छा न करे किन्तु कल्पनीय (द ६।५३,५५) ग्रहण करे । (यह अकल्पस्थापना अकल्प है।) आर्यों के लिए आसंदी, पलंग, मंच और आसालक सेहटवणाकप्पो नाम जेण पिण्डणिज्जुत्ती ण सुता (अवष्टंभ सहित आसन पर बैठना या सोना अनाचीर्ण तेसु आणियं न कप्पइ भोत्तुं । जेण सेज्जाओ ण सुयाओ तेण वसही उग्गमिता ण कप्पई। जेण वत्थेसणा ण सुया आसंदी आदि गंभीर छिद्र वाले होते हैं। इनमें तेण वत्थं । उडुबद्ध अणला ण पव्वाविज्जति, वासासु प्राणियों का प्रतिलेखन करना कठिन होता है। इसलिए सव्वेऽवि। (दजिचू पृ २२६) आसंदी, पलंग आदि पर बैठना या सोना वजित किया जिसने पिण्डनियुक्ति का अध्ययन न किया हो, है। उसके द्वारा लाया हुआ भक्तपान, जिसने शय्या (आयार Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार समाधि के प्रकार आचार गृहनिषद्या-वर्जन शोभा-वर्जन विवत्ती बंभचेरस्स, पाणाणं अवहे वहो । सिणाणं अदुवा कक्कं, लोद्धं परमगाणि य । वणीमगपडिग्घाओ, पडिकोहो अगारिणं॥ गायस्सुव्वट्टणट्ठाए, नायरंति कयाइ वि ।। अगुत्ती बंभचेरस्स, इत्थीओ यावि संकणं । (द ६।६३) कुसीलवड्ढणं ठाणं, दूरओ परिवज्जए ।। मुनि शरीर की शोभा बढ़ाने के लिए गन्धचूर्ण, (द ६।५७,५८) कल्क, लोध्र, पद्मकेसर आदि का उबटन न करे । गहस्थ के घर में बैठने से ब्रह्मचर्य -आचार का नगिणस्स वा वि मुंडस्स, दीहरोमनहंसिंणो । विनाश, प्राणियों का अवधकाल में वध, भिक्षाचरों के मेहणा उवसंतस्स, किं विभूसाए कारियं ॥ अन्तराय और घर वालों को क्रोध उत्पन्न होता है। विभूसावत्तियं भिक्खू, कम्मं बंधइ चिक्कणं । ब्रह्मचर्य असुरक्षित होता है तथा स्त्री के प्रति भी शंका संसारसायरे घोरे, जेणं पडइ दुरुत्तरे ।। होती है। यह (गृहान्तर निषद्या) कुशीलवर्धक स्थान है विभूसावत्तियं चेयं, बुद्धा मन्नंति तारिसं । इसलिए मुनि इसका दूर से वर्जन करे। सावज्जबहलं चेयं, नेयं ताईहिं सेवियं ।। (द ६।६४-६६) गृहनिषद्या का अपवाद नग्न, मुण्ड, दीर्घ रोम और नख वाले तथा मैथुन तिण्हमन्नयरागस्स, निसेज्जा जस्स कप्पई। से निवृत्त मुनि को विभूषा से क्या प्रयोजन है ? जराए अभिभूयस्स, वाहियस्स तवस्सिणो।। विभूषा के द्वारा भिक्षु चिकने कर्म का बन्धन (द ६।५९) करता है। उससे वह दुस्तर संसार-सागर में गिरता है । जराग्रस्त, रोगी, तपस्वी-इन तीनों में से कोई भी विभषा में प्रवत्त मन को तीर्थडर विभषा के तल्य साधु गृहस्थ के घर में बैठ सकता है। ही चिकने कर्म के बन्धन का हेतु मानते हैं। यह एगतेण निसेहो जोगेसु न देसिओ विही वावि । प्रचर पापयुक्त है। यह छहकाय के त्राता मनियों द्वारा दलिअं पप्प निसेहो होज्ज विही वा जहा रोगे ।। आसेवित नहीं है। (ओनि ५५) ८. अकल्प आदि के वर्जन का प्रयोजन गमनागमन आदि योगरूप व्यापार का एकान्त रूप से विधि और निषेध नहीं है। रोग में पथ्य-अपथ्य की जहा पंचमहत्वयाणं रक्खणनिमित्तं पत्तेयं पंच पंच भावणाओ तह अकप्पादीणि छद्राणाणि वयकायाणं तरह प्रयोजन के अनुसार ही विधि और निषेध है। रक्खणत्थं भणियाणि । जहा वा गिहस्स कुडुकवाडस्नान-वर्जन जत्तस्सवि पदीवजागरमाणादि रक्खणाविसेसा भवन्ति वाहिओ वा अरोगी वा, सिणाणं जो उ पत्थए। तह पंचमहन्वयजुत्तस्सवि साहुणो तेसिमणुपालणत्थं इमे वोक्कतो होइ आयारो, जढो हवइ संजमो ॥ उत्तरगुणा भवन्ति। (दजिचू पृ २२६) (द ६६०) जैसे पांच महाव्रतों की रक्षा के लिए पच्चीस साधु रोगी हो या नीरोग, जो स्नान करने की (प्रत्येक महाव्रत की पांच) भावनाएं होती हैं, वैसे ही अभिलाषा करता है, उसके आचार का उल्लंघन होता व्रत और छह काय की रक्षा के लिए ये छह स्थान है । वह संयम से च्युत हो जाता है। वर्जनीय हैं.... अकल्पग्रहण, गह-पात्र, पर्यंक, निषद्या, स्नान संतिमे सुहुमा पाणा, घसासु भिलुगासु य । और विभूषा। जिस प्रकार भींत और किवाड़ युक्त गह जे उ भिक्खू सिणायंतो, वियडेण प्पिलावए ।। के लिए भी दीपक और जागरण---ये दो रक्षा के हेतु (E ) होते हैं, वैसे ही पंचमहाव्रत युक्त साध के लिए भी पोली भूमि और दरारयुक्त भूमि में सूक्ष्म प्राणी उत्तरगुण महाव्रतों के अनुपालन के हेतु होते हैं । होते हैं । अप्रासुक जल से स्नान करने वाला भिक्षु उन्हें ६. आचार समाधि के प्रकार जल से प्लावित करता है। चउविवहा खल आयारसमाही भवइ, तं जहा Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार नो हलो गाए आया रमहिट्ठेज्जा । नो पर लोगट्टयाए आयारम हिट्ठेज्जा । नो कित्तवण्णसद्द सिलोगट्टयाए आयार महिट्ठेज्जा । नत्थरहंतेहि ऊहिं आयारमहिट्ठेज्जा | (द ९/४/७ ) आचार-समाधि के चार प्रकारइहलोक के निमित्त आचार का पालन नहीं करना चाहिए । परलोक के निमित्त आचार का पालन नहीं करना चाहिए । कीर्ति, वर्ण, शब्द और श्लोक के निमित्त आचार का पालन नहीं करना चाहिए । आर्हत हेतु के अतिरिक्त अन्य किसी भी उद्देश्य से आचार का पालन नहीं करना चाहिए । १०. आचार-सम्पन्नता के परिणाम जिणaarरए अतितिणे, पडिपुण्णाययमाययट्ठिए । आयारसमाहिसंवुडे, भवइ य दंते भावसंधए । (द ९/४/५ ) जो जिनवचन में रत होता है, जो प्रलाप नहीं करता, जो सूत्रार्थ से परिपूर्ण होता है, जो अत्यन्त मोक्षार्थी होता है, वह आचारसमाधि के द्वारा संवृत होकर इन्द्रिय और मन का दमन करने वाला तथा मोक्ष को निकट करने वाला होता है । ११. आचार - अतिक्रमण के स्थान - आहाकम्मनिमंत्रण पडिसुणमाणे अइक्कमो होइ । पयभेयाइ वइक्कम गहिए तइएयरो गिलिए ॥ (पिनि १८२ ) साधु के योग्य आचार का अतिक्रमण करना अतिक्रम है। जैसे--- साधु के लिए आधाकर्म आहार का ग्रहण निषिद्ध है । उस आहार का निमन्त्रण स्वीकार करना अतिक्रम, उसको लाने के लिए प्रस्थान करना व्यतिक्रम, उसे ग्रहण करना अतिचार तथा उसका परिभोग करना अनाचार है । १२. अतिचार क्या ? सयणासणणपाणे, चेइयजइसेज्जकाय उच्चारे । समितीभावणगुत्ती, वितहायरणम्मि अइयारो ॥ ( आवनि १४९८ ) आचारांग शयन, आसन, अन्न, पानी, चैत्य, यति, शय्या, उच्चार- प्रस्रवण, समिति, भावना और गुप्ति इन विषयों में विपरीत आचरण करना अतिचार है । ८८ १३. अतिचार का हेतु सव्वे चिय अइयारा संजलणाणं तु उदयओ होंति । मूलछेज्जं पुण होइ बारसहं कसायाणं ॥ ( विभा १२४९ ) सब अतिचार संज्वलन कषाय के उदय से होते हैं । मूल (संयमघाती ) अतिचार अनन्तानुबन्धी चतुष्क, अप्रत्याख्यान चतुष्क और प्रत्याख्यान चतुष्क के उदय से होते हैं । १४. ज्ञान के अतिचार .....वाइद्ध वच्चामेलियं, हीणक्खरं, अच्चक्खरं यहीणं, विणयहीणं, घोसहीणं, जोगहीणं, सुट्ठदिन्नं दुट्टुपडिच्छियं, अकाले कओ सज्झाओ, काले न कओ सज्झाओ, असज्झाइए सज्झाइयं, सज्झाइए न सम्झाइयं । ( आव ४1८ ) ज्ञान के चौदह अतिचार हैं १. व्याविद्ध - आगम पाठ को आगे-पीछे करना । २. व्यत्याम्रेडित-मूल पाठ में अन्यपाठ का मिश्रण ... करना । ३. हीनाक्षर-अक्षरों को न्यून कर उच्चारण करना । ४. अत्यक्षर-अक्षरों को अधिक कर उच्चारण करना । ५ पदहीन - पदों को कम कर उच्चारण करना । ६. विनयहीन - विराम - रहित उच्चारण करना । ७. घोषहीन - उदात्त आदि घोष रहित उच्चारण करना । ८. . योगहीन सम्बन्ध रहित उच्चारण करना । ९. सुष्ठुदत्त -- योग्यता से अधिक ज्ञान देना । १०. दुष्ठु प्रतीच्छित- - ज्ञान को सम्यग् भाव से ग्रहण न करना । ११. अकाल में स्वाध्याय करना । १२. स्वाध्याय काल में स्वाध्याय न करना । १३. अस्वाध्याय की स्थिति में स्वाध्याय करना । १४. स्वाध्याय की स्थिति में स्वाध्याय न करना । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य के प्रकार आचारांग - प्रथम अंग । आचार्य - जो स्वयं आचार का और दूसरों से आचार करवाते हैं । ० जो शिष्यों को सूत्र और अर्थ की वाचना देते हैं । O • जो तीर्थंकर के प्रतिनिधि होते हैं । जो नमस्कार महामंत्र में तीसरे पद के वाचक हैं | १. आचार्य परिभाषा ० प्रकार २. आचार्य के उपमान ३. आचार्य का दायित्व ४. आचार्य का वैयावृत्त्य ५. आचार्य के प्रायोग्य आहार ६. आचार्य की आराधना ७. आचार्य की आशातना के परिणाम ८. आचार्य - उपाध्याय ९. वाचनाचार्य : वाचक वंश (द्र. अंगप्रविष्ट) पालन करते हैं का पालन * आचार्य के पास बैठने की विधि * आचार्य के साथ बातचीत की विधि * आचार्य के प्रति शिष्य के कर्तव्य * आचार्य का अनुशासन : शिष्य की दृष्टि (द्र. शिष्य ) * आचार्य और विनय ( ब्र. विनय ) १. आचार्य की परिभाषा * आचार्य की शुश्रूषा से श्रुत-प्राप्ति * आचार्य - उपाध्याय नमस्कार की निष्पत्ति * आचार्य : अंगबाह्य के रचयिता * आचार्य-परंपरा (द्र. शिष्य) ( द्र. शिष्य ) ( द्र. शिष्य ) जो पांच आचार- ज्ञान, दर्शन, वीर्य का अनुपालन करते हैं, अनुरूप (ब्र. शिक्षा ) ( द्र. नमस्कार ) (द्र. अंगबाह्य ) ( द्र. स्थविरावलि ) पंचविहं आयारं आयरमाणा तहा पभासंता । आयारं दंसंता आयरिया तेण वुच्चति ॥ ( आवनि ९९४ ) चारित्र, तप और अर्थ की व्याख्या ८० आचार्य करते हैं और दूसरों को आचार की क्रियाओं का सक्रिय प्रशिक्षण देते हैं, वे आचार्य हैं । सुत्तत्थतदुभयादिगुणसम्पन्नो अप्पणो गुरुहि गुरुपदे त्थावितो आयरिओ । (दअचू पृ २१९) जो वा अन्नोऽवि सुत्तत्थतदुभयगुणेहि अ उववेओ गुरुपए ण ठाविओ सोऽवि आयरिओ चेव । ( दजिचू पृ ३१८ ) आचार्यं सूत्रार्थप्रदं तत्स्थानीयं वान्यं ज्येष्ठार्यम् । ( दहावृ प २५२ ) ० जो सूत्र, अर्थ और तदुभय का ज्ञाता है तथा अपने गुरु द्वारा गुरुपद पर स्थापित है, वह आचार्य कहलाता है । ० जो सूत्र और अर्थ का ज्ञाता है किन्तु गुरुपद पर स्थापित नहीं है, वह भी आचार्य कहलाता है । सूत्रार्थदाता अथवा गुरुस्थानीय ज्येष्ठ आर्य आचार्य कहलाता है । आचार्य के प्रकार आयरियो पंचविहो, तं जहा पव्वावणायरियो, दिसारियो, सुयस्स उद्दिसणायरियो, सुयस्स समुद्दिसणायरिओ, सुयस्स वायणायरिओ । ( अचू पृ १५ ) आचार्य के पांच प्रकार हैं प्रवाजनाचार्य - दिशाचार्य - व्युत्पन्न शिष्य को यात्रा का निर्देश देने --- प्रव्रज्या देने वाले । वाले । o उद्देशनाचार्य -- सूत्र - पठन का निर्देश देने वाले । समुद्देशनाचार्य - सूत्र - स्थिरीकरण का निर्देश देने वाले । वाचनाचार्य - वाचना देने वाले - पढाने वाले । पंचविहे आयरिए पन्नत्ते, तं जहा- धम्मायरिए पव्वावणायरिए उवट्टावणायरिए वायणायरिए वक्खाणायरिए । ( विभाकोवृ पृ ५ ) आचार्य के पांच प्रकार हैंधर्माचार्य - धर्म का उपदेश देने वाले । प्रव्राजनाचार्य -- प्रव्रज्या देने वाले । उपस्थापनाचार्य - उपस्थापित करने वाले । वाचनाचार्य - वाचना देने वाले । व्याख्याचार्य - अनुयोग करने वाले । Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य आचार्य के प्रायोग्य आहार २. भाचार्य के उपमान ४. आचार्य का वैयावृत्त्य जहा निसंते तवणच्चिमाली पभासई केवलभारहं तु । जहाहियग्गी जलणं नमसे नाणाहुईमंतपयाभिसित्तं । एवायरिओ सूयसीलबुद्धिए विरायई सुरमझे व इंदो॥ एवायरियं उवचिएज्जा अणंतनाणोवगओ वि संतो।। (द ९।१।१४) (द ९।१।११) जैसे दिन में प्रदीप्त होता हुआ सूर्य सम्पूर्ण भारत जैसे आहिताग्नि ब्राह्मण विविध आहुति और मन्त्र (भरतक्षेत्र) को प्रकाशित करता है, वैसे ही श्रुत, शील पदों से अभिषिक्त अग्नि को नमस्कार करता है. वैसे दी और बुद्धि से सम्पन्न आचार्य विश्व को प्रकाशित करते। शिष्य अनन्तज्ञान संपन्न होते हए भी आचार्य की विनयहैं और जिस प्रकार देवताओं के बीच इन्द्र शोभित होता पूर्वक सेवा करे। है है, उसी प्रकार साधुओं के बीच आचार्य सुशोभित होते आयरियं अग्गिमिवाहियग्गी, सुस्सूसमाणो पडिजागरेज्जा। आलोइयं इंगियमेव नच्चा, जो छंदमाराहयइ स पुज्जो ॥ जहा ससी कोमुइजोगजुत्तो नक्खत्ततारागणपरिवुडप्पा । __ (द ९।३।१) खे सोहई विमले अब्भमूक्के एवं गणी सोहइ भिक्खुमज्झे ।। जैसे आहिताग्नि अग्नि की शुश्रूषा करता हुआ (द ९।१२१५) जागरूक रहता है, वैसे ही जो आचार्य की शुश्रूषा करता जिस प्रकार बादलों से मुक्त विमल आकाश में नक्षत्र हुआ जागरूक रहता है, जो आचार्य के आलोकित और और तारागण से परिवत कार्तिक पूर्णिमा का चन्द्रमा इङ्गित को जानकर उनके अभिप्राय की आराधना करता शोभित होता है, उसी प्रकार भिक्षओं के बीच आचार्य है, वह पूज्य है। शोभित होते हैं। ५. आचार्य के प्रायोग्य आहार आचार्य : दीप का दृष्टांत सुत्तत्थथिरीकरणं विणओ गुरुपूयसेहबहुमाणो। जह दीवा दीवसयं, पइप्पए सो य दिप्पए दीवो। दाणवतिसद्धव ड्ढी बुद्धिबलवद्धणं चेव ।। दीवसमा आयरिया, दिप्पंति परं च दीवेंति ।। एएहिं कारणेहि उ केइ सहुस्सवि वयंति अणुकंपा। (अनु ६४३।१) एक दीप सैकड़ों दीपों को प्रदीप्त करता है और गुरुअणुकंपाए पुण गच्छे तित्थे य अणुकंपा ।। स्वयं भी प्रदीप्त रहता है। आचार्य भी अपने ज्ञान के (ओनि ६०९, ६१०) आचार्य के प्रायोग्य आहार की गवेषणा के लाभ --- आलोक से दूसरों को आलोकित करते हैं और स्वयं भी १. मनोज्ञ आहार से सूत्र-अर्थ का स्थिरीकरण सुखआलोकित रहते हैं। पूर्वक होता है। ३. आचार्य का दायित्व २. विनय सामाचारी का पालन होता है। जे माणिया सययं माणयंति जत्तेण कन्नं व निवेसयंति। ३. गुरुपजा सहज संपादित होती है। ते माणए माणरिहे तवस्सी जिइंदिए सच्चरए स पुज्जो ॥ ४. शैक्ष के मन में आचार्य के प्रति बहमान के भाव (द ९।३।१३) उत्पन्न होते हैं। अभ्युत्थान आदि के द्वारा सम्मानित किए जाने पर ५. दाता के मन में श्रद्धाभाव की वृद्धि होती है । जो शिष्यों को सतत सम्मानित करते हैं - श्रुतग्रहण के ६. आचार्य का शारीरिक बल और बुद्धि-बल बढ़ता लिए प्रेरित करते हैं, पिता जैसे अपनी कन्या को यत्न क योग्य कुल में स्थापित करता है, वैसे ही जो ७. शिष्यों के महान् निर्जरा होती है । आचार्य अपने शिष्यों को योग्य मार्ग में स्थापित करते हैं, --इन कारणों से जो शिष्य गुरु के प्रायोग्य आहार उन माननीय, तपस्वी, जितेन्द्रिय और सत्यरत आचार्य की गवेषणा करता है, वह गच्छ और तीर्थ की का जो सम्मान करता है, वह पूज्य है। अनुकंपा-- सेवा करता है। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य-उपाध्याय आचार्य आयरिय गिलाणाण य मइला मइला पुणोऽवि धावंति। भस्म कर डालते हैं जिस प्रकार अग्नि ईधनराशि को। मा ह गुरूण अवण्णो लोगंमि अजीरणं इयरे । 'यह सर्प छोटा है'-ऐसा जानकर जो उसकी (पिनि २७) आशातना (कदर्थना) करता है, वह प्रवृत्ति उसके अहित आचार्य और रुग्ण मुनि के वस्त्रों का बार-बार के लिए होती है। इसी प्रकार अल्पवयस्क आचार्य की प्रक्षालन विहित है। क्योंकि आचार्य के मलिन वस्त्र भी अवहेलना करने वाला ढीठ मुनि संसार में परिभ्रमण लोगों में जुगुप्सा पैदा करते हैं, इससे संघ की अवहेलना करता है। होती है । रुग्ण साधु यदि मलिन वस्त्र पहनता है तो __ आशीविष सर्प अत्यन्त क्रुद्ध होने पर भी 'जीवनउसके अजीर्ण आदि रोगों की संभावना रहती है। नाश' से अधिक क्या कर सकता है ? परन्तु आचार्यपाद ६. आचार्य की आराधना के अप्रसन्न होने पर बोधि-लाभ नहीं होता। उनकी जो जेण पगारेणं तुस्सइ करण-विणया-ऽणवत्तीहिं। आशातना से मोक्ष नहीं मिलता। आराहणाए मग्गो सो च्चिय अव्वाहओ तस्स ।। सिया हु से पावय नो डहेज्जा (विभा ९३२) आसीविसो वा कुविओ न भक्खे । आचार्य की आराधना के उपाय ---- सिया विसं हालहलं न मारे • गुरु द्वारा आदिष्ट कार्य का सम्पादन करना । न यावि मोक्खो गुरुहीलणाए । ० विनय ---आसन प्रदान करना, पर्युपासना करना। (द ९।१।७) • इंगित का अनुवर्तन करना। संभव है कदाचित् अग्नि न जलाए, संभव है ० जिस उपाय से गुरु प्रसन्न हों, उसी का आचरण आपीविल सर्वपित बोने पर भी न काटे और यह करना। भी संभव है कि हलाहल विष भी न मारे, परन्तु गुरु ७. आचार्य को आशातना के परिणाम की अवहेलना से मोक्ष संभव नहीं है। जे यावि मंदि त्ति गुरुं विइत्ता डहरे इमे अप्पसुए त्ति नच्चा। सिया हु सीसेण गिरि पि भिदे हीलंति मिच्छं पडिवज्जमाणा करेंति आसायण ते गुरूणं ॥ सिया हु सीहो कुविओ न भक्खे । पगईए मंदा वि भवंति एगे डहरा वि य जे सुयबुद्धोववेया। सिया न भिदेज्ज व सत्तिअग्गं आयारमंता गुणसुट्टिअप्पा जे हीलिया सिहिरिव भास कुज्जा।। न यावि मोक्खो गुरुहीलणाए । जे यावि नागं डहरं ति नच्चा आसायए से अहियाय होइ। (द ९।१।९) एवायरियं पि हु हीलयंतो नियच्छई जाइपहं ख मंदे ।। संभव है शिर से पर्वत को भी भेद डाले, संभव है आसीविसो यावि परं सुरुट्टो किं जीवनासाओ परं नु कुज्जा। सिंह कुपित होने पर भी न खाए और यह भी संभव है आयरियपाया पुण अप्पसन्ना कि भाले की नोक भेदन न करे, पर गुरु की अवहेलना अबोहि आसायण नत्थि मोक्खो।। से मोक्ष संभव नहीं है। (द ९।११२-५) ८. आचार्य-उपाध्याय जो मुनि गुरु को 'ये मंद (अल्पप्रज्ञ) हैं' 'ये अल्पवयस्क और अल्पश्रुत हैं,'-ऐसा जानकर उनके उपदेश आयारदेसणाओ आयरिया विणयणादुवज्झाया। को मिथ्या मानते हए उनकी अवहेलना करते हैं, वे गुरु अत्थपदायगा वा गुरवो सुत्तस्सुवज्झाया ।। की आशातना करते हैं। (विभा ३२००) कई आचार्य वयोवृद्ध होते हुए भी स्वभाव से ही आचार्य आचार की देशना देते हैं। उपाध्याय मन्द (अल्पप्रज्ञ) होते हैं और कई अल्पवयस्क होते हुए शिक्षा का कार्य करते हैं। भी श्रुत और बुद्धि से सम्पन्न होते हैं । आचारवान और . अथवा आचार्य अर्थपदों की वाचना देते हैं। उपागुणों में सुस्थितात्मा आचार्य, भले फिर वे मन्द हों या ध्याय सूत्रपदों की वाचना देते हैं। प्राज्ञ, अवज्ञा प्राप्त होने पर गुणराशि को उसी प्रकार नावश्यमाचार्योपाध्यायभिन्नः भवितव्यम्। अपितु Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य आजीवक क्वचिदसावेव सूत्रं शिष्येभ्यः प्रयच्छत्यसावेव चार्थम् । पर-हित के उपाय का चिन्तन करते हैं, वे उपाध्याय हैं। (ओनिव प ३) ६. वाचनाचाय: वाचकवंश यह आवश्यक नहीं है कि आचार्य और उपाध्याय वायणायरिओ नाम जो उवज्झायसंदिट्रो उद्देसादि भिन्न-भिन्न व्यक्ति हों। कदाचिद् जो सुत्र की वाचना देते बना (आवचू २ पृ २१७) हैं, वे ही अर्थ की वाचना दे देते हैं। जो उपाध्याय द्वारा संदिष्ट उद्देश-समद्देश-अनुज्ञाधम्मोवदेस दिक्खा वओअदेस दिस वायगा गुरवो। अनुयोग का संपादन करता है-सूत्र और अर्थ की एत्थेव उवज्झाओ गहिओ सुयवायणायरिओ॥ वाचना देता है, वह वाचनाचार्य है। (विभा १८१८ कोव १३९३) वायगवंसो णाम जेहिं परंपरएणं सामाइयादि अत्थो जो धर्म का उपदेश देते हैं, शिष्यों को दीक्षित गंथो य वादितो। (आवचू १ पृ८६) करते हैं, उन्हें उपस्थापित करते हैं, वाचना देते हैं, जो परम्परा से आचारांग आदि आगमों के सत्र यात्रा का निर्देश देते हैं, वे आचार्य हैं। श्रुतवाचनाचार्य और अर्थ की वाचना देता है, वह वाचक वंश है। को उपाध्याय कहा गया है। वाचका उपाध्यायास्तेषां वंशः (वाचकवंशः) । बारसंगो जिणक्खाओ सज्झाओ कहिओ बुहेहिं । (विभामवृ पृ ४१८) तं उवइसंति जम्हा उवझाया तेण वच्चंति ।। वाचक का अर्थ है ... उपाध्याय । उपाध्याय की (आवनि ९९७) परंपरा को वाचक वंश कहा जाता है। . अहंत-प्रणीत द्वादशांगी का जो स्वयं स्वाध्याय वायेति सिस्साणं कालिय-पूव्वसुतं ति वातगाकरते हैं और शिष्यों को वाचना देते हैं, वे. उपाध्याय आचार्या इत्यर्थः। गुरुसण्णिहाणे वा सिस्सभावेण वाइतं सुतं जेहिं ते वायगा। वंसो त्ति पुरिसपव्वपरंपरेण ठितो। अविदिण्णदिसो गणहरपदजोग्गो उवज्झातो। (नन्दीचू पृ९) (दअचू पृ १५) १. जो शिष्यों को कालिक श्रुत और पूर्वश्रत की वाचना जो आचार्य पद पर प्रतिष्ठित नहीं हैं और जो गण देते हैं, वे वाचक अथवा आचार्य कहलाते हैं । धर पद के योग्य हैं, वे उपाध्याय कहलाते हैं। २. जिन्होंने गुरु की सन्निधि में शिष्यभाव से श्रत का वाचन किया है, वे वाचक हैं। उत्ति उवओगकरणे वत्ति अ पावपरिवज्जणे होइ। झत्ति अ झाणस्स कए उत्ति अ ओसक्कणा कम्मे ।। उनकी वंशपरम्परा वाचकवंश कहलाती है। (आवनि ९९९) आजीवक-महावीरकालीन एक श्रमण सम्प्रदाय । उवज्झाओ (उपाध्याय) में उ का अर्थ उपयोग, आजीविका पासंडत्था गोसालपवत्तिता। तेसि व का अर्थ पापवर्जन, झा का अर्थ ध्यान और ओ का सिद्धतमतेण चुताऽचुतसहिता सत्त परिकम्मा पण्णअर्थ कर्म का अपनयन है। . विज्जति । ...."ते तिविहं णयमिच्छंति, तं जहाजो सूत्रार्थ में उपयोगवान् हैं, पापभीरु हैं, ध्यान दव्वट्टितो, पज्जवट्टितो उभयट्टितो। की गहराइयों में जाते हैं तथा कर्म का अपनयन करने - (नन्दीचू पृ ७२,७३) में संलग्न हैं, वे उपाध्याय हैं। यह शब्द का निरुक्तार्थ आजीवक सम्प्रदाय गोशालक द्वारा प्रवर्तित है। है। जो सूत्रवाचना देने में अपने सूक्ष्म चिन्तन का उनके सिद्धांत के अनुसार सात परिकर्म प्रज्ञापनीय हैं। उपयोग करते हैं, वे उपाध्याय हैं। उन्हें तीन नय मान्य हैं - द्रव्यास्तिक, पर्यायास्तिक और उवगम्म जओऽहीयइ जं चोवगयमझयाविति । उभयास्तिक । जं चोवायझाया हियस्स तो ते उवज्झाया ॥ . आजीविका तेरासिया भणिता। ते सर्व जगं (विभा ३१९९) त्यात्मक इच्छंति, जहा -जीवो अजीवो जीवाजीवश्च, य जिनके पास आकर पढ़ते हैं अथवा जो संते असंते संतासंते एवमादि । (नन्दीच पृ७३) समागत शिष्यों को पढ़ाते हैं, वे उपाध्याय हैं। जो स्व- आजीवक मत राशिक कहलाता है। वह संपूर्ण Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संशय आदि विज्ञान ९३ आत्मा जगत् को व्यात्मक मानता है। जैसे -जीव, अजीव, आत्मा स्थूल शरीर को छोड़कर भवान्तर से आती जीव-अजीव; सत्, असत्, सद्-असत् । है, भवान्तर में जाती है। उसके साथ दो सूक्ष्म शरीर आत्मा-अविनाशी चेतन द्रव्य, चेतनामय असंख्य (तेजस-कार्मण) सदा रहते हैं, फिर भी वह आतेप्रदेशों का अविभाज्य पिण्ड । जाते दृग्गोचर नहीं होती, किन्तु उसके लक्षण अवश्य प्राप्त होते हैं। तत्काल उत्पन्न कीट में भी अपने शरीर १. आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि के हेतु के प्रति प्रतिबन्ध-मोह होता है। वह उपघात करने • पूर्वजन्म-पुनर्जन्म वाले को देखकर पलायन कर जाता है। जिस ० स्वसंवेदन जीव में जिस विषय का प्रतिबंध होता है, वह प्रतिबंध • संशय आदि विज्ञान उसी विषय के परिशीलन के सतत अभ्यास से लब्ध होता २. आत्मा की अदृश्यता के हेतु है। सभी जीवों में यह स्पष्ट है। जो जीव जिस वस्तु के ३. आत्मा का कर्तृत्व-भोक्तृत्व गुण-दोष से अपरिचित है, उसमें उस वस्तु के प्रति किसी ४. आत्मा की नित्यता-अमूर्तता-अन्यता प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं होता । इसलिए जन्म के प्रारंभ में ही जीव में अपने शरीर के प्रति जो प्रतिबंध होता है, ५. आत्मा शरीरव्यापी वह जन्म-जन्मान्तर में शरीर के परिशीलन के सतत * आत्मा और कर्म का संबंध (द्र. कर्म) अभ्यास के कारण ही होता है। इससे आत्मा का जन्मा६. आत्मा के विविध स्तर न्तर से आगमन स्वतः सिद्ध होता है। १. चित्त स्वसंवेदन २. मन कयवं करेमि काहं वाहमहं पच्चया इमाउ य । *. लेश्या (द्र. लेश्या) अप्पा स प्पच्चक्खो तिकालकज्जोवएसाओ ।। ३. परिणाम (विभा १५५५) ४. अध्यवसाय मैंने किया, मैं करता हूं, मैं करूंगा-इस त्रिकालवर्ती ७. आत्म-जय : परम जय व्यपदेश से होने वाले 'अहं प्रत्यय' से आत्मा प्रत्यक्ष सिद्ध * मुक्त आत्मा की ऊर्ध्वगति (द्र. मोक्ष) | होती है । * मुक्त आत्मा (सिस) के प्रकार (द्र. सिन) संशय आदि विज्ञान * संसारी आत्मा (जीव) के प्रकार) (द्र. जीव) गोयम ! पच्चक्खो च्चिय जीवो जं संसयाइविन्नाणं । * पृथ्वी, अप, आदि में जीवत्व की सिद्धि (द्र. जीवनिकाय) पच्चक्खं च न सझं जह सुह-दुक्खा सदेहम्मि ।। (विभा १५५४) १. आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि संशय, जिज्ञासा आदि विज्ञान जीव में होते हैं पूर्वजन्म-पुनर्जन्म इसलिए जीव प्रत्यक्ष सिद्ध है। जो प्रत्यक्ष सिद्ध है, उसे आन्तरशरीरयुक्तोऽप्यात्मा आगच्छन् गच्छन वा नोप- दूसरे प्रमाणों से सिद्ध करने की अपेक्षा नहीं रहती। लभ्यते, लिङ्गतस्तुपलभ्यते एव । तथाहि कृमेरपि जन्तो- जैसे शरीर में होने वाले सुख-दुःख के संवेदन को दूसरे स्तत्कालोत्पन्नस्याप्यस्ति निजशरीरविषयः प्रतिबन्धः, प्रमाणों से सिद्ध नहीं किया जाता। उपघातकमुपलभ्य पलायनदर्शनात् । यश्च यविषयः फरिसेण जहा वाऊ, गिज्झई कायसंसिओ। प्रतिबन्धः स तद्विषयपरिशीलनाभ्यासपूर्वकः, तथादर्शनात्। नाणाईहिं तहा जीवो, गिज्झई कायसंसिओ। न खल्वत्यन्तापरिज्ञातगुणदोषवस्तुविषये कस्याप्याग्रह (दभा ३३) उपजायते । ततो जन्मादौ शरीराग्रहः शरीरपरिशीलना जैसे शीत आदि के स्पर्श से देह-संगत वाय का भ्यासजनितसंस्कारनिबन्धन इति सिद्धमात्मनो जन्मान्तरा- अस्तित्व जाना जाता है, वैसे ही ज्ञान, दर्शन, इच्छा दागमनम् । (नन्दीमव प ४,५) आदि के द्वारा देहस्थ आत्मा का अस्तित्व जाना जाता है। fr Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा २. आत्मा की अदृश्यता के हेतु सो जइ देहादन्नो तो पविसंतो व निस्सरंतो वा । कीस न दीसइ, गोयम ! दुविहाऽणुवलद्धिओ सा य ॥ असओ खरसंगस्स व सओ वि दूराइभावओऽभिहिया । सुमामुत्तत्तणओ कम्माणुगयस्स जीवस्स || ( विभा १६८२, १६८३) यदि जीव शरीर से भिन्न है तो उसका शरीर में प्रवेश और निर्गम दिखाई क्यों नहीं देता ? १. असत् की अनुपलब्धि - जैसे गधे के सींग | २. सत् की अनुपलब्धि जैसे स्वर्ग । ( नन्दी मवृ प ३ ) जो मिथ्यात्व आदि दोषों के कारण वेदनीय आदि अनुपलब्धि ( दिखाई न देना) दो प्रकार की होती कर्मों का कर्त्ता है, कर्मफल- सुख-दुःख का भोक्ता है, कर्मोदय के अनुसार नारक आदि भवों में संसरण करता है तथा सम्यक् दर्शन, ज्ञान और चारित्र की उत्कृष्ट आराधना से कर्मक्षय कर परिनिर्वाण को प्राप्त करता है, वही आत्मा है । पदार्थ की सत्ता होने पर भी उसके दिखाई न देने के अनेक कारण हैं । मलधारी हेमचन्द्र ने (विभामवृ पृ ६१७ ) इसके इक्कीस कारण बतलाये हैं १. दूरी के कारण जैसे स्वर्ग । २. अतिनिकटता - जैसे नयनतारिका । ३. अतिसूक्ष्मता -- जैसे परमाणु । ४. मन की चंचलता ५. इन्द्रियों की अपटुता ६. मतिमान्द्य ७. अशक्यता १३. विस्मृति १४. दुरागम १५. मोह १६. विदर्शन - जन्मान्धता १७. विकार १५. अक्रिया १०. सामान्य १९. अनधिगम ११. अनुपयोग २०. काल - विप्रकर्ष २१. स्वभाव - विप्रकर्ष १२. अनुपाय आत्मा अमूर्त है, अतः वह दृश्य नहीं है । यद्यपि संसारी आत्मा कर्मशरीर से अनुगत है, किंतु कर्मशरीर अत्यंत सूक्ष्म होने के कारण आत्मा दिखाई नहीं देती । ३. आत्मा का कर्तृत्व-भोक्तृत्व ८. आवरण ९. अभिनव ९४ अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य । अप्पा मित्तममित्तं च दुप्पट्टयसुपट्ठिओ ॥ ( उ २०१३७ ) आत्मा ही दुःख-सुख की करने वाली है और वही उनका क्षय करने वाली है । सत्प्रवृत्ति में लगी हुई आत्मा आत्मा की नित्यता- अमूर्तता - अन्यता ही मित्र है और दुष्प्रवृत्ति में लगी हुई आत्मा ही शत्रु है । यो मिथ्यात्वादिकलुषिततया वेदनीयादिकर्मणामभिनिर्वर्त कस्तत्फलस्य च सुखदुःखादेरुपभोक्ता, नारकादिभवेषु च यथाकर्म्मविपाकोदयं संसर्त्ता, सम्यग्दर्शनादिरत्नत्रयाभ्यासप्रकर्ष वशाच्चा शेषकम्मशापगमतः परिनिर्वाता, स प्राणान् धारयति स एव चात्मेत्यभिधीयते । अप्पा नई वेयरणी, अप्पा मे कूडसामली । अप्पा कामदुहा घेणू, अप्पा मे नंदणं वणं ॥ ( उ २० / ३६) आत्मा ही वैतरणी नदी है और आत्मा ही कूटशाल्मली वृक्ष है, आत्मा ही कामदुघा धेनु है और आत्मा ही नन्दनवन है । ४. आत्मा की नित्यता-अमूर्तता अन्यता कारण विभाग - कारणविणास बंधस्स पच्चयाभावा । विरुद्धस्स य अत्थस्सापादुब्भावाविणासा य ।। निरामयामयभावा बालकयाणुसरणादुवट्ठाणा सोताहिं अगहणा जाइसरणा थणभिलासा ॥ सव्वण्णवदिट्ठत्ता सकम्मफलभोयणा अमुत्तत्ता । जीवस्स सिद्धमेवं णिच्चत्तममुत्तमण्णत्तं ॥ (दनि १३२-१३४; अचू पृ ६९, ७० ) आत्मा की नित्यता आदि के पोषक बिन्दु -- १. कारण - विभाग का अभाव - तन्तु पट का कारण है और उस तन्तु में विभाग होते हैं। परन्तु जीव के आत्मप्रदेशों के समवाय में विभाग नहीं होता । उसके घटक का कोई कारण नहीं है । २. कारण विनाश का अभाव जैसे घट के विनाश का कारण मुद्गर आदि है, वैसे आत्मा के विनाशक कारणों का अभाव है । इसलिए कारण के विनाश का प्रश्न ही नहीं होता । ३. बंध - प्रत्यय का अभाव - आत्मा नित्य है । उसे Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्यता .९५ आत्मा क्षणस्थायी मानने से बंध और मोक्ष घटित नहीं रूप, रस आदि इन्द्रिय-विषय आत्मा के गुण नहीं हैं होते। क्योंकि आत्मा अमूर्त है। छद्मस्थ व्यक्ति चर्म चक्षुओं से ४. विरुद्ध पदार्थ का अप्रादुर्भाव -जैसे पट का विनाश अमूर्त आत्मा को नहीं जान सकता। सर्वदर्शी सिद्ध का प्रादुर्भाव होता है, वैसे आत्मद्रव्य और केवली ही आत्मा को साक्षात जानते-देखते हैं। का विनाश होने पर किसी विरुद्ध द्रव्य का प्रादुर्भाव नो इंदियग्गेज्म अमुत्तभावा नहीं होता, इसलिए आत्मा नित्य है। अमुत्तभावा वि य होइ निच्चो।... (उ १४/१९) ५. अविनाश-जैसे आकाश का विनाश नहीं होता, जो अमूर्त हैं, वे इन्द्रियग्राह्य नहीं होते। आत्मा वैसे ही आत्मा का विनाश नहीं होता। अमूर्त है। जो अमूर्त हैं, वे नित्य होते हैं। आत्मा नित्य ६. निरामय-सामय-आत्मा को नित्य मानने पर ही है। रोग और निरोगता संभव है। संपयममुत्तद रं अइंदियत्ता अछेयभेयत्ता। ७. अनुसंस्मरण --आत्मा नित्य है इसलिए वह पूर्व रूवाइविरहओ वा अणाइपरिणामभावाओ । ___ अनुभूत का स्मरण कर सकता है। (दभा ४०) ८. उपस्थान - आत्मा नित्य है, इसलिए शुभ-अशुभ आत्मा अमूर्त है, अतः वह द्रव्य-इन्द्रिय से ग्राह्य __कर्म और विभुता-दीनता का भोक्ता है। नहीं है और खड्ग, शूल आदि द्वारा उसका छेदन-भेदन ९. इन्द्रियों से अग्राह्य --- आत्मा अमूर्त है अतः वह संभव नहीं है। उसकी अमूर्तता अनादि-परिणाम-भाव इन्द्रियों से ग्राह्य नहीं है। १०. जातिस्मरण -आत्मा नित्य है, अत: वह पूर्वजन्मों अन्यता का स्मरण कर सकता है। नाणादओ न देहस्स मुत्तिमत्ताइओ घडस्सेव । ११. स्तनाभिलाषा-जन्मते ही बच्चे को स्तनपान करने तम्हा नाणाइगुणा जस्स स देहाहिओ जीवो ॥ ___ की इच्छा होती है । यह इच्छा पूर्वप्रेरित है। (विभा १५६२) १२. सर्वज्ञ-उपदिष्ट -जीव नित्य है-ऐसा सर्वज्ञ द्वारा ज्ञान आदि देह के गुण नहीं हैं, क्योंकि देह घट की उपदिष्ट है । सर्वज्ञ मिथ्या उपदेश नहीं देते । तरह मूत्तिमान है। इसलिए ज्ञान आदि जिसके गुण हैं, १३. स्वकर्मफल का भोग-आत्मा नित्य है क्योंकि वह वह देह से अतिरिक्त आत्मा ही है। स्वकृत कर्मों का भोग करता है। ""अन्नो देहा गिहाउ पुरिसो व्व । (दअचू पृ ६९, ७०) तज्जीवतस्तरीरियमयघायत्थं इमं भणियं ।। नित्यता संसाराओ आलोयणाउ तह पच्चभिन्नभावाओ । (दभा ३७) तज्जीवतच्छरीरवादियों का अभिमत है-जो आत्मा खणभंगविघायत्थं भणि तेलोक्कदंसीहिं॥ है, वही शरीर है। अर्हत-दर्शन के अनुसार आत्मा (दभा ४३) देह से अन्य है। जैसे---घर में रहने वाला पुरुष घर से आत्मा क्षणभंगुर नहीं है। वह परिणामीनित्य है, इसके तीन हेतु हैं अन्य है। १. संसरण -नारक, तिर्यंच आदि के रूप में संसरण । देहिंदियाइरित्तो आया खलु तदुवलद्धअत्थाणं । २. आलोचन-त्रिकाल सम्बन्धी आलोचन --मैंने किया, तविगमेऽवि सरणओ गेहगवखेहि पूरिसोव्व ।। - मैं करता हूं, मैं करूंगा। (दभा ३८) ३. प्रत्यभिज्ञान-यह वही है अथवा मैं वही हं- इस जैसे गवाक्ष से देखे गये पदार्थ का स्मरण करने रूप में अभेद का ग्रहण । वाला पुरुष होता है, वैसे ही इन्द्रियों द्वारा उपलब्ध अर्थ अमूर्तता का इन्द्रियों के न होने पर भी स्मरण होता है । (अंधाअणिदियगुणं जीवं, दुन्नेयं मंसचक्खुणा। बहरा व्यक्ति पूर्व अनुभूत रूप आदि का स्मरण करता सिद्धा पासंति सम्वन्नू, नाणसिद्धा य साहुणो ॥ है।) जो स्मरण करता है, वह आत्मा है और वह शरीर (दभा ३४) तथा इंद्रियों से अन्य है। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा मन ५. आत्मा शरीरव्यापी जो योग-परिणाम भिन्न-भिन्न अध्यवसायों से जोवो तणमेत्तत्थो जह कंभो तग्गुणोवलंभाओ। अंतरित (व्यवहित) होता है, वह है चित्त । अहवाऽणुवलंभाओ भिन्नम्मि घडे पडस्सेव ॥ चित्तं तिकाल विसयं........ ॥ (दभा १९) (विभा १५८६) जो अतीत, अनागत और वार्तमानिक विषयों का आत्मा शरीर-प्रमाण है, वह अपने गुणों से शरीर में ग्राहक है, वह चित्त है। उपलब्ध होता है। जैसे घट अपने गुणों से घट में उप ....."जं चलं तयं चित्तं "। (आवहाव २ पृ६२) लब्ध होता है। जो अस्थिर अध्यवसाय है, वह चित्त है। जैसे भिन्न स्वरूप वाले घट में पट का अभाव है, जं होज्ज भावणा वा अण पेहा वा अहव चिता ।। वैसे ही शरीर के बाहर आत्मा की अनुपलब्धि है। (आवहाव २ पृ६२) चित्त के तीन रूपतम्हा कत्ता भोत्ता बंधो मोक्खो सुहं च दुक्खं च । संसरणं च बहुत्तासव्वगयत्ते सुजुत्ताई।। १. भावना ध्यान के योग्य चेतना का निर्माण, (विभा १५८७) ध्यानाभ्यास की क्रिया । जीव में कर्तृत्व, भोक्तृत्व, बन्ध, मोक्ष, सुख, दुःख २. अनुप्रेक्षा -- ध्यान के उत्तर काल में होने वाली एवं संसरण--ये सब युक्तिसंगत तभी होते हैं, जब आत्मा चित्त की चेष्टा। को अनेक और असर्वगत शरीरव्यापी माना जाए । ३. चिन्ता --चिन्तन, मानसिक चेष्टा । ............"देहव्वावी मओऽग्गिउण्हं व। २. मन जीवो न उ सव्वगओ देहे लिंगोवलंभाओ ।। मण्णं व मन्नए वाऽणण मणो तेण दव्वओ तं च । (दभा ५१) तज्जोग्गपोग्गलमयं भावमणो भण्णए मंता ।। जैसे अग्नि का लिंग उष्णता अग्नि में ही होता है, (विभा ३५२५) वैसे ही आत्मा के लिंग सुख आदि शरीर में ही उपलब्ध जिससे मनन किया जाता है वह मन है। मनोयोग्य होते हैं, अत: आत्मा शरीरव्यापी है, सर्वव्यापी नहीं है। मनोवर्गणा से गृहीत अनन्त पुदगलों से निर्मित मन द्रव्य६. आत्मा के विविध स्तर मन है। द्रव्यमन के सहारे जो चिन्तन किया जाता है वह भावमन-- आत्मा है। १. चित्त मणदव्वाणि जाणि मणपाउग्गाणि दव्वाणि गहियाणि णिच्छयणयाभिप्पाएण चित्त इत्यात्मा । अहवा न ताव मणेति ताणि मणदव्वाणि भण्णंति । जाहे य मतिसूतणाणभावे चित्तं । अहवा आवस्सयकरणकाले चेव मनिताणि भवंति ताहे मणो भण्णति । अण्णोण्णसूत्तत्थकिरियालोयणं चित्तं । तदेव मनोद्रव्योप (आवचू १ पृ ५०,५१) रंजितं मनः । तदेव चित्तं द्रव्यलेश्योपरंजितं लेश्या। ग्रहण किए हए मन के प्रायोग्य द्रव्य मनन से पूर्व (अनुचू पृ १३, १४) मनोद्रव्य कहलाते हैं। मननकाल में उनकी संज्ञा है मन । ० निश्चय नय के अनुसार चित्त आत्मा है । मनः द्विधा--द्रव्यरूपं भावरूपं च । ० मतिज्ञान और श्रुतज्ञान से संपन्न आत्मा चित्त है। " मनःपर्याप्तिनामकर्मोदयतो यत् मनःप्रायोग्यवर्गणा० जो आवश्यक करने के समय सूत्र, अर्थ और क्रिया दलिकमादाय मनस्त्वेन परिणमितं तदद्रव्यरूपं मनः । के परस्पर संबंध का आलोचन करता है, वह चित्त द्रव्यमनोऽवष्टम्भेन जीवस्य यो मननपरिणामः स भावमनः । (नन्दीमत् प १७४) ० मनोवर्गणा के पूदगलों से उपरंजित चित्त ही मन है। मन के दो प्रकार हैं-द्रव्यमन, भावमन । । ० द्रव्यलेश्या के पुद्गलों से उपरंजित चित्त का नाम है मनःपर्याप्तिनामकर्म के उदय से मन के प्रायोग्य - लेश्या । वर्गणाओं को ग्रहण कर जो मनरूप में परिणत होने वाला जो पुण जोगपरिणामो अण्णोण्णेहिं अज्झवसाणेहिं द्रव्य है, वह द्रव्यमन है । द्रव्यमन के सहारे जीव का जो अंतरितो सो चित्तं । (आवचू २ पृ ६९) मनन-परिणाम है, वह भावमन है । Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनुगामिक आत्मा ........"मणस्स न विसयपमाणं ।। से प्रवृत्त होता है, जैसे--विज्ञान विषयभूत पदार्थ के पोग्गलमित्तनिबंधाभावाओ केवलस्सेव ॥ आलंबन से प्रवृत्त होता है । इसलिए मोक्षार्थी को शुभ (विभा ३५०) बाह्य आलंबन से प्रवृत्त होना चाहिये। मन का विषय प्रतिनियत नहीं है वह दूर-निकट, ४. अध्यवसाय सर्वत्र प्रवृत्त होता रहता है। केवल पुद्गल ही मन का सामान्यतो द्रव्यलेश्योपरञ्जितं चित्तमध्यवसायविषय नहीं है। केवलज्ञान की तरह मूर्त-अमूर्त सब स्थानमुच्यते, तच्चानवस्थितं, तत्तल्लेश्याद्रव्यसाचिव्ये पदार्थ मन के विषय बनते हैं । विशेषसम्भवात् । (नन्दीमत् प ९०) केवली के द्रव्यमन सामान्यतः द्रव्यलेश्या से उपरंजित चित्त को अध्यद्रव्यमनोऽन्तरेण भावमनसोऽसम्भवात्, भावमनो वसायस्थान कहा जाता है। अध्यवसायस्थान अनवस्थित विनापि च द्रव्यमनो भवति, यथा भवस्थकेवलिनः। हैं. नाना प्रकार के लेश्या द्रव्यों के संयोग से वे बदलते (नन्दीमत् प १७४) रहते हैं। द्रव्यमन के बिना भावमन नहीं होता । किन्तु भाव ७. आत्मजय : परमजय मन के बिना भी द्रव्यमन हो सकता है । जैसे-भवस्थ केवली के द्रव्यमन होता है, भावमन नहीं । जो सहस्सं सहस्साणं, संगामे दुज्जए जिणे । एग जिणेज्ज अप्पाणं, एस से परमो जओ। एकेन्द्रिय में अव्यक्त मन अप्पाणमेव जुज्झाहि, किं ते जुज्झेण बज्झओ। असंज्ञी.."स हि स्वल्पस्वल्पतरमनोलब्धिसम्पन्नत्वाद अप्पाणमेव अप्पाणं, जइत्ता सुहमेहए ॥ स्फूटमस्फूटतरमथं जानाति । तथाहि-संज्ञिपञ्चेन्द्रिया पंचिंदियाणि कोहं, माणं मायं तहेव लोहं च । पेक्षया सम्मूच्छिमपञ्चेन्द्रियोऽस्फुटमर्थं जानाति, ततोऽप्य- दुज्जयं चेव अप्पाणं, सव्वं अप्पे जिए जियं ।। स्फुटं चतुरिन्द्रियः, ततोऽप्यस्फुटतरं त्रीन्द्रियः, ततोऽप्य (उ ९।३४-३६) स्फुटतमं द्वीन्द्रियः, ततोऽप्यस्फुटतममेकेन्द्रियः, तस्य प्रायो जो पुरुष दुर्जय संग्राम में दस लाख योद्धाओं को मनोद्रव्यासम्भवात्, केवलमव्यक्तमेव किञ्चिदतीवाल्पतरं जीतता है, उसकी अपेक्षा वह एक अपने आपको जीतता मनो द्रष्टव्यं, यद्वशादाहारादिसंज्ञा अव्यक्तरूपा है, यह उसकी परम विजय है। प्रादुष्षन्ति । (नन्दीमवृ प १९०) आत्मा के साथ ही युद्ध कर, बाहरी युद्ध से तुझे ___स्वल्प, स्वल्पतर मनोलब्धि-मानसिक विकास होने क्या लाभ ? आत्मा को आत्मा के द्वारा ही जीतकर के कारण असंज्ञी (सम्भूच्छिम पंचेन्द्रिय आदि) जीव अर्थ मनुष्य सुख पाता है। को अस्फुट, अस्फुटतर जानता है। पांच इन्द्रियां, क्रोध, मान, माया, लोभ और मनसमनस्क पञ्चेन्द्रिय की अपेक्षा अमनस्क पञ्चेन्द्रिय ये दुर्जेय हैं। एक आत्मा को जीत लेने पर ये सब जीत अर्थ को अस्फूट जानता है, उससे भी अस्फुट चतुरिन्द्रिय, लिए जाते हैं। उससे अस्फुटतर त्रीन्द्रिय, उससे अस्फुटतम द्वीन्द्रिय, उससे आत्मांगुल-अपना अंगुल । अपने हाथ का अस्फुटतम एकेन्द्रिय जानता है। एकेन्द्रिय जीव के मनो चौबीसवां भाग। (द्र. अंगुल) द्रव्य प्रायः असंभव है। उसके केवल अव्यक्त अत्यन्त अल्पतर मन होता है। उससे एकेन्द्रिय में आहार आदि आत्यतिकमरण-मरण का एक प्रकार । (द्र. मरण) संज्ञाएं अव्यक्तरूप में उत्पन्न होती हैं। आदान निक्षेप सावधानीपूर्वक वस्त्र-पात्रों को ३. परिणाम लेना-रखना । समिति का चौथा परिणामो बझालंबणो सया चेव चित्तधम्मो त्ति। ____ प्रकार। (द्र. समिति) विण्णाणं पिव, तम्हा सुहबज्झालंबणपयत्तो॥ आनुगामिक-अवधिज्ञान का एक प्रकार जो (विभा ३२८६) स्वामी का अनुगमन करता है। - परिणाम चित्त का धर्म है । वह सदा बाह्य आलंबन (द्र. अवधिज्ञान) Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनुपूर्वी औपनिधिकी : परिभाषा... आनुपूर्वी-द्रव्यों की क्रम-व्यवस्था। पदार्थ-संरचना आनुपूर्वी और १०. भाव आनुपूर्वी । और उसके क्रम का सिद्धान्त । ३. द्रव्यानुपूर्वी के प्रकार १. आनुपर्छ : परिभाषा और पर्याय दव्वाण पूवी दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-ओवणिहिया २. आनुपूर्वी के प्रकार अणोवणिहिया य । (अनु १११) द्रव्यानुपूर्वी के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं३. द्रव्यानुपूर्वी के प्रकार ० औपनिधिकी १. औपनिधिकी-द्रव्य की क्रमव्यवस्था का बोध । • अनौपनिधिको २. अनौपनिधिकी-द्रव्यों का नय के आधार पर विस्तार से बोध । ४. औपनिधिकी : परिभाषा और प्रकार ५. आनुपूवी-अभनुपूर्वी बनाने की विधि ४. औपनिधिकी : परिभाषा और प्रकार ६. अनौपनिधिको: परिभाषा और प्रकार अधिकृताध्ययनपूर्वानुपूर्व्यादिरचनाश्रयप्रस्तारोपयो७. नैगम-व्यवहार-नय-सम्मत अनौपनिधिको गिनी औपनिधिकीत्युच्यते। (अनुहावृ पृ ३१) ८. अर्थपदप्ररूपणा औपनिधिकी का अर्थ है --विवक्षित अध्ययनों की ९. भंगसमुत्कीर्तन पूर्वानुपूर्वी आदि के क्रम से स्थापना करना। इससे १०. भंगोपदर्शन विषयवस्तु का बोध सुगम हो जाता है। .. ११. समवतार ओवणिहिया दव्वाणुपुव्वी तिविहा पण्णत्ता, तं जहा--पुव्वाणुपुव्वी पच्छाणुपुव्वी अणाणुपुव्वी। १२. अनुगम (अनु १४७) १३. संग्रहनय सम्मत अनौपनिधिको औपनिधिकी द्रव्य आनुपूर्वी के तीन प्रकार हैं१४. क्षेत्रानुपूर्वी पूर्वानुपूर्वी, पश्चानुपूर्वी और अनानुपूर्वी।। १५. कालानुपूर्वी - प्रथमात्प्रभृति आनुपूर्वी अनुक्रमः परिपाटी पूर्वानु पूर्वी । पाश्चात्यात्-चरमादारभ्य व्यत्ययेनैवानपर्वी १. आनुपूर्वी : परिभाषा और पर्याय पश्चानुपूर्वी । न आनुपूर्वी अनानुपूर्वी यथोक्तप्रकारद्वयाति___ अनुपूर्वभावः आनुपूर्वी अनुक्रमोऽनुपरिपाटीति पर्यायाः रिक्तरूपेत्यर्थः। (अनुहावृ पृ ४१) न्यादिवस्तुसंहतिरिति भावः । (अनुहावृ पृ ३०) १. पूर्वानुपूर्वी -अनुलोमक्रम -प्रथम से गणना प्रारम्भ ___ अनुपूर्वभाव, आनुपूर्वी, अनुक्रम और अनुपरिपाटी करना। ये चारों शब्द एकार्थक है । आनुपूर्वी का अर्थ है-तीन, २. पश्चानुपूर्वी प्रतिलोमक्रम-अन्तिम से गणना चार आदि प्रदेशों की संहति । प्रारम्भ करना। २. आनुपूर्वी के प्रकार ३. अनानुपूर्वी-अनुलोमक्रम और प्रतिलोमक्रम को ___ आणुपुत्वी दसविहा पण्णत्ता, तं जहा—नामाणुपुत्वी, छोडकर कहीं से भी गणना प्रारम्भ करना। ठवणाणुपुब्वी दव्वाणुपुन्वी खेताणुपुव्वी कालाणुपुन्वी पुव्वाण पुवी-धम्मत्थिकाए अधम्मत्थिकाए उक्कित्तणाणुपुत्वी गणणाणुपुत्वी संठाणाणुपुन्वी आगासत्थिकाए जीवत्थिकाए पोग्गलत्थिकाए अद्धासमए । सामायारियाणुपुव्वी भावाणपुव्वी। (अनु १०१) (अनु १४८) आनुपूर्वी के दस प्रकार प्रज्ञप्त हैं -१. नाम आनु- पूर्वानुपूर्वी-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, पूर्वी, २. स्थापना आनुपूर्वी, ३. द्रव्य आनुपूर्वी, ४. क्षेत्र आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और आनुपूर्वी, ५. काल आनुपूर्वी, ६. उत्कीर्तन आनुपूर्वी, अध्वासमय । ७. गणना आनुपूर्वी, ८. संस्थान आनुपूर्वी, ९. सामाचारी पच्छाणुपुवी- अद्धासमए पोग्गलत्थिकाए जीव Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनुपूर्वी बनाने की विधि forare आगासत्थिकाए अधम्मत्थिकाए धम्मत्थिकाए । ( अनु १४९ ) पश्चानुपूर्वी - अध्वासमय, पुद्गलास्तिकाय, जीवास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और धर्मास्तिकाय | एयाए चेव एगाइयाए एगुत्तरियाए छगच्छगयाए सेढीए अण्णमण्णभासो दुरूवूणो । से तं अणाणुपुव्वी । ( अनु १५० ) प्रारम्भ में एक और उत्तरोत्तर एक-एक वृद्धि वाली छह समुदाय वाली श्रेणी को परस्पर गुणन करने पर जो प्राप्त होता है, उससे दो (आदि और अन्त) कम, वह अनानुपूर्वी है । ९९ आनुपूर्वी जो जस्स आदीए स तस्स जेट्ठो भवति । जहा दुगस्स एगो जेट्ठो, अणुजेट्ठो तिगस्स एक्को, जेट्ठाणुजेट्ठो जहा चक्कस एक्को, अतो परं सव्वे जेट्टाणुजेट्ठा भणितव्वा । ( अनुचू पृ ३१ ) विवक्षित पदों की क्रमशः स्थापना पूर्वानुपूर्वी है । उसके नीचे शेष भंगों की यथाज्येष्ठ स्थापना की जाती है । जो जिसके आदि में होता है, वह ज्येष्ठ है । जैसे दो का ज्येष्ठ एक है । तीन के लिए एक अनुज्येष्ठ है । चार, पांच आदि के लिए एक ज्येष्ठानुज्येष्ठ है । उपरितन अंक के नीचे ज्येष्ठ अंक स्थापित किया जाता है । यदि ज्येष्ठ अंक न हो तो अनुज्येष्ठ और उसके अभाव में ज्येष्ठानुज्येष्ठ का न्यास किया जाता है । विशेष ज्ञातव्य है कि इस अंकन्यास में समयभेद का वर्जन अनिवार्य है । समयभेद का अर्थ है - एक ही भंग रचना में दो सदृश अंकों की स्थापना । करणं अणाणुपुव्वीणं एगो बेहि गुणिज्जति जाता न । दोन्नि तिहि गुणिज्जंति जाता छ । चउहि गुणिज्जं ति जाता चउव्वीसं । चउव्वीसा पंचहि गुणिज्जति जातं सयं वीसं । तं छहिं गुणेत्ता जावतिओ रासी सो दो ऊणो कीरति । पुव्वाणुपुव्वी य पच्छाणुपुव्वी य दोवि अवणिज्जंति, तो अण्णाणुपुव्वीतो होंति । ( आवचू १ पृ ८२ ) स्थापित हैं—– १,२,३, करने पर दो, दो यहां एक से छह तक के अंक ४,५,६ । एक को दो से गुणन को तीन से गुणन करने पर छह, छह को चार से गुणन करने पर चौबीस चौबीस को पांच से गुणन करने पर एक सौ बीस होते हैं। एक सौ बीस को छह गुणन करने पर सात सौ बीस होते हैं। इनमें से दो कम करने पर - - पूर्वानुपूर्वी और पश्चानुपूर्वी का अपनयन करने पर अनानुपूर्वी होती है । से ( देखें - अनुयोगद्वार सूत्र १५० का टिप्पण ) ५. आनुपूर्वी बनाने की विधि पुव्वाणपुव्वि हेट्ठा समयाभेदेण कुण जहाजेट्ठ । उवरिमतुल्लं पुरओ नसेज्ज पुव्वक्कमो सेसे || ट्ठिति - पढमाए पुव्वाणुपुव्विलताए अहो भंगरयणं बितियादिलतासु । समया इति इह अणाणुपुव्विभंगरयणव्यवस्था समयो तं अभिदमाणोत्ति तं भंगरयणव्यवस्थं अविणासेमाणो । तस्स य विणासो जति सरिसंकं एगलताए ठवेति, जति व ततिय लक्खणातो उवक्कमेणं पट्टवेति ता भिण्णो समय । तं भेदं अकुव्वमाणो, कुणसु जधाजेट्ठत्ति द्वितीय भंगरचना की पंक्ति में अंतिम अंकन्यास प्रथम पंक्ति के अंतिम अंक के सदृश होता है। शेष अंक पूर्वक्रम से स्थापित किये जाते हैं । पूर्वक्रम का अर्थ है - पहले छोटी संख्या तत्पश्चात् बड़ी संख्या अर्थात् एक के बाद दो पुव्वाणुपुव्वी इच्छित जति वण्णा ते परोप्परब्भत्था । अंतहियभागलद्धा वोच्चत्थं काण ठते ॥ आदित्थेसुवि एवं जे जत्थ ठिता य ते तु वज्जेज्जा । सेसेहि य वोच्चत्थं कमुक्कमा पूर सरिसेहि ॥ भागहितलद्धठवणा दुगादि एगुत्तरेहिं अब्भत्था । सरिसंकरयणठाणा तिगादियाणं मुणेयव्वा ॥ पढमदुगट्ठाणेसु जेट्ठादितिगेण अत्तदितो । अणुलोमं पडिलोमं पूरे सेसेहि उवउत्तो ॥ ( अनुचू पृ ३१ ) पूर्वानुपूर्वी में स्थापित अंकों का परस्पर गुणन करने पर जो संख्या आती हो, उतने ही विकल्प होते हैं । हैं। जैसे - तीन संख्या के विकल्प करने हों तो १×२×३=६ अंतस्थित का भाग देने पर – १ = २ दो विकल्पों में अंतिम अंक सदा अपरिवर्तित रहेगा। दो विकल्पों के बाद तीसरे विकल्प में तीसरा अंक परिवर्तित होगा । प्रथम दो स्थान सदा अनुलोम-विलोमक्रम से बदलते रहेंगे । उनके नीचे सदृश अंक नहीं आयेगा । Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनुपूर्वी १०० अर्थपदप्ररूपणा م له له سه له م مه ر ع م سه ہے له یہ لسم لے الله مہ इसा उदाहरण के लिए यहां तीन अंकों की स्थापना की अर्थपदप्ररूपण -संज्ञा और संज्ञी के संबंध की जा रही है -१ २ ३ । इनका परस्पर गुणन करने पर प्ररूपणा । छह भंग (१४२४३=६) बनते हैं। प्रथम भंग पूर्वानु- भंगसमुत्कीर्तन-भंगों (विकल्पों) का निर्देश । पूर्वी क्रम से, अंतिम भंग पश्चानुपूर्वी क्रम से और भंगोपदर्शन-द्रव्य के साथ भंगों की योजना । मध्यवर्ती चार भंग अनानुपर्वी क्रम से स्थापित किए समवतार---अपनी जाति में होने वाला अन्तर्भाव या जाते हैं अवतरण । स्थापना अनुगम-आनुपूर्वी आदि की सत्, द्रव्य, क्षेत्र आदि अनेक कोणों से व्याख्या। ८. अर्थपदप्ररूपणा नेगम-ववहाराणं अटुपयपरूवणया-तिपएसिए आणुपुत्वी चउपएसिए आणुपुव्वी जाव दसपएसिए आणुपुत्वी संखेज्जपएसिए आणपुव्वी असंखेज्जपएसिए यहां दूसरे भंग में एक का ज्येष्ठ नहीं है। दो का आणुपुव्वी अणंतपएसिए आणुपुवी। परमाणपोग्गले ज्येष्ठ है एक, जो दो के नीचे स्थापित है। एक के आगे अणाणुपुवी। दुपएसिए अवत्तव्वए। तिपएसिया तीन स्थापित है, क्योंकि यह उपर्युक्त अंक के सदृश है। आणुपुव्वी ओ जाव अणंतपएसिया आणुपुव्वीओ परमाणु पोग्गला अणाणपुवीओ। दुपएसिया अवत्तव्वयाई। एक के पीछे शेष बचा अंक दो स्थापित है। (अनु ११५) इसी क्रमपद्धति से चार, पांच यावत् अनन्त पदों की त्रिप्रदेशिक आनुपूर्वी, चतुष्कप्रदेशिक आनुपूर्वी आनुपूर्वी की रचना की जा सकती है। यावत् दसप्रदेशिक आनुपूर्वी, संख्येयप्रदेशिक आनुपूर्वी, ६. अनौपनिधिको : परिभाषा और प्रकार असंख्येयप्रदेशिक आनुपुर्वी, अनन्तप्रदेशिक आनुपूर्वी । याऽसावनोपनिधिकी सा नयवक्तव्यताश्रयणात् परमाणु पुद्गल अनानुपूर्वी। द्विप्रदेशिक अवक्तव्य । द्रव्यास्तिकनयमतेन द्विविधा प्रज्ञप्ता । त्रिप्रदेशिक आनुपूर्वियां यावत् अनंतप्रदेशिक आनुपवियां (अनुहावृ पृ ३१) परमाणुपुद्गल अनानुपूर्वियां और द्विप्रदेशिक अवक्तव्य अनौपनिधकी द्रव्यानपर्वी का विचार नयवक्तव्यता (अनेक) हैं-यह नैगम-व्यवहार-नय-सम्मत के आधार पर होता है। द्रव्यास्तिक नय के आधार पर प्ररूपणा है। इसके दो भेद विवक्षित हैं। आनुपूर्वी __ अणोवणि हिया सा दुविहा पण्णता, तं जहा यस्मात्परमस्ति न पूर्वं स आदिः, यस्मात्पूर्वमस्ति नेगमववहाराणं संगहस्स य।। (अनु ११२) न परमन्तः सः, तयोरंतरं मध्यमुपचरति । तदेतत् त्रयमाप अनौपनिधिकी के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं-नगम- यत्र वस्तुरूपेण मुख्यमस्ति तत्र गणनाक्रमः सम्पर्ण इतिव्यवहार नय की अनौपनिधिकी और संग्रह नय की कृत्वा पूर्वस्य पश्चादनुपूर्व तस्य भाव आनुपूर्वी । एतदुक्तं अनोपनिधिकी। भवति -- संबन्धिशब्दा ह्यते परस्परसापेक्षाः प्रवर्तन्त ७. नैगम-व्यवहार नय सम्मत अनौपनिधिको इति यत्रषां मुख्यो व्यपदेश्यव्यपदेशकभावोऽस्ति अयम नेगम-ववहाराणं अणोवणिहिया दव्वाण पूवी स्यादिरयमस्यान्त इति तत्रानुपूर्वीव्यपदेश इति, त्रिप्रदेशापंचविहा पण्णत्ता, तं जहा --अट्ठपयपरूवणया भंगसमु- दिषु संभवति नान्यत्र । (अनुहावृ पृ ३२) क्कित्तणया भंगोवदंसणया समोयारे अणगमे । जिस वस्तु में आदि, मध्य और अंत-ये तीनों (अनु ११४) होते हैं, उसी में क्रम की व्यवस्था बनती है। जिससे नैगम-व्यवहार नय सम्मत अनौपनिधिकी द्रव्य- पहले कोई नहीं है, वह आदि है। जिसके पहले कोई है, आनुपूर्वी के पांच प्रकार प्रज्ञप्त हैं पर बाद में नहीं है, वह अन्तिम होता है। आदि और Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भंगसमुत्कीर्तन १०१ आनुपूर्वी अन्त के बीच मध्य उपचरित होता है। यह इसका आदि आनुपूर्वीद्रव्यबहुत्वज्ञापनार्थं स्थानबहुज्ञापनार्थ है, यह इसका मध्य है, यह इसका अन्त है- इस प्रकार चादावानुपूर्व्या उपन्यासः । ततोऽल्पतरद्रव्यत्वादवक्तव्यजहां परस्पर सापेक्ष कथन होता है, वहां आनुपूर्वी घटित कस्येति । (अनुहावृ पृ ३२,३३) होती है। अत: आनुपूर्वी के लिए कम से कम तीन अनानुपूर्वी द्रव्य एक परमाण से. अवक्तव्य द्रव्य दो प्रदेश (तीन अवयव) अपेक्षित हैं। दो अवयवों में आनु- परमाणुओं से तथा आनुपूर्वी द्रव्य तीन, चार आदि पूर्वी अथवा क्रमयोजना संभव नहीं है। परमाणुओं से निष्पन्न होते हैं। अत: क्रम की दृष्टि से अनानुपूर्वी पहले अनानुपूर्वी, फिर अवक्तव्य और फिर आनुपूर्वी होती है। किन्तु विषय की बहुलता और अल्पता के यः पूनरसंसक्तं रूपं केनचिद्वस्त्वन्तरेण शुद्ध एव आधार पर यह क्रम-भेद हुआ है। आनुपूर्वी द्रव्य परमाणुस्तस्य द्रव्यतः अनवयवत्वात् आदिमध्यावसान- अनानुपर्वी और अवक्तव्य द्रव्यों से अधिक हैं। अनानत्वाभावात् अनानुपूर्वीत्वम् । (अनुहावृ पृ ३२) पूर्वी द्रव्य अल्प और अवक्तव्य द्रव्य अल्पतर हैं । एक परमाणु-पुद्गल में आनुपूर्वी नहीं होती । आनु ६. भंगसमुत्कीर्तन पूर्वी वहां होती है, जहां कम से कम तीन अवयव होंआदि, मध्य और अंत। परमाणु निरवयव है, एक है, नेगम-ववहाराणं भंगसमुक्कित्तणया ---१. अत्थि किसी अन्य वस्तु से असंबद्ध है। आणुपुव्वी २ अत्थि अणाणुपुवी ३. अस्थि अवत्तब्वए ४. अत्थि आणुपुव्वीओ ५. अस्थि अणाणुपुबीओ ६. अवक्तव्य अत्थि अवत्तव्वयाइं। यस्तु द्विप्रदेशिकः स्कन्धस्तस्याप्याद्यन्तव्यपदेशः। परस्परापेक्षयाऽस्तीतिकृत्वा अनानुपूर्वीत्वमशक्यं प्रतिपत्तुं, अहवा १. अत्थि आणुपुव्वी य अणाणुपुव्वी य ७ अथानुपूर्वीत्वं प्रसक्तं तदपि चावधिभूतवस्तुरूपस्यासंभ अहवा २. अत्थि आणुपुव्वी य अणाणुपुव्वीओ य ८ अहवा ३. अत्थि आणुपुव्वीओ य अणाणपुव्वी य ९ वात् अपरिपूर्णत्वात् न शक्यते वक्तुमिति उभाभ्यामवक्तव्यत्वात् अवक्तव्यकमुच्यते, यस्मान्मध्ये सति मुख्य अहवा ४. अस्थि आणुपुव्वीओ य अणाणपूवीओ य आदिर्लभ्यते मुख्यश्चान्तः परस्परासंकरेण, तदत्र मध्यमेव १०.। नास्तीति कृत्वा कस्यादिः कस्य वान्त इति कृत्वा व्यपदेशा अहवा १. अत्थि आणुपुवी य अवत्तव्वए य ११ भावात् स्फुटमवक्तव्यकम् । (अनुहावृ पृ ३२) अहवा २ अत्थि आणपूव्वी य अवत्तव्वयाइं च १२ द्विप्रदेशिक द्रव्य 'अवक्तव्य' कहलाता है। इस द्रव्य अहवा ३. अत्थि आणपुव्वीओ य अवत्तव्वए य १३ के दो प्रदेशों में आदि, अन्त का व्यवहार सापेक्ष है। अहवा ४. अत्थि आणपुव्वीओ य अवत्तव्वयाई च १४ मध्यवर्ती द्रव्य की अपेक्षा आदि, अन्त मुख्य होते हैं। अहवा १. अत्थि अणाणुपुवी य अवत्तव्वए य १५ मध्यभाग ही नहीं होगा तो आदि और अन्त का आधार अहबा २. अत्थि अणाण पुव्वी य अंवत्तव्बयाई च १६ क्या होगा? दो प्रदेशों में आनुपूर्वी और अनानुपूर्वी अहवा ३. अत्थि अणाणपुव्वीओ य अवत्तव्वए य १७ दोनों घटित नहीं होती। इसलिए इन दोनों की अपेक्षा अहवा ४. अस्थि अणाणपुव्वीओ य अवत्तव्वयाई च १८ । वह अवक्तव्य है। अहवा १. अत्थि आणुपुत्वी य अणाणुपुव्वी य अवत्तव्वए य १९ अहवा २. अत्थि आणुपुव्वी य अणाणुपुव्वी य आनुपूर्वी आदि का क्रमभेद अवत्तव्वयाइं च २० अहवा ३. अत्थि आणुपुब्बी य द्रव्यवृद्ध्या पूर्वानुपूर्वीक्रममाश्रित्य प्रथममनानुपूर्वी अणाणुपुव्वीओ य अवत्तव्वए य २१ अहवा ४. अत्थि ततोऽवक्तव्यकं ततश्चाऽऽनुपूर्वीत्येवं निर्देशो युज्यते, आणपूव्वी य अणाणपूवीओ य अवत्तव्वयाइं च २२ पश्चानुपूर्वीक्रमाश्रयेण तु व्यत्ययेन युक्तः, तत् कथं क्रम- अहवा ५. अत्थि आणु पुव्वीओ य अणाणुपुव्वी य द्वयमुल्लङ्घ्यान्यथा निर्देशः कृत: ? अवत्तव्वए य २३ अहवा ६. अस्थि आणुपुवीओ य __..."त्यणुकचतुरणुकादीन्यानुपूर्वीद्रव्याण्यनानुपूर्व्य- अणाणपुवी य अवत्तव्वयाइं च २४ अहवा ७. अस्थि वक्तव्यकद्रव्येभ्यो बहूनि तेभ्योऽनानुपूर्वीद्रव्याण्यल्पानि आणुपुवीओ य अणाणुपुव्वीओ य अवत्तव्वए य २५ तेभ्योऽप्यवक्तव्यकद्रव्याण्यल्पतराणि। (अनुमवृ प ४९) अहवा ८. अत्थि आणुपुव्वीओ य अणाणुपुवीओ य Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनुपूर्वी १०२ सत्पदप्ररूपणा अवत्तव्वयाइं च २६ । (एए अटू भंगा)। एवं सव्वे वि नैगम और व्यवहारनय-सम्मत भंगोपदर्शनछब्बीसं भंगा। से तं नेगम-ववहाराणं भंगसमूक्कित्तणया। १. त्रिप्रदेशिक आनुपर्वी, २. परमाण पुदगल अनानुपर्वी, (अनु ११७) ३. द्विप्रदेशिक अवक्तव्य, ४. त्रिप्रदेशिक आनुपवियां, प्रस्तुत सूत्र में नैगम-व्यवहार-नय-सम्मत आनुपूर्वी ५. परमाणु पुद्गल अनानुपूर्वियां, ६. द्विप्रदेशिक अवक्तव्य आदि द्रव्यों के एकवचन, बहुवचन तथा असंयोगी, हैं।" द्विकसंयोगी तथा त्रिकसंयोगी भंग निर्दिष्ट हैं। वे कुल ७ , २६ होते हैं - एकवचनान्त भंग- बहुवचनान्त भंग .."नेगम-ववहाराणं आणव्विदव्वाइं आणुपुब्वि१. आनुपूर्वी १ ४. आनुपूर्वियां ३ दव्वेहि समोय रंति, नो अणाणुपुग्विदव्वेहि समोयरंति, २. अवक्तव्यक १ ५. अवक्तव्यक ३ नो अवत्तव्वयदव्वेहि समोयरंति । (अनु १२०) ३. अनानुपूर्वी १ ६. अनानुपवियां ३ नैगम और व्यवहारनय-सम्मत आनुपूर्वी द्रव्य आनुपूर्वी द्रव्यों में समवतरित होते हैं, वे अनानुपूर्वी द्विकसंयोगी भंग द्रव्यों में समवतरित नहीं होते, अवक्तव्य द्रव्यों में समवत७. आनुपूर्वी १ अनानुपूर्वी १ रित नहीं होते। ८. आनुपूर्वी १ अनानुपूर्वियां ३ ९. आनुपूर्वियां ३ अनानुपूर्वी १ । १२. अनुगम आनुपूर्वी के प्रकार १०. आनुपूर्वियां ३ अनानुपूर्वियां ३ अणुगमे नवविहे पण्णत्ते, तं जहा- . ११. आनुपूर्वी १ अवक्तव्यक १ संतपयपरूवणया दव्वपमाणं च खेत्त फुसणा य। १२. आनुपूर्वी १ अवक्तव्यक ३ कालो य अंतरं भाग भाव अप्पाबहुं चेव ॥ १३. आनुपूर्वियां ३ अवक्तव्यक १ (अनु १२१) १४. आनुपवियां ३ अवक्तव्यक ३ अनुगम आनुपूर्वी के नौ प्रकार१५. अनानुपूर्वी १ अवक्तव्यक १ १. सत्पदप्ररूपणा-द्रव्य के अस्तित्व और नास्तित्व १६. अनानुपूर्वी १ अवक्तव्यक ३ का विचार। १७. अनानुपूर्वी ३ अवक्तव्यक १ २. द्रव्यप्रमाण-विवक्षित पदार्थ की संख्या का १८. अनानुपूर्वी ३ अवक्तव्यक ३ निरूपण । त्रिकसंयोगी भंग ३. क्षेत्र-पदार्थ के आधारभूत क्षेत्र का निरूपण । १९. आनु. १ अना. १ अव. १ ४. स्पर्शना-पदार्थ द्वारा किये गये आकाश प्रदेशों के २०. आनु. १ अना. १ अव. ३ स्पर्शन का निरूपण । २१. आनु. १ अनां. ३ अव. १ २२. आनु. १ अना. ३ अव. ३ ५. काल-पदार्थ की कालावधि का निरूपण । २३. आनु. ३ अना. १ अव. १ ६. अन्तर-विरहकाल । २४. आनु. ३ अना. १ अव. ३ ७. भाग-विवक्षित पदार्थ शेष पदार्थों के कितने भाग २५. आनु. ३ अना. ३ अव १ __ में हैं, इसका निरूपण । २६. आनु. ३ अना. ३ अव. ३ ८. भाव-विवक्षित पदार्थ में औदयिक आदि भावों का १०. भंगोपदर्शन निरूपण। ९. अल्पबहत्व-द्रव्यों की परस्पर द्रव्यार्थ आदि की नेगम-ववहाराणं भंगोवदंसणया -१. तिपएसिए अपेक्षा से अल्पता और बहुलता का निरूपण । आणुपुव्वी २. परमाणुपोग्गले अणाणुपुव्वी ३. दुपएसिए अवत्तव्वए ४. तिपएसिया आणपुव्वीओ ५. परमाणु- १. सत्पदप्ररूपणा पोग्गला अणाणुपुव्वीओ ६. दुपएसिया अवत्तव्वयाई। . नेगम-ववहाराणं आणुपुव्विदव्वाइं कि अत्थि ? (अनु ११९) नत्थि ? नियमा अत्थि ।... (अनु १२२) Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पर्शना १०३ गम और व्यवहार नयसम्मत आनुपूर्वी द्रव्य हैं या नहीं ? वे नियमतः हैं । २. द्रव्यप्रमाण गम-ववहाराणं आणुपुव्विदव्वाई कि संखेज्जाई ? असंखेज्जाई ? अनंताई ? नो संखेज्जाई नो असंखेज्जाई, अणताई । एवं दोणि वि । ( अनु १२३ ) नैगम और व्यवहार नय-सम्मत आनुपूर्वी द्रव्य संख्येय हैं ? असंख्येय हैं ? या अनन्त हैं ? वे संख्येय नहीं हैं, असंख्येय नहीं हैं, अनन्त हैं । इस प्रकार अनानुपूर्वी द्रव्य और अवक्तव्य द्रव्य भी अनन्त हैं। असंख्येयप्रदेशात्मके च लोकेऽनन्तानामानुपूर्व्यादिद्रव्याणां सूक्ष्मपरिणामयुक्तत्वादवस्थानं भावनीयमिति । ( अनुहावृ पृ ३४ ) सूक्ष्म परिणति के कारण अनन्त आनुपूर्वी द्रव्य भी असंख्य - प्रदेशात्मक लोक में समा जाते हैं । ३. क्षेत्र नेगम-ववहाराणं आणुपुव्विदव्वाई लोगस्स कति भागे होज्जा ? ... एगदव्वं पडुच्च लोगस्स संखेज्जइभागे वा होज्जा, असंखेज्जइभागे वा होज्जा, संखेज्जेसु भागेसु वा होज्जा, असंखेज्जेसु भागेसु वा होज्जा, सव्वलोए वा होज्जा । नाणादव्वाइं पडुच्च नियमा सव्वलोए होज्जा । गम-ववहाराणं अापुव्विदव्वाई एगदव्वं पडुच्च लोगस्स नो संखेज्जइभागे होज्जा, असंखेज्जइभागे होज्जा, नो संखेज्जेसु भागेसु होज्जा, नो असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा, नो सव्वलोए होज्जा । नाणादव्वाई पडुच्च नियमा सव्वलोए होज्जा । एवं अवत्तव्वगदव्वाणि वि । ( अनु १२४ ) नगम और व्यवहार नय- सम्मत आनुपूर्वी द्रव्य लोक के कितने भाग में हैं ? आनुपूर्वी द्रव्य एक द्रव्य की अपेक्षा लोक के संख्यातव भाग में हैं, असंख्यातवें भाग में हैं, संख्येय भागों में हैं, असंख्येय भागों में हैं अथवा समूचे लोक में हैं | अनेक द्रव्यों की अपेक्षा वे नियमतः समूचे लोक में 1 नैगम और व्यवहार नय-सम्मत अनानुपूर्वी द्रव्य - एक द्रव्य की अपेक्षा लोक के संख्यातवें भाग में नहीं हैं, असंख्यातवें भाग में हैं, संख्येय भागों में नहीं हैं, असंख्येय आनुपूर्वी भागों में नहीं हैं और समूचे लोक में नहीं हैं । अनेक द्रव्यों की अपेक्षा वे नियमतः समूचे लोक में हैं । इसी प्रकार अवक्तव्य द्रव्यों का प्रतिपादन करना चाहिए । सव्वलोए वा होज्ज त्ति यदुक्तं तत्राचित्तमहासमयावस्थायी स्कन्धः सर्वलोकव्यापक: सकललोकप्रमाणोऽवसेयः । (अनुहावृ पृ ३४) स्वाभाविक परिणमन से होने वाला अचित्त महास्कंध संपूर्ण लोक में व्याप्त हो जाता है । उसका अवस्थान एक समय तक रहता है। उसकी अपेक्षा एक द्रव्य को सर्वलोकव्यापी कहा गया है। - यस्मादेकस्मिन्ना काशप्रदेशे सूक्ष्मपरिणामपरिणतान्यनन्तान्यानुपूर्वीद्रव्याणि विद्यन्त इति भावना । अनानुपूर्वी - अवक्तव्यकद्रव्ये तु एकं द्रव्यं प्रतीत्या संख्येयभाग एव वर्त्तन्ते, न शेषभागेषु । यस्मात्परमाणु रेक प्रदेशावगाढ एव भवति, अवक्तव्यकं त्वेकप्रदेशावगाढं द्विप्रदेशावगाढं ( अनुहावृ पृ ३५) च । एक-एक आकाशप्रदेश में अनंत आनुपूर्वी द्रव्य विद्यमान हैं । इसका हेतु है - पुद्गल द्रव्य की सूक्ष्म परिणति । अनानुपूर्वी द्रव्य अथवा अवक्तव्य द्रव्य लोक के असंख्यातवें भाग में ही अवस्थित होते हैं, क्योंकि परमाणु एक प्रदेश का ही अवगाहन करता है । अवक्तव्य द्रव्य ( द्विदेशी स्कंध ) एक प्रदेश का भी अवगाहन कर सकता है और दो प्रदेशों का भी अवगाहन कर सकता है । ४. स्पर्शना नेगम-ववहाराणं आणुपुव्विदव्वाइं लोगस्स कति भागं फुसंति ? ... एगदव्वं पडुच्च लोगस्स संखेज्जइभागं वासंति, असंखेज्जइभाग वा कुसंति, संखेज्जे भागे वा फुसंति, असंखेज्जे भागे वा फुसंति, सव्वलोगं वा संति । नादव्वाइं पडुच्च नियमा सव्वलोगं फुसति । I नेगम-ववहाराणं अणाणुपुव्विदव्वाणं पुच्छा । एगदव्वं पडुच्च नो संखेज्जइभागं फुसंति, असंखेज्जइभागं फुसंति, नो संखेज्जे भागे फुसंति, नो असंखेज्जे भागे फुसंति, नो सव्वलोगं फुसंति । नाणादव्वाइं पडुच्च नियमा सव्वलोगं संति । एवं अवत्सव्वगदव्वाणि वि भाणियव्वाणि । ( अनु १२५ ) नैगम और व्यवहार नय-सम्मत आनुपूर्वी द्रव्य लोक के कितने भाग का स्पर्श करते हैं ? Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनुपूर्व पूर्वी एक द्रव्य की अपेक्षा आनुपूर्वी द्रव्य लोक के संख्यातवें भाग का स्पर्श करते हैं, असंख्यातवें भाग का स्पर्श करते हैं, संख्येय भागों का स्पर्श करते हैं, असंख्येय भागों का स्पर्श करते हैं अथवा समूचे लोक का स्पर्श करते हैं । १०४ गम-ववहाराणं आणुपुव्विदव्वाई कालओ केवच्चिरं होंति ? एगदव्वं पडुच्च जहणणेणं एवं समयं उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं । नाणादव्वाइं पडुच्च नियमा सव्वद्धा । नैगम और व्यवहार नय-सम्मत अनानुपूर्वी द्रव्य एक द्रव्य की अपेक्षा लोक के संख्यातवें भाग का स्पर्श नहीं करते, असंख्यातवें भाग का स्पर्श करते हैं । संख्येय भागों का स्पर्श नहीं करते, असंख्येय भागों का स्पर्श नहीं करते, समूचे लोक का स्पर्श नहीं करते । क्षेत्र और स्पर्शना में अंतर अवगाहणाइरितं पिफुसइ बाहिं जहाणुणोभिहियं । एगएसं खेत्त सत्तपएसा य से गम-ववहाराणं आणुपुव्विदव्वाणं अंतरं कालओ एगदव्वं पडुच्च जहणेणं एवं समयं उक्कोसेणं अनंतं कालं । नाणादव्वाइं पडुच्च नत्थि अंतरं । फुसणा ॥ गम-ववहाराणं ( विभा ४३२ ) terroraari एगदव्वं क्षेत्रस्पर्शनयोरयं विशेषः - क्षेत्रमवगाहमात्रं स्पर्शना पडुच्च जहणणेणं एवं समयं उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं । ( अनु १२७) तु स्वचतसृष्वपि दिक्षु तद्बहिरपि वेदितव्येति । यथेह नाणादव्वाइं पडुच्च नत्थि अंतरं । परमाणोरेकप्रदेशं क्षेत्र सप्तप्रदेशा स्पर्शनेति । स्यादेतद्नगम और व्यवहार नय सम्मत आनुपूर्वी द्रव्यों में एवं सत्यणोरेकत्वं हीयत इति । उक्तं च 'दिग्भागभेदो कालकृत अन्तर एक द्रव्य की अपेक्षा जघन्यतः एक समय यस्यास्ति, तस्यैकत्वं न युज्यते' - इत्येतदयुक्तं, अभिप्रायापरिज्ञानात् । नह्य शतः स्पर्शना नाम काचिद्, अपि नैरन्तर्यमेव स्पर्शना ब्रूम इति । ( अनुहाव पृ ३५ ) क्षेत्र पदार्थ द्वारा अवगाहित मात्र होता है और स्पर्शना में अनन्तरित आकाश-प्रदेशों का भी ग्रहण होता है । जैसे परमाणु द्वारा अवगाहित क्षेत्र एक प्रदेश है पर वह स्पर्श सात आकाश प्रदेशों का करता है । चार दिशाओं में चार प्रदेश और ऊर्ध्व व अध: दो दिशाओं में दो प्रदेश तथा एक प्रदेश वह जिसमें वह अवगाढ हैइस प्रकार स्पर्शना सात प्रदेश की हो जाती है । और उत्कृष्टतः अनन्त काल का होता है । अनेक द्रव्यों की अपेक्षा उनमें कालकृत अन्तर नहीं होता । तु T प्रश्न उपस्थित होता है यदि सात आकाश प्रदेशों की स्पर्शना हो तो अणु का एकत्व या अविभाजित्व खण्डित हो जाता है, वह निरंश नहीं रह पाता । जिसका दिग्भाग होता है उसका एकत्व युक्ति-संगत नहीं होता। इसका समाधान यह है कि स्पर्शना के द्वारा परमाणुओं के अंशों का निर्देश नहीं किया गया है अपितु उनका आकाश के साथ निरन्तर स्पर्श का निर्देश किया गया है । ५. काल एवं दोणि वि । ( अनु १२६ ) नैगम और व्यवहार नय-सम्मत आनुपूर्वी द्रव्य काल की दृष्टि से कितने समय तक होते हैं ? एक द्रव्य की अपेक्षा वे जघन्यतः एक समय और उत्कृष्टतः असंख्य काल तक होते हैं । अनेक द्रव्यों की अपेक्षा वे नियमत: सर्वकाल में होते हैं । इसी प्रकार अनानुपूर्वी और अवक्तव्य द्रव्यों के काल का भी प्रतिपादन करना चाहिए । ६. कालकृत अंतर भाव *** नैगम और व्यवहार नय-सम्मत अनानुपूर्वी द्रव्यों में कालकृत अन्तर एक द्रव्य की अपेक्षा जघन्यतः एक समय और उत्कृष्टतः असंख्येय काल का होता है । अनेक द्रव्यों की अपेक्षा उनमें कालकृत अन्तर नहीं होता । ७. भाग नेगम-ववहाराणं आणुपुव्विदव्वाई सेसदव्वाणं'''' नियमा असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा । नेगमववहाराणं पुविदव्वाई सेसदव्वाणं असंखेज्जइभागे होज्जा । ""एवं अवत्तव्वगदव्वाणि वि । ( अनु १२८ ) नैगम और व्यवहार नय-सम्मत आनुपूर्वी द्रव्य नियमतः शेष द्रव्यों के असंख्येय भागों में होते हैं । अनानुपूर्वी और अवक्तव्य द्रव्य शेष द्रव्यों के असंख्यातवें भाग में होते हैं । ८. भाव गम-ववहाराणं आणुपुव्विदव्वाइं .......नियमा साइपारिणामिए भावे होज्जा । एवं दोणि वि । ( अनु १२९ ) नैगम और व्यवहार नय-सम्मत आनुपूर्वी द्रव्य Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अल्पबहुत्व और उसका हेतु नियमतः सादि पारिणामिक भाव प्रकार अनानुपूर्वी और अवक्तव्य भी जानना चाहिए । में होते हैं । इसी द्रव्यों के भाव को ९. अल्पबहुत्व और उसका हेतु 'सव्वत्थोवाई नेगम-ववहाराणं अवत्तव्वगदव्वाई दव्वट्टयाए, अणाणुपुव्विदव्वाइं दव्वट्टयाए विसेसाहियाई, आणुपुव्विदव्वाइं दव्वट्टयाए असंखेज्जगुणाई । पएसट्टयाए - सव्वत्थोवाई नेगम-ववहाराणं अापुव्विदव्वाई अपएसट्टयाए, अवत्तव्वगदव्वाई पएसट्टयाए विसेसाहियाई, आणुपुव्विदव्वाई पट्टयाए अनंतगुणाई । दव्वटुपए सट्टयाए - सव्वत्थोवाई नेगमववहाराणं अवत्तव्वगदव्वाइं दव्वट्टयाए, अणाणुपुव्विदव्वाइं दट्टयाए अपएसट्टयाए विसेसाहियाई, अवत्तव्वगदव्वाइं पट्टयाए विसेसाहियाई, आणुपुव्विदव्वाई दव्वट्टयाए असंखेज्जगुणाई, ताइं चैव परसट्टयाए अनंतगुणाई । ( अनु १३० ) नैगम और व्यवहार नय-सम्मत अवक्तव्य द्रव्य द्रव्यार्थ की अपेक्षा सबसे कम हैं, अनानुपूर्वी द्रव्य द्रव्यार्थ की अपेक्षा अवक्तव्य द्रव्यों से विशेषाधिक हैं, आनुपूर्वी द्रव्य द्रव्यार्थ की अपेक्षा अनानुपूर्वी द्रव्यों से असंख्येय गुण हैं । प्रदेशार्थ की अपेक्षा - नैगम और व्यवहार नय सम्मत अनानुपूर्वी द्रव्य अप्रदेशार्थ की अपेक्षा सबसे कम हैं । अवक्तव्य द्रव्य प्रदेशार्थ की अपेक्षा अनानुपूर्वी द्रव्यों विशेषाधिक हैं । आनुपूर्वी द्रव्य प्रदेशार्थ की अपेक्षा अवक्तव्य द्रव्यों से अनन्त गुण हैं । द्रव्यार्थ और प्रदेशार्थ की अपेक्षा - नैगम और व्यवहार नय सम्मत अवक्तव्य द्रव्य द्रव्यार्थ की अपेक्षा सबसे कम हैं, अनानुपूर्वी द्रव्य द्रव्यार्थ और अप्रदेशार्थ की अपेक्षा अवक्तव्य द्रव्यों से विशेषाधिक हैं । अवक्तव्य द्रव्य प्रदेशार्थं की अपेक्षा अनानुपूर्वी द्रव्यों से विशेषाधिक हैं। आनुपूर्वी द्रव्य द्रव्यार्थ की अपेक्षा अवक्तव्य द्रव्यों से असंख्येय गुण हैं, प्रदेशार्थ की अपेक्षा वे ही अनन्त गुण हैं। १०५ आनुपूर्वी द्रव्यार्थता की विवक्षा में एक-एक आनुपूर्वी द्रव्य की गणना होती है । प्रदेशार्थता की विवक्षा में प्रदेशों की गणना होती है । द्रव्यार्थता और प्रदेशार्थता की विवक्षा में द्रव्य और प्रदेश दोनों की गणना होती है । अवक्तव्वगदव्वा दव्वतो सव्वत्थोवा, कहं ? उच्यते; संघातभेदा उप्पत्तिहेतु अप्पत्तणतो । तेहितो अणाणुपुव्विदवा विसेसाहिया, कहं ? उच्यते, बहुतरासयउप्पत्तिहेतुत्तणतो । तेहितो आणुपुव्विदव्वा संखेज्जगुणा, कहं ? उच्यते, तिगादि एगपदेसुत्तरवुढिदव्वठाण बहुत्तणतो संघातभेददव्वबहुत्तणतो, एत्थ भावणविही इमा - एगदुतिचतुपदेसे य ठविता १-२-३-४, एत्थ संघातभेदयो पंच अत्तव्वगा दव्वा भवंति । दस अणाणुपुव्विदव्वा भेदतो भवंति । संघाततो वा एगकाले तिन्नि आणुपुव्विदव्वा भवंति । क्रमेण वा एगदुगादिसंजोगभेदतो एत्थ चउदस आणुपुव्विदव्वा भवति । ( अनुचू २६ ) अवक्तव्यक द्रव्य द्रव्यार्थ की अपेक्षा सबसे अल्प हैं । इसका हेतु यह है - द्विप्रदेशी स्कन्धों को संघात और भेद के निमित्त कम मिलते हैं । इसलिए ये सबसे कम होते हैं। अनानुपूर्वी द्रव्य इनकी अपेक्षा विशेषाधिक होते हैं । इसका हेतु यह है कि परमाणु बहुतर द्रव्यों की उत्पत्ति में निमित्त बनते हैं । आनुपूर्वी द्रव्य इनसे असंख्य गुणा अधिक होते हैं । इसका हेतु है द्रव्य की प्रचुरता । तीन प्रदेश से आगे एक - एक प्रदेश बढ़ाते-बढ़ाते अनन्त प्रदेश तक चले जाते हैं । इस प्रकार इनके स्थान बहुत बन जाते हैं । इन्हें संघात और भेद के निमित्त भी बहुत मिलते हैं, इसलिए ये सबसे अधिक हैं। चूर्णिकार ने इसे स्थापना के द्वारा समझाया है । २ ३ ४ | कल्पना करें, चार द्रव्य हैं - एकप्रदेशी यावत् चतुष्प्र देशी - १ अनानुपूर्वी द्रव्य-उपर्युक्त द्रव्यों के भेद से अनानुपूर्वी द्रव्य दस बनेंगे । अवक्तव्यक द्रव्य - इन्हीं द्रव्यों को यदि संघात और भेद से स्थापित किया जाए तो अवक्तव्यक द्रव्य पांच बनेंगे । दव्या गाणे पुग्गलदव्वेसु जधासंभवतो पदेसगुणपज्जायाध । रया जा सा दव्वट्टता भण्णति, पदेसट्टया पुण आनुपूर्वी द्रव्य - इन्हीं द्रव्यों के विविध प्रकार के संघात - तेसु चैव दव्वेसु प्रतिपदेसं गुणपज्जायाधारया जा सा भेदों से आठ विकल्प करने पर आनुपूर्वी पदेसट्टया, उभतरूवा उभतट्ठया । ( अनुचू पृ २६ ) द्रव्य चौदह बनेंगे । Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनुपूर्वी १३. संग्रह नय - सम्मत अनौपनि धिकी संग अणोहिया दव्वाणुपुब्वी पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा - अट्ठपयपरूवणया भंगसमुक्कित्तणया भंगोवदंसणया समोयारे अणुगमे । ( अनु १३१) संग्रह नय - सम्मत अनौपनिधिकी द्रव्य - आनुपूर्वी के पांच प्रकार प्रज्ञप्त हैं - अर्थपद प्ररूपण, भंगसमुत्कीर्तन, भंगोपदर्शन, समवतार और अनुगम । संगहस्स अट्ठपयपरूवणया - तिपएसिया आणुपुव्वी चउपएसिया आणुपुव्वी जाव दसपएसिया आणुपुब्वी संखेज्जपएसिया आणुपुब्वी असंखेज्जपएसिया आणुपुव्वी अनंतपएसिया आणुपुथ्वी । परमाणुपोग्गला अणrgyaat | दुपएसिया अवत्तव्वए । ( अनु १३२ ) संग्रह नय का अर्थ पदप्ररूपण - त्रिप्रदेशिक आनुपूर्वी, चार प्रदेशिक आनुपूर्वी, यावत् दस प्रदेशिक आनुपूर्वी, संख्येय प्रदेशिक आनुपूर्वी, असंख्येय प्रदेशिक आनुपूर्वी, अनन्त प्रदेशिक आनुपूर्वी, परमाणुपुद्गल अनानुपूर्वी, द्विदेशिक अवक्तव्य है । विशेष नैगम और व्यवहार नय द्रव्य को अनेक भेदयुक्त मानता है । संग्रह नय सामान्य को स्वीकार करता है । इसीलिए संग्रह नय की अनौपनिधिकी द्रव्य में केवल एक वचन का प्रयोग होता है। जितने त्रिदेशी स्कन्ध हैं वे त्रिप्रदेशिकत्व सामान्य का अतिक्रमण नहीं करते, इसलिए त्रिप्रदेशिक आनुपूर्वी एक ही होगी । विशुद्धतर संग्रहनय की अपेक्षा आनुपूर्वीत्व का सामान्य होने के कारण आनुपूर्वी एक ही होगी । पूर्वी और अवक्तव्य के लिए भी यही नियम है । बहुत्व का अभाव होने के कारण बहुवचन का प्रयोग नहीं हो सकता । १४. क्षेत्रानुपूर्वी दव्वावगाधोवलक्खितं खेत्तं खेत्ताणुपुव्वी | अहवा अवगाहावगाही अण्णोष्ण सिद्धिहेतुत्तणेवि आगासस्सावगाहलक्खणत्तणतो खेत्ताणुपुव्वी भण्णति । अहवा दव्वाण चेव खेत्तावगाहमग्गणा खेत्ताणुपुव्वी । ( अनुचू पृ ३२ ) द्रव्यों के अवगाह से उपलक्षित क्षेत्र क्षेत्रानुपूर्वी है । अथवा अवगाह और अवगाही परस्पर संबद्ध होने पर भी अवगाह लक्षण के कारण आकाश को क्षेत्रानुपूर्वी कहा गया है । अथवा द्रव्यों के क्षेत्रावगाह की मार्गणा ही क्षेत्रानुपूर्वी है । १०६ क्षेत्रानुपूर्वी क्षेत्रानुपूर्वी के प्रकार -ओवणहिया खेत्ताणुपुवी दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - योगहिया । ( अनु १५५) क्षेत्रानुपूर्वी के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं औपनिधिकी और नौनिधिकी । ओवणहिया खेत्ताणुपुव्वी तिविहा पण्णत्ता, तं जहा -पुव्वाण पुवी पच्छाणुपुव्वी अणाणुपुव्वी । ( अनु १७६) निधिक क्षेत्रानुपूर्वी के तीन प्रकार हैं १. पूर्वानुपूर्वी, २. पश्चानुपूर्वी, ३. अनानुपूर्वी । offer हा पण्णत्ता, तं जहा नेगमववहाराणं संगहस्स य । ( अनु १५७ ) अनौपनिधिक के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं- नैगमव्यवहार नय सम्मत और संग्रह नय-सम्मत । गम-ववहाराणं अणोवणिहिया खेत्ताणुपुथ्वी पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा - १. अट्टपयपरूवणया २. भंगसमुक्कितणया २. भंगोवदंसणया ४. समोयारे ५. अणुगमे । ( अनु १५८ ) नैगम और व्यवहार नय-सम्मत अनौपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी के पांच प्रकार प्रज्ञप्त हैं १. अर्थपदप्ररूपण, २. भंग - समुत्कीर्तन, ३. भंगोपदर्शन ४. समवतार ५. अनुगम । ..... नेगम-ववहाराणं अट्ठपयपरूवणया-तिपएसोगाढे आणुपुवी चउप सोगाढे आणुपुव्वी जाव दसपएसोगाढे आणपुब्वी संखेज्जपएसोगाढे आणुपुव्वी असंखेज्जपएसोगाढे आणुपुब्बी । एगपएसोगाढे अणाणुपुब्वी । दुपएसोगाढे अवत्तव्वए ।'''''''' ( अनु १५९ ) नैगम और व्यवहार नय सम्मत अर्थपदप्ररूपण - त्रिप्रदेशावगाढ आनुपूर्वी, चार प्रदेशावगाढ आनुपूर्वी, यावत् दस प्रदेशावगाढ आनुपूर्वी, संख्येय प्रदेशावगाढ आनुपूर्वी, असंख्येय प्रदेशावगाढ आनुपूर्वी, एक प्रदेशावगाढ अनानुपूर्वी, द्विप्रदेशावगाढ अवक्तव्य है । आनुपूर्वी द्रव्यों का अवगाह क्षेत्र गम-ववहाराणं आणुपुव्विदव्वाइं एगदव्वं पडुच्च लोगस्स संखेज्जइभागे वा होज्जा, असंखेज्जइभागे वा होज्जा, संखेज्जेसु भागेसु वा होज्जा, असंखेज्जेसु भागे सु वा होज्जा, देसूणे लोए वा होज्जा । नाणाव्वाई नियमा सव्वलोए होज्जा । ( अनु १६८ ) नगम और व्यवहार के आनुपूर्वी द्रव्य एक द्रव्य की Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपृच्छना अनेक अपेक्षा लोक के संख्येय भाग में हैं, असंख्येय भाग में हैं, संख्येय भागों में हैं अथवा देशोनलोक में हैं । द्रव्यों की अपेक्षा वे नियमतः समूचे लोक में हैं । क्षेत्रानुपूर्वी सादि पारिणामिक गम-ववहाराणं आणुपुव्विदव्वाई कयरम्मि भावे होज्जा ? नियमा साइपारिणामिए भावे होज्जा । ( अनु १७३ ) भावचिन्तायामानुपूर्वीद्रव्याणि नियमात् सादिपारिणामिके भावे, विशिष्टाधेयाधारभावस्य सादिपारिणामिकात्मकत्वाद् । ( अनुहावृ पृ ४९ ) द्रव्यानुपूर्वी के द्रव्य सादि पारिणामिक हैं । वे किसी न किसी क्षेत्र में रहते हैं । अतः क्षेत्रानुपूर्वी के प्रकरण में आनुपूर्वी आदि द्रव्यों को आधार - आधेय संबंध के कारण सादि पारिणामिक कहा गया है। १५. कालानुपूर्वी द्रव्यपर्यायत्वात्कालस्य त्यादिसमयस्थित्याद्युपलक्षितद्रव्याण्येव । ( अनुहावृ पृ ५१ ) द्रव्य का एक पर्याय है काल । तीन समय, चार समय, पांच समय यावत् असंख्यात समय से उपलक्षित द्रव्य कालानुपूर्वी कहलाता है । कालानुपूर्वी के प्रकार १०७ णिहिया य अणोवणिहिया य । पत्ता, तं जहा - ओव - ( अनु १९६ ) कालानुपूर्वी के दो प्रकार हैं- औपनिधिकी और अनोपनिधिकी। औपनिधिकी के प्रकार ओवणहिया कालाणुपुव्वी तिविहा पण्णत्ता, तं जहा - पुव्वाणुपुब्वी पच्छाणुपुब्वी अणाणुपुब्बी । ( अनु २१८ ) औपनिधिक कालानुपूर्वी के तीन प्रकार हैं१. पूर्वानुपूर्वी २ पश्चानुपूर्वी, ३. अनानुपूर्वी । अनौपनिधिको के प्रकार ( अणोवणिहिया सा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा -- नेगमववहाराणं संगहस् य । ( अनु १९८ ) 1 अनोपनिधिक के दो प्रकार हैं १. नगम और व्यवहार नय-सम्मत अनौपनिधिकी । २. संग्रह नय-सम्मत अनौपनिधिकी। आनुपूर्वी नंगम-व्यवहार सम्मत नेगम-ववहाराणं अणोवणिहिया कालाणुपुव्वी पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा - अट्ठपयपरूवणया, भंगसमुक्कि - तणया, भंगोवदंसणया, समोयारे, अणुगमे । ( अनु १९९ ) नैगम और व्यवहार नय सम्मत अनौपनिधिकी कालानुपूर्वी के पांच प्रकार हैं १. अर्थपदप्ररूपण, २. भंग - समुत्कीर्तन, ३. भंगोपदर्शन, ४. समवतार, ५. अनुगम I अर्थपदप्ररूपण ..... नेगम-ववहाराणं अट्ठपयपरूवणया - तिसमय ट्ठईए आणुपुवी जाव दससमयट्ठिईए आणुपुव्वी संखेज्जसमयट्टिईए आणुपुव्वी असंखेज्जसमयईए आणुपुव्वी । एमईए अणाणुपुवी । दुसमपट्टिईए अवत्तव्वए । “ ( अनु २०० ) नैगम और व्यवहार नय-सम्मत अर्थपदप्ररूपण - तीन समय की स्थिति वाला पुद्गल आनुपूर्वी यावत् दस समय की स्थितिवाला पुद्गल आनुपूर्वी, संख्येय समय की स्थिति वाला पुद्गल आनुपूर्वी असंख्येय समय की स्थिति वाला पुद्गल आनुपूर्वी । एक समय की स्थिति वाला पुद्गल अनानुपूर्वी । दो समय की स्थिति वाला पुद्गल अवक्तव्य है । आनुपूर्वीनाम - नाम-कर्म की एक प्रकृति । आनुपूर्वी - वृषभनासिकान्यस्तरज्जू संस्थानीया, यया कर्मपुद्गलसंहत्या विशिष्टं स्थानं प्राप्यतेऽसौ । यया वोर्ध्वोत्तमांगाधश्चरणादिरूपो नियमतः शरीरविशेषो भवति साऽऽनुपूर्वी । ( आवहावृ १ पृ ५६ ) आनुपूर्वीनाम के दो अर्थ हैं-१. बैल की नासिका में डाली गई रस्सी के समान कर्मपुद्गलों की वह संहति, जो जीव को अपने उत्पत्ति स्थल पर ले जाती है, वह आनुपूर्वीनामकर्म है । २. नामकर्म की जिस प्रकृति के उदय से मस्तक, चरण आदि अंगों की रचना होती है, वह आनुपूर्वीनामकर्म है । आपृच्छना - कार्य करने के लिए गुरु की स्वीकृति लेना | सामाचारी का एक भेद । (द्र. सामाचारी) Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभिनिबोधिक ज्ञान आमिनिबधिक ज्ञानमतिज्ञान, इन्द्रिय और मन के माध्यम से होने वाला ज्ञान । १. आभिनिबधिक ज्ञान ० निर्वाचन ० परिभाषा • पर्याय ० कालमान ० दृष्टान्त २. अभिनिबधिक ज्ञान के प्रकार श्रुतनिश्चित अश्रुतनिधित ० o २. श्रुतनिचित अधूतनिधित की परिभाषा अधुतनिधित के प्रकार निधित के प्रकार- अवग्रह, ईहा..... ० ४. ५. अवग्रहचतुष्टयी ० परिभाषा • उत्पत्ति का क्रम ० कालमान • अठाईस प्रकार • तीन सौ छत्तीस प्रकार ६. अवग्रह की परिभाषा ० पर्याय प्रकार - व्यंजना वग्रह, अर्थावग्रह ७. व्यञ्जनावग्रह ० परिभाषा ० प्रकार • मलक का दृष्टांत ० ज्ञान या अज्ञान • चक्षु और मन के व्यंजनावग्रह नहीं ८. अर्थावग्रह • परिभाषा ० प्रकार ९. ईहा ० परिभाषा ० पर्याय ० प्रकार ० ईहा अज्ञान नहीं ईहा और संशय में अन्तर १०८ १०. अवाय o परिभाषा ० पर्याय ० प्रकार ● अवाय औपचारिक अर्थावग्रह ११. धारणा ० परिभाषा • पर्याय ० प्रकार १२. अभिनिबोधिकज्ञान हो मतिज्ञान १३. भूतनिरपेक्ष मति हो शुद्ध मतिज्ञान १४. मतिज्ञान का विषय १५. मति और धुत में भेद श्रुत १६. मति और श्रुत में अभेद १७. मतिपूर्वक श्रुत १८.पूर्वक मति १९. मतिज्ञान का क्षेत्र २०. साकारोपयोग और मतिज्ञान आभिनिबोधिक का निर्वाचन २१. मतिज्ञान से शून्य जीव २२. मतिज्ञान का विरहकाल २३. ज्ञान- उत्पत्ति और नय २४. मतिज्ञान की प्रतिपता प्रतिपद्यमानता * मतिज्ञान परोक्ष है * मतिज्ञान स्वार्थिक प्रत्यय * मति-भुत और अवधि में साध * * मति अज्ञान * * (प्र. अवधिज्ञान) (प्र. अज्ञान ) ज्ञान मतिज्ञान का एक भेद (प्र. श्रुतज्ञान) चक्षु-अचल दर्शन (द्र दर्शन) सम्यक्त्व और ज्ञान की युगपत् उत्पत्ति १. आभिनियोधिक का निर्वाचन अभिनिवृत्ति आभिनिवोहियनाणं । (प्र. ज्ञान) (द्र. ज्ञान) (प्र. सम्यक्त्व ) ( नन्दी ३५) अत्याभिमुो नियओ बोहो जो सो मओ अभिनिवोहो । सो चैवाऽऽभिणिवोहिअं" ॥ ( विभा ८० ) अर्थाभिमुखी प्रतिनियत अर्थ को ग्रहण करने वाला ज्ञान अभिनिबोध है, वही अभिनिवोधिक है। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतनिश्रित-अश्रुतनिश्रित आभिनिबोधिक ज्ञान परिभाषा वाले अच्युत आदि विमानों में तीन बार उत्पन्न होने वाले अभिनिबोध:--तदावरणकर्मक्षयोपशमः । तेन निर्वत्त मतिज्ञानी देवों का लब्धिकाल छियासठ सागरोपम है। माभिनिबोधिकम् । इन्द्रियमनोनिमित्तो योग्यदेशावस्थित इसमें मनुष्य भव का कालमान मिलाने पर साधिक हो वस्तुविषयः स्फूटप्रतिभासो बोधविशेषः । जाता है। यह कथन एक मतिज्ञानी की अपेक्षा से है। (नन्दीमवृ प ६५) अनेक मतिज्ञानी जीवों की अपेक्षा मतिज्ञान का कालमान आभिनिबोधिक ज्ञान अभिनिबोधावरण कर्म (मति सर्वकाल है। ज्ञानावरण कर्म) के क्षयोपशम से निष्पन्न है। दृष्टान्त यह इन्द्रिय और मन के निमित्त से होने वाला तथा एत्थ निदरिसणं जहा–कस्सइ मंदपगासाए रयणीए उचित क्षेत्र में अवस्थित वस्तु को ग्रहण करने वाला पूरिसप्पमाणमेत्तं खाणं दट्टण चिता समुप्पज्जति कि पूण स्पष्ट अवबोध है। एस पुरिसो भविज्ज उदाहु खाणुत्ति ? ततो तं खाणं पर्याय वल्लिविणद्धं दळूण पक्खि वा तहिं णिलीणं पासिऊणं : ईहा अपोह वीमंसा मग्गणा य गवेसणा । आभिणिबोधो भवति जहा एवं खाणुत्ति । तं च जइ . सण्णा सई मई पण्णा सव्वं आभिणिबोहियं ॥ अभिमुहमत्थं जाणति णो विवरीयं ततो आभिणिबोहियं (नन्दी ५४।६) भवति । अभिमुहमत्थं णाम जो खाणुं खाणुं चेव अभिणिईहा, अपोह, विमर्श मार्गणा, गवेषणा, संज्ञा, स्मृति, बुज्झति ण पुण खाणुं पुरिसं मण्णति, एयं अभिमुहमति और प्रज्ञा - ये सब आभिनिबोधिक ज्ञान के पर्याय मत्थं भण्णति । (आवचू १ पृ ७, ८) रात्रि में मंद प्रकाश के कारण पुरुषप्रमाण स्थाणु मइपन्नाभिणिबोहियबुद्धीओ होंति वयणपज्जाया। को देखकर व्यक्ति सोचता है - यह पुरुष है अथवा जा उग्गहाइसण्णा ते सव्वे अत्थपज्जाया। स्थाणु ? वल्लियों से परिवेष्टित अथवा पक्षियों से युक्त (विभा ३९८) उस स्थाणु को देखकर यह ज्ञात हो जाता है कि यह मति, प्रज्ञा, आभिनिबोधिक और बुद्धि–ये स्थाणु है । जो अभिमुख अर्थ को जानता है, विपरीत आभिनिबोधिक ज्ञान के वचन-पर्याय (सम्पूर्ण वस्तु के अर्थ को नहीं जानता, वह आभिनिबोधिक है। अभिमुख प्रतिपादक शब्द) हैं। अर्थ का आशय है -सामने दिखाई देने वाले पदार्थ का अवग्रह, ईहा, अपोह आदि आभिनिबोधिक के अर्थ- सही बोध होना । जैसे -सामने स्थित स्थाणु को स्थाणु पर्याय (एकदेश प्रतिपादक शब्द) हैं । जानना, उसे पुरुष नहीं जानना। कालमान २. आभिनिबोधिक ज्ञान के प्रकार ""एगस्स अणेगाण व उवओगंतोमुहत्ताओ। आभिणिबोहियनाणं विहं पण्णत्तं, तं जहा-सुयलद्धी वि जहन्नेणं एगस्सेवं परा इमा होइ । निस्सियं च असुयनिस्सियं च । (नन्दी ३७) अह सागरोवमाइं छावद्धि सातिरेगाइं ॥ आभिनिबोधिक ज्ञान के दो प्रकार हैंदो वारे विजयाईसु गयस्स तिन्नच्चुए अहव ताई । १. श्रुतनिश्रित । २. अश्रुतनिश्रित । अइरेगं नरभवियं नाणाजीवाण सव्वद्धं । (विभा ४३४-४३६) ३. श्रुतनिश्रित-अश्रुतनिश्रित को परिभाषा - आभिनिबोधिकज्ञानी जघन्यतः और उत्कृष्टतः पूव्वं सुयपरिकम्मियमइस्स जं संपयं सुयाईयं । अन्तर्मुहर्त तक उपयुक्त रह सकता है। आवरणक्षयोपशम तं निस्सियमियरं पूण अणिस्सियं मइचउक्कंतं ।। की अपेक्षा से जघन्य लब्धिकाल भी अन्तर्महत ही है। (विभा १६९) उत्कृष्ट काल साधिक छियासठ सागरोपम है। जो मति श्रुत से परिकमित/संस्कारित है, किन्तु - तैतीस सागरोपम आयुष्य वाले विजय आदि अनुत्तर वर्तमान व्यवहारकाल में श्रुत से निरपेक्ष है, वह श्रुतविमानों में दो बार अथवा बावीस सागरोपम आयुष्य निश्रित मति है। Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभिनिबोधिक ज्ञान ११० अवग्रहचतुष्टयी : परिभाषा श्रुत संस्कार से निरपेक्ष सहज मति अश्रुतनिश्रित वस्तु का सामान्य अवग्रहण अवग्रह है। वस्तुधर्म मति है । वह औत्पत्तिकी आदि बुद्धि चतुष्करूप है। का विचार करना ईहा है। ईहित वस्तु का नैश्चयिक श्रुतनिश्रित मति ज्ञान अवाय है। वस्तु के निश्चित ज्ञान की अविच्युति, वासना और स्मृति धारणा है। शास्त्रपरिकमितमतेरुत्पादकाले शास्त्रार्थपर्यालोचनमनपेक्ष्यैव यदुपजायते मतिज्ञानं तत् श्रुतनिश्रितम् । सामण्णत्थावग्गहणमुग्गहो भेयमग्गणमहेहा । (नन्दीमत् प १४४) तस्सावगमोऽवाओ अविच्च ई धारणा तस्स ।। (विभा १८०) जिसकी मति शास्त्र के अध्ययन से परिष्कृत हो गई __वस्तु का सामान्य अवग्रहण अवग्रह, वस्तु के भेद की है, उस व्यक्ति को ज्ञान की उत्पत्ति के समय शास्त्र की मार्गणा ईहा, वस्तु का निश्चय अवाय और उस निश्चय पर्यालोचना के बिना जो मतिज्ञान उत्पन्न होता है, वह की अविच्युति धारणा है । श्रुतनिश्रित है। उत्पत्ति का क्रम अश्रुतनिश्रित मति उक्कमओऽइक्कमओ एगाभावे वि वा न वत्थुस्स । सर्वथा शास्त्रसंस्पर्शरहितस्य तथाविधक्षयोपशम जं सब्भावाहिगमो, तो सब्वे नियमियक्कमा य॥ भावत एवमेव यथावस्थितवस्तुसंस्पशि मतिज्ञानमुपजायते (विभा २९५) तत् अश्रुतनिश्रितम् । (नन्दीमवृ प १४४) अवग्रह आदि चारों का क्रम नियमित है। इनका शास्त्र-संस्पर्श से सर्वथा रहित, तथाविध क्षयोपशम उत्क्रम या व्यतिक्रम होने पर अथवा एक का भी अभाव से जो यथार्थ वस्तुसंस्पर्शी मतिज्ञान होता है, वह अश्रुत- होने पर वस्तु के स्वभाव का अवबोध नहीं होता। निश्रित मति है। ईहिज्जइ नाऽगहियं नज्जइ नाणीहियं न याऽनायं । अश्रुतनिश्रित के प्रकार धारिज्जइ जं वत्थु तेण कमोऽवग्गहाई उ । असूयनिस्सियं चउव्विहं पण्णत्तं, तं जहा (विभा २९६) उप्पत्तिया वेणइया, कम्मया पारिणामिया । अवग्रह से अगृहीत वस्तु में ईहा प्रवृत्त नहीं होती। अनीहित (अविचारित) का अवाय (निश्चय) नहीं बुद्धी चउव्विहा वुत्ता, पंचमा नोवलब्भई ॥ होता । अनिश्चित अथवा अज्ञात अर्थ की धारणा नहीं (नन्दी ३८१) होती। इसलिए अवग्रह आदि क्रमशः होते हैं। अश्रुतनिश्रित मतिज्ञान के चार प्रकार हैं एतो च्चिय ते सव्वे भवंति भिन्ना य व समकालं । १. औत्पत्तिकी बुद्धि, २. वैनयिकी बुद्धि , ३. कर्मजा न वइक्कमो य तेसि न अन्नहा नेयसब्भावो । बुद्धि, ४. पारिणामिकी बुद्धि । बुद्धि के ये चार प्रकार (विभा २९७) हैं, पांचवां प्रकार उपलब्ध नहीं होता। (द्र. बुद्धि) अवग्रहचतुष्टयी उत्तरोत्तर वस्तु के विशेष पर्याय को ४. श्रुतनिश्रित के प्रकार ग्रहण करती है, अतः यह भिन्न-परस्पर असंकीर्ण है। सूयनिस्सियं चउव्विहं पण्णत्तं, तं जहा-उग्गहे ईहा ये चारों समकालीन-युगपत् नहीं होते क्योंकि इनका अवाओ धारणा। (नन्दी ३९) उत्पत्ति-काल भिन्न है। इनका व्युत्क्रम (या उत्क्रम) भी श्रुतनिश्रित मतिज्ञान के चार प्रकार हैं - नहीं होता । ज्ञेय का स्वभाव ऐसा ही है। वह केवल अवग्रह, केवल ईहा, केवल अवाय या केवल धारणा से १. अवग्रह, २. ईहा, ३. अवाय, ४. धारणा।। नहीं जाना जा सकता। ५. अवग्रहचतुष्टयो : परिभाषा कालमान अत्थाणं उग्गहणं, च उग्गह तह वियालणं ईहं । उग्गहे इक्कसामइए, अंतोमुहुत्तिया ईहा, अंतोमुहुववसायं च अवायं, धरणं पुण धारणं बिंति ॥ त्तिए अवाए, धारणा संखेज्ज वा कालं असंखेज्जं वा (नन्दी ५४१२) कालं। (नन्दी ५०) Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवग्रहचतुष्टयी : परिभाषा आभिनिबोधिक ज्ञान अवग्रह का कालमान एक समय, ईहा और अवाय स्पर्शनेन्द्रिय, मन । का एक-एक अन्तर्मुहूर्त तथा धारणा का संख्येय अथवा अवाय-श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, असंख्येय काल है। स्पर्शनेन्द्रिय, मन । अत्थोग्गहो जहन्नो समयं सेसोग्गहादओ वीसं । धारणा-श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, अंतोमुहुत्तमेगं तु वासनाधारणं मोत्तुं ॥ स्पर्शनेन्द्रिय, मन । अर्थावग्रहो निश्चय-व्यवहारभेदतो द्विधा। अति- तीन सौ छत्तीस प्रकार स्तोककालत्वेन जघन्यो नैश्चयिकोऽर्थावग्रह एकसमयं जं बहुबहुविह खिप्पानिस्सियनिच्छिय धूवेयरविभिन्ना । भवति । शेषास्तु"व्यञ्जनावग्रहव्यावहारिकार्थावग्र- पुणरुग्गहादओ तो तं छत्तीसत्तिसयभेयं ।। हेहावायाविच्युतिस्मृतिरूपा मतिभेदास्ते सर्वेऽपि विष्वक (विभा ३०७) पृथगेकमेवाऽन्तर्मुहूत्तं भवन्ति । "अविच्युति-स्मृति- श्रुतनिश्रित मति के अवग्रह आदि अठाईस भेदों को वासनाभेदाद् धारणा त्रिविधा।""स्मृतेर्बीजभूता वासनाख्या बहु-अबहु, बहुविध-अबहुविध, क्षिप्र-अक्षित, अनिश्रितधारणा, सा संख्येयवर्षायुषां सत्त्वानां संख्येयं कालं, निश्रित, निश्चित-अनिश्चित, ध्रुव-अध्रव-इन बारह असंख्येयवर्षायषां त पल्योपमादिजीविनामसंख्येयं कालं भेदों से गुणन करने पर आभिनिबोधिक ज्ञान के २८x भवति। विभा ३३४ मव ५ १६८) १२=३३६ भेद होते हैं। ___ अर्थावग्रह दो प्रकार का है -निश्चय और व्यवहार। बहु-बहुविध आदि अवग्रह की परिभाषा नैश्चयिक अर्थावग्रह अत्यन्त अल्पकालिक होता है। नाणासद्दसमूहं बहुं पिहं मुणइ भिन्नजाईयं । उसका कालमान एक समय है। बहुविहमणेगभेयं एक्केक्कं निद्धमहुराई । शेष -व्यञ्जनावग्रह, व्यावहारिक अर्थावग्रह, ईहा, खिप्पमचिरेण तं चियं सरूवओ जं अणिस्सियमलिगं । अवाय तथा अविच्युति और स्मृति (धारणा के प्रथम दो निच्छियमसंसयं जं धुवमच्चंतं न उ कयाइ । भेद)- इनमें से प्रत्येक का कालमान अन्तर्मुहूर्त है। (विभा ३०८, ३०९) स्मृति की जननी वासना (धारणा का तीसरा भेद) का बहु-यह पटह का शब्द है, यह भेरी का शब्द है, कालमान है -संख्येय काल (संख्यातवर्षजीवी की अपेक्षा) यह शंख का शब्द है-इत्यादि विभिन्न वाद्यों के नाना और असंख्येय काल (पल्योपम आदि असंख्यात वर्ष प्रकार के शब्दों को एक साथ ग्रहण करना। आयुष्य वाले जीवों की अपेक्षा)। बहविध-शंख, भेरी आदि के एक-एक शब्द के अठाईस प्रकार स्निग्धत्व, मधुरत्व आदि अनेक धर्मों को एक साथ ग्रहण करना। . सोइंदियाइभेएण छव्विहावग्गहादओऽभिहिआ । क्षिप्र-शीघ्र ग्रहण करना। ते होंति चउव्वीसं चउम्विहं वंजणोग्गहणं ।। अनिश्रित-हेतु का सहारा लिए बिना स्वरूप को अट्ठावीसइभेयं एवं सुयनिस्सियं समासेणं... । जान लेना। (विभा ३००, ३०१) निश्चित-असंदिग्ध रूप में जानना। अवग्रह (अर्थावग्रह). ईहा, अवाय और धारणा के ध्रव-जैसे पहले बहु-बहुविध आदि का ज्ञान किया, छह-छह (पांच इन्द्रियां और मन) भेद हैं । व्यञ्जनावग्रह वैसे सर्वदा जानना । यह कादाचित्क नहीं होता। के (चक्षु और मन को छोड़कर) चार भेद हैं। इस प्रकार श्रुतनिश्रित मति के अठाईस भेद होते हैं - मेव क्यों ? व्यंजनावग्रह -श्रोत्रेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, एवं बज्झन्भंतरनिमित्तवइचित्तओ मइबहत्तं । स्पर्शनेन्द्रिय। किंचिम्मेत्तविसेसेण भिज्जमाणं पूणोऽणतं ।। अर्थावग्रह -श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, तत्र बाह्य निमित्तं मतिज्ञानस्य कारणमालोकरसनेन्द्रिय, स्पर्शनेन्द्रिय, मन । विषयादिकम् ।""आभ्यन्तरनिमित्तं पुनरावरणक्षयोपशमोईहा-श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, पयोगोपकरणेन्द्रियाणि । (विभा ३११ मवृ पृ १५६) Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभिनिबोधिक ज्ञान ११२ व्यञ्जनावग्रह : परिभाषा मतिज्ञान के विविध भेदों का हेतु है--निमित्तों की ७. व्यञ्जनावग्रह : परिभाषा विचित्रता-- वंजिज्जइ जेणत्थो घडोव्व दीवेण वंजणं तं च । १. बाह्य निमित्त --आलोक, विषय आदि । उवगरणिदियसद्दाइपरिणयद्दव्वसंबंधो । २. आभ्यन्तर निमित्त-आवरण का क्षयोपशम, (विभा १९४) उपयोग इन्द्रिय तथा उपकरण इन्द्रिय । दीपक से घट की भांति जिससे अर्थ अभिव्यंजित इन निमित्तों के किञ्चिन्मात्र भेद से मतिज्ञान के होता है, वह व्यञ्जन है। उपकरण इन्द्रिय और शब्द अनन्त प्रकार होते हैं तथा मतिज्ञान से युक्त जीव अनन्त आदि रूप में परिणत द्रव्य का परस्पर संबंध होना होने के कारण और उनके मतिज्ञान के क्षयोपशम की व्यंजन है। भिन्नता के कारण भी उसकी अनन्तता है। उपकरणेन्द्रिय शब्दादिपरिणतद्रव्यसम्बन्धे प्रथम६. अवग्रह : परिभाषा समयादारभ्यार्थावग्रहात् प्राक् या सुप्तमत्तमूच्छितादिरूप-रसादिभेदरनिर्देश्यस्याऽव्यक्तस्वरूपस्य सामा पुरुषाणामिव शब्दादिद्रव्यसम्बन्धमात्रविषया 'काचिदन्यार्थस्याऽवग्रहणं परिच्छेदनमवग्रहः।" अर्थानां रूपा व्यक्ता ज्ञानमात्रा सा व्यञ्जनावग्रहः । दीनां प्रथम दर्शनानन्तरमेवावग्रहणमवग्रहं ब्रवते । (नन्दीमवृ प १६९) (विभामवृ पृ ९०) उपकरण इन्द्रिय और शब्द आदि रूप में परिणत जिसमें रूप, रस आदि का निर्देश न किया जा सके, द्रव्य का संबंध होने पर प्रथम समय से लेकर अर्थावग्रह जिसका स्वरूप स्पष्ट न हो, उस सामान्य मात्र अर्थ का से पूर्व का जो अव्यक्त ज्ञान है, वह व्यञ्जनावग्रह है। ग्रहण अवग्रह है। यह अव्यक्त ज्ञान सुप्त-मत्त-मच्छित पुरुष के ज्ञान जैसा होता है। (इन्द्रिय और पदार्थ का संबंध रूप योग होने पर अस्तित्व मात्र का आभास होना दर्शन है।) दर्शन के प्रकार बाद सामान्य रूप से पदार्थ का ग्रहण अवग्रह है। - वंजणुग्गहे चउविहे पण्णत्ते, तं जहा-सोइंदियपर्याय वंजणुग्गहे, घाणिदियवंजणुग्गहे, जिभिदियवंजणुग्गहे; फासिदियवंजणुग्गहे । (नन्दी ४१) उग्गहस्स णं इमे एगट्ठिया नाणाधोसा नाणावंजणा व्यञ्जनावग्रह के चार प्रकार हैंपंच नामधिज्जा भवंति, तं जहा-ओगेण्हणया उवधारणया सवणया अवलंबणया मेहा। (नन्दी ४३) १. श्रीन्द्रिय व्यञ्जनावग्रह, २. घ्राणेन्द्रिय व्यञ्जनावग्रह, ३. जिह्वन्द्रिय व्यञ्जनावग्रह, ४. स्पर्शनेअवग्रह के नाना घोष और नाना पर्याय वाले पांच न्द्रिय व्यञ्जनावग्रह ।। एकार्थक हैं-- मल्लक का दृष्टांत १. अवग्रहण, २. उपधारण, ३. श्रवण, ४. अवलम्बन, ५. मेधा। मल्लगदिद्रुतेणं -से जहानामए केइ पुरिसे आवाग सीसाओ मल्लगं गहाय तत्थेगं उदगबिन्दु पक्खिविज्जा प्रकार से नठे, अण्णे पक्खित्ते से वि नठे। एवं पक्खिप्पउग्गहे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-अत्थुग्गहे य माणेस-पक्खिप्पमाणेस होही से उदगबिन्दु जेणं तं वंजणुग्गहे य। (नन्दी ४०) मल्लगं रावेहिति, होही से उदगबिन्दू जेणं तंसि अवग्रह दो प्रकार का है-अर्थ अवग्रह और मल्लगंसि ठाहिति, होही से उदगबिंदू जेणं तं मल्लग व्य ञ्जन अवग्रह। भरेहिति, होही से उदगबिन्दू जेणं तं मल्लगं पवाहेहिति । तत्थुग्गहो दुरू वो गहणं जं होज्ज वंजणत्थाणं ।... एवामेव पक्खिप्पमाणेहि-पक्खिप्पमाणेहिं अणंतेहिं पुग्ग - (विभा १९३) लेहिं जाहे तं वंजणं पुरियं होइ, ताहे 'हुँ' ति करेइ, नो - व्यंजन और अर्थ का ग्राहक होने के कारण अवग्रह चेव णं जाणइ के वेस सद्दाइ ? तओ ईहं पविसइ, तओ दो प्रकार का है। जाणइ अमुगे एस सद्दाइ। तओ अवायं पविसइ, तओ से Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईहा: परिभाषा आभिनिबोधिक ज्ञान उवगयं हवइ । तओ णं धारणं पविसइ, तओ णं धारेइ समए समए गिण्हइ दवाइं जेण मुणइ य तमत्थं । संखेज वा कालं, असंखेज्ज वा कालं। (नन्दी ५३) जं चिदिओवओगे वि वंजणावग्गहेऽतीते ॥ होइ मणोवावारो पढमाओ चेव तेण समयाओ । एक व्यक्ति ने कुंभकार के जलते आवे के ऊपर से होइ तदत्थग्गहणं तदण्णहा न पवत्तेज्जा ।। एक शराव लिया। उस पर पानी की एक बूंद डाली। (विभा २४२, २४३) वह सूख गई । दूसरी बूंद डाली और वह भी सूख गई। किसी पदार्थ के चिन्तन के समय समनस्क जीव प्रति इस प्रकार बूंदें डालते-डालते एक अंतिम बूंद ऐसी भी समय मनोद्रव्य ग्रहण करता है। ग्रहण के प्रथम समय से गिरी जो शराव में ठहरी। एक-एक बूंद गिरते-गिरते ही मन की प्रवृत्ति प्रारम्भ हो जाती है, उसे पदार्थ का वह शराव पानी से भर गया और फिर बूंद के गिरने से अर्थबोध होने लग जाता है। अतः मन के व्यञ्जनावग्रह उससे पानी बाहर बहने लगा। नहीं होता। यदि प्रथम समय में मन को अर्थबोध नहीं इसी प्रकार जब व्यंजन (कान) अनन्त पुद्गलों से होता है तो अग्रिम क्षणों में भी मन की प्रवत्ति नहीं हो भर जाता है तब व्यक्ति 'हूं' ऐसा करता है। पर वह सकती। नहीं जानता कि ये शब्द आदि क्या हैं ? तब वह ईहा में इन्द्रियों के उपयोगकाल में अर्थावग्रह से ही मन की प्रवेश करता है उस समय वह जान जाता है कि यह प्रवत्ति प्रारम्भ होती है, व्यञ्जनावग्रहकाल में नहीं अमुक शब्द है। फिर अवाय में उसे शब्द का निश्चय हो होती। जाता है । उसके बाद धारणा में प्रवेश करता है। तब ८. अर्थावग्रह : परिभाषा वह ज्ञान संख्यात काल अथवा असंख्यात काल तक बना रह सकता है। दव्वं माणं पूरियमिदियमापूरियं तहा दोण्हं । अवरोप्पसंसग्गो जया तया गिण्हइ तमत्थं ।। ज्ञान है या अज्ञान सामन्नमणिद्देसं सरूव-नामाइकप्पणार हियं ।'.. अण्णाणं सो बहिराइणं व तक्कालमणवलंभाओ । (विभा २५१, २५२) न तदंते तत्तो च्चिय उवलंभाओ तओ नाणं ॥ ___ जब व्यञ्जनावग्रह में श्रोत्र आदि इन्द्रियां शब्द (विभा १९५) आदि द्रव्यों से आपूरित होती हैं, तब द्रव्य और इन्द्रिय 'व्यञ्जनावग्रह अज्ञान है। इसमें इन्द्रिय और विषय का परस्पर ससग होता है। उस संसगं के पश्चात् के संबंध काल में ज्ञान की अनुभूति नहीं होती जैसे सामान्य, अनिर्देश्य (अनभिलाप्य) तथा स्वरूप, नाम, बधिर व्यक्ति को प्रारंभ में ज्ञान की अनुभूति नहीं जाति आदि की कल्पना से रहित अर्थ का ग्रहण होना होती'—यह कथन अयुक्त है। व्यञ्जनावग्रह के अनन्तर । अर्थावग्रह है। अर्थावग्रह ज्ञान होता है। यद्यपि व्यञ्जनावग्रह में ज्ञान की अनुभूति नहीं होती, किन्तु वह ज्ञान का कारण है, अत्थुग्गहे छव्विहे पण्णत्ते, तं जहा-सोइंदिय अत्थुअतः वह भी ज्ञान है। ग्गहे, चक्खिदियअत्थुग्गहे, घाणिदियअत्थुग्गहे, जिब्भि दियअत्थुग्गहे, फासिदियअत्थुग्गहे, नोइंदियअत्थुग्गहे । चक्षु और मन का व्यंजनावग्रह नहीं (नन्दी ४२) नयन-मणोवज्जि दिय भेयाओ वंजणोग्गहो चउहा ।"" अर्थावग्रह के छह प्रकार हैं-१. श्रोत्रेन्द्रिय अर्थाव (विभा २०४) ग्रह, २. वक्षुरिन्दिय अर्थावग्रह, ३. ध्राणेन्द्रिय अर्थावलोयणमपत्तविसयं मणो व्व जमणुग्गहाइसुण्णं ति ।... ग्रह, ४. जिव्हेन्द्रिय अर्थावग्रह, ५. स्पर्शनेन्द्रिय अर्थावग्रह, (विभा २०९) ६. नोइन्द्रिय अर्थावग्रह । चक्षु और मन का व्यंजनावग्रह नहीं होता। ६. ईहा : परिभाषा चक्ष और मन विषय से असंबद्ध रहकर उसका ज्ञान इय सामण्णग्गहणाणंतरमीहा सदस्थवीमंसा । कर लेते हैं, अत: ये अप्राप्यकारी हैं। ये ग्राह्य-वस्तु-कृत किमिदं सहोऽसहो को होज्ज व संखसंगाणं ।। भनुग्रह-उपघात से शून्य हैं। (विभा २८९) Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभिनिबोधिक ज्ञान अवाय : परिभाषा 'सामान्य ग्रहण के अनन्तर सत अर्थ की मीमांसा ३. चित्त की जड़ीभूत अवस्था-अवस्तु की करना ईहा है। नैश्चयिक अर्थावग्रह के अनन्तर यह निश्चायकता। मीमांसा होती है कि यह शब्द है अथवा अशब्द ? ४. सुप्त की भांति सर्वात्मना वस्तु का अनवबोध । व्यावहारिक अर्थावग्रह के अनन्तर यह मीमांसा होती है-यह शब्द शंख का है अथवा सींग का ? १. चित्त सदर्थ-विवक्षित अर्थ के हेतु और उपपत्ति पर्याय (संभाव्य व्यवस्थापन) की प्रवृति में संलग्न । तीसे णं इमे एगदिया नाणाघोसा नाणावंजणा पंच २. अमिथ्या, अमोघ चित्त । ३. यथार्थ के ग्रहण और अयथार्थ के परित्याग में नामधिज्जा भवंति, तं जहा-आभोगणया, मग्गणया, गवेसणया, चिता, वीमंसा । (नन्दी ४५) तत्पर । ४. निश्चयाभिमुखता। ईहा के नाना घोष और नाना पर्याय वाले पांच . एकार्थक हैं न हि 'किमयं स्थाणुः, पुरुषो वा' इत्यादि रूपः संशय १. आभोगनता, २. मार्गणा, ३. गवेषणा, ४. ईहाऽभ्युपगम्यते । अन्वयधर्मघटन-व्यतिरेकधर्मनिराकर णाभ्यां निश्चयाभिमुखो बोध ईहा। न चायं संशयः, चिन्ता, ५. विमर्श। निश्चयाभिमुखत्वात् । नापि निश्चयः, तत्प्रत्यासत्तिमात्रप्रकार प्राप्तत्वात्। (विभामवृ पृ १५७) ईहा छव्विहा पण्णत्ता, त जहा-साइदियइहा, 'यह स्थाणु है या पुरुष' इस प्रकार का संशयात्मक चक्खिादयाहा, पाणिदियइहा, राजाभादयाहा, कासिदिय- ज्ञान ईहा नहीं है। अन्वयधर्मों के स्वीकरण तथा ईहा, नोइं दियईहा। (नन्दी ४४) व्यतिरेक धर्मों के निराकरण द्वारा जो निश्चयाभिमुखी ईहा के छह प्रकार हैं - बोध है, वह ईहा है । निश्चय के अभिमुख होने के कारण १. श्रोत्रेन्द्रिय ईहा, २. चक्षुरिन्द्रिय ईहा, ३. घ्राणे यह संशय नहीं है। निश्चय के प्रत्यासन्न होने मात्र से न्दिय ईहा. ४. जिव्हेन्द्रिय ईहा, ५. स्पशेनेन्द्रिय इहा, यह निश्चय भी नहीं है। ६. नोइन्द्रिय ईहा। १०. अवाय : परिभाषा ईहा अज्ञान नहीं महराइगुणत्तणओ संखस्सेव त्ति जन संगस्स । ईहा संसयमेत्तं केई, न तयं तओ जमन्नाणं । विण्णाणं सोऽवाओ अण् गम-वइरेगभावाओ ।। मइनाणं सा चेहा, कहमन्नाणं तई जुत्तं ? (विभा २९०) (विभा १८२) यह शब्द मधुर है, स्निग्ध है, इसलिए यह शंख का कुछ दार्शनिक मानते हैं -ईहा संशयमात्र हैं । संशय ही होना चाहिए, सींग का नहीं इस प्रकार अन्वय अज्ञान है, इसलिए ईहा अज्ञान है -यह कथन मिथ्या है। धर्मो और व्यतिरेक धर्मों के आधार पर किया जाने ईहा मतिज्ञान का अंश है। वह ज्ञान है। उसे अज्ञान वाला निश्चयात्मक ज्ञान अवाय है। मानना युक्त नहीं है। पर्याय ईहा और संशय में अंतर तस्स णं इमे एगडिया नाणाघोसा नाणावंजणा पंच जमणेगत्थालं बणमपज्जुदासपरिकुंठियं चित्तं । नामधिज्जा भवंति, तं जहा-आवट्टणया, पच्चावट्टणया, सेय इव सव्वप्पयओ तं संसयरूवमन्नाणं ।। अवाए, बुद्धी, विण्णाणे । (नन्दी ४७) तं चिय सयत्थहेऊववत्तिवावारतप्परममोहं । __ अवाय के नाना घोष और नाना पर्याय वाले पांच भूयाभूयविसेसायाणच्चायाभिमुहमीहा ॥ एकार्थक हैं (विभा १८३, १८४) १. आवर्तनता, २. प्रत्यावर्तनता, ३. अवाय, ४. संशय है बुद्धि, ५. विज्ञान । १. चित्त की अनेकार्थ अवलंबनता। प्रकार. . । २. अपर्युदास -निषेध का अभाव । अवाए छविहे पण्णत्ते, तं जहा-सोइंदियअवाए, Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धारणा : परिभाषा ११५ आभिनिबोधिक ज्ञान चक्विदियअवाए, घाणिदियअवाए, जिभिदियअवाए, स्तस्याऽर्थोपयोगस्य यदावरणं कर्म तस्य क्षयोपशमेन जीवो फासिदियअवाए, नोइंदियअवाए। (नन्दी ४६) युज्यते, येन कालान्तरे इन्द्रियव्यापारादिसामग्रीवशात ___ अवाय छह प्रकार का है-१. श्रोत्रेन्द्रिय अवाय, पुनरपि तदर्थोपयोगः स्मृतिरूपेण समुन्मीलति । सा चेयं २. चक्षरिन्द्रिय अवाय, ३. घ्राणेन्द्रिय अवाय, तदावरणक्षयोपशमरूपा वासना नाम द्वितीयस्तभेदो ४. जिव्हेन्द्रिय अवाय, ५. स्पर्शनेन्द्रिय अवाय, भवति । कालान्तरे च वासनावशात तदर्थस्येन्द्रियरुप६. नोइन्द्रिय अवाय। लब्धस्य अथवा तैरनुपलब्धस्याऽपि मनसि या स्मृतिअवाय औपचारिक अर्थावग्रह राविर्भवति, सा तृतीयस्तद्भेदः। (विभामवृ पृ १४५) . धारणा के तीन रूप हैं --- सम्वत्थेहावाया निच्छयओ मोत्तुमाइसामण्णं ।। संववहारत्थं पुण सव्वत्थाऽवग्गहोऽवाओ ।। १. अविच्युति -जब तक अपाय द्वारा निर्णीत अर्थ में (विभा २८५) उपयोग की धारा का सातत्य रहता है, उससे निवृत्ति नहीं होती है, तब तक धारणा का प्रथम भेदसर्वत्र विषयपरिच्छेदे कर्तव्ये निश्चयतः परमार्थत अविच्युति होता है। ईहाऽपायौ भवतः । ईहा, पुनरपाय: पुनरीहा, पुनर २. वासना-उस अर्थोपयोग के आवारक कर्म के प्यपायः इत्येवं क्रमेण यावदन्त्यो विशेषः, तावदीहा क्षयोपशम से जीव उस उपयोग से युक्त होता है। ऽपायावेव भवतः, नाऽर्थावग्रहः ।'आद्यमव्यक्तं सामान्य इससे कालान्तर में इन्द्रिय-प्रवृत्ति के अनुकूल मात्रालम्बनमेकसामयिकं ज्ञानं मुक्त्वाऽन्यत्रेहाऽपायौ सामग्री मिलने पर वह अर्थोपयोग पुनः स्मृति के भवतः । इदं पुनर्नेहा, नाऽप्यपाय:, किन्त्वर्थावग्रह एवेति रूप में व्यक्त होता है। यह तदावरण का क्षयोपशम भावः। संव्यवहाराथं व्यावहारिकजनप्रतीत्यपेक्षं पूनः रूप धारणा का दूसरा भेद है -- वासना । सर्वत्र यो योऽपायः स स उत्तरोत्तरेहाऽपायापेक्षया, एष्यविशेषापेक्षया चोपचारतोऽर्थावग्रहः । (विभामव पृ १४२) ३. स्मृति --कालान्तर में वासना के कारण इन्द्रियों के द्वारा उपलब्ध अथवा अनुपलब्ध उस अर्थ की मानसनैश्चयिक दृष्टि के अनुसार विषय का परिच्छेद हो पटल पर स्मृति उभरती है । यह धारणा का तीसरा जाने पर, सर्वत्र अन्तिम विशेष तक पुनः पुनः ईहा और भेद है। अपाय होते रहते हैं, अर्थावग्रह नहीं होता। केवल आदिसामान्य इसका अपवाद है-प्रथम एक सामयिक अव्यक्त तस्यैवार्थस्य निर्णीतस्य धरणं धारणा। सा च सामान्य मात्र के ज्ञान में अर्थावग्रह होता है, ईहा और त्रिधा-अविच्युतिर्वासना स्मृतिश्च । तत्र तदुपयोगादअपाय नहीं होते । सांव्यवहारिक दृष्टि के अनुसार विच्यवनमविच्युतिः । सा चान्तमहूर्तप्रमाणा। ततस्तयाउत्तरोत्तर ईहा और अपाय की अपेक्षा तथा भावी विशेष ऽऽहितो यः संस्कारः स वासना । सा च संख्येयमबोध की अपेक्षा अपाय को भी औपचारिक अर्थावग्रह संख्येयं वा कालं यावद् भवति । तत: कालान्तरे कुतश्चित्ताकहा जा सकता है। दशार्थदर्शनादिकारणात् संस्कारस्य प्रबोधे यज्ज्ञानमुदयते तदेवेदं यत् मया प्रागुपलब्धमित्यादिरूपं सा स्मृतिः । ११. धारणा : परिभाषा (नन्दीमवृ प १६८) तयणंतरं तयत्थाविच्चवणं जो य वासणाजोगो। अवाय द्वारा निर्णीत अर्थ को धारण करना धारणा कालंतरे य जं पुणरणुसरणं धारणा सा उ॥ है। उसके तीन प्रकार हैं --१. अविच्युति २. वासना, __ (विभा २९१) ३. स्मृति । उपयोग (ज्ञान की प्रवृत्ति) की धारा का अपाय के अनन्तर उस निर्णीत अर्थ की अविच्युति, अविच्छिन्न रहना अविच्युति है। इसका कालमान अन्ततदावरण कर्म के क्षयोपशम से वासना रूप में अर्थ का। महत प्रमाण है। इसके द्वारा आहित/स्थापित संस्कार उपयोग और कालान्तर में पुनः उसका अनुस्मरण करना का नाम है वासना । यह संख्येय या असंख्येय काल तक धारणा है। होती है । कालान्तर में कहीं पहले जैसा पदार्थ देखने से अपायेन निश्चितेऽर्थे तदनन्तरं यावदद्यापि तदर्थोपयोगे संस्कार जागत होने पर 'यह वही है, जिसे मैंने पहले त तस्माद निवर्तते. तावत तदर्थोपयो- उपलब्ध किया था'-ऐसा ज्ञान उदित होता है, यह गादविच्युति म सा धारणायाः प्रथमभेदो भवति । तत- स्मृति है। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभिनिबोधिक ज्ञान मतिज्ञान का विषय तीसे णं इमे एगट्रिया नाणाघोसा नाणावंजणा पंच को जानता है, देखता नहीं। क्षेत्र की अपेक्षा से वह नामधिज्जा भवंति, तं जहा १. धरणा २. धारणा सामान्यतया सब क्षेत्रों को जानता है, देखता नहीं। ३. ठवणा ४. पइदा ५. कोठे। (नन्दी ४९) काल की अपेक्षा से वह सामान्यतया सर्व काल को धारणा के नाना घोष और नाना पर्याय वाले पांच जानता है, देखता नहीं। भाव की अपेक्षा से वह एकार्थक हैं -धरणा, धारणा, स्थापना, प्रतिष्ठा और सामान्यतया सब भावों को जानता है, देखता नहीं। कोष्ठ। आएसो त्ति पगारो, ओहादेसेण सव्वदव्वाइं । धारणा छव्विहा पण्णत्ता, तं जहा-सोइंदियधारणा, धम्मत्थिआइयाई जाणइ, न उ सव्वभेएणं ॥ चक्खिदियधारणा, जिभिदियधारणा, फासिदियधारणा, खेत्तं लोगालोग, कालं सव्वद्धमहव तिविहं ति। नोइंदियधारणा। (नन्दी ४८) पंचोदइयाईए भावे, जं नेयमेवइयं ।। धारणा के छह प्रकार हैं-१. श्रोत्रेन्द्रिय धारणा, (विभा ४०३, ४०४) २. चक्षुरिन्द्रिय धारणा, ३. घ्राणेन्द्रिय धारणा, आभिनिबोधिकज्ञानी सामान्य प्रकार से धर्मास्ति४. जिव्हेन्द्रिय धारणा, ५. स्पर्शनेन्द्रिय धारणा, ६. नो काय आदि सब द्रव्यों को जानता है, उनके सब पर्यायों इन्द्रिय धारणा। को नहीं जानता। १२. आभिनिबोधिक ज्ञान ही मतिज्ञान वह लोकालोक क्षेत्र और अतीत-वर्तमान-अनागत आभिनिबोधिकम् -अवग्रहादिरूपं मतिज्ञानमेव। काल तथा उदय आदि पांच भावों को जानता है। ज्ञेय (नन्दीहावृ पृ १८) इतना ही है। मतिशब्दोऽत्राभिनिबोधिकसमानार्थो द्रष्टव्यः । आदेशः -प्रकारः, स च द्विधा -- सामान्यरूपो आभिनिबोधिकं ह्यौत्पत्तिक्यादिमतिप्रधानत्वाद मतिरित्य विशेषरूपश्च, तत्रेह सामान्यरूपो ग्राह्यः । तत आदेशेन --- प्युच्यते । (विभामव पृ ४८) द्रव्यजातिरूपसामान्यादेशेन सर्व द्रव्याणि-धर्मास्तिकाया__ अवग्रह आदि रूप वाला आभिनिबोधिक ज्ञान मति- दीनि जानाति, किञ्चिद्विशेषतोऽपि । यथा धर्माज्ञान ही है। स्तिकायो धर्मास्तिकायस्य प्रदेशः तथा धर्मास्तिकायो मति शब्द आभिनिबोधिक के समान अर्थ वाला है। गत्युपष्टम्भहेतुरमूर्तो लोकाकाशप्रमाण इत्यादि । न औत्पत्तिकी आदि मति की प्रधानता के कारण आभि- पश्यति सर्वात्मना धर्मास्तिकायादीन्न पश्यति, घटानिबोधिक ज्ञान मतिज्ञान भी कहलाता है। दींस्तु योग्यदेशावस्थितान पश्यत्यपि । (नन्दीमवृ प १८४) १३. श्रुतनिरपेक्ष मति ही शुद्ध मतिज्ञान आदेश का अर्थ है-प्रकार । उसके दो भेद हैंजे अक्खराणुसारेण मइविसेसा तयं सुयं सव्वं ।। सामान्य और विशेष । यहां उसका सामान्यरूप ग्राह्य जे उण सुयनिरवेक्खा सुद्धचिय तं मइन्नाणं ॥ (विभा १४४) मतिज्ञान सामान्यरूप से धर्मास्तिकाय आदि सब अक्षर (श्रुत-ग्रन्थ) का अनुसरण करने वाली मति द्रव्यों को जानता है, कुछ अंशों में विशेषरूप से भी विशेष श्रुतज्ञान है। श्रुतनिरपेक्ष मति ही शुद्ध मतिज्ञान जानता है। यथा-धर्मास्तिकाय गतिसहायक द्रव्य है। वह अमूर्त और लोकाकाशप्रमाण है। मतिज्ञान उचित १४. मतिज्ञान का विषय देश में अवस्थित घट आदि को देखता भी है, किन्तु दव्वओ णं आभिणिबोहियनाणी आएणं सव्वदव्वाई धर्मास्तिकाय आदि को सर्वात्मना नहीं देखता। जाणइ, न पास। खेत्तओ णं आभिगिबोहियनाणी आएसो त्ति व सुत्तं, सुउवलद्धेसु तस्स मइनाणं । आएसेणं सव्वं खेत्तं जाणइ, न पासइ। कालओ णं पसरइ तब्भावणया विणा वि सुत्तानुसारेण ॥ आभिणिबाहियनाणी आएसेणं सव्वं कालं जाणइ, न (विभा ४०५) पासइ। भावओ णं आभिणिबोहियनाणी आएसेणं सव्वे आदेश का अर्थ है---श्रुत । श्रुत से उपलब्ध अर्थ में भावे जाणइ, न पास इ। (नन्दी ५४) मतिज्ञान प्रवत्त होता है। श्रतोपयोग के बिना भी श्रत द्रव्य की अपेक्षा से मतिज्ञानी सामान्यतया सब द्रव्यों की वासना मात्र से मतिज्ञान उस अर्थ का स्वतन्त्र Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मति और श्रुत में भेद चिन्तन करता है । सूत्रादेशात्सर्वद्रव्याणि धर्मास्तिकायादीनि जानाति, न तु साक्षात् सर्वाणि पश्यति । श्रुतभावितमतेः श्रुतोपलब्धेष्वपि अर्थेषु सूत्रानुसारमात्रेण येऽवग्रहेहापायादयो बुद्धिविशेषाः प्रादुष्यन्ति ते मतिज्ञानमेव, न श्रुतज्ञानं, सूत्रानुसारनिरपेक्षत्वात् । ( नन्दीमवृप १८४ ) मतिज्ञान सूत्रादेश से ( सूत्र के आधार पर ) धर्मास्तिकाय आदि सब द्रव्यों को जानता है, उन्हें साक्षात् नहीं देखता । श्रुत से भावित मति वाला पुरुष श्रुत से कुछ अर्थों को जानता है, वह मात्र श्रुतानुसारी है, इसलिए उसमें होने वाले अवग्रह, ईहा आदि ज्ञान के विशेष प्रकार मतिज्ञान के ही भेद हैं । श्रुत से निरपेक्ष होने के कारण वह श्रुतज्ञान नहीं है । १५. मति और श्रुत में भेद मत्थं ऊहिऊण णो निद्दिसति तं आभिणिबोहियणाणं भणति । ....जो पुण अत्थं ऊहिऊण निद्दिसइ तं सुणा भण्णइ । ( आवचू १ पृ७, ८) जो अर्थ का विमर्श कर उसका निर्देश नहीं करता, वह मतिज्ञान है । जो विमर्शपूर्वक अर्थ का निर्देश करता है, वह श्रुतज्ञान है । लक्खणभेआ हेऊ फलभावओ भेयइन्दियविभागा । वाग- क्खर - मुंए-यर भेआभेओ मइ सुयाणं ॥ ( विभा ९७ ) मतिज्ञान और श्रुतज्ञान में निम्न दृष्टियों से भेद है - १. लक्षण भेद - दोनों के लक्षण भिन्न-भिन्न हैं । २. हेतु - फल - मतिज्ञान हेतु है, श्रुतज्ञान फल है । ३. भेद-विभाग- दोनों के विभाग भिन्न-भिन्न हैं । अवग्रह आदि मतिज्ञान के विभाग हैं, अक्षर श्रुत, अनक्षर श्रुत आदि श्रुतज्ञान के विभाग हैं । ४. इन्द्रिय-विभाग -- श्रुतज्ञान केवल श्रोत्रेन्द्रिय से संबंधित है, मतिज्ञान शेष इन्द्रियों से संबंधित है । ५. कारण कार्य - मतिज्ञान कारण है, श्रुतज्ञान कार्य है । ६. अनक्षर-अक्षर - मतिज्ञान अनक्षर है, श्रुतज्ञान अक्षर है । ७. मूक अमूक - मतिज्ञान मूक है, श्रुतज्ञान अमूक है । ११७ आभिनिबोधिक ज्ञान लक्षण की दृष्टि से ....अभिनिबुज्झइ त्ति आभिणिबोहियं, सुणेड त्ति सुयं । ( नन्दी ३५ ) जो जाना जाता है, वह मतिज्ञान है । जो सुना जाता है, वह श्रुतज्ञान है । दृष्टश्च परस्परमनुगतयोरपि लक्षणभेदाभेदः । अभिमुखं - योग्यदेशे व्यवस्थितं नियतमर्थमिन्द्रियमनोद्वारेण बुध्यते आत्मा येन परिणामविशेषेण स परिणामविशेषो ज्ञानापरपर्याय आभिनिबोधिकम् । शृणोति वाच्यवाचकभावपुरस्सरं श्रवणविषयेन शब्देन सह संस्पृष्टमर्थं परिच्छिनत्त्यात्मा येन परिणामविशेषेण स परिणामविशेषः श्रुतम् । ( नन्दीमपृ प १४० ) परस्पर अनुगत होने पर भी मति और श्रुत अपनेअपने लक्षण से भिन्न हैं। जिस परिणाम विशेष से आत्मा इन्द्रिय और मन के माध्यम से योग्य देश में अवस्थित नियत अर्थ को जानती है, वह परिणामविशेष आभिनिबोधिक ज्ञान है । आत्मा जिस परिणाम विशेष से वाच्यवाचक संबंधयुक्त शब्द से संस्पृष्ट अर्थ को सुन्ती - जानती है, वह परिणामविशेष श्रुतज्ञान है । हेतु-फल की दृष्टि से म सुयमुत्तं न मई सुयपुव्विया विसेसोऽयं । पुवं पूरण- पालणभावाओ जं मई तस्स ॥ ( विभा १०५ ) श्रुत मतिपूर्वक होता है, मति श्रुतपूर्वक नहीं होतीयह दोनों में भेद है। श्रुत की प्राप्ति तथा वैशिष्ट्य सम्पादन के कारण मतिपूर्वक श्रुत कहा गया है । मत्या पूर्यते प्राप्यते श्रुतम् । न खलु मतिपाटवविभवमन्तरेण श्रुतविभवमुत्तरोत्तरमासादयति जन्तुः । यच्च यदुत्कर्षापकर्षवशादुत्कर्षापकर्षभाक् तत्तस्य कारणं, यथा घटस्य मृत्पिण्ड: । पाल्यते अवस्थिति प्राप्यते मत्या श्रुतं श्रुतेष्वपि बहुषु ग्रंथेषु यद्विषयं स्मरणमीहापोहादि वा अधिकतरं प्रवर्तते स ग्रंथ: स्फुटतरः प्रतिभाति, न शेषाः । ( नन्दीमवृप १४१ ) मति से श्रुत की प्राप्ति होती । मतिपाटव के वैभव के बिना श्रुत का वैभव उत्तरोत्तर प्राप्त नहीं होता । एक वस्तु का उत्कर्ष और अपकर्ष जिस दूसरे द्रव्य के अधीन होता है, वह उसका कारण बनता है । Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभिनिबोधिक ज्ञान को जैसे घड़े का कारण है मृत्पिण्ड । मतिज्ञान से ही श्रुत विशेष अवस्था प्राप्त होती है। बहुत सारे श्रुतग्रंथों में भी जिस ग्रंथ के विषय में स्मरण, ईहा, अपोह आदि मतिरूपों का अधिकतर प्रयोग होता है, वह ग्रन्थ अत्यन्त स्पष्ट हो जाता है, शेष उतने स्पष्ट नहीं होते । भेद विभाग की दृष्टि से भेयकयं व विसेसणमट्ठावीस इविहंगभेयाइ । ( विभा ११६ ) मतिज्ञान के अवग्रह, ईहा आदि अठाईस भेद हैं और श्रुतज्ञान के अंगप्रविष्ट, अनंगप्रविष्ट आदि चौदह भेद हैं । इन्द्रिय-विभाग की दृष्टि से सोदियओवलद्धी होइ सुयं सेसयं तु मइनाणं । मोत्तूणं दव्वसुयं अक्खरलंभो यसे ॥ ( विभा ११७ ) श्रोत्रेन्द्रिय के माध्यम से होने वाला ज्ञान श्रुतज्ञान है । चक्षु आदि शेष चार इन्द्रियों के निमित्त से होने वाला ज्ञान मतिज्ञान है । द्रव्यश्रुत ( पुस्तक आदि ) ही नहीं, शेष चारों इन्द्रियों से जो अक्षर-लाभ होता है, वह भी श्रुत है I कारण- कार्य की दृष्टि से 'मई वग्गसमा सुम्बसरिसयं सुतं ॥ ( विभा १५४ ) मतिज्ञान कारण है | श्रुतज्ञान कार्य है । मति वल्क के समान है | श्रुत रज्जु के समान है । ( वल्क कारण है, रज्जु कार्य है ।) अक्षर-अनक्षर की दृष्टि से ......... अणक्खरं होज्ज वंजणक्खरओ । मइनाणं, सुत्तं पुण उभयं पि अणक्खरक्खरओ ।। ( विभा १७० ) व्यञ्जनाक्षर की अपेक्षा से मतिज्ञान अनक्षर है । श्रुतज्ञान अक्षर और अनक्षर दोनों प्रकार का है । मूक अमूक की दृष्टि से सपर पच्चायणओ भेओ जं मूयं मइनाणं मूओयराण वाभिहिओ । सपर पच्चायगं सुतं ॥ ( विभा १७१ ) मतिज्ञान मूक के सदृश है । वह केवल अपने को ही मति और श्रुत में अभेद प्रकाशित करता है। श्रुतज्ञान अमूक के सदृश है । वह स्व-पर- दोनों को प्रकाशित करता है । ११८ काल की दृष्टि से वार्तमानिकं वस्त्वभिनिबोधिकज्ञानस्य ज्ञेयं, त्रिकाल - साधारणः समानपरिणामो ध्वनिर्गोचरः श्रुतज्ञानस्य । ( नन्दीमवृप ६६ ) मतिज्ञान का विषय है - वर्तमानवर्ती वस्तु । श्रुतज्ञान का विषय है-अतीत, वर्तमान और अनागततीनों कालों में समान परिणमन वाली ध्वनि । १६. मति और श्रुत में अभेद जत्थ जत्था भिणिबोहियनाणं, तत्थ सुयनाणं । सुयनाणं, तत्था भिणिबोहियनाणं । दोवि एयाई अण्णमण्ण मणुगाई | ( नन्दी ३५ ) जहां मतिज्ञान है, वहां श्रुतज्ञान है और जहां श्रुतज्ञान है, वहां मतिज्ञान है । ये दोनों परस्पर अनुगत हैं । जं सामिकाल-कारण- विसय-परोक्खत्तणेहिं तुल्लाई । भावे सेसाणि य तेणाईए मइ सुयाई ॥ ( विभा ८५ ) स्वामि-काल- कारण -विषय-परोक्षत्वसाधर्म्यात् तद्भावे च शेषज्ञानभावादादावेव मतिज्ञान - श्रुतज्ञानयोरुपन्यासः । य एव मतिज्ञानस्य स्वामी स एव श्रुतज्ञानस्य । यावान् मतिज्ञानस्य स्थितिकालस्तावानेवेतरस्य । यथा च मतिज्ञानं क्षयोपशमहेतुकं तथा श्रुतज्ञान मपि । यथा । मतिज्ञानमादेशतः सर्वद्रव्यादिविषयमेवं श्रुतज्ञानमपि । यथा मतिज्ञानं परोक्षं एवं श्रुतज्ञानमपीति तथा मतिश्रुतज्ञानयोरेव अवध्यादिज्ञानभावादिति । ( नन्दीहावृ पृ १९ ) मति और श्रुत में निम्न दृष्टियों से साधर्म्य है१. अधिकारी - जो मतिज्ञान का अधिकारी है, वही श्रुतज्ञान का अधिकारी है । २. काल - जितनी स्थिति मतिज्ञान की है, उतनी ही स्थिति श्रुतज्ञान की है । ३. कारण --- दोनों ज्ञान क्षयोपशमहेतुक हैं । ४. विषय- दोनों का विषय सर्वद्रव्य है । ५. परोक्षत्व -- इन्द्रिय और मन के निमित्त से होने के कारण दोनों परोक्ष हैं । ६. मति और श्रुत होने पर ही अवधि आदि शेष ज्ञान होते हैं । Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मतिज्ञान की प्रतिपन्नता... १७. मतिपूर्वक श्रुत मइव्वं सुयं न मई सुयपुब्विया । ( नन्दी ३५ ) श्रुतज्ञान मतिपूर्वक होता है, मतिज्ञान श्रुतपूर्वक नहीं होता । इह लद्धिमइसुयाई समकालाई, न मइवं सुयमिह पुण सुअवओगो तूवओगो सिं । मइप्पभवो ॥ ( विभा १०८ ) श्रुत मतिपूर्वक होता है- यह कथन उपयोग की अपेक्षा से है, न कि लब्धि की अपेक्षा से । क्योंकि मति और श्रुत की प्राप्ति (लब्धि ) समकालीन होती है, पहले पीछे नहीं । श्रुत का उपयोग मति से प्रसूत है । सर्वत्रापि पूर्वमवग्रहादिरूपं मतिज्ञानमुदयते पश्चाद् श्रुतम् । मतिपूर्वं च श्रुतमुच्यते उपयोगापेक्षया । न खलु मत्युपयोगेन सञ्चिन्त्य श्रुतग्रन्थानुसारि विज्ञानमासा - दयति जन्तुः । सम्यक्त्वोत्पत्तिकाले समकालं मतिश्रुते लब्धिमात्रमेवाङ्गीकृत्य प्रोच्यते, न तूपयोगम् । ( नन्दी मवृ प ७० ) पहले मतिज्ञान होता है, फिर श्रुतज्ञान- यह कथन उपयोग की अपेक्षा से । मति के उपयोग के बिना ग्रन्थानुसारी श्रुतज्ञान प्राप्त नहीं होता । लब्धि की अपेक्षा से सम्यक्त्व की प्राप्ति के समय मति और श्रुत को समकालीन कहा गया है। उपयोग की अपेक्षा से मति और श्रुत समकालीन नहीं हैं । १८. द्रव्यश्रुतपूर्वक मति सोऊण जा मई....। सा दव्वसुयप्पभवा भावसुयाओ मई नत्थि ॥ ( विभा १०९ ) किसी के शब्द को सुनकर जो मति उत्पन्न होती है, वह द्रव्यश्रुत से प्रसूत है । भावश्रुतपूर्वक मति नहीं होती । १६. मतिज्ञान का क्षेत्र ११९ खेत्तं हवेज्ज चोदसभागा सत्तोवर अहे पंच । इलिआईए विग्गहगयस्स गमणेऽहवाऽऽगमणे ॥ ( विभा ४३० ) लोक चौदह रज्जु प्रमाण है । मतिज्ञानी का क्षेत्र है - ऊर्ध्व लोक में सात रज्जु तथा अधोलोक में पांच रज्जु । विग्रहगतिसमापन्न जीव इलिकागति से अनुत्तर विमान में जाता है अथवा वहां से आता है, तब सात आभिनिबोधिक ज्ञान रज्जुप्रमाण क्षेत्र का स्पर्श करता है तथा जो जीव छठी नरक में जाता है अथवा वहां से आता है, तब पांच रज्जुप्रमाण क्षेत्र का स्पर्श करता है । २०. साकारोपयोग और मतिज्ञान सागावउत्तो पडिवज्जति, णो अणागारोवउत्तो । जम्मि समए पडवणी आभिणिबोहियणाणं तंमि समए सो जीवो सागा रोवउत्तो लब्भति । ( आवचू १ पृ १९, २० ) साकार उपयोग में उपयुक्त जीव मतिज्ञान प्राप्त करता है, अनाकार उपयोग में नहीं । जिस समय जीव मतिज्ञान प्राप्त करता है, उस समय वह साकारोपयोग में उपयुक्त होता है । २१. मतिज्ञान से शून्य जीव एगिदियजाईओ सम्मामिच्छो य जो य अपरित्ताऽभव्वा अचरिमा य एए सव्वण्णू । सया सुण्णा ॥ ( विभा ४११ ) एकेन्द्रिय जीव (पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति), सम्यक्मथ्यादृष्टि, सर्वज्ञ, अ-परीत, अभव्य, अ- चरम - ये सब मतिज्ञान से सदा शून्य होते हैं । २२. मतिज्ञान : विरहकाल एगस्स जहन्नेणं पोग्गलपरिअदृद्धं देसूणं एक व्यक्ति की अपेक्षा सम्यक्त्व से प्रतिपतित मतिज्ञान का अन्तरकाल - विरहकाल जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त्त और उत्कृष्टतः देशोन अर्धपुद्गलपरावर्त है । अंतरमन्तोमुहुत्तमुक्कोसं । बहु ॥ ( विभा ४३७ ) २३. ज्ञान उत्पत्ति और नय सम्मत्त - नाणरहियस्स नाणमुप्पज्जइत्ति ववहारो । नेच्छाइयनओ भासइ उप्पज्जइ तेहि सहिअस्स || ( विभा ४१४ ) सम्यक्त्व और ज्ञान से रहित मिथ्यादृष्टि अज्ञानी जीव में ज्ञान उत्पन्न होता है यह व्यवहारनय का अभिमत है । निश्चयनय के अनुसार सम्यक्त्व और ज्ञान से सहित जीव में ही ज्ञान उत्पन्न होता है । २४. मतिज्ञान की प्रतिपन्नता प्रतिपद्यमानता विलाऽविसुद्धलेसा मणपज्जवणाणिणो अणाहारा । असण्णी अणागारोवओगिणो afsaar || Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयतन सेसा पुत्रपवण्णा नियमा भयणा पुर्वपवण्णा पडिवज्जमाणया भइया । अकसायाsarat होंति ॥ ( विभा ४१२, ४१३) विकलेन्द्रिय ( द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय), अविशुद्धलेश्य (कृष्ण-नील कापोत), अनाहारक, असंज्ञी, अनाकारोपयोगी - ये सब यदि मतिज्ञानी हों तो पूर्वप्रतिपन्न ही होंगे । मनःपर्यवज्ञानी पूर्वप्रतिपन्न ही होते हैं । मनुष्य – ये सब नारक, देव, पंचेन्द्रिय तिर्यंच और जाति की अपेक्षा (समुच्चय दृष्टि से ) मतिज्ञान से पूर्व - प्रतिपन्न होते हैं । इनमें प्रतिपद्यमानता वैकल्पिक है । अकषाय और अवेदक में पूर्व प्रतिपन्नता वैकल्पिक है छद्मस्थ की अपेक्षा पूर्व प्रतिपन्न होते हैं, केवली की अपेक्षा पूर्वप्रतिपन्न नहीं होते तथा ये दोनों प्रतिपद्यमान नहीं होते । आयतन - विशुद्धि के योग्य स्थान । १. आयतन अनायतन ० परिभाषा ० पर्याय ० प्रकार २. अनायतन सेवन का निषेध ३. आयतन - अनायतन सेवन की फलश्रुति १. आयतन - अनायतन: परिभाषा जत्य साहम्मिया बहवे, सीलमंता बहुस्सुया । चरित्तायारसंपन्ना, आययणं तं वियाणाहि ॥ (ओनि ७८३) बहुत से साधर्मिक साधु बहुश्रुत, शीलसंपन्न और चारित्राचारसंपन्न होते हैं, वह आयतन है । जत्थ साहम्मिया बहवे, भिन्नचित्ता अणारिया । लिंगवेसपडिच्छन्ना, अणायतणं तं वियाणा हि ॥ (ओनि ७८१) जहां बहुत से साधु चंचल ( व्याक्षिप्त, व्याकुल) चित्त वाले, अनार्य, मात्र लिंग और वेपवारी होते हैं, वह अनायतन है । एवमिण उवगरणं हवति गुणाणायतणं १२० धारेमाणो विहीसुपरिसुद्धं । अविहिअसुद्धे अणायणं । (ओनि ७६२ ) अनायतन सेवन का निषेध आगमोक्त विधि से निर्दोष उपकरण आदि धारण करना गुणों का आयतन है । अविधि से अशुद्ध उपकरण आदि रखना अनायतन है । अह लोउत्तरियं पुण अणायतणं भावतो मुणेयव्वं । जे संजमजोगाणं करेंति हाणि समत्थावि ॥ (ओनि ७६९) जहां मुनि समर्थ होने पर भी संयमयोगों की हानि करते हैं, वह लोकोत्तर भाव अनायतन है । पर्याय सावज्जमणायतणं असोहिठाणं कुसीलसंसग्गी । एगट्ठा होंति पदा एते विवरीय आययणा ।। (ओनि ७६३) अनायतन के पर्याय - सावद्य (अविशुद्ध, सपाप), अनायतन, अशोधिस्थान, कुशीलसंसर्ग । आयतन के पर्याय — असावद्य ( निर्दोष, परिशुद्ध ) आयतन, शोधिस्थान, सुशीलसंसर्ग । प्रकार आययपि यदुविहं दव्वे भावे य होइ नायव्वं । दव्वंमि जिणघराई भावंमि य होइ तिविहं तु ॥ (ओनि ७८२) आयतन के दो प्रकार हैं १. द्रव्य आयतन - जिनमन्दिर आदि । २. भाव आयतन - ज्ञान, दर्शन, चारित्र । २. अनायतन - सेवन का निषेध खणमवि न खमं गंतुं अणायतणसेवणा सुविहियाणं । जंगंध होइ वर्ण तंगंध मारुओ वाइ ॥ (ओनि ७६७ ) सुविहित मुनि क्षणभर के लिए भी अनायतन का सेवन नहीं करते । उपवन जिस गंध वाला होता है, उसमें से प्रवाहित पवन भी उसी गंध वाला होता है । नया लभेज्जा निउणं सहाय, गुणाहियं वा गुणओ समं वा । एक्को वि पावाइं विवज्जयंतो, विहरेज्ज कामेसु असज्जमाणो || ( दचूला २।१० ) यदि कदाचित् अपने से अधिक गुणी समान गुण वाला निपुण साथी न मिले कर्मों का वर्जन करता हुआ काम भोगों में अकेला ही ( संघ स्थित ) विहार करे । अथवा अपने तो मुनि पाप अनासक्त रह Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयतन णाणस्स दंसणस्स य चरणस्स य जत्थ होइ उवघातो । वज्जेज्जऽवज्जभीरू अणाययणवज्जओ खिप्पं ॥ (ओनि ७७८ ) जहां ज्ञान - दर्शन - चारित्र की हानि हो, उस अनायतन का पापभीरु मुनि वर्जन करे । न चरेज्ज वेससामंते, बंभरवसाणुए । भयारिस दंतस्स, होज्जा तत्थ विसोत्तिया ॥ अणायणे चरंतस्स, संसग्गीए अभिक्खणं । होज्ज वयाणं पीला, सामण्णम्मिय संसओ ॥ तम्हा एवं वियाणित्ता, दोसं दुग्गइवड्ढणं । वज्जए वेससामंतं, मुणी एगंतमस्सिए | (द ५1१1९-११) ब्रह्मचर्य का वशवर्ती मुनि वेश्याबाड़े के समीप न जाये। वहां दमितेन्द्रिय ब्रह्मचारी के भी विस्रोतसिका हो सकती है - साधना का स्रोत मुड़ सकता है । अस्थान में बार-बार जाने वाले के ( वेश्याओं का ) संसर्ग होने के कारण व्रतों का विनाश और श्रामण्य में संदेह हो सकता है । इसलिए इसे दुर्गति बढ़ाने वाला दोष जानकर एकान्त (मोक्ष - मार्ग ) का अनुगमन करने वाला मुनि वेश्या - बाड़े के समीप न जाये । ३. आयतन - अनायतन सेवन की फलश्रुति अंबरस य निवस्य दुहंपि समागयाई संसग्गीए विणट्टो अंबो नित्तणं मूलाई । पत्तो ॥ (ओनि ७७० ) आम्रवृक्ष और नीमवृक्ष की जड़ें जब आपस में मिल जाती हैं, तब उस संसर्ग से आम्रवृक्ष नष्ट हो जाता है, नीम की कटुता को प्राप्त हो जाता है । वह पावइ जह नाम महुरसलिलं सागरसलिलं कमेण संपत्तं । पावइ लोणियभावं मेलणदोसाणुभावेणं ।। एवं खु सीलतो असीलमंतेहि मेलिओ संतो । गुणपरिहाणी मेलणदोसाणुभावेणं ।। (ओनि ७७६, ७७७ ) जैसे मधुरजल सागर के जल में मिलकर खारा हो जाता है, अपनी मधुरता को खो देता है, वैसे ही शीलसंपन्न व्यक्ति शीलहीन व्यक्ति के साथ रहकर अपने अर्जित गुणों को खो देता है। यह कुसंगति का अनुभव है । १२१ सुंदरजण संसग्गी सीलदरिद्दपि कुणइ सीलड्ढं । जह मेरुगिरीजायं तपि कणगत्तणमुवेइ ॥ (ओनि ७८४) अच्छे व्यक्ति का संसर्ग शीलहीन को भी शीलसंपन्न बना देता है । जैसे मेरुपर्वत पर उत्पन्न तृण भी स्वर्ण बन जाता है । आराधना सुचिरंपि अच्छमाणो नलथंबो उच्छुवाडमज्झमि । कीस न जायइ महुरो जइ संसग्गी पमाणं ते ।। सुचिरंपि अच्छमाणो वेरुलिओ कायमणियओमी से । न उवेइ कायभाव पान्नगुणेण नियएण || भाग भावुगाणि य लोए दुविहाई हुंति दव्वाई | वेरुलिओ तत्थ मणी अभागो अन्नदव्वेणं ॥ ऊसयभागेणं बिबाई परिणमंति तब्भावं । लवणा गराइसु जहा वज्जेह कुसीलसंसग्गी ॥ (ओनि ७७१-७७४) शिष्य ने पूछा- भंते! यदि संसर्ग ही प्रमाण है तो वाटिका में दीर्घकाल तक रहने पर भी नलस्तम्ब मधुर क्यों नहीं होता ? गुरु ने कहा दो प्रकार के पदार्थ होते हैं - भावुक और अभावुक । वैडूर्य मणि भावुक (अन्य से प्रभावित ) द्रव्य है । वह अपने विशिष्ट गुण के कारण काचमणियों के साथ रहने पर भी काच नहीं बनता । काष्ठ, चर्म आदि भावुक द्रव्य हैं । काष्ठ आदि का सौवां हिस्सा भी यदि नमक की खान का स्पर्श कर लेता है तो वह भी नमक बन जाता है । अतः कुशील का संसर्ग वर्जनीय है । आयुष्यकम - जीव की भवस्थिति में हेतुभूत कर्म । ( द्र. कर्म ) आराधना स्वीकृत नियमों की सम्यक् अनुपालना करना । ज्ञान के अनुकूल क्रिया करना । आराधक : विराधक पंचिदिएहि गुत्तो तवनियमसंजमंमि अ मणमाईतिविहकरण माउत्तो । जुत्तो आराधओ होइ ॥ (ओनि २८० ) जो पांच इन्द्रियों से गुप्त, तीन गुप्तियों में जागरूक, तप, नियम, संयम से युक्त होता है, वह आराधक होता है । आराधयन्ति अविकलतया निष्पादयन्ति सम्यग् - दर्शनादीनि इत्याराधका भवन्ति । ( उशावृप २३३) Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आराधना १२२ आलोचना की परिभाषा जो सम्यकदर्शन, सम्यकज्ञान, सम्यक चारित्र की जो मुनि लज्जा, गौरव और बहश्रतता के अभिमान अविकल आराधना करते हैं, वे आराधक हैं। के कारण गुरु के समक्ष अपने दोषों की आलोचना नहीं आराहणाइ जुत्तो सम्म काऊण सुविहिओ कालं ।। करते, वे आराधक नहीं होते। उक्कोसं तिन्नि भवे गंतूण लभेज्ज निव्वाणं ॥ आर्तध्यान-प्रिय के संयोग और अप्रिय के वियोग जघन्यत एकेनैव भवेन सिद्ध यतीति तद्वज्रर्षभना के लिए एकाग्र होना। (द्र. ध्यान) राचसंहननमङ्गीकृत्योक्तं, छेवट्टिकासंहननो हि यद्यतिशयेनाराधनं करोति ततस्तृतीये भवे मोक्षं प्राप्नोति । उत्कृष्ट आलोचना -गुरु के समक्ष अपने दोषों का निवेदन । शब्दश्चात्रातिशयार्थे द्रष्टव्यो न तु भवमङ्गीकृत्य । १. आलोचना भवाङ्गीकरणे पुनरष्टभिरेवोत्कृष्टतो भवे छेवट्टिकासंहननो सिध्यतीति । (ओनि ८०८; व प २२७) ० परिभाषा जो उत्कृष्ट आराधना कर समाधिमरण करता है ० पर्याय वह तीसरे भव में अवश्य मुक्त हो जाता है। वज्रऋषभ ० प्रकार नाराच संहनन वाला उत्तम आराधक एक भव विधि (उसी जन्म) में मुक्त हो जाता है। सेवार्त्त संहनन वाला उत्तम आराधक जघन्य तीन तथा उत्कृष्ट आठ भवों में २. आलोचना कब? मुक्त हो जाता है। ३. आलोचना किससे? परिक्खभासी सुसमाहिइंदिए, ४. आलोचना परसाक्षी से चउक्कसायावगए अणिस्सिए । ५. आलोचना-काल में वर्जनीय दोष स निधुणे धुन्नमलं पुरेकडं, आराहए लोगमिणं तहा परं ॥ ६. आलोचना-निन्दा-गर्दा के परिणाम (द ७।५७) | * आलोचना : प्रायश्चित्त का प्रकार (द्र. प्रायश्चित्त)। ___गुण-दोष को परख कर बोलने वाला, सुसमाहितइन्द्रियवाला, चार कषायों से रहित, अनिश्रित (तटस्थ) __ * आहार से पूर्व आलोचना (द. आहार) | भिक्ष पूर्वकृत पाप-मल को नष्ट कर वर्तमान तथा भावी लोक की आराधना करता है। १. आलोचना की परिभाषा एवं तु गुणप्पेही, अगुणाणं च विवज्जओ। आलोयणमरिहंति आ मज्जा लोयणा गुरुसगासे । तारिसो मरणते वि, आराहेइ संवरं ।। जं पाव विगडिएणं सूज्झइ पच्छित्तपढमेयं । आयरिए आराहेइ, समणे यावि तारिसो।....... (उशाव प ६०८) (द ५।२।४४,४५) आलोचना का अर्थ है-गुरु के समक्ष अप गुण की प्रेक्षा (आसेवना) करने वाला और अगुणों को प्रकट करना । जिस पाप की शुद्धि आलोचना से ही को वर्जने वाला, शुद्ध भोजी मुनि मरणान्तकाल में भी हो जाती है, उसे आलोचनाह प्रायश्चित्त कहा गया है। संवर की आराधना करता है। वह आचार्य और श्रमणों यह प्रायश्चित्त का पहला भेद है। की आराधना करता है। परोप्परस्स वायण-परियट्रण-लोयकरण-वत्थदाणादि....."तिहिं विराहणाहिं—नाणविराहणाए, अणालोइए गूरूणं अविणयोति आलोयणारिहं । दंसणविराहणाए, चरित्तविराहणाए। (आव ४८) (दअचू पृ १४) विराधना के तीन प्रकार हैं-ज्ञान विराधना, दर्शन परस्पर अध्ययन-अध्यापन, परिवर्तना, केशलुंचन, विराधना, चारित्र विराधना। वस्त्रों का आदान-प्रदान आदि कार्य गुरु-आज्ञा के लज्जाइ गारवेण य बहुस्सुयमएण वाऽवि दुच्चरि। बिना करने से गुरु का अविनय होता है। इस पाप की जे न कहंति गुरूणं न हु ते आराहगा हुंति ॥ शुद्धि मात्र आलोचना से हो जाती है। (उनि २१८) Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोचना किससे ? पर्याय आलोयणा वियडणा सोही सब्भावदायणा चेव । निंदण गरिह विउट्टण सल्लुद्धरणंति एगट्ठा । (ओनि ७९१ ) आलोचनं विकटनं प्रकाशनमाख्यानं प्रादुष्करणमित्यनर्थान्तरम् । ( उशावृप ६०८ ) आलोचना, विकटना, शोधि, सद्भावदर्शन, निन्दा, गर्हा, विकुट्टन, शल्योद्धरण, प्रकाशन, आख्यान और प्रा दुष्करण--- ये आलोचना के पर्याय हैं । प्रकार आलोयणा उदुविहा मूलगुणे चेव उत्तरगुणे य । (ओनि ७९० ) आलोचना के दो प्रकार हैं- मूलगुणों की आलोचना, उत्तरगुणों की आलोचना । विधि जह बालो जंपतो कज्जमकज्जं व उज्जयं भणइ । तं तह आलोएज्जा मायामयविप्पमुक्को ( ओनि ८०१ ) जैसे एक बालक अपने कार्य अकार्य को सरलता से बता देता है, वैसे ही साधक को माया और अहंकार से मुक्त होकर आलोचना करनी चाहिए । आहच्च चंडालियं कट्टु न निण्हविज्ज कडं कडे त्ति भासेज्जा, अकडं तो कडे कयाइ वि । ति य । (१1११) भिक्षु सहसा चण्डालोचित कर्म कर उसे कभी भी न छिपाए । अकरणीय किया हो तो किया और नहीं किया। हो तो न किया कहे । २. आलोचना कब करे ? अव्वक्खित्ता उत्तं उवसंतमुवट्टियं च अणुन्नवेत्तु मेहावी आलोएज्जा उ ।। जब गुरु अव्याक्षिप्त/ अक्लांत, उपयुक्त, अनाकुल और आलोचना सुनने में तत्पर हों, अनुजा प्राप्त कर मुनि आलोचना करे । नाऊणं । सुसंजए || (ओनि ५१५ ) उपशांततब गुरु से काले य पहुप्पंते उच्चाओ वावि ओहमालोए । वेला गिलाणगस्स व अइच्छइ गुरू व उच्चाओ ॥ पुरकम्मपच्छकम्मे, अप्पेsसुद्धे य ओहमालोए । तुरियकरणंमि जं से न सुज्झई तत्तिअं कहए ॥ (ओनि ५१८,५१९) आलोचना आलोचनाकाल पर्याप्त न हो-आलोचना करतेकरते यदि सूर्य अस्त हो रहा हो, रोगी की परिचर्या - वेला का अतिक्रमण हो रहा हो, आलोचक स्वयं श्रान्त हो या गुरु श्रान्त हों तो उस समय संक्षेप में ही आलोचना करे । यथा - पश्चात्कर्म, पुरःकर्म का आसेवन किया । आधाकर्म का दोष लगा इत्यादि । १२३ अन्य शीघ्र करणीय कार्य हो तो आसेवित दोष संबंधी बात उतनी ही बतानी चाहिये, जिसे बिना बताये शुद्धि न हो । ३. आलोचना किससे ? ..... एक्केक्का चउकन्ना दुवग्ग सिद्धावसाणा य ॥ द्वयोरपि साधुसाध्वीवर्गयोरेकैकस्य चतुष्कर्णा भवति, एक आचार्यो द्वितीयश्चालोचकः साधुः एवं साधुवर्गे चतुष्कर्णा भवति । साध्वीवर्गेऽपि चतुष्कर्णा भवति, एका प्रवर्तिनी द्वितीया तस्या एव या आलोचयति साध्वी द्वयोश्च साधुसाध्वीवर्ग योमिलितयोरष्टकर्णा भवति । कथम् ? आचार्य आत्मद्वितीयः प्रवर्तिनी चात्मद्वितीया आलोचयति यदा तदाऽष्टकर्णा भवति, सामान्यसाध्वी वा यद्यालोचयति तदाऽप्यष्टकर्णेवेति । अहवा छकन्ना होज्जा यदा वुड्ढो आयरिओ हवइ तदा एगस्सवि साहुणी दुगं आलोएइ एवं छकन्ना हवति । सव्वहा साहुणीए अप्पबितियाए आलोएअव्वं न उएगागिणीएत्ति । एवं तावदुत्सर्गत आचार्याय आलोचयति, तदभावे सर्वदेशेषु निरूपयित्वा गीतार्थायालोचयितव्यं, एवं तावद्यावत्सिद्धानामप्यालोच्यते साधूनामभावे | (ओनि ७९० ; वृ प २२५) साधु-साध्वीवर्ग की आलोचना चतुष्कर्णा होती हैसाधुवर्ग - आचार्य और आलोचना करने वाला साधु । साध्वीवर्ग - प्रवर्तिनी और आलोचना करने वाली साध्वी । जब प्रवर्तिनी अथवा अन्य साध्वी आलोचना करती है, आलोचना अष्टकर्णा होती है - एक आचार्य और एक साधु, एक प्रवर्तिनी और एक साध्वी । यदि वृद्ध आचार्य के पास आलोचना करे तो वह षट्कर्णा भी होती है एक आचार्य, एक प्रवर्तिनी और एक साध्वी । आचार्य के पास अकेली साध्वी आलोचना न करे, कम से कम दो साध्वियां अवश्य हों । सामान्यतः आलोचना आचार्य के पास ही करे । Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोचना १२४ आलोचना के परिणाम आचार्य का योग न हो तो गीतार्थ मुनि की खोज कर ढड्ढर-उच्च स्वर से आलोचना करना-- उसके पास आलोचना करे। गीतार्थ साधू आदि के इन दोषों का वर्जन करते हए गुरु के समक्ष अभाव में सिद्धों की साक्षी से आलोचना करने का संसृष्ट-असंसृष्ट हाथ, पात्र आदि संबंधी तथा विधान है। दाता संबंधी आलोचना करनी चाहिए। आहार (व्यवहार सूत्र के अनुसार--आचार्य, उपाध्याय, आदि जिस रूप में ग्रहण किया है, उसी रूप में बहुश्रुत साधमिक साधु, बहुश्रुत अन्य सांभोगिक साधु, क्रमश: गुरु को निवेदन करना चाहिये । बहुश्रुत सारूपिक, बहुश्रुत पश्चात्कृत श्रमणोपासक, ६. आलोचना के परिणाम सम्यक् भावित चैत्य, अर्हत्-सिद्ध-- इस प्रकार क्रमशः एक के अभाव में दूसरे के पास आलोचना करना विहित .."आलोयणाए णं मायानियाणमिच्छादसणसल्लाणं है। देखें- व्यवहार ११३) मोक्खमग्गविग्घाणं अणंतसंसारवद्धणाणं उद्धरणं करेइ । ४. आलोचना : परसाक्षी से उज्जुभावं च जणयइ । उज्जुभावपडिवन्ने य णं जीवे अमाइ इत्थीवेयनपुंसगवेयं च न बंधइ पुव्वबद्धं च णं छत्तीसगुणसमन्नागएण तेणवि अवस्स कायव्वा । णिज्जरेइ । (उ २९।६) परसक्खिया विसोही सूटठवि ववहारकूसलेणं ।। भावोजना जीत अन्न संसार को बढ़ाने वाले (आनि ७९०) मोक्षमार्ग में विघ्न उत्पन्न करने वाले माया, निदान तथा जाति, कुल, बल आदि छत्तीस गुणों से सम्पन्न मिथ्यादर्शन शल्य को निकाल फेंकता है और ऋजुभाव व्यवहार-कुशल मुनि को भी दूसरों की साक्षी से ही को प्राप्त होता है । वह अमायी होता है, इसलिए वह आलोचना करनी चाहिये। स्त्रीवेद और नपुंसकवेद कर्म का बन्ध नहीं करता और जह सुकुसलोऽवि विज्जो अन्नस्स कहेइ अप्पणो वाही। यदि वे पहले बंधे हुए हों तो उनका क्षय कर देता है। सोऊण तस्स विज्जस्स सोवि परिकम्ममारभइ ।। उद्धरियसव्वसल्लो आलोइयनिदिओ गुरुसगासे । एवं जाणंतेणवि पायच्छित्तविहिमप्पणो सम्म । होइ अतिरेगलहुओ ओहरियभरो व्व भारवहो ।। तहवि य पागडतरयं आलोएतव्वयं होइ ।। (ओनि ८०६) (ओनि ७९५, ७९६) जैसे भारवाहक भार को नीचे उतारकर जैसे वैद्य कुशल होने पर भी अपनी व्याधि दूसरे हल्केपन का अनुभव करता है, वैसे ही गुरु के समक्ष वैद्य को बताता है तथा उस वैद्य द्वारा निर्दिष्ट चिकित्सा आलोचना तथा निन्दा कर नि:शल्य बना साधक अतिरिक्त करता है, वैसे ही स्वयं प्रायश्चित्त-विधिवेत्ता होने पर हल्केपन का अनुभव करता है। भी मुनि को अपने दोषों की प्रकट रूप में आलोचना नवि तं सत्थं व विसं व दुप्पउत्तो व कुणइ वेयालो। अन्य बहुश्रत के पास करनी चाहिए। जंतं व दुप्पउत्तं सप्पो व पमाइणो कुद्धो ॥ ५. आलोचना काल में वर्जनीय दोष जं कुणइ भावसल्लं अणुद्धियं उत्तमट्टकालंमि । नट्ट वलं चलं भासं मूयं तह ढड्ढरं च वज्जेज्जा। दुल्लभवोहीयत्तं अणंतसंसारियत्तं च ॥ आलोएज्ज सुविहिओ हत्थं मत्तं च वावारं ॥ (ओनि ८०३, ८०४) एयद्दोसविमुक्कं गुरुणा गुरुसम्मयस्स वाऽऽलोए। शस्त्र, विष, दुःसाधित वेताल, दुष्प्रयुक्त यन्त्र और जं जह गहियं तु भवे पढमाओ जा भवे चरिमा ॥ ऋद्ध सर्प उतना कष्टदायक नहीं होता, f (ओनि ५१६, ५१७) आदि भावशल्य । नत्य--अंगों को नचाते हुए आलोचना करना। अनशनकाल में सशल्य मरने वाला व्यक्ति दुर्लभबोधि वल-शरीर को मोड़ते हुए आलोचना करना । और अनन्तसंसारी हो जाता है। चल-अंगों को चालित करते हए आलोचना करना। भाषा-असंयत या गृहस्थ की भाषा में आलोचना करना। निन्दा और उसके परिणाम मूक-मूक स्वर से 'गुणमुण' करते हुए आलोचना करना। सप्पच्चक्खदुगंछा तह निंदा"। (विभा ३५७५) Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यक के निर्वचन निन्दनम् - आत्मनैवात्मदोषपरिभावनम् । ( उशावृ प ५७९ ) स्वयं ही अपने दोषों का चिन्तन करना निन्दा है । .... निंदणयाए णं पच्छाणुतावं जणयइ । पच्छाणुतावेणं विरज्जमाणे करणगुणसेढि पडिवज्जइ । करणगुणसेढि पडवन्ने य णं अणगारे मोहणिज्जं कम्मं उग्धाएइ । (उ२९।७) निदा से जीव पश्चात्ताप को प्राप्त होता है । उसके द्वारा विरक्त होता हुआ मोह को क्षीण करने में समर्थ परिणामधारा को प्राप्त हुआ अनगार मोहनीयकर्म कां क्षीण कर देता है । गर्हा और उसके परिणाम "गुरुपच्चक्खदुगंछा गम्मइ गरिहा गर्हणेन परसमक्षात्मनो ( उशावृ प ५८० ) गुरुसाक्षी से अथवा दूसरों के समक्ष अपने दोषों को प्रकट करना गर्दा है । ...गरहणयाए णं अपुरक्कारं जणयइ । अपुरस्कारगए णं वे अपत्ये हतो जोगेहितो नियत्तेइ । पत्थजोगपडिबन्ने य णं अणगारे अणं तघाइपज्जवे खवेइ । ( उ२९/८) गर्दा से जीव अनादर को प्राप्त होता है । अनादर प्राप्त हुआ वह अप्रशस्त प्रवृत्तियों से निवृत्त होता है और प्रशस्त प्रवृत्तियों को अंगीकार करता है । वैसा अनगार आत्मा के अनन्त विकास का घात करने वाले ज्ञानावरण आदि कर्मों की परिणतियों को क्षीण करता है । *** || ( विभा ३५७५ ) दोषोद्भावनेन । १. आवश्यक के निर्वाचन ० परिभाषा एकार्थक प्रकार -- ( १ ) सामायिक आवश्यक - प्रात: और सायं - दोनों संध्याओं में अवश्यकरणीय छह अध्ययन वाला विधिसूत्र | अंगबाह्य आगम का एक भेद । ० * १२५ (२) चतुविशतिस्तव (३) वंदना • अर्थाधिकार २. द्रव्य आवश्यक ३. भाव आवश्यक ४. आवश्यक के निक्षेप * आवश्यक : अंगबाह्य का भेद (४) प्रतिक्रमण (५) कायोत्सर्ग (६) प्रत्याख्यान आवासक परिभाषा आवश्यक १. आवश्यक के निर्वाचन समणेण सावएण य अवस्सकायव्वं हवइ जम्हा । अंतो अहोनिसस्स उ, तम्हा आवस्सयं नाम ॥ ( अनु २८ गाथा २ ) जदवस्सं कायव्वं तेणावस्सयमिदं गुणाणं वा । आवस्यमाहारो आ मज्जायाभिविहिवाई ॥ आवस्सं वा जीवं करेइ जं नाण-दंसण-गुणाणं । संनिज्भ- भावण - च्छायणेहिं वावासयं गुणओ ॥ ( विभा ८७४, ८७५) संस्कृत रूप प्राप्त हैं । (द्र संबद्ध नाम ) 'आवस्य' शब्द के चार उनका निर्वचन इस प्रकार है। आवश्यक – जो श्रमणों और श्रावकों के लिए दोनों संध्याओं में अवश्य करणीय है । आपाश्रय - जो गुणों का आधार है । आवश्य - जो व्यक्ति को ज्ञान, दर्शन आदि गुणों का वशवर्ती बनाता है । (द्र. अंगबाह्य) " - जो गुणों का सान्निध्य प्रदान करता है, आत्मा को गुणों से वासित / आच्छादित करता है । अवश्यकर्तव्य सामायिकादिक्रियानुष्ठानं तत्प्रतिपादकं श्रुतमपि आवश्यकम् । ( नदीम प २०४ ) अवश्य करणीय सामायिक आदि क्रियाअनुष्ठान को आवश्यक कहते । इन अनुष्ठानों का प्रतिपादक शास्त्र भी आवश्यक कहलाता है । आवश्यकं ज्ञानदर्शनचारित्रत्रयप्रसाधकप्रतिनियतकालानुष्ठेययोगपरम्पराप्रतिसेवनमित्यर्थः । ---------मुख स्त्रिका प्रत्युपेक्षणादारभ्य सकलाहोरात्रान्तर्व्याप्यसपत्नकर्त्तव्यतोक्तचक्रवालसमाचार्याच रणमावश्यकमभिधीयते । (विभाकोवृ पृ २ ) Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यक जो ज्ञान, दर्शन, चारित्र इन तीनों का प्रसाधक है और प्रतिनियत काल में अनुष्ठेय योगपरम्परा का आसेवन है, वह आवश्यक है । मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना से प्रारंभ कर संपूर्ण दिन-रात में करणीय चक्रवाल सामाचारी का आचरण आदि समस्त क्रियाएं आवश्यक कहलाती हैं । भव्वस्स मोक्खमग्गा हिलासिणो ठियगुरुवएसस्स । आईए जोग्गमिणं बाल गिलाणस्स वाऽऽहारं ॥ (विभाकोवृ पृ ५ ) जैसे बाल और ग्लान के लिए आहार आवश्यक है, वैसे ही गुरु आज्ञा के अनुपालक और मोक्षाभिलाषी भव्य के लिए 'आवश्यक' का अनुष्ठान आवश्यक है । एकार्थक आवस्तय अवस्सकर णिज्ज ध्रुवनिग्गहो विसोही य । अभय छक्क वग्गो, नाओ आराहणा मग्गो ॥ ( अनु २८1१ ) आवस्सगं -- अवस्सकरणिज्जं जं तमावासं अहवा गुणाणमावासत्तणतो । कम्ममदुविहं कसाया इंदिया वा धुवा इमेण जम्हा तेसि णिग्गहो कज्जइ तम्हा धुवणिग्गहो, अवस्सं वा णिग्गहो । कम्ममलिणो आता विसोहिज्जतीति विसोही । सामायिकादि गण्यमानानि षडध्ययनानि वग्गो | णायो समूहः अभिप्रेतार्थसिद्धिः । ' युक्तः आराधना मोक्खस्स सव्वपसत्यभावाण वा । लद्वीण पंथो मार्ग इत्यर्थः । ( अनुचू पृ १४ ) आवश्यक के आठ पर्यायवाची नाम हैं } 1- यह अवश्यकरणीय है अथवा यह गुणों का आवासस्थल है । ३. ध्रुव - निग्रह - आवश्यक से कर्म, कषाय और इन्द्रियों का निश्चित रूप से निग्रह होता है । ४. विशोधि – इससे कर्म से मलिन आत्मा की विशोधि होती है । ५. अध्ययनषट्कवर्ग -- यह १. आवश्यक २. अवश्यकरणीय सामायिक आदि छह अध्ययनों का समूह है । ६. न्याय -- इससे अभिप्रेत अर्थ की सिद्धि होती है । ७. आराधना- इससे मोक्ष अथवा सर्व प्रशस्त भावों की आराधना होती है । ८. मार्ग - यह आत्मालोचन और आत्मनिरीक्षण की ओर ले जाने वाला तथा उपलब्धियों का मार्ग है । १२६ प्रकार आवस्सय छव्विहं पण्णत्तं तं जहा - सामाइयं, चवीसत्थओ, वंदणयं, पक्किमणं, काउस्सग्गो, पच्चक्खाणं । ( नन्दी ७५ ) आवश्यक छह प्रकार का है १. सामायिक २. चतुर्विंशतिस्तव ३. वन्दना अर्थाधिकार आवश्यक के प्रकार ४. प्रतिक्रमण ५. कायोत्सर्ग ६. प्रत्याख्यान । सावज्जजोगविरई उक्कित्तण गुणवओ य पडिवत्ती । खलियस्स निंदणा वणतिगिच्छ गुणधारणा चैव ।। ( अनु ७४ ) पढमे सामादियज्झयणे पाणादिवायादिसव्वसावज्जजोगविरती कायव्वा | बितिए दरिसणविसोहिणिमित्तं बोधिलाभत्थं च कम्मखवणत्थं च तित्थगरणामुक्कितणा कता । ततिए चरणादिगुणसमूहवतो वंदणणमंसणादिएहिं पडिवत्ती कातव्वा । चउत्थे मूलुत्तरावराहक्खलाए क्खलितो पच्चागतसंवेगे विसुज्झमाणभावो पमात करणं संभरंतो अप्पणो णिदणगरहणं करेति । पंचमे पुण साधू वणवण दसविहपच्छित्तेण चरणादियाइयारवणस्स तिगिच्छं करेति । छट्ठे जहा मूलुत्तरगुणपडिवत्ती निरतियारधारणं च जधा तेसि भवति तथा अत्थपरूवणा । ( अनुचू पृ १८ ) आवश्यक के छह अर्थाधिकार हैं - सावद्ययोगविरति, उत्कीर्तन, गुणवान की प्रतिपत्ति, स्खलित की निन्दा, व्रणचिकित्सा और गुणधारणा । १. सामायिक अध्ययन का प्रतिपाद्य है - प्राणातिपात आदि सावद्य सपापकारी प्रवृत्तियों से विरति । २. चतुर्विंशतिस्तव दर्शनविशोधि, पुनर्बोधिलाभ और कर्मक्षय के लिए अर्हतों की उत्कीर्तना । ३. वन्दना चारित्र सम्पन्न, गुणसम्पन्न व्यक्तियों का वन्दना - नमस्कार द्वारा सम्मान - बहुमान करना । ४. प्रतिक्रमण मूलगुणों-उत्तरगुणों में स्खलना होने पर संवेगसम्पन्न हो, विशुद्धभावों से प्रमाद की स्मृति कर अपनी निन्दा गर्हा करना । ५. कायोत्सर्ग चारित्र आदि के अतिचाररूप व्रण की आलोचना आदि दस प्रकार के प्रायश्चित्त द्वारा चिकित्सा करना । Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यक के निक्षेप ६. प्रत्याख्यान मूल और उत्तरगुणों की प्रतिपत्ति तथा उनको निरतिचार रूप में जैसे धारण किया जाए, उस रूप में अर्थ की प्ररूपणा करना । २. द्रव्य आवश्यक जह सव्वदोसरहियं पि निगदओ सुत्तमणुवउत्तस्स । दव्वसुयं दव्वावासयं च तह सव्र्व्वाकरियाओ || (विभा ८५९) जैसे उपयोगशून्य मुनि द्वारा उच्चारित सर्वदोषरहित सूत्र भी द्रव्यश्रुत, द्रव्यावश्यक होता है, वैसे ही उपयोगशून्य सारी क्रिया द्रव्यक्रिया होती है। ३. भाव आवश्यक १२७ उवउत्तस्स उ खलियाइयं पि सुद्धस्स भावओ सुतं । साहइ तह किरियाओ सख्याओं निज्जरफलाओ ।। (विभ) ८६०) उपयोगयुक्त मुनि का स्खलित आदि दोषयुक्त सूत्र भी, भावना की शुद्धि के कारण भावसूत्र होता है । इसी प्रकार उसकी सारी क्रियाएं कर्मनिर्जरा के फलवाली होती हैं । ४. आवश्यक के निक्षेप 1 आवस्सयं चउव्विहं पण्णत्तं तं जहा - नामावस्सयं ठवणावस्तवं दव्वावस्तयं भावावस्तयं । ( अनु ८) आवश्यक के चार प्रकार हैं-नाम आवश्यक, स्थापना आवश्यक, द्रव्य आवश्यक, भाव आवश्यक । नाम आवश्यक जस्स णं जीवस्स वा अजीवस्स वा जीवाण वा अजीवाण वा तदुभयस्स वा तदुभयाण वा आवस्सए नामं कण्जइ से तं नामावस्यं । ( अनु ९) जिस जीव या अजीव का, जीवों या अजीवों का, जीव-अजीव दोनों का, जीवों और अजीवों दोनों का 'आवश्यक' यह नाम किया जाता है, वह नाम आवश्यक है । स्थापना आवश्यक जणं कटुकम्मे वा चित्तकम्मे वा पोत्थकम्मे वा लेप्यकम्मे वा गंधिमे वा वेढिमे वा पूरिमे वा संघाइमे वा अक्खे वा वराडए वा एगो वा अणेगा वा सब्भावठवणाए वा असम्भावठवणाए वा आवस्सए ति ठवणा ठविज्जइ । से तं व्वभावस्य । ( अनु १०) आवश्यक काष्ठाकृति, चित्राकृति पुस्तक में अंकित चित्र, लेप्पाकृति में अथवा गूंथकर वेष्टित कर भरकर या जोड़कर बनाई हुई पुतली में अथवा अक्ष या कौड़ी में एक या अनेक सद्भाव स्थापना ( वास्तविक आकृति) अथवा असद्भाव स्थापना (काल्पनिक आरोपण) के द्वारा आवश्यक (आवश्यक क्रिया करते हुए व्यक्ति) का जो रूपांकन या कल्पना की जाती है, वह स्थापना आवश्यक है । द्रव्यावश्यक के निक्षेप aarti दुविहं पण्णत्तं तं जहा - आगमओ य नोआगमओ य । ( अनु १२ ) द्रव्य आवश्यक के दो प्रकार हैं-आगमतः (ज्ञान की अपेक्षा से) और नोआगमतः (ज्ञानाभाव और क्रिया की अपेक्षा से) । आगमतः द्रव्यावश्यक आगमओ दव्वावस्तयं जस्स णं आवस्सए त्ति पदं सिक्खियं ठियं जियं मियं परिजियं नामसमं घोससमं अहीणक्खरं अणच्चखरं अव्वाइदक्बर अक्बलियं अमि लियं यामेलियं पडिपुण्णं पडिपुण्णघोसं कंठोद्रविष्य मुक्कं गुरुवायणोवयं से णं तत्थ वायणाए पुच्छणाए परियट्टाए धम्काए, नो अणुप्पेहाए । ( अनु १३ ) जिसने 'आवश्यक' यह पद सीख लिया, स्थिर कर लिया, चित (स्मृति योग्य) कर लिया, मित (श्लोक आदि की संख्या से निर्धारित कर लिया, परिचित कर लिया, नाम-सम (अपने नाम के समान) कर लिया, घोषसमसही उच्चारणयुक्त कर लिया, जिसे उसने हीन, अधिक और विपर्यस्त अक्षर रहित, अस्खलित, अन्य वर्णों से अमिश्रित अन्य ग्रन्थ के वाक्यों से अमिश्रित प्रतिपूर्ण, प्रतिपूर्ण घोषयुक्त, कण्ठ और होठ से निकला हुआ तथा गुरु की वाचना से प्राप्त किया है, वह उस आवश्यक पद के अध्ययन, प्रश्न, परावर्तन और धर्मकथा में प्रवृत्त होता है, तद आगमतः द्रव्य आवश्यक है वह अनुप्रेक्षा (अर्थ के अनुचिन्तन) में प्रवृत्त नहीं होता क्योंकि द्रव्य निक्षेप उपयोग रहित (चित्त की प्रवृत्ति से शून्य) होता है। नोआगमतः द्रव्यावश्यक J - नोआगमओ दवावस्तयं तिविहं पण्णत्तं तं जहा • जाण सरीरदव्वावस्सयं भवियसरीरदव्वावस्तयं जाणंगसरीर भविपसरीर वतिरितं दव्वावस्समं ( अनु १५ ) - । - Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यक १२८ आवश्यक के निक्षेप नोआगमतः द्रव्यावश्यक तीन प्रकार का है - ज्ञशरीर तीन प्रकार हैं -लौकिक, कुप्रावनिक और लोकोत्तद्रव्यावश्यक, भव्यशरीर द्रव्यावश्यक और ज्ञशरीर-भव्य- रिक । शरीर-व्यतिरिक्त द्रव्यावश्यक । लौकिक द्रव्यावश्यक ज्ञशरीर द्रव्यावश्यक जे इमे राईसर-तलवर "सत्थवाहप्पभिइओ कल्लं ""आवस्सए त्ति पयत्थाहिगारजाणगस्स जं सरीरय पाउप्पभायाए... महधोयण-दंतपक्खालण" पुप्फ-मल्लववगयत्य-चाविय-चत्तदेहं जीवविप्पजढं"पासित्ताणं कोइ गंध-तंबोल-वत्थाइयाई दवावस्सयाई काउं तओ पच्छा वएज्जा-अहो णं इमेणं सरीरसमुस्सएणं जिणदिलैंण रायकलं वा देवकलं वा.."गच्छति। से तं लोइयदव्वावभावेणं आवस्सए ति पय आघवियं पण्णवियं"। जहा स्सयं । (अनु १९) को दिळंतो? अयं महकुंभे आसी, अयं घयकुंभे आसी। उषाकाल में पौ फटने पर राजा, युवराज, कोतवाल, से तं जाणगसरीरदव्वावस्सयं । (अनु १६) सार्थवाह आदि मुख धोते हैं, दांत पखालते हैं, फूल, 'आवश्यक' इस पद के अर्थाधिकार को जानने वाले माला, गन्ध, ताम्बूल, वस्त्र आदि का प्रयोग करते व्यक्ति का जो शरीर अचेतन, प्राण से च्युत, किसी हैं, वे इन सभी द्रव्य सम्बन्धी आवश्यक क्रियाओं को निमित्त से प्राणच्युत किया हुआ, अनशन द्वारा त्यक्त, सम्पन्न कर राजकुल, देवकूल आदि में जाते हैं। वह जीव-विप्रमुक्त है, उसे देखकर कोई कहे आश्चर्य है ! लौकिक द्रव्य आवश्यक है। इस पौद्गलिक शरीर से अर्हत द्वारा उपदिष्ट भाव के कुप्रावनिक द्रव्यावश्यक अनुसार 'आवश्यक' इस पद का आख्यान-प्रज्ञापन किया है। जैसे - कोई दष्टान्त है? (आचार्य ने दष्टांत ...जे इमे चरग-चीरिय-चम्मखंडिय-भिक्खोंड... इंदस्स वा खंदस्स वा "उवलेवण-सम्मज्जण''मल्लाइबताया) यह मधुघट था, यह घृतघट था । वह ज्ञ-शरीर याई दवावस्सयाइं करेंति। से तं कुप्पावयणियं दव्वावद्रव्यावश्यक है। स्सयं । (अनु २०) भव्यशरीर द्रव्यावश्यक जो चरक, चीरिक, चर्मखण्डिक, भिक्षाजीवी आदि जे जीवे जोणिजम्मणनिक्खंते इमेणं चेव आदत्तएणं विभिन्न धर्म सम्प्रदायों के अनुयायी इन्द्र, कार्तिकेय आदि सरीरसमुस्सएणं जिणदिठेणं भावेणं आवस्सए त्ति पयं के (मंदिर में) उपलेपन, संमार्जन तथा धूप-गंध-माला सेयकाले सिक्खिस्सइ, न ताव सिक्खइ। जहा को आदि द्रव्य-सम्बन्धी आवश्यक क्रियाओं को सम्पन्न करते दिळंतो? अयं महकंभे भविस्सइ, अयं घयकंभे भवि- हैं, वह कुप्रावचनिक द्रव्य आवश्यक है। स्सइ । से तं भवियसरीरदव्वावस्सयं । (अनु १७) लोकोत्तर द्रव्यावश्यक ___गर्भ की पूर्णावधि से निकला हुआ जो जीव इस प्राप्त जे इमे समणगुणमुक्कजोगी छक्कायनिरणुकंपा हया पौद्गलिक शरीर से 'आवश्यक' इस पद को अर्हत् द्वारा इव उद्दामा गया इव निरंकुसा घट्ठा मट्ठा तुप्पोट्ठा पंडुरउपदिष्ट भाव के अनुसार भविष्य में सीखेगा, वर्तमान में पाउरणा जिणाणं अणाणाए सच्छंदं विहरिऊणं उभओनहीं सीखता है तब तक वह भव्य-शरीर-द्रव्य-आवश्यक कालं आवस्सयस्स उवठ्ठति। से तं लोगुत्तरियं दव्वावहै। जैसे--कोई दृष्टान्त है ? (आचार्य ने कहा-इसका स्सयं । (अनु २१) दृष्टांत यह है) यह मधुघट होगा, यह घृतघट होगा। जो श्रमण श्रमणगुण से शुन्य प्रवृत्ति वाले, छहकाय वह भव्यशरीर-द्रव्य-आवश्यक है। के जीवों के प्रति अनुकम्पा रहित, घोड़े की भांति उद्दाम, तव्यतिरिक्त द्रव्यावश्यक हाथी की भांति निरंकुश, शरीर का घर्षण और तैल जाणगसरीर-भवियसरीर-वतिरित्तं दवावस्सयं आदि से मर्दन करने वाले, चुपड़े होठ वाले, श्वेत-पीत तिविहं पण्णत्तं, तं जहा-लोइयं कुप्पावयणियं लोगु- वस्त्र पहनने वाले हैं, वे तीर्थंकरों की आज्ञा से बाहर त्तरियं। (अनु १८) स्वच्छन्द विहार कर जो दोनों समय आवश्यक के लिए ज्ञशरीर-भव्यशरीर-व्यतिरिक्त द्रव्य आवश्यक के उपस्थित होते हैं, वह लोकोत्तरिक द्रव्य आवश्यक है। Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यक भाव आवश्यक के निक्षेप 1 ..... भावावस्वं दुविहं पण्णत्तं तं जहा – आगमओ य नोआगमओ य । ( अनु २२ ) भाव आवश्यक के दो प्रकार हैं-आगमतः और नोआगमतः । आगमतः भावावश्यक ...आगमन भावावस्तयं - जाणए उनउत्ते ।..." ( अनु २३) जो आवश्यक को जानता है और उसमें उपयुक्त ( दत्तचित्त ) है, वह आगमतः भाव आवश्यक है । नोआगमतः भावावश्यक .....नो आगमओ भावावस्सयं तिविहं पण्णत्तं, तं जहा - लोइयं कुप्पावयणियं लोगुत्तरियं । ( अनु २४ ) नोआगमतः भाव आवश्यक के तीन प्रकार हैंलौकिक, कुप्रावचनिक और लोकोत्तरिक । लौकिक भावावश्यक लोइयं भावावस्सयं पुण्यण्हे भारहं अवरण्हे रामायणं । ( अनु २५ ) (वक्ता और श्रोता) पूर्वाह्न में भारत और अपराह्न में रामायण के पाठ में उपयुक्त होते हैं, वह लौकिक भाव आवश्यक है । कुप्रावचनिक भावावश्यक जे इमे चरग चीरिय-चम्मखंडिय भिक्खोंड इज्जंजलि - होम-जप-दुरुक्क नमोक्कारमाइयाई भावावस्तयाई करेंति । से तं कुप्पावयणियं भावावस्तयं ( अनु २६) जो चरक, चीरिक, चर्मखण्डिक, भिक्षाजीवी आदि विभिन्न सम्प्रदायों के अनुयायी देव पूजा, अञ्जलि, होम, जप, देव आदि के सामने बैल की तरह रंभाना और नमस्कार आदि भावयुक्त आवश्यक क्रियाओं को सम्पन्न करते हैं, वह कुप्रावनिक भाव आवश्यक है । लोकोतरिक भावावश्यक १२९ जणं इमं समणे वा समणी वा सावए वा साविया वा तच्चिते तम्मणे अण्णत्य कत्थइ मणं अकरेमाणे उभओ काल आवस्यं करेति से तं लोगुत्तरियं भावादस्वयं । ( अनु २७ ) जो साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका आवश्यक I में एक चित्त, एक मन अन्यत्र कहीं भी मन की प्रवृत्ति नहीं करते हुए, दोनों समय (प्रात: और सायं) आवश्यक करते हैं, वह लोकोत्तरिक भाव आवश्यक है । आवश्यकव्यतिरिक्त अंगबाह्य का एक भेद । । (द्र. अंगबाह्य) आवश्यकी सामाचारी का एक भेद । उपाश्रय से बाहर जाते समय 'आवस्सर' शब्द का उच्चारण करना । (द्र. सामाचारी) आशातना - अवमानना। ज्ञान आदि गुणों का नाश करने वाली क्रिया । १. आशातना की परिभाषा २. आशातना के प्रकार आशातना ३. आशातना की फलश्रुति ४. एक की आशातना -- सबकी आशातना * आचार्य की आशातना के परिणाम (द्र आचार्य) * अनाशातना विनय (द्र. विनय ) १. आशातना की परिभाषा आसायणाणामं नाणादिआयस्स सातणा । ( आवचू २ पृ २१२ ) सम्यक्त्वादिलाभं शातयति - विनाशयतीत्याशातना । ( उशाबू प ५७८) सम्यक्त्व, ज्ञान आदि की उपलब्धि में बाधा अथवा न्यूनता उत्पन्न करने वाली अवज्ञापूर्ण प्रवृत्ति आमावना कहलाती है । २. (क) आशातना के प्रकार १. अरहंताणं आसायणाए २. सिद्धाणं आसायणाए ३. आयरियाणं आसावणाए ४ उवज्झायाणं आसायजाए ५. साहूणं आसायणाए ६. साहूणीणं आसायणाए ७. सावयाणं आसायणाए ८ सावियाणं आसायणाए ९. देवाणं आसायणाग १०. देवीणं आसायणाए ११. इहलोगस्स आसायणाए १२. परलोगस्स आसायणाए १३. केवलिपण्णत्तस्स धम्मस्स आसायणाए १४. सदेवमणासुरस्स 'लोगस्स आसायणाए १५. सव्वपाणभूतजीवसत्ताणं आसायणाए १६. कालस्स आसायणाए १७. सुयस्स आसायण ए १८. सुयदेवयाए आसायणाए १९. वायणा Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आशातना १३० आशातना के प्रकार यरियस्स आसायणाए २०. जं वाइद्धं २१. वच्चामेलियं २९. दुष्ठु-प्रतीच्छित -ज्ञान को सम्यग् भाव से ग्रहण न २२. हीणक्खरं २३. अच्चक्खरं २४. पयहीणं २५. विणय- करना। हीणं २६. घोसहीणं २७. जोगहीणं २८. सुठुदिण्णं ३०. अकाल में स्वाध्याय करना । २९. दुपडिच्छियं ३०. अकाले कओ सज्झाओ ३१. काल में स्वाध्याय न करना । ३१. काले न कओ सज्झाओ ३२. असज्झाइए सज्झाइयं ३२. अस्वाध्याय काल में स्वाध्याय करना । ३३. सज्झाइए ण सज्झाइयं । (आव ४।८) ३३. स्वाध्याय काल में स्वाध्याय न करना। आशातना के तेतीस प्रकार हैं१. अर्हन्तों की आशातना । (ख) आशातना के प्रकार२. सिद्धों की आशातना। १. सेहे रातिणियस्स पुरतो गंता भवति, आसातणा ३. आचार्यों की आशातना । सेहस्स। ४. उपाध्यायों की आशातना । २. सेहे रातिणियस्स सपक्खं गंता भवति, आसातणा ५. साधुओं की आशातना। सेहस्स। ६. साध्वियों की आशातना। ३. सेहे रातिणियस्स आसण्णं गंता भवति, आसातणा ७. श्रावकों की आशातना । सेहस्स। ८. श्राविकाओं की आशातना। ४. सेहे रातिणियस्स पुरतो चिट्ठित्ता भवति, ९. देवों की आशातना। आसातणा। १०. देवियों की आशातना । ५. सेहे रातिणियस्स सपक्खं चिद्वित्ता भवइ, आसातणा। ११. इहलोक की आशातना। ६. सेहे रातिणियस्स आसण्णं चिट्ठित्ता भवइ, १२. परलोक की आशातना। आसातणा। १३. केवली प्रज्ञप्त धर्म की आशातना । ७. सेहे रातिणियस्स पुरतो निसीइत्ता भवति, १४. देव, मनुष्य और असुर सहित लोक की आशातना । आसातणा। १५. सर्व प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों की आशातना । ८. सेहे रातिणियस्स सपक्खं निसीइत्ता भवति, १६. काल की आशातना । आसातणा। १७. श्रुत की आशातना । ९. सेहे रातिणियस्स आसण्णं निसीइत्ता भवति, १८. श्रुत देवता की आशातना । आसातणा। १९. वाचनाचार्य की आशातना। २०. व्याविद्ध --व्यत्यासित वर्ण-विन्यास करना - कहीं १ १०. सेहे रातिणिएण सद्धि बहिया वियारभूमि निक्खंते के अक्षरों को कहीं बोलना। समाणे तत्थ पुवामेव सेहतराए आयमति पच्छा २१. व्यत्यानेडित-उच्चार्यमाण पाठ में दूसरे पाठों का रातिणिए, आसायणा मेहस्स। मिश्रण करना। ११. सेहे रातिणिएण सद्धि बहिया वियारभूमि वा २२. हीनाक्षर-अक्षरों को न्यून कर उच्चारण करना । विहारभूमि वा निक्खंते समाणे तत्थ पुवामेव २३. अत्यक्षर-अक्षरों को अधिक कर उच्चारण सेहतराए आलोएति पच्छा रातिणिए, आसायणा करना। सेहस्स। २४. पदहीन-पदों को कम कर उच्चारण करना । १२. केयी रातिणियस्स पुव्वलत्तए सिया, तं पुवामेव २५. विनयहीन-विराम-रहित उच्चारण करना। सेहतराए आलवति पच्छा राइणिए, आसातणा २६. घोषहीन-उदात्त आदि घोषरहित उच्चारण सेहस्स। करना। १३. सेहे रातिणियस्स रातो वा दिया वा वाहरमाणस्स २७. योगहीन-सम्बन्ध-रहित उच्चारण करना। अज्जो ! के सुत्तो के जागरे ? तत्थ सेहे जागरमाणे २८. सुष्ठदत्त-योग्यता से अधिक ज्ञान देना। रातिणियस्स अपडिसुणेत्ता भवति, आसातणा सेहस्स । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आशातना के प्रकार आशातना १४. सेहे असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा ३२. सेहे रातिणियस्स सेज्जासंथारगंसि चिट्टित्ता वा पडिगाहेत्ता तं पुवामेव सेहतरागस्स आलोएति पच्छा णिसीतित्ता वा तुयट्टिता वा भवति, आसातणा रातिणियस्स, आसातणा सेहस्स। सेहस्स। १५. सेहे असणं वा... पडिगाहेत्ता तं पुवामेव सेहत- ३३. सेहे रातिणियस्स उच्चासणे वा समासणे वा रागस्स पडिदंसेति, आसातणा सेहस्स । चिद्वित्ता वा निसीतित्ता वा तुयद्वित्ता वा भवति, १६. सेहे असणं वा.. पडिगाहेत्ता पव्वामेव सेहतरागं आसातणा सेहस्स। (आव २ पृ २१२-२१४) ___ उवणिमंतेति पच्छा रातिणियं, आसातणा सेहस्स । दैनिक व्यवहारों के आधार पर शैक्षकृत १७. सेहे रातिणिएण सद्धि असणं... पडिगाहेत्ता तं आशातना के तेतीस विभाग किए गए हैंरातिणियं अणापुच्छित्ता जस्स इच्छति तस्स तस्स १. छोटे साधु का बड़े साधु के आगे चलना। खलु खलु दलयति, आसातणा सेहस्स।। २. छोटे साधु का बड़े साधु की समश्रेणि में चलना। १८. सेहे रातिणिएण सद्धि असणं वा... आहारेमाणे ३. छोटे साधु का बड़े साधु से सटकर चलना। तत्थ सेहे खद्धं खद्धं " आहारेत्ता भवति, आसातणा ४. छोटे साधु का बड़े साधु के आगे खड़ा रहना। सेहस्स । ५. छोटे साधु का बड़े साधु की समश्रेणि में खड़ा १९. सेहे रातिणियस्स वाहरमाणस्स अपडिसुणेत्ता भवति, रहना। आसातणा सेहस्स। ६. छोटे साधु का बड़े साधु से सटकर खड़ा रहना। २०. सेहे रातिणियस्स वाहरमाणस्स तत्थ गते चेव पडि- ७. छोटे साधु का बड़े साधु के आगे बैठना। सुणेत्ता भवति, आसातणा सेहस्स । ८. छोटे साधु का बड़े साधु की समश्रेणि में बैठना । २१. सेहे रातिणियं किंति वत्ता भवति, आसातणा ९. छोटे साधु का बड़े साधु से सटकर बैठना । सेहस्स। १०. छोटे साधु का बड़े साधु से पहले (एक जलपात्र हो, २२. सेहे रातिणियं तुमति वत्ता भवति, आसातणा उस स्थिति में) आचमन करना- शुचि लेना। सेहस्स। ११. छोटे साधु द्वारा स्थान में आकर बड़े साधु से पहले २३. सेहे रातिणियं खलु खद्धं वदति, आसायणा सेहस्स । गमनागमन की आलोचना करना। २४. सेहे रातिणियं तज्जाएणं तज्जातं पडिहणेत्ता भवति, १२. जिस व्यक्ति से बड़े साधु को वार्तालाप करना है, आसातणा सेहस्स। उसके साथ छोटे साधु का पहले ही वार्तालाप २५. कीस अज्जो! गिलाणस्स न करेसि ? भणइ-तुम करना। कीस न करेसि ?... १३. बड़े साधु द्वारा यह पूछने पर कि कौन जागता है, २६. सेहे रातिणियस्स कहं कहेमाणस्स इति एतंति वत्ता कौन सो रहा है, छोटे साधु का जागते हुए भी भवति, आसातणा। उत्तर नहीं देना। २७ सेहे रातिणियस्स कहं कहेमाणस्स णो सुमणसे भवति, १४. गृहस्थ के घर से भिक्षा ला पहले छोटे साधु के आसातणा सेहस्स। पास आलोचना करना -कहां से, क्या, कैसे प्राप्त २८. सेहे रातिणियस्स कहं कहेमाणस्स परिसं भेत्ता हुआ? --यह बतलाना। फिर बड़े साधु के पास भवति, आसातणा सेहस्स। आलोचना करना। २९. सेहे रातिणियस्स कहं कहेमाणस्स कहं अच्छिदित्ता १५. गृहस्थ के घर से भिक्षा ला पहले छोटे साधु को भवति, आसातणा सेहस्स । दिखाना, फिर बड़े साधु को। ३०. सेहे रातिणियस्स कहं कहेमाणस्स तीसे परिसाए १६. गृहस्थ के घर से भिक्षा ला पहले छोटे साधु को अणुद्विताए दोच्चपि तच्चपि तमेव कहं कहेत्ता भवति, निमंत्रित करना, फिर बड़े साधु को। आसातणा सेहस्स। १७. गृहस्थ के घर से भिक्षा ला बड़े साधु को पूछे बिना ३१ सेहे रातिणियस्स सेज्जासंथारगं पादेन संघटेत्ता अपने प्रिय-प्रिय साधुओं को प्रचुर-प्रचुर दे देना। हत्थेणं अणणण्णवेत्ता गच्छति, आसातणा सेहस्स। १८. गृहस्थ के घर से भिक्षा ला बड़े साधु के साथ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्रव १३२ आश्रव भोजन करते हए सरस आहार खाने की उतावल में परिभ्रमण करता है। करना । ४. एक को आशातना-सबको आशातना १९. बड़े साधु द्वारा आमंत्रित होने पर सुना-अनसुना भरहेरवयविदेहे पन्नरसवि कम्मभूमिगा साहू । करना। २०. बड़े साधु द्वारा आमंत्रित होने पर अपने स्थान पर एक्कमि हीलियमी सव्वे ते हीलिया हुंति ॥ बैठे हुए उत्तर देना। भरहेरवयविदेहे पन्नरसवि कम्मभूमिगा साहू । २१. बड़े साधु को अनादर-भाव से 'क्या कह रहे हो'---- एक्कमि पूइयंमी सव्वे ते पूइया हुंति ।। इस प्रकार कहना। नाणं व दंसणं वा तवो य तह संजमो य साहुगुणा । २२. बड़े साधु को तू कहना। एक्के सव्वेसुवि हीलिएसु ते हीलिया हुंति ।। २३. बड़े साधु के समक्ष उद्धततापूर्वक बोलना। एमेव पूइयंमिवि एक्कमिवि पूइया जइगुणा उ ।... २४. बड़े साधु की, उसी का कोई शब्द पकड़ अवज्ञा (ओनि ५२६, ५२७, ५२९, ५३०) करना। ज्ञान, दर्शन, तप और संयम-ये साधु के गुण हैं। २५. आर्य ! ग्लान की सेवा क्यों नहीं करते हो? ये गुण जैसे एक साधु में होते हैं, वैसे ही सब साधुओं में रात्निक मुनि द्वारा ऐसा कहे जाने पर प्रत्युत्तर में होते हैं। कहना-- तुम क्यों नहीं करते ? एक गुण की अवमानना सभी गुणों की अवमानना २६. बड़ा साधु व्याख्यान कर रहा हो, उस समय 'यह है। एक गुण की पूजा सभी गुणों की पूजा है। एक साधु ऐसे नहीं किन्तु ऐसे है'--इस प्रकार कहना । की अवमानना भरत, ऐरवत और विदेह क्षेत्रवर्ती सभी . बड़ा साधु व्याख्यान कर रहा हो, उस समय अन्य- साधुओं की अवमानना है। एक साधु की पूजा सभी मनस्क होना। साधुओं की पूजा है। २८. बड़ा साधु व्याख्यान कर रहा हो, उस समय बीच आश्रव-कर्म-ग्रहण में हेतभत आत्मपरिणाम । में ही परिषद् को भंग करना। २९. बड़ा साधु व्याख्यान कर रहा हो, उस समय । १. आश्रव की परिभाषा बीच में ही कथा का विच्छेद करना--विघ्न २. आश्रय के प्रकार उपस्थित करना। * आश्रव से कर्मबंध (द्र. कर्म) ३०. बड़ा साधु व्याख्यान कर रहा हो, उस समय उसी * प्रत्याख्यान से आश्रव-निरोध (5. प्रत्याख्यान) विषय में अपनी व्याख्या देने का बार-बार प्रयत्न ३. आश्रव-निरोध : संवर करना। ४. आश्रव-संवर-हेतु ३१. बड़े साधु के उपकरणों के पैर लग जाने पर ५. संवर के प्रकार विनम्रतापूर्वक क्षमायाचना न करना। ६. संवर के परिणाम ३२. बड़े साधु के बिछौने पर खड़े रहना, बैठना या ७. अनाधव कौन ? सोना। ८. आश्रव : भवभ्रमण का हेतु ३३. बड़े साधु से ऊंचे या बराबर के आसन पर खड़े * गुप्ति का परिणाम : संवर (द्र. गप्ति ) रहना, बैठना या सोना। * इन्द्रियसंवर (इन्द्रियनिग्रह) के परिणाम ३. आशातना की फलश्रुति (द्र. इन्द्रिय) तित्थयर पवयण सुयं आयरियं गणहर महिड्ढीयं । । * आश्रव-संवर-भावना (द्र. अनुप्रेक्षा) आसायंतो बहुसो अणंतसंसारिओ होइ॥ (विभामवृ २ पृ १७२) १. आश्रव की परिभाषा तीर्थकर, गणधर, आचार्य, प्रवचन और जिनशासन आश्रवति-आगच्छत्यनेन कर्मत्याश्रव:-कर्मोकी आशातना करने वाला जीव अनंत काल तक संसार पादानहेतुहिंसादिः । (उशावु प ५६२) Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनाश्रव कौन ? १३३ आश्रव जिससे कर्मों का आगमन होता है, वह आश्रव ५. संवर के प्रकार है । हिंसा आदि आश्रव कर्मों के उपादान हेतु हैं। पञ्चाश्रवाद्विरमणं पञ्चेन्द्रियनिग्रहः कषायजयः । जीवस्स कम्मबंधत्ताए परिणममाणाण पोग्गलाण दण्डत्रयविरतिश्चेति संयमः सप्तदशभेदः ।। आगमो आसवो तस्स दाराणि आसवदाराणित्ति । (नन्दीमवृ प ४३) आसवदारेहि पिहितेहिं जा अज्झवसायतण्हा सा संवर के सतरह प्रकार हैं-प्राणातिपातविरमण, वोच्छिण्णा भवति । तण्हाए वोच्छिण्णाए प्रशमो भवति । मृषावादविरमण, अदत्तादानविरमण, मैथुनविरमण, (आव २ पृ३१४) परिग्रहविरमण, स्पर्शनेन्द्रियनिग्रह, रसनेन्द्रियनिग्रह, आत्मा में कर्मबंध के रूप में परिणत होने वाले घ्राणेन्द्रियनिग्रह, चक्षुरिन्द्रियनिग्रह, श्रोत्रेन्द्रियनिग्रह, पुद्गलों के आगमन के द्वारों को आश्रव कहा जाता है। क्रोधविवेक, मानविवेक, मायाविवेक, लोभविवेक, आश्रवद्वारों का निरोध करने से तृष्णा का अध्यवसाय मनोदण्डविरति, वचनदण्डविरति, कायदण्डविरति । क्षीण होता है, जिससे प्रशम भाव विकसित होता है। नियमो द्विधा -इन्द्रियनियमो नोइन्द्रियनियमश्च । २. आश्रव के प्रकार नोइन्द्रियनियम:-क्रोधादिकः आदिग्रहणान्मानमायापाणातिवातादीणि पंच आसवदाराणि । लोभा गृह्यन्ते, एतेषां नियमो निरोधः । (दअचू पृ६३) (ओनि प ११३,११४) आश्रवद्वार पांच हैं-प्राणातिपात, मृषावाद, संवर (नियम) के दो प्रकार हैं १. इन्द्रियनियमन--पांच इन्द्रियों का निरोध । अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह । अथवा २. नोइन्द्रियनियमन--क्रोध, मान, माया और लोभ मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगा बन्धहेतवः । __ का निरोध । (विभामवृ पृ ६८५) आश्रव पांच हैं-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, ६. संवर (विनिवर्तना) के परिणाम कषाय, योग। आश्रव बंध के हेतु हैं। विणियद्रणयाए णं पावकम्माणं अकरणयाए अब्भठेइ । पुत्वबद्धाण य निज्जरणाए तं नियत्तेइ तओ ३. आश्रवनिरोध : संवर पच्छा चाउरंत संसारकतारं वीइवयइ। (उ २९३३) संवरो नाम पाणवहादीण आसवाणं निरोहो भण्णइ। विनिवर्तना (संवर) से जीव नए सिरे से पापकर्मों (दजिचू पृ १६२) को नहीं करने के लिए तत्पर रहता है और पूर्वअजित संवरः गूप्त्यादिभिराश्रवनिरोधः। पापकर्मों का क्षय कर देता है- इस प्रकार वह पापकर्म (उशावृ प ५६२) का विनाश कर देता है। उसके पश्चात् चार गति रूप प्राणातिपात आदि आश्रवों का निरोध सवर है। चार अंतों वाली संसार अटवी को पार कर जाता है। गप्ति आदि की साधना के द्वारा आश्रवों का निरोध ७. अनाव कौन ? करना 'संवर' है। पाणवहमुसावाया, अदत्तमेहणपरिग्गहा विरओ। ४. आश्रव-संवर-हेतु राईभोयणविरओ, जीवो भवइ अणासवो।। जे जत्तिआ अ हेऊ भवस्स ते चेव तत्तिया मूक्खे ।" पंचसमिओ तिगुत्तो, अकसाओ जिइंदिओ। इरिआवहमाईआ जे चेव हवंति कम्मबंधाय । अगारवो य निस्सल्लो, जीवो होइ अणासवो ।। अजयाणं ते चेव उ, जयाण निव्वाणगमणाय ।। (उ ३०।२,३) (ओनि ५३.५४) प्राणवध, मृषावाद, अदत्त-ग्रहण, मैथन, परिग्रह जितने संसार के हेतु हैं -आश्रव हैं, उतने ही मोक्ष और रात्रि-भोजन से विरत जीव अनाश्रव होता है। के हेतु हैं संवर हैं । अयतना से की गई गमन-आगमन पांच समितियों से समित, तीन गुप्तियों से गुप्त, की क्रिया बन्ध का कारण है। वही क्रिया यतना से अकषाय, जितेन्द्रिय, ऋद्धि-रस-सात-इस गौरव-त्रिक करने पर मोक्ष का कारण बन जाती है। से रहित और निःशल्य जीव अनाथव होता है। Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहार आहार : सात आलोक ८. आश्रव : भवभ्रमण का हेतु १६. सम्भोज-प्रत्याख्यान के परिणाम .."अज्झत्थहेउं निययस्स बन्धो । १७. मुनि का आहार संसारहेउं च वयंति बन्धं । (उ १४।१९) १८. आहारलुब्ध व्यक्ति को वृत्ति आत्मानं प्रति यद् वर्तते तदध्यात्म। तच्च राग * अतिमात्र और प्रणीत आहार : ब्रह्मचर्य का विघ्न द्वेषमोहमिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगाः । (द्र. ब्रह्मचर्य) * आहारग्रहण-विधि (उचू पृ २२६) | (द्र. गोचरचर्या) * आहार-प्राप्ति के दोष (द्र. एषणा) राग-द्वेष, मोह, मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय * आचार्य के प्रायोग्य आहार (द. आचार्य) और योग---ये आत्मा के आन्तरिक दोष ही उसके बंधन * अल्प आहार (द्र. ऊनोदरी) के हेतु हैं और बन्धन ही संसार का हेतु है। आश्रव भावना--कर्मों के आकर्षण के हेतभत १. आहार के प्रकार साधनों का अनुचिन्तन करना। असणं पाणगं चेव, खाइमं साइमं तहा । एसो आहारविही, चउविहो होइ नायव्यो ।। __ (द्र. अनुप्रेक्षा) आसुं खुह समेई, असणं पाणावग्गहे पाणं । आहार भोजन । भूख-प्यास को शांत करने खे माइ खाइमं ति य, साएइ गुणे तओ साई ।। वाले, शरीर को पोषण देने वाले पदार्थों (आवनि १५८७,१५८८) का ग्रहण । यहां मुनि से संबद्ध आहार के असिज्जइ खुहितेहिं जं तमसणं जहा कूरो एवमाविधि-निषेध का आकलन है। दीति । पिज्जतीति पाणं, जहा मुद्दियापाणगं एवमाइ। खज्जतीति खादिमं, जहा मोदओ एवमादि । सादिज्जति । १. आहार के प्रकार सादिमं, जहा सुंठिगुलादी। (दजिचू पृ १५२) २. आहार : सात आलोक आहार के चार प्रकार हैं - ३. आहार से पूर्व आलोचना १. अशन ... जो क्षुधा का शीघ्र शमन करता है, भूखे ० कायोत्सर्ग व्यक्ति द्वारा जिसे खाया जाता है, उसे अशन कहते ० स्वाध्याय हैं। जैसे ओदन आदि। ० सामिकों को निमन्त्रण २. पान ---जो प्राणों का उपग्रह करता है, जिसे पीया • आहार का स्थान जाता है, उसे पान कहते हैं। जैसे-द्राक्षा का ४. आहार करने की विधि पानक आदि। ५. आहार और भावना ३. खाद्य-जो मुखविवर में समा जाता है, जिसे ६. आहार-विवेक खाया जाता है, उसे खादिम या खाद्य कहते हैं। ७. आहार-परिमाण जैसे-मोदक, खजूर आदि । ८. अपेय वर्जन ४. स्वाद्य-जिसका स्वाद लिया जाये, जो मुखवास ९. परिष्ठापनीय आहार और परिष्ठापन विधि के रूप में काम आए, उसे स्वादिम अथवा स्वाद्य १०. सात्विक आहार का फल कहते हैं । जैसे –ताम्बूल, सोंठ आदि । ११. आहार करने के हेतु २. आहार : सात आलोक १२. आहार न करने के हेतु ठाणदिसिपगासणया भायणपक्खेवणे य गुरुभावे । १३. आहार: मांडलिक दोष सत्तविहो आलोको सयावि जयणा सुविहियाणं ॥ १४. संभोजी और असंभोजी मुनि (ओनि ५५०) १५. मंडली आहार का प्रयोजन आहार करते समय सात तथ्य विशेष ध्यान देने Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहार से पूर्व आलोचना योग्य हैं । वे सात 'आलोक' कहलाते हैं -- १. स्थान आलोक – जहां आवागमन न हो । २. दिशा आलोक - आहार करते आगे-पीछे न बैठे, किन्तु गुरु आग्नेय दिशा में बैठे । समय मुनि गुरु के की ईशान अथवा ६. गुरु आलोक - आहार आदि गुरु को दिखाकर उनके दृष्टिपथ में बैठकर खाये । ७. भाव आलोक --- ज्ञान, दर्शन, चारित्र की वृद्धि और उनकी अव्यवच्छित्ति के लिए आहार करे । ३. आहार से पूर्व आलोचना विणण पट्टवित्ता सज्झायं कुणइ तो मुहुत्तागं । पुव्वभणिया य दोसा परिस्समाई जढा एवं ॥ (ओनि ५२१ ) कायोत्सर्ग के पश्चात् स्वाध्याय को प्रस्थापित कर ३. प्रकाश आलोक - आहार का स्थान प्रकाशयुक्त मुहूर्त भर के लिए स्वाध्याय करे ( जघन्यतः तीन हो । गाथाओं का और उत्कृष्टतः सूक्ष्म आनप्राण-लब्धि सम्पन्न मुनि अन्तर्मुहूर्त में चौदह पूर्वो का परावर्तन कर लेता है) । इस कालक्षेप से श्रमजन्य विषमता, धातुक्षोभ से उत्पन्न दोष स्वतः शान्त हो जाते हैं । ४. भाजन आलोक- पात्र संकीर्ण मुख वाला न हो । ५. प्रक्षेप आलोक - कवल प्रमाणोपेत हो । उज्जुप्पन्न अणुव्विग्गो, अव्वक्खित्तेण चेयसा । आलोए गुरुसगासे, जं जहा गहियं भवे ॥ (द ५।१।९० ) ऋजुप्रज्ञ, अनुद्विग्न संयति व्याक्षेपरहित चित्त से गुरु के समीप आलोचना करे। जिस प्रकार से भिक्षा ली हो, उसी प्रकार से गुरु को कहे । कायोत्सर्ग ता दुरालो भत्तपाण एसणमणेसणाए उ । अट्ठस्सा अहवा अणुग्गहादीउ भाएज्जा ॥ ( ओभा २७४ ) भिक्षाचर्या से लौटकर गुरु के पास यदि भलीभांति आलोचना न की हो, भक्तपान पूरा न दिखाया हो, कदाचित् सूक्ष्म एषणा दोष लगा हो, अथवा अनजान में एषणा न की हो तो इनकी विशुद्धि के लिए श्वासोच्छ्वास के साथ आठ बार नमस्कार मंत्र का कायोत्सर्ग करे अथवा अनुग्रह का चिन्तन करे । जैसे अहो जिणेहि असावज्जा, वित्ती साहूण देसिया । मक्खसाहणउस्स, साहुदेहस्स धारणा || (द ५।११९२ ) अहो ! अर्हतों ने साधुओं के मोक्षसाधना के हेतुभूत शरीर को धारण करने के लिए निरवद्य ( निर्दोष ) आहारवृत्ति का प्रतिपादन किया है । १३५ स्वाध्याय आहार नमोक्कारेण पारेत्ता, करेत्ता जिणसंथवं । सज्झायं पट्टवेत्ताणं, वीसमेज्ज खणं मुणी ॥ (द ५।१।९३ ) इस चिन्तनमय कायोत्सर्ग को नमस्कार मंत्र के द्वारा पूर्ण कर जिनसंस्तव ( तीर्थङ्कर - स्तुति ) करे, - फिर स्वाध्याय की प्रस्थापना (प्रारम्भ ) करे । क्षण-भर विश्राम ले । वीसमंतो इमं चिते, हियमठ्ठे लाभमट्टिओ । जइ मे अणुग्गहं कुज्जा, साहू हांज्जामि तारिओ ॥ (द ५।१।९४) विश्राम करता हुआ मोक्षार्थी मुनि इस हितकर अर्थ का चिन्तन करे -- यदि आचार्य और साधु मुझ पर अनुग्रह करें तो मैं निहाल हो जाऊं मानूं कि उन्होंने मुझे भवसागर से तार दिया । साधर्मिकों को निमन्त्रण - इयरोवि गुरुसगासं गंतूण भगइ संदिसह भंते ! | पाहुणगखवगतरं तबालवुड्ढाण सेहाणं ॥ दिणे गुरूहि तेसि सेसं भुंजेज्ज गुरुअणुन्नायं । गुरुणा संदिट्ठो वा दाउ सेसं तओ भुंजे || (आंनि ५२३, ५२४) भिक्षा लाने के बाद आहार करने से पूर्व मुनि गुरु को निवेदन करे 'आर्य वर ! मेरे द्वारा आनीत यह भोजन आप अतिथि, क्षपक (तपस्वी), रोगी, बाल, शैक्ष एवं वृद्ध मुनियों को प्रदान करें।' इस निवेदन पर जब गुरु दूसरों को भोजन दे दे, तब गुरु की आज्ञा से शेष बचे भोजन को स्वयं खाए । अथवा गुरु के कहने पर वह मुनि स्वयं अतिथि आदि साधुओं को भोजन दे तो शेष बचे भोजन से अपना निर्वाह करे । Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहार आहार करने की विधि साहवा तो चियत्तेणं, निमंतेज्ज जहक्कम । सुरहीदोच्चंगट्ठा छोढण दवं तु पियइ दवियरसं । जइ तत्थ केइ इच्छेज्जा, तेहिं सद्धि तु भुंजए । हेटोवरि आमट्ठ इय एसो भुंजणे अविही ।। अह कोइ न इच्छेज्जा, तओ भंजेज्ज एक्कओ। जह गहि तह नीयं गहणविही भोयणे विही इणमो । आलोए भायणे साह, जयं अपरिसाडयं ।। उक्कोसमणुक्कोसं समकयरसं तु भुजेज्जा ॥ (द ५११२९५,९६) (ओभा २९६-२९८) आहार के लिए मुनि प्रेमपूर्वक साधुओं को यथाक्रम काक और शृगाल की तरह खाना अविधिभुक्त है। निमन्त्रण दे। उन निमन्त्रित साधुओं में से यदि कोई जैसे--- काक गोबर आदि में छिपे अनाज के दानों को साधु भोजन करना चाहे तो उनके साथ भोजन करे। खाता है, शेष को इधर-उधर बिखेर देता है तथा खाते यदि कोई साधु न चाहे तो अकेला ही खले पात्र में समय इधर-उधर देखता रहता है। शृगाल अपने भाज्य यतनापूर्वक नीचे नहीं डालता हुआ भोजन करे। के भिन्न-भिन्न भागों को खाता है, क्रमशः नहीं खाता। इच्छिज्ज न इच्छिज्ज व तहविय पयओ निमंतए साह । वैसे ही मनोज्ञ-मनोज्ञ आहार करना, परिशाटन करते परिणामविसुद्धीए अ निज्जरा होअगहिएवि ।। हुए खाना, पात्र में रखे आहार को उथल-पुथल कर, (ओनि ५२५) इधर-उधर झांकते हुए खाना अविधि-भुक्त है। - मुनि साधुओं को सद्भाव से आहार के लिए सुरभित तीमन, ओदन आदि से मिला हुआ हो तो निमन्त्रित करे । कोई साधु इच्छापर्वक निमन्त्रण स्वीकार ओदन को छोड़कर सुरभित तीमन को पीना द्रवित रस करे या न करे, परिणाम विशुद्धि के कारण निमन्त्रणकर्ता है । यह विधिसम्मत नहीं है। के तो निर्जरा होती ही है। जो आहार गृहस्थ से जिस रूप में ग्रहण किया, उसे उसी रूप में लाना तथा उत्कृष्ट-अनुत्कृष्ट द्रव्यों को आहार का स्थान . समीकृत कर खाना विधिसम्मत है। अणुनवेत्तु मेहावी, पडिच्छन्नम्मि संवडे । कडपयरच्छेएणं भोत्तव्वं अहव सीहखइएणं ।। हत्थगं संपमज्जित्ता, तत्थ भुंजेज्ज संजए । (ओभा २८८) (द ५११८३) खण्ड-खण्ड करके खाना, प्रतररूप में खाना, सिंह गोचराग्र के लिए गया हआ मेधावी मुनि स्वामी से की तरह अपने भोज्य के भिन्न-भिन्न भागों को क्रमश: अनुज्ञा लेकर, छाये हुए एवं संवत स्थल में बैठे, हस्तक खाना विधिसम्मत है। (वस्त्र-खंड) से शरीर का प्रमार्जन कर वहां आहार करे। सकाष्टांत अप्पपाणेऽप्पवीयं मि, पडिच्छन्नमि संव डे । जहा सप्पो सर त्ति बिलं पविसति तहा साहुणा समयं संजए भुजे, जयं अपरिसाडयं ।। अरत्तदुढेणं हणुयाओ हणुयं असंकामेंतेण भोत्तव्यं । (उ ११३५) (दअचू पृ८) संयमी मुनि प्राणी और बीज रहित, ऊपर से ढके जैसे सर्प बिल में सीधा प्रविष्ट होता है, वैसे ही हए और पार्श्व में भित्ति आदि से संवत आश्रय में अपने रागद्वेषमुक्त मुनि आहार को सीधा निगल जाए, स्वाद के सहधर्मी मूनियों के साथ, भूमि पर न गिराता हआ, लिए एक जबड़े से दूसरे जबड़े में न ले जाए। यतनापूर्वक आहार करे। एसो आहारविही जह भणिओ सव्वभावदंसीहिं । ४. आहार करने की विधि धम्मावस्सगजोगा जेण न हायंति तं कुज्जा ।। कागसियालक्खइयं दविअरसं सव्वओ परामठें। (पिनि ६७०) एसो उ भवे अविही, जहगहि भोयणम्मि विही ।। यह आहार-विधि अर्हतों द्वारा प्रतिपादित है। (ओनि ५९३) इसके पालन से श्रुत-अध्ययन, चारित्र और आवश्यक उच्चिणइ व विट्ठाओ कागो अहवावि विक्खिरइ सव्वं । योगों की हानि नहीं होती-प्रतिक्रमण आदि प्रवृत्तियां विप्रोक्खइ य दिसाओ सियालो अन्नोन्नहिं गिण्हे॥ निर्बाध चलती हैं। Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहार-विवेक आहार बचे हुए आहार की व्यवस्था एक वणिक् जहाज को भाण्ड से भरकर ले होज्ज सिआ उद्धरियं तत्थ य आयंबिलाइणो हज्जा। गया, पर खाली हाथ लौटा-ससारो गओ, असारो पडिदेसि अ संदिट्ठो वाहरइ तओ चउत्थाई ।। आगओ। मोहचिगिच्छविगिट्ठ गिलाण अत्तट्टियं च मोत्तूणं ।... एक वणिक खाली जहाज लेकर गया पर लौटते समय जहाज को भरकर लौटा--असारो गओ, ससारो आहार शेष बच जाने पर मुनि आचार्य से अनुमति आगओ। प्राप्त कर आयंबिल, लंघन आदि करने वाले मुनियों चौथा वणिक् खाली गया और खाली लोटामें उस आहार का वितरण कर दे। मोह-चिकित्सा के असारो गओ, असारो आगओ। लिए उपवास करने वालों, विकृष्ट तप (तेला आदि) ६. आहार-विवेक करने वालों तथा ग्लान और आत्मलब्धिक मुनि को । निद्धमहुराणि पुव्वं पित्ताइपसमणट्ठया भुंजे । बचा हुआ आहार न दे। बुद्धिबलवड्ढणट्ठा॥ (ओभा २८४) ५. आहार और भावना आहार करते समय सबसे पहले स्निग्ध और मधुर अह होइ भावधासेसणा उ अप्पाणमप्पणा चेव । पदार्थ खाने चाहिए । इनसे पित्त आदि का शमन होता साहू भुजिउकामो अणुसासइ निज्जरट्ठाए ॥ है, शक्ति और बुद्धि का संवर्धन होता है। बायालीसेसणसंकडंमि गहणंमि जीव ! न हु छलिओ। 'घृतेन वर्धते मेधा'-घृत से मेधा बढ़ती है। एहि जह न छलिज्जसि भुजंतो रागदोसेहिं ॥ (ओनि ५४४,५४५) तेल्लदहिसमाओगा अहिओ खीरदहिकंजियाणं च । मैं मनोज्ञ-अमनोज्ञ आहार में राग-द्वेष करता हुआ पत्थं पुण रोगहरं न य हेऊ होइ रोगस्स ॥ आधाकर्म आदि एषणा के बयालीस दोषों के गहन वन (पिनि ६४९) में भटक न जाऊं- इस भावना से आहारार्थी मुनि विरोधी अथवा बेमेल द्रव्यों को मिलाने से आहार अपने आपको भावित और अनुशासित करता है-यह अहितकर बन जाता है। दही और तैल का तथा दूध, भाव ग्रासैषणा है। दही और कांजी का मिश्रण अहितकर है। इससे अनेक अंततं भोक्खामित्ति बेसए भुंजए य तह चेव । रोग उत्पन्न हो सकते हैं। अविरुद्ध द्रव्यों का मिश्रण पथ्य आहार की कोटि में आता है। पथ्य आहार के एस संसारनिविट्ठो ससारओ उट्रिओ साह ॥ एमेव य भंगतिअं जोएयव्वं तु सारनाणाई। सेवन से पुराना रोग नष्ट हो जाता है, नया रोग उत्पन्न तेण सहिओ ससारो समुद्दवणिएण दिळंतो।। नहीं होता। __ (ओनि ५७१,५७२) असुरसुरं अचवचवं अदुयमविलंबिअं अपरिसाडि । 'मैं अन्तप्रान्त/रूखा-सूखा आहार करूंगा'-इस मणवयणकायगुत्तो, भुंजइ अह पक्खिवणसोहिं ।। परिणाम से आहार करने वाला मुनि 'ससार उपविष्ट' (ओभा २८९) और 'ससार उत्थित' अर्थात् ज्ञान-दर्शन-चारित्र से सम्पन्न मुनि आहार करते समय 'सुर-सुर' या 'चवचव' होता है। इसके चार विकल्प हैं शब्द न करे। बहुत जल्दी-जल्दी या बहुत धीरे-धीरे न ससार उपविष्ट, ससार उत्थित खाये । नीचे गिराता हुआ न खाये । 'यह आहार मनोज्ञ ससार उपविष्ट, असार उत्थित है या अमनोज्ञ'-इस विषय में न सोचे, मन-वचनअसार उपविष्ट, ससार उत्थित काया का संयम करे। असार उपविष्ट, असार उत्थित पडिग्गहं संलिहित्ताणं, लेवमायाए संजए। एक सामुद्रिक व्यापारी अपने जहाज को माल से दुगंध वा सुगंधं वा, सव्वं भुंजे न छड्डए । भर कर ले गया और लौटते समय हिरण्य, सुवर्ण का (द ५।२।१) अर्जन कर लौटा-ससारो गओ, ससारो आगओ। संयमी मुनि लेप लगा रहे तब तक पात्र को पोंछ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहार कर सब खा ले, शेष न छोड़े, भले फिर वह दुर्गन्धयुक्त हो या सुगन्धयुक्त । ७. आहार - परिमाण बत्तीस किरकवला आहारो कुच्छिपूरओ भणिओ । पुरिसस्स महिलियाए अट्ठावीसं भवे कवला ॥ ( पिनि ६४२ ) पुरुष का पूरा आहार बत्तीस कवलप्रमाण तथा स्त्री का अट्ठाईस कवलप्रमाण माना गया है । कवलाण य परिमाणं, कुक्कुडिअंडगपमाणमेत्तं तु । जो वा अविगियवयणो, वयणंमि छुहिज्ज वीसत्थो || ( उशावृप ६०४ ) एक कवल का परिमाण मुर्गी के अण्डे जितना बतलाया गया है अथवा एक बार में जितना आहार मुख में डालने से मुख विकृत न हो, वह प्रमाणोपेत कवल है । अद्धमसणस्स सव्वंजणस्स कुज्जा दवस्स दो भागे । वाऊपवियारणट्ठा छन्भायं ऊणयं कुज्जा | (पिनि ६५० ) कल्पना से उदर के छह भाग कर तीन भाग आहार से तथा दो भाग पानी से पूरित करे । छठा भाग वायुसंचरण के लिए खाली छोड़े । सीए वस्स एगो भत्ते चत्तारि अहव दो पाणे । उसिणे दवस दोन्नि उ तिन्नि व एसा उ भत्तस्स ॥ (पिनि ६५२ ) अत्यन्त शीतकाल में पानी के लिए एक भाग तथा आहार के लिए चार भाग कल्पित हैं। मध्यम शीतकाल और उष्णकाल में दो भाग पानी और तीन भाग आहार के लिए तथा अत्यन्त उष्णकाल में तीन भाग पानी और दो भाग आहार के लिए कल्पित हैं । छठा भाग सर्वत्र वायु संचरण के लिए है । ८. अपेय- वर्जन सुरं वा मेरगं वा वि, अन्नं वा मज्जगं रसं । सक्खं न पिबेभिक्खू, जसं सारक्खमप्पणो ॥ (द ५।२।३६) अपने संयम का संरक्षण करता हुआ भिक्षु सुरा, मेरक या अन्य किसी प्रकार का मादक रस आत्मसाक्षी से न पीए । परिष्ठापनीय आहार और परिष्ठापन विधि वड्ढई सोंडिया तस्स, मायामोसं च भिक्खुणो । अयसो य अनिव्वाणं, सययं च असाहुया || (द ५।२।३८ ) मादक रस पीने वाले भिक्षु के उन्मत्तता, मायामृषा, अयश, अतृप्ति और सतत असाधुता - ये दोष बढ़ते हैं । ६. परिष्ठापनीय आहार और परिष्ठापन विधि १३८ सा पुण जायमजाया जाया मूलोत्तरेहि उ असुद्धा | लोभाति रेगगहिया अभियोगकया विसकया वा ॥ आयरिए य गिलाणे पाहुणए दुल्लभे सहसदाणे । एवं होइ अजाया ॥ (ओनि ५९४,६०७ ) परिष्ठापनीय आहार के दो प्रकार हैं १. जाता (अशुद्ध ) भिक्षा प्राणातिपात आदि मूल दोषों से, क्रीत आदि उत्तर दोषों से दूषित तथा लोभ से दूषित और वशीकरण चूर्ण मिश्रित, मंत्र से अभिमंत्रित तथा विषमिश्रित आहार परिष्ठापनीय है। २. अजाता (शुद्ध) भिक्षा - आचार्य, ग्लान तथा अतिथि - इनके लिए लाया गया आहार यदि अतिरिक्त हो, कोई खाने वाला न हो, तो वह परिष्ठापनीय होता है । द्रव्य की दुर्लभता से अत्यधिक लाया गया हो या दान की प्रचुरता से पदार्थ अधिक आ गया हो तो वह परिष्ठापनीय होता है । एतणावाए अच्चित्ते थंडिले गुरुवइट्ठे । आलोए एगपुंजं तिद्वाणं सावणं कुज्जा | एवं विज्जाजोए विससंजुत्तस्स वावि गहियस्स । पाणच्चएवि नियमुज्झणा उ वोच्छं परिट्ठवणं ॥ एगंतमणावाए अच्चित्ते थंडिले रुट्ठे । छारेण अक्कमित्ता तिट्ठाणं सावणं कुज्जा ॥ (ओनि ५२५,६०३,६०४) मुनि गुरु की अनुज्ञा प्राप्त कर एकांत अचित्त स्थान में जाता है। वहां समभूभाग में उस भिक्षा का परिष्ठापन कर 'वोसिरे' ( व्युत्सृष्ट ) शब्द का तीन बार उच्चारण करता है । इसी प्रकार मुनि विद्या से अभिमंत्रित, योगचूर्णकृत अथवा विषमिश्रित भिक्षा आ जाने पर उसमें राख मिलाकर उसके तीन पुंज कर एकान्त Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्रण का दृष्टांत आहार अचित्त स्थान में 'वोसिरे' 'वोसिरे' कहता हुआ विसजित ११. आहार करने के हेतु कर देता है। वेयणवेयावच्चे इरियट्टाए य संजमट्टाए। तत्थ से भुंजमाणस्स, अट्ठियं कंटओ सिया । तह पाणवत्तियाए छठें पूण धम्मचिंताए । तण-कट्र-सक्करं वा वि, अन्नं वा वि तहाविहं।। (उ २६।३२) तं उक्खिवित्तु न निक्खिवे, आसएण न छड्डए। आहार करने के छह कारणहत्थेण तं गहेऊणं, एगंतमवक्कमे ।। १. वेदना. भूख की पीडा मिटाने के लिए। एगतमवक्कमित्ता, अचित्तं पडिलेहिया । २. वैयावृत्त्य करने के लिए। जयं परिदृवेज्जा, परिठ्ठप्प पडिक्कमे ।। ३. ईर्यासमिति का पालन करने के लिए। (द ५१११८४-८६) ४. संयम की रक्षा के लिए। भोजन करते हुए मुनि के आहार में गुठली, कांटा, ५. प्राण-धारण के लिए। तिनका, काठ का टुकड़ा, कंकड़ या इसी प्रकार की कोई ६. धर्म-चिन्ता के लिए। दूसरी वस्तु निकले तो उसे उठाकर न फेंके, मुंह से न । नत्थि छुहाए सरिसा वियणा भुजेज्ज तप्पसमणट्रा । थूके, किन्तु हाथ में लेकर एकान्त में चला जाए। छाओ वेयावच्चं ण तरइ काउं अओ भुंजे ।। एकान्त में जा अचित्त भूमि को देख, यतनापूर्वक उसे इरिअं नऽवि सोहेई पेहाईअं च संजमं काउं । परिष्ठापित करे । तत्पश्चात् स्थान पर आकर प्रतिक्रमण थामो वा परिहायइ गुणऽणप्पेहास् अ असत्तो ।। करे। (पिनि ६६३, ६६४) तं च अच्चंबिलं पूई नालं तण्हं विणित्तए । भूख के समान कोई वेदना नहीं है। इसलिए भूख देतियं पडियाइक्खे न मे कप्पइ तारिस ।। को शांत करने के लिए भोजन करना चाहिए। भूखा तं च होज्ज अका मेणं विमणेण पडिच्छियं । साधु वैयावृत्त्य नहीं कर सकता, इसलिए वैयावृत्त्य करने तं अप्पणा न पिबे नो वि अन्नस्स दावए ।। के लिए भोजन करना चाहिए। एगंतमवक्कमित्ता अचित्तं पडिलेहिया । ___अशक्तता के कारण बुभुक्षित साधु न ईर्यापथ का जयं परिवेज्जा परिटुप्प पडिक्कमे ।। शोधन कर सकता है और न प्रेक्षा, उपेक्षा आदि संयम(द ५११७९-८१) स्थानों का अनुपालन कर सकता है। भूख के कारण यदि जल बहुत खट्टा, दुर्गन्धयुक्त और प्यास बुझाने प्राणशक्ति क्षीण हो जाती है, इसलिए भोजन करना में असमर्थ हो तो देती हए स्त्री को मुनि प्रतिषेध करे--.. चाहिए। भूखा साधु ग्रंथपरावर्तन तथा अनुप्रेक्षा नहीं इस प्रकार का जल मैं नहीं ले सकता । कर सकता, इसलिए भोजन करना चाहिए। यदि अनिच्छा या असावधानी से पानी लिया गया जह अब्भंगणलेवा सगडक्खवणाण जुत्तिओ होति । हो तो उसे न स्वयं पीए और न दूसरे साधुओं को दे परन्तु इय संजमभरवहणट्ठयाए साहूण आहारो।। एकान्त में जा अचित्त भूमि को देख, यतना-पूर्वक उसे (ओनि ५४६) परिष्ठापित करे । परिष्ठापित करने के पश्चात् स्थान में जैसे भारवहन के लिए गाड़ी के अक्ष (धुरा) को न आकर प्रतिक्रमण करे । अधिक, न कम, किन्तु युक्तिपूर्वक तैल आदि से चुपड़ा १०. सात्विक आहार का फल जाता है, व्रण पर उचित मात्रा में लेप किया जाता है, हियाहारा मियाहार, अप्पाहारा य जे नरा। वैसे ही केवल संयमभार को वहन करने के लिए मुनि न ते विज्जा तिगिच्छंति, अप्पाणं ते तिगिच्छगा। उचित मात्रा में आहार करे । (ओनि ५७८) व्रण का दृष्टान्त हित-मित-सात्विक आहार करने वाले व्यक्ति स्वयं जहा 'व्रणो मा फुट्टिहिति' त्ति मक्खणादिदाणं एवं अपने चिकित्सक होते हैं। उनकी चिकित्सा के लिए अन्य जीवस्स सरीरद्वितिनिमित्तमाहारो, ण रूवादिहेतुं । वैद्य की आवश्यकता नहीं होती। (दअचू पृ८) Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहार १४० प्रमाणातिरेक आहार व्रण फुटे नहीं अथवा विकृत न हो-इस दृष्टि से कारणों से आहार न करता हुआ भी साधु धर्म की उसे घी आदि से चुपड़ा जाता है। इसी प्रकार मुनि आराधना करता है। शरीर को टिकाये रखने के लिए आहार करे, सौन्दर्य १३. आहार : मांडलिक दोष वृद्धि के लिए नहीं। जत्तासाहणहेउं आहारेंति जवणट्ठया जइणो । .."संजोयणा पमाणं च । छायालीसं दोसेहिं सुपरिसुद्धं विगयरागा । इंगाल धूम कारण॥ (पिनि १) (ओनि ५७७) मांडलिक दोष पांच हैं --- संयम-यात्रा के निमित्त, शरीर-संधारण के लिए संयोजना .. स्वादवत्ति से खाद्यपदार्थों को परस्पर मनि अनासक्त भाव से आहार करता है। वह आहार मिलाकर खाना । उद्गम उत्पादन, एषणा आदि के छयालीस दोषों से प्रमाणातिरेक-आहार की मात्रा का अतिक्रमण करना। परिशुद्ध होता है। अंगार-द्रव्य की प्रशंसा करते हुए खाना। नाणाइसंधणट्ठा न बन्नबलरूवविसयट्ठा ।। धूम-द्रव्य की निन्दा करते हुए खाना । (ओभा २८०) कारण - बिना कारण आहार करना । ज्ञान-दर्शन-चारित्र के सन्धान/अविच्छिन्नता के संयोजना लिए आहार करना चाहिए। वर्ण, बल और रूप की संयोयणाए दोसो जो संजोएइ भत्तपाणं तु। दीप्ति के लिए तथा विषय-सेवन के लिए आहार नहीं दव्बाई रसहेउं वाघाओ तस्सिमो होई॥ करना चाहिए। संजोयणा उ भावे संजोएऊण ताणि दव्वाणि । आहारंति तवस्सी विगइंगालं च विगयधमं च । । संजोयइ कम्मेणं कम्मेण भवं तओ दुक्खं ।। झाणज्झयणनिमित्तं एसुवएसो पवयणस्स ।। (पिनि ६६०) (पिनि ६३८,६३९) ध्यान और स्वाध्याय करने के लिए मुनि राग-द्वेष स्वाद के लिए अनुकूल द्रव्यों की परस्पर संयोजना कर खाना संयोजना दोष है। द्रव्यों की संयोजना से से उपरत हो आहार करे-यह जिनशासन का उपदेश आत्मा रसगद्धि के अप्रशस्त भाव से संयोजित होती है। इस संयोजन से कर्मबंध और कर्मबंध से दु:खद भव१२. आहार न करने के हेतु परम्परा बढ़ती है। आयंके उवसग्गे तितिक्खया बंभचेरगुत्तीसु । प्रमाणातिरेक आहार पाणिदया तवहेउं सरीरवोच्छेयणटाए।। पगामं च निगामं च, पणीयं भत्तपाणमाहरे । (उ २६।३४) मुनि छह कारणों से आहार न करे अइबहुयं अइबहुसो, पमाणदोसो मुणेयव्वो ॥ १. आतंक-आकस्मिक बीमारी हो जाने पर। बत्तीसाइ परेणं पगाम निच्चं तमेव उ निकामं । जं पुण गलंतनेहं पणीयमिति तं बुहा वेंति ।। २. राजा आदि का उपसर्ग हो जाने पर। ३. ब्रह्मचर्य की तितिक्षा (सुरक्षा) के लिए । बहुयातीयमइबई अइबहुसो तिन्नि तिन्नि व परेणं । तं चिय अइप्पमाणं भुंजइ जं वा अतिप्पंतो।। ४. प्राणिदया के लिए। (पिनि ६४४,६४५,६४७) ५. तपस्या के लिए। ६. शरीर का व्युत्सर्ग करने के लिए। प्रमाणातिरेक आहार के पांच रूप हैंछहिं कारणेहि साधु आहारितोऽवि आयरइ धम्म। प्रकाम... बत्तीस कवल से अधिक खाना। छहिं चेव कारणे हिं णिज्जूहितोऽवि आयरइ ॥ निकाम---प्रतिदिन अधिक खाना । (पिनि ६६१) प्रणीत गरिष्ठ या अतिस्निग्ध आहार करना। छह कारणों से आहार करता हुआ भी तथा छह अतिबहुक अपनी भूख से अधिक खाना । Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्भोज-प्रत्याख्यान के परिणाम १४१ आहार अतिबहुश:--दिन में अनेक बार या तीन बार से अधिक (अतिथि)-ये मंडली में भोजन नहीं करते । इन्हें खाना। सर्वप्रथम पर्याप्त आहार परोस दिया जाता है। अइबयं अइबहसो अइप्पमाणेण भोयणं भोत्तुं । प्रायश्चित्तवाही, निर्यढ (असांभोजिक) और आत्महाएज्ज व वामिज्ज व मारिज्ज व तं अजीरंतं ।। लब्धिक भी मंडली में भोजन नहीं करते । (पिनि ६४६) १५. मंडली भोजन का प्रयोजन अत्यधिक खाने से, तीन बार से अधिक खाने से, अतरंतबालवुड्ढा सेहाएसा गुरू असहुवग्गो। बार-बार खाने से वह भोजन पचता नहीं है। न पचने साहारणोग्गहाऽलद्धिकारणा मंडली होइ॥ के कारण अतीसार, वमन आदि रोग तथा मृत्यु तक हो (ओनि ५५३) सकती है। ग्लान, बाल, वृद्ध, शैक्ष, अतिथि, गुरु, राजपुत्र, अंगार और धूम अलब्धिक आदि-इनके लिए भोजन-मंडली की व्यवस्था की जाती है, क्योंकि अति ग्लान, बाल और वृद्ध भिक्षा तं होइ सइंगालं जं आहारेइ मूच्छिओ संतो। लाने में असमर्थ होते हैं। शैक्ष भिक्षाविधि नहीं जानता। तं पुण होइ सधूमं जं आहारेइ निदंतो।। अतिथि और गुरु सम्मान्य होते हैं, उन्हें भिक्षा के लिए (पिनि ६५५) नहीं भेजा जाता। राजपुत्र आदि मुनियों को सुकुमारता (पिनि ६५५) रागभाव या आसक्ति से आहार की प्रशंसा करते के कारण भिक्षा के लिए नहीं भेजा जाता । अलब्धिक है हए आहार करने वाले का संयम अंगारे की तरह दग्ध अंतराय कर्म के उदय के कारण जिन्हें सहजतया आहार हो जाता है-यह अंगार दोष है। नीरस-विरस आहार प्राप्त नहीं होता, वे मंडली में आहार करते हैं। की निन्दा करता हुआ द्वेषभाव से खाने वाला अपने १६. सम्भोज-प्रत्याख्यान के परिणाम संयम को धूमिल करता है-यह धूम दोष है। सोही चउक्कभावे विगइंगालं च विगयधमं च । संभोगपच्चक्खाणेणं भंते ! जीवे कि जणयइ? संभोगपच्चक्खाणेणं आलंबणाई खवेइ। निरालंबणस्स य आहार करते समय चार प्रकार की शद्धि रखनी आयय ट्ठियाजोगा भवति । सएणं लाभेणं संतुस्सइ, पर. होती है-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । भोजन करते लाभं नो आसाएइ नो तक्केइ नो पीहेइ नो पत्थेइ नो समय अंगार, धूम आदि दोषों से मुक्त रहना भावशुद्धि अभिलसइ । परलाभं अणासायमाणे अतक्केमाणे अपीहे माणे अपत्थेमाणे अणभिलसमाणे दुच्चं सुहसेज्ज उवसंपज्जित्ताणं विहरइ । (उ २९।३४) १४. संभोजी और असंभोजी भंते ! सम्भोज प्रत्याख्यान से (मंडली-भोजन का दुविहो य होइ साहू मंडलिउवजीवओ य इयरो य। त्याग करने वाला) जीव क्या प्राप्त करता है ? .. मंडलिमुवजीवंतो अच्छइ जा पिडिया सव्वे ।। सम्भोज-प्रत्याख्यान से वह परावलम्बन को छोड़ता आगाढजोगवाही निज्जूढत्तट्ठिआ व पाहुणगा। है। उस परावलम्बन को छोड़ने वाले मुनि के सारे सेहा सपायछित्ता बाला बुड्ढेवमाईया ॥ प्रयत्न मोक्ष की सिद्धि के लिए होते हैं। वह भिक्षा में (ओनि ५२२,५४८) स्वयं को जो कुछ मिलता है, उसी में संतुष्ट हो जाता साधु के दो प्रकार हैं -- है। दूसरे मुनियों को मिली हुई भिक्षा में आस्वाद नहीं १. मंडली उपजीवी-मंडलीभोजी मुनि भिक्षा लाने के लेता, उसकी ताक नहीं करता, स्पृहा नहीं करता, बाद तब तक प्रतीक्षा करते हैं, जब तक सब साधु प्रार्थना नहीं करता और अभिलाषा नहीं करता। दूसरे इकट्ठे नहीं हो जाते। इकट्ठे होने पर सब साथ । को मिली हुई भिक्षा में आस्वाद न लेता हुआ, उसकी मिलकर खाते हैं। ताक न रखता हुआ, स्पृहा न करता हुआ, प्रार्थना न २. अमंडली उपजीवी-आगाढ योगवाही (गणि- करता हुआ और अभिलाषा न करता हुआ वह दूसरी सुख योगस्थ), शैक्ष, बाल, वृद्ध और प्राघूर्णक शय्या को प्राप्त कर विहार करता है । Jain Education Internationel Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहार १७. मुनि का आहार तित्तगं व कडुयं व कसायं अंबिलं व महुरं लवणं वा । एय लद्धमन्नट्ठपउत्तं, महुघयं व भुंजेज्ज संजए ॥ अरसं विरसं वा वि सूइयं वा असूइयं । उल्लं वा जइ वा सुक्कं मन्धु कुम्मास - भोयणं ॥ उप्पण्णं नाइहीलेज्जा अप्पं पि बहु फासूयं । मुहाल मुहाजीवी भुंजेज्जा दोसवज्जियं ॥ (द ५।१।९७ ९९ ) गृहस्थ के लिए बना हुआ तिक्त या कडुवा, कसैला या खट्टा मीठा या नमकीन जो भी आहार उपलब्ध हो, उसे संयमी मुनि मधुघृत की भांति खाए । धजीवी (निष्काम भाव से भिक्षा लेने वाला) मुनि अरस या विरस, व्यंजन सहित या व्यंजन रहित, आर्द्र या शुष्क, मन्थु और कुल्माष का जो भोजन विधिपूर्वक प्राप्त हो उसकी निन्दा न करे । निर्दोष आहार अल्प या अरस होते हुए बहुत या सरस होता है, इसलिए उस मुधालब्ध और दोष-वर्जित आहार को समभाव से खाये । पंताणि चेव सेवेज्जा, सीर्यापिडं पुराणकुम्मासं । अदु बुक्कसं पुलागं वा, जवणट्ठाए निसेवए मंथुं ॥ ( उ ८।१२) भिक्षु प्रान्त (नीरस) अन्न-पान, शीत-पिण्ड, पुराने उड़द, बुक्कस ( सारहीन), पुलाक ( रूखा ) या मंथु (बंर या सत्तू का चूर्ण) का संयम-जीवन-यापन के लिए सेवन करे । लूहवित्ती सुसंतुट्ठे, अप्पिच्छे सुहरे सिया । " (द ८।२५) मुनि रूक्षवृत्ति, सुसन्तुष्ट, अल्प इच्छा वाला और अल्पाहार से तृप्त होने वाला हो । अतिति अचवले, अप्पभासी मियासणे । हवेज्ज उयरे दंते, थोवं लधुं न खिसए | (द ८।२९) १४२ आहार न मिलने पर या अरस आहार मिलने पर प्रलाप न करे, चपल न बने। मुनि अल्पभाषी, मितभोजी और उदर का दमन करने वाला हो । थोड़ा आहार पाकर दाता की निन्दा न करे । १८. आहार लुब्ध व्यक्ति को वृत्ति सिया एगइओ लधुं, लोभेण विणिगृहई | मा मेयं दाइयं संतं, दट्ठूणं सयमायए ।। अत्तट्ठगुरुओ लुद्धो, बहुं पावं पकुव्वई । दुत्तोसओ य से होइ, निव्वाणं च न गच्छई ॥ (द ५।२।३१,३२) आहार पाकर उसे, स्वयं ग्रहण न कर अपने स्वार्थ को कदाचित् कोई एक मुनि सरस आचार्य आदि को दिखाने पर वे लें इस लोभ से छिपा लेता है, वह प्रमुखता देने वाला और रसलोलुप मुनि बहुत पाप करता है । वह जिस किसी वस्तु से संतुष्ट नहीं होता और निर्वाण को नहीं पाता । इच्छाकार सिया एगइओ लधुं विविहं पाणभोयणं । भगं भद्दंग भोच्चा, विवण्णं विरसमाहरे ॥ जाणता इमे समणा, आययट्ठी अयं मुणी । संतुट्ठो सेवई पंतं, लूहवित्ती सुतोसओ ॥ (द ५।२।३३,३४) कदाचित् कोई एक मुनि विविध प्रकार के पान और भोजन पाकर कहीं एकान्त में बैठ मनोज्ञ- मनोज्ञ आहार खा लेता है, विवर्ण और विरस आहार को जानें कि यह मुनि बड़ा मोक्षार्थी है, सन्तुष्ट है, स्थान पर लाता है । वह सोचता है ये श्रमण मुझे यों (असार) आहार का सेवन करता है, रूक्षवृत्ति और जिस किसी भी वस्तु से सन्तुष्ट होने वाला 1 आहारक शरीर - आहारक लब्धि से शरीर । आहारपर्याप्ति- आहार के योग्य पुद्गलों का ग्रहण, परिणमन और उत्सर्ग करने वाली पौद्गलिक शक्ति । (द्र पर्याप्ति ) इंगिनो अनशन अनशन का एक भेद । इच्छाकार कार्य करने या कराने निष्पन्न (द्र. शरोर) ( द्र. अनशन ) में इच्छाकार का प्रयोग | दसविध सामाचारी का एक भेद । (द्र. सामाचारी) Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रिय के प्रकार इन्द्रभूति - गौतम गणधर का मूल नाम । १. इन्द्रिय का निर्वाचन २. इन्द्रिय की परिभाषा ३. इन्द्रिय के प्रकार • द्रव्येन्द्रिय ० भावेन्द्रिय इन्द्रिय-चेतना के विकास का प्राथमिक स्तर । प्रतिनियत और वर्तमान अर्थ को ग्रहण करने वाली चेतना । ४. द्रव्येन्द्रिय के प्रकार निवृत्ति ० ० उपकरण निर्वृत्ति और उपकरण में अन्तर o ५. भावेन्द्रिय के प्रकार ० लब्धि • उपयोग लब्धि आदि का प्राप्ति क्रम ६. इन्द्रियविषय : ग्राह्य ग्राहक भाव ७. विषय ग्रहण की क्षेत्र मर्यादा ० ८. विषय ग्रहण की क्षमता ९. श्रोत्रेन्द्रिय की पटुता १०. दूरस्थ गंध-रस स्पर्श का ग्रहण ११. विषय परिमाण आत्मांगल से १५. इन्द्रिय- आसक्ति के परिणाम १६. इन्द्रिय - निग्रह के परिणाम ( द्र. गणधर ) १२. चक्षु और मन अप्राप्यकारी * इन्द्रियों के आधार पर जीव के भेद ( द्र. जीव ) १३. सभी जीव एकेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय १४. एकेन्द्रिय में पांचों इन्द्रियों का अस्तित्व * पृथ्वी आदि एकेन्द्रिय जीव ( . जीवनिकाय) * शेष इन्द्रिय वाले जीव (द्र. त्रस ) * इन्द्रिय-संयम : ब्रह्मचर्य * इन्द्रिय विकास का क्रम * इन्द्रियज्ञान परोक्ष इन्द्रियज्ञान सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष * इन्द्रियज्ञान : आभिनिबोधिकज्ञान १८३ (द्र ब्रह्मचर्य ) (द्र. ज्ञान) ( द्र. ज्ञान ) ( द्र. ज्ञान ) (द्र आभिनिबोधिक ज्ञान ) इन्द्रिय १. इन्द्रिय का निर्वचन इंदो जीवो सव्वोवलद्धि भोगपरमेस रत्तणओ । सोत्ताइभेयमिदियमिह तल्लिंगाइभावाओ ॥ (विभा २९९३) जीव सब वस्तुओं की उपलब्धि और परिभोग रूप ऐश्वर्य से सम्पन्न होता है, इसलिए वह इन्द्र है । श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसन और स्पर्शन जीव के चिन्ह हैं और ये ही इन्द्रियां कहलाती हैं । इन्दनादिन्द्रः:- आत्मा सर्वद्रव्योपलब्धिरूपपरमैश्वर्ययोगात् । तस्य लिंगं - चिह्नमविनाभावि इन्द्रियम् । ( नन्दीमवृप ७५ ) आत्मा सभी द्रव्यों की उपलब्धि रूप परम ऐश्वर्य से सम्पन्न है, इसलिए वह इन्द्र है । उसका जो अविनाभावी चिह्न है, वह इन्द्रिय है । २. इन्द्रियों की परिभाषा सोयरस सद्दं गहणं वयंति । ( उ ३२।३५) जो शब्द का ग्रहण करती है, वह श्रोत्रेन्द्रिय है । चक्खुस्स रूवं गहणं वयंति । ( उ ३२।२२) जो रूप का ग्रहण करती है, वह चक्षुइन्द्रिय है । गंध घाणं गहणं वयंति । ( उ ३२ ।४९) जो गन्ध का ग्रहण करती है, वह घ्राणेन्द्रिय है । जिहाए रसं गहणं वयंति । ( उ ३२।६१) जो रस का ग्रहण करती है, वह रसनेन्द्रिय है । कायस्स फासं गहणं वयंति । ( उ ३२|७४) जो स्पर्श का ग्रहण करती है, वह स्पर्शनेन्द्रिय है । ३. इन्द्रिय के प्रकार 'व्विदिय- भाविदियसामण्णाओ कओ भिण्णो ॥ ( विभा ३००३) पुग्गलेहि संठाणणिव्वत्तिरूवं दव्विदियं सोइंदियमादिइंदियाणं सव्वातप्पदेसेहिं स्वावरणक्खतोवसमातो जा लद्धी तं भाविदियं । ( नन्दीचू पृ १४ ) इन्द्रिय के दो प्रकार हैं - १. द्रव्य - इन्द्रिय -- इन्द्रिय की पौद्गलिक आकार- रचना (संस्थान-रचना) । २. भाव - इन्द्रिय-इन्द्रिय-आवारक कर्म के क्षयोपशम से प्राप्त शक्ति और उसका उपयोग । ४. द्रव्य-इन्द्रिय के प्रकार .....दव्वं निव्वित्ति उवगरणं च । ... ( विभा २९९४ ) द्रव्येन्द्रिय के दो प्रकार हैं -निर्वृत्ति और उपकरण । Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रिय १४४ उपयोग इन्द्रिय निवत्ति इन्द्रिय निवृत्ति और उपकरण में अन्तर निवत्तिर्नाम प्रतिविशिष्ट: संस्थानविशेषः । सापि उपकरणं-खड्गस्थानीयाया बाह्यनिवृत्तेर्या खड्गद्विधा-बाह्या अभ्यन्तरा च । तत्र बाह्या कर्णपर्पटकादि- धारासमाना स्वच्छतरपुद्गलसमूहात्मिका अभ्यन्तरा रूपा। सापि विचित्रा-न प्रतिनियतरूपतयोपदेष्टुं निवत्ति:-तस्याः शक्तिविशेषः । इदं चोपकरणरूपं शक्यते । तथाहि -मनुष्यस्य श्रोत्रे भ्रूसमे नेत्रयोरुभय द्रव्येन्द्रियमान्तरनिर्वत्तेः कथञ्चिदर्थान्तरं, शक्तिशक्तिपार्श्वतः संस्थिते । बाजिनोः मस्तके नेत्रयोरुपरिष्टाद- मतोः कथञ्चिद्भेदात् । कथञ्चिभेदश्च सत्यामपि भाविनी तीक्ष्णे चाग्रभागे इत्यादिजातिभेदान्नानाविधाः ।। तस्यामान्तरनिर्वृत्तौ द्रव्यादिनोपकरणस्य विघातसम्भवात् । आभ्यन्तरा तु निर्वृत्तिः सर्वेषामपि जन्तूनां समाना । तथाहि-सत्यामपि कदम्बपुष्पाद्याकृतिरूपायामान्तरस्पर्शनेन्द्रियनिर्वृत्तेः प्रायो न बाह्याभ्यन्तरभेदः । निवृत्तावतिकठोरतरघनजितादिना शक्त्युपघाते सति न (नन्दीमवृ प ७५) परिच्छेत्तुमीशते जन्तवः शब्दादिकमिति। पुप्फ कलंबुयाए धन्नमसूराइमुत्तचंदो य ।। (नन्दीमवृ प ७५) होइ खरप्पो नाणागिई य सोइंदियाईणं ॥ तलवार के समान है बाह्य निर्वत्ति । तलवार की (विभा २९९५) धार के समान है आभ्यन्तर निर्वत्ति । वह स्वच्छतर निवत्ति का अर्थ है इन्द्रिय का अपना संस्थान पुद्गलसमूह से निष्पन्न है। आभ्यन्तर निर्वृत्ति की शक्ति आकार रचना । उसके दो प्रकार हैं बाह्य और विशेष का नाम है उपकरण । शक्ति और शक्तिमान् किसी अपेक्षा से भिन्न हैं। अत: आभ्यन्तर निर्वत्ति और आभ्यन्तर । कर्ण विवर आदि का बाह्य आकार भिन्नभिन्न होता है, वह प्रतिनियत नहीं है। जैसे मनुष्य के उपकरण भी किसी दृष्टि से भिन्न हैं। इसलिए आभ्यन्तर कान भौंहों की समरेखा में नेत्रय गल के दोनों पावों में निवत्ति होने पर किसी द्रव्य आदि से उपकरण इन्द्रिय संस्थित हैं । घोड़े के कान आंखों से ऊपर मस्तक पर का विघात भी हो सकता है। जैसे-कदम्ब पुष्प के होते हैं। उनका अग्रभाग तीक्ष्ण होता है। इस प्रकार समान आकार वाली श्रोत्र की आभ्यन्तर निर्वत्ति भिन्न-भिन्न जातियों में इन्द्रियों की बाह्य आकृति विद्यमान है, पर भयंकर गर्जारव आदि से उपकरण शक्ति भिन्न-भिन्न होती है। आभ्यन्तर निवृत्ति-भीतरी का उपघात हो जाने पर प्राणी शब्द का परिच्छेद आकार रचना सब जीवों की समान होती है। स्पर्शन नहीं कर सकता। इन्द्रिय की नित्ति में बाह्य-आभ्यन्तर का भेद नहीं है। ५. भावेन्द्रिय के प्रकार श्रोत्रेन्द्रिय का आभ्यंतर आकार कदम्ब पुष्प के समान, लवओगा भाविदियं....। (विभा २९९७) चक्षरिन्द्रिय का मसूर धान्य के समान, घ्राणेन्द्रिय का भावेन्द्रिय के दो प्रकार हैं-लब्धि और उपयोग । अतिमुक्तक पुष्पचन्द्रिका के समान, रसनेन्द्रिय का क्षुरप्र लब्धि इन्द्रिय के समान होता है। स्पर्शनेन्द्रिय का आभ्यंतर आकार नाना प्रकार का होता है। ..'लद्धित्ति जो खओवसमो। होइ तदावरणाणं तल्लाभे चेव सेसंपि ॥ उपकरण इन्द्रिय (विभा २९९७) विसयग्गहणसमत्थं उवगरणं इंदियंतरं तंपि । लब्धिः श्रोत्रेन्द्रियादिविषयः सर्वात्मप्रदेशानां तदाजं नेह तदुवघाए गिण्हइ निव्वत्तिभावे वि ॥ वरणक्षयोपशमः। (नन्दीमवृ प ७५) (विभा २९९६) सब आत्मप्रदेशों में इन्द्रियों के आवारक कर्म (इन्द्रियजो विषय ग्रहण करने में समर्थ पौद्गलिक शक्ति ज्ञानावरण) का जो क्षयोपशम है, वह लब्धि-इन्द्रिय है । है, वह उपकरण इन्द्रिय है। निर्वृत्ति इन्द्रिय के होने उपयोग इन्द्रिय पर भी यदि उपकरण इन्द्रिय का उपघात हो जाता है तो जो सविसयवावारो सो उवओगो. ॥ विषय का ग्रहण नहीं हो सकता। (विभा २९९८) Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयग्रहण की क्षेत्र मर्यादा इन्द्रिय श्रोत्र आदि इन्द्रियों की अपने-अपने विषय में जो एतदपि चाभासुर द्रव्यमधिकृत्योच्यते । भासुरंतु प्रवृत्ति होती है, वह उपयोग इन्द्रिय है। द्रव्यमेकविंशतियोजनलक्षेभ्योऽपि परतः पश्यन्ति । यथा पदीवदिळंतसामत्थतो, जहा चतुसालभवणेगदेस- पुष्करवरद्वीपाधैं मानुषोत्तरनगप्रत्यासन्नतिनः कर्कजालितो पदीवो सव्वं भवणमुज्जोवेति तहा दविदियमेत्त- संक्रान्तौ सूर्यबिम्बम् । (नन्दीमवृ पृ १८६) पदेसविसयपडिबोधओ सव्वातप्पदेसोवयोगत्थपरिच्छेययो आंख आत्मांगूल की अपेक्षा से उत्कृष्टत: कुछ अधिक खयोपसमसाफल्लया य भवति । (नन्दीचू पृ १५) एक लाख योजन तक अभास्वर द्रव्य को तथा कुछ अधिक घर के एक कोने में अथवा चतुःशाल में रखा प्रदीप्त इक्कीस लाख योजन तक भास्वर द्रव्य को देख सकती दीपक पूरे घर को प्रकाशित करता है। इसी प्रकार द्रव्येन्द्रिय में अवस्थित आत्मप्रदेशों का क्षयोपशम होने मानूषोत्तर पर्वत के समीप पूष्करार्धद्वीप है। वहां के पर भी उपयोग की दष्टि से सभी आत्मप्रदेशों से विषय मनुष्य कर्कसंक्रान्ति के समय कुछ अधिक इक्कीस लाख का बोध होता है। योजन की दूरी पर स्थित सूर्य को देख सकते हैं। लब्धि आदि की प्राप्ति का क्रम संखेज्जइभागाओ नयणस्स" .... ॥ (विभा ३५०) लाभक्कमे उ लद्धी निव्वत्तवगरण उवओगो य ।" ___ आंख जघन्यतः अंगुल के संख्येय भागवर्ती रूपीद्रव्य (विभा ३००३) को देखती है। लब्धि इन्द्रिय होने पर ही निर्वृत्ति, उपकरण और बारसहिंतो सोत्तं सेसाई नवहिं जोयणेहितो । उपयोग इन्द्रिय होती है। गिण्डंति पत्तमत्थं एत्तो परओ न गिण्हंति ॥ ६. इन्द्रिय-विषय : ग्राह्य-ग्राहक भाव दव्वाण मंदपरिणामयाए परओ न इंदियबलं पि । रूपस्य चक्षुः गृह्णातीति ग्रहणं""। चक्षुषो रूपं अवरमसंखेज्जंगुलभागाओ नयणवज्जाणं ॥ गृह्यत इति ग्रहणं-ग्राह्य" । अनेन रूपचक्षुषो (विभा ३४८, ३४९) ग्राह्यग्राहकभाव उक्तः । तथा च न ग्राहकं विना ग्राह्यत्वं । श्रोत्रेन्द्रिय-कान उत्कृष्टतः बारह योजन की दूरी नापि ग्राह्य बिना ग्राहकत्वमित्यनयोः परस्परम्प- से आने वाले शब्द को सुन सकता है। जघन्यतः अंगुल कार्योपकारकभाव उक्तो भवति । एतेन त्वनयोः रागद्वेष- के असंख्येय भाग से समागत शब्द सुनता है। जनने सहकारिभावः ख्याप्यते । तथा च यथा रूपं राग- घ्राण, रसन, स्पर्शन इन्द्रिय-ये इन्द्रियां उत्कृष्टतः द्वेषकारणं तथा चक्षुरपि । (उशाव प ६३०) नौ योजन तक तथा जघन्यतः अंगुल के असंख्येयभागवर्ती ___ आंख रूप का ग्रहण करती है, इसलिए वह ग्रहण- अपने-अपने विषय (गन्ध, रस और स्पर्श द्रव्य) को ग्रहण ग्राहक है। आंख के द्वारा रूप का ग्रहण होता है, कर सकती हैं। इसलिए वह ग्रहण-ग्राह्य है। रूप और आंख का ग्राह्य- इन्द्रियों की जो विषयग्रहण की उत्कृष्ट क्षमता या ग्राहक संबंध है। ग्राहक के बिना ग्राह्य नहीं होता, ग्राह्य मर्यादा बताई गई है, उसका कारण यह है कि इससे के बिना ग्राहक नहीं होता, अत: इनमें परस्पर उपकार्य- अधिक दूरी से आने वाले शब्द आदि द्रव्यों की परिणति उपकारक भाव है। इससे इनका रागद्वेष की उत्पत्ति में (frequency) मन्द हो जाती है, उस मन्द परिणमन सहकारी भाव प्रकट होता है। जैसे रूप राग-द्वेष का (low frequency) को इन्द्रियां ग्रहण नहीं कर कारण है, वैसे ही आंख भी रागद्वेष का कारण है-यह । सकती। इनका सहकारी भाव है। इन्द्रिय जघन्य क्षेत्र उत्कृष्ट क्षेत्र ७. विषयग्रहण की क्षेत्रमर्यादा श्रोत्र अंगुल का असंख्येय भाग बारह योजन ""नयणस्स विसयपरिमाणं । चक्षु अंगुल का संख्येय भाग कुछ अधिक एक लाख आयंगुसेण लक्खं अइरित्तं जोयणाणं तु ।। योजन लक्खेहिं एक्कवीसाए साइरेगेहिं पुक्खरद्धम्मि । घ्राण अंगुल का असंख्येय भाग नो योजन उदये पेच्छति नरा सूर उक्कोसए दिवसे ।। रसन (विभा ३४०, ३४५) स्पर्शन Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रिय १४६ . सभी जीव एकेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय ८. विषयग्रहण की क्षमता प्रथम मेघवृष्टि होने पर बहुत दूरी से आने वाली मिट्टी पुढें सुणेइ सई, रूवं पुण पासइ अपु तु । आदि की गंध का भी अनुभव होता है। दूर से समागत गंधं रसं च फासं च, बद्धपुठं वियागरे । गन्ध द्रव्यों का कोई न कोई रस भी होता ही है। उन (नन्दी ५४।४) द्रव्यों को चखने पर रस का ग्रहण होता है। उन्हें चखकर श्रोत्र स्पृष्ट शब्द को सुनता है। चक्ष अस्पृष्ट रूप व्यक्ति कहता है-यह गंध किसी कडवी अथवा तिक्त को देखता है। घ्राण, रसन और स्पर्शन इन्द्रियां गंध, वस्तु की है। यह कड़वाहट या तिक्तता रस का ही धर्म/ रस और स्पर्श को बद्धस्पृष्ट (निकटतम संबंध स्थापित) गुण है। इससे स्पष्ट है कि वस्तु का जिह्वा से सम्पर्क होने पर जानती हैं। होने पर रस का भी ग्रहण होता है। शिशिर ऋतु तथा स्पृष्ट और बद्ध दूरस्थ पद्मसरोवर, सरिता, समुद्र आदि से आने वाले पवन पुढें रेणुं व तणुम्मि बद्धमप्पीकयं पएसेहिं। के शीत स्पर्श का भी अनुभव होता है । (विभा ३३७) ११. विषय-परिमाण भात्मांगुल से शरीर पर रजकण के स्पर्श की भांति शब्द आदि नणु भणियमुस्सयंगुलपमाणओ जीवदेहमाणाइ । का जो स्पर्शमात्र होता है, वह स्पष्ट है । आत्मप्रदेशों के देहपमाणं चिय तं न उ इंदियविसयपरिमाणं ।। साथ गाढतर आश्लेष होना बद्ध कहलाता है। (विभा ३४१) ६. श्रोत्रेन्द्रिय की पटुता उत्सेधांगुल प्रमाण से देह का परिमाण मेय होता """छिक्काई चिय गिण्हइ सद्ददव्वाइं जं ताई ॥ है-ऐसा प्रतिपादित हुआ है। यह केवल देह का बहु-सुहुम-भावु गाइं जं पडुयरं च सोत्तविण्णाणं । " परिमाण है, न कि इन्द्रियों का विषय-परिमाण । इन्द्रियों (विभा ३३७, ३३८) का विषय-परिमाण आत्मांगूल प्रमाण से मेय होता है। श्रोत्रइन्द्रिय स्पृष्ट शब्द द्रव्यों को ग्रहण करती है। घ्राण आदि इन्द्रियों की अपेक्षा श्रोत्रइन्द्रिय पदतर है। १ मन अप्राप्यकारी इसके विषयभूत शब्द द्रव्य अन्य विषयों की अपेक्षा मात्रा अप्पत्तकारि नयणं मणो य"" || (विभा ३४०) में प्रभूत, सूक्ष्म तथा भावुक - संवेदनशील हैं। आंख और मन-ये दो इन्द्रियां अप्राप्यकारी हैं१०. दूरस्थ गंध-रस-स्पर्श का ग्रहण ये अपने विषयभूत अर्थ का स्पर्श किए बिना ही उसको जान लेती हैं। ___ ननु मेघगजितादिविषयः शब्दः प्रथमप्रावृषि प्रथममेघवृष्टौ सत्यां मृत्तिकादिगन्धश्च दूरादप्यायातो गृह्य- १३. सभी जीव एकेन्द्रिय और पंचेन्द्रियमाणः समनुभूयते; रसस्पर्शी तु कथम् ? इति चेत्, .."एगेण चेव तम्हा उवओगेगिदिओ सव्वो ॥ उच्यते-दूरादागतानां गन्धद्रव्याणां रसोऽपि तावत् (विभा २९९८) कश्चिद् भवत्येव । स च तेषां जिह्वासंबन्धे सति यथासंभव कदाचित केनचिद गह्यत एव । तथा च वक्तारो। एक समय में एक इन्द्रिय का ही उपयोग होता है, इसलिए उपयोग की दृष्टि से सभी जीव एकेन्द्रिय हैं। भवन्ति ---- 'कटु कस्य, तीक्ष्णादेर्वा वस्तुनः संबन्धी अयं गन्धः' इति । यच्चेह कटकत्वं, तीक्ष्णादित्वं चोच्यते, तद् एगेंदियाइभेया पडुच्च सेसेंदियाइं जीवाणं । रसस्यैव धर्मः । ततश्च ज्ञायते-जिह्वासंबन्धे तेषां अहवा पडुच्च लडिदियं पि पंचेंदिया सव्वे ॥ कटुकादिको रसोऽपि गृहीत इति । स्पर्शोऽपि शीतादिर्दूरा (विभा २९९९) दपि शिशिरपद्मसर:-सरित्-समुद्रादेमध्येनाऽऽयातस्य एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय आदि का भेद निवत्ति, उपकरण वातादेरनुभूयत एवेति । (विभाम१पृ १७४) और लब्धि इन्द्रिय की अपेक्षा से है। अथवा लब्धि इन्द्रिय श्रोत्र उत्कृष्टत: बारह योजन की दूरी से समागत की अपेक्षा सभी जीव पंचेन्द्रिय हैं। मेघगर्जन आदि शब्द प्रथम प्रावृटकाल में सुन सकता है। Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रिय आसक्ति के परिणाम ४७ इन्द्रिय १४. एकेन्द्रिय में पांचों इन्द्रियों का अस्तित्व प्रकट हो जाते हैं। इससे उसमें घ्राणेन्द्रिय ज्ञान का जं किर बउलाईणं दीसइ सेसेंदिओवलंभो वि । स्पष्ट चिन्ह दिखाई देता है। तेणस्थि तदावरणक्खओवसमसंभवो तेसि ।। रसनेन्द्रिय-अतिशय रूप वाली तरुण स्त्री के मुख पंचेदिउ व्व बउलो नरो ब्व सव्वविसओवलंभाओ। से प्रदत्त स्वच्छ सुस्वादु शराब के कुल्ले का आस्वादन तहवि न भण्णइ पंचेंदिउ ति बझंदियाभावा॥ करने से बकुल वृक्ष पर फूल निकल आते हैं। इससे (विभा ३०००. ३००१) उसमें रसनेन्द्रिय ज्ञान का स्पष्ट चिन्ह देखा जाता है। बकुल, चम्पक, तिलक, विरहक आदि वक्षों में स्पर्श १५. इन्द्रिय आसक्ति के परिणाम के अतिरिक्त शेष इन्द्रियां भी प्रतीत होती हैं क्योंकि सद्देसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं, उनमें भी इन्द्रिय-ज्ञानावरण का क्षयोपशम संभव है। ___ अकालियं पावइ से विणासं । सब विषयों को ग्रहण करने के कारण बकूल मनुष्य रागाउरे हरिणमिगेव मुद्धे, की तरह पंचेंद्रिय है फिर भी बाह्य इन्द्रिय का अभाव सद्दे अतित्ते समुवेइ मच्चु । होने से उसे पंचेन्द्रिय नहीं कहा जा सकता। (उ ३२।३७) एकेन्द्रियाणां श्रोत्रादिद्रव्येन्द्रियाभावेऽपि भावेन्द्रिय- जो मनोज्ञ शब्दों में तीव्र आसक्ति करता है, वह ज्ञानं किञ्चिद् दृश्यत एव, वनस्पत्यादिषु स्पष्टतल्लिङ्गो- अकाल में ही विनाश को प्राप्त होता है। जैसे शब्द में पलम्भात् । तथाहि-कलकण्ठोद्गीर्णमधुरपञ्चमोद्गार- अतृप्त बना हुआ रागातुर मुग्ध हरिण नामक पशु मृत्यु श्रवणात् सद्यः कुसुम-पल्लवादिप्रसवो विरहकवृक्षादिषु को प्राप्त होता है। श्रवणेन्द्रियज्ञानस्य व्यक्त लिङ्गमवलोक्यते। तिलका- रूवेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं, दितरुषु पुनः कमनीयकामिनी"लोचनकटाक्षविक्षेपात् अकालियं पावइ से विणासं: कुसुमाद्याविर्भावश्चक्षुरिन्द्रियज्ञानस्य । चम्पकाद्यंहिपेषु तु रागाउरे से जह वा पयंगे, विविधसुगन्धिगन्धवस्तुनिकुरम्बोन्मिश्रविमलशीतलसलिल आलोयलोले समुवेइ मच्चुं ॥ सेकात्, तत्प्रकटनं घ्राणेन्द्रियज्ञानस्य । बकुलादिभूरुहेषु (उ ३२।२४) तु रम्भातिशायिप्रवररूपवरतरुणभामिनीमुखप्रदत्तस्वच्छ- जो मनोज्ञ रूपों में तीव्र आसक्ति करता है, वह सुस्वादुसुरभिवारुणीगण्डूषास्वादनात् तदाविष्करणं रसने अकाल में ही विनाश को प्राप्त होता है। जैसे-- न्द्रियज्ञानस्य । ."अशोकादिद्रुमेषु'आभरणभूषितभव्य- प्रकाश-लोलुप पतंगा रूप में आसक्त होकर मृत्यु को भामिनीभुजलताऽवगृहनसुखाद्""झगिति प्रसून-पल्ल- प्राप्त होता है। वादिप्रभवः स्पर्शनेन्द्रियज्ञानस्य स्पष्टं लिङ्गमभिवीक्ष्यते । गंधेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं, (विभामवृ १ पृ ५९) अकालियं पावइ से विणासं। एकेन्द्रिय जीवों में श्रोत्र आदि द्रव्येन्द्रिय के अभाव रागाउरे ओसहिगंधगिद्धे, में भी भावेन्द्रिय का ज्ञान कुछ अंशों में देखा जाता है। सप्पे बिलाओ विव निक्खमंते ॥ वनस्पति में इसके स्पष्ट चिन्ह प्राप्त होते हैं, जैसे-- (उ ३२।५०) श्रोत्रेन्द्रिय सुन्दर कण्ठ एवं मधुर पञ्चम स्वर से जो मनोज्ञ गन्ध में तीव्र आसक्ति करता है, वह उद्गीत गीत-श्रवण से विरहक वृक्ष पर पुष्प उग आते अकाल में ही विनाश को प्राप्त होता है। जैसे -नागहैं। इससे श्रोत्रेन्द्रिय ज्ञान का स्पष्ट चिन्ह परिलक्षित दमनी आदि औषधियों की गन्ध में गुद्ध बिल से निकलता होता है। हुआ रागातुर सर्प । चक्षुरिन्द्रिय-सुन्दर स्त्री की आंखों के कटाक्ष से रसेसु जो गिद्धिभुवेइ तिव्वं, तिलक वृक्ष पर फूल खिल जाते हैं। इससे चक्षुरिन्द्रिय अकालियं पावइ से विणासं । ज्ञान का स्पष्ट चिन्ह परिभासित होता है। रागाउरे बडिसविभिन्नकाए, घ्राणेन्द्रिय --विविध सुगन्धित पदार्थों से मिश्रित मच्छे जहा आमिसभोगगिद्धे । निर्मल शीतल जल के सिंचन से चम्पक वृक्ष पर फूल (उ ३२॥६३) Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रिय जो मनोज्ञ रसों में तीव्र आसक्ति करता है, वह अकाल में ही विनाश को प्राप्त होता है । जैसे मांस खाने में गृद्ध बना हुआ रागातुर मत्स्य कांटे से बींधा जाता है । फासेसु जो गिद्धमुवेइ तिव्वं, रागाउरे सीयजलावसन्ने, अकालिय पावर से विणासं । गाहग्गहीए महिसेव रणे ॥ ( उ ३२|७६) करता है, वह । जो मनोज्ञ स्पर्शो में तीव्र आसक्ति अकाल में विनाश को प्राप्त होता है के द्वारा पकड़ा हुआ अरण्य - जलाशय के स्पर्श में मग्न बना रागातुर भैंसा । जस्स पुण दुप्पणिहिताणि, इंदियाइं तवं चरंतस्स । सो हीरति असहीणेहि, सारही वा तुरंगेहि ॥ (दनि २०० ) तप का आचरण करने पर भी जिसकी इन्द्रियां असमाहित हैं, वह साधक उन अस्वाधीन इन्द्रियों के द्वारा वैसे ही अपहृत होता है, जैसे उच्छृंखल घोड़ों के द्वारा सारथि । जैसे घड़ियाल शीतल जल के १६. इन्द्रिय - निग्रह के परिणाम सोइंद्रियनिग्गणं मणुष्णामणुष्णेसु सद्देसु रागदोसनिग्ग जणयइ, तप्पच्चइयं कम्मं न बंधइ, पुव्वबद्धं च निज्जरेइ । दिग्गिणं मणामणुण्णेसु रूवेसु रागदोसनिग्गहं जणयइ, तप्पच्चइयं कम्मं न बंधइ, पुव्वबद्धं च निज्जरेइ । १४८ घाणिदियनिग्गहेणं मणुण्णामणुण्णेसु गंधेसु रागदोस - निग्गहं जणयइ, तप्पच्चइयं कम्मं न बंधइ, पुव्वबद्धं च निज्जरेइ । दिग्गिणं मणुण्णामणुण्णेसु रसेसु रागदोसनिग्गहं जणयइ, तप्पच्चइयं कम्मं न बंधइ, पुव्वबद्धं च निज्जरेइ । फासिंदियनिग्गणं मणुण्णामणुण्णेसु फासेसु रागदोसनिग्गहं जणयइ, तप्पच्चइयं कम्मं न बंधइ, पुव्वबद्धं च निज्जरेइ । (उ२९/६३-६७ ) श्रोत्रेन्द्रिय के निग्रह से जीव मनोज्ञ और अमनोज्ञ शब्दों में होने वाले राग और द्वेष का निग्रह करता है । वह शब्द सम्बन्धी राग-द्वेष के निमित्त से होने वाला कर्म - बन्धन नहीं करता और पूर्व बद्ध तन्निमित्तक कर्म ईषत्प्राग्भारा को क्षीण करता है । चक्षु इन्द्रिय के निग्रह से जीव मनोज्ञ और अमनोज्ञ रूपों में होने वाले राग और द्वेष का निग्रह करता है । वह रूप सम्बन्धी राग-द्वेष के निमित्त से होने वाला कर्मबन्धन नहीं करता और पूर्वबद्ध तन्निमित्तक कर्म को क्षीण करता है । घ्राण-इन्द्रिय के निग्रह से जीव मनोज्ञ और अमनोज्ञ गन्धों में होने वाले राग और द्वेष का निग्रह करता । वह गन्ध सम्बन्धी राग-द्वेष के निमित्त से होने वाला कर्मबन्धन नहीं करता और पूर्वबद्ध तन्निमित्तक कर्म को क्षीण करता है । जिह्वा - इन्द्रिय के निग्रह से जीव मनोज्ञ और अमनोज्ञ रसों में होने वाले राग और द्वेष का निग्रह करता है । वह रस सम्बन्धी राग-द्वेष के निमित्त से होने वाला कर्मबन्धन नहीं करता और पूर्वबद्ध तन्निमित्तक कर्म को क्षीण करता है । स्पर्श - इन्द्रिय के निग्रह से जीव मनोज्ञ और अमनोज्ञ स्पर्शो में होने वाले राग और द्वेष का निग्रह करता है । वह स्पर्श सम्बन्धी राग-द्वेष के निमित्त से होने वाला कर्मबन्धन नहीं करता और पूर्वबद्ध तन्निमित्तक कर्म को क्षीण करता है । इन्द्रिय पर्याप्ति - इन्द्रियों के योग्य पुद्गलों का ग्रहण, परिणमन और उत्सर्ग करने वाली पौद्गलिक शक्ति । पर्याप्ति का एक प्रकार । (द्र. पर्याप्ति) (द्र. ज्ञान ) इन्द्रिय प्रत्यक्ष - ज्ञान का एक भेद । ईर्ष्या समिति - शरीर प्रमाण भूमि यतनापूर्वक चलना। एक प्रकार । ईषत्प्राग्भारा-आठवीं पृथ्वी । इसका अपर नाम सिद्धशिला है । इसके ऊर्ध्व भाग में सिद्ध जीव अवस्थित हैं । बारसहिं जोयणेहिं सव्वट्टस्सुवरि भवे । ईसीप भारनामा उ पुढवी छत्तसंठिया || पणया लसयसहस्सा, जोयणाणं तु आयया । तावइयं चैव विथिण्णा, तिगुणो तस्सेव परिरओ ॥ अजोयणबाहल्ला, सा मज्झम्मि वियाहिया । परिहायंती चरिमंते, मच्छियपत्ता तणुयरी ॥ को देखकर समिति का (द्र समिति ) Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईषत्प्राग्भारा १४९ उपधान उत्से अज्जुणसुवण्णगमई, सा पुढवी निम्मला सहावेणं । उत्कालिक-आगम का एक विभाग । अकाल और उत्ताणगछत्तगसंठिया य, भणिया जिणवरेहिं॥ अस्वाध्यायी के अतिरिक्त दिन-रात (उ ३६।५७-६०) के सभी भागों में पढ़े जाने वाले सर्वार्थसिद्ध विमान से बारह योजन ऊपर ईषत् आगम। (द्र. अंगबाह्य) प्राग्भारा नामक पृथ्वी है। वह छत्राकार में अवस्थित उत्पावन--आहार-ग्रहण से संबंधित भिक्षादोष । (द्र. एषणा) उसकी लम्बाई और चौड़ाई पैतालीस लाख योजन की है। उसकी परिधि उस (लम्बाई-चौड़ाई) से तिगनी उत्सग समिति-विधिपूर्वक परिष्ठापन करना। समिति का पांचवां प्रकार । मध्यभाग में उसकी मोटाई आठ योजन की है। वह (द्र. समिति) क्रमशः पतली होती-होती अन्तिम भाग में मक्खी के पंख उत्सपिणी-काल चक्र का वह विभाग जिसमें से भी अधिक पतली हो जाती है। पदार्थों की शक्ति में क्रमश: वृद्धि वह श्वेत-स्वर्णमयी, स्वभाव से निर्मल और उत्तान होती है । विकास काल, दुःख से सुख (सीधे) छत्राकार वाली है - ऐसा जिनवर ने कहा है। की ओर अग्रसर होने वाला काल । संखंककुंदसंकासा, पंडुरा निम्मला सुहा । (द्र. काल) सीयाए जोयणे तत्तो, लोयंते उ वियाहिओ।। ---शरीर की ऊंचाई का मापन करने जोयणस्स उ जो तस्स, कोसो उवरिमो भवे । का साधन । यह भगवान महावीर के तस्स कोसस्स छब्भाए, सिद्धाणोगाहणा भवे ।। तत्थ सिद्धा महाभागा, लोयग्गम्मि पइट्ठिया । अंगुल का अर्धभाग होता है । भवप्पवंच उम्मुक्का, सिद्धि वरगइं गया । _(द्र अंगुल) (उ ३६।६१-६३) उद्गम-आहार की निष्पत्ति से संबंधित भिक्षावह शंख, अंक-रत्न और कुन्दपुष्प के समान श्वेत, दोष । (द. एषणा) निर्मल और शुद्ध है। उस सीता नाम की ईषत्-प्राग्भारा उपक्रम-उपोद्घात । इससे श्रोता और पाठक को पृथ्वी से एक योजन ऊपर लोक का अन्त है। उस ग्रंथ के अभिधान, प्रतिपाद्य, विभाग, योजन के उपरिवर्ती कोस के छठे भाग में सिद्धों प्रकरण आदि की प्रारम्भिक जानकारी की अवगाहना होती है। मिल जाती है । व्याख्या का प्रथम द्वार । भवप्रपंच से उन्मुक्त और सर्वश्रेष्ठ गति (सिद्धि) को (द्र. अनुयोग) प्राप्त होने वाले अनन्त शक्तिशाली सिद्ध वहां लोक के उपधान तपोमय अनष्ठान । अग्रभाग में स्थित होते हैं। उपधानम् -अंगानंगाध्ययनादौ यथायोगमाचाम्लादिईषत्प्राग्भारा पृथ्वी का प्रमाण तपोविशेषः । (उशावृ प ३४७) - अत्थीसीपब्भारोवलक्खियं मणयलोगपरिमाणं । अंग, उपांग आदि के अध्ययन काल में करणीय लोगग्गनभोभागो सिद्धिक्खेत्तं जिणक्खायं ।। आगम में निदिष्ट तपविशेष उपधान कहलाता है। उसमें (विभा ३१६२) आचाम्ल, उपवास आदि तप विहित हैं। ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी का परिमाण मनुष्यलोक जितना है । लोकाग्र का नभोभाग सिद्धि क्षेत्र है। ईहा--यह अमुक व्यक्ति या अमुक पदार्थ होना चाहिए, ऐसी वितर्कमूलक वस्तु-धर्म की अवधारणा। (द्र. आभिनिबोधिक ज्ञान) Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपधि १५० औधिक उपधि की संख्या उपधि --मुनि के उपयोग में आने वाले वस्त्र, पात्र पर्याय आदि आवश्यक उपकरण । उवही उवग्गहे संगहे य तह पग्गहुग्गहे चेव । भंडग उवगरणे या करणेवि य हुंति एगट्ठा ॥ १. उपधि का निर्वचन (ओनि ६६६) ० पर्याय उपधि, उपग्रह, संग्रह, प्रग्रह, अवग्रह, भंडक, ० प्रयोजन उपकरण, करण—ये एकार्थक शब्द हैं। २. उपधि के प्रकार प्रयोजन ० औधिक संजमनिमित्तं वा वत्थस्स गहणं कीरइ मा तस्स . औपग्रहिक अभावे अग्गिसेवणादिदोसा भविस्संति । पाताभावेऽवि ३. औधिक उपधि की संख्या संसत्तपरिसाडणादी दोसा भविस्संति । कम्बलं वासकप्पादी • जिनकल्पी की उपधि तं उदगादिरक्खणा घेप्पति। लज्जानिमित्तं चोलपट्टको ० स्थविरकल्पी की उपधि घेप्पति। (दजिचू पृ २२१) ० साध्वी की उपधि शीतकाल में शीत से पीड़ित होकर मुनि संयम के ४. उपधि का प्रमाण और प्रयोजन निमित्त अग्नि का सेवन न करे, इसलिए वस्त्र रखने का, ० रजोहरण पात्र के अभाव में संसक्त और परिशाटन दोष उत्पन्न ० मुखवस्त्रिका होते हैं, इसलिए पात्र रखने का, पानी आदि के जीवों की • कल्प (प्रच्छादक) हिंसा से बचने के लिए कम्बल (वर्षाकल्प) रखने का • चोलपट्ट तथा लज्जा के निमित्त 'चोलपट्टक' रखने का विधान ० संघाटी किया गया है। ० संस्तारक ० पात्र २. उपधि के प्रकार ० पात्र-बंध आदि ओहे उवग्गहमि य विहो उवही उ होइ नायव्वो। ५. सुलक्षण पात्र तथा अलक्षण पात्र एक्केक्कोवि य दुविहो गणणाए पमाणतो चेव । ६. औपग्रहिक उपधि (ओनि ६६७) ७. उपधि परिग्रह नहीं उपधि के दो प्रकार हैं८. एषणीय उपधि ग्रहण १. ओघ उपघि-सदा पास में रखी जाने वाली। * अनेषणीय वस्तु ग्रहण का दुष्परिणाम (द्र. एषणा) २. उपग्रह उपधि-प्रयोजन विशेष से ग्रहण की जाने ९. उपधि-परित्याग के परिणाम वाली। * उपधि-प्रतिलेखन विधि (द्र. प्रतिलेखना)। दोनों प्रकार की उपधि गणना और प्रमाण से दो* उपधि-संयम (द्र. संयम) | दो प्रकार की है। * उपधि और बोटिकमत __ (द्र. निह्नव) | ३. औधिक उपधि की संख्या जिणा बारसरूवाई, थेरा चउद्दसरूविणो । १. उपधि का निर्वचन अज्जाणं पन्नवीसं तु, अओ उड्ढं उवग्गहो । उपदधातीत्युपधिः । उप-सामीप्येन संयमं धारयति (ओनि ६७१) पोषयति चेत्यर्थः। (ओनिवृ प १२) जिनकल्पिक मुनि बारह, स्थविरकल्पिक मुनि चौदह जो संयम के धारण-पोषण में सहयोगी है, वह तथा साध्वी पचीस प्रकार की ओघ उपधि रख सकती उपधि है। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प जिनकल्पी को उपधि पत्तं पत्ताबंधी पायट्टवणं च पायकेसरिया । पडलाई रत्ताणं च गुच्छओ पायनिज्जोगो ॥ तिन्नेव य पच्छागा रयहरणं चैव होइ मुहपत्ती । एसी दुवासविहो उवही जिणकप्पियाणं तु ॥ (ओनि ६६८, ६६९) जिनकल्पिक की ओघ उपधि के बारह प्रकार हैंपात्र, पात्रबन्ध, पात्रस्थापन, पात्रकेसरिका ( पात्रमुखवस्त्रिका ), पटल, रजस्त्राण, गोच्छग, तीन प्रच्छादक ( कल्प), रजोहरण और मुखवस्त्रिका | स्थविरकल्पो की उपधि एए चैव दुवाल मत्तग अइरेगचोलपट्टो य । एसो चउद्दसविहो उवही पुण थेरकप्पम्मि || ( ओनि ६७० ) स्थविरकल्पी की ओघ उपधि के चौदह प्रकार हैंपात्र, पात्रबन्ध, पात्रस्थापन, पात्रकेसरिका, पटल, रजस्त्राण, गोच्छग, रजोहरण, मुखवस्त्रिका, तीन प्रच्छादक, चोलपट्ट और मात्रक ( पात्र विशेष ) । साध्वी की उपधि पत्तं पत्ताबंधो पायवणं च पायकेसरिया | पडलाइं रयत्ताणं च गोच्छओ पायनिज्जोगो ॥ तिन्नेव य पच्छागा रयहरणं चेव होइ मुहपत्ती । तत्तो य मत्तगो खलु चउदसमो कमढगो चेव ॥ उग्गहत पट्टो अद्धोरुग चलणिया य बोद्धव्वा । अभितर बाहिरियं सनियं तह कंचुगे चेव ॥ उक्कच्छिय वेकच्छी संघाडी चेव खंधकरणी य । ओहोहम एए अज्जाणं पन्नवीसं तु ॥ (ओनि ६७४-६७७) साध्वी की ओघ उपधि के पच्चीस प्रकार हैंपात्र, पात्रबंध, पात्रस्थापन, पात्रकेसरिका, पटल, रजस्त्राण, गोच्छग, रजोहरण, मुखपत्ती, मात्रक, कमठक ( भोजनपात्र), चार संघाटी (प्रच्छादिका), उपग्रहणंतक, पट्ट, अर्धोरुक, चलनिका, औपकक्षिका (वस्त्र विशेष ), वैकक्षिका (उत्तरासंग), कंचुक, स्कन्धकरणी, अंतोनियंसणी, बाह्य नियंसणी । ४. उपधि का प्रमाण और प्रयोजन रजोहरण दंडो से । बत्तीसंगुलदीहं चउवीसं अंगुलाई अट्ठगुला दसाओ एगयरं हीणमहियं वा ॥ (ओनि ७०८ ) १५१ उपधि रजोहरण की दीर्घता बत्तीस अंगुल प्रमाण, दण्ड चौबीस अंगुल तथा दर्शिका आठ अंगुल प्रमाण होती है । यह प्रमाण कदाचित् न्यूनाधिक भी हो सकता है । उणयं उट्टियं वावि, कंबलं पायपुंछणं । तिपरीयल्लमणिस्सट्ठ, रयहरणं धारए एगं ॥ (ओनि ७०९ ) जोहरण के तीन प्रकार हैं औणिक, औष्ट्रिक और कंबलमय । मुनि को तीन वेष्टन वाला मृदु रजोहरण धारण करना चाहिए । आयाणे निक्खेवे ठाणनिसीयण पुब्वं पमज्जणट्टा लिंगट्टा चेव (ओनि ७१० ) वस्तु को लेने रखने से पूर्व, कायोत्सर्ग, निषीदन, शयन और हाथ-पैरों के संकोच - प्रसार से पूर्व रजोहरण से, प्रमार्जन करना चाहिए। यह मुनि का लिंग चिह्न है । मुखवस्त्रिका चउरंगुलं विहत्थी एवं मुहणंतगस्स बितियं मुहम्पमाणं गणणपमाणेण तुयट्टसंकोए । रयहरणं ॥ उपमाणं । एक्केक्कं ॥ (ओनि ७११) चार कोण वाली मुखवस्त्रिका एक बालिश्त चार अंगुल प्रमाण होती है । अथवा वह मुखप्रमाण होती है - स्थान प्रमार्जन करते समय जिससे मुख ढका जा सके तथा गर्दन के पीछे गांठ लगाई जा सके, उतने प्रमाण वाली होती है । गणना की दृष्टि से प्रत्येक मुनि एकएक मुखवस्त्रिका रख सकता है । संपातिमरयरेणू पमज्जण वट्ठायंति मुहपत्ति | नासं मुहं च बंधइ तीए वसहि पमज्जतो ॥ (ओनि ७१२) बोलते समय संपातिम जीवों की रक्षा के लिए ( हिंसा से बचने के लिए) मुख पर मुखवस्त्रिका लगाई जाती है। सचित्त रजों तथा रेणुओं के प्रमार्जन के लिए और स्थान प्रमार्जन के समय रजों से सुरक्षा के लिए नाक और मुंह को बांधने हेतु इसका उपयोग किया जाता है । कल्प कप्पा आयपमाणा अड्ढाइज्जा उ वित्थडा हत्था । दो चेव सोत्तिया उन्निओ य तइओ मुणेयव्वो ॥ (ओनि ७०५ ) Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपधि जो कल्प (वस्त्र) शरीर प्रमाण लंबा और ढाई हाथ चौड़ा होता है, मुनि ऐसे तोन कल्प रख सकता है - दो सूती और एक ऊनी । तणगहणानलसेवानिवारणा दिट्ठ कप्परगहणं धम्मसुक्कझाणट्ठा । चेव ॥ (ओनि ७०६ ) कल्प ग्रहण के प्रयोजन • तृण ग्रहण के निवारण के लिए । ० अग्नि सेवन के वर्जन के लिए । ० धर्म शुक्ल ध्यान के समय शीत आदि से बचने के लिए । • ग्लान के संरक्षण के लिए । • मृत गिलाणमरणट्टया ' को आच्छादित करने के लिए । चोलपट्ट दुगुणो चउग्गुणो वा हत्था चउरंस चोलपट्टो उ । थेर जुवाणाणट्ठा सण्हे थुल्लंमि य विभासा ॥ (ओनि ७२१) एवं श्लक्ष्ण तथा मोटा चोलपट्ट स्थविरों के लिए दो हाथ प्रमाण युवा मुनि के लिए चार हाथ प्रमाण एवं विहित है । संघाटी ....संघाडीओ चउरो तत्थ दुहत्था उवसयंमि ॥ दोणि तिहत्थायामा भिक्खट्टा एग एग उच्चारे । ओसरणा चउहत्था णिसन्नपच्छायणी मसिणा ॥ ( ओभा ३१८,३१९ ) साध्वी चार संघाटी (पछेवड़ी) रख सकती है । उनका प्रमाण और उपयोग इस प्रकार होता है१. दो हाथ लम्बी पछेवड़ी - उपाश्रय में । २. तीन हाथ लम्बी पछेवड़ी - भिक्षा के समय । ३. तीन हाथ लम्बी पछेवड़ी - उत्सर्ग के समय । ४. चार हाथ लम्बी पछेवड़ी - समवसरण ( परिषद्) में । संस्तारक- उत्तरपट्ट संथारुत्तरपट्टो अड्ढाइज्जा य आयया हत्था । दोपि य वित्थारो हत्थो चउरंगुलं चेव ॥ (ओनि ७२३ ) ढाई हाथ तथा संस्तारक और उत्तरपट्ट की लम्बाई चौड़ाई एक हाथ चार अंगुल होती है । १५२ पात्रबन्ध आदि पात्र तिणि विहत्थी चउरंगुलं च भाणस्स मज्झिमपमाणं । इत्तो हीण जहन्नं अइरेगतरं तु उक्कोसं ॥ (ओनि ६८० ) एक धागे से 'वृत्त और समचतुरस्र पात्र को अधः, ऊर्ध्व तिर्यक् मापने पर यदि धागा तीन बालिश्त चार अंगुल होता है तो वह पात्र मध्यम प्रमाण है । इससे हीन होने पर जघन्य और अतिरिक्त होने पर उत्कृष्ट प्रमाण है । छक्कायरक्खणट्ठा पायग्गहणं जिणेहि पन्नत्तं । जे य गुणा संभोए हवंति ते पायगहणेवि ।। अतरंतबालबुड्ढ सेहाएसा गुरू असहुवग्गे । साहारणोग्गहालद्धिकारणा पादगहणं तु ॥ (ओनि ६९१, ६९२ ) छह जीवनिकाय की रक्षा के लिए पात्रग्रहण विहित है । मंडली - संभोज में जो लाभ हैं, वे पात्रग्रहण में भी हैं । ग्लान, बाल, शैक्ष, गुरु, वृद्ध, असहिष्णु और अलब्धिमान् इन सबके उपकार के लिए पात्र ग्रहण अपेक्षित है । मंडली -संभोज (द्र. आहार ) आयरिए य गिलाणे पाहुणए दुल्लभे सहसदाणे । संसत्तभत्तपाणे मत्तगपरिभोग अणुनाओ ॥ (ओनि ७१६) आचार्य, ग्लान और अतिथि के लिए तथा दुर्लभ द्रव्य ग्रहण, सहसा ग्रहण एवं संसक्त भक्तपान ग्रहण के लिए मात्रक ( पात्रविशेष ) का उपयोग अनुज्ञात है । पात्रबन्ध आदि पत्ताबंध माणं भाणपमाणेण होइ कायव्वं । जह गठिमि कयंमि कोणा चउरंगुला हुंति ॥ पत्तट्ठवणं तह गुच्छओ य पायपडिलेहणीआ य । तिहंपि यप्पमाणं विहत्थि चउरंगुलं चेव ॥ (ओनि ६९३,६९४ ) पात्रबन्ध --- यह भाजनप्रमाण होता है तथा गांठ लगाने पर दोनों कोण चार अंगुलप्रमाण होते हैं। पात्रस्थापन, पात्रकेसरिका तथा गोच्छग ये तीनों एक बालिश्त चार अंगुल प्रमाण होते हैं । यमादिरक्खट्ठा पत्तट्ठवणं जिणेहिं पन्नत्तं । होइ पमज्जणहेउं तु गोच्छओ भाणवत्थाणं ॥ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपधि- परित्याग के परिणाम पायपमज्जणहेउं केसरिया पाए पाए एक्केक्का । गोच्छगपत्तट्टवणं एक्के क्कं गणणमाणेणं ॥ पात्रस्थापन आदि का प्रयोजनपात्रस्थापन - रज आदि की सुरक्षा के लिए । गोच्छग - पात्र पटलों के प्रमार्जन के लिए । पात्र केसरिका - पात्र प्रमार्जन के लिए । प्रत्येक मुनि एक - एक गोच्छग और पात्रस्थापन रख सकता है । प्रत्येक पात्र की एक-एक पात्रकेसरिका होती है । सुलक्षण पात्र वृत्त - समचतुरस्र स्थिर ५. सुलक्षण पात्र तथा अलक्षण पात्र च वट्ट् समचउरंस होइ थिरं थावरं च वण्णं च । हुंडवायाइद्धं भिन्नं अधार णिज्जाई || (ओनि ६८६ ) वृत्त, समचतुरस्र, सुप्रतिष्ठित, दीर्घ कालस्थायी और स्निग्ध वर्ण वाला पात्र सुलक्षण होता है, वह ग्राह्य है । विषम, शुष्क, संकुचित और सच्छिद्र पात्र अपलक्षणयुक्त होता है, वह अग्राह्य I संठियंमि भवे लाभो, पतिट्ठा निव्वणे कित्तिमारोगं, वन्नड्ढे निश्छिद्र स्निग्ध वर्ण (ओनि ६९५, ६९६ ) अलक्षण पात्र विषम (निम्नोन्नत) चितकबरा अस्थिर तथा कील संस्थान वाला (दीर्घ उच्च) अलक्षण पात्र हुंडे चरितभेदो सबलंमि य चित्तविभमं जाणे । दुप्पते खील ठाणे गणे च चरणे च नो ठाणं ।। सव्वणे पउमुप्पले अकुसलं, वर्णमादि से । अंत बहिं च दंमि, मरणे तत्थ निद्दिसे ॥ (ओनि ६८८, ६८९ ) उपलब्धि - चारित्रविनाश - चित्तविभ्रम / चित्त विलुप्ति } गण और चारित्र में असंस्थिति - अकुशल पद्मोत्पल (नीचे से स्थासकआकार वाला) सुपतिट्ठिते । नाणसंपया ॥ ( ओनि ६८७ ) उपलब्धि १५३ लाभ प्रतिष्ठा कीर्ति, आरोग्य ज्ञानसम्पदा सव्रण (नख आदि से क्षत) भीतर या बाहर से दग्ध ६. औपग्रहिक उपधि एयं चैव पमाणं सविसेसयरं कंतारे दुब्भिक्खे रोगमाईसु उपधि दंडए लट्ठिया चेव चम्मए चम्मकोसए । चम्मच्छेदणपट्टेवि चिलिमिली धारए गुरू ॥ (ओनि ७२८) साधु की औपग्रहिक उपधि-- दण्ड, यष्टि, वियष्टि । गुरु की औपग्रहिक उपधि – चर्मकृति, चर्म कोश, चर्मपट्टिका, चर्मच्छेदन ( कैंची आदि) योगपट्ट और चिलिमिली (पर्दा) । वेयावच्चगरो वा नंदीभाणं धरे उवग्गहियं । सो खलु तस्स विसेसो पमाणजुत्तं तु सेसाणं ॥ ( ओभा ३२१ ) अणुग्गहपवत्तं । भइयव्वं ॥ ----व्रण -मरण (ओनि ६८३ ) वैयावृत्य करने वाला साधु बृहत्तर प्रमाण वाला नन्दीभाजन ( पात्र विशेष ) रख सकता है । यह औपग्रहिक उपधि है । शत्रु द्वारा नगर पर आक्रमण किये जाने पर, दुभिक्ष, अटवीगमन आदि विशेष प्रसंगों पर ही इसका उपयोग किया जाता है। शेष साधुओं के लिए प्रमाणयुक्त पात्र ही विहित है । ७. उपधि परिग्रह नहीं अत्थविसोही उवगरणं बाहिरं परिहरंतो । अपरिग्गहीत्ति भणिओ जिणेहि तेलुक्कदसीहिं ॥ (ओनि ७४५ ) अध्यात्म विशुद्धि के हेतु से बाह्य उपकरण धारण करने वाले मुनि को वस्त्र - पात्र आदि त्रिलोकदर्शी अर्हतों ने अपरिग्रही कहा है । उसके धर्मोपकरण परिग्रह नहीं हैं । ८. एषणीय उपधि-ग्रहण उग्गम उप्पायणासुद्धं, एसा दोसवज्जियं । उहि धार भिक्खू, जोगाणं साहणट्टया || (ओनि ७४३ ) मुनि संयमयोगों की साधना के लिए उद्गम, उत्पाद और एषणा के दोषों से रहित उपधि धारण करता है । ६. उपधि-परित्याग के परिणाम .... उवहिपच्चक्खाणेणं अपलिमंथं जणयइ । निरुवहिए णं जीवे निक्कखे उवहिमंतरेण य न संकिलिस्सइ । ( उ २९/३५ ) Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपमान उपधि के प्रत्याख्यान से जीव होने वाली क्षति से बच जाता है । अभिलाषा से मुक्त होकर उपधि के अभाव संक्लेश को प्राप्त नहीं होता । उपभोग - परिभोग-परिमाण - भोजन, १. उपमान के प्रकार • साधम्योपनीत • वैधम्र्योपनीत के आधार पर उपमान-सादृश्य और वैसादृश्य किया जाने वाला ज्ञान साधर्म्य अथवा वैधर्म्य के आधार पर । प्रसिद्ध वस्तु के अप्रसिद्ध वस्तु का ज्ञान । २. साधर्म्यापनीत • किंचित साधर्म्यं • प्रायः साधर्म्य • सर्वसाधर्म्य ३. वैधयोंपनीत किचित् वैधर्म्यं o ० प्रायः वैधर्म्य स्वाध्याय, ध्यान में उपधि रहित मुनि में मानसिक व्यवसाय आदि का परिसीमन । श्रावक का छठा व्रत । ( द्र. श्रावक ) • सर्व बंधयं * उपमान : ज्ञानगुणप्रमाण का भेद ( ब्र. ज्ञान ) १. उपमान के प्रकार ओवम् दुविहे पण्णत्ते, तं जहा साहम्मोवणीए य मोवीए य । ( अनु ५३८ ) उपमान के दो प्रकार हैं— साधर्म्यापनीत और वैधर्म्यापनीत | २. साधर्म्यापनीत साहम्मोवणी तिविहे पण्णत्ते, तं जहा - किंचि - साम्मे पास हम्मे सव्वसाहम्मे । ( अनु ५३९ ) साधर्म्यापनीत के तीन प्रकार हैं- किंचित् साधर्म्य, प्रायः साधर्म्य और सर्व साधर्म्यं । किचित् साधर्म्य किचिसाहम्मे – जहा मंदरो तहा सरिसवो, जहा वैधम्र्योपनीत सरिसवो तहा मंदरो। जहा समुद्दो तहा गोप्पयं, जहा गोप्यं तहा समुद्दो | ( अनु ५४० ) किंचित् साधर्म्य - जैसा मेरु है वैसा सर्षप है, जैसा सर्षप है वैसा मेरु है । जैसा समुद्र है वैसा गोष्पद है, जैसा गोष्पद है वैसा समुद्र है । प्रायः साधयं १५४ पायसाहम्मे - जहा गो तहा गवओ, जहा गवओ तहा गो । ( अनु ५४१) प्रायः साधर्म्य -- जैसी गाय है वैसा गवय है, जैसा गवय है वैसी गाय है । सर्वसाधर्म्य सव्वसाहम्मे ओवम्मं नत्थि, तहा वि तस्स तेणेव ओवम्मं कीरइ, जहा अरहंतेहिं अरहंतसरिसं कयं । ( अनु ५४२ ) सर्वसाधर्म्य में उपमा नहीं होती फिर भी उसको उसी से उपमित किया गया है, जैसे अर्हत् ने अर्हत् जैसा कार्य किया । ३. वैधम्र्योपनीत हम्मोवणीए तिविहे पण्णत्ते, तं जहा- किंचि - वेहम्मे पायवेहम्मे सव्ववेहम्मे | ( अनु ५४३ ) वैधर्म्यापनीत के तीन प्रकार हैं- किंचित् वैधर्म्य, प्रायः वैधर्म्य और सर्व वैधर्म्यं । किंचित् वैधर्म्य किंचिवेहम्मे – जहा सामलेरो न तहा बाहुलेरो, जहा बाहुलेरो न तहा सामलेरो । किचित् वैधर्म्य -- जैसा शाबलेय वैसा बाहुले (काला) नहीं है, जैसा शाबलेय नहीं है । ( अनु ५४४ ) (चितकबरा) है बाहुलेय है वैसा प्रायः वैधम्यं पायवेहम्मे – जहा वायसो न तहा पायसो, जहा पायसो न तहा वायसो । ( अनु ५४५) प्रायः वैधर्म्य - जैसा वायस (कौआ) है वैसा पायस (खीर) नहीं है, जैसा पायस है वैसा वायस नहीं है । सर्ववैधयं सव्ववेहम्मे ओवम्मं नत्थि, तहा वि तस्स तेणेव ओवम्मं कीरइ, जहा - नीचेण नीचसरिसं कयं, काकेण Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसर्ग १५५ ऊनोदरी काकसरिसं कयं । (अनु ५४६) द्वेष के कारण ३. विमर्श-प्रतिज्ञा से चलित करने सर्ववैधर्म्य में उपमा नहीं होती फिर भी उस के लिए। ४. विमिश्र-हास्य, प्रद्वेष, विमर्श आदि उपमेय को उसी उपमान के द्वारा उपमित किया जाता विविध प्रकारों से। है। जैसे -- नीच ने नीच जैसा कार्य किया। कौए ने मनुष्य संबंधी उपसर्ग के चार कारण हैंकौए जैसा कार्य किया। १. हास्य से २. प्रद्वेष से ३. विमर्श से और ४. कूशील प्रतिसेवन के लिए। उपशांतमोह -ग्यारहवां गुणस्थान जहां मोह तियं च सम्बन्धी उपसर्ग के चार कारण हैंउपशांत हो जाता है। १. भय से २. द्वेष से ३. आहार के लिए ४. संतान (द्र. गुणस्थान) और अपने स्थान की सुरक्षा के लिए। उपसम्पदा-ज्ञान, दर्शन और चारित्र की विशेष आत्मसंवेदनीय उपसर्ग के चार कारण हैं प्राप्ति के लिए कुछ समय तक दूसरे १. आंखों में तिनका गिरना २. अंगों का जड़ीभूत होना आचार्य का शिष्यत्व स्वीकार ३. गड्ढे में गिरना ४. विगुणित बाहु आदि का परस्पर करना । समाचारी का एक भेद। श्लेष । (द्र. सामाचारी) दिव्वे य जे उवसग्गे, तहा तेरिच्छमाणुसे । उपसग उपद्रव। जे भिक्खू सहई निच्चं, से न अच्छइ मंडले ।। (उ ३१/५) उवसज्जणमुवसग्गो तेण तओ व उवसज्जए जम्हा ।" जो भिक्ष देव, तिर्यंच और मनुष्य संबंधी उपसर्गों (विभा ३००५) को सदा सहता है, वह भव-भ्रमण नहीं करता। उप ----सामीप्येन सृज्यन्ते-तिर्यग्मनुष्यामरैः कर्म भगवान् महावीर के उपसर्ग। वशगेनात्मना क्रियन्त इत्युपसर्गाः। (उशावृ प १०९) उपाध्याय -- सूत्रदाता, अध्ययन-अध्यापन में कर्म के वशीभूत हो तिर्यंच, मनुष्य और देव द्वारा कुशल । (द. आचार्य) साक्षात् कृत उपद्रव उपसर्ग कहलाते हैं। पंचपरमेष्ठी में चतुर्थ पद पर प्रति.."सो दिव्व-मणुय-तेरिच्छियायसंवेयणाभेओ ॥ ष्ठित । (द्र. नमस्कार) (विभा ३००५) उपासक प्रतिमा-श्रमणोपासक की साधना का उपसर्ग के चार प्रकार हैं -- एक विशिष्ट प्रयोग । १. दिव्य --देवकृत। २. मानुष-- मनुष्यकृत। ३. तैर्यग्यं निज-तिर्यंचकृत। ऊनोदरी-आहार, उपधि, कषाय आदि की ४. आत्मसंवेदनीय- स्वयं के शरीर से होने वाले। अल्पता । बाह्य तप का प्रकार। (द्र. तप) उपसर्ग चतुष्टयी के हेतु - हास-प्पओस-वीमंसओ विमायाए वा भवो दिव्यो। १. ऊनोदरी के पांच प्रकार एवं चिय माणस्सो कूसीलपडिसेवणचउत्थो॥ • द्रव्य तिरिओ भयप्पओसाहारावच्चाइरक्खणत्थं वा। ० क्षेत्र घद्र-त्थंभण-पवडण-लेसणओ चायसंवेओ ॥ * क्षेत्र ऊनोदरी के प्रकार (द्र. भिक्षाचर्या) _ (विभा ३००६, ३००७) ० काल देव चार कारणों से उपसर्ग कर सकते हैं ० भाव ० पर्यव .. १. हास्य-क्रीडा के लिए २. प्रद्वेष-पूर्व भव सम्बन्धी । __(द्र. प्रतिमा) Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऊनोदरी १५६ उपकरण तथा भक्तपान ऊनोदरी तरी | दिवस के चार प्रहरों में जितना अभिग्रहकाल हो २. ऊनोदरी के दो प्रकार उसमें भिक्षा के लिए जाऊंगा, अन्यथा नहीं-- इस प्रकार • उपकरण तथा भक्तपान ऊनोदरी चर्या करने वाले मुनि के काल से अवमौदर्य तप होता • भाव ऊनोदरी * पूर्ण आहार का प्रमाण है । अथवा कुछ न्यून तीसरे प्रहर (चतुर्थ भाग आदि (द्र. आहार) न्यून प्रहर) में जो भिक्षा की एषणा करता है, उसे काल १. ऊनोदरी के पांच प्रकार से अवमौदर्य तप होता है। ओमोयरियं पंचहा, समासेण वियाहियं । भाव ऊनोदरी दव्वओ खेत्तकालेणं, भावेणं पज्जवेहि य॥ इत्थी वा पुरिसो वा, अलंकिओ वाणलंकिओ वा वि । (उ ३०।१४) अन्नयरवयत्थो वा, अन्नयरेणं व वत्थेणं ॥ अन्नेण विसेसेणं, वण्णणं भावमणमयंते उ। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और पर्यव की दष्टि से एवं चरमाणो खलु, भावोमाणं मुणेयव्वो ।। ऊनोदरी तप पांच प्रकार का है। प्रव्य ऊनोदरी (उ ३०।२२, २३) जो जस्स उ आहारो, तत्तो ओमं तु जो करे । स्त्री अथवा पुरुष, अलंकृत अथवा अनलंकृत, अमुक जहन्नेणेगसित्थाई, एवं दव्वेण ऊ भवे ।। वय वाले, अमुक वस्त्र वाले, अमुक विशेष प्रकार की (उ ३०।१५) दशा, वर्ण या भाव से युक्त दाता से भिक्षा ग्रहण करूंगा, जिसका जितना आहार है, उससे जो जघन्यतः एक अन्यथा नहीं - इस प्रकार चर्या करने वाले मुनि के भाव सिक्थ (धान्य कण) और उत्कृष्टतः एक कवल कम खाता है, उसके द्रव्य से अवमौदर्य तप होता है। पर्यव ऊनोदरी क्षेत्र ऊनोदरी दवे खेत्ते काले, भावम्मि य आहिया उ जे भावा । गामे नगरे तह रायहाणि निगमे य आगरे पल्ली। एएहि ओमचरओ, पज्जवचरओ भवे भिक्ख ।। खेडे कव्वडदोणमुहपट्टणमडंबसंबाहे ॥ (उ ३०।२४) आसमपए विहारे, सन्निवेसे समायघोसे य । द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में जो पर्याय कहे गए थलिसेणाखंधारे, सत्थे संवट्टकोट्टे य॥ हैं, उन सबके द्वारा अवमौदर्य करने वाला भिक्ष पर्यववाडेसु व रच्छासु व, घरेसु वा एवमित्तियं खेत्तं ॥ चरक होता है। कप्पइ उ एवमाई, एवं खेत्तेण ऊ भवे ॥ २. ऊनोदरी के दो प्रकार (उ ३०।१६-१८) सा दुविहा--दव्वे भावे य। (दअच् पृ १३) मुनि ग्राम, नगर, राजधानी, निगम, आकर, पल्ली, ऊनोदरी के दो प्रकार हैं---द्रव्य ऊनोदरी और भाव खेड़ा, कर्बट, द्रोणमुख, पत्तन, मंडप, संबाध, आश्रमपद, ऊनोदरी। विहार, सन्निवेश, समाज, घोष, स्थली, सेना का शिविर, सार्थ, संवर्त, कोट, पाड़ा, गलियां, घर-इनमें अथवा उपकरण तथा भक्तपान ऊनोदरी इस प्रकार के अन्य क्षेत्रों में से पूर्व निश्चय के अनुसार दव्वे उवकरणे भत्तपाणे य । उवकरणे एगवत्थधारित्तं निर्धारित क्षेत्र में भिक्षा के लिए जा सकता है। इस एवमादि । भत्तपाणोमोदरिया अप्पप्पणो मुहप्पमाणेण प्रकार यह क्षेत्र से अवमौदर्य तप होता है। कवलेणं पंचविगप्पा-अप्पाहारोमोदरिया, अवड्ढोकाल ऊनोदरी मोदरिया, दुभागोमोदरिया, पमाणोमोदरिया, किंचूणोदिवसस्स पोरुसीणं, चउण्हं पि उ जत्तिओ भवे कालो। मोदरिया।। (दअचू पृ १३) एवं चरमाणो खलु, कालोमाणं मुणेयव्वो॥ द्रव्य ऊनोदरी के दो प्रकार हैंअहवा तइयाए पोरिसीए, ऊणाइ घासमेसंतो। १. उपकरण ऊनोदरी-एक वस्त्र धारण करना चउभागूणाए वा, एवं कालेण ऊ भवे ॥ आदि। (उ ३०।२०, २१) २. भक्तपान ऊनोदरी-अपने मुखप्रमाण ग्रास के Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एषणा के प्रकार १५७ एषणासमिति आधार पर इसके पांच प्रकार हैं ३. उद्गम-उत्पादन की परिभाषा १. अल्पाहार-- आठ ग्रास प्रमाण । ४. उद्गम बोषों के प्रकार और विवरण २. अपार्द्ध -- बारह ग्रास प्रमाण । ५. उदगम : विशोधिकोटि-अविशोधिकोटि ३. द्विभाग- सोलह ग्रास प्रमाण । ६. उत्पादन दोषों के प्रकार ४. प्रमाणोपेत-चौबीस ग्रास प्रमाण । ७. ग्रहणषणा की परिभाषा ५. किंचित ऊनोदरी- इकतीस ग्रास प्रमाण । ८. ग्रहणषणा के प्रकार और विवरण भाव ऊनोदरी ९. नवकोटि शुद्ध भिक्षा भावोमोयरिया चउण्हं कसायाणं उदयनिरोहो उदय- १०. अनेषणीय आहार आदि के दुष्परिणाम प्पत्तविफलीकरणं च । (दअचू पृ १३) * एषणा : समिति का एक प्रकार (द्र. समिति) क्रोध आदि चार कषायों के उदय का निरोध और * एषणा के सात प्रकार (द्र. भिक्षाचर्या) उदयप्राप्त का विफलीकरण भाव ऊनोदरी है। * औद्देशिक आदि अनाचार (द्र. अनाचार) * निर्दोष आहार ग्रहण-विधि (द्र. गोचरचर्या) ऋजुमति-मनःपर्यवज्ञान का एक भेद । * सदोष भिक्षा और कायोत्सर्ग (द्र. कायोत्सर्ग) (द्र. मनःपर्यवज्ञान) ऋजुसूत्र-वर्तमान पर्याय को स्वीकार करने वाला १. एषणा को परिभाषा अभिप्राय । वर्तमान क्षण को ग्रहण एषणासमिति म गोचरगतेन मुनिना सम्यगुप करने वाला दृष्टिकोण। (द्र. नय) युक्तेन नवकोटिपरिशुद्धं ग्राह्यम् । (आवहावृ २ पृ८४) ऋद्धि-ऐश्वर्य। (द्र. लब्धि गोचरचर्या के समय मनि सावधानी से नवकोटि ) ऋषभ-प्रथम तीर्थंकर द्र. तीर्थंकर) परिशुद्ध भिक्षा ग्रहण करता है, इसे एषणा समिति कहा जाता है। एकत्व भावना-अपने आपमें अकेलेपन का अनुभव एत्थ य समणसुविहिया परकडपरनिट्ठियं विगयधूमं । करना। (द्र. अनुप्रेक्षा) आहारं एसंति जोगाणं साहणट्ठाए । एकसिद्ध-एक समय में एक जीव का सिद्ध होना । (दनि ४३) (द्र. सिद्ध) संयमयोगों की साधना के लिए श्रमण दूसरों के लिए एकेन्द्रिय-वे जीव जिनके केवल एक स्पर्शनेन्द्रिय कृत --निष्पन्न, धूम आदि दोषों से मुक्त आहार की ही होती है। (द्र. जीव) एषणा करते हैं। एवंभत-क्रिया की परिणति के अनरूप ही शब्द २. एषणा के प्रकार के प्रयोग को स्वीकार करने वाला गवसणाए गहणे य, परिभोगेसणा य जा। अभिप्राय। (द्र, नय) आहारोवहिसेज्जाए, एए तिन्नि विसोहए ।। (उ २४१११) एषणासमिति-कल्पनीय आहार, पानी आदि को एषणा के तीन प्रकार हैं--गवेषणा, ग्रहणषणा और गवंषणा करना। समिति का परिभोगैषणा । मुनि आहार, उपधि और शय्या के विषय तीसरा भेद। में इन तीनों का विशोधन करे। उग्गमुप्पयणं पढमे, बीए सोहेज्ज एसणं । १. एषणा की परिभाषा परिभोयंमि चउक्कं, विसोहेज्ज जयं जई ।। २. एषणा के प्रकार (उ २४/१२) ० गवेषणा-उदगम और उत्पादन के दोष यतनाशील यति प्रथम एषणा में उद्गम और उत्पादन • ग्रहणषणा-एषणा के दोष के दोषों का शोधन करे। दूसरी एषणा में एषणा * परिभोगषणा-मांडलिक दोष (द्र. आहार) ) सम्बन्धी दोषों का शोधन करे और परिभोगैषणा Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एषणासमिति ओद्देशिक में दोषचतुष्क (संयोजना, अप्रमाण, अंगार-धूम और कर्म बांधता हुआ प्रचुर कर्मों का चय-उपचय करता है। कारण) का शोधन करे। भावावयारमाहेउमप्पगे किंचिनूणचरणग्गो। ३. उद्गम-उत्पादन की परिभाषा आहाकम्मग्गाही अहो अहो नेइ अप्पाणं ।। (पिनि १००) सोलस उग्गमदोसे गिहिणो उ समुट्ठिए वियाणाहि । आधाकर्म आहार ग्रहण करने वाला उपशांत मोह उप्पायणाए दोसे साहूउ समुट्ठिए जाण ॥ गुणस्थानवर्ती मुनि भी अपने आपको हीन-हीनतर अध्य(पिनि ४०३) वसायों में ले जाता हुआ नरक में जाता है। सामान्य उद्गम के सोलह दोष गृहस्थ द्वारा समुत्थित हैं। मुनि की तो बात ही क्या ? उत्पादना के सोलह दोष साधु के द्वारा समुत्थित हैं। तत्थाणंता उ चरित्तपज्जवा होति संजमद्राण । ४. उद्गमदोष के प्रकार और विवरण संखाईयाणि उ ताणि कंडगं होइ नायव्वं ।। आहाकम्मुद्दे सिय पूईकम्मे य मीसजाए य । संखाईयाणि उ कंडगाणि छद्राणगं विणिहिट्ठं । ठवणा पाहुडियाए पाओअर कीय पामिच्चे ।। छट्ठाणा उ असंखा संजमसेढी मुणेयव्वा ।। परियट्टिए अभिहडे उब्भिन्ने मालोहडे इय। किण्हाइया उ लेसा उक्कोसविसुद्धिठिइविसेसाओ। अच्छिज्जे अणिसठे अज्झोयरए य सोलसमे ।। एएसि विसुद्धाणं अप्पं तग्गाहगो कुणइ ।। (पिनि ९२, ९३) (पिभा २८-३०) उद्गम के सोलह दोष चारित्र के पर्यव अनन्त हैं । वे संयम-स्थान कहलाते १. आधाकर्म ९. प्रामित्य हैं । समुदित असंख्येय संयम-स्थानों की आगमिक संज्ञा २. औद्देशिक १०. परिवर्त है 'कण्डक' । असंख्येय कंडक षट्स्थानक (छह प्रकार की ३. पूतिकर्म ११. अभिहृत वृद्धि-हानि वाले) होते हैं। ४. मिश्रजात १२. उ भिन्न असंख्येय लोकाकाशप्रदेशपरिमाण षट्स्थानक की ५. स्थापना १३. मालापहृत संज्ञा है-"संयम-श्रेणि। कृष्ण, नील आदि छह लेश्याएं ६. प्राभृतिका १४. आच्छेद्य हैं । सर्वोत्कृष्ट सातवेदनीय आदि विशुद्ध कर्म प्रकृतियों ७. प्रादुष्करण १५. अनिसृष्ट की विशुद्ध स्थिति 'स्थिति विशेष' कहलाती है। ८. क्रीत १६. अध्यवतरक इन संयम-स्थानों आदि से संबंधित शुभ स्थानों में १. आधाकर्म वर्तमान मुनि आधाकर्मदोषयुक्त आहार ग्रहण कर अपनी आत्मा को हीन-हीनतर स्थानों में ले जाता है। यह ओरालसरीराणं उद्दवण तिवायणं च जस्सट्ठा । भाव-अधःकर्म है। मणमाहित्ता कीरइ, आहाकम्मं तयं बैंति ॥ (पिनि ९७) २. औद्देशिक आधाकर्म का अर्थ है-मन से साधु के निमित्त उद्दिस्स कज्जइ तं उद्देसियं, साधुनिमित्तं आरंभोत्ति पचन-पाचन आदि का संकल्प कर आहार आदि वृत्तं भवति । ___ (दजिचू पृ १११) निष्पन्न करना। उद्देशनं साध्वाद्याश्रित्य दानारम्भस्येत्युद्देशः । आधाकर्म के दुष्परिणाम (दहाव प ११६) बंधइ अहेभवाऊ पकरेइ अहोमूहाई कम्माई। उद्देश:-यावथिकादिप्रणिधानं तेन नित्तमौट्टेघणकरणं तिव्वेण उ भावेण चओ उवचओ य ॥ शिकम् । (पिनिवृ प ३५) (पिनि १०१) औद्देशिक के दो अर्थ हैंआधाकर्म आहार ग्रहण करने वाला मुनि अधोगति १. निर्ग्रन्थ को दान देने के उद्देश्य से आरंभ-समारंभ का आयुष्य बांधता है। वह कटु फल वाली अन्य कर्म- कर बनाया गया आहार आदि । प्रकृतियां तथा तीव्र अशुभ परिणामों से निकाचित २. परिव्राजक, श्रमण, निर्ग्रन्थ आदि सभी को दान Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थापना देने के उद्देश्य से बनाया गया भोजन, वस्तु अथवा मकान आदि । वहणं तसथावराण होइ, पुढवितणकट्ठनिस्सियाणं । तम्हा उद्देसिय भुंजे ॥ (द १०१४) मुनि औद्दे शिक भोजन न करे, क्योंकि भोजन बनाने में पृथ्वी, तृण और काष्ठ के आश्रय में रहे हुए त्रस - स्थावर जीवों का वध होता है । ३. पूतिकर्म न समणकडाहाकम्मं समणाणं जं आहार उवहि वसही सव्वं तं कडेण मीसं तु । पूइयं होइ || (पिनि २६९ ) जो आहार आदि श्रमण के लिए बनाया जाए, वह आधाकर्म कहलाता है । उस आधाकर्म से मिश्रित जो आहार आदि होते हैं, वे पूतिकर्मयुक्त कहलाते हैं । पढमदिवसंमि कम्मं तिन्नि उ दिवसाणि पूइयं होइ । पूईसु तिसु न कप्पर कप्पर तइओ जया कप्पो ॥ ( पिनि २६८ ) जिस घर में जिस दिन आधाकर्म आहार बने उस दिन और उसके बाद तीन दिन तक उस घर का आहार पूर्ति - दोष युक्त होता है। इसलिए तीन दिन तक मुनि उस घर से भिक्षा नहीं ले सकता । ४. मिश्रजात मीसज्जायं जावंतियं च पासंडिसाहुमीसं च । सहसंतरं न कप्पइ कप्पइ कप्पे कए तिगुणे ॥ अत्तट्ठा रंधते पासंडीणपि बिइयओ भणइ । निग्गंथट्ठा तइओ अत्तट्ठाएऽवि रंधते ॥ ( पिनि २७१ ) गृहस्थ अपने लिए भोजन पकाए, उसके साथ-साथ साधु के लिए भी पका ले, वह 'मिश्रजात' दोष है । उसके तीन प्रकार हैं १. यावदर्थिक मिश्र - भिक्षाचर और कुटुम्ब के लिए एक साथ पकाया जाने वाला भोजन 'यावदर्थिक' कहलाता है । २. पाखण्डिमिश्र – पाखण्डी और अपने लिए एक साथ पकाया जाने वाला भोजन 'पाखण्ड-मिश्र' कहलाता है । ३. साधु - मिश्र - जो भोजन केवल साधु और अपने लिए १५९ एषणासमिति एक साथ पकाया जाए, वह 'साधु मिश्र' कहलाता है । मिश्रजात आहार हजार व्यक्तियों से अंतरित होने पर भी ग्राह्य नहीं है । जिस पात्र में मिश्रजात आहार ले लिया हो तो उसे विसर्जित कर पात्र का तीन बार प्रक्षालन करने से शुद्धि होती है । विसघाइय पिसियासी मरइ तमन्नोवि खाइउं मरइ । इय पारंपरमरणे अणुमरइ सहस्ससो जाव ॥ एवं मीसज्जायं चरणप्पं हणइ साहु सुविसुद्धं । तम्हा तं नो कप्पइ पुरिससह संतरगयंपि ॥ (पिनि २७४, २७५) एक व्यक्तिवेधक विष खाकर मरता है, उस मृत व्यक्ति के मांस को खाने वाला दूसरा व्यक्ति भी मर जाता है । दूसरे मृत व्यक्ति के मांस को खाने वाला तीसरा व्यक्ति भी मर जाता है। यह क्रम हजार व्यक्तियों तक चलता है । जैसे वेधक विष का प्रभाव हजारवें व्यक्ति को भी मार देता है, वैसे ही मिश्रजात आहार सहस्र पुरुषान्तर होने पर भी शुद्ध नहीं होता और उसको भोगने वाले श्रमण के चारित्र का हनन कर देता है । ५. स्थापना ठवणा भिक्खायरियाण ठविया उ । (आवहावू २ पृ ५७ ) भिक्षाचरों के लिए स्थापित की हुई भिक्षा लेना स्थापना दोष है । साधुभ्यो देयमितिबुद्ध्या देयवस्तुनः कियन्तं कालं व्यवस्थापनं स्थापना । (पिनिवृप ३५ ) यह वस्तु अमुक साधु के लिए है-इस बुद्धि से देय को कुछ समय के लिए स्थापित करना स्थापना वस्तु दोष है । ६. प्राभृतिका कस्मैचिदिष्टाय पूज्याय वा बहुमानपुरस्सरीकारेण यदभीष्टं वस्तु दीयते तत्प्राभृतमुच्यते । ततः प्राभृतमिव प्राभूतं साधुभ्यो भिक्षादिकं देयं वस्तु । ( पिनिवृ प ३५ ) प्राभृत का अर्थ है - अपने इष्ट अथवा पूजनीय व्यक्तिको बहुमानपूर्वक अभीष्ट वस्तु देना । साधु को उपहारस्वरूप विशिष्ट वस्तु देना प्राभृतिका है । Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एषणासमिति उभिन्न ७. प्रादुष्करण पाओकरणं दुविहं पागडकरणं पगासकरणं च । पागड संकामण कुड्डदारपाए य छिन्ने वा ॥ (पिनि २९८) प्रादुष्करण के दो प्रकार हैं१. प्रकटकरण-देय वस्तु को अन्धकार से हटाकर प्रकाशित स्थान में रखना। २. प्रकाशकरण-अंधकार युक्त स्थान को प्रकाशित करने के लिए दीवार में छिद्र करना अथवा मणि, दीपक, अग्नि आदि से उसे प्रकाशित करना। नीयदुवारं तमसं, कोट्टगं परिवज्जए । अचक्खुविसओ जत्थ, पाणा दुप्पडिलेहगा ॥ (द ५१११२०) जहां चक्ष का विषय न होने के कारण प्राणी न देखे जा सकें, वैसे निम्न द्वार वाले अंधकारमय कोष्ठक का मुनि परिवर्जन करे। ८. क्रीत क्रीतं यत्साध्वर्थं मूल्येन परिगृहीतम् । (पिनिवृ प ३५) साधु के निमित्त खरीद कर भिक्षा देना क्रीत दोष १२. उदाभिन्न पिहिउब्भिन्नकवाडे फासुय अप्फासूए य बोद्धव्वे । अप्फासु पुढविमाई फासुय छगणाइदद्दरए । (पिनि ३४७) उभिन्न दोष के दो प्रकार हैं१. विहित उद्भिन्न -चपड़ी आदि से बंद पात्र का मुंह खोल कर भिक्षा देना। २. कपाट उभिन्न -बंद किवाड़ को खोलकर भिक्षा देना। दगवारएण पिहियं, नीसाए पीढएण वा। लोढेण वा वि लेवेण, सिलेसेण व केणइ ।। तं च उभिदिया देज्जा, समणट्ठाए व दावए । देंतियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ।। (द ५११४५,४६) जल-कुंभ, चक्की, पीठ, शिलापुत्र (लोढा), मिट्टी के लेप और लाख आदि श्लेष द्रव्यों से पिहित (ढके, लिपे और मूंदे हुए) पात्र का श्रमण के लिए मुंह खोलकर, आहार देती हुई स्त्री को मुनि प्रतिषेध करे- इस प्रकार का आहार मैं नहीं ले सकता। क्योंकि यह उद्भिन्न दोषयुक्त भिक्षा है। उब्भिन्ने छक्काया दाणे कयविक्कए य अहिगरणं । ते चेव कवाडंमिवि सविसेसा जंतमाईसु ॥ (पिनि ३४८) उभिन्न दोषयक्त भिक्षा लेने से उत्पन्न दोष१. छहकायविराधना-कुप्पी आदि को खोलते समय और पुनः बन्द करते समय सचित्त पृथ्वी, पानी आदि की विराधना होती है। लाख आदि द्रव्यों से मुद्रित करते समय अग्नि और वायु की विराधना होती है तथा मिट्टी में होने वाले चींटी आदि प्राणियों की भी विराधना होती है। २. अधिकरण--घी, तैल आदि को देते हुए या क्रय विक्रय करते हुए हिंसा आदि दोष लगते हैं। १३. मालापहृत दोष निस्सेणि फलगं पीढं, उस्सवित्ताणमारुहे । मंचं कीलं च पासायं, समणट्ठाए व दावए । दुरूहमाणी पवडेज्जा, हत्थं पायं व लूसए। पुढविजीवे वि हिंसेज्जा, जे य तन्निस्सिया जगा॥ (द ५११६७,६८) श्रमण के लिए दाता निसनी, फलक और पीढे को ९. प्रामित्य प्रामित्यं ---साध्वर्थमुच्छिद्य दानलक्षणम् । (दहावृ प १७४) प्रामित्य का अर्थ है -साध को देने के लिए कोई वस्तु दूसरों से उधार लेना। १०. परिवर्त परिवर्तितं यत्साधुनिमित्तं कृतपरावर्त्तम् । (पिनिवृ प ३५) साधु को देने के निमित्त वस्तु का विनिमय कर भिक्षा देना परिवर्त्त दोष है। ११. अभिहृत अभिहृतं-यत्साधुदानाय स्वग्रामात्परग्रामाद्वा समानीतम् । (पिनिवृ प ३५) साधु को देने के लिए दूर से अर्थात् अपने ग्राम से अथवा दूसरे ग्राम से लाकर भिक्षा देना अभिहत दोष है। Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्गम : विशोधिकोटि-अविशोधि कोटि १६१ एषणासमिति ऊंचा कर, मचान, स्तम्भ और प्रासाद पर चढ़ भक्तपान से एक निमन्त्रित करे तो मुनि वह दिया जाने वाला लाये तो साधु उसे ग्रहण न करे। निसैनी आदि द्वारा आहार न ले। दूसरे के अभिप्राय को देखे-उसे देना चढ़ती हुई स्त्री गिर सकती है। हाथ-पैर टूट सकते हैं। अप्रिय लगता हो तो न ले और प्रिय लगता हो तो ले ले। उसके गिरने से नीचे दबकर पृथ्वी के जीवों की तथा दोण्हं तु भुंजमाणाणं, दोवि तत्थ निमंतए। पृथ्वी आश्रित अन्य जीवों की विराधना हो सकती है। दिज्जमाणं पडिच्छेज्जा, जं तत्थेसणियं भवे ।। १४. आच्छेद्य (द ५११३८) अच्छिज्जपि य तिविहं पभू य सामी य तेणए चेव ।। जिस आहार के दो स्वामी या भोक्ता हों और दोनों अच्छिज्जं पडिकुटुं समणाण न कप्पए घेत्तं ॥ ही निमन्त्रित करें तो मुनि उस दीयमान आहार को, गोवालए य भयएऽखरए पुत्ते य धूय सुण्हाए। यदि वह एषणीय हो तो ले ले । अचियत्त संखडाई केइ पओसं जहा गोवो॥ १६. अध्यवतर (पिनि ३६६,३६७) अझोयरओ तिविहो जावंतिय सघरमीसपासंडे । आच्छेद्य के तीन प्रकार हैं मूलंमि य पुवकये ओयरई तिण्ह अट्ठाए। १. प्रभु - गृहस्वामी अपने पुत्र, पुत्री, नौकर, ग्वालों (पिनि ३८८) आदि की वस्तु को बलात् छीनकर साधु को देता अपने लिए पक रहे भोजन में साधु के निमित्त है- यह प्रभु आच्छेद्य दोष है। अधिक डालकर पकाना अध्यवतर दोष है। इसके तीन २. स्वामी-ग्रामनायक किसी कुटुम्ब आदि की वस्तु प्रकार हैंबलात् छीनकर साधु को देता है-यह स्वामी १. स्वगृहयावदर्थिक मिश्र । आच्छेद्य दोष है। २. स्वगृहसाधु मिश्र । ३ स्तेन .. चोर किसी से वस्तु को छीनकर साधु को , ३. स्वगृह पाखंडी मिश्र । देता है-यह स्तेन आच्छेद्य दोष है। मिश्र और अध्यवतर में अंतर बलात् छीनकर दी हुई भिक्षा लेने से साधु के तंदुलजलआयाणे पुप्फफले सागवेसणे लोणे । निम्न दोषों की संभावना रहती है-अप्रीति, कलह, परिमाणे नाणत्तं अज्झोयरमीसजाए य ।। अन्तराय, प्रद्वेष, आश्रय या ग्राम से निष्काशन, आहार (पिनि ३८९) आदि की अप्राप्ति आदि । मिश्रजात में चावल, जल, फल, शाक आदि का १५. अनिसृष्ट परिमाण साधु के निमित्त प्रारंभ में अधिक कर दिया अणिसिट्ठं पडिकुठं अणुनायं कप्पए सुविहियाणं । जाता है और अध्यवतर में इनका परिमाण मध्य में लड्डुग चोल्लग जंते संखडि खीरावणाईसु ।। बढ़ाया जाता है । (पिनि ३७७) ५. उद्गम : विशोधिकोटि-अविशोधि कोटि स्वामी की अनुमति के बिना आहार आदि ग्रहण एसो सोलसभेओ, दुहा कीरइ उग्गमो। करना अनिसृष्ट दोष है । इसके दो भेद हैं - एगो विसोहिकोडी, अविसोही उ चावरा ॥ १. चोल्लक अनिसृष्ट-भोजन सम्बन्धी। आहाकम्मुद्देसिय चरमतिगं पूइ मीसजाए य । २. साधारण अनिसृष्ट-मोदक, क्षीर, कोल्हू, विवाह, बायरपाहुडियावि य अज्झोयरए य चरिमदुगं ॥ दूकान आदि से संबंधित । कोडीकरणं विहं उग्गमकोडी विसोहिकोडी य । अननुज्ञात वस्तु ग्राह्य नहीं है। गृहस्थ द्वारा अनुज्ञात उग्गमकोडी छक्कं विसोहिकोडी अणेगविहा॥ वस्तु सुविहित मुनि के लिए ग्राह्य है। (पिनि ३९२,३९३,४०१) दोण्हं तु भुंजमाणाणं, एगो तत्थ निमंतए । सोलह उद्गम के दोष दो श्रेणियों में विभक्त हैंदिज्जमाणं न इच्छेज्जा, छंद से पडिलेहए॥ अविशोधिकोटि और विशोधिकोटि । (द ५।१।३७) १. अविशोधिकोटि--इसके छह प्रकार हैंजिस आहार के दो स्वामी या भोक्ता हों और उनमें आधाकर्म, औद्देशिक, पूतिकर्म, मिश्रजात, बादर Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एषणासमिति प्राभृतिका तथा अध्यवतर । औद्देशिक, मिश्रजात तथा अध्यवतर के कुछ भेद अविशोधिकोट में तथा कुछ भेद विशोधिकोटि में हैं। २. विशोधिकोटि - इसके अनेक प्रकार हैं— क्रीत, प्रामित्य आदि । ६. उत्पादन दोषों के प्रकार धाई दूइ निमित्ते आजीव वणीमगे तिमिच्छा य । कोहे माणे माया लोभे य हवंति दस एए ॥ पुव्वि पच्छा संथव विज्जा मंते य चुन्न जोगे य । दोसा सोलसमे मूलम् ॥ (पिनि ४०८, ४०९ ) उपायणाइ उत्पादन के सोलह दोष हैं१. धात्री - धाय की तरह बालक को खिलाकर भिक्षा लेना । २. दूती - दूती की तरह संवाद बताकर भिक्षा लेना । ३. निमित्त भावी शुभ-अशुभ बताकर भिक्षा लेना । ४. आजीव --- अपनी जाति, कुल आदि का परिचय देकर भिक्षा लेना । ५. वनीपक - भिखारी की तरह दीनता दिखाकर भिक्षा लेना । ६. चिकित्सा -- वैद्य की तरह चिकित्सा कर भिक्षा लेना । ७. क्रोध क्रोध का प्रदर्शन कर भिक्षा लेना । 1 11 27 ८. मान मान, ९. माया माया" १०. लोभ - लोभ ,, I ११. संस्तव परस्पर परिचय - प्रशंसा कर भिक्षा लेना । १२. विद्या -- विद्या ( देवी अधिष्ठित ) का प्रयोग कर भिक्षा लेना । 13 "" 21 11 11 " ا, 11 १३. मंत्र - मंत्र ( देव अधिष्ठित ) का प्रयोग कर भिक्षा लेना | १४. चूर्ण - अंजन, इष्ट का चूर्ण आदि का प्रयोग कर भिक्षा लेना । १५. योग - आकाशगमन आदि के निष्पादक द्रव्यसंघात का प्रयोग कर भिक्षा लेना । १६. मूलकर्म - गर्भपात, वशीकरण आदि के उपाय बताकर भिक्षा लेना । ग्रहणषणा के प्रकार और विवरण धम्मक वाय खमणं निमित्त आयावणे सुयट्ठाणे । जाई कुल गण कम्मे सिप्पम्मि य भावकीयं तु ॥ (पिनि ३१२ ) मैं धर्मकथाकार हूं, मैं वादी हूं, मैं तपस्वी हूं, मैं निमित्तज्ञ हूं, मैं आतापना लेता हूं, मैं आचार्य हूं, मैं अमुक जाति, कुल और गण का हूं, मेरा अमुक शिल्पकर्म है -- इस प्रकार जो आत्मभावों को खाद्य-पदार्थों के लोभ से बेच देता है - यह भावकीत दोष है । १६२ इथियं पुरिसं वा वि, डहरं वा महल्लगं । वंदमाणी न जाएज्जा, नो य णं फरुसं वए । (द. ५/२०२९) मुनि स्त्री या पुरुष, बाल या वृद्ध की वन्दना (स्तुति) करता हुआ याचना न करे, ( न देने पर ) कठोर वचन न बोले । ७. ग्रहणषणा की परिभाषा एवं तु गविस्सा उग्गमउप्पायणाविसुद्धस्स । गहण विसोहिविसुद्धस्स होइ गहणं तु पिंडस्स || (पिनि ५१३) उद्गम और उत्पादन के दोषों से रहित गवेषणा करने के पश्चात् शंका आदि एषणा के दोषों से विशुद्ध आहार का ग्रहण करना ग्रहणषणा है । .....गहणे सणाइ दोसे आयपरसमुट्ठिए वोच्छं ॥ दोन साहसमुत्था संकिय तह भावओऽपरिणयं च । सेसा अट्ठवि नियमा गिहिणो य समुट्टिए जाण ॥ (पिनि ५१४,५१५) ग्रहणपणा के दोष साधु और गृहस्थ- दोनों से संबंधित हैं । शंकित और भावतः अपरिणत- ये दो दोष साधु से समुत्थित तथा शेष आठ दोष गृहस्थ से समुत्थित हैं। ८. ग्रहणषणा के प्रकार और विवरण संकिय मक्खिय निक्खित्त पिहिय साहरिय दायगुम्मी से । अपरिणय लित्त छडिय एसणदोसा दस हवंति ॥ ( पिनि ५२० ) ग्रहणैषणा के दस प्रकार हैं १. शंकित - - आधा कर्म आदि दोषों की संभावना । २. म्रक्षित - सचित्त रजों से युक्त हाथ आदि । ३. निक्षिप्त- सचित्त वस्तु पर स्थापित देय वस्तु । ४. पिहित - सचित्त वस्तु से ढकी हुई देय वस्तु । Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म्रक्षित १६३ एषणासमिति ५. संहृत-देय पात्र से सचित्त निकालकर देना । • संस्निग्ध-ईषत् आर्द्र हाथ । ६. दायक-अविधि से देने वाला अंधा, पंगू व्यक्ति । ० उदकाई-गीले हाथ । ७. उन्मिश्र-सचित्त और अचित्त का मिश्रण । ३. वनस्पतिकाय - वनस्पति के प्रचर रस तथा प्रत्येक ८. अपरिणत ..- जो पूर्ण प्रासुक न हो। और साधारण वनस्पति के श्लक्ष्णखंडों से लिप्त ९. लिप्त -खरड़ा हुआ, दही आदि से लिप्त पात्र हाथ। आदि से देना। एवं उदओल्ले ससिणिद्धे, ससरक्खे मट्टिया ऊसे । १०. छदित ---अशन आदि को भूमि पर गिराते हए हरियाले हिंगुलए, मणोसिला अंजणे लोणे ।। देना । गेरुय वण्णिय सेडिय, सोरट्रिय पिटु कुक्कुसकए य। १. शंकित उक्कट्ठमसंसठे, संसठे चेव बोधव्वे ॥ जं भवे भत्तपाणं तु, कप्पाकप्पम्मि संकियं । असंसद्रुण हत्थेण, दव्वीए भायणेण वा । देंतियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥ दिज्जमाणं न इच्छेज्जा, पच्छाकम्मं जहिं भवे ।। (द ५११४४) (द ५।१।३३-३५) जो भक्तपान कल्प और अकल्प की दृष्टि से शंका- जल से आर्द्र, सस्निग्ध, सचित्त रजकण, मृत्तिका, युक्त हो, उसे देती हुई स्त्री को मुनि प्रतिषेध करे -इस क्षार, हरिताल, हिंगुल, मैनशिल, अञ्जन, नमक, गैरिक, प्रकार का आहार मैं नहीं ले सकता । वणिका, श्वेतिका, सौराष्ट्रिका, तत्काल पीसे हुए आटे या कच्चे चावलों के आटे, अनाज के भूसे या छिलके २. म्रक्षित और फल के सूक्ष्म खण्ड से सने हुए (हाथ, कड़छी और दुविहं च मक्खियं खलु सच्चित्तं चेव होइ अच्चित्तं । बर्तन से भिक्षा देती हुई स्त्री) को मूनि प्रतिषेध करेसच्चित्तं पुणं तिविहं अच्चित्तं होइ दुविहं तु ।। इस प्रकार का आहार में नहीं ले सकता। जहां पश्चात् (पिनि ५३१) कर्म का प्रसंग हो, वहां असंसष्ट (भक्तपान से अलिप्त) म्रक्षित के दो प्रकार हैं हाथ, कड़छी और बर्तन से दिया जाने वाला आहार १. सचित्त म्रक्षित--सचित्त वस्तु से लिप्त हाथ मुनि न ले। आदि । तहेव सत्तुचुण्णाई, कोलचुण्णाई आवणे । २. अचित्त म्रक्षित ---अचित्त वस्तु से लिप्त हाथ सक्कुलिं फाणियं पूर्य, अन्नं वा वि तहाविहं ॥ आदि । विक्कायमाणं पसढं, रएण परिफासियं । पुढवी आउ वणस्सइ तिविहं सच्चित्तमक्खियं होइ। देंतियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥ अच्चित्तं पुण दुविहं गरहियमियरे य भयणा उ ।। (द ५११७१,७२) सुक्केण सरक्खेणं मक्खिय मोल्लेण पूढविकाएण । सत्तु, बेर का चूर्ण, तिल-पपड़ी, गीला गुड़, पूआसव्वंपि मक्खियं तं एत्तो आउंमि वोच्छामि ।। पुरपच्छकम्म ससिणिद्धदउल्ले चउरो आउभेयाओ। इस तरह की दूसरी वस्तुएं भी जो बेचने के लिए रखी हों, परन्तु न बिकी हों, रज से स्पृष्ट हो गई हों तो मुनि उक्किट्ठरसालित्तं परित्तऽणतं महिरुहेसु ॥ (पिनि ५३२-५३४) देती हुई स्त्री को प्रतिषेध करे-इस प्रकार की वस्तुएं सचित्त म्रक्षित के तीन प्रकार हैं मैं नहीं ले सकता। १. पृथ्वीकाय -शुष्क या आर्द्र सचित्त रजों से लिप्त । संसद्रुण हत्थेण, दबीए भायणेण वा। २. अप्काय- इसके चार प्रकार हैं दिज्जमाणं पडिच्छेज्जा, जं तत्थेसणियं भवे ॥ • पुरःकर्म -आहार आदि देने से पूर्व साधु के (द ५।११३६) निमित्त जल से हाथ आदि धोना । संसृष्ट (भक्त-पान से लिप्त) हाथ, कड़छी और • पश्चात् कर्म-साधु को देने के पश्चात् जल से बर्तन से दिया जाने वाला आहार, जो वहां एषणीय हो, - हाथ धोना। मुनि ले ले। Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एषणासमिति पुरेकम्मेण हत्थे, दव्वीए भायणेण वा । देतियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥ (द ५।१1३२ ) पुराकर्म कृत हाथ, कड़छी और बर्तन से भिक्षा देती हुई स्त्री को मुनि प्रतिषेध करे - इस प्रकार का आहार मैं नहीं ले सकता । संसट्ठेयर हत्थो मत्तो विय दव्व सावसेसियरं । एएस अट्ठ भंगा नियमा गहणं तु ओएसु ॥ (पिनि ६२६ ) द्वितीयादिषु भंगेषु द्रव्ये निरवशेषे पश्चात्कर्मसम्भवान्न कल्पते, प्रथमादिषु तु पश्चात्कर्मासम्भवात्कल्पते । (पिनिवृप १६९ ) असंसृष्ट और संसृष्ट के आठ विकल्प होते हैं-१. संसृष्ट हस्त संसृष्ट मात्र ( पात्र ) सावशेषद्रव्य । २. संसृष्ट हस्त संसृष्ट मात्र निरवशेषद्रव्य । ३. संसृष्ट हस्त असंसृष्ट मात्र सावशेषद्रव्य । ४. संसृष्ट हस्त असंसृष्ट मात्र निरवशेषद्रव्य । ५. असंसृष्ट हस्त संसृष्ट मात्र सावशेषद्रव्य । ६. असंसृष्ट हस्त संसृष्ट मात्र निरवशेषद्रव्य । ७. असंसृष्ट हस्त असंसृष्ट मात्र सावशेषद्रव्य । ८. असंसृष्ट हस्त असंसृष्ट मात्र निरवशेषद्रव्य । इनमें दूसरे, चीथे, छठे और आठवें विकल्प में पश्चात् कर्म की संभावना होने के कारण उन रूपों में भिक्षा लेने का निषेध और शेष रूपों में उसका विधान है । ३. मिक्षिप्त असणं पाणगं वा वि, खाइमं साइमं तहा । उदगम होज्ज निक्खित्तं, उत्तिगपणगेसु वा ॥ ..... उम्मि होज्ज निक्खित्तं तं च संघट्टिया दए ॥ तं भवे भत्तपाणं तू संजयाण अकप्पियं । .... १६४ (द ५३१।५९,६१,६२) यदि अशन, पानक, खाद्य और स्वाद्य पानी, उत्तिंग और पनक पर निक्षिप्त ( रखा हुआ ) हो, अग्नि पर निक्षिप्त हो और अग्नि का स्पर्श कर दे तो वह भक्तपान संयती के लिए अकल्पनीय होता है । ४. पिहित सच्चित्ते अच्चित्ते मीसग पिहियंमि होइ चउभंगो । आइतिगे पडिसेहो चरिमे भंगंमि भयणा उ ॥ संहृत गुरु गुरुणा गुरु लहुणा लहुयं गुरुएण दोऽवि लहुयाई । अच्चित्ते वि पिहिए चउभंगो दोसु अग्गेज्भं ॥ (पिनि ५५८, ५६२) सचित्त, अचित्त, मिश्र - इन तीन पदों के आधार पर पिहित वस्तु की तीन चतुभंगियां बनती हैं । प्रथम चतुर्भंगी - १. सचित्त से पिहित सचित्त देय वस्तु २. मिश्र से पिहित सचित्त देय वस्तु ३. सचित्त से पिहित मिश्र देय वस्तु ४. मिश्र से पिहित मिश्र देय वस्तु ये चारों विकल्प अकल्पनीय (अग्राह्य) हैं । द्वितीय चतुभंगी १. सचित्त से पिहित सचित्त देय वस्तु २. अचित्त से पिहित सचित्त देय वस्तु ३. सचित्त से पिहित अचित्त देय वस्तु ४. अचित्त से पिहित अचित्त देय वस्तु इनमें प्रथम तीन विकल्प अकल्पनीय हैं । चतुर्थ विकल्प में भजना है। तृतीय चतुभंगी - १. मिश्र से पिहित मिश्र देय वस्तु २. मिश्र से पिहित अचित्त देय वस्तु ३. अचित्त से पिहित मिश्र देय वस्तु ४. अचित्त से पिहित अचित्त देय वस्तु इनमें प्रथम तीन विकल्प अकल्पनीय । चतुर्थ विकल्प में भजना है। इस चतुर्थ विकल्प की चतुभंगी बनती है १. भारी वस्तु से पिहित भारी देय वस्तु २. हल्की वस्तु से पिहित भारी देय वस्तु ३ भारी वस्तु से पिहित हल्की देय वस्तु ४. हल्की वस्तु से पिहित हल्की देय वस्तु इनमें प्रथम और तृतीय भंग अग्राह्य है, द्वितीय और चतुर्थ भंग ग्राह्य है । ५. संहृत मत्तेण जेण दाहि तत्थ अदिज्जं तु होज्ज असणाई । छोढु तयन्नहि तेणं देई अह होइ साहरणं ॥ (पिनि ५६५ ) जिस पात्र से भिक्षा दी जा रही हो, उसमें यदि Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दायक कोई अदेय (सचित्त आदि) वस्तु हो तो उसे अलग निकालकर देय वस्तु देना संहृत दोष है । साहट्ट निक्खिवित्ताणं, सच्चित्तं घट्टिया य । तहेव समणट्टाए, उदगं संपणोल्लिया ॥ आगाहइत्ता चलइत्ता, आहरे पाणभोयणं । देतियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥ (द ५।१।३०, ३१) एक बर्तन में से दूसरे बर्तन में निकालकर, सचित्त वस्तु पर रखकर, सचित्त को हिलाकर इसी तरह पात्रस्थ सचित्त जल को हिलाकर जल में अवगाहन कर, आंगन दुले हुए जल को चालित कर श्रमण के लिए आहार पानी लाए तो मुनि उस देती हुई स्त्री को प्रतिषेध करेइस प्रकार का आहर मैं नहीं ले सकता । ६. दायक सम्मद्दमाणी पाणाणि, बीयाणि हरियाणि य । असंजमकरि नच्चा, तारिसं परिवज्जए । (द ५।१।२९) प्राणी, बीज और हरियाली को कुचलती हुई स्त्री असंयमकरी होती है यह जान मुनि उसके पास से भक्त - पान न ले । गुव्विणीए नवन्नत्थं विविहं पाणभोयणं । भुज्जमाणं विवज्जेज्जा, भुत्तसेसं पडिच्छए । (द ५।१।३९) गर्भवती स्त्री के लिए बना हुआ विविध प्रकार का भक्तपान वह खा रही हो तो मुनि उसका वर्जन करे, खाने के बाद बचा हो, वह ले ले । सिया य समणट्टाए, गुब्विणी कालमासिणी । या वा निसीएज्जा, निसन्ना वा पुणुट्ठए | थणगं पिज्जेमाणी, दारगं वा कुमारियं । तं निक्खिवित्तु रोयतं, आहरे पाणभोयणं ॥ (द ५।१/४०, ४२ ) कालमासवती गर्भिणी खड़ी हो और श्रमण को भिक्षा देने के लिए कदाचित् बैठ जाए अथवा बैठी हो और खड़ी हो जाए तो उसके द्वारा दिया जाने वाला भक्तपान श्रमण के लिए अकल्प्य होता है । बालक या बालिका को स्तनपान कराती हुई स्त्री उसे रोते हुए छोड़ भक्तपान लाए तो वह भक्तपान संयति के लिए अकल्पनीय होता है । १६५ एवं उस्सक्किया ओसक्किया उज्जालिया पज्जालिया निव्वाविया । उस्सि चिया निस्सिचिया एषणासमिति ओवत्तया ओयारिया दए । (द ५।१।६३) इसी प्रकार (चूल्हे में) ईंधन डालकर, ( चूल्हे से ) ईंधन निकालकर, (चूल्हे को ) उज्ज्वलित कर ( सुलगा कर), प्रज्वलित कर ( प्रदीप्त कर), बुझाकर, अग्नि पर रखे हुए पात्र में से आहार निकालकर, पानी का छींटा देकर, पात्र को टेढ़ा कर उतार कर दे तो वह भक्तपान संयति के लिए अकल्पनीय होता है । अपात्र दायक बाले बुड्ढे मत्ते उम्मत्ते थेविरे य जरिए य । अंधिल्लए (य) गरिए आरूढे पाउयाहि च ॥ हत्थिदुनिय बद्धे विवज्जिए चेव हत्थपाएहिं । तेरासि गुब्विणी बालवच्छ भुंजंति घुसुलिती ॥ भज्जती य दलंती कंडती चेव तह य पीसंती । पींजती रुचती कत्तंति पमद्दमाणी य ॥ छक्कायवग्गहत्था समणट्टा निक्खिवित्तु ते चेव । ते चेवोगाहंती संघट्टतारभंती य ॥ संसत्तेण य दव्वेण लित्तहत्था य लित्तमत्ता य । उव्वत्तंती साहारणं व दिती य चोरिययं ॥ पाहुडियं च ठवंती सपच्चवाया परं च उद्दिस्स । आभोगमणाभोगेण दलंती वज्जणिज्जा ए ॥ बालादीनां दायकानां मध्ये केषाञ्चिन्मूलत आरभ्य पंचविंशतिसंख्यानां ग्रहणं भजनीयं केषाञ्चित् षट्कायव्यग्रहस्तादीनां पंचदशानां हस्तादग्रहणं भिक्षायाः । (पिनि ५७२-५७७ वृप १५८ ) निम्न चालीस व्यक्तियों के हाथ से भिक्षा लेने का निषेध - १. बाल २. अतिवृद्ध ३. उन्मत्त ४. यक्षाविष्ट ५. कम्पमानशरीर ६. ज्वरग्रस्त ७. अन्धा Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निषेध के हेतु दायक ८. कोढी पन्द्रह प्रकार के व्यक्तियों के हाथ से भिक्षा लेने का - ९. खड़ाऊ पहने हुए निषेध है। १०. हथकड़ी पहने हुए निषेध के हेतु ११. बेड़ियों से बद्ध कब्बढिग अप्पाहण दिन्ने अन्नन्न गहण पज्जत्तं । १२. हाथ-पैर कटे हुए खंतिय मग्गणदिन्ने उड्डाह पओस चारभडा ।। १३. नपुंसक थेरो गलंतलालो कंपणहत्थो पडिज्ज वा देंतो । १४. गर्भवती स्त्री अपहुत्ति य अचियत्तं एगयरे वा उभयओ वा ॥ १५. स्तनपान कराती हुई स्त्री अवयास भाणमेओ वमणं असुइत्ति लोग गरिहा य । १६ भोजन करती हुई स्त्री एए चेव उ मत्ते वमणविवज्जा य उम्मत्ते ।। १७. दधिमन्थन करती हुई स्त्री वेविय परिसाडणया पासे व छभेज्ज भाणभेओ वा । १८. चने भुनती हुई स्त्री एमेव य जरियंमिवि जरसंकमणं च उड्डाहो।। १९. गेहूं आदि पीसती हुई स्त्री उड्डाह कायपडणं अंधे भेओ य पास छहणं च । २०. ऊखल में चावल आदि कूटती हुई स्त्री तद्दोसी संकमणं गलंतभिसभिन्नदेहे य । २१. शिला पर तिल आदि पीसती हुई स्त्री पाउयदुरूढपडणं बद्ध परियाव असुइखिसा य । २२. रूई धुनती हुई स्त्री करछिन्नासुइ खिसा ते च्चिय पायेऽवि पडणं च ।। २३. कपास लोठती हुई (बीनती हुई) आयपरोभयदोसा अभिक्खगहणं मि खोभण नपुंसे । २४. सब्जी काटती हुई लोगदुगुंछा संका एरिसया नूणमेएऽवि ॥ २५ चरखा चलाती हुई गुम्विणि गब्भे संघट्टणा उ उठेंतुवेसमाणीए । बालाई मंसुंडग मज्जाराई विराहेज्जा ।। २६. हाथ में सचित्त जल, वनस्पति आदि हों भुंजती आयमणे उदगं छोटी य लोगगरिहा य । २७. सचित्त लवण आदि को नीचे रखती हई घुसुलंती संतत्ते करंमि लित्ते भवे रसगा । २८. छह काय को पैरों से चालित करती हुई दगबीए संघट्टण पीसणकंडदल भज्जणे उहणं । २९. छहकाय का शरीर से स्पर्श करती हुई पिंजंत रुचणाई दिन्ने लित्ते करे उदगं ।। ३०. छहकाय की हिंसा करती हई लोणं दग अगणि वत्थी फलाइ, मच्छाइ सजिय हत्थंमि । ३१. दही आदि से लिप्त हाथ पाएणोगाहणया संघट्टण सेसकाएणं ॥ ३२. दही आदि से लिप्त पात्र खणमाणी आरभए मज्जइ धोयइ व सिंचए किंचि । ३३. बड़े पात्र से निकाल कर देती हुई छेयविसारणमाई छिदइ छठे फुरुफुरुते ॥ ३४. दूसरों की वस्तु दे संसज्जिमम्मि देसे संसज्जिमदव्वलित्तकरमत्ता । संचारो ओयत्तण उक्खिप्पतेऽवि ते चेव ॥ ३५. चोरी की वस्तु दे साधारणं बहूणं तत्थ उ दोसा जहेव अणिसिट्ठे । ३६. अग्रकवल निकालती हुई चारियए गहणाई भयए सुण्हाइ वा दंते ।। ३७. गिरने आदि की सम्भावना हो पाहुडि ठवियगदोसा तिरिउड् ढमहे तिहा अवायाओ। ३८. अन्य साधु के लिए स्थापित कर देती हई धम्मियमाई ठवियं परस्स परसंतियं वावि ।। ३९. जान-बूझकर अशुद्ध देती हुई अणुकंपा पडिणीयट्ठया व ते कुणइ जाणमाणोऽवि । ४०. अनजान में अशुद्ध देती हुई। एसणदोसे बिइओ कुणइ उ असढो अयाणतो।। इनमें से बाल आदि पच्चीस तक की संख्या वाले (पिनि ५७९-५९०, ५९३-५९६) व्यक्तियों के हाथ से भिक्षाग्रहण की भजना है-विशेष यदि मुनि छोटे बच्चे से (जो घर में अकेला है) प्रयोजन होने पर इनसे भिक्षा ली जा सकती है। शेष भिक्षा लेता है तो प्रद्वेष और जनापवाद हो सकता है कि Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निषिद्धदायक संबंधी अपवाद १६७ एषणासमिति यह कैसा साधु, जो बच्चे से सब कुछ ले लेता है। वह बड़ा पात्र उठाकर उससे भिक्षा दे तो उसके नीचे वृद्ध, जिसके लार टपकती हो, उसके हाथ से भिक्षा रहे कीटिका आदि जन्तु मर सकते हैं। लेने से लोक में जुगुप्सा पैदा हो सकती है। उसके हाथ कर्मकर, पुत्रवधू आदि चोरी से कोई वस्तु दे तो कांपते हों, तो देय वस्तु अथवा वह स्वयं गिर सकता है। उसे लेने से ग्रहण-बन्धन-ताड़न आदि दोष संभव है। यदि घर में उसका प्रभूत्व न हो तो परिवार में अप्रीति बलि आदि के निमित्त स्थापित अयपिंड की भिक्षा भी उत्पन्न हो सकती है। लेने से प्रवर्तन आदि दोष लगते हैं। मदिरापायी, उन्मत्त आदि से भिक्षा लेने पर अन्य साधु के निमित्त स्थापित अथवा ग्लान आदि आलिंगन, पात्रभेदन, लोकगर्दा आदि दोष उत्पन्न हो के निमित्त से निर्मित भिक्षा लेने से अदत्तादान का दोष सकते हैं । कांपते व्यक्ति से भिक्षा लेने पर परिशाटन लगता है। आदि दोष संभव हैं। साधु की अनुकम्पा अथवा प्रत्यनीकता वश जानबूझ ज्वरग्रस्त अथवा कोढी से भिक्षा लेने पर रोगसंक्रमण अशुद्ध भिक्षा दे तो उसे लेने से आधाकर्म आदि एषणा हो सकता है। पादुकारूढ, बेडियों से बद्ध, हाथ- के दोष लगते हैं। पैर कटे हए-- इन व्यक्तियों से भिक्षा लेने पर लोक में इन सब दोषों की संभावना अथवा अनिवार्यता के निन्दा हो सकती है। इनके गिरने आदि से पन्तिाप हो कारण बालक आदि के हाथ से भिक्षा लेने का निषेध सकता है। किया गया है। नपंसक से निरन्तर भिक्षा लेने से काम उद्दीप्त हो निषिद्धदायक संबंधी अपवाद र सकता है। उससे अतिपरिचय होने पर लोगों में मुनि के आचार के प्रति शंका हो सकती है। भिक्ख मित्ते अवियालणा उ बालेण दिज्जमाणमि । स्तनपान कराती हुई अथवा गर्भवती स्त्री से भिक्षा संदिठे वा गहणं अइबहुय वियालणेऽणुन्ना ।। लेने पर बच्चे को कण्ट हो सकता है। थेर पह थरथरते धरिए अन्नेण दढसरीरे वा। भोजन करती हई स्त्री भिक्षा दे तो बीच में आचमन ..अव्वत्तमत्तसड्ढे अविभले वा असागरिए । सुइभद्दग दित्ताई दढग्गहे वेविए जरंमि सिवे । आदि करने पर जलजीवों की विराधना संभव है। अन्नधरियं तु सड़ढो देयंधोऽन्नेण वा धरिए । बिलौना करती हई से भिक्षा लेने में लिप्त-दोष संभव मंडलपसूतिकुट्ठीऽसागरिए पाउयागए अयले ।। धान्य का पेषण, कंडन या दलन करती हुई स्त्री से कमबद्धे सवियारे इयरे विठे असागरीए । भिक्षा लेने में सचित्त बीज आदि अथवा हाथ धोने से पंडग अप्पडिसेवी वेला थणजीवि इयर सव्वंपि । उक्खित्तमणावाए न किंचि लग्गं ठवंतीए । जल आदि की जीव-विराधना हो सकती है। पीसंती निप्पिटठे फासं वा घसूलणे असंसत्तं । इसी प्रकार रूई आदि के पिंजन, रुंचन, कर्तन आदि के समय भिक्षा देकर खरंटित हाथ धोने से जल कत्तणि असंखचन्न चुन्नं वा जा अचोक्खलिणी ।। जीवों की विराधों होती है। गेहूं आदि भुनने के समय उध्वट्टणि संसत्तेण वावि अट्ठील्लए न घट्टेइ । भिक्षा देने से गेहं आदि के जलने की संभावना रहती है। पिंजणपमद्दणेसु य पच्छाकम्मं जहा नत्थि ॥ सेसेसु य पडिवक्खो न संभवइ कायगहणमाईस् । लवण, उदक, अग्नि, हवा भरी हुई मशक, बीजयुक्त फल आदि को नीचे रखती हई, सचित्त पृथ्वी आदि का पडिवक्खस्स अभावे नियमा उ भवे तयग्गहणं ॥ स्पर्शन, खनन अथवा संघटन करती हई, सचित्त जल (पिनि ५९७-६०४) से स्नान, प्रक्षालन, सिंचन आदि करती हई स्त्री भिक्षा बालक, वृद्ध आदि के हाथ से भिक्षा लेने का निषेध दे तो इससे छह जीवनिकाय के आरंभ से हिंसा का दोष वैकल्पिक है- निम्न स्थितियों में उनके हाथ से भिक्षा लगता है। ली जा सकती हैदही आदि से संसक्त हाथ आदि से भिक्षा लेने से बालक को मां आदि से अनुज्ञा प्राप्त होने पर उससे रसजीवों की हिंसा होती है। भिक्षा ली जा सकती है। Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एषणासमिति नवकोटि शुद्ध भिक्षा - वृद्ध व्यक्ति यदि अन्य व्यक्ति का सहारा लिये हुए और हरियाली से उन्मिश्र हो तो वह भक्तपान संयति के हो, सुदृढ़ शरीर वाला हो अथवा घर का स्वामी हो तो लिए अकल्पनीय होता है। उससे भिक्षा ली जा सकती है। ८. अपरिणत मत्त व्यक्ति श्रावक हो, परवश न हो, वहां अन्य कंद मूलं पलंबं वा. आमं छिन्नं व सन्निरं । गृहस्थ न हो तो उससे भिक्षा ली जा सकती है। तुंबागं सिंगबेरं च, आमगं परिवज्जए । उन्मत्त, यक्षाविष्ट व्यक्ति पवित्र और भद्र हो, कम्पमान व्यक्ति के हाथ से वस्तु न गिर रही हो, ज्वरित (द ५।१।७०) व्यक्ति का ज्वर उतर गया हो, अन्धा व्यक्ति देय वस्तु मुनि अपक्व कंद, मूल, फल, छिला हुआ पत्ती का शाक, घीया और अदरक न ले। को पुत्र आदि के हाथ के सहारे दे रहा हो-इन सबके हाथ से भिक्षा ली जा सकती है। ९. लिप्त झरता हुआ कोढ न हो, सामने अन्य गृहस्थ न हो घेत्तव्वमलेवकडं लेवकडे मा ह पच्छकम्माई। तो कोढी व्यक्ति से भिक्षा ग्राह्य है। न य रसगेहिपसंगो॥ (पिनि ६१३) पादुकारूढ व्यक्ति स्थिर हो, सांकल से बंधा व्यक्ति लेपकृति गृह्यमाणे पश्चात्कर्मादयो दध्यादिलिप्तचलने में कष्ट का अनुभव न करता हो, हाथ-पैर कटा हस्तादिप्रक्षालनादिरूपा दोषाः । आदिशब्दात् कीटिव्यक्ति बैठा हो, पास में अन्य गृहस्थ न हो तो इन सबके . कादिसंसक्तवस्त्रादिना प्रोच्छनादिपरिग्रहः । हाथ की भिक्षा ग्राह्य है। (पिनिवृ प १६६) अप्रतिसेवी नपुंसक से भिक्षा ली जा सकती है। कालमास प्राप्त गर्भवती स्त्री से तथा स्तनोपजीवी बाल मुनि को अलेपकृत आहार ग्रहण करना चाहिये । यक्त स्त्री से स्थविरकल्पी भनि भिक्षा नहीं लेते। जिन- इससे रसगृद्धि का प्रसंग नहीं आता। लेपकृत आहार कल्पी मनि गर्भवती स्त्री मात्र से तथा जिसका शिश अभी लेने से पश्चात्कम आदि दोष लगते हैं-दही आदि से बाल अवस्था में है, उस स्त्री से भिक्षा नहीं लेते । मंग लिप्त हाथों को सचित्त जल से धोया जाता है। आदि का कंडन करती हुई स्त्री मुशल को निरवद्य स्थान १०. छदित में रख भिक्षा दे सकती है । मुशल पर सचित्त बीज न लगा हो तो वह भिक्षा कल्पनीय है।। आहरंती सिया तत्थ, परिसाडेज्ज भोयणं । देंतियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥ ___ इसी प्रकार अचित्त धान्य पीसती हुई, शंखचूर्ण आदि से असंसक्त दधि को मथती हुई, सचित्त चूर्ण से (द ५।१।२८) अलिप्त हाथों से सूत कातती हुई स्त्री से तथा जहां भी यदि साधु के पास भोजन लाती हई गहिणी उसे पश्चात् कर्म आदि दोषों की संभावना न हो तो उसके गिराए तो मुनि उस देती हुई स्त्री को प्रतिषेध करे- इस हाथ से भिक्षा ली जा सकती है। प्रकार का आहार मैं नहीं ले सकता। जहां छह काय के जीवों की विराधना का प्रसंग ६. नवकोटि शुद्ध भिक्षा हो, वहां कोई अपवाद नहीं है, वैसी भिक्षा अग्राह्य ही ... णवकोडीपरिसुद्धं उग्गम-उप्पायणेसणासुद्धं ।... (दनि ४४) ७. उन्मिथ प्रथमतः कोटयो नव भवन्ति, तद्यथा-स्वयं हननअसण पाणगं वा वि, खाइमं साइमं तहा । मन्येन घातनमपरेण हन्यमानस्यानुमोदनं, तथा स्वयं पुप्फेस होज्ज उम्मीसं, बीएसु हरिएसु वा ॥ पचनमन्येन पाचनमपरेण पच्यमानस्यानुमोदनं, तथा तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पियं ।... स्वयं क्रयणमन्येन क्रायणमपरेण क्रीयमाणस्यानुमोदनम् । (द ५।११५७,५८) इहाद्याः षडविशोधिकोटयोऽन्तिमास्तु तिस्रो विशोधियदि अशन, पानक, खाद्य और स्वाद्य पुष्प, बीज कोटयः । (पिनिवृ प ११९) Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेषणीय आहार'''' कोटि के नौ प्रकार हैंहनन - १. स्वयं हिंसा करना २. दूसरे से हिंसा करवाना ३. हिंसा का अनुमोदन करना पाचन - ४. स्वयं पकाना, ५. दूसरों से पकवाना ६. पचन - पाचन का अनुमोदन करना क्रयण - ७. स्वयं खरीदना, ८. दूसरों से खरीदवाना ९. खरीदने का अनुमोदन करना । इनमें प्रथम छह भेद अविशोधिकोटि के और अंतिम तीन भेद विशोधिकोटि के हैं । इन नौ कोटियों तथा उद्गम - उत्पाद - एषणा के दोषों से रहित शुद्ध आहार आदि मुनि के लिए ग्राह्य है । १०. अनेषणीय आहार आदि का दुष्परिणाम उद्देयं कीकडं नियागं, न मुंबई किंचि आहेस णिज्जं । अग्गी विवा सव्वभक्खी भवित्ता, इओ चुओ गच्छइ कट्टु पावं ॥ ( उ २०/४७) जो औद्देशिक, क्रीतकृत, नित्याग्र और कुछ भी औपम्य संख्या - संख्या प्रमाण का चौथा प्रकार । अनेषणीय को नहीं छोड़ता वह अग्नि की तरह सर्वभक्षी (द्र.संख्या) होकर पापकर्म का अर्जन करता है और यहां से मरकर औपशमिक सम्यक्त्व - मोहकर्म के उपशमं से प्राप्त दुर्गति में जाता है । (द्र. सम्यक्त्व ) अथवा घटनात्मक वचन सम्यक्त्व । जे नियागं ममायंति कीयमुद्दे सियाह । वहं ते समजणंति, इइ वृत्तं महेसिणा ।। (द ६।४८ ) १६९ जो जिस रूप में ग्रहण किया है, उसे उसी रूप में रखना - सार - असार भोजन को विभक्त न करना विधिगृहीत है । क्षमता । सदोष भिक्षा लेना तथा सरस, मनोज्ञ द्रव्य को नीरस द्रव्य से ढक देना अविधिगृहीत है । औत्पत्तिकी बुद्धि - अदृष्ट तथा अश्रुत अर्थ के विषय में तत्काल उत्पन्न होने वाली ( द्र. बुद्धि ) औदयिक भाव - कर्मों के उदय से होने वाली आत्मा की अवस्था । (द्र भाव ) औदारिक शरीर - स्थूल पुद्गलों से निष्पन्न तथा रस आदि सप्तधातुमय शरीर । ( द्र. शरीर ) औद्देशिक-अमुक-अमुक साधु को उद्दिष्ट कर बनाया जाने वाला आहार आदि । एषणा ( उद्गम ) का एक दोष । (द्र. एषणा ) जो नित्यग्र, क्रीत, औद्दे शिक और आहृत (निर्ग्रन्थ के निमित्त दूर से लाया गया) आहार ग्रहण करते हैं-वे प्राणिवध का अनुमोदन करते हैं - ऐसा महर्षि महावीर ने कहा है । सोलस उग्गमदोसा सोलस उप्पायणाए दोसा उ । दस एसणाएँ दोसा संजोयणमाइ पंचेव ॥ ( पिनि ६६९ ) एषणा के सैंतालीस दोष हैं - उद्गम के सोलह, उत्पादना के सोलह एषणा के दस और मांडलिक के पांच । . उग्गमदोसाइजढं अहवा बीअं जहि जहापडिअं । इय एसो गहणविही असुद्ध पच्छायणे अविही || (ओभा २९५) उद्गम आदि दोषों से रहित शुद्ध भिक्षा लेना और कथा - काल्पनिक पद्धति | १. कथा की परिभाषा २. कथा के प्रकार • अर्थकथा ० कामकथा ० धर्मकथा • मिश्रकथा ३. अर्थकथा के अंग ४. कामकथा के अंग ५. धर्मकथा के प्रकार • आक्षेपणी • विक्षेपणी ० संवेजनी ० निर्वेदनी कथा Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथा ६. मिश्रकथा ७. कथा के अन्य प्रकार - कथा, अकथा, विकथा • विकथा के प्रकार * धर्मकथा : स्वाध्याय का एक भेव * धर्मकथा के परिणाम * स्त्रीकथा से ब्रह्मचर्य की हानि १. कथा को परिभाषा तवसंजमगुणधारी जं चरणरया सव्वजगज्जीवहियं सा उ कहा कहेंति सम्भावं । देसिया समए ॥ ( दनि १०९ ) कथा वह है, जिसमें सद्भाव / यथार्थता का निरूपण हो और जो सब जीवों का हित करने वाली हो । २. कथा के प्रकार १७० (व्र. स्वाध्याय) ( द्र. स्वाध्याय) (व्र. ब्रह्मचर्यं) अत्थकहा कामकहा धम्मकहा चेव मीसिया य कहा । एत्तो एक्केक्का वि य णेगविहा होइ नायव्वा ॥ (दनि ९२ ) कथा के चार प्रकार हैं - अर्थकथा, कामकथा, धर्मकथा और मिश्रकथा । इनमें से प्रत्येक कथा के अनेक प्रकार हैं । ३. अर्थकथा के अंग विज्जा सिप्पमुवाओ अणिवेओ संचओ य दक्खत्तं । सामं दंडो भेओ उवप्पयाणं च अत्थकहा || (दनि ९३ ) संचय, दक्षता, साम, उपार्जन के हेतु हैं । विद्या, शिल्प, उपाय, अनिर्वेद दंड, भेद और उपप्रदान- ये अर्थ इनकी कथा करना अर्थकथा है । ४. कामकथा के अंग रूवं वतो व वेसो दक्खिण्णं सिक्खियं च विसएसुं । दिट्ठ सुयमणुभूयं च संथवो चैव कामकहा ॥ (दनि ९५ ) रूप, वय, वेश, दक्षता, विषयकला का शिक्षण, दृष्ट, श्रुत, अनुभूत तथा परिचय — ये कामकथा के अंग I | ५. धर्मकथा धम्मका बोधव्वा चउव्विहा धीरपुरिसपण्णत्ता अक्खेवण faraafr संवेगे चेव निव्वेए ॥ (दनि ९६ ) जाए सोता रंजिज्जति सा अक्खेवणी । विविहं विष्णाण - विसयादीहि खिवति विक्खेवणी । संवेगं संसारदुक्खेहितो जणेति संवेदणी । भोगेहिंतो निव्वेदणी । ( अचू पृ ५५ ) धर्मकथा के चार प्रकार हैं १. आक्षेपणी आक्षेपणी कथा आक्षेपणी कथा २. विक्षेपणी - सन्मार्ग की स्थापना करने वाली कथा । ३. संवेजनी -- सांसारिक दुःखों का प्रतिपादन कर वैराग्य उत्पन्न करने वाली कथा | ४. निर्वेदनी - भोगों के प्रति उदासीन बनाने वाली कथा । ज्ञान - चारित्र आदि में आकर्षण उत्पन्न करने वाली कथा | ज्ञान, चारित्र, तप, वीर्य, विषयों से सम्बन्धित प्रज्ञापन और यही आक्षेपण कथा का रस आक्षिप्यन्ते मोहात् तत्त्वं इत्याक्षेपणी । विज्जा चरणं च ततो पुरिसक्कारो य समितिगुत्तीओ । उवइस्सइ खलु जहियं कहाइ अक्खेवणीइ रसो ॥ ( दनि ९७ ) समिति और गुप्ति- -इन करना आक्षेपणी कथा है - सार है । प्रत्यनया भव्यप्राणिन ( दहावृप ११० ) भव्य जीवों को मोह से दूर कर तत्त्व के प्रति आकृष्ट करने वाली कथा आक्षेपणी कथा है । अक्खेवणी चतुव्विहा, तं जहा - आयारक्खेवणी, हारखेवणी, पण्णत्तअक्खेवणी, दिट्ठिवाय अक्खेवणी । १. साधुणो अट्ठारससीलंगसहस्सधारका बारस विहतवोकम्मरता दुक्करकारक त्ति आयारक्खेवणी । २. अक्खित्तम सोतारेसु एवं परूविज्जति दुरणुचरतवोजुत्ता वि साधुणो जदि किंचि अतिचरंति तो जहा अव्यवहारिस्स लोए डंडो कीरति तहा पायच्छित्तं ति ववहारक्खेवणी । ३. संदेहसमुग्धाते णिव्वेदकर - मधुर - सउवायपण्णत्तिगतोदाहरणेहिं पत्तियावणं पण्णत्तिअक्खेवणी | Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेजनी कथा ४. दव-जीवातिचिता णिपुणमतीसु सोतारेसु विविधभंगणवादसमुपगूढा दिट्टिवादअक्खेवणी | ( अचू पृ ५६ ) --- आक्षेपणी कथा के चार प्रकार हैं१. आचार आक्षेपणी — जिसमें साधु के आचार और तप का निरूपण हो । २. व्यवहार आक्षेपणी- जिसमें व्यवहार प्रायश्चित्त का निरूपण हो । ३. प्रज्ञप्ति आक्षेपणी- जिसमें संशयग्रस्त श्रोता को समझाने के लिए निरूपण हो । ४. दृष्टिवाद आक्षेपणी- जिसमें श्रोता की योग्यता के अनुसार विविध नयदृष्टियों से तत्त्व का निरूपण हो । विक्षेपणी कथा १७१ जा ससमयवज्जा खलु होइ कहा लोग - वेयसंजुत्ता । परसमयाणं च कहा एसा विक्खेवणी नाम ॥ जा ससमएण पुव्वि अक्खाया तं छुभेज्ज परसमए । परसासणवक्खेवा परस्स समयं परिकहेति ॥ (दनि ९८,९९ ) स्व- सिद्धान्त से शून्य तथा रामायण, वेद आदि लौकिक सिद्धान्तों से युक्त और पर- सिद्धान्त का कथन करने वाली कथा विक्षेपणी कथा है । स्व-सिद्धान्त की बात का पर- सिद्धान्तों में क्षेपण करना तथा कथ्यमान परशासन के व्याक्षेप के द्वारा परसमय का कथन करना विक्षेपणी कथा है । विक्षिप्यतेऽनया सन्मार्गात् कुमार्गे कुमार्गाद्वा सन्मार्गे श्रोतेति विक्षेपणी । ( दहावृप १११ ) जिस कथा को सुनकर श्रोता सन्मार्ग से कुमार्ग में अथवा कुमार्ग से सन्मार्ग में प्रस्थित होता है, वह विक्षेपणी कथा है। कहिऊण ससमयं तो कहेइ परसमयमह विवच्चासा । मिच्छा सम्मावाए एमेव हवंति दो भेया ॥ ( दहावृप ११० ) विक्षेपणी कथा के चार प्रकार हैं१. अपने सिद्धांत का प्रतिपादन कर फिर दूसरों के सिद्धांत का प्रतिपादन करना । २. दूसरों के सिद्धांत का प्रतिपादन कर फिर अपने सिद्धांत की स्थापना करना । ३. सम्यकवाद का प्रतिपादन कर फिर मिथ्यावाद का प्रतिपादन करना । ४. मिथ्यावाद का प्रतिपादन कर फिर सम्यग्वाद की स्थापना करना । कथा कथा-कथन का पौर्वापर्य वेणतितस्स पढमया कहा उ अक्खेवणी कहेतव्वा । तो ससमयगतित्थे कहेज्ज विक्खेवणी पच्छा ॥ अक्खेवणिअक्खित्ता जे जीवा ते लभंति सम्मत्तं । विक्खेवणीए भज्जं गाढतरागं व मिच्छत्तं ॥ ( दनि १०३, १०४ ) सर्वप्रथम श्रोता को आक्षेपणी कथा सुनानी चाहिए । इससे स्व-सिद्धांत का अर्थ जान लेने पर विक्षेपणी कथा करनी चाहिए। आक्षेपणी कथा से आकृष्ट श्रोता सम्यक्त्व को प्राप्त करता है । विक्षेपणी कथा में सम्यक्त्व की प्राप्ति वैकल्पिक है । अपने मिथ्या अभिनिवेश के कारण श्रोता इस कथा से सघन मिथ्यात्व को भी प्राप्त कर सकता है । संवेजनी कथा वीर - विव्वणिड्ढी नाण-चरण-दंसणस्स तह इड्ढी । उवइस्सइ खलु जहियं कहाइ संवेयणीइ रसो ॥ ( दनि १०० ) आकाशगमनजङ्घाचारणादि'ज्ञानचरणदर्शनानां तथद्ध:' चोद्दसपुव्वी घडाओ घडविउव्वित्तए ?, हंता पहू ( दहावृप ११२ ) जिस कथा में संवेग के सारभूत रस का प्रतिपादन होता है, वह संवेजनी कथा है। जैसे वीर्यवैंक्रियऋद्धियह तप के सामर्थ्य से उत्पन्न होती है । इस लब्धि वाला व्यक्ति मेरुपर्वत पर जाने की शक्ति अर्जित कर लेता है । इससे आकाशगमन और जंघाचारण की शक्ति के साथ विविध रूपों के निर्माण की क्षमता भी पैदा हो जाती है । यह ऋद्धि ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप भी होती है। चौदहपूर्वी मुनि एक घट से हजार घट और एक पट से हजार पट बना सकता है - यह ज्ञान ऋद्धि है । तपःसामर्थ्योद्भवा वीर्य क्रियनिर्माणलक्षणा तत्र ज्ञानद्धः 'पभू णं भंते ! सहस्सं पडाओ पडसहस्सं विउव्वित्तए । ' सुभाणं कम्माणं विपाककहणेणं संवेगमुप्पाएति - जहा इहलोए चेव इमाओ लद्धीओ सुभकम्माणं भवति । ( अचू पृ ५७ ) Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथा १७२ मिश्रकथा शुभ कर्मों के परिणामों का प्रतिपादन करने से संवेग निव्वेदणी। बितिया निव्वेदणी-इहलोए दुच्चिण्णा कुम्मा उत्पन्न होता है। जैसे-इस लोक में वैक्रिय आदि परलोए दुहविवागसंजुत्ता भवन्ति । जहा णे रतियाणं इह लब्धियां शुभ कर्मों के फलस्वरूप होती हैं। मणुस्सभवे कतं कम्म णिरयभवे फलति । ततिया निव्वेसंवेगणी चतुव्विहा, तं जहा-आतसरीरसंवेदणी, गणी-परलोए दुच्चिण्णा कम्मा इहलोकदुहविवागसंजुत्ता परसरीरसंवेदणी, इहलोगसंवेदणी, परलोगसंवेदणी। भवंति। जहा बालत्तणे चेव दरिद्कुलसंभूता खय-कुट्ठ आयसरीरसंवेदणी-जं एतं अम्हं तुभं वा सरीरयं जलोयराभिभूता। चतुत्थी निव्वेगणी-परलोए दुच्चिण्णा एयं सुक्क-सोणित-वसा-मेत-संघातनिप्फण्णं मुत्त-पूरीस- __ कम्मा परलोए चेव दुहविवागसंजुत्ता भवति । जहा पुन्वि भायणत्तणेण य असुति त्ति कहेमाणो सोतारस्स दुक्कएहि कम्मेहिं चंडालादिदुगंछितजातीजाता एकताणिसंवेगमुप्पादयति । द्धंधसा णिरयसंवत्तणीयं पूरेऊणं णिरयभवे वेदंति । परसरीरसंवेदणीए वि परसरीरमेवमेवासुति, अहवा (दअचू पृ ५७) परतो मततो, तस्स सरीरं वण्णेमाणो संवेगमप्पाएति । निवेदनी कथा के चार प्रकार हैं इहलोकसंवेदणी जहा-सव्वमेव माणुस्समणिच्चं १. इहलोक में दुश्चीर्ण कर्म इसी लोक में फल देने कदलीथंभनिस्सारं एवं संवेगमुप्पाएति । वाले होते हैं। जैसे-चोर, पारदारिक आदि के परलोकसंवेदणी जहा- जति देवेसु वि एरिसाणि कर्म। दुक्खाणि णरग-तिरिएस को विम्हतो? (दअच प ५७) २. इहलोक में दुश्चीर्ण कर्म परलोक में दुःखमय फल संवेजनी कथा के चार प्रकार हैं-- देने वाले होते हैं। जैसे-नैरयिकों को मनुष्य भव १. आत्मशरीर संवेजनी-शरीर की अशुचि का वर्णन में कृत कर्म नरक में फल देते हैं। कर श्रोता के मन में संवेग उत्पन्न करने वाली ३. पूर्वभव में दुश्चीर्ण कर्म इहभव में दुःखमय फल देने कथा। वाले होते हैं। जैसे-दरिद्रकुल में उत्पन्न कोई-कोई २. परशरीर संवेजनी-परशरीर अथवा मृतक के जीव बचपन में ही क्षय, कोढ, जलोदर आदि रोगों शरीर की अशुचि का वर्णन कर संवेग उत्पन्न करने से अभिभूत हो जाता है। वाली कथा। ४. पूर्वभव में दुश्चीर्ण कर्म परभव में दुःखमय फल देने ३. इहलोक संवेजनी-मनुष्य-जीवन की असारता वाले होते हैं। जैसे–पूर्वभव में कृत दुष्कर्मों के दिखाने वाली कथा। द्वारा चंडाल आदि जुगुप्सनीय जातियों में उत्पन्न । ४. परलोक संवेजनी-देव, तिर्यंच और नरक के जन्मों हो अत्यन्त क्रूर कर्म कर नरक में उन कर्मों का वेदन करना। की मोहमयता व दुःखमयता बताने वाली कथा। कथा से संवेग-निर्वेद निवेदनी कथा सिद्धी य देवलोगो सुकुलुप्पत्ती य होइ संवेगो। पावाणं कम्माणं असुभविवागो कहिज्जए जत्थ । नरगो तिरिक्खजोणी कुमाणुसत्तं च णिव्वेओ॥ इह य परत्थ य लोए कहा उणिव्वेयणी णाम ।। (दनि १०२) (दनि १०१) मुक्ति, देवलोक और सुकुल में जन्म-इनका निरूपण जिस कथा में पापकों के अशुभ विपाकों का कथन करने से श्रोता में संवेग उत्पन्न होता है । नारक, तिर्यंच हो, वह निर्वेदनी कथा है। जिस कथा में यह बताया और कुमनुष्यत्व-इनका निरूपण करने से श्रोता में जाता है कि इहलोक में किए हुए कर्म इहलोक में भी उदय में आ सकते हैं, परलोक में भी उदय में आ सकते निर्वेद उत्पन्न होता है। हैं, वह निर्वेदनी कथा है। ६. मिश्रकथा . निव्वेदणीकहा चउव्विहा, तं जहा-इहलोए धम्मो अत्थो कामो उवइस्सइ जत्थ सुत्त-कव्वेसु । दुच्चिण्णा कम्मा इहलोगदुहविवागसंजुत्ता भवंति लोगे वेदे समए सा उ कहा मीसिया णामं ॥ चउभंगो। पढमे भंगे चोरपारदारियाणं पढमा (दनि १०५) Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विकथा के प्रकार १७३ कथा स्त्रीकथा सूत्रों और काव्यों में धर्म, अर्थ और काम-इन इत्थिकहा भत्तकहा रायकहा चोरजणवयकहा य । तीनों का जहां एक साथ निरूपण हो, वह मिश्र कथा है। नडनट्टजल्लमुट्टियकहा उ एसा भवे विकहा ॥ लौकिक (महाभारत आदि), वैदिक (यज्ञक्रिया आदि) (दनि १०६) और सामयिक (तरंगवती आदि) कथा मिश्र कथा है। स्त्री, भोजन, राज्य, चोर, जनपद, नाट्य, नृत्य, जल्ल, नट, मल्ल-इनसे संबंधित कथा करना विकथा ७. कथा के अन्य प्रकार एता चेव कहातो पण्णवगपरूवर्ग समासज्ज । अकहा कहा व विकहा व होज्ज पुरिसंतरं पप्प ॥ (दनि १०७) इथिकथा चतुविधा-जातिकथा कुलकथा रूवकथा नेवत्थकथा। कथाकार और श्रोता के आधार पर कथा के तीन (आवचू २ पृ८१) स्त्रीकथा के चार प्रकार हैंप्रकार हैं-~अकथा, कथा और विकथा । १. स्त्रियों की जाति की कथा, अकथा २. स्त्रियों के कुल की कथा, मिच्छत्तं वेदेंतो जं अण्णाणी कहं परिकहेइ । ३. स्त्रियों के रूप की कथा, लिंगत्थो व गिही वा सा अकहा देसिया समए॥ ४. स्त्रियों की वेशभूषा की कथा । (दनि १०८) भक्तकथा मोहाकुल, मिथ्याज्ञानी, अज्ञानी, वेषधारी और भत्तकधा चतुर्विधा-अतिवावे निवावे आरंभे निद्राणे। गृहस्थ जो कथा करता है, उसे अकथा कहा गया है। अतिवावे एत्तिया दव्वा सागघतादीए उवउत्ता। निव्वाए विकथा एत्तिया वंजणभेदादी एत्थ। आरंभे एत्तिलगा तित्तिरजो संजतो पमत्तो राग-द्दोसवसगो परिकहेइ। हिंगुकडुमेंढनेथितदुद्धदहियतंदुला एवमादी । णिहाणे एत्तिसा उ विगहा पवयणे पण्णत्ता धीरपुरिसेहिं ।। एहिं रूवेहिं वेलाए संभत्तं निट्टितं । (आव २ पृ ८१) (दनि ११०) भक्तकथा के चार प्रकार हैंरागद्वेष के वशीभूत हो जो कथा, चर्चा, आलोचना .. १. आवापकथा-रसोई की सामग्री-घत, साग आदि की जाती है, वह विकथा है। की चर्चा करना। विरुद्धा विनष्टा वा कथा विकथा। २. निर्वापककथा-अन्न व व्यञ्जन आदि की चर्चा (आवहाव २ पृ ६०) करना। कथाविपक्षभूतां त्याज्यां विकथामाह । ३. आरंभकथा--इस जीमनवार आदि में इतने तित्तिर. (दहाव प ११४) हिंग, कटुक, मेष आदि तथा इतना दूध, दही और जो कथा के लक्षणों से शून्य है, जिससे संयम में ओदन आवश्यक होगा। बाधा उपस्थित होती है, ब्रह्मचर्य प्रतिहत होता है, उस ४. निष्ठानकथा-अमुक भोज में इतनी सामग्री और वर्जनीय कथा को विकथा कहा जाता है। इतना धन लगा- इस प्रकार की चर्चा करना । विकया के प्रकार देशकथा चउहिं विकहाहि-इत्थीकहाए, भसकहाए, देस देसकथा चतविधा-छंदो विधी विकप्पो नेवत्थो। कहाए, रायकहाए। (आव ४८) देसच्छंदो माउलधीता गंमा लाडाणं, गोल्लविसए भगिणी, विकथा के चार प्रकार हैं मातिसंवित्तिओ विच्चाण गंमा अण्णेसि अगम्मा एमादि । - स्त्रीकथा-स्त्री संबंधी कथा करना। विधी नाम भोयणविधी विवाहविधी एवमादि। विकप्पो भक्तकथा-भोजन संबंधी कथा करना। परिसा घरा देवकुलाणि नगरनिवेसा गामादीण एवमादि । देशकथा--देश सबंधी कथा करना। नेवत्थो इत्थीणं पुरिसाणं साभाविओ विउविओ वा। राज्यकथा-राज्य संबंधी कथा करना। (आव २ पृ८१) Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करण १७४ करण की परिभाषा देशकथा के चार प्रकार हैं मोह की वृद्धि हो, वैसी कथा श्रमण को नहीं करनी १. देशच्छंद कथा-विभिन्न देशों में प्रचलित विवाह चाहिए। संबंधी रीतिरिवाजों की कथा करना। जैसे-लाट वैराग्य रस से परिपूर्ण, तप और नियम संबंधी कथा देश में मामा की बेटी के साथ और गोल्ल देश में करनी चाहिए, जिसे सुनकर व्यक्ति संवेग और निवेदको बहिन के साथ विवाह सम्मत है। माता की सपत्नी प्राप्त होता है। बुनकरों के लिए विवाह योग्य है, दूसरों के लिए महान् अर्थ वाली कथा भी यदि अक्लेशकारी हो तो उसका निषेध है। कहनी चाहिए। २. देशविधि कथा-भोजन विधि, विवाह विधि आदि व्यक्ति, देश, क्षेत्र, काल और अपनी शक्ति को जानकर निर्दोष प्रासंगिक कथा कहनी चाहिए। की कथा करना। ३. देशविकल्प कथा-परिषद्, गृह, देवकुल, नगर- करण-जीव के परिणाम-विशेष । क्रिया । निवेश, ग्राम आदि की कथा करना। ४. देशनेपथ्य कथा-विभिन्न देशों के पहनावे की कथा १. करण की परिभाषा करना। २. करण के प्रकार और अधिकारी ३. तीन करण : चींटी का दृष्टांत राजकथा ४. यथाप्रवृत्तिकरण रायकथा चतुविधा-निज्जाणकथा अतिजाण कथा • धान्यपल्य का दृष्टांत बलकथा कोसकथा। निज्जाणकथा एरिसीरिद्धीए नीति, •गिरिसरिदद्मावघोलना न्याय अतिजाणकथा - एरिसियाए अतीति, बलकथा-एत्तियं ५. ग्रंथिभेद और सम्यक्त्व प्राप्ति बलं, कोसकथा-एत्तिओ कोसो। (आव २ पृ८१) | ६. प्रथम बार सम्यक्त्व प्राप्ति:तीन अभिमत राजकथा के चार प्रकार हैं * सम्यक्त्व के प्रकार (द्र. सम्यक्त्व) १.निर्याणकथा-राजा के निष्क्रमण की कथा करना। ७. ग्रंथि भेद : भव्य-अभव्य २. अतियानकथा-राजा के नगर आदि के प्रवेश की 1 . महाज्वर का दृष्टांत कथा करना। • चोरों का दृष्टांत ३. बलकथा-राजा की सेना और वाहनों की कथा ८. करण (क्रिया) की परिभाषा __ करना। ९. करण के निक्षेप ४. कोशकथा-राजा के कोश और कोष्ठागार • नामकरण स्थापनाकरण अनाज के कोठों की कथा करना। ० द्रव्यकरण कथा-विवेक ० क्षेत्रकरण * कालकरण (द्र. कालविज्ञान) सिंगाररसुग्गुतिया मोहकुवितफुफुगा हसहसें ति। • भावकरण जं सुणमाणस्स कहं समणेण ण सा कहेयव्वा ।। समणेण कहेतव्वा तव-णियमकहा विरागसंजुत्ता । १. करण की परिभाषा जं सोऊण मणुस्सो वच्चइ संवेग-निव्वेगं ॥ ................"करणं ति परिणामो॥ अत्थमहंती वि कहा अपरिक्सबहुला कहेतव्वा । हंदि महया चडगरत्तणेण अत्थं कहा हणइ ।। क्रियते कर्मक्षपणमनेनेति करणं, सर्वत्र जीवपरिणाम देसं खेत्तं कालं सामत्थं घऽप्पणो वियाणेत्ता। एवोच्यते। (विभा १२०२ मवृ पृ ४५८) समणेण उ अणवज्जा पगयम्मि कहा कहेयव्वा ॥ करण का अर्थ है-जीव के परिणाम । (दनि १११-११४) जीव के वे परिणाम, जिनसे कर्म क्षीण होते हैं, जिसे सुनने से शृंगार रस की उत्कट उद्भावना हो, करण कहलाते हैं। . Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यथाप्रवृत्तिकरण: धान्यपत्य का दृष्टांत २. करण के प्रकार और अधिकारी करणं अहापवत्तं अपुव्वमनियट्टियमेव भव्वाणं । इयरेसि पढमं चिय भन्नइ ******** *******|| अनादिकालात् कर्म क्षपण प्रवृत्तोऽध्यवसायविशेषो यथाप्रवृत्तकरणम् । अप्राप्तपूर्वं मपूर्वं स्थितिघातरसघाताद्यपूर्वार्थ निर्वर्त कं वा पूर्वम् । निवर्तनशीलं निवर्ति, न निवर्ति अनिवर्ति -- आ सम्यग्दर्शनलाभाद् न निवर्तते । ( विभा १२०२ ; मवृ पृ ४५८ ) करण के तीन प्रकार हैं१. यथाप्रवृत्तिकरण - अनादि काल से कर्मक्षीण करने प्रवृत्त अध्यवसाय | २. अपूर्वकरण - जो पहले प्राप्त नहीं हुआ, ऐसा अध्यवसाय । अथवा अपूर्व स्थितिघात और रसघात करने वाला आत्मपरिणाम | ३. अनिवृत्तिकरण - जिस परिणाम की श्रेणी में सम्यक्त्व की अभिमुखता होती है। उसके अनंतर सम्यक्त्व प्राप्त होता है । भव्य जीवों के तीनों कारण होते हैं। अभव्य जीवों के केवल यथाप्रवृत्तिकरण होता है । जागंठी ता पढमं गंठि समइच्छओ अपुव्वं तु । अनिट्टीकरणं पुण सम्मत्तपुरक्खडे जीवे ॥ १७५ अनादिकालादरभ्य यावद् ग्रन्थिस्थानं तावत् प्रथमं यथाप्रवृत्तकरणं भवति । कर्मक्षपणनिबन्धनस्याध्यवसायमात्रस्य सर्वदैव भावात्, अष्टानां कर्मप्रकृतीनामुदयप्राप्तानां सर्वदेव क्षपणादिति । ग्रन्थि तु समतिक्रामतो भिन्दानस्य पूर्वकरणं भवति, प्राक्तनाद् विशुद्धतराध्यव - सायरूपेण तेनैव ग्रन्थेर्भेदादिति । अनिवर्तिकरणं पुनः सम्यक्त्वं पुरस्कृतमभिमुखं यस्यासौ सम्यक्त्वपुरस्कृतः” तत एव विशुद्धतमाध्यवस । यरूपादनन्तरं सम्यक्त्वलाभात् । ( विभा १२०३ ; मवृ पृ ४५९ ) अनादिकाल से लेकर ग्रन्थिदेशप्राप्ति तक प्रथम यथाप्रवृत्तिकरण होता है । कर्मक्षय का हेतुभूत यह अध्यवसाय निरंतर रहता ही है। इसी अध्यवसाय के कारण उदय प्राप्त कर्म प्रकृतियों का क्षय होता रहता है । ग्रन्थिभेद के समय अपूर्वकरण होता है । इसी अध्यवसाय से ग्रन्थि का भेदन होता है। जिसके सम्यक्त्व अभिमुख होता है, उस जीव के अनिवृत्तिकरण होता है । इस अध्यवसाय के अनन्तर ही सम्यक्त्व प्राप्तः करण होता है । यथाप्रवृत्ति करण विशुद्ध, अपूर्वकरण विशुद्धतर और अनिवृत्तिकरण विशुद्धतम अध्यवसाय है । ३. तीन करण : चींटी का दृष्टान्त खिइगमणं पिव पढमं थाणूसरणं व करणमपुव्वं । उप्पयणं पिव तत्तो जीवाणं करणमनिय ॥ ( विभा १२०९ ) चींटी के पृथ्वी पर सहज गमन के समान है - यथाप्रवृत्तिकरण | उसके स्थाणु आरोहण के समान है - अपूर्वकरण । चींटी के कीलिका - उत्पतन के समान है अनिवृत्तिकरण । ( इस करण में मिथ्यात्व से सम्यक्त्व की ओर प्रस्थान होता है) ४. यथाप्रवृत्तिकरण: धान्यपत्य का दृष्टांत जो पल्लेऽतिमहल्ले धण्णं पक्खिवइ थोवथोवयरं । सोहेइ बहुबहुतरं भिज्जइ थोवेण काले || तह कम्मधन्नपल्ले जीवोऽणाभोगओ बहुतरागं । सोहंतो थोक्तरं गिण्हंतो पावए गंठि ॥ ( विभा १२०५, १२०६ ) एक बहुत बड़े धान्य के कोठे में थोड़ा धान्य डाला जाये, अधिक मात्रा में बाहर निकाला जाए तो कालांतर में धान्य समाप्त हो जाता है । इसी प्रकार जीव कर्म रूपी धान्य के कोठे से सहज स्वभाव से बहुत कर्मों का शोधन करता है और थोड़े कर्मों को उसमें डालता है, तब वह ग्रन्थि देश तक पहुंचता है । पल्ले महइमहल्ले कुंभं पक्खिवइ सोहए अस्संजए अविरए बहु बंधए निज्जरे पल्ले महइमल्ले कुंभं सोहए पक्खिवे नाति । जे संजए पत्ते बहु निज्जरे बंधए थोवं ॥ पल्ले महइमहल्ले कुंभं सोहेइ पक्खिवे न किंचि । सं अपत्ते बहुनिज्जरे बंधए न किचि ॥ नालि । थोवं ॥ प्रायोवृत्तिरेषा यत् असंयतस्य बहुतरकर्मण उपचयः, अल्पतरस्य चापचय इति । यदि पुनरित्थमेव सर्वदैव स्यात्, तदोपचितबहुकर्मणां जीवानां कदापि कस्यापि सम्यक्त्वादिलाभो न स्यात् न चैतदस्ति । इह त्रयो भङ्गा द्रष्टव्याः । तद्यथा कस्यचिद् बन्धहेतुनां प्रकर्षात्, पूर्वोपचितकर्मक्षपण हेतु नामपकर्षाच्चोपचयप्रकर्षः । कस्य चित्तु बन्धहेतूनां क्षपणहेतूनां च साम्यादुपचयापचय - साम्यम् । कस्यचित् पुनर्बन्ध हेतूनामपकर्षात् क्षपणहेतुनां Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करण १७६ प्रथम बार सम्यक्त्व प्राप्ति च प्रकर्षादपचयप्रकर्षः । तदिह तृतीयभंगे यदाऽसौ मिथ्या- के द्वारा स्वाभाविक रूप से कर्मस्थिति के क्षीण होने पर दष्टिरपि वर्तते तदा ग्रन्थिदेशं प्राप्नोति । जीव ग्रन्थि के समीप पहुंचता है । (विभामवृ १ पृ ४६०) ५. ग्रन्थिभेद : सम्यक्त्व प्राप्ति एक बहुत बड़े धान्य के कोठे में बहुत धान्य डाला अंतिमकोडाकोडीए सव्वकम्माणमाउवज्जाणं । जाता है, थोड़ा धान्य निकाला जाता है। इसी प्रकार पलियासंखिज्जइमे भागे खीणे भवइ गंठी ।। असंयत अविरत मिथ्यादृष्टि के बहु कर्मबंध होता है, गंठि त्ति सुदुब्भेओ कक्खडघणरूढगूढगंठि व्व । अल्प निर्जरा होती है। जीवस्स कम्मजणिओ घणरागहोसपरिणामो॥ एक बहुत बड़े धान्य के कोठे में बहत धान्य (विभा ११९४, ११९५) निकाला जाता है, थोड़ा धान्य डाला जाता है। इसी जब आयुवजित शेष सात कर्मप्रकृतियों की उत्कृष्ट प्रकार प्रमत्तसंयत के बहुत निर्जरा होती है और कर्म- स्थिति क्षीण हो जाती है, मात्र एक-एक सागरोपम बंध अल्प होता है। कोटि-कोटि की स्थिति शेष रहती है, इसका भी जब एक बहुत बड़े धान्य के कोठे में बहुत धान्य पल्योपम का असंख्यातवां भाग क्षीण हो जाता है, तब निकाला जाता है, नया धान्य नहीं डाला जाता । इसी ग्रन्थिभेदन की प्रक्रिया प्रारंभ होती है। प्रकार अप्रमत्तसंयत के बहुत निर्जरा होती है, कर्मबंध डाभ आदि की रस्सी में दुर्भद्य ग्रन्थि की तरह नहीं होता। आत्मा का सघन राग-द्वेष का परिणाम ग्रन्थि कहलाता यह सापेक्ष कथन है-असंयत के बहुत कर्मों का है। ग्रन्थि भिन्न होने पर सम्यक्त्व प्राप्त होता है। उपचय और अल्प कर्मों का अपचय होता है। यदि ऐसा ६. प्रथम बार सम्यक्त्व प्राप्ति : तीन अभिमत निरन्तर होता रहे तो कभी किसी भी बहुलकर्मी जीव को सम्यक्त्व प्राप्त नहीं होगा । किन्तु ऐसा नहीं है। अनादिमिथ्यादृष्टि: कोऽपि तथाविधसामग्रीसद्भावेइस संदर्भ में तीन विकल्प द्रष्यव्य हैं पूर्वकरणेन पुञ्जत्रयं कृत्वा शुद्धपुञ्जपुद्गलान् वेदयन्नौ१. जिस जीव को कर्मबंध के हेतु अधिक और कर्मक्षय पशमिकं सम्यक्त्वमलब्ध्वव प्रथमत एव क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टिर्भवति। के हेतु कम प्राप्त होते हैं, उसके कर्मों का उपचय कार्मग्रन्थिकास्त्विदमेव मन्यन्ते यदुत-सर्वोऽपि अधिक होता है। अनादिमिथ्यादृष्टि: प्रथमसम्यक्त्वलाभकाले यथाप्रव२. जिस जीव को कर्मबंध और कर्मक्षय के समान हेतु त्यादिकरण त्रयपूर्वकमन्तरकरणं करोति, तत्र चौपशमिकं प्राप्त होते हैं, उसके कर्मों का उपचय और अपचय सम्यक्त्वं लभते, पुञ्जत्रयं चाऽसौ विदधात्येव । अत भी समान होता है। एवौपशमिक सम्यक्त्वाच्च्यूतोऽसौ क्षायोपशमिक३. जिस जीव को बंध के हेतु कम और क्षय के हेतु सम्यग्दृष्टिः, मिश्रः, मिथ्यादृष्टिर्वा भवति । अधिक प्राप्त होते हैं, उसके कर्मों का अधिक अन्यस्तु यथाप्रवृत्त्यादिकरणत्रयक्रमेणान्तरकरणे अपचय (बहुनिर्जरा) होता है। औपशमिकं सम्यक्त्वं लभते, पूजत्रयं त्वसौ न करोत्येव । इस तीसरे विकल्प वाला मिथ्यादृष्टि ग्रन्थिदेश तक ततश्चौपशमिकसम्यक्त्वाच्च्युतोऽवश्यं मिथ्यात्वमेव पहुंचता है। गच्छति। (विभामवृ १ पृ २४२), गिरिसरिग्रावघोलना न्याय सैद्धांतिक मान्यता अनादिकालीन मिथ्यादष्टि गिरिनइवत्तणिपत्थरघडणोवम्मेण पढमकरणेणं । जीव अनुकूल सामग्री के प्राप्त होने पर औपशमिक जा गंठी कम्मठितिक्खवणमणाभोगओ तस्स ।। सम्यक्त्व को प्राप्त किए बिना ही अपूर्व करण के द्वारा (विभा १२०७) मिथ्यात्व दलिकों के तीन पुञ्ज करके शुद्ध पुञ्ज पुद्गलों जैसे पहाड़ी नदी के प्रस्तरखण्ड और मार्गवर्ती का वेदन करता हुआ सर्वप्रथम क्षायोपशमिक सम्यक्त्व प्रस्तरखण्ड परस्पर घर्षण (घञ्चनघोलनान्याय) से प्राप्त करता है। अनायास ही गोल, त्रिकोण, चतुष्कोण, छोटे, बड़े आदि कार्मग्रंथिक मान्यता-मिथ्यादष्टि जीव प्रथम बार अनेक आकार वाले हो जाते हैं, वैसे ही यथाप्रवृत्तिकरण सम्यक्त्व प्राप्ति के समय यथाप्रवृत्ति आदि तीनों करणों Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करण के निक्षेप १७७ करण के बाद अन्तरकरण में औपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त करता चोरों का दृष्टांत है। वह मिथ्यात्व दलिकों के तीन पुञ्ज करता है, जह वा तिन्नि मणसा जंतऽडविपहं सहावगमणेणं । इसलिए औपशमिक सम्यक्त्व से च्युत होकर वह क्षायो वेलाइक्कमभीआ तुरंति पत्ता य दो चोरा ॥ शमिक सम्यग्दृष्टि, मिश्रदृष्टि अथवा मिथ्यादृष्टि भी हो दटुं मग्गतडत्थे ते एगो मग्गओ पडिनियत्तो। सकता है। बितिओ गहिओ तइओ समइक्कतं पूरं पत्तो । ____ अन्य मान्यता-यथाप्रवृत्ति आदि करणत्रय को अडवी भवो मणूसा जीवा कम्मट्टिई पहो दीहो । क्रमशः करता हुआ जीव अन्तरकरण में औपशमिक गंठी य भयवाणं राग-दोसा य दो चोरा ॥ सम्यक्त्व प्राप्त करता है। वह मिथ्यात्व दलिकों के भग्गो ठिइपरिवड्ढी गहिओ पण गंठिओ गओ तइओ। तीन पुञ्ज नहीं करता, इसलिए औपशमिक सम्यक्त्व से सम्मत्तपुरं एवं जोएज्जा तिण्णि करणाणि ॥ च्युत होकर निश्चित ही मिथ्यात्व को प्राप्त होता है। (विभा १२११-१२१४) ७. ग्रन्थिभेद : भव्य-अभव्य तीन मनुष्य एक साथ यात्रा करते हुए अटवी मार्ग जे भविया ते तं गठिं केवि समतिच्छति । केवि ततो से जा रहे थे। समय के अतिक्रमण के भय से उन्होंने चेव पडिणियत्तंति । जे अभविया ते नियमा ततो चेव त्वरता की। वहां उन्हें दो चोर मिले। उनमें से एक पडिणियत्तंति । जहा पिपीलियाओ बिलाओद्धाइयाओ व्यक्ति मार्ग में स्थित चोर को देखकर लौट गया। समाणीओ एगं खाणुयं विलग्गेति, तत्थ जासि पक्खा दूसरा चोरों द्वारा पकड़ा गया। तीसरा गन्तव्य अत्थि ता उड़डेंति, जासि नत्थि ता ततो चेव पडिणिय- स्थान पर पहुंच गया। तंति । (आव १ पृ ९९) अटवी के समान है भव । मनुष्य के समान है जीव । ग्रन्थिभेद के योग्य कर्म स्थिति होने पर जो भव्य लम्बा मार्ग है कर्म स्थिति । भय स्थान के समान है ग्रन्थि । जीव होते हैं, उनमें से कुछ ग्रन्थिभेदन करते हैं, कुछ न राग और द्वेष के तुल्य हैं चोर । जो चोर लौट गया, उसके तुल्य है-कर्म स्थिति की पुनः लौट जाते हैं, ग्रन्थिभेदन नहीं कर पाते । वृद्धि । जो पकड़ा गया, उसके तुल्य है-ग्रन्थि-स्थान की __अभव्य जीव निश्चित ही ग्रन्थिभेद नहीं कर पाते। प्राप्ति । जिसने गन्तव्य स्थान को प्राप्त कर लिया, जैसे-चींटियां बिल से निकल कर स्थाण पर चढ़ती हैं। उसके समान है--सम्यक्त्व की प्राप्ति । उनमें से जिनके पंख होते हैं, वे उड़ जाती हैं, जिनके पंख नहीं होते, वे गिर जाती हैं। ८. करण (क्रिया) को परिभाषा महाज्वर का दृष्टांत करणं किरिया भावो संभवओ वेह...........॥ भेसज्जेण सयं वा नस्सइ जरओ न नस्सए कोइ । कृतिनिर्वृत्तिर्वस्तुनः करणमुच्यते । भव्वस्स - गंठिदेसे मिच्छत्तमहाजरो चेवं ॥ (विभा ३३०१; मवृ पृ ३०१) (विभा १२१६) करण का अर्थ है -क्रिया। जो किया जाता है, वह ज्वरग्रस्त किसी व्यक्ति का ज्वर स्वतः चला जाता करण है । अथवा जिसके द्वारा, जिससे या जिसमें किया है, किसी का औषधि सेवन से चला जाता है और किसी जाता है, वह करण है। किसी भी वस्तु का निर्वर्तन का ज्वर नष्ट नहीं होता। वैसे ही भव्य प्राणी के करना करण कहलाता है। मिथ्यात्व रूप महाज्वर की ये तीनों स्थितियां होती है. करण के निक्षेप नाम ठवणा दव्वं खित्ते काले तहेव भावे य । किसी का मिथ्यात्व ग्रन्थिभेद से स्वतः चला जाता एसो खलु करणंमी णिक्खेवो छन्विहो होइ ।। (उनि १८३) __ किसी का मिथ्यात्व गुरु के उपदेश रूप भेषज से करण के छह निक्षेप हैंचला जाता है। नाम, स्थापना, द्रव्य , क्षेत्र, काल और भाव । किसी का मिथ्यात्व नष्ट नहीं होता। Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करण नामकरण स्थापनाकरण नामं नामस्स व नामओ व करणं ति नामकरणं ति । ठवणा करणन्नासो करणागारो व जो जस्स ॥ ( विभा ३३०२ ) नाम ही नामकरण है अथवा किसी का प्रियंकर शुभंकर आदि नाम रखना नामकरण है । अक्ष आदि का न्यास अथवा जिस करण का जो आकार है, वह स्थापनाकरण है । द्रव्यकरण aaणं तु दुविहं सन्नाकरणं च नो य सन्नाए । कडकरणमकरणं वेलूकरणं च सन्नाए || नोसन्ना करणं पुण पओगसा वीससा य बोद्धव्वं । साई अमणाईअं दुविहं पुण विस्साकरणं ॥ ( उनि १८४, १८५ ) द्रव्य करण के दो प्रकार हैं१. संज्ञाकरण - द्रव्य का निष्पादन अथवा द्रव्य की क्रिया को ही रूढ़ि से संज्ञाकरण कहा जाता है। इसके अनेक भेद हैं कटकरण -कटनिर्वर्तक ओजार आदि का निर्माण । अर्थकरण - सिक्का बनाने के लिए अधिकरणी आदि का निर्माण | वेलूकरण - रूई की पूणी कातने के लिए वेणुशलाका का निर्माण । २. नोसंज्ञाकरण - क्रिया होने पर भी जिसकी करणसंज्ञा रूढ़ नहीं है, वह नोसंज्ञाकरण है । इसके दो भेद हैं प्रयोगकरण और विस्रसाकरण । विस्रसा करण के दो प्रकार हैं- सादिकरण और अनादिकरण । धमाधम्मागासा एवं तिविहं भवे अणाईयं ।'''' ( उनि १८६ ) .....अन्नोन्नसमाहाणं जमिहं करणं न निव्वती ॥ अहव परपच्चयाओ संजोगाइ करणं नभाई । साइयमुवाओ पज्जायादेसओ वावि ॥ चक्खुसमचक्खुसं चिय साईअं रूविवीससाकरणं । अभाणुपभि बहुहा संघाभेयकयं ॥ ( विभा ३३०९ - ३३११ ) विसाकरण अनादिविसाकरण के तीन प्रकार हैं-धर्मास्तिअधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय । काय, १७८ इनकी परस्पर व्यवस्थित अनादिकालीन प्रदेशसंहति के अर्थ में यहां करण शब्द का प्रयोग हुआ है, क्रियात्मककरण के अर्थ में नहीं । अथवा उपचार से इनमें क्रियात्मक करण भी घटित होता है । जैसे - आकाश के साथ घट आदि का संयोग । यह सादिकरण है । पर्याय की अपेक्षा से भी इनमें सादिकरण होता है । रूपी अजीव द्रव्यों में सादि विस्रसाकरण दो प्रकार का है चाक्षुष - अभ्र, - प्रयोगकरण भावकरण परिणमन । इन्द्रधनुष आदि में होने वाला अचाक्षुष --- परमाणु - स्कन्धों में होने वाला भेद और संघात । होइ ओगो जीवव्वावारो तेण जं विणिम्माणं । सज्जीवमजीवं वा पओगकरणं तयं बहुहा || ( विभा ३३१२ ) होता है, जीव की प्रवृत्ति से द्रव्य का जो निर्माण वह प्रयोगकरण है । उसके दो भेद हैं १. जीवप्रयोगकरण २. अजीवप्रयोगकरण क्षेत्रकरण खित्तरस नत्थि करणं आगासं जं अकित्तिमो भावो । वंजणपरिआवन्नं तहावि पुण उच्छुक्ररणाई ॥ ( आवनि १०१७ ) क्षेत्र का करण नहीं होता क्योंकि आकाश अकृत्रिम - अकृतक है । किन्तु क्षेत्र के अभिव्यंजक पुद्गलों की अपेक्षा से क्षेत्रकरण होता है । जैसे—– इक्षुक्षेत्रकरण, शालीक्षेत्रकरण आदि । क्षेत्र के पर्यायों का अवस्थान्तर ही क्षेत्रकरण है । ( द्र. शरीर ) (द्र. पुद्गल) भावकरण भावकरणं तु दुविहं जीवाजीवेसु होइ नायव्वं । ' जीवकरणं तु दुविहं सुयकरणं चेव नो य सुयकरणं ।' ( उनि २०१, २०३ ) भावकरण के दो प्रकार हैं- जीवभावकरण और attartarरण । अजीवभावकरण (द्र. पुद्गल ) जीवकरण के दो प्रकार हैं- श्रुतकरण और नोश्रुतकरण । श्रुतकरण (द्र. श्रुतज्ञान) Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म १७९ कर्म नोसुयकरणं दुविहं गुणकरणं तह य मुंजणाकरणं । गुण तवसंजमजोगा जंजण मणवायकाए य ।। (उनि २०४) करण (क्रिया) नोश्रुतकरण के दो प्रकार हैं१. गुणकरण - तपोयोग, संयमयोग । २. योजनाकरण-मनोयोग, वचनयोग, काययोग । नाम स्थापना द्रव्य क्षेत्र काल भाव -- |- संज्ञा नोसंज्ञा अजीव -| वित्रसा विस्रसा प्रयोग प्रयोग श्रुत नोश्रुत --- - - चाक्षुष अचाक्षुष जीव अजीव बद्ध अबद्ध गुण योग करणसत्तरी-प्रयोजन होने पर किया जाने वाला ५. दर्शनावरण कर्म अनुष्ठान । इसके सत्तर अंग हैं- ६. वेदनीय कर्म पिंडविसोही समिई भावण पडिमा य इंदियनिरोहो । ७. मोहनीय कर्म पडिलेहणगुत्तीओ अभिग्गहा चेव करणं तु ।। ० दर्शन मोहनीय के प्रकार (ओभा ३) ० चारित्र मोहनीय के प्रकार चार प्रकार की पिंडविशोधि, पांच समिति, बारह * कषाय मोहनीय (द्र. कषाय) भावना, बारह प्रतिमा, पांच प्रकार का इंद्रियनिग्रह, नोकषाय मोहनीय पच्चीस प्रकार की प्रतिलेखना, तीन गुप्ति और चार * मोहकर्म के क्षय आदि से सम्यक्त्व प्राप्ति प्रकार का अभिग्रह (पिंड, शय्या, वस्त्र, पात्र)---इन्हें (द्र. सम्यक्त्व) करणसत्तरी कहा जाता है। ८. आयुष्य कर्म कर्म-जीव की शुभ-अशुभ प्रवृत्ति से आकृष्ट • आयुष्य का बंध कब? सुख-दुःख एवं आवरण के हेतुभूत पुद्गल- ० आयुष्यबंध और आकर्ष स्कन्ध । ० सोपक्रम-निरुपक्रम आयुष्य १. कर्म का निर्वचन • आयुष्य के उपक्रम २. कर्म बंध का हेतु और प्रकार * शीर्षप्रहेलिका : आयुष्य का मापन (द्र. काल) ३. कर्म के प्रकार ९. नाम कर्म ४. ज्ञानावरण कर्म • शुभ नामकर्म की प्रकृतियां *ज्ञानावरण का क्षयोपशम सब जीवों में (द्र . ज्ञान) ० अशुभ नामकर्म की प्रकृतियां * स्वाध्याय से ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय १०. गोत्र कर्म (द्र. स्वाध्याय) ___* वन्दना से नीच गोत्र कर्म का क्षय (5. वन्दना) Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म १८० ज्ञानावरण कर्म ११. अन्तराय कर्म | २. कर्मबन्ध का हेतु और प्रकार ____ * सेवा से लाभान्तराय कर्म का क्षय (द्र. वैयावृत्य) रागो य दोसो वि य कम्मबीयं। १२. कर्म-प्रकृतियों का उपक्रम (उ ३२७) १३. कर्म एकक्षेत्रावगाही राग और द्वेष कर्म के बीज हैं। १४. सब आत्मप्रदेशों से कर्म बंध कर्मणां चतुःप्रकारो बंधो भवति-प्रकृतिबंध: १५. आत्मप्रदेश-कर्मप्रदेश-परिमाण स्थितिबंध अनुभागबंधः प्रदेशबंधः। (उचू पृ २७७) १६. कर्म-अनुभाग का प्रदेश-परिमाण कर्मबंध के चार प्रकार हैं१७. एक समय में गृहीत कर्मप्रदेश-परिमाण १. प्रकृतिबंध-कर्मों का स्वभाव और कर्म के १८. कर्मबन्ध: सूचीकलाप की उपमा भेद। १९. उदय से पूर्व कर्म की अवस्थाएं २. स्थितिबंध-कर्मों का आत्मा के साथ बंधे रहने २०. कर्मभोग की प्रक्रिया का कालमान । २१. कर्म-संक्रमण की प्रक्रिया ३. अनुभागबंध- कर्मों का शुभ-अशुभ विपाक । २२. कर्मों की स्थिति ४. प्रदेशबंध-जीवप्रदेश और कर्मपुद्गलों का २३. अबाधा काल संबंध । २४. संक्लिष्ट परिणाम और स्थितिबंध जोगा पयडिपएसं ठितिअणुभागं कसायओ कुणइ । २५. पुण्यकर्म, पापकर्म, नोकर्म (उशाव प १९०) २६. वीतराग के कर्मबंध योग से कर्मों का प्रकृतिबंध और प्रदेशबंध होता २७. कम और शरीर का अनादि संबंध है। कषाय से कर्मों का स्थितिबंध और अनुभागबंध २८. आत्मा और कर्म का अनादि संबंध होता है। २९. अनादि संबंध का अन्त कसे? ३. कर्म के प्रकार ३०. संसारी आत्मा कंचित् मूर्त नाणस्सावरणिज्ज, दंसणावरणं तहा । ३१. कर्म की मूर्तता के हेतु वेयणिज्ज तहा मोहं, आउकम्मं तहेव य ।। ३२. मूतं से अमूत्त का अनुग्रह-निग्रह नामकम्मं च गोयं च, अंतरायं तहेव य । ३३. आत्मा और कर्म सहगामी एवमेयाइ कम्माइं, अद्वैव उ समासओ ।। ३४. जीव की विविधता का हेतु : कर्म (उ ३३।२,३) * कर्म के अस्तित्व की सिद्धि (व. गणधर) | ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, * आश्रव से कर्मबंध (द. आश्रव) | नाम, गोत्र और अन्तराय-ये आठ प्रकार के कर्म हैं। * कर्मबंध और गणस्थान (द्र. गुणस्थान) ४. ज्ञानावरण कर्म * कर्म के उपशम-क्षय की प्रक्रिया (द्र. गुणस्थान) * कर्मक्षय से गुणों की प्राप्ति ज्ञायतेऽनेनेति ज्ञानम्--अवबोधस्तस्य आवियते --- (द्र. सिद्ध) सदप्याच्छाद्यतेऽनेन पटेनेव विवस्वत्प्रकाश इत्यावरणीयम् । (उशावृ प ६४१) १. कर्म का निर्वचन जिसके द्वारा जाना जाता है, वह ज्ञान है। जैसे क्रियते -मिथ्यात्वाविरतिकषाययोगानुगतेनात्मना वस्त्र सूर्य के प्रकाश को आवत करता है, वैसे ही जो निर्वर्त्यत इति कर्म । (उशाव प ७२) पुद्गल-स्कन्ध ज्ञान को आवृत करता है, वह ज्ञानावरमिथ्यात्व, अविरात, कषाय और योग-इन आश्रवों णीय कम है। से अनुगत आत्मा द्वारा जो किया जाता है, वह कर्म नाणावरणं पंचविहं, सुयं आभिणिबोहियं । ओहिनाणं तइयं, मणनाणं च केवलं ॥ (उ ३३।४) / - .. Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्त्यानद्धि के पांच उदाहरण ज्ञानावरण पांच प्रकार का है (१) मतिज्ञानावरण (२) श्रुतज्ञानावरण (३) अवधिज्ञानावरण मनोज्ञानावरण (५) केवलज्ञानावरण । 'ज्ञानस्य ज्ञानिनां चैव निन्दाप्रद्वेषमत्सरः । उपघातश्च विघ्नेश्च, ज्ञानघ्नं कर्म बध्यते ॥ ' ( उशावृ प १२६ ) ज्ञानावरणीय कर्मबंध के हेतुज्ञान तथा ज्ञानी की निन्दा करना । ज्ञान तथा ज्ञानी के प्रति द्वेष रखना । ज्ञान तथा ज्ञानी के प्रति मत्सर भाव रखना । ज्ञान तथा ज्ञानी का उपघात करना । ज्ञान तथा ज्ञानी के मार्ग में विघ्न डालना । ५. दर्शनावरण कर्म दृश्यतेऽनेनेति दर्शनं - सामान्यावबोधस्तदा व्रियते वस्तुनि प्रतीहारेणेव नृपतिदर्शनमनेनेति दर्शनावरणम् । ( उशावृ प ६४१ ) जिसके द्वारा देखा जाता है, वह दर्शन है । यह सामान्य अवबोध है । जैसे द्वारपाल राजा के दर्शन में CTET डालता है, वैसे ही जो पुद्गल स्कंध दर्शन को आवृत करता है, वह दर्शनावरणीय कर्म है । निद्दा तव पयला, निद्दानिद्दा य पयलपयला य । तत्तो य थी गिद्धी उ, पंचमा होइ नायव्वा ॥ चमचक्खुओहिस्स, दंसणे केवले य आवरणे । एवं तु नवविगप्पं नायव्वं दंसणावरणं ॥ ( उ ३३।५, ६) दर्शनावरण कर्म के नौ प्रकार हैं१. निद्रा १८१ २. प्रचला ३. निद्रा-निद्रा ६ चक्षुदर्शनावरण ७. अचक्षुदर्शनावरण ८. अवधिदर्शनावरण ९. केवलदर्शनावरण । ४. प्रचलाप्रचला ५. स्त्यानद्ध निद्रा आदि पांच प्रकार निद्रा - सुखप्रतिबोधोच्यते । प्रचला — निद्रावत् किञ्चिच्छुभरूपतात्मकेन प्रकारेण प्रचलत्यस्यामासीनोऽपीति चला । निद्रानिद्रा - अतिशयनिद्रा दुःखप्रतिधात्मिका । प्रचलाप्रचलाप्रचलाऽतिशायिनी, साहि कर्म चंक्रम्यमाणस्यापि भवति । स्त्यानद्धि:- प्रकृष्टतराशुभानुभावतया ताभ्य उपरिवर्तिनी स्त्याना संहतोपचितेत्यर्थः ऋद्धिद्धिर्वा यस्यां सा स्त्यानद्धिः स्त्यानगृद्धिर्वा । एतदुदये च वासुदेवबलार्द्धबलः प्रबलरागद्वेषोदयवांश्च जन्तुर्जायते, अतएव परिचिन्तितार्थसाधन्यसावुच्यते । ( उशावृप ६४२ ) १. निद्रा - जो सहजता से टूट जाये, वह निद्रा है । २. प्रचला - जो बैठे-बैठे नींद आती है, वह प्रचला है । ३. निद्रानिद्रा - जो कठिनाई से टूटे, वह निद्रानिद्रा है । ४. प्रचलाप्रचला जो चलते-चलते नींद आती है, वह गहरी नींद प्रचलाप्रचला है । ५. स्त्यानद्धि - यह निद्रा प्रकृष्टतर अशुभ अनुभाव वाली है। इसमें चेतना प्रगाढ मूर्च्छा से जम जाती है। इस प्रकृति का उदय होने पर व्यक्ति के रागद्वेष का प्रबल उदय होता है और उस समय उसमें वासुदेव के बल से आधा बल जाग जाता है । व्यक्ति जो सोचता, उसे वह इस नींद में सिद्ध कर लेता है। इसलिए उसे चिन्तित अर्थ को सिद्ध करने वाली निद्रा कहा जाता है। स्त्यान के पांच उदाहरण पोग्गल - मोयग दंते फरसगवडसालभंजणे चेव । थीद्धिस्स एए आहरणा होंति नायव्वा ॥ तदुदये च वज्रऋषभनाराचसंहननवतः केशवार्ध बलसंपन्नता समये निगद्यते । ( विभा २३५, मवृ पृ ११७,११८) १. पुद्गल (मांस) - एक मुनि के मन में मांसभक्षण की अभिलाषा जगी । वह रात को सोया हुआ था । उसके स्त्यानद्धि निद्रा का उदय हुआ। वह उठा और गांव के बाहर जाकर एक भैंसे को मारकर उसका मांस खाकर लौट आया, उपाश्रय में आकर पुनः सो गया । उसने सुबह गुरु के पास दुःस्वप्न की आलोचना की । उपाश्रयद्वार पर गिरे मांस को देख ज्ञात हुआ कि इसके स्त्यानद्धि नींद का उदय हुआ है । अत: उसे मुनिसंघ से बहिष्कृत कर दिया गया । ४२. मोदक - एक मुनि के मन में मोदक खाने की Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म १८२ मोहनीय कर्म इच्छा जगी। स्त्यानद्धि के उदय से वह रात्रि में बनते हैं, उनका नाम है वेदनीय कर्म । उठा, दिन में जिस घर में मोदक देखे थे, उसी घर वेयणीयं पि य दुविहं, सायमसायं च आहियं । में पहुंचा, मनइच्छित मोदक खाकर शेष बचे सायस्स उ बहू भेया, एमेव असायस्स वि ।। मोदकों को पात्र में डाल, उपाश्रय में आकर सो (उ ३३७) गया । पुनः जगने पर गुरु के पास आलोचन की। वेदनीय दो प्रकार का है-सात वेदनीय और असात उसे संघ से बहिष्कृत कर दिया गया। वेदनीय । इन दोनों के अनेक प्रकार हैं। ३. गजदंत - एक दिन एक हाथी ने मुनि को उत्पीडित किया । प्रतिशोध की आग में जलता हुआ वह मुनि रात को उठा । नगरकपाटों को तोड़कर हाथी को मोहयति जानानमपि मद्यपानवद्विचित्तताजननेनेति मार, उसके दांत उखाड़ लाया । उन दांतों को मोहः । (उशावृ प ६४१) उपाश्रय द्वार पर रखकर सो गया। प्रातः गुरु के जैसे मदिरापान किए हुए मनुष्य की चेतना विकृत पास अपने दुःस्वप्न की आलोचना की। स्त्याद्धि या मच्छित हो जाती है, वैसे ही जो कर्म पुदगल चेतना के उदय के कारण उसे संघ से बहिष्कृत कर दिया को मूच्छित और विकृत बनाता है, वह मोहकर्म है। गया। मोहणिज्जं पि दुविहं, दंसणे चरणे तहा । ४. फरुसग (कुंभकार) - एक 'कुंभकार मुनि बना । (उ ३३८) उससे पूर्व वह मृत्पिडों को कूट-पीट कर घड़े बनाता मोहनीय कर्म दो प्रकार का है--दर्शनमोहनीय था। उस पूर्वाभ्यास की स्मृति हुई। रात को और चारित्रमोहनीय । स्त्यानद्धि निद्रा का उदय होने से उसने कई साधुओं दर्शनमोहनीय की कपालक्रिया कर दी। उसे भी संघ से विसर्जित कर दिया गया। सम्मत्तं चेव मिच्छत्तं, सम्मामिच्छत्तमेव य । ५. वटवृक्षशाखा –एक बार एक मुनि ग्रामान्तर से एयाओ तिन्नि पयडीओ, मोहणिज्जस्स दंसणे ।। भिक्षा लेकर आ रहा था। गर्मी की भयंकरता के (उ ३३।९) कारण छायाभिलाषी मुनि मार्ग में एक वटवृक्ष के दर्शनमोहनीयवैविध्यं तथाऽऽह-सम्यग्भावः सम्यनीचे बैठा । उसकी एक शाखा से उसका सिर क्त्वं शुद्धदलिकरूपं यदुदयेऽपि तत्त्वरुचिः स्यात् । मिथ्याटकराया, बड़ा परिताप हुआ। मन क्रोध से प्रज्व- भावः मिथ्यात्वम् -- अशुद्धदलिकरूपं यतस्तत्त्वेऽतत्त्वमलित हो उठा। वह रात को सो रहा था। स्त्यानद्धि तत्त्वेऽपि तत्त्वमिति बुद्धिरुत्पद्यते। सम्यग्मिथ्यात्वमेव निद्रा का उदय हुआ। रात्रि में ही वह उस च-शुद्धाशुद्धदलिकरूपं यत उभयस्वभावत। जन्तीर्भवति । वटशाखा को तोड़कर ले आया और पुनः सो (उशाव प ६४३) गया। संघ ने उसे लिंग-अपनयन कर विसजित कर दर्शनमोह के तीन प्रकार हैं - दिया। १. सम्यक्त्वमोह-इसके दलिक (पुद्गल) शुद्ध होते स्त्यानद्धि निद्रा के समय वज्रऋषभनाराच संहनन हैं। इसके उदयकाल में भी तत्त्वरुचि बनी रहती वाले व्यक्ति में वासुदेव के बल से आधा बल जाग जाता २. मिथ्यात्वमोह-मिथ्याभाव / गलत दृष्टिकोण ६. वेदनीय कर्म मिथ्यात्व है । यह अशुद्धपुद्गलरूप है । इसका उदय वेद्यते -- सुखदुःखतयाऽनुभूयते लिह्यमानमधुलिप्तासि- होने पर तत्त्व में अतत्त्व और अतत्त्व में तत्त्व की धारावदिति वेदनीयम् । (उशावृ प ६४१) बुद्धि उत्पन्न होती है। जैसे मधु से लिपटी तलवार की धार को चाटने से ३. सम्यक्त्व-मिथ्यात्व- इसके पुद्गल शुद्ध-अशुद्धस्वाद भी आता है और जीभ भी कट जाती है, वैसे ही मिश्र-रूप होते हैं। इनके उदय से प्राणी की तत्त्वजो पुदगल सुख और दुःख-दोनों के संवेदन में हेतुभूत रुचि/श्रद्धा सन्दिग्ध अवस्था में रहती है। Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म आयुष्यबन्ध और आकर्ष १८३ दर्शनमोहं सप्तभेदं अनन्तानुबन्धिनः क्रोधमानमाया- रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा और वेद। दूसरी लोभाः सम्यक्त्वं सम्यग्मिथ्यात्वं मिथ्यात्वं । गणना के अनुसार वे नौ हैं-हास्य, रति, अरति, भय (उचू पृ २७८) शोक, जुगुप्सा, पुरुषवेद, स्त्रीवेद और नपुंसकवेद । दर्शनमोह के सात प्रकार हैं-अनन्तानुबंधी क्रोध, ८. आयुष्य कर्म अनन्तानुबंधी मान, अनन्तानुबंधी माया, अनन्तानुबंधी आयाति-आगच्छति स्वकृतकर्मावाप्तनरकादिलोभ, सम्यक्त्व, सम्यगमिथ्यात्व और मिथ्यात्व । कुगतेनिष्क्रमितुमनसोऽप्यात्मनो निगडवत्प्रतिबन्धकताचारित्रमोहनीय मित्यायुः तदेव कर्म आयुःकर्म । चरित्तमोहणं कम्मं, दुविहं तु वियाहियं । (उशा प ६४१) कसायमोहणिज्जत, नोकसायं तहेव य ।। जैसे बेड़ी से बंधा हुआ आदमी नियत स्थान से (उ ३३१०) प्रतिबद्ध रहता है, वैसे ही आयुष्य के पुद्गल नरक आदि चारित्रमोहनीय के दो प्रकार हैं-कषायमोहनीय किसी एक गति से प्राणी को प्रतिबद्ध करते हैं। और नोकषायमोहनीय । नेरइयतिरिक्खाउ, मणुस्साउ तहेव य । चरितमोहनीयं एकविंशतिभेदं अप्रत्याख्याना देवाउयं चउत्थं तु, आउकम्मं चउम्विहं ।। क्रोधादयश्चत्वारः प्रत्याख्यानावरणाक्रोधादयश्चत्वारः (उ ३३।१२) संज्वलनक्रोधादयश्चत्वारः हास्यरत्यरतिभयशोकजुगुप्सा आयुष्य कर्म चार प्रकार का है-१. नैरयिक स्त्रीपुंनपुंसकवेदाः। (उचू पृ २७८) आयु, २. तिथंच आयु, ३. मनुष्य आयु, ४. देव आयु । चारित्र मोहनीय के इक्कीस प्रकार हैं आयुष्य का बन्ध कब ? अप्रत्याख्यान चतुष्क-क्रोध, मान, माया, लोभ । देवा णारया असंखेज्जवासाउया य छम्माससेसाप्रत्याख्यान चतुष्क-क्रोध, मान, माया, लोभ । उया आउगाणि बंधति, परभविआयुआणि । सेसा संज्वलन चतुष्क-क्रोध, मान, माया, लोभ । तिभागसेसाउया निरुवक्कमा । जे ते सोवक्कमा ते सिया नोकषाय नौ-हास्य, रति, अरति, भय, शोक, तिभागसेसाउआ परभविआयूअं पकरेंति सिय तिभागति जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और भागावसेसाउआ सिअ तिभागतिभागतिभागसेसाउआ नपुंसकवेद । पकरेंति । (आवचू १ पृ ३६६) नोकषाय मोहनीय देव, नारक तथा असंख्येय वर्षजीवी मनुष्य और तिर्यच वर्तमान जीवन का छह माह आयुष्य शेष रहने नोकषाय:-कषायसहवत्तिनो हास्यादयस्तद्रूपेण पर अगले जन्म का आयुष्य बांधते हैं। निरुपक्रम आयु यद्वद्यते। (उशावृ प ६४३) वाले मनुष्य और तिर्यच वर्तमान भव की भाग आयु जो कषाय के सहवर्ती हैं, मूलभूत कषायों को उत्ते शेष रहने पर अगले भव का आयुबंध करते हैं । सोपक्रम जित करते हैं, हास्य आदि के रूप में जिनका वेदन आयु वाले जीव 3 भाग आयु शेष रहने पर अथवा होता है, वे नोकषाय हैं। उत्तरोत्तर तीसरे भाग का तीसरा भाग (छठा, नौवां, नोकषाय के प्रकार सत्ताईसवां) शेष रहने पर आयुबंध करते हैं। .."सत्तविहं नवविहं वा कम्मं नोकसायजं ॥ आयुष्यबन्ध और आकर्ष (उ ३३।११) यत्तु षड्भिः पञ्चभिश्चतुभिर्वा आकर्षेः आगृहीतं सप्तविधं हास्यरत्य रतिभय शोकजुगुप्सा: षड् वेदश्च दलिकं तदपवर्तनाकरणेनोपक्रम्यते इति सोपक्रमम् । सामान्यविवक्षयक एवेति । यदा तु वेदः स्त्रीपुंनपुंसकभेदेन (उशाव प २३७) त्रिधे ति विवक्ष्यते तदा षडभिस्त्रयो मीलिता नव भवन्ति। आकर्ष का अर्थ है- कर्म पदगलों का ग्रहण । चार. (उशावृ प ६४३) पांच अथवा छह आकर्षों से आयुष्य के पुद्गलों का एक गणना के अनुसार नोकषाय सात हैं- हास्य, ग्रहण होता है, वह सोपक्रम आयुष्य है। इसमें Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म १८४ नामकर्म अपवर्तनाकरण के द्वारा आयुष्य का अपवर्तन हो सकता आयुष्य के उपक्रम अज्झवसाणनिमित्त आहारे वेयणा पराघाए। सप्तभिरष्टभिर्वाऽऽकर्गवामिव मरुषु जलगण्डूष- फासे आणापाणु सत्तविहं झिज्जए आउं ।। ग्रहणरूपैर्यत्पुद्गलोपादानं तदनुभागोऽतिदृढ इत्यपवर्त (आवनि ७२४) यितुमशक्यतया निरुपक्रममुच्यते। (उशावृ प २३७) आयुष्य क्षीण होने के सात कारण --- जैसे मरुभूमि में गाय जलाशय में बार-बार मुंह अध्यवसान-राग-स्नेह-भयात्मकविचार । डालकर जल पीती है, एक साथ नहीं पीती वैसे ही निमित्त-दण्ड, शस्त्र आदि का प्रहार । सात-आठ आकर्षों से आयुष्य के पद्गलों का ग्रहण आहार-अति अल्प मात्रा में या अधिक मात्रा में होता है, एक साथ नहीं, वह निरुपक्रम आयुष्य है, भोजन करना। क्योंकि उसका अनुभाग अत्यन्त दृढ़ होता है, उसका वेदना-आंख, कान आदि की पीड़ा । अपवर्तन संभव नहीं है। पराघात--गड्ढे आदि में गिरना। सोपक्रम-निरुपक्रम आयुष्य स्पर्श-सांप आदि से डसा जाना। सोवक्कमो अ निरुवक्कमो अ दुविहोऽणुभावमरणंमि ।.... आनापान-उच्छ्वास-निःश्वास का निरोध हो (उनि २२६) जाना। जं जीवियसंवट्टणमझवसाणाइहेउसंजणियं । अन्य कारण सोवक्कमाउयाणं स जीविउवक्कमणकालो ।। दंडकससत्थरज्जू अग्गी उदगपडण विसं वाला। स जीवितोपक्रमणकालो यथ यूकोपक्रमणकालोऽभि सीउण्हं अरइ भयं खुहा पिवासा य वाही य । धीयत इत्यर्थः यत् किम् ? इत्याह-यज्जीवितस्य मुनपुरीसनिरोहे जिण्णाजिण्णे य भोयणे बहुसो। यथाबद्धस्य दीर्घकालवेद्यस्यायुष्कस्य संवर्तनं स्वल्पस्थिति घंसणघोलणपीलण आउस्स उवक्कमा एए। कत्वापादनम् । केषाम् ? सोपक्रमायुषां जीवानाम् । (आवनि ७२५,७२६) निरुपक्रमायुषां निकाचितावस्थस्यैव बद्धत्वादपवर्तना दण्ड, कश, शस्त्र, रज्जु (फांसी लगाना), अग्नि, योगात् । (विभा २०४५ मवृ पृ ७२१,७२२) उदकपतन, विष, व्याल (सर्प, दुष्ट गज), शीत, उष्ण, __ आयुष्य (अनुभावमरण) के दो प्रकार हैं -सोपक्रम __ अरति, भय, क्षुधा, पिपासा, व्याधि, मल-मूत्र का निरोध मरण और निरुपक्रम मरण । सोपक्रम आयुष्य वाले जीव करने पर, अधिक भोजन करने पर, अजीर्ण होने पर अध्यवसान, भय आदि निमित्त मिलने पर दीर्घकाल तक तथा घर्षण-घोलन-पीडन से आयुष्य क्षीण होता हैभोगे जाने वाले अपने बद्ध आयुष्य को अल्प काल में ये आयुष्य के उपक्रम हैं। ही भोग लेते हैं - इसे यथायुष्कउपक्रमकाल कहा जाता नामकर्म है। निरुपक्रम आयु वाले जीवों का आयूष्य निकाचित रूप में बद्ध होता है, अत: उसका अपवर्तन-हस्वीकरण गतिजात्यादिभिः प्रकारमियतीति नाम । नहीं होता। (उचू पृ २७७) के पुण सोवक्कमा निरुवक्कमा ? नेरइया देवा जा गति, जाति आदि से प्राणी-विशेष को निर्दिष्ट असंबज्जवासाउगा तिरिया मणया य उत्तमपरिसा करता है, वह है नाम कर्म । चरिमसरीर त्ति । सेसा भातया । (आवच १ पृ ३६६) नमयति-गत्यादिविविधभावानुभवनं प्रत्यात्मानं नैरयिक, देव, असंख्येयवर्षजीवी तिर्यंच और मनुष्य, प्रवणयति चित्रकर इव करितुरगादिभाव प्रति रेखाकृतिउत्तम पुरुष (तिरसठ शलाकापूरुष) तथा चरमशरीरी- मिति नामकर्म। (उशाव प ६४१) इन सबका आयुष्य निरुपक्रम होता है। इनके अतिरिक्त जैसे चित्रकार हाथी, घोड़े आदि का रेखांकन करता शेष सब जीवों का आयुष्य सोपक्रम और निरुपक्रम- है, वैसे ही जीवों को गति, जाति आदि विविध भावों दोनों प्रकार का हो सकता है। का अनुभव कराने वाला कर्मविशेष नाम कर्म है। Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोत्र कर्म १८५ कर्म _' नामं कम्मं तु दुविह, सुहमसुहं च आहियं । अशुभनाम कर्म की प्रकृतियां सुहस्स उ बहू भेया, एमेव असुहस्स वि ॥ अशुभनाम्नोऽपि विमध्यमविवक्षया चतुस्त्रिशझेदाः, (उ ३३६१३) तद्यथा-नरकगतिः तिर्यग्गतिः एकेन्द्रियजाति: द्वीन्द्रिय__ नामकर्म दो प्रकार का है शुभनाम और अशुभ- जातिः त्रीन्द्रियजातिः चतुरिन्द्रियजाति: ऋषभनाराचं नाम । इन दोनों के अनेक प्रकार हैं। नाराचं अर्धनाराचं कीलिका सेवातं न्यग्रोधमण्डलं साति शुभ नामकर्म की प्रकृतियां वामनं कुब्ज हुण्डम् अप्रशस्तवर्णगन्धरसस्पर्शचतुष्टयं शुभनाम्नोऽनन्तभेदत्वेऽपि विमध्यमविवक्षातः सप्त नरकानुपूर्वी तिर्यगानुपूर्वी उपधातम् अप्रशस्तविहायोगतिः त्रिशद् भेदाः, तद्यथा--मनुष्यगतिः देवगतिः पञ्चेन्द्रिय- स्थावरं सूक्ष्म साधारणम् अपर्याप्तम् अस्थिरम् अशुभं जाति: औदारिकवैक्रियआहारकर्तजसकार्मणशरीराणि दुर्भगं दुःस्वरम् अनादेयं अयश-कीत्तिश्चेति एतानि पञ्च, समचतुरस्रसंस्थानं वज्रर्षभनाराचसंहननम औदा- चाशुभनारकत्वादिनिबन्धनत्वेनाशुभानि । रिकवैक्रियआहारकअङ्गोपाङ्गानि त्रीणि, प्रशस्तवर्ण (उशावृ प ६४४) गन्धरसस्पर्शाश्चत्वारः, मनुष्यानुपूर्वीदेवानुपूर्वी चेत्यानु- अशुभ नामकर्म के चौंतीस भेद हैंपूर्वीद्वयमगुरुलघु पराघातम् उच्छ्वास: आतपः १. नरक गति १८. अप्रशस्त गंध उद्योतः प्रशस्त विहायोगतिः तथा त्रसबादरं पज्जत्तं प्रत्येक २. तिर्यंच गति १९. अप्रशस्त रस स्थिरं शुभ सुभग सुस्वरम् आदेयं यशकीत्तिश्चेति निर्माण ३. एकेन्द्रिय जाति २०. अप्रशस्त स्पर्श तीर्थकरनाम चेति एताश्च सर्वा अपि शुभानुभावात् ४. द्वीन्द्रिय जाति २१. नरकानुपूर्वी शुभम् । (उशा प ६४४) ५. त्रीन्द्रिय जाति २२. तिर्यंचानुपूर्वी ___ शुभ नामकर्म के अनंत भेद हैं, किंतु मुख्य भेद ६. चतुरिन्द्रिय जाति २३. उपघात सैंतीस हैं ७. ऋषभनाराच संहनन २४. अप्रशस्त विहायोगति ८. नाराच संहनन १. मनुष्यगति २५. स्थावर १९. देवानुपूर्वी ९. अर्धनाराच संहनन २. देवगति २६. सूक्ष्म २०. अगुरुलघु १०. कीलिका संहनन २७. साधारण ३. पंचेन्द्रिय जाति २१. पराघात ११. सेवात संहनन २८. अपर्याप्त ४. औदारिक शरीर २२. उच्छ्वास १२. न्यग्रोधपरिमंडल संस्थान २९. अस्थिर ५. वैक्रिय शरीर २३. आतप १३. साति संस्थान ३०. अशुभ ६. आहारक शरीर २४. उद्योत १४. वामन संस्थान ३१. दुर्भग ७. तैजस शरीर २५. प्रशस्त विहायोगति १५. कुब्ज संस्थान ३२. दुःस्वर ८. कार्मण शरीर २६. त्रस १६. हुण्डक संस्थान ३३. अनादेय ९. समचतुरस्र संस्थान २७. बादर १७. अप्रशस्त वर्ण ३४. अयश:कीर्ति नाम १०. वज्रऋषभनाराच संहनन २८. पर्याप्त १०. गोत्र कर्म ११. औदारिक अंगोपांग २९. प्रत्येक १२. वैक्रिय अंगोपांग ३०. स्थिर प्रधानमप्रधानं वा करोतीति गोत्रं । (उचू पृ २७७) १३. आहारक अंगोपांग जो पुद्गल आत्मा की प्रतिष्ठा या अप्रतिष्ठा में ३१. शुभ १४. प्रशस्त वर्ण निमित्त बनते हैं, वह है गोत्र कर्म । ३२. सुभग १५. प्रशस्त गंध ३३. सुस्वर गीयते-शब्द्यते उच्चावचैः शब्दः कुलालादिव १६. प्रशस्त रस ३४. आदेय मृद्रव्यमत आत्मेति गोत्रम् । (उशावृ प ६४१) १७. प्रशस्त स्पर्श ३५. यशःकीर्ति जैसे कुम्भकार मिटटी से बने छोटे-बड़े घड़ों को १८. मनुष्यानुपूर्वी ३६. निर्माण विभिन्न नामों से पुकारता है वैसे ही आत्मा विभिन्न ३७. तीर्थंकर नाम उच्चावच शब्दों से पुकारी जाती है, वह गोत्र कर्म है। न Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म सोपक्रम कर्म के दुष्डांत गोयं कम्मं दुविहं, उच्च नीयं च आहियं । ४. उपभोगान्तराय-वस्त्र, अलंकरण आदि की प्राप्ति उच्च अविहं होइ, एवं नीयं पि आहियं ।। होने पर भी व्यक्ति उनका उपभोग नहीं कर पाता। गोत्र कर्म दो प्रकार का है-उच्च गोत्र और नीच ५. वीर्यान्तराय- व्यक्ति बलवान् है, स्वस्थ है, तरुण है गोत्र । इन दोनों के आठ-आठ प्रकार हैं। फिर भी वह एक तिनके को भी तोड़ जाति, कुल, बल, तप, ऐश्वर्य, ज्ञान, लाभ और नहीं सकता। रूप की उच्चता से उच्च गोत्र तथा इन आठों की निम्नता से नीच गोत्र । १२. कर्म प्रकृतियों का उपक्रम ११. अन्तराय कर्म सव्वपगईणमेवं परिणामवसादुवक्कमो होज्जा । पायमनिकाइयाणं तवसा उ निकाइयाणं पि । अन्तरा-दातृप्रतिग्राहकयोरन्तर्भाण्डागारिकवद्विघ्न (विभा २०४६) हेततयाऽयते-गच्छतीत्यन्तरायम् । (उशाव प६४१) शुभ-अशुभ परिणामवश ज्ञानावरणीय आदि सब जैसे कोषाध्यक्ष राजा के द्वारा प्रदत्त राशि को देने कर्म प्रकृतियों का अपवर्तनाकरण के द्वारा उपक्रम होता में बाधा उपस्थित करता है, वैसे ही जो कर्म दान, लाभ, है। यह उपक्रम प्रायः अनिकाचित प्रकृतियों का ही होता भोग, उपभोग और शक्ति -इनमें बाधक बनता है, वह है। तपस्या के द्वारा निकाचित प्रकृतियों का भी उपक्रम है अन्तराय कर्म। होता है। दाणे लाभे य भोगे य, उवभोगे वीरिए तहा। उदय-खय-खयोवसमोवसमा जंच कम्मणो भणिया । पंचविहमंतरायं, समासेण वियाहियं । दव्वाइपंचयं पइ जुत्तमूवक्कामणमओ वि ।। (उ ३३/१५) (विभा २०५०) दानान्तरायं यत्सति विशिष्टे ग्रहीतरि देये च वस्तुनि कर्मों का उदय, क्षय, क्षयोपशम और उपशम द्रव्य तत्फलमवगच्छतोऽपि दाने प्रवृत्तिमुपहन्ति। यत्पुनर्वि- क्षेत्र, काल, भव और भाव के आश्रित होता है। शिष्टेऽपि दातरि यावन्निपुणेऽपि याचितरि उपलब्धिउप- हसला कर्मों का उपक्रम यक्तियक्त है। घातकृततल्लाभान्तरायं । भोगान्तरायं तु सति विभवादौ जेणोवक्कामिज्जइ समीवमाणिज्जए जओ जंतु । सम्पद्यमाने च आहारमाल्यादौ यद्वशान्न भुङक्त । उप- स किलोवक्कमकालो किरियापरिणामभइट्रो। भोगान्तरायं तु यस्योदयात्सदपि वस्त्रालङ्कारादि नोप (विभा २०३९) भङ क्ते । वीर्यान्तरायं यद्वशाबलवान्नीरुग्वयःस्थः अथ च जिस क्रिया विशेष से दूरस्थ को समीप लाया जाता तृगकुब्जीकरणेऽप्यसमर्थः। (उशावृ प ६४५) है, वह उपक्रम है। इसमें क्रिया-परिणाम (उपक्रम की अन्तराय कर्म के पांच प्रकार हैं हेतुभूत क्रियाओं) की बहुलता है । १. दानान्तराय-दान लेने वाला और देय वस्तु सोपक्रम कर्म के दृष्टान्त विशिष्ट है तथा दाता दान के फल से जह वा दीहा रज्जु डझइ कालेण पुंजिया खिप्पं । अभिज्ञ है, किन्तु दान की प्रवृत्ति में वियओ पडो व सुस्सइ पिंडीभूओ य कालेणं ॥ बाधा आती है। (विभा २०६१) २. लाभान्तराय-दाता भी विशिष्ट है और याचक जैसे फैली हई रज्जू को जलने में समय लगता है भी निपुण है किन्तु याचक की उप- और पुंजीभूत रज्जू शीघ्र जल जाती है, फैला हुआ लब्धि में बाधा आ जाती है। गीला वस्त्र जल्दी सूख जाता है और पिंडीभूत वस्त्र को ३. भोगान्तराय----सम्पदा होने पर भी व्यक्ति के भोग सूखने में समय लगता है, वैसे ही वेदनकाल में कर्मों का में बाधा आती है। वह आहार, उद्वर्तन और अपवर्तन होता है। माला आदि का भोग नहीं कर किंचिदकाले वि फलं पाइज्जइ पच्चए य कालेणं । पाता। तह कम्म पाइज्जइ कालेण विपच्चए वण्णं ।। Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मबंध : सूचीकलाप की उपमा १८७ कर्म भिण्णो जहेह कालो तुल्ले वि पहम्मि गइविसेसाओ। कर्म-परमाण बन्ध-काल में आत्मा के सभी प्रदेशों के साथ सत्थे व गहणकालो मइ-मेहाभेयओ भिन्नो। सम्बद्ध होते हैं। तह तुल्लम्मि वि कम्मे परिणामाइकिरियाविसेसाओ। १५. आत्मप्रदेश-कर्मप्रदेश-परिमाण भिण्णोऽणुभवणकालो जेट्रो मझो जहन्नो य॥ (विभा २०५८-२०६०) .....आउगकम्मपएसग्गणतणंता पएसेहिं ।। फलों का परिपाक दो तरह से होता है। जैसे वक्षस्थ आत्मप्रदेशो हि एकैकस्तत्प्रदेशैरनन्तानन्तैरावेष्टितः आम्रफल समय आने पर ही पकता है, किन्तु गर्त में डाल संवेष्टितः । (उनि २२६ शाव प २३७) पलाल से ढक देने पर वह समय से पहले ही पक जाता एक-एक आत्मप्रदेश अनंतानंत कर्मपूदगलों से आवेहै। वैसे ही कर्म का फल अध्यवसान आदि हेतु मिलने ष्टित-परिवेष्टित है। आयुष्य कर्म का प्रदेशपरिमाण पर शीघ्र भोग लिया जाता है। (सौ वर्ष में भोगा जाने अनंतानंत है, जिससे एक-एक आत्मप्रदेश आवेष्टित है। वाला आयुष्य अन्तर्मुहूर्त में भोग लिया जाता है) अन्यथा १६. कर्म अनुभाग का प्रदेश-परिमाण यथाकाल सम्पूर्ण रूप से भोगा जाता है। मार्ग की दूरी तुल्य होने पर भी गति की मन्दता सिद्धाणणंतभागो य, अणुभागा हवंति उ । और तीव्रता के कारण पथिक भिन्न-भिन्न काल में अपने सव्वेसु वि पएसग्गं, सव्वजीवेसुऽइच्छियं ।। गन्तव्य पर पहुंचते हैं। ग्रन्थ का परिमाण समान होने (उ ३३/२४) पर भी ग्रहण-अवधारण शक्ति की तरतमता के कारण कर्मों के अनुभाग सिद्ध आत्माओं के अनन्तवें भाग विद्यार्थी भिन्न-भिन्न काल में उस ग्रंथ का पार पाते हैं। जितने होते हैं। सब अनुभागों का प्रदेश परिमाण-- इसी प्रकार बद्ध कर्मों की स्थिति तुल्य होने पर भी परि- रसविभाग का परिमाण सब जीवों से अधिक होता है। णाम, बाह्य निमित्त, क्रिया आदि की भिन्नता के कारण १७. एक समय में गहीत कर्मप्रदेशों का परिमाण कर्मों का अनुभवकाल भिन्न-भिन्न होता है। सव्वेसिं चेव कम्माणं, पएसग्गमणंतगं । १३. कर्म एक क्षेत्रावगाही गंठियसत्ताईयं, अंतो सिद्धाण आहियं ।। गिण्हइ तज्जोगं चिय रेणु पुरिसो जहा कयब्भंगो । (उ ३३/१७) एगक्खेत्तोगाढं जीवो सव्वप्पएसेहिं ॥ एक समय में गृहीत सब कर्मों का प्रदेशाग्र अनन्त एकक्षेत्रावगाढमेव गलाति, न त स्वावगाढप्रदेशेभ्यो है। वह अभव्य जीवों से अनन्त गुना अधिक और सिद्ध भिन्नप्रदेशावगाढम् । (विभा १९४१; मवृ पृ६८७) आत्माओं ६) आत्माओं के अनन्तवें भाग जितना होता है। ___ जीव कर्म के योग्य कर्मवर्गणा के पुद्गलों को ही १८. कर्मबंध : सचीकलाप की उपमा ग्रहण करता है । वह एक क्षेत्रावगाही पुद्गलों को ग्रहण करता है-अपने आत्मप्रदेशों से अवगाहित क्षेत्र से कम्मप्पवायपूवे बद्धं पुठं निकाइयं कम्म । भिन्न क्षेत्र में अवगाढ पुद्गलों का ग्रहण नहीं करता । यह जीवपएसेहिं समं सूईकलावोवमाणाओ। ग्रहण सब आत्मप्रदेशों से होता है। जैसे तेल आदि से अयं च विविधोऽपि बन्धः सूचीकलापोपमानाद् स्निग्ध शरीर पर रजकण चिपकते हैं, वैसे ही राग-द्वेष भावनीयः, तद्यथा-गुणाऽऽवेष्टितसूचीकलापोपमं बद्धसे संक्लिष्ट आत्मा पर कर्म चिपकते हैं। मुच्यते, लोहपट्टबद्धसूचीसंघातसदृशं तु बद्धस्पृष्टमित्य१४. सब आत्मप्रदेशों से कर्मबंध भिधीयते, बद्धस्पृष्टनिकाचितं त्वग्नितप्तघनाहतिक्रोडीसव्वजीवाण कम्मं तु, संगहे छद्दिसागयं । कृतसूचीनिचयसंनिभं भावनीयमिति ।। सव्वेसु वि पएसेसु, सव्वं सम्वेण बद्धगं ।। (विभा २५१३ म प ९३) (उ ३३/१८) कर्म जीव-प्रदेशों के साथ बद्ध , स्पृष्ट और निका। सब जीवों के संग्रह-योग्य पुदगल छहों दिशाओं- चित होते हैं --ऐसा कर्मप्रवाद पूर्व में प्ररूपित है। इस आत्मा से संलग्न सभी आकाशप्रदेशों में स्थित हैं । वे सब बंध को सूची-कलाप की उपमा से उपमित किया गया Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म १८८ कर्मभोग अवश्यंभावी है। सूची-कलाप से उपमित कर्मबन्ध के तीन प्रकार अनुदित कर्म की निर्जरा नहीं होती, असत् का उदय नहीं होता, इसलिए प्रदेश कर्म का वेदन होने पर ही १. धागे से बंधे हए सूची-कलाप के समान कर्मों की जीव कर्मों का निर्जरण करता है। बद्ध अवस्था है। किरियाए कुणइ रोगो मंदं पीलं जहाऽवणिज्जतो । २. लोहपट्ट से बद्ध सूची-समूह के समान बद्धस्पृष्ट किरियामेत्तकयं चिय पएसकम्मं तहा तवसा ।। से अवस्था है। (विभा १२९९) ३. अग्नि में तपाकर घन से पीटकर सूची-समूह को औषध सेवन के द्वारा अपनीयमान रोग की पीड़ा एकमेक कर देने के समान है बद्धस्पृष्ट निकाचित मन्द हो जाती है। चिकित्साकाल में जो कुछ क्रियाएं की अवस्था । जाती हैं, मात्र उतनी सी पीड़ा होती है। वैसे ही तपस्या १६. उदय से पूर्व कर्म को चार अवस्थाएं के द्वारा अपनीयमान प्रदेशकर्म से गुणों का विघात नहीं होता, मात्र तपःक्रिया से थोड़ा कष्ट होता है । जोग्गा बद्धा बझंतया य पत्ता उईरणावलियं । नरकगत्यादिकाः कर्म प्रकृतयस्तद्भवसिद्धिकानामपि अह कम्मदव्वराओ चउव्विहा पोग्गला हंति ॥ मुनीनां सत्तायां विद्यन्त एव, न चाननुभूतास्ताः कदा(विभा २९६२) चिदपि क्षीयन्ते, न च तद्भवसिद्धिको नरकादिजन्मविपा१. योग्य-जो कर्म पूद्गल बंधपरिणाम के अभिमुख केन ताः समनुभवति, किन्तु तपसा प्रदेशरूपतया समनुभूय ताः क्षपयति । (विभामवृ पृ४८७) २. बध्यमान-जिन कर्म पुद्गलों की बंध-क्रिया प्रारंभ उसी भव में सिद्ध गति को प्राप्त करने वाले मनियों हो चुकी है। के भी नरकगति आदि कर्म प्रकृतियां सत्ता में रहती हैं। ३. बद्ध-जिन कर्म पुद्गलों की बंध-क्रिया सम्पन्न हो उनका अनुभव किए बिना वे कभी क्षीण नहीं होती। ___ चुकी है। तद्भवसिद्धिक जीव नरक आदि जन्मों के विपाकोदय के ४. उदीरणावलिका प्राप्त--जो कर्मपदगल उदीरणा - रूप में उनका अनुभव नहीं करता, किन्तु प्रदेशोदय में करण द्वारा उदीरणावलिका को प्राप्त हैं, उनका अनुभव कर तपस्या से उनको क्षीण कर देता है। लेकिन उदयावलिका को प्राप्त नहीं हुए हैं। कर्मभोग अवश्यंभावी २०. कर्मभोग की प्रक्रिया सव्वं सुचिण्णं सफलं नराणं पावाणं च खलु भो! कडाणं कम्माणं पुट्वि ___कडाण कम्माण न मोक्ख अत्थि ।... (उ १३/१०) दुच्चिण्णाणं दुप्पडिक्कंताणं वेयइत्ता मोक्खो, नत्थि अवेयइत्ता, तवसा वा झोसइत्ता। ___मनुष्यों का सब सुचीर्ण (सुकृत) सफल होता है। (दचू १/सूत्र १८). किए हए कर्मों का फल भोगे बिना मोक्ष नहीं होता । दुश्चरित्र और दुष्ट पराक्रम के द्वारा पूर्वकाल में ......."कम्मसच्चा ह पाणिणो। (उ ७/२०) अजित किए हुए पाप-कर्मों को भोग लेने पर अथवा तप प्राणी कर्म-सत्य होते हैं-अपने किये हुए का फल के द्वारा उनका क्षय कर देने पर ही मोक्ष होता है। अवश्य पाते हैं। . भणियं च सुए जीवो वेएइ न वाऽणभावकम्मं ति । पुण्य-पापलक्षणमुभयमपि सविपाकमविपाकं च मन्तजं पुण पएसकम्म नियमा वेएइ त सव्वं ॥ व्यम्-यथाबद्धं तथैव विपाक.: किञ्चिद् वेद्यते, नाण दियं निज्जीरइ नासंतमुदेइ जं तओऽवस्सं । किञ्चित्तु मन्दरसं नीरसं वा कृत्वा प्रदेशोदयेनाविपाक सव्वं पएसकम्मं वेएउं मुच्चए सव्वो॥ वेद्यते । (विभामवृ १ पृ ६९०) (विभा १२९५, १२९६) पुण्य कर्म और पापकर्म सविपाकी, अविपाकी-- आगम श्रुत में कहा गया है - जीव अनुभाव कर्म दोनों तरह के होते हैं । कुछ कर्म सविपाकी होते हैंका वेदन करता भी है, नहीं भी करता। प्रदेश कर्म का जिस रूप में बंधे हैं, उसी रूप में भोगे जाते हैं। कुछ वेदन नियमत: होता है। कर्म अविपाकी होते हैं-जिन्हें मंदरस अथवा नीरस कर Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मों की स्थिति - कर्म प्रदेशोदय के रूप में भोगा जाता है, उनका विपाकोदय बंधने वाली) प्रकृति में संक्रांत होती है। बध्यमान प्रकृति नहीं होता। पूर्वबद्ध प्रकृति में संक्रांत नहीं होती । जैसे-पूर्वबद्ध २१. कर्म-संक्रमण की प्रक्रिया असात वेदनीय बध्यमान सात वेदनीय में संक्रांत होता है किन्तु बध्यमान सात वेदनीय पूर्व बद्ध असात वेदनीय मोत्तूण आउयं खलु दंसणमोहं चरित्तमोहं च । में संक्रांत नहीं होता—यह प्रकृति-संक्रमण का नियम ससाण पगइण उत्तरावाहसकमा भज्जा ॥ है। स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के संक्रमण का नियम ' ज्ञानावरणादिमूलप्रकृतीनामन्योन्यं संक्रमः कदापि न इससे भिन्न है । वह वेद्यमान अवस्था में होता है । भवत्येव, उत्तरप्रकृतीनां तु निजनिजमूलप्रकृत्यभिन्नानां पुब्बगहियं च कम्मं परिणामवसेण मीसयं नेज्जा। परस्परं संक्रमो भवति ।.... भजना चैवं द्रष्टव्या-याः इयरेयरभावं वा सम्मा-मिच्छाई न उ गहणे ॥ किल ज्ञानावरणपञ्चक-दर्शनावरणनवक-कषायषोडशक (विभा १९३८) मिथ्यात्व-भय-जुगुप्सा - तैजस - कार्मणवर्णादिचतुष्कागुरु पूर्वगृहीत सत्तावर्ती कर्म का संक्रमण होता है। यह लघूपधातनिर्माणाऽन्तरायपञ्चकलक्षणाः सप्तचत्वारिंशद् __ संक्रमण -परिवर्तन परिणामधारा की तीव्रता-मंदता और ध्रुवबन्धिन्य उत्तरप्रकृतयः । तासां निजकमूलप्रकृत्यभिन्ना शुद्धि-अशुद्धि के आधार पर होता है। जैसे-पूर्वबद्ध नामन्योन्यं संक्रमः सदैव भवति । यथा ज्ञानावरणपञ्च मिथ्यात्व के पुदगल विशुद्ध परिणामों से शोधित होने पर कान्तर्वतिनि मतिज्ञानावरणे श्रुतज्ञानावरणादीनि, तेष्वपि सम्यक्त्व में संक्रांत हो जाते हैं। इसी प्रकार अशुद्ध मतिज्ञानावरणं संक्रामतीत्यादि । यास्तु शेषा अध्रुवबन्धि परिणामों की तीव्रता के कारण सम्यक्त्व के पुद्गल न्यस्तासां निजकमलप्रकृत्यभेदवतिनीनामपि बध्यमानायाम मिथ्यात्व में संक्रांत हो जाते हैं । बध्यमाना संक्रामति, न त्वबध्यमानायां बध्यमानाः यथा साते बध्यमानेऽसातमबध्यमानं संक्रामति, न त बध्यमान- २२. कमा की स्थिति मबध्यमाने इत्यादि वाच्यमिति । एषः प्रकृतिसंक्रमे उदहीसरिनामाणं, तीसई कोडिकोडिओ। विधिः । शेषस्तु प्रदेशादिसंक्रमविधिः मूलप्रकृत्यभिन्नासु उक्कोसिया ठिई होइ, अंतोमुहुत्तं जहन्निया ॥ वेद्यमानासु संक्रमः भवति । आवरणिज्जाण' दुहं पि, वेयणिज्जे तहेव य । . (विभा १९३९; मवृ पृ ६८६, ६८७) अंतराए य कम्मम्मि, ठिई एसा वियाहिया। कर्म की ज्ञानावरण आदि मूल आठ प्रकृतियों का (उ ३३।१९,२०) परस्पर संक्रमण कभी भी नहीं होता। सजातीय उत्तर ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय और अन्तराय प्रकृतियों का परस्पर संक्रमण हो सकता है, अनिवार्य -इन कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति तीस कोटि-कोटि सागर नियम नहीं है। आयुष्य कर्म की चारों प्रकृतियों का तथा और जघन्य स्थिति अन्तर्मुहुर्त की होती है। दर्शनमोह और चारित्रमोह का परस्पर संक्रमण नहीं ......"वेअणीए बारस मुहत्ता ॥ (विभा ११८८) होता। वेदनीय की जघन्य स्थिति बारह मुहूर्त की है। ज्ञानावरण की पांच, दर्शनावरण की नौ, कषाय की (वेदनीय कर्म बन्ध के दो प्रकार हैं-साम्परायिक सोलह, मिथ्यात्व की एक, भय की एक, जुगुप्सा की एक और ईपिथिक । साम्परायिक बन्ध सकषायी के होता तेजस की एक, कार्मण की एक, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, है, उसकी जघन्य स्थिति है बारह मुहूर्त । ईपिथिक अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और अंतराय की पांच-..- बन्ध वीतराग के होता है, उसकी जघन्य स्थिति है इन ४७ ध्रुवबन्धिनी उत्तर प्रकृतियों का अपनी सजातीय अन्तर्मुहूर्त (दो समय)।) प्रकृति के साथ संक्रमण होता है। जैसे—मतिज्ञानावरण मोहनीय कर्म का श्रुतज्ञानावरण आदि के साथ, श्रुतज्ञानावरण का मति- उदहीसरिनामाणं, सरिं कोडिकोडिओ। ज्ञानावरण आदि के साथ संक्रमण होता है। मोहणिज्जस्स उक्कोसा, अन्तोमुहुत्तं जहनिया ॥ शेष अध्रुवबंधिनी प्रकृतियों के संक्रमण का नियम . (उ ३३१२१) यह है कि पूर्वबद्ध सजातीय प्रकृति बध्यमान (वर्तमान में मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोटि-कोटि Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म सागर की और जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की होती है । आयुष्य कर्म तेत्तीस सागरोवमा उक्कोसेण वियाहिया । ठिई उ आउकम्मस्स, अन्तोमुहुत्तं जहन्निया ॥ ( उ ३३।२२) आयु - कर्म की उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागर की और जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की होती है । नाम - गोत्र-कर्म उदहीसरिनामाणं, वीसई कोडिकोडिओ | नामगोत्ताणं उक्कोसा, अट्ठ मुहुत्ता जहन्निया ॥ ( उ ३३।२३) नाम और गोत्र कर्म की उत्कृष्ट स्थिति बीस कोटिकोटि सागर और जघन्य स्थिति आठ मुहूर्तं की होती है । उत्तर प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति उत्तरप्रकृतिविषया (स्थिति) प्रदर्श्यते - तत्रोत्कृष्टा स्त्रीवेद-सातवेदनीयमनुजगत्यानुपूर्वीणां चतसृणामुत्तरप्रकृतीनां पञ्चदश सागरोपमकोटी कोट्यः । कषायषोडशकस्य चत्वारिंशन्नपुंसकारतिशोकभयजुगुप्सानां पञ्चानां विंशतिः । पुंवेदहास्य रतिदेव गत्यानुपूर्वीद्वयाद्यसंहननसंस्थानप्रशस्त विहायोगतिस्थिरशुभसुभगसुस्वरादेययशः कीर्त्यच्चैर्गोत्राणां पञ्चदशानां दश । न्यग्रोधसंस्थान द्वितीय संहननयोर्द्वादश । सातिसंस्थाननाराचसंह - ननयोश्चतुर्दश । कुब्जार्द्धनाराचयोः षोडश । वामनसंस्थान कीलिका संहनन द्वित्रिचतुरिन्द्रियजातिसूक्ष्मापर्याप्ततिर्यग्मनुष्यायुषोः पल्योपमत्रयं । अवशिष्टानां तु मूलप्रकृतिवदुत्कृष्टा स्थितिः । ( उशावृ प ६४७) उत्कृष्ट स्थिति कसाधारणानामष्टानामष्टादश । पन्द्रह कोटाकोटि सागरोपम कर्म की उत्तर प्रकृतियां स्त्रीवेद, सात वेदनीय, मनुष्यगति मनुष्य गति आनुपूर्वी सोलह कषाय नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय जुगुप्सा पुरुष वेद, हास्य, रति, देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, प्रथम संहनन, प्रथम संस्थान, प्रशस्त विहायोग ति १९० चालीस कोटाकोटि सागरोपम बीस कोटाकोटि सागरोपम दस कोटाकोटि सागरोपम स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशोकीर्ति, उच्चगोत्र, न्यग्रोध संस्थान, ऋषभनाराच संहनन सादि संस्थान, नाराच संहनन कुब्ज, अर्धनाराच संहनन वामन संस्थान, कीलिका संहनन, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रय जाति, सूक्ष्म, पर्याप्त, साधारण तिर्यञ्च शेष प्रकृतियों की स्थिति उत्तर प्रकृतियों की जघन्य स्थिति उत्तर प्रकृतियों की जघन्य स्थिति दस कोटाकोटि सागरोपम बारह कोटाकोटि सागरोपम कर्म की उत्तर प्रकृतियां निद्रा पञ्चक असात वेदनीय सात वेदनीय मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धी चतुष्क अप्रत्याख्यान चतुष्क प्रत्याख्यान चतुष्क चौदह कोटाकोटि सागरोपम सोलह कोटाकोटि सागरोपम जघन्या तु निद्रापञ्चकासातावेदनीयानां षण्णां सागरोपम सप्तभागास्त्रयः पत्योपममासंख्येयभागन्यूनाः । सातस्य तु द्वादश मुहूर्त्ताः । मिथ्यात्वस्य पत्योपमासंख्येयभागोनं सागरोपमम् । आद्यकषायद्वादशकस्य चत्वारः सागरोपमसप्तभागास्तावतैव न्यूनाः । क्रोधस्य संज्वलनस्य मासद्वयं । मानस्य मासो । मासार्द्ध मायायाः । पुंवेदस्याष्टौ वर्षाणि । शेषनोकषायमनुष्य तिर्यग्गतिजातिपञ्चकौदारिकशरी रतदङ्गोपाङ्गतै जसकार्मणसंस्थानषट्कसंहननषट्कवर्ण चतुष्क तियं ग्मनुष्यानुपूर्व्य गुरुलघूपघातपराघातोच्छ्वासातपोद्योतप्रशस्ताप्रशस्त - विहायोगतियश:कीर्तिवर्जन सादिविंशतिनिर्माणनीचैर्गोत्राणां षट्षष्ट्युत्तरप्रकृतीनां सागरोपमसप्तभागौ द्वौ पल्योपमासंख्येयभागन्यूनौ । वैयिषट्कस्य सागरोपमसहस्रभागी हो पल्योपमासंख्येयभागन्यूनौ । आहारकतदङ्गोपाङ्गतीर्थकर नाम्नामन्तः सागरोपमकोटीकोटी । ( उशावृ प ६४७, ६४८ ) जघन्य स्थिति पत्योपम का असंख्येय भाग न्यून सागरोपम बारह मुहूर्त पल्योपम का असंख्येय भाग न्यून एक सागरोपम अठारह कोटाकोटि सागरोपम तीन पल्योपम मूल प्रकृतिवत् पत्योपभ का असंख्येय भाग कम सागरोपम Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्लिष्ट परिणाम और स्थितिबंध कर्म नाम संज्वलन क्रोध दो मास दो हजार वर्ष संज्वलन मान एक मास गोत्र दो हजार वर्ष संज्वलन माया पन्द्रह दिन आयुष्य कर्म का अबाधाकाल नहीं होता। संज्वलन लोभ अन्तर्मुहूर्त २४. संक्लिष्ट परिणाम और स्थितिबंध पुरुष वेद आठ वर्ष मोहस्सुक्कोसाए ठिईए सेसाण छण्हमुक्कोसा। पुरुषवेदजित नोकषाय) पल्योपम का असंख्येय भाग आउस्सुक्कोसा वा मज्झिमिया वा न उ जहण्णा ।। से नीच गोत्र पर्यंत ६६ । कम 3 सागरोपम (विभा ११८९ मत पृ ४५४) प्रकृतियां मोह कर्म का स्थिति बंध उत्कृष्ट हो तो शेष छह वैक्रिय षटक पल्योपम का असंख्येय भाग (आयुष्य वजित) कर्मों का स्थिति बंध भी उत्कृष्ट ही कम दो सागरोपम होता है। संक्लिष्ट परिणामों की उत्कृष्टता इस दीर्घ आहारक शरीर स्थितिबंध में निमित्त बनती है। आहारक अंगोपांग अन्तःकोटिकोटि सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति वाले मोह कर्म के साथ उत्कृष्ट तीर्थकर नाम आयुष्य बंध होने पर जीव नरकगति का आयुष्य बांधआहारक'"उत्कृष्ट-जघन्य स्थिति कर सातवीं पृथ्वी में उत्पन्न होता है। उसकी उत्कृष्ट ननत्कृष्टाऽपि एतावत्येवासां तिसृणां स्थिति- स्थिति तेतीस सागरोपम होती है। जब जीव छठी आदि रभिहिता, सत्यं, तथाऽपि तत: संख्येयगुणहीनत्वेनास्या पृथ्वियों में उत्पन्न होता है, तब मध्यम स्थितिबंध होता जघन्यत्वमिति सम्प्रदायः । (उशाव प ६४८) है. जघन्य नहीं। अत्यधिक संक्लिष्ट परिणामों वाला जीव आहारकशरीर, आहारकशरीरअंगोपांग और नरक में ही उत्पन्न होता है। वह जघन्य आयु-स्थिति जीत होता है। तीर्थकर नाम- इन तीन प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति वाले क्षल्लक भव में उत्प वाले क्षुल्लक भव में उत्पन्न नहीं होता। जब नरयिक भी जघन्य स्थिति की तरह अन्तःकोटाकोटि सागरोपम और देव संक्लिष्ट परिणामों से उत्कृष्ट मोहस्थिति का ही है। किन्तु वह जघन्य स्थिति उत्कृष्ट स्थिति से बंध कर तिर्यंचगति में उत्पन्न होते हैं, तब भी उनका संख्येयगुण हीन होती है यह तथ्य परम्परा से प्राप्त है। जघन्य स्थिति वाला आयुष्य नहीं होता। देव और २३. अबाधाकाल नरयिक क्षुल्लक भव में उत्पन्न नहीं होते। णाणावरणीयस्य त्रीणि च वर्षसहस्राणि आबाधा मोहविवज्जुक्कोसयठिईए मोहस्स सेसियाणं च। अंतरं भवति ।...'न बाधा अबाधा, तत्र उदयो न भवती उक्कोस मज्झिमा वा कासइ व जहणिया होज्जा ॥ त्यर्थः, तैश्च सत्स्थितिरूना भवति, एवं दर्शनावरणीया (विभा ११९० मवृ पृ ४५५) न्तराययोः । वेदनीयस्थितिः तदेव...''दर्शनमोहनीयं" जब जीव मोहवजित उत्कृष्ट स्थिति वाला ज्ञानाचत्वारि वर्षसहस्राण्याबाधा अन्तरं भवति "चारित्र- वरण आदि कर्म बांधता है, तब मोह तथा शेष कर्मों की मोहनीयस्य""सप्तवर्षसहस्राणि आबाधा अन्तरं भवति। उत्कृष्ट अथवा मध्यम स्थिति का बंध करता है। नामगोत्रयोः... वर्षसहस्रद्वयं आबाधा अंतरं भवति । मोहनीय, दर्शनावरण आदि कर्मों की जघन्य स्थिति (उचू पृ २७८) का बंध अनिवृत्ति बादर और सूक्ष्मसम्पराय-इन दो कर्म अबाधाकाल गुणस्थानों में ही होता है। इन दोनों गुणस्थानों में ज्ञानावरण तीन हजार वर्ष ज्ञानावरण आदि कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति का बंध कभी दर्शनावरण तीन हजार वर्ष नहीं होता। उत्कृष्ट स्थिति का बंध मिथ्यादृष्टि के ही वेदनीय तीन हजार वर्ष होता है। ज्ञानावरण आदि की उत्कृष्ट स्थिति में मोहनीय अंतराय तीन हजार वर्ष आदि की जघन्य स्थिति संभव नहीं है। किन्तु किसीदर्शनमोहनीय चार हजार वर्ष किसी के आयु कर्म की जघन्य स्थिति संभव है । जैसेचारित्रमोहनीय सात हजार वर्ष ज्ञानावरण आदि की उत्कृष्ट स्थिति का बंध करता हुआ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म तिथंच अथवा मनुष्य जघन्य क्षुल्लक भव का आयुष्य बांध लेता है । नाम, मोहनीय कर्म की जघन्य स्थिति का बंध करते हैंअनिवृत्ति बादर नामक गुणस्थानवर्ती जीव । आयुष्य कर्म की जघन्य स्थिति का बंध करते हैं - मिथ्यादृष्टि तियंच और मनुष्य । ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, गोत्र और अन्तराय कर्म की जघन्य स्थिति का बंध करते हैं - सूक्ष्मसम्पराय नामक दसवें गुणस्थानवर्ती जीव । यह जघन्य स्थितिवन्ध कषायप्रत्ययिक है। योगप्रत्ययिक जघन्य स्थितिबन्ध उपशांतमोह आदि गुणस्थानों में होता है । २५. पुण्यकर्म पापकर्म १९२ सोहणवण्णागुणं सुभाणुभावं च जं तयं पुण्णं । विवरीयमओ पावं न बायरं नाइहुमं च ॥ ( विभा १९४० ) जिसके वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श आदि शुभ तथा जिसका विपाक शुभ है, वह पुण्य कर्म है । जिसके वर्ण, गन्ध आदि अशुभ हैं और जिसका विपाक अशुभ है, वह पाप कर्म है । ये दोनों पुद्गल न परमाणु के समान अति सूक्ष्म हैं और न अतिस्थूल हैं । कर्म की पुण्य प्रकृतियां पुरिस - इ - सुभाउ - नाम - गोत्ताइं । पावं नेयं तह नामे | य परघायं ॥ सायं सम्मं हासं पुण्णं, सेसं सविवागमविवागं ॥ ( सायं उच्चागोयं नर- तिरि देवाउयाई पणिदिजाई देवदुगं मणुयदुगं अंगोवंगाण तिगं पढमं संघयणमेव सुभवण्णाइचक्कं अगुरुलहू तह य ऊसासं आयावं उज्जोय विहगगई वि य तस बायर पज्जत्तं पत्तेय थिरं सुभं सुभगं ॥ सुस्सर आएज्ज जसं निम्मिण तित्थयरमेव एयाओ । बायालं पगईओ पुण्णं ति जिणेहि भणिआओ || ) भणितशेषास्तु द्वयशीतिप्रकृतयस्तत् सर्वमशुभत्वात् पापं विज्ञेयम् । पसत्था । तणुपणगं ॥ संठाणं । अन्ये तु मोहनीयभेदान् सर्वानपि जीवस्य विपर्यासहेतुत्वात् पापमेव मन्यन्ते । ततः सम्यक्त्व - हास्य- पुरुषवेदरतिवर्जा द्विचत्वारिशदेव प्रकृतयः पुण्यम् । ( विभा १९४६ मव पृ ६८९, ६९० ) सातावेदनीय, सम्यक्त्वमोहनीय, हास्य, पुरुषवेद पाप प्रकृतियां रति मोहनीय, तिर्यंच आयुष्य, मनुष्य आयुष्य, देव आयुष्य, देवगति, देव आनुपूर्वी, मनुष्यगति, मनुष्य आनुपूर्वी, पंचेन्द्रिय जाति, पांच शरीर ( औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस, कार्मण), तीन अंगोपांग आहारक), वज्र ऋषभनाराच ( औदारिक, वैक्रिय, संहनन, समचतुरस्र संस्थान, शुभ वर्ण, शुभ गंध, शुभ रस, शुभ स्पर्श, अगुरुलघु, पराघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यश, निर्माण और तीर्थंकर नाम तथा उच्च गोत्र – ये छियालीस पुण्य कर्म की प्रकृतियां हैं । एक मान्यता यह है कि मोहनीय कर्म की सर्व अठाईस प्रकृतियां विपर्यास का हेतु होने से पाप ही हैं । उस मान्यता के अनुसार सम्यक्त्व मोह, हास्य, पुरुषवेद और रति- इन चार प्रकृतियों को छोड़ शेष बयालीस पुण्य प्रकृतियां हैं । सम्यक्त्वं शोधितमिथ्यात्वपुद्गलरूपम्, तच्च शङ्काद्यर्थं हेतुत्वादशुभमेव अशुभत्वाच्च पापम् । ( विभामवृ १ पृ ६९० ) यद्यपि सम्यक्त्वमोहनीय मिथ्यात्व के पुद्गलों का शोधितरूप है फिर भी शंका आदि दोषों का हेतु होने से अशुभ ही है और अशुभ होने से यह पाप प्रकृति है । पाप प्रकृतियां ज्ञानावरण - ५ दर्शनावरण - ९ वेदनीय - १ मोहनीय २६ ( चारित्रमोह २५, दर्शन मोह १ ) आयुष्य – १ नाम - ३४ गोत्र - १ अन्तराय - ५ बयासी पाप प्रकृतियां हैं। दर्शनमोहनीय की तीन प्रकृतियां मानी जाएं तो चौरासी पाप प्रकृतियां होती हैं । दर्शनमोहनीय की मूल प्रकृति एक मिथ्यात्व ही है । सम्यक्त्व मोहनीय और मिश्रमोहनीय प्रकृति का स्वतंत्र बन्ध नहीं होता । ये दोनों प्रकृतियां मिथ्यात्व के पुद्गलों का शोधित रूप हैं । Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनादि संबंध का अन्त कैसे ? पुण्य पाप अपना-अपना तं पुण्णं पावं वा ठियमत्तणि बज्झपच्चया विक्खं । कालंतरपागाओ देइ फलं न परओ लब्भं ॥ ( विभा ३२३८ ) बाह्य निमित्तों पुण्य और पाप आत्मस्थित हैं किन्तु की अपेक्षा रखते हैं, काल-परिपाक से फल देते हैं । पुण्यपाप का फल स्वतः प्राप्त होता है, दूसरों से नहीं । पत्तेयं पुण्णपावं । पुण्य और पाप अपना-अपना होता है । नो कर्म (दचू १ सूत्र १५ ) नोकर्म --- ग्रहणप्रायोग्यानि मुक्तानि द्रव्याणि । (उच् पृ २७७) कर्मग्रहण के प्रायोग्य पुद्गलद्रव्य तथा कर्मरूप में भोगने के बाद आत्मा से छूटे हुए कर्म पुद्गलद्रव्य नोकर्म कहलाते हैं । २६. वीतराग के कर्मबन्ध १९३ ईरियावहिया सा अप्पमत्तसंजतस्स वीतरागछ उमत्थकेवलस्स वा । आउतं गच्छमाणस्स वा आउत्तं चिट्ठमाणस्स वा आउत्तं निसीदमाणस्स वा आउत्तं तुयट्टमाणस् वा आउत्तं भुंजमाणस्स वा आउत्तं भासमाणस्स वा आउत्तं वत्थं पडिग्गहं कंबलं पादपुंछणं माणस निक्खेवमाणस्स वा जाव चक्खुपम्हनिवातमवि अत्थि माता हुमा किरिया इरियावहिया कज्जति । सा पढमसमये या बितियसमये वेदिता ततियसमये निज्जिण्णा । सा बद्धा पुट्ठा उदिता वेदिता निज्जिण्णा, सेअकाले अकम्मं वावि भवति । ( आव २ पृ९२) अप्रमत्तसंयत छद्मस्थ वीतराग अथवा केवली वीतराग के ईर्यापथिक कर्म का बन्ध होता है । जब केवली संयम पूर्वक चलते हैं, खड़े होते हैं, बैठते हैं, सोते हैं, आहार करते हैं, बोलते हैं, वस्त्र पात्र कम्बल - पादप्रोञ्छन लेतेरखते हैं अथवा आंख का उन्मेष निमेष करते हैं, तब उनके ईर्यापथिक सूक्ष्म क्रिया होती है । उस बंध की स्थिति दो समय की होती है। प्रथम समय में वह कर्म - बद्ध - स्पृष्ट होता है, दूसरे समय में वेदित होता है और तीसरे समय में निर्जीर्ण हो उदित, वेदित और निर्जीर्ण कर्म अंत में अकर्म भी हो जाता है । २७. कर्म और शरीर का अनादि संबंध संताणोऽणाई परोप्परं देहस्स य कम्मस्स य गोयम ! उ कर्म भावाओ । कुराणं व ॥ ( विभा १६३९ ) प्रवाह रूप से अनादिकालीन कर्म और देह में परस्पर हेतु हेतुमद्भाव है । कर्म से शरीर और शरीर से कर्म उत्पन्न होते हैं । जैसे- बीज से अंकुर और अंकुर से बीज पैदा होता है । २८. आत्मा और कर्म का अनादि संबंध नय कम्मस्स वि पुव्वं कत्तुरभावे समुब्भवो जुत्तो । निक्कारणओ सोविय तह जुगवप्पत्ति भावे य ।। न हि कत्ता कज्जं ति य जुगवत्पत्तीए जीवकम्माणं । जुत्तो ववएसोऽयं जह लोए गोविसाणा ॥ ( विभा १८०९, १८१० ) १. क्या पहले कर्म और बाद में जीव हुआ ? नहीं । कर्म का कर्त्ता जीव है इसलिए जीव के अभाव में कर्म नहीं होते । २. कर्म निष्कारण नहीं होते । निष्कारण होते हैं ऐसा मानने से वे निष्कारण ही विनष्ट हो जायेंगे । ३. जीव और कर्म की उत्पत्ति युगपत् भी नहीं होती । युगपद् उत्पन्न होने पर 'यह जीव कर्त्ता है' और 'यह ज्ञानावरणीय आदि कर्म - समूह उसका कार्य है - ऐसा व्यपदेश नहीं हो सकता । जैसे- गाय के दो सींगों में एक सींग दूसरे का कर्त्ता या कार्य नहीं होता । तो कि जीव- नहाण व अहजोगो-कंचणोवलाणं व । जीवरस य कम्मस्स य भण्णइ दुविहो वि न विरुद्धो ॥ पढमोऽभव्वाणं चिय भव्वाणं कंचणोवलाणं व । ... ( विभा १८२०, १८२१ ) क्या जीव और कर्म का संबंध जीव और आकाश की तरह अनादि - अनन्त है या स्वर्ण और उपल की तरह अनादि- सान्त है ? जीव और कर्म में दोनों प्रकार का संबंध है । जैसे- अभव्य प्राणी में जीव और कर्म का संबंध अनादि-अनन्त है और भव्य प्राणी में जीव और कर्म का संबंध अनादि- सान्त है । २६. अनादि संबंध का अन्त कैसे ? जं संताणोऽणाई तेणाणतोऽवि णायमेगंतो । दीसह संतो वि जओ कत्थइ बीयं- कुराईणं ॥ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म १९४ जीव की विविधता का हेतु- कर्म जह वेह कंचणोवेलसंजोगोऽणाइसंतइगओवि। ४. परिणामित्व ---शरीर आदि के रूप में कर्म का वोच्छिज्जइ सोवायं तह जोगो जीव कम्माणं ।। परिणामित्व परिलक्षित होता है। जैसे---दही का (विभा १८१७, १८१९) तक्र के रूप में परिणमन होने से दूध का परिणाजीव और कर्म के संयोग की सन्तति (प्रवाह/ मित्व जाना जाता है। परम्परा) अनादि है, अत: वह अनन्त है -- यह बात ३२. मूर्त से अमूर्त का अनुग्रह-निग्रह एकान्तिक नहीं है । जैसे-बीज और अंकुर का अनादि मुत्तेणामुत्तिमओ उवघायाऽणुग्गहा कहं होज्जा ? कालीन संबंध भी सान्त होता है । जैसे स्वर्ण और मिट्टी जह विण्णाणाईणं मइरापाणोसहाईहिं । का अनादिकालीन संयोग संतानगत होने पर भी अग्नि आदि उपायों से विच्छिन्न होता है, वैसे ही जीव और यथाऽमूर्तानामपि विज्ञान-विविदिषा-धति-स्मृत्यादिकर्म का सन्तानगत/प्रवाह रूप से अनादि संबंध तप, संयम जीवधर्माणां मूतैरपि मदिरापान-हृत्पूर-विष-पिपीलिआदि उपायों से विच्छिन्न होता है । कादिभिर्भ क्षितैरुपघात: क्रियते, पयःशर्करा-घृतपूर्णभेष जादिभिस्त्वनुग्रह इत्येवमिहापीति । एतच्च जीवस्यामूर्त३०. संसारी आत्मा कथंचित् मूर्त त्वमभ्युपगम्योक्तम् । (विभा १६३७ मवृ पृ ६०१) अहवा नेगंतोऽयं संसारी सव्वहा अमुत्तो त्ति । कर्म मूर्त है, जीव अमूर्त है। इस स्थिति में कर्म जमणाइकम्मसंतइपरिणामावन्नरूवो सो ॥ जीव का अनुग्रह-निग्रह कैसे कर सकता है ? इसका वह्नययापिण्डन्यायेन...... मृतकर्मणः कथञ्चि समाधान यह है-जैसे मदिरापान और विषभक्षण आदि दनन्यत्वाद् मूर्तोऽपि कथञ्चिज्जीवः । से विज्ञान, जिज्ञासा, धृति, स्मृति आदि जीव के अमूर्त (विभा १६३८ मत पृ६०१) गुणों का उपघात तथा दूध, शर्करा, घतपूर्ण, भेषज आदि एकान्त रूप से संसारी जीव सर्वथा अमूर्त नहीं है। से उनका अनुग्रह होता है, वैसे ही मूर्त्त कर्म से अमूर्त अनादिकाल से कर्मसंतति जीव के साथ वैसे ही एकमेक जीव का उपघात और अनुग्रह होता है । है, जैसे लोहपिण्ड में अग्नि । मूर्त्त कर्म के साथ जीव का कथंचित् अनन्य संबंध होने से जीव कथंचित् मूर्त है। ३३. आत्मा और कर्म सहगामी ३१. कर्म को मूर्तता के हेतु चेच्चा दुपयं च चउप्पयं च, खेत्तं गिहं धणधन्नं च सव्वं । तह सुहसंवित्तीओ संबंधे वेयणुब्भवाओ य । कम्मप्पबीओ अवसो पयाइ, परं भवं सुंदर पावगं वा ।। बज्झबलाहाणाओ परिणामाओ य विण्णेयं ॥ (उ १३।२४) आहार इवानल इव घडव्व नेहाइकयबलाहाणो । यह पराधीन आत्मा द्विपद, चतुष्पद, खेत, घर, खीरमिवोदाहरणाई कम्मरूवित्तगमगाई॥ धन, धान्य, वस्त्र आदि सब कुछ छोड़कर केवल अपने (विभा १६२६, १६२७) किए कर्मों को साथ लेकर सुखद या दुःखद परभव में कर्म की मूर्तता के चार हेतु जाता है। १. सख संवित्ति-कर्म का संबंध होने पर सुख का तेणावि जं कयं कम्मं सुहं वा जइ वा दुहं । संवेदन होता है। (जिसके संबंध से सुख का संवेदन कम्मुणा तेण संजुत्ता, गच्छई उ परं भव ॥ होता है. वह मृत है) जैसे-आहार से क्षुधाशान्ति (उ १८।१७) रूप सुख का संवेदन होता है। मरने वाले व्यक्ति ने भी जो कर्म किया- सुखकर २. वेदना का उद्भव-कर्म के संबंध से वेदना का या दुःखकर, उसी के साथ वह परभव में चला जाता उदभव होता है। जैसे -अग्नि से ताप का उद्भव। ३. बाह्य बल का आधान --मिथ्यात्व आदि की हेतुभत ३४. जीव को विविधता का हेतु-कर्म बाह्य सामग्री से कर्म का उपचय होता है, इससे समानयोनिका अपि विचित्रवर्णसंस्थाना दृश्यन्ते कर्म की शक्ति बढ़ जाती है। जैसे-स्नेह से अभि- प्राणिनः । तथाहि-गोमयाद्येकयोनिसम्भविनोऽपि षिक्त घट परिपक्व होता है। केचिन्नीलतनवोऽपरे पीतकाया अन्ये विचित्रवर्णाः । Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय का निर्वचन संस्थानमप्येतेषां परस्परं विभिन्नमेव । तद्यदि भूतमात्रनिमित्तं चैतन्यं तत एकयोनिकाः सर्व्वे ऽप्येकवर्णसंस्थाना भवेयुः, न च भवन्ति । तस्मादात्मन एव तत्तत्कर्म्मवशात् तथोत्पद्यन्ते इति प्रतिपत्तव्यम् । ( नन्दीमवृप ४ ) समान योनि वाले प्राणी भी विचित्र वर्ण और संस्थान वाले होते हैं । जैसे- गोबर आदि की एक ही योनि में उत्पन्न कोई प्राणी नील वर्ण वाले और कोई पीत वर्ण वाले होते हैं । यदि चैतन्य को भूतमात्र से होने वाला माना जाये तो एक योनिक प्राणियों के समान वर्ण और समान संस्थान होना चाहिये, पर ऐसा होता नहीं है । इसलिए यह सिद्ध है कि आत्मा ही अपने-अपने कर्म के अनुसार उत्पन्न होती है। कम्मस्स वि परिणामो सुहम्म ! धम्मो स पोग्गलमयस्स । ऊ चित्तो जगओ होई सहावो त्ति को दोसो ? ॥ ( विभा १७९३ ) १९५ पौद्गलिक कर्म का स्वभाव है- परिणमन । यह विविध प्रकार का होता है । जगत् की विचित्रता का यही हेतु है । कर्मभूमि- पांच भरत, पांच ऐरवत और पांच विदेह - ये पन्द्रह कर्मभूमियां हैं । यहां कर्म - असि, मषि, कृषि से आजीविका चलाई जाती है । (द्र. मनुष्य ) कर्मसम्पदा - दस विध सामाचारी की सम्पदा । कम्मसंपयति कर्म - क्रिया दशविधचक्रवालसामाचारीप्रभृतिरितिकर्त्तव्यता । तस्याः सम्पत् - सम्पन्नता । ..... कर्म सम्पदा - यत्यनुष्ठानमाहात्म्य समुत्पन्नपुलाकादिलब्धिसम्पत्त्या । (उशावृ प ६६) अक्खीणमहाणसीयादिलद्धिजुत्तो । ( उचू पृ ४४) कर्मसम्पदा के दो अर्थ हैं - १ दस प्रकार की चक्रवाल सामाचारी आदि की सम्पदा । २. मुनि के अनुष्ठान के माहात्म्य से उत्पन्न पुलाक, अक्षीणमहानस आदि योगज विभूतियों की सम्पदा । कर्मांश - विद्यमान कर्म 'कम्मंस' त्ति सत्पर्यायत्वात् सत्कर्माणि ग्राहीणि क्षपयति । कार्मग्रन्थिकपरिभाषयांऽशशब्दस्य केवलिसत्कर्माणि - भवोप ( उशावू प ५८९ ) कर्म ग्रन्थ की परिभाषा के अनुसार कर्माश का अर्थ है - विद्यमान कर्म ( अंश = सत् = विद्यमान ) । शुक्लध्यान के चतुर्थ चरण में केवली के जो भवोपग्राही चार अघात्य कर्म विद्यमान रहते हैं, वे क्षीण हो जाते हैं । कल्पातीत - जिनमें स्वामी सेवक का भेद नहीं होता, सब अहमिन्द्र - समान होते हैं, वे देव | (द्र देव ) कल्पोपग - जिनमें स्वामी सेवक, छोटे-बड़े आदि का भेद होता है, वे देव । (द्र. देव) कषाय - मोहजनित आंतरिक उत्ताप । १. कषाय का निर्वचन * कषाय : मोहनीय कर्म का एक भेद २. कषाय के प्रकार ३. कषाय से होने वाले अभिघात ४. कषाय की स्थिति और उत्पत्तिस्थल ५. कषाय के उदाहरण ६. कषाय : पुनर्जन्म का हेतु ७. कषाय पतन का हेतु ८. कषाय-विजय के उपाय ९. कषाय प्रत्याख्यान के परिणाम १०. कषाय के द्रव्य आदि अन्य प्रकार * कषाय प्रतिसंलीनता * कषाय उपशम-क्षय की प्रक्रिया * कषायनिरोध भाव ऊनोदरी * कषाय और लेश्या * कषाय : शिक्षा का बाधक तत्त्व कषाय ( द्र. कर्म ) (द्र प्रतिसंलीनता) (द्र. गुणस्थान ) (द्र. ऊनोदरी) (द्र. लेश्या) (द्र शिक्षा ) १. कषाय का निर्वचन कम्मं कस भवो वा कसमाओ सिं जओ कसाया तो । कसमाययंति व जओ गमयंति कसं कसायति ॥ ( विभा २९७८ ) १. जिससे प्राणी पीड़ित होते हैं वह है कष अर्थात् कर्म या भव । जिनसे कर्म या भव की प्राप्ति होती है, वह है कषाय । २. जो कष- संसार को प्राप्त कराते हैं, वे हैं कषाय । Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय कषाय के उदाहरण ३. जो कष-संसार के उपादान कारण हैं, वे हैं सव्वं देसो व जओ पच्चक्खाणं न जेसिमदएणं । कषाय । ते अप्पच्चक्खाणा सव्वनिसेहे मओऽकारो॥ २. कषाय के प्रकार (विभा १२३२) अप्रत्याख्यान कषाय के उदय से देश (आंशिक) सोलसविहभेएणं कम्मं तु कसायजं ।"(उ ३३।११) और सर्व-दोनों प्रकार के प्रत्याख्यान नहीं होते। यहां षोडशविधत्वं चास्य क्रोधमानमायालोभानां चतुर्णा 'अकार' सर्वप्रतिषेध का वाचक है। मपि प्रत्येकमनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरण तइयकसायाणुदए पच्चक्खाणावरणनामधिज्जाणं । संज्वलनभेदतश्चतुर्विधत्वात्। (उशावृ प ६४३) देसिक्कदेसविरइं चरित्तलंभं न उ लहंति ।। __ कषाय-मोहनीय कर्म के १६ प्रकार हैं (आवनि ११०) अनन्तानुबन्धी-(१) क्रोध, (२) मान, (३) माया जो सर्वप्रत्याख्यान को आवृत करते हैं, अंश को और (४) लोभ । अप्रत्याख्यानी-(५) क्रोध, (६) मान, नहीं, वे प्रत्याख्यानावरण कषाय हैं। (७) माया और (८) लोभ । प्रत्याख्यानो-(९) क्रोध, मूलगुणाणं लभं न लहइ मूलगुणघाइणं उदए । (१०) मान, (११) माया और (१२) लोभ । संज्वलन उदए संजलणाणं न लहइ चरणं अहक्खायं ॥ (१३) क्रोध, (१४) मान, (१५) माया और (१६) (आवनि १११) लोभ । मूल गुणों (महाव्रत आदि) का घात करने वाले ३. कषाय से होने वाले अभिघात प्रत्याख्यानकषायचतुष्क आदि का उदय रहने पर मूल पढमिल्लुयाण उदए नियमा संजोयणा कसायाणं । गुणों की प्राप्ति नहीं होती। संज्वलन कषाय का उदय सम्मइंसणलभं भवसिद्धीयावि न लहंति ॥ होने के कारण यथाख्यात चारित्र प्राप्त नहीं होता। (आवनि १०८) ईसि सयराहं वा संपाए वा परीसहाईणं । अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्क के उदयकाल में भव्य अलणाओ संजलणा"॥ जीव भी सम्यक्त्व प्राप्त नहीं कर सकते। (विभा १२४६) संज्वलन कषाय का अर्थ है-अल्पदीप्त, शीघ्र दीप्त बिइयकसायाणुदए अपच्चक्खाणनामधेज्जाणं । अथवा परीषह आदि के कारण दीप्त कषाय । सम्मइंसणलभ विरयाविरइं न उ लहति ।। (आवनि १०९) ४. कषाय की स्थिति और उत्पत्तिस्थल अप्रत्याख्यानकषायचतुष्क के उदयकाल में सम्यक् पक्ख-चउम्मास-वच्छर-जावज्जीवाणुगामिणो कमसो। दर्शन प्राप्त होता है, विरताविरति-श्रावकत्व प्राप्त नहीं देव-नर-तिरिय-नारयगइसाहणहेयवो नेया ॥ होता। (विभा २९९२) अप्रत्याख्यानावरण प्रत्याख्यानावरण स्थिति उत्पत्तिस्थल अनन्तानुबंधी | अप्रत्याख्यानावरण | यावज्जीवन संवत्सर नरकगति तिर्यञ्चगति चार मास संज्वलन एक पक्ष - मनुष्यगति देवगति ५. कषाय के उदाहरण जल-रेणु-भूमि-पव्वयराईसरिसो चउव्विहो कोहो । तिणिसलयाकट्रियसेलत्थंभोवमो माणो ।। मायावलेहि-गोमुत्ति-मेंढसिंग-घणवंसिमूलसमा । लोहो हरिद्द-खंजण-कद्दम-किमिरागसामाणो । (विभा २९९०,२९९१) Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय-विजय के उपाय कषाय __अनन्तानुबंधी अप्रत्याख्यानावरण | प्रत्याख्यानावरण | सज्वलन क्रोध | शैल की रेखा के समान | भूमि की रेखा के समान | रेणु की रेखा के समान | जल की रेखा के समान मान | शैल स्तम्भ के समान | अस्थि स्तम्भ के समान | काष्ठ स्तम्भ के समान | तिनिशलता स्तम्भ के समान माया | वंशीमूल के समान । मेष-विषाण के समान , गोमूत्रिका के समान । अवलेखनिका के समान लोभ । कृमिराग के समान | कर्दमराग के समान खंजनराग के समान । हरिद्राराग के समान ऋण, व्रण, अग्नि और कषाय-इनकी अल्पता पर भी विश्वास नहीं करना चाहिए। ये अल्पमात्रा में होते हुए भी बहुत होते हैं। उवसामं उवणीआ गुणमहया जिणचरित्तसरिसंपि । पडिवायंति कसाया कि पुण सेसे सरागत्थे ?॥ (आवनि ११८) कषायों का उपशमन करने वाले तथा महान् गुणों से अर्हत के समान चारित्र वाले व्यक्ति को भी कषाय नीचे गिरा देते हैं, फिर सरागी व्यक्तियों की तो बात ही क्या ? ६. कषाय : पुनर्जन्म का हेतु कोहो य माणो य अणिग्गहीया __ माया य लोभो य पवड्ढमाणा। चत्तारि एए कसिणा कसाया सिंचंति मूलाई पुणब्भवस्स ।। (द ८।३९) अनिगहीत क्रोध और मान, प्रवर्धमान माया और लोभ-ये चारों संक्लिष्ट कषाय पुनर्जन्म रूपी वृक्ष की जड़ों का सिंचन करते हैं। ७. कषाय : पतन का हेतु अहे वयइ कोहेणं, माणेणं अहमा गई। माया गईपडिग्घाओ, लोभाओ दुहओ भयं ।। (उ ९।५४) मनुष्य क्रोध से अधोगति में जाता है। मान से अधम गति होती है। माया से सुगति का विनाश होता है। लोभ से दोनों प्रकार का-ऐहिक और पारलौकिक भय होता है। कोहो पीइं पणासेइ, माणो विणयनासणो । माया मित्ताणि नासेइ, लोहो सव्वविणासणो । (द ८।३७) क्रोध प्रीति का नाश करता है, मान विनय का नाश करने वाला है, माया मैत्री का विनाश करती है और लोभ सब का नाश करने वाला है। सामन्नमणुचरंतस्स, कसाया जस्स उक्कडा होति। मन्नामि उच्छ फुल्लं व, निफ्फलं तस्स सामन्नं ।। (दनि २०३) जिस श्रमण का कषाय प्रबल होता है, उसका श्रामण्य इक्षपुष्प की भांति निष्फल होता है। इसलिए श्रमण को कषाय का निग्रह करना चाहिए। अणथोवं वणथोवं अग्गीथोवं कसायथोवं च । ण हुभे वीससियव्वं थेवपि हु तं बहुं होइ ।। (आवनि १२०) ८. कषाय-विजय के उपाय उवसमेण हणे कोहं, माणं मद्दवया जिणे। मायं चज्जवभावेण, लोभं संतोसओ जिणे ।। (द ८।३८) उपशम से क्रोध का हनन करे, मृदुता से मान को जीते, ऋजुभाव से माया को और संतोष से लोभ को जीते । कसाया अग्गिणो वृत्ता, सुयसीलतवो जलं । सुयधाराभिहया संता, भिन्ना हुन डहंति मे ।। (उ २३।५३) गौतम ने केशीकुमार श्रमण से कहा- कषायों को अग्नि कहा गया है। श्रुत, शील और तप जल है। श्रुत की धारा से आहत किए जाने पर निस्तेज बनी हुई वे अग्नियो मुझे नहीं जलातीं। बारसविहे कसाए खइए उवसामिए व जोगेहिं । लब्भइ चरित्तलंभो...॥ (आवनि ११३) प्रशस्त ध्यानयोग के द्वारा बारह प्रकार के कषायों का क्षय, उपशम अथवा क्षयोपशम होता है, तब चारित्र की प्राप्ति होती है। Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय आदेश कषाय है. कषाय-प्रत्याख्यान के परिणाम द्रव्य कषाय "कसायपच्चक्खाणेणं वीयरागभावं जणयइ । वीय विहो दव्वकसाओ कम्मदव्वे य नो य कम्मम्मि । रागभावपडिवन्ने वि य णं जीवे समसूहदुक्खे भवइ । कम्मद्दन्वकसाओ चउब्विहा पोग्गलाणुइया ।। (उ २९।३७) (विभा २९८१) कषाय के प्रत्याख्यान से जीव वीतरागभाव को द्रव्य कषाय के दो प्रकार हैंप्राप्त होता है । वीतरागभाव को प्राप्त हुआ जीव सुख १. कर्म-द्रव्य-कषाय। दुःख में सम हो जाता है। २. नोकर्म-द्रव्य-कषाय । __ ""कोहविजएणं खंति जणयइ । कोहवेयणिज्ज कम्म कर्म-द्रव्य-कषाय के चार प्रकार के पुद्गल होते न बंधइ पुवबद्धं च निज्जरेइ । हैं-योग्य---बंधपरिणामाभिमुख, बध्यमान, बद्ध तथा ""माणविजएणं महवं जणयइ। माणवेयणिज्जं उदारणावालका में प्राप्त ।। कम्मं न बंधइ, पुव्वबद्धं च निज्जरेइ । सज्जकसायाइओ नोकम्मदव्वओ कसाओऽयं । ..."मायाविजएणं उज्जूभावं जगयइ। मायावेयणिज्जं (विभा २९८२) कम्मं न बंधइ, पुव्वबद्धं च निज्जरेइ । सर्ज (साखू का पेड़), बेहड़ा, हरीतकी आदि कषाय गुण वाली वनस्पतियां नोकर्म-द्रव्य-कषाय है। ..."लोभविजएणं संतोसीभावं जणयइ । लोभवेयणिज्ज कम्मं न बंधइ, पुवबद्धं च निज्जरेइ । (उ २९।६८-७१) ' उत्पत्ति कषाय क्रोध-विजय से जीव क्षमा को उत्पन्न करता है। खेत्ताइ समुप्पत्ती जत्तोप्पभवो कसायाणं ।। वह क्रोधवेदनीय कर्म का बंधन नहीं करता और पूर्वबद्ध (विभा २९८२) तन्निमित्तक कर्म को क्षीण करता है। जिस क्षेत्र या द्रव्य आदि से कषाय की उत्पत्ति मान-विजय से जीव मृदुता को उत्पन्न करता है। होती है, वह उत्पत्ति-कषाय है। वह मानवेदनीय कर्म का बन्धन नहीं करता और पूर्व- प्रत्यय कषाय बद्ध तन्निमित्तक कर्म को क्षीण करता है। होइ कसायाणं बंधकारणं ज स पच्चयकसाओ। माया-विजय से जीव ऋजुता को उत्पन्न करता है। सहाइउ त्ति केई न सम्प्पत्तीए भिन्नो सो ॥ वह मायावेदनीय कर्म का बंधन नहीं करता और पूर्वबद्ध (विभा २९८३) तन्निमित्तक कर्म को क्षीण करता है। जो कषायबंध का आन्तरिक कारण अविरति आदि ____लोभ-विजय से जीव सन्तोष को उत्पन्न करता है। है, वह प्रत्यय कषाय है। वह लोभवेदनीय कर्म का बंधन नहीं करता और पूर्वबद्ध कुछ आचार्य शब्द आदि बाह्य कारणों को प्रत्ययतन्निमित्तक कर्म को क्षीण करता है। कषाय मानते हैं, लेकिन यह युक्त नहीं है, क्योंकि शब्द आदि बाह्य कारणों का उत्पत्ति-कषाय में समावेश हो १०. कषाय के द्रव्य आदि प्रकार जाता है। नाम ठवणा दविए उप्पत्ती पच्चए य आएसे । आदेश कषाय रस-भाव-कसाए" आएसओ कसाओ कइयवकयभिउडिभंगुरागारो। (विभा २९८०) केई चित्ताइगओ ठवणाणत्थंतरो सोऽयं ।। कषाय के आठ प्रकार -- (विभा २९८४) १. नाम कषाय ५. प्रत्यय कषाय अन्तरंग कारण के बिना नट आदि के द्वारा कपट २. स्थापना कषाय ६. आदेश कषाय युक्त क्रोध आदि दिखाया जाता है, वह आदेश कषाय है । ३. द्रव्य कषाय ७. रस कषाय कुछ मानते हैं, चित्र आदि में जो क्रोध आदि कषाय ४. उत्पत्ति कषाय ८.भाव कषाय दिखाई देता है, वह आदेश-कषाय है, लेकिन इसका स्थापना-कषाय में समावेश हो जाता है। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कामभोग की परिभाषा कामभोग रस और भाव कषाय कामभोग-शब्द आदि इन्द्रियविषयों का रसओ रसो कसाओ कसायकम्मोदओ य भावम्मि।... आसेवन। (विभा २९८५) १. कामभोग की परिभाषा हरीतकी आदि का जो कसैला रस है, वह रस २. द्रव्यकाम-भावकाम कषाय है। ३. दिव्य कामभोग मोहनीय कर्म के उदय से होने वाला कषाय का ४. कामभोग : उपमाएं परिणाम भाव-कषाय है। ५. कामभोग के परिणाम राग कषाय के प्रकार ६. कामभोग-परित्याग के परिणाम जं रायवेयणिज्जं समुइण्णं भावओ तओ राओ। ७. पदार्थ : आध्यात्मिक दृष्टिकोण सो दिट्ठि-विसय-नेहाणुरायरूवो अभिस्संगो । ८. कामभोग-विरति का उपाय कुप्पवयणेसु पढमो बिइओ सद्दाइएसु विसएसु । १. कामभोग की परिभाषा विसयादनिमित्तो वि हु सिणेहराओ सुयाईसु ॥ ते इटा सहरसरूवगंधफासा कामिज्जमाणा विसय__ (विभा २९६४,२९६५) । पसत्तेहिं कामा भवंति ।"भोगा सहादयो विसया। राग-वेदनीयकर्म के उदय से होने वाला जीव-परि (दजिचू पृ ७५,८२) णाम भावराग है। विषयासक्त मनुष्यों द्वारा काम्य-- इष्ट शब्द, रूप, उसके तीन प्रकार हैं - गन्ध, रस तथा स्पर्श काम कहलाते हैं। १. दृष्टिराग-कुप्रवचन में अनुराग । इन्द्रिय-विषय .... शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श २. विषयराग-शब्द आदि इन्द्रिय-विषयों में म का आसेवन भोग कहलाता है। अनुराग । काम्यन्ते इति कामाः। भुज्यन्ते इति भोगाः। ३. स्नेहराग-विषय आदि के निमित्तों के अभाव ....कामौ च शब्दरूपाख्यौ । भोगाश्च स्पर्श रसगन्धाख्याः। में भी पुत्र, स्वजन आदि के प्रति होने वाला (उशावृ प २४३) अनुराग । जिनकी कामना की जाती है वे काम हैं और काकिणी-१. चक्रवर्ती के चौदह रत्नों में एक जिनका उपभोग किया जाता है वे भोग हैं । रत्न। (द्र. चक्रवर्ती) (5. चक्रवर्ती) शब्द और रूप काम कहलाते हैं । स्पर्श, रस और २. एक प्रकार का सिक्का। गंध भोग कहलाते हैं। कागिणी णाम रूवगस्स असीतिमो भागो। वीसोव विसयसुहेसु पसत्तं अबुहजणं कामरागपडिबद्धं । उक्कामयंति जीवं धम्मातो तेण ते कामा ।। गस्स चतुभागो। (उचपृ १६१) अण्णं पि य सिं णाम कामा रोग त्ति पंडिया बॅति । एक रुपये के अस्सीवें भाग तथा विशोपक के चौथे कामे पत्थेमाणो रोगे पत्थेति खलु जंतू ।।। भाग को काकिणी कहा जाता है। काकिणिः-विंशतिकपर्दकाः। (उशाव प २७२) (दनि ७१,७२) बीस कौड़ियों की एक काकिणी होती है। विषय सुख में आसक्त और काम-राग में प्रतिबद्ध अज्ञानी जीव को जो धर्म से उत्क्रमण कराते हैं, वे काम कापोत लेश्या-अप्रशस्त भावधारा तथा उसकी हैं। ज्ञानी काम को रोग कहते हैं। जो कामों की उत्पत्ति में कापोत वर्ण पार्थना करतेने पार की प्रार्थना करते हैं, वे प्राणी निश्चय ही रोगों की प्रार्थना वाले पुद्गल । (द्र. लेश्या) करते हैं। विषीदन्ति-धर्म प्रति नोत्सहन्त एतेष्विति विषयाः । यद्वाऽऽसेवनकाले मधुरत्वेन परिणामे चाति For Private & Personal. Use Only Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहता। कामभोग २०० कामभोग : उपमाएं कटकत्वेन विषस्योपमा यान्तीति विषयाः। ४. कामभोग : उपमाएं _ (उशावृ प १९०) जहा य किपागफला मणोरमा विषय वे हैं, जिनके कारण धर्म के प्रति उत्साह नहीं रसेण वण्णण य भुज्जमाणा। ते खुडुए जीविय पच्चमाणा विषय वे हैं, जो आसेवनकाल में मधुर हैं और एओवमा कामगुणा विवागे ।। परिणाम में कटु होने से विष की उपमा से उपमित हैं । (उ ३२।२०) २. द्रव्यकाम-भावकाम जैसे किंपाक फल खाने के समय रस और वर्ण से मनोरम होते हैं और परिपाक के समय क्षद्र जीवन का सहरसरूवगंधाफासा उदयंकरा य जे दव्वा । अन्त कर देते हैं, कामगुण भी विपाक काल में ऐसे ही दुविहा य भावकामा, इच्छाकामा मयणकामा ।।। होते हैं। (दनि ६९) काम के दो प्रकार हैं-- उवलेवो होइ भोगेसु, अभोगी नोवलिप्पई । द्रव्यकाम-मोहोदय में हेतुभूत द्रव्य-शब्द, रस भोगी भमइ संसारे, अभोगी विप्पमुच्चई ।। आदि विषय । उल्लो सुक्को य दो छूढा, गोलया मट्टियामया । दो वि आवडिया कूडडे, जो उल्लो सो तत्थ लग्गई। भावकाम इच्छाकाम --अभिलाषारूप काम और मदनकाम-विषयभोग की प्रवृत्ति । एवं लग्गति दुम्मेहा, जे नरा कामलालसा । ३. दिव्य कामभोग विरत्ता उ न लग्गति, जहा सुक्को उ गोलओ ॥ (उ २५॥३९-४१) जहा कागिणि हेउं, सहस्सं हारए नरो। भोगों में उपलेप होता है। अभोगी लिप्त नहीं अपत्थं अम्बगं भोच्चा, राया रज्जं तु हारए । होता। भोगी संसार में भ्रमण करता है । अभोगी उससे एवं माणुस्सगा कामा, देवकामाण अंतिए । मुक्त हो जाता है। मिट्टी के दो गोले-एक गीला और सहस्सगुणिया भुज्जो, आउं कामा य दिग्विया ।। एक सूखा-फेंके गए । दोनों भींत पर गिरे। जो गीला अणेगवासानउया, जा सा पन्नवओ ठिई। था वह वहां चिपक गया। जाणि जीयंति दुम्मेह, ऊणे वाससयाउए। इसी प्रकार जो मनुष्य दुर्बद्धि और कामभोगों में (उ ७।११-१३) आसक्त होते हैं, वे विषयों से चिपट जाते हैं। जो विरक्त आस जैसे कोई मनुष्य काकिणी के लिए हजार कार्षापण होते हैं, वे उससे नहीं चिपटते, जैसे सूखा गोला । गंवा देता है, जैसे कोई राजा अपथ्य आम को खाकर """दुहओ मलं संचिणइ, सिसणागु व्व मट्रियं ॥ राज्य से हाथ धो बैठता है, वसे ही जो व्यक्ति मानवीय (उ ५।१०) भोगों में आसक्त होता है, वह देवी भोगों को हार जाता कामभोगों में आसक्त व्यक्ति आचरण और चिन्तन-दोनों से उसी प्रकार कर्ममल का संचय करता देवी भोगों की तुलना में मनुष्य के कामभोग उतने है, जैसे शिशुनाग मुख और शरीर-दोनों से मिट्टी का । ही नगण्य हैं, जितने कि हजार कार्षापणों की तुलना में एक काकिणी और राज्य की तुलना में एक आम । दिव्य __ अच्चेइ कालो तूरंति राइओ आयु और दिव्य कामभोग मनुष्य की आयु और काम न यावि भोगा पुरिसाण निच्चा। भोगों से हजार गुना अधिक हैं। उविच्च भोगा पुरिसं चयंति, प्रज्ञावान् पुरुष की देवलोक में अनेक वर्ष नयुत दुमं जहा खीणफलं व पक्खी ।। (असंख्यकाल) की स्थिति होती है--यह ज्ञात होने पर (उ १३।३१) भी मूर्ख मनुष्य सौ वर्ष जितने अल्प जीवन के लिए उन जीवन बीत रहा है । रात्रियां दौड़ी जा रही हैं । दीर्घकालीन सुखों को हार जाता है । मनुष्यों के भोग भी नित्य नहीं हैं। वे मनुष्य को प्राप्त Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कामभोग के परिणाम २०१ कामभोग को। कर उसे छोड़ देते हैं, जैसे क्षीण फल वाले वृक्ष को परिव्वयंते अणियत्तकामे अहो य राओ परितप्पमाणे । पक्षी । अन्नप्पमत्ते धणमेसमाणे पप्पोति मच्चु पुरिसे जरं च ।। भोगामिसदोसविसण्णे, हियनिस्सेयसबुद्धिवोच्चत्थे । (उ १४।१४) बाले य मंदिए मूढे, बज्झई मच्छिया व खेलंमि ।। जिसे कामनाओं से मुक्ति नहीं मिली, वह पुरुष दुपरिच्चया इमे कामा, नो सुजहा अधीरपुरिसेहिं। अतृप्ति की अग्नि से संतप्त होकर दिन-रात परिभ्रमण अह संति सुव्वया साहू, जे तरंति अतरं वणिया व ॥ करता है । दूसरों के लिए प्रमत्त होकर धन की खोज (उ ८५६) में लगा हुआ वह जरा और मृत्यु को प्राप्त होता है । आत्मा को दूषित करने वाले भोगामिष में निमग्न, जे गिद्धे कामभोगेसु, एगे कूडाय गच्छई। हित और श्रेयस् में विपरीत बुद्धि वाला अज्ञानी, मन्द न मे दिट्टे परे लोए, चक्खुदिट्ठा इमा रई ।। और मूढ़ जीव उसी तरह बंध जाता है जैसे श्लेष्म में हत्थागया इमे कामा, कालिया जे अणागया। मक्खी। ये कामभोग दुस्त्यज हैं, अधीर पुरुषों द्वारा को जाणइ परे लोए, अत्थि वा नत्थि वा पुणो ॥ ये सुत्यज नहीं हैं । जो सुव्रती साधु हैं, वे दुस्तर काम- जणेण सद्धि होक्खामि, इह बाले पगब्भई । भोगों को उसी प्रकार तर जाते हैं, जैसे वणिक् समुद्र कामभोगाणुराएणं, केसं संपडिवज्जई ॥ (उ ५॥५-७) नागो जहा पंकजलावसन्नो, जो कोई कामभोगों में आसक्त होता है, उसकी गति दळु थलं नाभिसमेइ तीरं। मिथ्याभाषण की ओर जाती है। वह कहता है-परलोक एवं वयं कामगुणेसु गिद्धा, तो मैंने देखा नहीं, यह रति (आनन्द) तो चक्षु-दृष्ट हैन भिक्खुणो मग्गमणुव्वयामो॥ आंखों के सामने है । ये कामभोग हाथ में आए हुए हैं, (उ १३।३०) भविष्य में होने वाले संदिग्ध हैं। कौन जानता है---परलोक जैसे दलदल में फंसा हुआ हाथी स्थल को देखता है या नहीं? मैं लोकसमुदाय के साथ रहूंगा। ऐसा हआ भी किनारे पर नहीं पहुंच पाता, वैसे ही काम- मानकर बाल अज्ञानी मनुष्य धृष्ट बनता है। कामभोग गुणों में आसक्त बने हुए हम श्रमणधर्म को जानते हए के अनुराग से क्लेश (संक्लिष्ट परिणाम) को प्राप्त करता भी उसका अनुसरण नहीं कर पाते। ५. कामभोग के परिणाम तओ से दंडं समारभई, तसेसु थावरेसु य । अट्ठाए य अणट्ठाए, भूयग्गामं विहिंसई ॥ सल्लं कामा विसं कामा कामा आसीविसोवमा। हिंसे बाले मुसावाई, माइल्ले पिसुणे सढे । कामे पत्थेमाणा अकामा जंति दोग्गई ।। भुंजमाणे सुरं मंसं, सेयमेयं ति मन्नई ॥ (उ ९।५३) (उ ५२८,९) कामभोग शल्य हैं, विष हैं और आशीविष सर्प फिर वह त्रस तथा स्थावर जीवों के प्रति दण्ड का के तुल्य हैं। कामभोग की इच्छा करने वाले, उनका प्रयोग करता है और प्रयोजनवश अथवा बिना प्रयोजन सेवन न करते हुए भी दुर्गति को प्राप्त होते हैं। ही प्राणी समूह की हिंसा करता है। हिंसा करने वाला, इह कामाणियट्टस्स, अत्तढे अवरज्झई। झूठ बोलने वाला, छल-कपट करने वाला, चुगली खाने सोच्चा नेयाउयं मग्गं, जं भुज्जो परिभस्सई ॥ वाला, वेश परिवर्तन कर अपने आपको दूसरे रूप में प्रकट (उ ७२५) करने वाला अज्ञानी मनुष्य मद्य और मांस का भोग करता इस मनुष्य भव में कामभोगों से निवृत्त न होने वाले है और यह श्रेय है' - ऐसा मानता है। पुरुष का आत्म-प्रयोजन नष्ट हो जाता है। वह पार सव्वं विलवियं गीयं, सव्वं न विडंबियं । ले जाने वाले मार्ग को सुनकर भी बार-बार भ्रष्ट होता सव्वे आभरणा भारा, सव्वे कामा दुहावहा ॥ (उ १३।१६) Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कामभोग २०२ कायक्लेश सब गीत विलाप हैं, सब नाट्य विडम्बना हैं, सब है । विषयों के प्रति अनुत्सुक जीव अनुकम्पा करने वाला, आभरण भार हैं और सब कामभोग दुःखकर हैं। प्रशान्त और शोकमुक्त होकर चारित्र को विकृत करने खणमेत्तसोक्खा बहुकालदुक्खा वाले मोहकर्म का क्षय करता है। पगामदुक्खा अणिगामसोक्खा । कामस्कन्ध-मनोज्ञ पुद्गलसमूह । संसारमोक्खस्स विपक्खभूया काम्यत्वात् कामाः- मनोज्ञशब्दादयः । तद्धेतवः खाणी अणत्थाण उ कामभोगा। स्कन्धाः-पुद्गलसमूहाः ततः कामस्कन्धाः । (उ १४।१३) (उशावृ प १८८) ये कामभोग क्षण भर सुख और चिरकाल दुःख देने कामस्कन्ध का अर्थ है-मनोज्ञ शब्द आदि के हेतुवाले हैं, बहुत दुःख और थोड़ा सुख देने वाले हैं, संसार भूत पुद्गलसमूह । मुक्ति के विरोधी हैं और अनर्थों की खान है। खेत्तं वत्थु हिरण्णं च, पसवो दासपोरुसं । ६. कामभोग-परित्याग के परिणाम चत्तारि कामखंधाणि..॥ (उ ३३१७) इह कामणियदृस्स, अत्तठे नावरज्झई । क्षेत्र-वास्तु, स्वर्ण, पशु और दासपौरुषेय-ये चारों पूइदेहनिरोहेणं, भवे देव त्ति मे सुयं ॥ कामस्कन्ध कहलाते हैं। इड्ढी जुई जसो वण्णो, आउं सुहमणुत्तरं । कायक्लेश-आसन, आतापना, केशलोच आदि भुज्जो जत्थ मणुस्सेसु, तत्थ से उववज्ज ई ।। निरवद्य प्रवृत्तियों द्वारा शरीर को (उ ७।२६,२७) साधना । बाह्यतप का एक भेद । इस मनुष्य भव में कामभोगों से निवृत्त होने वाले (द्र. तप) पुरुष का आत्म-प्रयोजन नष्ट नहीं होता। वह पूतिदेह ठाणा वीरासणाईया, जीवस्स उ सुहावहा । का निरोध कर देव होता है-ऐसा मैंने सुना है। उग्गा जहा धरिज्जंति, कायकिलेसं तमाहियं । (देवलोक से च्युत होकर) वह जीव विपुल ऋद्धि, (उ ३०।२७) द्युति, यश, वर्ण, आयु और अनुत्तर सुख वाले मनुष्य आत्मा के लिए सुखकर वीरासन आदि उत्कट कुलों में उत्पन्न होता है। आसनों का जो अभ्यास किया जाता है, उसे कायक्लेश ७. पदार्थ : आध्यात्मिक दृष्टिकोण कहा जाता है। न कामभोगा समयं उति न यावि भोगा विगई उति । कायकिलेसो लोयाऽऽतावणाती। (दअच ११४) जे तप्पओसी य परिग्गही य सो तेसु मोहा विगई उवेइ॥ केशों का लुंचन करना, आतापना लेना आदि काय (उ ३२।१०१) क्लेश तप है। कामभोग समता के हेतु भी नहीं होते और विकार कायकिलेसो नाम वीरासणउक्कुडुगासणभूमीके हेतु भी नहीं होते। जो पुरुष उनके प्रति द्वेष या राग सेज्जाकटुसेज्जालोयमादियाउ भाणियव्वाउ । करता है, वह तद्विषयक मोह के कारण विकार को (दजिचू पृ २४) प्राप्त होता है। वीरासन, उत्कटुकासन, भूमिशयन, काष्ठपट्टशयन, .. केशलोच आदि कायक्लेश के मुख्य प्रकार हैं। ८. कामभोग-विरति का उपाय केशलोच के गुण ""सुहसाएणं अणुस्सुयत्तं जणयइ। अणुस्सुयाए णं जीवे अणुकंपए अणुब्भडे विगयसोगे चरित्तमोहणिज्जं केसलोओ य दारुणो"।। कम्म खवेइ। (उ २९।३०) (उ १९।३३) सुख की स्पृहा का निवारण करने से जीव विषयों णिस्संगया य पच्छापुरकम्मविवज्जणं च लोअगुणा । (कामभोगों) के प्रति अनुत्सुक भाव को प्राप्त करता दुक्खसहत्तं नरगादिभावणाए य निव्वेओ ।। Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कायोत्सर्ग की परिभाषा पुर: कर्म र्याप परिग्रहः । पश्चात्कर्म दोषा ह्येते परित्यक्ताः, शिरोलोचं प्रकुर्वता ॥ ( दहावृप २८, २९) बालों को उखाअनेक गुण प्राप्त केशलोच - हाथ से सिर आदि के ड़ना बहुत दारुण होता है। लोच से होते हैं- निर्लेपता, पश्चात्कर्म - वर्जन, कष्टसहिष्णुता, विरक्ति, मुनिचर्या की अनुपालना पुर: कर्म - वर्जन, आदि । कायक्लेश की froपत्ति ..... कायकिलेसो संसारवासणिव्वेयउत्ति ।। कायस्य क्लेशो - बाधनं कायक्लेश: संसार्यात्मनः कायानुगतत्वेन तत्क्लेशे यद्यप्यवश्यं क्लेशसम्भवस्तथाऽपि भावितात्मनामसौ सन्नप्यसत्सम एवेति । ( उशावृप ६०७ ) कायक्लेश संसार-विरक्ति का हेतु है । शरीर को तपाना कायक्लेश है । यद्यपि शरीर को तपाने या साधने में संसारी आत्मा को कष्ट होता है, फिर भी जिसने आत्मा को भावित कर लिया है, उसके लिए वह कष्ट नहीं जैसा है । कायगुप्ति - शरीर की प्रवृत्ति का निरोध तथा असत् प्रवृत्ति से निवर्तन । (द्र. गुप्ति) कायोत्सर्ग - शारीरिक प्रवृत्ति और शारीरिक ममत्व का विसर्जन । १. कायोत्सर्ग की परिभाषा ० काय - उत्सर्ग के पर्याय २. कायोत्सर्ग के प्रयोजन • अमंगल - निवारण * कायोत्सर्ग : आवश्यक का एक विभाग ३. कायोत्सर्ग के प्रकार ० द्रव्य भाव कायोत्सर्ग • चेष्टा-अभिभव कायोत्सर्ग २०३ ४. चेष्टा कायोत्सर्ग : उच्छ्वास- लोगस्स परिमाण ५. अभिभव कायोत्सर्ग - कालमान ६. कायोत्सर्ग के अधिकारी ७. कायोत्सगं विधि ( द्र. आवश्यक ) ८. कायोत्सर्ग-प्रतिज्ञा सूत्र ९. कायोत्सर्ग के दोष १०. कायोत्सर्ग के परिणाम ११. कायोत्सर्ग चिकित्सा * आहार से पूर्व कायोत्सर्ग * गोचरचर्या के पश्चात् कायोत्सर्ग १. कायोत्सर्ग की परिभाषा कायोत्सर्ग ( द्र. आहार ) (द्र गोचरचर्या) सयणासणठाणे वा, जे उ भिक्खू न वावरे । कायस्स विउस्सग्गो.... [! ( उ ३०/३६) सोने, बैठने या खड़े रहने के समय जो भिक्षु व्यापृत नहीं होता ( काया को नहीं हिलाता - डुलाता) उसके काया की चेष्टा का जो परित्याग होता है, उसे व्युत्सर्ग/ कायोत्सर्ग कहा जाता है । असई वोसट्ठचत्तदेहे ।'''' (द १०।१३) जो बार-बार शरीर का व्युत्सर्ग और त्याग करता है, उसे व्युत्सृष्ट- त्यक्तदेह कहा जाता है । डिमादिसु विनिवृत्तक्रियो । ( अचू पृ २४० ) अभिग्रह और प्रतिमा स्वीकार कर शारीरिक क्रिया का त्याग करना व्युत्सर्ग है । वो व्युत्सृष्टो भावप्रतिबन्धाभावेन त्यक्तो विभूषाकरणेन देहः । ( दहावृ प २६७ ) शरीर के प्रति प्रतिबंध का अभाव व्युत्सर्ग है । शरीर की विभूषा न करना त्याग है । कायः - शरीरं तस्योत्सर्गः - आगमोक्तनीत्या परित्यागः कायोत्सर्गः । ( उशावृप ५८१ ) आगमोक्तनीति के अनुसार शरीर का त्याग ( क्रियाविसर्जन और ममत्व-विसर्जन) करना कायोत्सर्ग है । काय - उत्सर्ग के पर्याय काए सरीर देहे बुंदीय चय उवचए य संघाए । उस्सय समुस्सए वा कलेवरे भत्थ तण पाणू ॥ उस्सग्ग विस्सरणुज्झणा य अवगिरण छडण विवेगो । वज्जण चयणुम्मुअणा परिसाडण साडणा चेव || ( आवनि १४४६, १४५१ ) Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कायोत्सर्ग २०४ कायोत्सर्ग के प्रकार काय के एकार्थक---काय, शरीर, देह, बोन्दी, चय, तिर्यञ्च । उनका अभिभव करने के लिए कायोत्सर्ग नहीं उपचय, संघात, उच्छ्रय, समुच्छ्य, किया जाता । भय को मिटाने के लिए कायोत्सर्ग करने कलेवर, भस्त्रा, तनु, पाणु । का निषेध नहीं है। उत्सर्ग के एकार्थक-उत्सर्ग, व्युत्सर्ग, उज्झना, काउस्सग्गं मोक्खपहदेसियं जाणिऊण तो धीरा। अवकिरण, छर्दन, विवेक, वर्जन, दिवसाइयारजाणणट्टयाइ ठायंति उस्सग्गं ।। त्याग, उन्मोचना, परिशातना, (आवनि १४९७) शातना। कायोत्सर्ग मोक्षमार्ग के रूप में उपदिष्ट है-ऐसा २. कायोत्सर्ग के प्रयोजन जानकर धतिमान मुनि देवसिक आदि अतिचारों की पावुग्घाई कीरइ उस्सग्गो मंगलंति उद्देसो । स्मति करने के लिए चेष्टा कायोत्सर्ग करते हैं। अणुवहियमंगलाणं मा हुज्ज कहिंचि णे विग्धं ॥ अमंगल निवारण (आवान १५३७) कज्जणिमित्तं गच्छंतो अवक्खलितो अट्ट उस्सासे कायोत्सर्ग मंगल है। पाप (अनिष्ट या अमंगल) काउस्सग्गो कातव्वो, ताहे गंमति, जदि बितियपि तो का निराकरण करने के लिए यह किया जाता है। सोलस उस्सासा। ततियं जदि अवसउणो तो अच्छति मंगल का अनुष्ठान न करने पर हमारे कार्य में कहीं। अण्णं सोभणं सउणं पडिच्छंतो, सुतक्खंधपरियट्टणे पणुविघ्न न आ जाए, इस दृष्टि से कार्य के प्रारम्भ में वीसं उस्सासा। (आव २ पृ. २६६,२६७) मंगल का अनुष्ठान (कायोत्सर्ग) करणीय है। किसी कार्य के निमित्त स्थान से बाहर जाते समय अन्नं इमं सरीरं अन्नो जीवृत्ति एव कयबुद्धी। दुक्खपरिकिलेसकरं छिद ममत्तं सरीराओ॥ अपशकुन हो जाये तो आठ उच्छ्वास का कायोत्सर्ग कर फिर जाए। दूसरी बार फिर अपशकुन हो जाये तो सोलह (आवनि १५५२) उच्छ्वास का कायोत्सर्ग करे । तीसरी बार अपशकून शरीर भिन्न है और आत्मा भिन्न है-इस प्रकार होने पर ठहर जाये, शुभ शकून की प्रतीक्षा करे। की बुद्धि का निर्माण कर तू दुःखद और क्लेशकारी शरीर के ममत्व का छेदन कर । ३. कायोत्सर्ग के प्रकार जावइया किर दुक्खा संसारे जे मए समणुभूया। काउस्सग्गो दव्वतो भावओ य भवति । दव्वतो इत्तो दुव्विसहतरा नरएसु अणोवमा दुक्खा ॥ कायचेट्ठानिरोहो, भावतो काउस्सग्गो झाणं । तम्हा उ निम्ममेण मुणिणा उवलद्धसुत्तसारेणं । (आवच २ पृ. २४९) काउस्सग्गो उग्गो कम्मक्खयट्ठा कायव्यो । कायोत्सर्ग के दो प्रकार हैं(आवनि १५५३,१५५४) द्रव्य कायोत्सर्ग-कायचेष्टा का निरोध, शरीर की संसार में मैंने जितने दुःखों का अनुभव किया है, स्थिरता। उनसे अति दुःसह्य और अनुपम दुःख नरक के होते भाव कायोत्सर्ग-प्रशस्त ध्यान । हैं-यह सोचकर निर्ममत्व की साधना करने वाला तथा उसिउस्सिओ य तह उस्सिओ अ उस्सिअनिसन्नओ चेव ।। सूत्र के सार को उपलब्ध मुनि अपने कर्मों को क्षीण करने निसनस्सिओ निसन्नो, निसन्नगनिसन्नओ चेव ॥ के लिए कायोत्सर्ग करे। निवन्नुसिओ निवन्नो, निवन्ननिवन्नगो अ नायव्वो।... मोहपयडीभयं अभिभवित्तु जो कुणइ काउस्सग्गं तु । (आवनि १४५९,१४६०) भयकारणे य तिविहे, नाभिभवो नेव पडिसेहो । कायोत्सर्ग के नौ प्रकार (आवनि १४५४) १. उच्छ्रित-उच्छित ६. निषण्ण-निषण्ण मोहनीयकर्म की भय आदि प्रकृतियों का अभिभव २. उच्छित ७. निपन्न-उच्छित करने के लिए अभिभव कायोत्सर्ग किया जाता है, बाह्य ३. उच्छित-निषण्ण ८. निपन्न (सुप्त) कारणों का पराभव करने के लिए नहीं। भय उत्पन्न ४. निषण्ण-उच्छित ९. निपन्न-निपन्न होने के तीन बाह्य कारण हैं-देव, मनुष्य और ५. निषण्ण Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेष्टा कायोत्सर्ग २०५ कायोत्सर्ग उच्छितः""द्रव्यतः भावतः धम्म सुक्कं च दुवे, झायइ झाणाइ जो ठिओ संतो। एसो काउस्सग्गो, उसिउसिओ होइ नायव्वो। (आवनि १४७९) खड़े होकर धर्म और शुक्ल-इन दो ध्यानों में प्रवृत्त होना उच्छित-उच्छ्रित कायोत्सर्ग है।। खड़े होकर कायोत्सर्ग करना-द्रव्यतः उच्छित कायोत्सर्ग है। धर्म-शुक्ल ध्यान करना-भावतः उच्छित कायोत्सर्ग धम्म सुक्कं च दुवे, न वि झायइ न वि य अट्टरुद्दाई। एसो काउस्सग्गो, दवुस्सिओ होइ नायव्वो॥ अट्ट रुदं च दुवे, झायइ झाणाई जो ठिओ संतो। एसो काउस्सग्गो, दवस्सिओ भावओ निसन्नो । धम्म सुक्कं च दुवे, झायइ झाणाई जो निसन्नो अ। एसो काउस्सग्गो निसनुसिओ होइ नायव्वो ।। धम्म सुक्कं च दुवे, न वि झायइ न वि य अझरुद्दाई । एसो काउस्सग्गो, निसन्नओ होइ नायव्वो ॥ अटें रुई च दुवे, झायइ झाणाई जो निसन्नो य । एसो काउस्सग्गो, निसन्नगनिसन्नगो नाम । धम्म सुक्कं च दुवे, झायइ झाणाइं जो निवन्नो य । एसो काउस्सग्गो, निवनुसिओ होइ नायव्वो॥ धम्म सुक्कं च दुवे, न वि झायइ न वि य अट्टरुद्दाई। एसो काउस्सग्गो, निवन्नओ होइ नायव्वो॥ अट्ट रुदं च दुवे, झायइ माणाइजो निवन्नो उ । एसो काउस्सग्गो, निवन्नगनिवन्नगो नाम ।। (आवनि १४८०, १४८९-१४९५) • खड़े होकर धर्म, शुक्ल, आर्त और रौद्र-किसी ध्यान में प्रवृत्त नहीं होना, यह द्रव्य-उच्छित कायोत्सर्ग है। खड़े रहकर कायोत्सर्ग करना-द्रव्यतः उच्छ्रित, ध्यान का अभाव-भावतः शून्य । • खड़े होकर आर्त और रौद्र-ये दो ध्यान करना द्रव्यत: उच्छित और भावतः निषण्ण कायोत्सर्ग . बैठकर धर्म-शुक्ल अथवा आर्त्त-रौद्र --किसी ध्यान में संलग्न नहीं होना-निषण्ण कायोत्सर्ग है। बैठकर कायोत्सर्ग करना-द्रव्यतः निषण्ण । ध्यान का अभाव-भावतः शून्य । बैठकर आर्त और रौद्र ध्यान में संलग्न होना निषण्ण निषण्ण कायोत्सर्ग है। बैठकर कायोत्सर्ग करना-द्रव्यतः निषण्ण । आत-रौद्र ध्यान करना-भावतः निषण्ण । ° सोकर धर्म और शुक्ल ध्यान में संलग्न होना निपन्न-उच्छित कायोत्सर्ग है। सोकर कायोत्सर्ग करना--द्रव्यतः निपन्न । धर्म-शुक्ल ध्यान करना-भावतः उच्छित । • सोकर धर्म-शक्ल अथवा आत-रौद्र-किसी ध्यान में संलग्न नहीं होना निपन्न कायोत्सर्ग है। सोकर कायोत्सर्ग करना-द्रव्यतः निपन्न। ध्यान का अभाव-भावतः शून्य । ० सोकर आर्त्त और रौद्र ध्यान में संलग्न होना निपन्न-निपन्न कायोत्सर्ग है। सोकर कायोत्सर्ग करना-द्रव्यतः निपन्न। आत-रौद्र ध्यान करना-भावतः निपन्न । उड्ढनिसीयतुयट्टण ठाणं तिविहं तु होइ नायव्वं ।" (ओभा १५२) स्थान (कायोत्सर्ग) के तीन प्रकार१. ऊर्ध्व -- खड़े-खड़े कायोत्सर्ग करना । २. निषीदन-बैठे-बैठे कायोत्सर्ग करना । ३. त्वकवर्तन-सोए-सोए कायोत्सर्ग करना । सो उस्सग्गो दुविहो, चिट्ठाए अभिभवे य णायव्वो । भिक्खायरियाइ पढमो, उवसग्गभिजंजणे बिइओ। (आवनि १४५२) कायोत्सर्ग के दो प्रकार१. चेष्टा--भिक्षाचर्या आदि की प्रवृत्ति के पश्चात् कायोत्सर्ग करना। २. अभिभव--प्राप्त उपसर्गों को सहन करने के लिए कायोत्सर्ग करना। चेष्टा कायोत्सर्ग विओसग्गो-काउस्सग्गो, गमणागमण सुविण-णइसंतरणादिसु । (दअचू पृ १४) • बैठक र धर्म और शुक्ल ध्यान में संलग्न होना निषण्ण-उच्छित कायोत्सर्ग है । बैठकर कायोत्सर्ग करना-द्रव्यतः निषण्ण । धर्म-शुक्ल ध्यान करना--भावत: उच्छित। Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कायोत्सर्ग चेट्ठाउस्सग्गो चेद्वातो निष्कण्णो जथा गमनागमणादिसु काउस्सग्गो कीरति । ( आवचू २ २४८) चेष्टा से निष्पन्न कायोत्सर्ग चेष्टा कायोत्सर्ग है । गमन - आगमन, स्वप्न नदी - संतरण आदि-ये चेष्टा कायोत्सर्ग के स्थान हैं । अभिभव कायोत्सर्ग अविपय कम्मं अरिभूयं तेण तज्जयट्ठाए । अभुट्टिया उ तवसंजमंमि कुव्वंति निग्गंथा ॥ ( आवनि १४५६ ) अभिभवो णाम अभिभूतो वा परेणं परं वा अभिभूय कुणति । परेणाभिभूतो, जथा हूणादीहि अभिभूतों सव्वं सरीरादि वो सिरामित्ति काउस्सग्गं करेति । परं वा अभिभूय काउस्सग्गं करेति । जथा तित्थगरो देवमणुयादिणो अणुलोमपडिलोमकारिणो भयादी पंच अभिभूय काउस्सगं कातुं प्रतिज्ञां पूरेति । ( आवचू २ पृ २४८) अष्टविध कर्मशत्रु को अभिभूत करने के लिए निग्रंथ अभिभव कायोत्सर्ग करते हैं । अभिभव कायोत्सर्ग के दो प्रकार हैं १. पराभिभूत- हूण, शक आदि आक्रामक लोगों से अभिभूत होकर 'मैं शरीर आदि सबका व्युत्सर्ग करता हूं'- इस संकल्प के साथ कायोत्सर्ग करना । २. पराभिभव - अनुलोम- प्रतिलोम उपसर्ग करने वाले देव, मनुष्य आदि को तथा भय, क्षुधा, अज्ञान, ममत्व और परीषह - इन पांचों को अभिभूत कर कायोत्सर्ग का संकल्प करना । ४. चेष्टा कायोत्सर्ग : उच्छ्वास और लोगस्सपरिमाण साय सयं गोसऽद्धं तिन्नेव सया हवंति पक्खमि । पंच य चाउम्मासे अट्टसहस्सं च वारिसए || चत्तारि दो दुवाल वीसं चत्ता य हुंति उज्जोआ । देसिय राइय पक्खिय चाउम्मासे अ वरिसे य ॥ ( आवनि १५३०, १५३१ ) २०६ सायंकालीन कायोत्सर्ग में श्वासोच्छ्वास का परिमाण सौ, प्रातःकालीन में पचास, पाक्षिक में तीन सौ, चातुर्मासिक में पांच सौ और वार्षिक में दैवसिक कायोत्सर्ग - सौ श्वासोच्छ्वास । देवसिक प्रतिक्रमण के चार, रात्रिक के दो, १००८ है । इस प्रकार पाक्षिक के कायोत्सर्ग : उच्छ्वास और ''''' बारह, चातुर्मासिक के बीस और वार्षिक प्रतिक्रमण के चालीस उद्योतकर (लोगस्स) होते हैं । गमणागमण विहारे सुत्ते वा सुमिणदंसणे राओ । नावान इसतारे इरियावहिया डिक्कमणं ॥ ( आवनि १५३३ ) गमन, आगमन विहार, शयन, स्वप्नदर्शन तथा नौका आदि से नदीसंतरण करने पर ईर्यापथिकी प्रतिक्रमण में पच्चीस श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग किया जाता है । उद्देससमुद्दे से सत्तावीसं अणुन्नवणियाए । अट्ठेव य ऊसासा पट्ठवणप डिक्कमणभाई ॥ अकाल पढिया एसु दुट्टु अ पडिच्छियाईसु । समणुन्नस मुद्दे से काउस्सग्गस्स करणं तु ॥ ( आवनि १९५३४, १५३५ ) सूत्र के उद्देश और समुद्देश के समय सत्तावीस श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग तथा अनुज्ञा, प्रस्थापना एवं काल-प्रतिक्रमण में आठ श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग करना होता है । इसी प्रकार अकाल में स्वाध्याय करने, अविनीत को वाचना देने तथा दूसरों को पढ़ाने और अर्थ की वाचना देने में भी कायोत्सर्ग करना होता है । पाणवह मुसावाए अदत्तमेहुणपरिग्गहे चेव । सयमेगं तु अणूणं ऊसासाणं हविज्जाहि ॥ ( आवनि १५३८ ) स्वप्न में प्राणिवध, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह का सेवन करने पर पूरे सौ श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग करना होता है । मेहुणे दिट्ठीविप्परिया सियाए सतं, इत्थीए सह ( आवचू २ पृ २६७) स्वप्न में मैथुन - दृष्टिविपर्यास होने पर सौ उच्छ्वास तथा स्त्री- विपर्यास होने पर एक सौ आठ उच्छ्वास का कायोत्सर्ग किया जाता है। असयं । आयंबिल विसज्जणे विगयविसज्जणे य सत्तावीसं उवस्यदेवयाए य सत्तावीसं कालग्गहणे पट्ठवणे य अणेसणाए पडिक्कमणे अट्ठ उसासा । ( आवचू २ पृ २६६ ) आयंबिल और निर्विकृति के पारणे में उपाश्रयदेवता हेतु २७ उच्छ्वास का कायोत्सर्ग २७ 31 31 Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कायोत्सर्ग-प्रतिज्ञा सूत्र २०७ कायोत्सर्ग अनेषणीय वस्तु ग्रहण अवस्था और बल के अनुरूप स्थाणु की भांति निष्प्रकंप प्रतिक्रमण हेतु ८ उच्छवास का कायोत्सर्ग खड़े होकर कायोत्सर्ग करे। वह पंजों के बीच चार कालप्रतिलेखन-स्वाध्याय अंगुल का अंतर रखकर, दाएं हाथ में मुखवस्त्रिका और प्रस्थापन में बाएं हाथ में रजोहरण धारण कर शरीर की प्रवृत्ति का श्रुतस्कन्धपरिवर्तना विसर्जन और परिकर्म का त्याग कर कायोत्सर्ग करे। के समय २५ ॥ नियमा असमत्थत्तणेणं जावतिओ उद्वितओ सक्केति उच्छ्वास का कालमान कातुं तावतिए तथा करेति, सेसे उवविट्ठो करेति । जतिए सक्केति उववेट्ठो कातुं तेत्तिकं करेति । सेसे पायसमा ऊसासा कालपमाणणं हंति नायव्वा ।। एयं कालपमाणं उस्सग्गेणं तु नायव्वं ॥ ___असमत्थो संविट्ठो करेति। (आवचू २ पृ २५०) (आवनि १५३९) शारीरिक असामर्थ्य के कारण जब तक खड़ा रह एक उच्छ्वास का कालमान है एक चरण (श्लोक सके, तब तक खड़े-खड़े कायोत्सर्ग करे, तत्पश्चात् बैठ के एक पाद) का स्मरण । इस प्रकार कायोत्सर्ग से कर कायोत्सर्ग करे। इसमें भी असमर्थ हो तो लेटकर कायोत्सर्ग करे। कालप्रमाण ज्ञातव्य है। ८. कायोत्सर्ग-प्रतिज्ञा सूत्र ५. अभिभव कायोत्सर्ग-कालमान . तस्स उत्तरीकरणणं पायच्छित्तकरणेणं विसोहीकरसंवच्छरमुक्कोसं, अंतमुहुत्तं च अभिभवुस्सग्गे । .. णणं विसल्लीकरणेणं पावाणं कम्माणं निग्घायणट्टाए वाहबलिना संवत्सरं कायोत्सर्गः कृतः । ठामि काउस्सग्गं.""जाव अरहंताणं भगवंताणं नमोक्का(आवनि १४५८ हावृ २ पृ १८८) रेणं न पारेमि ताव काय ठाणेणं मोणेणं झाणेणं अप्पाणं अभिभव कायोत्सर्ग का जघन्य कालमान अन्तर्मुहूर्त वोसिरामि। (आव ५।३) तथा उत्कृष्ट कालमान एक वर्ष का होता है। अर्हत् ऋषभ के पुत्र बाहबलि एक वर्ष तक कायोत्सर्ग की मुद्रा मैं अविधिकृत आचरण के परिष्कार, प्रायश्चित्त, में रहे। विशोधन और शल्य-विमोचन द्वारा पापकर्मों को नष्ट करने के लिए कायोत्सर्ग करता हूं। ६. कायोत्सर्ग का अधिकारी ___ जब तक मैं अर्हत् भगवान् को नमस्कार कर, उसे वासीचंदणकप्पो जो मरणे जीविए य समसण्णो। सम्पन्न न करूं तब तक मैं स्थिर मुद्रा, मौन और शुभदेहे य अपडिबद्धो काउस्सग्गो हवइ तस्स ॥ ध्यान के द्वारा अपने शरीर का विसर्जन करता है। (आवनि १५४८) ___."अन्नत्थ ऊससिएणं नीससिएणं खासिएणं छीएणं जो मुनि वसौले से काटने या चंदन का लेप करने पर समता रखता है, जीवन और मरण में सम रहता जंभाइएणं उड्डुएणं वायनिसग्गेणं भमलीए पित्तमुच्छाए सुहुमेहिं अंगसंचालेहिं सुहुमेहिं खेलसंचालेहिं सुहुमेहिं है तथा देह के प्रति अप्रतिबद्ध है, उसी के कायोत्सर्ग होता है। दिट्ठिसंचालेहिं एवमाइएहिं आगारेहिं अभग्गो अविराहिओ होज्ज मे काउस्सग्गो"। (आव ५१३) ७. कायोत्सर्ग विधि उच्छ्वास, निःश्वास, खांसी, छींक , जम्हाई, डकार, निक्कडं सविसेसं वयाणुरूवं बलाणुरूवं च । अधोवायु, चक्कर, पित्तजनितमूर्छा, शारीरिक अवयवों खाणुव्व उद्धदेहो काउस्सग्गं तु ठाइज्जा ॥ का, कफ और दृष्टि का सूक्ष्म संचालन-ये प्रवृत्तियां चउरंगुल मुहपत्ती उज्जुए डब्बहत्थ रयहरणं । । कायोत्सर्ग में बाधक नहीं बनेंगी। इस प्रकार की अन्य वोसट्ठचत्तदेहो काउस्सग्गं करिज्जाहि ॥ स्वाभाविक और विकारजनित बाधाओं के द्वारा भग्न (आवनि १५४१,१४४५) और विराधित नहीं होगा मेरा कायोत्सर्ग-ये कायोमुनि मायारहित होकर, विशेष रूप से अपनी त्सर्ग के अपवाद हैं। Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कायोत्सर्ग ६. कायोत्सर्ग के दोष घोडग लाइ खंभे कुड्डे माले अ सवरि बहु नियले । लंबुत्तर थण उद्धी संजय खलि वायसकविट्ठे ॥ सुक्कंपि सूई ( अ ) अंगुलिभमुहा य वारुणी पेहा । ... ( आवनि १५४६, १५४७ ) कायोत्सर्ग के इक्कीस दोष हैंघोटक - अश्व की भांति पैरों को विषम स्थिति में रखना । २०८ लता - हवा से प्रेरित लता की तरह प्रकंपित होना । स्तंभ } खंभे या भींत का सहारा लेकर खड़ा होना । कुड्य माल - ऊपर की छत से सिर को सटाकर खड़ा होना । शबरी - नग्न भीलनी की तरह अपने गुह्य प्रदेश को हाथों से ढककर खड़ा होना । बहू - कुलवधू की तरह सिर को नमाकर खड़ा रहना । निगड - पैरों को सटाकर या चौड़ा कर खड़ा होना । लम्बोत्तर - चोलपट्ट को नाभि के ऊपर बांधकर नीचे उसे घुटनों तक रखना । स्तन - दंश-मशक से बचने के लिए अथवा अज्ञान से चोलपट्टको स्तनों तक बांधकर खड़ा होना । उद्धि - एड़ियों को सटाकर, पंजों को फैलाकर खड़े होना । यह बाह्य उद्धिका है । दोनों पैरों के अंगूठों को सटाकर, एड़ियों को फैलाकर खड़े होना, यह आभ्यन्तरिक उद्धिका है । संयंती - सूत के कपड़े या कम्बल से शरीर को साध्वी की भांति ढंककर खड़े होना । खलीन - रजोहरण को आगे कर खड़े होना । वायस - कौवे की भांति दृष्टि को इधर-उधर घुमाना । कपित्थ - जूं के भय से कपित्थ की भांति गोलाकार में जंघाओं के बीच कपड़ा रखकर खड़े होना । शीष प्रकंपन --यक्षाविष्ट व्यक्ति की भांति सिर को धुनते हुए कायोत्सर्ग करना । मूक- प्रवृत्ति के निवारण के लिए कायोत्सर्ग में 'हूं हूं' ऐसे शब्द करना । भू-भौहों को नचाना । वारुणी- कायोत्सर्ग में मदिरा की भांति बुदबुदाना । प्रेक्षा- बंदर की भांति होठों को चालित करना । १०. कायोत्सर्ग के परिणाम कायोत्सर्ग के परिणाम काउस्सग्गेणं भंते! जीवे किं जणयइ ? काउस्सग्गेणं तीयपडुप्पन्नं पायच्छित्तं विसोहेइ । विसुद्धपायच्छित्ते य जीवे निव्दुयहियए ओहरियभारोव्व भारवहे पसत्थज्झाणोवगए सुहंसुहेणं विहरइ । ( उ २९।१३) भंते! कायोत्सर्ग से जीव क्या प्राप्त करता है ? कायोत्सर्ग से जीव अतीत और वर्तमान के प्रायश्चित्तोचित कार्यों का विशोधन करता है । ऐसा करने वाला व्यक्ति भार को नीचे रख देने वाले भारवाहक की भांति स्वस्थ हृदय वाला अर्थात् हल्का हो जाता है और प्रशस्त ध्यान में लीन होकर सुखपूर्वक विहार करता है । देहम जडसुद्धी, सुहदुक्खतितिक्खया अणुप्पेहा । भाइ य सुहं भाणं, एगग्गो काउस्सग्गमि ॥ ( आवनि १४६२ ) कायोत्सर्ग के पांच लाभ निर्दिष्ट हैं-१. देहजाड्यशुद्धि - श्लेष्म आदि दोषों के क्षीण होने से देह की जड़ता नष्ट होती है । २. मतिजाड्यशुद्धि- - जागरूकता के कारण बुद्धि की जड़ता नष्ट होती है । ३. सुख-दुःख- तितिक्षा - सुख-दुःख को सहन करने की शक्ति का विकास होता है । ४. अनुप्रेक्षा - भावनाओं से मन को भावित करने का अवसर प्राप्त होता है । ५. एकाग्रता - एकाग्रचित्त से शुभध्यान करने का अवसर प्राप्त होता है । अंगुलि - आलापकों को गिनने के लिए अंगुलियों को तोड़ देता है । चालित करना । काउस्सग्गे जह सुट्टियस्स भज्जंति अंगमंगाई । इयभिदति सुविहिया अट्ठविहं कम्मसंघायं ॥ ( आवनि १५५१ ) लम्बे समय तक खड़े होकर कायोत्सर्ग करने वाले मुनि के अंगोपांग टूटने लगते हैं, उसी प्रकार कायोत्सर्ग करने वाला मुनि अपने आठ प्रकार के कर्मसंघात को Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल : जीव- अजीव का पर्याय कायोत्सर्ग चिकित्सा काउस्सग्गेण तिमिच्छा अवस्सं कातव्वा चरितादीण उत्तरीकरणादिणा पावकम्मणिग्धातत्वं काउसम्मो कातव्वो दव्ववणो ओसहादीहि तिगिच्छिज्जति । भाववणो संजमातियारो तस्स पायच्छित्तेण तिगिच्छणा । ( आवचू २ पृ २४५, २४६) मुनि को कायोत्सर्ग से चिकित्सा अवश्य करनी चाहिए चारित्र आदि की विशुद्धि के द्वारा पापकर्म को नष्ट करने के लिए कायोत्सर्ग किया जाता है। शारीरिक व्रण ( द्रव्यवण ) की औषधि आदि से चिकित्सा की जाती है | भावव्रण हैं संयम के अतिचार। उनकी चिकित्सा प्रायश्चित्त से होती है। कार्मण शरीरकर्मवर्गणा से निष्पन्न शरीर । (द्र. शरीर ) कार्मिकी बुद्धिकर्म अभ्यास से उत्पन्न क्षमता । (द्र. बुद्धि) काल-चेतन और अचेतन के परिणमन में हेतुभूत काल्पनिक द्रव्य | १. काल का निर्वाचन २. काल की परिभाषा काल : एक द्रव्य * काल अस्तिकाय नहीं ३. काल : जीव-अजीव का पर्याय ४. काल का क्षेत्र - काल- भाव सूक्ष्म क्या- काल या क्षेत्र ? ५. काल के प्रकार ६. द्रव्य काल (निश्चयकाल) ७. अद्धा काल (व्यवहारकाल) ८. अढाकाल के प्रकार समय शीर्ष प्रहेलिका .. ९. शीर्षप्रहेलिका (गणित) का प्रयोजन * असंख्य अनंत २०९ १०. यथायुककाल ११. उपक्रमकाल १२. देशकाल १३. कालकाल (K. HOU) (द्र. अस्तिकाय) ( द्र. संख्या) १४. प्रमाणका ल १५. वर्णकाल १६. भावकाल * काल: प्रमाण का एक भेद १७. कालप्रमाण के प्रकार ० प्रदेश निष्पन्न ० विभागनिष्पन समय पुद्गलपरावर्त १८. औपमिक काल * कालप्रतिलेखना } * काल (द. प्रमाण ) १. काल का निर्वचन कलणं पज्जायाणं कलिज्जए तेण वा जओ वत्थु । कलयंति तयं तम्मि व समयाइकलासमूहो वा ॥ ( विभा २०२८ ) जिससे वस्तु के पर्याय का कलन / ज्ञान किया जाता है, वह काल है अथवा समय आदि कलाओं के समूह को काल कहते हैं। ( द्र. कालविज्ञान ) सूक्ष्मामपि कलां कलयति इति कालः । सकलयति भूतानि वा कालः । (उपृ२९) जो सूक्ष्म विभाग का भी आकलन करता है, वह काल है । जो प्राणियों के आयुष्य को पूर्ण करता है, वह काल है। २. काल को परिभाषा -- वत्तणालक्खणो कालो...* ( उ २८1१०) वर्त्तन्ते --- भवन्ति भावास्तेन तेन प्रयोजकत्वं वर्त्तना सा लक्षणं रूपेण तान् प्रति लिङ्गमस्येति वर्तना लक्षणः कालः । ( उशाबू प ५६१) काल का लक्षण है-वर्तना पदार्थ अपने-अपने रूप में रहते हैं, उनके प्रति जो प्रयोजक तत्त्व है, वह है वर्तना । ३. काल : जीव अजीब का पर्याय जीवाजीवपज्जायत्तणतो कालस्स णियमा आहेयत्तणतो य अंते अद्धासमयः । ( अनुच पृ ३०) काल जीव और अजीव का पर्याय है। यह आधार नहीं, आधेय है -- जीव-अजीव के आश्रित है । द्रव्यों में यह अंतिम द्रव्य है। अतः षड् Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल २१० अद्धाकाल ४. काल का क्षेत्र-काल-भाव "समए समयखेत्तिए । (उ ३६७) समय (कालविभाग) समयक्षेत्र-मनुष्यलोक में ही होता है। समए वि सन्तइं पप्प, एवमेव वियाहिए । आएसं पप्प साईए, सपज्जवसिए वि य॥ (उ ३६९) काल प्रवाह की अपेक्षा अनादि-अनन्त है। एक-एक क्षण की अपेक्षा से वह सादि-सान्त है। .."अद्धासमए चेव अरूवी ॥ (उ ३६१६) भाव की अपेक्षा से काल अरूपी है। सूक्ष्म क्या-काल या क्षेत्र ? अंगुलप्पमाणमेत्ते आगासे जावतिया आगासपदेसा ते बुद्धीए समए समए एगमेगं आगासपदेसं गहाय अवहीरमाणा अवहीरमाणा असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणीहि अवहिया भवंति । अतो कालतो खेत्तं सहमतरागं भवति । (आवचू १ पृ ४४) अंगूलप्रमाण आकाश में जितने आकाश प्रदेश हैं, उनमें से यदि एक-एक समय में एक-एक आकाश प्रदेश का अवहरण किया जाये तो उस क्षेत्र को खाली होने में असंख्यात उत्सपिणी काल बीत जाएगा। अतः काल से क्षेत्र सूक्ष्मतर है। ५.काल के प्रकार दवे अद्ध अहाउयं उवक्कमे देसकालकाले य । तह य पमाणे वण्णे भावे पगयं तु भावेणं ।। (आवनि ६६०) १. द्रव्यकाल-वर्तना आदि । २. अद्धाकाल-सूर्य और चन्द्र द्वारा प्रवर्तित ढाई द्वीप समुद्र में वर्तन करने वाला काल (समय आदि)। ३. यथायुष्ककाल-देव आदि का आयुष्य । ४. उपक्रमकाल-सामाचारी और यथायुष्क । ५. देशकाल-अभीष्ट वस्तु प्राप्ति का अवसर । ६. कालकाल-मरणकाल । ७. प्रमाणकाल--अद्धाकाल-विशेष, दिवस आदि । ८. वर्णकाल-काला आदि वर्ग । ९. भावकाल-औदयिक आदि भाव । ६. द्रव्यकाल सो वत्तणाइरूवो कालो दव्वस्स चेव पज्जाओ। किचिम्मेत्तविसेसेण दव्वकालाइववएसो ॥ (विभा २०२९) वर्तन आदि रूप काल द्रव्य का ही पर्याय है। किंचित् विशेष विवक्षा से द्रव्यकाल, अद्धाकाल आदि का व्यवहार होता है। गइ सिद्धा भवियाया अभविय पोग्गल अणागयद्धा य । तीयद्ध तिन्नि काया जीवाजीवट्टिई चउहा ॥ (आवनि ६६२) चेतन-अचेतन की स्थिति द्रव्यकाल है। चेतन द्रव्यकाल के चार विकल्प सादि सपर्यवसित-देव, मनुष्य आदि गति सादि अपर्यवसित -सिद्ध अनादि सपर्यवसित-कुछ भव्य जीव अनादि अपर्यवसित-अभव्य जीव अचेतन द्रव्यकाल के चार विकल्प सादि सपर्यवसित - पुद्गल सादि अपर्यवसित-अनागत काल अनादि सपर्यवसित-अतीत काल अनादि अपर्यवसित-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय निच्छयनयस्स दव्वपरिणामो चेव कालो भन्नति । (आवचू १ पृ ४२) निश्चयनय की दष्टि से द्रव्य का परिणाम ही काल है। णिच्छयनयस्स पुण ण चेव दवावबद्धातो खेत्तातो कालो अण्णो भवति । जच्चेव सा तस्स दवावद्धस्स खेत्तस्स परिणती सो कालो भण्णति । (आवचू १ पृ४२) निश्चयनय की दृष्टि से द्रव्य से सम्बद्ध क्षेत्र से काल अन्य नहीं है । जो द्रव्य से अवबद्ध क्षेत्र की परिणति है, वही काल है। ७. अद्धाकाल अद्धासमयेत्ति अद्धा इति काल: समूहवचनतः तद्विसेस: समयं । अहवा आदिच्चादिधावणकिरिया चेव परिमाण- । विसिट्ठावत्थगता अद्धा एवं काल उभयथावि तस्स समयः । (अनुचू पृ ३०) Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अद्धाकाल के प्रकार -- समय... समय पद अद्धा पद सामान्य काल का वाचक है । विशिष्ट काल का वाचक है । अथवा सूर्य-चन्द्र आदि की गतिक्रिया का जो विशिष्ट परिमाण है वह अद्धासमय है २११ सूरकिरियाविसिट्ठो गोदोहाइ किरियासु निरवेक्खो । अद्धाकालो भण्णइ समयवखेत्तम्मि समयाई ॥ ( विभा २०३५) सूर्य की गतिक्रिया के आधार पर अद्धाकाल होता है । यह गतिक्रिया गोदोहिका आदि क्रियाओं से निरपेक्ष है । समयक्षेत्र ( मनुष्य क्षेत्र) में समय, आवलिका आदि का प्रवर्तन अद्धाकाल है । ८. अद्धाकाल के प्रकार - समय असंखेज्जाणं समयाणं समुदय समिति-समागमेणं सा एगा आवलिया त्ति वुच्चइ । संखेज्जाओ आवलियाओ ऊसासो, संखेज्जाओ आवलियाओ नीसासो । सिलोगा - हट्ठस्स अणवगलस्स, निरुवक्किट्ठस्स जंतुणो । वुच्चइ ॥ से लवे । एगे ऊसास - नीसासे, एस पाणु त्ति सत्त पाणूणि से थोवे, सत्त थोवाणि लवाणं सतहत्तरिए एस मुहुत्ते तिणि सहस्सा सत्त य, सयाई तेहत्तरि च ऊसासा । एस मुहुत्तो भणियो, सव्वेहिं अनंतनाणीहि ॥ वियाहिए || एएणं मुहुत्तमाणे तीसं मुहुत्ता अहोरत्तं, पण्णरस अहोरत्ता पक्खों, दो पक्खा मासो, दो मासा उऊ, तिण्णि उऊ अयणं, दो अयणाई संवच्छरे, पंच संवच्छराई जुगे, वीसं जुगाई वासस्यं, दस वाससयाई वाससहस्सं, सयं वास सहस्ताणं वाससयसहस्सं, चउरासीइं वासस्यसहस्साई से एगे पुव्वंगे, चउरासीइं पुव्वंगसयसहस्साइं से एगे पुव्वे, चउरासीइं पुव्वसयसहस्साइं एगे तुडियंगे, चउरासीइं तुडियंगसय सहस्साइं से एगे तुडिए, चउरासीइं तुडिसयसहस्साइं से एगे अडडंगे, चउरासीइं अडडंगसय सहस्सा इं से एगे अड्डे, एवं अववंगे अववे, हुहुयंगे हुहुए, उप्पलंगे उप्पले, पउमंगे पउमे, नलिणंगे नलिणे, अत्थनिउरंगे अत्थनिउरे, अयंगे अउए, नउयंगे नए, पउयंगे पउए, चूलियंगे चूलिया, सीसपहेलियंगे सीसपहेलिया । एतावताव गणिए, एतावए चेव गणियस्स विसए, अतो परं rafमिए । ( अनु ४१७ ) समय के अवबोध की तालिका असंख्येय समय – आवलिका संख्यात आवलिका – एक उच्छ्वास- निःश्वास । आन प्राण - रोगरहित स्वस्थ व्यक्ति को एक उच्छ्वास और एक निःश्वास में जो समय लगता है, उसको 'आन प्राण' कहते हैं । सात प्राण- स्तोक सात स्तोक - लव ७७ लव (३७७३ उच्छ्वास - निःश्वास ) - मुहूर्त्त ३० मुहूर्त्त - अहोरात्र १५ अहोरात्र -- पक्ष २ पक्ष- मास २ मास ऋतु ३ ऋतु-अयन २ अयन - संवत्सर ५ संवत्सर - युग २० युग - शत वर्ष १० शतवर्ष - सहस्र वर्ष १०० सहस्रवर्ष - लाख वर्ष ८४ लाख वर्ष पूर्वांग ८४ लाखपूर्वी पूर्व ८४ लाखपूर्व त्रुटितांग ८४ लाख त्रुटितांग - त्रुटित ८४ लाख त्रुटित अटटांग ८४ लाख अटटांग—अटट ८४ लाख अटट - अयवांग ८४ लाख अयवांग- अयव ८४ लाख अयव - हूहूकांग ८४ लाख हूहूकांग - हूहूक ८४ लाख हूहूक - उत्पलांग ८४ लाख उत्पलांग- उत्पल ८४ लाख उत्पल - पद्मांग - ८४ लाख पद्मांग - पद्म ८४ लाख पद्म नलिनांग ८४ लाख नलिनांग - नलिन ८४ लाख नलिन - अर्थनिकुरांग ८४ लाख अर्थनिकुरांग - अर्थनिकुर ८४ लाख अर्थनिकुर - अयुतांग ८४ लाख अयुतांग - अयुत ८४ लाख अयुत — नयुतांग ८४ लाख नयुतांग - नयुत काल Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल ८४ लाख नयुत - प्रयुतांग ८४ लाख प्रयुतांग - प्रयुत ८४ लाख प्रयुत चूलिकांग ८४ लाख चूलिकांग - चूलिका ८४ लाख चूलिका - शीर्ष प्रहेलिकांग ८४ लाख शीर्ष प्रहेलिकांग - शीर्षप्रहेलिका . यहां तक गणित (संख्या) है, यहां तक ही गणित का विषय है, इसके पश्चात् औपमिक काल प्रवृत्त होता है । पूर्वांग, पूर्व शीर्ष प्रहेलिका इच्छियमाणेण गुण पणसुण्णं चउरासीतिगुणितं वा । काऊण तत्तिवारा पुव्र्वगादीण मुण संखं ॥ पुव्वंगे परिमाणं पण सुणा चउरासीती य । एतं एगं पुव्वं गं चुलसीतीए सयसहस्सेहि गुणितं एगं पुव्वं भवति । तस्सिमं परिमाणं- दस सुण्णा छप्पण्णं च सहस्सा कोडीणं सत्तरि लक्खा य सीसपहेलियाए चत्तालं सुण्णतयं ततो छ णव दो ति अट्ठ एक्को सुण्णं अट्ठ सुणं अट्ठ चतु अट्ठ छ छ णव अट्ठ एक्को दो छ सुण्णं चतु छ णव छ पण सत्त णव णव छ पण ति सत्त णव सत्त पण एक्को एक्को चतु दो सुण्णं एक्को सुणं ति सत्तणं तिपण दोति छ दो अट्ठ पण सत्त य ठवेज्जा । (अनुचू पृ ३७-४०) विवक्षित संख्या को चौरासी लाख से गुणित करने पर जो फलित आये, वह पूर्वांग आदि है । पूर्वांग का संख्यापरिमाण है ८४००००० । इस एक पूर्वांग (८४ लाख) को एक पूर्वांग ( ८४ लाख) से गुणन करने पर एक पूर्व होता है- पूर्वांग x पूर्वांग = पूर्व ८४०००००X८४००००० ७०५६०००००००००० । इसी प्रकार त्रुटितांग आदि संख्याएं उत्तरोत्तर चौरासी लाख से गुणित होने पर होती हैं। अंतिम संख्या 'शीर्ष प्रहेलिका' में ५४ संख्यांक और १४० शून्य – कुल १९४ अंक होते हैं । वे संख्यांक ये हैं - ७५८२६३२५३० ७३०१०२४११५७९७३५६९९७५६९६४०६२१८९६६८ ४८०८०१८३२९६ । इनके आगे १४० शून्य लगाने से एक शीर्षप्रहेलिका होती है । ( माथुरी वाचना में यह संख्या स्वीकृत है । वल्लभी वाचना के अनुसार शीर्षप्रहेलिका की संख्या २५० अंकों (७० अंक और १८० शून्य ) की है । इसका उल्लेख ज्योतिष्करंड में हुआ है ।) २१२ ६. शीर्षप्रहेलिका ( गणित ) का प्रयोजन तोता दिया जाव पुव्वकोडीएत्ति - एतानि धर्मचरणकालं पडुच्च णरतिरियाण आउपरिमाणकरणे उवजुज्जति । णारगभवणवंतराणं दसवरिससहस्सादि उवजुज्जति । आउचिताए तुडियादिया सीसपहेलियंता एते प्रायसो पुव्वगतेसु जविएसु आउयसेढीए उवउज्जंति । अन्यत्र यदृच्छातः एताव ताव गणियं अंकवणाए ।......... जावयं अंक वाणादिट्ठा ताव गणितज्ञानमपि दृष्टं डिगादि सीसपहेलियंतं । ( अनुचू पृ ५७ ) अन्तर्मुहूर्त्त से पूर्व कोटि तक की संख्या का उपयोग मनुष्यों और तिर्यंचों के धर्माचरणकाल के संदर्भ में आयुष्यपरिमाण के लिए किया जाता है। नारक, भवनपति और व्यंतर देवों के आयुष्य का मापन दस हजार वर्ष आदि में होता है । त्रुटित से लेकर शीर्ष प्रहेलिका तक की संख्या का उपयोग प्रायः पूर्वगत-यविकों में आयुष्य श्रेणी के लिए किया जाता था । अन्यत्र भी इच्छानुसार इसका उपयोग किया जाता था । जहां तक अंकस्थान स्थापित किये जा सकते हैं, वहां तक गणित के ज्ञान का निरूपण किया गया है। शीर्ष प्रहेलिका का प्रयोजन सी पहेलिया चतुणतुयं ठाणसयं जाव ताव संववहारकालो । जाव संववहारकालो ताव संववहारकाल विसए, तेण य पढमढविणेरइयाणं भवणवंतराण भरहेरवतेसु य सुसमदूतमाए पच्छिमे भागे णरतिरियाणं आऊ उवमिज्जति । किं च सीसपहेलियाए य परतो अत्थि संखेज्जो कालो सोय अणतिसईणं अववहारिउत्तिकाउं ओवम्मि पक्खित्तो । ( अनुचू पृ ४० ) शीर्षप्रहेलिका के अंकों की संख्या १९४ है- यहां तक संव्यवहारकाल है । इस संव्यवहारकाल से प्रथम पृथ्वी के नैरयिकों, भवनपतियों, व्यंतरों, भरत तथा ऐरवत क्षेत्र के सुषम - दुःषमा काल के पश्चिम भाग के मनुष्यों और तिर्यंचों के आयुष्य का माप किया जाता है । शीर्षप्रहेलिका से आगे भी संख्येय काल होता है किन्तु उसका उपयोग अतिशयज्ञानी ही कर सकता है । अनतिशयज्ञानी के लिए वह व्यवहार्य नहीं इसलिए औपम्य काल में उसका समावेश किया गया है । Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालप्रमाण के प्रकार काल १०. यथायुष्ककाल १५. वर्णकाल नेरइयतिरियमणुयादेवाण अहाउयं तु जं जेण। पंचण्हं वण्णाणं जो खलु वणेण कालओ वण्णो । निव्वत्तियमण्णभवे पालेंति अहाउकालो सो।। सो होइ वण्णकालो वणिज्जइ जो व जं कालं ।। (आवनि ६६४) (आवनि ७३१) नरयिक, तिर्यंच, मनुष्य और देव अपने-अपने भव पांच वर्षों में जो काला वर्ण है वह वर्णकाल है। में जो आयूष्य कर्म का वेदन करते हैं, वह यथायुष्ककाल अथवा जिस काल में जीव आदि पदार्थों का वर्णन किया किया जाता है, वह वर्णकाल है। ११. उपक्रमकाल १६. भावकाल सादीसपज्जवसिओ चउभंगविभागभावणा एत्थं । दुविहोवक्कमकालो सामायारी अहाउयं चेव ।। ओदइयादीयाणं तं (आवनि ६६५) जाणसु भावकालं तु ॥ (आवनि ७३२) उपक्रमकाल के दो प्रकार हैं जिससे औदयिक आदि भावों की सादि-सपर्यवसित १. सामाचारी-ओघ, पदविभाग आदि । आदि चार विकल्प व्यवस्था को जाना जाता है, वह (द्र. सामाचारी) भावकाल है। २. यथायुष्क-सोपक्रम आयुष्य। (द्र. कर्म) १७. कालप्रमाण के प्रकार । १२. देशकाल __ कालप्पमाणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-पएसनिप्फण्णे जो जस्स जयाऽवसरो कज्जस्स सुभासूभस्स सोपायं। य विभागनिप्फण्ण य । (अनु ४१३) भण्णइ स देसकालो........।। कालप्रमाण के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं(विभा २०६३) प्रदेशनिष्पन्न और विभागनिष्पन्न । पएसनिप्फण्णे-एगसमयट्टिईए जो जिस शुभाशुभ कार्य का अवसर है, वह देशकाल दुसमयट्टिईए है । वह सोपाय है। तिसमयट्ठिईए जाव दससमयट्टिईए संखेज्जसमयट्टिईए असंखेज्जसमयट्टिईए। (अनु ४१४) १३. कालकाल एक समय की स्थिति, दो समय की स्थिति, तीन कालो ति मयं मरणं जहेह मरणं गउ त्ति कालगओ। समय की स्थिति यावत् दस समय की स्थिति, संख्येय तम्हा स कालकालो जो जस्स मओ स मरणकालो ॥ समय की स्थिति, असंख्येय समय की स्थिति ---यह (विभा २०६६) प्रदेशनिष्पन्न काल है। लोक में मृत व्यक्ति के लिए कहा जाता है कि वह विभागनिप्फण्णेकालधर्म को प्राप्त हो गया। लोकरूढ़ि से यहां प्रथम समयावलिय-मुहुत्ता, दिवसमहोरत्तपक्खमासा य।। काल का अर्थ है-मरण । अतः कालकाल का अर्थ है संवच्छर-जुग-पलिया सागर-ओस प्पि-परियड़ा। मरणकाल । (अनु ४१५) समय, आवलिका, मुहूर्त, दिवस, अहोरात्र, पक्ष, १४. प्रमाणकाल मास, संवत्सर, युग, पल्योपम, सागरोपम, उत्सर्पिणी, अद्धाकालविसेसो पत्थयमाणं व माणसे खित्ते। अवसर्पिणी और पूदगलपरावर्त्त-यह विभागनिष्पन्न सो संववहारत्थं पमाणकालो अहोरत्तं ॥ काल है। (विभा २०६८) समय मनुष्यक्षेत्र में अहोरात्र आदि अद्धाकाल विशेष समयः परमनिकृष्टः कालविभाग:, स च प्रवचनप्रतिप्रमाणकाल है। प्रस्थकमान की तरह व्यवहार का प्रवर्तन पादितात्पलपत्रशतव्यतिभेदोदाहरणात् जरत्पदृशाटिकाइसका प्रयोजन है। पाटनदष्टान्ताच्चावसेयः । (नन्दीमवृ प १८५) Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल २१४ पुद्गलपरावर्त काल का सबसे सूक्ष्म भाग समय कहलाता है। पुव्वण्हकालो भण्णति । तस्सेव गतिपरिणयस्स ज णहमज्झे आगमप्रतिपादित कमलशतपत्रभेदन और जीर्णशाटिका- दरिसणं सो मज्झण्हकालो भण्णति । तस्सेव गतिपरिणपाटन दृष्टांत से उसे जाना जा सकता है। यस्स जं पच्चत्थिमेण गमणं सो अवरण्हकालो भन्नइ । सूक्ष्मस्तावत्कालो भवति यस्मात्पलपत्रशतभेदे (आवच १ पृ ४२) प्रतिपत्रमसंख्येयाः समयाः प्रतिपाद्यन्ते तत: सूक्ष्मः कालः दिन के तीन विभाग हैं - १. पूर्वाह्न काल २. मध्याह्न तस्मादपि कालात सूक्ष्मतरं क्षेत्रं भवति, यस्मादंगूलमात्रे काल ३. अपराह्न काल । क्षेत्रे-प्रमाणांगुर्लकमात्रे श्रेणिरूपे नमःखण्डे प्रतिप्रदेशं ये तीनों विभाग सूर्य की गति के आधार पर हैं। समयगणनया असंख्येया अवसप्पिण्यस्तीर्थकृद्धिरा- जब सूर्य पूर्व दिशा में दिखाई देता है तब पूर्वाह्न काल ख्याताः । (नन्दीमवृ प ९५. ९६) कहलाता है। वही गतिपरिणत सूर्य जब नभ के मध्य में कमल के सौ पत्तों का भेदन करते समय प्रत्येक पत्ते दिखाई देता है, तब मध्याह्न काल कहलाता है। जब के भेदन में असंख्य समय लगते हैं, इससे स्पष्ट है कि उसकी गति पश्चिम की ओर होती है, तब अपराह्न काल काल सूक्ष्म है। काल से भी सूक्ष्मतर है -क्षेत्र। क्योंकि कहलाता है। एक अंगूलप्रमाण मात्र आकाशखण्ड के प्रत्येक प्रदेश पर अवपिणीकाल समय की गणना के आधार पर असंख्य अवसपिणियां अवसर्पन्ति- प्रतिसमयं कालप्रमाणं जन्तूनां वा वर्तन करती हैं। शरीरायुःप्रमाणादिकमपेक्ष्य ह्रासमनुभवन्त्यवश्यमित्यवसे जहणामए तुण्णागदारए तरुणे बलवं णिउणसिप्पोवगयादिगुणजुत्ते पडसाडियं वा पट्टसाडियं वा गहाय सर्पिण्यो दशसागरोपमकोटीकोटिपरिमाणाः । सयराहं हत्थमेत्तं ओसारेज्जा । जम्हा संखेज्जाणं पम्हाणं (उशावृ प ६५७) समागमेण तंतू णिप्फज्जति । उवरिल्ले य पम्हंमि अणि जिस कालखण्ड में प्राणियों के शरीर और आयुष्य च्छण्णमि हेद्विल्ले पम्हे ण छिज्जति । अण्णमि काले के प्रमाण का क्रमशः ह्रास होता है, वह अवसर्पिणी काल उवरिल्ले पम्हे छिज्जति । अण्णं मि काले हेदिल्ले पम्हे हैं। यह काल दस कोटिकोटि सागरोपम प्रमाण होता छिज्जति । अतो सेऽवि समए न भवति । एतेण सुहुमतराए ह। समए पण्णत्ते। (आव १ पृ ४३, ४४) उत्सपिणी काल एक निपुण, बलवान और तरुण जुलाहा शाटिका में तत्परिमाणानामेव उत्सर्पन्ति-उक्तन्यायतो वद्धिमनसे एक हाथ प्रमाण कपड़ा शीघ्र फाड़ देता है । संख्येय भवन्त्यवश्यमित्युत्सपिण्यः । (उशाव प ६५७) पक्ष्मों से तंतु निष्पन्न होता है। इसलिए प्रथम क्षण में जिस कालखण्ड में शरीर, आयुष्य आदि के परिमाण ऊपर का पक्ष्म छिन्न होने पर ही दूसरे क्षण में नीचे का का क्रमशः विकास होता है, वह उत्सर्पिणी काल है। वह पक्ष्म छिन्न होता है -इतना काल भी समय नहीं है। दस कोटिकोटि सागरोपमप्रमाण होता है। समय इससे भी सूक्ष्मतर है । पुद्गलपरावर्त अन्तर्मुहूर्त सव्वपोग्गला जावतिएण कालेण सरीरफासअशनामुहूर्तो घटिकाद्वयप्रमाणः कालविशेषः तस्याद्धं दीहिं फासेज्जति सो पोग्गलपरियट्टो। (उचू पृ १८९) महर्ताद्धं व्यवहारापेक्षया एतन्मुहार्द्धमित्युच्यते, पर- एक जीव को शरीर, आहार आदि के रूप में सब मार्थतः पुनरन्तर्मुहूर्तमवसेयम् । (नन्दीमवृ प १८५) पुद्गलों का स्पर्श करने में जितना समय लगता है, वह __दो घड़ी प्रमाण काल को मुहूर्त कहते हैं । व्यवहार- एक पुद्गलपरावर्त है। दृष्टि से मुहर्त के अर्धभाग (एक घड़ी) को मुहर्तार्द्ध अनन्ता उत्सपिण्यवसपिण्यः पूदगलपरावर्तः । कहा जाता है । वास्तव में वह अन्तर्मुहूर्त ही है। (अनुमवृ प ९१) अनंत उत्सपिणी और अवसर्पिणी का एक पुद्गलरविणो गइपरिणयस्स णं पुव्वदिसादरिसणं सो परावर्त होता है। दिवस Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालग्रहण-विधि २१५ कालविज्ञान १८. औपमिक काल २. कालप्रतिलेखक की अर्हता ओवमिए दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-पलिओवमे य पियधम्मो दढधम्मो संविग्गो चेवऽवज्जभीरू य । सागरोवमे य । (अनु ४१८) खेयन्नो य अभीरू कालं पडिलेहए साह ॥ (ओनि ६४७) औपमिक काल के दो प्रकार हैं--पल्योपम और जो प्रियधर्मा, दृढ़ध र्मा, संवेगप्राप्त, पापभीरू, सागरोपम । (द्र. पल्योपम) गीतार्थ और सत्त्वसम्पन्न है, वह कालप्रतिलेखना के कालविज्ञान- समय को जानने का विज्ञान। योग्य है। स्वाध्याय आदि के उपयुक्त समय ३. कालग्रहण-विधि का ज्ञान । कालज्ञान के प्राचीन आवासगं तु काउं जिणोवदिळें गुरूवएसेणं । साधनों में 'दिक-प्रतिलेखन' और तिनिथुई पडिलेहा कालस्स विही इमो तत्थ ।। 'नक्षत्रावलोकन' प्रमुख थे। मुनि निसीहिया नमोक्कारे काउस्सग्गे य पंचमंगलए। स्वाध्याय से पहले काल की प्रति- पुवाउत्ता सव्वे पट्टवणचउक्कनाणत्तं ।। लेखना करते थे। नक्षत्रविद्या में (ओनि ६३८,६४९) कुशल मुनि इस कार्य के लिए मुनि आवश्यक (प्रतिक्रमण) को सम्पन्न कर तीन नियुक्त होते थे। स्तुतिपाठ करता है। फिर स्वाध्याय के योग्य काल की प्रतिलेखना हेतु गुरु के पास जाकर निषद्यापूर्वक वन्दना१. कालप्रतिलेखना नमस्कार करता है। वह गुरु से अनुज्ञा प्राप्त कर आठ २. कालप्रतिलेखक की अर्हता उच्छ्वास प्रमाण कायोत्सर्ग को पंच मंगल (नमस्कार ३. कालग्रहण-विधि महामंत्र) से पूर्ण कर कालग्रहण के लिए जाता है। काल० दिक-प्रतिलेखन ग्रहण के पश्चात् सभी मुनि स्वाध्याय की प्रस्थापना करते ० नक्षत्र-अवलोकन हैं। रात्रिकालीन स्वाध्याय के चार भाग हैं--प्रादोषिक, ४. काल के व्याघात अर्धरात्रिक, वैरात्रिक और प्राभातिक। ५. स्वाध्यायकाल थोवावसे सियाए संझाए ठाइ उत्तराहुत्तो। * गोचरकाल (द्र. गोचरचर्या) चउवीसगदुमपुप्फियपुव्वग एक्केक्कयदिसाए ।। ६. प्रतिलेखना काल (ओनि ६५०) ० पौरुषी का कालमान कालप्रतिलेखक मुनि सन्ध्या का थोड़ा भाग अवशिष्ट • पौरुषी का प्रमाणकाल रहने पर काल-मण्डल में प्रविष्ट हो उत्तरदिशा में मुंह ७. कालकरण कर कायोत्सर्ग करता है। ८. कालप्रतिलेखना को निष्पत्ति वह पंच नमस्कार एवं आठ उच्छ्वास के कायोत्सर्ग के पश्चात एक-एक दिशा में मौनभाव से चविंशतिस्तव, १.कालप्रतिलेखना दशवैकालिक सूत्र का पहला और दूसरा अध्ययन इनकी अस्खलित अनुप्रेक्षा करता है। काल:-प्रादोषिकादिस्तस्य प्रत्यूपेक्षणा-आगमविधिना यथावन्निरूपणा ग्रहणं प्रति जागरणरूपा काल दिक-प्रतिलेखन प्रत्युपेक्षणा। (उशावृ प ५८३) पाओसियअड्ढ रत्ते उत्तरदिसि पुव्व पेहए कालं । आगमोक्त विधि के अनुसार स्वाध्याय आदि के काल वेरत्तियंमि भयणा पुव्वदिसा पच्छिमे काले ।। का ग्रहण-निर्धारण और प्रज्ञापन करना कालप्रतिलेखना/ (ओनि ६६२) कालविज्ञान है। कालप्रतिलेखक मुनि प्रादोषिक और अर्धरात्रि में सर्वप्रथम उत्तर दिशा की, वैरात्र (रात्रि के तीसरे प्रहर) Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालविज्ञान स्वाध्याय काल में उत्तर अथवा पूर्व दिशा की तथा प्रभातकाल में पूर्व वेला प्राप्त है अतः सबको गर्जन आदि के प्रति सावधान दिशा की प्रत्युपेक्षा करता है, तत्पश्चात् दक्षिण आदि हो जाना है। दिशाओं की प्रत्युपेक्षा कर कायोत्सर्ग करता है। दंडधारी के द्वारा घोषणा कर दिए जाने पर यदि नक्षत्र-अवलोकन उस घोषणा को बहुत मुनियों ने सुना है, कुछेक ने नहीं जं नेइ जया रत्ति नक्खत्तं तंमि नहचउब्भाए । सुना है तो वे कुछेक न सुनने वाले दंड के भागी होते हैं संपत्ते विरमेज्जा सज्झायं पओसकालम्मि ।। और यदि कुछेक ने घोषणा सुनी है, बहुतों ने नहीं सुनी तम्मेव य नक्खत्ते, गयणच उब्भागसावसेसंमि । है तो वह दंडधारी दंड का भागी होता है। वेरत्तियं पि कालं, पडिलेहित्ता मूणी कूज्जा । निसीहिया नमुक्कारं आसज्जावडपडणजोइक्खे । (उ २६।१९,२०) अपमज्जियभीए वा छीए छिन्नेव कालवहो । जो नक्षत्र जिस रात्रि की पूर्ति करता हो, वह नक्षत्र (ओनि ६५३) जब आकाश के चतुर्थ भाग में आए (प्रथम प्रहर समाप्त कालग्राहक के कालग्रहण कर गुरु के पास निषी धिका, हो) तब मुनि प्रदोष-काल (रात्रि के प्रारम्भ) में प्रारब्ध नमस्कार और ग्रहण विधि का पालन नहीं करने से, किसी स्वाध्याय से विरत हो जाए। साधु का संघट्टन करने से, पत्थर या स्वयं के गिरने से, अग्नि का स्पर्श होने पर, प्रमार्जना न करते हुए प्रवेश वही नक्षत्र जब आकाश के चतुर्थ भाग में शेष रहे करने पर, त्रस्त होने पर, छींक आने पर अथवा बिल्ली, तब वैगत्रिक काल (रात का चतुर्थ प्रहर) आया हुआ कुत्ते आदि द्वारा मार्ग काटने पर काल का व्याघात जान फिर स्वाध्याय में प्रवृत्त हो जाए। होता है। ४. काल के व्याघात ५. स्वाध्याय काल आपुच्छण किइकम्म आवस्सियखलियपडियवाघाओ। प्रादोषिके काले गृहीते सति सर्व एव साधवः प्रथमइंदिय दिसा य तारा वासमसज्झाइयं चेव ॥ यामं यावत्स्वाध्यायं कुर्वन्ति, द्वौ त्वाद्यौ यामौ वृषभाणां सज्झायमचितंता कणगं दठ्ठण तो नियत्तंति। भवतो गीतार्थानां भवतो गीतार्थानां । ते हि सूत्रार्थ चिन्तयंतस्तावत्तिष्ठन्ति वेलाए दंडधारी मा बोलं गंडए उवमा ॥ यावत्प्रहरद्वयमतिक्रान्तं भवति, तृतीया च पौरुष्यवतरति। आघोसिए बहहिं सयंमि सेमेसू निवडइ दंडो। ततस्ते चैव कालं गळन्ति अडढरत्तियं उवझायाईण अह तं बहहिं न सुयं दंडिज्जइ गंडओ ताहे ॥ संदिसावेत्ता ततो कालं घेत्तणं आयरियं उद्वेति, वंदणयं (ओनि ६४१,६४४ ६४५) दाऊण भणन्ति -- सुद्धो कालो। आयरिया भणंति -- गुरु की आज्ञा के बिना जाना, कृतिकर्म न करना, तहत्ति । पच्छा ते वसभा सूयंति, आयरिओवि बितियं आवस्सई आदि का उच्चारण न करना, जाते-जाते । उदावेत्ता कालं पडियरावेइ। ताहे एगचित्तो सुत्तत्थं स्खलित होना, गिर जाना, अमनोज्ञ इन्द्रिय-विषयों की चिोट जारी चितेइ जाव वेरत्तियस्स कालस्स बहुदेसकालो, ताहे तइयसंप्राप्ति होना, दिग्मोह होना, ताराओं का टूटना, वर्षा पहरे अतिक्कंते सो कालपडिलेहगो आयरियस्स पडिहोना, अस्वाध्यायिक होना-ये सारे काल के व्याघात हैं। संदेसावेत्ता वेरत्तियं कालं गेहइ आयरिओवि कालस्स कालवेला के निरूपण के लिए गया हुआ मुनि पडिक्कमित्ता सोवति। ताहे जे सोइयल्लया साहू आसी स्वाध्याय न करता हुआ कालवेला का निरूपण करे। ते उठेऊण वेरत्तियं सज्झायं करेंति जाव पाभाइयकालकनक (रेखायुक्त ज्योतिपिंड) को देखकर लौट आए। (ओनिवृ प २०६) कालग्रहण वेला प्राप्त हो जाने पर दंडधारी गुरु को प्राचीन विधि के अनुसार रात्रि के प्रथम प्रहर में निवेदन करता है तथा अन्यान्य मुनियों को मौन और सावधान रहने के लिए कहता है। जैसे ग्राम-उद्घोषक सभी मुनि स्वाध्याय करते थे। जब दूसरा प्रहर प्रारंभ प्रयोजन होने पर अवकर पर खड़ा होकर गांव में यह होता, तब अन्यान्य मुनि सो जाते, केवल गीतार्थ और घोषणा करता है-आज प्रातः यह कार्य करना है। वृषभ मुनि स्वाध्याय (सूत्र-अर्थ का चिन्तन) करते । इसी प्रकार यह दंडधारी भी कहता है-अब कालग्रहण- दूसरा प्रहर अतिक्रांत होने पर तीसरे प्रहर के प्रारंभ में Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौरुषी का कालमान २१७ कालविज्ञान ही वे काल की प्रतिलेखना कर उपाध्याय को ज्ञापित कर उत्तरायणस्स अंते दक्खिणायणस्स य आदीए एक्कं दिणं आचार्य को जगाते । आचार्य एकाग्रचित्त हो स्वाध्याय भवति । अतो परं अट्ठ एकसटिभागा अंगुलस्स दक्खिकरते । वृषभ और गीतार्थ साधु सो जाते। तीसरे प्रहर णायणे वड्ढंति, उत्तरायणे य ह्रस्संति । के अतिक्रांत होने पर तथा चौथे प्रहर के प्रारंभ होने पर (नन्दीचू पृ ५८) कालप्रतिलेखक वैरात्रिक काल की प्रतिलेखना कर आचार्य पौरुषी के प्रकरण में 'पुरुष' शब्द के दो अर्थ हैंको ज्ञापित करते। आचार्य काल का प्रतिक्रमण कर सो (१) पुरुष-शरीर और (२) शंकु । पुरुष द्वारा उसका जाते और शेष सोए हए सभी साधुओं को जागत कर माप होता है, इसलिए उसे 'पौरुषी' कहा जाता है। दिया जाता। वे सभी वैरात्रिक स्वाध्याय में रत हो (शंकु २४ अंगुल प्रमाण का होता है और पैर से जान जाते। तक का प्रमाण भी २४ अंगुल होता है।) जिस दिन वस्तु ६. प्रतिलेखना काल की छाया उसके प्रमाणोपेत होती है, वह दिन उत्तरायण का अन्तिम दिन व दक्षिणायन का प्रथम दिन होता है। ""अरुणावासग पुव्वं परोप्परं पाणिपडिलेहा ।। पौरुषी का छाया प्रमाण दक्षिणायन में प्रतिदिन एते उ अणाएसा अंधारे उग्गएवि हु न दीसे। हे अंगुल बढता है और उत्तरायण में प्रतिदिन घटता मुहरयनिसिज्जचोले कप्पतिगदुपट्टथुई सूरो॥ (ओनि २६९,२७०) प्रभातकालीन प्रतिलेखना काल के चार अभिमत पौरुषी का कालमान १. सूर्योदय का समय-प्रभास्फाटन का समय । पोरिसीमाणमनिययं दिवसनिसावढिहाणिभावाओ। २. सूर्योदय के पश्चात्-प्रभास्फाटन होने के पश्चात् ।। हीणं तिन्नि मुहत्तद्धपंचमा माणमुक्कोसं ॥ ३. परस्पर जब मुख दिखाई दे। वुड्ढी बावीसुत्तरसयभागो पइदिणं मुहत्तस्स । ४. जिस समय हाथ की रेखा दिखाई दे। एवं हाणी वि मया, अयणदिणभागओ नेया ।। . ये अनादेश माने गए हैं। निर्णायक पक्ष यह है कि (विभा २०७०,२०७१) मुनि प्रतिक्रमण के पश्चात् ज्ञान, दर्शन, चारित्र की तीन दिवस अथवा रात्रि का चौथा भाग पौरुषी है। स्तुति करे, फिर मुखवस्त्र, रजोहरण, दो निषद्याएं, पौरुषी का मान अनियत होता है। दिन-रात की वृद्धिचोलपट्ट, तीन उत्तरीय, संस्तारकपट्ट और उत्तरपट्ट-- हानि के आधार पर इसके कालमान का निश्चय होता इनकी प्रतिलेखना के अनन्तर ही सूर्योदय हो जाए, वह है। दिवस-पौरुषी का जघन्य मान मकर संक्रान्ति के प्रतिलेखना का काल है। दिन तीन मुहर्त (छह घटिका) का होता है। रात्रि जेट्टामूले आसाढसावणे छहिं अंगुलेहि पडिलेहा । पौरुषी का जघन्य मान कर्क संक्रान्ति के दिन तीन महत (छह घटिका) का होता है। दिवस-पौरुषी का उत्कृष्ट अट्टहिं बीयतिथंमी तइए दस अट्ठहिं चउत्थे ॥ मान कर्क-संक्रान्ति के दिन साढे चार महत (नौ घटिका) (उ २६।१६) का होता है। रात्रि पौरुषी का उत्कृष्ट मान मकरज्येष्ठ, आसाढ़, श्रावण -इस प्रथम त्रिक में छह, __ संक्रान्ति के दिन साढे चार मुहूर्त (नौ घटिका) का होता भाद्रपद, आश्विन, कार्तिक-इस द्वितीय त्रिक में आठ, मृगशिर, पौष, माघ-इस तृतीय त्रिक में दश और प्रतिदिन १३ मुहूर्त पौरुषी बढ़ती व घटती है । फाल्गुन, चैत्र, वैशाख-इस चतुर्थ त्रिक में आठ अंगुल की वृद्धि करने से प्रतिलेखना का समय होता है। और एक अयन में १८३ अहोरात्र होते हैं। इसलिए एक अयन में १६३५१ =३=१३ मुहूर्त कालमान बढ़ता पौरुषो का अर्थ है। इस प्रकार तीन मुहूर्त की जघन्य पौरुषी में १३ पुरिसो त्ति संकू पुरिससरीरं वा, ततो पुरिसातो मुहर्त मिलाने पर पौरुषी का उत्कृष्ट कालमान ४३. निप्फण्णा पोरिसी, एवं सव्वस्स वत्थुणो जदा स्वप्रमाणा मुहर्त होता है। च्छाया भवति तदा पोरिसी भवति, एतं पोरिसीप्रमाणं Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल विज्ञान पौरुषी का प्रमाणकाल """॥ पोरिसी पमाणकालो निच्छ्यववहारिओ जिणक्खाओ । निच्छयओ करणजुओ (ओनि २८१ ) पौरुषी का प्रमाणकाल दो प्रकार का है - नैश्चयिक और व्यावहारिक । नैश्चयिक पौरुषी का प्रमाणकाल करण अर्थात् गणित के द्वारा निकाला जाता है । अणादिगणे अट्ठगुणेगट्टिभाइए लद्धं । उत्तरदाहिणमाई पोरिसि पयसुज्झपक्खेवा ॥ (ओनि २८२ ) अयनातीतदिन गणः उत्कृष्टतस्त्यशीतं शतम् । तच्चाष्टगुणं जातानि चतुर्दशशतानि चतुःषष्ट्यधिकानि तत्र चैकषष्ट्या भागे हृते लब्धानि चतुर्विंशतिरंगुला नि तत्रापि द्वादशभिरंगुलैः पदमिति जाते द्वे पदे । तत्र हि उत्तरायणप्रथमदिने चत्वारि पदान्यासन् ततस्तन्मध्यात्पदद्वयोत्सारणे जाते कर्कट संक्रान्त्यदिने द्वे पदे । दक्षिणायनाद्यदिने तु द्वे पदे अभूतां तन्मध्ये च द्वयोः क्षिप्तयोजतानि मकरसंक्रान्तौ चत्वारि पदानि । इदं चोत्कृष्टजघन्यदिनयोः पौरुषीमानम् । ( उशावृ प ५३७ ) अयन के अतीत दिनों के समूह को ८ से गुणा करके ६१ का भाग देने से जो लब्ध आता है, उसको उत्तरायण के और दक्षिणायन के आदि में क्रमशः शुद्धि (घटाने) और प्रक्षेप (योग) करने से पौरुषी का प्रमाण आता है । २१८ अयन दो प्रकार का होता है उत्तरायण और दक्षिणायन । सूर्य दक्षिणायन के अन्तिम दिन से उत्तर की ओर गति करता है उसे उत्तरायण कहते हैं । उत्तरायण के अन्तिम दिन से सूर्य वापस दक्षिण की ओर गति करता है उसे दक्षिणायन कहते हैं । एक अयन में उत्कृष्ट १८३ दिन होते हैं । एक अयन में पौरुषी का परिमाण दो पाद घटता या बढ़ता है। यह कथन १८३ दिनों की अपेक्षा से कहा गया है । उत्तरायण के प्रथम दिन में पौरुषी का परिमाण चार पाद होता है । वह क्रमशः घटता - घटता कर्क संक्रान्ति के दिन तक दो पाद का हो जाता है । दक्षिणायन के प्रथम दिन पौरुषी का परिमाण दो पाद होता है । क्रमशः बढ़ते बढ़ते मकरसंक्रांति तक दो पाद बढ़ जाता है, तब उसका परिमाण २+२=४ पाद हो जाता है। दो पाद का परिमाण पौरुषी का जघन्य परिमाण है और चार पाद का परिमाण पौरुषी का उत्कृष्ट परिमाण है । बीच के दिनों पादोनपौरुषी - छायाप्रमाण का परिमाण निकालने के लिए गणित इस प्रकार है१८३ दिनों में दो पाद अर्थात् २४ अंगुल १ दिन में पौरुषी अयन के प्रतिदिन में अंगुल घटती या बढ़ती है । आसाढे मासे दुपया पोसे मासे चित्तासोसु मासेसु तिपया हवइ ( उ २६ १३) आषाढ मास में दो पाद प्रमाण, पौष मास में चार पाद प्रमाण, चैत्र तथा आश्विन मास में तीन पाद प्रमाण पौरुषी होती है । पाद - अंगुल २-० समय आषाढ़ पूर्णिमा २-४ श्रावण पूर्णिमा भाद्रपद पूर्णिमा २८ आश्विन पूर्णिमा ३-० कार्तिक पूर्णिमा ३-४ मृगसर पूर्णिमा ३-८ चउप्पया । पोरिसी ॥ समय पौष पूर्णिमा माघ पूर्णिमा फाल्गुन पूर्णिमा चैत्र पूर्णिमा वैशाख पूर्णिमा ज्येष्ठ पूर्णिमा अंगुलं सत्तरत्तेणं पक्खेण य दुअंगुलं । वड्ढr हायए वावी मासेणं चउरंगुलं ॥ - अंगुल 8-0 ३-८ ३-४ ३-० २-८ २-४ (उ२६।१४) पौरुषी के कालमान में सात दिन रात में एक अंगुल पक्ष में दो अंगुल, एक मास में चार अंगुल वृद्धि और हानि होती है। श्रावण मास से पौष मास तक वृद्धि और माघ से आषाढ़ तक हानि होती है । आसाढ बहुलपक्खे, भद्दवए कत्तिए य पोसे य । फग्गुणवइसाहेसु य, नायव्वा ओमरत्ताओ ॥ ( उ २६ । १५) आषाढ़, भाद्रपद, कार्तिक, पौष, फाल्गुन और वैशाख – इनके कृष्ण पक्ष में एक-एक अहोरात्र ( तिथि ) क्षय होता है । (साधारतया एक मास में ३० अहोरात्र और एक पक्ष में १५ अहोरात्र होते हैं । किन्तु आषाढ़ आदि उपर्युक्त छह मासों का कृष्ण पक्ष १४ अहोरात्र का ही होता है ।) पादोनपौरुषी- छायाप्रमाण जेट्ठामूले आसाढसावणे छह अंगुलेहि पडिलेहा । अहं अतिमि अतइए दस अट्ठहिं चउत्थे ॥ (ओनि २८६ ) Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालकरण २१९ कालविज्ञान तीन-तीन मास के चार त्रिकपहला त्रिक--ज्येष्ठ, आषाढ़ और श्रावण । दूसरा त्रिक--भाद्रव, आसोज और कार्तिक । तीसरा त्रिक-मृगसर, पौष और माघ । चतुर्थ त्रिक-फाल्गुन, चैत्र और वैशाख । प्रथम त्रिक के मासों के पौरुषी प्रमाण में ६ अंगूल जोड़ने से उन मासों के पादोन पौरुषी का छाया-प्रमाण । होता है । दूसरे त्रिक के मासों में ८ अंगुल, तीसरे त्रिक के मासों में १० अंगुल और चौथे त्रिक के मासों में ८ अंगुल बढ़ाने से उन-उन मासों का पादोन पौरुषी छायाप्रमाण आता है। पौरुषी छाया-प्रमाण पादोन-पौरुषी छाया-प्रमाण अंगुल पाद अंगुल पाद + + + + + rrrrrrrr m m + + + + + ७. कालकरण बलं च बालवं चेव, कोलवं थीविलोअणं । कालेवि नस्थि करणं तहावि पूण वंजणप्पमाणेणं । गराइ वणियं चेव, विट्री हवइ सत्तमी ।। बवबालवाइकरणे हिंऽणेगहा होइ ववहारो।। सउणि चउप्पयं नागं, किंसुग्धं करणं तहा। (आवनि १०१८) एए चत्तारि धुवा, सेसा करणा चला सत्त ।। कालौ जो जावइओ जं कीरइ जमि जंमि कालम्मि । किण्हचउद्दसिरत्ति सउणि पडिवज्जए सया करणं । ओहेण नामओ पुण हवंति इक्कारसक्करणा ॥ इत्तो अहक्कम खलु चउप्पयं नाग किंछुग्धं ॥ (उनि १९७) (उनि १९८-२००) काल के वर्तना, समय आदि अंग स्वभाव से ही होते ज्योतिष में ग्यारह करण मान्य हैंहैं, अतः काल का करण नहीं होता । किंतु व्यञ्जनप्रमाण से कालकरण होता भी है। यहां व्यञ्जन का बव, बालव, कौलव, स्त्रीविलोचन, गरादि, वणिज अर्थ है-वर्तना आदि के अभिव्यंजक द्रव्य--वर्तना विष्टि, शकुनि, चतुष्पद, नाग और किंस्तुघ्न । इनमें परिणामी द्रव्य । प्रथम सात करण चल और अंतिम चार करण ध्रुव हैं। जिस काल में जो जितना किया जाता है, वह काल- कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को रात्रि में 'शकुनि' करण करण है। यह व्यवहार नय की अपेक्षा से होता है । बव, होता है। अमावस्या को दिन में 'चतुष्पद' तथा रात्रि में बालव आदि ग्यारह करणों के आधार पर अनेक प्रकार 'नाग' करण होता है । प्रतिपदा को दिन में 'किस्तुघ्न' का व्यवहार होता है। करण होता है। Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यरस २२० रस के प्रकार ८. काल-प्रतिलेखना की निष्पत्ति रौद्र रस कापडिलेहणयाए णं नाणावरणिज्ज कम्मं खवेइ। व्रीडा रस (उ २९।१६) बीभत्स रस काल-प्रतिलेखना से जीव ज्ञानावरणीय कर्म को हास्य रस क्षीण करता है। करुण रस .."अकालं च विवज्जेत्ता, काले कालं समायरे ॥ । प्रशान्त रस __(द ५।२।४) - अकालं च विवज्जेत्ता णाम जहा पडिलेहणवेलाए १. काव्यरस की परिभाषा सज्झायस्स अकालो, सज्झायवेलाए पडिलेहणाए अकालो, कवेरभिप्रायः काव्यं, रस्यन्ते--अन्तरात्मनाऽनुभूयन्त एवमादि । भिक्खावेलाए भिक्खं समायरे, पडिलेहणवेलाए इति रसाः, तत्तत्सहकारिकारणसन्निधानोदभताश्चेतोपडिलेहणं समायरे, एवमादि । भणियं च विकारविशेषाः । 'जोगो जोगो जिणसासणंमि दुक्खक्खया पउंजंतो। बाह्यार्थालम्बनो यस्तु विकारो मानसो भवेत् । अण्णोऽण्णमणाहतो असवत्तो होइ कायव्वो ॥' स भावः कथ्यते सदभिस्तस्योत्कर्षो रसः स्मृतः ।। (दजिचू पृ १९४, १९५) (अनुमवृ प १२४) प्रतिलेखन का काल स्वाध्याय के लिए अकाल है। कवि के कर्म, भाव या अभिप्राय का नाम काव्य स्वाध्याय का काल प्रतिलेखन के लिए अकाल है। काल है। जो अन्तरात्मा के द्वारा अनुभूत होते हैं वे रस कहमर्यादा को जानने वाला भिक्ष अकाल-क्रिया न करे। लाते हैं। वे सहकारी कारणों की सन्निधि से उद्भूत मुनि को भिक्षा-काल में भिक्षा, प्रतिलेखन-काल में चैतसिक विकार हैं। प्रतिलेखन, स्वाध्याय-काल में स्वाध्याय और जिस काल विकार और रस में कुछ अन्तर भी है। बाहरी में जो क्रिया करनी हो, वह उसी काल में करनी चाहिए। वस्तु के आलम्बन से जो मानसिक विकार होता है वह जिनशासन में योग्य योग-प्रवृत्ति का विधान है भाव कहलाता है । उस भाव का प्रकर्ष रस है। जिस समय जो योग्य हो, दुःखक्षय के लिए उसका मिउमहररिभियसुभयरणीतिणिद्दोसभूसणाणुगतो । प्रयोग करे, जिससे किसी दूसरे को बाधा न पहुंचे, कोई सुहदुहकम्मसमा इव कव्वस्स रसा भवंति तेणं । शत्रु न बने। (अनुचू पृ ४७) कालिकसूत्र-दिन और रात के पहले और चौथे रस की भांति रसनीय चित्तवृत्तियां भी रस कहप्रहर में पढ़े जाने वाले आगम। ___ लाती हैं। जैसे सुख वेदनीय और दुःख वेदनीय अथवा (द्र. अगबाह्य) साता-असाता वेदनीय कर्म के रस होते हैं वैसे ही काव्य कालिक्युपदेश-वह ज्ञान जिसमें ईहा, अपोह, के रस होते हैं। मार्गणा, गवेषणा, चिन्ता और २. रस के प्रकार विमर्श होता है । संज्ञो श्रुत का एक नव कव्वरसा पण्णत्ता, तं जहाभेद। (द्र. श्रुतज्ञान) वीरो सिंगारो अब्भओ य रोहो य होइ बोधव्यो । काव्यरस-स्थायीभाव की अभिव्यक्ति से होने वेलणओ बीभच्छो, हासो कलुणो पसंतो य । वाली अनुभूति । (अनु ३०९) काव्यरस के नौ प्रकार हैं -- १. काव्यरस की परिभाषा १. वीर ६. बीभत्स | २. रस के प्रकार २. शृंगार ७. हास्य वीर रस ३. अद्भुत ८. करुण शृंगार रस ४. रौद्र ९. प्रशान्त। अद्भुत रस ५. व्रीडा Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीभत्स रस की उत्पत्ति.. २२१ काव्यरस वीर रस की उत्पत्ति और लक्षण रौद्र रस की उत्पत्ति और लक्षण तत्थ परिच्चायम्मि य, तवचरणे सत्तजणविणासे य। भयजणणरूव-सइंधकार-चिता-कहासमुप्पन्नो । अणणुसय-धिति-परक्कमलिंगो, वीरो रसो होइ॥ संमोह-संभम-विसाय-मरणलिंगो रसो रोहो । सो नाम महावीरो, जो रज्ज पयहिऊण पव्वइओ। भिउडी-विडंबियमूहा ! संदवोट ! इय रुहिरमोकिण्णा। काम-क्कोह-महासत्तु-पक्खनिग्घायणं कुणइ।। हणसि पसु असुरणिभा ! भीमरसिय! अइरोह! रोहोसि ॥ (अनु ३९०११,२) (अनु ३१३।१,२) परित्याग (दान), तपश्चरण और शत्रुजनों के भयंकर रूप, शब्द, अन्धकार, चिन्ता और भयंकर विनाश में वीर रस उत्पन्न होता है। अननुशय (गर्व या कथा से रौद्र रस उत्पन्न होता है। संमोह, संभ्रम, पश्चात्ताप न करना), धृति और पराक्रम उसके लक्षण विषाद और मरण उसके लक्षण हैं । रौद्र रस, जैसेहैं । वीर रस, जैसे भृकुटि से विडम्बित मुख वाले! होठ काटने वाले! जो राज्य को छोड़कर प्रवजित हो गया और काम, रुधिर बिखेरने वाले ! असुर के समान भयंकर शब्द क्रोध आदि महाशत्रुओं का निग्रह करता है, वह महावीर करने वाले ! अतिशय रौद्र! तू पशु को मारता है, बडा शृंगार रस की उत्पत्ति और लक्षण व्रीडा रस की उत्पत्ति और लक्षण सिंगारो नाम रसो, रतिसंजोगाभिलाससंजणणो। विणओवयार-गुज्झ-गुरुदार-मेरावइक्कमुप्पन्नो । मंडण-विलास-विब्बोय-हास-लीला-रमणलिंगो।।। वेलणओ नाम रसो, लज्जासंकाकरणलिंगो।। महुरं विलास-ललियं, हिययुम्मादणकरं जुवाणाणं ।। किं लोइयकरणीओ, लज्जणीयतरं लज्जिया मो त्ति । सामा सदुद्दाम, दाएती मेहलादामं ।। वारेज्जम्मि गुरुजणो, परिवंदइ जं वहूपोत्ति ॥ (अनु ३११।१,२) (अनु ३१४।१,२) रति और संयोग की अभिलाषा से शृंगार रस विनयोपचार, गुह्य और गुरु -स्त्री की मर्यादा के उत्पन्न होता है। विभूषा, विलास (चक्षु आदि का अतिक्रमण से व्रीडा रस उत्पन्न होता है। लज्जा और विभ्रम), बिब्बोक (कामचेष्टा), हास्य, लीला और रमण शंका उसके लक्षण हैं । ब्रीडा रस, जैसे-- उसके लक्षण हैं। शृगार रस, जैसे विवाह के बाद प्रथम वार शोणित से सना हुआ श्यामा स्त्री मधुर विलास से ललित, युवकों के हृदय वधू का अधोवस्त्र गुरुजनों के सामने ले जाया जाता है। को उन्मत्त करने वाला, धुंघरु के शब्दों से मुखर मेखला- वे उसे सतीत्व की कसौटी मानकर नमस्कार करते हैं। सूत्र (करधनी) दिखलाती है । इस लौकिक क्रिया से अधिक लज्जास्पद और क्या है ? अद्भुत रस की उत्पत्ति और लक्षण मैं तो इससे लज्जित हो रही हूं। विम्हयकरो अपुव्वोऽनुभूयपुव्वो य जो रसो होइ।। बीभत्स रस की उत्पत्ति और लक्षण हरिसविसायुप्पत्तिलक्खणो, अब्भुओ नाम ।। असुइ-कूणव-दुसण-संजोगब्भासगंधनिप्फण्णो। अब्भुयतरमिह एत्तो, अन्नं कि अस्थि जीवलोगम्मि । निव्वेयविहिंसालक्खणो रसो होइ बीभत्सो ।। जं जिणवयणेणत्था, तिकालजुत्ता वि नज्जति ॥ असुइमलभरियनिझर, सभावदुग्गंधिसव्वकालं पि । (अनु ३१२।१,२) धण्णा उ सरीरकलि, बहुमलकलूसं विमुंचति ॥ अपूर्व और अनुभूतपूर्व वस्तु को देखने पर जो (अनु ३१५।१,२) विस्मयकारी रस उत्पन्न होता है, वह अद्भुत रस है। अशुचि पदार्थ, शव, बार-बार अनिष्ट दृश्य के संयोग हर्ष और विषाद उसके लक्षण हैं । अद्भुत रस, जैसे- और दुर्गन्ध से बीभत्स रस उत्पन्न होता है। निर्वेद जिनवचन के द्वारा त्रैकालिक अर्थ जान लिए जाते (उदासीनता) और अविहिंसा (जीव हिंसा के प्रति होने . हैं—इस जीवलोक में इससे बढ़कर और क्या आश्चर्य वाली ग्लानि) उसके लक्षण हैं। बीभत्स रस, जैसे अशुचि, मलसमूह के निर्भर, सर्वकाल में स्वभाव . होगा? Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यरस २२२ से दुर्गन्धित, नाना प्रकार के मलों से कलुषित निकृष्ट युक्त और पुष्ट कान्ति वाला मुनि का मुखकमल सुशोभित शरीर को जो छोड़ देते हैं, वे धन्य हैं। हो रहा है। हास्य रस की उत्पत्ति और लक्षण एए नव कव्वरसा, बत्तीसदोसविहिसमुप्पन्ना। रूव-वय-वेस-भासाविवरीयविलंबणासमुप्पन्नो । गाहाहिं मुणेयव्वा, हवंति सुद्धा व मीसा वा ।। हासो मणप्पहासो, पगासलिंगो रसो होइ । (अनु ३१८॥३) बत्तीस दोष-विधियों से समूत्पन्न ये नौ काव्य रस पासुत्त-मसीमंडिय-पडिबुद्धं देयरं पलोयंती । उक्त गाथाओं से जानने चाहिए। ये रस किसी काव्य में ही! जह थण-भर-कंपण-पणमियमझा हसइ सामा । शुद्ध और किसी में मिश्र (अनेक रसों के मिश्रण वाले) (अनु ३१६६१,२) होते हैं। रूप, वय, वेष और भाषा के विपर्यय की विडम्बना (प्रयोग) से मन को आह्लादित करने वाला हास्य रस कुंथु-सतरहवें तीर्थंकर । (द्र. तीथंकर) उत्पन्न होता है । प्रकाश (मुख, नेत्र आदि का विकास) कुत्रिकापण—वह आपण, जहां तीन लोक में प्राप्य उसका लक्षण है। हास्य रस, जैसे सभी वस्तुएं मिलती हैं। स्तनों के भार के कम्पन से झुकी हुई कटिप्रदेश भुवनत्रयेऽपि यद्वस्तुजातं तत् कुत्रिकमित्युच्यते । वाली श्यामा स्त्री अपने सुप्त देवर को मसि-मण्डित तस्य पणायानिमित्तमापणो-हद्रः कूत्रिकापणः । यदिवा करती है और जब वह जागता है, तब ही ही' को-पृथिव्यां त्रिकस्य- जीवधातुमूलात्मकस्य समस्तशब्दोच्चारणपूर्वक हंसती है । लोकभाविनो वस्तुजातस्यापणः कुत्रिकापणः । अस्मिश्च करुण रस की उत्पत्ति और लक्षण कुत्रिकापणे वणिजः कस्यापि मन्त्राधाराधितः सिद्धो पियविप्पओग-बंध-वह-वाहि-विणिवाय-संभमप्पन्नो। व्यन्तरः सुरः क्रायकजनसमीहितं समस्तमपि वस्तु सोइय-विलविय-पव्वाय-रुण्णलिंगो रसो करुणो॥ कूतोऽप्यानीय सम्पादयति, तन्मूल्यद्रव्यं तु वणिग् पज्झाय-किलामिययं, बाहागयपप्पुयच्छियं बहुसो । तस्स विओगे पुत्तिय ! दुब्बलयं ते मुहं जायं ।। अन्ये त्वभिदधति-वणिग्विवजिता: सूराधिष्ठिता एव ते आपणाः सन्ति, मूल्यद्रव्यमपि स एव व्यन्तरसुरः प्रिय-वियोग, बंध, वध, व्याधि, विनिपात (पुत्र । स्वीकरोति । एते च कुत्रिकापणाः प्रतिनियतेष्वेव नगरेषु आदि की मृत्यु) और संभ्रम से करुण रस उत्पन्न भवन्ति, न सर्वत्र । (आवमव प ४१४) होता है। शोक, विलाप, म्लान और रोदन उसके लक्षण स्वर्ग, मर्त्यलोक और पाताल-इन तीनों लोकों हैं। करुण रस, जैसे की वस्तुएं जहां उपलब्ध होती हैं, वह कुत्रिकापण है । हे पुत्रि ! उसके वियोग में दुश्चिन्ता से क्लान्त और इसका स्वामी वणिक मंत्र-आराधना से किसी व्यंतर देव आंसूओं से भरी हुई आंखों वाला तुम्हारा मुख दुर्बल हो को सिद्ध करता है। वह देव ग्राहक द्वारा याचित सारी गया है। वस्तुएं कहीं से भी लाकर दे देता है । उस वस्तु का मूल्य शान्त रस की उत्पत्ति और लक्षण वणिक् ग्रहण करता है। निहोसमण-समाहाणसंभवो जो पसंतभावेणं । एक मत यह भी है कि कुत्रिकापण के अधिष्ठाता अविकारलक्खणो सो, रसो पसंतो त्ति नायव्वो ॥ व्यन्तर देव ही होते हैं और वहां कोई वणिक् नहीं सब्भाव-निव्विगारं, होता । वस्तु का मूल्य भी देव ही ग्रहण करते हैं। उवसंत-पसंत-सोमदिट्ठीयं । कुत्रिकापण प्रतिनियत नगरों (उज्जयिनी, भगुकच्छ आदि) ही ! जह मुणिणो सोहइ, मुहकमलं पीवरसिरीयं ।। में ही होते हैं, सर्वत्र नहीं। (अनु ३१८।१,२) स्वस्थ मन की समाधि (एकाग्रता) और प्रशान्त कुल-पितृसत्ताक व्यवस्था वाला पारिवारिक भाव से शान्त रस उत्पन्न होता है। अविकार उसका संगठन । लक्षण है । शान्त रस, जैसे--- कुलनामे --- उग्गे भोगे राइण्णे खत्तिए इक्खागे नाते स्वभाव से निविकार, उपशान्त, प्रशान्त, सौम्यदृष्टि कोरव्वे । (अनु ३४३) गृह्णाति । Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संहनन संस्थान- वर्णं कुल सात हैं १. उग्र भगवान् ऋषभ ने जिनकी नियुक्ति की थी, वे उग्र कहलाये । वंशजों को भी उग्र कहा गया है । २. भोज - जो गुरुस्थानीय थे, वे तथा उनके वंशज । ३. राजन्य - जो मित्रस्थानीय थे, वे तथा उनके वंशज । ४. क्षत्रिय - रक्षा का दायित्व वहन करने वाले । ५. इक्ष्वाकु – भगवान् ऋषभ के वंशज । ६. ज्ञात -- भगवान् महावीर के वंशज । ७. कौरव - भगवान् शान्ति के वंशज । १. सात कुलकर २. कुलकर- अंगना ३. उत्पत्ति-काल- क्षेत्र कुलकर - यौगलिक युग में कुल को व्यवस्था करने वाले पुरुष । (देखें - ठाणं ६ ३५ का टिप्पण) ४. कुलकर- अवगाहना ५. संहनन संस्थान वर्ण आरक्षक वर्ग के रूप में उनके ६. कुलकर- आयु ७. कुलकरों की गति ८. कुलकर और दंडनीति * यौगलिक-जीवन चर्या * यौगलिक युग के पश्चात् समाज व्यवस्था ९. विमलवाहन कुलकर का पूर्वभव १. सात कुलकर पढमित्थ विमलवाहण चक्खुम जसमं तत्तो अ पसेणइए मरुदेवे चेव (द्र. मनुष्य ) (व्र. तीर्थंकर) चउत्थमभिचंदे । नाभी य ॥ ( आवनि १५५ ) कुलकर सात हैं - विमलवाहन, चक्षुष्मान्, यशस्वी, अभिचन्द्र, प्रसेनजित्, मरुदेव और नाभि । २. कुलकर - अंगना चंदजसचंदकंता सुरूव पडिरूव चक्खुकंता य । सिरिकंता मरुदेवी कुलगरपत्तीण नामाई ॥ ( आवनि १५९ ) २२३ कुलकर कुलकरों की पत्नियों के क्रमशः ये नाम हैंचन्द्रयशा, चन्द्रकांता, सुरूपा, प्रतिरूपा, चक्षुकान्ता, श्रीकान्ता, मरुदेवी । ३. उत्पत्ति-काल-क्षेत्र ओपिणी इमीसे तइयाऍ समाएँ पच्छिमे भागे । पलिओम भाए सेसं मि कुलगरुप्पत्ती ॥ अद्धभर मज्झिल्लुतिभागे गंगसिंधुमभूमि । बहुमज्भदेसे उप्पण्णा कुलगरा सत्त ॥ ( आवनि १५०, १५१ ) तीसरे अर ( सुषमदुष्षमा) के का आठवां भाग शेष रहने पर इत्थ इस अवसर्पिणी के पश्चिम भाग में पत्योपय कुलकरों की उत्पत्ति हुई । अर्धभरत के मध्य भाग में गंगा-सिंधु के मध्य सात कुकर पैदा हुए। ४. कुलकर- अवगाहना उ वधयाय पढमो अट्ठ य सत्तद्धसत्तमाई च । छच्चेव अद्धछट्टा पंचसया पण्णवीसं तु ॥ ( आवनि १५६ ) कुलकर विमलवाहन चक्षुष्मान् यशस्वी अभिचन्द्र प्रसेनजित् मरुदेव नाभि ५. संहनन संस्थान - वर्ण अवगाहना ९०० धनुष ८०० ७०० ६५० ६०० ५५० ५२५ "1 11 11 11 19 " वज्जरिसहसंघयणा समचउरंसा य हुंति संठाणे । ... चक्खुम जसमं च पसेणइअं एए पिअंगुवण्णाभा । अभिचंदो ससिगोरो निम्मलकणगप्पभा सेसा ॥ संघयणं संठाणं उच्चत्तं चैव कुलगरेहि समं । वणेण एकवण्णा सव्वाओ पिअंगुवण्णाओ ॥ ( आवनि १५७, १५८, १६० ) सब कुलकर वज्रऋषभनाराच संहनन और समचतुरस्र संस्थान वाले होते हैं । Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुलकर २२४ विमलवाहन का पूर्वभव चक्षुष्मान, यशस्वी और प्रसेनजित् लाल वर्ण वाले, तीन दण्डनीतियां थीं-हाकार, माकार और अभिचन्द्र चन्द्रमा के समान गौर वर्ण वाले और शेष धिक्कार । प्रथम और द्वितीय कुलकर के समय हाकारकुलकर स्वर्ण आभा वाले थे। नीति का प्रयोग होता था। तीसरे और चौथे कुलकर के कुलकर अंगनाओं का संहनन, संस्थान तथा ऊंचाई समय माकार और अंतिम तीन कुलकरों के समय अपने-अपने पति कुलकर के समान थी। सबका वर्ण धिक्कारनीति का प्रयोग होता था। प्रियंगु था। ६. विमलवाहन कुलकर का पूर्वभव ६. कुलकर-आयु अवरविदेहे दो वणिय वयंसा, माइ उज्जुए चेव । पलिओवमदसभाए पढमस्साउं तओ असं खिज्जा। कालगया इह भरहे, हत्थी मणुओ अ आयाया । ते आणुपुग्विहीणा पुव्वा नाभिस्स संखेज्जा । दर्छ सिणेहकरणं गयमारुहणं च नामणिप्फत्ती । जं चेव आउयं कुलगराण तं चेव होइ तासिपि । परिहाणि गेहि कलहो सामत्थण विन्नवण हत्ति ।। जं पढमगस्स आउं तावइयं चेव हथिस्स ।। (आवनि १५३,१५४) (आवनि १६१,१६२) तेसिं च जातिसरणं जायं। ताहे कालदोसेण ते प्रथम कुलकर विमलवाहन की आयु पल्योपम का रुक्खा परिहायंती..."तेस परिहायंतेसू कसाया उप्पण्णा। दसवां भाग थी। चक्षुष्मान् आदि कुलकरों की आयु .."तेहिं सो विमलवाहणो एस अम्हेहितो अहितो त्ति असंख्येय पूर्व और अन्तिम कुलकर नाभि की आयु ठवितो। संख्येय पूर्व थी। कुलकर-अंगनाओं की आयु कुलकरों के तस्स य चंदजसा भारिया। तीए समं भोगे भंजतस्स समान थी। उनके हाथियों की आयु भी उतनी ही अवरं मिथणं जायं। तस्स वि कालंतरेण अवरं, एवं ते थी। एगवंसम्मि सत्त कुलगरा उप्पण्णा । पूर्वभवाः खल्वमीषां ७. कुलकरों को गति प्रथमानुयोगतोऽवसेयाः । (आवहावृ १ पृ.७४) ...ते पयणु पिज्जदोसा सव्वे देवेसु उववण्णा ॥ ___ अपरविदेह में दो वणिक् मित्र थे-एक ऋजु, दूसरा मायावी । ऋजु वणिक मरकर भरतक्षेत्र में योगदो चेव सुवणेसुं उदहिकुमारेसु हुंति दो चेव । लिक रूप में उत्पन्न हुआ। मायावी वणिक उसी प्रदेश दो दीवकुमारेसुं एगो नागेसु उववण्णो ॥ में श्वेत, चतुर्दन्त हाथी बना। दोनों ने एक-दूसरे को हत्थी छच्चित्थीओ नागकुमारेस हंति उववण्णा । देखा, प्रीति उत्पन्न हुई, वह हाथी पर आरूढ हो गया । एगा सिद्धि पत्ता मरुदेवी नाभिणो पत्ती॥ ... (आवनि १६४-१६६) लोगों ने देखा-यह व्यक्ति हम सबसे अधिक अतिशायी है, इसका वाहन विमल है- इस प्रकार उसका नाम सभी कुलकरों के रागद्वेष प्रतनु थे। अतः वे सभी विमलवाहन हो गया। उसने जातिस्मृति से जान लिया मरकर देवगति में उत्पन्न हुए। दो कुलकर सुपर्णकुमार, कि अब कालदोष से कल्पवक्षों में क्षीणता आयेगी, इससे दो उदधिकुमार, दो द्वीपकुमार तथा एक नागकुमार देवों ममत्वभाव बढ़ेगा, कलह होगा- यह जान लेने पर में उत्पन्न हए । सातों हाथी और छह कुलकर-अंगनाएं लोगों ने विमर्शपूर्वक विमलवाहन को अपना अधिपति ये सब नागकुमारदेवों में उत्पन्न हुए। नाभि कुलकर की पत्नी मरुदेवी सिद्धि को प्राप्त हुई। बनाया, जो प्रथम कुलकर कहलाया। उसने हाकार नीति का प्रवर्तन किया । चंद्रयशा उसकी भार्या थी। ८. कुलकर और दंडनीति उसने एक युगल को जन्म दिया। उस युगल ने कालांतर हक्कारे मक्कारे धिक्कारे चेव दंडनीईओ।... में अन्य युगल को जन्म दिया। इस प्रकार एक वंश में पढमबीयाण पढमा तइयचउत्थाण अभिनवा बीया । सात कुलकर उत्पन्न हुए। उनके पूर्वभव 'प्रथमानुयोग' से पंचमछट्टस्स य सत्तमस्स तइया अभिनवा उ । ज्ञातव्य हैं। (आवनि १६७,१६८) Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुलकर २२५ केवलज्ञान कुलकर । अवगाहना | वर्ण | पत्नी आयु १. विमलवाहन | ९०० धनुष | कनक | चन्द्रयशा | पल्योपम का दसवां भाग २. चक्षुष्मान् | ८०० | प्रियंगु | चन्द्रकान्ता | असंख्येय पूर्व ३. यशस्वी । ७०० , , | सुरूपा । ४. अभिचन्द्र । ६५० , गौर । प्रतिरूपा | ५. प्रसेनजित् । ६०० ,, प्रियंगु | चक्षुकान्ता ६. मरुदेव । ५५० , कनक | श्रीकान्ता ७. नाभि । ५२५ ,, , | मरुदेवी । संख्येय पूर्व । काल वंडनीति | गति अवसर्पिणी | हाकार | सुपर्णकुमार काल के तीसरे अर का पल्योपम माकार | उदधिकुमार का आठवां भाग शेष रहा तब धिक्कार द्वीपकुमार नागकुमार कृतिकर्म-वंदना की विधि। (द्र. वंदना) १. केवलज्ञान का स्वरूप कृष्ण लेश्या- अप्रशस्त भावधारा तथा उसकी अह सव्वदव्वपरिणामभावविण्णत्तिकारणमणंतं । उत्पत्ति में हेतुभूत कृष्ण वर्ण वाले सासयमप्पडिवाई, एगविहं केवलं नाणं ।। पुद्गल । (द्र. लेश्या) .(नन्दी ३३०१) केवलज्ञान-समस्त द्रव्यों और पर्यायों को साक्षात् जो सब द्रव्यों, उनके परिणामों, उनकी सत्ता की जानने वाला ज्ञान । विज्ञप्ति का कारण तथा अनन्त, शाश्वत, अप्रतिपाति और एक प्रकार का है, वह केवलज्ञान है। १. केवलज्ञान का स्वरूप पज्जायओ अणंतं सासयमिठं सदोवओगाओ । २. केवलज्ञान का विषय अव्वयओऽपडिवाई एगविहं सव्वसुद्धीए ॥ * केवलज्ञान स्वार्थ है (विभा ८२८) * केवलज्ञान : ज्ञान का एक प्रकार (द्र. ज्ञान) पर्याय अनन्त होने से केवलज्ञान अनन्त है। सदा ३. केवलज्ञान के प्रकार उपयोगयुक्त होने से वह शाश्वत है। इसका व्यय नहीं १. भवस्थ केवलज्ञान २. सिद्ध केवलज्ञान होता इसलिए अप्रतिपाति है । आवरण की पूर्ण शुद्धि के ४. भवस्थ केवलज्ञान : परिभाषा एवं प्रकार कारण वह एक प्रकार का है। ५. सिद्ध केवलज्ञान : परिभाषा एवं प्रकार केवलमेगं सुद्धं सगलमसाहारणं अणंतं च । * केवलज्ञान : एक लब्धि । (5. लब्धि) (विभा ८४) ६. केवलज्ञान-प्राप्ति का हेतु ___ केवलम् -असहायं मत्या दिज्ञाननिरपेक्षम् । शुद्धं वा केवलम्, आवरणमलकलङ्काङ्करहितम् । ७. केवलज्ञान-प्राप्ति की प्रक्रिया सकलं वा केवलम, तत्प्रथमतयैवाशेषतदावरणाभावतः सम्पूर्णोत्पत्तेः। ८. आवरणक्षय और नय असाधारणं वा केवलम्, अनन्यसदृशमितिहृदयम् । ज्ञेया* मति-श्रत-ज्ञान और केवलज्ञान में - नन्तत्वादनन्तं वा केवलम् । साधर्म्य तथा उनके ज्ञेय की सीमा (द्र. श्रुतज्ञान) (नन्दीहावृ पृ १९) * श्रुतज्ञान और केवलज्ञान में अन्तर) ० केवलज्ञान मति आदि ज्ञानों से निरपेक्ष है, * मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान में साधर्म्य इसलिए असहाय है। तथा अंतर (. मनःपर्यवज्ञान) ० वह निरावरण है, इसलिए शुद्ध है। ९. केवलज्ञान-केवलदर्शन • अशेष आवरण की क्षीणता के कारण प्रथम क्षण में ही पूर्णरूप में उत्पन्न होता है, इसलिए वह सकल/संपूर्ण है। - Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ केवलज्ञान भवस्थ केवलज्ञान • वह अन्य ज्ञानों के सदृश नहीं है, इसलिए कर्म क्षीण नहीं होते, तब तक वह भवस्थ केवलज्ञान असाधारण है। कहलाता है। • ज्ञेय अनन्त हैं, इसलिए वह अनन्त है। भवत्थकेवलनाणं दुविहं पण्णतं, तं जहा-सजोगि. २.केवलज्ञान का विषय भवत्थकेवलनाणं च अजोगिभवत्थकेवलनाणं च । (नन्दी २७) तं समासओ चउम्विहे पण्णत्ते, तं जहा-दव्वओ, भवस्थ केवलज्ञान दो प्रकार का हैखेत्तओ, कालओ, भावओ। तत्थ सयोगी भवस्थ केवलज्ञान और अयोगी भवस्थ केवलदव्वओ णं केवलनाणी सव्वदव्वाइं जाणइ-पासइ। ज्ञान । खेत्तओ णं केवलनाणी सव्वं खेत्तं जाणइ-पासइ । कालओ णं केवलनाणी सव्वं कालं जाणइ-पासइ । सयोगी भवस्थ केवलज्ञान भावओ णं केवलनाणी सव्वे भावे जाणइ-पासइ। केवलणाणसमप्पत्तीओ आरब्भ जाव पंचहस्सक्खरियं (नन्दी ३३) सेलेसिं ण पडिवज्जति ताव सयोगिभवत्थकेवलणाणं केवलज्ञान का विषय संक्षेप में चार प्रकार का है- भन्नति ।। (आवचू १ पृ ७४) द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतः, भावतः । केवलज्ञान की प्राप्ति से लेकर जब तक पंच ह्रस्वाद्रव्य की अपेक्षा से केवलज्ञानी सभी द्रव्यों को जानता- क्षरिक शैलेशी अवस्था प्राप्त नहीं होती, तब तक वह देखता है। केवलज्ञान सयोगी भवस्थ केवलज्ञान कहलाता है। क्षेत्र की अपेक्षा से-केवलज्ञानी सभी क्षेत्रों को जानता सजोगिभवत्थकेवलनाणं दुविहं पण्णतं, तं जहादेखता है । पढमसमयसजोगि भवत्थकेवलनाणं च अपढमसमयसजोगिकाल की अपेक्षा से -केवलज्ञानी सभी कालों को जानता भवत्थकेवलनाणं च। अहवा चरमसमयसजोगिभवत्थदेखता है। केवलनाणं च अचरमसमयसजोगिभवत्थकेवलनाणं च । भाव की अपेक्षा से-केवलज्ञानी सभी भावों को जानता (नन्दी २८) देखता है। सयोगी भवस्थ केवलज्ञान दो प्रकार का है-प्रथम ३. केवलज्ञान के प्रकार समय सयोगी भवस्थ केवलज्ञान, अप्रथम समय सयोगी केवलनाणं विहं पण्णत्तं, तं जहा- भवत्थकेवलनाणं भवस्थ केवलज्ञान । अथवा-चरम समय सयोगी भवस्थ च सिद्धकेवलनाणं च । (नन्दी २६) केवलज्ञान, अचरम समय सयोगी भवस्थ केवलज्ञान । केवलज्ञान के दो प्रकार हैं भवस्थ केवलज्ञान और अयोगी भवस्थ केवलज्ञान सिद्ध केवलज्ञान । ___ जाहे पुण पंचहस्सक्खरियं सेलेसि पडिवन्ने भवति ४. भवस्थ केवलज्ञान : परिभाषा एवं प्रकार ताहे अजोगिभवत्थकेवलणाणं भन्नति। मणुस्सभवट्ठितस्स जं केवलनाणं तं भवत्थकेवलनाणं । (आवच १ पृ ७४) (नन्दीचू पृ २५) जब पंच हस्वाक्षरिक शैलेशी अवस्था प्राप्त हो भवत्थकेवलणाणं नाम जं मणस्सभवे चेव अवस्थितस्स जाती है, तब वह अयोगी भवस्थ केवलजान कहलाता है। चरहिं घातिकम्मेहिं खीण हिं समुप्पज्जति । तं जाव अजोगिभवत्थकेवलनाणं दुविहं पण्णत्तं, तं जहाचउरो केवलिकम्मा अक्खीणा ताव भवत्थकेवलणाणं पढमसमयअजोगिभवत्थकेवलनाणं च अपढमसमयभन्नति । __ (आवचू १ पृ.७४) अजोगिभवत्थकेवलनाणं च । अहवा-चरमसमयअजोगि___ मनुष्य भव में स्थित मनुष्य का केवलज्ञान भवस्थ केवलज्ञान है। भवत्थकेवलनाणं च अचरमसमयअजोगिभवत्थकेवलनाणं । भवस्थ केवलज्ञान वह है, जो मनुष्यभव में अवस्थित (नन्दी २९) व्यक्ति के ज्ञानावरणीय आदि चार घातिकर्मों के क्षीण अयोगी भवस्थ केवलज्ञान दो प्रकार का हैहोने पर उत्पन्न होता है। जब तक शेष चार अधाति- १. प्रथम समय अयोगीभवस्थ केवलज्ञान २. अप्रथम Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलज्ञान प्राप्ति की प्रक्रिया समय अयोगी भवस्थ केवलज्ञान | अथवा — चरम समय अयोगी भवस्थ केवलज्ञान | अयोगी अचरम समय भवस्थ केवलज्ञान ॥ ५. सिद्धकेवलज्ञान : परिभाषा एवं प्रकार सव्वम्मविपक्को सिद्धो, तस्स जं णाणं तं सिद्धकेवलनाणं । (नन्दी पृ २५) सर्वकर्ममुक्त सिद्धों का ज्ञान सिद्ध केवलज्ञान है । केवलकम्मे हिं खीणेहिं सिद्धस्स तं सिद्ध केवलणाणं भन्नति । ( आवचू १ पृ७४) 1. जब केवली के भवप्रत्ययिक कर्म क्षीण हो जाते हैं, तब वह सिद्ध अवस्था को प्राप्त करता है। सिद्ध का केवलज्ञान सिद्ध केवलज्ञान कहलाता है । सिद्ध केवलनाणं दुविहं पण्णत्तं तं जहा - अनंतर सिद्ध केवलनाणं च परंपरसिद्ध केवलनाणं च । ( नन्दी ३० ) सिद्ध केवलज्ञान के दो प्रकार हैं १. अनन्तरसिद्ध केवलज्ञान २. परम्परसिद्ध केवलज्ञान अनन्तरसिद्ध केवलज्ञान २२७ सिम एगो केवली सिद्धो ततो जो अनंतरो fadीओ समतो तंमि अन्नो केवली सिद्धो, तस्स केवलिस्स जं णाणं तं अणंतरसिद्ध केवलनाणं भन्नति । ( आवचू १ पृ७५) जिस समय में एक केवली सिद्ध होता है, उसके अनन्तर दूसरे समय में अन्य केवली सिद्ध होता है, उस केवली का ज्ञान अनन्तरसिद्ध केवलज्ञान है । अनंतरं णो समयंतरं पत्तं सिद्धत्वप्रथमसमयवर्तिनः । ( नन्दी पृ २६ ) सिद्ध अवस्था के प्रथम समय का ज्ञान अनन्तरसिद्ध केवलज्ञान है । अनन्तरसिद्ध केवलज्ञान के भेद परम्परसिद्ध केवलज्ञान (प्र. सिद्ध) पढमसमयसिद्धस्स जो बितियसमयसिद्धो सो परो, तस्स वि य अण्णो, एवं परंपरसिद्ध केवलनाणं भाणितव्वं । ( नन्दी चू पृ २७ ) प्रथम समय के सिद्ध की अपेक्षा से दूसरे समय का सिद्ध 'पर' है, तीसरे समय का जो सिद्ध है, वह भी 'पर' है - इस प्रकार परम्परसिद्धों का केवलज्ञान परम्परसिद्ध केवलज्ञान है । केवलज्ञान 1 परंपरसिद्ध केवलनाणं अणेगविहं पण्णत्तं तं जहाअपढसमय सिद्धा, दुसमयसिद्धा, तिसमयसिद्धा, चउसमयसिद्धा जाव दससमयसिद्धा, संखेज्जसमयसिद्धा, असंखेज्जसमय सिद्धा, अनंतसमय सिद्धा । ( नन्दी ३२ ) परम्परसिद्ध केवलज्ञान अनेक प्रकार का हैअप्रथमसमय सिद्ध, द्विसमय सिद्ध, त्रिसमय सिद्ध, चतुःसमय सिद्ध यावत् दससमय सिद्ध, संख्येय समय सिद्ध, असंख्येय समय सिद्ध, अनन्त समय सिद्ध । ६. केवलज्ञान प्राप्ति का हेतु ..... केवलियनाणलंभो नन्नत्थ खए कसायाणं || ( आवनि १०४ ) केवलज्ञान की प्राप्ति कषाय के क्षय होने पर ही होती है । afrohor 'खीणकेवलनाणावरणे । ( अनु २८२ ) केवलज्ञानावरणकर्म क्षीण होने पर केवलज्ञान उत्पन्न होता है, अतः वह क्षय निष्पन्न है । ७. केवलज्ञान प्राप्ति की प्रक्रिया ..... अट्ठविहस्स कम्मस्स कम्मराठिविमोयणयाए तप्पढमयाए जहाणुपुव्वि अट्ठवीसइविहं मोहणिज्जं कम्मं उघाएइ पंचविहं नाणावर णिज्जं नवविहं दंसणावर णिज्जं पंचविह अंतराय एए तिन्नि विकम्मंसे जुगवं खवेइ । तओ पच्छा अणुत्तरं अनंतं कसिणं पडिपुण्णं निरावरणं वितिमिरं विसुद्ध लोगालोगप्पभावगं केवलवरनाणदंसणं (उ२९।७२) समुप्पाडेइ । साधक सर्वप्रथम आठ कर्मों की जो कर्मग्रन्थि है, उसे खोलने के लिए उद्यत होता है । वह जिसे पहले कभी भी पूर्णतः क्षीण नहीं कर पाया, उस अट्ठाईस प्रकार वाले मोहनीय कर्म को क्रमश: सर्वथा क्षीण करता है, फिर वह पांच प्रकार वाले ज्ञानावरणीय, नौ प्रकार वाले दर्शनावरणीय और पांच प्रकार वाले अंतराय इन तीनों विद्यमान कर्मों को एक साथ क्षीण करता है । उसके पश्चात् वह अनुत्तर, अनन्त, कृत्स्न, प्रतिपूर्ण, निरावरण, तिमिर रहित, विशुद्ध, लोक और अलोक को प्रकाशित करने वाले केवलज्ञान और केवलदर्शन को उत्पन्न करता है । Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलज्ञान ८. आवरणक्षय और नय आवरणक्खयसमए नेच्छइअनयस्स केवलुप्पत्ती । तत्तोऽणंतर समए ववहारो केवलं भणइ ॥ ( विभा १३३४ ) जिस क्षण केवलज्ञानावरण का क्षय होता है, उसी क्षण केवलज्ञान की उत्पत्ति होती है - यह निश्चयनय का अभिमत है । आवरणक्षय के अनन्तर क्षण में कैवल्य उत्पन्न होता है - यह व्यवहारनय का अभिमत है । नाणं न खिज्जमा, खीणे जुत्तं जओ तदावरणे । न य किरियानिद्वाणं, कालेगत्तं जओ जुत्तं ॥ ( विभा १३३५) व्यवहारनय के अनुसार आवरण की क्षीयमाण अवस्था में ज्ञान नहीं होता, आवरण के क्षय होने पर ही वह होता है, क्योंकि क्रियाकाल और निष्ठाकाल में एकत्व उचित नहीं है । farararafम्म खओ जइ नत्थि तओ न होज्ज पच्छावि । जsarfaरियस खओ पढमम्मि वि कीस किरियाए । (विभा १३३७ ) यदि क्रियाकाल में क्षय नहीं होता है तो वह बाद में भी नहीं होगा । यदि क्रिया के बिना ही क्षय होता है, तब पहले क्षण की क्रिया की क्या अपेक्षा है ? जं निज्जरिज्जमाणं निज्जिण्णं ति भणियं सुए जं च । नोकम्मं निज्जरइ नावरणं तेण तस्समए ॥ ( विभा १३३८ ) आगम में निर्जीर्यमाण को निर्जीर्ण कहा गया है । कर्म का वेदन होता है । नोकर्म ( अकर्म ) की निर्जरा होती है । इसलिए निर्जीर्यमाण/क्षीयमाण काल में कर्म का आवरण क्षीण हो जाता है। क्षीयमाण और क्षीण में कालभेद नहीं है । ६. केवलज्ञान - केवलदर्शन उभयावरणाईओ केवलवरनाण- दंसणसहावो । जाणइ पासइ य जिणो नेयं सव्वं सयाकालं ॥ ( विभा १३४१ ) केवलज्ञानावरण और केवलदर्शनावरण कर्म के क्षीण होने पर केवली समस्त ज्ञेय को केवलज्ञान से सदा जानता है और केवलदर्शन से सदा देखता है । २२८ केवली -- केवलज्ञान से संपन्न । १. केवली की परिभाषा ० प्रकार २. केवली के दो उपयोग युगपत् नहीं ३. केवली का बोलना वचनयोग * केवली के मनोयोग * केवली के द्रव्यमान ४. केवली नोसंज्ञी - नोअसंज्ञी ५. केवली के ईर्यापथिक बंध ६. केवली : कायनिरोध ध्यान * केवली : शुक्ल ध्यान ७. केवली : योगनिरोध की प्रक्रिया केवली ( द्र. गुणस्थान ) ( द्र. आत्मा ) (द्र ध्यान ) ८. केवलो : शैलेशी अवस्था * शैलेशी अवस्था : कर्मक्षय का क्रम (द्र गुणस्थान ) ९. केवली जीविताशंसा से मुक्त * केवली मरण (द्र. मरण) १०. केवली छद्मस्थ को वन्दना करते हैं। १. केवली परिभाषा कसिणं केवलकप्पं लोगं जाणंति तह य पासंति । केवलचरित्तनाणी तम्हा ते केवली हुति ॥ ( आवर्धन १०७९) जो पंचास्तिकायात्मक लोक को सम्पूर्ण रूप से जानते-देखते हैं, वे केवली । यहां केवल शब्द के दो अर्थ विवक्षित हैं - एक और सम्पूर्ण । जिनके एक ज्ञान (केवलज्ञान) और एक चारित्र ( यथाख्यात) अथवा सम्पूर्ण ज्ञान और सम्पूर्ण चारित्र होता है, वे केवली कहलाते हैं । प्रकार केवली त्रिविधः, तद्यथा - श्रुतकेवली, क्षायिकसम्यक्त्व केवली, क्षायिकज्ञानकेवली । यदिवा चतुर्विधः, तद्यथा - श्रुतकेवली, अवधिकेवली, मनःपर्यायज्ञानकेवली, केवलज्ञानकेवली | ( आवमवृप १०४ ) केवली के तीन प्रकार हैं - १. श्रुतकेवली २. क्षायिक सम्यक्त्व केवली ३. क्षायिकज्ञान केवली । अथवा केवली के चार प्रकार हैं - १. श्रुतकेवली २. अवधिकेवली ३. मनःपर्यायज्ञानकेवली ४. केवलज्ञानकेवली । Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवली : कायनिरोध ध्यान २२९ केवली २. केवली के दो उपयोग युगपत नहीं तीर्थंकर केवलज्ञान के द्वारा अर्थों को जानते हैं, नाणंमि दसणंमि अ इत्तो एगयरयंमि उवउत्ता। उनमें जो प्रज्ञापन योग्य हैं, उनका निरूपण करते हैं, वह सव्वस्स केवलिस्सा जुगवं दो नत्थि उवओगा। उनका वचनयोग है, शेष द्रव्यश्रुत है। (आवनि ९७९) केवलज्ञानोपलब्धार्थाभिधायकः शब्दराशि: प्रोच्यकेवली के एक समय में दो उपयोग एक साथ नहीं मानस्तस्य भगवतो वागयोग एव भवति, न श्रुतम् । तस्य होते । केवली एक समय में ज्ञान और दर्शन - दोनों में भाषापर्याप्त्यादिनामकर्मोदयनिबन्धन से किसी एक में उपयुक्त होते हैं। क्षायोपशमिकत्वात् । स च वाग्योग: श्रोतृणां भावश्रुतअंतोमुत्तमेव य कालो भणिओ तहोवओगस्स । कारणतया द्रव्यश्रुतं व्यवह्रियते। (नन्दीमव प १३९) साई अपज्जवसिउत्ति नत्थि कत्थइ विणिद्दिट्ठो।। अर्हत् केवलज्ञान से परिज्ञात तत्व को शब्दों से परिणामियभावाओ जीवत्तं पिव सहाव एवायं । प्रतिपादित करता है, वह अर्थबोधक शब्दराशि अर्हत् का एगतरोवओगो जीवाणमणण्णहेउ त्ति ।। वचनयोग है, श्रुतज्ञान नहीं । क्योंकि वह वचनयोग भाषा (विभा ३१३०,३१३५) पर्याप्ति आदि नामकर्म के उदय से होता है और श्रुतज्ञान उपयोग का समय अन्तर्मुहुर्त ही कहा गया है । वह क्षयोपशमजन्य है। वह वचनयोग श्रोता के भावश्रुत का सादि-अपर्यवसित है, ऐसा कहीं भी निर्दिष्ट नहीं है। हेतु होने के कारण द्रव्यश्रुत कहलाता है। जैसे परिणामिक भाव के कारण जीवत्व जीव का ४. केवली नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी स्वभाव है, वैसे ही एकान्तर उपयोग भी जीव का स्वभाव है, क्योंकि वह भी पारिणामिक भाव है। खयनाणी कि सण्णी न होइ होइ व खओवसमनाणी । केवलज्ञानकेवलदर्शनोपयोग चिन्तायां क्रमोपयोगादि- सण्णा सरणमणागचिता य न सा जिणे जम्हा ।। विषया सूरीणामनेकधा विप्रतिपत्तिः । सिद्धसेनाचार्यादयो (विभा ५१८) ब्रुवते -एकस्मिन् काले केवली न त्वन्यश्छद्मस्थो जानाति क्षायोपशमिक ज्ञानी संज्ञी होते हैं, क्षयज्ञानी (केवली) पश्यति च नियमेन । अन्ये पूनराचार्या जिनभद्रगणिक्षमा- संज्ञी नहीं होते । संज्ञा का अर्थ है-अतीत का स्मरण श्रमणप्रभृतयः मन्यन्ते--- एकान्तरितं केवली जानाति और अनागत का चिन्तन । केवली इस संज्ञा से अतीत पश्यति चेति, एकस्मिन् समये जानाति एकस्मिन् समये होते हैं-वे नोसंज्ञी-नोअसंजी होते हैं। पश्यतीत्यर्थः । (नन्दीमवृ प १३४) ५. केवली के ई-पथिक बंध केवलज्ञान और केवलदर्शन के उपयोग के संबंध में जाव सजोगी भवइ ताव य इरियावहियं कम्मं बंधइ आचार्यों की विभिन्न अवधारणाएं रही हैं। सिद्धसेन सुहफरिसं दुसमयठिइयं । तं पढमसमए बद्धं बिइयसमए आदि आचार्य मानते हैं कि केवली निश्चित रूप से एक वेइयं तइयसमए निज्जिण्णं। तं बद्धं पुठं उदीरियं वेइयं समय में जानते-देखते हैं, छद्मस्थ नहीं। निज्जिण्णं सेयाले य अकम्मं चावि भवइ। (उ २९/७२) जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण आदि अन्य आचार्यों की जब तक मुनि सयोगी होता है तब तक उसके ईर्यामान्यता है ... केवली एक समय में जानते हैं, एक समय में देखते हैं। पथिक कर्म का बंध होता है। वह बंध सुख-स्पर्श होता (केवलज्ञान और केवलदर्शन के उपयोग के बारे में है। उसकी स्थिति दो समय की होती है। वह प्रथम तीन मत मिलते हैं- क्रमवाद, युगपत्वाद और अभेद समय में बंधता है, दूसरे समय में उसका वेदन होता है वाद । क्रमवाद आगमानुसारी है। उसके मुख्य प्रवक्ता और तीसरे समय में वह निर्जीर्ण हो जाता है। वह कर्म हैं -जिनभद्रगणि । युगपतवाद के प्रवक्ता हैं-मल्लवादी। बद्ध होता है, स्पृष्ट होता है, उदय में आता है, भोगा अभेदवाद के प्रवक्ता हैं-सिद्धसेन दिवाकर। देखें जाता है, नष्ट हो जाता है और अन्त में अकर्म भी हो भगवती भाष्य ८।१८८ का टिप्पण।) जाता है। ..केवली का बोलना वचनयोग ६. केवली : कायनिरोध ध्यान केवलनाणेणत्थे, नाउं जे तत्थ पण्णवणजोगे । होज्ज न मणोमयं वाइयं च झाणं जिणस्स तदभावे । ते भासइ तित्थयरो, वइजोग तयं हवइ सेसं ।। कायनिरोहपयत्तस्सभावमि कोह निवारेइ ? | - (नन्दी ३३।२) (विभा ३०७२) Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवली २३० केवली जीविताशंसा से मुक्त केवली के मन, वचन का अभाव होने पर भले ही जाती है। मानसिक या वाचिक ध्यान न हो, परन्तु कायनिरोध का अन्तोमुहत्तद्धावसेसाउए जोगनिरोहं करेमाणे सूहमप्रयत्न रूप ध्यान क्यों नहीं होगा? किरियं अप्पडिवाइसुक्कझाणं झायमाणे तप्पढमयाए ७. केवली : योगनिरोध की प्रक्रिया मणजोगं निरंभइ, निरुभित्ता वइजोगं निरंभइ, निरुभित्ता आणापाणनिरोहं करेइ, करेत्ता ईसि पज्जत्तमित्तसन्निस्स जत्तियाई जहन्नजोगिस्स । पंचरहस्सक्खरुच्चारधाए य णं अणगारे समूच्छिन्न किरियं होति मणोदब्बाइं तव्वावारो य जम्मत्तो ॥ अनियट्रिसुक्कझाणं झियायमाणे वेयणिज्ज आउयं नामं तदसंखगुणविहीणं समए समए निरुभमाणो सो। गोत्तं च एए चत्तारि वि कम्मसे जुगवं खवेइ। मणसो सवनिरोहं करे असंखेज्जसमएहिं । पज्जत्तमेतबिंदियजहन्नवइजोगपज्जया जे उ। (उ २९।७३) तदसंखगुणविहीणे समए समए निरंभंतो॥ केवली होने के पश्चात् वह शेष आयुष्य का निर्वाह सव्ववइजोगरोहं संखाईएहिं कुणइ समएहिं । करता है। जब अन्तर्मुहर्त परिमाण आयु शेष रहती है, तब वह योगनिरोध करने में प्रवृत्त होता है। उस समय तत्तो य सुहमपणयस्स पढमसमओववन्नस्स ॥ जो किर जहन्नजोगो तदसंखेज्जगुणहीणमेक्कक्के । सूक्ष्मक्रियाअप्रतिपाति नामक शुक्लध्यान में लीन बना समए निरुंभमाणो देहतिभागं च मुंचंतो।। हुआ वह सबसे पहले मनोयोग का निरोध करता है, फिर वचनयोग का निरोध करता है, उसके पश्चात् आनापान रुंभइ स कायजोगं संखाईएहिं चेव समएहिं । तो कयजोगनिरोहो सेलेसीभावयामेइ ॥ (उच्छ्वास-निःश्वास) का निरोध करता है। उसके (Hay.६४ पश्चात् स्वल्पकाल तक पांच ह्रस्वाक्षरों-अ इ उ ऋ केवली का जीवनकाल जब अन्तर्महर्त मात्र शेष ल का उच्चारण किया जाए, उतने काल तक समूच्छिन्नरहता है, तब वह मन, वचन और काया की प्रवत्ति का क्रियाअनिवृत्ति नामक शुक्ल ध्यान में लीन बना हुआ निरोध करता है। उसकी प्रक्रिया इस प्रकार है अनगार वेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्र-इन चारों शुक्ल ध्यान के तृतीय चरण (सूक्ष्म-क्रिया-अप्रति विद्यमान कर्मों को एक साथ क्षीण करता है। पाति) में वर्तता हुआ वह सर्वप्रथम मनोयोग का निरोध ८.केवली: शैलेशी अवस्था करता है । जो जीव पर्याप्त है, संज्ञी है, जघन्य मनयोगी हस्सक्खराइं मझेण जेण कालेण पंच भण्णंति । (सबसे कम मन की प्रवृत्ति करने वाला) है, उसके जितने अत्थइ सेलेसिगओ तत्तियमेत्तं तओ कालं ॥ मनोद्रव्य (मन के पुद्गल) हैं और उनका जितना व्यापार तणुरोहारंभाओ झायइ सुहमकिरियानियट्टि सो। (प्रवृत्ति) है, उससे असंख्येय गुणहीन मनोद्रव्य और वच्छिन्नकिरियमप्पडिवाइं सेलेसिकालम्मि । व्यापार का प्रतिसमय निरोध करते-करते असंख्य समयों (विभा ३०६८,३०६९) में उसका पूर्ण निरोध करता है। 'अ इ उ ऋ ल'-इन पांच ह्रस्वाक्षरों के उच्चारण उसके पश्चात् वचन योग का निरोध करता है। काल तक केवली शैलेशी अवस्था में रहता है। यह पर्याप्तमात्र द्वीन्द्रिय प्राणी के जघन्य वचनयोग के पर्यायों उच्चारण न अतिशीघ्र होता है, न प्रलम्ब, किन्तु मध्यम से असंख्येय गुणहीन वचनयोग-पर्यायों का प्रतिसमय निरोध करते-करते असंख्य समयों में वचनयोग का पूर्ण भाव में होता है। काययोग के निरोध के प्रारंभ समय में निरोध करता है। फिर काययोग का निरोध करता है। सूक्ष्मक्रियाअनिवृत्ति रूप शुक्लध्यान होता है और शैलेशी अवस्था के समय समुच्छिन्नक्रियाअप्रतिपाति रूप शुक्लप्रथम समय के उत्पन्न सूक्ष्म पनक जीव के जघन्य काययोग से असंख्येय गुणहीन काययोग के पुद्गल और व्यापार ध्यान होता है। (शुक्लध्यान के अंतिम दो विभागों के ये का प्रतिसमय निरोध करते-करते तथा शरीर की नाम एक मतान्तर है।) अवगाहना के तीसरे भाग को छोड़ते (पोले भाग को ६. केवली जीविताशंसा से मुक्त पूरित करते हुए असंख्य समयों में काययोग का अकेवलिनो हि संयमजीवितं दीर्घमिच्छेयुरपि, (श्वासोच्छ्वास सहित) पूर्ण निरोध करता है। पूर्ण मुक्त्यवाप्ति इतः स्यादिति । केवलिनस्तु तदपि नेच्छन्ति, योगनिरोध होते ही अयोगी या शैलेशी अवस्था प्राप्त हो आस्तां भवजीवितमिति । (उशावृ प २४२) Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवली समुद्घात -२३१ केवली समुद्घात छद्मस्थ मुनि दीर्घ संयमी जीवन की इच्छा कर जह उल्ला साडीया आसु सुक्कइ विरल्लिया संती । सकता है, इसलिए कि वर्तमान जीवन में मुक्ति हो जाये। तह कम्मलहुयसमए वच्चंति जिणा समुग्घायं ।। केवली दीर्घायु जीवन की इच्छा नहीं करते । वे कृतकृत्य (आवनि ९५४, ९५६) हो चुके हैं, इसलिए उनके जीवन का प्रयोजन शेष नहीं वेदनीय कर्म की बहलता और आयूष्यकर्म की अल्पता को जानकर केवली समुद्घात करते हैं और रहा। अशेष कर्मों का क्षय कर देते हैं। १०. केवली छद्मस्थ को वन्दना करते हैं जिस प्रकार आर्द्र वस्त्र फैलाने पर शीघ्र ही सुख ववहारोऽविह बलवं जं छउमत्थंपि वंदई अरहा। जाता है, उसी प्रकार के वली-समुद्घात से कर्मों की जा होइ अणाभिण्णो जाणतो धम्मयं एयं ॥ (आवभा १२३) कम्मलहुयाए समओ भिन्नमुहुत्तावसेसओ कालो। व्यवहार भी बलवान होता है, क्योंकि अर्हत् (केवली) अन्ने जहन्नमेयं छम्मासमुक्कोस मिच्छति ।। छदमस्थ को भी उस समय तक वन्दना करते हैं, जब तक (विभा ३०४८) वे (अर्हत) केवली के रूप में अज्ञात रहते हैं । यह उनका केवली के जब अन्तर्महत आयुष्य शेष रहता है तब आचार है। वेदनीय आदि कर्मों की स्थिति और आयुष्यकर्म की जहाहियग्गी जलणं नमसे, नाणाहुईमंतपयाभिसित्तं । स्थिति को समान करने के लिए केवली समदघात का एवायरियं उचिट्ठएज्जा, अणंतनाणोवगओ वि संतो॥ आ आरम्भ करते हैं। कुछ आचार्यों की मान्यता है-- कर (द ९।१।११) केवली के जब जघन्य आयुष्य अन्तर्महर्त का और उत्कृष्ट जैसे आहिताग्नि ब्राह्मण विविध आहुति और मंत्र १. आयुष्य' छह मास का रहता है, तब केवली समुदघात पदों से अभिषिक्त अग्नि को नमस्कार करता है, वैसे ही करते हैं। शिष्य अनन्तज्ञानसम्पन्न होते हए भी आचार्य की विनय- अन्तर्महर्तमादिकृत्वोत्कर्षेण आमासेभ्य: षड्भ्यः पूर्वक सेवा करे। आयुषोऽवशिष्टेभ्यः अभ्यन्तर आविर्भतकेवलज्ञानपर्यायाः केवली समुद्घात-केवली के वेदनीय, नाम और ते नियमात्समुद्घातं कुर्वन्ति । ये तु षण्मासेभ्य उपरिष्टा गोत्र कर्म के आश्रित होने दाविर्भूतकेवलज्ञानाः शेषास्ते समुद्घातकाद् बाह्याः, ते वाला समुद्घात। समुद्घातं न कुर्वन्तीत्यर्थः........षाण्मासिकावशिष्टे समो आयुषो कर्मणां उद्घात: समुद्घात: सव्वे आयुषि आविर्भूतकेवल-ज्ञानपर्यायेभ्यः सकाशात् षड्भ्यो जीवपदेसे विसारेति, एवं सिग्धं कम्म खविज्जति........ मासेभ्य: ये उपरि समयोत्तरवृद्ध्याऽवशिष्टे आयुषि शेषे पढममेव अंतोमुहत्तियमुदीरणावलिकायां कम्मपक्खेवाइ आविर्भूतज्ञानाः केवलिनः ते शेषाः समुद्घातं प्रति भाज्या:.......अथवा येषां बहु संवेद्यमस्ति आयुच्छाल्पमवरूवं परिस्पन्दनं गच्छति। (आवचू ११ ५७९) तिष्ठते ते नियमात्समुद्घातं कुर्वति नेतर इति ।। जिस प्रयत्न में प्रबलता से कर्मों की स्थिति और (आवचू १ पृ ५७०) अनुभाग का समीचीन उद्धात होता है, वह केवली ____ अंतर्मुहूर्त से लेकर अधिकतम छह माह आयु शेष समुद्घात है। उनमें उदीरणावलिका में प्रविष्ट कर्म रहने पर जिन्हें केवलज्ञान प्राप्त होता है, वे निश्चित पुदगलों का प्रक्षेपण होता है -वेदनीय कर्मदलिकों को रूप से समुद्घात करते हैं। कैवल्यप्राप्ति के समय आयुष्य कर्मदलिकों के समान करने के लिए सब आत्म जिनकी आयु छह माह से अधिक होती है, वे समुद्घात प्रदेशों का लोकाकाश में निस्सरण होता है और कर्मों नहीं करते। का शीघ्रता से क्षय होता है। इसका कालमान है कैवल्यप्राप्ति के समय जिनकी आयु छह माह से अन्तर्मुहूर्त (आठ समय)। अधिक है, उनकी जब छह माह आयु शेष रहती है, तब केवली समुद्घात कब और क्यों ? उनमें से कुछ समुद्घात करते हैं, कुछ नहीं करते । नाऊण वेयणिज्ज अइबह आउअंच थोवागं । अथवा जिनके वेदनीय आदि कर्म अधिक तथा आयुष्य गंतूण समुग्घायं खति कम्मं निरवसेसं ॥ कर्म अल्प होता है, वे केवली नियमतः समुद्घात करते हैं। Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणधर २३२ गणधर : एक परिचय समुद्घात की विधि ___गणधर-१. तीर्थंकर द्वारा स्वयं अनुज्ञात गण को दंड कवाडे मंथंतरे असाहरणया सरीरत्थे। धारण करने वाले--'तित्थगरेहि भासाजोगनिरोहे सेलेसी सिझणा चेव ॥ सयमणुन्नातं गणं धारेंति त्ति गणहरा।' (आवनि ९५५) (आवचू १ पृ८६) केवली आत्मप्रदेशों को प्रथम चार समय में क्रमश: २. सूत्रागम के कर्ता-'मूलसूत्रकर्तारो दंड, कपाट, मंथान और मंथान्तर (अन्तरावगाह) के गणधरा उच्यन्ते ।' (आवहाव १ पृ९४) आकार में पूरे लोक में फैलाता है, पांचवें, छठे, सातवें, १. गणधर : एक परिचय आठवें समय में पुनः प्रतिलोम क्रम से आत्मप्रदेशों का २. गणधर : जिज्ञासा समाधान संहरण करता है। समुद्घात के समय वचनयोग नहीं ३. गणधरों के अतिशेष रहता, तत्पश्चात् वह शैलेशी अवस्था को प्राप्त कर सिद्ध ४. गणधरों द्वारा आगम (द्वादशांग) रचना हो जाता है। * द्वादशांग (द्र. अंगप्रविष्ट) न किर समुग्घायगओ मण-वइजोगप्पओयणं कुणइ। ५. आगम रचना का प्रयोजन ओरालियजोगं पुण जंजइ पढमढमे समए । * गणधरों द्वारा पूर्वो की रचना (द्र. पूर्व) उभयव्वा वाराओ तम्मीसं बीय-छट्ठ-सत्तमए। ६. गणधर और धर्मदेशना ति-चउत्थ-पंचमे कम्मयं तु तम्मत्तचेट्ठाओ। २. गण और गणधर (विभा ३०५४,३०५५) ८. गणधर सुधर्मा की शिष्य परम्परा केवली समुद्घात में मनयोग और वचनयोग का * तीर्थकरों की गणधर-सम्पदा (द्र. तीथंकर) व्यापार नहीं होता । पहले और आठवें समय में औदारिक * गणधर तीर्थ है (द्र. तीर्थ) काययोग होता है। दूसरे, छठे और सातवें समय में औदारिकमिश्र और तीसरे, चौथे, पांचवें समय में गणधर : एक परिचय कार्मणकाययोग होता है। पढमित्थ इंदभूई बीए पुण होइ अग्गिभूइ त्ति । क्षायिक भाव-कर्मों के क्षय से होने वाली आत्मा तइए य वाउभूई तओ वियत्ते सुहम्मे य ।। की अवस्था। (द्र. भाव) मंडिय-मोरियपूते अकंपिए चेव अयलभाया य । मेयज्जे य पहासे य गणहरा हंति वीरस्स ॥ क्षायिक सम्यक्त्व-अनन्तानुबन्धी चतुष्क और (नन्दी गाथा २०, २१) दर्शन मोहनीय त्रिक-इन सात ग्यारह गणधर प्रकृतियों के क्षय से प्राप्त होने १. इन्द्रभूति ७. मौर्यपुत्र वाला सम्यक्त्व। (द्र. सम्यक्त्व) २ अग्निभूति ८. अकंपित क्षायोपशमिक भाव-चार घात्यकर्मों के विपाक- ३. वायुभूति ९. अचलभ्राता वेदन के अभाव से होने वाली ४. व्यक्त १०. मेतार्य आत्मा की अवस्था । (द्र. भाव) ५. सुधर्मा ११. प्रभास ६. मंडित क्षीणमोह गुणस्थान-जिसका मोह क्षीण हो स्थान जाता है, उस प्राणी की मगहा गोब्बरगामे जाया तिण्णेव गोयमसगोत्ता। आत्मविशुद्धि, बारहवां गुण कोल्लागसन्निवेसे जाओ विअत्तो सुहम्मो य ।। स्थान। (द्र. गुणस्थान) मोरीयसन्निवेसे दो भायरो मंडिमोरिया जाया । क्षुल्लक भव-सबसे छोटा भव २५६ आवलिका अयलो य कोसलाए महिलाए अकंपिओ जाओ। का होता है-दो य सया छप्पन्ना तुंगीयसन्निवेसे मेयज्जो वच्छभूमिए जाओ। .. आवलियाणं तु खुड्डुभवमाणं । भगवं पि य प्पभासो रायगिहे गणहरो जाओ। ___ (विभामवृ २ १ ३०३) (आवनि ६४३-६४५) Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिष्य संपदा जन्म-नक्षत्र जेट्ठा कित्तिय साई सवणो हत्थुत्तरा रोहिणि उत्तरसाढा मिगसिर तह पिता वसुभूई धमित्ते धम्मिल धणदेव देवे वसू य दत्ते बले य पियरो महाओ य । अस्सिणी पूसो ॥ गोत्र तिणि य गोयमगोत्ता भारद्दा कासवगोयमहारिय कोडिण्णदुगं ( आवनि ६४६ ) मोरिए चेव । गणहराणं ॥ माता पुहवी य वारुणी भद्दिला य विजयदेवा तहा जयंती य । णंदा य वरुणदेवा अइभद्दा य मायरो || ( आवनि ६४८ ) ( आवनि ६४७ ) २३३ अग्गिवेसवासिट्ठा । गोताई ॥ ( आवनि ६४९ ) च गृहस्थ पर्याय पण छायालीसा बायाला होइ पण्ण पण्णा य । तेवण्ण पंचसट्ठी अडयालीसा य छायाला ।। छत्तीसा सोलसगं अगारवासो भवे गणहराणं .... ( आवनि ६५०, ६५१ ) छद्मस्य मुनि पर्याय तीसा बारस दसगं बारस बायाल चोसदुगं च । णवगं बारस दस अट्ठगं च छउमत्थपरियाओ ॥ ( आवनि ६५२ ) जिन पर्याय बारस सोल अट्ठारसेव अट्ठारसेव अट्ठेव । सोलस सोल तहेकवीस चोद्द सोले य सोले य ॥ ( आवनि ६५४ ) सर्व आयु बाणउई चउहत्तरि सत्तरि तत्तो भवे असीई य । एगं च सयं तत्तो ते सीई पंचणउई य ॥ अट्ठतरि च वासा तत्तो बावर्त्तारं च वासाई । बावट्ठी चत्ता खलु सव्वगणहराउयं एयं ॥ ( आवनि ६५५, ६५६ ) शिष्य संपदा पंचहं पंचसया अद्धुट्ठसया य होंति दोण्ह गणा । दोहं तु जुयलयाणं तिसओ तिसओ भवे गच्छो ॥ ( आवनि ५९७ ) गांत्र गृहस्थ पर्याय छद्मस्थ मुनि जिनपर्याय सर्व आयु शिष्य पर्याय ३० वर्ष १२ वर्ष १० वर्ष १२ वर्ष ४२ वर्ष १४ वर्ष १४ वर्ष गणधर माता जन्म-नक्षत्र सपदा १२ वर्ष ९२ वर्ष ५०० १६ वर्ष ७४ वर्ष ५०० १८ वर्ष ७० वर्षे ५०० गणधर ५० वर्ष ४६ वर्ष Leah गौतम गतिम गौतम भारद्वाज पृथ्वी १८ वष ८० वष ५०० १०० वर्ष ५०० १६ वर्षे ८३ वर्ष ३५० ९५ वर्ष ३५० २१ वर्ष ७८ वर्ष ३०० १४ वर्ष ७२ वर्ष ३०० ६२ वर्ष ३००१ १६ वर्ष ४० वर्ष ३०० ८ वर्ष १६ वर्ष १६ ज्येष्ठा कृत्तिका स्वाति ४२ वर्ष ५० वर्ष ५० वर्ष पृथ्वी वारुणी ३. 44 धनामत्र o m ww ५३ वर्ष om r ६५ वर्ष ४५ वर्ष ९ वर्ष १२ वर्ष १० वर्ष ८ वर्ष मधा अग्निवंश्यायन वाशिष्ठ काश्यप गतिम हरितायन कौण्डिन्य कौण्डिन्य धनदेव माय व गणधर भद्रिला विजयदेवी विजयदेवी जयन्ती नन्दा वरुणदेवा अतिभद्रा العمل Sect उत्तराषाढा ४६ वर्ष ३६ वर्ष १६ वर्ष वसु दत्त बल मृगशिरा अश्विनी Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणधर २. गणधर : जिज्ञासा समाधान जीवे कम्मे तज्जीव भूय तारिसय बंधमोक्खे य । देवी णेरइए या पुण्णे परलोय णेव्वाणे ॥ ( आवनि ५९६ ) जिज्ञासाएं १. इन्द्रभूति - जीव है या नहीं ? २. अग्निभूति - कर्म है या नहीं ? ३. वायुभूति - शरीर ही जीव ४. व्यक्त-भूत है या नहीं ? ५. सुधर्मा - इस भव में जीव जैसा है, परभव में भी वैसा ही होता है या नहीं ? ६. मंडित-बन्ध - मोक्ष है अथवा नहीं ? ७. मौर्यपुत्र - देव है अथवा नहीं ? T ८. अकंपित - नारक है अथवा नहीं ? ९. अचल भ्राता - पुण्य-पाप है अथवा नहीं ? १०. मेतार्य - परलोक है अथवा नहीं ? ११. प्रभास - निर्वाण है अथवा नहीं ? गणधर इन्द्रभूति जीवे तुह संदेहो, पच्चक्खं जं न घिप्पइ घडो व्व । अच्चतापच्चक्खं च णत्थि लोए खपुप्फं व ॥ ( विभा १५४९ ) श्रमण महावीर ने कहा - इन्द्रभूति ! तुम्हें जीव के अस्तित्व में संदेह है । तुम मानते हो कि घट की भांति उसका प्रत्यक्ष ग्रहण नहीं होता । जो अत्यन्त परोक्ष है, उसका आकाशकुसुम की भांति अस्तित्व नहीं होता । सोऽणुमाणगम्मो जम्हा पच्चक्खपुव्वयं तं पि । पुव्वोवलद्धसंबंधसरओ सरणओ लिंगलिंगीणं ॥ ( विभा १५५० ) । क्योंकि जाने हुए जीव का अस्तित्व अनुमानगम्य भी नहीं है अनुमान प्रत्यक्षपूर्वक ही होता है । पहले साध्य और साधन की स्मृति व्याप्ति के ज्ञान से ण य जीवलिंगसंबंधदरिसणमभू जओ पुणो तल्लिंगदरिसणाओ, जीवे संपच्चओ होती है । या अन्य ? २३४ गणधर : जिज्ञासा समाधान जं चागमा विरुद्धा, परोप्परमओ वि संसओ जुत्तो । सव्वप्पमाणविसयाईओ जीवो त्ति तो बुद्धी ॥ ( विभा १५५२, १५५३ ) सरओ । होज्जा ॥ १५५१ ) ( विभा जीव को प्रमाणित करने वाले हेतु की व्याप्ति पूर्वदृष्ट नहीं है, जिससे कि उसकी स्मृति हो सके, उसके हेतु को देखकर जीव की संप्रत्यय - प्रतीति हो सके । नागमगम्मो वि तओ, भिज्जइ जं नागमोऽणुमाणाओ । न य कासइ पच्चक्खो, जीवो जस्सागमो वयणं ॥ आगम प्रमाण से भी जीव की सिद्धि नहीं हो सकती । आगम प्रमाण अनुमान प्रमाण से भिन्न नहीं है । ऐसा कोई आप्तपुरुष नहीं है, जिसने जीव का साक्षात्कार किया हो जिसके आधार पर उसके वचन को आगम माना जा सके । आगम परस्पर विरुद्ध मत का प्रतिपादन करते हैं, इसलिए तुम्हारा जीव के अस्तित्व में संशय होना संभव है । तुम्हारा मत है कि जीव सब प्रमाणों - प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम से अतीत है । गोयम ! पच्चक्खो च्चिय, जीवो जं संसयाइ विष्णाणं । पच्चक्खं च न सज्भं, जह सुहदुक्खा सदेहम || ( विभा १५५४ ) गौतम ! तुम्हें संशयात्मक विज्ञान होता है, इसलिए जीव प्रत्यक्ष है । जो प्रत्यक्ष है, वह साध्य नहीं होता । जैसे शरीर में होने वाला सुख - दुःख का संवेदन | जं च न लिंगेहिं समं, मन्नसि लिंगी जओ पुरा गहिओ । संगं ससेण व समं, न तोऽणुमेओ सो ॥ (विभा १५६५ ) लिंगओ तुम मानते हो कि जीव को सिद्ध करने वाले हेतु का संबंध ( व्याप्ति ) प्रत्यक्ष प्रमाण से पूर्व गृहीत नहीं है । जैसे खरगोश के साथ सींग का संबंध । इसलिए जीव हेतु द्वारा अनुमेय नहीं है । सोऽगंतो जम्हा, लिंगेहि समं न गहलिंगदरिसणाओ, गहोऽणुमेओ दिट्ठपुव्वो वि । सरीरम्मि || ( विभा १५६६ ) पूर्वदृष्ट हेतु के साथ साध्य को देखा हो तभी उस हेतु से साध्य की सिद्धि होती है, यह एकांत नियम नहीं है । हमने ग्रह ( देवयोनि विशेष ) को हास्य, रुदन आदि हेतुओं के साथ नहीं देखा फिर भी व्यक्ति के शरीर में इन लक्षणों को देख उसका अनुमान किया जाता है । इसी प्रकार साधन के अभाव में भी जीव का अनुमान हो सकता है। छिन्नम्म संसयम्मि, जिणेण जरमरणविप्पमुक्केणं । सो समणो पव्वइओ, पंचहि सह खंडिसएहि ॥ ( विभा १६०४ ) Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणधर व्यक्त २३५ गणधर जरा और मृत्यु से मुक्त भगवान महावीर की वाणी गणधर वायुभूति सुन इन्द्रभूति का संशय छिन्न हो गया। उसने अपने तज्जीवतस्सरीरं ति, संसओ णवि य पुच्छसे किंचि। ५०० शिष्यों के साथ भगवान महावीर के पास प्रव्रज्या __ (आवनि ६०८) स्वीकार कर ली। वायुभूति ! तुम्हारे मन में यह संशय है कि जो गणधर अग्निभूति जीव है, वही शरीर है । तुम चाहने पर भी इस संबंध कि मण्णि अस्थि कम्म, उदाह णस्थित्ति संसओ तुज्झ।। य कम्म, उदाहु त्थिात्त ससआ तुझा में कुछ पूछ नहीं रहे हो। (आवनि ६०४) वसुहाइभूयसमुदयसंभूया चेयण त्ति ते संका । कम्मे तुह संदेहो, मन्नसि तं नाणगोयराईयं । पत्तेयमदिवा वि हु, मज्जंगमउ व्व समुदाये । तुह तमणुमाणसाहणमणुभूइमयं फलं जस्स ॥ जह मज्जंगेसु मओ, वीसुमदिट्ठो वि समुदए होउं । (विभा १६११) कालंतरे विणस्सइ, तह भूयगणम्मि चेयणं ।। अग्निभूति ! तुम्हारे मन में यह संदेह है कि कर्म है (विभा १६५०,१६५१) अथवा नहीं। तुम यह मानते हो कि कर्म प्रत्यक्ष आदि किसी ज्ञान का विषय नहीं होता। पर उसका फल तुम्हारा यह संशय है कि पृथ्वी, पानी आदि भूतअनुभूति का विषय है. इसलिए तम अनमान से उसे समुदाय से चेतना उत्पन्न होती है। जैसे मद्य के प्रत्येक जान सकते हो। अवयव--फूल, गुड, पानी आदि में मदशक्ति दिखाई नहीं अस्थि सुह-दुक्खहेउं, कज्जाओ बीयमंकुरस्सेव । देती, परन्तु उनके समुदाय में मदशक्ति प्रकट हो जाती सो दिदो चेव मई, वभिचाराओ न तं जुत्तं ।। है। इसी प्रकार पृथ्वी, पानी आदि अलग-अलग भूतों में (विभा १६१२) चैतन्यशक्ति दिखाई नहीं देती, उनके समुदाय में वह अग्निभूति-सुख-दुःख कार्य हैं । उनके हेतु-कारण दृष्ट हो जाती है। दृष्ट हैं। जैसे अंकुर का हेतु बीज । फिर अदृष्ट कर्म को मद्य के प्रत्येक अवयव में मदशक्ति नहीं होती, मानने की क्या आवश्यकता है ? महावीर-दृष्टकारण समुदाय में वह हो जाती है और कालान्तर में विनष्ट हो यदि अनेकांतिक हो तो अदृष्टकारण मानना अपेक्षित है। जाती है। उसी प्रकार प्रत्येक भूत में अदृष्ट चैतन्य जो तुल्लसाहणाणं, फले विसेसो ण सो विणा हेउं । भूतसमुदाय में दृष्ट होता है और कालान्तर में वह कज्जत्तणओ गोयम ! घडो व्व हेऊ य सो कम्मं ॥ विनष्ट हो जाता है। (विभा १६१३) पत्तेयमभावाओ, ण रेणुतेल्लं व समुदये चेया । जिसके साधन समान हों और फल में वैषम्य हो तो __मज्जगेसुं तु मओ, वीसुं पि ण सव्वसो णत्थि ।। वह अहेतुक नहीं है । घट कार्य है। कार्य का कारण (विभा १६५२) अवश्य होता है । तुल्य साधन होने पर भेद नहीं होता। तुल्य साधन होने पर भी कार्य में भेद होता है, उसका मद्य के प्रत्येक अवयव में मदशक्ति नहीं है तो वह हेतु है-कर्म । उनके समुदित होने पर भी नहीं हो सकती । जैसे बालू के बालसरीरं देहतरपुव्वं इंदियाइमत्ताओ। एक-एक कण में तैल नहीं होता, वैसे ही उनका समुदाय जह बालदेहपुव्वो, जुवदेहो पुव्वमिह कम्मं ॥ होने पर भी तैल नहीं होता। (विभा १६१४) गणधर व्यक्त बालक का शरीर अन्य शरीरपूर्वक होता है । क्योंकि (वह इन्द्रिय आदि से युक्त है । जैसे युवकशरीर बालशरीर कि मण्णि पंचभूया, अत्थि णत्थि त्ति संसओ तुझ । पूर्वक होता है, वैसे ही बालकशरीर जिस शरीरपूर्वक (आवनि ६१२) होता है, वही है कर्म-कार्मण शरीर । व्यक्त ! तुम्हारे मन में यह संशय है कि पांच भूतों का अस्तित्व है या नहीं। Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणधर भूयाइसंसयाओ, जीवाइस का कह त्ति ते बुद्धी । तं सव्वसुण्णसंकी, मन्नसि मायोवमं लोयं ॥ ( विभा १६९१ ) भूत आदि प्रत्यक्ष पदार्थों के विषय में भी जब तुम संदिग्ध हो तो फिर जीव आदि परोक्ष पदार्थों का ज्ञान तुम्हें कैसे होगा ? इसलिए तुम शून्यवाद को स्वीकार कर विश्व को इन्द्रजाल के समान मानते हो । मा कुरु वियत्त ! संसयमसइ न संसयसमुब्भवो जुत्तो । खकुसुम - खरसिंगेसु व, जुत्तो सो थाणु-पुरिरे ॥ ( विभा १६९७ ) व्यक्त ! तुम ऐसा संशय मत करो। पदार्थ का अस्तित्व नहीं है तो संशय उत्पन्न ही नहीं होगा । आकाशकुसुम और गधे के सींग के विषय में क्या कभी संशय होता है ? यह स्तंभ है या पुरुष ? ऐसा संशय हो सकता है, क्योंकि स्तम्भ और पुरुष दोनों का अस्तित्व है | को वा विसेसहेऊ, सव्वाभावे वि थाणु- पुरिसे । संका न खपुप्फाइ, विवज्जओ वा कहं न भवे ॥ ( विभा १६९८ ) ऐसा कौन-सा विशेष हेतु है, जिसके कारण सब पदार्थों का अभाव होने पर भी स्तंभ और पुरुष विषय में संदेह होता है, आकाशकुसुम और गधे के सींग के विषय में नहीं होता, इससे स्पष्ट है कि आकाशकुसुम की भांति सब कुछ शून्य नहीं है । गणधर सुधर्मा कि मणि जारिस इहभर्वाम्म, सो तारिसी परभवेऽवि । ( अवनि ६१६ ) सुधर्मा ! तुम्हारा मानना है कि जीव जैसा इस भव में होता है वैसा ही परभव में होता है । कारणसरिसं कज्जं, बीयस्सेवंकुरो त्ति मण्णंतो । इहभवसरिसं सव्वं, जमवेसि परे वि तमजुत्तं ॥ ( विभा १७७३ ) तुम यह मानते हो कि कारण जैसा ही कार्य होता है, जैसा बीज वैसा अंकुर । इसी प्रकार इस जन्म जैसा ही अगला जन्म होता है, किन्तु तुम्हारा यह मत संगत नहीं है । जाइ सरो सिंगाओ, भूतणओ सासवाणुलित्ताओ । संजायइ गोलोमाऽविलोमसंजोगओ दुव्वा ॥ २३६ ( विभा १७७४) गणधर मंडित सींग से सर वनस्पति उत्पन्न होती है । उस वनस्पति पर यदि सरसों का लेप कर दिया जाये तो उससे भूतृण ( एक प्रकार की घास) उत्पन्न होती है । गाय एवं बकरी के बालों से दूब उत्पन्न होती है । इति रुक्खायुव्वेदे, जोणिविहाणे य विसरिसेहितो । दीसइ जम्हा जम्मं, सुहम्म ! तो नायमेगंतो ॥ ( विभा १७७५ ) वृक्षायुर्वेद और योनिप्राभृत में यह सिद्धांत प्रतिपादित है कि कार्य कारण से विलक्षण भी हो सकता है । इसलिए सुधर्मा ! तुम्हारी उपर्युक्त मान्यता एकान्ततः सम्यक् नहीं है । अहव जउ च्चिय बीयाणुरुवजम्मं मयं तओ चेव । जीवं गिण्ह भवाओ, भवंतरे चित्तपरिणामं ॥ ( विभा १७७६ ) यदि तुम कारण के अनुरूप कार्य मानते हो तो भी तुम्हें जीव को वर्तमान जन्म से अगले जन्म में भिन्न मानना होगा। क्योंकि भवांकुर का बीज मनुष्य नहीं, कर्म है ? वह विचित्र प्रकार का होता है । गणधर मंडित fi for बंध मोक्खा, अत्थि ण अत्थित्ति संसओ तुज्भं । ( आवनि ६२० ) तं मण्णसि जइ बंधो, जोगो जीवस्स कम्मुणा समयं । पुव्वं पच्छा जीवो, कम्मं व समं व ते होज्जा ॥ ( विभा १८०५ ) मंडित ! बंध और मोक्ष है या नहीं - तुम्हारे मन में यह संदेह है । तुम्हारा मानना है कि जीव के साथ कर्म का संयोग ही यदि बंध है तो पहले जीव और पश्चात् कर्म उत्पन्न हुआ अथवा पहले कर्म और पश्चात् जीव उत्पन्न हुआ अथवा दोनों एक साथ उत्पन्न हुए - यह प्रश्न अनुत्तरित इसलिए न बन्ध है और न मोक्ष | है, संताणोऽणाईओ, परोप्परं हेउ हेउभावाओ । देहस्स य कम्मस्स य, मंडिय ! बीयंकुराणं व ॥ ( विभा १८१३) संतति अनादि है । परस्पर कार्य - मंडित ! शरीर और कर्म की क्योंकि इनमें बीज और अंकुर के समान कारण भाव है । Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणधर मेतार्य २३७ गणधर अस्थि स देहो जो, कम्मकारणं जो य कज्जमण्णस्स । तुम्हारे इस मत के अनुसार अत्यन्त दुःखी जो कम्मं च देहकारणमत्थि य जं कज्जमण्णस्स ।। मनुष्य और तिथंच हैं, वे ही नारक हैं । परन्तु यह अभि (विभा १८१४) मत समीचीन नहीं है। जैसे देवों में प्रकृष्ट सुख होता है, शरीर से कर्म और कर्म से शरीर की उत्पत्ति का वैसे ही नरक में प्रकृष्ट दुःख होता है। यदि तुम प्रकृष्ट क्रम भी अनादिकाल से चला आ रहा है । इसलिए शरीर सूख वाले देवों को स्वीकार करते हो तो प्रकृष्ट और कर्म की संतति भी अनादि है। दुःख वाले नैरयिकों को क्यों नहीं स्वीकार करते? तो कि जीव-नहाण व, अह जोगो कंचणोवलाणं व? गणधर अचलभ्राता जीवस्स य कम्मरस य, भण्णइ विहो वि न विरुद्धो । कि मन्नि पुण्णपावं, अत्थि न अत्थित्ति संसओ तुझं । (विभा १८२०) क्या जीव और कर्म का संयोग जीव और आकाश (आवनि ६३२) के समान अनादि अनन्त है अथवा सोने और मिट्टी के मण्ण सि पुण्णं पावं, साहारणमहव दो वि भिन्नाई। होज्ज न वा कम्म चिय, सभावओ भवपवंचोऽयं ।। समान अनादि सात है ? जीव में दोनों प्रकार का संयोग (विभा १९०८) घटित हो सकता है। इसमें कोई विरोध नहीं है । अनादि सांत संयोग की अवस्था में ही मोक्ष संभव बनता है। अचलभ्राता ! पुण्य और पाप है अथवा नहीं, तुम्हारे मन में यह संदेह है ? गणधर मौर्यपुत्र १. केवल पुण्य है, पाप नहीं है । कि मन्नसि संति देवा उयाह न सन्तीति संसओ तुझं । २. केवल पाप है, पुण्य नहीं है। (आवनि ६२४) ३. पुण्य और पाप साधारण है-एक ही है। जइ णारगा पवन्ना, पगिट्ठपावफलभोइणो तेणं । ४. पुण्य और पाप दोनों स्वतन्त्र हैं। सुबहुगपुण्णफलभुजो, पवज्जियव्वा सुरगणा वि ॥ ५ पूण्य जैसा कोई कर्म नहीं है । सुख और दुःख (विभा १८७४) स्वभाव से ही होता है। मौर्यपुत्र ! देवता है अथवा नहीं, तुम्हारे मन में सुहदुक्खाणं कारणमणुरूवं कज्जभावओऽवस्सं । यह संदेह है ? परमाणवो घडस्स व, कारणमिह पुण्णपावाई ॥ यदि तुम प्रकृष्ट पाप का फल भोगने वाले नरकों (विभा १९२१) को स्वीकार करते हो तो तुम्हें प्रकृष्ट पुण्य का भोग सुख और दुःख-दोनों कार्य हैं। वे कारण के करने वाले देवों को भी स्वीकार करना चाहिए। अनुरूप ही होते हैं। जैसे घट का कारण परमाणुस्कंध गणधर अकम्पित है, वैसे ही सुख-दुःख के कारण पुण्य-पाप हैं। कि मण्णे रइया, अत्थि ण अत्थि त्ति संसओ तुझं । गणधर मेतार्य (आवनि ६२८) कि मण्णे परलोगो अस्थि णस्थित्ति संसओ तुझं। पावफलस्स पगिट्ठस्स, भोइणो कम्मओऽवसेस व्व । (आवनि ६३६) संति धुवं तेभिमया रइया अह मई होज्जा ॥ मन्नसि विणासि चेओ उप्पत्तिमदादिओ जहा कंभो। (विभा १८९९) नण एवं चिय साहणमविणासित्ते वि से सोम्म !|| अकम्पित ! नारक है अथवा नहीं, तुम्हारे मन में (विभा १९६१) यह संदेह है ? मेतार्य ! परलोक है अथवा नहीं, तुम्हारे मन में शेष कर्मों की भांति प्रकृष्ट पाप फल को भोगने वाले यह संदेह है ? नैरयिक होते हैं, यह तुम्हारा अभिमत है। मेतार्य ! तुम आत्मा को अनित्य मानते हो। अच्चत्थदुक्खिया जे, तिरियनरा णारग त्ति तेऽभिमया। तुम्हारा मत है जो उत्पत्तिधर्मा होता है, वह अनित्य होता तं ण जओ सुरसोक्खप्पगरिससरिसं ण तं दुक्खं ॥ है, जैसे घट । तुम अनित्य होने का जो साधन बता रहे (विभा १९००) हो, वही साधन नित्य होने का है। उत्पत्ति धर्म है। Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणधर २३८ आगम-रचना का प्रयोजन धर्म धर्मी में रहता है । इसलिए उत्पत्ति धर्म का जो वाली बीजबुद्धि के धारक होते हैं। उत्पाद, व्यय, आधार है, वह नित्य है। नित्य होता है, उसका पुन- ध्रौव्य-इस त्रिपदी का अवधारण कर वे सम्पूर्ण जन्म अवश्य होता है। द्वादशांगात्मक प्रवचन की रचना करते हैं। गौतमः चतुर्दशपूर्वधरः सर्वाक्षरसंन्निपाती सम्भिन्नगणधर प्रभास श्रोता: सकलप्रज्ञापनीयभावपरिज्ञानकुशल: प्रवचनस्य कि मण्णे निव्वाणं अत्थि णत्थित्ति संसओ तुझं । । प्रणेता सर्वज्ञदेशीय एव। (नन्दीमवृ प १०१) (आवनि ६४०) गणधर गौतम चतुर्दशपूर्वी, सर्वाक्षरसन्निपाती, पडिवज्ज मण्डिओ इव वियोगमिह कम्मजीवजोगस्स। संभिन्नश्रोतोलब्धिसम्पन्न, समस्त प्रज्ञापनीय भावों के तमणाइणो वि कंचण-धाऊण व णाण-किरियाहिं ॥ परिज्ञान में कुशल, प्रवचन-द्वादशांगी के प्रणेता और (विभा १९७७) सर्वज्ञ-तुल्य थे। प्रभास ! निर्वाण है अथवा नहीं, तुम्हारे मन में यह ४. गणधरों द्वारा आगम (द्वादशांग) रचना संदेह है ? तवनियमनाणरुक्खं, आरूढो केवली अमियनाणी । मंडितपुत्र की तरह तुम इस बात को स्वीकार करो तो मुयइ नाणबुद्धि, भवियजणविबोहणट्ठाए । कि जीव और कर्म का संयोग अनादि है, फिर भी तं बुद्धिमएण पडेण, गणहरा गिहिउं निरवसेसं । सम्यज्ञान और सम्यक्चारित्र के द्वारा उसका अन्त हो तित्थयरभासियाई, गंथंति तओ पवयणट्ठा ॥ सकता है, जैसे सोने और धातू के चिरकालिक संयोग का (आवनि ८९,९०) वियोग होता है। अनंतज्ञानसम्पन्न अर्हत् तप, संयम और ज्ञानरूपी ३. गणधरों के अतिशेष वृक्ष पर आरूढ़ होकर भव्यजनों को जागृत करने के लिए सव्वे य माहणा जच्चा, सव्वे अज्झावया विऊ ।। ज्ञान की वृष्टि करते हैं। गणधर उसी वृष्टि को बुद्धिसव्वे दुवालसंगी य, सवे चोद्दसपुग्विणो ।। रूपी पट में समग्रता से ग्रहण करते हैं। तीर्थंकर द्वारा परिणिव्व या गणहरा जीवते णायए णव जणा उ । प्ररूपित वाणी को वे शासनहित के लिए गुम्फित करते इंदभूई सहम्मो य रायगिहे निव्वए वीरे॥ हैं । मासं पाओवगया सव्वेऽवि य सव्वलद्धिसंपण्णा । ५. आगम-रचना का प्रयोजन वज्जरिसहसंघयणा समचउरसा य संठाणा ॥ चित्तुं च सुहं सुहगणणधारणा दाउं पुच्छिउं चेव । (आवनि ६५७-६५९) एएहि कारणेहिं जीयंति कयं गणहरेहिं । सभी गणधर जाति से ब्राह्मण थे। गृहस्थ पर्याय में (आवनि ९१) वे सभी विद्वान् अध्यापक (उपाध्याय) थे। दीक्षित होने प्रयोजन के छह बिन्दुपर सबने द्वादशांग और चौदह पूर्व ग्रहण किये। १. पद, वाक्य, प्रकरण, अध्याय, प्राभृत आदि के रूप में सब गणधर आमीषधि आदि सब लब्धियों से व्यवस्थित होने से श्रुत का सुखपूर्वक ग्रहण होता है। सम्पन्न थे। उनके वज्रऋषभनाराच संहनन और समचतु- २. सुगमता से गणना की जा सकती है। रस्र संस्थान था। सबने प्रायोपगमन अनशन कर निर्वाण ३. दीर्घकाल तक उसकी स्मृति बनी रह सकती है। प्राप्त किया। ४. ज्ञान देने की सुविधा होसी है। गणधर इन्द्रभूति और सुधर्मा वीरनिर्वाण के पश्चात् ५. प्रश्न पूछने की सुविधा होती है। निर्वाण को प्राप्त हए। शेष नौ गणधर भगवान् महावीर ६. द्वादशांगी की अविच्छिन्नता रह सकती है। की उपस्थिति में ही मुक्त हो गये । सव्वेहिं गणहरेहिं जीयं ति सुयं जओ न वोच्छिन्नं । बीजबुद्धिः सर्वोत्तमा प्रकर्षप्राप्ता भगवतां गणभृतां, गणहरमज्जाया वा जीयं सव्वाण चिन्नं वा ।। ते हि उत्पादादिपदत्रयमवधार्य सकलमपि द्वादशाङ्गात्मकं (विभा १११७) प्रवचनमभिसूत्रयन्ति । (नन्दीमवृ प १०६) गणधरों द्वारा आगम-रचना की जाती है, इसके तीन सभी गणधर सर्वोत्तम और चरम शिखर तक पहुंचने प्रयोजन हैं, जो जीत शब्द में निहित हैं - Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणधर • जीत - श्रुत की अव्यवच्छित्ति । ० जीत - मर्यादा का अनुपालन । • जीत - आचार-परम्परा का निर्वहन अर्थात् श्रुतरचना का आचार सभी गणधरों द्वारा आचीर्ण है । ६. गणधर : धर्मदेशना २३९ afarओ सीसगुणदीवणा पच्चओ उभओऽवि । सीसायरियकमोऽवि य गणहरकहणे गुणा होंति ॥ तित्थग पढमपोरुसीए धम्मं ताव कहेति जाव पढमपोरुसी-उग्घाडवेला .......उवर पोरुसीए उट्टिते तित्थकरे गोयमसामी अन्नो वा गणहरो बितियपोरुसीए धम्मं कहेति । ( आवनि ५८८ चू १ पृ३३२, ३३३ ) तीर्थंकर जब प्रथम पौरुषी की संपन्नता तक धर्मदेशना देकर उठ जाते हैं, तब दूसरी पौरुषी में गौतम गणधर अथवा अन्य गणधर धर्मोपदेश करते हैं । उनकी देशना के ये प्रयोजन हैं ० तीर्थंकर के शारीरिक श्रम का अपनयन । ० शिष्य के गुणों का उद्दीपन । ● तत्त्वनिरूपण की अविसंवादिता से श्रोतृ-गण में गुरुशिष्य के प्रति आस्था — विश्वास की उत्पत्ति । • आचार्य और शिष्य की शालीन परम्परा का संवहन | ७. गण और गणधर एक्कारस उ गणहरा जिणस्स वीरस्स सेसयाणं तु । जावइआ जस्स गणा तावइआ गणहरा तस्स ॥ ( आवनि २६९ ) जिस तीर्थंकर के जितने गण होते हैं, उतने ही गणधर होते हैं । किन्तु तीर्थंकर महावीर के नौ गण और ग्यारह गणधर थे । अकंपियअयलभातीणं एगो गणो । मेयज्जपभासाणं एगो गणो | एवं णव गणा होंति । ( आवचू १ पृ ३३७) गणधर अकंपित और अचल भ्राता- इन दोनों का एक गण था । गणधर मेतार्य और प्रभास- इन दोनों का एक गण था । ८. सुधर्मा और शिष्य परम्परा ..... तित्थं च सुहम्माओ णिरवच्चा गणहरा सेसा ॥ ( आवनि ५९५ ) वर्तमान तीर्थ में जो शिष्य-परम्परा है, वह गणधर आर्य सुधर्मा की है। शेष गणधर निरपत्य-शिष्य परम्परा से रहित हैं । गुणस्थान सामी जस्स जत्तिओ गणो तस्स तत्तियं अणुजाणति । आतीए सुहम्मं करेति, तस्स महल्लं आउयं, एत्तो तित्थं होहिति त्ति । (आवचू १ पृ ३३७) गणधर सुधर्मा दीर्घायु हैं, इनसे तीर्थं प्रवर्तित होगायह जानते हुए भगवान् महावीर ने सुधर्मा को संघ का दायित्व सौंपा। गणना -- संख्या प्रमाण का सातवां भेद | (द्र. संख्या) (द्र. काल ) गणिपिटक - द्वादशांगी, आचार्य का सर्वस्व । गणित - गणना | ( द्र. आगम ) गति - एक भव से दूसरे भव में गमन । जेणुवगहिओ वच्चइ भवंतरं जच्चिरेण कालेन । एसो खलु गइकाओ सतेयगं कम्मगसरीरं ॥ ( आवनि १४३५ ) चतसृष्वपि गतिषु नारकतिर्यग्नरामरलक्षणासु । ( आवहावृ २ पृ १८५ ) तेजस और कार्मण शरीर से युक्त जीव एक भव से दूसरे भव में जाता है, उसे गति कहते हैं। इस अन्तराल गति से जीव जहां जाकर उत्पन्न होता है, वह भी 'गति' शब्द से व्यवहृत होती है । वे गतियां चार हैं -नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देव । (द्र. संबद्ध नाम ) गमित - सदृश पाठ वाला श्रुत । करना । (द्र. श्रुतज्ञान) गर्हा - गुरु साक्षी से अपने अकृत्य की निन्दा (द्र आलोचना ) गीत - दशांश लक्षणों से लक्षित स्वरसन्निवेश, पद, ताल एवं मार्ग-इन चार अंगों से युक्त गान । (द्र. स्वर मण्डल) गुणस्थान - कर्म विशोधि की मार्गणा । आध्यात्मिक विकासक्रम का सोपान । १. गुणस्थान के प्रकार २. मिथ्यादृष्टि गुणस्थान ३. सास्वादन सम्यग्दृष्टि * - सास्वादन सम्यक्त्व (द्र. सम्यक्त्व) ४. सम्यग - मिथ्यादृष्टि Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान ५. अविरत सम्यग्दृष्टि * सम्यक्त्व का स्वरूप ६. विरताविरत ( देशविरत ) * श्रावक के देशविरतं गुणस्थान ७. प्रमत्तसंयत ८. अप्रमत्तसंयत ९. निवृत्तिबादर १०. अनिवृत्तिबादर ११. सूक्ष्मसम्पराय * सूक्ष्मसम्पराय चारित्र क्षपकश्रेणि: अकलेवर श्रेणि क्षपकश्रेणि के अधिकारी श्रेणि-आरोहण : बद्धायु-अबद्धायु १५. उपशांतमोह गुणस्थान १६. क्षीणमोह गुणस्थान १७. सयोगी केवली गुणस्थान १८. अयोगकेवली गुणस्थान * योगनिरोध की प्रक्रिया १९. शैलेशी अवस्था : कर्मक्षय २०. गुणस्थान और कर्मबंध ( व्र. सम्यक्त्व ) १२. श्रेणि आरोहण कब ? १३. उपशम श्रेणि: मोह उपशम की प्रक्रिया उपशमश्रेणि के अधिकारी उपशमश्रेणि और गति १४. क्षपकश्रेणि: कर्म क्षय की प्रक्रिया * कर्म के प्रकार गुणस्थान के चौदह प्रकार हैं१. मिथ्यादृष्टि २. सास्वादन सम्यग्दृष्टि ३. सम्यग्मध्यादृष्टि ४. अविरत सम्यग्दृष्टि ५. विरताविरत ( द्र. श्रावक ) १. गुणस्थान के प्रकार मिच्छादिट्ठी सासायणे य तह सम्म मिच्छदिट्ठी य । अविरयसम्म हिट्टी विरयाविरए पमत्ते य ॥ तत्तो य अप्पमत्तो नियट्टि अनियट्टिबायरे सुहुमे । उवसंतखीणमोहे होइ सजोगी अजोगी य ॥ ( आवहावृ २ पृ १०७ ) २. मिथ्यादृष्टि गुणस्थान मिथ्यादर्शनं मोहकर्मोदय इत्यर्थः । सो तिविधोअभिनिवेसेण मतिमोहेण संपवेण वा । तत्थ उदाहरणानि जथासंख्यं गोट्ठामा हिलो जमाली सावगोत्ति । ( आवचू २ पृ७९) मोहकर्म का उदय मिथ्यादर्शन ( मिथ्यात्व ) कहलाता (द्र. चारित्र) है। उसके तीन प्रकार हैं- अभिनिवेश, मतिमोह और संप्लवन । गोष्ठामा हिल, जमालि और श्रावक - ये क्रमशः इनके उदाहरण हैं । मिथ्यादृष्टि प्राणी का गुणस्थान मिथ्यादृष्टि गुणस्थान कहलाता है । मिच्छादिट्टी दुविहो, तं जहा - अभिग्गहीतमिच्छfat अभिग्गहीतमिच्छदिट्ठी । तत्थ अभिग्गहीतमिच्छ( द्र. कर्म ) दिट्ठी संखआजी वयवुड्ढवसणतावसपाणामनिण्हगबोडियादी । अभिग्गहीतमिच्छदिट्ठी एगिदियबेइं दियतेइंदियचउरिदिय, जेसि च पंचिदियाणं जीवाणं न कत्थइ दंसणे अभिप्पायो । ( आवचू २ पृ १३३) मिथ्यादृष्टि के दो प्रकार हैं१. अभिग्रहिक मिथ्यादृष्टि -सांख्य, आजीवक, वृद्धवास, तापस, निह्नव, बोटिक आदि । (प्र. केवली ) २४० ६. प्रमत्तसंयत ७. अप्रमत्तसंयत ८. निवृत्तिबादर ९. अनिवृत्तिबार १०. सूक्ष्मसंपराय ११. उपशांतमोह १२. क्षीणमोह सास्वादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान १३. सयोगकेवली १४. अयोगकेवली २. अनाभिग्रहिक मिध्यादृष्टि - एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, और दर्शन के अभिप्राय से शून्य पंचेन्द्रिय जीव । ३. सास्वादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान उवसमसम्मत्ताओ चयओ मिच्छं अपावमाणस्स । सासायणसम्मत्तं तयंतरालम्मि छावलियं ॥ ( विभा ५३१ ) सासायणो जस्स ईसि जिणवयणई । अहव जो जीवो उवसमसंमत्ताओ मिच्छत्तं संकामितुकामो | जथा वा कोई पुरसो पुप्फफलसमिद्धाओ महदुमाओ पमाददोसेण पवमाणो जाव धरणितलं न पावति ताव अंतराले वट्टति । एवं जीवोवि संमत्तमूलाओ जिणवयणकल्परुक्खाओ परिवयमाणो मिच्छत्तं संकामितुकामो एत्थ छावलियमेत्ते काले वट्टमाणो सासायणो भवति । अहवा संमत्ते सस्सादो सायणो । ( आवचू २ पृ १३३) Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमत्तसंयत गुणस्थान वह जिसकी जिनप्रवचन में अत्यल्प रुचि है, सास्वादन सम्यग्दृष्टि है । अथवा उपशम सम्यक्त्व से मिथ्यात्व की ओर जाने वाले जीव के संक्रमणकाल में सास्वादन सम्यक्त्व होता है । इसका कालमान है - छह आवलिका । यह सम्यक्त्व उस व्यक्ति के समान है, जो वृक्ष से गिर रहा है पर अभी तक भूमि तक नहीं पहुंचा है, अन्तरालवर्ती है । इस सम्यक्त्व वाले प्राणी का गुणस्थान सास्वादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान कहलाता है । ४. सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान सम्मामिच्छादिट्ठी नियमा भवत्यपंचिदियसन्निपज्ज - त्तगसरीरो भवति । पढमं चेव मिच्छद्दिट्ठी होतो पसत्थेसु अज्भवसाणे वट्टमाणो... 'मिच्छत्तादिभावोवचिते मिच्छत्तपोग्गले सुभज्झवसाणपयोगेण तिहा करेति, तं जहा - मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तं सम्मत्तंति । एत्थ जाहे जीवो मिच्छत्तोदयातो विसुज्झिऊणं सम्मामिच्छत्तोदयं परिणमति, ताहे से जिणवयणे सद्धासद्धदंसणी सम्मामिच्छदिट्ठी अंतोमुहुत्तकालो भवति त्ति । ततो परं सम्मत्तं वा मिच्छत्तं वा परिणमति । ( आवचू २ पृ १३३, १३४) सम्यग्मिथ्यादृष्टि निश्चित रूप से भवस्थ पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय होता है । वह पहले मिथ्यादृष्टि होता है, फिर शुभ अध्यवसायों के प्रयोग से उपचित मिथ्यात्व - पुदग्लों को तीन भागों में विभक्त करता है - मिथ्यात्व, सम्यक मिथ्यात्व और सम्यक्त्व | जब जीव मिथ्यात्व पुद्गलों को विशुद्ध कर मिथ्यात्व के उदय को सम्यक् मिथ्यात्व के उदय रूप में परिणत करता है, तब वह जिनवचनों पर श्रद्धा और अश्रद्धा करता है - यह सम्यक्मिथ्यादृष्टि (मिश्र) गुणस्थान है । इसका कालमान है अन्तर्मुहूर्त्त । उसके पश्चात् वह सम्यक्त्व अथवा मिथ्यात्व को प्राप्त करता है । येषामेकस्मिन्नपि च वस्तुनि तत्पर्याये वा मतिदौर्बल्यादिना एकान्तेन सम्यक्परिज्ञान मिथ्याज्ञानाभावतो न सम्यक् श्रद्धानं नाप्येकान्ततो विप्रतिपत्तिः ते सम्यग् - मिथ्यादृष्टयः । ( नन्दीम प १०५, १०६ ) जिनमें मतिदौर्बल्य के कारण एक ही वस्तु अथवा उसके पर्याय में एकांत रूप से सम्यक् ज्ञान और मिथ्या ज्ञान का अभाव है--न एकांततः सम्यक् श्रद्धा है और न एकान्ततः विप्रतिपत्ति है, वे सम्यग् मिध्यादृष्टि हैं । २४१ ५. अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान अविरतसम्म दिट्ठी निरयतिरियमणुयदेवगतीसु महव्वताणुव्वतविरती न भवति, खओवसमखाइयरोइत - दंसणी भवति । ( आवचू २ पृ १३४ ) अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान के अधिकारी नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव- चारों गति के जीव हो सकते । इस चतुर्थ गुणस्थानवर्ती जीव महाव्रत या अणुव्रत को स्वीकार नहीं कर सकते । वे क्षायोपशमिक या क्षायिक सम्यक्त्व वाले होते हैं । ६. विरताविरत गुणस्थान विरताविरतो मणुयपंचेंदियतिरियएसु देशमूलुत्तरगुणपच्चक्खाणी नियमा संनिपंचेंदियपज्जत्तसरीरो भवति । ( आवचू २ पृ १३४ ) विरताविरत गुणस्थान के अधिकारी मनुष्य और तिर्यंच पंचेन्द्रिय हैं । ये आंशिक रूप में मूलगुण और उत्तरगुण संबंधी प्रत्याख्यान करते हैं । ये नियमतः संज्ञी पंचेन्द्रिय और पर्याप्त ही होते हैं । ७. प्रमत्तसंयत गुणस्थान गुणस्थान पत्तो दुविहो भवति - कसायपमत्तो जोगपमत्तो य । ( आवचू २ पृ १३४) प्रमत्त के दो प्रकार हैं- कषायप्रमत्त और योग प्रमत्त । कषायप्रमत्त कसायपत्ती कोहकसायवसट्टो जाव लोभकसायवसट्टो त्ति, एस कसायपमत्तो । ( आवचू २ पृ १३४) लोभ के वशीभूत है, जो क्रोध, मान, माया और वह कषाय- प्रमत्त है | योगप्रमत्त जोग पत्तो मणदुष्पणिहाणेणं पणिहाणं कायदुपणिहाणेणं, तथा इंदियेसु सद्दाणुवाती रूवाणुवाती .....तथा इरियासमितादीसु पंचमुवि असमितो भवति, तहा आहारउवहिवस हिमादीणि उग्गमउप्पादणे सणाहि अणुवउत्तो गेहति । ( आवचू २ पृ १३४) जिसके मन, वाणी और काया के प्रणिधान दूषित हैं, वह योगप्रमत्त है । वह शब्द, रूप आदि इन्द्रियविषयों में आसक्त होता है, ईर्ष्या आदि पांच समितियों से असमित होता है । वह उद्गम उत्पाद - एषणा से शुद्ध आहार, उपधि और स्थान के ग्रहण में जागरूक नहीं होता । Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान २४२ सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान ८. अप्रमत्तसंयत गुणस्थान अज्झवसाणदाणेसु वट्टमाणो मोहणिज्जे कंमे खवेति उवअप्पमत्तो दुविहो-कसायअप्पमत्तो जोगअप्पमत्तो य।। समेति वा जाव हासरतिअरतिसोगभयदुगंछाणं उदयतो (आवच २११३४) छेदो न भवति ताव सो भगवं अणगारो अंतोमहत्तकालं अप्रमत्त के दो प्रकार हैं-कषाय-अप्रमत्त और योग- नियट्टित्ति भवति । (आव २ पृ १३५) अप्रमत्त। जब जीव मोहनीय कर्म का क्षय अथवा उपशम कषाय-अप्रमत्त करता है तब अप्रमत्तसंयत प्रशस्ततर अध्यवसान स्थानों कषायअप्पमत्तो खीणकसाओ।"कहं तस्स अप्पमत्तत्तं में वर्तमान होकर मोहनीय कर्म का क्षय करता है अथवा भवति ? कोहोदय निरोहो वा उदयपत्तस्स वा विफली- उपशमन करता है और जब तक हास्य, रति, अरति, करणं। (आवचू २ पृ१३४) शोक, भय, जुगुप्सा के उदय का उच्छेद नहीं होता शाक, भय, जुगुप्सा क उ जिसका कषाय क्षीण है, वह कषाय अप्रमत्त है। तब तक वह अनगार अन्तर्मुहूर्त काल तक निवृत्तिबादर क्रोध के उदय का निरोध अथवा उदयप्राप्त क्रोध का गुणस्थान में होता है। विफलीकरण-यही उसकी अप्रमत्तता है । १०. अनिवृत्तिबादर गुणस्थान योग-अप्रमत्त अनियट्टी नाम जदा जीवो नियट्टिस्स उवरि पसत्थजोगअप्पमत्तो मणवयणकायजोगेहिं तिहिं व गत्तो। तरेसु अज्झवसाणट्ठाणेसु वट्टमाणो हासच्छक्कोदये अहवा अकूसलमण निरोहो कसलमणउदीरणं वा. मणसो वोच्छिण्णे जाव मायाउदयवोच्छेदो न भवति एत्थ वा एगत्तीभावकरणं । एवं वइएवि, एवं काएवि। तहा वट्टमाणो अणगारो अंतोमुत्तकालो अणियट्टियत्ति भवति । इंदिएस सोइंदियविसयपयानिरोहो वा सोइंदियविसयपत्तेस् (आवचू २ पृ १३५) वा अत्थेसु रागदोसविणिग्गहो। जब जीव बादर कषायों से निवृत्त होकर आगे (आव २ पृ १३४,१३५) प्रशस्ततर अध्यवसायस्थानों में उपयुक्त होता है और मन, वचन और काया-जो इन तीनों योगों से गुप्त हास्यषट्क का उदय व्युच्छिन्न हो जाने पर जब तक है, वह योग-अप्रमत्त है। माया के उदय का व्यवच्छेद नहीं होता, तब तक उसमें जो अकुशल मन-वचन-काययोग का निरोध वर्तमान अनगार अन्तर्महर्तकाल तक अनिवत्तिबादर (निवर्तन) तथा कुशल मन-वचन-काययोग की उदीरणा गुणस्थान में होता है। (प्रवर्तन) करता है, वह योग-अप्रमत्त है। ११. सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान जो मन को एकाग्र करता है, वचन और काया को सुहमसंपराइयं कम्मं जो बज्झति सो सुहमसंपरागो। स्थिर करता है, वह योग-अप्रमत्त है। सुहमं नाम थोवं । आउयमोहणिज्जवज्जाओ छ कम्मपगजो इन्द्रियविषयों की सावध प्रवृत्ति से निवर्तन डीओ सिढिलबंधणबद्धाओ अप्पकालट्ठितिकाओ मंदाणुतथा प्राप्त विषयों में रागद्वेष का निग्रह करता है, वह भावाओ अप्पप्पदेसग्गाओ सुहमसंपरायस्स बझंति । एवं योग-अप्रमत्त है। थोवं संपराइयकम्मं तस्स बज्झति । सुहुमो रागो वा जस्स अप्रमत्त कौन? सो सुहमसंपरागो । सो य असंखेज्जसमइओ अंतोमुहुत्तिओ अप्पमत्तसंजता जिणकप्पिया परिहारविसुद्धिया विसुज्झमाणपरिणामो वा पडिपतमाणपरिणामो वा अहालंदिया पडिमापडिवण्णगा य, एते सततोवयोगोव- भवतित्ति । (आवचू २ पृ १३५) उत्तत्तणतो अप्पमत्ता। (नन्दीचू पृ २२) सूक्ष्मसांपरायिक कर्मबंध जिसमें होता है, वह सूक्ष्मजो सतत उपयोगशील जागरूक रहते हैं, वे अप्रमत्त संपराय गुणस्थान है। सूक्ष्म का अर्थ है अल्प । वह हैं। अप्रमत्तसंयत, जिनकल्पिक, परिहारविशद्धिक, यथा- अल्प इसलिए कि आयुष्य और मोहनीय को छोड़कर लंदक और प्रतिमाप्रतिपन्न अनगार अप्रमत्त होते हैं। शेष छह कर्म प्रकृतियों का बंध शिथिल, अल्पकालस्थिति ६. निवृत्तिबादर गुणस्थान । वाला, मंद अनुभाव वाला तथा अल्प प्रदेशाग्र वाला नियट्टी- जदा जीवो मोहणिज्जं कम खवेति वा होता है। इस प्रकार उसमें अल्प सांपरायिक कर्मबंध उवसमेति वा तदा अप्पमत्तसंजतस्स अणंतरं पसत्थतरेस होता है। Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशम श्रेणी : मोह-उपशम की प्रक्रिया २४३ गुणस्थान अथवा इसका अर्थ है जिसमें सूक्ष्म राग की स्त्रीवेद विद्यमानता होती है, वह सूक्ष्म सम्पराय है। वह असंख्येय हास्यषट्क समय वाले अन्तर्मुहूर्त की स्थितिवाला, विशुध्यमान पुरुषवेद परिणाम वाला अथवा प्रतिपाति परिणाम वाला होता अप्रत्याख्यान-प्रत्याख्यान क्रोध-युगपत संज्वलन क्रोध निवृत्ति बादर, अनिवृत्तिबादर और सूक्ष्मसम्पराय अप्रत्याख्यान-प्रत्याख्यान मान-युगपत दसणमोहक्खवणे नियट्टि अनियट्रिबायरो परओ। संज्वलन मान जाव उ सेसो संजलणलोभसंखेज्जभागो त्ति । अप्रत्याख्यान-प्रत्याख्यान माया-युगपत् तदसंखेज्जइभागं समए समए खवेइ एक्केक्कं । संज्वलन माया तत्थ य सुहुम सरागो लोभाणू जावमेक्को वि॥ अप्रत्याख्यान.प्रत्याख्यान लोभ- युगपत् (विभा १३३०,१३३१) संज्वलन लोभ दर्शन मोह के क्षय होने पर निवृत्ति बादर गुणस्थान विशेष-श्रेणी प्रारम्भ करने वाला यदि नपंसक हो तो पहले स्त्रीवेद फिर पुरुष वेद और अन्त में नपुंसक प्राप्त होता है। उसके बाद अप्रत्याख्यान कषाय से लेकर वेद का उपशमन करता है। यदि श्रेणी प्रारम्भ करने जब तक संज्वलन लोभ के संख्येय भाग को क्षय करता है, तब तक अनिवृत्ति बादर गुणस्थान होता है। वाली स्त्री हो तो पहले नपुंसक वेद फिर पुरुषवेद और अन्त में स्त्रीवेद का उपशमन करती है। उस संख्येय भाग के चरम खण्ड के असंख्येय खण्ड करता है। उन असंख्येय खण्डों को एक-एक समय में उपशम श्रेणी के अधिकारी क्षीण करता है। जब तक लोभ का एक अंश रहता है, उवसामगसेढीए पट्टवओ अप्पमत्तविरओ उ। तब तक सूक्ष्म सम्पराय गुणस्थान होता है। पज्जवसाणे सो वा होइ पमत्तो अविर ओ वा ।। १२. श्रेणि-आरोहण कब ? अन्ने भणंति अविरय-देस-पमत्ता-उपमत्तविरयाणं । सम्मत्तम्मि उ लद्धे पलियपहत्तेण सावओ होज्जा । अन्नयरो पडिवज्जइ सणसमणम्मि उ नियत्री । चरणो-वसम-खयाणं सागर संखंतरा होति ।। (विभा १२८५,१२८६) (विभा १२२२) उपशम श्रेणि में आरोहण करते समय जीव अप्रमत्त सम्यक्त्व के प्राप्तिकाल में मोहकर्म की जितनी संयत होता है। उपशम श्रेणि से गिरने पर वह पुनः स्थिति अवशिष्ट रहती है, उस स्थिति में से पल्योपम प्रमत्त संयत अथवा अविरत हो जाता है। पृथक्त्व (दो से नौ पल्योपम) स्थितिखंड के क्षय होने पर कुछ आचार्य ऐसा मानते हैं कि अविरत, देशविरत, जीव देशविरति को प्राप्त करता है। संख्यात सागरोपम प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत- इनमें से कोई भी जीव के क्षीण होने पर सर्वविरति प्राप्त करता है। उसमें से उपशम श्रेणि पर आरोहण कर सकता है। संख्यात सागरोपम क्षीण होने पर उपशम श्रेणी, कार्मग्रन्थिकाभिप्रायेण तु प्रतिपतितोऽसौ मिथ्याउसमें से संख्यात सागरोपम क्षीण होने पर क्षपक श्रेणी दृष्टिगुणस्थानकमपि यावद् गच्छति । प्राप्त करता है। (विभामवृ पृ ४८२) १३. उपशम श्रेणी : मोह-उपशम की प्रक्रिया कर्म ग्रन्थ की मान्यता है- उपशम श्रेणि से गिरने अणदंसनपुंसित्थी वेयछक्कं च पुरुसवेयं च । पर वह मिथ्यादृष्टि गुणस्थान तक भी चला जाता है। दो दो एगंतरिए सरिसे सरिसं उवसमेइ ।। उपशम श्रेणी और गति (आवनि ११६) बद्धाऊ पडिवन्नो सेढिगओ वा पसंतमोहो वा । मोहकर्म की प्रकृतियों के उपशम का क्रम जइ कुणइ कोइ कालं वच्चइ तोऽणुत्तरसुरेसु ॥ अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क- युगपत् अनिबद्धाऊ होउं पसंतमोहो मुहत्तमेत्तद्धं । दर्शनत्रिक- युगपत् उइयकसायो नियमा नियत्तए सेढिपडिलोमं ।। नपुंसकवेद (विभा १३०४,१३०५) Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान -२४४ क्षपक श्रेणी : कर्मक्षय की प्रक्रिया बद्घायुष्क कोई जीव उपशमश्रेणी का आरोहण करता है, वह श्रेणि के मध्यवर्ती गुणस्थानों में अथवा उपशांतमोह की अवस्था में यदि काल करता है तो अनुत्तर विमान में पैदा होता है। अबद्धायुष्क जीव उपशांतमोह गुणस्थान में अन्तमहत रहकर कषाय का उदय होने पर नियमत: श्रेणी के प्रतिलोम क्रम से नीचे लौट आता है। तम्मि भवे निव्वाणं न लभइ उक्कोसओ व संसारं । पोग्गलपरियट्रद्धं देसोणं कोइ हिण्डेज्जा। (विभा १३०८) उपशमश्रेणि वाला उस भव में मोक्ष को प्राप्त नहीं होता। वह उत्कृष्टत: अर्धपुद्गलपरावर्तकाल तक संसार में भ्रमण कर सकता है। सैद्धान्तिकमतेन तस्मिन्नेव भवे क्षपकणि न करोति, तामन्तरेण च न सिध्यति । (विभामवृ पृ ४८९) सैद्धान्तिक मत के अनुसार उपशमश्रेणि वाला उसी भव में क्षपकश्रेणि नहीं ले सकता और उसके बिना मोक्ष को प्राप्त नहीं हो सकता। १४. क्षपकश्रेणी : कर्मक्षय की प्रक्रिया अण मिच्छ मीस सम्म अट्ठ नपुंसित्थीवेय छक्कं च । पुंवेयं च खवेइ कोहाइए य संजलणे ॥ गइ आणपुव्वी दो दो जाइनामं च जाव चरिंदी। आयावं उज्जोयं, थावरनामं च सहमं च ॥ साहारणमपज्जत्तं निद्दानिदं च पयलपयलं च । थीणं खवेइ ताहे अवसेसं जं च अट्टण्हं ।। (आवनि १२१-१२३) कर्म प्रकृतियों के क्षय का क्रम इस प्रकार हैअनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क । मिथ्यात्व-मिश्र-सम्यक्त्व मोह । अप्रत्याख्यान-प्रत्याख्यान कषाय अष्टक का युगपत् क्षय प्रारंभ। क्षयकालके मध्यम भाग में सोलह अन्य प्रकृतियों का क्षय - १. नरकगति नाम ७. त्रीन्द्रिय जाति नाम २. नरकानुपूर्वी नाम ८ चतुरिन्द्रिय जाति नाम ३. तिथंच गति नाम ९ आतप नाम ४. तिथंचानुपूर्वी नाम १०. उद्योत नाम ५ एकेन्द्रिय जाति नाम ११. स्थावर नाम ६. द्वीन्द्रिय जाति नाम १२. सूक्ष्म नाम १३. साधारण १५. प्रचलाप्रचला १४. निद्रानिद्रा १६. स्त्यानद्धि। अवशिष्ट अप्रत्याख्यान-प्रत्याख्यान कषाय अष्टक । नपुंसक वेद। स्त्रीवेद। हास्यषट्क (हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा)। पुरुषवेद । संज्वलन क्रोध । संज्वलन मान। संज्वलन माया। संज्वलन लोभ । वीसमिऊण नियंठो दोहि समएहि केवले सेसे । पढमे निई पयल नामस्स इमाओ पयडीओ ।। देवगइआणुपुव्वीविउव्विसंघयण पढमवज्जाइ । अन्नयरं संठाण तित्थयराहारनामं च ।। चरमे नाणावरणं पंचविहं दंसणचउवियप्पं । पंचविहमंतरायं खवइत्ता केवली होइ ।। (आवनि १२४-१२६) जीव छदमस्थकाल (क्षीणमोह गुणस्थान) के दो समय शेष रहने पर निद्रा आदि प्रकृतियों का क्षय करता है। प्रथम समय में क्षय होने वाली प्रकृतियांनिद्रा । प्रचला। देवगति नाम। देवानुपूर्वी नाम । वैक्रिय नाम । संहनन (वज्रऋषभनाराच को छोडकर)। संस्थान नाम। तीर्थंकर नाम । आहारक नाम । दूसरे समय (छद्मस्थ काल के अतिम समय) में क्षीण होने वाली प्रकृतियांज्ञानावरण पचक। दर्शनावरण चतुष्क। अंतराय पंचक। इन सब प्रकृतियों के क्षीण होने पर केवलज्ञान प्राप्त होता है। Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सयोगी केवली गुणस्थान क्षपकश्रेणी : अकलेवरश्रेणी कलेवरं — शरीरम् अविद्यमानं कडेवरमेषामकडेवराः सिद्धास्तेषां श्रेणिरिव श्रेणिर्ययोत्तरोत्तरशुभ परिणामप्राप्तिरूपया ते सिद्धिपदमारोहन्ति, क्षपकश्रेणिरित्यर्थः । ( उशावृप ३४१ ) सिद्ध अकलेवर होते हैं । उनकी श्रेणी की तरह जो श्रेणी है, जिससे उत्तरोत्तर शुभ परिणामों की प्राप्ति होती है और अन्त में सिद्धिपद में आरोहण होता है, उसको अकलेवरश्रेणी / क्षपकश्रेणी कहते हैं । क्षपकश्रेणी का अधिकारी पडिवत्तीए अविरय- देस - पमना - पमत्त - विरयाणं । अन्नयरो पडिवज्जइ सुद्धभाणोवगयचित्तो ॥ ( विभा १३१४) अविरत, देशविरत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत में से कोई भी शुद्ध ध्यानोपगत चित्त वाला जीव क्षपकश्रेणी का आरोहण कर सकता है । श्रेणि-आरोहण : बद्धायु-अबद्धायु बद्धाऊ पडिवन्नो नियमा खीणम्मि सत्तए ठाइ । इरोऽणुवरओ च्चिय सयलं सेढि समाणेइ ॥ ( विभा १३२५) श्रेणि-आरोहण के उपक्रम में जो जीव बद्धायु होता है, वह अनन्तानुबन्धीचतुष्क और दर्शन मोहत्रिक - इन सात प्रकृतियों के क्षीण होने पर नियमतः रुक जाता है । अद्धा यदि प्रकृतिक्षय के इस क्रम से उपरत न हो तो वह सम्पूर्ण क्षपकश्रेणि को प्राप्त करता है । बद्धाऊ पडिवन्नो पढमकसायक्खए जइ मरेज्जा । तो मिच्छत्तोदयओ विणिज्ज भुज्जो न खीणम्मि | तम्मि ओ जाइ दिव तप्परिणामो य सत्तए खीणे । उवरयपरिणामो पुण पच्छा नाणामइगइओ || ( विभा १३१६, १३१७ ) क्षपश्रेणि-प्रतिपत्ता बद्धायुष्क जीव अनन्तानुबन्धी चतुष्क क्षय होने पर यदि मरता है, तब उसके मिथ्यात्व उदय में रहता है, इसलिए वह अनन्तानुबन्धी चतुष्क का संग्रहण पुन: कर लेता है । अनन्तानुबन्धचतुष्क के क्षीण होने पर कोई मरता है, उसका परिणाम शुभ होता है तो वह देवलोक में उत्पन्न होता है । यदि परिणामधारा प्रतिपतित हो जाये तो वह मरकर अपनी मति के अनुसार किसी भी गति में उत्पन्न हो सकता है । दर्शनसप्तक के क्षीण होने २४५ गुणस्थान पर कोई मरता है तो वह भी देवलोक में उत्पन्न होता है । १५. उपशान्तमोह गुणस्थान उवसंतमोहो नाम जस्स अट्ठावीसतिविहंपि मोहणिज्जकम्ममुवसंतं अणुमेत्तंपि ण वेदेति, सो य देसपडिवातेन सव्वपडिवातेण वा नियमा पडिवतिस्सति । (आवचू २ पृ १३५) उपशान्तमोह गुणस्थान में जीव मोहकर्म की अट्ठावीस प्रकृतियों का सर्वथा उपशम करता है, किञ्चित् मात्र भी वेदन नहीं करता । उपशमश्रेणी में आरोहण करने वाले जीव का निश्चित ही देश प्रतिपात अथवा सर्व प्रतिपात होता है । १६. क्षीणमोह गुणस्थान खीणमोहो नाम जेण निरवसेसमिह कम्मणायकं मोहणिज्जं खवितं, सो य नियमा विसुज्झमाणपरिणामो अंतोतंतरेण केवलनाणी भवति । ( आवचू २ पृ १३५) क्षीणमोह गुणस्थान में जीव सम्पूर्ण मोहकर्म को नष्ट कर देता है । वह अपने विशुद्ध्यमान परिणाम से नियमतः अन्तर्मुहूर्त के बाद केवलज्ञान प्राप्त करता है । १७. सयोगी केवली गुणस्थान जोगा जस्स अत्थि केवलिस्स सो सजोगिकेवली । तस्स धम्मकथासीसाणुसासणवागरणनिमित्तं वयजोगो, ठाणणिसीदणतयट्टण उव्वत्तणपरियत्तणविहारादिनिमित्तं कायजोगो, मणजोगो य से परकारणं पडुच्च भज्जो । अणुत्तरोववातिदेवेहि अण्णेहिं वा देवमणुएहि मणसा पुच्छितो संतो ताहे तेसि संसयवोच्छेदनिमित्तं मणपायोगाई दव्वाइं गेहिऊण मणत्ताए परिणामेतूणं ताहे तेसि माणसा चैव वागरणं वागरेति । ततो तेसिं अणुत्तरादीणं ते भगवतो मणपोग्गले वियाणितूण संसयवोच्छेदो भवति त्ति । अण्णहा तस्स नत्थि मणेणं पयोयणं । तेणं तस्स सकारणं पडुच्च मणजोगो पडिसेहिज्जति । ( आवचू २ पृ १३५,१३६) योगी केवली के तीनों योग होते हैं । धर्मकथा करने, शिष्यों पर अनुशासन करने तथा प्रश्न आदि का व्याकरण करने के लिए वाक्योग होता है । खड़े होने, बैठने, सोने, उठने, पार्श्व परिवर्तन करने तथा विहार आदि करने के Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान निमित्त काययोग होता है । मनोयोग की उनमें भजना होती है - उनका मनोयोग दूसरों के लिए प्रवर्तित होता है । जब अनुत्तरोपपातिक देव तथा अन्य देव या मनुष्य अपने मन से उन केवलियों को कोई प्रश्न पूछते हैं तब वे केवल उनके संशय को मिटाने के लिए, प्रश्नों का समाधान देने के लिए मनःप्रायोग्य पुद्गलों को ग्रहण कर, उनको मन रूप में परिणत करते हैं और मन से ही उन प्रश्नों का उत्तर देते हैं । अनुत्तरोपपातिक आदि देव केवली के मन को जान लेते हैं, तब उनका संशय व्युच्छिन्न हो जाता है। यही केवली के मन का प्रयोजन है, अन्यथा उनका मन से क्या प्रयोजन ? इसलिए उनके मनोयोग का निषेध सकारण किया गया है । १८. अयोगी केवली गुणस्थान अजोगकेवली नाम सेलेसीं पडिवन्नओ । सो य तीहि जोगेहिं विरहितो जाव कखगघङ इच्चेताई पंचहस्सक्खराई उच्चारिज्जंति एवतियं कालमजोगिकेवली भविता सव्वकम्मविणिमुक्को सिद्धो भवति । ( आवचू २ पृ १३६ ) मन, वचन, काया - इन तीनों योगों का निरोध होते ही अयोगी - शैलेशी अवस्था प्राप्त हो जाती है, उसे अयोगी केवली गुणस्थान कहा जाता है। पांच हृस्व अक्षरों - क ख ग घ ङ का उच्चारण करने में जितना समय लगता है, उतने समय तक अयोगी अवस्था रहती है । उसके पश्चात् अयोगी केवली सब कर्मों से मुक्त हो सिद्ध हो जाता है । १६. शैलेशी अवस्था : कर्मक्षय तदसंखेज्जगुणाए गुणसेढीए रइयं पुरा कम्मं । समए समए खवियं कमसो सेलेसिकालेणं ॥ २४६ मणुयगइ - जाइ-तस - बायरं च पज्जत्त सुभयमाएज्जं । अन्नयरवेयणिज्जं नराऽमुच्चं जसोनामं ॥ संभवओ जिणनामं नराणुपुव्वी य चरिमसमयम्मि । सेसा जिणसंता ओ हु चरिमसमयम्मि निट्ठति ॥ ओरालियाहि सव्वा हि चयइ विप्पजहणाहिं जं भणियं । निस्सेसतया न जहा देसच्चाएण सो पुव्वं ॥ तरसोदइयाईया भव्वत्तं च विणिवत्तए समयं । सम्मत्त-नाण- दंसण- सुह सिद्धत्ताइं मोत्तूणं ॥ (विभा ३०८२, ३०८४ - ३०८७) शैलेशी अवस्था में असंख्यात गुणी गुणश्रेणी में रचित गुणस्थान और कर्मबन्ध कृतकर्म क्रमशः एक-एक समय में क्षीण होते हैं । केवली शैलेशी अवस्था के चरम समय में बारह प्रकृतियों को क्षीण करता है - मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, त्रस, बादर, पर्याप्त, सुभग नाम, आदेय नाम, सात अथवा असातावेदनीय, मनुष्यायुष्य, उच्चगोत्र, यशः नाम और नरानुपूर्वी । यदि तीर्थंकर हो तो नरानुपूर्वी से पूर्व तीर्थकर नाम कर्म की प्रकृति को क्षीण करता है । इसके पश्चात् तीन शरीर ( औदारिक, तैजस, कार्मण) का त्याग करता है । सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, सुख तथा सिद्धत्व को छोड़कर शेष औदयिक आदि भाव और भव्यत्व युगपत् क्षीण होते हैं । २०. गुणस्थान और कर्मबंध मिथ्यादृष्ट्यादयो मिश्रवज्जिता अप्रमत्तान्ता आयुraseraraप कर्म्मणां बन्धकाः, शेषकाले त्वायुवर्णानां सप्तानाम् । एतेषामेव सप्तकर्मणां मिश्रापूर्व करणानिवृत्तिबादरा अपि बन्धकाः । सूक्ष्मसम्पराया मोहायुजन षण्णां कर्मणाम् । उपशान्तमोहक्षीणमोहसयोगिकेवलिनः सातवेदनीयस्यैवकस्य । शैलेशीप्रतिपत्तेरारभ्य पुनर्योगाभावादबन्धकाः । ( नन्दीमवृप ४२ ) पहले, दूसरे, चौथे, पांचवें, छठे और सातवें गुणस्थान आयुबन्धका में आठ कर्मों का बन्ध होता है । आयुबन्ध से व्यतिरिक्त काल में आयुवर्जित सात कर्मों का बन्ध होता है । तीसरे, आठवें और नवें गुणस्थान में भी इन सात कर्मों का बन्ध होता है । दसवें गुणस्थान में छह कर्मों ( आयु- मोह वर्जित) का बन्ध होता है । ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थान में केवल सातावेदनीय का बन्ध होता है । चौदहवें गुणस्थानवर्ती जीवों और सिद्धों के कर्मबन्ध नहीं होता क्योंकि वहां योग नहीं है । कर्मवन्ध आठ कर्म सात कर्म (आयुवर्जित) छह कर्म (मोह और आयुवर्जत) एक कर्म (सात वेदनीय) अबंध में गुणस्थान १,२,४,५,६,७ १, २, ३, ४, ५, ६, ७, ८, ९ १० वां ११,१२,१३ १४वां सिद्ध । Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वचनगुप्ति गुप्ति-असत् प्रवृत्ति से निवर्तन । योगनिग्रह | १. गुप्ति की परिभाषा २. गुप्ति के प्रकार ३. मनोगुप्ति ४. वचनगुप्ति ५. कायगप्ति * गुप्ति समिति भी है गुप्त ध्यान है १. गुप्ति की परिभाषा गुत्ती नियत्तणे वृत्ता, असुत्थेसु सव्वसो ॥ अशुभ विषयों से निवृत्त होना गुप्ति है । गोपनं गुप्तिः - सम्यग्योग निग्रहः । ( उशावृ प ५१४) सम्यक् रूप से मन, वचन और काययोग का निग्रह करना गुप्ति है । प्रवचनविधिना मार्गव्यवस्थापन मुन्मार्ग गमननिवारणं गुप्तिः । ( उशावृप ५१४ ) गुप्त का अर्थ है - आगमोक्त विधि से प्रवृत्ति करना तथा उन्मार्ग से निवृत्त होना । गुप्ति के तीन प्रकार मनोगुप्ति -असत् मन से निवर्तन । वचनगुप्ति-असत् वाणी से निवर्तन । कायगुप्ति-असत् प्रवृत्ति से निवर्तन | ३. मनोगुप्ति ( द्र. समिति ) (द्र ध्यान ) २. गुप्ति के प्रकार तिहिं गुत्तीहि - मणगुत्तीए वइगुत्तीए कायगुत्तीए । ( आव ४1८) मनोगुप्ति के चार प्रकार १. सत्या २. मृषा ३. सत्यामृषा ४. असत्यामृषा । ( उ २४/२६) सच्चा तहेव मोसा य, सच्चामोसा तहेव य । चउत्थी असच्चमोसा, मणगुत्ती चउब्विहा || - ( उ २४/२० ) २४७ संरम्भसमारम्भे, आरम्भे य तहेव य । मणं पवत्तमाणं तु, नियत्तेज्ज जयं जई ॥ ( उ २४ ।२१) संरम्भ: - सङ्कल्पः स च मानसः । तथाऽहं ध्यास्यामि यथाsसी मरिष्यतीत्येवंविधः । समारम्भः परपीडाकरोच्चाटनादिनिबन्धनं ध्यानम् । आरम्भ:- अत्यन्तक्लेशतः परप्राणापहारक्षममशुभध्यानमेव । ( उशावृप ५१८, ५१९) संरम्भ (अशुभ संकल्प ), समारम्भ ( परपीड़ाकारी ध्यान) और आरम्भ ( परप्राणापहारी ध्यान) में प्रवृत्त चित्त का निवर्तन करना मनोगुप्ति है । मनोगुप्ति के परिणाम मत्तया णं जीवे एगग्गं जणयइ । एगग्गचित्ते णं जीवे मणगुत्ते संजमाराहए भवइ । (उ२९।५४) मनोगुप्तता ( कुशल मन के प्रयोग) से जीव एकाग्रता को प्राप्त होता | एकाग्र चित्त वाला जीव अशुभ संकल्पों से मन की रक्षा करने वाला और संयम की आराधना करने वाला होता है । ४. वचनगुप्ति गुप्ति सच्चा तहेव मोसा य, सच्चामोसा तहेव य । चउत्थी असच्चमोसा, वइगुत्ती चउव्विहा || वचनगुप्ति के चार प्रकार हैं १. सत्या २. मृषा ३ सत्यामृषा ४. असत्यामृषा । ( उ२४।२२) संरंभसमारंभे, आरंभे य तहेव य । वयं पवत्तमाणं तु, नियत्तेज्ज जयं जई ॥ ( उ २४।२३) वाचिकः संरम्भः - -परव्यापादनक्षमक्षुद्र विद्यादिपरावर्त्तनासङ्कल्पसूचको ध्वनिरेवोपचारात्सङ्कल्पशब्दवाच्यः सन् । समारम्भ:- परपरितापकरमन्त्रादिपरावर्त्तनम् । आरम्भ: - तथाविधसंक्लेशतः प्राणिनां प्राणव्यपरोपणक्षममन्त्रादिजपन मिति । ( उशावृ प ५१९) संरंभ - प्राणव्यपरोपण में समर्थ क्षुद्र विद्या आदि के परावर्तन की संकल्पसूचक ध्वनि वाचिक संरंभ है । समारंभ - परपीड़ाकारक मन्त्र आदि का परावर्त्तन समारम्भ है । Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - गोचरचर्या २४८ गोचरचर्या आरंभ-संक्लिष्ट परिणामों से प्राणव्यपरोपण में गध्रपृष्ठ-मरण का एक भेद। (द्र. मरण) समर्थ मन्त्र का जाप वाचिक आरम्भ है। संरंभ, गहिलिगसिद्ध-गृहस्थ के वेश में मुक्त होने वाले। समारंभ और आरंभ में प्रवर्त्तमान वचन का निवर्तन (द्र. सिद्ध) करना वचनगुप्ति है। के ग्रीवास्थानीय देवलोक। वचनगुप्ति के परिणाम (द्र. देव) __ वइगुत्तयाएं णं निम्वियारं जणयइ। निव्वियारेणं गोचरचर्या-वह भिक्षाविधि, जिसमें नाना घरों जीवे वइगुत्ते अज्झप्पजोगज्झाणगुत्ते यावि भवइ । से थोड़ा-थोड़ा आहार लिया जाता (उ२९।५५) वाग् गुप्तता (कुशल वचन के प्रयोग) से जीव निविचार भाव को प्राप्त होता है। निविचार जीव १. गोचरचर्या सर्वथा वाग्-गुप्त और अध्यात्म योग के साधन-चित्त * गोचरान के प्रकार (द्र. भिक्षाचर्या) की एकाग्रता आदि से युक्त हो जाता है । २. माधुकरी वृत्ति कायराप्ति का स्वरूप ३. कापोती वृत्ति ठाणे णिसीयणे चेव, तहेव य तुयट्टणे । ४. उञ्छवृत्ति उल्लंघणपल्लंघणे, इंदियाण य जुजणे ॥ ५. सामुदानिक भिक्षा संरंभसमारंभे, आरंभम्मि तहेव य । ६. संघाटक व्यवस्था कायं पवत्तमाणं तु, नियत्तेज्ज जयं जई ।। ७. भिक्षागमन : विधि-निषेध (उ २४।२४,२५) ८. भिक्षाचर्या से उपाधय में प्रवेश-विधि मुनि ठहरने, बैठने, लेटने, उल्लंघन-प्रलंघन करने ९. द्रव्य-विवेक और इन्द्रियों के व्यापार में--संरंभ, समारंभ और * सचित्त द्रव्य-ग्रहण : अनाचार (द्र. अनाचार) आरंभ में प्रवर्तमान काया का निवर्तन करे। १०. क्षेत्र-विवेक संरम्भः-अभिघातो यष्टिमुष्ट्या दिसंस्थानमेव ११. काल-विवेक सङ्कल्पसूचकमुपचारात्सङ्कल्पशब्दवाच्यं सत् । समारम्भः .गोचरकाल -परितापकरो मुष्ट याद्यभिघातः । आरम्भे १२. भिक्षा संबंधी विवेक प्राणिवधात्मनि कायं प्रवर्त्तमानं निवर्तयेत् । १३. बाधा रोकने का निषेध (उशावृ प ५१९) प्रहार करने की दृष्टि से लाठी, मुष्टि आदि उठाना * भिक्षाग्रहण के पश्चात् : आहार से पूर्व कायिक संरंभ है। दूसरों के लिए पीडाकारक मुष्टि (द. आहार) * सदोष भिक्षा और श्वासोच्छ्वास आदि का अभिघात समारंभ है। प्राणिवध में शरीर की प्रवृत्ति आरम्भ है। इनसे काया का निवर्तन करना (द्र. कायोत्सर्ग) कायगुप्ति है। * सामिक को आमन्त्रण (द्र . आहार) * भिक्षा संबंधी दोष कायगुप्ति के परिणाम (द्र. एषणा) कायगुत्तयाए णं संवरं जणयइ । संवरेणं कायगुत्ते १.गोचरचर्या पुणो पावासवनिरोहं करेइ। (उ २९।५६) गोचरान:-अग्रः-प्रधान आधाकर्मादिपरिहारेण कायगुप्तता (कुशल काय के प्रयोग) से जीव संवर . स चासौ गौरिव चरणम् -उच्चावचकूलेष्वविशेषेण (अशुभ प्रवृत्ति का निरोध) को प्राप्त होता है। संवर केस द्वारा कायिक स्थिरता को प्राप्त करने वाला जीव फिर ' पर्यटनं गोचरः। (उशावृ प ६०७) पापकर्म के उपादान हेतु (आश्रवों) का निरोध कर देता गोचराग्र का अर्थ है-गाय की तरह उच्चावच कूलों में निर्दोष भिक्षा के लिए पर्यटन करना। Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माधुकरी वृत्ति २. माधुकरी वृत्ति जहा दुमस्स पुप्फेसु भमरी आवियइ रसं । न य पुप्फं किलामेइ, सो य पीणेइ अप्पयं ॥ एमे समणा मुत्ता, जे लोए संति साहुणो । विहंगमा व पुप्फेसु, दाणभत्तेसणे रया || (द ११२, ३) जिस प्रकार भ्रमर पुष्पों से थोड़ा-थोड़ा रस पीता है, किसी भी पुष्प को म्लान नहीं करता और अपने को भी तृप्त कर लेता है, उसी प्रकार लोक में जो मुक्त ( अपरिग्रही ) श्रमण साधु हैं वे दानभक्त (दाता द्वारा दिए जाने वाले निर्दोष आहार) की एषणा में रत रहते हैं- जैसे भ्रमर पुष्पों में । वयं च वित्ति लब्भामो, न य कोइ उवहम्मई । अहागडे रीयंति, पुप्फेसु भमरा जहा ॥ (द १1४ ) हम इस तरह से वृत्ति भिक्षा प्राप्त करेंगे कि किसी जीव का उपहनन न हो । क्योंकि श्रमण यथाकृत ( सहज रूप से बना ) आहार लेते हैं, जैसे – भ्रमर पुष्पों से रस । एत्थ य भणेज्ज कोती समणाणं कीरती सुविहिताणं । पाकोवजीविणो त्ति य लिप्पंताऽऽरंभदोसेण ॥ वासति ण तणस्स कते ण तणं वड्ढति कते मयकुलाणं । णय रुक्खा सत्तसाहा फुल्लेति कते महुयराणं ॥ किच दुमा पुप्फेंती भमराणं कारणा अहासमयं । मा भमर-महुगरिगणा किलामएज्जा अणाहारा ॥ अत्थि बहू वणसंडा भमरा जत्थ ण उवेंति ण वसंति । तत्थ विपुप्फेंति दुमा पगती एसा दुमगणाणं ।। पगती एस दुमाणं जं उउसमयम्मि आगए सतं । पुष्फेंति पादवगणा फलं च कालेण बंधंति ॥ २४९ गोचरचर्या भ्रमर न जाते । इसका हेतु क्योंकि ऐसे अनेक वनखंड हैं, जहां हैं, न रहते हैं, फिर भी वहां फूल खिलते है - दुम- नामगोत्र कर्म का उदय । द्रुमपुष्प अथवा वृक्ष मात्र की यह प्रकृति ही है कि वे समय आने पर अपनीअपनी ऋतु में पुष्पित- फलित होते हैं । अह किष्णु गिही रंधंती समणाणं कारणा सुविहियाणं ? | मा समणा भगवंतो किलामएज्जा अणाहारा ॥ कंतारे दुब्भिक्खे आयंके वा महई समुप्पण्णे । रत्ति समणसुविहिया सव्वाहारं ण भुंजंति ॥ कीस पुण गित्था रति आयरतरेण रंधति ? | समणेहि सुविहिएहि चउव्विहाहारविरहि ॥ अत्थि बहुगाम- देसा समणा जत्थ ण उवेंति ण वसंति । तत्थ वि रंधति गिही पगती एसा गिहत्थाणं ॥ पगती एस गिहीणं जं गिहिणो गाम-नगर-निगमेसुं । रंधति अप्पणी परियणस्स कालेज अट्ठाए || एत्थ य समणसुविहिया परकड - परनिट्ठियं विगयधूमं । जोगाणं आहारं एसंती साहट्टाए || (दनि ३८-४३ ) कुछ व्यक्ति कहते हैं - श्रमण भूख से क्लांत न होंइस दृष्टि से उन पर अनुकंपा करने के लिए अथवा पुण्योपार्जन के लिए गृहस्थ भोजन पकाता है- यह कथन सही नहीं है । अटवी, दुर्भिक्ष और आतंक उत्पन्न होने पर तथा रात्रि के समय साधु आहार नहीं करते। उस समय में भी गृहस्थ तो भोजन पकाते ही हैं । बहुत सारे गांव और नगर ऐसे हैं, जहां श्रमण नहीं जाते । भोजन वहां भी पकता है । भोजन पकाना गृहस्थ की प्रकृति है । वह अपने लिए, अपने परिजनों के लिए यथासमय भोजन पकाता है । (दनि ३३-३७ ) सुविहित श्रमण पचन - पाचन की क्रिया नहीं करते; किंतु पाकोपजीवी होने के कारण वे हिंसा के भागी बनते हैं - यह शंका उचित नहीं है । जह दुमगणा उ तह णगरजणवया पयण पायणसभावा । भौरों के लिए फूल यथासमय पुष्पित होते हैं ताकि भौंरे निराहार न रहें, क्लांत न हों - यह कथन सही नहीं है । तृणों के लिए वर्षा नहीं होती, हरिणों के लिए तृण नहीं बढ़ते मधुकरों के लिए पेड़-पौधे पुष्पित नहीं जह भमरा तह मुणिणो णवरि अदिण्णं ण गेण्हंति ॥ होते । ( दनि ४८ ) जैसे द्रुम का स्वभाव है- फलित होना, वैसे ही लोगों का स्वभाव है अवधजीवी होते हैं, - - संयमयोगों की साधना के लिए श्रमण दूसरों के लिए कृत - निष्पन्न आहार की एषणा करते हैं । पचन- पाचन करना । जैसे भ्रमर वैसे ही मुनि अवधजीवी होते हैं । Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोचरचर्या २५. भिक्षागमन : विधि-निषेध इन दोनों में अंतर इतना ही है कि मुनि अदत्त वस्तु का ५. सामुदानिक भिक्षा ग्रहण नहीं करते। समुयाणं चरे भिक्खू, कूलं उच्चावयं सया। ३. कापोती वृत्ति नीयं कुलमइक्कम्म, ऊसढं नाभिधारए । कावोया जा इमा वित्ती"। (द ५।२।२५) भिक्षु सदा समुदान भिक्षा करे । उच्च और नीच (उ १९।३३) सभी कुलों में जाए। नीच कुल को छोड़कर उच्च कुल में कपोताः-पक्षिविशेषास्तेषामियं कापोती येयं वृत्तिः न जाए। -निर्वहणोपायः, यथा हि ते नित्यशंकिताः कणकीट ६. संघाटक व्यवस्था कादिग्रहणे प्रवर्त्तन्ते । एवं भिक्षरप्येषणादोषशंक्येव भिक्षादौ प्रवर्तते। (उशावृ प ४५६,४५७) एकाणियस्स दोसा इत्थी साणे तहेव पडिणीए । भिक्खविसोहि महव्वय तम्हा सबितिज्जए गमणं ॥ कापोतीवृत्ति का अर्थ है-कबूतर की तरह आजी (ओनि ४१२) विका का निर्वहन करना। जिस प्रकार कपोत धान्य भिक्षा आदि के लिए दो मुनियों को एक साथ जाना कण आदि को चुगते समय नित्य सशंक रहता है, उसी चाहिए अन्यथा अकेले मुनि के अनेक कठिनाइयां हो प्रकार भिक्षाचर्या में प्रवृत्त मुनि एषणा आदि दोषों के सकती हैं। जैसे - स्त्रीजनित उपसर्ग, पशुजनित उपसर्ग, प्रति सशंक होता है। प्रत्यनीकजनित उपसर्ग, भिक्षा की अविशोधि, महाव्रतों जथा कवोता व कविजला य का उपघात आदि। गावो चरती इध पागडाओ। गारविए काहीए माइल्ले अलस लुद्ध निद्धम्मे । एवं मुणी गोयरियं चरेज्जा, दुल्लभअत्ताहिठिय अमणुन्ने वा असंघाडो ।। नो हीलए नो विय संथवेज्जा ।। (ओनि ४१३) (आव २ पृ७४) भिक्षा के लिए अकेला मुनि कौन जाता है - कपोत, कपिजल और गाय की तरह मुनि गोचरी/ जिसे लब्धि का गर्व है। भिक्षाचरी करे। भिक्षा न मिलने पर किसी की अवहेलना न करे। भिक्षा मिलने पर किसी की प्रशंसा न जो गृहस्थ के घर में धर्मकथा करता है (उसके करे। साथ कोई जाना नहीं चाहता)। जो मायावी, आलसी और रसलोलुप है। ४. उञ्छवृत्ति जो अनेषणीय वस्तु-ग्रहण की इच्छा करता है। अन्नायउंछं चरई विसुद्धं, जवणट्ठया समुयाणं च निच्चं । जो दुर्भिक्ष में भिक्षा की दुर्लभता को जानता अलद्धयं नो परिदेवएज्जा, लडुं न विकत्थयई स पुज्जो॥ (द ९।३४) आत्मल ब्धिक-जो स्वयं द्वारा आनीत आहार करने जो जीवनयापन के लिए विशुद्ध सामुदायिक वाला है। अज्ञातउंछ (भिक्षा) की सदा चर्या करता है, जो भिक्षा अमनोज्ञ-जो चिड़चिड़े स्वभाव वाला है। न मिलने पर खिन्न नहीं होता, मिलने पर श्लाघा नहीं ७. भिक्षागमन : विधि-निषेध 'करता, वह पूज्य है। से गामे वा नगरे वा, गोयरग्गगओ मूणी। उग्गमुप्पायणेसणासुद्धं अण्णायमण्णातेण समुप्पादितं चरे मंदमणुव्विगो, अव्वक्खित्तेण चेयसा ।। भावूछमण्णाउंछं। (दअचू पृ २४२) पुरओ जुगमायाए, पेहमाणो महिं चरे । उद्गम, उत्पादन और एषणा के दोषों से रहित जो . वज्जतो बीयहरियाई, पाणे य दगमट्रियं ।। भैक्ष्य उपलब्ध हो, वह 'अज्ञातउंछ' है । . (द ५।१।२,३) Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्षाचर्या से... २५१ गोचरचर्या गांव या नगर में गोचरान के लिए निकला हुआ चल रहा हो और मार्ग में तिर्यक् संपातिम जीव छा रहे मुनि धीमे-धीमे अनुद्विग्न और अव्याक्षिप्त चित्त से हों तो भिक्षा के लिए न जाए। चले। निषिद्ध कल ___ आगे युगप्रमाण भूमि को देखता हुआ और बीज, पडिकटुकलं न पविसे, मामगं परिवज्जए । हरियाली, प्राणी, जल तथा सजीव मिट्टी को टालता हुआ अचियत्तकलं न पविसे, चियत्तं पविसे कुलं ।। चले। (द ५।१।१७) अणुन्नए नावणए, अप्पहिछे अणाउले । मुनि निंदित कुल में प्रवेश न करे। मामक-गृहइंदियाणि जहाभागं, दमइत्ता मुणी चरे॥ दवदवस्स न गच्छेज्जा, भासमाणो य गोयरे ।। स्वामी द्वारा प्रवेश निषिद्ध स्थान का परिवर्जन करे । प्रीतिकर कुल में प्रवेश करे। हसंतो नाभिगच्छेज्जा, कुलं उच्चावयं सया ।। (द ५।१।१३,१४) - पडिकुठें निन्दितं, तं दुविहं-इत्तिरियं आवकहियं च । इत्तिरियं मयगसूतगादि । आवकहितं चंडालादी। मुनि न ऊंचा मुंहकर, न झुककर, न हृष्ट होकर, न आकूल होकर, किंतु इन्द्रियों को अपने-अपने विषय के (दअचू पृ १०४) अनुसार दमन कर चले। प्रतिक्रुष्ट कुल का अर्थ है-निन्दित कुल । वह दो उच्च-नीच कुल में गोचरी गया हुआ मुनि दौड़ता हुआ न चले, बोलता और हंसता हुआ न चले । १. अल्पकालिक-वह कुल, जहां मृतक, सूतक आदि आलोयं थिग्गलं दारं, संधि दगभवणाणि य । २. यावत्कालिक-डोम, मातंग आदि कुल । चरंतो न विणिज्झाए, संकट्ठाणं विवज्जए । रन्नो गिहवईणं च, रहस्सारक्खियाण य । ८. भिक्षाचर्या से उपाश्रय में प्रवेश-विधि संकिलेसकरं ठाणं, दूरओ परिवज्जए । पायपमज्जणनिसीहिआ य तिन्नि उ करे पवेसंमि । (द ५।१।१५,१६) अंजलि ठाणविसोही दंडग उवहिस्स निक्खेवो ॥ मुनि चलते समय आलोक, थिग्गल, द्वार, संधि तथा (ओनि ५०९) पानी-घर को न देखे । शंका उत्पन्न करने वाले स्थानों भिक्षाचर्या से लौटकर मूनि उपाश्रय से बाहर ही से बचता रहे। पैरों का प्रमार्जन करता है। राजा, गहपति, अन्तःपुर और आरक्षकों के उस प्रविष्ट होता हआ उपाश्रय के अग्रद्वार, मध्यभाग स्थान का मुनि दूर से ही वर्जन करे, जहां जाने से उन्हें और मूलद्वार पर तीन निषीधिका करता है। संक्लेश उत्पन्न हो। __'नमो खमासमणाणं' का उच्चारण कर बद्धांजलि तहेवच्चावया पाणा, भत्तट्टाए समागया । नमस्कार करता है। फिर उपधि आदि को रखने के लिए त-उज्जुयं न गच्छेज्जा, जयमेव परक्कमे ॥ स्थान-विशोधन करता है । (द ५।२१७) कायोत्सर्ग नाना प्रकार के प्राणी भोजन के लिए एकत्रित हों, पुबुद्दिढे ठाणे ठाउं चउरंगुलंतरं काउं । उनके सम्मुख न जाए। उन्हें त्रास न देता हुआ यतना मुहपोत्ति उज्जुहत्थे वामंमि य पायपुंछणयं ॥ पूर्वक जाए। काउस्सग्गंमि ठिओ चिते समुयाणिए अईआरे । न चरेज्ज वासे वासंते, महियाए व पडतीए । जा निग्गमप्पवेसो तत्थ उ दोसे मणे कुज्जा । महावाए व वायंते, तिरिच्छसंपाइमेसु वा ॥ ते उ पडिसेवणाए अणुलोमा होति वियडणाए य । (द ५११८) (ओनि ५११-५१३) वर्षा बरस रही हो, कुहरा गिर रहा हो, महावात भिक्षा से लौटकर मुनि कायोत्सर्ग करता है। पैरों Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोचरचर्या १२५२ क्षेत्र-विवेक में परस्पर चार अंगुल की दूरी रखकर, दायें हाथ में हो, उस संबंधी मेरा दुष्कृत निष्फल हो। मखवस्त्रिका, बायें हाथ में रजोहरण धारण करना निष्क्रमण से लेकर पुनः प्रवेश तक के सामुदानिक (भिक्षा) अतिचारों का कायोत्सर्ग में चिन्तन करता कंदं मूलं पलंबं वा, आम छिन्नं व सन्निरं । है। प्रतिसेवना का अनुक्रम से चिन्तन करता है तुंबागं सिंगबेरं च, आमगं परिवज्जए॥ तहेव सत्तचुण्णाई, कोलचुण्णाइं आवणे । और अनुक्रम से ही उनकी गुरु के पास आलोचना करता सक्कुलि फाणियं पूर्व, अन्नं वा वि तहाविहं ।। विक्कायमाणं पसढं, रएण परिफासियं । गोचर-अतिचार-प्रतिक्रमण दंतियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं । पडिक्कमामि गोयरचरिआए भिक्खायरिआए उग्घाड (द ५११७०-७२) कवाड-उग्धाडणाए साणा-वच्छा-दारा-संघट्टणाए मंडी- मुनि अपक्व कंद, मूल, फल, छिला हुआ पत्ती का पाहुडियाए बलि-पाहुडियाए ठवणा-पाहुडियाए संकिए शाक, घीया और अदरक न ले। इसी ___ शाक, घीया और अदरक न ले। इसी प्रकार सत्त, बेर सहसागारे अणेसणाए पाणभोयणाए बीयभोयणाए का चूर्ण, तिलपपड़ी, गीला गुड़, पूआ, इस तरह की हरियभोयणाए पच्छाकम्मियाए पुरेकम्मियाए अदिट्ठहडाए दूसरी वस्तुएं भी जो बेचने के लिए दुकान में रखी हों, दग-संसद्हडाए रय-संसट्ठहडाए परिसाडणियाए पारि- परन्तु न बिकी हों, रज से स्पृष्ट हो गई हों तो मुनि ट्रावणियाए ओहासणभिक्खाए जं उग्गमेणं उप्पायर्णसणाए देती हई स्त्री को प्रतिषेध करे-इस प्रकार की वस्तएं अपरिसुद्धं पडिग्गहियं परिभुत्तं वा जं च न परिट्ठवियं मैं नहीं ले सकता। तस्स मिच्छामि दुक्कडं। (आव ४।६) बहुअट्ठियं पुग्गलं, अणिमिसं वा बहुकंटयं । मैं गोचरचर्या --गाय की भांति अनेक स्थानों से अत्थियं तिदुयं बिल्लं, उच्छृखंड व सिंबलि ।। थोडा-थोड़ा लेने वाली भिक्षाचर्या से सम्बन्धित अति- अप्पे सिया भोयणजाए, बहउझिय-धम्मिए । चारों का प्रतिक्रमण करता हूं--बंद किवाड़ को खोला देंतियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥ हो, कुत्ते, बछड़े और बच्चे को इधर-उधर किया हो, (द ५१११७३,७४) पकाये हए भोजन में से निकाले गए प्रथम ग्रास की भिक्षा बहुत अस्थि वाले पुद्गल, बहत कांटों वाले अनिमिष, ली हो, देवपूजा के लिए तैयार किया हुआ भोजन लिया आस्थिक, तेन्दु और बेल के फल, गण्डे हो, भिक्षाचर आदि याचकों के लिए स्थापित भोजन जिनमें खाने का भाग थोड़ा हो और डालना अधिक पडे लिया हो, शंका सहित आहार लिया हो, बिना सोचे --देती हुई स्त्री को मुनि प्रतिषेध करे-- इस प्रकार के शीघ्रता में आहार लिया हो, एषणा-पूछताछ किए फल आदि मैं नहीं ले सकता। बिना आहार लिया हो, प्राण, बीज और हरितयुक्त १०. क्षेत्र-विवेक आहार लिया हो, भिक्षा देने के पश्चात् उसके निमित्त अइभूमि न गच्छेज्जा, गोयरग्गगओ मुणी। से हस्त-प्रक्षालन आदि आरंभ किया जाए वैसी भिक्षा ली हो, भिक्षा देने के पूर्व उसके निमित्त से आरम्भ कुलस्स भूमि जाणित्ता, मियं भूमि परक्कमे ।। किया जाए वैसी भिक्षा ली हो, अनदेखे लाई हुई भिक्षा तत्थेव पडिलेहेज्जा, भूमिभागं वियक्खणो । ली हो, सचित्त जल से स्पृष्ट वस्तु को लाकर दी जाने सिणाणस्स य वच्चस्स, संलोगं परिवज्जए॥ वाली भिक्षा ली हो, सचित्त रज से स्पृष्ट वस्तु को दगमट्टियआयाणं, बीयाणि हरियाणि य । लाकर दी जाने वाली भिक्षा ली हो, भूमि पर गिराते परिवज्जतो चिठेज्जा, सव्विदियसमाहिए। गिराते दी जाने वाली भिक्षा ली हो, खाने-पीने के (द ५।१।२४-२६) अयोग्य वस्तु ली हो, विशिष्ट भोज्य-पदार्थ मंगाकर गोचराग्र के लिए घर में प्रविष्ट मुनि अतिभूमि लिए हों, उद्गम, उत्पादन और एषणा के दोषों से युक्त (अननुज्ञात) में न जाये, कुल-भूमि को जानकर मितभूमि आहार लिया हो, खाया हो, उसका परिष्ठापन न किया (अनुज्ञात). में प्रवेश करे। Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल-विवेक ..२५३ गोचरचर्या विचक्षण मुनि मित-भूमि में ही उचित भूभाग का दूर भिक्षा के लाभ प्रतिलेखन करे । जहां से स्नान-घर और शौचगह दिखाई एवं उग्गमदोसा विजढा पइरिक्कया अणोमाणं । पड़े, उस भूमिभाग का परिवर्जन करे। मोहतिगिच्छा अ कया विरियायारो य अणुचिण्णो ।। सर्वेन्द्रिय समाहित मुनि उदक और मिट्टी लाने के (ओनि २४९) मार्ग तथा बीज और हरियाली को वर्जकर खड़ा रहे। • आधाकर्म आदि दोषों से बचाव । अग्गलं फलिहं दारं, कवाडं वा वि संजए। ० प्रचुर आहार की प्राप्ति । अवलंबिया न चिट्ठज्जा, गोयरग्गगओ मूणी ।। ० लोक में आदर के भाव । (द ५।२।९) ० श्रम के कारण मोहचिकित्सा का लाभ । गोचराग्र के लिए गया हुआ संयमी आगल, परिघ, ० वीर्याचार का पालन । द्वार या किवाड़ का सहारा लेकर खड़ा न रहे। ११. काल-विवेक गोयरग्गपविट्ठो उ, न निसीएज्ज कत्थई । कालेण निक्खमे भिक्ख, कालेण य पडिक्कमे ।... कहं च न पबंधेज्जा, चिद्वित्ताण व संजए॥ (द ५।२।४) (द ५।२।८) भिक्ष समय पर भिक्षा के लिए निकले और समय गोचरान के लिए गया हुआ संयमी कहीं न बैठे और पर लौट आए । अकाल को वर्जकर जो कार्य जिस समय खड़ा रहकर भी कथा का प्रबन्ध न करे । का हो, उसे उसी समय करे। परिवाडीए न चिट्ठज्जा (उ ११३२) अकाले चरसि भिक्खु, कालं न पडिलेहसि । भिक्षु भिक्षा के लिए भिखारी की तरह पंक्ति में अप्पाणं च किलामेसि, सन्निवेसं च गरिहसि ।। खड़ा न रहे। (द ५२५) समणं माहणं वा वि, किविणं वा वणीमगं । भिक्षो ! तुम अकाल में जाते हो, काल की प्रतिउवसंकमंतं भत्तट्ठा, पाणढाए व संजए ।। लेखना नहीं करते, इसलिए तुम अपने आपको भी क्लान्त तं अइक्कमित्तु न पविसे, न चिठे चक्खुगोयरे । (खिन्न) करते हो और सन्निवेश (ग्राम) की भी निन्दा एगंतमवक्कमित्ता, तत्थ चिठेज्ज संजए। करते हो। वणीमगस्स वा तस्स, दायगस्सुभयस्स वा । गोचरकाल अप्पत्तियं सिया होज्जा, लहत्तं पवयणस्स वा ।। ""तइयाए भिक्खायरियं"। (द ५२।१०-१२) (उ २६।१२) भक्त या पान के लिए उपसंक्रमण करते हए (घर औत्सर्गिकमेतत्, अन्यथा हि स्थविरकल्पिकानां में जाते हए) श्रमण, ब्राह्मण, कृपण या वनीपक को यथाकालमेव भक्तादिगवेषणम् । (उशाव प ५४३) लांघकर संयमी मुनि गृहस्थ के घर में प्रवेश न करे। मुनि तीसरे प्रहर में भिक्षाचरी करे। यह अभिग्रहगृहस्वामी और श्रमण आदि की आंखों के सामने धारी मुनियों की भिक्षा-विधि है। स्थविरकल्पी मुनि खड़ा भी न रहे। किन्तु एकान्त में जाकर खड़ा हो यथासमय भिक्षा के लिए जाए। जाए। सेज्जा निसीहियाए, समावन्नो व गोयरे । भिक्षाचरों को लांघकर घर में प्रवेश करने पर अयावयट्ठा भोच्चा णं, जइ तेणं न संथरे ।। वनीपक या गहस्वामी को अथवा दोनों को अप्रीति हो । तओ कारणम्प्पन्ने, भत्तपाणं गवेसए ।" सकती है अथवा उससे प्रवचन की लघुता होती है। (द ५२।२,३) परमद्धजोयणाओ, विहारं विहरए मुणी। उपाश्रय या स्वाध्याय-भूमि में अथवा गोचर (भिक्षा) (उ २६६३५) के लिए गया हुआ मुनि मठ आदि में अपर्याप्त खाकर दूसरे ग्राम में भिक्षा के लिए जाना आवश्यक हो तो यदि न रह सके तो कारण उत्पन्न होने पर भक्त-पान की अधिक से अधिक अर्ध योजन तक जाए। गवेषणा करे। Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोचरचर्या । २५४ गौरव सो पूण खमओ वा जधा-"वियट्रभत्तियस्स कप्पंति असंसत्तं पलोएज्जा, नाइदूरावलोयए। सव्वे गोयरकाला, छुधालु वा दोसीणाति पढमालियं काउं उप्फुल्लं न विणिज्झाए, नियट्टेज्ज अयंपिरो । पाहणएहिं वा उवउत्ते ततो एवमातिम्मि कारणे उप्पण्णे। (द ५११।२१-२३) .. (दअचू पृ १२६) जहां कोष्ठक में या कोष्ठकद्वार पर पुष्प, बीज - विकृष्ट तपस्वी के लिए सब गोचरकाल विहित हैं। आदि बिखरे हों, वहां मुनि न जाये। कोष्ठक को जो अत्यधिक भूख को सहन नहीं कर सकता, वह तत्काल का लीपा और गीला देखे तो मुनि उसका परिप्रातराश के लिए जा सकता है। प्राघूर्णक (अतिथि वर्जन करे। मुनि) के आगमन आदि कारणों से पुनः गोचरचर्या कर मुनि भेड़, बच्चे, कुत्ते और बछड़े को लांघकर या सकता है। हटाकर कोठे में प्रवेश न करे। मुनि अनासक्त दृष्टि से देखे। अति दूर न देखे। १२. भिक्षा संबंधी विवेक उत्फुल्ल दृष्टि से न देखे । भिक्षा का निषेध करने पर साणीपावारपिहियं, अप्पणा नावपंगुरे। बिना कुछ कहे वापस चला जाये । कवाडं नो पणोलेज्जा, ओग्गहंसि अजाइया ।। असणं पाणगं वावि, खाइमं साइमं तहा। (द ५।१।१८) जं जाणेज्ज सुणेज्जा वा दाणट्ठा "पुण्णट्ठा" मुनि गृहपति की आज्ञा लिए बिना सन और मृग- वणिमट्ठा"समणट्ठा पगडं इमं ॥ रोम के बने वस्त्र से ढका द्वार स्वयं न खोले, किवाड़ न तं भवे भत्तपाणं तु संजयाण अकप्पियं ।" खोले। (द २११४७-५४) आगमणदायगस्सा हेट्ठा उरिं च होइ जह पुवि ।। यह अशन, पानक, खाद्य और स्वाद्य दानार्थ अथवा संजमआयविराहण दिलैंतो होइ वच्छेण ॥ पुण्यार्थ तैयार किया हुआ है, वनीपकों अथवा श्रमणों के (ओनि ४७७) निमित्त तैयार किया हुआ है, मुनि यह जान जाये या भिक्षा लेकर आती हुई, भिक्षा देती हुई स्त्री को सुन ले तो वह भक्त-पान मुनि के लिए अकल्पनीय होता विकृत दृष्टि से न देखे । जैसे-एक भूखा-प्यासा बछड़ा है। केवल अपने चारे को ही देखता है, चारा डालने वाली १३. बाधा रोकने का निषेध अलंकृत महिला को नहीं देखता।। गोयरग्गपविट्ठो उ, वच्चमुत्तं न धारए । बहुं परघरे अत्थि, विविहं खाइमसाइमं । ओगासं फासुयं नच्चा, अणुन्नविय वोसिरे ॥ न तत्थ पंडिओ कुप्पे, इच्छा देज्ज परो न वा ।। (द ५११।१९) सयणासण वत्थं वा, भत्तपाणं व संजए। अदेंतस्स न कुप्पेज्जा, पच्चक्खे वि य दीसओ ॥ गोचरान के लिए घर में प्रविष्ट मुनि मल-मूत्र की (द ५२।२७-२८) बाधा न रोके । प्रासुक स्थान देख, गृहस्वामी की अनुगृहस्थ के घर में नाना प्रकार का प्रचुर खाद्य-स्वाद्य मति लेकर बाधा से निवृत्त हो जाये। होता है, (किन्तु न देने पर) पण्डित मुनि कोप न करे। गोत्र-सम्माननीय और असम्माननीय स्थिति का (यों चिन्तन करे कि) इसकी अपनी इच्छा है, दे या न दे। (द्र. कर्म) संयमी मुनि सामने दीख रहे शयन, आसन, वस्त्र, गौरव-गर्व, मद । भक्त या पान न देने वाले पर भी कोप न करे । जत्थ पुप्फाइ बीयाई, विप्पइण्णाई कोट्रए। गुरुभावो गारवो प्रतिबंधो अतिलोभ इत्यर्थः । अहुणोवलित्तं उल्लं, दळूणं परिवज्जए । (आवचू २ पृ ७९) एलगं दारगं साणं, वच्छगं वावि कोट्टए । गुरुलाभाभिमानाध्मातचित्त आत्मैव तद्भावास्तस्य उल्लंघिया न पविसे, विऊहित्ताण व संजए॥ वैतान्यध्यवसानानि गौरवाणि । (उशावृ प ६१२) Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रवर्ती कोन? २५५ चक्रवर्ती गौरव का अर्थ है-प्रतिबंध, अतिलोभ । साता गौरव अपनी उपलब्धि के अभिमान से ग्रस्त चित्त वाले सायागारविए ति साते-सुखे गौरवं–प्रतिबन्धः व्यक्ति के अध्यवसाय को गौरव कहते हैं । सातगौरवं, तदस्यास्तीति सातगौरविक एकः सुखगौरव के प्रकार प्रतिबद्धो हि नाप्रतिबद्धविहारादौ प्रवत्तितुं क्षमः ।। तिहिं गारवेहि-इड्ढीगारवेणं, रसगारवेणं, साया (उशावृ प ५५२) गारवेणं । (आव ४८) सुख-सुविधा में बंध जाना साता गौरव है। सुखइड्ढीगारवो लोगसंणतीए नरिंददेविंदपूयाए वा प्रतिबद्ध मुनि अप्रतिबद्ध विहारी नहीं हो सकता। भवति । रसगारवो जिब्भादंडो। सातागारवो सुहसागत्तणं चक्रवर्ती--भरत क्षेत्र के छह भूखंडों (वैताढयगिरि सयणासणवसहिवत्थादीहिं सहकारणेहि पडिबंधो। के उत्तर और दक्षिण के तीन-तीन भू(आव २ पृ ७९,८०) भागों) का अधिपति । गौरव के तीन प्रकार हैंऋद्धिगौरव- प्रचुर लोगों अथवा राजाओं तथा देवों १. चक्रवर्ती कौन ? द्वारा वंदना-पूजा प्राप्त होने पर उसके २. चक्रवर्ती : एक परिचय प्रति होने वाली प्रतिबद्धता।। ३. चौदह रत्न और उनका विवरण रसगौरव-जिहन्द्रिय की आसक्ति, रसलोलुपता। __ • नौ महानिधि सातागौरव-सुविधाजनक शयन, आसन, स्थान, ४. चक्रवर्ती भरत वस्त्र आदि सुखकारक पदार्थों के प्रति ५. सगर आदि चक्रवर्ती प्रतिबद्धता। * शांति, कुंथ और अर-ये तीनों तीर्थंकर भी थे ऋद्धि गौरव (प्र. तीर्थकर) ६. चक्रवर्ती और इन्द्र भव्य होते हैं इड्ढिगारविए त्ति ऋद्ध्या गौरवं श्राद्धा ऋद्धि- | * चक्रवर्ती : एक लब्धि (द्र. लब्धि) मन्तो मम वश्याः संपद्यते च यथाचिन्तितमुपकरण ७. चक्रवर्ती और वासुदेव कब? मित्याद्यात्मबहुमानरूपमृद्धिगौरवं तदस्यास्तीति ऋद्धि- ८. चक्रवर्ती और वासुदेव का क्रम गौरविको न गुरुनियोगे प्रवर्तते किमेतर्ममेति । (उशावृ प ५५२) १. चक्रवर्ती कौन ? ऋद्धि गौरव का अर्थ है-ऐश्वर्य का गौरव । ऐश्वर्य ""से चाउरते, चक्कवट्टी महिड्ढिए । का गौरव करने वाला शिष्य सोचता है--अनेक धनाढ्य चउदसरयणाहिवई............... || व्यक्ति मेरे श्रावक हैं। वे मुझे यथेष्ट उपकरण आदि यथा स चतसृष्वपि दिक्ष्वन्त:-पर्यन्त एकत्र हिमवालाकर देते हैं । यह सोचकर वह शिष्य आत्म-बहुमानरूप नन्यत्र च दिक्त्रये समुद्रः स्वसम्बन्धितयाऽस्येति चतुरन्तः, ऋद्धि के अहं से ग्रस्त होकर 'गुरु से मुझे क्या लेना-देना' चतुभिर्वा हयगजरथनरात्मकरन्त:-शविनाशात्मको यस्य इस चिन्तन से गुरु की आज्ञा में नहीं चलता। (उ १११२२ शावृ प ३५०) रस गौरव महान् ऋद्धिशाली, चतुरन्त चक्रवर्ती चौदह रत्नों का रसगारवेत्ति रसेषु -मधुरादिषु गौरवं – गायं अधिपति होता है। यस्यासौ रसगौरवो बालग्लानादिसमुचिताहारदानतपोऽनु- जिसके राज्य में एक दिगन्त में हिमवान् पर्वत और ष्ठानादौ न प्रवर्तते। (उशाव प ५५२) तीन दिगन्तों में समुद्र हो, वह 'चातुरन्त' कहलाता है। रस गौरव का अर्थ है-जिह्वा की लोलुपता। इसका दूसरा अर्थ है - हाथी, अश्व, रथ और मनुष्यरसलोलुप शिष्य बाल, ग्लान आदि को समुचित आहार इन चार प्रकार की सेनाओं के द्वारा शत्रु का अन्त करने आदि नहीं देता और स्वयं तपस्या भी नहीं करता । वाला। सः। Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'चक्रवर्ती कहलाता है । छक्खंडभर हसामी" 1 ( आवनि ३९१ ) यह खण्ड वाले भरतक्षेत्र का अधिपति चक्रवर्ती २. चक्रवर्ती : एक परिचय पदमराया दहाहि भरहाहियो णरवरियो । ( आवचू १ पृ २०० ) होही सगरो मघवं सणकुमारो य रायसलो । संती कुंथू अ अरो होइ सुभूमो य कोरव्वं ॥ णमो अ महापठमो हरिसेणो चेव रायसलो । जयनामो अ नरवई बारसमो बंभदत्तो अ॥ ( आवनि ३७४,३७५ ) नगर जम्मण विणीअ उज्झा सावत्थी पंच हत्थिणपुरंमि । वाणारसि कंपिल्ले रायगिहे व कंपिल्ले ॥ ( आवनि ३९७ ) माता सुमंगला जसवई भद्दा सहदेवि अइर सिरि देवी । तारा जाला मेरा य बप्पगा तह य चूलणी अ ॥ ( आवनि ३९८ ) पिता उसमे सुमितविजए समुहविजए अ अस्ससेणे अ । तह बीससेण सूरे सुदंसणे कत्तविरिए अ ॥ पउमुत्तरे महाहरि विजए राया तहेव बंभे अ ।'' ( आवनि ३९९,४०० ) चक्रवर्ती नगर १. | भरत २. सगर विनीता ३. मघवा भद्रा अयोध्या श्रावस्ती ४. | सनत्कुमार | हस्तिनापुर | सहदेवी ५. | शान्ति | "" ६. कुन् अविरा श्री देवी ७. अर तारा ज्वाला 17 ८. सुभूम ९. | महापद्म | वाराणसी १०. | हरिषेण | कांपिल्य ११. जय | राजगृह १२. | ब्रह्मदत्त | कांपिल्य माता पिता सुमंगला | ऋषभ | यशस्वती | सुमित्रविजय | समुद्रविजय | T | अश्वसेन विश्वसेन सूर सुदर्शन कार्त्तवीर्य पद्मोत्तर | मेरा | वप्रा | चुलनी | ब्रह्म २५६ महाहरि | विजय राजा " "" 33 "" 11 "} गोत्र " वर्ण गोत्र काश्यप | ५०० "3 ४५० | ४२ 3 ४१८ ४० ३५ ३० २८ २० | १५ १२ अवगाहना पंचसय अपंचम बायालीसा य अद्धधणुअं च । इगयाल धणुस्सद्धं च चउथे पंचमे चता ॥ पणतीसा तीसा पुण अट्ठावीसा य वीस धर्णाणि । पण्णरस वारसेव य अपच्छिमो सत्त व धणूनि ॥ ( आवनि ३९२, ३९३) गति कासवगुत्ता सव्वे चउदसरवणाहिया समखाया ।..... ( आवनि ३९४ ) सव्वेऽबि एगवण्णा निम्मलकणगप्पभा मुणेयव्वा । ( आवनि ३९१ ) अटठेव गया मोक्खं सुभुमो बंभो अ सत्तमि पुढवि । मघवं सणकुमारी सणकुमारं गया कप्पं ॥ ( आवनि ४०१ ) आयुष्य चउरासीई बावतरी अ पुव्वाण समसहस्साई पंच य तिण्णि अ एगं च सयसहस्सा उ वासाणं ॥ पंचागउइ सहस्सा चउरासीईं अ अट्टमे सट्ठी । तीसा य दस य तिष्णि अ अपच्छिमे सत्तवाससया ॥ ( आवनि ३९५, ३९६ ) अवगाहना धनुष " 67 "" 11 " 11 33 21 31 31 | वर्ण गति स्वर्ण | मोक्ष आयुष्य ८४ लाख पूर्व ७२ लाख पूर्व मोक्ष तीसरा देवलोक ५ लाख वर्ष "तीसरा देवलोक ३ लाख वर्ष | १ लाख वर्ष 33 12 " चक्रवर्ती एक परिचय 21 31 " " 11 मोक्ष मोक्ष | मोक्ष सातवीं नरक मोक्ष मोक्ष मोक्ष | सातवीं नरक ९५ हजार वर्ष ८४ हजार वर्ष ६० हजार वर्ष ३० हजार वर्ष १० हजार वर्ष ३ हजार वर्ष | ७०० वर्ष Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदह रत्न ३. चौदह रत्न और उनका विवरण सेणावइ गाहावर पुरोहिय गय तुरंग वड्ढइग इत्थी । चक्कं छत्तं चम्मं मणि कागिणि खग्ग दंडो य ॥ ( उशावृप ३५० ) १. सेनापति - यह दलनायक होता है तथा गंगा और सिन्धु नदी के पार वाले देशों को जीतने में बलिष्ठ होता है । २. गृहपति - चक्रवर्ती के गृह की समुचित व्यवस्था में तत्पर रहने वाला । ३. पुरोहित - ग्रहों की शांति के लिए उपक्रम करने वाला । ४. ५. अपन} अत्यन्त वेग और महान् पराक्रम से युक्त । ६. वर्ध की - गृह, निवेश, सेतु आदि के निर्माण का कार्य करने वाला । ७. स्त्री - अत्यन्त अद्भुत काम-जन्य सुख को देने वाली होती है । ८. चक्र -- सभी आयुधों में श्रेष्ठ तथा दुर्दम शत्रु पर विजय पाने में समर्थ । ९. छत्र - धूप, हवा, वर्षा से बचाने में समर्थ । १०. चर्म - बारह योजन लम्बे-चौड़े छत्र के नीचे प्रातःकाल में बोए गए शाली आदि बीजों को मध्याह्न में उपभोग योग्य बनाने में समर्थ । २५७ सुसेणं सेणावइरयणं से सेणावई बलस्स णेता भरहे वासंमि वीसुतजसे महाबलपरक्कमे महत्पा ओसी तेज लक्खणजुत्ते मिलक्खुभासाविसारदे चित्तचारुभासी भरहे वासंमि निक्खुडाणं णित्राण य दुग्गमाण य दुक्खपवेसणाणं वियाणए अत्थसत्थकुसले | चक्रवर्ती भरत चक्रवर्ती के सुषेण नाम का सेनापति रत्न था । वह महापराक्रमी, ओजस्वी और तेजलक्षणयुक्त था । वह म्लेच्छ भाषाओं का ज्ञाता, मंजुलभाषी, सम-विषमदुर्गम पथों को पार करने में समर्थ तथा अर्थशास्त्र में निपुण था । गृहपति रत्न तस् य अणइवरं चारुरूवं सिलणिहिअत्थमंत सेतू सालिजवगोधूममुग्गमास तिल कुलत्थसद्विगणिप्फावचणकोद्दवकोत्थंभरिकंगुवराल अणेगधन्नाव रत्तहारितगअल्लकमूलकहलिद्दिला उकत उसतुंव का लिंगक विट्ठअंबअंबिलियसव्वfroफाद सुकुसले गाहावतिरयणेत्ति सव्वजणवीसुतगुणे । गाहावतरणे भरहस्स रन्नो तद्दिवसपइन्नणिप्फादितपूइताणं सव्वधन्नाणं अणेगाई कुंभसहस्साई उवट्ठवेति । ( आवचू १ पृ १९७,१९८ ) गृहपति रत्न शालि, यव आदि सब धान्यों और शाकसब्जियों के निष्पादन में कुशल होता है । वह चर्मरत्न पर सुबह बोये गये धान्यों को उसी दिन सूर्यास्त से पहले ही हजारों कुम्भों में भरकर चक्रवर्ती के समक्ष उपस्थित करता है । ११. मणि - यह बारह योजन में विस्तृत चक्रवर्ती की सेना में सर्वत्र प्रकाश बिखेरता है । इसके प्रभाव से सभी प्रकार के उपद्रव तथा रोग नष्ट हो जाते हैं । १२. काकणी - तमिस्रगुहा में यह अन्धकार को समूल नष्ट कर देता है। इसकी किरणें बारह योजन तक फैलती हैं । अश्व रत्न ..... कमलामेलगंणाम आसरयणं दुरूहति, तए णं तं १३. असि - संग्राम भूमि में इसकी शक्ति अप्रतिहत होती मायतं बत्तीसंगुलमूसितसिरं चउरंगुलकन्नाकं वीसतिअसीत मंगुलसितं णवणउतिमंगुलपरिणाहं अट्ठसयमंगुल - है । इसका वार खाली नहीं जाता । १४. दंड - शत्रुओं की सेनाओं को नष्ट करने में समर्थ । सेनापति रत्न अंगुल बाहाक चतुरंगुलजन्तुकं सोलस अंगुलजंघाकं चतुरंगुलमूसितखुरं सुजातं अमरमणपवणगरुलजइणचवल सिग्धगामि ईसिमिव खंतिखमए सुसीसमिव पच्चखतो विणीतं उदगहुतवहपासाणपंसुकद्दमससक्करसवालुइल्लतडकडगविसमपब्भारगिरिदरीसु लंघणपीलण - णित्थारणासमत्थं । (आवचू १ पृ १९५) चक्रवर्ती के अश्वरत्न का नाम था कमलामेलक । उसकी ऊंचाई अस्सी अंगुल, मोटाई निन्यानवे अंगुल और ( आवचू १ पृ १९० ) लम्बाई एक सौ आठ अंगुल थी । उसका सिर बत्तीस गज रत्न ..... आभिसेगं च हत्थिरयणं पडिकप्पेहत्ति ''अंजणगिरिकूडसंनिभं गवति णरवती दुरूढे । ( आवचू १ पृ १८४) चक्रवर्ती भारत के अभिषेक्य नाम का हस्ति रत्न था । उसका वर्ण अंजनगिरिकूट के समान श्यामल था। Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रवर्ती अंगुल, कान चार अंगुल बाहु बीस अंगुल, घुटने चार अंगुल, जंघा सोलह अंगुल और खुर चार अंगुल प्रमाण थे । वह देव, मन, पवन और गरुड़ से भी अधिक शीघ्रगामी, ऋषि की भांति क्षमाशील और सुशिष्य की भांति विनीत था । वह जल, अग्नि तथा पथरीले आदि सभी प्रकार के मार्गों और विषम गिरि-कंदराओं को लांघने में समर्थ था । वर्धकी रत्न ....स आसमदो मुहगामपट्ट पुरवरखंधावारगिहावर्णविभागकुसले एगासीतिपदेसु सव्वेसु चेव वत्थू सु गुणजागे पंडिए विहिन्नू जलयाणं भूमियाण य भाजणं जलथलगुहासु जंतेसु परिहासु य कालनाणे तहेव सद्दे वत्थुपदेसे पहाणे .. *** इय तस्स बहुगुणड्ढे थवतीरतणे णरिदचंदस्स । तवसंजमणिविट्ठे किं करवाणी उवट्ठाति ॥ सो देवकम्मविधिणी खंधावारं णरिदवयणेणं । . आवसहभवणवलितं करेति सव्वं मुहुत्तेणं ॥ २५८ करेति य पवरपोसहघरं तीसे णं गुहाए बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं उमुग्गनिमुग्गजलाओ नामं दुवे महानदीओ पण्णत्ताओ वड्ढतिरयणे भरहवयणसंदेसेणं तासु भयहस्ससंनिविट्ठे अचलमकंप सालंबणबाहगं सव्वरयणामयं सुहसंकर्म करेइ । ( आवचू पृ १८७, १८८, १९४) वर्धकी रत्न आश्रम, द्रोणमुख, ग्राम, पत्तन, नगर, स्कन्धावार, गृह और आपण की विभागपूर्वक रचना करने में कुशल होता है । वह वास्तुकला के इक्यासी पदों - से अभिज्ञ होता है । वह जलीय और स्थलीय सुरंगों को जानकर उनमें काम आने वाले जलयान, स्थलयान तथा यंत्रों को बनाने में कुशल होता है। चक्रवर्ती तप-संयम साधना के द्वारा अनेक गुणों से सम्पन्न वर्धकी रत्न को प्राप्त करता है वह वर्धकी देवों की भांति अन्तर्मुहूर्त में ही भवन, छावनी आदि की रचना कर देता है तथा चक्रवर्ती के लिए श्रेष्ठ पौषधशाला का निर्माण करता है। तमिस्रा गुफा के मध्यभाग में दो महान् नदियां हैं - उन्मग्नजला और निमग्नजला । वर्धकी रत्न इन नदियों पर रत्नमय मजबूत, अचल और अप्रकंप पुल का निर्माण करता है, जो लाखों खंभों पर प्रतिष्ठित होता है । चक्र रत्न स्त्री रत्न विणमी पाऊण चक्कवट्टीं दिव्वाए मतीए चोदितमती माणुम्माणप्पमाणजुत्तं तेयंसीं रूवलक्खणजुत्तं ठितजोव्वणं केसतिणहं सश्वामयणासणि बलकरि इच्छित सी उन्हफासजुतं समसरीरं भर हे वासंमि सव्वमहिलप्पहाणं ... जुत्तोवयारकुसलं अमरबहूणं सुरूवं रूवेण अणुहरति सुभद्दं भद्दमि जोवणे वट्टमाणि विणमी इत्थीरयणं... | ( आवचू १ पृ २०० ) विद्याधर विनमी ने चक्रवर्ती भरत को सुभद्रा नामक स्त्री रत्न समर्पित किया। वह स्त्री तेजस्वी, शक्तिसंपन्न और सर्व शुभ लक्षणों से युक्त होती है । उसका शरीर मान- उन्मान प्रमाणयुक्त होता है। चिरयौवना उस स्त्री के के न अवस्थित होते हैं । उसका समशीतोष्ण स्पर्श सब रोगों का नाश करता है । उसका संस्थान समचतुरस्र होता है । भरतक्षेत्र में सर्वोत्तम, देवांगनाओं के समान सुन्दर स्त्री रत्न लोकव्यवहार में कुशल होता है । चक्र रत्न आहरणsa णिवेदितं जहा -- चक्करयणं उप्पन्नं 'चक्करयणे आयुधघरसालाओ पडिणिक्खमति अंतलिक्ख पडिवन्नज क्खसहस्ससंपरिवुडे तं दिव्वं चक्क - रयणं अणुगच्छमाणे जोयणंतरियाहि वसहीहि वसमाणे जेणेव मागहतित्थे तेणेव उवागच्छति । तं च किल चक्करयणं जोयणं गंतूण ठाति, तत्थ किल जोयणाण संखा जाता''''दिव्वे 'चक्करयणे वइरामयतुंबे लोहियक्खमयारए जंबूणयमीए णाणामणिखुरप्पवालिपरिगते... णामेण य सुदंसणे णरवइस्स पढमे चक्करयणे । ( आवचू १ पृ १ ८ १ - १८४, १८७) आयुधशाला के रक्षक ने सम्राट् भरत से कहाआयुधशाला में चक्ररत्न उत्पन्न हुआ है । यह चक्र एक हजार देवों से अधिष्ठित होता है जो चक्रवर्ती और उसकी सेना के आगे-आगे चलता है तथा प्रत्येक योजन पर जाकर रुक जाता है। इसी रत्न से योजनों की संख्या का प्रमाण होता है । चक्र की नाभि वज्रमय, आरे लोहिताक्षमय और म स्वर्णमय होती । सम्राट् भरत के चक्ररत्न का नाम था 'सुदर्शन' | छत्र रत्न दिव्वं छत्तरयणं परामुसति, तए णं तं णवणवति Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काकणी रत्न २५९ चक्रवर्ती सहस्सकंचणसलागपरिमंडितं महरिहं अतोज्झरन्नो य मुद्धागतेणं दुक्खं न किंचि जाव हवति । अरोगे य संचारिगं विमाणं सूरातववातवट्रिदोसाण खतकरं तव- सव्वकालं। तेरिच्छियदिव्वमाणसकता य उवसग्गा सव्वे गुणे हिं लद्धं-- ण करेंति तस्स दुक्खं । संगामेऽवि य असत्थवज्झो होहिति अहतं बहुगुणदाणं उऊण विवरीतसुहकयच्छायं । णरो, मणिवरं धरेंतो ठितजोवणकेसअवट्टितणहो, हवति छत्तरयणं पहाणं सुदूल्लभं अप्पुन्नाणं ॥ य सव्वभय विष्पमुक्को, तं मणिरयणं गहाय से णरवई ..."दिवे छत्तरयणे भरहेणं रन्ना परामुळें खिप्पामेव हत्थिरयणस्स दाहिणिल्लाए कुंभीए निक्खिवेइ। दुवालस जोयणाइं पवित्थरइ साहियाइं तिरियं, तं (आवचू १ पृ १९३) खंधावारस्स उवरिं ठवेति । (आवच १ पृ १९७) अमूल्य मणि रत्न चार अंगुल लम्बा और तिरछा महामूल्यवान् दिव्य छत्र रत्न निन्यानवे हजार स्वर्ण- होता है। इसके छह कोण हाते हैं। वैडर्यमणि-सी आभा शलाकाओं से परिमंडित होता है। इसे धारण करने बाला वाला यह रत्न अनुपम द्युतिमान होता है । जो इसे मस्तक अयोध्य होता है। आतप, वर्षा आदि दोषों का नाशक पर धारण करता है, वह सब प्रकार के रोगों और दुःखों छत्र तप से प्राप्त होता है। यह गर्मी में ठंडी और सर्दी से मुक्त रहता है। देव, मनुष्य और तिथंच द्वारा कृत में गर्म छाया देता है। चक्रवर्ती जब इसे हाथ में उठाता उपसर्ग उसे उत्पीडित नहीं करते । संग्राम में निःशस्त्र है तो यह कुछ अधिक बारह योजन में तिरछा फैल जाता होने पर भी वह वध्य नहीं होता। वह सदा युवा बना रहता है। उसके केश और नख नहीं बढ़ते । वह अभय चर्म रत्न होता है। चक्रवर्ती इस मणि रत्न को हस्तिरत्न के दिव्वं चम्मरयणं परामसति, तए णं तं सिरिवच्छ- दाहिने कुम्भस्थल पर स्थापित करता है। सरिसरूवं मृत्तातारयद्धचंदचित्तं अयलमकपं अभिज्जकवयं काकणी रत्न जंतं सलिलासु सागरेसु य उत्तरणं । दिव्वं चम्मरयणं से भरहे छत्तलं दुवालसंसियं अट्ठक णिक अहिकरणसणसत्तरसाइं सव्वधन्नाइं जत्थ रोहंति एगदिवसेण संठितं अट्ठसोवन्निकं कागणि रयणं परामुसति। तए णं तं वाविताई । वासं णाऊण चक्कवट्टीणं परामट्ठ दिव्वचम्म चउरंगुलप्पमाणमेत्तं अट्ठसुवन्नं च विसहरणं अतुलं रयणे दुवालसजोयणाई तिरियं पवित्थरति तत्थ चउरससंठाणसंठियं समतलं माणुम्माणपमाणजोगजुत्तो साहियाई। तए णं से चम्मरयणे खिप्पामेव णावाभूते जाते, लोगे चरंति सव्वजणपन्नवणका। ""अंधकारे जत्थ तेहि तए णं से सेणावइ सखंधावारबले चम्मरयणं दुरूहति । तकं दिव्वप्पभावजुत्तं दुवालसजोयणाणि तस्स लेसाउ सिंधु महानइं विमलजलतुंगवीइयं णावाभूतेणं चम्मरयणेणं विवड्ढं ति तिमिरणिगरपडिसिहिक्काओ, रत्ति च सव्वउत्तरति । (आवचू १ पृ १९१) दिव्य चर्म रत्न का आकार श्रीवत्स जैसा होता है। कालं खंधावारे करेंति आलोकं दिवसभूतं । जस्स पहावेण उस पर मुक्ता, तारे और अर्धचंद्राकार चित्र बने होते चक्कवट्टी तिमिसगुहमतीति सेन्नसहिते अभिजेतं बितियहैं । वह अचल, अकंप और अभेद्य कवच के रूप में यंत्र मड्ढभरहं । रायपवरे कागिणि गहाय तिमिसगुहापुरस्थिजैसा बन जाता है, जिससे नदी और समुद्र आसानी से मपच्चत्थि मिल्लेसु कडएसु जोयणंतरियाई पंचधणसपार किये जा सकते हैं। इस पर सन आदि सत्रह धान्यों यायामविक्खंभाइं जोयणुज्जोयकराइं चक्कनेमिसंठियाई की खेती एक ही दिन में पक जाती है। वर्षा से सुरक्षा चंदमंडलपडिणिकासाइं एगूणपन्नमंडलाइं आलिहमाणेके लिए चक्रवर्ती इसका स्पर्श करता है तो यह चर्म रत्न आलिहमाणे अणपविसइ, जाव धरति चक्कवटी ताव किर कुछ अधिक बारह योजन तक तिरछा फैल जाता है। ताणि मंडलाणि धरंति, गुहा य किर तहा उग्घाडिया नौका के रूप में परिणत चर्म रत्न पर आरूढ हो ससैन्य चेव । तए णं सा तिमिसगुहा तेहिं मंडलेहिं आलोयभूता सेनापति सिन्धु नदी को पार करता है। उज्जोयभूता जाता यावि होत्था। मणि रत्न (आवचू १ पृ १९३,१९४) चउरंगुलप्पमाणमेत्तं च अणग्घेयं तसं छलंसं अणोवम- काकणी रत्न के छह तल, बारह कोटि, आठ कोण जूति दिव्वं मणि रयणपतिसमं वेरुलियं सव्वभूतकंतं । जेण होते हैं। वह अहरन के संस्थान से संस्थित और आठ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रवर्ती २६० काकणी रत्न सुवर्ण जितने वजन वाला होता है। उसका प्रमाण है के अन्तर से काकणी रत्न द्वारा चन्द्रमण्डल जैसे प्रकाशक चार अंगुल । वह विषनाशक, अतुल, समतल और उनपचास मण्डलों का आलेखन करता है। वे मण्डल समचतुरस्र संस्थान वाला होता है। चक्रनेमि संस्थान वाले, पांच सौ धनुष आयाम वाले तथा लोक में मान-उन्मान-प्रमाण इसी के आधार पर एक-एक योजन तक प्रकाश करने वाले होते हैं। इनसे प्रवत्त होते हैं। इस दिव्य प्रभावशाली रत्न की रश्मियां तमिस्रा गुफा आलोकमय, उद्योतमय बन जाती है। चक्रवर्ती की सेना में बारह योजन तक के अंधकार भरहे""कागणिरयणं परामुसति, परामुसित्ता उसभको नष्ट कर देती है। इसके प्रभाव से रात्रि भी दिन कूडस्स पुरथिमिल्लसि कडगंसि णामगं आउडेति । जैसी आलोकमय बन जाती है। (आवचू १ पृ २००) अपर अर्धभरत क्षेत्र पर विजय पाने के लिए चक्रवर्ती चक्रवर्ती भरत ऋषभकूट पर्वत के पूर्वीय भाग में तमिस्रा गुफा में प्रवेश करता है और वहां एक-एक योजन काकणी रत्न से अपना नाम उत्कीर्ण करता है। न काकणी रत्न त को - त का - कोई कर. 18 १२ कोटि-क = कोर से को ८ कोण-को, = सामने तल के ऊपर बाएं = को से को को३ = सामने तल के नीचे बाएं को से को = सामने तल के नीचे दाएं कx = को, से को को = सामने तल के ऊपर दाएं क, = को, से को = पीछे तल के ऊपर दाएं कई = कोड से को, को = पीछे तल के नीचे दाएं कर = को, से को को = पीछे तल के नीचे बाएं क, = को, से को को- = पीछे तल के ऊपर बाएं क = को, से को क. == को से को ६ तल–त, = सामने त४ = बाएं क११ = को५ से को तर = दाएं त५ = ऊपर क१२ = को से को त, = पीछे त = नीचे (इस स्थापना में 'क' कोटि का सूचक है।) Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्प महानिधि २६१ असि रत्न विणासणं कुवलयदलसामलं च रयणिकरमंडलनिभं सत्तुजणकणकरतणडंडं नवमालियपुप्फसुरभिगंधि णाणामणिलतिकभत्तिचित्तं च पधोतमिसिमिसेंतं तिक्खधारं दिव्वं खग्गरयणं लोके अणोवमाणं तं च पुणो वंसरुक्खसिंगतिकालायस विपुललोहडंड कवरवइरभेदयं सव्वत्थ अपहितं किं पुण देहेसु जंगमाणं ? जाव पन्नासंगुलदी हो सोलस अंगुलाई विच्छिन्नो | अट्ठगुलसोणी को जेट्ठपमाणो असी भणितो ॥ (आवचू १ पृ १९६) दिव्य असि रत्न नीलकमल के समान श्यामल, चन्द्र के समान चमक वाला, नव मल्लिका के समान गंध वाला होता है। शत्रुओं का विनाशक, तीक्ष्ण धार वाला वह असि रत्न लोक में अनुपम होता है । इसकी मूठ स्वर्णरत्नों से मंडित होती है । उस पर मणिरत्नों से नाना चित्र निर्मित होते हैं । असि रत्न वंशवृक्ष, श्रृंग, अस्थि, हाथीदांत, लोहदंड और वज्र को भी भेद डालता वह पचास अंगुल लम्बा, सोलह अंगुल चौड़ा और आठ मोटा होता है । 1 दंड रत्न तं भवे दंडरयणं पंचलइयं वइरसारमतियं विणासणं सव्वसत्तुसेन्नाणं खंधावारे णरवइस्स गड्डुदरिविसमपब्भारगिरिपव्वताणं समीकरणं संतिकरणं सुभकरं रन्नो हिदइच्छित मणोरहपुरगं दिव्यमपहितं । तिमिसगुहाए दाहिणिल्लस्स दुवा रस्स कवाडे दंडरयणेण विहाडे । ( आवचू १ पृ १९२ ) दिव्य दण्ड रत्न अप्रतिहत, शांतिकारक, शुभकारक और चक्रवर्ती का मनोरथ पूर्ण करने वाला होता है । उसके पांच लताएं होती हैं । वज्र के सारभाग से निर्मित वह रत्न शत्रुसेना को नष्ट कर देता है तथा गड्ढों, गुफाओं और पर्वतों के विषम भागों को सम बना देता है । सेनापति तमिस्रा गुफा के दक्षिणी भाग के कपाटों कोदंड रत्न से ताड़ित कर खोलता है । एकेन्द्रिय रत्न सत्त एगिंदियरयणा तं जहा - चक्करयणं, छत्तरयणे, चम्मरयणे, दंडरयणे, असिरयणे, मणिरयणे, कागणिरयणे । (आव १२०३ ) चक्रवर्ती के एकेन्द्रिय रत्न सात हैं। ५. असि ६. मणि ७. काकणी १. चक्र २. छत्र ३. चर्म ४. दंड रत्नों की उत्पत्ति - भरहस्स णं रन्नो चक्करयणे छत्तरयणे दंडरयणे असिरयणे एते णं चत्तारि एगिदिययणा आयुधसालाए समुत्पन्ना | चम्मरयणे मणिरयणे कागणिरयणे णव य महाणिहीओ, एते णं सिरिघरंसि समुप्पण्णा, सेणावतिरयणे गाहावतिरयणे, वड्ढतिरयणे पुरोहितग्यणे एते णं चत्तारि मणुरयणा विणीताए रायहाणीए समुप्पन्ना, आसरयणे हत्थिरयणे एते णं दुवे पंचेंदिपरयणा वेयड्ढगिरिपादमूले समुप्पण्णा, इत्थिरयणे उत्तरिल्लाए विज्जाहरसेढीए समुन्ने । ( आवचू १ पृ २०७ ) चक्र, छत्र, दंड और असि-ये चार एकेन्द्रिय रत्न में उत्पन्न होते हैं । आयुधशाला चर्म, मणि, काकणी तथा नव निधियां ये श्रीगृह में उत्पन्न होती हैं । सेनापति, गाथापति, वर्धकी और पुरोहित – ये चार मनुष्य रत्न विनीता राजधानी में उत्पन्न होते हैं । अश्व और हस्ति - ये दो पंचेन्द्रिय रत्न वैताढ्य पर्वत की तलहटी में उत्पन्न होते हैं । स्त्री रत्न उत्तरी विद्याधर श्रेणी में उत्पन्न होता है। नौ महानिधि सप्पे पंडुए पिंगलये सव्वरयण महापउमे । काले य महाकाले माणवग महाणिही संखे ॥ ( आवचू १ पृ२०२) चक्रवर्ती के नौ महानिधि होते हैं १. नैसर्प २. पांड़क ३. पिंगल ४. सर्व रत्न ५. महापद्म नैसर्प महानिधि चक्रवर्ती ६. काल ७. महाकाल ८. माणवक ९. शंख सप्पंमि णिवेसा गामागरणगरपट्टणाणंच । दो मुहमsari खंधावा रावणगिहाणं ॥ ( आवचू १ पृ २०२ ) Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रवर्ती २६२ शंख महानिधि ग्राम, आकर, नगर, पट्टण, द्रोणमुख, मडंब, स्कंधा- महाकाल महानिधि वार और गहों की रचना का ज्ञान नैसर्प महानिधि से लोहस्स य उप्पत्ती होइ महाकालि आगराणं च । होता है। रुप्पस्स सुवण्णस्स य मणिमुत्तिसिलापवालाणं ।। पांडुक महानिधि (आवचू १ पृ २०२) गणियस्स य उप्पत्ती माणम्माणस्स जं पमाणं च । लोह, चांदी तथा सोने के आकर, मणि, मुक्ता, धन्नस्स य बीयाण य णिप्फत्ती पंडुए भणिता। स्फटिक और प्रवाल की उत्पत्ति का ज्ञान 'महाकाल' (आवच १५२०२) महानिधि से होता हैं। गणित की उत्पत्ति, मान-उन्मान का प्रमाण तथा माणवक महानिधि धान्य और बीजों की निष्पत्ति का ज्ञान 'पांडुक' महा- जोहाण य उप्पत्ती आवरणाणं च पहरणाणं च । निधि से होता है। सव्वा य जुद्धणीती माणवगे डंडणीती य ॥ पिंगल महानिधि (आवचू १ पृ २०२) सव्वा आहरणविही पुरिसाणं जा य होति महिलाणं । योद्धाओं, कवचों और आयुधों के निर्माण का ज्ञान आसाण य हत्थीण य पिंगलगणिहिमि सा भणिया ॥ तथा समस्त युद्धनीति और दण्डनीति का ज्ञान 'माणवक' (आवचू १ पृ २०२) महानिधि से होता है। स्त्री, पुरुष, घोड़े और हाथियों की समस्त आभरण- शंख महानिधि विधि का ज्ञान "पिंगल' महानिधि से होता है। णट्टविहि णाडगविही कव्वस्स य चउविहस्स उप्पत्ती । सर्वरत्न महानिधि संखे महाणिहिम्मी तुडियंगाणं च सव्वेसि ।। रयणाणि सव्वरतणे चउदसवि वराइं चक्कवट्रिस्स। (आवचू १ पृ २०२) उप्पज्जती पंचेंदियाइं एगिदियाइं च ।। नत्यविधि, नाटकविधि, चार प्रकार के काव्यों तथा सभी प्रकार के वाद्यों की विधि का ज्ञान 'शंख' महानिधि चक्रवर्ती के सात एकेन्द्रिय और सात पञ्चेन्द्रिय से होता है। रत्न-इन चौदह रत्नों की उत्पत्ति का वर्णन 'सर्वरत्न' पलिओवमट्टितीया णिहिसरिणामा य तेसु खलु देवा । महानिधि से होता है। जेसि ते आवासा, अक्केज्जा आहिवच्चाय ।। महापद्म महानिधि एते णवणिहिरयणा पभूतधणरयणसंचयसमिद्धा । जे वसमणुगच्छंती भरहाहिवचक्कवट्टीणं ।। वत्थाण य उत्पत्ती णिप्फत्ती चेव सव्वभत्तीणं । (आवच १ पृ २०३) रंगाण य धोव्वाण य सव्वा एसा महापउमे ।। वे सभी निधि एक पल्योपम की स्थिति वाले होते (आवचू १ पृ २०२) हैं । जो-जो निधियों के नाम हैं, उन्हीं नामों के देव उनमें रंगे हुए या श्वेत सभी प्रकार के वस्त्रों की उत्पत्ति आवास करते हैं । उनका क्रय-विक्रय नहीं होता और उन व निष्पत्ति का ज्ञान 'महापद्म' महानिधि से होता है। पर सदा देवों का आधिपत्य रहता है। काल महानिधि । वे नौ निधि प्रभूत धन और रत्नों के संचय से काले कालन्नाणं भव्व पुराणं व तिसुवि वासेसु । समृद्ध होते हैं और वे समस्त चक्रवर्तियों के वश में रहते सिप्पसयं कम्माणि य तिण्णि पयाए हितकराणि ।। (आवचू १ पृ २०२) चक्कट्रपतिद्वाणा अठ्ठस्सेहा य णव य विक्खंभो। अनागत व अतीत के तीन-तीन वर्षों के शुभाशुभ का बारसदीहा मंजूस-संठिता जण्हवीयमुहे ।। कालज्ञान, सौ प्रकार के शिल्पों का ज्ञान और प्रजा के वेरुलियमणिकवाडा कणगमया विधिहरयणपडिपुन्ना । लिए हितकर सुरक्षा, कृषि, वाणिज्य --इन तीन कर्मों ससिमूरचक्कलक्खण अणुसमवयणोववत्तीया ॥ का ज्ञान 'काल' महानिधि से होता है। (आवचू १ पृ २०२) Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रवर्ती भरत २६३ चक्रवर्ती प्रत्येक महानिधि आठ-आठ चक्रों पर अवस्थित है। और ह्री-श्री-धति-कीति से सम्पन्न थे। वे हजार शुभ वे आठ योजन ऊंचे, नो योजन चौड़े, बारह योजन लम्बे लक्षणों से युक्त थे । वे अश्वपति, गजपति, नरपति और तथा मंजषा के संस्थान वाले होते हैं। वे सभी गंगा के नौ निधियों के स्वामी थे। भरतक्षेत्र के प्रथम अधिपति मुहाने पर अवस्थित रहते हैं। थे। वे बत्तीस हजार जनपद-राजाओं पर शासन करते उन निधियों के कपाट वैडर्य-रत्नमय और सुवर्णमय थे। उनके हजारों रानियां थीं। लाखों देव उनकी सेवा होते हैं । उन पर चन्द्र, सूर्य और चक्र के आकार के चिह्न में थे। उन यशस्वी और चौदह रत्नों के अधिपति चक्रहोते हैं । वे सभी समान होते हैं और उनके दरवाजे के वर्ती का साम्राज्य पश्चिम में सागर पर्यंत और उत्तर में मुखभाग में खंभे के समान वृत्त और लम्बी द्वार-शाखाएं मंदरगिरिपर्यंत फैला हुआ था। होती हैं। प्रव्रज्या ४. चक्रवर्ती भरत भरहसामी दसहिं रायसहस्सेहिं सद्धि पब्वइओ। भरहे रहं परावत्तेत्ता जेणेव उसभकडे पव्वते तेणेव सेसा णव च विकणो सहस्सपरिवारा पव्वइया । आइच्चउवागच्छति उवागच्छित्ता तं पव्वयं तिक्खत्तो रहसीसेणं जसो सकोण अभिसित्तो। एवं अट्र पूरिसजुगाणि फुसति रहं ठवेति, कागणिरयणं परामुसति, परामुसित्ता अभिसित्ता ।। ___ (आवचू १ पृ २२८) उसभकडस्स पुरथिमिल्लसि कडगंसि णामगं आउडेति। भरत चक्रवर्ती दस हजार राजाओं के साथ प्रव्रजित ओसप्पिणी इमीसे ततियाएँ समाएँ पच्छिमे भाए। हए । शेष नौ चक्रवर्ती हजार-हजार राजाओं के साथ अहयंमि चक्कवट्टी भरहो इति णामधेज्जेणं ॥ प्रवजित हुए । सम्राट भरत की दीक्षा के पश्चात् शक्र ने अहमंसि पढमराया इहाहि भरहाहिवो णरवरिंदो। आदित्ययश का राज्याभिषेक किया। आठ पुरुषयुग-- णत्थि महं पडिसत्तू जितं मए भारह वासं ।। महायश, अतिबल, बलभद्र, बलवीर्य, वीर्य, जलवीर्य (आवचू १ पृ २००) और दंडवीर्य तक यह अभिषेक का क्रम चला। चक्रवर्ती भरत ऋषभकूट पर्वत के पूर्वी भाग में भरत को कैवल्य काकणी रत्न से अपना नाम-परिचय उत्कीर्ण करता है__ इस अवसर्पिणी कालचक्र के तीसरे अर के पश्चिम एयं पूण्णपयं सोच्चा, अत्थधम्मोवसोहियं । भाग में मैं भरत नाम वाला प्रथम चक्रवर्ती हैं। मैं संपूर्ण भरहो वि भारहं वासं, चेच्चा कामाइ पव्वए॥ भरतक्षेत्र का अधिपति हुँ । मेरा कोई प्रतिशत्र नहीं है। (उ १८।३४) मैंने भारतवर्ष को जीत लिया है। अर्थ (मोक्ष) और धर्म से उपशोभित पवित्र उपभरहे राया महता हिमवंतमलयमंदरजावरज्जं पसा- देश को सुनकर भरत चक्रवर्ती ने भारतवर्ष और कामहेमाणे विहरति । (आवचू १ पृ २०७) भोगों को छोड़कर प्रव्रज्या ली। भरत सम्राट का साम्राज्य हिमवान्, मलय और आयंसघरपवेसो भरहे पडणं च अंगुलीअस्स । मंदर पर्वत पर्यंत व्याप्त था। सेसाणं उम्मुअणं संवेगो नाण दिक्खा य । वसुधर गुणधर जयवर हिरिसिरिधितिकित्तिधारक नरिंद । (आवनि ४३६) लक्खणसहस्सधारक नायमिणं णे चिरं धारे । सव्वालंकारविभूसितो आयंसघरं अतीति, तत्थ य हयवतिगजवतिणरवतिणवनिहिवति भरहवासपढमवति !। सव्वंगिओ पूरिसो दीसति, तस्स एवं पेच्छमाणस्स अंगुलीबत्तीसजणवयसहस्सरायसामी चिरं जीव ॥ ज्जगं पडियं तं च तेण ण णायं पडियं, एवं तस्स पलोएं पढमणरीसर ईसर हियईसर महिलियासहस्साणं । तस्स जाहे तं अंगुलि पलोएति जाव सा अंगुली न सोहति देवसयसहस्सीसर चोद्दसरयणीसर जसंसी ॥ तेण अंगलीज्जएण विणा, ताहे पेच्छति पडियं, ताहे सागरगिरिपेरंत उत्तरपाईणमभिजितं तुमए। कडगंपि अवणेति, एवं एक्केक्क आभरणं अवणंतेण तं अम्हे देवाणुप्पियस्स विसए परिवसामो ॥ सव्वाणि अवणीताणि, ताहे अप्पाणं पेच्छति, उच्चिय (आवचू १ पृ १९८, १९९) पउमं व पउमसरं असोभमाणं पेच्छई। पच्छा भणति भरत चक्रवर्ती रत्नों का धारक, गुणों का आलय आगंतुएहिं दवेहिं विभूसितं इमं सरीरगति, एत्थं संवेग Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रवर्ती २६४ मावनो । इमं च एवं गतं सरीरं, एवं चितेमाणस्स ईहाबूहामग्गणगवेसणं करेमाणस्स अपुव्वकरणं भाणं अणुपविट्ठो केवलणाणं उप्पाडेति । ( आवचू १ पृ २२७ ) एक दिन चक्रवर्ती भरत ने आदर्श गृह में प्रवेश किया | वहां वे अपने अलंकारों से अलंकृत शरीर को शीशे में देख रहे थे । सहसा उनकी अंगुली से एक अंगूठी नीचे गिर गई । जब अंगूठीविहीन अंगुली पर उनकी दृष्टि पड़ी तो वह अंगुली सुन्दर नहीं लगी, इससे चिंतनधारा बदली और एक-एक कर उन्होंने सभी आभूषण उतार दिये। फिर अपने शरीर को शीशे में देखा तो वह पद्मविहीन पद्मसरोवर की तरह अरमणीय लगा । शरीरप्रेक्षा से यह अनुचितन उभरा कि यह शरीर मूल में सुन्दर नहीं है, बाह्य आभूषणों से सुन्दर लगता हैइस अनुप्रेक्षा से वैराग्य वृद्धि हुई । ईहा, अपोह, मार्गणा और गवेषणा करते-करते सम्राट् भरत ने अपूर्वकरण ध्यानश्रेणी में अनुप्रविष्ट हो केवलज्ञान प्राप्त कर लिया । ५. सगर आदि चक्रवर्ती सगरो वि सागरंतं, भरहवासं नराहिवो । इस्सरियं केवलं हिच्चा, दयाए परिनिव्वडे ॥ (उ १८।३५) सगर चक्रवर्ती सागर पर्यंत भारतवर्ष और पूर्ण ऐश्वर्य को छोड़ अहिंसा की आराधना कर मुक्त हुए । मधवा चक्रवर्ती चइत्ता भारहं वासं, चक्कवट्टी महिड्ढिओ । पव्वज्जमब्भुवगओ, मघवं नाम महाजसो || (१८३६) महद्धिक और महान् यशस्वी मघवा चक्रवर्ती ने भारतवर्ष को छोड़कर प्रव्रज्या ली । सनत्कुमार चक्रवर्ती सकुमारी मणुसिन्दो, चक्कवट्टी महिडिओ | पुत्तं रज्जे ठवित्ताणं, सो वि राया तवं चरे ॥ ( उ १८/३७) को राज्य पुत्र महर्द्धिक राजा सनत्कुमार चक्रवर्ती ने सौंप कर तपश्चरण किया । शांति चक्रवर्ती चइत्ता भारहं वासं, चक्कवट्टी महिडिओ | संतसंतिक लोए, पत्तो गइमणुत्तरं ॥ इक्खागरायवसभो, विक्खायकित्ती धिइमं महर्द्धिक और लोक में शांति करने वाले शांतिनाथ चक्रवर्ती ने भारतवर्ष को छोड़कर अनुत्तर गति प्राप्त की । कं चक्रवर्ती सगर आदि चक्रवर्ती कुंथु नाम नराहिवो । मोक्खं गओ अणुत्तरं ॥ ( उ १८३९ ) इक्ष्वाकु कुल के राजाओं में श्रेष्ठ, विख्यात कीर्ति वाले, धृतिमान् भगवान् कुन्थु नरेश्वर ने अनुत्तर मोक्ष प्राप्त किया । अर चक्रवर्ती सागरतं जहित्ताणं, भरहं वासं नरीसरो । अरो य अरयं पत्तो पत्तो गइमणुत्तरं ॥ ( उ १८/४०) सागर पर्यंत भारतवर्ष को छोड़कर, कर्मरज से मुक्त होकर 'अर' नरेश्वर ने अनुत्तर गति प्राप्त की । महापद्म चक्रवर्ती चइत्ता भारहं वासं, चक्कवट्टी नराहिवो । चइत्ता उत्तमे भोए, महापउमे तवं चरे ॥ विपुल राज्य, सेना और वाहन तथा छोड़कर महापद्म चक्रवर्ती ने तप किया । हरिषेण चक्रवर्ती (उ १८ १३८) ( शत्रु - राजाओं का मान मर्दन चक्रवर्ती ने पृथ्वी पर एक छत्र शासन त्तर गति प्राप्त की । जय चक्रवर्ती एगच्छत्तं पसाहित्ता, महि माणनिसूरणो । हरिसेणो मणुस्सिदो, पत्तो गइमणुत्तरं ॥ (उ १८/४१) उत्तम भोगों का आचरण (उ १८ ।४२ ) करने वाले हरिषेण किया, फिर अनु अन्निओ रायसहस्सेहि, सुपरिच्चाई दमं चरे । जयनामो जिणक्खायं, पत्तो गइमणुत्तरं ॥ ( उ १४/४३) Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रवर्ती और वासुदेव कब ? जय चक्रवर्ती ने हजार राजाओं के साथ राज्य का परित्याग कर जिन भाषित दम का आचरण किया और अनुत्तर गति प्राप्त की । ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती जाईपराजिओ खलु, कासि नियाणं तु हत्थिणपुरम्मि । चुलणीए बंभदत्तो, उववन्नो पउमगुमाओ ॥ कंपिल्ले संभूओ, चित्तो पुण जाओ पुरिमतालम्मि । सेकुलम्मि विसाले, धम्मं सोऊण पव्वइओ ॥ कंपिल्लम्म य नयरे, समागया दो वि चित्तसंभूया । सुहदुक्खफल विवागं कहेंति ते एकमेकस्स ॥ ( उ १३।१-३) जाति से पराजित हुए संभूत ने हस्तिनापुर में निदान ( चक्रवर्ती होऊं - ऐसा संकल्प ) किया । वह सौधर्म देवलोक के पद्मगुल्म नामक विमान में देव बना । वहां से च्युत होकर चुलनी की कोख में ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती के रूप में उत्पन्न हुआ । संभूत काम्पिल्य नगर में उत्पन्न हुआ । चित्र पुरिमताल में एक विशाल श्रेष्ठिकुल में उत्पन्न हुआ । वह धर्म सुन प्रव्रजित हो गया । काम्पिल्य नगर में चित्र ( ब्रह्मदत्त) और सभूत ( मुनि) दोनों मिले। दोनों ने परस्पर एक दूसरे के सुख-दुःख के विपाक की बात की । आसिमो भायरा दो वि, अन्नमन्नवसा णुगा । अन्नमन्नहिए सिणो अन्नमन्नमणुरता, दासा दसणे आसी, हंसा मयंगतीरे, सोवागा देवाय देवलोम्मि, आसि अम्हे इमा नो छट्टिया जाई, अन्नमन्नेण 11 मिया कालिंजरे नगे । कासिभूमिए ॥ महिड्डिया | जा विणा ॥ ( उ १३।५-७ ) ब्रह्मदत्त ने मुनि से कहा हम दोनों भाई थे - एक दूसरे के वशवर्ती, परस्पर अनुरक्त और परस्पर हितैषी । हम दोनों दशार्ण देश में दास, कालिंजर पर्वत पर हरिण, मृतगंगा के किनारे हंस और काशी देश में चांडाल थे । हम दोनों सौधर्म देवलोक में महान् ऋद्धि वाले देव थे । यह हमारा छठा जन्म है, जिसमें हम एक दूसरे से बिछुड़ गये । पंचाल या विय बम्भदत्तो, साहुस्स तस्स वयणं अकाउं अणुत्तरे भुंजिय कामभोगे, अणुत्तरे सो नरए पविट्ठो ॥ ( उ १३ । ३४) पंचाल जनपद के राजा ब्रह्मदत्त ने मुनि के वचन २६५ चक्रवर्ती का पालन नहीं किया । वह अनुत्तर कामभोगों को भोगकर अनुत्तर (अप्रतिष्ठान ) नरक में गया । ६. चक्रवर्ती और इन्द्र भव्य पोग्गल परियदृद्धं जं नरदेवंतरं सुए भणियं । तो सो भव्वो, कालो जमयं निव्वाणभावीणं ॥ नरदेवाणं भंते! केवतियं कालं अंतरं होइ ? गोमा ! जहन्नेणं साइरेगं सागरोवमं, उक्कोसेणं अनंतं कालं - अवढं पोग्गलपरियटं देसूणं । (भग १२ । १९३ ) चक्रवर्ती भव्य एव भवति नाभव्यः यस्मादयमपार्ध पुद्गलपरावर्त लक्षणोऽन्तरकालो भाविनिर्वाणपदानामेव घटते । अभव्यानां तु भवनपत्यादिभाविदेवानामुत्कृष्टतो वनस्पतिकालस्यैवान्तराऽभिधानात् । किञ्च, अन्यत्रापि देवेन्द्र - चक्रवर्तित्वादिपदयोग्यकर्मणां बन्धो भव्यानामेवोक्तः । ( विभा ८०५ मवृ पृ ३२९) भगवती सूत्र में चक्रवर्ती का अन्तरकाल जघन्यतः सातिरेक सागरोपम और उत्कृष्टतः देशोन अपार्ध पुद्गल परावर्त्त प्रतिपादित है । इस आधार पर कहा गया है। कि चक्रवर्ती भव्य ही होता है, अभव्य नहीं । जो भविष्य में मुक्त होने वाले जीव हैं, उन्हीं के लिए अंतरकाल अपार्ध पुद्गलपरावर्त्तं घटित होता है । भवनपति आदि अभव्य देवों का अन्तरकाल अनन्त है । इन्द्र, चक्रवर्ती आदि पदों के योग्य कर्मों का बंध भव्य जीवों के ही होता है - ऐसा अन्य ग्रन्थों में भी प्रतिपादित है । ७. चक्रवर्ती और वासुदेव कब ? उस भरहो अजिए सगरो मघवं सणकुमारो अ । धम्मस्स य संतिस्स य जिणंतरे चक्कवट्टिदुगं ॥ संती कुंथू अ अरो अरहंता चेव चक्कवट्टी अ । अरमल्ली अंतरे उ हवइ सुभूमो अ कोरव्वो ॥ नमिनेमिसु जयनामो अट्ठासंतरे मुणिसुव्वए नमिमि अ हुंति दुवे पउमनाभहरिसेणा । बंभो ॥ पंचरहंते वंदति केसवा पंच आणुपुब्बीए । सिज्जंस तिविट्ठाई धम्म पुरिससीहता ॥ अरमल्लिअंतरे दुणि केसवा पुरिसपुंडरिअदत्ता । मुणिसुव्वयनमिअंतरि नारायण कण्हु नेमिमि ॥ ( आवनि ४१६-४२० ) ( किस तीर्थंकर के कालखंड में कौन से चक्रवर्ती और वासुदेव हुए ? उनकी आयु और अवगाहना कितनी थी, इसका विवरण इस प्रकार है - ) Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रवर्ती २६६ चक्रवर्ती और वासुदेव का क्रम वासुदेव । । । आयु वर्ष ८४ लाख पूर्व ७२ . ६० , ५० ४० | 000000000 २ ० ० ०००००००००० ....... । ८० १ ८४ लाख वर्ष ७२ , | । । तीर्थकर चक्रवती । अवगाहना धनुष ऋषभ | भरत | . ५०० अजित | सगर ० ४५० सम्भव । ४०० अभिनन्दन । ० ० । ३५० सुमति । ० ० ३०० पद्म । २५० सुप व । . ० २०० चन्द्र । ० १५० सुविधि । ० शीतल । ० । । ९० श्रेयास त्रिपृष्ठ वासुपूज्य ० हिपृष्ठ विमल । । स्वयम्भू । अनन्त । ० । पूरुषोत्तम ५० धर्म । ० । पुरुषसिंह । ४५ ० । मघवा । सनत्कुमार | ० शान्ति । शान्ति • ४० । कुन्थु । ० । ३५ । अर । ० । ३० | पुरुषपुण्डरीक । २९ । सूभूम ० २८ ० दत्त २६ मल्लि । । ० । २५ मुनिसुव्रत । पद्म । ० । २० । ० । नारायण १६ नमि । हरिषेण । ० । १५ । जय । ० १ २ नेमि । ० । कृष्ण | १० ० ब्रह्मदत्त । ० । ७ पार्श्व ० ० । ९हाथ । ० । _ ७ हाथ لها مما سه | ००००० IA ००० . 1 । १ । । ९५००० वर्ष । । ८४००० ,, । ६५००० ,, । ६०००० ५ ६००० , । ५५००० ,, । ३०००० ,, । १२००० ॥ । १०००० , । ३००० ,, | १००० , ७०० १०० , . ००० । ७२ ॥ चक्रवर्ती और वासुदेव के होने का क्रम इस प्रकार ८. चक्रवर्ती और वासुदेव का क्रम चक्किदुगं हरिपणगं पणगं चक्कीण केसवो चक्की। केसव चक्की केसव दु चक्की केसी अ चक्की अ॥ (आवनि ४२१) दो चक्रवर्ती, पांच वासुदेव, पांच चक्रवर्ती, वासुदेव, चक्रवर्ती, वासुदेव, चक्रवर्ती, वासुदेव, दो चक्रवर्ती, वासुदेव, चक्रवर्ती। Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायिक चारित्र २६७ चारित्र चतरिन्द्रिय -स्पर्शन, रसन, घ्राण और चक्षु-इन | * चारित्र के आचार (द. आचार) ___ चार इन्द्रियों वाले जीव । (द्र. त्रस) * चारित्र विनय (द. विनय) चतुविशतिस्तव –चौवीस अर्हतों की उत्कीर्तना। | | * चारित्र धर्म के प्रकार (व. धर्म) (द्र. स्तवस्तुति) | * * चारित्र भावना (5. भावना) चन्द्रप्रभु-आठवें तीर्थंकर। (द्र. तीर्थंकर) * अप्रत्याख्यानकषाय के क्षयोपशम से देश चारित्र चरणसत्तरी-प्रतिदिन किया जाने वाला चारित्रिक | (द्र. श्रावक) * कषाय के उदय से चारित्रघात ___ अनुष्ठान । इसके सत्तर अंग हैं * चारित्रसम्पन्न को ही मन:पर्यवज्ञान वय समणधम्म संजम वेयावच्चं च बंभगुत्तीओ। (द्र. मनःपर्यवज्ञान) नाणाइतियं तव कोहनिग्गहाई चरणमेयं ॥ * चारित्र-अतिशय से जंघाचारण लब्धि (ब्र. लब्धि) (ओभा २) * चारित्रमोह के प्रकार (द्र. कर्म) पांच महाव्रत, दस श्रमण धर्म, सतरह प्रकार का * चारित्र : सामायिक का एक भेद । संयम, दस प्रकार का वैयावृत्त्य, नौ ब्रह्मचर्यगुप्ति, ज्ञान, * चारित्र सामायिक की स्थिति, । दर्शन, चारित्र, बारह प्रकार का तप (अनशन आदि) ग्रहण की अर्हता, काल, दिशा आदि । (द्र. सामायिक) * सामायिक और कालचक्र........."J और क्रोध आदि चार कषायों का निग्रह -इन्हें चरण * चारित्रसम्पन्नता और ध्यान द्र. ध्यान) सत्तरी कहा जाता है। चारित्र-महाव्रत आदि का आचरण । सामायिक १. चारित्र का निर्वचन और लक्षण की साधना। ..एयं चयरित्तकरं, चारित्तं होइ आहियं ।। १. चारित्र का निर्वचन और लक्षण (उ २८१३३) २. चारित्र के प्रकार जो कर्म-संचय को रिक्त करता है, वह चारित्र है। ३. सामायिक चारित्र चरन्ति-गच्छन्त्यनेन मुक्तिमिति चारित्रम् । * तीर्थंकर के सामायिक चारित्र (द्र. तीर्थकर) । (उशावृ प ५५६) ४. छेदोपस्थापनीय चारित्र जिससे मुक्ति की प्राप्ति होती है, वह चारित्र है। ५. परिहारविशुद्धि चारित्र चारित्रं."सदसत्क्रियाप्रवृत्तिनिवृत्तिलक्षणम् । ० परिहार तप का क्रम (उशावृ प ५५६) • आहार विधि चारित्र का लक्षण है-सत् आचरण में प्रवृत्ति और • कालमान असत् आचरण से निवृत्ति । ० तप समाप्ति के बाद का क्रम २. चारित्र के प्रकार ६. सूक्ष्मसम्पराय चारित्र ____चरित्तगुणप्पमाणे पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा-सामा* सूक्ष्मसम्पराय गुणस्यान (द्र. गुणस्थान) इयचरित्तगुणप्पमाणे, छेदोवट्ठावणियचरित्तगुणप्पमाणे, ७. यथाख्यात चारित्र ८. कषाय-विलय से चारित्र-प्राप्ति परिहारविसुद्धियचरित्तगुणप्पमाणे, सुहुमसंपरायचरित्तगुण९. चारित्रिक स्थिरता के आलम्बन सूत्र प्पमाणे, अहक्खायचरित्तगुणप्पमाणे । (अनु ५५३) १०. चारित्र का मूल्य चारित्र के पांच प्रकार हैं-सामायिक, छेदोपस्थाप११. चारित्र सम्पन्नता के परिणाम नीय, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसंपराय और यथाख्यात । १२. चारित्र और सम्यक्त्व ३. सामायिक चारित्र १३. चारित्र और नय सावज्जजोगविरइ त्ति"...." (विभा १२६३) १४. चारित्र (शील) के अठारह हजार अंग |'सर्वथा सावद्ययोग की विरति सामायिक है। Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र २६८ परिहारविशुद्धि चारित्र . समिति साङ्गत्येनकीभावेन वा आयो - गमनं-प्रवर्त्तनं छेदोपस्थापनीय चारित्र के दो प्रकार हैंसमायः स प्रयोजनमस्य सामायिकम् । तच्च सकलसाव- १. निरतिचार-यह दो अवस्थाओं में होता हैद्यपरिहार एव । तत्रैव सति साङ्गत्येन स्वपरविभागा- ० शिष्य को विस्तार से महाव्रतों की उपस्थापना भावेन च सर्वत्र प्रवृत्तिसम्भवात् । यद्वा समो-रागद्वेष- दी जाने पर। विरहितः स चेह प्रस्तावाच्चित्तपरिणामस्तस्मिन्नायो- • एक तीर्थ से दूसरे तीर्थ में जाने पर। गमनं समायः स एव सामायिकम् । (उशाव प ५६७) २. सातिचार-मूल गुण का घात हो जाने पर पुनः • अपने और पराये का भेद किये बिना प्रवत्ति करना महाव्रतों का आरोपण करना सातिचार छेदोपस्थासामायिक है। सर्व सावध योग का परिहार करने पनीय चारित्र है। पर ही सामायिक हो सकती है। ये दोनों ही अवस्थाएं स्थितकल्प साधु में होती है। ० राग-द्वेष से रहित चित्त का परिणाम सम है, उसमें ५. परिहारविशुद्धि चारित्र रहना सामायिक है। परिहारेण विसुद्धं सुद्धो वा तओ जहिं विसेसेण । प्रकार तं परिहारविसुद्धं परिहारविद्धियं नाम । ""सामाइयं दुहा तं च । इत्तरमावकहं ति य पढमं पढमंतिमजिणाणं ॥ (विभा १२७०) परिहार नामक तपविशेष के द्वारा शुद्धि प्राप्त तित्थेसुमणारोवियवयस्स सेहस्स थोवकालियं । करना परिहारविशुद्धि चारित्र है। सेसाणमावकहियं तित्थेसु, विदेहयाणं च ।। (विभा १२६३,१२६४) प्रकार सामायिक चारित्र के दो भेद हैं - इत्वरिक-स्वल्प- परिहारविशुद्धियचरित्तगुणप्पमाणे दुविहे पण्णत्ते, कालीन और यावत्कथिक-आजीवन । तं जहा—निव्विसमाणए य निविट्ठकाइए य । (अनु५५३) - इत्वरिक सामायिक चारित्र भरत और ऐरावत क्षेत्र तं द्रविगप्पं निव्विसमाण-निविद्रकाइयवसेणं। में प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के समय के उन शैक्ष परिहारियाणपरिहारियस्स कप्पट्रियस्स वि य ।। साधओं के तब तक होता है, जब तक महाव्रतों का नवको गणं इदं प्रतिपद्यते, तद्यथा-चत्वारः परिविस्तार से आरोपण नहीं किया जाता। महाविदेह क्षेत्र हारिकाः, चत्वारश्चानुपरिहारिकाः, एकस्तु कल्पस्थितः। में सब साधओं तथा शेष बावीस तीर्थंकरों के शासन में तत्र परिहारिकाणां तदासेवकत्वादिदं निर्विशमानकमुच्यते, यावत्कथिक सामायिक चारित्र होता है। अनुपरिहारिकाणां कल्पस्थितस्य च विहितवक्ष्यमाणतपसां ४. छेदोपस्थापनीय चारित्र निविष्टकायिकमभिधीयते । (विभा १२७१ मव पृ ४७८) परियायस्स य छेओ जत्थोवट्ठावणं वएस च । परिहार विशुद्धि के दो प्रकार हैं --निविशमान और छेओवदावणमिह ....." निविष्टकायिक । (विभा १२६८) नौ साधु इस तप को प्रारम्भ करते हैं। उनमें एक जिसमें सामायिक चारित्र की पर्याय का छेद और कल्पस्थित, चार पारिहारिक और चार अनूपारिहारिक महाव्रतों का पुनः उपस्थापन किया जाता है, वह होते हैं। वर्तमान में जो पारिहारिक मूनि परिहार तप छेदोपस्थापनीय चारित्र है। करते हैं, वे निविशमान कहलाते हैं। जो परिहार तप प्रकार कर चकते हैं और वर्तमान में सेवा में नियुक्त होते हैं, वे ' छेओवट्ठावणियचरित्तगुणप्पमाणे दुविहे पण्णते तं निर्विष्टकायिक कहलाते हैं। जहा-साइयारे य निरइयारे य । (अनु ५५३) परिहार तप का क्रम सेहस्स निरइयारं तित्थंतरसंकमे च तं होज्जा। गिम्ह-सिसिर-वासासं चउत्थयाईणि बारसंताई। .. मूलगुणघाइणो साइयारमुभयं च ठियकप्पे॥ अड्ढापक्कंतीए जहण्णमज्झिमुक्कोसयतवाणं ॥ - (विभा १२६९) (विभा १२७३) Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ष्मसंपराय चारित्र ग्रीष्म जघन्य उपवास (चतुर्थ भक्त ) मध्यम बेला उत्कृष्ट तेला आहार - विधि शिशिर बेला ( षष्ठभक्त) तेला चोला सेसा उ निययभत्ता पायं होइ नवहं वि नियमा न २६९ भत्तं च ताणमायामं । कप्पए सेसयं सव्वं ॥ ( विभा १२७४ ) अनुपरिहारिक कल्पस्थिताः पञ्चापि प्रायो नियतभक्ता नित्यभोजिनो भवन्ति । प्रायोग्रहणाद् निजेच्छया कदाचिदुपवासमपि कुर्वन्ति । भक्तं च तेषां सर्वदैवाऽनुपरिहारिक कल्पस्थितानां पारणके परिहारिकाणां च सर्वेषामाचाम्लमेव भवति । शेषं तु विकृतिलेपकृदादिकं स्तु सर्वं नवानामपि नियमाद् न कल्पते । ( विभामवृ पृ ४७९) अनुपारिहारिक और कल्पस्थित प्रायः नित्यभोजी होते हैं । वे स्वेच्छा से कभी-कभी उपवास कर लेते हैं । वे प्रतिदिन तथा पारिहारिक पारणे के दिन आयम्बिल करते हैं । उनमें से कोई भी साधु विकृति या लेपकृत वस्तु का प्रयोग नहीं करते हैं । कालमान परिहारिया - ऽणुपरिहारियाण कप्पट्ठियस्स वि य भत्तं । छ छम्मासा उ तवो अट्ठारसमासिओ कप्पो ॥ ( विभा १२७५ ) परिहारविशुद्धि साधना का कालमान अठारह महीने है । पारिहारिक, अनुपारिहारिक और कल्पस्थित - तीनों में से प्रत्येक के छह-छह महीने का तप होता है । तप समाप्ति के बाद का क्रम वर्षा तेला (अष्टमभक्त ) चोला पंचोला कप्पसमत्तीए तयं जिणकप्पं वा उवेंति गच्छं वा । ठिकप्पे च्चिय नियमा दो पुरिसजुगाई ते होंति । ( विभा १२७६ ) परिहार तप की समाप्ति पर कुछेक मुनि पुनः परिहार तप को स्वीकार करते हैं । कुछेक जिनकल्प को स्वीकार करते हैं । कुछेक संघ में प्रवेश कर लेते हैं । इसलिए पारिहारिक तप स्थितकल्प की अवस्था में होता है । वह प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के समय में ही होता चारित्र ६. सूक्ष्मसंपराय चारित्र कोवाइ संपराओ तेण जओ संपरीइ संसारं । तं सुहुमसंपरा, सुहुमो जत्थावसेसो सो | ( विभा १२७७) क्रोध आदि कषाय संपराय हैं। जीव उनसे संसार में भ्रमण करता है। जहां सूक्ष्म कषाय (लोभ) अवशेष रहता है, वह सूक्ष्मसम्पराय चारित्र है । सुमो अस्य रागः सुहुमसंपरागः । ( आवचू १ पृ १०३ ) जिसके सूक्ष्म राग शेष रहता है, वह सूक्ष्मसंपराग (य) है । लोभाणुं वेअंतो जो खलु उवसामओ व खवगो वा । सो सुहुमसंपराओ अहक्खाया ऊणओ किंची ॥ ( आवनि ११७ ) उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी में आरूढ साधक सूक्ष्म लोभाणुओं का वेदन करता है, उस समय की चारित्रिक स्थिति को सूक्ष्मसंपराय चारित्र कहा जाता है । यह यथाख्यात चारित्र से कुछ न्यून होता है । दंसण महाईओ भण्णइ अनियट्टिबायरो परओ । ..... जाव उ सेसो संजलणलोभ संखेज्जभागो त्ति ॥ तदसंखेज्जइभागं समए समए समेइ एक्केक्कं । अंतमुत्तमेत्तं तस्सा संखेज्जभागं पि ॥ ( विभा १३००, १३०१ ) दर्शनमोह के अतीत हो जाने पर जब तक संज्वलन लोभ का संख्याततम भाग शेष रहता है, तब तक अनिवृत्तिबादर गुणस्थान रहता है । श्रेणिआरूढ मुनि संज्वलन के संख्याततम भाग के असंख्य भाग करता है। उन असंख्य भागों को एक- एक समय में उपशान्त या क्षीण करता है, तब अन्तर्मुहूर्त्त वाला सूक्ष्मसंपराय चारित्र प्राप्त होता है । प्रकार सुमपरायचरितगुणप्पमाणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा - संकि लिस्समाणए य विसुज्झमाणए य । ( अनु ५५३ ) विलग्गतं विसुज्झमाणं तओ चयंतस्स । तह संकि लिस्समाणं परिणामवसेण विन्नेयं ॥ ( विभा १२७८ ) सूक्ष्मसंपराय चारित्र के दो भेद हैं-संक्लिश्यमान और विशुद्धयमान । इन भेदों का कारण है विशुद्ध और संक्लिष्ट परिणाम । यह चारित्र श्रेणिआरोहण के समय Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र चारित्रिक स्थिरता विशुद्धयमान होता है । उपशांतमोह गुणस्थान से गिरते तेषां लाभः । क्षपकश्रेणौ तु क्षयादिति । सूक्ष्मसंप रायसमय वह संक्लिश्यमान होता है । यथाख्यातचारित्रे तूपशमश्रेणी कषायोपशमात्, क्षपकश्रेणी तु तत्क्षाल्लभ्येते । (विभामवृ पृ ४७४ ) सामायिक, छेदोपस्थापनीय, परिहारविशुद्धि – ये तीनों चारित्र श्रेणी आरोहण से पूर्व कषाय के क्षयोपशम प्राप्त होते हैं । अनिवृत्ति गुणस्थान में उपशमश्रेणी की अपेक्षा कषाय के उपशम से और क्षायिकश्रेणी की अपेक्षा कषाय के क्षय से प्राप्त होते हैं । सूक्ष्मसंपराय और यथाख्यात चारित्र उपशमश्रेणी की अपेक्षा कषाय के उपशम से तथा क्षायिकश्रेणी की अपेक्षा कषाय के क्ष से प्राप्त होते हैं । ७. यथाख्यात चारित्र अह सो जात्थे आङोऽभिविहीए कहियमक्खायं । चरण सामुदितं तमहक्खायं जहखायं ॥ ( विभा १२७९ ) afarerraषायं क्षपितोपशमितकषायावस्थाभावि । इह चोपशमितकषायावस्थायामकषायत्वं कषायकार्याभावात्, यथाख्यातम् अर्हत्कथितस्वरूपानतिक्रमवत् । ( उशावृप ५६८ ) जब क्रोध, मान, माया और लोभ सर्वथा उपशान्त या क्षीण हो जाते हैं, उस समय की चारित्र - स्थिति को यथाख्यात चारित्र कहा जाता है । .२७० अर्हत् द्वारा प्रस्तुत चारित्र का जो स्वरूप प्ररूपित है उसका अतिक्रमण न करना यथाख्यात है । प्रकार अक्खायचरितगुणप्पमाणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा पडिवाई य अपडिवाई य । ( अनु ५५३ ) यथाख्यात चारित्र के दो प्रकार हैं- प्रतिपाती (उपशम चारित्र) और अप्रतिपाती ( क्षायिक चारित्र ) । अकसायं अहक्खायं, छउमत्थस्स जिणस्स वा । ( उ २८|३३) छद्मस्थस्य उपशान्तक्षीणमोहाख्यगुणस्थानद्वयवर्त्तिनः । केवलिनः सयोग्ययोगिगुणस्थानद्वयस्थायिनः । ( उशावृप ५६९ ) गुणस्थान के आधार पर इसके अधिकारी दो वर्गों में विभक्त हैं १. छद्मस्थ - उपशान्तमोह और क्षीणमोह गुणस्थानवर्ती । २. केवली – सयोगिकेवली और अयोगिकेवली गुणस्थानवर्ती । ८. कषाय-विलय से चारित्र प्राप्ति खयओ वा समओ वा खओवसमओ व सुहुमा हक्खायाइं खयओ समओ तिण्णि लब्भन्ति । व नण्णत्तो ॥ ( विभा १२५७ ) सामायिकच्छेदोपस्थापनीय परिहारविशुद्धिकलक्षणान्याद्यानि त्रीणि चारित्राणि श्रेणिद्वयादन्यत्र कषायक्षयोपशमात् पूर्वप्रतिपन्नानि प्रतिपद्यमानानि च लभ्यन्ते, अनिवृत्तिबादरस्य पुनरुपशमश्रेणी तदुपशमात् पूर्वप्रतिपन्नानां चरितमोहखतोवसमे णाम बारसकसायोदयखये सदुवसमे य । संजलण चक्क अन्नत रदेसघातिफड्डगोदए णोकसायनवगस्स य यथासंभवोदये । ( आवचू १ पृ९७,९८ ) उदय प्राप्त द्वादश कषाय का क्षय तथा अनुदित कषाय का उपशम होने पर क्षयोपशम चारित्र प्राप्त होता है। इसमें संज्वलनचतुष्क के देशघाती स्पर्धकों का उदय तथा नोकषायनवक का यथासंभव उदय रहता है। न हुनवरिमहखाओवघाइणो सेसचरणदेसं पि । घाति ताणमुदए होइ जओ साइयारं तं ॥ ( विभा १२४८ ) संज्वलन कषाय केवल यथाख्यात का ही उपघाति नहीं है । वह शेष चारित्र का भी देशघाति है । उसके उदय से शेष चारित्र सातिचार हो जाते हैं । ६. चारित्रिक स्थिरता के आलम्बन सूत्र इह खलु भो ! पव्वइएणं, उप्पन्न दुक्खेणं, संजमे अरइसमावन्नचित्तेणं, ओहाणुप्पेहिणा अगोहाइएणं चेव, हयरस्सि गयं कुस - पोयपडागाभूयाई इमाई अट्ठारस ठाणाई सम्मं संपडिले हियव्वाइं भवंति । तं जहा १. हं भो ! दुस्समाए दुप्पजीवी । २. लहुस्सगा इत्तरिया गिहीणं कामभोगा । ३. भुज्जो य साइबहुला मणुस्सा । ४. इमेय मे दुक्खे न चिरकालोवट्ठाई भविस्सइ । ५. ओमजणपुरक्कारे । ६. वंतस्स य पडियाइयणं । - ७. अहरगइवासोवसंपया । 5. दुल्लभे खलु भो ! गिहीणं धम्मे गिहिवासमज्भे वसंताणं । ९. आयंके से वहाय होइ । Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र १०. संकप्पे से वहाय होइ । ११. सोवक्से गिहवासे । निरुवक्केसे परियाए । १२. बंधे गिवासे । मोक्खे परियाए । १३. सावज्जे गिहवासे । अणवज्जे परियाए । १४. बहुसाहारणा गिहीणं कामभोगा । १५. पत्तेयं पुण्णपावं । १६. अणिच्चे खलु भो ! मनुयाण जीविए कुसग्गजलबिंदुचंचले । १७. बहुं च खलु पावं कम्मं पगडं । १८. पावाणं च खलु भो ! कडाणं कम्माणं पुव्वि 'दुच्चिण्णाण दुप्पडिक्कंताणं वेयइत्ता मोक्खो, नत्थि अवेत्ता, तवसा वा झोसइत्ता । अट्ठारसमं पयं भवइ । (दचूला १ सूत्र १ - १८ ) निर्ग्रन्थ-प्रवचन में जो प्रव्रजित है किन्तु उसे मोहवश दुःख उत्पन्न हो गया, संयम में उसका चित्त अरति-युक्त हो गया, वह संयम को छोड़ गृहस्थाश्रम में चला जाना चाहता है, उसे संयम छोड़ने से पूर्व अठारह स्थानों का भलीभांति आलोचन करना चाहिए । अस्थितात्मा के लिए इनका वही स्थान है, जो अश्व के लिए लगाम, हाथी के लिए अंकुश और पोत के लिए पताका का है। अठारह स्थान इस प्रकार हैं वे २७१ १०. चारित्र का मूल्य सुबहुपि सुयमहीयं किं काही चरणविप्पहीणस्स ? अंधस्स जह पलित्ता दीवसयसहस्सकोडीवि ॥ अप्पंपि सुय महीयं पयासयं होइ चरणजुत्तस्स । एक्कोऽवि जह पईवो, सचक्खुअस्सा पयासेइ ।। जहा खरो चंदणभारवाही, भारस्स भागी न हु चंदणस्स । एवं खु नाणी चरणेण हीणो, नाणस्स भागी न हु सोगईए । ( आवनि ९८ - १०० ) पढ़ा हुआ बहुत ज्ञान भी आचारहीन को क्या लाभ देगा ? अंधे व्यक्ति के सामने करोड़ों दीपक जलाने २ गृहस्थों के कामभोग स्वल्प सार सहित (तुच्छ ) का क्या अर्थ है ? पढ़ा हुआ अल्पज्ञान भी आचारऔर अल्पकालिक हैं । १. ओह ! इस दुःषमा ( दुःखबहुल पांचवें आरे) मे लोग बड़ी कठिनाई से जीविका चलाते हैं । वान को प्रकाश से भर देता है । चक्षुष्मान को प्रकाश देने के लिए एक दीपक भी काफी है । ३. मनुष्य प्राय: माया बहुल होते हैं । ४. यह मेरा परीषहजनित दुःख चिरकालस्थायी नहीं होगा । ५. गृहवासी को नीच जनों का पुरस्कार करना होता है— सत्कार करना होता है । ६. संयम को छोड़ गृहवास में जाने का अर्थ है - वमन को वापस पीना । ७. संयम को छोड़ गृहवास में जाने का अर्थ हैनारकीय जीवन का अङ्गीकार । ८. ओह! गृहवास में रहते हुए गृहियों के लिए धर्म का स्पर्श निश्चय ही दुर्लभ है । ९. वहां आतंक वध के लिए होता है । चारित्र सम्पन्नता..'' १३. गृहवास सावद्य है और मुनिपर्याय अनवद्य । १४. गृहस्थों के कामभोग बहुजनसामान्य हैं - सर्वसुलभ हैं । १५. पुण्य और पाप अपना-अपना होता है । १६. ओह ! मनुष्यों का जीवन अनित्य है, कुश के अग्र भाग पर स्थित जलबिन्दु के समान चंचल है । १७. ओह ! मैंने इससे पूर्व बहुत ही पापकर्म किए हैं । १८. ओह ! दुश्चरित्र और दुष्टपराक्रम के द्वारा पूर्वकाल में अर्जित किए हुए पापकर्मी को भोग लेने पर अथवा तप के द्वारा उनका क्षय कर देने पर ही मोक्ष होता है । उन्हें भोगे बिना मोक्ष नहीं होताउनसे छुटकारा नहीं होता । १०. वहां संकल्प वध के लिए होता है । ११. गृहवास क्लेश सहित है और मुनिपर्याय क्लेश रहित । १२. गृहवास बन्धन है और मुनिपर्याय मोक्ष । चन्दन का भार ढोने वाला गधा केवल भार का भागी होता है, चन्दन का नहीं । उसी प्रकार चरित्रहीन ज्ञानी केवल जान लेता है, सद्गति को प्राप्त नहीं कर सकता । दसारसीहस्स य सेणियस्सा, पेढालपुत्तस्स य सच्चइस्स । अणुत्तरा दंसणसंपया तया, विणा चरित्तेणऽहरं गई गया ।। ( आवनि १९६० ) दशारसिंह, श्रेणिक, पेढालपुत्र और सत्यकी अनुत्तर दर्शन सम्पन्न होने पर भी चारित्र के अभाव में अधोगति को प्राप्त हुए । ११. चारित्र सम्पन्नता के परिणाम चरित संपन्नयाए णं भंते ! जीवे कि जणइ ? चरितसंपन्नयाए णं सेलेसीभावं जणयइ । सेलेसि पडिवन्ने य अणगारे चत्तारि केवलिकम्मंसे खवेइ । तओ पच्छा Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र २७२ चारित्र (शील) के अठारह.. सिज्झइ बुज्झइ परिनिव्वाएइ सव्वदुक्खाणमंतं करेइ । चारित्ररहित प्राणी के सम्यक्त्व हो भी सकता है और नहीं भी होता। परन्तु जो चारित्रयुक्त होता है भंते ! चारित्रसम्पन्नता से जीव क्या प्राप्त करता उसके सम्यक्त्व निश्चित ही होता है। है? चारित्रसंपन्नता से वह शैलेशी भाव को प्राप्त होता है । शैलेशी दशा को प्राप्त करने वाला अनगार चार १२. केवलिसत्क कर्मों को क्षीण करता है। उसके पश्चात् वह निच्छयनयस्स चरणायविषाय नाणदंसणवहोऽवि । सिद्ध, बुद्ध (प्रशांत), मुक्त, परिनिर्वृत होता है और सब ववहारस्स उ चरणे हयं मि भयणा उ सेसाणं ।। दुःखो का अन्त करता है। (पिनि १०५) १२. चारित्र और सम्यक्त्व चारित्र का नाश होने पर ज्ञान, दर्शन भी नष्ट हो सम्मत्तं अचरित्तस्स हुज्ज भयणाइ नियमसो नत्थि । जाते हैं-यह निश्चय नय का अभिमत है । चारित्र नष्ट जो पुण चरित्तजुत्तो तस्स उ नियमेण सम्मत्तं ॥ होने पर ज्ञान-दर्शन का नाश होता भी है, नहीं भी (आवनि ११६२) होता-यह व्यवहार नय का अभिमत है । १४. चारित्र (शील) के अठारह हजार अंग जोगे करणे सण्णा इंदिय भोमादि समणधम्मे य । सीलंगसहस्साणं अट्ठारसगस्स उप्पत्ती ।। (दनि ८२) (जे णो करंति मणसा, णिज्जियआहारसन्ना सोइंदिये । पुढविकायारंभ, खंतिजुत्ते ते मुणी वंदे ॥) जे णो जे णो । जे णो । करंति कारयंति समणुजाणंति ६००० ६००० मणसा वयसा कायसा २००० २००० णिज्जिय णिज्जिय णिज्जिय णिज्जिय आहार- भय- मेहुणसन्ना सन्ना सन्ना सन्ना ५०० ५०० श्रोत्रेन्द्रिय चक्षुरिन्द्रिय घ्राणेन्द्रिय | रसनेन्द्रिय | स्पर्शनेन्द्रिय १०० | १०० १०० पृथिवी अप् । तेजस् वायु | वनस्पति द्वीन्द्रिय | त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय पंचेन्द्रिय अजीव १० १० १० । १० । १० । १०__१० क्षान्ति । मुक्ति । आजव मार्दव लाघव । सत्य । सयम - तप । त्याग । आकचन २००० परिग्गह १० | सत्य २ यह एक गाथा है । दूसरी गाथा में 'खंति' के स्थान 'चतुरिंदिय', 'पंचेंदिय' और 'अजीव' ये दश शब्द आएंगे । पर 'मुत्ति' शब्द आएगा, शेष ज्यों का त्यों रहेगा। प्रत्येक के साथ दश धर्मों का परिवर्तन होने से (१०x१०) तीसरे में 'अज्जव' आएगा। इस प्रकार १० गाथाओं में १०० गाथाएं हो जाएंगी। १०१ गाथा में सोइंदिय के दश धर्मों के नाम क्रमशः आएंगे । फिर ग्यारहवीं गाथा स्थान पर 'चक्खरिदिय' शब्द आएगा। इस प्रकार पांच में 'पूढवि' के स्थान पर 'आउ' शब्द आएगा । पुढवि के इंद्रियों की (१०० x ५) ५०० गाथाएं होंगी। फिर साथ १० धर्मों का परिवर्तन हआ था। उसी प्रकार ५०१ में 'आहारसन्ना' के स्थान पर 'भयसन्ना' फिर 'आउ' शब्द के साथ भी होगा। फिर 'आउ' के स्थान पर 'मेहणसन्ना' और 'परिग्गहसन्ना' शब्द आएंगे। एक संज्ञा क्रमशः 'तेउ', 'वाउ', 'वणस्सइ', ,बेइंदिय', 'तेइंदिय', के ५०० होने से ४ संज्ञा के (५००x४) २००० होंगे। Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जातिस्मृति चित्त फिर मणसा शब्द का परिवर्तन होगा। 'मणसा' के स्थान छेदोपस्थापनीय विभागपूर्वक महाव्रतों की उप स्थापना । पर ' वयसा' फिर 'कायसा' आएगा। एक-एक का २००० होने से तीन योगों के (२०००x३) ६००० होंगे । फिर 'करंति' शब्द में परिवर्तन होगा । करंति के स्थान पर 'कारयति' और 'समणुजाणंति' शब्द आएंगे । एकएक के ६००० होने से तीन करणों के (६०००X३) १८,००० शील के अंग हो जाएंगे । ( द्र. चारित्र) जलचर -- जल में विचरने वाले जीव । तिर्यंच पंचेन्द्रिय का एक भेद (द. तिर्यंच) जातिस्मृति - पूर्व जन्मों का ज्ञान । जातिस्मृति के तीन हेतु १. बाह्य निमित्त से जातिस्मृति २७३ चित्त- स्थल शरीर के साथ कार्य करने वाली चेतना | (द्र. आत्मा; ज्ञान ) चूलिका - चोटी, ग्रंथ का परिशिष्ट । मूल ग्रंथ में उक्त या अनुक्त विषय का प्रतिपादन करने वाला प्रकरण । दृष्टिवाद का पांचवां भेद | (द्र दृष्टिवाद) छद्मस्थ -घातिकर्मों के आवरण से युक्त । छादयतीति छद्म घातिकर्मचतुष्टयं तत्र तिष्ठति छद्मस्थ: अनुत्पन्न केवलः । ( उशावृ प ५६४ ) जो आत्मगुणों को आच्छादित करता है, वह छद्म है । ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अंतराय ---ये चार घातिकर्म छद्म कहलाते हैं । इनसे युक्त जीव छद्मस्थ कहलाता है । यह केवलज्ञान उत्पन्न होने से पूर्व की अवस्था है । छद्मस्थ मरण-मरण का एक भेद । (द्र. मरण) छन्दना - आहार के लिए साधर्मिक साधुओं को आमंत्रित करना । सामाचारी का एक प्रकार । ( द्र. सामाचारी) छविपर्व - औदारिक शरीर । छवि: - त्वक् पर्वाणि च - जानुकूर्परादीनि छविपर्व तद्योगादौदा रिकशरीरमपि छविपर्व | ( उशावृ प २५१ ) छवि का अर्थ है त्वचा । जानु, कूर्पर आदि पर्व हैं । इनसे युक्त होने के कारण औदारिक शरीर छविपर्व कहलाता है । छेद - दोष की विशुद्धि के लिए दीक्षापर्याय का छेदन कर उसे कम कर देना । प्रायश्चित्त का सातवां भेद | (द्र प्रायश्चित्त) 'दट्ठूण ते कामगुणे विरता ॥ "सरितु पोराणिय तत्थ जाई, तहा सुचिण्णं तवसंजमं च ॥ ( उ १४/४, ५) भृगु पुरोहित के पुत्रों ने निर्ग्रन्थ को देखा। उन्हें पूर्वभव की स्मृति हुई और भलीभांति आचरित तप और संयम की स्मृति जाग उठी। वे कामगुणों से विरक्त हो गये । ** .... ते दारगा साहू दट्ठूण अम्हेहि एयारिसाणि रुवाणि संभरिया, संबुद्धा | चितिउं पयत्ता कत्थ दिट्ठपुव्वाणित्ति ? जाई ( उचू पृ २२१) साधुओं को देखकर भृगुपुत्र चिन्तन में एकाग्र हो गए ऐसा रूप हमने पहले कहीं देखा है ऐसा सोचतेसोचते उन्हें पूर्वजन्म की स्मृति हो आयी और वे सम्बुद्ध हो गये । २. शुभ अध्यवसाय से जातिस्मृति अंगरसी भओ वणसंडे चितेइ - सुहज्भवसाणेण जाती सरिया । ( आवहावृ २ पृ १४३) भद्र अंगर्ष चिन्तन में डूब गया, शुभ अध्यवसाय से उसे जातिस्मृति ज्ञान उत्पन्न्न हुआ । (अध्यवसाय और लेश्या की विशुद्धि के क्षणों में जातिस्मृति ज्ञान उत्पन्न होता है ।) ३. मोह के उपशम से जातिस्मृति ....उवसंतमोहणिज्जो, सरई पोराणियं जाई ॥ (उ९1१ ) दंसणमोहणिज्जं चरित्रमोहणिज्जं च उवसंत जस्स सो भवति उवसंतमोहणिज्जो । ( उचू पृ १८० ) जिसके दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय दोनों उपशांत होते हैं, उसे पूर्वजन्म की स्मृति होती है । नमी राया सुमिणए पासति - सेयं नागरायं मंदरोवरिं च अत्ताणमारूढं णंदिघोसतूरेण य विबोहितो Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जातिस्मृति २७४ मृगापुत्र की जातिस्मृति ..."चितइ""कत्थ मया एवंगुणजातितो पव्वतो दिटु- तित्थगरो एरिसीए आगीइए तत्थ दिट्रोत्ति । पितामहपूव्वोत्ति ? चितयंतेण जाती संभरिता-पूव्वं माणुसभवे लिंगदरिसणेण पोराणाओ जातिओ सरिताओ, विन्नातं च सामण्णं काऊण पुप्फूतरे विमाणे उववण्णो आसी। तत्थ अन्नपाणादि दायव्वं तवस्सीणंति । देवत्ते मंदरो जिणमहिमाइसु आगएण दिटुपुव्वोत्ति संबुद्धो (आवच १ पृ १६४,१८०) पव्वतितो। (उचू पृ १७९) अर्हत् ऋषभ ने संवत्सर तप का पारणा अपने पौत्र नमि राजा ने स्वप्न में देखा मैं मंदराचलस्थित श्रेयांसकमार के हाथ से किया। उस समय अन्य सब लोग श्वेत हाथी पर आरूढ हूं । नन्दिघोषों से जाग जाने पर मुनि की भिक्षाविधि से अनभिज्ञ थे। राजा सोमप्रभ आदि राजा ने सोचा-- ऐसा पर्वत मैंने पहले भी कहीं देखा। ने कुतुहलपूर्वक श्रेयांस से जिज्ञासा की-आयुष्मन् ! है-इस चिंतन की गहराई में उतरते ही उन्हें जाति तुमने कैसे जाना कि हमारे परमगुरु भगवान् ऋषभ को स्मृति ज्ञान हो गया। उस ज्ञान से जान लिया कि मैंने भिक्षा देनी चाहिये? हमें भी इसका रहस्य समझाओ। देवभव से पूर्व मनुष्य के भव में साधुत्व को स्वीकार किया था। वहां से मरकर पुष्पोत्तर विमान में उत्पन्न श्रेयांस ने कहा-पूज्य दादागुरु को मुनिपरिवेश में हआ। उस देवभव में देव के रूप में जिनमहिमा के अवसर देख मैं चिन्तन में डूब गया -क्या ऐसा प्रतिरूप मैंने पहले पर मैं मंदर-गिरि पर आया था--इस स्मृति से वे संबुद्ध । कहीं देखा है ? चिन्तन की एकाग्रता से मुझे अनेक जन्मों हो प्रव्रजित हो गये। की स्मृति हो आई। उस जातिस्मृति से मुझे भिक्षादान की विधि ज्ञात हो गई। यह सुन लोगों को बड़ा आश्चर्य ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती को जातिस्मृति हुआ। उन्होंने फिर जिज्ञासा की-श्रेयांस ! कहो, तुम .."अन्यदा चोपनीतं देवतया मन्दारदाम । समुत्पन्न किस भव में किस रूप में थे ? यह पूछने पर श्रेयांस ने तदर्शनादस्य जातिस्मरणम् अनुभूतानि मयैवंविधकुसुम अपने तथा अपने पितामह ऋषभ के आठ पूर्वभवों की दामानि । अहं हि नलिनगूल्मविमाने देवोऽभवम् । संबंध-परम्परा का उल्लेख किया, जिसका विशद वर्णन (उशावृ प ३८२) वसुदेवहिंडी में है। देवता द्वारा उपहृत मंदारपुपमाला को देखकर ____ अंत में श्रेयांस ने बताया कि देवभव से पूर्व के भव ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती चिन्तन में डूब गया-ऐसी पुष्पमालाओं में मैंने तीर्थंकर वज्रसेन को ऐसे आकार-प्रकार में देखा का मैंने पहले कभी अनुभव किया है। विमर्श करते-करते था, जैसा कि आज अर्हत ऋषभ को देख रहा है। इस उसे जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया। इससे उसने मुनिवेश को देख मुझे अतीत के जन्मों की स्मृति हई और साक्षात् जान लिया कि मैं पूर्व जन्म में नलिनीगुल्म विमान में देवरूप में उत्पन्न हुआ था। उसी के आधार पर मैं इस महान तपस्वी को इक्षुरस का दान कर धन्य हुआ हूं। श्रेयांस को आठ जन्मों को स्मृति मृगापुत्र को जातिस्मृति __..."रायाणो सोमप्पभादयो लोगा य परेण कोऊहल्लेण । पुच्छंति सेज्जंसकुमारं --सुमुह ! ..कहं तुमे विनायं जहा तं देहई मियापुत्ते, दिट्ठीए अणिमिसाए उ । भगवतो परमगुरुस्स भिक्खं दायव्वंति, कहेहि णे परमत्थं । कहिं मन्नेरिसं रूवं, दिट्ठपुव्वं मए पुरा॥ ताहे सो तेसिं पकहितो, जहा -- मम पितामहस्स दिक्खि साहुस्स दरिसणे तस्स, अज्झवसाणम्मि सोहणे । यस्य रूबदसणे चिता समुप्पन्ना कत्थ मन्ने एरिसरूवं मोहंगयस्स संतस्स, जाईसरणं समुप्पन्न । दिट्टपुवंति ! वियारेमाणस्स बहभवितं जातीस्सरणं (उ १९।६,७) समुप्पन्न, ततो मया णायं भगवतो भिक्खादाण । ततो ते मृगापुत्र ने श्रमण को अनिमेष दृष्टि से देखा और परमविम्हिता भणंति - साह केरिसोऽसि केस भवेसु मन ही मन चिन्तन करने लगा - 'मैं मानता हूं कि ऐसा आसी? ताहे सो तेसि अप्पणो सामिस्स य अभवग्गह- रूप मैंने पहले कहीं देखा है।' साधु के दर्शन और णाणि कहेति, जहा वसुदेवहिंडीए। .."मया वइरसेण- अध्यवसाय पवित्र होने पर “मैंने ऐसा कहीं देखा है" Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतरागता के परिणाम २७५ जिन इस विषय में सम्मोहित हो गया, चित्तवृत्ति सघन रूप में कम्मारिजियत्तणातो जिणो। (अनुच पृ ४३) एकाग्र हो गई, विकल्प शांत हो गए और जातिस्मृति जिनः परीषहोपसर्गजेता। (उशाव प ४९८) ज्ञान उत्पन्न हो गया। जो कर्म शत्रुओं, परीषहों और उपसर्गों पर विजय जातिस्मृति की प्रक्रिया प्राप्त करते हैं, वे जिन हैं। 'अध्यवसाने' इत्यन्तःकरणपरिणामे शोभने प्रधाने जिनः -जितसकलकर्मा भवोपन क्षायोपशमिकभावर्तिनीति यावत् 'मोह' क्वेदं मया दष्टं दग्धरज्जुसंस्थानतयैव तेन व्यवस्थापनात, मुक्त्यवस्थाक्वेदमित्यतिचिन्तातश्चित्तसंघटजमूत्मिकं गतस्य। पेक्षया वा। (उशावृ प ४९८) (उशा प ४५२) जिन को सकलकर्मजेता य हा गया है। इसके दो हेतु पूर्वजन्म के स्मरण की विशेष पद्धति है। कोई व्यक्ति हैं -- उनके भवोपग्राही (अघाति) कर्म दग्ध-रज्जु-संस्थान पूर्व परिचित व्यक्ति को देखता है, तत्काल चैतसिक की तरह अकिचित्कर होते हैं । उनकी मुक्ति अवश्य होती संस्कारों में एक हलचल होती है। वह सोचता है कि है। इस प्रकार का आकार मैंने कहीं देखा है ? ईहा, अपोह, वीतराग के वचन सत्य मार्गणा और गवेषणा के द्वारा चिन्तन आगे बढ़ता है। भय-राग-दोस-मोहाभावाओ सच्चमणइवाइंच। मैंने यह कहां देखा ? यह कहां है ?- इस प्रकार की सव्वं चियं मे बयणं जाणयमझत्थवयणं व ।। चिता का एक संघर्ष चलता है । उस समय व्यक्ति संमोहन (विभा १५७८) की स्थिति में चला जाता है। उस स्थिति में उसे पूर्व ज्ञाता और वीतराग के वचन मार्गज्ञ के वचन की तरह जन्म की स्मृति हो जाती है। सत्य और अबाधित होते हैं, क्योंकि वे राग, द्वेष, भय ___ इससे जाति-स्मरण की प्रक्रिया के तीन अंग फलित और मोह से अतीत होते हैं। होते हैं१. दृश्य वस्तु या व्यक्ति का साक्षात्कार । वीतरागता के परिणाम २. अध्यवसान की शुद्धि । ___ वीयरागयाए णं नेहाणुबंधणाणि तण्हाणुबंधणाणि य ३. संमोहन । वोच्छिदइ, मणुन्नेसु सद्दफरिसरसरूवगंधेसु चेव विरज्जइ। (जातिस्मृति के द्वारा पूर्ववर्ती संख्येय जन्मों की (उ २९।४६) स्मृति होती है। वे सारे समनस्क जन्म होते हैं। जाति वीतरागता से जीव स्नेह के अनुबंधनों और तृष्णा स्मृति मतिज्ञान का एक प्रकार है। देखें- आचागंग के अनुबंधनों का विच्छेद करता है तथा मनोज्ञ और १११-४ का भाष्य ।) अमनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध से विरक्त हो तस्सोवसंपत्ती सहसंमूइयाए परवागरणेणं अण्णेसिं वा जाता है। सोच्चा तत्थ सहसंमुतियाए जातीसरणादिणा । एविदियत्था य मणस्स अत्था (आवचू २ पृ २७५) दुक्खस्स हेउं मण यस्स रागिणो। सम्यक्त्व-प्राप्ति के तीन हेतु - ते चेव थोवं पि कयाइ दुक्खं १. स्वस्मृति, २. अर्हत् का उपदेश और न वीयरागस्स करेंति किचि ।। (उ ३२१००) ३. दूसरों से सुनना। यहां स्वस्मृति का अर्थ है इन्द्रिय और मन के विषय रागी मनुष्य के लिए दुःख जातिस्मृति । के हेतु होते हैं। वे वीतराग के लिए कभी किंचित् भी जिन-वीतराग, अर्हत् । दुःखदायी नहीं होते। जियकोहमाणमाया जियलोहा तेण ते जिणा हुंति ।... (आवनि १०७६) जो क्रोध, मान, माया और लोभ पर विजय प्राप्त कर लेते हैं, वे जिन कहलाते हैं। Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव २७६ जीव का परिमाण जीव-प्राण धारण करने वाला। कालतो भावतो। दव्वतो एगं जीवदव्वं । खेत्ततो असंखेज्जपएसोगाढं। कालतो अणादीए अपज्जवसिते । १. जीव के लक्षण भावतो अणंता नाणपज्जवा दंसणपज्जवा चरित्तपज्जवा २. जीव का स्वरूप अगुरुलहुयपज्जवा य। (आवच १ पृ १०८) ३. जीवास्तिकाय का अर्थ जीवद्रव्य --द्रव्य की अपेक्षा एक द्रव्य -एक ४. जीव का परिमाण संख्या वाला है। क्षेत्र की अपेक्षा असंख्येय प्रदेशों में ५. जीवों की अनंतता अवगाहन करता है । काल की अपेक्षा अनादि और अनन्त ६. जीव के प्रकार है। भाव की अपेक्षा अनन्त ज्ञान-दर्शन-चारित्र पर्यवों • संसारी जीव * सिद्ध जीव (द्र. सिद्ध) वाला तथा अगुरुलघु पर्याय वाला है। ० संसारी जीव के प्रकार ३. जीवास्तिकाय का अर्थ * त्रस (द्र. त्रस) जीवास्तिकायः यस्माज्जीवितवान् जीवति जीविष्यति * स्थावर (द्र. जीवानकाय) | च तस्माज्जीवः । अस्तीति वा प्रदेशाः, अस्तिशब्दो ७. जीव के चौदह प्रकार वाऽस्तित्वप्रसाधकः । कायस्तु समूहः, प्रदेशानां जीवानां ८. सूक्ष्म जीवों के प्रकार वा उभयथाप्यविरुद्धं इत्यतो जीवास्तिकायः । * जीव (आत्मा) की अस्तित्व सिद्धि (द. आत्मा) ___ (अनुचू पृ २९) * पृथ्वी आदि में जीवत्व सिद्धि (द्र. जीवनिकाय) जीव जीवित था, है और रहेगा, इसलिए वह जीव * जीव और कर्म का संबंध (द्र. कर्म) कहलाता है। अस्ति शब्द प्रदेश और अस्तित्व का वाचक * जीव : द्रव्य का एक भेद (द्र. द्रव्य) है। काय शब्द प्रदेशों अथवा जीवों के समूह का वाचक १. जीव के लक्षण है । जीवास्तिकाय के दो अर्थ हैं-जीवप्रदेशों का समूह, .."जीवो उवओगलक्खणो ॥.. जीवों का समूह । नाणं च दंसणं चेव, चरित्तं च तवो तहा। ४. जीव का परिमाण वीरियं उवओगो य, एयं जीवस्स लक्खणं ।। जीवस्स उ परिमाणं वित्थरओ जाव लोगमेतं तु । (उ २८।१०,११) ओगाहणा य सुहमा तस्स पदेसा असंखेज्जा ।। जीव का लक्षण है उपयोग। ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य और उपयोग-ये। जदा केवली समुग्घायगतो भवति तदा लोग पूरेति जीव के लक्षण हैं। जीवपदेसेहिं, एक्केको जीवपदेसो पिहीभवति, एवं आयाणे परिभोगे जोगुवओगे कसाय लेसा य । ओगाहणे सुहुमं। असमुग्घायगतस्स जीवपदेसा उपरि आणापाण इदिय बंधादयनिज्जरा चेव ।। उपरि भवंति । ते य पदेसा असंखेज्जा, जावतिया लोगाचित्तं चेयण सण्णा विण्णाणं धारणा य बुद्धी य । गासपदेसा तावतिया जीवपदेसा वि एकजीवस्स परिमाणं ईहा मती वितक्का जीवस्स उ लक्खणा एए॥ भणितं। (दनि १३५, अचू पृ ७१) (दनि १२५,१२६) केवलीसमुद्घात के समय जीव के प्रदेश पूरे लोक में आदान, परिभोग, योग, उपयोग, कषाय, लेश्या, व्याप्त हो जाते हैं । एक-एक जीवप्रदेश अविभक्त होने आनापान, इंद्रिय, बंध, उदय, निर्जरा, चित्त, चेतना, पर भी फैलाव की अपेक्षा से पृथक्-पृथक् (एक-एक संज्ञा, विज्ञान, धारणा, बुद्धि, ईहा, मति, वितर्क-ये आकाश प्रदेश पर एक-एक जीवप्रदेश) हो जाता हैजीव के लक्षण हैं। यही सूक्ष्म अवगाहना है। असमुद्घात के समय जीव प्रदेश सघन और एक दूसरे के ऊपर रहते हैं। लोका२. जीव का स्वरूप काश के असंख्येय प्रदेश हैं। उतने ही प्रदेश एक जीव के जीवदव्वस्स अणुओगो चउव्विहो - दव्वतो खेत्ततो हैं। Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव के चौदह प्रकार ५. जीवों को अनंतता उपयोग की अपेक्षा २७७ जेणोवओलिंगो जीवो भिन्नो य सो पइसरीरं । उवओगो उक्क रिसावगरिसओ तेण तेऽणंता ॥ ( विभा १५८३ ) जीव का लक्षण है उपयोग । वह प्रत्येक व्यक्ति का भिन्न-भिन्न होता है । उत्कर्ष - अपकर्ष के आधार पर उपयोग के अनन्त भेद हैं । अतः जीव अनन्त हैं । एकेन्द्रिय जीवों को अपेक्षा सिज्यंति सोम्म ! बहुसो जीवा नवसत्तसंभवो नवि य । परिमियसो लोगो न संति चेगिदिया जेसि ॥ तेसि भवविच्छित्ती पावइ नेट्ठा य सा जओ तेण । सिद्धमता जीवा भूयाहारा य तेऽवस्सं ॥ ( विभा १७६०, १७६१ ) बहुत से जीव निरन्तर मुक्त हो रहे हैं । नया जीव उत्पन्न नहीं होता । लोक परिमित है । बादर जीव तो थोड़े हैं । यदि एकेन्द्रिय का अस्तित्व नहीं माना बहुत जाए तो संसार की व्यवच्छित्ति का प्रसंग आ जाएगा । संसार की व्यवच्छित्ति किसी को भी इष्ट नहीं है । एकेन्द्रिय (वनस्पति) जीवों की अपेक्षा ही जीवों की अनन्तता सिद्ध होती है । ६. जीव के प्रकार संसारत्थाय सिद्धाय, दुविहा जीवा वियाहिया । ..... ( उ ३६१४८) जीव के दो प्रकार हैं- संसारी और सिद्ध । जीवा दुविहा-रूवी अरूवी य । रूवी संसारी, अरूवी सिद्धा । जीव रूवी सपदेसा य । कालादेसेणं नियमा सपदेसा । लद्धिआदेसेणं सपदेसा वा अपदेसा वा । अरूवी कालादेसेणवि लद्धिआदेसेणवि सप्पदेसा वा अपदेसा वा । ( आवचू २ पृ ४) जीव के दो प्रकार हैं-रूपी और अरूपी । संसारी जीव रूपी हैं । सिद्ध जीव अरूपी हैं। जो जीव रूपी और प्रदेशी है, वह काल की अपेक्षा से नियमतः सप्रदेश है । लब्धि की अपेक्षा से सप्रदेश अथवा अप्रदेश है । अरूपी जीव कालादेश से भी और लब्ध्यादेश से भी सप्रदेश अथवा अप्रदेश है । संसारी जीव के प्रकार जीव संसारत्था उ जे जीवा, दुविहा ते वियाहिया । 11 तसा य थावरा चेव' ( उ ३६/६८) संसारी जीव दो प्रकार के हैं - त्रस और स्थावर । दुविहाय होंति जीवा सुहुमा तह बायरा य लोगम्मि | सुहुमा य सव्वलोए दो चेव य बायर विहाणे ( दनि १२४) जीव के दो प्रकार हैं- सूक्ष्म और वादर । सूक्ष्म जीव सारे लोक में व्याप्त हैं । बादर जीव के दो प्रकार हैं - पर्याप्तक और अपर्याप्तक । ७. जीव के चौदह प्रकार चोदसहि भूतगामेहिं" एगिंदिया सुहुमा इतरा बादरा, हुमा पज्जत्ता अपज्जत्ता य । एवं बादरावि दुविहा । बेंदियावि दुविहा पज्जत्ता अपज्जत्ता य । तें दियावि दुविहा, चउरिदिया दुविहा पंचिदिया दुविहासण्णिणो असणिणो य । तत्थ असणिपंचिदियावि दुविधा - पज्जत्ता अपज्जत्ता । सण्णिपंचिदियावि दुविधा -- (आवचू २ पृ १३२) पज्जत्ता अपज्जत्ता य । जीव के चौदह प्रकार सूक्ष्म एकेन्द्रिय के दो भेद - पर्याप्त, अपर्याप्त । बादर एकेन्द्रिय के दो भेद - पर्याप्त, अपर्याप्त । द्वीन्द्रिय के दो भेद - पर्याप्त, अपर्याप्त । त्रीन्द्रिय के दो भेद पर्याप्त, अपर्याप्त । चतुरिन्द्रिय के दो भेद--पर्याप्त, अपर्याप्त । असंज्ञी पंचेन्द्रिय के दो भेद - पर्याप्त, अपर्याप्त । संज्ञी पंचेन्द्रिय के दो भेद - पर्याप्त, अपर्याप्त । .... ओह भवग्गहणम्मि य तब्भवजीवे य भावम्मि || संते आउयकम्मे धरती तस्सेव जीवती उदए । तस्सेव निज्जराए मओ त्ति सिद्धो नयमएणं ॥ जेण य धरति भगवतो जीवो जेण य भवाउ संकमई । जाणाहि तं भवाउं चउव्विहं तब्भवे दुविहं || (दनि १२१-१२३) जीव के तीन प्रकार है१. ओघ जीव जीव आयु द्रव्य के कारण जीवन धारण करता है, वह ओघ जीव है । उसके संपूर्ण क्षय होने से वह सिद्ध अवस्था को प्राप्त करता है । २. भवजीव - गतिनाम कर्म के उदय से जीव नरक आदि चारों गतियों को प्राप्त करता है, वह भवजीव है । Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव ३. तद्भवजीव जो जीव स्वस्थान से उद्वृत्त होकर पुन: उसी स्थान में उत्पन्न होते हैं, वे तद्भवजीव हैं। इनके दो प्रकार हैं- मनुष्य और तियंच । ८. सूक्ष्म जीवों के प्रकार 1 सिहं पुप्फसुमं च पाणुत्तिगं तहेव य पण बीय हरियं च अंड अद्रुमं ॥ (द ८।१५ अबू पृ १०० जिचू पृ २७८ ) सूक्ष्म जीव आठ प्रकार के हैं स्नेह सूक्ष्म – ओस, हिम, कुहासा, ओला और उद्भिद जलबिन्दु । पुष्प सूक्ष्म - बड़, उम्बर आदि के फूल या उन जैसे वर्ण वाले दुर्विभाव्य फूल । प्राण सूक्ष्म - कुंथु, जो चलने पर जाना जाता है किन्तु स्थिर अवस्था में दुर्ज्ञेय है। उसिंग सूक्ष्म कीटिकानगर, जहां प्राणी दुर्ज्ञेय हों । पनक सूक्ष्म - काई । यह पांच वर्ण की होती है । बीज सूक्ष्म सरसों और शाल के अग्रभाग पर होने वाली कणिका । हरित सूक्ष्म - जो तत्काल उत्पन्न, पृथ्वी के समान वर्ण वाला और दुर्ज्ञेव हो, वह अंकुर । अंड सूक्ष्म मधुमक्खी, कीडी, मकडी, ब्राह्मणी और गिरगिट के अंडे | जीवनिकाय - पृथ्वी आदि जीवों के छह वर्ग १. छह जीवनिकाय I o पृथ्वीकाय • अप्काय ० तेजस्काय • वायुकाय ० वनस्पतिकाय * त्रसकाय २. स्थावर जीव • स्थावर जीवों के म * तेजस्-वायु त्रस हैं ३. पृथ्वीका की परिभाषा जीवत्वसिद्धि ० ० प्रकार २७८ (प्र. प्रस) (प्र. प्रस) सचित-अचित मिश्र पृथ्वी • अचित्त पृथ्वी का उपयोग पृथ्वीका की स्थिति आदि ० ४. अकाय की परिभाषा ० जीवत्यसिद्धि ० प्रकार सचित-अचित्त मिश्र जल • अटकाव की स्थिति आदि ५. तेजस्काय की परिभाषा ० जीवत्वसिद्धि ० प्रकार • सचित मिश्र अग्नि • सर्वाधिक तेजस्काय का उत्पत्तिकाल • तेजस्काय की स्थिति आदि ६. वायुकाय की परिभाषा • जीवत्वसिद्धि ० प्रकार ० सचित-अचित्त मिश्र वायु • वायुकाय की स्थिति आदि ७. वनस्पतिकाय की परिभाषा • जीवत्वसिद्धि * वनस्पति में पांच इन्द्रियों का अस्तित्व ० प्रकार • बादर वनस्पति के प्रकार • साधारण शरीरी • प्रत्येक शरीरी जीवनिकाय (प्र. इन्द्रिय) • अग्रबीज आदि ० सचित्त मिश्र वनस्पति अचित्त वनस्पति का उपयोग • वनस्पति की स्थिति आदि वनस्पति के आठ प्रकार • वनस्पति की दस अवस्थायें पृथ्वी आदि की अवगाहना ९. पृथ्वी आदि में उच्छ्वास आदि अव्यक्त १०. पृथ्वी आदि की सघन मूर्च्छा का हेतु Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृथ्वीकाय की परिभाषा ११. पृथ्वी आदि की दृश्यता पृथ्वी आदि एकेन्द्रिय जीवां में - * पर्याप्ति * अव्यक्त मन संज्ञा शरीर * चेतना विकास का क्रम * १. पृथ्वी कायिक २. अकायिक १. छह जीवनिकाय छज्जीवणिया नामज्झयणं समणेणं भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेइया तं जहा पुढविकाइय। आउ काइया तेउकाइया वाउकाइया वणस्सइकाइया तसकाइया । (द ४ | सूत्र ३ ) भगवान महावीर द्वारा प्रज्ञप्त छह जीवनिकाय ये २. स्थावर जीव ३. तेजस्कायिक ६. कायिक ( इनमें प्रथम पांच जीवनिकाय स्थावर हैं ।) ( द्र पर्याप्ति ) ( द्र. आत्मा ) (द्र श्रुतज्ञान) .द्र. शरीर ) ( द्र. ज्ञान ) ४. वायुकायिक ५. वनस्पतिकायिक २७९ शीतातपाद्युपहता अपि स्थानान्तरं प्रत्यनभिसर्पितया स्थानशीला: स्थावराः । शीत, आतप आदि से उपहत होने स्थानान्तर में गमन नहीं करते, स्थिर जीव हैं । ( उशावृप २४४) पर भी जो जीव रहते हैं, वे स्थावर पुढवी आउजीवा उ तहेव य वणस्सई । इच्चेए थावरा तिविहा... ॥ ( उ ३६/६९ ) प्रस्तुत सूत्र में स्थावर के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं - पृथ्वी काय, अप्काय और वनस्पतिकाय । (तेजस्काय तथा वायुकाय को गति के कारण त्रस माना गया है ।) स्थावरजीवों के शस्त्र दबं सत्थ-ग्ग-विसं - नेहं बिल - खार- लोणमाईयं । भावो तु दुप्पउत्तो वाया काओ अविरई य ॥ (दनि १४० ) द्रव्यशस्त्र -- अग्नि, विष, स्नेह (तैल आदि ), क्षार तथा नमक आदि । जीवनिकाय भावशस्त्र -- दुष्प्रयुक्त मन-वचन-काय और असंयम । किंची सकायसत्थं किंची परकाय तदुभयं किचि । भावे अस्सं मो सत्यं ॥ एतं तु दव्वसत्थं ( दनि १४१ ) स्वकायशस्त्र - पांच प्रकार को मिट्टी परस्पर शस्त्र है । परकायशस्त्र - पृथ्वीकाय अप्काय के लिए शस्त्र है । उभयशस्त्र - काली मिट्टी जल में मिलने पर पानी और मिट्टी दोनों के लिए शस्त्र है । ३. पृथ्वीकाय की परिभाषा पृथिवी - काठिन्यादिलक्षणा प्रतीता सैव कायःशरीरं येषां ते पृथिवीकायाः । ( दहावृप १३८ ) काठिन्य आदि लक्षणों से जानी जाने वाली पृथ्वी ही जिनका काय - शरीर होता है, उन जीवों को पृथ्वीकाय कहते हैं । जीवत्वसिद्धि मंसंकुरो व्व सामाणजाइरूवं कुरोवलंभाओ । तरुगणविदुम-लवणोवलादओ सासयावत्था | ( विभा १७५६ ) विद्रुम, लवण उपल आदि पृथ्वीकाय अपने जन्मस्थानगत सजीव हैं । छिन्न होने पर भी उसी स्थान पर समानजातीय अंकुर की उत्पत्ति होती है, जैसे अर्श के मांसांकुर की । अणेगजीवा पुढोसत्ता (द ४ | सूत्र ४ ) शस्त्र - परिणति से पूर्व पृथ्वी चित्तवती ( सजीव ) कही गई है । वह अनेक जीव और पृथक् सत्त्वों (प्रत्येक atra के स्वतन्त्र अस्तित्व) वाली है । प्रकार पुढवी चित्तमंतमक्खाया अन्नत्थ सत्यपरिणं । दुविहा पुढवीजीवा उ, सुहुमा पज्जत्तमपज्जत्ता, एवमेए दुहा बायरा तहा । पुणो ॥ ( उ ३६/७० ) पृथ्वीकाय के जीव दो प्रकार के हैं- सूक्ष्म और बादर । इन दोनों के पर्याप्त और अपर्याप्त - ये दो-दो भेद होते हैं । बायरा जे उपज्जत्ता दुविहा ते वियाहिया । सहा खरा य बोद्धव्वा, सण्हा सत्तविहा तहिं ॥ ( उ ३६।७१) Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवनिकाय बादर पर्याप्त पृथ्वी कायिक जीवों के दो भेद हैं मृदु और कठोर । मृदु के सात भेद हैं । मृदु पृथ्वीकाय किण्हा नीला य रुहिरा य, हालिद्दा सुविकला तहा । पंडुपणगमट्टिया || ( उ ३६।७२ ) मृदु पृथ्वीका के सात भेद हैं- कृष्ण, नील, रक्त, पीत, श्वेत, पांडु (भूरी मिट्टी ) और पनक (अतिसूक्ष्म रज ) । कठोर पृथ्वीका पुढवीय सक्करा वालुया य, उवले सिया य लोणसे । अयतं तय सीसग रुप्पसुवण्णे य वइरे य ॥ हरियाले हिंगुलुए, मणोसिला सासगंजणपवाले । अब्भपडलब्भवालय, बायरकाए मणिविहाणा ॥ गोमेज्जए य रुयगे, अंके फलिहे य लोहियक्खे य । मरगयमसारगल्ले, भुयमोयगइंदनीले य ।। चंदण गेरुयहंसगब्भ, पुलए सोगंधिए य बोद्धव्वे | चंदप्पहरु लिए, जलकंते सूरकंते ( उ ३६/७३-७६) य ॥ कठोर पृथ्वीका के छत्तीस प्रकार हैं१. शुद्ध पृथ्वी २. शर्करा २०. प्रवाल ३. बालू ४. उपल ५. शिला ६. लवण ७. नौनी मिट्टी ८. लोहा ९. रांगा १०. तांबा ११. शीशा १२. चांदी १३. सोना १४. वज्र १५. हरिताल १६. हिंगुल १७. मैनसिल १८. सस्यक १९. अंजन २१. अभ्रपटल २२. अभ्रबालुका मणियों के भेद २३. गोमेदक २४. रुचक २५. अंक २६. स्फटिक और लोहिताक्ष २७. मरकत एवं मसारगल्ल २८० २८. भुजमंचक २९. इन्द्रनील ३०. चंदन, गेरुक एवं हंसगर्भ ३१. पुलक ३२. सौगंधिक ३३. चन्द्रप्रभ ३४. वैडूर्य ३५. जलकांत और ३६. सूर्यकांत अचित्त पृथ्वीकाय का उपयोग एएसिं वण्णओ चेव, गंधओ रसफासओ । संठाणादेसओ वावि, विहाणाई सहस्ससो ॥ ( उ ३६/८३) वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और संस्थान की दृष्टि से पृथ्वीकाय के हजारों भेद होते हैं । सचित्त-अचित्त मिश्र पृथ्वी पुढविक्काओ तिविहो सच्चित्तो मीसओ य अचित्तो । सच्चित्तो पुण दुविहो निच्छ्यववहारिओ चेव ॥ निच्छयओ सच्चित्तो, पुढविमहापव्वयाण बहुमज्झे । अच्चित्तमीसवज्जो सेसो ववहारसच्चित्तो ॥ खीर पंथे कोल्ला इंधणे य मीसो य । सहार अग्गी लोणूस बि हे । || वक्कंत जोणिएणं (ओनि ३३७-३४० ) पृथ्वीकाय के तीन प्रकार हैं- सचित्त, अचित्त और मिश्र । सचित्त के दो प्रकार हैं १ निश्चय सचित्त - रत्न, शर्करा आदि पृथ्वियों से सम्बन्धित हिमवत आदि महापर्वतों का मध्य भाग निश्चयदृष्टि से सचित्त है । २. व्यवहार सचित्त - अचित्त और मिश्र को छोड़कर शेष व्यवहार सचित्त है, जैसे--अरण्य आदि जहां गोबर आदि नहीं है । मिश्र पृथ्वी काय - क्षीरद्रुम - उदुम्बर आदि के नीचे की पृथ्वी । • पंथ --- पथ में विकीर्ण सचित्त रजकण । · कट्टोल्ल - हल द्वारा जोती हुई भूमि । • ईंधन -- गोबर में पृथ्वीकाय का मिश्रण । ये सब मिश्र पृथ्वीकाय हैं । अचित्त पृथ्वीकाय शीत शस्त्र, उष्ण शस्त्र, क्षार, करीष, अग्नि, Sar, ऊष, अम्ल और स्नेह - ये पृथ्वीकाय जीवों के शस्त्र हैं । इनसे उपहत होने पर पृथ्वीकायिक जीव अचित्त हो जाते हैं । अचित्त पृथ्वीकाय का उपयोग अवरद्धिगविसंबंधे लवणेन व सुरभिउवलएणं वा । अच्चित्तस्स उ गहणं पओयणं तेणिमं वऽन्नं ॥ (पिनि १४ ) लूतास्फोट ( मकड़ीकृत फोड़ा), सर्पदंश आदि के विष Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकाय की परिभाषा को उतारने के लिए सफेद मिट्टी तथा तलाई आदि के तल की मिट्टी का लेप किया जाता है । ' नमक का प्रयोग भोजन में किया जाता है । • गंधपाषाण (गंधरोहक ) खुजली से उत्पन्न वात का शमन करता है । ठाणनिसियट्टण उच्चाराईण चेव घुट्टगडगलगलेवो एमाइ पओयणं उस्सग्गो । बहुहा ॥ ( पिनि १५ ) • मुनि अचित्त भूमि पर कायोत्सर्ग, उपवेशन, शयन आदि करता है । • घुट्टक पाषाण से पात्र को घिसकर चिकना करता है । पृथ्वीका की स्थिति संतई पप्पणाईया, अपज्जवसिया विय । ठि पडुच्च साईया, सपज्जवसिया विय ॥ ( उ ३६ ७९ ) जीव अनादि प्रवाह की अपेक्षा से पृथ्वीकायिक अनन्त और स्थिति की अपेक्षा से सादि-सांत हैं । स्थिति बावीससहस्सा, वासाणुक्कोसिया भवे । आउठिई पुढवीणं, अंतोमुहुत्तं जहन्निया ।। ( उ ३६ ८० ) पृथ्वीका की आयुस्थिति जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः बाईस हजार वर्ष की है । आयु : जीवितं तस्य स्थिति:-- अवस्थानमायुः स्थितिः । ( उशावृ प ६९० ) प्राणी एक जन्म ( भव) में जितने काल तक अवस्थित रहता है, उस कालमर्यादा को आयुस्थिति या भवस्थिति कहा जाता है । २८१ कायस्थिति काये स्थितिः- ततोऽनुवर्त्तनेनावस्थानं कायस्थितिः । ( उशावृ प ६९० ) एक ही जीवनिकाय में निरन्तर जन्म ग्रहण करते रहने की काल मर्यादा को कार्यस्थिति कहा जाता है । जीवनिकाय असंखकाल मुक्कोसं, अंतोमुहुत्तं जहन्नयं । कार्याठिई पुढवीणं, तं कायं तु अमुंचओ ॥ ( उ ३६८१) पृथ्वीका की काय स्थिति जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त्त और उत्कृष्टतः असंख्यात काल की है । अन्तरकाल जहन्नयं । अनंतकालमुक्कसं, अंतोमुहुत्तं विजढंमि सए काए, पुढवीजीवाण अंतरं ॥ ( उ ३६१८२) पृथ्वीका का अन्तर ( पृथ्वीकाय को छोड़कर पुनः पृथ्वीकाय में उत्पन्न होने तक का काल ) जघन्यतः अन्तमुहूर्त और उत्कृष्टतः अनन्त काल का है । क्षेत्र सुहुमा सव्वलोगम्मि, लोगदेसे य बायरा । (उ३६।७८) सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव समूचे लोक में और बादर पृथ्वीकायिक जीव लोक के एक भाग में व्याप्त हैं । ४. अप्काय की परिभाषा आपो- द्रवाः प्रतीता एव ता एव कायः शरीरं येषां तेऽकायाः । ( दहावृ प १३८ ) प्रवाहशील द्रव्य -- जल ही जिनका काय -- शरीर होता है, उन जीवों को अष्काय कहते हैं । जीवत्वसिद्धि भूमिक्खयसाभावियसंभवओ ददुरो व्व जलमुत्तं । अहवा मच्छो व सभाववोमसंभूयपायाओ || (विभा १७५७ ) भूमि को खोदने से पानी प्राप्त होता है, इसलिए पानी को भौम कहा जाता है । वह भूमि का सजातीय है । उसकी प्राप्ति स्वाभाविक । अतः वह मेंढक के समान सजीव है । अथवा मछली के समान बादलों से गिरने के कारण आकाश का पानी सजीव है । आऊ चित्तमं तमक्खाया अणेगजीवा पुढोसत्ता अन्नत्थ सत्यपरिणएणं । (द ४ | सूत्र ५ ) चित्तवान् (सजीव ) और पृथक् सत्त्वों शस्त्र - परिणति से पूर्व जल कहा गया है । वह अनेक जीव (प्रत्येक जीव के स्वतंत्र अस्तित्व ) वाला है । Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवनिकाय २८२ तेजस्काय की परिभाषा प्रकार अप्काय की स्थिति दुविहा आउजीवा उ, सुहमा बायरा तहा । संतई पप्पणाईया अपज्जवसिया विय। पज्जत्तमपज्जत्ता, एवमेए दुहा पुणो ।। ठिई पड़च्च साईया, सपज्जवसिया वि य॥ (उ ३६।८४) (उ ३६।८७) अप्कायिक जीव दो प्रकार के हैं - सूक्ष्म और प्रवाह की अपेक्षा से ये अनादि अनन्त और स्थिति बादर । इन दोनों के पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो-दो की अपेक्षा से सादि सान्त हैं। भेद हैं। आयुस्थिति बायरा जे उ पज्जत्ता, पंचहा ते पकित्तिया । सत्तेव सहस्साइं, वासाणक्कोसिया भवे । सुद्धोदए य उस्से, हरतणू महिया हिमे ॥ आउट्टिई आऊणं, अंतोमुहुत्तं जहन्निया । (उ ३६।८५) (उ ३६।८८) बादर पर्याप्त अप्कायिक जीवों के पांच भेद अप्कायिक जीवों की आयूस्थिति जघन्यतः अन्तहैं -१. शुद्धोदक २. ओस ३. हरतनु ४. कुहासा और मुहूर्त और उत्कृष्टतः सात हजार वर्ष की है। ५. हिम। कायस्थिति एएसिं वण्णओ चेव, गंधओ रसफासओ। असंखकालमुक्कोसं, अंतोमुहुत्तं जहन्निया । . संठाणादेसओ वावि, विहाणाइं सहस्ससो।। कायट्ठिई आऊणं, तं कायं तु अमुंचओ ।। (उ ३६।९१) (उ ३६।८९) वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और संस्थान की दृष्टि से अप्कायिक जीवों की कायस्थिति (निरन्तर उसी उनके हजारों भेद होते हैं। काय में जन्म लेते रहने की काल-मर्यादा) जघन्यत: अन्तर्महर्त और उत्कृष्टतः असंख्यात काल की है। सचित्त-अचित्त-मिथ जल अन्तरकाल घणउदहीघणवलया. करगसमुद्दद्दहाण बहुमज्झे । अणंतकालमुक्कोसं, अंतोमुहत्तं जहन्नयं । अह निच्छयसच्चित्तो ववहारनयस्स अगडाइं ॥ विजढंमि सए काए, आऊजीवाण अंतरं ॥ उसिणोदगमणत्ते दंडे वासे य पडिअमेत्ते य ।... (उ ३६।९०) सीउण्हखारखत्ते अग्गीलोणूसअंबिले नेहे । उनका अन्तर (अप्काय को छोड़कर पुनः उसी काय वक्कंतजोणिएणं......." में उत्पन्न होने तक का काल) जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और (ओनि ३४३, ३४४,३४६) उत्कृष्टतः अनंतकाल का है। घनोदधि, रत्नप्रभा आदि पृथ्वियों के घनवलय, करक क्षेत्र (ओले), समुद्र का मध्यभाग और तालाब का मध्यभाग एगविहमणाणत्ता, सुहुमा तत्थ वियाहिया । निश्चय सचित्त अप्काय हैं । सुहमा सव्वलोगम्मि, लोगदेसे य बायरा ।। कुएं आदि का जल व्यवहार सचित्त अप्काय है। (उ ३६०८६) जिस उष्ण जल में जब तक दंड अनुवृत्त हो—गहरा सूक्ष्म अप्कायिक जीव एक ही प्रकार के होते हैं । उबाल न आया हो, वह मिश्र अप्काय है। पतितमात्र उनमें नानात्व नहीं होता। वे समूचे लोक में व्याप्त हैं। वर्षा का जल मिश्र अप्काय है। बादर अप्कायिक जीव लोक के एक भाग में व्याप्त हैं। शीत शस्त्र, उष्ण शस्त्र, क्षार, करीष, अग्नि, लवण, ५. तेजस्काय की परिभाषा ऊष, अम्ल और स्नेह-ये अप्कायिक जीवों के शस्त्र हैं। तेज उष्णलक्षणं प्रतीतं तदेव कायः --- शरीरं येषां इनसे उपहत होने पर अप्कायिक जीव अचित्त हो जाते ते तेज:कायाः । (दहाव प १३८) उष्ण लक्षण तेज ही जिनका काय -- शरीर होता है, उन जीवों को तेजस्काय कहते हैं। Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वाधिक तेजस्काय का" २८३ जीवनिकाय जीवत्वसिद्धि . अग्निकाय के तीन प्रकार हैं......"अनलो आहाराओ विद्धि-विगारोवलम्भाओ॥ १. नैश्चयिक सचित्त-इष्टका-पाक आदि के बहमध्य(विभा १७५८) भाग की विद्युत् आदि । जैसे मनुष्य में आहार आदि से उपचय और अपचय २. व्यावहारिक सचित्त-अंगारे आदि । दृष्टिगोचर होता है, वैसे ही अग्नि में भी ईंधन से वृद्धि ३. मिश्र–मुर्मुर आदि। और हानि दिखाई देते हैं, इसलिए वह मनुष्य के समान सर्वाधिक तेजस्काय का उत्पत्तिकाल सजीव है। __ यदा सर्वासु कर्मभूमिषु निर्व्याघातमग्निकायसमातेऊ चित्तमंतमक्खाया अणेगजीवा पुढोसत्ता अन्नत्थ रम्भकाः सर्वबहवो मनुष्याः । ते च प्रायोऽजितस्वामि सत्थपरिणएणं। (द ४।सूत्र ६) तीर्थकरकाले प्राप्यन्ते, यदा चोत्कृष्टपदवत्तिनः सूक्ष्माशस्त्र-परिणति से पूर्व तेजस चित्तवान (सजीव) नलजीवाः तदा सर्वबह्वग्निजीवाः । कहा गया है । वह अनेक जीव और पृथक् सत्त्वों (नन्दीमवृ प ९२) (प्रत्येक जीव के स्वतंत्र अस्तित्व) वाला है। अर्हत् अजित के तीर्थकाल में सब कर्मभूमियों में अग्नि का समारम्भ करने वाले मनुष्य सबसे अधिक थे। प्रकार जब सूक्ष्म अग्निजीव उत्कृष्ट होते हैं, तब सर्वाधिक दुविहा तेउजीवा उ, सुहमा बायरा तहा । अग्निजीव होते हैं। पज्जत्तमपज्जत्ता, एवमेए दुहा पुणो ॥ स्थिति (उ ३६।१०८) संतई पप्पणाईया, अपज्जवसिया वि य। तेजस्कायिक जीवों के दो प्रकार हैं-सूक्ष्म और ठिई पड़च्च साईया, सपज्जवसिया वि य ।। बादर। उन दोनों के पर्याप्त और अपर्याप्त-ये दो-दो भेद होते हैं। (उ २३।११२) प्रवाह की अपेक्षा तेजस्कायिक जीव अनादि-अनन्त बायरा जे उ पज्जत्ता, णेगहा ते वियाहिया । हैं और स्थिति की अपेक्षा सादिसांत हैं। इंगाले मुम्मुरे अगणी, अच्चि जाला तहेव य॥ आयुस्थिति उक्का विज्जू य बोद्धव्वा, णेगहा एवमायओ। तिण्णेव अहोरत्ता, उक्कोसेण वियाहिया। एगविहमणाणत्ता, सुहुमा ते वियाहिया ॥ (उ ३६।१०९,११०) आउटिई तेऊणं, अंतोमहत्तं जहन्निया । बादर पर्याप्त तेजस्कायिक जीवों के अनेक भेद (उ ३६।११३) तेजस्कायिक जीवों की आयुस्थिति जघन्यतः अन्तहैं --अंगार, मुर्मुर, अग्नि, अचि, ज्वाला, उल्का, विद्युत् आदि । सूक्ष्म तेजस्कायिक जीव एक ही प्रकार के होते मुहूर्त और उत्कृष्टतः तीन दिन-रात की है। हैं, उनमें नानात्व नहीं होता। कायस्थिति एएसि वण्णओ चेव, गंधओ रसफासओ। असंखकालमुक्कोसं, अंतोमुहुत्तं जहन्नयं । ' संठाणादेसओ वावि, विहाणाई सहस्ससो॥ कायट्टिई तेऊणं, तं कायं तु अमुंचओ ॥ (उ ३६।११६) (उ ३६।११४) ' वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और संस्थान की दृष्टि से तेजस्काय की कायस्थिति जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उनके हजारों भेद होते हैं। उत्कृष्टतः असंख्यात काल की है । सचित्त-मिश्र अग्नि अन्तरकाल ... इट्टगपागाईणं बहुमज्झे विज्जुयाइ निच्छइओ। .. अणंतकालमुक्कोसं, अंतोमुहत्तं जहन्नयं । ....इंगालाई इयरो मुम्मुरमाई य मिस्सो . उ॥ विजढंमि सए काए, तेउजीवाण अंतरं। (ओनि ३५८) (उ ३६।११५) Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवनिकाय उनका अन्तर (तेजस्काय को छोड़कर पुनः उसी काय में उत्पन्न होने तक का काल ) जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः अनन्त काल का है । क्षेत्र हुमा सव्वलोगम्मि, लोगदेसे य सूक्ष्म तेजस्कायिक जीव समूचे लोक में तेजस्कायिक जीव लोक के एक भाग में व्याप्त हैं । ६. वायुकाय की परिभाषा बायरा । ( उ ३६ । १११ ) और बादर वायुः - चलनधर्मा प्रतीत एव स एव काय: - शरीरं येषां ते वायुकायाः । ( दहावृप १३८ ) चलनधर्मा वायु ही जिनका काय - शरीर होता है, उन जीवों को वायुकाय कहते हैं । जीवत्वसिद्धि अत्थि अदिस्सापाइयफरिसणाईणं गुणी गुणत्तणओ । रूवस्स घडोव्व गुणी जो तेसि सोऽनिलो नाम ॥ ( विभा १७४९ ) दुविहा वाउजीवा उ सुहुमा पज्जत्तमपज्जत्ता, एवमेए २८४ अपरप्पेरियतिरिया नियमिय दिग्गमणओऽणिलो गो व्व । ( विभा १७५८ ) जैसे गाय किसी की प्रेरणा के बिना ही अनियमित तिर्यक् गमन करती है, वैसे ही वायु भी तिर्यग् गति अतः वह सजीव है | करता वाऊ चित्तमं मक्खाया अणेगजीवा पुढोसत्ता अन्नत्थ सत्यपरिणं । (द ४ | सूत्र ७ ) शस्त्रपरिणति से पूर्व वायु चित्तवान् ( सजीव ) कहा गया है । वह अनेक जीव और पृथक् सत्त्वों (प्रत्येक जीव के स्वतंत्र अस्तित्व) वाला है । प्रकार स्पर्श आदि गुणों का गुणी अदृश्य होने पर भी विद्यमान होना चाहिए। क्योंकि गुण गुणी में ही रहते हैं। और गुणी गुणों के कारण ही गुणी कहलाता है । जैसे रूप गुण का गुणी घट है । इसी प्रकार शब्द, कम्प आदि वायु के गुण हैं, अतः इन गुणों का अधिष्ठाता गुणी वायु है । वायुकाय की परिभाषा वायुकायिक जीवों के दो प्रकार हैं सूक्ष्म और बादर । उन दोनों के पर्याप्त और अपर्याप्त—ये दो-दो भेद होते हैं । बादर वायुकाय दुहा बायरा तहा । पुणो ॥ ( उ ३६।११७) बायरा जे उपज्जत्ता, पंचहा ते पकित्तिया । उकलियामंडलियाघणगुंजा सुद्धवाया य ॥ ( उ ३६।११८) उत्कलिकावाता ये स्थित्वा स्थित्वा पुनर्वान्ति । मण्डलिकावाता - वातोलीरूपा । घनवाता - रत्नप्रभाद्यधोवर्तिनां घनोदधीनां विमानानां वाऽऽधारा हिमपटलकल्पा वायवः । गुञ्जावाता – ये गुञ्जन्तो वान्ति । शुद्धवाता - उत्कलिकाद्युक्तविशेष विकला मन्दा निलादयाः । संवर्त्तकवाताश्च ये बहिः स्थितमपि तृणादि विवक्षितक्षेत्रान्तः क्षिपन्तीति । ( उणावृप ६९४ ) बादर पर्याप्त वायुकायिक जीवों के पांच भेद हैं१. उत्कलिका वायु — जो ठहर-ठहर कर चलती है । २. मण्डलिका वायु — जो बवंडर रूप में होती है । ३. घनवायु - जो रत्नप्रभा आदि पृथ्वियों के अधोवर्ती धनोदधि की अथवा विमानों की आधारभूत है । यह बर्फ जैसी सघन होती है । ४. गुंजावायु - जो गुञ्जार करती हुई चलती है । ५. शुद्ध वायु - जो मन्द मन्द बहती है । जो वायु घासफूस को बाहर से उड़ाकर भीतर ले जाती है, उसे संवर्तक वायु कहा गया है । एएसि वण्णओ चेव, गंधओ रसफासओ । संठाणादेसओ वावि, विहाणाई सहस्ससो ॥ ( उ ३६ । १२५ ) वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और संस्थान की दृष्टि से उनके हजारों भेद होते हैं ! सचित्त-अचित्त-मिश्र वायु सवलयघणतणुवाया अतिहिम अतिदुद्दिणे य निच्छइओ । ववहार पायमाई अक्कंतादी य अच्चित्तो ॥ हत्थसयमेग गंता दइउ अचित्तो बिइय संमीसो | तइयंमि उ सच्चित्तो वत्थी पुण पोरिसिदिणेहिं ॥ (ओनि ३६०, ३६१ ) कालो हि द्विविध: - निद्धो लुक्खो य । तत्थ निद्धो तिविहो उक्कोसो मज्झिमो जहण्णो य । तत्थ उक्को - सनिद्धे काले पौरुषीमात्रं कालं यावत् वत्थी वायुणाऽऽ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पतिकाय की परिभाषा २५५ जीवनिकाय पूरितो अचित्तो होइ तदुवरि सो चेव तइए पहरे सचित्तो अनन्त हैं और स्थिति की अपेक्षा से सादिसान्त है। होइ। आयुस्थिति लुक्खकालोऽवि तिविहो-जहन्नलूक्खो मज्झिम तिण्णेव सहस्साइं, वासाणक्कोसिया भवे। लुक्खो, उक्कोसलुक्खो य । तत्थ जहन्नलुक्खे काले वत्थी आउट्टिई वाऊणं, अंतोमुहुत्तं जहनिया ।। वाउणाऽऽपूरिओ एगदिवसं जाव अचित्तो होइ, तदुरि (उ ३६।१२२) सो चेव बिइयदिवसे मिस्सो होइ, सो चेव ततिए दिवसे वायुकाय की आयुस्थिति जघन्यतः अन्तर्महर्त और सचित्तो होइ । उक्कोसलूक्खे काले दिवसतिगं जाव उत्कृष्टतः तीन हजार वर्षों की है। अचित्तो होइ, तदुरि सो चेव चउत्थे दिवसे मीसो होइ, कास्थिति तरि सो चेव पंचमे दिवसे सचित्तो होइ । असंखकालमुक्कोसं, अंतोमुहुत्तं जहन्नयं । (ओनिवृ पृ १३४) कायट्टिई वाऊणं, तं कायं तु अमुंचओ। वायुकाय के चार प्रकार हैं (उ ३६।१२३) १. नैश्चयिक सचित्त-वलय के आकार में स्थित वायुकाय की कायस्थिति (निरन्तर उसी काय में घनवात और तनुवात, अतिहिमपात और अतिदुर्दिन जन्म लेते रहने की काल-मर्यादा) जघन्यतः अन्तमहत (मेघकृत अन्धकार) में होने वाली वायू । और उत्कृष्टतः असंख्यात काल की है। २. व्यावहारिक सचित्त-दुर्दिन रहित पूर्व आदि दिशाओं की वायु । अंतरकाल ३. अचित्त वायु-कर्दम आदि पर चलने से उठने अणंतकालमुक्कोसं, अंतोमुहुत्तं जहन्नयं । वाली वायु। विजढंमि सए काए, वाउजीवाण अंतरं ।। ४. मिश्र वायु-दति (मशक) में भरी अचित्त वायू वायुकाय का अन्तर जघन्यतः अन्तर्मुहर्त और नदी में दो सौ हाथ की दूरी पर मिश्र हो जाती उत्कृष्टतः अनन्त काल का है। क्षेत्र काल दो तरह का होता है-स्निग्ध काल और सुहमा सव्वलोगम्मि, लोगदेसे य बायरा । रूक्ष काल । स्निग्ध काल के तीन रूप हैं-उत्कृष्ट, (उ ३६।१२०) मध्यम और जघन्य । उत्कृष्ट स्निग्ध काल में वायु से सूक्ष्म वायुकायिक जीव समूचे लोक में और आपूरित मशक एक प्रहरपर्यंत अचित्त रहती है। तत् बादर वायुका यिक जीव लोक के एक भाग में व्याप्त हैं। पश्चात् वही तीसरे प्रहर में पुन: सचित्त हो जाती है। रूक्ष काल के भी तीन रूप हैं --जघन्य, मध्यम ७. वनस्पतिकाय की परिभाषा और उत्कृष्ट । जघन्य रूक्ष काल में वाय से आपरित वनस्पतिः - लतादिरूपः प्रतीतः, स एव कायःमशक एक दिन तक अचित्त रहती है, तत्पश्चात दूसरे शरीरं येषां ते वनस्पतिकायाः । (दहाव प १३८) दिन मिश्र और तीसरे दिन सचित्त हो जाती है। लता आदि वनस्पति ही जिनका काय-शरीर उत्कृष्ट रूक्ष काल में मशक की वायु तीन दिन पर्यंत होता है, उन जीवों को वनस्पतिकाय कहते हैं। अचित्त रहती है, वही चौथे दिन मिश्र और पांचवें दिन जीवत्वसिद्धि सचित्त हो जाती है। जम्म-जरा-जीवण-मरण-रोहणा-हार-दोहला-मयओ। स्थिति रोग-तिगिच्छाईहि य नारिव्व सचेयणा तरवो।। संतइं पप्पणाईया, अपज्जवसिया वि य । (विभा १७५३) ठिई पड़च्च साईया, सपज्जवसिया वि य ।। वनस्पतिजीव है । उसकी सजीवता के चिह्न हैं (उ ३६।१२) जन्म, वृद्धत्व, जीवन, मृत्यु, व्रणरोहण, आहार, दोहद, प्रवाह की अपेक्षा से वायूकायिक जीव अनादि- रोग, रोग-चिकित्सा आदि । Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवनिकाय छिक्कपरोइया छिक्कमेत्तसंकोयओ कुलिंगो व्व । आसय संचाराओ वियत्त ! वल्लीवियाणाई || सम्मादओ य साव- पबोह-संकोयणाइओऽभिमया । लाओ य सद्दाइ विसयकालोवलंभाओ || ( विभा १७५४, १७५५) ३. लताएं वृक्ष आदि के सहारे ऊपर चढती हैं । ४. शमी आदि में निद्रा, जागृति, संकोच आदि होते हैं । ५. बकुल, अशोक आदि वृक्ष शब्द रूप आदि विषयों का यथासमय परिभोग करते हैं । १. कोई वनस्पति स्पर्श से बढ़ने लगती है । २. वनस्पति कुलिंग कीट की भांति स्पर्शमात्र से कोई अन्तर नहीं होता, समानता होती है । सिकुड़ती है । समान होते हैं । पकित्तिया । य ॥ केदकंदली । कुडुंब ॥ साहारणसरीरा उ णेगहा ते सिंगबेरे आलुए मूलए चेव हिरिली सिरिल सिस्सिरिली, जावई पलं लसणकन्दे य, कंदली य लोहिणीहू य थिय, कुहगा य कण्हे य वज्जकंदे य, कंदे सूरणए तहा अस्सकण्णी य बोद्धव्वा, सीहकण्णी तहेव य । मुसुंढी य हलिद्दा य एवमायओ ॥ य । 11 गहा ( उ ३६ ९६-९९ ) साधारणशरीर वनस्पतिकायिक जीवों के अनेक प्रकार है - आलू, मूली, अदरक, हिरलीकन्द, सिरिलीकंद, सिस्सिरिलीकंद, जवाइकंद, केदकदलीकन्द, प्याज, लहसुन, कन्दली, कुस्तुम्बक, लोही, स्निहु, कुहक, कृष्ण, वज्रकन्द, सूरणकन्द, अश्वकर्णी, सिंहकर्णी, मुसुंढी, हरिद्रा आदि - ये सब साधारण शरीर हैं । सव्वो वि किसलओ खलु उप्पयमाणो अनंततो होइ । सो चेव बड्ढमाणो होति अणंतो परितो वा ॥ (दअचू पृ७६) सारे किसलय उत्पत्ति के समय अनन्तकायिक साधारणशरीर होते हैं। बढ़ने पर अनन्त भी रह सकते हैं और प्रत्येकशरीर भी बन सकते हैं । प्रत्येक शरीरी Treaserइया बीया चित्तमंतमक्खाया अणेगजीवा पुढोसत्ता अन्नत्थ सत्थपरिणएणं । (द ४।८) शस्त्रपरिणति से पूर्व बीजपर्यन्त ( मूल से लेकर बीज तक) वनस्पतिकायिक चित्तवान् कहे गए हैं। वे अनेक जीव और पृथक् सत्त्वों (प्रत्येक जीव के स्वतंत्र अस्तित्व) वाले हैं । प्रकार, दुविहा वणस्सईजीवा, सुहुमा बायरा तहा । पज्जत्तमपज्जत्ता, एवमेए दुहा वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकार के हैं बादर । इन दोनों के पर्याप्त और अपर्याप्त भेद होते हैं । बादर वनस्पति के प्रकार २८६ बायरा जे उपज्जत्ता, दुविहा ते साहारणसरीरा य, पत्तेगा य वियाहिया || तहेव य ॥ ( उ ३६।९३) बादर पर्याप्त वनस्पतिकायिक जीवों के दो भेद होते हैं- साधारणशरीर और प्रत्येकशरीर । साधारण शरीरी पुणो ॥ ( उ ३६।९२ ) सूक्ष्म और ये दो-दो साधारणम् - अनन्तजीवानामपि समानमेकं शरीरं येषां तेऽमी साधारणशरीराः । प्रत्येक शरीरी साहारणमाहारो साहारणमाणपाणगहणं च । साहारणजीवानां साहारणलक्खणं एयं ॥ ( उशावृप ६९१ ) जिसके एक शरीर में अनन्त जीव होते हैं, उसे साधारण शरीर कहा जाता है । इन जीवों के आहार, उच्छ्वासनिःश्वास आदि में प्रत्येकम् - एकैकशो विभिन्नं शरीरमेषामिति प्रत्येकशरीरा:, तेषां हि यदेकस्य शरीरं न तदन्यस्येति । (उशावृप ६९१ ) जिसके एक-एक शरीर में एक-एक जीव होता है, उसे प्रत्येक शरीर कहा जाता है । इन जीवों के असंख्य शरीरों का पिंड दृष्टिगत होता है । उनमें जो एक जीव का शरीर है, वह अन्य जीव का शरीर नहीं होताप्रत्येक जीव का स्वतंत्र शरीर होता है । Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति के आठ प्रकार एएस वण्णओ चेव, गंधओ संठाणादेसओ वावि, विहाणारं रसफासओ । सहस्ससो ॥ ( उ ३६ । १०५ ) वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और संस्थान की दृष्टि से उनके हजारों भेद होते हैं । २८७ पतेगसरीरा उ गहा ते पकित्तिया । रुक्खा गुच्छा य गुम्मा य लया वल्ली तणा तहा । लयावलय पव्वगा कुहुणा, जलरुहा ओसहीतिणा । हरियकाया य बोद्धव्वा, पत्तेया इति आहिया || ( उ ३६ ९४, ९५ ) प्रत्येक शरीर वनस्पतिकायिक जीवों के अनेक प्रकार हैं - वृक्ष, गुच्छ, गुल्म, लता, वल्ली और तृण । लता, वलय ( नारियल आदि ), पर्वज ( ईख आदि), कुहण (भूफोड़ आदि ), जलरुह ( कमल आदि), औषधि - तृण (अनाज) और हरितकाय - ये सब प्रत्येक शरीर हैं । सचित्त मिश्र वनस्पति सव्वो वsतकाओ सच्चित्तो होइ निच्छयनयस्स । ववहाराउ अ सो मीसो पव्वायरोट्टाई ॥ (ओनि ३६३) वनस्पति के प्रकार १. नश्चयिक सचित्त---अनन्तकाय वनस्पति । २. व्यावहारिक सचित्त प्रत्येक वनस्पति । ३. मिश्र म्लान पुष्प फल, कुट्टित तन्दुल आदि । अचित्त वनस्पति के प्रयोजन संथारपायदंडगखोमिय कप्पा य पीढफलगाई । ओसह सज्जाणिय एमाइ पओयणं बहुहा ॥ (पिनि ४६ ) शय्यापट्ट, पीठ, फलक, पात्र, दण्ड, सूती वस्त्र, औषध ( केवल हरीतकी आदि), भेषज ( हरीतकी बहेड़ा आदि का मिश्रित चूर्ण अथवा बहिः उपयोगी प्रलेप आदि) - ) – इन रूपों में अचित्त वनस्पतिकाय का उपयोग किया जाता है । स्थिति संतई पप्पणाईया, अपज्जवसिया विय । ठिई पडुच्च साईया, सपज्जवसिया वि य ।। ( उ ३६ । १०१ ) प्रवाह की अपेक्षा से वनस्पतिकायिक जीव अनादि अनन्त और स्थिति की अपेक्षा से सादि-सांत हैं । आयुस्थिति भवे । दस चेव सहस्साई, वासाणुक्कोसिया वणफण आउंतु, अंतोमुहुत्तं जहन्नगं ॥ ( उ ३६।१०२ ) वनस्पति जीवों की आयुस्थिति जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टत: दस हजार वर्ष की है । कायस्थिति अंतोमुहुत्तं अनंतकालमुक्कसं, काठई पणगाणं, तं कायं तु जहन्नयं । अमुंचओ ॥ ( उ ३६।१०३) उसी काय में वनस्पति की काय स्थिति ( निरन्तर जन्म लेते रहने की काल मर्यादा) जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः अनन्तकाल की है । Treaser मइगओ, उक्कोसं जीवो उ संवसे । कालमणंत दुरंत वनस्पतिकाय में उत्पन्न हुआ जीव दुरन्त अनन्तकाल तक वहां रह जाता अन्तरकाल जीवनिकाय असंखकालमुक्कसं, अंतोमुहुत्तं विजढमि सए काए, पणगजीवाण एगविणाणत्ता, सुहुमा तत्थ सुहुमा सव्वलोगम्मि, लोगदेसे 11 ( उ १०1९ ) अधिक से अधिक 1 ( उ ३६ । १०४) उनका अन्तर (वनस्पतिकाय को छोड़कर पुनः उसी काय में उत्पन्न होने तक का काल ) जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त्त और उत्कृष्टतः असंख्यात काल का है । क्षेत्र जहन्नयं । अंतरं ॥ वियाहिया । य बायरा ॥ ( उ ३६।१००) सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीव एक ही प्रकार के होते हैं। उनमें नानात्व नहीं होता । सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीव समूचे लोक में व्याप्त हैं तथा बादर वनस्पतिकायिक जीव लोक के एक देश में व्याप्त हैं । वनस्पतिकाय के आठ प्रकार अग्गबीया मूलीया पोरबीया खंधबीया बीयरुहा सम्मुच्छिमा तणलया । (द ४ सूत्र ८ ) वनस्पति के आठ प्रकार हैं अग्रबीज - जिसका अग्रभाग बीज हो, जैसे कोरंटक । Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जीवनिकाय १.२८८ ज्ञान मूलबीज--- जिसका मूल ही बीज हो, जैसे उत्पलकंद अनन्त वनस्पतिकायिक जीवों के शरीर आदि। एक वायुकायिक जीव का शरीर । पर्वबीज-जिसका पर्व ही बीज हो, जैसे इक्षु आदि । असंख्य वायुकायिक जीवों के शरीर= स्कन्धबीज--जिसका स्कन्ध ही बीज हो, जैसे थूहर, एक तेजस्कायिक जीव का शरीर। कपित्थ आदि । असंख्य तेजस्कायिक जीवों के शरीर बीजरुह- जो बीज से उत्पन्न हो, जैसे शालि, गेहूं आदि। एक अप्कायिक जीव का शरीर । संमूच्छिम-जो बीज के बिना पृथ्वी, पानी आदि कारणों असंख्य अप्कायिक जीवों के शरीर= को प्राप्त कर उत्पन्न हो, जैसे पद्मिनी आदि एक पृथ्वीकायिक जीव का शरीर । तृण-दूब, दर्भ आदि सभी प्रकार के तृण । ६. पृथ्वी आदि में उच्छ्वास आदि अव्यक्त लता-सब प्रकार की लताएं । चित्तमात्रमेव तेषां पृथिवीकायिनां जीवितलक्षणं, न वनस्पति की दस अवस्थाएं पुनरुच्छ्वासादीनि विद्यन्ते । (दजिचू पृ १३६) वणस्सइकाइयस्स बीयपज्जवसाणा दस भेदा गहिया पृथ्वीकाय आदि पांच जीवनिकायों में चैतन्य अल्पभवंति-तं जहा विकसित होता है। उनमें उच्छवास, निमेष आदि जीव मूले कंदे खंधे तया य साले तहप्पवाले य। के व्यक्त चिह्न नहीं होते। पत्ते पूप्फे य फले बीए दसमे य नायव्वा ।। १०. सघन मूर्छा का हेतु (दजिचू पृ १३८) जहा पुरिसस्स मज्जपाणविसोवयोग-सप्पावराहवनस्पति की दस अवस्थाएं हैं ---- हिप्पूरभक्खण मुच्छादीहिं चेतोविघातकारणे हि जुगपद१. मूल ६. प्रवाल भिभूतस्स चित्तं मत्तं एवं पुढविक्कातियाणं । २. कंद ७. पत्र (दअच पृ ७४) ३. स्कंध ८. पुष्प जिस प्रकार चित्त के विघातक कारणों से अभिभूत ४. त्वचा ९. फल और मनुष्य का चित्त मूच्छित हो जाता है, वैसे ही ज्ञानावरण ५. शाखा १० बीज। के प्रबलतम उदय से पृथिवी आदि एकेन्द्रिय जीवों का जोणिब्भूते बीए जीवो वक्कमइ सो व अण्णो वा । चैतन्य सदा मूच्छित रहता है। इनके चैतन्य का विकास जो वि य मुले जीवो सो वि य पत्ते पढमयाए॥ न्यूनतम हाता है। (दनि १४२) ११. पृथ्वी आदि जीवों की दृश्यता योनिभूत बीज में बीज का जीव जन्म लेता है, ताणि पुण असंखेज्जाणि समुदिताणि चक्खुविसयअथवा दूसरा जीव जन्म लेता है। प्रारम्भ में मूल में जो मागच्छति । (दअचू पृ७४) जीव है, पत्ते में भी वही जीव है। मिट्टी के कण, जल की बूंद और अग्नि की चिन८. पृथ्वी आदि एकेन्द्रिय जीवों की अवगाहना । गारी में असंख्य जीव होते हैं। इनका एक शरीर दृश्य नहीं बनता। इनके असंख्य शरीरों का समुदय ही हमें पृथिवीकायिकादीनां त्वंगुलासंख्येय भागमात्रतया दीख सकता है। ...तुल्यायामप्यवगाहनायां विशेषः । ज्ञातधर्मकथा- छठा अंग। (द्र. अंगप्रविष्ट) वणऽणंतसरीराण एगाणिलसरीरगं पमाणेण । अणलोदगपुढवीणं असंखगुणिया भवे वुड्ढी ॥ ज्ञान-ज्ञेय का बोध कराने वाला साधन । (अनुहावृ पृ ८०) । १. ज्ञान का निर्वचन पृथ्वीकायिक आदि सभी एकेन्द्रिय जीवों की अव- परिभाषा गाहना अंगुल का असंख्येय भाग मात्र होती है, फिर भी। २. ज्ञान के पांच प्रकार उनमें कुछ अन्तर होता है • चार ज्ञान स्वार्थ, श्रुतज्ञान परार्थ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान के पांच प्रकार २८९ ज्ञान है। ३. मतिज्ञान आदि के क्रम का हेतु णज्जति एतम्हि त्ति णाणं, णाणभावे जीवो त्ति । ४. चार ज्ञान क्षयोपमश भाव (नन्दीचू पृ १३) ५. ज्ञान-प्राप्ति के विकल्प ० जानना ज्ञान है। ६.ज्ञान के दो प्रकार ० क्षायोपशमिक अथवा क्षायिक भाव से जीव आदि ७. प्रत्यक्ष ज्ञान का निर्वचन पदार्थ जाने जाते हैं। ० परिभाषा ० इसके होने पर जाना जाता है, इसलिए यह ज्ञान ० प्रकार ८. इन्द्रियप्रत्यक्ष की परिभाषा परिभाषा ० प्रकार सविसेसं सागारं तं नाणं ।.. (विभा ७६४) ० इन्द्रियज्ञान संव्यवहार प्रत्यक्ष जो वस्तु के विशेष रूपों-भेदों का ग्राहक है, वह .इन्द्रियज्ञान परोक्ष साकार उपयोग ज्ञान है। ९. नोइन्द्रियप्रत्यक्ष की परिभाषा णाणं च णेयाओ अव्वतिरित्तं । कहं ? जाव जाणि• प्रकार यव्वा भावा ताव णाणं । (आवचू १ पृ २९) १०. परोक्ष ज्ञान की परिभाषा ज्ञान और ज्ञेय अभिन्न हैं। क्योंकि जितने ज्ञेय पदार्थ ० प्रकार हैं, उतना ज्ञान है। • परोक्षता का हेतु ११. ज्ञान और नय २. ज्ञान के पांच प्रकार १२. ज्ञान और सम्यक्त्व में भेद नाणं पंचविहं पण्णत्तं, तं जहा आभिणिबोहिय१३. ज्ञानसम्पन्नता के परिणाम नाणं सुयनाणं ओहिनाणं मणपज्जवनाणं केवलनाणं । १४. चेतना-विकास का क्रम (नन्दी २) १५. ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम सब जीवों में ज्ञान के पांच प्रकार हैं-आभिनिबोधिक ज्ञान *ज्ञानावरण के प्रकार (द्र. कर्म) (मतिज्ञान), श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान, केवल•ज्ञान के आचार (द. आचार) ज्ञान। (द्र. सम्बद्ध नाम) *ज्ञान विनय (द्र. विनय) एवं पंचविहं नाणं दव्वाण य गुणाण य । *ज्ञान भावना (द्र. भावना) पज्जवाणं च सव्वेसिं नाणं नाणीहि देसियं ।। * पांच ज्ञान और सामायिक (द्र. सामायिक) (उ २८।५) *ज्ञान : भावप्रमाण का एक भेद (व.प्रमाण) | यह पांच प्रकार का ज्ञान सर्व द्रव्य, गुण और * मिथ्यात्वी का ज्ञान अज्ञान (द्र. अज्ञान) | पर्यायों का अवबोधक है-ऐसा ज्ञानियों ने बतलाया १६. सामान्य बोध-दर्शन ० दशन के प्रकार चार ज्ञान स्वार्थ, श्रुतज्ञान परार्थ • चक्षुदर्शन-अचक्षुदर्शन चत्तारि नाणाइं ठप्पाइं ठवणिज्जाइं- नो उद्दि• अवधिवशन स्संति, नो समुद्दिस्संति, नो अणुण्णविज्जति । सुयना* केवलदर्शन (द्र.केवलज्ञान) | णस्स उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो य पवत्तइ । ज्ञान और दर्शन का भेद क्यों ? (अनु २) १. ज्ञान का निर्वचन चार ज्ञान प्रतिपादन में सक्षम नहीं होने के कारण णाती णाणं-अवबोहमेत्तं । स्थाप्य-स्थापनीय हैं । इसलिए इनके उद्देश (अध्ययन का खओवसमियखाइएण वा भावेण जीवादिपदत्था । निर्देश) समुद्देश (स्थिरीकरण का निर्देश) और अनुज्ञा णज्जति इति णाणं। (अध्यापन का निर्देश) नहीं होते। श्रुतज्ञान के उद्देश, Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान समुद्देश, अनुज्ञा और अनुयोग होते हैं । '३. मतिज्ञान आदि के क्रम का हेतु किमेस मतिनाणादियो कमो ? सकारणो उवण्णासो । इमे य ते कारणा -तुल्लसामित्तणतो सव्वकालाविच्छेदतित्तणतो इंदियाऽणिदियणिमित्तत्तणतो तुल्लक्खतोवसमकारणत्तणतो सव्वदव्व' दिविसयसामण्णत्तणतो परुक्खसामन्नत्तणओ य तब्भावे य सेसणाणसंभवातो अतो आदी मति-सुताई कताई । मति सुयसमाण कालत्तणतो मिच्छद्दंसणपरिग्गहतणतो तव्विवज्जय साहम्मत्तणतो सामिसाहम्मत्तणतो य कत्थइ कालेगलाभत्तणतो य मतिसुताणंतरं अवधि ति भणितो । ततो य छउमत्थसामिसामण्णत्तणतोय पुग्गलविसयसामण्णत्तणतो य खयोवसमभावसामण्णत्तणतो य पच्चक्खभावसामण्णत्तणतोय अवहिसमणंतरं मणपज्जवनाणं ति । सव्वाणुत्तमत्तणतो सव्वविसुद्धत्तणतो य विरतसामसामण्णत्तणतो य सव्वावसाणलाभत्तणतो सबुत्तमलद्धित्तणओ य तदंते केवलं भणितं । य ( नन्दी पृ १४ ) मति और श्रुत को सर्वप्रथम रखा गया है, क्योंकि दोनों के होने पर ही शेष ज्ञान संभव हैं। दोनों के अधिकारी तुल्य / समान हैं, दोनों की स्थिति समान है, दोनों इन्द्रियनिमित्तज हैं, दोनों का क्षयोपशम तुल्य है, दोनों का विषय समान है, दोनों परोक्ष ज्ञान हैं । मति श्रुत और अवधिज्ञान का कालमान समान है, अधिकारी समान हैं । ये मिथ्यादृष्टि के भी हो सकते हैं / इनका विपर्यय भी होता है । कभी-कभी तीनों की प्राप्ति एक साथ भी हो जाती है - इन समानताओं के कारण मति श्रुत के पश्चात् अवधिज्ञान का क्रम रखा गया है । अवधि और मनः पर्यवज्ञान- दोनों के अधिकारी छद्मस्थ होते हैं। दोनों का विषय है - पुद्गल / रूपी द्रव्य । दोनों क्षायोपशमिक प्रत्यक्ष ज्ञान हैं । अतः अवधि के बाद मनः पर्यव का क्रम उपन्यस्त है । मनःपर्यव और केवलज्ञान के अधिकारी मुनि / व्रती होते हैं । केवलज्ञान सब ज्ञानों में उत्तम है, सर्वविशुद्ध है, सर्वोत्तम लब्धि है, सबसे अन्त में प्राप्त होता है, अत: वह अंत में निरूपित है । २९० ४. चार ज्ञान क्षयोपशमभाव ....खओवसमिया प्रत्यक्ष ज्ञान का निर्वचन आभिणि बोहियनाणलद्धी, खओवसमिया सुयनाणलद्धी, खओवसमिया ओहिनाणलद्धी, खओवसमिया मणपज्जवनाणलद्धी । ( अनु २८५ ) चार ज्ञानलब्धियां क्षयोपशम- निष्पन्न हैं१. आभिनिबोधिक ज्ञानलब्धि ३ अवधिज्ञानलब्धि २. श्रुतज्ञानलब्धि ४. मनः पर्यवज्ञानलब्धि | ५. ज्ञान-प्राप्ति के विकल्प दोहिं वा मति सुतेहि । तिहि वा मति सुता ऽवहीहिं अहवा मति सुय-मणपज्जवेहिं । चतुर्हि वा मतिसुतावहि-मणपज्जवेहि । एक्केण वा केवलनाणेण संपण्णं । ( अचू पृ १३८ ) एक साथ ज्ञान प्राप्ति के चार विकल्प - १. दो ज्ञान -मति और श्रुत । २. तीन ज्ञान - ( १ ) मति, श्रुत और अवधि । (२) मति, श्रुत और मनः पर्यव । ३. चार ज्ञान - मति, श्रुत, अवधि और मनः पर्यव । ४. एक ज्ञान - केवलज्ञान । ६. ज्ञान के दो प्रकार तं समासओ दुविहं पण्णत्तं तं जहा पच्चक्खं च परोक्खं च । ( नन्दी ३) ज्ञान के दो प्रकार हैं- प्रत्यक्ष और परोक्ष । ७. प्रत्यक्ष ज्ञान का निर्वचन जीव अक्ख अत्थव्वावण - भोयणगुणणिओ जेण । तं पट्टइ नाणं जं पच्चक्खं ......... "1 ( विभा ८९ ) पणता अत्थे असइ त्ति इच्चेवं जीवो अक्खो, णाणभावेण वावेति । अक्खं पति वट्टति त्ति पच्चक्खं । अदिति वृत्तं भवति । ( नन्दीचू पृ १४ ) जो ज्ञानात्मा से सभी अर्थों-पदार्थों में व्याप्त होता है, वह अक्ष / जीव है । अक्ष द्वारा होने वाला ज्ञान प्रत्यक्ष है । यह अनिन्द्रिय ज्ञान है । अश्नाति समस्त त्रिभुवनान्तर्वर्तिनो देवलोक समृयादीनर्थान् पालयति भुंक्ते वेति अक्ष: । '''' तमक्षं Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नोइन्द्रियप्रत्यक्ष की परिभाषा २९१ या " प्रति साक्षात्""वर्तते यज्ज्ञानं तत्प्रत्यक्षम् । इन्द्रियज्ञान : संव्यवहार प्रत्यक्ष (विभामवृ पृ ५०) एगंतेण परोक्खं लिंगियमोहाइयं च पच्चक्खं । जो समस्त पदार्थों का पालन/रक्षण और उपभोग इंदियमणोभवं जं तं संववहारपच्चक्खं ।। करता है, वह अक्ष जीव है। साक्षात् अक्ष से होने वाला ( भा ९५) ज्ञान प्रत्यक्ष है। हेतु से होने वाला अनुमान ज्ञान वास्तविक परोक्ष परिभाषा है । अवधि, मन पर्यव और केवलज्ञान वास्तविक प्रत्यक्ष जं सयं चेव जीवो इंदिएण विणा जाणति. तं हैं। इन्द्रिय और मन से होने वाला ज्ञान सांव्यावहारिक पच्चक्खं भण्ण ति । (आवचू १ पृ७) प्रत्यक्ष है। इन्द्रियों की सहायता के बिना आत्मा स्वयं जिससे इंदियमणोनिमित्तं पि नाणुमाणा हि भिज्जए किंतु । ज्ञेय को जानती है, वह प्रत्यक्ष ज्ञान है। नाविक्खइ लिगंतरमिइ पच्चक्खोवयारो स्थ ।। (विभा ४७१) इन्द्रियमनोनिरपेक्षमात्मन: साक्षात् प्रवृत्तिमत्प्रत्यक्षम् । इन्द्रिय और मन के माध्यम होने वाला ज्ञान भी (आवमवृ प १६) अनुमान से भिन्न नहीं है। किन्तु इसमें धूम आदि अन्य इन्द्रिय और मन से निरपेक्ष केवल आत्मा से होने लिंग या निमित्त की अपेक्षा नहीं रहती, इसलिए इंद्रियवाला ज्ञान प्रत्यक्ष है। मनोज्ञान को उपचार से प्रत्यक्षज्ञान का गया है। प्रकार भाविदियोवयारपच्चक्खत्तणतो एतं पच्चक्खं । परमपच्चक्खं दुविहं पण्णत्तं, तं जहा -इंदियपच्चक्खं च स्थओ पुण चितमाणं एतं परोक्खं । परा दविदिया, नोइंदियपच्चक्खं च। (नन्दी ४) भाविदियस्स य तदायत्तप्पणतो। (नन्दीच ११५) प्रत्यक्ष के दो प्रकार -१. इन्द्रिय प्रत्यक्ष । भावेन्द्रिय के कारण इन्द्रियज्ञान को प्रत्यक्ष कहा २. नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष । गया है । परमार्थतः यह पगेक्ष है क्योंकि द्रव्येन्द्रियां 'पर' ८. इन्द्रिय प्रत्यक्ष की परिभाषा - हैं और भावेन्द्रियां द्रव्येन्द्रियों के अधीन हैं। - पूग्गलेहिं संठाणणिव्वत्तिरूवं दवदियं । सोइंदिय- इन्द्रियज्ञान परोक्ष मा दइंदियाणं सव्वातप्पदेसेहिं स्वावरणक्खतोवसमातो जा जीवो च्चेव चक्मा दिएहिं रूवाईणं विसयत्थाणं लद्धी तं भाविदियं । तस्स पच्चक्खं ति इंदियपच्चक्खं। गाहतो । कहं ? जम्हा जीवोवओगविरहियाणि इंदियाणि (नन्दीच पृ १४) णो उवलभंति । अओ जं इंदिएहिं उवलब्भति तं णाणं पूदगलों जो इन्द्रिय-संस्थान निर्मित होता है, वह लिंगितं, ""परनिमित्तणिप्फण्णं । (आव ११७) द्रव्येन्द्रिय है। सर्व आत्मप्रदेशों में श्रोत्र आदि इन्द्रियों के जीव ही चक्षु आदि इन्द्रियों के माध्यम से रूप आवरण का क्षयोपशम होन से श्रोत्र आदि इन्द्रियों की आदि विषयों को ग्रहण करता है। क्योंकि जीव के उपलब्धि ज्ञान करने की क्षमता को भावेन्द्रिय कहते हैं। योग से शन्य इन्द्रियां कुछ भी उपलब्ध नहीं कर जो भावेन्द्रिय के प्रत्यक्ष है, वह इन्दिर प्रत्यक्ष है। सकतीं। इसलिए इन्द्रियों के द्वारा जो उपलब्ध होता प्रकार है वह ज्ञान परोक्ष है, परनिमित्त से निष्पन्न है। इंदियपच्चक्खं पंचविहं पण्णत्तं, तं जहा-सोइंदिय- 8. नोइन्द्रियप्रत्यक्ष को परिभाषा पच्चक्खं, चक्खिदियपच्चक्खं, घाणिदियपच्चक्खं, नोइंदियपच्चक्खं ति इदियातिरित्तं ।(नन्दीच पृ१५) नो जिभिदियप क्खं, फासिंदियपच्चक्खं । (नन्दी ५) नोइन्द्रियप्रत्यक्षं यत् इन्द्रियप्रत्यक्षं न भवा । इन्द्रियप्रत्यक्ष पांच प्रकार का है--१. श्रोत्रेन्द्रिय- नोशब्दः सर्वनिषेधव ची। तेन मनसोऽपि कथञ्चिदिप्रत्यक्ष, २. चक्षु रिन्द्रियप्रत्यक्ष, ३. घ्राणेन्द्रियप्रत्यक्ष, न्द्रियत्वाभ्युपगमात्तदाश्रितं ज्ञानं प्रत्यक्षं न भवतीति । ४. रसनेन्द्रियप्रत्यक्ष, ५. स्पर्शनेन्द्रियप्रत्यक्ष । नन्दीमत् प ७६) अतीन्द्रियज्ञान नोइन्द्रियप्रत्यक्ष है। पाहा Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान २९२ ज्ञानसम्पन्नता के परिणाम जो इन्द्रियप्रत्यक्ष नहीं है, वह नोइन्द्रियप्रत्यक्ष है। मन के माध्यम से जो मति-श्रुतात्मक ज्ञान होता है, यहां नो शब्द सर्वथा निषेधवाचक है। मन भी किसी वह धूम से अग्निज्ञान की तरह परनिमित्तज होने के अपेक्षा से इन्द्रियरूप में स्वीकृत है इसलिए उसके माध्यम कारण परोक्ष है। से होने वाला ज्ञान प्रत्यक्ष नहीं होता। इन्दिय-मणोनिमित्तं परोक्खमिह ससयादिभावाओ । प्रकार तक्कारणं परोक्खं जहेह साभासमणमाणं ।। नोइंदियपच्चक्खं तिविहं पण्णत्तं, तं जहा- ओहि (विभा ९३) इन्द्रिय और मन के माध्यम से होने वाले ज्ञान में नाणपच्चक्खं, मणपज्जवनाणपच्चक्खं, केवलनाणपच्चक्खं । (नन्दी ६) संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय आदि हो सकते हैं, इसलिए नोइन्द्रियप्रत्यक्ष तीन प्रकार का है-१. अवधिज्ञान वह परोक्ष है। जैसे साभास अनुमान या सम्यग् अनुमान प्रत्यक्ष, २. मनःपर्यवज्ञानप्रत्यक्ष ३. केवलज्ञानप्रत्यक्ष । को परोक्ष इसलिए माना है कि वह इन्द्रिय और मन(द्र. सम्बद्ध नाम) सापेक्ष होता है त ग उसमें संशय आदि की संभावना बनी रहती है। १०. परोक्षज्ञान की परिभाषा होन्ति परोक्खाई मइ-सुयाइं जीवस्स परनिमित्ताओ। अक्खो जीवो। तस्स ज परतो तं परोक्खं । पुवोवलद्धसंबधसरणाओ वाणुमाणं व ॥ (आवचू १ पृ ६,७) (विभा ९४) अक्खातो परेसु जं णाणं उप्पज्जति तं परोक्खं जैसे पूर्व उपलब्ध संबंध की स्मृति के कारण उत्पन्न इंदियमणोनिमित्तं दट्ठव्वं । (नन्दीचू पृ १४) होने वाला अनुमान ज्ञान परोक्ष है, वैसे ही : ति और अक्ष का अर्थ है-जीव । जो उससे पर होता है, वह श्रुत ज्ञान भी पर अर्थात् इन्द्रिय और मन के निमित्त से परोक्ष है। उत्पन्न होता है, इसलिए वह परोक्ष है। जो ज्ञान साक्षात् आत्मा से नहीं, 'पर' से होता है, ११. ज्ञान और नय वह परोक्ष है। यह इन्द्रिय और मन के निमित्त से होने सम्मत्त-नाणरहियस्स नाणमुप्पज्जइ त्ति ववहारो। वाला ज्ञान है। नेच्छइयनओ भासइ उप्पज्जइ तेहिं सहिअस्स ।। प्रकार (विभा ४१४) परोक्खं दुविह पण्णत्तं, तं जहा . आभिणिबोहिय व्यवहारनय के अनुसार सम्यक्त्व और ज्ञान से नाणपरोक्खं च सुयनाणपरोक्खं च । (नन्दी ३४) विहीन (मिथ्यात्वी और अज्ञानी) जीव को ज्ञान उत्पन्न परोक्ष ज्ञान दो प्रकार का है-१. आभिनिबोधिक- टोता है। निजात होता है। निश्चयनय के अनुसार सम्यक्त्वी और ज्ञानी ज्ञानपरोक्ष २. श्रुतज्ञानपरोक्ष । को ही ज्ञान उत्पन्न होता है । परोक्षता का हेतु १२. ज्ञान और सम्यक्त्व में भेद अक्खस्स पोग्गलकया जं दविवन्दिय-मणा परा तेणं । नाणमवाय-धिईओ सण मिटठं जहोग्गहे-हाओ। तेहिं तो जं नाणं परोक्खमिह तमणमाणं व ॥ तह तत्तरुई सम्मं रोइज्जइ जेण तं नाणं ।। अपोद्गलिकत्वादमूर्तो जीव । पौद्गलिकत्वात् तु (विभा ५३६) मूर्तानि द्रव्येन्द्रियमनांसि । अमूर्ताच्च मूर्त पृथग्भूतम् । जैसे अवग्रह और ईहा सामान्य अवबोध के कारण ततस्तेभ्यः पौद्गलिकेन्द्रियमनोभ्यो यद् मति-श्रुत दर्शन हैं और अपाय तथा धृति-धारणा विशेष अवबोध लक्षणं ज्ञानमुपजायते, तद् धूमादेरग्न्यादिज्ञानवत् के कारण ज्ञान हैं, वैसे ही तत्त्वविषयक रुचि-श्रद्धा परनिमित्तत्वात् परोक्षमिह जिनमते परिभाष्यते । सम्यक्त्व है और जिससे जीव आदि तत्त्वों पर श्रद्धा (विभा ९० मवृ पृ ५०) होती है, वह ज्ञान है। आत्मा अमूर्त है, क्योंकि अपौद्गलिक है। द्रव्यइन्द्रियां और मन मूर्त हैं, क्योंकि पुदगलों से निष्पन्न हैं। १३. ज्ञानसम्पन्नता के परिणाम अमूर्त से मूर्त 'पर' (पृथक्) है। अतः द्रव्येन्द्रियों और नाणसंपन्नयाए णं भंते ! जीवे कि जणयइ ? Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामान्यबोध-दर्शन २९३ ज्ञान नाणसंपन्नयाए णं जीवे सव्वभावाहिगम जणयइ। विसुद्धतरं नाणमक्खरं, एवं कमेणं तेउ-वाउ-वणस्सतिनाणसपन्ने णं जीवे चाउरते संसारकंतारे न विणस्सइ । बेइंदिय-तेइंदिय-चतुरिदिय-असण्णिपंचेंदिय-सण्णिपंचेंदि जहा सूई ससुत्ता पडिया वि न विणस्सइ । याण य विसुद्धतरं भवति । (नन्दीचू पृ ५६) तहा जीवे ससुत्ते संसारे न वि स्सइ ।। ___ सव्वजहणणं चित्तं एगिदियाणं, ततो विसुद्धतरं नाणविणयतवर्चा त्तजोगे संपाउणइ, ससमयपरसमय- बेइंदियाणं, ततो तेइंदियाणं, ततो चरिदियाणं, ततो संघायणिज्जे भवइ। (उ २९।६०) असण्णिपंचिदियतिरिक्खजोणिताणं सम्मच्छिममणसाण य, भन्ते ! ज्ञान-सम्पन्नता (श्रुतज्ञान की सम्पन्नता) से ततो गब्भवतियतिरियाणं, ततो गब्भवक्कंतियमणूसाणं, जीव क्या प्राप्त करता है ? ततो वाणमंतराणं, ततो भवणवासीणं, ततो जोतिसियाणं, ज्ञान-सम्पन्नता से वह सब पदार्थों को जान लता ततो सोधम्मताणं जाव सव्वक्कस्सं अणु त्तरोववातियाणं है । ज्ञान-सम्पन्न जीव चार गतिरूप चार अन्तों वाली देवाणं । (दअचू पृ ७४) अटवी में बिनष्ट नहीं होता। जिस प्रकार ससूत्र (धागे पृथ्वीकायिक जीवों में ज्ञान-चेतना का विकास न्यूनतम होता है। उससे अनंत भाग विशुद्धतर ज्ञान प्रकार ससूत्र (श्रुतसहित) जीव संसार में रहने पर भी अपकायिक जीवों में होता है। इसी प्रकार तेजस्काय, विनष्ट नहीं होता। वायुकाय, वनस्पतिकाय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, ज्ञानसम्पन्न व्यक्ति अवधि आदि विशिष्ट ज्ञान, विनय, असन्नी पंचेन्द्रिय तिर्यंच, सम्मूच्छिम मनुष्य, गर्भज तप और चारित्र के योगों को प्राप्त करता है तथा तिर्यच, गर्भज मनुष्य, व्यंतर देव, भवनपति देव, ज्योतिष्क स्वसमय और परसमय की व्याख्या या तुलना के लिए देव, सौधर्म आदि कल्पोपपन्न देव और नव अवेयक प्रामाणिक रुष माना जाता है। देव-इनका ज्ञान क्रमशः विशुद्ध, विशुद्धतर होता है । ज्ञानस्य फलं हेयस्य हानि: उपादेयस्य चोपादानं, अनुत्तरोपपातिक देवों में ज्ञानचेतना का विकास सर्वोत्कृष्ट न च संसारात्परं किञ्चिद्धे यमस्ति न च मोक्षात्परं विशुद्धतम होता है। किञ्चिदुपादेयं, ततो भवमोक्षावेकान्तेन हेयोपादेयौ । भवमोक्षयोश्च हान्युपादाने सर्वसङ्गविरतेर्भवतः । ततः १५. ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम सब जीवों में साऽवश्यं तत्त्ववेदिना कर्तव्या। सैव च परमार्थतो ज्ञानस्य णाणावरणिज्जस्स कम्मस्स अणंतेहिं अविभागपलिफलम् । (नन्दीमव प १४३) च्छेदेहिं जतिवि एक्केक्को जीवपदेसो आवेढितो ज्ञान की निष्पत्ति है-हेय का त्याग और उपादेय परिवेढितो भवति तहावि णाणभावो अत्थि चेव पूढविका स्वीकार । संसार से बढ़कर कोई दूसरा हेय नहीं है काइयादीणं। (आवचू १ पृ ३०) और मोक्ष से बढ़कर कोई दूसरा उपादेय नहीं है । इसलिए यद्यपि ज्ञानावरणीय कर्म के अनन्त अविभागी भव-संसार एकान्ततः हेय है और मोक्ष एकान्ततः परिच्छेदों से एक-एक आत्मप्रदेश आवेष्टित-परिवेष्टित उपादेय है। भव की हानि और मोक्ष के उपादान का है. फिर भी पृथ्वीकाय आदि जीवों में ज्ञान की सत्ता साधन है-सर्वसंग-विरति । ज्ञानी को विरति अवश्य (क्षयोपशम) तो विद्यमान है ही। करनी चाहिए । वस्तुतः ज्ञान का यही फल है। १६. सामान्यबोध-दर्शन जं अन्नाणी कम्मं खवेइ बहुयाहि वासकोडीहिं । तं नाणी तिहिं गुत्तो खवेइ ऊसासमेत्तेणं ।। ..."निव्विसेसमणागारं। तं दंसणं"। (उशाव प ६८) (विभा ७६४) एक अज्ञानी करोड़ों वर्षों में जितने कर्मों को क्षीण जो सामान्य का ग्राहक है, वह दर्शन/अनाकार उपकरता है, उतने कर्मों को एक त्रिगुप्त ज्ञानी उच्छवास योग है। मात्र में क्षीण कर देता है। दर्शन के प्रकार १४. चेतना-विकास का क्रम दंसणगुणप्पमाणे चउन्विहे पण्णत्ते, तं जहा- चक्खुपुढविकाइतेहितो आउक्कातियाण अणंतभागेण दंसणगुणप्पमाणे अचक्खुदंसणगुणप्पमाणे ओहिदसण Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानक्रियावाद २९४ तप गुणप्पमाणे केवलदसणगुणप्पमाणे । (अनु ५५२) तत्त्व नौ हैं दर्शन के चार प्रकार हैं --चक्षदर्शन, अचक्षदर्शन, जीव-जिसमें चेतना हो, सुख-दुःख का संवेदन हो। 'अवधिदर्शन, केवलदर्शन । अजीव-जिसमें चेतना न हो। चक्षुदर्शन-अचक्षुदर्शन पुण्य-शुभ रूप में उदय आने वाले कर्मपुद्गल । चक्षदर्शने-चक्षषा रूपसामान्यग्रहणे । अचक्षुषि-- पाप-अशुभ रूप में उदय आने वाले कर्मपुद्गल । चक्ष:सदशानि शेषेन्द्रियमनांसि तदर्शने तेषां स्वस्वविषय आश्रव-कर्मपुद्गलों को ग्रहण करने वाली आत्मप्रवृत्ति । सामान्यपरिच्छेदे। संवर--आश्रव का निरोध । (उशावृ प ६४२) चक्षु के द्वारा रूप का सामान्य ग्रहण चक्षदर्शन है। निर्जरा ---तपस्या आदि के द्वारा कर्मविलय से होने वाली श्रोत्र, घ्राण, रस, स्पर्श और मन के द्वारा अपने-अपने आत्मा की आंशिक उज्ज्वलता । विषय का सामान्य ज्ञान होता है, वह अचक्षुदर्शन है। बंध-आत्मा के साथ शुभ-अशुभ कर्मों का संबंध । मोक्ष-अपने स्वरूप में प्रतिष्ठित कर्ममुक्त आत्मा । अवधिदर्शन तथाकार-आचार्य के वचनों को तहत्'-- आप जो सागारमणागारा ओहि (आवनि ६५) कह रहे हैं, वह वैसा ही है-इस रूप में जो रूपी द्रव्यों को विशेष रूप से ग्रहण करता है, वह अवधिज्ञान है। जो रूपी द्रव्यों को सामान्य रूप से स्वीकार करना । सामाचारी का एक भेद। ग्रहण करता है, वह अवधिदर्शन है। (द्र. सामाचारी) ज्ञान और दर्शन का भेद क्यों? तद्भवमरण -मरण का एक भेद। (द्र. मरण) सामान्यत एकरूपेऽपि क्षयोपशमलम्भेऽपान्तराले तप-कर्मशरीर को तपाने वाला अनुष्ठान, कर्मद्रव्याद्यपेक्षया क्षयोपशमस्य विशेषसम्भवाद विविधोपयोग- क्षय का असाधारण हेतु । सम्भवो भवतीति । (नन्दीमवृ प १०९) १. तप की परिभाषा ज्ञान-दर्शन की प्राप्ति में ज्ञानावरणीय-दर्शनावर- | णीय कर्म के क्षयोपशम की समानता रहती है -सामा * तप : मोक्ष का मार्ग (द्र. मोक्ष) न्यतः क्षयोपशम एक ही प्रकार का है। किन्तु द्रव्य में २. तप के प्रकार सामान्य और विशेष----दोनों धर्म होते हैं, इस दष्टि से ३. बाह्य-आभ्यंतर के भेद का हेतु क्षयोपशम के दो रूप बनते हैं - ज्ञान (साकार उपयोग) ४. इत्वरिक तप के प्रकार और दर्शन (अनाकार उपयोग)। ० श्रेणी तप ० प्रतर तप ज्ञानक्रियावाद-- मुक्ति के लिए ज्ञान और क्रिया ० घन तप को समन्वित साधना का सिद्धान्त । ० वर्ग तप (द्र. वाद) ० वर्गवर्ग तप ज्ञानावरणीय-ज्ञान को आवत करने वाला कर्म। ० प्रकीर्ण तप (द्र. कर्म) * तप : चारित्र धर्म का एक भेद (इ. धर्म) ज्योतिष्क --जो प्रकाशमान विमानों में रहते हैं, वे | ५. तप चारित्र से पृथक क्यों ? देव। (द्र. देव) ६. तप का उद्देश्य तत्त्व-पारमार्थिक वस्तु -'तथ्याः अवितथाः निरुप- | ७. तप की अर्हता चरितवृत्तयः ।' (उशाव प ५६२) | ८. तप के परिणाम जीवाजीवा य बंधो य, पुण्णं पावासवो तहा। * तप : प्रायश्चित्त का एक प्रकार (द्र. प्रायश्चित्त) संवरो निज्जरा मोक्खो, संतेए तहिया नव ।। * नमस्कारसहिता आदि तप (द्र. प्रत्याख्यान) (उ २८।१४) * महावीर की तपस्या (द्र. तीर्थंकर) Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्वरिक तप के प्रकार १. तप की परिभाषा तवो णाम तावयति अट्ठविहं कम्मगंठ नासेतित्ति वृत्तं भवइ । (जिचू पृ १५ ) जो आठ प्रकार की कर्मग्रन्थियों को तपाता हैउनका नाश करता है, वह तप है । तपति पुरोपात्तकर्माणि क्षपणेनेति तपो यदर्हद्वचनानुसारि तदेव समीनमुपादीयते । ( उशावृ प ५५६ ) जो पूर्व उपार्जित कर्मों को क्षीण करता है, वह तप है | आर्हत प्रवचन के अनुकूल तप ही सम्यक् तप है और वही उपादेय है । २. तप के प्रकार सो तवो दुविहो वृत्तो, बाहिरब्भंतरो तहा । बाहिरो छव्विहो वुत्तो, एवमभंत तवो ॥" traणमूरिया, भिक्खायरिया य रसपरिच्चाओ । कायकिलेसो संलीणया य, बज्भो तवो होइ ॥ पायच्छित्तं विणओ, वेयावच्चं तहेव सज्झाओ । भाणं च विउस्सग्गो, एसो अभितरो तवो ॥ ( उ ३० ७, ८,३०) तप दो प्रकार का है - बाह्य और आभ्यन्तर । बाह्य तप छह प्रकार का है --- १. अनशन २. ऊनोदरिका ३. भिक्षाचर्या आभ्यन्तर तप छह प्रकार का है १. प्रायश्चित्त २. विनय ३. वैयावृत्त्य ४. रस - परित्याग ५. कायक्लेश ६. प्रतिसंलीनता । ४. स्वाध्याय ५. ध्यान ६. व्युत्सर्गं । ३. बाह्य आभ्यन्तर के भेद के हेतु बाह्यं– बाह्यद्रव्यापेक्षत्वात् प्रायो मुक्त्यवाप्ति बहिरङ्गत्वाच्च । अभ्यन्तरं तद्विपरीतं । यदिवा लोकप्रतीतत्वात्कुती थिकेश्च स्वाभिप्रायेणासेव्यमानत्वाद् बाह्यं तदितरत्त्वाभ्यन्तरम् । लोके परसमयेषु च यत्प्रथितं तत्तपो भवति बाह्यम् । आभ्यन्तरमप्रथितं कुशलजनेनैव तु ग्राह्यम् ॥ ( उशावृ प ६०० ) अनशन आदि निम्न कारणों से बाह्य तप कहलाते २९५ १. इनमें बाहरी द्रव्य -अशन, पान आदि का त्याग होता है । २. ये मुक्ति के बहिरंग कारण होते हैं । ३. ये सर्वसाधारण के द्वारा तपस्या के रूप में स्वीकृत होते हैं । ४. लोक में इनकी स्पष्ट प्रतीति होती है। अन्यतीर्थिक भी अपने-अपने मत के अनुसार इनका पालन करते हैं । प्रायश्चित्त आदि निम्न कारणों से आभ्यन्तर तप कहलाते हैं Com १. इनमें बाहरी द्रव्यों की अपेक्षा नहीं होती । २. ये मुक्ति के अन्तरंग कारण होते हैं । ३. ये विशिष्ट व्यक्तियों के द्वारा तप के रूप में स्वीकृत होते हैं । ४. ये लोकप्रसिद्ध नहीं हैं लोक में इनकी स्पष्ट प्रतीति नहीं होती है। कुशल आध्यात्मिक व्यक्ति के द्वारा ही ग्राह्य होते हैं । तप ४. इत्aरिक तप के प्रकार जो सो इत्तरियतवो, सो समासेण छव्विहो । सेदितवो पयरतवो घणो य तह होई वग्गो य ॥ तत्तोय वग्गग्गो उ, पंचमो छुट्टओ पइण्णतवो । '''' ( उ ३०११०, ११) इत्वरिक तप के छह प्रकार हैं १. श्रेणी तप २. प्रतर तप ३. घन तप ४. वर्ग तप ५. वर्गवर्ग तप ६. प्रकीर्ण तप । श्रेणी तप श्रेणी - पंक्तिस्तदुपलक्षितं तपः श्रेणितपः । तच्चतुदिक्रमेण क्रियमाणमिह षण्मासान्तं परिगृह्यते । ( उशावृ प ६००, ६०१ ) श्रेणी का अर्थ है - पंक्ति । पंक्तिबद्ध जो तप किया जाता है, वह श्रेणितप है । इसमें उपवास से प्रारम्भ कर छह मास पर्यन्त क्रमपूर्वक तपस्या की जाती है । प्रतर तप श्रेणिरेव श्रेण्या गुणिता प्रतर उच्यते, तदुपलक्षितं तपः प्रतरतपः, इह चाव्यामोहार्थं चतुर्थषष्ठाष्टमदशमाख्यपदचतुष्ट्यात्मिका श्रेणिविवक्ष्यते सा च चतुर्भि Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तप तप का उद्देश्य गुणिता षोडशपदात्मकः प्रतरो भवति, अयं चायामतो वर्ग के ४०९६ पदों को ४०९६ से गुणा करने पर वर्गवर्ग विस्तरतश्च तुल्यः । तप के ४०९६४४०९६=१६७७७२१६ पद होते हैं। श्रेणि को श्रेणि पदों से गुणा करने पर प्रतर तप प्रकीर्ण तप होता है । जैसे - उपवास, बेला, तेला और चोला- इन प्रकीर्णतपयच्छण्यादिनियतरचनाविरहितं स्वशक्त्यचार पदों की श्रेणी है। इनको चार से गुणा करने पर पेक्षं यथाकथञ्चिद्विधीयते। तच्च नमस्कारसहितादि ४४४=१६ पद होते हैं। स्थापना इस प्रकार है-- पूर्वपुरुषाचरितं यवमध्यवज्रमध्यचन्द्रप्रतिमादि च। १ । उपवास | बेला | तेला | चोला (उशावृ प ६०१) जो तप श्रेणी आदि निश्चित पदों की रचना ___ २ । बेला । तेला | चोला । उपवास | किए बिना ही अपनी शक्ति के अनुसार किया जाता है, वह प्रकीर्ण तप है। नमस्कारसहिता, यवमध्यप्रतिमा, ___३ | तेला । चोला | उपवास | बेला बेला | वज्रमध्यप्रतिमा, चन्द्रप्रतिमा आदि तप भी इसके अन्तर्गत ४ | चोला | उपवास | बेला । तेला । ५. तप चारित्र से पृथक क्यों ? घन तप चारित्रभेदत्वेऽपि तपसः पृथगुपादानमस्त्यैव क्षपणं अत्र च षोडशपदात्मकः प्रतरः पदचतुष्टयात्मिकया । प्रत्यसाधारणहेतुत्वमुपदर्शयितुम् । (उशावृ प ५५६) श्रेण्या गणितो घनो भवति, आगतं चतुःषष्टिः ६४, तप चारित्र का ही एक प्रकार है, किन्तु मोक्षमार्ग में इसको पृथक् रूप से ग्रहण किया गया है, क्योंकि कर्मस्थापना तु पूर्विकैव नवरं बाहल्यतोऽपि पदचतुष्ट्या ___ क्षय करने का यह असाधारण हेतु है । त्मकत्वं विशेषः, एतदुपलक्षितं तपो घनतप उच्यते। (उशाव प ६०१) ६. तप का उद्देश्य प्रतर तप के १६ पदों को चार पदात्मक श्रेणी से चउव्विहा खलु तवसमाही भवइ, तं जहा-नो गुणा करने पर घन तप होता है। इसके १६४४=६४ इहलोगट्ठयाए तवमहिठ्ठज्जा । नो परलोगट्टयाए पद होते हैं। तवमहिछेज्जा। नो कित्तिवण्णसद्दसिलोगट्ठयाए तवमहि ठेज्जा । नन्नत्थ निज्जरट्रयाए तवमहिछेज्जा । वर्ग तप (द ९।४।सू ६) घन एव धनेन गुणितो वर्गो भवति, ततश्चतुःषष्टि तप-समाधि के चार प्रकार हैंश्चतुःषष्ट्यैव गुणिता जातानि षण्णवत्यधिकानि चत्वारि १. इहलोक (वर्तमान जीवन की भोगाभिलाषा) के सहस्राणि, एतदुपलक्षितं तपो वर्गतपः । (उशाव प ६०१) निमित्त तप नहीं करना चाहिए। घन को धन से गुणा करने पर वर्ग तप होता है। २. परलोक (पारलौकिक भोगाभिलाषा) के निमित्त घन तप के ६४ पद हैं। इनको ६४ से गुणा करने पर तप नहीं करना चाहिए। वर्ग तप के ६४४६४=४०९६ पद होते हैं। ३. कीर्ति, वर्ण शब्द और श्लोक के लिए तप नहीं --- करना चाहिए। वर्गवर्ग तप ४. निर्जरा के अतिरिक्त अन्य किसी भी उद्देश्य से तप वर्ग एव यदा वर्गेण गुण्यते तदा वर्गवर्गो भवति, तथा नहीं करना चाहिए। च चत्वारि सहस्राणि षण्णवत्यधिकानि तावतैव गुणितानि विविहगुणतवोरए य निच्चं, जातका कोटि: सप्तषष्टिलक्षा: सप्तसप्ततिसहस्राणि द्वे भवइ निरासए निज्जरट्ठिए । -शते षोडशाधिके अङ्कतोऽपि १६७७७२१६ एतदुपलक्षितं तवसा धुणइ पुराणपावगं, तपो वर्गवर्गतप इत्युच्यते। (उशावृ प ६०१) जुत्तो सया तवसमाहिए॥ वर्ग को वर्ग से गुणा करने पर वर्गवर्ग तप होता है। (द ९।४।४) Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तप २९७ तिर्यंच सदा विविध गुण वाले तप में रत रहने वाला मुनि क्रमशः सूख जाता है, उसी प्रकार संयमी पुरुष के पापपोद्गलिक प्रतिफल की इच्छा से रहित होता है। वह कर्म के आने के मार्ग का निरोध होने से करोड़ों भवों के केवल निर्जरा का अर्थी होता है। वह तप के द्वारा पुराने संचित कर्म तपस्या के द्वारा निर्जीर्ण हो जाते हैं। कर्मों का विनाश करता है और सदा तप:समाधि में युक्त एयं तवं तु दुविहं, जे सम्म आयरे मुणी । रहता है। से खिप्पं सव्वसंसारा, विप्पमुच्चइ पंडिए । ७. तप की अर्हता (उ ३०।३७) बलं थामं च पहाए, सद्धामारोगमप्पणो । जो पण्डित मुनि बाह्य और आभ्यंतर-दोनों प्रकार खेत्तं कालं च विन्नाय, तहप्पाणं निजंजए । के तपों का सम्यक रूप से आचरण करता है, वह शीघ्र (द ८।३४) ही समस्त संसार से मुक्त हो जाता है। अपने बल, पराक्रम, श्रद्धा और आरोग्य को देखकर, निःसङ्गता शरीरलाघवेन्द्रियविजयसंयमरक्षणादिगुणक्षेत्र और काल को जानकर अपनी जान मनमा योगात् शुभध्यानावस्थितस्य कर्मनिर्जरणम् । आत्मा को तप आदि में नियोजित करे। (उशावृ प ६०८) निःसंगता, शरीरलाघव, इन्द्रियविजय, संयमरक्षा, ८. तप के परिणाम शुभध्यान, कर्मनिर्जरण-ये तप के परिणाम हैं । ''तवेणं वोदाणं जणयइ। (उ २९।२८) व्यवदानं पूर्वबद्धकर्मापगमतो विशिष्टां शुद्धिम् । तियंच-एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय तथा पशु, पक्षी _ (उशावृ प ५८६) आदि पंचेन्द्रिय। वोदाणेणं अकिरियं जणयइ। अकिरियाए भवित्ता १. तियंच का निर्वचन, परिभाषा तओ पच्छा सिज्झइ बुज्झइ मुच्चइ परिनिव्वाएइ सव्व ___ * एकेन्द्रिय तियंच (प्र. जीवनिकाय) दुक्खाणमंतं करेइ। (उ २९।२९) * विकलेन्द्रिय तियंच (प्र. प्रस) तप से जीव व्यवदान को प्राप्त होता है। व्यवदान २.पंचेन्द्रिय तियंच के प्रकार का अर्थ है-पूर्व बद्ध कर्मों के विलय से होने वाली विशिष्ट ३. जलचर के प्रकार शुद्धि। • आयुस्थिति-कायस्थिति-अंतरकाल व्यवदान से जीव अक्रिया (मन, वचन और शरीर ४. स्थलचर के प्रकार की प्रवृत्ति के पूर्ण निरोध) को प्राप्त होता है । वह • आयुस्थिति-कायस्थिति-अंतरकाल अक्रियावान् होकर सिद्ध होता है, बुद्ध होता है, मुक्त ५. खेचर के प्रकार होता है, परिनिर्वृत होता है और सब दुःखों का अन्त • आयुस्थिति-कायस्थिति-अन्तरकाल करता है। पञ्चेन्द्रिय तियंच मेंतवेण परिसुज्झई। (उ २८।३५) अवधिज्ञान . (द्र. अवधिज्ञान) जहा महातलायस्स, सन्निरुद्ध जलागमे । * सम्यक्त्व (द्र. सम्यक्त्व) उस्सिचणाए तवणाए, कमेणं सोसणा भवे ॥. ...आशीविष लग्धि .. (द्र. लब्धि) एवं तु संजयस्सावि, पावकम्मनिरासवे । + लेश्या (5. लेश्या) भवकोडीसंचियं कम्म, तवसा निज्जरिज्जइ॥ शरीर (द्र. शरीर) (उ ३०१५,६) * अवगाहना का मापन (द्र. अंगल) । तपस्या से आत्मा की विशुद्धि होती है। आयुष्य का मापन (F. काल) जिस प्रकार कोई बड़ा तालाब जल आने के मार्ग अन्तर्वीपज तियंच.. का निरोध करने से, जल को उलीचने से, सूर्य के ताप से (द्र. मनुष्य) Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ तिर्यच स्थलचर के प्रकार १. तियंच का निर्वचन, परिभाषा ........... पुवकोडीपुहत्तं, उक्कोसेण वियाहिया । तिरोऽञ्चन्तीति गच्छन्तीति तिर्यञ्चः, व्युत्पत्ति- कायट्टिई जलयराणं, अंतोमुहत्तं जहन्निया ॥ निमित्तं चैतत् । प्रवृत्तिनिमित्तं तु तिर्यग्गतिनाम, एते अणंतकालमुक्कोस, अंतोमहत्तं जहन्नयं । . चैकेन्द्रियादयः । तत एषामायुस्तिर्यगायुर्येनैतेषु स्थिति- . विजढंमि सए काए, जलयराणं तु अंतरं ।। .. भवति । (उशावृ प ६४३,६४४) (उ ३६।१७५-१७७) तिर्यंच:-एकेन्द्रियादयः पञ्चेन्द्रियपर्यन्ताः द्रष्टव्याः। आयुस्थिति-जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्टतः एक करोड़ (पिनिवृ प ३७) पूर्व । जो तिरछी गति करते हैं, वे तिर्यञ्च हैं यह = कायस्थिति-जघन्यत: अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्टतः पृथक्त्व तिर्यञ्च का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है। कोटि पूर्व (दो से नौ कोटि पूर्व)। जिन जीवों के तिर्यग गति नामकर्म का उदय होता अन्तरकाल-जघन्यतः अन्तर्मुहर्त, उत्कृष्टतः अनन्त है, वे तिर्यञ्च हैं - यह प्रवृत्तिलभ्य अर्थ है। तिर्यञ्चायु काल । कर्म के उदय से ये तिर्यञ्चगति का आयुष्य भोगते हैं। ४. स्थलचर के प्रकार तिर्यंच एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक होते हैं। चउप्पया य परिसप्पा, द्रविहा थलयरा भवे । २. पंचेन्द्रिय तिर्यंच के प्रकार चउप्पया चउविहा, ते मे कित्तयओ सुण ।। पंचिदियतिरिक्खाओ, दुविहा ते वियाहिया ।। एगखुरा दुखरा चेव, गंडीपयसणप्पया । सम्मुच्छिमतिरिक्खाओ, गब्भवक्कंतिया तहा।। हयमाइगोणमाइ, गयमाइसीहमाइणो॥ दुविहावि ते भवे तिविहा, जलयरा-थलयरा नहा । (उ ३६।१७९,१८०) स्थलचर जीव के दो प्रकार हैं-चतुष्पद और खहयरा य बोद्धव्वा ....." ।। परिसर्प। चतुष्पद के चार प्रकार हैंपंचेन्द्रिय तिर्यञ्च जीव के दो प्रकार हैं-सम्मूच्छिम १. एक खुर-घोड़े आदि । तियं च और गर्भज तियंच। ये दोनों ही जलचर, स्थल २. दो खुर-बैल आदि । चर और खेचर के भेद से तीन-तीन प्रकार के हैं। ३. गंडीपद-हाथी आदि । ३. जलचर के प्रकार ४. सनखपद-सिंह आदि । मच्छा य कच्छभा य, गाहा य मगरा तहा । परिस सुंसुमारा य बोद्धव्वा, पंचहा जलयराहिया । भओरगपरिसप्पा य, परिसप्पा विहा भवे । (उ ३६११७२) जलचर जीव पांच प्रकार के हैं गोहाइ अहिमाई य, एक्केक्का गहा भवे ॥ १. मत्स्य २. कच्छप ३. ग्राह (उ ३६।१८१) ४. मकर ५. सुंसुमार। परिसर्प के दो प्रकार हैं १. भजपरिसर्प-हाथों के बल चलने वाले गोह आदि एएसिं वण्णओ चेव, गंधओ रसफासओ । प्राणी। संठाणादेसओ वावि, विहाणाइं सहस्ससो।। २. उर:परिसर्प-पेट के बल चलने वाले साप आदि प्राणी। (उ ३६।१७८) ये दोनों अनेक प्रकार के होते हैं। वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और संस्थान की दृष्टि से उनके हजारों भेद होते हैं। एएसि वण्णओ चेव, गंधओ रसफासो । संठाणादेसओ वावि, विहाणाई सहस्ससो।। आयुस्थिति-कायस्थिति-अंतरकाल (उ ३६।१८७) एगा य पुवकोडीओ, उक्कोसेण वियाहिया । वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और संस्थान की दृष्टि से आउट्टिई जलयराणं, अंतोमुहत्तं जहन्निया ॥ उनके हजारों भेद होते हैं। . Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थ के प्रकार आयुस्थिति कार्यस्थिति- अंतरकाल पलिओमाउ तिणि उ, उक्कोसेण वियाहिया । आउट्टिई थलयराणं, अंतोमुहुत्तं जहन्निया ॥ पलिओमाउ तिणि उ, उक्कोसेण तु साहिया । पुव्वकोडी पुहत्तणं, अंतोमुहुत्तं जहनिया || कायट्टिई थलयराणं, अंतरं सिमं भवे । कामतमुक्कसं, अंत आयुस्थिति — जघन्यतः पल्योपम । जहन्नयं ॥ ( उ ३६।१८४ - १८६) अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्टतः तीन काय स्थिति-- जघन्यतः अन्तर्मुहूत्तं, उत्कृष्टतः पृथक्त्व करोड़ पूर्व अधिक तीन पल्योपम । अंतरकाल – जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्टतः अनंतकाल । ५. खेचर के प्रकार चम् उ लोमक्खी य, तड़या समुग्गपक्खिया । farrurat बोद्धव्वा, पक्खिणो य चउव्विहा || चर्मपक्षिणः चर्मचटकाप्रभृतयः चर्मरूपा एव हि तेषां पक्षाः ... रोमप्रधानाः पक्षा रोमपक्षास्तद्वन्तः रोमपक्षिणःराजहंसादयः । समुद्गपक्षिणः समुद्गाकारपक्षवन्तः, च मानुषोत्तराद्वहिद्वीपवर्तिनः । विततपक्षिणः ये सर्वदा विस्तारिताभ्यामेव पक्षाभ्यामासते । ( उ ३६।१८८ शावृप ६९९ ) खेचर जीवों के चार प्रकार हैं१. चर्मपक्षी चमगीदड़ आदि । २. रोमपक्षी - राजहंस आदि । ३. समुद्गपक्षी - इनके पंख समुद्ग के आकार वाले होते हैं । ये मानुषोत्तर पर्वत के बाहरी द्वीपों में निवास करते हैं । ४. विततपक्षी - इनके पंख सदा फैले हुए रहते हैं । एएसि वण्णओ चेव, गंधओ रसफासओ । संठाणादेसओ वावि, विहाणाई सहस्ससो || (उ ३६।१९४) वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और संस्थान की दृष्टि से उनके हजारों भेद होते हैं । आयुस्थिति काय स्थिति- अंतरकाल पलिओवमस्स भागो, असंखेज्जइमो भवे । आउट्टिई खहयराणं, अंतोमुहुत्तं जहन्निया ॥ असंखभागो पलियस्स, उक्कोसेण उ साहिओ । goaकोडीपुहत्तेणं, अंतोमुहुत्तं जहन्नयं ॥ २९९ तीर्थ अंतरं तेसिमं भवे । अंतोमुहुत्तं जहन्नयं ॥ ( उ ३६।१९१-१९३) आयुस्थिति -- जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्टतः पत्योपम का असंख्यातवां भाग । कायट्टिई खहयराणं, कालं अनंतमुक्कोसं, कायस्थिति - जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्टतः पृथक्त्व करोड़ पूर्व अधिक पल्योपम का असंख्यातवां भाग । अंतरकाल - जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त्त उत्कृष्टतः अनंतकाल । तीर्थ - चतुविध श्रमण संघ । गणधर । प्रवचन | १. तीर्थ की परिभाषा तित्थं चातुवण्णो समणसंघो पढमादिगणधरा वा । ( नन्दीचू पृ २६ ) तीर्थं यथावस्थितसकलजीवाजीवादिपदार्थसार्थप्ररूपकं परमगुरुप्रणीतं प्रवचनम् । तच्च निराधारं न भवतीति कृत्वा संघः प्रथमगणधरो वा वेदितव्यम् । ( नन्दीमवृप १३० ) जीव, अजीव आदि पदार्थ जिस रूप में अवस्थित हैं, उसी रूप में उनका प्ररूपण करने वाला प्रवचन तीर्थ है । वह प्रवचन तीर्थंकर द्वारा प्रणीत है। वह निराधार नहीं होता । उसका आधार है - साधु साध्वी, श्रावक, श्राविका रूप चतुविध श्रमणसंघ अथवा गणधर । अतः संघ और प्रथम गणधर तीर्थ हैं । तित्थं ति पुव्वभणियं संघो जो नाणचरणसंघाओ । इह पत्रयणं पि तित्थं तत्तोऽणत्यंतरं जेण ॥ ( विभा १३८० ) संघ ज्ञान और चारित्र का संघात है। संघ को तीर्थ कहा गया है । प्रवचन और तीर्थ एकार्थक हैं । २. तीर्थ के प्रकार तित्थं दुविहं - दव्वतित्थं च भावतित्थं च । प्रभासादीनि द्रव्यतीर्थानि जीवानामुपरोधकारीनीति कृत्वा न शान्तितीर्थानि भवन्ति । यस्तु आत्मनः परेषां च शान्तये तद्भावतीर्थं भवति । ब्रह्म एव शान्तितीर्थं । ( उचू पृ २१२) तीर्थ के दो प्रकार हैं १. द्रव्यतीर्थ - प्रभास आदि। यहां जीवों का उपहनन होता है, अतः ये शांतितीर्थ नहीं हो सकते । Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थं २. भावतीर्थ - शांतितीर्थ, ब्रह्म, आत्मा । यह स्व और पर की शांति का हेतु है । द्रव्यतीर्थं दाहो मं हाइछेअ मलपवाहणं चैव । तिहि अत्थेहि निउत्तं तम्हा तं दव्वओ तित्थं ॥ ( आवनि १०६६ ) द्रव्यतीर्थ से दाह-उपशम- शारीरिक ताप का शमन, तृषा आदि का अपनयन और मल का शोधन होता है इसलिए नदी आदि का घाट द्रव्यतीर्थ है । भावतीर्थ ३०० ३. तीर्थ को प्रणाम क्यों ? तित्थपणामं काउं कहेइ ॥ तप्पुब्विया अरया पूइयपूता य विणयकम्मं च । किच्चऽवि जह कह कहए णमए तहा तित्थं ॥ ( आवनि ५६६,५६७) तीर्थंकर तीर्थ को प्रणाम कर प्रवचन करते हैं ( यह नियुक्तिकार की मान्यता है ) । तीर्थ को प्रणाम करने के प्रयोजन - कोहंमि उ निग्रहिए दाहस्स पसमणं हवइ तत्थं । लोहंमि उ निग्गहिए हा अणं होई ॥ अहिं कम्मर बहुएहि भवेहि संचिअं जम्हा | तवसंजमेण धुव्वइ तम्हा तं भावओ तित्थं ॥ ( आवनि १०६७, १०६८) निग्रह से द्वेषदाह का उपशम होता है। लोभनिग्रह से तृष्णा - आसक्ति का छेदन होता है । तप और संयम से अनेक भवों में संचित आठ प्रकार की कर्मरजों का शोधन होता है । इस प्रकार मोक्ष साधक भावों का प्रतिपादक प्रवचन भावतीर्थ है । दंसणनाणचरित्सु निउत्तं जिणवरे हि सव्र्व्वेहि । तिसु अत्थेसु निउत्तं तम्हा तं भावओ तित्थं ॥ ( आवनि १०६९ ) दर्शन, ज्ञान, चारित्र - इन तीन अर्थों में नियुक्त होने से सभी तीर्थंकरों का प्रवचन भावतीर्थ है । धम्मे हर बम्भे संतितित्थे, अणाविले अत्तपसन्नलेसे । ओ विमल विसुद्धो, सुसीइओ पजहामि दोसं । एवं सिणा कुसलेहि दिट्ठ, महासिणाणं इसिणं पसत्थं । सहाया विमला विसुद्धा, महारिसी उत्तम ठाण पत्ता ॥ ( उ १२/४६, ४७ ) अकलुषित एवं आत्मा का प्रसन्न लेश्या वाला धर्म मेरा जलाशय है । ब्रह्मचर्यं मेरा शांतितीर्थ है, जहां नहाकर मैं विमल, विशुद्ध और सुशीतल होकर कर्मरज का त्याग करता हूं । यह स्नान कुशल पुरुषों द्वारा दृष्ट है। यह महास्नान है । अतः ऋषियों के लिए यही प्रशस्त । इस धर्म - नद में नहाए हुए महर्षि विमल और विशुद्ध होकर उत्तमस्थान (मुक्ति) को प्राप्त हुए । • तीर्थ के कारण ही तीर्थंकर कहलाते हैं । पूजितपूजा - अर्हत् स्वयं पूजनीय होते हैं । उनके द्वारा तीर्थ की पूजा होने से तीर्थ की प्रभावना वृद्धगत होती है । ० धर्म का मूल विनय है - इसकी प्रस्थापना होती है । तीर्थंकर - अर्हत्, प्रवचनकार, तीर्थ के प्रवर्तक | ( व्र. लब्धि ) o १. तीर्थ का प्रवर्तन * तीर्थंकर एक लब्धि २. तीर्थंकर नामगोत्र का बंध * वैयावृत्य से तीर्थंकर नामगोत्र का बंध ३. तीर्थंकर और ज्ञान * तीर्थंकर में अवधिज्ञान को नियमा ४. तीर्थंकर की माता के स्वप्न ५. लोकान्तिक देवों द्वारा संबोध * तीर्थंकर स्वयं संबुद्ध ६. तीर्थंकर के सामायिक चारित्र ७. तीर्थंकरों के अतिशय ८. तीर्थंकर के उपदेश का हेतु ९. तीर्थंकर की भाषा * तीर्थंकर और पूर्व देशना * तीर्थंकर और अर्थागम * तीर्थंकर और प्रकीर्णक तीर्थंकर १०. तीर्थंकर त्राता ११. कैवल्यकाल १२. तीर्थंकर और अनशन १३, तीर्थंकर की शुभ कर्मप्रकृतियां ( ब्र. वैयावृत्य ) ( ब्र. अवधिज्ञान ) (प्र. सिद्ध) (द्र. पूर्व) (व्र. आगम ) (प्र. अंगबाह्य) * तीर्थंकर और प्रतिक्रमण आदि का क्रम ( द्र. शासनभेद ) Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर नामगोत्र का बंध * तीर्थंकर और समवसरण * तीर्थंकरों की स्तुति १४. तीर्थंकर : एक परिचय १५. ऋषभ नामकरण १६. ऋषभ के पूर्वभव १७. मरुदेवा के स्वप्न १८. ऋषभ का जन्म १९. इक्ष्वाकुवंश, काश्यपगोत्र २०. गृहस्थ पर्याय २१. आदिम युग की सामाजिक व्यवस्था २२. ऋषभ का अभिनिष्क्रमण • प्रथम मिक्षाग्रहण २३. ऋषभ की प्रथमता २४. ऋषभ की शिष्य सम्पदा २५. ऋषभ का प्रमाद काल २६. मरुदेवा प्रथम सिद्ध २७. नमि - विनमि की प्रार्थना २८. तीर्थ का विच्छेव २९. अजित आदि अहंतों का नामकरण अर्हत् अरिष्टनेमि का अभिनिष्क्रमण शिष्य संपदा o O 0 ३०. महावीर के अभिधान अर्हत् पार्श्व की शिष्य संपवा ३१. महावीर के पूर्व भव ३२. महावीर का गर्भहरण ३३. महावीर का परिवार ३४. महावीर की तपस्या • पांच अभिप्रह • विशिष्ट अवधिज्ञान शूलपाणिपक्षकृत उपसर्ग महावीर के महास्वप्न ३५. महावीर की प्रतिमा साधना ३६. संगमकृत उपसर्ग ३७. कैवल्यप्राप्ति ० ० ३८. महावीर की शिष्य सम्पदा ३९. एक साथ कितने तीर्थंकर ? * तीर्थंकर और चक्रवर्ती ( ब्र. समवसरण ) (व्र. स्तवस्तुति) ( ब्र. चक्रवर्ती) ३०१ १. तीर्थ का प्रवर्तन तित्थं चाउव्वण्णो संघो सो पढमए समोसरणे । उप्पण्णी अ जिणाणं वीरजिणिदस्स बीअंमि ।। ( आवनि २६५ ) तीर्थंकर कैवल्य - प्राप्ति के पश्चात् सर्वप्रथम चार तीर्थ (साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका ) की स्थापना करते हैं । ऋषभ आदि तेईस तीर्थंकरों के प्रथम समवसरण में तथा भगवान् महावीर के दूसरे समवसरण में तीर्थ की उत्पत्ति हुई । २. तीर्थंकर नामगोत्र का बंध अरिहंत सिद्ध पवयण गुरु थेर बहुस्सुए तवस्सीसुं । वच्छल्लया एएसि अभिक्खनाणोवओगे य ॥ दंसण विणए आवस्सए य सीलव्वए निरइआरो । खणलव तवच्चियाए वेयावच्चे समाही य ॥ अप्पुव्वाणगहणे सुयभत्ती पवयणे पभावणया । एएहि कारणेहिं तित्थयरत्तं लहइ जीवो ॥ ( आवनि १७९ - १८१ ) तीर्थंकर नामगोत्र - बंध के बीस स्थान ---- १ अर्हत्-वत्सलता २. सिद्ध-वत्सलता ११. आवश्यक १२. शीलव्रत विशुद्धि ३. प्रवचन - वत्सलता १३. क्षणलव (संवेग भावना और ध्यान का सतत अभ्यास ) ४ गुरु-वत्सलता ५. स्थविर - वत्सलता तीर्थंकर १४. तप १५. त्याग ( साधु को प्रासुक एषणीय दान) ६. बहुश्रुत-वत्सलता ७. तपस्वी - वत्सलता ८. अभीक्ष्णज्ञानोपयोग ९. दर्शन - विशुद्धि १०. विनय २०. प्रवचन - प्रभावना । नियमा मनुयईए इत्थी पुरिसेयरो य सुहलेसो । बहु वीसा ए एहि || ( आवनि १८४ ) इस कर्मबन्ध में निमित्त बनते हैं - अर्हत्भक्ति आदि बीस स्थान | यह बंध मनुष्य गति में, शुभलेश्या में होता । स्त्री, पुरुष, नपुंसक - कोई भी इसका बंध कर सकता है। १६. वैयावृत्त्य १७. समाधि १८. अपूर्वज्ञान ग्रहण १९. श्रुत-भक्ति पुरिमेण पच्छिमेण य एए सव्वेऽवि फासिया ठाणा । महिं जिणेहिं एक्कं दो तिणि सव्वे वा ॥ ( आवनि १५२ ) Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर ने इन सभी स्थानों का स्पर्श किया । मध्यम बाईस तीर्थंकरों ने इनमें से एक, दो, तीन अथवा सब स्थानों का आसेवन किया । तं च कहं वेइज्जइ ? अगिलाए धम्मदेसणाईहि । इ तं तु भगवओ तइयभवोसक्कइत्ताणं ॥ तस्य ह्य ुत्कृष्टा सागरोपमकोटीकोटिर्ब न्धस्थितिः । तच्च प्रारंभबन्धसमयादारभ्य सततमुपचिनोति यावद - पूर्व करणसंख्येय भागैरिति, केवलिकाले तु तस्योदयः । ( आवनि १८३, हावृ १ पृ ८० ८०) तीर्थंकर अग्लान- अक्लांत भाव से धर्मदेशना करते हुए तीर्थंकर नामगोत्र कर्म का वेदन करते हैं । भव में तीर्थंकर वर्तमान भव से पूर्व तीसरे भव में तीर्थंकरनामगोत्र कर्म का बंध करते हैं । अथवा जिस भव में इस कर्म का बंध करते हैं, उसके पश्चात् तीसरे अवश्य उस कर्म का वेदन कर मुक्त हो जाते हैं । तीर्थंकरनामगोत्र कर्म की उत्कृष्ट बंधस्थिति एक कोटीकोटि सागरोपम है । जिस समय इसका बंध प्रारंभ होता है, उस समय से लेकर अपूर्वकरण (क्षपकश्रेणी) के संख्येयभाग तक इस कर्मप्रकृति का सतत उपचय होता रहता है और केवलज्ञान की अवस्था में इसका उदय होता है । यही भाव तीर्थंकर की अवस्था है । इससे पूर्व द्रव्य तीर्थंकर होते हैं । ३. तीर्थंकर और ज्ञान उदिआ परीसहा सिं पराइआ ते अ जिणवरिदेहि । नव जीवाइपयत्थे उवलभिऊणं च निक्खता ॥ पढमस्स बारसंगं सेसाणिक्कारसंग सुयलंभो ।''" ( आवनि २३५, २३६ ) सभी तीर्थंकर निष्क्रमणकाल में जीव, अजीव आदि तत्त्वों के ज्ञाता थे । प्रथम तीर्थंकर पूर्वभव में बारह अंगों तथा शेष तेईस तीर्थंकर ग्यारह अंगों के ज्ञाता थे। सभी ने शीत, उष्ण आदि परीषहों को पराजित किया । ३०२ सुतलंभे उसभसामी पुव्वभवे चोदसपुब्वी, अवसेसा एक्कारसंगी । ( आवचू १ पृ १५८ ) तीर्थंकर ऋषभ पूर्व भव में चतुर्दशपूर्वी थे, शेष तेईस तीर्थंकर आचार आदि ग्यारह अंगों के ज्ञाता थे । तिहि नाणेहिं समग्गा तित्थयरा जाव हुंति गिहवासे । पडवणंमि चरिते चउनाणी जाव छउमत्था || ( आवभा ११० ) लोकांतिक देवों द्वारा संबोध जब तक तीर्थंकर गृहवास में रहते हैं तब तक उनमें मति, श्रुत और अवधि – ये तीन ज्ञान होते हैं। जब वे प्रव्रजित होते हैं, तब उनको मनःपर्यवज्ञान की प्राप्ति हो जाती है । ये चारों ज्ञान उनमें छद्मस्थ अवस्था तक रहते हैं । ४. तीर्थंकर को माता के स्वप्न गय वसह सीह अभिसेअ दाम ससि दिणयरं भयं कुंभं । पउमसर सागर विमाणभवण रयणुच्चय सिंहिं च ॥ ( आवमा ४६ ) प्रत्येक तीर्थंकर की माता चौदह स्वप्न देखती १. गज २. वृषभ ३. सिंह ४. अभिषेक (श्री) ८. ध्वज ९. कुम्भ १०. पद्मसरोवर ११. सागर १२. विमान भवन १३. रत्नराशि १४. अग्नि ५. माला ६. चन्द्र ७. सूर्य ५. लोकांतिक देवों द्वारा संबोध सव्वेवि सयंबुद्धा लोगंतिअबोहिआ य जीएणं .... सारस्यमाइच्चा वही वरुणा य गद्दतोया य । तुनिया अव्वाबाहा अग्गिच्चा चेव रिट्ठा य ।। एए देवनिकाया भयवं बोहिति जिणर्वारिदं तु । सव्वजगज्जीवहि भयवं ! तित्थं पवतेहि ॥ ( आवनि २१२, २१४, २१५) सब तीर्थंकर स्वयं संबुद्ध होते हैं, फिर भी लोकांतिक देव - सारस्वत, आदित्य, वह्नि, अरुण, गर्दतोय, तुषित, अव्याबाध, अग्नि और रिष्ट अपनी मर्यादा परम्परा के अनुसार तीर्थंकरों को संबोधित करते हैं - 'भंते ! जगत् के हित के लिए तीर्थ का प्रवर्तन करें ।' ६. तीर्थंकर के सामायिक चारित्र सव्वतित्थगरावि य णं सामाइयं करेमाणा भणति करेमि सामाइयं सव्वं सावज्जं जोगं पच्चक्खामि । ( आवचू १ पृ १६१) सब तीर्थंकर प्रव्रज्या काल में - " मैं सामायिक की साधना में उपस्थित होता हूं, सर्व पापकारी प्रवृत्तियों का प्रत्याख्यान करता हूं" - इस पाठ का उच्चारण करते हैं । Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकरों के अतिशय तीर्थकर सब्वेवि एगदसेण निग्गया जिणवरा चउव्वीसं । होती है... न य नाम अण्णलिंगे नो गिहिलिंगे कुलिंगे वा॥ १. गणधर ८. व्यन्तर (आवनि २२७) २. आहारकशरीरी ९. चक्रवर्ती सभी तीर्थंकर अभिनिष्क्रमणकाल में एक दूष्य ३. अनुत्तर वैमानिक देव १०. वासुदेव (वस्त्र) रखते हैं। वे तीर्थकर-लिंग में निष्क्रमण करते हैं, ४. नव प्रैवेयक देव ११. बलदेव अन्यलिंग, गृहिलिंग या कुलिंग में नहीं। ५. अच्युत आदि बारह १२. माण्डलिक राजा ७. तीथंकरों के अतिशय __ कल्पोपन्न देव १३. राजा ६. भवनपति १४. जन साधारण जन्मसम्बन्धी ७. ज्योतिष्क जायमाणेसु तित्थयरेसु सव्वलोए उज्जोओ भवति । भगवतो अणुत्तरं संघयणं "अणुत्तरं संठाणं अणुत्तरो तित्थयरमायरो य पच्छन्नगब्भाओ भवंति । जररुहिर उक्सासनिस्सासगंधो""गोखीरपंडुरं मंसशोणितं । कलमलाणि य न भवति । (आवचू १ पृ १३५) (आवचू १ पृ ३३०) तीर्थंकर के जन्म के समय सारे लोक में उद्योत तीर्थंकर के संहनन और संस्थान अनुत्तर होते हैं। फैलता है । तीर्थंकर की माता प्रच्छन्न गर्भ वाली होती उनके उच्छवासनिःश्वास सुरभि गंध वाले तथा मांस और है। गर्भ में जर, रुधिर आदि अशुद्धियां नहीं होती। शोणित गोक्षीर के समान धवल होते हैं। आहारसंबंधी बल ..."आहारमंगुलीए ठवंति देवा मणण्णं तु ॥ जं केसवस्स उ बलं, तं दुगुणं होइ चक्कवट्टिस्स । सव्वे तित्थगरा बालभावे जदा तण्हातिया छहातिया तत्तो बला बलवगा, अपरिमियबला जिणवरिंदा ।। वा भवंति तदा अप्पणो अंगुलियं वयणे पक्खिवंति, तत्थ (आवनि ७५) देवा सव्वभक्खे परिणामयंति, एस बालभावे आहारो वासुदेव में बीस लाख अष्टापद का बल होता है, सव्वेसि। ण ते थणं धावति । पच्छा सिद्धमेव भुंजति चक्रवर्ती में उससे दुगुना-चालीस लाख अष्टापद का महतीभूता। उसभस्स पूण सव्वकालं देवोवणीतयाई बल होता है। तीर्थकर उनसे अधिक बल वाले, अपरिउत्तरकुरुफलाई जाव पव्वतितो। मित बल वाले होते हैं। (आवनि १८९ चू १ पृ १५१,१५२) आठ प्रातिहार्य तीर्थंकर स्तनपान नहीं करते। वे शैशवकाल में अशोकवृक्षः सुरपुष्पवृष्टिजब भूख-प्यास का अनुभव करते हैं, तब अपनी अंगुलि दिव्यो ध्वनिश्चामरमासनं च । को मुंह में डालते हैं। देव उस अंगुलि में नाना रसों से भामण्डलं दुन्दुभिरातपत्रं, समायुक्त आहार का प्रक्षेप करते हैं। शिशुवय अतिक्रांत सत्प्रातिहार्याणि जिनेश्वराणाम् ॥ होने पर वे अग्नि में पका हुआ भोजन करते हैं। केवल (नन्दीमव प ४१) अर्हत ऋषभ ने ऐसा नहीं किया। उन्होंने प्रव्रज्या से पूर्व अशोकवृक्ष, पुष्पवृष्टि, दिव्यध्वनि, चामर, सिंहासन, देवों द्वारा आनीत उत्तरकुरु (एक अकर्मभूमि) के फलों भामण्डल, देवदुन्दुभि और छत्र-ये तीर्थंकरों के आठ का आहार किया। प्रातिहार्य (चामत्कारिक अतिशय) हैं। उत्कृष्ट रूप सम्पदा अचेलता आदि के हेतु गणहर आहार अणुत्तरा य जाव वण चक्कि वासु बला। निरुपमधिइसंघयणा चउनाणाइसयसत्तसंपण्णा। मण्डलिया ता हीणा छद्राणगया भवे सेसा ।। अच्छिद्दपाणिपत्ता जिणा जियपरिसहा सव्वे ॥ (आवनि ५७०) तहवि गहिएगवत्था सवत्थतित्थोवएसणत्थंवि । तीर्थंकर की रूपसम्पदा उत्कृष्ट होती है। उनकी अभिनिक्खमंति सव्वे तम्मि चुएऽचेलया हुंति ॥ अपेक्षा गणधर आदि की रूपसम्पदा क्रमशः अनन्तगुणहीन (विभा २५८१,२५८३) Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकर तीथंकर की भाषा तीर्थंकरों की अचेलता आदि के हेतु मध्याह्न में लौटी। वह भूख-प्यास से क्लांत थी । काष्ठ १. असाधारण धृति बहुत थोड़ा था, अतः वणिक ने उसे पीटा। वह बिना २. उत्तम संहनन कुछ खाये पुनः काष्ठ लाने गई। लौटते समय काष्ठभार ३. चार ज्ञान सम्पन्नता अधिक था। ज्येष्ठमास में मध्याह्न का समय था। उसके ४. अतिशय शक्ति हाथ से एक काष्ठयष्टि गिर गई, जिसे उठाने हेतु वह ५. परीषह-विजय नीचे झकी। उस समय उसे तीर्थंकर की देशना सुनाई फिर भी सवस्त्र तीर्थ का उपदेश देने के लिए तीर्थकर दी, वह झुकी हुई ही सुनती रही, उसे भूख-प्यास और एक वस्त्र को ग्रहण कर अभिनिष्क्रमण करते हैं। उसके गर्मी की अनुभूति ही नहीं हुई। गिर जाने पर वस्त्र का परित्याग कर अचेल हो जाते ८. तीर्थकर के उपदेश का हेतु हैं । वे निश्छिद्रपाणि होते हैं, अतः पात्र नहीं रखते। तित्थयरो कि कारण भासइ सामाइयं तु अज्झयणं? वचनातिशय तित्थयरणामगोत्तं कम्मं मे वेइयव्वंति ॥ सम्वत्थ अविसमत्तं रिद्धिविसेसो अकालहरणं च । (आवनि ७४२) सव्वण्णुपच्चओऽवि य अचितगुणभूतिओ जुगवं ।। तीर्थकरनामगोत्र कर्म का वेदन करने के लिए (आवनि ५७६) तीर्थकर सामायिक अध्ययन का निरूपण करते हैं। उनका तीर्थंकरों की वाणी से निम्नांकित अतिशेष प्रकट यह वेदन अग्लान अश्रांत भाव से धर्मदेशना देने से होता होते हैं अपरे हि केवलमवाप्यापि नैव धर्म देशयंति। तद्यथा ० सब प्राणियों के प्रति तुल्यता का भाव । ० ऋद्धि-विशेष-सबके संशय एक साथ विच्छिन्न । -प्रत्येकबुद्धा । तित्थकरो णियमा धम्म देसे ति। सेसा ० अकालहरण -संशयविच्छत्ति से पूर्व मृत्यु नहीं। साधु भयणीया। (उचू पृ १३०) • सर्वज्ञता की प्रतीति । तीर्थकर केवलज्ञान प्राप्त होने के बाद नियमत: ० अचिन्त्य गुणसम्पदा । उपदेश देते हैं। साहारणासवत्ते तदुवओगो उ गाहगगिराए। ० केवली उपदेश देते भी हैं और नहीं भी देते । न य निग्विज्जइ सोया किढिवाणियदासिआहरणा ।। . प्रत्येक बुद्ध केवलज्ञान प्राप्त होने के बाद उपदेश एगस्स वाणियगस्स एगा किढीदासी। किढी थेरी। नहीं देते। सा गोसे कट्ठाणं गता। तहाछुहाकिलंता मज्झण्हे ६. तीर्थकर की भाषा आगता । अतिथोवा कट्ठा आणियत्ति पिट्टिता अजिमित ......"कहेइ साहारणेण सद्देणं । पीता पुणो पट्ठविता, सा य वड्डे कट्ठभारं गहाय ओगा सव्वेसिं सगीणं जोयणणीहारिणा भगवं ॥ हंतीए पोरुसीए आगच्छति । जेट्ठामूलमासो। अह ताए .."सव्वेसिपि सभासा जिणभासा परिणमे एवं ।। थेरीए कट्ठभाराओ एणं कठै पडितं, ताहे ताए थेरीए ओणमित्ता तं कळं गहितं । तं समयं च भगवं तित्थगरो साहारणेणं सद्देणं अद्धमागहाए भासाए, सावि य णं धम्म पकहितो जोयणणीहारिणा सरेणं, सा थेरी तं सदं। अद्धमागहा भासा भासिज्जमाणी सव्वेसि तेसि आरियसुणेति तहेव ओणता सोउमाढत्ता, उण्हं तण्हं छुहं परिस्समं मणारियाण अप्पप्पणा भार मणारियाणं अप्पप्पणो भासापरिणामेणं परिणमति । च ण विंदति । (आवनि ५७८, चू १ पृ ३३१,३३२) (आवनि ५६६,५७७, चू १ पृ ३२९) अर्हतों की वाणी सर्वजनग्राह्य, अनुपम और सब दुःखों तीर्थंकर साधारण शब्दों के माध्यम से अर्धमागधी से त्राण देने वाली होती है। उस अद्वितीय अनुपम वाणी भाषा में उपदेश देते हैं । देव, मनुष्य, तिर्यंच-सब संज्ञी को सुनने वाला कभी खेदखिन्न नहीं होता। यहां वणिग्- प्राणी उन शब्दों को समझ लेते हैं अर्थात् वे शब्द आर्यदासी का उदाहरण मननीय है अनार्य सबकी अपनी-अपनी भाषा में परिणत हो जाते एक वृद्ध दासी प्रातः काष्ठ लाने के लिए जंगल में गई, हैं । वे शब्द एक योजन तक सुनाई देते हैं । Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर के शुभ १०. तीर्थंकर त्राता परतातारो तित्थकरा, कहं ? ते कयकिच्चावि भगवंतो भवियाणं संसारसमुद्दपार कंखिणो धम्मोवएसेण तारयति । ( दजिचू पृ १११ ) सामाइयाइया वा वयजीवणिकायभावणा पढमं । एस धम्मोवाओ जिणे हि सव्वेहि उवइट्टो ॥ ( आवनि २७१ ) तीर्थंकर पर त्राता हैं । कैसे ? यद्यपि वे कृतकृत्य होते हैं, फिर भी भव्य जीवों को संसार-समुद्र से पार पहुंचाने के लिए सामायिक, व्रत, जीवनिकाय और भावना विषयक धर्मोपदेश करते हैं । कर्म..... भगवान् सर्वज्ञोऽत एव भव्यानेव विबोधयति, अभव्यानां बोधनोपायस्य कस्याप्यभावात् । तस्य भगवतस्त्रैलोक्याधिपतेः पक्षपातनिरपेक्षमविशेषेण सद्धर्म्मदेशना कुर्वतो विभिन्नस्वभावेषु प्राणिषु तथा तथा स्वभाव्याद् विबोधा विबोधकारिणी पुरुषोलूक कमलकुमुदादिष्वादित्यस्य प्रकाशन क्रियेव सद्धर्म्मदेशन क्रियोपजायते । त्वद्वाक्यतोSपि केषाञ्चिदबोध इति मेऽद्भुतम् । भानोर्मरीचयः कस्य नाम नालोक हेतवः ॥ नैवाद्भुतमुलुकस्य, प्रकृत्या क्लिष्टचेतसः । स्वच्छा अपि तमस्त्वेन भासन्ते भास्वतः कराः ॥ ( आवमवृप १०५ ) अर्हत् सर्वज्ञ होते हैं, अतः वे भव्यों को ही उद्बोध देते हैं | अभव्यों को संबुद्ध करने का कोई भी उपाय नहीं है । तीन लोक के अधिपति तीर्थंकर निष्पक्षभाव से देशना देते हैं, श्रोता अपनी क्षमता के अनुसार उसे ग्रहण करते हैं । जैसे सूर्य की प्रकाशनक्रिया पुरुष, उल्लू, कमल, कुमुद आदि के स्वभाव के अनुसार भिन्न-भिन्न रूपों में होती है, वैसे ही धर्मदेशना की क्रिया के विविध रूप हैं । आश्चर्य ! भंते ! तुम्हारी वाणी सुनकर भी कोई अबोध रह जाता है। सूर्य की रश्मियां किसे आलोकित नहीं करतीं ? उल्लू स्वभाव से ही क्लिष्ट चित्त वाला है । उसे प्रभास्वर किरणों में भी अंधकार का आभास होता है - इसमें आश्चर्य कैसा ? ११. . कैवल्य-काल तेवीसाए तित्थगराणं सूरुग्गमणमुहुत्ते एगराइयाते पडिमाए णाणं उप्पन्नं, वीरस्स पाईणिगामिणीए । अन्ने भांति — बावीसाए पुग्वण्हे मल्लिवीराणं अवरण्हे । ( आवचू १ पृ १५८) ३०५ तीर्थंकर तेईस तीर्थंकरों को एकरात्रिकी प्रतिमा में, सूर्योदयकाल (पूर्वा) में तथा महावीर को अपराह्न में कैवल्य उत्पन्न हुआ। एक मान्यता के अनुसार बाईस तीर्थंकरों को पूर्वाह्न तथा अर्हत् मल्लि और महावीर को अपरा में कैवल्य उत्पन्न हुआ । १२. तीर्थंकर और अनशन ..... सव्वेवि य तित्थयरा पातोवगया उ सिद्धिगया || (उशावृ प २३७) सभी तीर्थङ्करों की सिद्धि प्रायोपगमन / पादपोपगमन अनशन में होती है । १३. तीर्थंकर के शुभ कर्मप्रकृतियां पसत्थाणं वेदणिज्जाउयनामगोत्ताणं अणुभावं पडुच्च उदयभावस्त उत्तमा । नामस्स एक्कतीसाए पसत्थुत्तरपगडीणं । तं जथा – मणुस्सगति पंचिदियजाति ओरालियं तेयगं कंमगं समचतुरंससंठाणं ओरालियं गोवंगं, वइरोसभणाराय संघयणं वण्णरसगंधफासा अगुरुलघुं उवघातं पराघातं ऊसासं पसत्थविहगगती तसं बादरं पज्जत्तयं पत्तेयं थिरथिराणि सुभासुभाणि सुभगं सुसरं आज्जं जसकित्ती निम्मानगं तित्थगरमिति । वेदणिज्जं मणुस्साऊ उच्चागोयं वा । एतेसि चोत्तीसाए उदइयभावेहि ( आवचू २ पृ ६८ ) तीर्थंकरों के प्रशस्त वेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्र - इन चार कर्मों की चौंतीस प्रकृतियां अनुभाव की अपेक्षा से उत्तम होती हैं - उत्तमा । १. मनुष्य गति २. पञ्चेन्द्रिय जाति ३. औदारिक शरीर ४. तेजस शरीर ५. कार्मण शरीर ६. समचतुरस्र संस्थान ७. औदारिक अंगोपांग ८. वज्र ऋषभनाराच संहनन ९-१२ . वर्ण - गंध-रस स्पर्श १३. अगुरुलघु १४. उपघात १५. पराघात १६ उच्छ्वास १७. प्रशस्त विहायो गति १८. त्रस १९. बादर २०. पर्याप्त २१. प्रत्येक २२. स्थिर २३. अस्थिर २४. शुभ २५. अशुभ २६. सुभग २७ सुस्वर २८. आदेय २९. यशः कीर्ति ३०. निर्माण ३१. तीर्थंकर ३२. वेदनीय ३३. मनुष्यायु ३४ उच्चगोत्र | Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर १४. तीर्थंकर : एक परिचय उसभमजयं च वंदे, संभवमभिनंदणं च सुमई च । उपह सुपासं, जिणं च चंदप्पहं वंदे ॥ सुविहिं च पुप्फदंतं, सीअल सिज्जंस वासुपुज्जं च । विमलमणतं च जिणं, धम्मं संति च वंदामि ।। कुंथुं अरं च मल्लि, वंदे मुणिसुव्वयं नमिजिणं च । वंदामि रिट्ठनेम, पासं तह वद्धमाणं च ॥ ( आव २२-४) जन्म स्थान इक्खागभूमि उज्झा सावत्थि विणिअ कोसलपुरं च । कोसंबी वाणारसी चंदाणण तह य काकंदी || भद्दिलपुर सीहपुरं चंपा कंपिल्ल उज्झ रयणपुरं । तिण्णेव गयपुरंमी मिहिला तह चेव रायगिहं ॥ मिहिला सोरिअनयरं वाणारसि तह य होइ कुंडपुरं । उसभाईण जिणाणं जम्मणभूमी जहासंखं ॥ ( आवनि ३८२-३८४) पिता नाभी असत्तू आ, जियारी संवरे इअ । मेहे धरे पट्टे अ, महसेणे अ खत्तिए । सुगीवे दढरहे विहू वसुपुज्जे अ खत्तिए । कम्मा सहसेणे अ भाणू विससेणे इअ ।। सूरे सुदंसणे कुंभे सुमित्तु विजए समुद्द्विजए अ । राया अ अस्ससेणे सिद्धत्थेऽवि य खत्तिए । ( आवनि ३८७ - ३८९) माता मरुदेवि विजय सेणा सिद्धत्था मंगला सुसीमा य । पुहवी लक्खण रामा नंदा विण्हू जया सामा ॥ सुजसा सुव्वया सिरी देवी पभावई । पउमावई अ वप्पा अ, सिव वम्मा तिसला इअ ॥ ( आवनि ३८५,३८६ ) अइरा वर्ण और अवगाहना पउमाभवासुपूज्जा रत्ता ससिपुप्फदंत ससिगोरा । सुव्वयनेमी काला पासो मल्ली पियंगाभा ।। वरकणगतविअगोरा सोलस तित्थंकरा मुणेयव्वा । एसो वण्णविभागो चउवीसाए जिणवराणं ॥ पंचेव अद्धपंचम चत्तार तह तिगं चेव । अड्ढाइज्जा दुणि अ दिवड्ढमेगं धणुसयं च ॥ ३०६ तीर्थंकर : एक परिचय उई असीइ सत्तरि सट्ठी पण्णास होइ नायव्वा । पणयाल चत्त पणयीस तीसा पणवीस वीसा य ॥ परस दस घणू ण य नव पासो सत्तरयणिओ वीरो । ( आवनि ३७६- ३८० ) कुमारकाल, राज्यकाल उसभस्स कुमारत्तं पुब्वाणं वीसई सयसहस्सा । तेवट्ठी रज्जंमी अणुपालेऊण णिक्खतो ॥ अजिअस कुमारतं अट्ठारस पुव्वसयसहस्साइं । तेवणं रज्जंमी पुव्वंगं चैव बोद्धव्वं ॥ पण्णरस सयसहस्सा कुमारवासो अ संभवजिणस्स । चोआलीसं रज्जे चउरंगं चेव बोद्धव्वं ॥ अद्धत्तेरस लक्खा पुव्वाणऽभिणंदणे कुमारतं । छत्तीसा अद्धं चिय अट्ठंगा चेव रज्जमि ॥ सुमइस्स कुमारतं हवंति दस पुव्वसयसहस्साइं । अउणातीसं रज्जे बारस अंगा य बोद्धव्वा ॥ पउमस्स कुमारतं पुव्वाणद्धमा सयसहस्सा । अद्धं च एगवीसा सोलस अंगा य रज्जंमि || पुव्वसय सहस्साई पंच सुपासे कुमारवासो उ । चउदस पुण रज्जंमी वीसं अंगा य बोद्धव्वा ॥ अड्ढाइज्जा लक्खा कुमारवासो ससिप्प होइ । अद्धं छ च्चिय रज्जे चउवीसंगा य बोद्धव्वा ॥ पण पुव्वसहस्सा कुमारवासी उ पुप्फदंतस्स । तावइअं रज्जंमी अट्ठावीसं च पुब्वंगा || पणवीससहस्साइं पुव्वाणं सीअले कुमारतं । तावइअं परिआओ पण्णासं चेव रज्जमि ॥ वासाण कुमारतं इगवीसं लक्ख हुति सिज्जं से । तावइअं परिआओ बायालीसं च रज्जंमि ।। गिहवासे अट्ठारस वासाणं सयसहस्स निअमेणं । चपण ससहस्सा परिआओ होइ वसुपुज्जे ॥ पण्णरस सयसहस्सा कुमारवासो अ तीसई रज्जे । पण्णरस सयसहस्सा परिआओ होइ विमलस्स ॥ अद्धट्ठमलक्खाई वासाणमणंतई कुमारते । तावइअं परिआओ रज्जंमी हुंति पण्णरस ॥ धम्मस्स कुमारतं वासाणड्ढाइआई तावइअं परिआओ रज्जे पुण हुंति पंचेव ॥ संतिस्स कुमारतं मंडलियचक्किपरिआअ चउसुंपि । पत्तेअं पत्तेअं वाससहस्साइं पणवीसं ॥ एमेव य कुंथूसवि चउसुवि ठाणेसु हुति पत्ते । तेवीस सहस्सा इं रसाद्धट्टया य ।। लक्खाई । Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक परिचय एमेव अरजिणिदस्स चउसुवि ठाणेसु हुति पत्तेअं । इगवीस सहस्साइं वासाणं हुंति णायव्वा ॥ मल्लिसवि वासस्यं गिहवासे सेसअं तु परिआओ । पण सहस्साइं नव चेव सयाइ पुण्णाई ॥ अट्टमा सहस्सा कुमारवासो उ सुव्वयजिणस्स । तावइअं परिआओ पण्णरससहस्स रज्जमि ॥ मण कुमार वासो वाससहस्साइ दुण्णि अद्धं च । तावइअं परिआओ पंच सहस्साई रज्जंमि ॥ तिण्णेव य वाससया कुमारवासो अरिट्ठनेमिस्स । सत्तय वाससयाई सामण्णे होइ परिआओ || पासस्स कुमारत्तं तीसं परिआओ सत्तरी होइ । तीसा य वद्धमाणे बायालीसा उ परिआओ ।। ( आवनि २७७-२९९ ) अभिनिष्क्रमण स्थान और बम उसभी अ विणीआए बारवईए अरिट्ठवरनेमी । अवसेसा तित्थया निक्खता जम्मभूमीसुं ॥ उसभी सिद्धत्थवणंमि वसुपुज्जो विहारगेहंमि । धम्म अ वप्पगाए नीलगुहाए अ मुणिनामा ॥ आसमपयंमि पासो वीरजिणिदो अ नायसंडंमि । अवसेसा निक्खता, सहसंबवणंमि उज्जाणे ॥ अभिनिष्क्रमण काल पासो अरिनेमी सिज्जंसो सुमइ मल्लिनामो अ । पुव्वण्हे निक्खता सेसा पुण पच्छिमहंमि || ( आवन २३२ ( आवनि २२९-२३ ) दीक्षोपवास सुमईथ निच्चभत्ते निग्गओ वासुपूज्ज जिणो चउत्थेणं । पासो मल्लीवि अ अट्टमेण सेसा उ छट्ठेणं ॥ ( आवनि २२८ ) भिक्षा कब और कहां ? संवच्छरेण भिक्खा लद्धा उसभेण लोगनाहेण । सेसेहि बीयदिवसे लद्धाओ पढमभिक्खाओ || हत्थि उरं अओझा सावत्थी तहय चेव साकेअं । विजयपुर बंभथलयं पाडलिसंड पउमसंडं ॥ सेयपुरं रिट्ठपुरं सिद्धत्थपुरं महापुरं चैव । धण्णकड वद्धमाणं सोमणसं मंदिरं चैव ॥ ३०७ तीर्थंकर चक्कपुरं रायपुरं मिहिला रायगिहमेव बोद्धव्वं । वीरपुरं बारवई कोअगडं कोल्लयग्गामो ॥ ( आवनि ३१९, ३२३-३२५) मिक्षा किसके द्वारा ? सिज्जंस बंभदत्ते सुरेंददत्ते य इंददत्ते अ । पउमे अ सोमदेवे महिंद तह सोमदत्ते अ ।। पुस्से पुणव्वसू पुणनंद सुनंदे जए अ विजए य । तत्तो धम्मसी सुमित्त तह वग्घसी हे अ ॥ अपराजिअ विस्ससेणे वीसइमे होइ बंभदत्ते अ । दिण्णे वरदिण्णे पुण धणे बहुले अ बोद्धव्वे ॥ ( आवनि ३२७-३२९) भिक्षा क्या ? उभस्स उ पारणए इक्खुरसो आसि लोगनाहस्स । सेसाणं परमण्णं अमयरसरसोवम आसी ॥ ( आवनि ३२० ) सहदीक्षा एगो भगवं वीरो पासो मल्ली अ तिहि तिहि सहि । भयवं च वासुपुज्जो छहि पुरिससएहि निक्खतो ॥ उग्गाणं भोगाणं रायण्णाणं च खत्तिआणं च । चउहि सहस्सेहुसभो सेसा उ सहस्सपरिवारा ॥ ( आवनि २२४, २२५ ) छद्मस्थमुनि-पर्याय वाससहस्सं बारस चउदस अट्ठार वीस वरिसाई । मासा छन तिणि अ चउ तिग दुर्गामिक्कग दुगं च ॥ तिग दुर्गामिक्कग सोलस वासा तिण्णि अ तहेवऽहोरत्तं । मासिक्का रस नवगं चउपण्ण दिणाइ चुलसीई ॥ तह बारस वासाई, जिणाण छउमत्थकालपरिमाणं । उग्गं च तवोकम्मं विसेसओ वद्धमाणस्स । ( आवनि २३८ - २४० ) दीक्षा - पर्याय उसभस्स पुब्बलक्खं पुव्वंगूणमजिअस्स तं चेव । रंगू लक्खं पुणो पुणो जाव सुविहित्ति ॥ पणवीसं तु सहस्सा पुव्वाणं सीअलस्स परिआओ । लक्खाई इक्कवीसं सिज्जं सजिणस्स वासाणं ॥ चउपण्णं पण्णारस तत्तो अद्धट्टमाइ लक्खाई । अड्ढाइज्जाई तओ वाससहस्साइं पणवीसं ॥ तेवीसं च सहस्सा सयाणि अद्धट्टमाणि अ हवंति । इगवीसं च सहस्सा वाससउणा य पणपण्णा ॥ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर ३०८ तीर्थकर : एक परिचय अद्धट्ठमा सहस्सा अड्ढाइज्जा य सत्त य सयाई । गण-गणधर सयरी बिचत्तवासा दिक्खाकालो जिणिदाणं ॥ चुलसीइ पंचनउई बिउत्तरं सोलसूत्तर सयं च । (आवनि २७२-२७६) केवलज्ञान तिथि, नक्षत्र सत्तहिअं पणनउई तेणउई अट्टसीई अ॥ फग्गुणबहलिक्कारसि उत्तरसाढाहि नाणभूसभस्स । इक्कासीई बावत्तरी अ छावट्टि सत्तवण्णा य । पण्णा तेयालीसा छत्तीसा चेव पणतीसा ॥ पोसिक्कारसि सुद्धे रोहिणिजोएण अजिअस्स ।। तित्तीस अट्ठवीसा अट्ठारस चेव तहय सत्तरस । कत्तिअबहुले पंचमि मिगसिरजोगेण संभवजिणस्स । इक्कारस दस नवगं गणाण माणं जिणिदाणं ।। पोसे सुद्धचउद्दसि अभीइ अभिणंदणजिणस्स ।। एक्कारस उ गणहरा जिणस्स वीरस्स सेसयाणं तु ! चित्ते सुद्धिक्कारसि महाहि सुमइस्स नाणमुप्पण्णं । जावइआ जस्स गणा तावइआ गणहरा तस्स ।। चित्तस्स पुण्णिमाए पउमाभजिणस्स चित्ताहिं ।। (आवनि २६६-२६९) फग्गुणबहुले छट्ठी विसाहजोगे सुपासनामस्स। Min फग्गुणबहुले सत्तमि अणुराह ससिप्पहजिणस्स ॥ चुलसीइं च सहस्सा एगं च दुवे अतिण्णि लक्खाई। कत्तिअसुद्धे तइया मूले सुविहिस्स पुप्फदंतस्स । तिण्णि अ वीसहिआइं तीसहिआइं च तिण्णेव ।। पोसे बहुलचउद्दसि पुव्वासाढाहि सीअलजिणस्स ॥ पण्णरसि माहबहले सिज्जंसजिणस्स सवणजोएणं । तिण्णि अ अड्ढाइज्जा दुवे अ एगं च सयसहस्साइं । सयभिय वासुपूज्जे बीयाए माहसुद्धस्स ।। चुलसीइं च सहस्सा बिसत्तरि अट्ठसटुिं च ।। पोसस्स सुद्धछट्ठी उत्तरभद्दवय विमलनामस्स । छावद्धि चउस४ि बावढेि सट्ठिमेव पण्णासं । वइसाह बहुलचउदसि रेवइजोएणणंतस्स ।। चत्ता तीसा वीसा अट्ठारस सोलस सहस्सा ।। चउदस य सहस्साई जिणाण जइसीससंगहपमाणं । पोसस्स पुण्णिमाए नाणं धम्मस्स पुस्सजोएणं । (आवनि २५६-२५९) पोसस्स सुद्धनवमी भरणीजोगेण संतिस्स ।। चित्तस्स सुद्धतइआ कित्तिअजोगेण नाण कुंथुस्स । शिष्या-संपदा कत्तिअसुद्धे बारसि अरस्स नाणं तु रेवइहिं ।। तिण्णव य लक्खाइं तिण्णि य तीसा य तिण्णि छत्तीसा। मग्गसिरसुद्ध इक्कारसीइ मल्लिस्स अस्सिणीजोगे । तीसा य छच्च पंच य तीसा चउरो अ वीसा अ ।। फग्गुणबहुले बारसि सवणेणं सुव्वयजिणस्स ॥ चत्तारि अतीसाइं तिणि अ असिआइ तिण्हमेत्तो अ। मगसिरसुद्धिक्कारसि अस्सिणिजोगेण नमिजिणिदस्स । वीसुत्तरं छलहि तिसहस्सहिअं च लक्खं च ॥ आसोअमावसाए नेमिजिणिदस्स चित्ताहिं ।। चित्ते बहुलचउत्थी विसाहजोएण पासनामस्स । लक्खं अट्ठसयाणि अ बावट्ठिसहस्स चउसयसमग्गा । वइसाह सुद्धदससी हत्थत्तरजोगि वीरस्स ।। एगट्ठी छच्च सया सट्टिसहस्सा सया छच्च ।। (आवनि २४१-२५२) सटूि पणपण्णवण्णेगचत्तचत्ता तहट्टतीसं च । केवलज्ञान काल और स्थान छत्तीसं च सहस्सा अज्जाणं संगहो एसो ।। तेवीसाए नाणं उप्पण्णं जिणवराण पुव्वण्हे । (आवनि २६०-२६३) वीरस्स पच्छिमण्हे पमाणपत्ताए चरिमाए ॥ विहारक्षेत्र उसभस्स पुरिमताले वीरस्सुजुवालिआनईतीरे । मगहारायगिहाइसु मुणओ खित्तारिएसु विहरिंसु । सेसाण केवलाइं जेसुज्जाणेसु पव्वइया ।। उसभो नेमी पासो वीरो अ अणारिएसुपि । (आवनि २५३,२५४) (आवनि २३४) केवलज्ञान तप अट्ठमभत्तंतमी पासोसहमल्लिरिटुनेमीणं । आयुष्य वसुपुज्जस्स चउत्थेण छट्रभत्तेण सेसाणं ।। चउरासीइ बिसत्तरि सट्ठी पण्णासमेव लक्खाई। चत्ता तीसा वीसा दस दो एगं च पुवाणं ।। __ (आवनि २५५) Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक परिचय चउरासीई बावत्तरी अ सट्ठी अ होइ वासाणं । तीसा य दस य एगं च एवमेए सयसहस्सा ॥ पंचाणउइ सहस्सा चउरासीई अ पंचवण्णा य । तीसा य दस य एगं सयं च बावत्तरी चेव ॥ ( आवनि ३०३ - ३०५ ) निर्वाण, तप और स्थान निव्वाणमंत करिआ सा चउदसमेण पढमनाहस्स । सेसाण मासिएणं वीरजिणिदस्स छट्ठेणं ॥ अट्ठावयचं पुज्जितपावासम्मेअसेल सिहरेसुं । उसभ वसुपुज्ज नेमी वीरो सेसा य सिद्धिगया ॥ ( आवनि ३०६, ३०७ ) सह-निर्वाण एगो भयवं वीरो तित्तीसाइ सह निव्वुओ पासो । छत्तीसह पंचहि एहि नेमी उसिद्धिगओ ॥ पंचहि समणसएहि मल्ली संती उ नवसएहिं तु । असणं धम्मो सहि छहिं वासुपुज्जजिणो ॥ सत्तसहस्साणंतइजिणस्स विमलस्स छस्सहस्साइं । पंचसयाइ सुपासे पउमाभे तिणि अट्ठ सया || दसहि सहस्सेहि उसभो सेसा व सहस्सपरिवुडा सिद्धा । कालाइ जं न भणिअं पढमणुओगाउ तं अं ।। ( आवनि ३०८-३११) अन्तराल - काल उसभो वरवसभगती ततियसमापच्छिमंमि कालंमि । उप्पन्नो पढमजिणो भरहपिता भारहे वासे || पन्नासा लक्खेहिं कोडीणं सागराण उसभाओ । उप्पन्नो अजियजिणो ततिओ तीसाए लक्खेहिं ॥ जिणवसभसंभवाओ दसहिं लक्खेहि अयरकोडीणं । अभिनंदणो य भगवं एवइकाले उप्पन्नो || ३०९ तीर्थंकर अभिनंदणाओ सुमती णवह लक्खे हि अयरकोडीणं । उप्पन्नो सुहपुन्नो सुप्पभनामस्स वोच्छामि || उई सहस्सेहि कोडीणं सागराण पुन्नाणं । सुमतिजिणाओ परमो एवति कालेण उप्पन्नो ॥ परमप्पभनामाओ णवहिं सहस्सेहि अयरकोडीणं । सुहपुन्नो संपुन्नो सुपासनामो समुत्पन्नो | वह सुपासणामा जिणो समुप्पन्नो । चंदप्पभो पभाए पभासयंतो उ तेलोक्कं ॥ णतीय तु कोडीहिं ससीउ सुविहिजिणो समुप्पन्नो । सुविहिजिणाओ णर्वाह कोडीहिं सीतलो जातो ॥ सीतलजिणाउ भगवं सेज्जसो सागराण कोडीए । सागरसयऊणाए वरिसेहि तथा इमेहिं तु ॥ छवीसाए सहस्सेहिं चेव छावद्विसयसहस्सेहि । एतेहि ऊणिया खलु कोडी मग्गिल्लिया होति ।। चउपन्ना अयराणं सेज्जंसाओ जिणो उ वसुपुज्जो । वसुपुज्जाओ विमलो तीसह अयरेहिं उप्पन्नो ।। विमलजिणा उप्पन्नो वहिं तु अयरेहि अनंतइजिणोवि । चउसागरणामेहिं अनंतईओ जिणो धम्मो ॥ धम्मणाओ ती तिहि तिचउभागपलियऊणे हि । अयरेहिं समुप्पन्नो पलियद्वेणं तु कुंथुजिणो ॥ पलियच उन्भागेणं कोडिसहस्सूण एण वासाणं । कुंथूओ अरणामा कोडसहस्सेण मल्लिजिणो ॥ मल्लिजिणाओ मुणि सुव्वओवि चउपन्नवासलक्खेहि । सुव्वयनामातो णमी लक्खे हि छहिं तु उप्पन्नो ॥ पंचहि लक्खेहिं ततो अरिट्ठनेमी जिणो समुप्पन्नो । तेसीतिसहस्सेहि सतेहि अद्धट्टमेहिं वा ॥ नेमीओ पासजिणो पासजिणाओ य होइ वीरजिणो । अड्ढाइज्जसएहिं गतेहिं चरिमो सप्पन्नो || ( आवचू १ पृ २१७ ) Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकर ३१० तीर्थंकर : एक परिचय तीर्थकर : एक परिचय क्रम | तीर्थंकर | जन्म-स्थान | पिता | माता |वर्ण अवगाहना कुमार-काल राज्य-काल ऋषभ इक्ष्वाकूभूमि | नाभि मरुदेवा | स्वर्ण |५०० धनुष | २० लाख पूर्व | ६३ लाख पूर्व संभव ४ ५ | अजित | अयोध्या |जितशत्रु | विजया ४५० ,१८ , , ।१ पूर्वांग सहित ५३ लाख पूर्व श्रावस्ती ४०० " | १५ । " | ४ पूर्वांग सहित | ४४ लाख पूर्व । अभिनंदन | विनीता संवर सिद्धार्था) ३५० , | १२३ , , ८ पूर्वांग सहित | ३६३ लाख पूर्व । सुमति | कौशलपुर | मेघप्रभ | मंगला " | ३०० , १० , , १२ पूर्वांग सहित २९ लाख पूर्व | पद्म । कौशाम्बी | धर | सुसीमा | रक्त । | २५० " |७३ "" | १६ पूर्वांग सहित २१३ लाख पूर्व सुपार्श्व | वाराणसी | प्रतिष्ठ | पृथ्वी | स्वर्ण |२०० , ५ , , २० पूर्वांग सहित | १४ लाख पूर्व | चन्द्र चन्द्रपुर | महासेन | लक्ष्मणा | श्वेत | १५० , २३ ", |२४ पूर्वांग सहित ६३ लाख पूर्व | सुविधि | काकंदी | सुग्रीव | रामा , १०० , ५० हजार पूर्व | २८ पूर्वांग सहित ५० हजार पूर्व | शीतल । भद्दिलपुर | दृढ़रथ | नंदा | स्वर्ण | ९० , | २५ ,, ,, | ५० हजार पूर्व हपुर | विष्णु | विष्णु , ८० , | २१ लाख वर्ष | ४२ लाख वर्ष | वासुपूज्य | चंपा वसुपूज्य | जया रत्त |१८ , , ९ विमल कांपिल्य कृतवर्मा | श्यामा | स्वर्ण |१५ , , ३० लाख वर्ष | अनन्त । अयोध्या । सिंहसेन | सुयशा | , |७३,, , ।१५ ,, , ५ धर्म | रत्नपुर | भानु सुव्रता | , ४५ , २३, , ५ , , |शांति हस्तिनापुर विश्वसन | आचरा हस्तिनापुर विश्वसेन | अचिरा । , , ४० , २५ हजार वर्ष | ५०,००० १७ | कुंथु ,, सूर श्री , |३५ |२३,७५० वर्ष | ४७,५०० वर्ष १८ अर सुदर्शन | देवी । , ३० , २१ हजार वर्ष | ४२,००० वर्ष १९ मल्लि मिथिला | कुम्भ |प्रभावती | नील |२५ , |१०० वर्ष x ० मुनिसुव्रत | राजगृह सुमित्र | पद्मावती कृष्ण |२० , ७,५०० वर्ष १५,००० वर्ष नमि मिथिला | विजय | वप्रा | स्वर्ण | २,५००, ५,००० , अरिष्टनेमि | सोरियपुर | समुद्र- | शिवा कृष्ण ।१० ॥ विजय || २३ पाव वाराणसी | अश्वसेन | वामा नील ९हाथ ३०० , | महावीर | कुंडपुर | सिद्धार्थ | त्रिशला | स्वर्ण |७ हाथ । Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकर : एक परिचय तीर्थकर अभिनिष्क्रमण वन स्थान काल । तप सिद्धार्थ | विनीता अपराल | षष्ठ भक्त सहस्राम्र अयोध्या श्रावस्ती विनीता इंद्रदत्त | " १०० कौशलपुर | पूर्वाह्न | नित्य | भक्त प्रथम भिक्षा सह । छद्मस्थ दीक्षा पर्याय कब कहां किससे | क्या | दीक्षा | मुनि पर्याय | १ वर्ष | हस्तिनापुर | श्रेयांस | इक्षु ४००० १००० वर्ष | १ लाख पूर्व | बाद रस | दूसरे | अयोध्या ब्रह्मदत्त क्षीर १०००/१२ , १ पूर्वांग न्यून | एक लाख पूर्व | श्रावस्ती | सुरेन्द्रदत्त , १०००/ १४ , |४ पूर्वांग न्यून | एक लाख पूर्व साकेत १०००/१८ , ८ पूर्वांग न्यून | एक लाख पूर्व | " |विजयपुर पद्म , १०००/२० | १२ पूर्वांग न्यून | एक लाख पूर्व , ब्रह्मस्थल |सोमदेव , १०००६ मास | १६ पूर्वांग न्यून | एक लाख पूर्व , पाटलिखण्ड | महेन्द्र १०००/ ९ मास | २० पूर्वांग न्यून एक लाख पूर्व | पद्मखण्ड | सोमदत्त | , १००० ३ ॥ २४ पूर्वांग न्यून | एक लाख पूर्व श्रेयः पुर |पुष्य २८ पूर्वांग न्यून एक लाख पर्व ,, रिष्टपुर | पुनर्वसु |, १०००/३, २५ हजार पूर्व , सिद्धार्थपुर | नंद , १०००२ , |२१ लाख वर्ष | महापुर सुनंद ५४ लाख वर्ष कौशाम्बी अपराल | षष्ठ भक्त वाराणसी चन्द्रपुर काकंदी " १० है |सिंहपुर । पूर्वाल | , विहारगृह चंपा अपराल| चतुर्थ भक्त " " 10000२ वर्ष २३ " सहस्राम्र| कांपिल्य षष्ठ , धान्यकट |जय , १०००/ २ वर्ष १५ लाख वर्ष. भक्त | अयोध्या , | वर्द्धमान विजय , १०००1३ वर्ष वप्रगा | रत्नपुर । | | सौमनस ।धर्मसिंह ,, १०००/ २ वर्ष सहस्राम्र हस्तिनापुर ,, ,, | मंदिरपुर । सुमित्र , १०००/ १ वर्ष २५,००० वर्ष |, चक्रपुर व्याघ्रसिंह , १००० १६ वर्ष |२३,७५० वर्ष , | राजपुर अपराजित ,, १०००/३ दिन ।२१,००० वर्ष | मिथिला | पूर्वाह्न अष्टमभक्त ,, | मिथिला |विश्वसेन , |३००/ १ दिन |५४,९०० वर्ष नीलगुफा राजगृह | अपराल | षष्ठभक्त , | राजगृह ब्रह्मदत्त | ,, |१०००/ ११ मास ।७,५०० वर्ष सहस्राम्र| मिथिला , | वीरपुर दत्त , १००० ९ मास २,५०० वर्ष द्वारवती | पूर्वाह द्वारवती वरदत्त |१०००५४ दिन । ७०० वर्ष ३००८४ दिन ७० वर्ष आश्रम वाराणसी अष्टमभक्त ,कोपकट धन्य पद ज्ञातखड | कुंडपुर | अपराल |षष्ठ भक्त , | कोल्लाक बहुल |, एकाकी/ १२ वर्ष ४२ वर्ष १३ पक्ष | Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकर ३१२ तीर्थकर : एक परिचय ऋम तिथि १ फा. कृ. ११ ।। केवलज्ञान नक्षत्र उत्तराषाढा काल _| स्थान तप । गण | गणधर | शिष्यसंपदा पूर्वाह्न | पुरिमताल अष्टमभक्त ८४ | ८४ ८४ हजार षष्ठ भक्त ९५ १०२ ९५ । १ लाख १०२ २ , | पौ. शु. ११ | रोहिणी | का. कृ. ५ मृगशिरा | पौ. शु. १४ | अभिजित् | चै. शु. ११ | मघा अयोध्या श्रावस्ती | विनीता कौशलपुर १०० | १०० ३ लाख २० हजार ३ लाख | चै. शु. १५ चित्रा | कौशाम्बी १०७ १०७ १०७ | ३० हजार ___ , ___७ फा. कृ. ६ ८ फा. कृ.७ ९ का. शु. ३ १० पौ. कृ. १४ ११ | मा. कृ. १५ विशाखा | अनुराधा मूल पूर्वाषाढा श्रवण वाराणसी चन्द्रपुर काकंदी भद्रपुर ८८ ९५ ९५ । ३ लाख | ९३ | २३, ८८ २ , | ८१ । १ " | ७२ ८४ हजार सिंहपुर चतुर्थ भक्त ६६ षष्ठ भक्त ५७ | ५७ ६८ , १२ | मा. कृ.२ १३ | पौ. शु.६ १४ वै. कृ. १४ १५ | पौ. शु. १५ १६ | पौ. शु. ९ १७ | चै. शु. ३ शतभिषा | उत्तरभद्रपदा रेवती | पुष्य | चंपा कांपिल्य | अयोध्या | रत्नपुर हस्तिनापुर ४३ | भरणी ६२ ॥ कृत्तिका १८ | का. शु. १२ १९ मृ. शु. ११ रेवती । अश्विनी मिथिला अष्टमभक्त २८ षष्ठ भक्त १८ । १८ २० । फा. कृ.१२ श्रवण २१ | मृ. शु. ११ अश्विनी २२ | आ. कृ. १५ चित्रा राजगह उज्जयन्तगिरि सोरियपुर १७ अष्टमभक्त ११ २३ चै. कृ. ४ २४ | वै. शु. १० विशाखा उत्तरफल्गुनी , वाराणसी , १० १० १६ , | १४ अपराल | ऋजुबालिका षष्ठ भक्त नदी का तट J ॥ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर : एक परिचय शिष्यसंपदा ३,००,००० ३,३०,००० ३,३६,००० ६,३०,००० ५,३०,००० ४,२०,००० ४,३०,००० ३,८०,००० १,२०,००० १,०६,००० १,०३,००० १,००,००० १,००,८०० ६२,००० ६२,४०० ६१,६०० ६०,६०० ६०,००० ५५,००० ५०,००० ४१,००० ४०,००० ३८,००० ३६,००० विहार क्षेत्र आर्य-अनार्य क्षेत्र आर्यक्षेत्र 11 " " 33 "1 " 11 13 71 31 33 37 11 "1 " 31 11 आर्य-अनार्य क्षेत्र 31 " आयुष्य ८४ लाख पूर्व ६ दिन ७२ १ मास ६० ५० ४० ३० ७२ ६० ३० १० १ 27 " ५५ ३० १० "" २० १० .२ १ 37 ८४ लाख वर्ष 37 " 11 33 १ १०० वर्ष ७२ 17 33 17 19 " ९५ हजार वर्ष ८४ 17 37 " " " " 11 निर्वाणतप 11 " " 33 " 77 11 "" 33 19 11 73 31 "1 31 33 " 31 ३१३ दो दिन निर्वाणस्थान अष्टापद सम्मेदशिखर 11 37 " 33 चम्पा सम्मेदशिखर 23 17 " "" "" 31 उज्जयन्त गिरि सम्मेदशिखर पावापुरी सह निर्माण १०,००० १००० १००० १००० 2000 ३०८ ५०० १००० १००० १००० १००० ६०० ६००० ७००० ८०० ९०० १००० १००० ५०० १००० १००० ५३६ एकाकी अन्तराल काल X X ५० लाख करोड़ सागर ३० १० ९ 11 ९० हजार,,,, ९ हजार,, ९०० करोड़ ९० ९ ५४ सागर ३० 11 13 11 33 तीर्थंकर " ६६ लाख २६ हजार १ सौ सागर कम एक करोड़ सागर ९ ४ " पौन पस्योपम कम तीन सागर अर्ध पल्योपम 17 13 37 १ हजार करोड़ वर्ष कम पत्योपम 37 १ हजार करोड़ वर्ष ५४ लाख वर्ष ६ 17 11 ५ ८३,७५० वर्ष २५० वर्ष 33 Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकर ३१४ गृहस्थ-पर्याय १५. ऋषभ नामकरण मरुदेवा प्रतिबुद्ध हुई। उसने नाभि के समक्ष स्वप्नों की ऊरूस उसभलंछणं उसभं सूमिणमि तेण उसभजिणो। चची की, तब नाभि ने कहा-तुम्हारा पुत्र महाकुलकर वष-उद्वहने, उवढं तेन भगवता जगतसंसारमग्गं होगा । देवेन्द्र शक्र ने उपस्थित होकर कहा-देवानप्रिये ! अतूलं नाणदंसणचरित्तं वा तेन ऋषभ इति । तुम्हारा पुत्र त्रिभुवन का मंगलगृह, प्रथम धर्मचक्रवर्ती (आवनि १०८० च २४९) और महान् महाराजा होगा। दोनों ऊरूओं-जंघाओं पर वृषभ का चिह्न होने १८. ऋषभ का जन्म के कारण वे ऋषभ कहलाए । नाभी विणीअभूमी मरुदेवी उत्तरा य साढा य । माता मरुदेवी ने सर्वप्रथम वृषभ का स्वप्न देखा, राया य वइरणाहो विमाणसव्वट्ठसिद्धाओ ।। इसलिए उनका नामकरण ऋषभ हुआ। ..."रिक्खेण असाढाहिं असाढ बहुले चउत्थीए । जो संसार का उद्वहन-उद्धार करता है, वह चित्तबहलमीए जाओ उसभो आसाढणक्खत्ते ।.... वृषभ-ऋषभ है। (आवनि १७०,१८५,१८७) जो अतुल ज्ञान, दर्शन और चारित्र को धारण करता कुलकर नाभि अर्हत् ऋषभ के पिता थे। मरुदेवी है, वह वृषभ है। उनकी माता थी। विनीताभूमि उनकी जन्मभूमि थी। १६. ऋषभ के पूर्वभव उत्तराषाढा नक्षत्र, आषाढ कृष्णा चतुर्थी को सर्वार्थसिद्ध विमान से उनका च्यवन हुआ और उत्तराषाढा नक्षत्र, १. धन सार्थवाह (अवरविदेह) । २. मनुष्य (उत्तरकुरु)। चैत्र कृष्णा अष्टमी को उनका जन्म हुआ। देवभव से ३. सौधर्म देव । पूर्वभव में वे वज्रनाभ राजा थे । ४. महाबल राजा (अवरविदेह) । १६. इक्ष्वाकुवंश, काश्यप गोत्र ५. ईशान कल्प में ललितांग देव । देसूणगं च वरिसं सक्कागमणं"। ६. वज्रजंघ राजा (पुष्कलावती विजय)। सक्को बंसट्रवणे इक्ख अगू तेण हंति इक्खागा"। 9. योगलिक (उत्तरकुरु) (आवनि १८९,१९०) ८. सौधर्म देव जब कुमार ऋषभ लगभग एक वर्ष के हुए, इन्द्र ९ चिकित्सकपुत्र (महाविदेह) का आगमन हुआ। खाली हाथ कैसे जाऊं-यह सोच १०. अच्युत देव इन्द्र इक्षुयष्टि के साथ प्रविष्ट हुए। उस समय ऋषभ ११. वज्रनाभ चक्रवर्ती (पूर्व विदेह) अपने पिता नाभि की गोद में थे। उनकी दृष्टि इक्षु पर १२. सर्वार्थसिद्ध देव । पड़ी, तब शक्र ने पूछा-क्या आप इक्ष खायेगे? ऋषभ १३. ऋषभ । (देखें-आवनि १७१-१७८) ने प्रसन्नता से हाथ फैला दिया । इन्द्र ने सोचा- ऋषभ १७. मरुदेवा के स्वप्न को इक्षु प्रिय है, इसलिए इस वंश का नाम इक्ष्वाकु रहेगा। इन्द्र प्रथम तीर्थंकर के वंश की स्थापना करते चोद्दस सुमिणा उसभगयसीहमाद पासित्ता पडिबुद्धा हैं-यह परम्परा है। णाभिस्स कहेति । तेण भणियं - तुझ पुत्तो वड्डो कुल ___ऋषभ के पूर्वज इक्षु रस पीते थे, इसलिए वे काश्यपगरो होहिति त्ति । सक्कस्स आसणं चलितं, सिग्धं गोत्रीय कहलाये। आगमणं, भणति-देवाणुप्पिया ! तव पुत्तो सयलभुवणमंगलालओ पढमधम्मवरचक्कवट्टी महइ महाराया २०. गृहस्थ-पर्याय भविस्सइ। (आवच १ पृ १३५) देवी सुमंगलाए भरहो बंभी य मिहुणयं जायं । ऋषभ जब सर्वार्थ सिद्धविमान से मरुदेवा के गर्भ में देवीइ सुनंदाए बाहुबली सुंदरी चेव ।। आये तब वृषभ, गज, सिंह, लक्ष्मी, माला, चन्द्र, (आवभा ४४) सूर्य, ध्वज, कुंभ, पद्मसरोवर, सागर, विमान, ___ आउणापण्णं जुअले पुत्ताण सुमंगला पुणो पसवे । रत्नराशि और अग्नि-इन चौदह स्वप्नों को देख माता (आवनि १९७) Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिमयुग की सामाजिक ... अर्हतु ऋषभ के दो पत्नियां सुनन्दा | सुमंगला ने भरत और उनचास पुत्रयुगलों को जन्म दिया और सुन्दरी को जन्म दिया । पढमो अकालमच्चू तहिं तालफलेण दारओ पहओ । कण्णा य कुलगरेणं सिट्ठे गहिआ उसहपत्ती ॥ ( आवनि १९४ ) तालवृक्ष के नीचे एक युगल बैठा था। तालफल के गिरने से उनमें से बालक आहत हुआ और मर गया । यह यौगलिक युग की प्रथम अकाल मृत्यु थी। कुलकर नाभि के आदेश से वह कन्या ऋषभ की पत्नी के रूप में स्वीकार की गई । २१. आदिमयुग की सामाजिक व्यवस्था आहार और पाकविद्या 1 आसीय कंदहारा, मूलाहारा च पत्तहारा य । पुप्फफलभोइणोऽवि य, जझ्या किर कुलगरो उसभो ॥ आसीय इक्खुभोई, इस्वागा तेण खत्तिया हंति । सणसत्तरसं धण्णं आमं ओमं च भुंजीया ॥ ओमपाहारंता अजीरमाणमि ते जिणमुविति । हत्येहि घंसिकणं आहारेहत्ति ते भणिया || आसीय पाणिघसी तिम्मियतं दुलपवालपुडभोई । हत्थतलपुडाहारा जइया किर कुलगरो उसहो । ..... कक्खसे य ॥ अगणिस्स य उट्ठाणं दुमघंसा दट्ठू भीयपरिकहणं । पासेसुं परिदिह गिण्हह पागं च ततो कुणह ॥ पक्खेव डहणमोसहि कहणं निग्गमण हत्थिसीसम्म | पवणारंभपविति ताहे कासी य ते मणुआ ॥ ( आवभा ५ - ११ ) ऋषभ के प्रारंभिक समय तक मनुष्य कंद, मूल, पत्र, फूल और फल का आहार करते थे । इक्षु का भोजन करने के कारण क्षत्रिय इक्ष्वाकु कहलाए। उस समय के लोग सन प्रमुख सतरह प्रकार के धान्य का भोजन करते थे । वे कच्चा धान्य खाते और बहुत कम मात्रा में खाते । कम मात्रा में किया गया भोजन भी कच्चा होने के कारण पचता नहीं था। इस समस्या को लेकर लोग ऋषभ के पास आए। ऋषभ ने धान्य को हाथों से मर्दन कर खाने के लिए कहा । थीं- सुमंगला और ब्राह्मी युगल को तथा सुनन्दा ने बाहुबली ३१५ तीर्थंकर कुछ समय के बाद मर्दन कर खाया जाने वाला धान्य भी जीणं नहीं होता था। ऋषभ ने उन्हें चावल आदि सब प्रकार के धान्यों को दोनों में भिगोकर खाने का निर्देश दिया। जब वह भी दुष्पाच्य हो गया तो भिगोये हुए धान्य को मुहूर्त भर हाथ में रखकर खाने की बात कही । जब भिगोया हुआ धान्य हाथ में रखकर खाने पर भी दुष्पाच्य हो गया तो उसे कांख की उष्मा में रखकर खाने की बात कही । एकान्त स्निग्ध और एकान्त रूक्ष काल में अग्नि की उत्पत्ति नहीं होती । एकान्त स्निग्ध काल के बीत जाने पर वृक्षों के घर्षण से एक दिन अग्नि की उत्पत्ति हुई। लोग उसे देख भयभीत हो गए और ऋषभ को उसकी सूचना दी। ऋषभ ने उन्हें आसपास के घासपात को काटकर अग्नि में धान्य पकाने का निर्देश दिया । धान्य को अग्नि में डाला तो वह जल गया। वे ऋषभ के पास आए और सारी बात बताई। ऋषभ हाथी पर आरूढ़ हो उन सबको साथ ले नगर के बाहर आए । मिट्टी का पिंड लिया। हाथी के कुम्भ पर रख एक बर्तन बनाया और कहा- इस प्रकार बर्तन बनाओ और धान्य बर्तन में पकाकर खाओ। तब से पाकविद्या और पात्र निर्माण विद्या का प्रारंभ हुआ। शिल्पकर्म पंचैव य सिप्पाई घड लोहे चित्त णंत कासवए । इक्किक्कस्स य इतो दीसं वीतं भवे भेया ॥ ( आवनि २०७ ) अग्नि का आविष्कार होने के बाद पांच प्रकार के शिल्प - कुम्भकार शिल्प, लोहकार शिल्प, चित्रकार शिल्प, वस्त्र शिल्प ( जुलाहा ) और नापित शिल्प का प्रवर्तन हुआ। प्रत्येक शिल्प की बीस-बीस विधाओं का विकास हो गया । लेख लेहं लिबी विहाणं जिणेण बंभीइ दाहिणकरेण । गणियं संखाणं सुंदरी वामेण उवहट्ठे ॥ ( आवभा १३ ) ऋषभ ने अपनी ज्येष्ठपुत्री ब्राह्मी को लिपि और कनिष्ठपुत्री सुन्दरी को गणित सिखाई। Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर चित्रकला भरहस्स रूवकम्मं नराइलक्खणमहोइयं बलिणो । माणुम्माणवमाण पमाणगणिमाइवत्थूणं ॥ ( आवभा १४ ) भरत को चित्रकला और बाहुबली को स्त्री-पुरुष के लक्षण तथा वस्तु के मान, उन्मान, अवमान, प्रमाण, संख्यान आदि का प्रशिक्षण दिया । वाहन माई दोराइ पोआ तह सागरंमि वहणाई । ववहारो लेहवणं कज्जपरिच्छेयणत्थं वा ॥ ( आवभा १५ ) धागे में मणि आदि पिरोने की कला, जलपोत निर्माण और वाहन व्यवहार-- दंडविधान, कार्य-परिच्छेद के लिए लिखित प्रमाण -- इन सबका प्रवर्तन किया । दंडनीति हक्काराई सत्तविहा अहव सामभेयाई । जुदाई बाहुजुद्धाइयाई वट्टाइयाणं वा ॥ ( आवभा १६ ) हाकार, माकार, धिक्कार, परिभाषित - अल्पकालीन कारावास, मंडलिबंध - सीमा से बाहर जाने का निषेध, गृहबंध, दंडप्रहार आदि दंडनीतियां अथवा चार प्रकार की नीतियां - साम, दाम, दण्ड और भेद, बाहुयुद्ध आदि युद्ध - इन सबका प्रवर्तन किया । चिकित्सा रोगहरणं तिगिच्छा अत्थागम सत्थमत्थसत्यंति । निअलाइजमो बन्धो घाओ दण्डाइताणणया || ( आवमा १८ ) रोगहरण के लिए चिकित्साशास्त्र, अर्थार्जन के लिए अर्थशास्त्र, बंध - निगड आदि से बांधना, घात - दंड आदि से ताड़ना देना – इन सबका प्रवर्तन हुआ । ईसत्थं धणुवेओ उवासणा मंसुकम्ममाईया | गुरुरायाणं वा उवासणा पज्जुवासणया ।। ( आवमा १७ ) बाण, शस्त्र, धनुर्वेद और दाढ़ी-मूंछ आदि कटाना, पर्युपासना -- गुरु, राजा आदि की उपासना करना — इन सबका प्रवर्तन किया । ३१६ वस्त्र-माल्य पुव्विं कयाइ पहुणी सुरेहि रक्खाइ कोउगाई च । तह वत्थगंधमल्लालंकाराकेसभूसाई 1 तं दट्ठूण पवत्तोऽलंकारेउं जणोऽवि सेसोऽवि । विहिणा चूलाकम्मं बालाणं चोलया नाम ॥ ( आवभा २१,२२ ) देवों ने ऋषभ के रक्षा आदि कौतुक कर्म किए । वस्त्र, गंध, माल्य, अलंकार आदि धारण करवाए । केशविन्यास किया | स्तूप उसे देखकर लोगों में भी अलंकार की प्रवृत्ति प्रारंभ हुई। बच्चों के चूलाकर्म का भी उसी समय में प्रवर्तन हुआ । विवाह स्तूप दट्ठे कयं विवाहं जिणस्स लोगोऽवि काउमारद्धो । गुरुदत्तिया य कण्णा परिणिज्जंते ततो पायं ॥ ( आवमा २४ ) सर्वप्रथम ऋषभ का विवाह हुआ। उस पद्धति के आधार पर प्रजा में भी विवाह का प्रचलन हो गया । प्रायः गुरुजनों द्वारा प्रदत्त कन्या के साथ ही विवाह किए जाने की परंपरा पड़ी । मृतककर्म मयं मयस्स देहो तं मरुदेवीइ पढमसिद्धत्ति । देवेहि पुरा महियं भावणया अग्गिसक्कारो ॥ ( आवभा २६ ) मरुदेव प्रथम सिद्ध हुई । देवों ने सबसे पहले उनकी देह का दाह संस्कार किया। फिर वह मृतकर्म संस्कारविधि प्रजा में प्रचलित हो गई । सो जिणदेहाईणं देवेहि कओ चिआसु थूभाई । सद्दो य रुण्णसद्दो लोगोवि तओ तहा पगओ ॥ ( आवभा २७ ) भगवान् ऋषभ जब मुक्त हो गए, तब देवों ने उनके शरीर को चिता में जलाया और उनकी स्मृति में वहां स्तूप बनाकर रुदन करने लगे। तब से लोगों में मृतक के पीछे रोने की प्रवृत्ति प्रारम्भ हुई और स्तूप निर्माण की प्रथा चली । Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्हत् ऋषभ की शिष्य सम्पदा ३१७ तीर्थकर निमित्त नहीं जानते थे। भिक्षा के अभाव में सभी शिष्य तापस अहव निमित्ताईणं सुहसइयाइ सुहक्खपूच्छा वा। हो गये। इच्चेवमाइ पाएणुप्पन्न उसभकालम्मि ॥ प्रथम भिक्षाग्रहण (आवभा २९) संवच्छरेण भिक्खा लद्धा उसभेण"" नैमित्तिकों से सुख-दुःख के विषय में पृच्छा भी घुटुं च अहोदाणं दिव्वाणि अ आयाणि तूराणि । ऋषभ के समय में ही प्रारंभ हई । देवा य संनिवइआ वसुहारा चेव वुढा य ।। चार वर्ग गयउर सिज्जसिक्खुरसदाण..." ॥ उग्गा भोगा रायण्ण खत्तिआ संगहो भवे चउहा । (आवनि ३१९,३२१,३२२) आरक्खि गुरु वयंसा सेसा जे खत्तिआ ते उ ।। ऋषभ ने प्रव्रज्या के एक वर्ष पश्चात् गजपुर में (आवनि २०२) अपने प्रपौत्र श्रेयांस के हाथ से इक्षुरस की प्रथम भिक्षा राज्यव्यवस्था के लिए अर्हत् ऋषभ ने चार वर्ग ग्रहण का। उस समय पाच दिव्य प्रकट हुए-आकाश में स्थापित किये देवों द्वारा अहोदानं की ध्वनि, देवदुंदुभि, रत्नवृष्टि, उग्र-आरक्षक । वस्त्रोत्क्षेप, गंधोदक-पुष्पवृष्टि । भोज-गुरुस्थानीय। २३. ऋषभ की प्रथमता राजन्य--वयस्य । से य उसमे कोसलिए पढमराया पढमभिक्खायरे क्षत्रिय-इन तीनों के अतिरिक्त । पढमजिणे पढमतित्थयरे। (आवचू १ पृ १६०) अर्हत् ऋषभ इस युग के प्रथम राजा, प्रथम भिक्षा२२. ऋषभ का अभिनिष्क्रमण चर, प्रथम जिन और प्रथम तीर्थंकर थे। चउरो साहस्सीओ लोअं काऊण अप्पणा चेव । जं एस जहा काही तं तह अम्हेऽवि काहामो ॥ २४. अर्हत ऋषभ की शिष्य-सम्पदा उसभी वरवसभगई चित्तूणमभिग्गहं परमघोरं । तत्थ समोसरणे भगवं सक्कादीणं धम्म परिकहेति । वोसट्ठचत्तदेहो विहरइ गामाणुगामं तु ।। तत्थ उसभसेणो णाम भरहस्स रन्नो पुत्तो सो धम्म सोऊण णवि ताव जणो जाणइ का भिक्खा ? पव्वइतो। तेण तिहिं पृच्छाहिं चोहसपूव्वाइं गहिताई. केरिसा व भिक्खयरा ? उप्पन्ने विगते धुवे। तत्थ बंभीवि पव्वइया । भरहो ते भिक्खमलभमाणा वणमझे तावसा जाया ।। सावओ। सुंदरीए ण दिन्नं पव्वइउं, मम इत्थिरयणं (आवनि ३१५,३१६ भा ३१) एसत्ति । सा साविगा, एस चउव्विहो समणसंघो । ते य चउहिं सहस्सेहिं सद्धि एगं देवदूसमादाय जाव तावसा भगवतो णाणं उप्पन्नं ति कच्छसुकच्छवज्जा सव्वे पव्वइते । उसभे णं अरहा कोसलिए संवच्छरं साहियं भगवतो सगासे पव्वइता । (आवचू १ पृ १८२) चीवरधारी होत्था। तेसिं पंचमुट्रिओ लोओ सयमेव, कैवल्यप्राप्ति के पश्चात अहंत ऋषभ ने धर्मदेशना भगवतो पुण सक्कवयणेण कणगावदाते सरीरे जडाओ दी। उस समवसरण में देव, मनुष्य आदि सभी उपस्थित अंजणे रेहाओ इव रेहंतीओ उवलभतिऊणट्टिताओ तेण थे। चक्रवर्ती भरत का पुत्र ऋषभसेन धर्मदेशना सुनकर चउमुट्टिओ लोओ। (आवचू १ पृ १६१) प्रवजित हुआ। उसने उत्पन्न, विगत और ध्रुव-इन अर्हत् ऋषभ चार हजार व्यक्तियों के साथ प्रवजित तीन निषद्याओं से चौदह पूर्वो का ज्ञान ग्रहण किया। हए। ऋषभ के पास एक देवदूष्य वस्त्र था जो साधिक ऋषभसेन ऋषभ भगवान् का प्रथम साधु, प्रथम गणधर एक वर्ष तक उनके पास रहा। था। ब्राह्मी (ऋषभपुत्री) प्रथम साध्वी बनी । भरत प्रथम ___इन्द्र की प्रार्थना पर ऋषभ ने चारमुष्टि केशलोच श्रावक और सुंदरी (ऋषभपुत्री) प्रथम श्राविका बनी। किया । अन्य मुनियों ने पंचमुष्टि केशलोच किया। -इस प्रकार चतुर्विध तीर्थ की स्थापना हुई। कच्छ ऋषभ शरीर के व्युत्सर्ग और त्याग का संकल्प कर और सुकच्छ के अतिरिक्त शेष ३९९८ तापस ऋषभ के ग्रामानुग्राम विहार करने लगे। लोग भिक्षा की विधि तीर्थ में प्रव्रजित हो गये। Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीथंकर नमि-विनमि की प्रार्थना अहंत् ऋषम का अर्थ-चतुष्टय तुज्झ पिता एरिसं विभूति जहित्ता एकल्लओ अवसणो उसभस्स णं अरहओ कोसलियस्स उसभसेणपामो- हिंडति । भरहो भणति-मम कतो विभूती तारिसी क्खाओ चउरासीति समणसाहस्सीओ उक्कोसिया समण- जारिसी तातस्स ? जदिन पत्तियह एह जामो पासामो। संपदा होत्था, बंभिसुंदरिपामोखाणं अज्जियाणं तिन्नि भरहो निप्फिडति सव्ववलेणं । मरुदेवा वि एक्कहिं सयसाहस्सीओ उक्कोसिया अज्जियासंपदा होत्था, हत्थिमि विलग्गा जाव पेच्छति 'छत्तातिच्छत्तं सुरसमूहं च सेज्जंसपामोक्खाणं समणोवासगाणं तिन्नि सयसाहस्सीओ थुवतं । भरहस्स य वत्थाभरणाणि ओमिलायंताणि । पंचासयसहस्सा सुभद्दापामोक्खाणं समणोवासियाणं पंच भर हो भणति - दिट्ठा ते पुत्तविभूती ? कनो मम एरिसा ? सयसाहस्सीओ चउप्पन्नं च सहस्सा चत्तारि सहस्सा सत्त सा तोस एणं चितेतुमारद्धा, अपुव्वकरणं अणपविट्रा। सया पन्नासा चोदसपुव्वीणं अजिणाणं जिणसंकासाणं णव जातीसरणं नत्थि, जेण वणस्सतिकातिएहितो उव्वटिका। सहस्सा ओहिन्नाणीणं वीससहस्सा केवलणाणीणं, वीस तत्थेव हथिखंधवरगताए केवलनाणं, उप्पणं सिद्धा। इमाए ओस प्पिणीए पढमसिद्धो मरुदेवा।। सहस्सा छच्च सया बेउव्वियाणं, बारस सहस्सा छच्च (आवनि १३२० च २ पृ २१२) सया पन्नासा विपुलमतीणं, बारससहस्सा छच्च सया भरत के वैभव को देखकर मरुदेवा कहती हैपन्नासा वादीणं, बावीस सहस्सा णव य सया अणुत्तरोववातियाण ......"वीसं समणसहस्सा सिद्धा, चत्तालीसं भरत ! तुम्हारा पिता ऋषभ ऐसी विभूति को छोड़ निर्वस्त्र अकेला घूम रहा है। भरत ने कहा- पिताश्री अज्जियासहस्सा सिद्धा, सट्टि अंतेवासिसहस्सा सिद्धा।। जैसी विभूति मेरे पास कहां है ? यदि आपको विश्वास न (आवचू १ पृ १५८) ऋषभसेन आदि ८४ हजार श्रमण हो तो चलिए, वहां जाकर देखें। भरत ने अपनी सेना के साथ प्रस्थान किया। हाथी पर आरूढ़ हो मरुदेवा ने भी ब्राह्मी-सुंदरी आदि ३ लाख साध्वियां प्रस्थान किया। उसने ऋषभ की स्तुति करते हए महद्धिक श्रेयांस आदि ३ लाख ५० हजार श्रावक देवों को देखा। उनके सामने भरत के वस्त्र-आभरण सुभद्रा आदि ५ लाख ५४ हजार श्राविकाएं फीके लगने लगे। भरत ने कहा-आपने अपने पुत्र की चौदहपूर्वी साधु ४७५० विभूति को देखा? मेरे पास कहां है ऐसी विभूति ! यह अवधिज्ञानी साधु ९००० देख-सुन मरुदेवा स्वयं चिंतन में डूब गई। वह अपूर्वकरणकेवलज्ञानी साधु २०००० अद्भुत भावणि में आरूढ़ हुईं। उसे जातिस्मृति नहीं विपुलमति मनःपर्यवज्ञानी १२६५० हुई, क्योंकि वह वनस्पति से उद्वृत्त हुई थी। परम वैक्रियलब्धिधर २०६०० विशुद्ध अध्यवसाय, लेश्या और परिणामधारा से उसे हाथी वादी १२६५० के हौदे पर बैठे-बैठे ही कैवल्य उत्पन्न हो गया। इस अनुत्तर विमान में उत्पन्न २२९०० अवसर्पिणी काल में वह सर्वप्रथम सिद्ध हुई। । २०००० साधु, ४०००० साध्वियां, २७. नमि-विनमि की प्रार्थना सिद्ध कल ६०००० अन्तेवासी नमिविनमीणं जायण नागिंदो विज्जदाण वेअड्ढे । २५. अर्हत ऋषभ का प्रमादकाल उत्तरदाहिणसेढी सट्ठीपण्णासनगराइं॥ वाससहस्सं उग्गं तवमाइगरस्स आयरंतस्स । दुवे नमिविणमिणो कच्छमहाकच्छाणं पुत्ता उवट्टित्ता, जो किर पमायकालो अहोरत्तं तु संकलिअं॥ भगवं विन्नवेन्ति -भगवं! अम्हं तुब्भेहि संविभागो ण केणवि वत्थणा कतो, स पट्टे बद्धकवया ओलग्गंति अर्हत ऋषभ ने एक हजार वर्ष तक उग्र तप किया। विन्नति य, तातो! तुब्भेहि सव्वेसि भोगा दिन्ना इस तप:साधनाकाल में उनके प्रमाद-काल को संकलित अम्हेऽवि देह, एवं तिसझं ओलग्गति, एवं कालो किया जाये तो वह एक दिन-रात का होता है। वच्चति, अन्नया धरणो णागकूमारिंदो भगवं वंदओ २६. मरुदेवा प्रथम सिद्ध आगओ, इमेहि य विन्नवितं, सो ते तह जातमाणे .."आराहणाए मरुदेवा ओसप्पिणीए पढम सिद्धो॥ भणति-भो सूणह भगवं चत्तसंगो गतरोसतोसो सा मरुदेवा भरहविभूति पासित्ता भणति भरहं, ससरीरेऽवि णिम्ममत्तो अकिंचणो परमजोगी णिरुद्धासवो Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थ का विच्छेद कमल पलास णिरुववचित्तो मा एवं जायह अह तु भगवतो भत्तीए मा तुब्भं सामिस्स सेवा अफला भवतुत्ति काउं पढितसिद्धाई गंधव्वपन्नगाणं अडयालीसं विज्जा सहस्सा इं देमि, ताण इमाओ चत्तारि महाविज्जाओ, तं जहा गोरी गंधारी रोहिणी पन्नत्ती । ( आवनि ३१७ चू १ पृ १६० ) भगवान् ऋषभ सामायिक की साधना में लीन थे । एक दिन कच्छ और महाकच्छ के पुत्र नमि और विनमि भगवान् की सेवा में उपस्थित हुए और बोले -- 'भंते ! आपने सबको विपुल भोग्यसामग्री दी, हमें किसी वस्तु का संविभाग नहीं दिया, अतः हमें भी कुछ दें'इस प्रकार प्रार्थना और तीनों संध्याओं में पर्युपासना करते हुए कुछ समय बीता। एक दिन धरणेन्द्र नागकुमार भगवान् की वन्दना के लिए उपस्थित | नमि-विनमि हुआ की प्रार्थना पर उसने कहा- सुनो ! परम योगी ऋषभ अकिंचन हैं, अपने शरीर पर भी इनका ममत्व नहीं है । ये किसी पर रुष्ट - तुष्ट नहीं होते। तुम लोगों ने भगवान् की पर्युपासना की है, वह निष्फल न हो, इसलिए मैं तुम्हें गंधर्व पन्नग की अड़तालीस हजार विद्याएं देता हूं, जो पठितसिद्ध हैं । उनमें चार महाविद्याएं ये हैं-गौरी, गांधारी, रोहिणी और प्रज्ञप्ति । नागेन्द्र ने नमि को वैताढ्यगिरि की दक्षिणी विद्याधर श्रेणी में पचास नगर और विनमि को उत्तरी विद्याधर श्रेणी में साठ नगर निवास के लिए प्रदान किये । २८. तीर्थ का विच्छेव राया आइन्चजसो महाजसे अइबले अ बलभद्दे । बलवtरिए कत्तविरिए जलविरिए दंडविरिए य ॥ .....कालेण य मिच्छत्तं जिणंतरे साहुवोच्छेओ ॥ अष्टौ पुरुषान् यावदयं धर्मः प्रवृत्तः, अष्टौ बा तीर्थकरान् यावदिति । तत ऊर्ध्वं मिथ्यात्वमुपगता: । कालेन गच्छता मिथ्यात्वमुपगताः कदा ? नवमजिनान्तरे, किमिति ? यतस्तत्र साधुव्यवच्छेद आसीदिति । ( आवनि ३६३, ३६५ हावृ १ पृ १०५ ) चक्रवर्ती भरत के पश्चात् आदित्ययश, महायश अतिबल, बलभद्र, बलवीर्य, कृतवीर्य, जलवीर्य, दंडवीर्य - इन आठ राजाओं तक माहन - श्रावकों को दान देने की विधि चली । अथवा आठ तीर्थंकरों तक साधु-परंपरा अविच्छिन्न चली । तत्पश्चात् दृष्टिकोण मिथ्या हो गया । ३१९ तीर्थंकर नौवें अर्हत् सुविधि के पश्चात् साधु-वर्ग का विच्छेद हुआ । तीर्थस्य व्यवच्छेदश्चन्द्रप्रभस्वामिसुविधिस्वाम्यवान्तराले । ( नन्दीमवृप १३० ) आठवें तीर्थंकर चन्द्रप्रभ और नौवें तीर्थंकर सुविधि के अंतराल काल में तीर्थ का व्यवच्छेद हुआ । ( नौवें तीर्थंकर सुविधि से सोलहवें तीर्थंकर शांति के समय तक सवथा तीर्थच्छेद रूप असंयति पूजा हुई है । इसे दसवां आश्चर्य माना गया है देखें ठाणं १०।१६० का टिप्पण । ) अर्हत् अजित अक्खे जेण अजिआ जणणी अजिओ जिणो तम्हा । ( आवनि १०८० ) तब उनकी माता इसलिए उनका नाम जब अजितप्रभु गर्भ में आए, विजया द्यूतक्रीड़ा में विजित हुई, अजित रखा गया । अग्निजीवों की बहुलता क्यों ? जया पंचसु भरहेसु पंचसु एरवयएसु उत्तमक पत्ता मणुया भवति तदा सव्बबहुअगणिजीवा णायव्वा । जेण तत्थ लोग बहुल्लयाए पयणादीणिवि चेव बहूणि भवंति । या असामी आसि तदा मिहुणधम्मभेदगुणेण चिरजीवियतणेण य बहुपुत्तणत्तुका मणुया जाया, अतो अजियसामिकाले उत्तमकट्टपत्ता मणुया आसि । (आवचू १ पृ ३९) जब पांच भरत और पांच ऐरावत में मनुष्यों की संख्या पराकाष्ठा पर होती है, तब सबसे अधिक अग्नि के जीव होते हैं। क्योंकि लोगों की बहुलता होने पर पचन - पाचन आदि क्रियाएं भी प्रचुर होती हैं । अर्हत् अजित के काल में अग्नि के जीव पराकाष्ठा प्राप्त थे, क्योंकि उस समय मनुष्यों की संख्या पराकाष्ठा को प्राप्त थी । यौगलिक परम्परा का अन्त हो चुका था । लागों का आयुष्य लम्बा था। एक-एक परिवार में पुत्र-पौत्रों की संख्या भी अधिक थी । सर्वाधिक मनुष्य और सर्वबहु अग्निजीव अव्वाघाए सव्वासु कम्मभूमीसु जं तदारंभा । मस्सा होंतजियजिदिकालम्मि | ( विभा ५९९ ) अर्हत् अजित के शासनकाल में सब कर्मभूमियों Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीथंकर ३२० अर्हत् वासुपूज्य (भरत-ऐरावत-विदेह) में अग्नि का प्रयोग करने वाले था, इसलिए उसने अपने पुत्र को 'चन्द्रप्रभ' कहकर गर्भज मनुष्य सबसे अधिक थे। उस समय अग्नि जीवों पुकारा। उनकी चंद्र जैसी आभा थी। की उत्पत्ति में महावृष्टि आदि का व्याघात नहीं था। अर्हत् सुविधि अर्हत् संभव सव्वविहीसु अ कुसला गब्भगए तेण होइ सुविहिजिणो। अभिसंभूआ सासत्ति संभवो तेग वच्चई भयवं ।.. (आवनि १०८४) (आवनि १०८१) पुत्र का गर्भ में अवतरण होते ही जननी रामा ने जब सभवप्रभ गर्भ में थे, तब उनके प्रभाव से अत्य- सब विधिविधानों में अत्यधिक कुशलता अजित की, धिक धान्य संभूत हुआ, अतः उनका नाम संभव रखा इसलिए पुत्र का नामकरण सुविधि हुआ। गया। अर्हत् शीतल अहंत अभिनन्दन ..."पिउणो दाहोवसमो गब्भगए सीयलो तेणं ॥ ..."अभिणंदई अभिक्खं सक्को अभिणंदणो तेण ।। (आवनि १०८४) (आवनि १०८१) पिता ददरथ की पित्तदाहजन्य पीड़ा औषधि से शांत गर्भकाल से लेकर निरन्तर शक्र ने जिनका पुनः पुनः नहीं हई, पर गर्भवती माता नन्दा के स्पर्शमात्र से पित्तअभिनन्दन किया, वे अभिनंदन की अभिधा से अभिहित दाह का शमन हो गया, अतः शिशु का नाम शीतल रखा गया। अर्हत् सुमति सकलसत्त्वसन्तापकरणविरहादालादजनकत्वाच्च जणणी सव्वत्थ विणिच्छएस सूमइत्ति तेण सूमइजिणो। शीतल इति, तत्थ सव्वेऽपि अरिस्स मित्तस्स वा उरि (आवनि १०८२) सीयलघरसमाणा। (आवहाव २ पृ९) जब सुमति गर्भ में थे, उस समय माता मंगला ने जो सब प्राणियों का सन्ताप दूर कर आह्लाद उत्पन्न प्रत्येक न्याय-व्यवहार में सुमति-प्रभूत बुद्धिमत्ता का करता है, सबके लिए शीतगृह की भांति सुखकर है, वह परिचय दिया (दो माताओं के पाण्मासिक कलह का शीतल है। कुशलता से उपशमन किया), इस कारण से उनका नाम अर्हत श्रेयांस सुमति रखा गया। महरिहसिज्जारुहणंमि डोहलो तेण होइ सिज्जंसो।" अर्हत् पद्मप्रम (आवनि १०८५) ..."पउमसयणंमि जणणीइ डोहलो तेण पउमाभो। राजा परम्परा से प्राप्त देवतापरिगृहीत शय्या की (आवनि १०८२) अर्चा करता था। जो उस शय्या पर बैठता, उसे देवता गर्भवती माता सुसीमा को पद्मशय्या में शयन करने द्वारा उपसर्ग दिया जाता। माता विष्णुदेवी को उस पर का दोहद उत्पन्न हुआ, अतः पुत्र का नाम पद्म रखा। बैठने का दोहद उत्पन्न हुआ। वह उस पर बैठी किंतु गया। उनकी पद्म जैसी आभा थी। गर्भ के प्रभाव से उसका कुछ भी अश्रेय-अहित नहीं अर्हत् सुपावं हुआ, अतः शिशु का नाम 'श्रेयांस' रखा गया। गब्भगए जं जणणी जाय सुपासा तओ सुपासजिणो। अर्हत् वासुपूज्य (आवनि १०८३) ..."पूएइ वासवो जं अभिक्खणं तेण वसूपूज्जो।। जब सुपार्श्वप्रभु गर्भस्थ हुए, तब माता पृथ्वी के (आवनि १०८५) पार्श्वभाग सुन्दर हो गए, अतः उन्हें सुपार्श्व कहा गया। वासुपूज्य जब माता जया की कुक्षि में अवतरित हए, अर्हत् चन्द्रप्रम तब वासव (इन्द्र) ने पुनः पुनः जननी की पूजा की, ..."जणणीए चंदपियणमि डोहलो तेण चंदाभो॥ इसलिए उनका नामकरण 'वासुपूज्य' हुआ। (आवनि १०८३) वसूणि-रयणाणि, वासवो वेसमणो सो वा अभिमाता लक्ष्मणा को चंद्रपान का दोहद उत्पन्न हुआ गच्छति । (आव २ पृ १०) Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्हत् अरिष्टनेमि ३२१ उनके गर्भस्थ होने पर वासव (वैश्रमण ) ने पुनः पुनः राजकोष को वसु - रत्नों से भरा, अतः उनका नाम वासुपूज्य रखा गया । अर्हत् विमल विमलतणुबुद्धि जणणी गब्भगए तेण होइ विमलजिणो । ( आवनि १०८३ ) जिनके गर्भ में आने पर माता श्यामा की बुद्धि और शरीर - दोनों अत्यन्त विमल हो गये, वे विमल नाम से अभिहित हुए । अर्हत अनंत ..... रयणविचित्तमनंतं दामं सुमिणे तओऽणंतो ॥ ( आवनि १०६६ ) माता सुयशा ने स्वप्न में रत्नजटित अनंत - विशाल माला देखी, अतः पुत्र का नाम रखा - अनंत । अनन्तकर्माशजयादनन्तः, अनन्तानि वा ज्ञानादीन्यस्येति अनन्तः । ( आवहावृ २ पृ १० ) जो अनन्त कर्माशों को जीतता है, उनका क्षय करता है, वह अनन्त है । जो अनन्त ज्ञानचतुष्टयी से सम्पन्न है, वह अनन्त है । अहं धर्म गब्भगए जं जणणी जाय सुधम्मत्ति तेण धम्म जिणो । ( आवनि १०८७) जब धर्मनाथ गर्भ में आये, तब माता सुव्रता और पिता भानु श्रावक धर्म में विशेष रूप से उपस्थित हुए, इसलिए उनका नाम रखा -धर्म । अर्हत् शान्ति .....जाओ असिवोवसमो गन्भगए तेण संतिजिणो ॥ ( आवनि १०८७ ) सर्वत्र व्याप्त महाअतः उनका अभिधान शान्तिनाथ के गर्भ में आने पर मारी का प्रकोप शांत हो गया, हुआ— शांतिजिन । अर्हत् कंथ थूहं रयणविचित्तं कुंथुं सुमिणंमि तेण कुंथुजिणो । '' ( आवनि १०८८ ) गर्भवती माता 'श्री' ने स्वप्न में कु – भूमि पर स्थित थूह - रत्नों का विशाल स्तूप देखा, इसलिए बालक का नामकरण हुआ 'कुंथु' | तीर्थंकर अर्हत् अर ... सुमिणे अरं महरिहं पासइ जणणी अरो तम्हा ॥ ( आवनि १०८८ ) माता देवी ने स्वप्न में अतिसुन्दर, अतिविशाल रत्नमय अर-चक्र देखा, अतः शिशु का नाम रखा 'अर' । सर्वोत्तमे महासत्त्वकुले य उपजायते । तस्याभिवृद्धये वृद्धैरसावर उदाहृतः ।। ( आवहावृ २ पृ १० ) जो सर्वोत्तम, महान् शक्तिशाली कुल में उसकी अभिवृद्धि के लिए उत्पन्न होता है, वह 'अर' कहलाता है । अर्हत् मल्लि वरसुरहिमल्लसय मि डोहलो तेण होइ मल्लिजिणो । ( आवनि १०८९ ) माता प्रभावती को सब ऋतुओं में सुन्दर, सुरभित पुष्पमाला की शय्या का दोहद उत्पन्न हुआ, इसलिए अपनी पुत्री का नामकरण किया 'मल्लि' । सव्वेहिपि परीसह मल्लरागदोसा य हियत्ति । ( आवहावृ २ पृ १० ) जो परीषह तथा राग-द्वेष आदि मल्लों को जीतता है, वह मल्लि है । अर्हत् मुनिसुव्रत .... जाया जणणी जं सुव्वयत्ति मुणिसुव्वओ तम्हा ॥ ( आवनि १०८९ ) बालक के गर्भ में आने पर माता-पिता सुब्रती बने, अतः उनका नाम रखा गया 'मुनिसुव्रत' । अहं नि पणया पच्चंतनिवा दंसियमित्ते जिणंमि तेण नमी । ..... ( आवनि १०९० ) शत्रु राजाओं ने नगर को घेर रखा था। जब उन्होंने अट्टालिका पर खड़ी गर्भवती रानी 'वप्रा' को देखा, गर्भ के प्रभाव से वे सभी राजे तत्काल प्रणत हो गये, अतः शिशु का नामकरण हुआ 'नमि' । अर्हत् अरिष्टनेमि ..... रिट्ठरयणं च नेमि उप्पयमाणं तओ नेमी ॥ ( आवनि १०९० ) गर्भवती माता शिवा ने स्वप्न में अत्यन्त विशाल Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर अरिष्टरत्नमय नेमि (चक्र) को ऊपर उठते हुए देखा, अतः बालक का नाम 'अरिष्टनेमि' रखा । सोऽरिने मिनामो उ, लक्खणस्सरसंजुओ । अहस्स लक्खणधरो, गोयमो कालगच्छवी ॥ वज्जरिसहसंघयणो, समचउरंसो झसोयरो । .... ( उ २२।५, ६) अरिष्टनेमि स्वर-लक्षणों से युक्त, एक हजार आठ शुभ लक्षणों का धारक, गौतम गोत्री और श्यामवर्ण वाला था । वह वज्रऋषभनाराच संहनन और समचतुरस्र संस्थान वाला था । उसका उदर मछली के उदर जैसा था । अर्हत् अरिष्टनेमि का अभिनिष्क्रमण ..... तस्स राईमई कन्नं भज्जं जायइ केसवो ॥ अह सो तत्थ निज्जतो, दिस्स पाणे भयदुए । वाडेहिं पंजरेह च सन्निरुद्धे सुदुक्खिए || जीवितं तु संपत्ते, मंसट्ठा भक्खियव्वए । पासेत्ता से महापन्ने सारहिं इणमब्ववी ॥ कस्स अट्ठा इमे पाणा, एए सव्वे सुहेसिणो । वाडे हि पंजरेहिं च सन्निरुद्धा य अच्छाह ? | अह सारही तओ भणइ, एए भद्दा हु पाणिणो । तुझं विवाहकज्जमि, भोयावेउं बहुं जणं ॥ सोऊण तस्त वयणं, बहुपाणिविणासणं । चितेइ से महापन्ने, साणुक्कोसे जिएहि उ ॥ जइ मज्झ कारणा एए, हम्मिहिति बहू जिया । न मे एयं तु निस्सेसं परलोगे भविस्सई ॥ सो कुंडलाण जुयलं, सुत्तगं च महायो । आभरणाणि य सव्वाणि, सारहिस्स पणामए ॥ मणपरिणामे य कए, देवा य जहोइयं सव्वड्ढीए सपरिसा, निक्खमणं तस्स देवमणुस्सपरिवुडो, सीयारयणं तओ निक्खमिय बारगाओ, रेवययंमि ट्टिओ भगवं ॥ उज्जाणं संपत्तो, ओइण्णो उत्तिमाओ सीयाओ । साहस्सीए परिवुडो, अह निक्खमई उ चित्ताहि ॥ अह से सुगंधगंधिए, तुरियं मउयकुंचिए । सयमेव लुंचई केसे, पंचमुट्ठीहिं समाहिओ ॥ ( उ २२।६,१४-२४) केशव ने अरिष्टनेमि के लिए राजीमती कन्या की मांग की। विवाह के लिए जाते हुए अरिष्टनेमि ने भय से समोइण्णा । काउं जे ॥ समारूढो । ३२२ अरिष्टनेमि की शिष्य-सम्पदा संत्रस्त, बाड़ों और पिंजरों में निरुद्ध, सुदुःखित प्राणियों को देखा । वे मरणासन्न दशा को प्राप्त थे और मांसाहार के लिए खाए जाने वाले थे । उन्हें देखकर महाप्रज्ञ अरिष्टनेमि ने सारथि से इस प्रकार कहा "सुख की चाह रखने वाले ये सब प्राणी किसलिए इन बाड़ों और पिंजरों में रोके हुए हैं ।" सारथि ने कहा - "ये भद्र प्राणी तुम्हारे विवाह - कार्य में बहुत जनों को खिलाने के लिए यहां रोके हुए हैं ।" सारथि का बहुत जीवों के वध का प्रतिपादक वचन सुनकर जीवों के प्रति सकरुण उस महाप्रज्ञ अरिष्टनेमि ने सोचा - "यदि मेरे निमित्त से इन बहुत से जीवों का वध होने वाला है तो यह परलोक में मेरे लिए श्रेयस्कर नहीं होगा ।" उस महायशस्वी अरिष्टनेमि ने दो कुंडल, करघनी और सारे आभूषण उतारकर सारथि को दे दिए । अरिष्टनेमि के मन में जैसे ही निष्क्रमण (दीक्षा) की भावना हुई, वैसे ही उसका निष्क्रमण - महोत्सव करने के लिए औचित्य के अनुसार देवता आए । उनका समस्त वैभव और उनकी परिषदें उनके साथ थीं । देव और मनुष्यों से परिवृत भगवान् अरिष्टनेमि शिविका रत्न में आरूढ़ हुआ । द्वारका से चलकर वह रैवतक ( गिरनार ) पर्वत पर स्थित हुआ । अरिष्टनेमि सहस्राम्रवन उद्यान में पहुंचकर उत्तम शिविका से नीचे उतरा। उसने एक हजार मनुष्यों के साथ चित्रा नक्षत्र में निष्क्रमण किया । समाहित अरिष्टनेमि ने सुगंध से सुवासित सुकुमार और घुंघराले बालों का पंचमुष्टि से अपने आप तुरन्त लोच किया । शिष्य-सम्पदा अरहतो णं अरिने मिस्स वरदत्तपामोक्खाओ अट्ठारस समणसाहसीओ, जक्खिणिपामोक्खाओ चत्तालीसं अज्जासाहसीओ, नंदप्पामोक्खाणं समणोवासगाणं एगा सयसाहस्सी अउणतरि च सहस्सा उक्कोसिया, महासुव्वयपामोक्खाणं समणोवा सियाणं तिन्नि रायसाहसीओ छत्तीसं च सहस्सा, चत्तारि सया चोहसपुव्वीणं, पन्नरस सता ओही नाणी, पन्नरस सया केवलनाणीणं, पन्नरस सता वेउव्वियाण दस सता विपुलमतीणं, अट्ठसया वादी, सोलस सया अणुत्तरोववादियाणं । ( आवचू १ पृ १५९) Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर के अभिधान ३२३ तीर्थंकर अर्हत् अरिष्टनेमि का तीर्थ-चतुष्टय अवधिज्ञानी १४०० श्रमण १८००० वरदत्त आदि केवलज्ञानी १००० श्रमणी ४०००० यक्षिणी आदि वैक्रियलब्धिधर ११०० श्रमणोपासक १६९००० नन्द आदि मनःपर्यवज्ञानी ७५० श्रमणोपासिका ३३६००० महासुव्रता आदि वादी ६०० चौदहपूर्वी ४०० अनुत्तरविमान में उत्पन्न १२०० अवधिज्ञानी १५०० ३०. महावीर के अभिधान केवलज्ञानी १५०० वैक्रियलब्धिधर १५०० वड्ढइ नायकुलं ति अ तेण जिणो वद्धमाणुत्ति । विपुलमति मनःपर्यवज्ञानी १००० (आवनि १०९१) वादी ८०० भगवान् जब त्रिशला के गर्भ में आये, तब ज्ञातकूल अनुत्तरोपपातिक १६०० में धनसंपदा की अतिशय वृद्धि हुई, अतः उनका नाम अर्हत् पाव वर्धमान रखा गया। सप्पं सयणे जणणी तं पासइ तमसि तेण पासजिणो। उत्पत्तेरारभ्य ज्ञानादिभिर्वर्धत इति वर्धमानः । (आवनि १०९१) (आवहावृ २ पृ ११) माता वामा ने अपनी शय्या पर लेटे-लेटे (गर्भ के जन्म से लेकर जिसके ज्ञान आदि गुण बढ़ते रहते प्रभाव से) अंधेरे में भी सर्प को देख लिया, इसलिए हैं, वह वर्धमान है। अपने पुत्र को 'पार्श्व' नाम से संबोधित किया। गुणा अस्य विशाला इति वेशालीयः । विशालं पश्यति सर्वभावानिति पार्श्वः, पश्यक इति चान्ये ।। शासनं वा, विशाले वा इक्ष्वाकुवंशे भवा वैशालिया। (आवहाव २ पृ ११) वैशाली जननी यस्य, विशालकुलमेव च । जो सब भावों की पश्यना -परिज्ञान करता है, वह विशालं प्रवचनं वा, तेन वैशालिको जिनः ।। पश्यक पार्श्व है। अहंत पार्श्व की शिष्य-सम्पदा (उचू पृ १५६,१५७) ० जो गुणों से विशाल है, वह वैशालिक है। . पासस्स णं अरहतो पुरिसादाणीयस्स अज्जदिन्नपामोक्खाओ सोलस समणसाहस्सीओ, पुप्फचुलापामो • जिसका शासन विशाल है, वह वैशालिक है। ० जो विशाल इक्ष्वाकुवंश में जन्मा है, वह वैशालिक क्खाओ अट्ठत्तीसं अज्जियासाहस्सीओ। सुणंदपामोक्खाणं समणोवासगाणं एगा सयसाहस्सी चउसद्धि च सहस्सा णंदिणिपामोक्खाणं समणोवासियाणं तिन्नि सयसाहस्सीओ ० जिसकी माता वैशाली है-वैशाली नगर की सत्तावीसं च सहस्सा उक्कोसिया, अद्भुट्ठसया चोद्दस वास्तव्या है, जिसका कुल विशाल है, जिसका प्रवीणं, चोइस सया ओहिन्नाणीणं, दस सया केवल प्रवचन विशाल है, वह वैशालिक-भगवान् नाणीणं, एक्कारस सया वेउब्बियाण, अद्धट्ठमा सत्ता महावीर है। विपूलमतीणं, छस्सया वादीणं, बारस सया अणुत्तरो णाया नाम खत्तियाणं जातिविसेसो, तम्मि संभ्रओ ववाइयाणं । (आवचू ११५९) सिद्धत्थो, तस्स पुत्तो णायपुत्तो। (दजिच १२२१) अर्हत् पार्श्व का तीर्थ-चतुष्टय भगवान् महावीर का एक नाम है-- ज्ञातपुत्र । आर्यदत्त आदि १६००० श्रमण 'ज्ञात' (नाग) क्षत्रियों की एक जाति है। यहां ज्ञात का पुष्पचूला आदि ३८००० श्रमणी अर्थ है-ज्ञातकुल में उत्पन्न सिद्धार्थ । ज्ञातपुत्र अर्थात् सुनंद आदि १६४००० श्रमणोपासक सिद्धार्थपुत्र महावीर । नन्दिनी आदि ३२७००० श्रमणोपासिका तस्स णं ततो णामधेज्जा एवमाहिज्जति, तं जहाचौदहपूर्वी ३५० अम्मापिउसंतिए वद्ध माणे। सहसंमुदिते समणे ।"परी Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर सहोवसग्गसहेत्ति देवेह से कतं णामं समणे भगवं महावीरे । ( आवचू १ पृ २४५) महावीर के तीन नाम १. उनका माता-पिता के द्वारा प्रदत्त नाम थावर्द्धमान । २. उन्हें सहज ज्ञान प्राप्त था, इसलिए वे समण कहलाए । ३. भीम और अतिभयंकर परीषहों और उपसर्गों को सहने के कारण देवों ने उनका नाम श्रमण महावीर रखा । ३१. महावीर का पूर्वभव : : सम्यक्त्वप्राप्ति ३२४ पंथ कर सित्ता साहूणं अडविविप्पणद्वाणं । सम्मत्तपढमलंभो बोद्धव्वो वद्धमाणस्स ॥ अरविदेहे तत्थ एगंमि गामंमि गामस्स चिंतओ (बलाहिओ) सो रायाएसवसेण सगडिसागडं गहाय एवं महं अि अणुपविट्ठो दारुगनिमित्तं, अन्ने य साधुणो सत्थपरिभट्ठा'''' तहाए छुहाए य परज्झहिता तं देतं गता जत्थ सो सगडसंनिवेसो । सो य ते पासित्ता साधुणो महता संवेगमावन्नो – अहो इमो साधुणो अदेसिया तवस्तिो अव विट्ठा, सो अणुकंपाए विपुलं अन्नं पाणं दाऊणं भगति - एह भगवं ! जाहे पंथं समोतरेमि एगो धम्मक हियलद्धिसपन्नो तस्स धम्मं कहेउमारद्धो, धम्मकावसाणे य से उवगतं सम्मत्तं । ( आवनि १४६ चू १ पृ १२८ ) अरविदेह के एक गांव का ग्रामचिंतक ( बलाहक ) राजा के आदेश से काष्ठ लाने के लिए गाड़ियां लेकर एक घने जंगल में गया। वहां कुछ ऐसे साधु थे, जो मार्ग भूल गये थे, भूख-प्यास से व्याकुल थे । मध्याह्न का समय था । वे सब उसी शकटसन्निवेश में गये । साधुओं को देख ग्रामचितक बहुत आनन्दित हुआ । उन्हें विपुल अन्न-पान से प्रतिलाभित कर सही मार्ग बताया । उन मुनियों में से एक धर्मकथालब्धिसम्पन्न मुनि ने धर्म का उपदेश दिया, जिसे सुन ग्रामचिन्तक ( महावीर के जीव ) को सम्यक्त्व प्राप्त हुआ । इक्खागेसु मरीई चउरासीई अ बंभलोगंमि । कोसिउ कुल्लागंमी असीइमाउं च संसारे ॥ थूणाई समित्तो आउं बावतरि च सोहम्मे । चेइअ अग्गज्जोओ चोवीसाणकष्पंमि || मंदिरे अग्गिभूई छप्पण्णा उ सणकुमारंमि । सेअवि भारद्दाओ चोआलीसं च माहिदे || महावीर का पूर्वभव : सम्यक्त्वप्राप्ति संसरिअ थावरो रायगिहे चउतीस बंभलोगंमि । छवि परिव्वज्जं भमिओ तत्तो अ संसारे ॥ यहि विस्सनंदी विसाहभूई अ तस्स जुवराया | वरण विस्तभूई विसाहनंदी अ इअरस्स । यहि विभूईवाससहस्सं दिक्खा ॥ ..... महसुक्के उववण्णो तओ चुओ पोअणपुरंमि ॥ पुत्त पयावइस्सा मिआवईदेविकुच्छिसंभूओ । नामेण तिविट्ठत्ती आई आसी दसाराणं ॥ चुलसी ईमप्पइट्ठे सीहो नरएसु तिरियमणुएसु । पिaमित्त चक्कवट्टी मूआइ विदेहि चुलसीई ॥ पुत्तो धणंजयस्सा पुट्टिल परिआउ कोडि सव्वट्ठे । णंदण छत्तग्गाए पणवीसाउं सयसहस्सा ॥ पव्वज्ज पुट्टिले सयसहस्स सव्वत्थ मासभत्तेणं । पुप्फुत्तरि उववण्णो तओ चुओ माहणकुलंमि ॥ ( आवनि ४४०-४५० ) महावीर के सत्ताईस भव- १. बलाहक २. सौधर्म देव ३. मरीचि (ऋषभ - पौत्र ) ४. ब्रह्मलोक में देव | ५. कौशिक ब्राह्मण ( कोल्लाक सन्निवेश ) ६. पुष्यमित्र ब्राह्मण (स्थूणा नगरी ) ७. सौधर्म देव ८. अग्निद्योत ब्राह्मण ( चैत्य सन्निवेश ) ९. ईशान कल्पवासी देव । १०. अग्निभूति ब्राह्मण (मन्दिर सन्निवेश ) ११. सनत्कुमार देव १२. भारद्वाज ब्राह्मण ( श्वेतविका नगरी ) १३. माहेन्द्र देव १४. स्थावर ब्राह्मण (राजगृह ) १५. ब्रह्मकल्प में देव १६. विश्वभूति ( राजगृह) १७. महाशुक्र देव १८. त्रिपृष्ठ वासुदेव ( पोतनपुर ) १९. सातवीं नरक २०. सिंह २१. नरक २२. प्रियमित्र चक्रवर्ती २३. महाशुक्र देव । Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर का परिवार ३२५ तीर्थंकर २४. नन्दन राजा (छत्राग्र नगरी) चौदह स्वप्न २५. प्राणत देव गयवसहसीहअभिसेयदामससिदिणयरं झयं कुंभं । २६. देवानन्दा का पुत्र। पउमसर सागर विमाणभवण रयणुच्चय सिहि च ।। २७. त्रिशला का पुत्र , एए चोद्दस सुमिणे पासइ सा तिसलया सुहपसुत्ता। ३२. महावीर का गर्भ-संहरण जं रयणि साहरिओ कुच्छिसि महायसो वीरो ।। माहणकंडग्गामे कोडालसगृत्तमाहणो अस्थि । (आवभा ५६,५७) तस्स घरे उववण्णो देवाणंदाइ कुच्छिसि ।। महारानी त्रिशला सुखशय्या में सो रही थी। जिस ..."चउदस सुमिणे पासइ सा माहणी सुहपसूत्ता ।... रात्रि को उसकी कुक्षि में महायशस्वी महावीर का अह दिवसे बासीई वसइ तहि माहणीइ कुच्छिसि । प्रक्षेपण हुआ, उस समय उसने चौदह स्वप्न देखेचितइ सोहम्मवई, साहरिउ जे जिणं कालो ।। १. गज ८.ध्व ज अरहंत चक्कवट्टी बलदेवा चेव वासुदेवा य । २. वृषभ ९. कुंभ एए उत्तमपुरिसा न हु तुच्छकुलेसु जायंति ॥ ३. सिंह १०. पद्मसरोवर उग्गकुलभोगखत्तिअकुलेसु इक्खागनायकोरव्वे । ४. अभिषेक ११. सागर हरिवंसे अ विसाले आयंति तहिं पूरिससीहा ।। ५. माला १२. विमान अह भणइ णेगमेसि देविदो एस इत्थ तित्थयरो । ६. चन्द्र १३. रत्नराशि लोगुत्तमो महप्पा उववण्णो माहणकुलंमि ॥ ७. सूर्य १४. अग्नि खत्तिअकुंडग्गामे सिद्धत्थो नाम खत्तिओ अस्थि । तिहि नाणेहि समग्गो देवी तिसलाइ सो अ कुच्छिसि । सिद्धत्थभारिआए साहर तिसलाइ कुच्छिसि ।। अह वसइ सण्णिगब्भो छम्मासे अद्धमासं च ॥ बाद ति भाणिऊण वासारत्तस्स पंचमे पक्खे । (आवमा ५८) साहरइ पुव्वरते हत्थुत्तर तेरसी दिवसे ।। महावीर त्रिशला देवी की कुक्षि में साढे छह महीनों (आवनि ४५७ भा ४७-५३) तक रहे । उस समय वे मति, श्रुत और अवधि-इन महावीर प्राणतकल्प के पुष्पोत्तर विमान से च्यूत तीनों ज्ञानों से सम्पन्न थे। हो ब्राह्मणकुण्डग्राम में कोडाल सगोत्र ब्राह्मण ऋषभदत्त ३३. महावीर का परिवार के घर में देवानन्दा ब्राह्मणी की कुक्षि में उत्पन्न हुए, भगवतो माया चेडगस्स भगिणी। भोयी चेडगस्स उस समय ब्राह्मणी ने गज, वृषभ आदि चौदह स्वप्न धुया । पित्तिज्जए सुपासे । जेठे भाता थदिवद्धणे । भगिणी सुदंसणा। भारिया जसोया कोडिन्नागोत्तेणं । बयासी दिन के बाद सौधर्म देवलोक के इन्द्र ने ध्या कासवीगोत्तेणं । तीसे दो नामधेज्जा-अणोज्जगित्ति हरिनैगमेषी को बुलाकर कहा वा पियदंसणाति वा। णत्तुई कोसीगोत्तेणं । तीसे दो तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलदेव और वासुदेव असार कुलों नामधेज्जा-जसवतीति वा सेसवतीति वा । में उत्पन्न नहीं होते । वे उत्तम पुरुष उग्र, भोग, क्षत्रिय, (आवचू १ पृ २४५) इक्ष्वाकु, ज्ञात, कौरव्य, हरिवंश आदि विशाल कुलों में भगवान महावीर की माता त्रिशला चेटक की बहिन उत्पन्न होते हैं। महावीर अपने पूर्व कर्मों के कारण थी। महावीर की भाभी (नंदीवर्धन की पत्नी) चेटक ब्राह्मण कुल में आये हैं। तुम जाओ और उस गर्भ को क्षत्रियकुंडग्राम के क्षत्रिय सिद्धार्थ की पत्नी त्रिशला के । की पुत्री थी। गर्भ में रख दो। महावीर के चाचा सुपार्श्व, ज्येष्ठ भ्राता नंदीवर्धन, वह देव तत्काल वहां गया। उस दिन आश्विन ज्येष्ठ भगिनी सुदर्शना-ये सभी काश्यपगोत्रीय थे। कृष्णा त्रयोदशी थी। रात्रि के दूसरे प्रहर के अंत में महावीर की पत्नी यशोदा कोडिन्यगोत्रीय थी। महावीर उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में उसने गर्भ का संहरण कर की पुत्री काश्यपगोत्रीय थी। उसके दो नाम थेत्रिशला के गर्भ में रख दिया। अनवद्या, प्रियदर्शना । महावीर की दौहित्री कौशिकगोत्रीय देखे। Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर ३२६ महावीर का साधना काल हुआ। थी। उसके दो नाम थे-शेषवती, यशस्वती। वह कौशांबी नगरी में चन्दनबाला के हाथ से दान लेने तिहिरिक्खंमि पसत्थे महंतसामंतकुलपसूआए । पर पूर्ण हुआ। कारंति पाणिगहणं जसोअवररायकण्णाए । भगवान् ने बारह तेले (तीन दिन का उपवास) (आवमा ७९) किए । प्रत्येक तेले के अंत में एकरात्रिकी भिक्षप्रतिमा प्रशस्त तिथि-नक्षत्र में महान् सामंत कुल में की आराधना की।। प्रसूत राजकन्या यशोदा के साथ महावीर का पाणिग्रहण भगवान् ने २२९ बेले (दो दिन का उपवास) किए। साधनाकाल में भगवान् ने भोजन नित्य नहीं किया और ३४. महावीर की तपस्या न चतुर्थभक्त (एक दिन का उपवास) ही किया । नव किर चाउम्मासे छक्किर दोमासिए उवासीय । साधिक बारह वर्षों की अवधि में भगवान का बारस य मासियाई बावत्तरि अद्धमासाई । न्यूनतम तप बेला था। उनकी सारी तपस्या चौबिहार एग किर छम्मासं दो किर तेमासिए उवासीय । (निर्जल) थी। भगवान् ने साढ़े बारह वर्ष की अवधि में केवल अड्ढाइज्जाइ दुवे दो चेव दिवढमासाई ।। भदं च महाभदं पडिमं तत्तो य सव्वओभई । ३४९ दिन आहार किया। उन्होंने उकडू निषद्या और खड़े-खड़े प्रतिमा करने का सैकड़ों बार प्रयोग दो चत्तारि दसेव य दिवसे ठासीय अणुबद्धं ।। किया। गोयरमभिग्गहजुयं खमणं छम्मासियं च कासीय। ३५. महावीर का साधना काल पंचदिवसेहि ऊण अव्वहिओ वच्छनयरीए ।। दस दो य किर महप्पा ठाइ मुणी एगराइयं पडिमं ।। पांच अभिग्रह अट्ठमभत्तेण जई एक्केक्कं चरमराईयं ।। ___सामी विहरमाणो गतो मोरागं संनिवसं."इमे य दो चेव य छट्टसए अउणातीसे उवासिया भगवं । तेण पंच अभिग्गहा गहिता, तं जहा-अचियत्तोग्गहे ण न कयाइ निच्चभत्तं चउत्थभतं च से आसि ॥ वसितव्वं, निच्चं वोसट्टे काए मोणं च, पाणीसु भोत्तव्वं, बारस वासे अहिए छठें भत्तं जहण्णयं आसि । . ..."गिहत्थी न वंदियव्वो न अब्भुट्ठयव्वोत्ति ।। सव्वं च तवोकम्मं अपाणयं आसि वीरस्स ।। (आव १ पृ २७१,२७२) महावीर की साधना का प्रथम वर्ष । मोराक सन्नितिणि सए दिवसाणं अउणावण्णं तु पारणाकालो। वेश में महावीर ने पांच अभिग्रह धारण कियेउक्कूडयनिसेज्जाणं ठियपडिमाणं सए बहुए। १. मैं अप्रीतिकर स्थान में नहीं रहूंगा। (आवनि ५२८-५३५) २. शरीर की सार-संभाल नहीं करूंगा। भगवान ने नौ बार चार मास का उपवास किया । ३. मौन रहूंगा। छह बार दो मास का उपवास किया। बारह बार एक मास ४. हाथ में भोजन करूंगा । का उपवास किया। बहत्तर बार पन्द्रह दिन का उपवास ५. गृहस्थ का अभिवादन और अभ्युत्थान नहीं किया। करूंगा। एक बार छह मास का उपवास किया। दो बार शूलपाणियक्षकृत उपसर्ग तीन मास का उपवास किया। दो बार ढाई मास का अद्वितगामे वाणमंतरघरे । जो रत्ति परिवसति तत्थ उपवास किया । दो बार डेढ़ मास का उपवास किया। मो नपाणी मनिहितो रति वाहेत्ता पच्छा भद्र प्रतिमा (दो दिन की), महाभद्र प्रतिमा मारेति, ताहे तत्थ लोगो दिवसं अच्छिऊणं पच्छा विगाले (चार दिन की), सर्वतोभद्र प्रतिमा (दस दिन की) एक- अन्नत्थ वच्चति.."सामी आगतो दूइज्जतगाण पासातो." एक बार की। भणंति-वाह, तत्थेक्केक्का वसहिं देंति, सामी णेच्छति, एक बार भगवान् ने आहार प्राप्ति के लिए अभिग्रह भगवं जाणति--सो संबुझिहितित्ति, ताहे गंता एगकोणे किया । वह अभिग्रह पांच मास और पच्चीस दिन तक पडिमं ठितो। (आवचू १ पृ २७३) पूरा नहीं हुआ । भगवान् विचलित नहीं हए। आखिर महावीर की साधना का प्रथम वर्ष । अस्थिकग्राम। Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर के महास्वप्न ३२७ तीर्थकर वहां एक व्यंतरगह में शूलपाणि यक्ष रहता था। जो जो तालपिसायो हतो तमचिरेण मोहणिज्जं उम्मलेकोई रात्रि में वहां प्रवास करता, उसे पहले वह कष्ट हिसि ।""दामदुगं पुण ण जाणामि । सामी भणतिदेता और फिर मार देता। इसलिए उधर आने वाले हे उप्पला! जंणं तुमं न याणसि तं णं अहं दुविहमराहगीर दिन में वहां ठहरकर संध्या के समय अन्यत्र गाराणगारियं धम्म पन्नवेहामि । चले जाते । भगवान् महावीर ग्रामानुग्राम विहरण करते (आवचू १२७४,२७५) हुए वहां आए। शूलपाणि के द्वारा भगवान् को कुछ न्यून चार प्रहर महावीर ने व्यंतरगृह में रहने की अनुमति मांगी। तक अतीव परिताप दिया गया । फलतः प्रभातकाल में लोगों ने कहा --- आप यहां रह नहीं सकेंगे । हमारी बस्ती भगवान को मुहर्त मात्र नींद आ गई। निद्राकाल में में आप ठहरें । महावीर ने इसे अस्वीकार कर दिया। महावीर ने दस स्वप्न देखे और जाग गए । महानमित्तिक क्योंकि वे जानते थे कि वहां रहने से यक्ष को संबोध उत्पल ने महावीर की वन्दना की और बोलाप्राप्त होगा। अत: व्यंतरगृह में रहने की अनुमति प्राप्त स्वामिन ! आपने रात्रि के अन्तिम प्रहर में दस स्वप्न कर महावीर उसमें गए और एक कोने में ध्यानप्रतिमा देखे, उनका फलादेश इस प्रकार हैमे स्थित हो गए। १. तालपिशाच-आपने तालपिशाच को पराजित भीमद्रहास हत्थी पिसाय नागे य वेदणा सत्त । होते हुए देखा। उसके फलस्वरूप आप शीघ्र ही सिरकण्णनासदन्ते नहऽच्छी पट्ठीय सत्तमिआ ॥ मोहनीय कर्म का उन्मूलन करेंगे। (आवमा ११२) २. श्वेत पुंस्कोकिल-आपने श्वेत पंख वाले पुंस्कोसन्ध्या को भयंकर अट्टहास करता हुआ यक्ष महावीर किल को देखा। उसके फलस्वरूप आप शुक्लको भयभीत करने लगा। अट्टहास से जब महावीर भय ध्यान को प्राप्त होंगे। भीत नहीं हुए तब वह हाथी का रूप बनाकर उपसर्ग ३. विचित्र पुंस्कोकिल-आपने चित्र विचित्र पंख करने लगा। उससे भी भयभीत नहीं हुए तब उसने वाले स्कोकिल को देखा । उसके फलस्वरूप आप पिशाच का रूप बनाया। इतना करने पर भी जब वह द्वादशांगी की प्ररूपणा करेंगे। महावीर को क्षुब्ध न कर सका तो उसने प्रभात काल में ४. दामद्विक-उत्पल ने कहा- आपने स्वप्न में सात प्रकार की वेदना-सिर, कान, आंख, दांत, नख, जो दो मालाएं देखी हैं, उनका फल मैं नहीं जानता। महावीर ने कहा--उत्पल ! जिसे तुम नाक और पीठ में उत्पन्न की। साधारण व्यक्ति के लिए नहीं जानते हो, वह यह है-मैं दो प्रकार के एक-एक वेदना भी प्राणलेवा थी। किन्तु भगवान् उन धर्म--अगारधर्म और अनगारधर्म का प्ररूपण सबको सहते रहे। आखिर प्रभु को विचलित करने में करूंगा। स्वयं को असमर्थ पा यक्ष महावीर के चरणों में गिर कर ५. गोवर्ग-आपने श्वेत गोवर्ग देखा है। उसके बोला-पूज्य ! मुझे क्षमा करें। फलस्वरूप आपके चतुर्वर्णात्मक श्रमणसंघ होगा । महावीर के महास्वप्न ६. पद्मसरोवर-आपने चहुंओर से कुसुमित तालपिसायं दो कोइला य दाम दूगमेव गोवग्गं । विशाल पद्मसरोवर देखा है। उसके फलस्वरूप सर सागर सूरते मन्दर सुविणुप्पले चेव ।। आपकी परिषद् में चतुर्विध देवों का समवाय मोहे य झाण पवयण धम्मे संघे य देवलोए य । होगा अथवा आप चतुर्विध देवों की प्ररूपणा संसारं णाण जसे धम्म परिसाए मझमि ।। करेंगे। (आवभा ११३,११४) ७. महासागर-आपने भुजाओं से महासागर को सामी य देसूणचत्तारि जामे अतीव परितावितो तैरते हुए आपने आपको देखा । उसके फलस्वरूप समाणो पभायकाले मुहुत्तमेत्तं निद्दापमादं गतो। तत्थिमे आप संसारसमुद्र का पार पाएंगे। दस महासुमिणे पासित्ताणं पडिबुद्धो ।"उप्पलो वि ८. सूर्य-आपने तेज से जाज्वल्यमान सूर्य को देखा सामि दट्टुं पहट्ठो वंदति, ताहे भणति-सामी ! तुब्भेहि है। उसके फलस्वरूप आपको शीघ्र ही केवलज्ञान अंतिमरातीए दस सुमिणा दिट्ठा, तेसिं इमं फलंति - उत्पन्न होगा। Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर ९. अन्त्र -- आपने अपनी आंतों से मानुषोत्तर पर्वत को वेष्टित देखा । उसके फलस्वरूप सम्पूर्ण त्रिभुवन में आपका निर्मल यश, कीर्ति और प्रताप फैलेगा। १०. मन्दरगिरि – आपने अपने को मंदराचल पर आरूढ़ देखा है । उसके फलस्वरूप आप सिंहासनस्थ होकर देव, मनुष्य और असुर परिषद् के बीच धर्म का आख्यान करेंगे । ३२८ विशिष्ट अवधिज्ञान ताइता । ततो सामी सालीसीसयं णाम गामो तहिं गतो । तत्थ उज्जाणे पडिमं ठितो । माहमासो य वट्टति । तत्थ कडपूयणा वाणमंतरी''सा य किल तिविट्ठेकाले अंतेपुरिया आसि । ण य तदा पडियरियत्ति पदोसं वहति । तं दिव्वं वेणं अहियासंतस्स भगवतो ओही विगसिओ । सव्वं लोगं पासितुमारद्धो । सेसं कालं गब्भातो आढवेत्ता जाव सालिसीस ताव सुरलोगप्पमाणो ओही एक्कारस य अंगा सुरलोग पमाणमेत्ता, जावतियं देवलोगेसु पेच्छि( आवचू १ पृ २९२,२९३) साधना का छठा वर्ष । महावीर शालिशीर्ष ग्राम में गए । उद्यान में प्रतिमा में स्थित हो गए । माघ का महीना था। कटपूतना नाम की बाणमंतरी वहां आई । ....त्रिपृष्ठ वासुदेव के भव में वह उनके अंतःपुर की एक रानी थी । उस समय सम्यक् प्रकार से परिचर्या न होने के कारण वह त्रिपृष्ठ के प्रति द्वेष से भर गई । कटपूतना द्वारा दी गई वेदना महावीर सहन कर रहे थे। ऐसा करते-करते महावीर का अवधिज्ञान अधिक विकसित हो गया । उससे वे सम्पूर्ण लोक को देखने लगे। इससे पूर्व गर्भकाल से लेकर जब वे शालिशीर्ष ग्राम में पहुंचे तब तक उनका अवधिज्ञान देवलोक तक जान सके उतना ही था । उनके शरीर के ग्यारह अंग (करण अथवा चैतन्यकेन्द्र ) अतीन्द्रियज्ञान के साधन थे । उनसे वे देवलोक तक के पदार्थों का ज्ञान कर लेते थे । महावीर की प्रतिमा साधना तो साट्ठितं णाम गामं गतो, तत्थ भद्दं पडिमं ठाति । केरिसिया भद्दा ? पुव्वाहुत्तो दिवस अच्छति, पच्छा रत्ति दाहिणहुत्तो अवरेण दिवस उत्तरेण रति, एवं छट्ठेण भत्तेण णिट्ठिता । तहवि ण चेव पारेति, अपारितो चेव महाभद्दं ठाति सा पुण पुव्वाए दिसाए अहोरत्तं एवं संगमकृत उपसर्ग सुविचत्तारि अहोरत्ता, एवं दसमेण णिट्ठिता । ताहे अपारितो चेव सव्वतोभद्दं पडिमं ठाति सा पुण सव्वतो - भद्दा इंदाए अहोरत्तं पच्छा अग्गेयाए एवं दससुवि दिसासु सव्वासु, विमलाए जाई उड्ढलोतियाणि दव्वाणि ताणि भाति, तमाए हिट्टिल्लाई । ( आवचू १ पृ ३०० ) श्रावस्ती में दसवां चातुर्मास पूर्ण कर महावीर सानुलष्टि ग्राम में गए। वहां भद्र प्रतिमा की । भद्र प्रतिमा का स्वरूप- दिन में पूर्व की ओर खड़े रहकर ध्यान करते, रात को दक्षिण दिशा की ओर खड़े रहकर ध्यान करते । दूसरे दिन पश्चिम दिशा की ओर खड़े रहकर ध्यान करते और रात्रि में उत्तर दिशा की ओर खड़े रहकर ध्यान करते में दो दिन और दो रात का ध्यान । इस प्रकार भद्र प्रतिमा तथा बेले की तपस्या की । उसे संपन्न करने से पूर्व ही महावीर महाभद्र प्रतिमा में स्थित हो गए । महाभद्र प्रतिमा में चार दिन-रात का ध्यान और चौले ( चार दिन का उपवास) की तपस्या की । महाभद्र प्रतिमा को पूर्ण करने से पूर्व ही महावीर सर्वतोभद्र प्रतिमा में स्थित हो गए। सर्वतोभद्र प्रतिमा में दस दिन-रात का ध्यान और दस दिन की तपस्या महावीर विमला (ऊर्ध्व दिशा) में ध्यान करते तब ऊर्ध्व लोकवर्ती द्रव्यों का ध्यान करते । तमा-अधोदिशा में ध्यान करते तो अधोलोकवर्ती द्रव्यों का ध्यान करते । संगमकृत उपसर्ग सोहम्मकप्पवासी देवो सक्कस्स सो अमरिसेणं । सामाणि संगमओ बेइ सुरिदं पडिनिविट्ठो ॥ तेलोक्कं असमत्थति बेह एतस्स चालणं काउं । अज्जेव पासह इमं मम वसगं भट्टजोगतवं ॥ अह आगओ तुरंतो देवो सक्क्स्स सो अमरिसेणं । कासी य ह उवसग्गं मिच्छद्दिट्ठी पडिनिविट्ठो ॥ धूली पिवीलिआओ उद्दंसा चैव तहय उण्होला । विछु नउला सप्पाय मूसगा चेव अट्ठमगा ॥ हत्थी हत्थीणिआओ पिसायए घोररूव वग्धो य । थेरो थेरीइ सुओ आगच्छइ पक्कणो य तहा || खरवाय कलंकलिया कालचक्कं तहेव य । पाभाइ उवसग्गे वीसइमो होइ अणुलोमो | Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगमकृत उपसग ३२९ तीर्थकर ९९९ सामाणिअदेवढि देवो दावेइ सो विमाणगओ। चहों का निर्माण किया । वे अपनी तीक्ष्ण दाढ़ों से भणइ य वरेह महरिसि ! निप्फत्ती सग्गमोक्खाणं ॥ महावीर को काटते। मांस निकाल देते और शरीर पर उवहयमइविण्णाणो ताहे वीरं बहुप्पसाहेउं । मल-मूत्र विसर्जित कर देते । महावीर को इससे अतूल ओहीए निझाइ झायइ छज्जीवहियमेव ॥ वेदना हुई। (आवनि ४९९-५०६) हाथी का निर्माण किया। हाथी ने सूंड में पकड़कर सौधर्मकल्प सभा में संगम नाम का एक सामानिक महावीर को आकाश में सात-आठ तल ऊपर उछाला । देवता था। वह अभव्य था। उसने कहा- देवराज इन्द्र दंतमूसल से पकड़ा और फिर भूमि पर गिराया । पहाड़ने जो यह कहा कि महावीर को कोई विचलित नहीं कर से भारी-भरकम पांवों से रौंदा। सकता, वे रागवश ऐसा कथन कर रहे हैं। ऐसा कौन हथिनी का रूप बनाया। हथिनी ने सुंड और दांतों मनुष्य है जिसे देवता विचलित न कर सके । मैं उसे आज से महावीर को बींधा, चीरा, मूत्र विजित किया और ही विचलित कर दूंगा। उस मूत्रकीचड़ में पांवों से रौंदा। इन्द्र ने सोचा--- मैं अगर रोदूंगा तो उसका अर्थ पिशाच का रूप बनाया। उपसर्ग करने लगा । हागा, महावार दूसरा क सहार तपस्या कर रहा है। व्याघ्र का रूप बनाया। दाढ़ों और नखों से महावीर को इन्द्र मौन रहा । संगम महावीर के पास आया। उनकी विदारित करने लगा और फिर क्षारयुक्त मूत्र विसर्जित साधना का ग्यारहवां वर्ष चल रहा था । कर दिया। संगम ने सर्वप्रथम वज्रधलि की वर्षा की। आंख, अपने लक्ष्य में सफल न होने पर उसने राजा कान आदि सब इन्द्रियस्रोत धुल से भर गए। श्वास सिद्धार्थ का रूप बनाया और हृदयविदारक रुदन करने लेना भी कठिन हो गया। पर महावीर अपने ध्यान से लगा-पुत्र ! आओ ! हमारा रुदन सुनो। हमें मत तिलतुषभाग मात्र भी विचलित नहीं हुए। छोड़ो। जब वह थक गया तो उस माया को समेट चींटियों फिर त्रिशला का रूप बनाकर निवेदन किया। का निर्माण किया। वे वज्रमुखी थीं। वे शरीर के चारों रसोइए का रूप बनाया। शिविर की रचना की। ओर चढ़कर महावीर को खाने लगीं। वे शरीर के महावीर के चारों ओर अपना आवास बना लिया। एक स्रोत से प्रविष्ट हो, दूसरे स्रोत से बाहर आतीं। रसोइए को खाना बनाने के लिए इधर-उधर पत्थर उन्होंने महावीर के शरीर को चलनी बना दिया। पर नहीं मिला तो उसने महावीर के दोनों पैरों के मध्य महावीर विचलित नहीं हुए। तीव्र अग्नि जलाई । उस पर पात्र रखकर भोजन पकाने खटमल का निर्माण किया । वे वज्रमुखी थे। वे एक लगा। ही प्रहार में शरीर से खून निकाल देते। चंडाल का रूप बनाया। महावीर की भुजाओं, गले महावीर विचलित नहीं हुए। उसने तिलचट्टों का एवं कानों में पक्षियों के पिंजरे लटका दिए। पक्षी चोंचों से महावीर के शरीर को काटते, बींधते और वहीं मललगाते । मूत्र विसर्जित कर देते । जैसे-जैसे उपसर्ग होते, महावीर वैसे-वैसे ध्यान में प्रचंडवात का निर्माण किया। ऐसी प्रचंडवात जो और अधिक आत्मलीन होते। उन्होंने चिंतन किया- मेरु पर्वत को हिला सके। पर महावीर विचलित नहीं यह सब तुमने ही किया है । शुद्ध आत्मा के लिए कोई दंड हुए तो उन्हें उठा-उठाकर नीचे गिराया। नहीं होता। चक्राकार हवा चलाई। उसमें महावीर का शरीर संगम ने बिच्छओं का निर्माण किया। वे डंक लगाने बेंत की तरह कंपित होने लगा। लगे। कालचक्र का निर्माण कर संगम आकाश में स्थित नेवलों का निर्माण किया । वे तीक्ष्ण दाढ़ों से महावीर हआ और सोचा--यह चक्र मेरु पर्वत को भी चूर-चूर को काटते और मांस के टुकड़े ले जाते । कर सकता है। मैं इस चक्र को महावीर पर फेंकू । विषैले और क्रोधी सर्मों का निर्माण किया। वे उग्र- कालचक्र के प्रहार से महावीर हाथों के नख तक भूमि में विष थे। शरीर में दाहज्वर पैदा करने वाले थे। धंस गए। Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर संगमकृत उपसर्ग इन उपायों से महावीर को मारा नहीं जा सकता, लोगों ने बाल-साधु को पकड़ा और पूछा-तुम यहां यह सोच संगम अनुकूल उपसर्ग करने लगा। उसने क्या खोज रहे हो ? सामानिक देवता की ऋद्धि दिखाई और देवविमान में वह बोला-मेरे धर्माचार्य के पैरों में रात को कांटा स्थित होकर बोला--महषि ! आपकी तपस्या सिद्ध न लग जाए क्योंकि वे रात को सेंध लगाने के लिए आते हो गई है। आप स्वर्ग और मोक्ष की ऋद्धि का वरण हैं। करें। लोगों ने पूछा-कहां हैं तुम्हारे धर्माचार्य ? उसने प्रभात का निर्माण किया। सब लोग इधर-उधर बताया। लोग गए । महावीर को देखा। चारों ओर रखे घूमने लगे। उसने महावीर को संबोधित कर कहा शस्त्र देखे । महावीर को बंदी बनाया, ग्रामाधिपति के अब तक आप यहीं ठहरे हुए हैं। महावीर काल को पास लाए और फांसी के फंदे पर चढ़ाया। जानते थे। उन्होंने जान लिया कि यह प्रभात स्वा एक ओर से फंदे की रस्सी टूट गई। इस प्रकार भाविक नहीं, कृत्रिम है । यह संगम कृत बीसवां उपसर्ग सात बार फंदा बांधा और हर बार फंदे की रस्सी एक था। जब संगम महावीर को विचलित न कर सका तो सिरे से टूट गई। लौट गया और सोचा कल फिर उपसर्ग करूंगा। लोगों ने यह बात तोसलि ग्राम के अधिपति क्षत्रिय दूसरे दिन संगम पुनः उपसर्ग करने लगा। प्रभात से कही। होने पर महावीर बालुका ग्राम की ओर गए। संगम ग्राम के अधिपति ने कहा-छोड़ो इसे । यह निर्दोष ने ५०० चोरों का निर्माण कर महावीर को उपसर्ग है। दिए। महावीर सिद्धार्थपुर ग्राम में गए। वहां भी संगम ने महावीर बालुका ग्राम में गए। वहां भिक्षा के लिए उपसर्ग किया। घूमने लगे। महावीर व्रजग्राम के गोकूल में गए। उस दिन गांव बालूका ग्राम से सुभूम गए। इन सभी ग्रामों में में उत्सव था। सब घरों में खीर बनाई गई थी। संगम ने उपसर्ग किए। संगम देव को उपसर्ग करते हए लम्बा समय हो गया । सुभूम से महावीर सुक्षेत्र ग्राम में गए। जब वे महावीर ने सोचा-छह महीने बीत गए हैं। वह भिक्षा के लिए गए तो संगम बहुरूपिए का रूप बना कहीं चला नहीं गया है। उसी समय संगम आया और जोर-जोर से हंसने और गाने लगा। अशिष्ट भाषा उसने भोजन को अनेषणीय बना दिया। बोलने लगा । पीटने लगा। महावीर ने अपने ज्ञानबल से देखा और भिक्षा किए महावीर मलय ग्राम में गए। संगम ने पिशाच का बिना ही लौट आए, प्रतिमा में स्थित हो गए। रूप बना उपसर्ग किए। ____ संगम ने अपने अवधिज्ञान से देखा कि महावीर के महावीर हस्तिशीर्ष ग्राम में गए। वहां भिक्षा के परिणाम कुछ भग्न हुए हैं या नहीं? समय संगम ने उपसर्ग किए। महावीर के परिणाम उतने ही विशुद्ध थे, जितने महावीर तोसलि गए और ग्राम के बाहर प्रतिमा में छह मास पूर्व । वे छह जीवनिकाय के सभी जीवों का स्थित हो गए। संगम ने बाल साधु का रूप बना यहां । भी उपसर्ग किया। हितचिंतन कर रहे थे। ___ महावीर मोसलि गए। वहां भी बाल साधु का रूप संगम यह देख अपने कार्य से निवृत्त हुआ। वह बना उपसर्ग किया। महावीर को विचलित करने में समर्थ नहीं हआ। उसने महावीर पुनः तोसलि आए। ग्राम के बाहर प्रतिमा सोचा-जो महावीर छह माह तक उपसर्ग करने पर भी में स्थित हो गए। संगम ने बालसाधु का रूप बनाया। विचलित नहीं हुए, उन्हें दीर्घकाल में भी विचलित नहीं गांव के घरों में सेंध लगाई। इधर-उधर देखा और किया जा सकता। सेंध लगाने के उपकरण महावीर के पास लाकर रख संगम महावीर के पैरों में गिरा और बोलादिए। वह सत्य है, वह सत्य है। इन्द्र ने जो कहा, वह सत्य Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कैवल्य प्राप्ति तीर्थंकर है। भंते ! मैंने जो कुछ किया, उस सबके लिए क्षमा- गुणस्थान की स्थिति अन्तर्मुहुर्त होने से अनेक बार याचना करता हूं। प्रमाद की स्थिति प्राप्त होती है। अप्रमत्तसंयत का भगवन् ! मैं भग्नप्रतिज्ञ हूं, आप यथार्थप्रतिज्ञ हैं। अन्तर्मुहूर्त असंख्येय प्रकार का है। प्रमाद की स्थिति आप पधारें और पारणा करें। भगवन ! मैं अब उपसर्ग वाला अन्तर्महत सूक्ष्म होता है, किन्तु पूरे प्रमादकाल नहीं करूंगा। का संकलन करने पर बृहत्तर अन्तर्महर्त हो जाता है। महावीर ने कहा-हे संगम ! मैं किसी के वक्तव्य एक मान्यता के अनुसार इसे निद्राप्रमाद कहा गया है। की अपेक्षा नहीं रखता। मैं अपनी इच्छा से ही आता हूँ जयपारित और अपनी इच्छा से ही जाता हूं। दूसरे दिन महावीर गांव में भिक्षा के लिए गए। ताहे सामी जंभियगाम णाम णगरं गतो, तस्स एक वृद्धा ग्वालिन ने बासी खीर का दान दिया। पांच बहिया वियावत्तस्स चेतियस्स अदूरसामंते"उज्जुयालि याए णदीए तीरंमि उत्तरिल्ले कूले सामागस्स गाहादिव्य प्रकट हुए। उस दिन सौधर्म देवलोक के सभी देव उदविग्न से वतिस्स कट्ठकरणंसि सालपादवस अहो उक्कुडुयणिबैठे थे। संगम सौधर्म देवलोक में गया। सेज्जाए गोदोहियाए आतावणाए आतावेमाणस्स छठेणं उसे देख शक्र पराङ मुख हो देवों से बोला- हे भत्तेणं अपाणएणं अणुत्तरेणं णाणणं अणुत्तरेणं दंसणेणं अणुत्तरेणं चरित्तेणं ""अप्पाणं भावेमाणस्स दुवालसहिं देवो ! सुनो, यह दुरात्मा है। इसने न तो मेरी और न दूसरे देवों के चित्त की अनुपालना की है। यह तीर्थंकर संवच्छरेहिं वितिक्तेहिं तेरसमस्स संवच्छरस्स अंतरा का प्रत्यनीक है । यह हमारे किसी काम का वट्टमाणस्स वइसाहसुद्धदसमीए पादीणगामिणीए छायाए नहीं है । यह बातचीत करने योग्य भी नहीं है। इसे अभिनिव्वट्टाए पोरुसीए पमाणपत्ताए सुव्वएणं दिवसेणं देवलोक से निष्कासित कर दो। विजएणं मुहुत्तेणं हत्थुत्तराहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागतेणं इन्द्र ने संगम को पैर से लताड़ कर निकाल दिया। झाणंतरियाए वट्टमाणस्स एकत्तवितकं बोलीणस्स सुहम किरियं अणियट्रिमपत्तस्स अणंते अणुत्तरे निव्वाधाए महावीर का प्रमादकाल निरावरणे कसिणे पडिपुण्णे केवलवरनाणदंसणे समुप्पन्ने। बारसवासे अहिए तवं चरंतस्स वद्धमाणस्स । (आवचू १ पृ ३२२,३२३) जो किर पमायकालो अंतमहत्तं तु संकलिअं। ..."ऋषभनाम्नो भगवत आचरतो यः"प्रमादकालः ___ जुभिकग्राम के बाहर, व्यावृत्त चैत्य । ऋजुबालिका .."अप्रमादगुणस्थानस्यान्तौहूतिकत्वेनानेकशोऽपि प्रमाद नदी का उत्तरी तट। श्यामाक गृहपति का खेत । शालप्राप्तौ तदवस्थितिविषयभूतस्यान्तर्महतस्यासंख्येयभेदत्वा- वृक्ष के नीचे । महावीर पहले उत्कटुक आसन में बैठे, तेषामतिसूक्ष्मतया सर्वकालसंकलनायामप्यहोरात्रमेवा- फिर गोदोहिका मुद्रा में आतापन । दो दिन का निर्जल भूत् ।""वर्द्धमानस्य यः किल प्रमादकालः इहाप्यन्तर- उपवास । मुहर्तानामसंख्येयभेदत्वात्प्रमादस्थिति-विषयान्तर्मुहूर्तानां अनुत्तर ज्ञान, दर्शन, चारित्र से अपने आपको सूक्ष्मत्वं, संकलनान्तर्मुहूर्तस्य च बृहत्तरत्वमिति भाव- भवित करते हुए बारह वर्ष बीत गए । तेरहवां वर्ष चल नीयम्। अन्ये त्वेतदनुपपत्तिभीत्या निद्राप्रमाद एवायं रहा था । वैशाख मास का शुक्ल पक्ष । दसवीं तिथि । विवक्षित इति व्याचक्षते । (उनि ५२४ शाव प ६२०) पूर्वगामिनी छाया । चतुर्थ प्रहर। सुव्रत दिवस । विजय भगवान् ऋषभ का संकलनात्मक प्रमादकाल एक मुहूर्त । उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र का योग । ध्यानकोष्ठक अहोरात्र का है। भगवान महावीर ने बारह वर्ष तेरह में प्रविष्ट । शुक्ल ध्यान की अंतरिका में वर्तमानपक्ष तक तपःसाधना की । इस कालखंड में उनके प्रमाद- एकत्ववितर्क अविचार (शुक्ल ध्यान का दूसरा भेद) के पूर्ण काल को संकलित किया जाये तो वह अन्तर्मुहर्त्त का होने पर, सूक्ष्मक्रियाअनिवृत्ति शुक्ल ध्यान की प्राप्ति से पूर्व होता है। अनन्त, अनुत्तर, निहित, निरावरण, कृत्स्न, प्रतिपूर्ण तीर्थकर अप्रमत्त होते हैं, किंतु अप्रमत्तसंयत केवलज्ञान और केवलदर्शन उत्पन्न हुआ। For Private & Personal use only Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर की देशना ३३२ तीर्थंकर सिद्ध ३७. महावीर को देशना सात कमल और दो परों के नीचे दो कमल-इस प्रकार उप्पण्णंमि अणते नटुंमि य छाउमथिए नाणे । नौ कमल विकूवित थे । भगवान् मध्यमा पावा के महाराईए संपत्तो महसेणवणंमि उज्जाणे ।। सेनवन उद्यान में पहुंचे । देवताओं ने वहां समवसरण की ..."बीयंपि समोसरणं पावाए मज्झिमाए उ ।। की रचना की और सूर्योदय के समय तीर्थंकर की स्तुतिजाहे सामिस्स केवलनाणं उप्पन्नं ताहे इंदादीया देवा पूजा की। यह दूसरा समवसरण था। पहला समवसरण सविड्ढीए हट्ठतुट्ठा णाणुप्पादमहिमं करेंति । तत्थ भगवं केवलज्ञान की प्राप्ति के समय किया था। इस दूसरे जाणति-णत्थि एत्थ पव्वयंततो, जत्थ नत्थि पव्वयंततो समवसरण में इन्द्रभूति आदि ग्यारह वेदविद् दीक्षित हुए, चार तीर्थ की स्थापना हुई। तत्थ ण पवत्तिज्जति । ततो य बारसेहिं जोयणे हिं मज्झिमा नाम नगरी, तत्थ सोमिलज्जो नाम माहणो, ३८. महावीर की शिष्य संपदा सो जन्नं जयइ, तत्थ य एक्का रस अज्झावगा आगता समणस्स णं भगवतो महावीरस्स इंदभूतिपामोभवियरासी य । ताहे सामी तत्थ मूहत्तं अच्छति जाव क्खाओ चोद्दससमणसाहस्सीओ, अज्जाचंदणापामोक्खाओ देवा पूर्व करेंति । एस केवलकप्पो किर जं उप्पन्ने नाणे छत्तीसं अज्जियासाहस्सीओ, संखसतगपामोक्खाणं समणोमुहत्तमेत्तं अच्छियव्वं, ताहे सामी रत्तीय तं वच्चति । वासगाणं एगा सयसाहस्सी अउटुिं च सहस्सा, सुलसारेतत्थ वच्चंतो असंखेज्जाहिं देवकोडीहिं परिवूडो देवुज्जो वतिपामोक्खाणं समणोवासियाणं तिन्नि सयसाहस्सीओ एण सम्बो पंथो उज्जोवितो जथा दिवसो। जत्थ भगवतो अट्ठारस य सहस्सा, तिन्नि सया चोद्दसपुव्वीणं, तेरस सया ओहिन्नाणीणं, सत्त सया केवलनाणीण, सत्त सया वेउव्वीणं, पादा तत्थ देवा सत्त पउमाणि सहस्सपत्ताणि णवणीत पंच सया विउलमतीणं, चत्तारि सया वादीणं, असया फासाणि विउव्वंति। मग्गतो तिन्नि, पुरओ तिन्नि, अणुत्तरोववाइयाणं। (आवचू १ पृ१५९, १६०) एग पायणिक्कमे। एगे भणंति""मग्गतो सत्त, दो इन्द्रभूति आदि १४००० श्रमण। पादेसु, एवं नव । एवं जाव मज्झिमाए णगरीए महसेण चन्दनबाला आदि ३६००० श्रमणियां । वणं उज्जाणं संपत्तो। तत्थ देवा बितियं समौसरणं शंख, शतक आदि १५९००० श्रमणोपासक । करेंति महिमं च सूरुग्गमणे । एगं जत्थ नाणं, बितियं सुलसा, रेवती आदि ३१८००० श्रमणोपासिकाएं । इमं चेव । (आवनि ५३९,५४० चू १पृ ३२४) चौदहपूर्वी ३०० महावीर की छमस्थ अवस्था का अंत । केवलज्ञान अवधिज्ञानी १३०० की प्राप्ति । देव-देवेन्द्रों द्वारा ज्ञान-उत्पाद-महोत्सव । केवलज्ञानी ७०० भगवान् ने जान लिया कि यहां कोई प्रव्रजित होने वाला वैक्रियलब्धिधर ७०० नहीं है। जहां ऐसी स्थिति हो, वहां प्रवचन नहीं करना मनःपर्यवज्ञानी ५०० चाहिये। यहां ( भिकग्राम) से बारह योजन दूर वादी ४०० मध्यमा नगरी है, जहां सोमिल ब्राह्मण यज्ञ कर रहा है। अनुत्तर विमान में उत्पन्न ८०० उस यज्ञ में ग्यारह भवसिद्धिक अध्यापक ब्राह्मण आये हुए ३९. एक साथ कितने तीर्थकर? हैं । अतः मुझे वहां जाना है-यह सोच महावीर मुहूत्ते- पंच भरहाणि पंच एरवयाणि पंच महाविदेहाणि भर वहां ठहरे, किञ्चित् देशना दी। देवों ने अर्चा की। नोमानी तत्थ उक्कोसपदेणं सत्तरं तीर्थकरसतं, जहण्णपदेणं वीस जहां कैवल्य उत्पन्न हो, वहां मुहूर्तभर ठहरना केवली का तीर्थकरा। एते ताव एगकाले भवंति। अतीताणागता आचार है। रात्रि में ही महावीर वहां से चल पड़े। अणंता तित्थ करे । (आवचू २ पृ २५८) संख्यातीत देवों ने मार्ग को दिवस की भांति प्रकाश से पांच भरत. पांच ऐरवत और पांच महाविदेहभर दिया । अर्हत् ने जहां चरणन्यास किया वहां देवों इन पन्द्रह क्षेत्रों में एक साथ उत्कृष्ट एक सौ सत्तर तथा ने पूरे मार्ग में नवनीत से कोमल स्पर्श वाले सात-सात जघन्य बीस तीर्थकर हो सकते हैं। अतीत और अनागत कमलों की रचना की । पार्श्व में तीन कमल, आगे तीन के तीर्थंकर अनंत हैं। कमल और पादक्षेप पर एक-इस प्रकार सात कमल तीर्थंकर सिद्ध-तीर्थंकर होकर मुक्त होने वाले। पूरे मार्ग में विकुर्वित थे। कुछ मानते हैं कि पावं में (द्र. सिद्ध) Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेजस् और वायु त्रस क्यों ? तीर्थसिद्ध - अर्हत् के द्वारा तीर्थ को स्थापना के पश्चात् मुक्त होने वाले । ( द्र. सिद्ध) तेजस्काय- -छह जीवनिकाय का तीसरा भेद । ( द्र. जीवनिकाय) तेजोलेश्या - प्रशस्त भावधारा तथा उसकी उत्पत्ति में हेतुभूत रक्त वर्ण वाले पुद्गल । ( द्र. लेश्या ) तेजस शरीर तेजोमय परमाणुओं शरीर । त्रस - सुख की प्रवृत्ति और दुःख की लिए गति करने वाले प्राणी । १. स का निर्वाचन, परिभाषा * त्रस : छह जीवनिकाय का एक भेव २. स के प्रकार तेजस्काय, वायुकाय, उदारत्रस ३. तेजस् और वायु त्रस क्यों ? ४. उदार त्रस के प्रकार ० द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय ५. द्वीन्द्रिय त्रस के प्रकार • आयुस्थिति काय स्थिति- अंतरकाल ६. त्रीन्द्रिय स के प्रकार ७. चतुरिन्द्रिय स के प्रकार O आयुस्थिति काय स्थिति - अंतरकाल ८. पंचेन्द्रिय श्रस के प्रकार ९. अंडज आदि त्रस (द्र. जीवनिकाय) आयुस्थिति काय स्थिति- अंतरकाल त्रसाः । से निष्पन्न ( द्र. शरीर ) निवृत्ति के १. स का निर्वाचन, परिभाषा त्रस्यन्ति तापाद्युपतप्तौ छायादिकं प्रत्यभिसर्पन्तीति त्रसाः — द्वीन्द्रियादयः । ( उशावृप २४४ ) ताप आदि से संतप्त होने पर जो छाया आदि की ओर गतिशील होते हैं, वे त्रस ( द्वीन्द्रिय आदि जीव ) हैं । त्रस्यन्ति – चलन्ति देशाद्देशान्तरं संक्रामन्तीति ( उशावृ प ६९३ ) ३३३ एक स्थान से दूसरे स्थान में स्वयं गमन करने वाले जीव त्रस कहलाते हैं । त्रस ..... जेसि केसिंचि पाणाणं अभिक्कतं पडिक्कतं संकुचियं पसारियं रुयं भंतं तसियं पलाइयं आगइगइविन्नाया ....... । (द ४1९ ) जिन किन्हीं प्राणियों में सामने जाना, पीछे हटना, संकुचित होना, फैलना, शब्द करना, इधर-उधर जाना, भयभीत होना, दौड़ना - ये क्रियाएं हैं और जो आगति एवं गति के विज्ञाता हैं, वे त्रस हैं । .... जे य कीडपयंगा, जा य कुंथुपिवीलिया सव्वे बेइंदिया सव्वे ते दिया सब्वे चउरदिया सव्वे पंच सव्वे तिरिक्खजोणिया सव्वे नेरइया सव्वे मणुया सव्वे देवा.......... " एसो खलु छट्टो जीवनिकाओ तसकाओ त्ति पवुच्चई । (द ४1९ ) कीट, पतंग, कुंथु, पिपीलिका, सब दो इन्द्रिय वाले जीव, सब तीन इन्द्रिय वाले जीव, सब चार इन्द्रिय वाले जीव, सब पांच इन्द्रिय वाले जीव, सब तिर्यक् योनिक, सब नैरयिक, सब मनुष्य, सब देव - यह छठा जीवनिकाय काय कहलाता है । २. त्रस के प्रकार ते वाऊ य बोद्धव्वा, उराला य तसा तहा । इच्चेए तसा तिविहा I ( उ ३६।१०७) त्रस के तीन प्रकार हैं तेजस्काय, वायुकाय और उदार त्रस । ३. तेजस् और वायु त्रस क्यों ? दुविहा खलु तसजीवा - लद्धितसा चेव गतितसा चेव । ततश्च तेजोवाय्वोर्गतित उदाराणां च लब्धितोऽपि सत्वमिति । तेजोवाय्वोश्च स्थावरनामकर्मोदयेऽप्युक्तरूपं त्रसनमस्तीति त्रसत्वम् । ( उशावृ प ६९३ ) त्रस जीव के दो प्रकार हैं-लब्धि त्रस और गति त्रस । उदार (द्वीन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के ) जीव लब्धि स हैं। अग्नि और वायु गति त्रस हैं । यद्यपि इनके स्थावर नाम कर्म का उदय फिर भी गतिशीलता के कारण ये त्रस कहलाते हैं । Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वीन्द्रिय स के प्रकार ४. उदार त्रस के प्रकार ओराला तसा जे उ, चउहा ते पकित्तिया । बेइं दियतेइ दिय- चउरो पंचिदिया चेव ॥ ( उ ३६ । १२६) उदार कायिक जीव चार प्रकार के हैंद्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय | तसा विगलिंदिया पंचेंदिया | विगलिदिया तिविहाबिइंदिया, तिइंदिया, चतुरिंदिया । ( आवचू २ पृ १०० ) त्रस जीवों के दो प्रकार हैं- विकलेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय | विकलेन्द्रिय तीन प्रकार के हैं- द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय । ५. द्वन्द्रिय स के प्रकार इंदिया उ जे जीवा, दुविहा ते पकित्तिया । पज्जत्तमपज्जत्ता 11 ( उ ३६ । १२७ ) द्वीन्द्रिय जीव के दो भेद हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त । किमिणो सोमंगला चेव, अलसा माइवाहया | वासीमुहाय सिप्पीया संखा संखणगा तहा ॥ पल्लोयाणुल्लया चेव, तहेव य वराडगा । जलूगा जालगा चेव, चंदणा य तहेव य ॥ इइ इंदिया एए, णेगहा एवमायओ । लोगेगदेसे ते सव्वे, न सव्वत्थ वियाहिया || ( उ ३६।१२८-१३०) कृमि, सौमंगल, अलस, मातृवाहक, वासीमुख, सीप, शंख आदि अनेक प्रकार के द्वीन्द्रिय जीव हैं । वे लोक के एक भाग में ही प्राप्त होते हैं, समूचे लोक में नहीं । एएसि वण्णओ चेव, गंधओ रसफासओ । ठाणादेसओ वावि, विहाणाई सहस्ससो ॥ ( उ ३६ । १३५) वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और संस्थान की दृष्टि से उनके हजारों भेद होते हैं । आयुस्थिति कार्यस्थिति अंतरकाल ३३४ वासाई बारसेव उ, उक्कोसेण वियाहिया | इंदिआउठि, अंतोमुहुत्तं जहन्निया || त्रीन्द्रिय स के प्रकार संखिज्ज कालमुक्कसं, अंतोमुहुत्तं जहन्नयं । बेदिकाठी, तं कायं तु अमुंचओ ॥ अनंतकालमुक्कसं, अंतोमुहुत्तं जहन्नयं । बेइंदियजीवाणं, अंतरेयं वियाहियं ॥ ( उ ३६।१३२-१३४) - जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त्त उत्कृष्टत: बारह आयु स्थिति वर्ष । कायस्थिति - जघन्यतः संख्यात काल । अंतरकाल जघन्यतः अनंत काल | ६. त्रीन्द्रिय त्रस के प्रकार अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्टतः अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्टतः तेइंदिया उ जे जीवा, दुविहा ते पकित्तिया । ....**** || पज्जत्तमपज्जत्ता (उं ३६।१३६) त्रीन्द्रिय जीव के दो प्रकार हैं- पर्याप्त और अपर्याप्त । कुंथुपिवीलिउड्डंसा, उक्कलुद्देहिया तहा । तणहारकट्ठहारा, मालुमा पत्तहारंगा || कप्पासट्ठिमिजा य, तिदुगा उस मिजगा | सदावरी य गुम्मी य, बोद्धव्वा इंदकाइया ॥ इंदगोवगमाईया, गहा लोएगदेसे ते सव्वे, न सव्वत्थ एवमाओ । वियाहिया ॥ ( उ ३६।१३७ - १३९) कुंथु, चींटी, खटमल मकड़ी, दीमक, इन्द्रगोपक आदि अनेक प्रकार के त्रीन्द्रिय जीव हैं । वे लोक के एक भाग में ही प्राप्त होते हैं, समूचे लोक में नहीं । एएसि वण्णओ चेव, गंधओ रसफासओ । ठाणादेओ वावि, विहाणाई सहस्ससो ॥ ( उ ३६ । १४४) वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और संस्थान की दृष्टि से उनके हजारों भेद होते हैं । आयु स्थिति काय स्थिति- अंतरकाल एगूणपणहोरत्ता, उक्कोसेण वियाहिया । इंदिय आउठिई, अंतोमुहुत्तं जहन्निया || संखिज्जकालमुक्कोसं, अंतोमुहुतं जहन्नयं । तेइंदियकायठिई, तं कायं तु अचओ ॥ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरिन्द्रिय त्रस के प्रकार त्रीन्द्रिय अणंतकालमुक्कोसं, अंतोमुहुत्तं जहन्नयं । आयुस्थिति - जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्टतः छह तेइंदियजीवाणं, अंतरेयं वियाहियं ।। मास । (उ ३६।१४१-१४३) कायस्थिति--जघन्यतः उत्कृष्टतः आयुस्थिति -जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्टतः संख्यात काल । उनचास दिन । अंतरकाल-जघन्यत: अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्टतः अनन्तकायस्थिति- जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्टत: काल । संख्यात काल। अंतरकाल-जघन्यतः अन्तर्मुहुर्त, उत्कृष्टतः अनंत ८. पंचेन्द्रिय त्रस के प्रकार काल । पंचिदिया उ जे जीवा, चउविवहा ते वियाहिया । ७. चतुरिन्द्रिय त्रस के प्रकार नेरइयतिरिक्खा य, मण या देवा य आहिया ।। चउरिदिया उ जे जीवा, विहा ते पकित्तिया । (उ ३६।१५५) पज्जत्तमपज्जत्ता"..."" । (उ ३६।१४५) पंचेन्द्रिय जीव चार प्रकार के हैं-१. नैरयिक, चतरिन्द्रिय जीव के दो प्रकार हैं- पर्याप्त और २. तिथंच, ३. मनुष्य और ४. देव । (द्र. संबद्ध नाम) अपर्याप्त। अंधिया पोत्तिया चेव, मच्छिया मसगा तहा। ९. अंडज आदि त्रस भमरे कीडपयंगे य, ढिकुणे कुंकुणे तहा ।। ..."अंडया पोयया जराउया रसया संसेइमा सम्मूकुक्कूडे सिगिरीडी य, नंदावते य विछिए। च्छिमा उब्भिया उववाइया" । (द ४।९) डोले भिंगारी य, विरली अच्छिवेहए ।। उत्पत्ति के आधार पर त्रस जीवों के आठ प्रकार अच्छिले माहए अच्छिरोडए, विचित्ते चित्तपत्तए । हैंओहिजलिया जलकारी य, नीया तंतवगाविय ।। अण्डज', पोतज, जरायुज, रसज, संस्वेदज, सम्मूर्छइइ चउरिदिया एए, णे गहा एवमायओ। नज, उद्भिज, औपपातिक । लोगस्स एगदेसम्मि, ते सव्वे परिकित्तिया ।। १. अण्डज -जो अण्डों से पैदा होते हैं, जैसे-पक्षी, (उ ३६।१४६-१४९) सर्प आदि। अंधिका, पोत्तिका, मक्खी, मच्छर, भ्रमर, कीट, २. पोतज -जो जन्म के समय खुले अंगों सहित पतंग, तन्तवक आदि अनेक प्रकार के चतुरिन्द्रिय जीव ___ होते हैं, जैसे -हाथी आदि । हैं। वे लोक के एक भाग में ही प्राप्त होते हैं, समूचे ३. जरायुज' --जो जन्म के समय मांस की झिल्ली लोक में नहीं। से लिपटे रहते हैं, जैसे-मनुष्य, भैंस, गाय आदि । एएसि वण्णओ चेव, गंधओ रसफासओ। ४. रसज--जो दही आदि रसों में उत्पन्न होते हैं, संठाणादेसओ वावि, विहाणाई सहस्ससो॥ जैसे-कृमि आदि । (उ ३६।१५४) ५. स्वेदज-जो पसीने से उत्पन्न होते हैं, जैसे -जू, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और संस्थान की दृष्टि से लीख आदि। उनके हजारों भेद होते हैं। ६. सम्मच्छिम--जो नर-मादा के संयोग के बिना ही आयुस्थिति-कायस्थिति-अंतरकाल उत्पन्न होते हैं, जैसे--- मक्खी, चींटी आदि । छच्चेव य मासा उ, उक्कोसेण वियाहिया । ७. उद्भिज -जो पृथ्वी को फोड़कर निकलते हैं, जैसे चरिदियआउठिई, अंतोमुहुत्तं जहन्निया ।। -टिड्डी, पतंग आदि। संखिज्जकालमुक्कोसं, अंतोमुहुत्तं जहन्नयं । ८. औपपातिक-जो गर्भ में रहे बिना ही स्थान विशेष चरिदियकायठिई, तं कायं तु अमुंचओ ।। में पैदा होते हैं, जैसे-देव और नारक । अणंतकालमुक्कोस, अंतोमुहुत्तं जहन्नयं । त्रीन्द्रिय-स्पर्शन, रसन और घ्राण-इन तीन विजढं मि सए काए, अंतरेयं वियाहियं ।। (उ ३६।१५१-१५३) इन्द्रियों वाले जीव । (द्र. त्रस) Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुःख ३३६ दुःख के हेतु दर्शन -१. सामान्य अवबोध । (द्र. ज्ञान) पास उतना वैभव न होने पर विषाद, च्यवन के समय २. दृष्टि, तत्त्वरुचि। (द्र. सम्यक्त्व) अतिरमणीय विमान, वापी, स्तूप और देवाङ्गना के दर्शनावरणीय- दर्शन (सामान्य बोध) को आवृत वियोग का दुःख । देवलोक से अन्यत्र अप्रिय, अनिच्छित जन्म के दुःख को देखकर तप्त लोहपात्र में रखी मछली करने वाला कर्म । (द्र. कर्म) से भी अधिक दुःख होता है। दिशा-ताप दिशा, प्रज्ञापक दिशा आदि। दुःख के हेतु (द्र. लोक) जावंतविज्जा पुरिसा सव्वे ते दुक्खसंभवा । दुःख-क्लेश, परिताप। लुप्पंति बहुसो मूढा संसारंमि अणंतए । चार गति के दुःख (उ ६।१) ___ नरकगतौ कुन्ताग्रभेदकरपत्रशिरःपाटनशूलारोपकुम्भि- जितने अविद्यावान् पुरुष हैं, वे सब दुःख उत्पन्न करने पाकासिपत्रवनकृतकर्णनासिकादिच्छेदं कदम्बबालुकापथ- वाले हैं। वे दिग्मूढ की भांति मूढ बने हुए इस अनन्त गमनादिरूपमनेक प्रकारं दुःखमेव निरन्तरं, नाक्षिनिमीलन- संसार में बार-बार लुप्त होते हैं। मात्रमपि तत्र सुखम् । जे केइ सरीरे सत्ता, वण्णे रूवे य सव्वसो। तिर्यग्गतावपि अङ कुशकशाभिघातप्राजनकतोदनवध- मणसा कायवक्केण, सव्वे ते दुक्खसंभवा । बन्धरोगक्षुत्पिपासादिप्रभवमने दुःखम् । मनुष्यगतावपि (उ ६।११) परप्रेषगुप्तिगृहप्रवेशधनबन्धुवियोगानिष्टसम्प्रयोगरोगादि- जो कोई मन, वचन और काया से शरीर वर्ण और जनितं विविधमनेक दुःखम् । देवगतावपि च परगत- रूप में सर्वश: आसक्त होते हैं, वे सभी अपने लिए दःख विशिष्टद्युतिविभवदर्शनात् मात्सर्यमात्मनि तद्विहीने उत्पन्न करते हैं। विषादः, च्युतिसमये चातिरमणीयविमानवनवापीस्तूप "कामभोगाणराएणं केसं संपडिवज्जई ।। देवाङ्गनावियोगजमनिष्टजन्मसंतापं चाऽवेक्षमाणस्य (उ ५७) तप्तायोभाजननिक्षिप्तशफरादप्यधिकतरं दुःखम् । अज्ञानी व्यक्ति काम-भोग के अनुराग से क्लेश को (नन्दीमवृ ३९) प्राप्त होता है । नरकदुःख-नरक गति में जीव भयंकर दुःखों का वरि विसु भंजिउ मं विसय, एक्कसि विसिण मरंति। संवेदन करता है। वहां जीवों को भालों से भेदा जाता नर विसयामिसमोहिया, बहसो नरइ पडंति ।। है, करवत, आरे आदि से शिर को छेदा जाता है, (उसुव प १०३) शूली में पिरोया जाता है, विविध कुंभियों में पकाया विष पीना अच्छा है, विषय नहीं। मनुष्य विष से जाता है, असिपत्रों से कर्ण, नासिका आदि को काटा एक ही बार मरते हैं, किन्तु विषय रूप मांस में मोहित जाता है, कदम्बबालुका नदी की बालू में जलाया जाता मनुष्य अनेक बार मरते हैं, नरक में जाते हैं। है। वहां अक्षिनिमेष जितना भी सुख नहीं है। अत्थि सुह-दुक्खहेऊ कज्जाओ बीयमंकुरस्सेव । तिर्यंचदुःख-तिर्यच गति में अनेक प्रकार के दुःख सो दिट्रो चेव मई वभिचाराओ न तं जुत्तं ।। हैं। जैसे अंकुश और कश का अभिघात, चाबुक का जो तुल्लसाहणाणं फले विसेसो न सो विणा हेऊ । प्रहार, वध, रस्सी आदि से बांधना, रोग, भूख, प्यास कज्जत्तणओ गोयम ! छडोव्व, हेऊ य सो कम्मं । आदि । (विभा १६१२,१६१३) मनुष्य दुःख-पराधीनता, कारावास, धन और जैसे अंकुर का हेतु (उपादान कारण) बीज है, वैसे ही परिजनों का वियोग, अनिष्ट का संयोग, रोग सुख-दुःख का हेतु कर्म है । यदि घर, चन्दन आदि को सुख आदि। का हेतु और सर्प, कंटक आदि को दुःख का हेतु मान लिया देव दुःख - देवगति में भी दुःख है । जैसे-दूसरे जाए तो यह हेतु व्यभिचारी हो जाएगा। क्योंकि सुख देवों की युति और वैभव को देखकर ईर्ष्या, स्वयं के और दुःख के साधन तुल्य होने पर भी सुख-दुःख के Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुःख अनुप्रेक्षा अनुभव में तारतम्य रहता है । वह बिना हेतु के नहीं हो सकता, वह हेतु है कर्म । जैसे घट का हेतु मिट्टी है । दुःखमुक्ति के उपाय आयावयाही चय सोउमल्लं कामे काही कमियं खु दुक्खं । छिन्दाहि दोसं विणएज्ज रागं एवं सुही होहिसि संपराए ॥ दुःखमुक्ति के चार उपायश्रमनिष्ठा सुकुमारता का विसर्जन • विषयवासना का अतिक्रमण ० राग-भाव और द्वेषभाव का अपनयन दुक्खं हयं जस्स न होइ मोहो मोहो हम जस्स न होइ तन्हा । तन्हा हया जस्स न होइ लोहो लोहो हओ जस्स न किंचणाई ॥ ( उ ३२८) जिसके मोह नहीं है, उसने दु:ख का नाश कर ० दिया । जिसके तृष्णा नहीं है, उसने मोह का नाश कर दिया । जिसके लोभ नहीं है, उसने तृष्णा का नाश कर दिया । जिसके पास कुछ नहीं है, उसने लोभ का नाश कर दिया । दुःख अनुप्रेक्षा (द २५) इस तानेरइयस्स जंतुणो getaणीयस्स किलेसवत्तिणो । पलिओवमं भिज्जइ सागरोवमं किमंग पुण मज्झ इमं मणोदुहं ॥ न मे चिरं दुक्खमिणं भविस्सई न चे सरीरेण इमेणवेस्सई असासया भोगपिवास जंतुणो । अविस्सई जीवियपज्जवेण मे ॥ ( दचूला १ / १५, १६ ) दुःख से युक्त और क्लेशमय जीवन बिताने वाले इन ३३७ दृष्टिवाद नारकीय जीवों की पल्योपम और सागरोपम आयु भी समाप्त हो जाती है तो फिर यह मेरा मनोदुःख कितने काल का है ? यह मेरा दुःख चिर काल तक नहीं रहेगा । जीवों की भोगपिपासा अशाश्वत है । यदि वह इस शरीर के होते हुए न मिटी तो मेरे जीवन की समाप्ति के समय तो अवश्य मिट ही जाएगी । जम्म दुक्खं जरा दुक्खं, रोगा य मरणाणि य । अहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ कीसंति जंतवो ॥ ( उ १९/१५) जन्म दुःख है, बुढ़ापा दुःख है, रोग दु:ख है और मृत्यु दुःख है । अहो ! संसार दुःख ही है, जिसमें जीव क्लेश पा रहा है । नातः परतरं मन्ये, जगतो दुःखकारणम् । यथाऽज्ञानमहारोगं, सर्व रोगप्रणायकम् ॥ ( उचू पृ १४८ ) अज्ञान महारोग है, सब रोगों का नायक है । इससे बढ़कर संसार में दुःख का कारण अन्य नहीं है । दृष्टिवाद - बारहवां अंग । सब नयदृष्टियों से निरूपण करने वाला आगम । १. दृष्टिवाद का निर्वचन २. दृष्टिवाद का स्वरूप ३. दृष्टिवाद के प्रकार ४. परिकर्म की परिभाषा ० प्रकार ० ० O ० • उपसम्पादनश्रेणिका परिकर्म विप्राणश्रेणिका परिकर्म syntayaश्रेणिका परिकर्म ० परिकर्म : नय और प्रम्प्रदाय ० परिकर्म के मूल उत्तर भेद सिद्धश्रेणिका परिकर्म मनुष्यश्रेणिका परिकर्म स्पृष्टश्रेणिका परिकर्म अवगाढश्रेणिका परिकर्म o ० ५. सूत्र के निर्वाचन परिभाषा 0 एकार्थक O Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टिवाद ० प्रकार ० गुण दोष सूत्र और नयवृष्टि छिन्नछेदनय ० अच्छिन्नछेदनय * पूर्वगत ६. अनुयोग के प्रकार मूलप्रथमानुयोग कंडिकानुयोग ० • चित्रान्तरकंडिका का प्रतिपाद्य ० ० ० ० * चूला ७. दृष्टिवाद के अन * दृष्टिवाद : गमिकत * दृष्टिवाद की निरूपण शैली दृष्टिवाद बारहवां अंग वृष्टिवाद और ध्यान * * (द्र. श्रुतज्ञान) ( द्र. आगम ) ( द्र. अंगप्रविष्ट) (द्र ध्यान ) १. दृष्टिवाद का निर्वचन दृष्टिर्दर्शनम्, वदनं वाद: । दृष्टीनां वादो दृष्टिवादः । तत्र वा दृष्टीनां पातः दृष्टिपातः । सभेदभिण्णाओ सव्वतदिट्टीओ तत्थ वदंति पतंति व त्ति अतो दिट्टि - बातो । ( नन्दीचू पृ७१) जिस शास्त्र में सभी दृष्टियों / दर्शनों का विमर्श किया जाता है, वह दृष्टिवाद ( दृष्टिपात ) कहलाता है । अथवा जिस शास्त्र में सभी नयदृष्टियों से वस्तुसत्य का विचार किया जाता है, वह दृष्टिवाद कहलाता है । दिट्टिवा सुपरिमाणसंखा अणेगविहा पण्णत्ता, तं जहा -- पज्जवसंखा अक्खरसंखा संघायसंखा पयसंखा (प्र. पूर्व) पायसंखा गाहासंखा सिलोगसंखा वेढसंखा निज्जुत्तिसंखा अणुओगदारसंखा पाहुडसंखा पाहुडियासंखा पाहुडपाहुडियासंखा वत्थुसंखा । ( अनु ५७२ ) दृष्टिवादश्रुतपरिमाण संख्या के अनेक प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे- पर्यवसंख्या, अक्षरसंख्या, संघातसंख्या, पद(द्र. पूर्व) संख्या, पादसंख्या, गाथासंख्या, श्लोकसंख्या, वेष्टकसंख्या, निर्युक्तिसंख्या, अनुयोगद्वारसंख्या प्राभृतसंख्या, प्राभृतिकासंख्या, प्राभृत-प्राभृतिकासंख्या और वस्तु संख्या । ३३८ परिकर्म की परिभाषा चौदह पूर्व संख्येय वस्तु - २२५ अध्याय, संख्येय चूलिकावस्तु, संख्येय प्राभृत, संख्येय प्राभृत-प्राभृत, संख्येय प्राभृतिका, संख्येय प्राभृत- प्राभृतिका, पद-प्रमाण से संख्येय लाख पद हैं । १२. दृष्टिवाद का स्वरूप दिट्टिवाए णं सव्वभावपरूवणा आघविज्जइ । से णं अंगट्टयाए बारसमे अंगे, एगे सुयक्बंधे, चोट्स पुव्वाई, संखेज्जा वत्थू, संखेज्जा चुल्लवत्थू, संखेज्जा पाहुडा, संखेज्जा पाहुडपाडा, संखेज्जाओ पाहुडियाओ, संखेज्जाओ पाहुडियाओ, संखेज्जाई पयसहस्साइं पयग्गेणं । ( नन्दी ९२, १२३ ) संखेज्जावत् त्ति पणुवीसुत्तराणि दो सयाणि । ( नन्दीहावृ पृ९३ ) दृष्टिवाद में सर्वभावों की प्ररूपणा की गई है । यह अंग की दृष्टि से बारहवां अंग है । इसमें एक श्रुतस्कन्ध, ३. दृष्टिवाद के प्रकार दिवा से समासओ पंचविहे पण्णत्ते, तं जहापरकम्मे सुत्ताइं पुव्वगए अणुओगे चूलिया । ( नन्दी ९२ ) दृष्टिवाद के पांच प्रकार हैं१. परिकर्म २. सूत्र ३. पूर्वगत ४. परिकर्म की परिभाषा परिकम्मे - जोग्गकरणं, जहा गणितस्स सोलस परिकम्मा । तग्गहितसुत्तत्थो से सगणितस्स जोग्गो भवति । एवं गहितपरिकम्मसुत्तत्थो सेससुत्तादिदिट्टिवातसुतस्स जोग्गो भवति । ( नन्दी पृ७२ ) परिकर्म का अर्थ है- योग्यता सम्पादित करने वाली विधि या प्रणाली । जिस प्रकार गणितशास्त्र के अभ्यास के लिए संकलन, व्यकलन, गुणन, भाग आदि सोलह परिकर्मों का ज्ञान अपेक्षित होता है, उसी प्रकार विवक्षित परिकर्म के सूत्रार्थ को जान लेने पर ही अध्येता शेष सूत्र आदि रूप दृष्टिवाद श्रुत को ग्रहण करने के योग्य हो सकता है। प्रकार ४. अनुयोग ५. चूलिका परिकम्मे सत्तविहे पण्णत्ते, तं जहा- सिद्धसेणिया Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विप्रहाणश्रेणिका परिकर्म दृष्टिवाद परिकम्मे, मणुस्ससेणियापरिकम्मे, पुट्ठसेणियापरिकम्मे, स्पृष्टश्रेणिका परिकर्म ओगाढसेणियापरिकम्मे, उवसंपज्जणसेणियापरिकम्मे, ___ पुटुसेणियापरिकम्मे इक्कारसविहे पण्णत्ते, तं जहाविप्पजहणसेणियापरिकम्मे, चुयाचुयसेणियापरिकम्मे । पाढो, आगासपयाई, केउभूयं, रासिबद्धं, एगगुणं, दुगुणं, (नन्दी ९३) तिगुणं, केउभूयपडिग्गहो, संसारपडिग्गहो, नंदावत्तं, परिकर्म सात प्रकार का है पुट्ठावत्तं । (नन्दी ९६) १. सिद्धश्रेणिका परिकर्म ६. विप्रहाणश्रेणिका स्पृष्टश्रेणिकापरिकर्म के ग्यारह प्रकार हैं२. मनुष्यश्रेणिका परिकर्म परिकर्म १. पाठ ७. त्रिगुण ३. स्पृष्टश्रेणिका परिकर्म ७. च्युताच्युतश्रेणिका २. आकाशपद ८. केतुभूतप्रतिग्रह ४. अवगाढश्रेणिका परिकर्म परिकर्म ३. केतुभूत ९. संसारप्रतिग्रह ५. उपसंपादनश्रेणिका परिकर्म ४. राशिबद्ध १०. नन्द्यावर्त्त सिधेणिका परिकर्म ५. एकगुण ११. स्पृष्टावत ६. द्विगुण सिद्धसेणियापरिकम्मे चउद्दसविहे पण्णत्ते, तं जहा अवगाढश्रेणिका परिकर्म माउगापयाई, एगट्ठियपयाई, अट्ठापयाई, पाढो, आगासपयाई, केउभूयं, रासिबद्धं, एगगुणं, दुगुणं, तिगुणं, ___ ओगाढसेणियापरिकम्मे इक्कारसविहे पण्णत्ते, तं केउभूयपडिग्गहो, संसारपडिग्गहो, नंदावत्तं, सिद्धावत्तं ।। जहा-पाढो, आगासपयाई, केउभूयं, रासिबद्धं, एगगुणं, (नन्दी ९४) दुगुणं, तिगुणं, केउभूयपडिग्गहो, संसारपडिग्गहो, नंदावत्तं, सिद्धश्रेणिका परिकर्म चौदह प्रकार का है ओगाढावत्तं । (नन्दी ९७) अवगाढश्रेणिका परिकर्म ग्यारह प्रकार का है१. मातृकापद ८. एकगुण २. एकार्थकपद ९. द्विगुण १. पाठ ७. त्रिगुण ३. अर्थपद २. आकाशपद १०. त्रिगुण ८. वेतुभूतप्रतिग्रह ४. पाठ ११. केतुभूतप्रतिग्रह ३. केतुभूत ९. संसारप्रतिग्रह ५. आकाशपद १२. संसारप्रतिग्रह ४. राशिबद्ध १०. नन्द्यावर्त्त १३. नन्द्यावर्त ६. केतुभूत ११. अवगाढावर्त ५. एकगुण ७. राशिबद्ध १४. सिद्धावर्त्त ६. द्विगुण उपसम्पादनधेणिका परिकर्म मनुष्यश्रेणिका परिकर्म मणुस्ससेणियापरिकम्मे चउहसविहे पण्णत्ते. तं उसपज्जणसेणियापरिकम्मे इक्कारसविहे पण्णते. जहा-माउगापयाई, एगट्टियपयाई, अट्रापयाई, पाढो, तं जहा- पाढो, आगासपयाई, के उभूयं, रासिबद्धं. आगासपयाई, के उभूयं, रासिबद्धं, एगगुणं, दुगुणं, तिगुणं, एगगुणं, दुगुणं, तिगुणं, केउभूयपडिग्गहो, संसारपडिग्गहो, के उभूयपडिग्गहो, संसारपडिग्गहो, नंदावतं, मणस्सावत्तं । नंदावत्तं, उवसंपज्जणावत्तं। (नन्दी ९८) (नन्दी ९५) उपसंपादनश्रेणिका परिकर्म ग्यारह प्रकार का हैमनुष्यश्रेणिका परिकम चौदह प्रकार का है १. पाठ ७. त्रिगुण १. मातृकापद ८. एकगुण २. आकाशपद ८. केतुभूतप्रतिग्रह २. एकार्थकपद ९. द्विगुण ३. केतुभूत ९. संसारप्रतिग्रह ३. अर्थपद १०. त्रिगुण ४. राशिबद्ध १०. नन्द्यावर्त्त ४. पाठ ११. केतुभूतप्रतिग्रह ५. एकगुण ११. उपसंपादनावर्त ५. आकाशपद १२. संसारप्रतिग्रह ६. द्विगुण ६. केतुभूत १३. नंद्यावर्त्त विप्रहाणधेणिका परिकर्म ७. राशिबद्ध १४. मनुष्यावर्त्त । विप्पजहणसेणियापरिकम्मे इक्कारसविहे पण्णत्ते, Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टिवाद ३४० सूत्र के निर्वचन तं जहा-पाढो, आगासपयाई, के उभूयं, रासिबद्धं, इनके सूत्र-अर्थ सब विच्छिन्न हैं, गुरुपरम्परा से ही एगगुणं, दुगुणं, तिगुणं, केउभूयपडिग्गहो, संसारपडिग्गहो, ज्ञातव्य हैं । नंदावत्तं, विप्पजहणावत्तं । (नन्दी ९९) ) ५. सूत्र के निर्वचन विप्रहाणश्रेणिका परिकर्म ग्यारह प्रकार का है---- १. पाठ ७. त्रिगुण सिंचइ खरइ जमत्थं तम्हा सूत्तं निरुत्तविहिणा वा । २. आकाशपद ८. केतुभूतप्रतिग्रह सूएइ सवइ सुव्वइ सिव्वइ सरए व जेणत्थं ।। ३. केतुभूत ९. संसारप्रतिग्रह (विभा १३६८) ४. राशिबद्ध १०. नन्द्यावतं • जो अर्थ का सिंचन/क्षरण करता है, वह सूत्र है। ५. एकगुण ११. विप्रहाणावर्त ० जो अर्थ को सूचित करता है, वह सूत्र है । • जो अर्थ को स्रवित करता है, वह सूत्र है। ६. द्विगुण • जो सुना जाता है, वह सूत्र है। च्युताच्युतश्रेणिका परिकर्म ० जो अनेक अर्थपदों को स्यूत/संयुक्त करता हैचुयअचुयसेणियापरिकम्मे एक्कारसविहे पण्णत्ते, विशिष्ट संघटना करता है, वह सूत्र है। तं जहा-पाढो, आगासपयाई, केउभूयं, रासिबद्धं, __ . जो अर्थ का अनुसरण करता है, वह सूत्र है । एगगुणं, दुगुणं, तिगुणं, केउभूयपडिग्गहो, संसारपडिग्गहो, र नंदावत्तं, चुयअचुयावत्तं । (नन्दी १००) च्युताच्युतश्रेणिका परिकर्म ग्यारह प्रकार का है सुत्ताइ सव्वदव्वाण सव्वपज्जवाण सव्वणताण सव्वभंगविकप्पाण य दंसगाणि, सव्वस्स य पुव्वगतसुतस्स १. पाठ ७. त्रिगुण अत्थस्स य सूयग त्ति, अतो ते सूयणत्तातो सुत्ता भणिता । २. आकाशपद ८. केतुभूतप्रतिग्रह (नन्दीचू पृ ७४) ३. केतुभूत ९. संसारप्रतिग्रह जिनमें सब द्रव्य, सब पर्याय, सब नय, सब ४. राशिबद्ध १०. नन्द्यावर्त्त भंगविकल्पों का सूचन है, वे सूत्र हैं। पूर्वगत के समग्र५. एकगुण ११. च्युताच्युतावत सूत्र और अर्थ के सूचक होने के कारण ये सूत्र कहलाते ६. द्विगुण परिकर्म : नय और सम्प्रदाय एकार्थक (इच्चेयाइं सत्त परिकम्माइं छ ससमइयाणि सत्त आजीवियाणि) छ चउक्कणयाइं, सत्त तेरासियाई। """सुत्तं तंतं गंथो पाढो सत्थं च एगट्टा । (नन्दी १०१) (आवनि १३०) (ये सात परिकर्म हैं। इनमें प्रथम छह स्वसमय के सूत्र, तन्त्र, ग्रंथ, पाठ और शास्त्र-ये सूत्र के प्रज्ञापक हैं । सातवां (च्युताच्युतश्रेणिका) परिकर्म आजीवक एकार्थक है । सूत्तं भणियं तंतं तणिज्जए तेण तम्मि व जमत्थो । मत का प्रज्ञापक है।) इनमें प्रथम छह परिकर्म चार नयों गंथिज्जइ तेण तओ तम्मि व तो तं मयं गंथो ।। (संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र और शब्द) द्वारा व्याख्यात हैं। (विभा १३८३) सातवां त्रैराशिक-तीन नय वाला है। जिससे अर्थ विस्तार पाता है, वह तन्त्र/सूत्र परिकर्म के मूल-उत्तर-भेद है। जिसमें अर्थों का ग्रंथन/गुम्फन होता है, वह परिकम्मसूतं सिद्धसेणियापरिकम्मादिमूलभेदयो ग्रन्थ सत्र है। सत्तविहं, उत्तरभेदतो तेसीतिविहं मातुयपदादी। तं च ..."सासिज्जइ तेण तहिं व नेयमाया व तो सत्थं । सव्वं समूलुत्तरभेदं सुत्तत्थतो वोच्छिण्णं, जहागतसंप्रदातं (विभा १३८४) वा वच्चं । (नन्दीच पृ ७२) जिसमें ज्ञेय अथवा आत्मा की अनुशिष्टि है, वह परिकर्म के मूल भेद सात हैं -सिद्धश्रेणिका परिकर्म शास्त्र है। आदि। उत्तरभेद तिरासी हैं- मातृकापद आदि । अब Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र और नयदृष्टि ३४१ दृष्टिवाद प्रकार सुत्ताई बावीसं पण्णत्ताई, तं जहा-उज्जुसुयं, परिणयापरिणय, बहुभंगियं, विजयचरियं, अणंतरं, परंपर, सामाणं, संजूह, संभिण्णं, आहच्चायं, सोवत्थियं पंट, नंदावत्तं, बहुलं, पुट्ठापुढें, वियावत्तं, एवंभूयं, दुयावत्तं, वत्तमाणुप्पयं, समभिरूढं, सव्वओभइं, पण्णासं, दुप्पडिग्गहं। (नन्दी १०२) सूत्र बाईस प्रकार के हैं१. ऋजुसूत्र १२. नन्द्यावर्त २. परिणतापरिणत १३. बहुल ३. बहुभंगिक १४. स्पृष्टास्पृष्ट ४. विजयचरित १५. व्यावत ५. अनन्तर १६. एवंभूत ६. परम्पर १७. द्विकावर्त ७. सत् १८. वर्तमानपद ८. संयूथ १९. समभिरूढ़ ९. संभिन्न २०. सर्वतोभद्र १०. यथात्याग २१. पंन्यास ११. सौवस्तिक घंट २२. दुष्प्रतिग्रह सूत्र के गुण निद्दोस सारवन्तं च हेउजुत्तमलंकियं । उवणीयं सोवयारं च मियं महरमेव य ॥ अप्पक्खरमसंदिद्धं सारवं विस्सओमुहं । अत्थोभमणवज्जं च सुत्तं सवण्णभासियं ॥ (आवनि ८८५.८८६) सूत्र के आठ गुण हैं-१. निर्दोष, २. सारवत् - बहु पर्याय वाला, ३. हेतुयुक्त-अन्वयव्यतिरेकलक्षण युक्त, ४. अलंकृत-उपमा आदि से युक्त, ५. उपनीतउपनयों से युक्त, ६. सोपचार-अग्राम्यअभिधान, ७. मित-नियत वर्ण आदि, ८. मधुर । अथवा १. अल्पाक्षर २. असंदिग्ध ३. सारवत् ४. विश्वतोमुख - प्रत्येक सूत्र में अनुयोगों का कथन, अनेक अर्थ वाला ५. अस्तोभक-निपातरहित ६. अनवद्य-ये सर्वज्ञभाषित सूत्र के लक्षण हैं। सूत्र के दोष अलियमुवघायजणयं निरत्थयमवत्ययं छलं दुहिलं । निस्सारमधियमूणं पुणरुत्त वाहयमजुत्तं ॥ कमभिण्णवयणभिण्णं विभत्तिभिन्नं च लिंगभिन्नं च। अणभिहियमपयमेव य सभावहीणं ववहियं च ॥ कालजतिच्छविदोसा समयविरुद्धं च वयणमित्तं च । अत्थावत्तीदोसो य होइ असमासदोसो य॥ उवमारूवगदोसाऽनिद्देस पदत्थसंधिदोसो य। एए उ सुत्तदोसा बत्तीसं होंति णायव्वा ।। (आवनि ८८१-८८४) सूत्र के बत्तीस दोष १. अनुत २. उपघातजनक- जीवों की घात करने वाला ३. निरर्थक ४. अपार्थक-पौर्वापर्य योग के सम्बन्ध से रहित ५. छल-वाक्छल ६. हिल-द्रोहस्वभाव ७. निःसार ८. अधिक-वर्ण आदि अधिक हों ९. ऊन-वर्ण आदि कम हों १०. पूनरुक्त-शब्द-अर्थ का पुनर्वचन ११. व्याहत पहले से दूसरे का हनन १२. अयुक्त १३. क्रमभिन्न १४. वचनभिन्न-वचनव्यत्यय १५. विभक्तिभिन्न १६. लिङ्गभिन्न १७. अनभिहित-अपने सिद्धान्त में अनुपदिष्ट १८. अपद १९. स्वभावहीन २०. व्यवहित-अन्तहित २१. कालदोष- अतीत आदि काल का व्यत्यय २२. यतिदोष-विरामरहित २३. छविअलंकारविशेष से शून्य २४. समयविरुद्ध-अपने सिद्धान्त से विरुद्ध २५. वचनमात्र २६. अर्थापत्ति दोष २७. असमास दोष-समास व्यत्यय २८. उपमादोष अधिक या कम उपमा २९. रूपक दोष-स्वरूपावयव व्यत्यय ३०. अनिर्देशदोष-उद्देश्यपदों को एक वाक्य में न करना ३१. पदार्थदोष ३२. सन्धिदोष । सूत्र और नयदृष्टि बावीस सुत्ताई छिण्णच्छेयनइयाणि ससमयसत्तपरिवाडीए। बावीसं सुत्ताई अच्छिण्णच्छेयनइयाणि आजीवियसुत्तपरिवाडीए। - बावीसं सुत्ताइं तिगनइयाणि तेरासियसुत्तपरिवाडीए। ____ बावीसं सुत्ताई चउक्कनइयाणि ससमयसुत्तपरिवाडीए। एवामेव सपुव्वावरेणं अट्ठासीइ सुत्ताइ भवंतीति मक्खायं । (नन्दी १.३) ___दृष्टिवाद के बाईस सूत्र स्वसमय परिपाटी (जैनागम पद्धति) के अनुसार छिन्नछेदनयिक होते हैं। बाईस सूत्र आजीवक परिपाटी के अनुसार अच्छिन्नछेदनयिक होते हैं। बाईस सूत्र राशिक परिपाटी के अनुसार त्रिक नयिक होते हैं। Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टिवाद अनुयोग के प्रकार बाईस सूत्र स्वसमय परिपाटी के अनुसार चतुष्क- अणुत्तरगई य, उत्तर-वेउव्विणो य मुणिणो, जत्तिया नयिक होते हैं। सिद्धा, सिद्धिपहो जह देसिओ, जच्चिरं च कालं पाओवइस प्रकार पूर्वापर की दृष्टि से अट्ठासी सूत्र हैं। गया, जे जहिं जत्तियाई भत्ताइ छइत्ता अंतगडे मुणिवरुछिन्नछेदनय त्तमे तम-रओघ विप्पमुक्के मुक्ख मूहमण तरं च पत्ते । जो णयो सुत्तं छिपगं छेदेण इच्छति, जहा–“धम्मो एते अण्णे य एवमाई भावा मूलपढमाणुओगे कहिया । मंगलमुक्किट्ठ" ति सिलोगो सुत्तऽत्थतो पत्तेयं छेदेण (नन्दी १२०) ठितो, णो बितियादिसिलोगे अवेक्खइ। मूलप्रथमानुयोग में अर्हत् तीर्थकरों के पूर्वभव, देव (नन्दीचू पृ ७४) लोकगमन, आयुष्य, च्यवन, जन्म, अभिषेक, राज्य की जो नय एक सूत्र की दूसरे सूत्र से पृथक् व्याख्या श्रेष्ठश्री, प्रव्रज्या और उग्र तप, केवलज्ञानोत्पत्ति, तीर्थकरता है, दूसरे सूत्र से पहले सूत्र को सम्बन्धित नहीं प्रवर्तन, शिष्य, गण, गणधर, साध्वी, प्रवर्तिनी, चतुर्विध करता, वह छिन्नछेदनय है। इन सूत्रों की परस्पर संघ का परिमाण, केवली, मनःपर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, निरपेक्ष व्याख्या की जाती है। जैसे-धम्मो मंगल- सम्यक्त्व, श्रुतज्ञानी, वादी, उत्तरवैक्रियलब्धिधर मुनि, मुक्किट्ठ-यह श्लोक सूत्र और अर्थ की अपेक्षा से दूसरे जितने अनुत्तर विमानों में उत्पन्न हुए हैं, जितने सिद्ध श्लोक से पृथक है-इसकी व्याख्या के लिए दूसरे श्लोकों हुए हैं, जिन्होंने प्रायोपगमन अनशन किया है तथा जितने की अपेक्षा नहीं है। भक्तों का छेदन (भक्तप्रत्याख्यान) कर जो उत्तम मुनिवर मच्छिन्नछेदनय मुक्त हुए हैं, तम और रज से विप्रमुक्त होकर अनुत्तर (जो णयो सुत्तं अच्छिण्णं छेदेण इच्छति सो अच्छिण्ण सिद्धि-पथ को प्राप्त हुए हैं, उनका वर्णन है। छेद णयो) जहा–दुमपुप्फियपढमसिलोगो अत्थतो बिति- तथा इस प्रकार के अन्य भावों का कथन इसमें याइसिलोगे अवेक्खमाणो, बितियादिया य पढम अच्छि- हुआ है। पणच्छेदणताभिप्पाययो भवति । अत्थयो अण्णोण्णमवेक्ख- मूलं-धर्मप्रणयनात्तीर्थकरास्तेषां प्रथमः-सम्यमाणा अच्छिण्णछेदणया। (नन्दी चू पृ ७४) क्त्वावाप्ति-लक्षणपूर्वभवादिगोचरोऽनुयोगो मूलप्रथमानु. जो नय दूसरे सूत्रों की अपेक्षा रखता हुआ व्याख्या । योगः । मूलप्रथमानुयोगे अर्हतां भगवतां सम्यक्त्वभवाकरता है, वह अच्छिन्न छेदनय है। जैसे-द्रुमपुष्पिका दारभ्य पूर्वभवा देवलोकगमनानि तेषु पूर्वभवेषु देवभवेषु अध्ययन का प्रथम श्लोक (धम्मो...) अर्थतः द्वितीय चायुर्देवलोकेभ्यश्च्यवनं तीर्थकरभवत्वेनोत्पादस्ततो याति लोगों की अपेक्षा रखता है सो प्रलोकभी जन्मानि ततः शैलराजे सुरासुरैविधीयमाना अभिषेका श्लोक की अपेक्षा रखते हैं--यह अच्छिन्नछेदनय का। इत्यादि। (नन्दीमवृ प २४२) अभिप्राय है। धर्म के प्रणेता होने से तीर्थंकर मूल हैं। उनसे ६. अनुयोग के प्रकार सम्बद्ध अनुयोग मूलप्रथमानुयोग है। इसमें अर्हतों के पूर्वभव (सम्यक्त्व प्राप्ति वाले भव से लेकर), देवलोकअणुओगे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-मूलपढमाणुओगे गमन, आयु, च्यवन, तीर्थंकरभव-जन्म, मेरु पर्वत पर गंडियाणुओगे य। (नन्दी ११९) सर-असुरों द्वारा अभिषेक इत्यादि का वर्णन है। __ अनुयोग दो प्रकार का है - मूलप्रथमानुयोग और कंडिकानुयोग। कंडिकानुयोग मूलप्रथमानुयोग गंडियाणुओगे कुलगरगंडियाओ, तित्थयरगंडियाओ, मूलपढाणुओगे णं अरहंताणं भगवंताणं पूव्वभवा. चक्कवट्टिगंडियाओ, दसारगंडियाओ, बलदेवगंडियाओ, देवलोग-गमणाई, आउँ, चवणाई, जम्मणाणि य अभिसेया, वासुदेवगंडियाओ, गणधरगंडियाओ, भद्दबाहगंडियाओ, रायवरसिरीओ, पव्वज्जाओ, तवा य उग्गा, केवलनाण- तवोकम्मगंडियाओ, हरिवंसगंडियाओ, ओसप्पिणीगंडिप्पयाओ, तित्थपवत्तणाणि य, सीसा, गणा, गणहरा, याओ, उस्सप्पिणीगंडियाओ, चित्तंतरगंडियाओ, अमरअज्जा, पवत्तिणीओ, संघस्स चउव्विहस्स जं च परिमाणं नर-तिरिय-निरय-गइ-गमण-विविह-परियट्रणेसु, एवजिण-मणपज्जव-ओहिनाणी, समत्तसूयनाणिणो य, वाई, माइयाओ गंडियाओ आघविज्जति। (नन्दी १२१) Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टिवाद देव कंडिकानुयोग में कुलकरकंडिका, तीर्थंकरकंडिका, ७. दृष्टिवाद के अनह चक्रवर्तीकंडिका, दशारकंडिका, बलदेवकंडिका, वासुदेव- बहवे दुम्मेधा असत्ता दिद्विवार्य अहिज्जिलं । अप्पाकंडिका, गणधरकंडिका, भद्रबाहुकंडिका, तपःकर्मकडिका, उयाण य आउयं ण पहप्पति । इत्थियाओ पुण पाएण हरिवंशकंडिका, अवसर्पिणी कंडिका, उत्सपिणीकाडका, तच्छाओ. गारवबहलाओ चलिंदियाओ, दुब्बलधिईओ, चित्रांतरकंडिका, देव, मनुष्य, तिर्यञ्च और नरकगति में अतो एयासिं जे अतिसेसज्झयणा अरुणोववायणिसीहगमन तथा विविध परिवर्तन इत्यादि कंडिकाओं का का माइणो दिद्रिवातोय ते ण दिज्जति । मानना प्रतिपादन है। ___(आवचू १ पृ ३५) इक्ष्वादीनां पूर्वापरपर्वपरिच्छिन्नो मध्यभागो जो मंद बुद्धि वाले हैं, वे दृष्टिवाद को पढ़ने में गण्डिका । गण्डिकेव गण्डिका - एकार्थाधिकारा ग्रन्थ असमर्थ हैं। जो अल्पायु हैं, उनका आयुष्य विशाल पद्धतिरित्यर्थः। गण्डिकानुयोगे कुलकरगण्डिकाः, इह ज्ञानराशि को प्राप्त करने से पूर्व ही समाप्त हो जाता सर्वत्राप्यपान्तरालवत्तिन्यो बह्वयः प्रतिनियतैकार्थाधि- है। स्त्रियां प्राय: तुच्छ और गौरवबहुल होती हैं। काररूपागण्डिका: कुलकरगण्डिकाः, तत्र कुलकराणां उनकी इन्द्रियां चंचल और धृति दुर्बल होती है, इसलिए विमलवाहनादीनां पूर्वभवजन्मनामादीनि सप्रपञ्चमुप- उन्हें अरुणोपपात, निशीथ जैसे अतिशेष-विशिष्ट वर्ण्यन्ते, एवं तीर्थकरगण्डिकादिष्वभिधानवशतो भाव- अध्ययनों तथा दष्टिवाद की वाचना नहीं दी जा सकती। नीयम् । (नन्दीमव प २४२) देव-दिव्य शक्ति-सम्पन्न । इक्ष आदि के पूर्व-अपर पर्व से परिच्छिन्न मध्यभाग को गंडिका-कंडिका कहते हैं। कंडिका की भांति जो १. देव का निर्वचन २. देव के प्रकार समान वक्तव्यता के अर्थाधिकार वाली ग्रन्थपद्धति है, वह कंडिकानुयोग है। जैसे-कूलकरकंडिका में विमल ३. भवनपति देव * परमाधामिक देव (द्र. नरक) वाहन आदि कुलकरों का पूर्वभव, जन्म, नाम आदि विस्तार ४. व्यंतर देव से वर्णित हैं। तीर्थकरकंडिका आदि में भी इसी प्रकार • जम्भक देव अपने-अपने नाम के आधार पर विस्तार से वर्णन होता है। ५. ज्योतिष्क देव चित्रान्तरकंडिका का प्रतिपाद्य * नक्षत्र देव (. नक्षत्र) ऋषभाजित तीर्थकरान्तरे ऋषभवंशसमुद्भूतभूपतीनां ६. वैमानिक देव शेषगतिगमनव्युदासेन शिवगतिगमनानुत्तरोपपातप्राप्ति- ७. कल्पोपग देव प्रतिपादिका गण्डिकाश्चित्रान्तरगण्डिकाः । ८. कल्पातीत देव (नन्दीमत् प २४२) ० प्रैवेयक और अनुत्तर देव चित्रान्तरकंडिका में अर्हत् ऋषभ और अर्हत् अजित | * लोकांतिक देव (. तीर्थकर) के अन्तराल काल में ऋषभवंश में उत्पन्न राजाओं के | ९. देवों की आयुस्थिति मोक्षगमन तथा अनुत्तर विमानों में उपपात का प्रतिपादन १०. देवों की कायस्थिति • अन्तरकाल (अर्हत ऋषभ के वंशज आदित्ययश आदि सम्राट ० अवगाहना दीक्षित हुए, साधना की और मुक्त हो गये। वे संख्या | ११. देव-आयुष्य बंध के कारण तीत थे। उनके पश्चात् अर्हत् अजित हुए-इससे संबद्ध | . देवों की सम्पदा विवरण वाली असंख्येय चित्रांतरगडिकाएं हैं। यह सारी | १२. देव के मनुष्यलोक में आगमन के कारण बात अष्टापद पर्वत पर चक्रवर्ती सगर के महामंत्री | १३. बेव के मनुष्यलोक में न आने के कारण सुबुद्धि ने सगरपुत्रों को बतायी थी। * देवलोक को अवस्थिति (द्र. लोक) (देखें-नन्दीमव प २४२-२४६) * देव की अस्तित्व सिद्धि (द्र. गणधर) Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देव * देव के भवप्रत्ययिक अवधिज्ञान और उसकी क्षेत्र ( द्र. अवधिज्ञान ) (व्र. कर्म) ( द्र. सामायिक ) मर्यादा तथा संस्थान * देवगति शुभ नाम कर्म * देवगति और सामायिक * देवों में लेश्या की स्थिति * देव और आशीविष लब्धि * देवों में श्रुत- विशुद्धि का तारतम्य * धर्मध्यान और देवगति * देवेन्द्र भव्य होते हैं। * देवों में शरीर * अवगाहना और विमानों का मापन देव चार प्रकार के हैं१. भवनपति २. व्यन्तर एएसि वण्णओ चेव, संठाणादेसओ वावि, ३४८ ( ब्र. लेश्या) ( द्र. लब्धि ) १. देव का निर्वाचन दिव्यन्ति निरुपमक्रीडामनुभवन्तीति देवाः । ( नन्दीमवृ प ७७ ) जो निरुपम क्रीडा का अनुभव करते हैं, वे देव हैं । २. देव के प्रकार देवा चव्वा वुत्ता, ते मे कित्तयओ सुण । भोमिज्जवाणमंतर, जोइसवेमाणिया ३. ज्योतिष्क ४. वैमानिक (द्र. भुतज्ञान) (द्र ध्यान ) ( द्र. चक्रवर्ती) (द्र. शरीर ) (द्र अंगुल ) तहा । ( उ ३६ । २०४) गंधओ रसफासओ । विहाणाई सहस्ससो ॥ ( उ ३६ । २४७) वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और संस्थान की दृष्टि से उनके हजारों भेद होते हैं । ३. भवनपति देव भूमौ पृथिव्यां भवा: भौमेयकाः भवनवासिनो, रत्नप्रभा पृथिव्यन्तर्भूतत्वात्तद्भवनानाम् । ( उशावृ प ७०१ ) जिन देवों के आवास भूमि पर हैं, वे भवनवासी कहलाते हैं । उनके भवन रत्नप्रभा पृथ्वी के भीतर हैं । कुमारवदेव कान्तदर्शनाः सुकुमाराः मृदुमधुरललितगतयः शृङ्गाराभिजातरूपविक्रियाः कुमारवच्चोद्धतरूपवेषभाषाभरणप्रहरणावरणयानवाहनाः कुमारवच्चोल्वणरागाः व्यंतर देव क्रीडनपराश्चेत्यतः कुमारा इत्युच्यन्ते । ( उशावृ प ७०२ ) जो कुमार की तरह कान्त, सुकुमार और मन्दललित गति वाले हैं, जो सुन्दर रूप की विक्रिया करते हैं, जो कुमार की तरह उद्धत रूप वेष, भाषा, आभूषण, आयुध, आवरण, यान वाहन वाले होते हैं, जो लावण्य सम्पन्न और क्रीड़ा प्रिय होते हैं, वे कुमार देव ( भवनवासी देव ) कहलाते हैं । असुरा नागसुवण्णा, विज्जू अग्गी य आहिया । वो हिदिसा वाया, थणिया भवणवासिणो ॥ ( उ ३६।२०६ ) भवनवासी देवों के दस प्रकार हैं १. असुरकुमार ६. द्वीपकुमार ७. उदधिकुमार २. नागकुमार ३. सुपर्णकुमार ८. दिक्कुमार ४. विद्युत्कुमार ९. वायुकुमार ५. अग्निकुमार १०. स्तनितकुमार ४. व्यंतर देव वनेषु विचित्रोपवनादिषूपलक्षणत्वादन्येषु च विविधास्पदेषु क्रीडैकरसतया चरितुं शीलमेषामिति वनचारिणः -- व्यन्तराः । ( उशावृ प ७०१ ) कुतूहलप्रिय और क्रीडा रसिक होने के कारण जो वन - उपवन आदि विविध स्थानों में विचरण करते हैं, वे व्यंतर देव हैं । • वाणमंतरत्ति आर्षत्वाद् विविधान्यन्तराणि - उत्कर्षापकर्षात्मकविशेषरूपाणि निवासभूतानि वा गिरिकन्दरविवरादीनि येषां तेऽमी व्यन्तराः, उक्तं हि ते ह्यधस्तिर्यगूर्ध्वं च त्रीनपि लोकान् स्पृशन्तः स्वातन्त्र्यात् पराभियोगाच्च प्रायेण प्रतिपतन्त्यनियतगतिप्रचारान्मनुव्यानपि क्वचिद् भृत्यवदुपचरन्ति तथा विविधेषु च शैलकन्दरान्तरवनविवरादिषु प्रतिवसन्त्यतो व्यन्तरा इत्युच्यन्ते । ( उशावृ प ७०१ ) रत्नप्रभा पृथ्वी के साधारण असाधारण अंतरों में जिनके आवास स्थल हैं तथा जो गिरिकन्दराओं के विवरों और वन-उपवनों आदि में रहते हैं, वे व्यन्तर देव I वे देव ऊर्ध्व, अधः तथा तिर्यक्- तीनों लोकों का स्पर्श करते हैं तथा स्वतंत्र रूप से अथवा दूसरों के द्वारा Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्पोपग देव नियुक्त होकर अनियत गति से विचरण करते हैं, कभीकभी मनुष्यों की भी सेवक की भांति सेवा करते हैं । पिसायभूय जक्खा य, रक्खसा किन्नरा य किपुरिसा । महोरगा य गंधव्वा, अट्ठविहा वाणमंतरा ॥ ( उ ३६।२०७ ) व्यन्तर देव आठ प्रकार के हैं- १. पिशाच ५. किन्नर ६. किंपुरुष २. भूत ३. यक्ष ४. राक्षस जृम्भक देव ७. महोरग ८. गन्धर्व वेसमणवयणसं चोइआ उ ते तिरिअजंभगा देवा । कोडिगसो हिरणं रयणाणि अ तत्थ उवणिति ॥ जुम्भकाः व्यन्तरा देवाः । तिर्यगिति तिर्यग्लोकजृम्भकाः । ( आवमा ६८ हावृ १ पृ १२० ) जृम्भक व्यन्तर देवों की एक जाति है । ये देव तिर्यक् लोक में रहने के कारण तिर्यक् जृम्भक कहलाते हैं। ये देव वैश्रमण देव की प्रेरणा से तीर्थंकरों के जन्ममहोत्सव आदि अवसरों पर स्वर्ण, रत्न आदि उपहृत करते हैं । ५. ज्योतिष्क देव ३४५ ज्योतींषि विमानान्यालया-आश्रया येषां ते ज्योतिरालयाः । ( उशावृ प ७०२ ) जिनके आश्रय - विमान ज्योतिर्मय हैं, वे ज्योतिष्क देव हैं। चंदा सूरा य नक्खत्ता, गहा तारागणा तहा । दिसाविचारिणो चेव, पंचहा जोइसालया ॥ ( उ ३६।२०८ ) ज्योतिष्क देवों के पांच प्रकार हैं१. चन्द्र २. सूर्य ३. नक्षत्र ४. ग्रह और ५ तारा । ये दिशाविचारी देव मेरु की प्रदक्षिणा करते हुए विचरण करने वाले हैं । दिशासु विशेषेण - मेरुप्रादक्षिण्यनित्यचारितालक्षणेन चरन्ति - परिभ्रमन्तीत्येवंशीला दिशाविचारिणः । तद्विमानानि ह्येकादशभिरेक विशैर्योजनशते में रोश्चतसृष्वपि दिवबाधया सततमेव प्रदक्षिणं चरन्तीति तेऽप्येवमुक्ताः । ( उशावृ प ७०२ ) देव दिशाचरी ज्योतिष्क देवों के विमान मेरु की चारों दिशाओं में सतत प्रदक्षिणा करते हैं, जिसका क्षेत्रपरिमाण ११२१ योजन है । ६. वैमानिक देव विशेषेण मानयन्ति - - उपभुञ्जन्ति सुकृतिन एतानीति विमानानि तेषु भवा वैमानिका: । ( उशावृ प ७०१ ) पुण्यशाली जिनका उपभोग करते हैं, वे विमान हैं । जिनकी उत्पत्ति विमान में हो, वे वैमानिक देव हैं । विसालिसेहि सीलेहिं, जक्खा उत्तरउत्तरा । महासुक्का व दिप्पंता, मन्नंता अपुणच्चवं ॥ अप्पिया देवकामाणं, कामरूवविउग्विणी । उड्ढं कप्पे चिट्ठति, पुव्वा वाससया बहू ॥ ( उ ३।१४, १५) विविध प्रकार के शीलों की आराधना के कारण जो देव उत्तरोत्तर कल्पों व उसके ऊपर के देवलोकों की आयु का भोग करते हैं, वे महाशुक्ल ( चंद्र-सूर्य ) की तरह दीप्तिमान् होते हैं तथा स्वर्ग से पुनः च्यवन नहीं होता, ऐसा मानते हैं । वे देवी भोगों के लिए अपने आपको अर्पित किए हुए रहते हैं । वे इच्छानुसार रूप बनाने में समर्थ होते हैं तथा सैकड़ों पूर्व वर्षों तक -असख्य काल तक ऊर्ध्ववर्ती कल्पों में रहते हैं । वेमाणिया उ जे देवा, दुविहा ते वियाहिया । कप्पोवगा य बोद्धव्वा, कप्पाईया तहेव य । ( उ ३६ २०९) वैमानिक देवों के दो प्रकार हैं- कल्पोपग और कल्पातीत । ७. कल्पोपग देव कल्प्यन्ते - इन्द्रसामा निकत्राय स्त्रिशादिदशप्रकारत्वेन एतेष्विति कल्पा – देवलोकास्तानुपगच्छन्ति - उत्पत्तिविषयतया प्राप्नुवन्तीति कल्पोपगाः । देवा (उशावृ प ७०२) जहां इन्द्र आदि कल्पों की व्यवस्था है, वे कल्पोपपन्न देवलोक हैं । वहां उत्पन्न देव कल्पोपग कहलाते हैं । दसकल्प ये हैं १. इन्द्र - सामानिक आदि देवों के अधिपति । २. सामानिक - आयु आदि में इन्द्र के समान । Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देव ३४६ कल्पातीत देव ३. त्रायस्त्रिश-मंत्रीस्थानीय । कल्पासीत देव दो प्रकार के हैं-अवेयक और ४. पारिषद्य मित्रस्थानीय । अनुत्तर। ५. आत्मरक्षक-स्वामीरक्षक। ग्रेवेयक देव ६. लोकपाल-सीमारक्षक । ग्रीवेव ग्रीवा लोकपुरुषस्य त्रयोदशरज्जूपरिवर्ती ७. अनीक-सैनिक और सेनापतिस्थानीय । प्रदेशस्तस्मिन्निविष्टतयाऽतिभ्राजिष्णतया च तदाभरण८. प्रकीर्णक-नगरवासी और देशवासी स्थानीय । भूता ग्रेवेया-देवावापास्तन्निवासिनो देवा अपि ग्रेवेयाः । ९. आभियोग्य-सेवकस्थानीय । (उशा प ७०२) १०. किल्विषक-अंत्यजस्थानीय । चौदह रज्जु प्रमाण लोकपुरुष का ग्रीवास्थानीय भाग कप्पोवगा बारसहा, सोहम्मीसाणगा तहा । है-तेरह रज्जु क; उपरि प्रदेश । उस लोकपूरुष के ग्रीवा सर्णकुमारमाहिंदा, बंभलोगा य लंतगा। स्थानीय प्रदेश में निवास करने वाले देव ग्रैवेयक कहलाते महासुक्का सहस्सारा, आणया तहा । आरणा अच्चुया चेव, इह कप्पोवगा सुरा । हेट्ठिमाहेट्ठिमा चेव, हेट्ठिमामज्झिमा तहा । (उ ३६।२१०,२११) हेट्ठिमाउरिमा चेव, मज्झिमाहेद्विमा तहा ॥ मज्झिमामज्झिमा चेव, मज्झिमाउवरिमा तहा। कल्पोपग देव बारह प्रकार के हैं--- उवरिमाहेट्ठिमा चेव, उवरिमामज्झिमा तहा ॥ १. सौधर्म ७. महाशुक्र उवरिमाउवरिमा चेव, इय गेविज्जग। सुरा ।... २. ईशान ८. सहस्रार (उ ३६।२१३-२१५) ३. सनत्कुमार ९. आनत प्रैवेयक देव नौ प्रकार के हैं४. माहेन्द्र १०. प्राणत ५. ब्रह्मलोक ११. आरण १. अधः-अधस्तन ६. मध्य-उपरितन २. अध:-मध्यम ७. उपरि-अधस्तन ६. लान्तक १२. अच्युत ३. अधः-उपरितन ८. उपरि-मध्यम सौधर्म देवलोक ४. मध्य-अधस्तन ९. उपरि-उपरितन सुधर्मा नाम शक्रस्य सभा। साऽस्मिन्नस्तीति सौधर्म: ५. मध्य-मध्यम कल्पः । स एषामवस्थितिविषयोऽस्तीति सौधर्मिणः । अनुत्तर देव (उशावृ प ७०२) ... विजया वेजयन्ता य, जयन्ता अपराजिया ।। शक की सभा का नाम है सुधर्मा । जहां यह सुधर्मा सव्वसिद्धगा चेव, पंचहाणुत्तर सुरा ।..... सभा है, वह सौधर्म देवलोक है। वहां सौधर्म देव रहते (उ ३६।२१५, २१६) अनुत्तर देव पांच प्रकार के हैं८. कल्पातीत देव १. विजय ४. अपराजित कल्पान् ... उक्तरूपानतीता:-तदुपरिवत्तिस्थानो- २. वैजयन्त ५. सर्वार्थसिद्धक त्पन्नतया निष्क्रान्ताः कल्पातीताः। (उशाव प ७०२) ३. जयन्त जो सौधर्म आदि बारह कल्पविमानों से ऊपर न विद्यन्ते उत्तरा:-प्रधाना स्थितिप्रभावसुखद्युतिग्रैवेयक और अनुत्तर विमानों में उत्पन्न होते हैं तथा जो लेश्यादिभिरेभ्योऽन्ये देवा इत्यनुत्तराः । (उशाव प ७०२) इन्द्र, सामानिक (स्वामी, सेवक) आदि की कल्पमर्यादा । आदि की कल्पमर्यादा अन्य देवों की अपेक्षा जिनकी स्थिति, प्रभाव, सुख, से अतीत हैं, वे कल्पातीत देव हैं। द्युति, लेश्या आदि अनुत्तर है, वे अनुत्तर देव हैं। कप्पाईया उजे देवा, दुविहा ते वियाहिया । सर्वेऽर्थाः सिद्धा इव सिद्धा येषां ते सर्वार्थसिद्धाः । ते गेविज्जाणुत्तरा चेव......" हि विजितप्रायकर्माणः, उपस्थितभद्रा एव तत्रोत्पत्तिभाजः। (उ ३६।२१२) (उशावृ प ७०३) Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देव ३४७ देवों की आयुस्थिति सर्वार्थसिद्ध देव वे हैं, जिनके प्रायः कर्म क्षीण हो चुके हैं और जिनके सामने हर क्षण कल्याण उपस्थित रहता है। सिद्धों की भांति इनके सब अर्थ सिद्ध होते हैं। सर्वे-निरवशेषा अर्थ्यमानत्वादर्थाः-- अनुत्तरसुखादयो यस्मिस्तत् सर्वार्थम् । (उशा प ७०४) जहां अनुत्तर सुख-समृद्धि पूर्णतः विद्यमान है, वह सर्वार्थसिद्ध विमान है। ६. देवों को आयुस्थिति साहियं सागरं एक्कं, उक्कोसेण ठिई भवे । भोमेज्जाणं जहन्नेणं, दसवाससहस्सिया ॥ पलिओवममेगं तु, उक्कोसेण ठिई भवे । वंतराणं जहन्नेणं, दसवाससहस्सिया ।। पलिओवमं एगं तु, वासलक्खेण साहियं । पलिओवमट्ठभागो, जोइसेसु जहनिया ।। दो चेव सागराइं, उक्कोसेण वियाहिया । सोहम्मंमि जहन्नेणं, एगं च पलिओवमं । सागरा साहिया दुन्नि, उक्कोसेण वियाहिया । ईसाणम्मि जहन्नेणं, साहियं पलिओवमं ॥ सागराणि य सत्तेव, उक्कोसेण ठिई भई। सणंकुमारे जहन्नेणं, दुन्नि ऊ सागरोवमा ।। साहिया सागरा सत्त, उक्कोसेण ठिई भवे । माहिदम्मि जहन्नेणं, साहिया दुन्नि सागरा ॥ दस चेव सागराइं, उक्कोसेण ठिई भवे । बंभलोए जहन्नेणं, सत्त ऊ सागरोवमा ।। चउद्दस सागराइं, उक्कोसेण ठिई भवे । लंतगम्मि जहनेणं, दस ऊ सागरोवमा ।। सत्तरस सागराइं, उक्कोसेण ठिई भवे । महासुक्के जहन्नेणं, चउद्दस सागरोवमा ।। अट्ठारस सागराइं, उक्कोसेण ठिई भवे । सहस्सारे जहन्नेणं, सत्तरस सागरोवमा ।। सागरा अउणवीसं तु, उक्कोसेण ठिई भवे । आणयम्मि जहन्नेणं, अट्ठारस सागरोवमा ।। वीसं तु सागराइं, उक्कोसेण ठिई भवे । पाणयम्मि जहन्नेण, सागरा अउणवीसई॥ सागरा इक्कवीसं तु, उक्कोसेण ठिई भवे । आरणम्मि जहन्नेणं, वीसई सागरोवमा ।। बावीस सागराइं, उक्कोसेण ठिई भवे । अच्चुयम्मि जहन्नेणं, सागरा इक्कवीसई ।। तेवीस सागराई, उक्कोसेण ठिई भवे । पढमम्मि जहन्नेणं, बावीसं सागरोवमा ।। चउवीस सागराइं, उक्कोसेण ठिई भवे । बिइयम्मि जहन्नेणं, तेवीसं सागरोवमा । पणवीस सागराइं, उक्कोसेण ठिई भवे । तइयम्मि जहन्नेणं, चउवीसं सागरोवमा ॥ छव्वीस सागराइं, उक्कोसेण ठिई भवे । चउत्थम्मि जहन्नेणं, सागरा पणुवीसई ॥ सागरा सत्तवीसं तु, उक्कोसेण ठिई भवे । पंचमम्मि जहन्नेणं, सागरा उ छवीसई ।। सागरा अट्ठवीसं तु, उक्कोसेण ठिई भवे । छट्ठम्मि जहन्नेणं, सागरा सत्तवीसई ॥ सागरा अउणतीसं तु, उक्कोसेण ठिई भवे । सत्तमम्मि जहन्नेणं, सागरा अट्टवीसई ।। तीसं तु सागराइं, उक्कोसेण ठिई भवे । अट्टमम्मि जहन्नेणं, सागरा अउणतीसई॥ सागरा इक्कतीसं तु, उक्कोसेण ठिई भवे । नवमम्मि जहन्नेणं, तीसई सागरोवमा । तेत्तीस सागराउ, उक्कोसेण ठिई भवे । चउसु पि विजयाईसुं, जहन्नेणेक्कतीसई ॥ अजहन्नमणुक्कोसा, तेत्तीसं सागरोवमा । महाविमाण सव्वळे, ठिई एसा वियाहिया ।। (उ ३६।२१९-२४४) जघन्य आयु दस हजार वर्ष दस हजार वर्ष पल्योपम का आठवां भाग उत्कृष्ट आयु किचित् अधिक एक सागरोपम एक पल्योपम एक लाख वर्ष अधिक एक पल्योपम भवनपति व्यन्तर ज्योतिष्क • वैमानिक सौधर्म ईशान एक पल्योपम किंचित अधिक एक पल्योपम दो सागरोपम किंचित अधिक दो सागरोपम For Private & Personal use only Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देव ३४८ देवों की कायस्थिति जवन्य आयु उत्कृष्ट आयु सनत्कुमार दो सागरोपम सात सागरोपम माहेन्द्र किंचित् अधिक दो सागरोपम किंचित् अधिक सात सागरोपम ब्रह्मलोक सात सागरोपम दस सागरोपम लान्तक दस सागरोपम चौदह सागरोपम महाशुक्र चौदह सागरोपम सतरह सागरोपम सहस्रार सतरह सागरोपम अठारह सागरोपम आनत अठारह सागरोपम उन्नीस सागरोपम प्राणत उन्नीस सागरोपम बीस सागरोपम आरण बीस सागरोपम इक्कीस सागरोपम अच्युत इक्कीस सागरोपम बाईस सागरोपम • नव प्रैवेयक प्रथम प्रैवेयक बाईस सागरोपम तेईस सागरोपम द्वितीय ग्रैवेयक तेईस सागरोपम चौबीस सागरोपम तृतीय ग्रैवेयक चौबीस सागरोपम पच्चीस सागरोपम चतुर्थ नैवेयक पच्चीस सागरोपम छब्बीस सागरोपम पंचम ग्रैवेयक छब्बीस सागरोपम सत्ताईस सागरोपम षष्ठ ग्रैवेयक सत्ताईस सागरोपम अट्ठाईस सागरोपम सप्तम ग्रैवेयक अट्ठाईस सागरोपम उनतीस सागरोपम अष्टम अवेयक उनतीस सागरोपम तीस सागरोपम नवम अवेयक तीस सागरोपम इकतीस सागरोपम • पांच अनुत्तर विमान विजय वैजयन्त इकतीस सागरोपम तेतीस सागरोपम जयन्त अपराजित सर्वार्थसिद्ध तेतीस सागरोपम तेतीस सागरोपम १०. देवों की कायस्थिति अन्तरकाल जा चेव उ आउठिई, देवाणं तु वियाहिया । अणंतकालमुक्कोसं, अंतोमुहुत्तं जहन्नयं । सा तेसिं कायठिई, जहन्नुक्कोसिया भवे ।। विजढंमि सए काए, देवाणं हज्ज अंतरं ।। (उ ३६।२४५) (उ ३६२४६) सारे ही देवों की जितनी आयुस्थिति है, उतनी ही उनका अन्तर-अपने-अपने काय को छोड़कर पुनः उनकी जघन्य या उत्कृष्ट कायस्थिति है। उसी काय में उत्पन्न होने का काल जघन्यत: अन्तर्मुहर्त देवे नेरइए य अइगओ, उक्कोसं जीवो उ संवसे । और उत्कृष्टत: अनन्तकाल का है। इक्किक्कभवग्गहणे ........ ॥ अवगाहना (उ १११४) एवं असुरकुमाराईणं जाव अणत्तरविमाणवासीणं देव और नरकयोनि में उत्पन्न हुआ जीव अधिक से सगसगसरीरोगाहणा भाणियव्वा। (अनु ४०५) अधिक एक-एक जन्म ग्रहण तक वहां रह जाता है। असुरकूमाराणं भवधारणा जहण्णा अंगुलअसंखभागो Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देव-आयुष्य बंध के कारण देव जिलो उक्कोस सत्त रयणी, उत्तरवेउव्विया जहण्णा अंगुलस्स ३. अग्नि में जलकर मरना । असंखेज्जतिभागो उक्कोसा जोयणलक्खं । एवं णागादिया- ४. जल में डूबकर मरना । णवि णवण्हं, णवरं उत्तरवेउव्विया उक्कोसा जोयण- ५. भूख और प्यास से क्लांत होकर मरना। सहस्सं । (अनुचू पृ५५) जेसिं तु विउला सिक्खा, मूलियं ते अइच्छिया। असुरकुमार देवों के भवधारणीय शरीर की जघन्य सीलवंता सवीसेसा, अद्दीणा जंति देवयं ।। अवगाहना अंगुल का असंख्येय भाग तथा उत्कृष्ट सात (उ ७।२१) हाथ है। उनकी उत्तरवैक्रिय शरीर की जघन्य अवगाहना जिनके पास विपुल शिक्षा है, वे शीलसम्पन्न और अंगुल का असंख्यातवां भाग तथा उत्कृष्ट एक लाख योजन उत्तरोत्तर गुणों को प्राप्त करने वाले पराक्रमी पुरुष है। इसी प्रकार नागकुमार आदि भवनपति देवों की मूलधन-मनुष्यत्व का अतिक्रमण करके देवत्व को प्राप्त अवगाहना भी इतनी है, केवल उत्तर वैक्रिय की उत्कृष्ट होते हैं। अवगाहना एक हजार योजन है। ताणि ठाणाणि गच्छति, सिक्खित्ता संजमं तवं । (व्यन्तर और ज्योतिष्क देवों की अवगाहना असुर भिक्खाए वा गिहत्थे वा, जे संति परिनिव्वुडा । कुमार देवों जितनी होती है ।""अनुत्तरोपपातिक देवों (उ ५।२८) की अवगाहना एक हाथ की होती है। जो उपशान्त होते हैं, वे संयम और तप का अभ्यास देखें-पन्नवणा २११७०,७१ । कर देव-आवासों में जाते हैं, भले फिर वे भिक्ष हों या ११. देव-आयुष्य बंध के कारण गृहस्थ । देवाउयं निबंधइ, सरागतवसंजमो। इहजीवियं अणियमेत्ता, पब्भट्ठा समाहिजोएहिं । अणुव्वयधरो दंतो, सत्तो बालतवम्मि य । ते कामभोगरसगिद्धा, उववज्जति आसुरे काए । बालतवे पडिबद्धा, उक्कडरोसा तवेण गारविया । (उ ८।१४) वेरेण य पडिबद्धा, मरिऊणं जति असूरेसू ।। जो इस जन्म में जीवन को अनियंत्रित रखकर रज्जुग्गहणे विसभक्खणे य जलणे य जलपवेसे य।। समाधि-योग से परिभ्रष्ट होते हैं, वे कामभोग और रसों तण्हाछुहाकिलंता, मरिऊणं हंति वंतरिया ॥ में आसक्त बने हुए पुरुष असुरकाय में उत्पन्न होते हैं। (उसु प ६७) देवों की सम्पदा देव-आयुष्य बंध के कारण उत्तराई विमोहाई, जुइमंताणुपुव्वसो । १. सराग तप-संयम का पालन । समाइण्णाइं जक्खेहिं, आवासाइं जसंसिणो । २. अणुव्रतों का पालन । दीहाउया इड्ढिमंता, समिद्धा कामरूविणो। ३. इन्द्रिय और मन का दमन । अहुणोववन्नसंकासा, भुज्जो अच्चिमालिप्पभा । ४. बाल तप में आसक्त । (उ ५।२६,२७) असुरदेव-आयुष्य बंध के कारण देवताओं के आवास उत्तरोत्तर उत्तम, मोहरहित १. अज्ञान तप में प्रतिबद्धता । और द्यतिमान तथा देवों से आकीर्ण होते हैं। उनमें २. प्रबल क्रोध करना। रहने वाले देव यशस्वी, दीर्घायु, ऋद्धिमान्, दीप्तिमान्, ३. तप का अहं करना। इच्छानुसार रूप धारण करने वाले, अभी उत्पन्न हुए हों ४. वैर में प्रतिबद्धता। ऐसी कान्ति वाले और सूर्य के समान अतितेजस्वी ज्यन्तरदेव-आयुष्य बंध के कारण होते हैं। १. फांसी पर लटक कर आत्महत्या करना। सौधर्मादिषु ह्यनुत्तरविमानावसानेषु पूर्वपूर्वापेक्षया २ विष-भक्षण। प्रकर्षवन्त्येव विमोहत्वादीनि । (उशावृ प २५२) Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य सौधर्म देवलोक से अनुत्तरविमान पर्यन्त देवलोकों में निवास करने वाले देवों में मोह आदि क्रमशः कम होते जाते हैं । अनुत्तर विमानवासी देवों का मोह अत्यंत उपशांत होता है । अधुनोपपन्नसंकाशाः प्रथमोत्पन्नदेवतुल्याः, अनुत्तरेषु हि वर्णद्युत्यादि यावदायुस्तुल्यमेव भवति । ( उशावृ प २५२ ) ३५० अधुनोपपन्न का अर्थ है तत्काल उत्पन्न देव । इसका तात्पर्य है कि उनमें औदारिक शरीरगत अवस्थायें नहीं होती । वे न बालक होते हैं न बूढ़े, सदा एक समान रहते हैं । अनुत्तर विमानवासी देवों का रूप-रंग और लावण्य जैसा उत्पत्ति के समय होता है वैसा अन्तकाल तक होता है । "मोहणियसायवेयणियकम्मउदयाओ । कामपसत्ता विरई कम्मोदयउ च्चिय न तेसि ॥ अणि मिस देवसहावा णिच्चिट्ठाणुत्तरा उ कयकिच्चा । कालानुभावा तित्थुन्नईवि अन्नत्थ कुव्वंति ॥ ( आवनि २ पृ १६० ) देव मोहनीय और सातवेदनीय कर्म के उदय के कारण कामासक्त होते हैं । अप्रत्याख्यान मोहनीय के उदय के कारण वे त्याग नहीं कर सकते। वे स्वभाव से ही अनिमेष होते हैं । अनुत्तर देव कृतकृत्य होने के कारण क्रिया नहीं करते । उचित समय में वे तीर्थ की प्रभावना में भी सहयोगी बनते हैं । १२. देव के मनुष्यलोक में आगमन के कारण नवरि जिणजम्म दिक्खा - केवल - निव्वाणमहनिओगेणं । भत्तीए सोम्म ! संसयविच्छेयत्थं व एज्जहण्हा ॥ पुव्वाणुरागओ वा समयनिबंधा तवोगुणाओ वा । नरगणपीडा - ऽणुग्गह-कंदप्पाईहिं वा केइ ॥ ( विभा १८७६, १८७७ देव निम्न कारणों से मनुष्य लोक में आ सकते हैं१. अर्हत् के जन्म, दीक्षा, कैवल्य और निर्वाण महोत्सव पर । २. भक्ति के वशीभूत होकर । ३. संशय दूर करने के लिए । ४. पूर्व जन्म के पुत्र, मित्र आदि के अनुराग से । देशविरति ५. पूर्वभव में किसी निश्चित संकेत आदि के द्वारा प्रतिबोध देने के लिए । ६. तपस्या आदि गुणों से आकृष्ट होकर । ७. पूर्वभव के बैर के कारण उसे पीड़ा देने के लिए । ८. पूर्वभव के मित्र आदि पर अनुग्रह करने के लिए । ९. हास्य, कुतूहल के कारण । १३. देव के मनुष्यलोक में न आने के कारण संकेत दिव्यपेम्मा विसयपसत्ताऽअसमत्तकत्तव्वा । अणही मणुयकज्जा नरभवमसुहं न एंति सुरा ॥ ( विभा १८७५ ) देव निम्न कारणों से मनुष्य लोक में नहीं आते-१. संक्रांत दिव्यप्रेम – उत्पन्न होते ही देवों का परस्पर घनिष्ठ प्रेम हो जाता है । २. विषयासक्ति - वे दिव्य कामभोगों में आसक्त हो जाते हैं । ३. असमाप्तकर्तव्य – वे अनेक कार्यों में नियुक्त हो जाते हैं । उन कार्यों में अतिव्यस्तता रहने के कारण । ४. अनधीनकार्य - वे मनुष्य के किसी कार्य के अधीन नहीं होते । ५. अशुभ गंध - वे मनुष्य लोक की दुर्गन्ध को सहन नहीं कर सकते । देशविरति - जो अंश रूप में व्रती होता है, उसकी आत्मविशुद्धि | ( द्र. गुणस्थान ) द्रव्य गुण और पर्याय का आश्रय । १. द्रव्य के निर्वाचन २. द्रव्य-गुण- पर्याय ३. द्रव्य के प्रकार * धर्मास्तिकाय * अधर्मास्तिकाय * आकाशास्तिकाय * काल * पुद्गल जीवास्तिकाय ४. पर्याय के लक्षण ( द्र. अस्तिकाय) ( द्र. काल ) (द्र. पुद्गल ) (व्र. नीत्र) Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य ३५१ सामान्य-विशेष ५. सामान्य-विशेष धम्मो अहम्मो आगासं, दव्वं इक्किक्कमाहियं । ६. द्रव्य परिणामीनित्य अणंताणि य दवाणि, कालो पुग्गलजंतवो ।। ७. उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य (उ २८1८) ८. गुरु और लघु द्रव्य धर्म, अधम, आकाश--ये तीन द्रव्य एक-एक हैं। काल, पुद्गल और जीव-ये तीन द्रव्य अनन्त-अनन्त ९. अगुरुलघु पर्याय १०. द्रव्य-पर्याय की सूक्ष्मता ४. पर्याय के लक्षण १. द्रव्य के निर्वचन एगत्तं च पुहत्तं च, संखा संठाणमेव य । दवए दुयए दोरवयवो विगारो गुणाण संदावो । संजोगा य विभागा य, पज्जवाणं तु लक्खणं ॥ दव्वं भव्वं भावस्स भूअभावं च जं जोग्गं ।। (उ २८।१३) (विभा २८) एकत्व-प्रत्येक स्कन्ध के परमाणु भिन्न-भिन्न होते हैं. द्रव्य वह है फिर भी उनके संघात में एकत्व की अनुभूति ० जो अपने पर्यायों को प्राप्त होता है और उनसे होती है। मुक्त होता है। पृथक्त्व-यह इससे पृथक् है-इस अनुभूति का हेतुभूत पर्याय। • जो अपने पर्यायों द्वारा गृहीत होता है और परित्यक्त (मुक्त) होता है। संख्या-एक, दो, तीन आदि की प्रतीति का हेतभूत ० जो सत्ता का अवयव अथवा विकार है। (अवा - पर्याय। संस्थान-आकार-विशेष में संस्थित होना। यह न्तर सत्तात्मक द्रव्य महासत्ता के अवयव अथवा विकार होते हैं।) यह दीर्घ है-इस बुद्धि का हेतुभूत पर्याय । • जो रूप आदि गुणों का समुदाय है। संयोग-दो वस्तुओं का संयोग । ० जिसमें भूतकालीन और भविष्यकालीन पर्यायों विभाग -यह इससे विभक्त है-इस बुद्धि का हेतुभूत की योग्यता है। पर्याय । २. द्रव्य-गुण-पर्याय ५. सामान्य-विशेष सामण्ण-विसेसमओ तेण पयत्थो विवक्खया जूत्तो। गुणाणमासओ दव्वं एगदव्वस्सिया गुणा । वत्थस्स विस्सरूवो पज्जायावेक्खया सव्वो॥ लक्खणं पज्जवाणं तु उभओ अस्सिया भवे ।। (विभा १६०३) (उ २८१६) प्रत्येक पदार्थ में सामान्य और विशेष दोनों होते हैं। जो गुणों का आश्रय होता है, वह द्रव्य है। जो एक पर्याय की अपेक्षा पदार्थ के विविध रूप हैं। (केवल) द्रव्य के आश्रित रहते हैं. वे गुण होते हैं। द्रव्य । ""वत्थूणं चिय जो सरिसो पज्जवो स सामन्नं । और गुण-दोनों के आश्रित रहना पर्याय का लक्षण जो विसरिसो विसेसो ............॥ (विभा २२०२) ३. द्रव्य के प्रकार वस्तु के सदृश पर्याय को सामान्य और विसदृश धम्मो अहम्मो आगासं, कालो पूग्गलजंतवो ।.... पर्याय को विशेष कहते हैं। (उ २८७) सव्वं चिय सव्वमयं स-परपज्जायओ जओ निययं । द्रव्य के छह प्रकार हैं -- सव्वमसव्वमयं पि य विवित्तरूवं विवक्खाओ। १. धर्मास्तिकाय ४. काल (विभा १६०२) २. अधर्मास्तिकाय ५. पुद्गलास्तिकाय सर्व पदार्थ सर्वात्मक है, स्व और पर पर्याय अर्थात ३. आकाशास्तिकाय ६. जीवास्तिकाय सामान्य की अपेक्षा से। सर्व सर्वात्मक नहीं हैं, पृथक Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य पर्याय अर्थात् विशेष की अपेक्षा से । ६. द्रव्य परिणामी नित्य आविभाव- तिरोभावमेत्तपरिणामि दव्वमेवेयं । निच्चं बहुरूवं पिय नडोव्व वेसंतरावन्नो || ( विभा २६६६ ) नाना प्रकार के वेष धारण करने वाले नट के बहुरूपों की तरह आविर्भाव और तिरोभाव होने पर भी द्रव्य अपने स्वरूप को नहीं छोड़ता है, इसलिए द्रव्य परिणामी नित्य है । जं जं जे जे भावे परिणमइ पओग-वीस सादव्वं । तं तह जाणाइ जिणो अपज्जवे जाणणा नत्थि ॥ ( विभा २६६७ ) प्रयोग और स्वभाव से जो-जो द्रव्य जिस-जिस भाव में परिणत होता है, केवली उसे उसी रूप में जानते हैं । पर्याय रहित द्रव्य को नहीं जाना जा सकता । ७. उत्पाद-व्यय-धौव्य नाणुपपन्नं लक्खिज्जए जओ वत्थु लक्खणं तेणं । उपाओ संभव तह चैव विगच्छओ विगमो || लक्खिज्जइ जं विगयं विगमेण विणा व जं न संभूई । विगमो विलक्खणमओ विगच्छओ वत्थुणोऽणणो ॥ (विभा २१६४, २१६५) अनुत्पन्न वस्तु का बोध नहीं होता और विगम (व्यय) के बिना उत्पाद नहीं होता । उत्पाद और व्यय से वस्तु लक्षित होती है, अतः उत्पाद और व्यय वस्तु के लक्षण हैं, उससे अभिन्न हैं । सव्वं चिय पइसमयं उप्पज्जइ नासए य निच्चं च । ... ( विभा ५४४ ) सभी वस्तुएं प्रतिक्षण उत्पन्न होती हैं, नष्ट होती हैं और नित्य हैं । अव सहावो धम्मो वत्थुस्स, न सो वि सरिसओ निच्चं । उपाय - भंगा चित्ता जं वत्थुपज्जाया ।। ( विभा १७९२ ) समान नहीं रहता । वस्तु का स्वभाव निरन्तर एक वस्तु के पर्याय विचित्र । वे तीन हैं—उत्पाद, धोव्य और विनाश । उत्पाद और व्यय युगपत् ३५२ नाणसावरणस्स य समयं उपायव्वयधम्मा तम्हा पगासतमसो व्व । तह नेया सव्वभावाणं ॥ ( विभा १३४० ) उत्पाद - व्यय - ध्रौव्य अंधकार के निवर्तन और प्रकाश के उद्भव की तरह केवलज्ञानावरण का क्षय और कैवल्य की उत्पत्ति युगपत् होती है । इसी प्रकार सब पदार्थों में उत्पाद और व्यय युगपत् होते हैं । उत्पज्जेति वयंति य परिणमंति य गुणा न दव्वाइं । दव्वtपभवाय गुणा ण गुणप्पभवाइं दव्वाई || ( आवनि ७९३ ) उत्पाद और व्यय के रूप में परिणमन गुण का होता है, द्रव्य का नहीं । द्रव्य से गुण की उत्पत्ति होती है, गुण 'से द्रव्य की उत्पत्ति नहीं होती । मातृकापद ते हि तीर्थ विधौ सर्वे, मातृकाख्यं उत्पत्तिविगम धौव्यख्यापकं उत्पत्तिविगमावत्र, मतं द्रव्यार्थिकस्य तु धीव्यं पदत्रयम् । सम्प्रचक्षते || पर्यायवादिनः । मातृकाख्यपदत्रये ॥ ( उशावृप २१ ) अर्हत् तीर्थ में तीन मातृकापद हैं— उत्पाद, व्यय और धौव्य | पर्यायवादी को उत्पाद और व्यय तथा द्रव्यवादी को धोव्य मान्य 1 दव्वधम्मो ताव दव्वपज्जवा । एते धम्मा तस्स जीवदव्वस्स अजीवदव्वस्स, उप्पायठिईभंगा पज्जाया भवंति । तत्थ जीवदव्वस्स ताव इमे उप्पायठितिभंगा, जह मणुभावेण उप्पण्णस्स मणुस्सस्स मणूसत्ते उप्पायो भवंति, जाओ पुण गतितो उव्वट्टिऊण आगओ ताए गतीए विगमो, जीवत्तणेण पुण अवट्ठिओ चेव । अजीवस्स उप्पायठिईभंगा 'जहा परमाणुस्स परमाणुभावेण विगयस्स परमाणुत्तणेण विगमे दुप्पदेसियतेण उपाओ अजीवदव्वत्तणंण अवट्ठिओ चेव । तहा सुवण्णदव्वस्स अंगुलेज्जगत्तणेण विगमो कुंडलत्तणेण उप्पाओ सुवण्णदव्वत्ते अवट्ठियं चेव" ****** I ( दजिचू पृ १६ ) द्रव्य का धर्म है - द्रव्य के पर्याय । उत्पाद, स्थिति और व्यय - ये पर्याय जीव और अजीव -- दोनों द्रव्यों के होते हैं । जैसे- एक देव मनुष्य जन्म लेता है तो उसके देवरूप का विनाश और मनुष्यरूप का उत्पाद होता है तथा उसका जीवत्व अवस्थित रहता है। इसी प्रकार अजीव द्रव्य में भी यह त्रिपदी घटित होती है । एक परमाणु का विनाश होने पर द्विप्रदेशी स्कंध आि Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य ३५३ द्वीप के रूप में उसका उत्पाद होता है, अजीवत्व की अपेक्षा कालतो सट्ठाणं पडुच्च समओ सुहुमो। भावतो सट्ठाणं से वह अवस्थित रहता है। स्वर्ण की अंगूठी को भांज पडुच्च एगगुणकालतो सुहमो। परद्वाणं पडुच्च दव्वातो कर कुंडल बनाने पर अंगूठी का नाश और कुंडल का भावो सुहुमतरागो। परमाणुपोग्गलो अणंतगुणकालोऽवि उत्पाद होता है तथा स्वर्णद्रव्यत्व अवस्थित रहता है। अत्थि, अतो दव्वेहितो भावो सुहुमयरागो। मुत्तदव्व जीवमजीवे रूवमरूवी सपएसमप्पएसे अ । भावेहितो अमुत्तभावत्तणेण कालखेत्ता सुहमा, कालतो य जाणाहि दव्वलोगं णिच्चमणिच्चं च जं दव्वं ।। खेत्तं सुहमयरागंति । (आवचू १ पृ ४३) (आवभा १९५) स्वस्थान की अपेक्षा सब द्रव्यों में परमाणुपुद्गल, जीव द्रव्य के दो भेद हैं-रूपी (संसारी जीव), क्षेत्रत: एक आकाशप्रदेश, कालतः समय और भावत: अरूपी (सिद्ध जीव)। अजीव द्रव्य के दो भेद हैं-रूपी एक गुण काला सूक्ष्म है। परमाणुपुद्गल अनन्त गुण (पुद्गल), अरूपी (धर्मास्तिकाय आदि)। परमाणु के काला भी होता है, इसलिए परस्थान की अपेक्षा द्रव्य अतिरिक्त सभी द्रव्य सप्रदेशी और अप्रदेशी हैं। द्रव्य से भाव सूक्ष्मतर है। मूर्त द्रव्य के भाव से अमूर्त भाव द्रव्यत्व की अपेक्षा नित्य और पर्याय की अपेक्षा अनित्य आर पयाय का अपेक्षा आनत्य सूक्ष्म है, इसलिए काल और क्षेत्र सूक्ष्म है। काल से क्षेत्र सूक्ष्मतर है। ८. गुरु और लघु द्रव्य द्वादशांग--गणधर द्वारा रचित आचार आदि णिच्छयण यस्स णत्थि सव्वगुरुं दव्वं, णावि सव्वलहुं । बारह अंग-आगम, गणिपिटक । ववहारणयादेसेण पुण बायरखंधेसु सव्वेसु दोऽवि अस्थि । (द्र. अंगप्रविष्ट) द्वीप-टापू । जहा सव्वगुरू कोडियसिला, सव्वलहू मूलगपत्तं तूलं वा । (आवचू १ पृ २९) द्वाभ्यां प्रकाराभ्यां स्थानदातृत्वाहाराद्युपष्टम्भहेतुनिश्चय नय की अपेक्षा कोई भी द्रव्य सर्वथा गुरु त्वलक्षणाभ्यां प्राणिनः पान्तीति द्वीपाः जन्त्वावासभूतऔर सर्वथा लघु नहीं है। व्यवहार नय की अपेक्षा सब क्षेत्रविशेषाः । (अनुमवृ प ८२) बादर स्कन्ध गुरु और लघु-दोनों हैं। जैसे कोटिक स्थानदान और आहार आदि का उपष्टम्भ- इन दो शिला गुरु है । मूले का पत्र और रूई लघु है। प्रकारों से जो प्राणियों का पालन-संरक्षण करते हैं, वे द्वीप-आवासक्षेत्र हैं। जंबू, धातकीखंड, पुष्कर आदि ६. अगुरुलघु पर्याय द्वीप हैं। (द्र. लोक) परमाणतो आढत्तं जाव अणंतपदेसितो खंधो एते विहो य होइ दीवो दव्वदीवो अ भावदीवो य । सुहमा खंधा भण्णं ति। अगरुलहपज्जाया य निच्छयतो इक्किक्कोऽवि अ दुविहो आसासपगासदीवो अ।। एतेसि भवंति। जे णो गुरू णो लहू ते अगुरुलहु संदीणमसंदीणो संधिअमस्संधिए अ बोद्धव्वे । पज्जाया भण्णंति । जे पुण सुहमातो अणंतपदेसितातो आसासपगासे अ भावे दुविहो पुणिक्किक्को ।। आरब्भ अणंताणंतपदेसिया खंधा तेसिं जे पज्जाया ते (उनि २०६, २०७) गुरुया लहुया य णिच्छयतो णातव्वत्ति । संदीणो णाम जो जलेण छादेज्जति, सो ण जीवितत्थ(आवचू १ पृ २९, ३०) संताणाय । जो पुण सो विच्छिण्णत्तणेण उस्सित्तणेण निश्चयनय की दृष्टि से परमाणु से लेकर सूक्ष्म य जलेण ण छादेज्जति सो जीवितत्थीणं ताणाय असंदीणो अनन्त प्रदेशी स्कन्ध तक अगुरुलघु हैं। जो द्रव्य न गुरु । दीवो जहा कोंकणदीवो......"खओवसमियसम्मइंसणदीवो होते हैं और न लघु, वे अगुरुलघु पर्याय वाले होते हैं। पडिवातित्ति काउं संदीणो असंदीणो तु खायगसम्मइंसणसूक्ष्म अनन्तप्रदेशी स्कन्धों से लेकर अनन्तानन्त प्रदेशी दीवो। (उच पृ ११४, ११५) स्कन्धों के पर्याय गुरुलघु होते हैं । संदीयते-जलप्लावनात् क्षयमाप्नोतीति सन्दीन:, १०. द्रव्य-पर्याय की सूक्ष्मता तदितरस्त्वसन्दीनः । (उशावृ प २१२) सट्ठाणं पडुच्च दव्वतो सव्वदव्वाणं परमाणुपोग्गलो प्राकृत शब्द 'दीव' के संस्कृत में दो रूप हैं-द्वीप सुहुमो । खेत्ततो सट्ठाणं पडुच्च एगो आगासपदेसो सुहुमो। और दीप । इसके दो प्रकार हैं-द्रव्य और भाव । द्रव्य Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म ३५४ धर्म को अर्हता दीव के दो प्रकार हैं-आश्वास द्वीप और प्रकाश दीप ।। ६. श्रुतधर्म आश्वास द्वीप के दो भेद हैं ७. चारित्रधर्म-क्षमा आदि १. संदीन द्वीप-यह जलप्लावन आदि से आच्छादित ८. श्रमणधर्म में मूलगुण-उत्तरगुण या नष्ट हो जाता है तथा जीवन को त्राण नहीं ___ * अगारधर्म (द्र. श्रावक) देता। * अनगारधर्म (द्र. महाव्रत) २. असंदीन द्वीप-यह विस्तीर्ण और ऊंचा होता है, ९. धर्म की दुर्लभता अतः जल से आच्छादित या नष्ट नहीं होता तथा जीवन | १०. धर्म मंगल है। को वाण देता है। जैसे-कोंकण देश का द्वीप। • धर्म शरण है क्षायोपशमिक सम्यक्त्व भावसंदीन और क्षायिक * धर्म अनुप्रेक्षा (द्र. अनुप्रेक्षा) सम्यक्त्व भावअसंदीन द्वीप है। | ११. धर्मश्रद्धा के परिणाम पगासदीवो णाम जो उज्जोयं करेति, सो दुविधो- १२. लौकिक और लोकोत्तर उपकार संजोइमो सो तृणपुलकवतिअग्निकर्तृ समवायेन निष्पद्यते, १. धर्म का निर्वचन, परिभाषा असंजोइमो चंदादिच्चमणिमादि ।....."पगासभावदीवोवि दुविहो-विघातिमो संघाइमो य । तत्थ संघातिमो अक्खर- धारेति संसारे पडमाणमिति धम्मो । पदपादसिलोगो गाथाउद्देसगादिसंघातमयं दुवालसंगं (दअचू पृ १) सुतज्ञानं । असंघातिमं केवलनाणं । (उचू पृ ११५) यस्मात् जीवं नरकतिर्यग्योनिकुमानुषदेवत्वेषु प्रपतंतं ___ जो अंधकार में प्रकाश फैलाता है, उसे प्रकाश दीप धारयतीति धर्मः । (दजिचू पृ १५) जो दुर्गति में गिरते हुए प्राणी को धारण करता है, कहा जाता है । उसके दो भेद हैं उसका संरक्षण करता है, वह धर्म है । १. संयोगिम दीप -तैल, वति आदि के संयोग से जो जीव को चतुर्गत्यात्मक जन्म से बचाता है, वह धर्म प्रदीप्त होने वाला दीप। है अर्थात जो मोक्ष का हेतभत है. वह धर्म है। २. असंयोगिम दीप-चन्द्र, सूर्य, मणि आदि । """धत्ते चैतान् शुभे स्थाने तस्माद्धर्म इति स्मृतः ॥ प्रकाशभावदीप के दो प्रकार हैं (नन्दीमवृ प १५) १. संघातिम दीप-अक्षर, पद, पाद, श्लोक, गाथा, जो प्राणियों को शुभ स्थानों-भावों और कार्यों में उद्देशक आदि का संघात द्वादशांग, श्रुतज्ञान । नियोजित करता है, वह धर्म है। २. असंघातिम दीप-केवलज्ञान । असंजमाउ नियत्ती संजमंमि य पवित्ती। (श्रतज्ञान संदीन दीप और केवलज्ञान असंदीन दीप (दजिचू पृ १७) है । देखें-आचारांगवृत्ति पत्र २२४) धर्म का अर्थ है----असंयम से निवृत्ति और संयम में प्रवृत्ति । धर्म-वस्तु का स्वभाव । मोक्ष का उपाय । धम्मो सभावो लक्खणं । (दअचू पृ१०) धर्म का अर्थ है-वस्तु का स्वभाव अथवा लक्षण। १. धर्म का निर्वचन, परिभाषा २. धर्म की अर्हता २. धर्म की अर्हता ३. धर्म के प्रकार सोही उज्जुयभूयस्स, धम्मो सुद्धस्स चिट्ठई। ० द्रव्य धर्म निव्वाणं परमं जाइ, घयसित्त व्व पावए । ० भाव धर्म (उ ३.१२) ४. लौकिक-प्रावनिक धर्म शूद्धि उसे प्राप्त होती है, जो ऋजुभूत होता है। धर्म ५. लोकोत्तर धर्म उसमें ठहरता है, जो शुद्ध होता है । जिसमें धर्म ठहरता Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र धर्म ३५५ . धर्म है, वह घत से अभिषिक्त अग्नि की भांति परम निर्वाण ५. लोकोत्तर धर्म (समाधि) को प्राप्त होता है। लोउत्तरियो भावधम्मो दुविहो-सुतधम्मो चरित्तजरा जाव न पीलेइ, वाही जाव न वड्ढई। धम्मो य। __(दअचू पृ ११) जाविदिया न हायंति, ताव धम्म समायरे ॥ लोकोत्तर भावधर्म के दो प्रकार हैं-श्रुतधर्म और (द ८।३५) चारित्रधर्म । जब तक बुढ़ापा पीड़ित न करे, व्याधि न बढ़े और ६.श्रुतधम इन्द्रियां क्षीण न हों, तब तक व्यक्ति धर्म का आचरण सुतधम्मो दुवालसंगं गणिपिडगं, तस्स धम्मो जाणिकरे। तव्वा भावा। (दअचू पृ११) ३.धर्म के प्रकार द्वादशांग गणिपिटक में प्रतिपादित भावों को जानना णामं ठवणाधम्मो दव्वधम्मो य भावधम्मो य । श्रुतधर्म है। (द्र. श्रुतज्ञान) (दनि १७) ७. चारित्र धर्म धर्म के चार प्रकार हैं-नाम धर्म, स्थापना धर्म, चरित्तधम्मो दसविहो-खमा महवं अज्जवं सोयं द्रव्य धर्म, भाव धर्म । सच्चं संजमो तवो चातो अकिंचणत्तणं बंभचेरं । द्रव्य धर्म (दअचू पृ ११) चारित्र धर्म के दश प्रकार हैं -- दव्वं च अत्थिकायो पयारधम्मो य... । १. क्षमा ६. संयम दव्वस्स पज्जवा जे ते धम्मा तस्स दव्वस्स ॥ २. मार्दव ७. तप धम्मत्थिकायधम्मो पयारधम्मो य विसयधम्मो य ।.. ३. आर्जव ८. त्याग (दनि १८, १९) ४. शौच ९. अकिंचनता द्रव्य धर्म के तीन प्रकार हैं ५. सत्य १०. ब्रह्मचर्य । १. द्रव्य धर्म-द्रव्य के पर्याय । २. अस्तिकाय धर्म-धर्म आदि अस्तिकायों का सत्य, संयम, तप, ब्रह्मचर्य (द्र. संबद्ध नाम) स्वभाव । क्षमा ३. प्रचार धर्म---इन्द्रियविषयों का स्वभाव । खमा अक्कोसतालणादी अहियासेंतस्स कम्मक्खओ भवति । तम्हा कोहोदयनिरोहो कातव्वो, उदयप्पत्तस्स माव धर्म वा विफलीकरणं । एसा खमत्ति वा तितिक्खत्ति वा लोइय कुप्पावयणिय लोगुत्तरी...॥ कोहनिरोहत्ति वा । (आवचू २ पृ११६) (दनि १९) आक्रोश, ताड़ना आदि को सहन करना क्षमा है। भावधर्म के तीन प्रकार हैं-लौकिक धर्म, कुप्राव इससे कर्मक्षय होता है। क्रोध के उदय का निरोध और चनिक धर्म, लोकोत्तर धर्म । उदयप्राप्त क्रोध का विफलीकरण क्षमा है । क्षमा, तितिक्षा ४. लौकिक-कुप्रावनिक धर्म और क्रोधनिरोध एकार्थक हैं। गम्म पसु देस रज्जे पूरवर गाम गण गोट्रि राईणं । कोहविजएणं खंति जणयइ ।'' (उ २९।६८) सावज्जो उ कुतित्थियधम्मो ण जिणेसं तु पसत्थो । क्रोधविजय से क्षमा उत्पन्न होती है। (दनि २०) क्षमा के परिणाम लौकिक धर्म के प्रकार-गम्यधर्म, पशुधर्म, देशधर्म खमावणयाए णं पल्हायणभावं जणयइ । पल्हायणराज्यधर्म, परवरधर्म, ग्रामधर्म, गणधर्म, गोष्ठीधर्म और भावमुवगए य सव्वपाणभूयजीवसत्तेसु मित्तीभावराजधर्म । मुप्पाएइ । मित्तीभावमुवगए यावि जीवे भावविसोहि कुतीथिकों--कुप्रावचनिकों का धर्म सावद्य-अप्रशस्त काऊण निब्भए भवइ। (उ २९।१८) होता है। जिनेश्वर देव का धर्म प्रशस्त होता है। क्षमा करने से जीव मानसिक प्रसन्नता को प्रात Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म दस धर्म होता है । मानसिक प्रसन्नता को प्राप्त हुआ जीव सब ऐश्वर्य-इन आठ मद-स्थानों का विनाश कर देता है। प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों के साथ मैत्रीभाव उत्पन्न आर्जव करता है। मैत्रीभाव को प्राप्त हुआ जीव भावना को अज्जवं नाम उज्जुगत्तणंति वा अकुडिलत्तणंति वा, विशुद्ध बनाकर निर्भय हो जाता है। एवं च कुव्वमाणस्स कम्मनिज्जरा भवइ, अकुव्वमाणस्स खंतीए णं परीसहे जिणइ। (उ २९।४७) य कम्मोवचयो भवइ । माया उदितीए णिरोहो कायव्वो क्षमा से परीषहों पर विजय प्राप्त होती है। उदिण्णाए विफलीकरणं । (दजिचू पृ १८) क्षमासूत्र आर्जव का अर्थ है-ऋजुता अथवा अकुटिलता। ऋजुता करने वाले के कर्मनिर्जरा होती है, नहीं करने खामेमि सव्वजीवे, सव्वे जीवा खमंतु मे। वाले के कर्म का उपचय होता है। उदय में आने वाली मेत्ती मे सव्वभूएसु, वेरं मज्झ न केणई ।। माया का निरोध करना और उदयप्राप्त माया को विफल (आव ४।९) करना आर्जव धर्म है। मैं सब जीवों को क्षमा करता हूं। सब जीव मुझे अणायारं परक्कम्म, नेव गूहे न निण्हवे । क्षमा करें। सब जीवों के साथ मेरी मैत्री है। किसी के सुई सया वियडभावे, असंसत्ते जिइंदिए। साथ मेरा वैर नहीं है। (द ८।३२) मार्दव व्यक्ति अनाचार का सेवन कर उसे न छिपाए न बाहिरं परिभवे, अत्ताणं न समुक्कसे । और न अस्वीकार करे । वह सदा पवित्र, स्पष्ट, अलिप्त सुयलाभे न मज्जेज्जा, जच्चा तवसिबुद्धिए । ___ और जितेन्द्रिय रहे। यह आर्जव धर्म है। (द ८।३०) मायाविजएणं उज्जुभावं जणयइ॥ (उ मद्दवता--जातिकुलादीहिं परपरिभवाभावो । माया-विजय से ऋजुता आती है। (दअचू पृ ११) अज्जवयाए णं काउज्जुययं भावुज्जुययं भासुज्जुययं जाति, कुल आदि को लेकर दूसरे का तिरस्कार न अविसंवायणं जणयइ। अविसंवायणसंपन्नयाए णं जीवे करे। अपना उत्कर्ष न दिखाए । श्रुत, लाभ, जाति, तप- धम्मस्स आराहए भवइ। (उ २९।४९) स्विता और बुद्धि का मद न करे। यह मार्दव धर्म है। ऋजुता से जीव काया की सरलता, भाव की अहं उत्तमजातीओ एस नीयजातित्ति मदो न सरलता, भाषा की सरलता और कथनी-करनी की कायव्वो, एवं च करेमाणस्स कम्मनिज्जरा भवइ, अक समानता को प्राप्त होता है। कथनी-करनी की रेंतस्स य कम्मोवचयो भवइ। माणस्स उदितस्स निरोहो समानता से संपन्न जीव धर्म का आराधक होता है। उदयपत्तस्स विफलीकरणं । (दजिचू पृ १८) शौच मैं उत्तम जाति का हूं, यह नीच जाति का है- सोयं नाम अलुद्धया धम्मोवगरणेसुवि, एवं च इस प्रकार का गर्व नहीं करना चाहिये। गर्व न करने से कुव्वमाणस्स कम्मनिज्जरा भवति, अकुव्वमाणस्स कम्मोकर्मनिर्जरा और गर्व करने से कर्म का उपचय होता है। वचओ, तम्हा लोभस्स उदेंतस्स णि रोहो कायव्वो उदयउदय में आने वाले मान का निरोध और उदय प्राप्त पत्तस्स वा विफलीकरणमिति । (दजिचू पृ १८) मान का विफलीकरण मार्दव धर्म है। शौच का अर्थ है-धर्मोपकरणों में भी लुब्ध न माणविजएणं मद्दवं जणयइ ।। (उ २९।६९) होना। अलुब्ध रहने वाले के कर्मों की निर्जरा और न मान-विजय से मृदुता आती है। रहने वाले के कर्मों का उपचय होता है। अत: उदय में मद्दवयाए णं अणुस्सियत्तं जणयइ। अणुस्सियत्ते णं आने वाले लोभ का निरोध और उदयप्राप्त लोभ को जीवे मिउमद्दवसंपन्ने अट्ठ मयट्ठाणाई निट्ठवेइ। विफल करना शौच धर्म है। (उ २९।५०) त्याग मृदुता से जीव अनुद्धत मनोभाव को प्राप्त करता चागो-दाणं । तं अलुद्धेण निज्जरलैं साहूसु पडिहै। अनुद्धत मनोभाव वाला जीव मृदुभार्दव से संपन्न वायणीयं । (दअचू पृ ११) होकर जाति, कुल, बल, रूप, तप, श्रुत, लाभ और त्याग का अर्थ है-दान । अलुब्ध भाव से, निर्जरा Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म की दुर्लभता ३५७ के लक्ष्य से साधुओं को आहार आदि देना त्याग धर्म है । चागो णाम वेयावच्चकरणेण आयरियोवज्झायादीण महती कम्मनिज्जरा भवइ, तम्हा वत्थपत्तओसहादीहि साहू संविभागकरणं कायव्वं । ( दजिचू पृ १८ ) आचार्य, उपाध्याय और साधु की वैयावृत्त्य करने से महान् निर्जरा होती है । अत: साधु वर्ग में परस्पर वस्त्र, पात्र, औषध आदि का संविभाग करना त्याग धर्म है । अकिंचनता अकिंणिया नाम सदेहे निस्संगता, निम्ममत्तणं । ( दजिचू पृ १८ ) शरीर के प्रति अकिञ्चनता का अर्थ है-अपने निस्संगता, ममत्व का विसर्जन । मुत्तीए णं अकिंचणं जणयइ । अत्थलोलाणं अपत्थणिज्जो भवइ । अकिंचणे य जीवे (उ२९/४८ ) मुक्ति (निर्लोभता) से जीव अकिंचनता को प्राप्त होता है। अकिंचन जीव अर्थलोलुप पुरुषों के द्वारा अप्रार्थनीय होता है— उसके पास कोई याचना नहीं करता । ८. धर्म की दुर्लभता माणुस्सं विग्गहं लद्धं, सुई धम्मस्स दुल्लहा । जं सोच्चा पडिवज्जंति, तवं खंतिमहिंसयं ॥ (उ३1८) मनुष्य शरीर प्राप्त होने पर भी उस धर्म की श्रुति दुर्लभ है, जिसे सुनकर जीव तप, सहिष्णुता और अहिंसा को स्वीकार करते हैं । आहच्च सवणं लधुं, सद्धा सोच्चा नेआउयं मग्गं, बहवे परमदुल्लहा । परिभस्सई ॥ ( उ ३1९ ) कदाचित् धर्म सुन लेने पर भी उसमें श्रद्धा होना परम दुर्लभ है । बहुत लोग मोक्ष की ओर ले जाने वाले मार्ग को सुनकर भी उससे भ्रष्ट हो जाते हैं । , सुइं च लधुं सद्धं च वीरियं पुण दुल्लहं । बहवे रोयमाणा वि, नो एणं पडिवज्जए || ( उ ३|१० ) श्रुति और श्रद्धा प्राप्त होने पर भी संयम में वीर्य ( पुरुषार्थ) होना अत्यन्त दुर्लभ है । बहुत लोग संयम में रुचि रखते हुए भी उसे स्वीकार नहीं करते 1 ६. श्रमणधर्म में मूलगुण- उत्तरगुण सविधे समणधम्मे मूलगुणा उत्तरगुणा समवयारि धर्मश्रद्धा के परिणाम ज्जंति - संजमसच्चआकिंचणियबंभचेरगहणेण मूलगुणा गहिया भवंति तं जहा -संजमग्गहणणं पढम अहिंसा गहिया, सच्चगहणेणं मुसावादविरती गहिया, बंभचेरगणेण मेहुणविरती गहिया, अकिंचणियग्गहणेण अपरिग्गहो गहिओ अदत्तादाणविरती य गहिया । " खंतिमद्दवज्जवतवोग्गहणेण उत्तरगुणाणं गहणं कयं भवइ । (जिचू पृ १९ ) दशविध श्रमणधर्म में मूलगुण और उत्तरगुणों का समवतरण हो जाता है । यथा - संयमधर्म में अहिंसा महाव्रत, सत्य में मृषावादविरमण, ब्रह्मचर्य में मैथुनविरमण तथा आकिंचन्य में अदत्तादानविरमण और अपरिग्रह का समवतरण होता है। क्षांति, मार्दव, आर्जव और तप -- इनमें उत्तरगुण समवतरित होते हैं । १०. धर्म मंगल है धम्मो मंगलमुक्किट्ठ, अहिंसा संजमो तवो । देवा वि तं नमसंति, जस्स धम्मे सया मणो ॥ (द १1१) धर्म उत्कृष्ट मंगल है | अहिंसा, संयम और तप उसके लक्षण हैं । जिसका मन सदा धर्म में रमा रहता है, उसे देव भी नमस्कार करते हैं । धर्म शरण है जरामरणवेगेणं, वुज्झमाणाण पाणिणं । धम्मो दीवो पट्ठा य, गई सरणमुत्तमं ॥ ( उ २३।६८ ) जरा और मृत्यु के वेग से बहते हुए प्राणियों के लिए धर्म द्वीप, प्रतिष्ठा, गति और उत्तम शरण है । ११. धर्मश्रद्धा के परिणाम धम्मसद्धाए णं सायासोक्खेसु रज्जमाणे विरज्जइ, अगारधम्मं च णं चयइ । अणगारे णं जीवे सारीरमाणसाणं दुक्खाणं छेयण - भेयण-संजोगाईणं वोच्छेयं करेइ अव्वाबाह च सुहं निव्वत्तेइ । (उ२९।४) धर्मश्रद्धा से जीव वैषयिक सुखों की आसक्ति को छोड़ विरक्त हो जाता है, अगार-धर्म- गृहस्थी को त्याग देता है । वह अनगार होकर छेदन-भेदन आदि शारीरिक दुःखों तथा संयोग-वियोग आदि मानसिक दुःखों का विच्छेद करता है और निर्बाध सुख को प्राप्त करता है । Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान ३५८ ध्यान की परिभाषा माणसत्तंमि आयाओ जो धम्म सोच्च सहहे । १. ध्यान की परिभाषा तवस्सी वीरिय लधु संवुडे निधुणे रयं ।। ० प्रकार (उ ३।११) । २. आर्तध्यान का निर्वचन मनुष्यत्व को प्राप्त कर जो धर्म को सुनता है, उसमें | ० प्रकार श्रद्धा करता है, वह तपस्वी संयम में पुरुषार्थ कर, संवत ० लक्षण हो कर्मरजों को धुन डालता है। ० अधिकारी जा जा वच्चइ रयणी, न सा पडिनियत्तई। ० आर्तध्यान : लेश्या-अध्यवसाय-गति अहम्मं कुणमाणस्स, अफला जति राइओ। ३. रौद्रध्यान का निर्वचन जा जा वच्चइ रयणी, न सा पडिनियत्तई । • प्रकार धम्मं च कुणमाणस्स, सफला जंति राइओ ।। ० लक्षण (उ १४।२४,२५) ० अधिकारी जो-जो रात बीत रही है, वह लौटकर नहीं आती । • रौद्रध्यान : गति और लेश्या अधर्म करने वाले की रात्रियां निष्फल और धर्म करने | ४. धम्यव्यान वाले की रात्रियां सफल होती हैं । ० प्रकार ० लक्षण १२. लौकिक और लोकोत्तर उपकार ० अधिकारी परोपकारश्च द्विधा द्रव्यतो भावतश्च । तत्र द्रव्यतो • आलम्बन विविधान्नपानकाञ्चनादिप्रदानजनितः । स च नैकान्तिकः, • अनुप्रेक्षाएं कदाचित्ततो विसूचिकादिदोषसम्भवतः उपकारासम्भवात् । ० धर्म्यध्यान : लेश्या-अध्यवसाय-गति नाप्यात्यन्तिक: कियत्कालमात्रभावित्वात् । भावतो जिन ० निष्पत्ति प्रणीतधर्मसम्पादनजनितः, स चैकान्तिकः, कदाचिदपि ५. शुक्लध्यान का निर्वचन ततो दोषासम्भवात्, आत्यन्तिकश्च परम्परया शाश्वतिक ० प्रकार मोक्षसौख्यसम्पादकत्वात् । (नन्दीमवृ प १) ० लक्षण परोपकार के दो भेद हैं-द्रव्य और भाव । अन्न ० अधिकारी पानी, स्वर्ण आदि से सहयोग करना द्रव्य उपकार • आलंबन अर्थात् लौकिक उपकार है। इससे विसूचिका आदि दोषों ० अनुप्रेक्षाएं की सम्भावना रहती है, इसलिए यह उपकार ऐकान्तिक • शुक्लध्यान : योग-लेश्या-गति नहीं है। यह अल्पकालीन होने के कारण आत्यन्तिक भी ० निष्पत्ति नहीं है। आर्हत धर्म का सम्पादन करना भाव उपकार ० केवली में शक्लध्यान कैसे? अर्थात् लोकोत्तर उपकार है। इससे कभी दोष संभव * शुक्लध्यान और योगनिरोध (द्र. केवलज्ञान) नहीं है, अत: यह ऐकान्तिक उपकार है। परम्परित रूप ६. वाचिक-कायिक ध्यान में शाश्वत मोक्षसुख का सम्पादक होने से यह आत्यन्तिक ७. ध्यान के सात विकल्प उपकार है। ८. दृष्टिवाद और ध्यान ९. ध्यान की योग्यता : भावना धर्मास्तिकाय- गतिसहायक द्रव्य । १०. ध्यान के अयोग्य __(द्र. अस्तिकाय) ११. ध्यान का स्थान-काल-आसन धारणा--निर्णयात्मक ज्ञान की अविच्युति । * ध्यान : तप का एक भेद (द्र. तप) (द्र. आभिनिबोधिक ज्ञान) * धर्म्य-शुक्ल ध्यान : उच्छित कायोत्सर्ग ध्यान-चित्त की एकाग्रता । योगनिरोध । (द्र. कायोत्सर्ग) | Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्तध्यान का निर्वचन ३५९ ध्यान १. ध्यान की परिभाषा २. आर्तध्यान का निर्वचन जं थिरमझवसाणं तं झाणं............ । ऋतं-दुःखम् । ऋतशब्दो दुःखपर्यायवाच्याश्रीयते, अंतोमहत्तमेत्तं चित्तावत्थाणमेगवत्थ म्मि । ऋते भवमार्तम् । (उशावृ प ६०९) छउमत्थाणं झाणं जोगनिरोहो जिणाणं तु ॥ ऋत का अर्थ है-दुःख । चेतना की अरति या वेदनामय एकाग्र परिणति को आर्तध्यान कहा जाता है। जो स्थिर अध्यवसाय है, वह ध्यान है। छद्मस्थ के प्रकार एक वस्तु में चित्त का एकाग्रतात्मक ध्यान अन्तर्मुहूर्त अमणुण्णाणं सद्दाइविसयवत्थूण दोसमइलस्स । मात्र का होता है। फिर वह ध्यानधारा भिन्न पर्याय में धणियं विओगचितणमसंपओगाणुसरणं च ।। परिवर्तित हो जाती है। केवली के योगनिरोधात्मक ध्यान तह सूलसीसरोगाइवेयणाए विजोगपणिहाणं । होता है। तदसंपओगचिता तप्पडियाराउलमणस्स ।। गाढालंबणलग्गं, चित्तं वृत्तं निरयणं झाणं । इद्राणं विसयाईण वेयणाए य रागरत्तस्स । सेसं न होइ झाणं, मउअमवत्तं भमंतं वा ।। अवियोगऽज्झवसाणं तह संजोगाभिलासो य ।। (आवनि १४८३) देविंदचक्कवट्टित्तणाइ गुणरिद्धिपत्थणामईयं । आलम्बन में प्रगाढ़ रूप से संलग्न तथा निष्प्रकम्प अहम नियाणचितणमण्णाणाण गयमच्चतं ।। चित्त ध्यान है। आलम्बन में मृदू भावना से संलग्न, (ध्यानशतक ६-९) अव्यक्त और अनवस्थित चित्त ध्यान नहीं कहलाता । आर्तध्यान के चार प्रकार हैं -- १. द्वेष से मलिन अमनोज्ञ शब्द आदि इंद्रिय-विषयों के एगग्गमणसंनिवेसणयाए णं चित्तनिरोहं करेइ ।.. (उ २९।२६) वियोग के लिए अत्यन्त चिता करना तथा उनकी एकाग्र-मन के सन्निवेश से जीव चित्त का निरोध पूनः प्राप्ति न हो--इसका निरन्तर स्मरण करना । करता है। २. रोग के प्रतिकार के लिए देहासक्ति से व्याकूल बने ध्यान के प्रकार हुए व्यक्ति का शुल, शिरोरोग आदि की वेदना के ..''अट रुई धम्म सुक्कं च नायव्वं ॥ वियोग के लिए तथा उनकी पून: अप्राप्ति के लिए (आवनि १४६३) एकाग्र चिन्तन करना। हिंसाणुरंजितं रौद्रं, अट्ट कामाणुरंजितं । ३. राग से रक्त व्यक्ति का इष्ट विषयों तथा इष्ट अनुधम्माणरंजियं धम्म, शुक्ल झाणं निरंगणं ।। भूतियों के अवियोग का एकाग्र अध्यवसाय तथा (आव २ पृ ८२) उनके पूनः संयोग की अभिलाषा करना। ध्यान के चार प्रकार हैं ४ देवेन्द्र, चक्रवर्ती आदि वैभवशाली व्यक्तियों के आर्तध्यान-कामनाओं से अनुरंजित । विषय और वैभव की प्रार्थना करना, निदान रौद्रध्यान-हिंसा से अनुरंजित । करना । यह अज्ञान से संवलित और अत्यन्त अधम धर्म्यध्यान-धर्म से अनुरंजित । शुक्लध्यान- निरंजन । एक-एक ध्यान के असंख्य स्थान हैं । जीव रहंट की लक्षण घड़ियों की तरह इन स्थानों में आरोह-अवरोह करता तस्सऽक्कंदणसोयणपरिदेवणताडणाई लिंगाई । रहता है। इट्राणिवियोगावियोगवियणानिमित्ताई।। अट्टरुद्दाणि वज्जित्ता, झाएज्जा सुसमाहिए । (ध्यानशतक १५) धम्मसुक्काई झाणाई, झाणं तं तु बुहा वए। आर्तध्यान के चार लक्षण हैं - (उ ३०३५) १. आक्रन्दन-जोर-जोर से चिल्लाना । सुसमाहित मुनि आर्त और रौद्र ध्यान को छोड़कर २. शोचन--- अश्रपूर्ण आंखों से दीनता दिखाना। धर्म्य और शुक्ल ध्यान का अभ्यास करे। बुधजन उसे ३. परिदेवन-विलाप करन।। ध्यान कहते हैं। ४. ताडन-छाती, सिर आदि को पीटना। Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान ये चारों इष्ट के वियोग, अनिष्ट के योग और वेदना के निमित्त से उत्पन्न होते हैं । -अधिकारी तदविरदेस विरया पमायपरसंजयाणु गं झाणं |..." (ध्यानशतक १८ ) यह आर्त्तध्यान अविरत, देशविरत ( श्रावक ) और प्रमत्तसंयत (छट्ठे गुणस्थानवर्ती मुनि) के होता है । आर्त्तध्यान : लेश्या अध्यवसाय - गति तिव्वकोधोदयाविट्ठो, किण्हलेसाणुरंजितो । अट्ट झाणं क्रियायं तो, तिरिक्खत्तं निगच्छति ॥ मज्झिम कोधोदयाविट्ठो, नीललेसाणुरंजितो । अट्ठा किया तो तिरिक्खत्तं निगच्छति ॥ मंदकोधोदयाविट्ठो, कासारंजित | अट्टा झियायंतो, तिरिक्खत्तं निगच्छति ॥ ( आवचू २ पृ८३) गति तिर्यंच लेश्या कृष्ण नील कापोत मंद अध्यवसाय उत्कृष्ट क्रोध - मान-माया-लोभ मध्यम 33 33 23 "1 "" 21 " 17 ३६० " 11 कावोयनीलकाला लेस्साओ णाइसकिलिट्ठाओ । अभाणोगस्स कम्मपरिणामणिआओ ।। (ध्यानशतक १४ ) ध्यान करते हुए व्यक्ति की कापोत, नील और कृष्ण-- ये तीनों लेश्याएं अतिसंक्लिष्ट नहीं होतीं । ये लेश्याएं कर्म - परिणामजनित होती हैं । रागो दोसो मोहो य जेण संसारहेयवो भणिया । अट्टम य ते तिणिवि, तो तं संसारतरुबीयं ॥ (ध्यानशतक १३ ) राग, द्वेष और मोह - तीनों संसार के हेतु हैं । ये आर्त्तध्यान में विद्यमान रहते हैं इसलिए आर्त्तध्यान को संसार रूपी वृक्ष का बीज कहा गया है । ३. रौद्रध्यान का निर्वाचन रोदयत्यपरानिति रुद्र:- प्राणिवधादिपरिणत आत्मैव तस्येदं कर्म रौद्रम् | ( उशावृ प ६०९ ) जो दूसरों को रुलाता है, वह रुद्र है । चेतना की प्राणिवध आदि के रूप में क्रूरतामय एकाग्र - परिणति रौद्रध्यान है । प्रकार सत्तवह-वह-बंधण- डहणं कणमारणाइपणिहाणं । अइकोहग्गहघत्थं निग्विणमणसोऽहमविवागं ॥ पिसुणासभा सम्भूय भूयधायाइवयणपणिहाणं । मायाविणोऽइसंधणपरस्स पच्छन्नपावस्स ॥ तह तिव्वको हलोहाउलस्स भूओवघायणमणज्जं । परदव्वहरण चित्तं परलोयावायनिरवेक्खं ॥ सद्दाइविसयसाहणधणसारक्खणपरायणमणिट्ठ । सव्वाभिसंकणपरोवघायकलुसाउलं चित्तं ॥ एयं चव्विहं रागदोसमोहाउलस्स जीवस्स । (ध्यानशतक १९ - २२, २४) रौद्रध्यान के चार प्रकार हैं १. हिसानुबंधी निर्दयी व्यक्ति का प्राणियों के वध, वेध, बंधन, दहन, अंकन और मारने का क्रूर अध्यवसाय होना तथा अनिष्ट विपाक वाले उत्कट क्रोध के ग्रह से ग्रस्त होना । असत्य २. मृषानुबंधी - माया करने, दूसरे को ठगने तथा अपना पाप छिपाने के लिए चुगली करने तथा असभ्य, और प्राणीघातक वचन कहने में दृढ़ अध्यवसाय का होना । ३. स्तेयानुबंधी - तीव्र क्रोध और लोभ से आकुल होकर प्राणियों का उपहनन, अनार्य आचरण और दूसरे की वस्तु का अपहरण करने की इच्छा करना तथा पारलौकिक दोषों से निरपेक्ष रहना । रोद्रध्यान - ४. विषयसंरक्षणानुबंधी - - शब्द आदि इन्द्रिय-विषयों की प्राप्ति के साधनभूत धन के संरक्षण के लिए तत्पर रहना, अनिष्ट चिन्ता में व्यापृत रहना, सबके प्रति शंकाशील होना, दूसरों की घात करने की कलुषता से आकुल रहना । रौद्रध्यान के ये चारों प्रकार रागद्वेष और मोह से आकुल व्यक्ति के होते हैं । लक्षण लिंगाई तस्स उस्सण्णबहुलनाणा विहामरण दोसा । तेसि चिय हिसाइसु बाहिरकरणोवउत्तस्स || (ध्यानशतक २६ ) रौद्रध्यान के चार लक्षण हैं१. उस्सन्नदोष रौद्रध्यान के चार प्रकारों में से किसी एक में बहुलतया प्रवृत्त होना । Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होना। धर्म्यध्यान अपायविचय २. बहुलदोष-रौद्रध्यान के सभी प्रकारों में प्रवृत्त धर्म्य ध्यान के चार प्रकार हैं--- १. आज्ञाविचय ३. विपाक विचय ३. नानाविधदोष-- चमड़ी उधेड़ने, आंखें निकालने २. अपायविचय ४. संस्थानविचय __ आदि हिंसात्मक कार्यों में बार-बार प्रवृत्त होना। आज्ञाविचय ४. आमरणदोष-मरणान्त तक हिंसा आदि करने में आणाविजए आणं विवेएति । जथा पंचत्थिकाए अनुताप न होना। छज्जीवनिकाए अट्ठ पवयणमाता। अण्णे य सुत्तनिबद्धे भावे अबद्धे च पेच्छ कहं आणाए परियाणिज्जति ? एवं परवसणं अहिनं दइ निरवेक्खो निद्दओ निरणुतावो । चितेति भासति य । तथा पुरिसादिकारणं पडुच्च किच्छाहरिसिज्जइ कयपावो रोद्दज्झाणोवगयचित्तो॥ सज्झेसु हेतुविसयातीतेसुवि वत्थुसु सव्वण्णुणा दिठेसु (ध्यानशतक २७) एवमेव से तं ति चितंतो भासंतो य आणा विवेयेति । - जो रौद्रध्यान में संलग्न है, वह दूसरों के दुःख का (आवचू २ पृ८४) अभिनन्दन करता है, आनन्दित होता है। वह निरपेक्ष अतीन्द्रिय विषय अथवा प्रवचन के निर्णय में एकाग्र होता है-उसके मन में पाप का भय नहीं रहता। वह होना आज्ञाविचय है। जैसे -पांच अस्तिकाय, षट जीवनिर्दय और अनुतापरहित होता है। वह पाप में प्रवृत्त निकाय, आठ प्रवचनमाताएं आदि तथा इसी प्रकार होकर प्रसन्न होता है। ये रौद्रध्यानी के लक्षण हैं। आगम में प्रतिपादित या अप्रतिपादित अनेक तथ्य हैं। ये सारे किस प्रकार आज्ञा से विवेचित होते हैं-ऐसा अधिकारी चिन्तन करना, प्रतिपादन करना आज्ञा विचय ध्यान है। .."अविरयदेसासंजयजणमणसंसेवियमहण्णं ॥ तथा किसी पुरुष के पूछे जाने पर ऐसे कठिन विषयों (ध्यानशतक २३) तथा हेतु आदि से निरपेक्ष विषयों, जिन्हें सर्वज्ञ ने देखा वह अश्रेयस्कर ध्यान अविरत और देश-असंयत है, कहा है, के विषय में ये ऐसे ही हैं, ऐसा चिन्तन (श्रावक) के होता है। करना, प्रतिपादन करना आज्ञाविचय ध्यान है। रौद्रध्यान : गति और लेश्या सुनिउणमणाइनिहणं भूयहियं भूयभावणमहग्छ । .."रोद्दज्झाणं संसारवद्धणं नरयगइमूलं ॥ अमियमजियं महत्थं महाणुभावं महाविसयं ॥ कावोयनीलकाला लेसाओ तिव्वसंकिलिट्ठाओ। झाइज्जा निरवज्जं जिणाणमाणं जगप्पईवाणं । रोद्दज्झाणोवगयस्स कम्मपरिणामजणियाओ ।। अनिउणजणदुण्णेयं नयभंगपमाणगमगहणं ।। (ध्यानशतक २४,२५) (ध्यानशतक ४५,४६) रौद्रध्यान भवपरंपरा को बढ़ाने वाला तथा नरक जगत्प्रदीप अर्हत की आज्ञा का आशंसा से मुक्त गति का मूल है । इस ध्यान के समय व्यक्ति की कापोत, होकर ध्यान करे । वह आज्ञा अतिनिपुण, अनादि-अनन्त, नील और कृष्ण-ये तीनों लेश्याएं अत्यन्त संक्लिष्ट ये तीनों लेण्या अत्यन्त संक्लिष्ट प्राणियों के लिए हितकर, सत्यग्राही, अनर्घ्य, अपरिमित, होती हैं। ये कर्मपरिणामजनित होती हैं। अपराजित, महान् अर्थवाली, महान् सामर्थ्य से युक्त, महान् विषयवाली, अनिपुण लोगों द्वारा अज्ञेय तथा नय, ४. धर्म्यध्यान भंग, प्रमाण और गम (विकल्प) से गहन है। खमादिधम्माऽणपेतं धम्म । (दअचू पृ १६) अपायविचय क्षमा आदि धर्मों को ध्येय बनाने वाला ध्यान धर्म्य अवाय विजयेति, पाणातिवातेणं निरयं गच्छति ध्यान है। अप्पाउओ काणकुंटादी भवति एवमादि त्वाज्ञा, अहवा प्रकार मिच्छत्तअविरतिपमायकसायजोगाणं अवायमणुचितेति । ___धम्म चउव्विहं-आणाविजए, अवायविजए, णाणदंसणचरित्ताणं वा विराधणावायमणुचितेति । विपाकविजए, संठाणविजए। (दअचू पृ १७) (आवचू २ ५८४) Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्थानविचय ३६२ धर्म्यध्यान का अधिकारी अपायविचय ध्यान में ध्यानी चिन्तन करता है- ० क्षिति, वलय, द्वीप, सागर, नरक, विमान और हिंसा से प्राणी नरक में जाता है, अल्पायुष्क होता है, भवन के संस्थान से संस्थित, आकाश, वायु आदि काणा-लूला आदि होता है, यह आज्ञा-भगवान् का पर प्रतिष्ठित शाश्वत लोकस्थिति का चिन्तन करे । निरूपण है। अथवा ध्यानी इसमें मिथ्यात्व, अविरति, ___ इस प्रकार विविध पदार्थों की विभिन्न प्रमाद, कषाय, योग आदि के अपायों का चिन्तन करता आकृतियों को ध्येय बनाकर उसमें एकाग्र होना है अथवा ज्ञान, दर्शन, चारित्र की विराधना के अपायों संस्थानविचय ध्यान है। का अनुचिंतन करता है। आलम्बन रागबोसकसायारावादिकिरियासु वद्रमाणाणं । इहपरलोयावाओ झाइज्जा वज्जपरिवज्जी ॥ आलंबणाइ वायणपुच्छणपरियट्टणाणुचिताओ । सामाइयाइयाई सद्धम्मावस्सयाइं च ।। (ध्यानशतक ५०) (ध्यानशतक ४२) वर्जनीय का परिवर्जन करने वाला मुनि राग, धर्म्यध्यान के चार आलम्बन हैंद्वेष, कषाय, आश्रव आदि क्रियाओं में प्रवर्तमान व्यक्तियों १. वाचना ३. परिवर्तना के इहलोक और परलोक के अपायों (दोषों) का चिन्तन २. प्रच्छना ४. अनुचिन्ता (अनुप्रेक्षा) करता है-यह धर्म्यध्यान का अपायविचय नामक दूसरा ये चारों श्रुतधर्मानुगामी आलम्बन हैं। सामायिक प्रकार है। आदि तथा सद्धर्मावश्यक आदि चारित्रधर्मानुगामी विपाकविचय आलम्बन हैं। पयइठिइपएसाणुभावभिन्नं सुहासुहविभत्तं । लक्षण जोगाणुभावजणियं कम्म विवागं विचितेज्जा ॥ आगमउवएसाणाणिसग्गओ जं जिणप्पणीयाणं । (ध्यानशतक ५१) भावाणं सद्दहणं धम्मज्झाणस्स तं लिंग ।। प्रकृति, स्थिति, प्रदेश और अनुभाव के भेद से (ध्यानशतक ६७) भिन्न, शुभ और अशुभ में विभक्त, योग तथा अनुभाव धर्म्यध्यान के चार लक्षण - -प्रमाद से उत्पन्न कर्मविपाक को ध्येय बनाकर १. आगमरुचि-प्रवचन में श्रद्धा होना। उसमें एकाग्र होना विपाकविचय ध्यान है। २. उपदेशरुचि-उपदेश से प्रवचन में श्रद्धा होना। संस्थानविचय ३. आज्ञारुचि तीर्थंकर की आज्ञा की प्रशंसा करना। जिणदेसियाइ लक्खणसंठाणासणविहाणमाणाई । ४. निसर्गरुचि-स्वभाव से ही जिनप्रवचन में श्रद्धा उप्पायट्ठिइभंगाइ पज्जवा जे य दव्वाणं ।। होना। पंचत्थिकायमइयं लोगमणाइनिहणं जिणक्खायं । नामाइभेयविहिअंतिविहमहोलोयभेआइं॥ अधिकारी खिइवलयदीवसागरनिरयविमाणभवणाइसंठाणं । सव्वप्पमायरहिया मुणओ खीणोवसंतमोहा य । वोमाइपइट्ठाणं निययं लोगट्ठिइविहाणं ।। झायारो नाणधणा धम्मज्माणस्स निद्दिट्ठा ॥ (ध्यानशतक ५२-५४) (ध्यानशतक ६३) • अर्हत् द्वारा प्ररूपित द्रव्यों के लक्षण, संस्थान, जो ज्ञानी मुनि अप्रमत्त हैं, उपशांतमोह या क्षीणआसन, विधान, मान, उत्पाद, स्थिति, भंग और पर्याय का चिन्तन करे। मोह हैं, वे धर्म्य ध्यान के अधिकारी हैं। ० लोक पंचास्तिकायमय, अनादि-अनन्त, नाम आदि तं इंदियादिप्पमातणियत्तमाणसस्सेति भण्णति निक्षेपों के भेद से अवस्थापित, अधोलोक, तिर्यकस्थापित अधीनो अपमत्तसंजयस्स । (दअचू पृ १८) लोक और ऊर्ध्वलोक के भेद से विभक्त है। (लोक इन्द्रिय, कषाय आदि प्रमादों से निवृत्त चित्त बाले के इस संस्थान का चिन्तन करे)। अप्रमत्तसंयत के धर्म्यध्यान होता है। Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुक्लध्यान का निर्वचन अनुप्रेक्षाएं भाणोवरमेवि मुणी चित्रमणिच्चा इभावणापरमो । होइ सुभावियचित्तो धम्मज्झाणेण जो पुव्वि ॥ (ध्यानशतक ६५ ) अणुहाओ, तं जहा अणिच्चाणुप्पेहा, असरणाणुपेहा, एगत्ताणुप्पेहा, संसाराणुप्पेहा । ( अचू पृ १८ ) धर्म्यध्यान से सुभावित चित्त वाले मुनि के लिए ध्यान से उपरत होने पर चार अनुप्रेक्षाएं करणीय हैंअनित्य, अशरण, एकत्व और संसार अनुप्रेक्षा । ( द्र. अनुप्रेक्षा ) धम्iध्यान : लेश्या अध्यवसाय - गति धम्मज्झाणं भियायतो, सुक्कलेसाए वट्टती । faragi मिठामि सचरिती सुसंजतो ॥ एवं पम्हलेसाए मज्झियगंमि ठाणंमि, तेऊले साए fugift ठाणंमि । कोवनिग्गहसंजुत्तो, सुक्कलेसाणुरंजितो । धम्माण कियायतो, देवयत्तं निगच्छती ॥ ..... उववातो कप्पतीते कप्पंमि व अण्णतरगंमि ॥ ( आवचू २ पृ८५) गति देवगति — कल्पोपपन्नकल्पातीत देवगति — कल्पोपपन्नकल्पातीत देवगति कल्पोपपन्न - कल्पातीत लेश्या शुक्ल पद्म तेजस् अध्यवसाय क्रोध - मान-माया - लोभ का उत्कृष्ट निग्रह क्रोध - मान-माया - लोभ का मध्यम निग्रह क्रोध - मान-माया - लोभ का जघन्य निग्रह निष्पत्ति होंति सुहासव संवरविणिज्जरामरसुहाई विउलाई । भाणवरस्स फलाई सुहाणुबंधीणि धम्मस्स || (ध्यानशतक ९३ ) धर्म्यध्यान से शुभ आश्रव, संवर, निर्जरा, विपुल देवसुख आदि शुभ अनुबंध वाले फलों की प्राप्ति होती है । ५. शुक्लध्यान का निर्वाचन शुक्लं – शुचि -- निर्मलं सकल मिथ्यात्वादिमल ३६३ शुक्लध्यान के प्रकार विलयनात् । यद्वा शुगिति दुःखमष्टप्रकारं वा कर्म ततः शुचक्नमयति निरस्यतीति शुक्लम् । ( उशावृ प ६०९) ● जो मिथ्यात्व आदि समग्र अशुद्धियों का विलय हो जाने के कारण निर्मल है, वह शुक्लध्यान है । ● जो दुःख अथवा आठों कर्मों का निरसन करता है, वह शुक्लध्यान है । प्रकार उपायइभंगाइपज्जयाणं जमेगवत्थु मि । नाणानयाणुसरणं पुव्वगय सुयाणुसारेणं ।। सवियारमत्थवंजणजोगंतरओ तयं पढमसुक्कं । होइ पुहुत्तवितक्क सविआरमरागभावस्स ।। जं पुण सुणिप्पकंपं निवायसरणप्पईवमिव चित्तं । उपाय भंगाइयाणमेगम्मि पज्जाए || अविचारमत्थवंजणजोगंतरओ तयं बितिय सुक्कं । पुव्वगय सुआ लंबण मेगत्त वितक्कमवियारं ॥ निव्वाणगमणकाले केवलिणी दरनिरुद्ध जोगस्स । सुमरिया नियतिइयं तणुकायकिरियस्स ॥ तस्सेव य सेलेसि गयस्स सेलोव्व निष्पकंपस्स । वोच्छिन्न किरियामप्पडिवाइज्झाणं परमसुक्कं ॥ (ध्यानशतक ७७-८२) चार प्रकार शुक्लध्यान १. पृथक्त्व वितर्क - सविचार - पूर्वगतश्रुत के अनुसार एक द्रव्य में विद्यमान उत्पाद, स्थिति, भंग आदि पर्यायाओं का अनेक नयों से चिन्तन करना । सविचार का अर्थ है -अर्थ से अर्थान्तिर, व्यंजन से व्यंजनान्तर और एक योग से दूसरे योग में संक्रमण करना । २. एकत्व - वितर्क - अविचार - उत्पाद, स्थिति, भंग आदि पर्यायों में से किसी एक पर्याय में अपने मन को, निर्वातगृह में रखे हुए प्रदीप की भांति निष्प्रकम्प बनाकर चिन्तन करना । यह भी पूर्वगतश्रुत • के आलम्बन के आधार पर होता । इसमें अर्थ से अर्थान्तर, व्यंजन से व्यंजनान्तर और योग से योगान्तर में संक्रमण नहीं होता । ३. सूक्ष्मक्रिय - अनिवृत्ति - मोक्षगमन के प्रत्यासन्न काल में केवली के मन और वचन की प्रवृत्ति निरुद्ध हो जाती है, किन्तु उच्छ्वास - निःश्वासरूप काया की सूक्ष्म प्रवृत्ति वर्तमान रहती है। यह शुक्लध्यान का तीसरा प्रकार 1 Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान ३६४ शुक्लध्यान : योग".. ४. समूच्छिन्नक्रिय-अप्रतिपाति-शैलेशी अवस्था को शुक्लध्यान के प्रथम दो भेद अनुत्तरोपपात के अभिप्राप्त केवली मेरु की भांति निष्प्रकंप हो जाता है। मुख चतुर्दशपूर्वी मुनि के होते हैं। उसके शुक्ललेश्या और उसमें सूक्ष्मक्रिया का भी निरोध हो जाता है और वज्रऋषभनाराच संहनन होता है। उस अवस्था का पतन नहीं होता। शुक्लध्यान का प्रथम भेद सराग चतुर्दशपूर्वी और दूसरा भेद वीतराग चतुर्दशपूर्वी के होता है । लक्षण अवहासंमोहविवेगविउसग्गा तस्स होंति लिंगाइं ।। आलंबन लिंगिज्जइ जेहिं मुणी सुक्कज्झाणोवगयचित्तो।। अह खंतिमद्दवज्जवमुत्तीओ जिणमयप्पहाणाओ । चालिज्जइ बीभेइ य धीरो न परीसहोवसग्गेहिं । आलंबणाई जेहिं सुक्कझाणं समारुहइ ।। सुहुमेसु न संमुज्झइ भावेसु न देवमायासु ॥ (ध्यानशतक ६९) देहविवित्तं पेच्छइ अप्पाणं तह य सव्वसंजोगे । शुक्लध्यान के चार आलम्बन हैंदेहोवहिवोसगं निस्संगो सव्वहा कुणइ ॥ १. शान्ति-क्षमा। (ध्यानशतक ९०-९२) २. मार्दव-मृदुता। शुक्लध्यान के चार लक्षण हैं ३. आर्जव-ऋजुता। १. अव्यथ-परीषह और उपसर्गों से न विचलित ४. मुक्ति-निर्लोभता। होना और न भयभीत होना । शुक्लध्यान की अनुप्रेक्षाएं २. असम्मोह-सूक्ष्म पदार्थों और देवमाया में मूढ न सुक्कझाणसुभाविअचित्तो चितेइ झाणविरमेऽवि । होना। णिययमणुप्पेहाओ चत्तारि चरित्तसंपन्नो । ३. विवेक-शरीर तथा सब संयोगों से आत्मा को आसवदारावाए तह संसारासुहाणुभावं च । भिन्न जानना, देखना। भवसंताणमणतं वत्थणं विपरिणामं च ।। ४. व्युत्सर्ग---शरीर और उपधि में सर्वथा निस्संग (ध्यानशतक ८७,८८) शुक्लध्यान से सुभावित चित्त वाला चारित्रसम्पन्न रहना। मुनि ध्यान से उपरत होने पर भी सदा चार अनुप्रेक्षाओं अधिकारी का चिन्तन करता हैएए च्चिअ पुव्वाणं पुव्वधरा सुप्पसत्थसंघयणा । १. अपाय अनुप्रेक्षा-दोषों का चिन्तन करना। दोण्ह सजोगाजोगा सुक्काण पराण केवलिणो ।। २. अशुभ अनुप्रेक्षा-पदार्थों की अशुभता का चिन्तन (ध्यानशतक ६४) करना। धर्म्यध्यान के अभ्यास में परिपक्व सुप्रशस्त संहनन ३. अनन्तवृत्तिता अनुप्रेक्षा संसारपरम्परा का चिन्तन वाले चतुर्दशपूर्वी मुनि शुक्लध्यान के प्रथम दो प्रकारों के करना। ध्याता होते हैं। उसका तीसरा प्रकार सयोगी केवली के ४. विपरिणाम अनुप्रेक्षा-वस्तुओं के विविध परिणामों और चौथा प्रकार अयोगी केवली के होता है। का चिन्तन करना। एतं उभयं सामिविसेसेण सुक्कलेसस्स चोद्दसपुव्वधर- शुक्लध्यान : योग-लेश्या-गति स्स अणत्तरोववाताभिमुहस्स उत्तमसंघयणस्स । जोगे जोगेसु वा पढम, बीयं योगंमि कण्हुयी । (दअचू पृ १८) ततियं च काइके जोगे, चउत्थं च अजोगिणो ।। सूतणाणे उवउत्तो, अत्थंमि य वंजणंमि सवियारं । पढमबितियाओ सुक्काए, ततियं परमसुक्कियं । झायति चोहसपूवी, पढमं सुक्कं सरागो तु ।। लेश्यातीतं उवरिल्लं, होति ज्झाणं वियाहितं ।। सुतणाणे उवउत्तो, अत्थंमि य वंजणंमि अवियारं । अणु त्तरेहिं देवेहिं, पढमबीएहिं गच्छती । झायति चोद्दसपुव्वी, बीयं सुक्कं विगतरागो ।। उवरिल्लेहिं झाणे हिं, सिज्झती निरयो धुवं ।। (आवचू २ पृ८६) (आव २ पृ८६) Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाचिक-कायिक ध्यान ३६५ ध्यान योग शुक्लध्यान लेश्या गति १. पृथक्त्व वितर्क सविचार | शुक्ललेश्या तीनों योग (मन, वचन, काय) | अनुत्तर विमान २. एकत्व वितर्क अविचार शुक्ललेश्या कोई एक योग | अनुत्तर विमान ३. सूक्ष्मक्रिया अनिवृत्ति परम शुक्ललेश्या | काययोग | सिद्धगति ४. समुच्छिन्नक्रिया अप्रतिपाति लेश्यातीत अयोग | सिद्धगति निष्पत्ति से युक्त हैं, वे त्रिभुवन-विषयभूत मन रूपी विष को एक ते य विसेसेण सुभासवादओऽणुत्तरामरसुहं च । परमाणु में निरुद्ध कर, उसका (मन का) अपनयन कर दोण्हं सुक्काण फलं परिनिव्वाणं परिल्लाणं ॥ देते हैं। (ध्यानशतक ९४) ६. वाचिक-कायिक ध्यान शुभ आश्रव, संवर और निर्जरा की विशेष प्राप्ति सुदढप्पयद्यवावारणं निरोहो व विज्जमाणाणं । 'अनत्तरविमानवासी देवों का सुख मिलना-यह झाणं करणाण मयं न उ चित्तनिरोहमित्तागं ।। शक्लध्यान के प्रथम दो प्रकारों का फल है तथा अंतिम (विभा ३०७१) दो प्रकारों का फल है-परिनिर्वाण । मात्र चित्त का निरोध ही ध्यान नहीं है। मन, वचन और काया-इन तीनों करणों को सुदढ़ प्रयत्न से केवली में शुक्लध्यान कैसे ? एकाग्रता में व्याप्त करना अथवा उनका निरोध करना पुव्वप्पओगओ चिय कम्मविणिज्जरणहेउतो यावि । भी ध्यान है। सद्दत्थबहुत्ताओ तह जिणचंदागमाओ य॥ काएविय अज्झप्पं, वायाइ मणस्स चेव जह होइ । चित्ताभावेवि सया सुहमोवरयकिरियाइ भण्णंति । कायवयमणोजुत्तं, तिविहं अज्झप्पमाहंसु ॥ जीवोवओगसब्भावओ भवत्थस्स झाणाई॥ अध्यात्म ध्यानमित्यर्थः । (ध्यानशतक ८५,८६) (आवनि १४७० हावृ पृ १८९) भवस्थ सयोगी या अयोगी केवली के चित्त का जैसे मन में अध्यात्म (ध्यान) होता है, वैसे ही अभाव होने पर भी जीव का उपयोग रहता ही है। अतः शरीर और वचन में भी अध्यात्म होता है। शरीर में उनमें शुक्लध्यान के अंतिम दो प्रकार होते हैं। एकाग्रतापूर्वक चंचलता का निरोध करना कायिक ध्यान उनमें ध्यान का अस्तित्व मानने के चार हेतु हैं है। वचन में एकाग्रतापूर्वक असंयत भाषा का निरोध १. जीव के पूर्व प्रयोग के कारण । करना वाचिक ध्यान है। तीर्थंकरों ने अध्यात्म (ध्यान) २. कर्मों की निर्जरा के कारण । के तीन प्रकार बताएं हैं३. शब्द के अनेक अर्थों के कारण । १. मन में अध्यात्म-मानसिक ध्यान (मनोगुप्ति) ४. आगमिक साक्षी के कारण । २. वचन में अध्यात्म- वाचिक ध्यान (वाग्गुप्ति) जह सव्वसरीरगयं मंतेण विसं निरुभए डंके । ३. काय में अध्यात्म कायिक ध्यान (कायगुप्ति) तत्तो पुणोऽवणिज्जइ पहाणवरमंतजोगेणं ।। मा मे एजउ काउत्ति, अचलओ काइअं हवइ झाणं । तह तिहयणतणविसयं मणोविसं जोगमंतबलजुत्तो । एमेव य माणसि, निरुद्धमणसो हवइ झाणं ।। परमाणु म्मि निरंभइ अवणेइ तओवि जिणवेज्जो ॥ (आवनि १४७४) (ध्यानशतक ७१,७२) 'मेरा शरीर कंपित न हो'-ऐसा सोचकर जो निश्चल होता है, उसके कायिक ध्यान होता है। इसी जैसे सारे शरीर में फैले हए विष को मंत्र-प्रयोग से मानिसमा मानसिक ध्यान है। सर्प द्वारा डसे हुए स्थान पर एकत्रित कर विशेष मंत्र एवं विहा गिरा मे, वत्तव्वा एरिसा न वत्तव्वा । प्रयोग से उसे निकाल दिया जाता है, उसी प्रकार अर्हत् इअ वेआलियवक्कस्स, भासओ वाइअं झाणं ॥ रूपी वैद्य, जो मंत्र (जिन-वचन) और ध्यान के सामर्थ्य (आवनि १४७७) Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान ध्यान के अयोग्य मुझे ऐसी भाषा बोलनी चाहिए और ऐसी नहीं, संकाइदोसरहिओ पसमथेज्जाइगुणगणोवेओ । ऐसा विमर्श कर बोलने वाले के वाचिक ध्यान होता है। होइ असंमूढमणो दंसणसुद्धीए झाणंमि ।। ७. ध्यान के सात विकल्प नवकम्माणायाणं पोराणविणिज्जरं सुभायाणं । चारित्तभावणाए झाणमयत्तेण य समेइ ।। माणस्स सत्त भंगा-मानसं, वाइयं, कायिगं, सुविदियजगस्सभावो निस्संगो निब्भओ निरासो य । माणसं वाइयं च, वाइगं काइगं च, माणसं काइगं, वेरग्गभावियमणो माणंमि सुनिच्चलो होइ। मणवयणकायिगंति। एत्थ पढमो भंगो छउमत्थाणं (ध्यानशतक ३०-३४) सम्मट्ठिीमिच्छादिट्ठीणं सरागवीतरागाणं भवति । जिसने भावनाओं के माध्यम से ध्यान का पहले बितितो तेसिं चेव छदुमत्थाणं सजोगिकेवलीणं च धम्म अभ्यास किया है, वह ध्यान करने की योग्यता प्राप्त कर कथेन्ताणं । काइगं तेसिं चेव छदुमत्थाणं सजोगिकेवलीणं और लेता है । भावनाएं चार प्रकार की हैं - च चरमसमयसजोगित्ति ताव भवति । चउत्थो पंचमो य १. ज्ञान भावना-जो ज्ञान का नित्य अभ्यास करता जथा पढमो। छटो जथा सजोगिकेवलीणं । सत्तमो जथा है, ज्ञान में मन को स्थिर करता है, सूत्र और अर्थ पढमो। (आवचू २ पृ८१,८२) की विशुद्धि रखता है, ज्ञान के माहात्म्य से परमार्थ ध्यान के सात विकल्प हैं को जान लेता है, वह सुस्थिर चित्त से ध्यान कर १. मानसिक ध्यान--यह छद्मस्थ, सम्यग्दृष्टि, मिथ्या- सकता है। दृष्टि, सराग और वीतराग के होता है। २. दर्शन भावना-जो अपने को शंका आदि दोषों से २. वाचिक ध्यान--यह छद्मस्थ और धर्मकथा में संलग्न रहित और प्रशम, स्थैर्य आदि गुणों से सहित कर सयोगी केवली के होता है। लेता है, वह दर्शन-शुद्धि के कारण ध्यान में अभ्रान्त ३. कायिक ध्यान-यह छद्मस्थ और सयोगी केवली के चित्त वाला हो जाता है। चरम समय पर्यन्त होता है। ३. चारित्र भावना-चारित्र भावना से नए कर्मों का ४. मानसिक-वाचिक ध्यान-प्रथम विकल्प तुल्य । अग्रहण, पूर्वसंचित कर्मों का निर्जरण तथा शुभकर्मों ५. वाचिक-कायिक ध्यान-प्रथम विकल्प तुल्य । का ग्रहण और ध्यान-ये बिना किसी प्रयत्न के ही उपलब्ध हो जाते हैं। ६. मानसिक-कायिक ध्यान-सयोगी केवली। ४. वैराग्य भावना-जो जगत के स्वभाव को जानता ७. मानसिक-वाचिक-कायिक ध्यान प्रथम विकल्प है, निस्संग है, अभय है और आशंसा से विप्रमुक्त है, तुल्य । वह वैराग्य भावना से भावित मन वाला होता है। ८. दृष्टिवाद और ध्यान वह ध्यान में सहज ही निश्चल हो जाता है। मणसा वावारतो, कायं वायं च तप्परीणामो । १०. ध्यान के अयोग्य भंगिअसुयं गुणतो, वइ तिविहेवि झाणम्मि ।। (आवनि १४७८) पयलायंत सुसुत्तो, नेव सुहं झाइ झाणमसुहं वा । अव्वावारिअचित्तो, भंगिक श्रुत (दृष्टिवाद का अंश या अन्य विकल्प जागरमाणोवि एमेव । अचिरोववन्नगाणं, मुच्छिअअव्वत्तमत्तसुत्ताणं । प्रधान श्रुत) का गुणन करने वाला व्यक्ति तीनों ध्यानों ओहाडिअमव्वत्तं, च होइ पाएण चित्तंति ॥ में प्रवृत्त होता है। उसका मन भंगिक श्रुत में नियोजित होता है, वचन से उसका उच्चारण और काया (आवनि १४८१, १४८२) १. जो प्रचलायमान और सुषप्त है, वह न शुभ ध्यान अंगुलियों द्वारा उसका लेखन या गुणन किया जाता है। में प्रवृत्त होता है और न अशुभ ध्यान में। इसी ६. ध्यान को योग्यता : भावना प्रकार अव्यापारित चित्त वाला व्यक्ति जागता हआ पुवकयब्भासो भावणाहि माणस्स जोग्गयमुवेइ । भी न शुभ में प्रवृत्त होता है और न अशुभ में। ताओ य नाणदंसणचरित्तवेरग्गजणियाओ।। २. नवजात शिशु, मूच्छित, अव्यक्तचेता, मत्त और णाणे णिच्चब्भासो कुणइ मणोधारणं विसुद्धि च । सुप्त-इनका चित्त प्रायः स्थगित और अव्यक्त नाणगुणमूणियसारो तो झाइ सुनिच्चलमईओ। होता है। इन अवस्थाओं में ध्यान नहीं होता। Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान का स्थान-काल-आसन ३६७ नक्षत्र ११. ध्यान का स्थान-काल-आसन नक्षत्र-ज्योतिष्क देवों का एक भेद । निच्चं चिय जुवइपसुनपुंसगकुसीलवज्जियं जइणो । नक्षत्र और उनके अधिष्ठाता देव ठाणं वियणं भणियं विसेसओ माणकालम्मि । तो जत्थ समाहाणं होज्ज मणोवयणकायजोगाणं । कत्तिय रोहिणि मिगसिर अद्दा य पुणव्वसू य पूस्से य। भूओवरोहरहिओ सो देसो झायमाणस्स ।। तत्तो य अस्सिलेसा मघाओ दो फग्गुणीओ य ।। (ध्यानशतक ३५,३७) हत्थो चित्ता साती विसाहा तह य होइ अणराहा । मुनि सदा युवती, पशु, नपुंसक तथा कुशील जेट्टा मूलो पुव्वासाढा तह उत्तरा चेवा ॥ व्यक्तियों से रहित विजन स्थान में रहे। ध्यानकाल में अभिई सवण धणिट्रा सतभिसया दो य होंति भवया। विशेष रूप से विजन स्थान में रहे। रेवति अस्सिणि भरणी एसा नक्खत्तपरिवाडी। जहां मन, वचन और काया के योगों का समाधान (अनु ३४१/१-३) (स्वास्थ्य) बना रहे और जो जीवों के संघटन से रहित अग्गि पयावइ सोमे रुद्दे अदिती बहस्सई सप्पे । हो, वही ध्याता के लिए श्रेष्ठ ध्यानस्थल है। पिति भग अज्जम सविया तद्रा वाऊ य इंदग्गी । कालोऽवि सोच्चिअ जहिं जोगसमाहाणमुत्तमं लहइ । मित्तो इंदो निरती आऊ विस्सो य बंभ विण्ह य । न उ दिवसनिसावेलाइनियमणं झाइणो भणियं ॥ वसु वरुण अय विवद्धी पूस्से आसे जमे चेव ।। (ध्यानशतक ३८) ध्यान के लिए वही काल श्रेष्ठ है, जब मन, वचन (अनु ३४२/१,२) और काया के योगों का समाधान बना रहे। ध्यान करने नक्षत्र अधिष्ठाता देव वाले के लिए दिन-रात या वेला का नियमन नहीं है। १. कृत्तिका १. अग्नि जच्चिअ देहावत्था जिया ण झाणोवरोहिणी होइ । २. रोहिणी २. प्रजापति झाइज्जा तदवत्थो ठिओ निसण्णो निवण्णो वा॥ ३. मृगशिरा ३. सोम (ध्यानशतक ३९) ४. आा जिस देहावस्था (आसन) का अभ्यास हो चुका है ५. पुनर्वसु ५. अदिति और जो ध्यान में बाधा डालने वाली नहीं है, उसी में ६. पूष्य ६. बृहस्पति अवस्थित होकर ध्याता स्थित-खड़े होकर कायोत्सर्ग ७. अश्लेषा ७. सर्प आदि में, निषण्ण -बैठकर वीरासन आदि में अथवा ८. मघा ८. पितृ निपन्न-सोकर दण्डायतिक आदि आसन में ध्यान करे । ९. पूर्वफाल्गुनी ९. भग सव्वासु वट्टमाणा मुणओ जं देसकालचेट्ठासु । १०. उत्तरफाल्गुनी १०. अर्यमा वरकेबलाइलाभं पत्ता बहुसो समियपावा ॥ ११. हस्त ११. सविता तो देसकालचेद्रानियमो माणस्स नत्थि समयंमि । १२. चित्रा १२. त्वष्टा जोगाण समाहाणं जह होइ तहा यइयव्वं ॥ १३. स्वाति १३. वायु (ध्यानशतक ४०,४१) १४. विशाखा १४. इंद्राग्नि सभी देश, काल और चेष्टा आसनों में प्रवृत्त, १५. अनुराधा १५. मित्र उपशान्त दोष वाले अनेक मुनियों ने ध्यान के द्वारा १६ ज्येष्ठा केवलज्ञान आदि की प्राप्ति की है। १७. मूल १७. निऋति अत: आगम में ध्यान के लिए देश, काल और १८. पूर्वाषाढा १८. अप् आसन का कोई नियम नहीं है। जैसे योगों का समाधान १९. उत्तराषाढा १९. विश्व हो, वैसे ही प्रयत्न करना चाहिए। २०. अभिजित २०. ब्रह्म (आवश्यकनियुक्ति की हारिभद्रीया वृत्ति भाग-२, २१. श्रवण २१. विष्णु पृष्ठ ६१ से ८१ में ध्यानशतक के १०५ श्लोक प्रकाशित २२. धनिष्ठा २२. वसु हैं। इसे जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण की कृति माना गया है।) २३. शतभिषा २३. वरुण Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमस्कार पंचक ३६८ नमस्कार महामंत्र २४. पूर्वाभाद्रपद २४. अज २५. उत्तराभाद्रपद २५. विवृद्धि (अहिर्बुध्न) २६. रेवति २६. पूषा २७. अश्विनी २७. अश्व २८. भरणी २८. यम नन्दनवन-क्रीडास्थल । णंदंति जेण वणयर-जोतिस-भवण-वेमाणिया विज्जाहर-मण्या य तेण णंदणं, वणं ति-वणसंडं । (नन्दीचू पृ५) जहां व्यन्तर, ज्योतिष्क, भवनपति और वैमानिक देव, विद्याधर और मनुष्य आनन्द का अनुभव करते हैं, क्रीडा करते हैं, वह वनषण्ड नन्दनवन है। नमस्कार महामंत्र- अर्हत् परंपरा का सुप्रसिद्ध मंत्र जिसमें पंच परमेष्ठी को नमन किया जाता है। १. नमस्कार पंचक २. नमस्कार के अनुयोग ३. नमस्कार की उत्पत्ति ४. नमस्कार का प्रयोजन ५. नमस्कार की स्थिति ६. नमस्कार की निष्पत्ति ७. नमस्कार का महत्त्व ८. नमस्कार के पद पांच क्यों ? ९. नमस्कारपदों का क्रम यह पंच नमस्कार सब पापों का नाश करने वाला और सब मंगलों में प्रथम मंगल है। ..."काऊणं पंचमंगलं आरंभो होइ सुत्तस्स ॥ (आवनि १०१३) कयपंचनमोक्कारस्स दिति सामाइयाइयं विहिणा । आवासयमायरिया कमेण तो सेसयसूयं पि॥ (विभा ५) शिष्य सर्वप्रथम मंगलरूप पंचनमस्कार करता है, उसके पश्चात ही आचार्य शिष्य को उसकी योग्यता के अनुसार सामायिक, आवश्यक, आचारांग आदि शेष सूत्रों की विधियुत वाचना देते हैं । जदा संहिता सव्वा उच्चारिता भवति तत्थ सो सुत्ताणु गमो।""सुत्तं अणुगंतव्वं । तं च पंचनमोक्कारपुव्वं भणंति पुव्वगा। (आवचू १ पृ ५०१,५०२) आगम पाठ में सर्वप्रथम सूत्र का उच्चारण किया जाता है, जो सूत्रानुगम कहलाता है। पूर्वविदों द्वारा सूत्रानुगम से पूर्व पंच नमस्कार किया जाता है। अरहंतनमोक्कारो जीवं मोएइ भवसहस्साओ। भावेण कीरमाणो होइ पूणो बोहिलाभाए । अरिहंतनमोक्कारो सव्वपावप्पणासणो । मंगलाणं च सव्वेसिं पढम हवइ मंगलं ॥ (आवनि ९२३,९२६) अर्हत् को भावपूर्वक नमस्कार करने से बोधिलाभ होता है, अनंत भवों से मुक्ति मिलती है। अर्हत-नमस्कार सब पापों का नाश करता है और सभी मंगलों में प्रथम मंगल है। निच्छिन्नसव्वदुक्खा जाइजरामरणबंधणविमुक्का। अव्वाबाहं सुक्खं अणुहुंती सासयं सिद्धा ।। सिद्धाण नमुक्कारो सव्वपावप्पणासणो। मंगलाणं च सव्वेसि बिइअं होइ मंगलं ।। (आवनि ९८८,९९२) ___ सब दुःखों से मुक्त, जन्म-जरा-मरण के बंधन से विप्रमुक्त सिद्ध अव्याबाध, शाश्वत सुख का अनुभव करते हैं । सिद्ध-नमस्कार सब पापों का नाश करता है और सब मंगलों में द्वितीय मंगल है। आयारदेसणाओ पुज्जा परमोवगारिणो गुरवो। विणयाइगाहणा वा उवज्झाया सुत्तया जं च ।। १. नमस्कार पंचक नमो अरहताणं नमो सिद्धाणं नमो आयरियाणं नमो उवज्झायाणं नमो लोए सव्वसाहूणं (आव १/१) एसो पंच नमुक्कारो, सव्वपावप्पणासणो। मंगलाणं च सव्वेसिं, पढम हवइ मंगलं ।। (आवनि १०१८ म प ५५२) अर्हतों को नमस्कार सिद्धों को नमस्कार आचार्यों को नमस्कार उपाध्यायों को नमस्कार लोक के सब साधुओं को नमस्कार Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमस्कार का प्रयोजन तो पुज्जा आयार- विणय-साणसाहज्जं साहवो जओ दिति । ते पंच वि तग्गुणपूयाफलनिमित्तं ॥ ( विभा २९५७, २९५८ ) गुरु (आचार्य) स्वयं आचार - सम्पन्न होते हैं और दूसरों को आचार की देशना देते हैं इसलिए पूज्य परमउपकारी गुरु नमस्करणीय हैं । ३६९ उपाध्याय स्वयं विनयवान् होते हैं और शिष्यों को विनय की शिक्षा तथा सूत्र की वाचना देते हैं, इसलिए नमस्करणीय हैं । तथा मुनि आचार और विनय से सम्पन्न होते मोक्ष - साधना में सहयोगी बनते हैं, इसलिए वे नमस्करणीय हैं। अर्हत् आदि पांचों पूज्य हैं । उनके ज्ञान आदि गुणों की पूजा का जो फल है - मोक्षाभिमुखता तथा स्वर्गअपवर्ग की प्राप्ति, उनकी निष्पत्ति में वे कारणभूत होते हैं । २. नमस्कार के अनुयोग उप्पत्ती निक्खेवो पयं पयत्थो परूवणा वत्युं । अक्व सिद्धि को पओयणफलं नमुक्कारो ॥ ( आवनि ८८७) नमस्कार के ग्यारह अनुयोग हैं(१) उत्पत्ति ( २ ) निक्षेप (३) पद ( ४ ) पदार्थ (५) प्ररूपणा ( ६ ) वस्तु (७) आक्षेप ( ८ ) प्रसिद्धि (९) क्रम (१०) प्रयोजन और (११) फल । ३. नमस्कार की उत्पत्ति समुट्ठाण वायणा लद्धिओ पढमे नयत्तिए तिविहं । ..... ( आवनि ८८९ ) पन्नरससुवि कम्मभूमीस पुरिसादिभावं पडुच्च, जदि उप्पन्नो कहं उप्पन्नोत्ति ? तिविहेण सामित्ते - समुत्थाणसामित्तेण वायणासामित्तेण लद्धिसामित्तेण ।... समुट्ठाणं नाम संमं आयरियादीण उपस्थापनमित्यर्थः तेन, वायणाए वायणायरियणीसाए, जहा भगवता गोयमसामी वातो, लद्धी जहा भविकस्स । ( आवचू १ पृ ५०२) पन्द्रह कर्मभूमियों में पुरुष, काल आदि की अपेक्षा से नमस्कार मंत्र की उत्पत्ति होती है, उसके तीन रूप १. समुत्थानस्वामित्व – आचार्य आदि की सम्यक् उपस्थापना | नमस्कार महामंत्र २. वाचनास्वामित्व वाचनाचार्य की निश्रा में वाचना । जैसे - महावीर ने गौतम को वाचना दी । ३. लब्धिस्वामित्व बिना उपदेश के भी भव्य जीव को किसी निमित्त से नमस्कार की प्राप्ति होती है । ४. नमस्कार का प्रयोजन इत्थ य ओयणमिणं, कम्मक्खओ मंगलागमो चेव । .... ( आवनि १०१० ) नमस्कार का प्रयोजन है— कर्म का क्षय और मंगल की प्राप्ति । पंच पदों के नमस्कार का हेतु मग्गे अविपणासो आयारे पंचविहनमुक्कारं करेमि विणयया सहायत्तं । एएहि ऊहि ॥ ( आवनि ९०३ ) १. अर्हत् को नमस्कार करने से मोक्षमार्ग का बोध होता है । २. सिद्ध को नमस्कार करने से शाश्वत मोक्ष की ओर दृष्टि होती है। ३. आचार्य को नमस्कार करने से आचार की सम्पन्नता बढ़ती ४. उपाध्याय को नमस्कार करने से विनय का विकास होता है । ५. साधु को नमस्कार करने से संयम जीवन में सहायता मिलती है। कोप्पसाय हेउं च जं फलं नहि तदत्थमारंभी । न परप्पसायणत्थं किन्तु निययप्पसायत्थं ॥ (विभा ३२५३) कोपहेतुक और प्रसादहेतुक फलप्राप्ति के लिए अथवा दूसरों को प्रसन्न करने के लिए अर्हत् आदि को नमस्कार नही करना चाहिए। अपने चित्त की प्रसन्नता के लिए नमस्कार करणीय है । पूया परोवयाराभावे वि सिवाय जिणवराईणं । परिणामसुद्धिहे सुभकिरियाओ य बंभं व ।। ( विभा ३२६७ ) पंच परमेष्ठी नमस्कार परोपकार के अभाव में भी मोक्ष के लिए है, क्योंकि यह परिणामशुद्धि का हेतु है । ब्रह्मचर्य की भांति यह शुभ क्रिया है । Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमस्कार महामंत्र ३७० नमस्कार के पद पांच क्यों ? ५. नमस्कार की स्थिति द्वादशांग के श्रुतस्कंधों का अनुचिन्तन नहीं कर सकता, वोपडतोमन ली नोट जरो। अतः उस आपदा की स्थिति में नमस्कार मंत्र का उक्कोसद्विइ छावद्वि सागरा... ॥ निरंतर पुनः-पुनः स्मरण किया जाता है। भी इस मंत्र के अक्षर अल्प और अर्थ महान है, क्योंकि उपयोग की अपेक्षा से नमस्कार की जघन्य और और यह यह द्वादशांग के अर्थ का संग्राहक है। एकम्मि वि जम्मि पए संवेगं कुणइ वीयरायमए। उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहर्त है और लब्धि की अपेक्षा से सो तेण मोहजालं छिदइ अझप्पओगेणं ॥ जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट स्थिति साधिक ववहाराओ मरणे तं पयमेक्कं मयं नमोक्कारो। छियासठ सागर की होती है। अन्नं पि निच्छयाओ तं चेव य बारसंगत्थो । ६. नमस्कार की निष्पत्ति जं सोऽतिनिज्जरत्थो पिंडयत्थो वन्निओ महत्थो वि। इह लोइ अत्थकामा आरुग्गं अभिरई य निप्फत्ती। कीरइ निरंतरमभिक्खणं तु बहुसो बह वारा ॥ सिद्धी य सग्गसुकुलप्पच्चायाई य परलोए । (विभा ३०२१-३०२३) (आवनि १०११) वीतराग का एक पद-वचन भी व्यक्ति में वैराग्य - नमस्कार महामंत्र का जाप करने से इस लोक में उत्पन्न कर देता है, अध्यात्मयोग से मोहग्रंथि को छिन्न अर्थ, काम, आरोग्य, अभिरति-पुण्य की निष्पत्ति और कर देता है । नमस्कार मंत्र अनेक पदात्मक है, द्वादशांग परलोक में सिद्धि, स्वर्ग, सुकुल में जन्म आदि की गणिपिटक का तात्पर्यार्थ है, महान् निर्जरा का हेतु है। उपलब्धि होती है। यद्यपि व्यवहार में इसे एक पद भी कहा जा सकता है, ७. नमस्कार का महत्त्व किंतु निश्चय दृष्टि से यह सम्पूर्ण द्वादशांग है, क्योंकि यह संवेग अथवा वैराग्य का जनक है। जिस पद या जलणाइभए सेसं मोत्तुं पेगरयणं महामोल्लं । वाक्य से व्यक्ति में विराग उत्पन्न होता है, वही पद जुधि वातिभए घेप्पइ अमोहमत्थं जह तहेह ।। उस व्यक्ति के लिए सम्पूर्ण ज्ञान है। अत: मरणकाल मोत्तुं पि बारसंगं मरणाइ भएसु कीरए जम्हा। में इस मंत्र का निरंतर पूनः-पूनः स्मरण किया जाता अरहंतनमोक्कारो तम्हा सो बारसंगत्थो।। सव्वं पि बारसंगं परिणामविसुद्धिहेउमित्तागं। तक्कारणभावाओ कह न तयत्थो नमोक्कारो ।। ८. नमस्कार के पद पांच क्यों ? न ह तम्मि देसकाले सक्को बारसविहो सुयक्खंधो। नवि संखेवो न वित्थारु संखेवो दुविहु सिद्धसाहूणं । सव्वो अणुचितेउं धंतं पि समथचितेणं ।। वित्थारओऽणेगविहो पंचविहो न जुज्जई तम्हा ।। (विभा ३०१६-३०१९) अरहंताई निअमा साहू साहू अ तेसु भइअव्वा । जैसे घर में आग लगने पर अन्य धनधान्य सामग्री तम्हा पंचविहो खलु हेउनिमित्तं हवइ सिद्धो ।। (आवनि १००६,१००७) को छोड़कर महान् मूल्य वाले एक रत्न को ग्रहण किया जाता है, युद्धक्षेत्र में अमोघ अस्त्र को ग्रहण किया जाता शिष्य ने पूछा-भंते ! सूत्र दो प्रकार का होता है-संक्षिप्त और विस्तृत । यह पंचनमस्कार न संक्षिप्त है, वैसे ही मृत्यु के समय द्वादशांग आगमों को छोड़कर नमस्कारमंत्र का स्मरण किया जाता है। इसका फलित है, न विस्तृत । यदि संक्षेप में होता तो इसके दो ही पद होते-सिद्ध और साधु । परिनिर्वत अर्हतों का सिद्ध यह है कि नमस्कार मंत्र द्वादशांग का तात्पर्यार्थ है। पद में और शेष पदों का साधु पद में समाहार हो जाता जैसे समग्र द्वादशांग परिणामविशुद्धि का हेतु है, वैसे ही ही अर्हत् नमस्कार परिणामविशुद्धि का हेतु है, अतः यह यदि विस्तार से होता तो इसके अनेक पद होतेद्वादशांग का वाचक है। अर्हत् ऋषभ, अर्हत् अजित आदि, तीर्थसिद्ध, अतीर्थसिद्ध कोई भी श्रुतसम्पन्न व्यक्ति अत्यन्त समर्थ होने पर आदि-आदि। अत: पंचविध नमस्कार युक्तियुक्त प्रतीत भी तात्कालिक मृत्यु, भय आदि की स्थिति में सम्पूर्ण नहीं होता। Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय की परिभाषा के आचार्य ने समाधान देते हुए कहा - अर्हत्, आचार्य और उपाध्याय नियमतः साधु हैं क्योंकि साधु गुण उनमें विद्यमान हैं । साधु में अर्हत् आदि की भजना है । मात्र साधु को नमस्कार करने से अर्हत् आदि के विशिष्ट गुणों को नमन नहीं होता, अतः उससे निष्पन्न फल भी प्राप्त नहीं होता । जैसे - अर्हत् मोक्षमार्ग के उपदेष्टा हैं, अतः अर्हत्-नमस्कार मोक्षमार्ग की प्राप्ति का हेतु है । इस प्रकार हेतुभेद से पंचविध नमस्कार युक्तियुक्त है । ६. नमस्कारपदों का क्रम अरहंतुवएसेणं सिद्धा नज्जंति तेण अरिहाई । न कोई परिसाए पणमित्ता पणमई रण्णो ॥ यद्येवमाचार्यादिस्तर्हि क्रमः प्राप्तः, अर्हतामपि तदुपदेशेन संवित्ते रिति । अत्रोच्यते, न इहाईत सिद्धयोरेवायं वस्तुतस्तुल्यबलयोविचारः श्रेयान् परमनायकभूतत्वाद्, आचार्यस्तु तत्परिषत्कल्पा वर्तन्ते । ( आवनि १००९ हावृ १ पृ ३०१ ) अर्हत् के उपदेश से अथवा आगम से सिद्धों की अवगति मिलती है, अतः सर्वप्रथम अर्हत् को नमस्कार किया गया है । आचार्य के उपदेश से अर्हतों की अवगति मिलती है, तब सर्वप्रथम आचार्यों को नमस्कार क्यों नहीं किया गया ? इसके समाधान में कहा गया है कि वस्तुतः तुल्य बल वालों के क्रम का विचार श्रेयस्कर है । शक्तिसम्पन्नता और कृतकृत्यता की दृष्टि से अर्हत् और सिद्ध प्राय: समान ही हैं। दोनों परम नायक हैं। आचार्य उनकी परिषद् के समान हैं । कोई भी व्यक्ति परिषद् को प्रणाम कर राजा को प्रणाम नहीं करता । नय -- अनंत धर्मात्मक वस्तु के एक धर्म को ग्रहण कर अन्य धर्मों का निराकरण न करने वाला दृष्टिकोण | १. नय का निर्वचन २. नय की परिभाषा ३७१ ३. सात नय नैगम संग्रह ० व्यवहार • ० O ० शब्द ० ऋजसूत्र O समभिद एवंभूत ४. चार नय ५. द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक नय ६. अर्थनय - शब्दनय निश्चयनय-व्यवहारनय ७. ८. ज्ञाननय क्रियानय ९. सम्यक्नय- मिथ्यानय १०. नय: विभिन्न वृष्टांत • गज का दृष्टांत • रत्नावलि का दृष्टांत • प्रस्थक, वसति और प्रदेश का दृष्टान्त भी युक्त अयुक्त ११. नयविधि से १२. कालिकत और नय • नय के अपृथक्करण का हेतु * नय : अनुयोग का प्रवेशद्वार 'हिंसा, अहिंसा और नय * सामायिक और नय निक्षेप में नय का अन्तर्भाव नय ( व्र. अनुयोग) ( द्र. अहिंसा) ( व्र. सामायिक ) (x. Freia) १. नय का निर्वचन स नयइ तेण तर्हि वा तओऽहवा वत्थुणो व जं नयणं । बहुहा पंज्जायाणं संभवओ सो नओ नाम ॥ ( विभा ९१४ ) वक्ता संभावित पर्यायों से वस्तु का बोध कराता है, वहन है । अथवा जिससे अर्थ का परिच्छेद होता है, वह नय है । २. नय की परिभाषा गेण वत्थुणो गधम्णो जमवधारणे णेव । नयणं धम्मेण तओ होइ नओ ॥ ( विभा २१८० ) नयति - अनेकांशात्मकं वस्त्वेकांशावलम्बनेन प्रतीतिपथमारोपयति नीयते वा तेन तस्मिस्ततो वा नयनं वा नयः - प्रमाणप्रवृत्त्युत्तरकालभावी परामर्श इत्यर्थः । ( उशावृ प ६७ ) अनेक धर्मात्मक वस्तु के एक धर्म ( अंश) का अवलम्बन लेकर उसे प्रतीति का विषय बनाना नय Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय है । यह प्रमाण की प्रवृत्ति के पश्चात् होने वाला परामर्श है । अनेकधर्मकं वस्त्ववधारणपूर्वकमेकेन नित्यत्वाद्यन्यतमेन धर्मेण प्रतिपाद्यस्य बुद्धि नीयते प्राप्यते येनाभिप्रायविशेषेण स ज्ञातुरभिप्रायविशेषो नयः । ( आवमवृप ३६९ ) वस्तु अनन्तधर्मात्मक है। उसके विवक्षित धर्म का अवधारण करने वाला ज्ञाता का अभिप्रायविशेष नय कहलाता 1 दिगम्बरी त्वियं प्रमाणनयपरिभाषा - सम्पूर्ण वस्तुकथनं प्रमाणवाक्यं यथा स्याज्जीवः स्याद्धर्मास्तिकाय इत्यादि, वस्त्वेकदेशकथनं नयवादः, तत्र यो नाम नयो नयान्तरसापेक्षः स नयः इति वा सुनय इति वोच्यते, यस्तु नयान्तरनिरपेक्षः स दुर्नयो नयाभास इति । ( आवमवृप ३७० ) दिगम्बर मान्यता के अनुसार सम्पूर्ण वस्तु का प्रतिपादन करने वाला प्रमाणवाक्य कहलाता है, जैसेस्यात् जीव है, स्यात् धर्मास्तिकाय है । वस्तु के एक अंश का प्रतिपादन करने वाला कथन नयवाद कहलाता है । जो नय दूसरे नय की अपेक्षा रखता वह सुनय है और जो नय दूसरे नय की अपेक्षा नहीं रखता, वह दुर्नय अथवा नयाभास है । ३. सात नय सत्त मूलनया पण्णत्ता, तं जहा — नेगमे संग बवहारे उज्जुसुए सद्दे समभिरूढ एवंभू । ( अनु ७१५) नय सात हैं १. नैगम २. संग्रह ३. व्यवहार ४. ऋजुसूत्र निगम नय ३७२ हि माहि मिणइ त्ति नेगमस्स य निरुत्ती । ..... ( अनु ७१५/१ ) सामन्नोभय विसेसनाणाई । गमो णओ णेगमाणो त्ति ॥ (विभा २१८६) जो अनेक प्रमाणों से वस्तु का ज्ञान करता है, वह निगम है । गाई माणाई जं तेहि मिणइ तो ५. शब्द ६. समभिरूड ७. एवंभूत । सामान्य, विशेष और उभयरूप ज्ञानों से ग्रहण करना निगम नय है । संग्रह नय संगहि पिडित्थं, संगहवयणं समासओ बेंति । ..... ( अनु ७१५।२) जो संग्रहीत और पिंडित अर्थ को संक्षेप में बताता है, वह संग्रह नय है । व्यवहार नय '''''वच्चइ विणिच्छियत्थं, ववहारो सव्वदव्वे ॥ ( अनु ७१५।२) ....ववहारपरो व जओ विसेसओ तेण ववहारो ॥ ( विभा २२१२ ) अर्थ का अनु जो सब द्रव्यों के विनिश्चित - विशेष गमन करता है, वह व्यवहार नय है । संग्रह और व्यवहार नय में अन्तर जं सामन्नग्गाही संगिण्हइ तेण संगहो निययं । जेण विसेसग्गाही ववहारो तो विसेसेइ ॥ ( विभा ७६ ) संग्रहनय सामान्यग्राही है । वह अभेद को ग्रहण करता है । व्यवहारनय विशेषग्राही है । वह भेद को ग्रहण करता है । ऋजुसूत्र नय तम्हा निययं संपकालीनं लिंग वयणभिन्नं पि । नामाभे विहियं पडिवज्जइ वत्थुमुज्जुसुओ ॥ ( विभा २२२६) पर भी जो वस्तु के वह ऋजुसूत्र है । और नाम आदि लिंग और वचन का भेद होने वर्तमान पर्याय को ग्रहण करता है, ऋजुसूत्र तीनों लिंगों, दोनों वचनों चारों निक्षेपों को मान्य करता है । शब्द नय शब्द नय धणिभेयाओ भेओ त्थी पुलिंगाभिहाणवच्चाणं । पड - कुंभाणं व जओ तेणाभिन्नत्यमिट्ठ तं ॥ जिन शब्दों के लिंग भिन्न हैं, एकत्व नहीं है । जैसे- पट और उन कुम्भ ( विभा २२३४ ) शब्दों में भेद है, शब्द भिन्न हैं; Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार नय ३७३ नय वैसे ही तटी, तट और तटम् -इन शब्दों का अर्थ भिन्न- एवंभूत नय भिन्न है। क्योंकि इनमें ध्वनि का भेद है। ध्वनि के .."वंजण-अत्थ-तदुभयं, एवंभूओ विसेसेइ ।। अनुसार जिस शब्द का जो लिंग है, वह अन्य लिंग वाले (अनु ७१५।४) अर्थ का वाच्य नहीं हो सकता। वंजणमत्थेणत्थं च वंजणेणोभयं विसेसेइ । ऋजुसूत्र और शब्द नय में अंतर जह घडसइं चेट्ठावया तहा तं पि तेणेव ।। (विभा २२५२) पच्चुप्पण्णग्गाही, उज्जुसुओ नयविही मुणेयव्वो । जो शब्द और अर्थ-इन दोनों को विशेषित करता इच्छइ विसेसियतारं, पच्चुप्पण्णं नओ सद्दो ॥ है, वह एवंभूत नय है। इसमें वाच्य वाचक से तथा (अनु ७१५।३) वाचक वाच्य से अथवा शब्द अर्थ से तथा अर्थ शब्द से जो वस्तु के प्रत्युत्पन्न-वर्तमान पर्याय को ग्रहण विशेषित होता है। जैसे-जल-आहरण आदि की करता है, वह ऋजुसूत्र नय है। चेष्टा-क्रिया से घट शब्द सार्थक होता है और घट शब्द शब्द नय उसी प्रत्युत्पन्न पर्याय को लिंग और वचन से आहरण आदि की क्रिया का बोध होता है। . के भेद से विशेष रूप में ग्रहण करता है। शब्द-ऋजुसूत्र, समभिरूढ-एवंभूत समभिरूढ नय सद्दुज्जुया पज्जायवायगा भावसंगहं बेति । वत्थूओ संकमणं, होइ अवत्थू नए समभिरूढे । उवरिमया विवरीआ भावं भिदंति तो निययं ।। (अनु ७१५॥४) (विभा ७७) समभिरूढ नय में वस्तु का संक्रमण-एक शब्द का शब्द और ऋजुसूत्र--ये दोनों नय पर्यायवाचक होने दूसरे पर्यायवाची शब्द में गमन अवस्तु हो जाता है। पर भी भाव निक्षेप का प्रतिपादन करते हैं। समभिरूढ वस्तुनो-घटाख्यस्य संक्रमणम् अन्यत्र कुटाख्यादौ और एवंभूत -ये दोनों नय शब्द और ऋजुसूत्र से गमनं किम् ? भवति अवस्तु असदित्यर्थः। घट: कुट: विपरात है। य भाव क ए विपरीत हैं। ये भाव के एकत्व का नहीं, भिन्नत्व का कुम्भ इत्यादिशब्दान भिन्नप्रवत्तिनिमित्तत्वादिभन्नार्थ- प्रतिपादन करते हैं। गोचरानेव मन्यते, घटपटादिशब्दानिव। तथा च एक्केक्को य सयविहो सत्त नयसया हवंति एमेव । विशिष्टचेष्टावानर्थों घट इति तथा कौटिल्यायोगात्कुट:, अण्णोऽवि य आएसो पंचेव सया नयाणं तु ।। तथा उम्भनात् उम्भः कुस्थितपूरणादित्यर्थः । ततश्च यदा (आवनि ७५९) घटार्थे कुटादिशब्दः प्रयुज्यते तदा वस्तुनः कुटादेस्तत्र प्रत्येक नय के सौ-सौ भेद हैं। इस प्रकार सात नयों संक्रान्ति कृता भवति । (आवहावृ १ पृ १९०) के सात सौ भेद हो जाते हैं। अन्य परम्परा के अनुसार तीनों शब्दनयों को एक घट वस्तु में कुट, कुम्भ आदि अन्य शब्दों का आरोप करने पर वह अवस्तु (असत्) हो जाती है। मान लेने पर मूलनय पांच ही रह जाते हैं। उसके क्योंकि इस नय को वाचक भेद से वाच्यार्थ में भिन्नता । आधार पर पांच नयों के पांच सौ भेद होते हैं। मान्य है । जैसे—जो चेष्टाशील है, वह घट है। जो (उमास्वाति के अनुसार नय पांच हैं—नैगम, संग्रह, कुटिल/टेढ़ा-मेढ़ा है, वह कुट है। जिसे भूमि पर रखकर व्यवहार, ऋजुसूत्र और शब्द (तत्त्वार्थ सूत्र ११३४) । भरा जाता है, वह कुम्भ है। इस प्रकार प्रवृत्ति का _सिद्धसेन के अनुसार नय छह हैं -संग्रह, व्यवहार, ऋजुनिमित्त भिन्न-भिन्न होने से इन शब्दों का वाच्यार्थ भी। सूत्र, शब्द, समभिरूढ और एवंभूत (सन्मति प्रकरण भिन्न-भिन्न है। घट शब्द से कुट शब्द उतना ही भिन्न ११४, ५)। उत्तरवर्ती साहित्य में सात नय के वर्गीकरण का ही अनुसरण हुआ है।) है, जितना घट से पट शब्द भिन्न है। सभी पर्यायों को एकार्थक मानने से सांकर्य दोष होता है--यह समभिरूढ ०. चार नय नय का अभिमत है। णेगमो दुविहो-संगहितो असंगहितो य । संगहितो Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय ३७४ सम्यक्नय-मिथ्यानय संगहं पविट्ठो, असंगहितो ववहारं, तम्हा संगहो ववहारो व्यवहारनय के अनुसार द्रव्य के चार स्वभाव हैंरिजसुतो, सद्दाइया य एक्को, एवं चतुरा णया। गुरु, लघु, गुरुलघु, अगुरुलघु । जो वस्तु ऊपर फेंकने पर (नन्दीचू पृ ७२,७३) सहज नीचे गिरती है, वह गुरु है, जैसे-पत्थर । जो नैगम नय के दो भेद हैं-संग्रह और असंग्रह। निसर्गतः ऊर्ध्वगति स्वभाव वाली है वह लघु है, जैसेसंग्रह संग्रह में और असंग्रह व्यवहार में समाविष्ट है। दीपकलिका । जो स्वभाव से तिरछी गति वाली है वह अत: नय चार हैं -संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र और शब्द गुरुलघु है, जैसे-वायु । जो न गुरु है, न लघु है, सर्वत्र(समभिरूढ़ और एवंभूत नय शब्द नय के अन्तर्गत हैं)। गामी है, वह अगुरुलघु है, जैसे-आकाश, परमाणु आदि। ५. द्रव्याथिक-पर्यायाथिक नय ८. ज्ञाननय-क्रियानय संगह-व्ववहारा पढमगस्स सेसा य इयरस्स ।।... नायंमि गिण्हिअव्वे अगिण्हअव्वं मि चेव अत्थं मि । (विभा ७५) जइअव्वमेव इअ जो उवएसो सो नओ नामं ।। संग्रह और व्यवहार ये दो नय द्रव्याथिक हैं। शेष (आवनि १०५४) -ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत-ये पांच नय हेय और उपादेय अर्थ को जानना ज्ञाननय है और पर्यायाथिक हैं। उपादेय अर्थ में प्रवृत्त होना क्रियानय है। ६. अर्थनय-शब्दनय सत्त मूलनया""सव्वेवि दोसु समोतरंति-उवएसे अत्थप्पवरं सद्दोवसज्जणं वत्थुमुज्जुसुत्तता । चरणे य । नेगमसंगहववहारा उवदेसनयो। उज्जुसुतसहप्पहाणमत्थोवसज्जणं सेसया बिति ॥ सद्दसमभिरूढएवंभूता चरणनयो । तत्र जाणणाणयो ज्ञानो(विभा २२६२) पलब्धिमात्रः, अविशेषितं द्रव्यास्तिक इत्यर्थः । 'चरण नयः पर्याय इत्यर्थः। प्रथम चार नयों में अर्थ प्रधान है और शब्द गौण, (आवचू २ पृ५१) सातों मूल नय उपदेश (ज्ञान) और चरण में समवइसलिए वे अर्थनय कहलाते हैं। शेष तीन नयों में शब्द तरित होते हैं। प्रधान है और अर्थ गौण, इसलिए वे शब्दनय कहलाते नैगम, संग्रह और व्यवहार उपदेश नय हैं। ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ और एवंभूत चरण नय हैं । ७. निश्चयनय-व्यवहारनय ज्ञानोपलब्धि ज्ञान नय है-यह द्रव्यास्तिक है। लोगव्ववहारपरो ववहारो भणइ कालओ भमरो। चरणनय पर्यायास्तिक है। परमत्थपरो मण्णइ निच्छइओ पंचवण्णो त्ति ॥ ९. सम्यकनय-मिथ्यानय (विभा ३५८९) इय सव्वनयमयाइं परित्तविसयाई, समृदियाइं तु । लोक प्रसिद्ध अर्थ को मानने वाले विचार को जइणं........ व्यवहार नय कहते हैं, जैसे-भौंरा काला होता है।। (विभा १५३०) नैश्चयिक नय परमार्थ को मानता है। उसके प्रत्येक नय का विषय सीमित है-परस्पर निरपेक्ष अनुसार भौंरा पांच वर्ण वाला होता है। होकर वस्तु के एक अंश को ग्रहण करने वाले नय निच्छयओ सव्वगुरुं सव्वलहं वा न विज्जए दव्वं । अप्रमाण हैं। वे ही जब परस्पर सापेक्ष होकर समुचित बायरमिह गुरुलहुयं अगुरुलहं सेसयं सव्वं ॥ रूप में सम्पूर्ण वस्तु का ग्रहण करते हैं, तब सम्यक् (विभा ६६०) होते हैं। यही जैनमत है। निश्चयनय के मत में कोई भी वस्तु एकान्त गुरु या एवं विवयंति नया मिच्छाभिनिवेसओ परोप्परओ। एकान्त लघु नहीं है । जो बादर है, वह गुरुलघु है, शेष इयमिह सव्वनयमयं जिणमयमणवज्जमच्चतं ।। सब अगुरुलघु हैं। (विभा ७२) गुरुयं लहयं उभयं नोभयमिति वावहारियनयस्स । इस प्रकार निरपेक्ष नय मिथ्या अभिनिवेश के कारण दव्वं, लेटठं दीवो वाऊ वोमं जहासंखं ।।। परस्पर विवाद करते हैं। जैन दर्शन सब नयों को मान्य (विभा ६५९) करता है, इसलिए वह अत्यन्त निर्दोष है। Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय ३७५ प्रस्थक का दृष्टांत जावंतो वयणपहा तावंतो वा नया विसद्दाओ । रत्नावली के बिखरे मनकों की भांति पृथक-पृथक ते चेव य परसमया सम्मत्तं समृदिया सव्वे ।। नय समस्त वस्तु के गमक नहीं होते । नय समुदित होकर (विभा २२६५) संयुक्त मनकों की भांति समस्त वस्तु के गमक बन जाते जितने वचन के प्रकार हैं, उतने ही नय हैं, उतने हैं। ही पर-सिद्धान्त हैं। वे समुदित होकर सम्यक्त्व का रूप । प्रस्थक, वसति और प्रदेश का दृष्टान्त ले लेते हैं- यथार्थ बन जाते हैं। नयप्पमाणे तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-पत्थगदिळंनत्थि नएहि विहूणं सुत्तं अत्थो य जिणमए किंचि । . आसज्ज उ सोयारं नए नयविसारओ बूया ॥ तेण वसहिदिठ्ठतेणं, पएसदिट्ठतेणं। (अनु ५५४) (विभा २२७७) प्रस्थक दृष्टान्त, वसति दृष्टान्त और प्रदेश दष्टान्त जिनवाणी अथवा आगम में जो सत्र और अर्थ का इन तीन दृष्टान्तों से नयप्रमाण का प्रतिपादन होता प्रतिपादन है, वह नयसापेक्ष है। नयविशारद प्रवक्ता श्रोता की योग्यता के अनुसार उनका प्रतिपादन करे। प्रस्थक का दृष्टान्त देसगमगत्तणाओ गमग च्चिय वत्थुणो सुयाइ व्व । पत्थगदिठतेणं-से जहानामए केइ पुरिसे परसुं सव्वे समत्तगमगा केवलमिव सम्मभावम्मि ॥ गहाय अडविहुत्तो गच्छेज्जा, तं च केइ पासित्ता (विभा २२६८) वएज्जा-कहिं भवं गच्छसि ? श्रतज्ञान आदि की तरह नय भी वस्तु के एक अंश अविसुद्धो नेगमो भण्णति-पत्थगस्स गच्छामि । के ग्राहक होने पर भी वस्तु के गमक ज्ञापक होते हैं। तं च केइ छिदमाणं पासित्ता वएज्जा--कि भवं सम्यक होने पर सभी नय केवलज्ञान की भांति समस्त टिसि? वस्तु के ज्ञापक बनते हैं। विसुद्धो नेगमो भणति-पत्थगं छिदामि । १०. नय : विभिन्न दृष्टान्त तं च केइ तच्छमाणं पासित्ता वएज्जा--किं भवं गज का दृष्टांत तच्छेसि ? जमणेगधम्मणो वत्थुणो तदंसे च सव्वपडिवत्ती। विसुद्धतराओ नेगमो भणति-पत्थगं तच्छेमि। अन्धा व गयावयवे तो मिच्छाहिट्रिणो वीस ॥ तं च केइ उक्किरमाणं पासित्ता वएज्जा-किं भवं (विभा २२६९) उक्किरसि ? हाथी के एक-एक अवयव को सम्पूर्ण हाथी समझने विसुद्धतराओ नेगमो भणति-पत्थगं उक्किरामि । वाले चक्षहीन व्यक्तियों की भांति जो अनन्त धर्मात्मक तं च केइ लिहमाणं पासित्ता वएज्जा-किं भवं वस्तु के केवल एक धर्म को ग्रहण कर समस्त वस्त की लिहसि ? प्रतिपत्ति मानते हैं, वे मिथ्यादृष्टि कहलाते हैं। विसुद्धतराओ नेगमो भणति-पत्थगं लिहामि । जं पुण सम्मत्तपज्जायवत्थुगमग त्ति समुदिया तेणं । एवं विसुद्धतरागस्स नेगमस्स नामाउडिओ पत्थओ। सम्मत्तं चक्खुमओ सव्वगयावयवगहणे व ॥ एवमेव ववहारस्स वि ।। एवमव ववहारस्स वि (विभा २२७०) संगहस्स चिओ मिओ मेज्जसमारूढो पत्थओ। हाथी के समस्त अवयवों के समुदाय को हाथी , उज्जुसुयस्स पत्थओ वि पत्थओ, मेज्ज पि पत्थओ। समझने वाले चक्षुष्मान् की तरह वस्तु की समस्त पर्यायों तिण्हं सद्दनयाणं पत्थगाहिगारजाणओ पत्थओ, जस्स वा वसेणं पत्थओ निप्फज्जइ। के समुदाय को वस्तु जानने वाला सम्यग्दृष्टि होता है। (अनु ५५५) प्रस्थक दृष्टान्त के द्वारा प्रतिपादित नय प्रमाणरत्नावलि का दृष्टान्त कोई पुरुष कुल्हाड़ी लेकर अटवी की ओर जाता है, उसे न समत्तवत्थुगमगा वीसुं रयणावलीए मणउ व्व । देखकर कोई कहता है - आप कहां जाते हैं ? अविशुद्ध सहिया समत्तगमगा मणओ रयणावलीए व्व ॥ नैगम नय कहता है-प्रस्थक के लिए जाता हूं। (विभा २२७१) उस (वृक्ष) को काटते हुए देखकर कोई कहता है Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय आप क्या काटते हैं ? विशुद्ध नगम नय कहता है प्रस्थक काटता हूं । उसे तराशते देखकर कोई कहता है- -आप क्या तराशते हैं ? विशुद्धतर नैगम नय कहता है— प्रस्थक तराशता ३७६ हूं । उसे उकेरते हुए देखकर कोई कहता - आप क्या उकेरते हैं ? विशुद्धतर नैगम नय कहता है —प्रस्थक उकेरता हूं । उसे लिखते हुए (प्रमार्जित करते हुए) देखकर कोई कहता है - आप क्या लिख रहे हैं ? विशुद्धतर नैगम नय कहता है - प्रस्थक लिख रहा हूं । इस प्रकार विशुद्धतर नैगम नय नामांकित होने पर उसे प्रस्थ मानता है । इसी प्रकार व्यवहार नय भी पूर्वोक्त सभी अवस्थाओं को प्रस्थक मानता है । धान्य से व्याप्त और पूरित होने पर मेय समारूढ होता है इसलिए संग्रह नय उसे प्रस्थक मानता है । ऋजुसूत्र नय प्रस्थक को भी प्रस्थक मानता है और मेय को भी प्रस्थक मानता है । तीन शब्द नय प्रस्थक के अर्थाधिकार को जानने वाले व्यक्ति को प्रस्थक मानते अथवा जिसके बल (प्रस्थकाधिकार को जानने वाले के उपयोग — चैतन्य व्यापार ) से प्रस्थक निष्पन्न होता है, वह प्रस्थक कहलाता है । वसति का दृष्टान्त वस हिदिट्ठतेणं - से जहानामए केइ पुरिसे कंचि पुरिसं वज्जा कहिं भवं वसति ? अविमुद्धो नेगमो भणति - लोगे वसामि । विसुद्धो नेगमो भणति - तिरियलोए वसामि । विसुद्धतराओ नेगमो भणतिजंबुद्दीवे “दाहिणड्ढभरहे "पाडलिपुत्ते देवदत्तस्स घरे गभघरे वसामि । एवं विसुद्धतरागस्स नेगमस्स वसमाणो वसइ । एवमेव ववहारस्स वि । संगहस्स संथारसमारूढो बसइ | उज्जुसुयस्स जेसु आगासपएसेसु ओगाढो तेसु वसइ । तिण्हं सद्दनयाणं आयभावे वसई । ( अनु ५५६ ) वसति 'दृष्टान्त के द्वारा प्रतिपादित नय प्रमाण प्रदेश का दृष्टांत कोई पुरुष किसी पुरुष से कहता - आप कहां रहते हैं ? अविशुद्ध नैगम नय कहता है-लोक में रहता हूं। विशुद्ध नैगम नय कहता है - तिर्यक्लोक में रहता हूं । विशुद्धतर नैगम नय कहता है - जम्बूद्वीप में, दक्षिणार्धभरत, पाटलिपुत्र, देवदत्त के घर, गर्भगृह में रहता हूँ । इस प्रकार विशुद्धतर नैगम नय जो व्यक्ति जिस स्थान में, जब निवास करता है उसे उसमें रहने वाला मानता है । इसी प्रकार व्यवहार नय भी नैगम नय की भांति निवास को मानता है । संग्रह नय बिछौने पर लेटे हुए व्यक्ति को ही निवास करने वाला मानता है । ऋजुसूत्रनय व्यक्ति जितने आकाश प्रदेशों में अवगाहन किए हुए रहता है, उनमें निवास करने वाला मानता है । तीन शब्द नयों की दृष्टि से व्यक्ति आत्मभाव ( अपने स्वरूप ) में रहता है । प्रदेश का दृष्टान्त पएसदितेणं - नेगमो भणति छण्हं पएसो, तं जहा -- धम्मपएसो अधम्मपएसो आगासपरसो जीवपएसो बंधपएसो देस एसो । एवं वयंतं नेगमं संगहो भणति - जं भणसि छण्हं पएसो तं न भवइ । कम्हा ? जम्हा जो देसपएसो सो तस्सेव दव्वस्स, जहा को दिट्ठतो ? दासेण मे खरो कीओ दासो विमे खरो वि मे, तं मा भणाहि छन्हं पएसो, भणाहि पंचन्हं पएसो, तं जहा -धम्मपएसो अधम्मपएसो । एवं वयं तं संगहं ववहारो भगति -जं भणसि पंचण्हं एसो तं न भवइ । कम्हा ? जइ पंचन्हं गोट्ठियाणं केइ दव्वजाए सामण्णे, तं जहा - हिरण्णे वा सुवण्णे वा धणे वा धणे वा तो जुत्तं वतुं जहा पंचन्हं पएसो, तं मा भणाहि पंचण्हं पएसो, भणाहि - पंचविहो पएसो, तं जहाधम्मपएसो अधम्मपएसो । एवं वयं तं ववहारं उज्जुसुओ भणति - जं भणसि पंचविहो पएसो, तं न भवइ । कम्हा ? जइ ते पंचविहो पएसी एवं ते एक्केक्को पएसो पंचविहो - एवं ते पणवीसतिविहो पएसो भवइ, तं मा भणाहि - पंचविहो पएसो, भणाहि - भइयव्वो पएसो - सिय धम्मपएसो । एवं वयं तं उज्जुसुयं संपइ सद्दो भणति - जं भणसि भइयव्वो पएसो, तं न भवइ । कम्हा ? जइते भइयव्वो पएसो, एवं ते धम्मपएसो वि - सिय धम्मपएसो सिय अधम्मपएसो सिय आगास Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रदेश का दृष्टांत ३७७ नय पएसो सिय जीवपएसो सिय खंधपएसो" । एवं ते है-तुम जो पांच प्रकार का प्रदेश कहते हो वह उचित अणवत्था भविस्सइ, तं मा भणाहि-भइयव्वो पएसो, नहीं है। भणाहि-धम्मे पएसे से पएसे धम्मे, अधम्मे पएसे क्यों? यदि तुम्हारे मत में पांच प्रकार का प्रदेश से पएसे अधम्मे। एवं वयंतं सदं संपइ समभिरूढो । है तो इस प्रकार प्रत्येक प्रदेश के पांच प्रकार होने पर भणति-जं भणसि धम्मे पएसे से पएसे धम्मे जाव खंधे वह प्रदेश पच्चीस प्रकार का होता है। इसलिए मत पएसे से पएसे नोखंधे, तं न भवइ । कहो "पांच प्रकार का प्रदेश"। यह कहो प्रदेश भाज्य कम्हा ? एत्थ दो समासा भवंति, तं जहा--तप्पु (विकल्पनीय) है, स्यात् धर्म का प्रदेश है, स्यात् अधर्म रिसे य कम्मधारए य। तं न नज्जइ कयरेणं समासेणं । का प्रदेश है। भणसि ? कि तप्पुरिसेणं ? किं कम्मधारएणं ? जइ तप्पुरिसेणं भणसि तो मा एवं भणाहि, अह कम्मधारएणं ऋजुसूत्र के ऐसा कहने पर सम्प्रति शब्द नय कहता भणसि तो विसेसओ भणाहि-धम्मे य से पएसे य सेसे है-तुम जो कहते हो कि प्रदेश भाज्य है वह उचित पएसे धम्मे, अधम्मे य से पएसे य सेसे पएसे अधम्मे । नहीं है। एवं वयंतं समभिरूढं संपइ एवंभूओ भणति-जं जं क्यों ? तम्हारे मत में प्रदेश भाज्य है तो इस प्रकार भणसि तं तं सव्वं कसिणं पडिपूण्ण निरवसेसं एगग्गहण धर्म प्रदेश भी स्यात् धर्म का प्रदेश, स्यात् अधर्म का गहीयं । देसे वि मे अवत्थू, पएसे वि मे अवत्थू । प्रदेश, स्यात् आकाश का प्रदेश, स्यात् जीव का प्रदेश, _ (अनु ५५७) स्यात् स्कन्ध का प्रदेश हो सकता है। इस प्रकार प्रदेश दृष्टान्त द्वारा प्रतिपादित नय-प्रमाण अनवस्था हो जाएगी, इसलिए मत कहो प्रदेश भाज्य है, नगम नय कहता है--"छहों का प्रदेश" जैसे--धर्म यह कहो-जो धर्मात्मक प्रदेश है वह प्रदेश धर्म है । जो का प्रदेश, अधर्म का प्रदेश, आकाश का प्रदेश, जीव का अधर्मात्मक प्रदेश है वह प्रदेश अधर्म है। प्रदेश, स्कन्ध का प्रदेश और देश का प्रदेश । ___शब्द नय के ऐसा कहने पर सम्प्रति समभिरूढ नगम नय के ऐसा कहने पर संग्रह नय कहता है- कहता है जो तुम कहते हो, जो धर्मात्मक प्रदेश है वह "तुम कहते हो छहों का प्रदेश" वह उचित नहीं है। प्रदेश धर्म है यावत स्कन्धात्मक प्रदेश है वह प्रदेश नो क्यों ? जो देश का प्रदेश है वह उसी द्रव्य का है। स्कन्ध है, वह उचित नहीं है। जैसे यहां कोई दृष्टान्त है ? मेरे दास ने गधा खरीदा, किसलिए ? यहां दो समास होते हैं, जैसे-तत्पुरुष दास भी मेरा है और गधा भी मेरा है। इसलिए यह 4ह और और कर्मधारय । अतः यह नहीं जाना जाता कि किस मत कहो कि "छहों का प्रदेश"। यह कहो कि "पांचों समास से कहते हो ? क्या तत्पुरुष समास से कहते हो? का प्रदेश", जैसे धर्म का प्रदेश, अधर्म का प्रदेश । क्या कर्मधारय समास से कहते हो ? यदि तत्पुरुष समास संग्रह नय के ऐसा कहने पर व्यवहार नय कहता है से कहते हो तो यह मत कहो, यदि कर्मधारय समास से -- तुम जो पांचो का प्रदेश कहते हो वह उचित नहीं कहते हो तो विशेषण सहित कहो-प्रदेश जो धर्म (धर्मात्मक) है वह प्रदेश धर्म है। प्रदेश जो अधर्म ____ क्यों ? यदि पांच मित्रों का कोई सामान्य (सबके (अधर्मात्मक) है वह प्रदेश अधर्म है। अधिकार में) द्रव्य समूह है, जैसे-हिरण्य, सुवर्ण, धन ___ समभिरूढ के ऐसा कहने पर सम्प्रति एवंभूत नय या धान्य । वैसे ही पांचों का प्रदेश सामान्य है तो यह कहना उचित हो सकता है, जैसे -"पांचों का प्रदेश", कहता है --जिस धर्मास्तिकाय आदि के सम्बन्ध में तुम इसलिए मत कहो "पांचों का प्रदेश"। यह कहो "पांच कहते हो वह सब कृत्स्न, प्रतिपूर्ण, निरवयव और एक प्रकार का प्रदेश", जैसे-धर्म का प्रदेश, अधर्म का। शब्द के द्वारा अभिधेय है क्योंकि मेरी दृष्टि में देश भी प्रदेश। वास्तविक नहीं है और प्रदेश भी वास्तविक नहीं है। व्यवहार नय के ऐसा कहने पर ऋजुसूत्र नय कहता Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नरक ३७८ नरक का निर्वचन ११. नयविधि से अयुक्त भी युक्त नरक-वह स्थान, जहां जीव प्रकृष्ट पापजन्य अत्थं जो न समिक्खइ निक्खेव-नय-प्पमाणओ विहिणा । दुःखों का वेदन करते हैं। तस्साजुत्तं जुत्तं जुत्तमजूत्तं व पडिहाइ ॥ १. नरक का निर्वचन (विभा २२७३) | २. सात नरक और उनके गोत्र जो निक्षेप, नय, प्रमाण-इन विधियों से अर्थ का ३. नैरयिक जीवों की अवगाहना प्रतिपादन नहीं करता, उसे अयुक्त युक्त और युक्त ४. नरक आयुष्य बंध के कारण अयुक्त प्रतिभासित होता है। ५. नारक जीवों की आयुस्थिति एवं सविसयसच्चे परविसयपरंमुहे तए नाउं । • कायस्थिति नेएसु न संमुज्झइ न य समयासायणं कुणइ ॥ • गति (विभा २२७२) * सम्यक्त्वी-मिथ्यात्वी की गति-आगति . नयविधि को जानने वाला अपने विषय में प्रयुक्त (द्र. सम्यक्त्व) नय को सत्य और दूसरे द्वारा प्रयुक्त नय से पराङ्मुख • अंतरकाल होकर (उसका निराकरण अथवा स्थापन न करता हुआ) ६. नरक की वेदना सभी नयों को जानता है। वह ज्ञेय में संमूढ नहीं | ७. परमाधार्मिकदेवकृत वेदना होता और न सिद्धान्तों की आशातना ही करता है। *नारक जीवों में अवधिज्ञान, उसका संस्थान और १२. कालिकश्रुत और नय क्षेत्रमर्यादा (द्र. अवधिज्ञान) * नरकगति अशुभ नामकर्म पायं संववहारो ववहारतेहिं तिहिं य जं लोए। (द्र. कर्म) * नारक में लेश्या (द्र. लेश्या) तेण परिकम्मणत्थं कालियसुत्ते तदहिगारो ।। * नरयिक जीवों में श्रत और सम्यक्त्व सामायिक (विभा २२७६) (द्र. सामायिक) लोक में प्रायः नैगम, संग्रह और व्यवहार-इन | * नरकभूमियों का माप (द्र. अंगुल) तीन नयों का संव्यवहार होता है। इसलिए शिष्य की * नरक की अस्तित्व सिद्धि 5. गणधर) मति का परिकर्म करने के लिए कालिकश्रुत में इन तीन नयों का प्रयोग किया जाता है। १. नरक का निर्वचन नय के अपृथक्करण का हेतु नरान् कायन्ति-शब्दयन्ति योग्यताया अनतिक्रमेणासा गुग्गहोऽणुओगे वीसुं कासी य सुयविभागेण । कारयन्ति जन्तून् स्वस्थाने इति नरकाः तेषु भवा नारकाः । सुहगहणाइनिमित्तं नए य सुनिगूहियविभागे । (नन्दीमवृ प ७७) सविसयमसदहंता नयाण तम्मत्तयं च गिण्हंता । जो प्राणियों को उनकी योग्यता के अनुसार अपने मण्णंता य विरोहं अपरिणामातिपरिणामा ।। स्थान पर बुलाते हैं, वे नरक हैं। वहां उत्पन्न प्राणी गच्छेज्ज माह मिच्छ परिणामा य सुहुमाइबहुभेए। नारक कहलाते हैं। होज्जाऽसत्ता घेत्तुं न कालिए तो नयविभागो।। निष्क्रान्ता अयात्-इष्टफलदैवात्तत्रोत्पन्नानां (विभा २२९१-२२९३) सद्वेदनाऽभावेनेति निरयास्तेषु भवा नैरयिकास्तेषामायुः अल्पज्ञ, अव्युत्पन्न और अति तार्किक शिष्य नयों के । नैरयिकायुर्येन तेषु ध्रियन्ते । (उशावृ प ६४३) सूक्ष्म-सूक्ष्मतर भेद-प्रभेदों को पूरा समझ नहीं सकेंगे, तब तत्त्व को विपरीतरूप में ग्रहण करेंगे-यह जानकर जहां सद्भाग्य-विकल जीव उत्पन्न होते हैं और आर्यरक्षित ने श्रुतविभाग के द्वारा अनुयोग का जहां सवेदना का अभाव है, उन स्थानों को निरय पृथक्करण किया। शिष्य सब नयों के द्वारा श्रुत का या नरक कहा जाता है। वहां उत्पन्न जीव नैरयिक निरूपण समझने में असमर्थ हैं-यह जानकर आर्यरक्षित कहलाते हैं। वे जीव नैरयिक आयुष्य से बंधे हुए वहां ने समग्र श्रुत में नयविभाग से विस्तृत व्याख्या नहीं की। रहते हैं। | Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैरयिक जीवों की अवगाहना २. सात नरक और उनके गोत्र ३७९ ६. तमः प्रभा -- जहां अंधेरा प्रचुर मात्रा में है, वह तमः प्रभा है । इन सात पृथ्वियों में उत्पन्न होने के कारण नैरयिक जीव सात प्रकार के हैं । नेरइया सत्तविहा, पुढवीसु सत्तसू भवे 1 रयणाभक्कराभा, वालुयाभा य आहिया ॥ पंकाभा धूमाभा, तमा तमतमा तहा । इइ नेरइया एए, सत्तहा परिकित्तिया || ( उ ३६।१५६,१५७) घावंस सेला अंजण रिट्ठा मघा य माघवती । एते अनादिसिद्धा णामा रयणप्पभादीणं ॥ धम्मदियाणं सत्तण्हं इमा गोत्राख्या - इंदनीलादिबहुविहरयणसंभवओ रयणप्पभादीसु क्वचित् रत्नप्रभा - सनसंभवाद्वा रयणप्रभा रयणकंडप्रतिभागकप्पितोवलिखिता वा रयणप्रभा, नरकवर्ज्जप्रदेशेषु । सक्करोपलस्थित पटल मधोऽधः एवंविधस्वरूपेण प्रभाव्यत इति सर्करप्रभा । एवं वालुकात्ति वालुकारूपेण प्रख्याति वालुकाप्रभा, नरकवज्जेष्वेव पंक इवाभाति पंकप्रभा । कृष्णतमो धूमा- धूमप्रभा । इवाभाति तमः प्रभा । अतीव कृष्ण महत्तम इवाभाति महातमः प्रभा । नेरइयाणं सरीरोगाहणा दुविहा पण्णत्ता, तं जहाभवधारणिज्जा य उत्तरवेउव्विया य । तत्थ णं जासा भवधारणिज्जा सा जहणेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं, उक्कोण पंच धणुसयाई । तत्थ णं जासा उत्तरवेउब्विया साजणेणं अंगुल संखेज्जइभागं उक्कोसेणं धणुसहस्सं । ( अनु ४०२ ) नैरयिक जीवों के शरीर की अवगाहना के दो प्रकार हैं - भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय । इनमें भवधारणीय अवगाहना जघन्यतः अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृटत: पांच सौ धनुष्य की होती है । उत्तरवैक्रिय अवगाहना जघन्यतः अंगुल के संख्यातवें भाग और उत्कृष्टतः एक हजार धनुष्य की होती है । ( अनुचू पृ ३५ ) तत्र रत्नकाण्डस्य भवनपतिभवनानां च विविधरत्नवतां सम्भवात् । ( उशावृप ६९७ ) सात नरक के अनादिसिद्ध नाम हैं—घर्मा, वंशा, शैला, अञ्जना, रिष्टा, मघा और माघवती । रत्नप्रभा आदि इनके गोत्र हैं रणभापुढवीए ने रइयाणं जासा भवधारणिज्जा साजणे अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं सत्त १. रत्नप्रभा – जहां इन्द्रनील आदि बहुविध रत्न हैं और जो रत्नों की प्रभा से प्रभासित है, वह रत्नप्रभा है। वहां रत्नकांड और भवनपति देवों के रत्नमय भवन हैं । इंतिणि रयणीओ छच्च अंगुलाई । तत्थ णं जासा उत्तरवेउब्विया सा जहणेणं अंगुलस्स संखेज्जइभागं, उक्कोसेणं पण्णरस धणूइं दोणि रयणीओ बारस अंगुलाई | २. शर्कराप्रभा – जहां शर्करा - उपलों की प्रचुरता है, जिसके पटल शर्करा - उपल पर स्थित हैं, वह शर्कराप्रभा 1 एवं सव्वाणं दुविहा- भवधारणिज्जा जहणेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं, उक्कोसेणं दुगुणा दुगुणा । उत्तरवेउब्विया जहणेणं अंगुलस्स संखेज्जइभागं, उक्कोसेणं दुगुणा दुगुणा । ( अनु ४०३, ४०४ ) की भवधारणीय अबअसंख्यातवें भाग और और छह अंगुल की ३ वालुकाप्रभा - जो वालुकारूप में प्रख्यात है । ४. पंकप्रभा - जिसकी आभा पंक जैसी है, वह पंकप्रभा है। रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिकों गाहना जघन्यतः अंगुल के उत्कृष्टतः सात धनुष्य, तीन रत्नि ५. धूमप्रभा-जो धूम-सी आभा वाली है, वह होती है । उत्तरवेक्रिय अवगाहना जघन्यतः अंगुल के धूमप्रभा है। संख्यातवें भाग और उत्कृष्टतः पन्द्रह धनुष्य, दो रत्नि और बारह अंगुल की होती है । इसी प्रकार सब पृथ्वियों के नैरयिकों की दो प्रकार की अवगाहना ७. महातमः प्रभा - जहां सघन अन्धकार है, वह होती है- भवधारणीय अवगाहना जघन्यतः अंगुल के महातमः प्रभा है । असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्टतः दुगुनी दुगुनी होती है। नरक एएसि वण्णओ चेव, गंधओ रसफासओ । ठाणादेओ वावि, विहाणाई सहस्ससो || ( उ ३६ । १६९) वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और संस्थान की दृष्टि से इन नैरयिक जीवों के हजारों भेद होते हैं । ३. नैरयिक जीवों की अवगाहना Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नरक उत्तरक्रिय अवगाहना जघन्यतः अंगुल के संख्यातवें भाग की और उत्कृष्टतः दुगुनी दुगुनी होती है । ४. नरक - आयुष्य बंध के कारण जीवघायरओ कूरो, महारंभपरिग्गहो । मिच्छदिट्ठी महापावो, बंधए नरयाउयं ॥ १. जीवों का वध करने वाला २. क्रूरता करने वाला ३. महाआरंभ करने वाला ४. महापरिग्रह रखने वाला ५. मिथ्यादृष्टि वाला ६. महापापी । - ये सब नरकायुष्क का बन्ध करते हैं । ५. नारक जीवों की आयु-स्थिति सागरोवममेगं तु, उक्कोसेण वियाहिया । पढमाए जहन्नेणं, दसवास सह स्सिया || तिण्णेव सागरा ऊ, उक्कोसेण वियाहिया । दोच्चाए जहन्नेणं, एगं तु सागरोवमं ॥ सत्तेव सागरा ऊ, उक्कोसेण वियाहिया । तइयाए जहन्नेणं, तिष्णेव उ सागरोवमा ॥ दस सागरोवमा ऊ, उक्कोसेण वियाहिया । चउत्थीए जहन्नेणं, सत्तेव उ सागरोवमा ॥ सत्तरस सागरा ऊ, उक्कोसेण वियाहिया । पंचमाए जहन्नेणं, दस चेव उ सागरोवमा ॥ बावीस सागरा ऊ, उक्कोसेण वियाहिया । छट्टीए जहन्नेणं, सत्तरस सागरोवमा || तेत्तीस सागरा ऊ, उक्कोसेण वियाहिया । सत्तमाए जहन्नेणं, बावीसं सागरोवमा ॥ जघन्य आयु दस हजार वर्ष एक सागरोपम ३. बालुकाभा तीन सागरोपम ४. पंकाभा ५. धूमाभा ६. तमा ७. तमस्तमा काय स्थिति नारक १. रत्नाभा २. शर्कराभा ( उसुवृप ६७ ) ३८० ( उ ३६।१६०-१६६) उत्कृष्ट आयु एक सागरोपम तीन सागरोपम सात सागरोपम सात सागरोपम दस सागरोपम दस सागरोपम सतरह सागरोपम सतरह सागरोपम बाईस सागरोपम बाईस सागरोपम तेतीस सागरोपम जा व उ आउठिई, नेरइयाणं वियाहिया । सा तेसि कायठिई, जहन्नुक्कोसिया भवे ॥ ( उ ३६ । १६७) नरक की वेदना नैरयिक जीवों की जो आयु-स्थिति है, वही उनकी जघन्यतः या उत्कृष्टतः कार्यस्थिति है । गति तत उद्वृत्तानां पुनस्तत्रैवानुपपत्तेः, ते हि तत उद्वृत्य गर्भजपर्याप्त संख्येयवर्षायुष्ष्वेवोपजायन्ते । ( उशावृ प ६९७ ) प्राणी नरक से निकलकर पुन: नरक में उत्पन्न नहीं होते । वे वहां से निकलकर संख्येय वर्ष आयुष्य वाले गर्भ पर्याप्त प्राणियों में उत्पन्न होते हैं । अंतरकाल अनंतकालमुक्कोi, अन्तोमुहुत्तं जहन्नयं । विजढंमि सए काए, नेरइयाणं तु अंतरं ॥ ( उ ३६।१६८) उनका अन्तरकाल – नैरयिक के काय को छोड़कर पुनः उसी काय में उत्पन्न होने तक का काल- - जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः अनंत काल का है । तत्र अन्तर्मुहूर्तं जघन्यमन्तरं यदाऽन्यतरनरकादुद्धृत्य कश्चिज्जीवो गर्भजपर्याप्तक मत्स्यादिषूत्पद्यते । चातिसंक्लिष्टाध्यवसायोऽन्तर्मुहूर्तमानायुः प्रतिपाल्य मृत्वाऽन्यतमनरक एवोपजायते तदा लभ्यते । ( उशावृ प ६९७ ) एक जीव के नरक से निकलकर पुनः नरक में उत्पन्न होने का जघन्य अन्तरकाल ( विरहकाल) अन्तमुहूर्त है । कोई जीव किसी नरक से निकलकर गर्भज पर्याप्त मत्स्य आदि के रूप में उत्पन्न होता है। वहां वह अत्यंत संक्लिष्ट परिणाम से अन्तर्मुहूर्त्त आयुष्य को भोग, मरकर पुनः किसी नरक में ही उत्पन्न होता है । ६. नरक की वेदना सारी माणसा वेणाओ अतसो । मए सोढाओ भीमाओ, असई दुक्खभयाणि य ॥ ( उ १९४४५) ( मृगापुत्र प्रव्रजित होना चाहता था । उसकी मां मृगावती ने उसे श्रामण्य की दुश्चरता बताई, तब मृगापुत्र ने उसके समक्ष पूर्व भवों में अनुभूत नरक के दुःखों का वर्णन करते हुए कहा -- ) चेव, मैंने भयंकर शारीरिक और मानसिक वेदनाओं को अनन्त बार सहा है और अनेक बार दुःख एवं भय का अनुभव किया है। Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शस्त्रसम्बन्धी वेदना शीत और उष्ण वेदना जहा इहं अगणी उण्हो, नरएसु वेयणा उण्हा, जहा इमं इहं सीयं नरएसु वेयणा सीया, एत्तोऽणंतगुणे तहि । अस्साया वेइया मए ॥ एत्तोऽणंतगुणं तहिं । अस्साया वेइया मए ॥ ( उ १९।४७, ४८ ) जैसे यहां अग्नि उष्ण है, इससे अनन्त गुना अधिक दुःखमय उष्ण वेदना वहां नरक में है । जैसे यहां यह शीत है, इससे अनंत गुना अधिक दुःखमय शीत वेदना वहां नरक में है । अग्नि आदि संबंधी वेदना कंदतो कंदुकुम्भीसु, उड्ढपाओ अहोसिरो । हुयासणे जलतम्मि, पक्कपुव्वो अनंतसो ॥ महादवग्गिसंकासे, मरुम्मि वइरवाए । कलम्बबालुयाए य, दढपुव्वो अनंतसो ॥ संतो कंदुकुम्भी, उड्ढं बद्धो अबंधवो । करवत्तकरकयाईहि, छिन्नपुव्वो अनंतसो ॥ अइतिक्खकण्टगाइणे, तुंगे सिम्बलिपायवे । खेवियं पासबद्धेणं, कड्ढोकड्ढाहिं दुक्करं || महाजन्तेसु उच्छू वा, आरसंतो सुभेरवं । पीलिओ मि सम्मेहि, पावकम्मो अनंतसो ॥ ( उ १९१४९-५३) पकाने के पात्र में, जलती हुई अग्नि में पैरों को ऊंचा और सिर को नीचा कर आक्रन्दन करता हुआ मैं अनन्त बार पकाया गया हूं । महादवाग्नि तथा मरु देश और वज्रबालुका जैसी कदम्ब नदी की बाल में मैं अनंत बार जलाया गया हूं । ३८१ मैं पाकपात्र में त्राणरहित होकर आॠन्द करता हुआ ऊंचा बांधा गया तथा करवत और आरा आदि के द्वारा अनन्त बार छेदा गया हूं । अत्यन्त तीखे कांटों वाले ऊंचे शाल्मलि वृक्ष पर पाश से बांध, इधर-उधर खींचकर असह्य वेदना से मैं खिन्न किया गया हूं । पापकर्मा मैं अति भयंकर आक्रन्द ही कर्मों द्वारा महायन्त्रों में ऊख की पेरा गया हूं । करता हुआ अपने भांति अनन्त बार नरक पशु-पक्षी संबंधी वेदना कूवंतो कोलसुणएहि, सामेहि सबलेहि य । पाडिओ फालिओ छिन्नो, विप्फुरंतो अणेगसो ॥ अवसो लोहरहे जुत्तो, जलते समिलाजुए । चोइओ तोत्तजुत्तेहि, रोज्झो वा जह पाडिओ || बला संडासतुंडेहि लोहतुंडेहिं पक्खिहि । विलुत्तो विलवंतो हं, ढंक गिद्धेहिणंतसो ॥ ( उ १९।५४,५६,५८) मैं इधर-उधर जाता और आनन्द करता हुआ काले और चितकबरे सूअर एवं कुत्तों के द्वारा अनेक बार गिराया, फाड़ा और काटा गया हूं । युगकीलक ( जूए के छेदों में डाली जाने वाली लकड़ी की कीलों से युक्त जलते हुए लोह रथ में परवश बनाया गया मैं जोता गया, चाबुक और रस्सी के द्वारा हांका गया तथा रोझ की भांति भूमि पर गिराया गया हूं। संडासी जैसी चोंच वाले और लोहे जैसी कठोर चोंच वाले ढंक और गीध पक्षियों के द्वारा विलाप करता हुआ मैं बलपूर्वक अनंत बार नोचा गया हूं । शस्त्रसंबंधी वेदना तन्हा किलंतो धावंतो पत्तो वेयरणि नदि । जलं पाहिं ति चिततो खुरधाराहि विवाइओ || उहाभितत्तो संपत्तो असिपत्तं महावणं । असिपत्ते हि पडतेहि छिन्नपुव्वो अणेगसो ॥ मुग्गरेहिं मुसंढीहि सुलेहि मुसलेहि य । गयासं भग्गगत्तेहिं पत्तं दुक्खं अनंतसो ॥ खुरेहिं तिक्खधारेहिं छुरियाहिं कप्पणीहि य । कप्पिओ फालिओ छिन्नो उक्कत्तो य अणेगसो ॥ पाहि कूडजाहि मिओ वा अवसो अहं । बाहिओ बद्धरुद्धो अ बहुसो चेव विवाइओ ॥ गलेहिं मगरजाहिं मच्छो वा अवसो अहं । उलिओ फालिओ गहिओ मारिओ य अनंतसो ॥ वीदंसहि जाहिं लेप्पाहि सउणो विव । गहिओ लग्गो बद्धो य मारिओ य अनंतसो ॥ कुहाड फरमाईहि वड्ढईहि दुमो विव । कुट्टिओ फालिओ छिनो तच्छिओ य अनंतसो ॥ चवेड मुट्ठिमाईहि कम्मारेहि अयं पिव । ताडिओ कुट्टियो भिन्नो चुण्णिओ य अनंतसो | ( उ १९५९-६७) Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नरक ३८२ परमाधार्मिकदेवकृत वेदना प्यास से पीड़ित होकर मैं दौड़ता हआ वैतरणी नदी शब्द करता हुआ तांबा, लोहा, रांगा, और सीसा पिलाया पर पहंचा । जल पीऊंगा-यह सोच रहा था, इतने में गया। छुरे की धार से मैं चीरा गया। ___तुझे खण्ड किया हुआ और शूल में खोंस कर गर्मी से संतप्त होकर असिपत्र महावन में गया । पकाया हआ मांस प्रिय था-यह याद दिलाकर मेरे वहां गिरते हए तलवार के समान तीखे पत्तों से अनेक शरीर का मांस काट अग्नि जैसा लाल कर मुझे खिलाया बार छेदा गया हूं। गया। मुदगरों, मुसुण्डियों, शूलों और मुसलों से त्राणहीन तुझे सूरा, सीध, मैरेय और मधु-ये मदिराएं प्रिय दशा में मेरा शरीर चूर-चूर किया गया-इस प्रकार मैं थीं-यह याद दिलाकर मुझे जलती हुई चर्बी और रुधिर अनंत बार दुःख को प्राप्त हुआ हूं। पिलाया गया। तेज धार वाले छरों, छरियों और कैंचियों से ७. परमाधामिकदेवकृत वेदना मैं अनेक बार खंड-खंड किया गया, दो टूक किया परमाश्च तेऽधामिकाश्च संक्लिष्टपरिणामत्वात्परमागया और छेदा गया हं तथा मेरी चमड़ी उतारी गई धार्मिकाः । अंबे अंबरिसी चेव, सामे अ सबले इय । पाशों और कूटजालों द्वारा मृग की भांति परवश रुद्दोवरुद्दकाले य, महाकालेत्ति आवरे ॥ बना हुआ मैं अनेक बार ठगा गया, बांधा गया, रोका असिपत्ते धणुकुंभे, वालू वेयरणी इय । गया और मारा गया हूं। खरस्सरे महाघोसे, एए पन्नरसाहिया ॥ मछली को फंसाने की कंटियों और मगरों को (आवहाव २ पृ १०७) पकड़ने के जालों द्वारा मत्स्य की तरह परवश बना परमाधार्मिक देवों के परिणाम अत्यंत संक्लिष्ट होते दुआ मैं अनन्त बार खींचा, फाड़ा, पकड़ा और मारा हैं। उनके पटट : हैं। उनके पन्द्रह प्रकार और भिन्न-भिन्न कार्य हैंगया हूं। १. अंब-हनन करना, ऊपर से नीचे गिराना, बाज पक्षियों, जालों और वज्रलेपों के द्वारा पक्षी बींधना आदि। की भांति मैं अनन्त बार पकड़ा, चिपकाया, बांधा और २. अंबर्षि -काटना आदि-आदि । मारा गया हूं। ३. श्याम -फेंकना, पटकना, बींधना आदि-आदि । बढ़ई के द्वारा वृक्ष की भांति कूल्हाड़ी और फरसा ४. शबल -आंतें, फेफड़े कलेजा आदि निकालना । आदि के द्वारा मैं अनन्त बार कूटा, दो टूक किया, ५. रुद्र-तलवार, भाला आदि से मारना, शूली में छेदा और छीला गया हूं। पिरोना आदि-आदि। ____ लोहार के द्वारा लोहे की भांति चपत और मुट्ठी ६. उपरुद्र--अंग-उपांगों को काटना । आदि के द्वारा मैं अनन्त बार पीटा, कूटा, भेदा और . ७. काल-विविध पात्रों में पचाना । चूरा किया गया हूं। ८. महाकाल-शरीर के विविध स्थानों से मांस निकालना। भूख-प्यास संबंधी वेदना ९. असिपत्र-हाथ, पैर आदि को काटना । तत्ताइं तम्बलोहाई, तउयाइं सीसयाणि य । १०. धनु-कर्ण, ओष्ठ, दांत को काटना । पाइओ कलकलंताई, आरसंतो सुभेरवं ।। ११. कुम्भ-विविध कुम्भियों में पचाना । तुहं पियाई मंसाई, खंडाइं सोल्लगाणि य । १२. बालुक-भंजना आदि-आदि । खाविओ मि समसाइं, अग्गिवण्णाई णेगसो॥ १३. वैतरणि-वसा, लोही आदि की नदी में तुहं पिया सुरा सीहू, मेरओ य महूणि य । डालना। पाइओ मि जलंतीओ, वसाओ हिराणि य ।। १४. खरस्वर-करवत, परशु आदि से काटना। (उ १९।६८-७०) १५. महाघोष-भयभीत होकर दौडने वाले नैरयिकों भयंकर आक्रन्द करते हुए मुझे गर्म और कलकल का अवरोध करना। Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाथ ३८३ नाथ (प्रथम तीन नरक पृथ्वियों में परमाधामिक देव (यौवन) में मेरी आंखों में असाधारण वेदना उत्पन्न हई। नारकीय जीवों को भिन्न-भिन्न प्रकार की वेदना देते हैं। पार्थिव ! मेरा समूचा शरीर पीड़ा देने वाली जलन से उनके कार्यों के विवरण के लिए देखें---सूत्रकृतांग जल उठा । इन्द्र का वज्र लगने से होने वाली घोर वेदना नियुक्ति ५९-७५)। के समान मेरी वेदना थी । विद्या और मन्त्र के द्वारा चिकित्सा करने वाले प्राणाचार्य मेरी चिकित्सा करने के नाथ-जो योगक्षेम (अप्राप्त की प्राप्ति और प्राप्त लिए उपस्थित हुए। की सुरक्षा) करता है, वह नाथ कहलाता ते मे तिगिच्छं कुव्वंति चाउप्पायं जहाहियं ।' है-'नाथः योगक्षेमविधाता।' पिया मे सव्वसारं पि दिज्जाहि मम कारणा।" (उशावृ प ४७३) माया य मे महाराय ! पुत्तसोगदुहट्टिया ।" तरुणो सि अज्जो ! पव्वइओ भोगकालम्मि संजया। भायरो मे महाराय ! सगा जेट्टकणि?गा।" उवदिओ सि सामण्णे एयमझें सुणे मि ता॥ भइणीओ मे महाराय ! सगा जेट्टकणिट्ठगा ।" अणाहो मि महाराय ! नाहो मज्झ न विज्जई।' भारिया मे महाराय ! अणुरत्ता अणुव्वया ।" .."एवं ते इड्ढिमंतस्स कहं नाहो न विज्जई ? ॥ न य दुक्खा विमोएइ एसा मज्झ अणाहया ॥ होमि नाहो भयंताणं ! भोगे भुंजाहि संजया !... (उ २०१२३-२८, ३०) अप्पणा वि अणाहो सि सेणिया! मगहा हिवा!। चिकित्सा करने वालों ने गुरु-परंपरा से प्राप्त अप्पणा अणाहो संतो कहं नाहो भविस्ससि ? ॥ आयुर्विद्या के आधार पर मेरी चतुष्पाद चिकित्सा की। (उ २०१८-१२) मेरे पिता ने मेरे लिए उन प्राणाचार्यों को बहुमूल्य वस्तुएं (एक बार सम्राट् श्रेणिक उद्यान में गये। वहां दीं। महाराज ! पूत्र-शोक से पीडित मेरी माता, मेरे स्थित एक मुनि को देख सम्राट ने पूछा-) बड़े-छोटे सगे भाई, मेरी बड़ी-छोटी सगी बहनें, मुझमें ___आर्य ! अभी तुम तरुण हो । संयत ! तुम भोगकाल अनुरक्त और पतिव्रता पत्नी भी मुझे दुःख से मुक्त नहीं में प्रवजित हुए हो, श्रामण्य के लिए उपस्थित हुए हो- कर सकी - यह मेरी अनाथता है । इसका क्या प्रयोजन है ? – मैं सुनना चाहता हूं। सइंच जइ मुच्चेज्जा, वेयणा विउला इओ। ___मुनि ने कहा- महाराज ! मैं अनाथ हूं, मेरा कोई खंतो दंतो निरारंभो, पव्वए अणगारियं ।। नाथ नहीं है। एवं च चितइत्ताणं, पसुत्तो मि नराहिवा! । परियट्टतीए राईए, वेयणा मे खयं गया ।। तुम ऐसे सहज सौभाग्यशाली हो फिर कोई तुम्हारा नाथ कैसे नहीं होगा ? हे भदन्त ! मै तुम्हारा नाथ होता तओ कल्ले पभायम्मि, आपुच्छित्ताण बंधवे । खंतो दंतो निरारंभो, पव्वइओऽणगारियं ॥ है। संयत ! तुम विषयों का भोग करो। हे मगध के अधिपति श्रेणिक! तुम स्वयं अनाथ ततो हं नाहो जाओ, अप्पणो य परस्स य । हो । स्वयं अनाथ होते हुए भी दूसरों के नाथ कैसे सव्वेसिं चेव भूयाणं, तसाण थावराण य ।। होओगे? _(उ २०।३२-३५) कोसंबी नाम नयरी पुराणपुरभेयणी ।'' इस विपुल वेदना से यदि मैं एक बार भी मुक्त हो पढमे वए महाराय ! अउला मे अच्छिवेयण।। जाऊं तो क्षान्त, दान्त और निरारम्भ होकर अनगार अहोत्था विउलो दाहो सव्वंगेस य पत्थिवा ! ॥ वत्ति को स्वीकार कर लूं। ..."इंदासणिसमा घोरा वेयणा परमदारुणा ।। हे नराधिप ! ऐसा चिन्तन कर मैं सो गया। उवट्रिया मे आयरिया विज्जामंततिगिच्छगा।" बीतती हुई रात्रि के साथ-साथ मेरी वेदना भी क्षीण हो (उ २०१८,१९,२१,२२) गई। उसके पश्चात प्रभातकाल में मैं स्वस्थ हो गया। मुनि वोले-प्राचीन नगरों में असाधारण सुन्दर मैं अपने बन्धुजनों को पूछ, क्षान्त, दान्त और निरारम्भ कौशाम्बी नाम की नगरी थी। महाराज ! प्रथम वय होकर अनगारवत्ति में आ गया। Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निक्षेप निक्षेप-प्रयोग के प्रयोजन तब मैं अपना और दूसरों का तथा सभी-त्रस और ० नाम और स्थापना में अन्तर स्थावर जीवों का नाथ हो गया। • द्रव्य निक्षेप अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य । ० भाव निक्षेप अप्पा मित्तममित्तं च, दुप्पट्टियसुपट्टिओ। • नाम, स्थापना और द्रव्य में अभेद दुष्प्रस्थितो हयात्मा समस्तदुःखहेतुरिति वैतरण्यादि ० नाम, स्थापना और द्रव्य में तीन भेद रूपः सुप्रस्थितश्च सकलसुखहेतुरिति कामधेन्वादिकल्पः । • द्रव्य-भाव : कारण-कार्य तथा च प्रव्रज्याऽवस्थायामेव सूप्रस्थितत्वेनात्मनोऽन्येषां ४. चार निक्षेप अवश्य करणीय च योगकरणसमर्थत्वान्नाथत्वम् । ५. उत्तर शब्द का निक्षेप (उ २०।३७ शावृ प ४७७) ६. निक्षेप और नय आत्मा ही दुःख-सुख की करने वाली और उनका __* आवश्यक के निक्षेप (द. आवश्यक) क्षय करने वाली है । सत्प्रवृत्ति में लगी हुई आत्मा ही ___ * निक्षेप : अनुयोग का एक द्वार (द्र. अनुयोग) मित्र है और दुष्प्रवृत्ति में लगी हुई आत्मा ही शत्रु है। दुष्प्रवृत्त आत्मा सब दुःखों का हेतु होने से वैतरणी १. निक्षेप का निर्वचन नदी के सदृश है । सुप्रवृत्त आत्मा सब सुखों का हेतु होने निक्खिप्पइ तेण तहिं तओ व निक्खेवणं व निक्खेवो। से काम सदृश है। प्रव्रज्या की अवस्था में ही नियओ व निच्छिओ वा खेवो नासो त्ति जं भणियं ॥ सुप्रस्थित आत्मा अपना और दूसरों का संरक्षण करने में (विभा ९१२) समर्थ होती है-यही उसकी सनाथता है। पद को निश्चित अर्थ में स्थापित करना-अमुकतुझं सुलद्धं खु मणुस्सजम्म, अमुक अर्थ के लिए अमुक-अमुक शब्द का निक्षेपण करना लाभा सुलद्धा य तुमे महेसी !। निक्षेप है। वह क्षेपण नियत या निश्चित होता है, अतः तुब्भे सणाहा य सबंधवा य, उसे न्यास कहा जाता है। जं भेठिया मग्गे जिणुत्तमाणं ।। निक्खेवो अत्थभेदन्यासः । (अनुचू पृ १९) (उ २०१५५) अर्थ की भिन्नता का विज्ञान निक्षेप है। सम्राट ने कहा-हे महर्षि ! तुम्हारा मनुष्य जन्म निक्षेप की परिभाषा सुलब्ध है-सफल है। तुम्हें जो उपलब्धियां हई हैं, वे नामाइ भेअसहत्थबुद्धिपरिणामभावओ निययं । भी सफल हैं। तुम सनाथ हो, सबान्धव हो, क्योंकि तुम जं वत्थुमत्थि लोए चउपज्जायं तयं सव्वं ।। जिनोत्तम (तीर्थंकर) के मार्ग में अवस्थित हो। (विभा ७३) नामकर्म-शरीर और जीवन के पौद्गलिक जिस वस्तु के नाम आदि भेदों में शब्द, अर्थ और घटकों की प्राप्ति का हेतूभत कर्म। बुद्धि का परिणमन होता है-वाचक, वाच्य और ज्ञान इन तीनों की परिणति होती है, वह निक्षेप है। सर्व वस्तु निक्षेप-प्रासंगिक अर्थ का बोध कराने वाला लोक में निश्चित ही नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव शब्दन्यास । शब्द और अर्थ में संबंध इन चार पर्यायों से युक्त है। स्थापित करने की शक्ति । २. निक्षेप-प्रयोग के प्रयोजन नामादिचतुष्टय एव सर्वनिक्षेपाणामन्तर्भावात्तदेवाभि१. निक्षेप का निर्वचन धेयं, तत इहान्यत्र च यन्नामादिचतुष्टयाधिकनिक्षेपाभि० परिभाषा धानं तच्छिष्यमतिव्युत्पादनार्थं सामान्यविशेषोभयात्म२. निक्षेप-प्रयोग के प्रयोजन कत्वख्यापनार्थं च सर्ववस्तूनाम् । (उशाव प ४) ३. निक्षेप चतुष्टयो ____ नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव-इन चार निक्षेपों • नाम निक्षेप में सब निक्षेपों का समावेश हो जाता है। जहां कहीं इनसे ० स्थापना निक्षेप अधिक निक्षेपों का प्रयोग होता है, उसके दो प्रयोजन हैं-- म) Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निक्षेप - चतुष्टयी १. शिक्षार्थी की बुद्धि को व्युत्पन्न करना । २. सब वस्तुओं के सामान्य, विशेष और उभयात्मक अर्थ का प्रतिपादन करना । भाइ घिष्पइ य सुहं निक्खेव पयाणुसारओ सत्यं । ( विभा ९५७ ) नाम आदि निक्षेपों के माध्यम से शास्त्र का प्रतिपादन और ग्रहण सहज हो जाता है । अत्थं जो न समिक्ख निक्खेवनयप्पमाणओ विहिणा । तसा जु जुत्तं जुत्तमत्तं व पडिहाइ ॥ ( विभा २२७३ ) जो ज्ञाता निक्षेप, नय और प्रमाण की विधि से अर्थ की समीक्षा नहीं करता, उसके लिए युक्त अयुक्त हो जाता है और अयुक्त युक्त हो जाता है । ३. निक्षेप - चतुष्टयी '''''वत्थुभिहाणं नामं ठवणा य जो तयागारो । कारणया से दव्वं, कज्जावन्नं तयं भावो ॥ ( विभा ६० ) वस्तु वस्तु का अपना अभिधान ' नाम निक्षेप' है । का अपना आकार 'स्थापना निक्षेप' है । जो वस्तु के भूत और भावी पर्याय का कारण है, वह 'द्रव्य निक्षेप' है । कार्यरूप में विद्यमान वस्तु 'भाव निक्षेप' है । नाम निक्षेप ३८५ पज्जायाऽभिधेयं ठिअमण्णत्थे तयत्थनिरवेक्खं । जाइच्छिअं च नामं जावद्दव्वं च पाएण ।। ( विभा २५) जो अपने मूल विवक्षित अर्थ से निरपेक्ष तथा अन्य अर्थ में स्थित होता है, वह नाम निक्षेप है । ( शक्र, पुरन्दर आदि शब्द पर्यायवाची होने पर भी इन्द्र नाम वाले व्यक्ति के अभिधेय नहीं बन सकते । ) जिसका अर्थ अन्यत्र विद्यमान नहीं है, जो स्वेच्छा से रखा गया है, वह भी नाम निक्षेप है । जैसे - डित्थ, डवित्थ । नाम प्रायः तब तक रहता है, जब तक उसका वाच्य द्रव्य विद्यमान रहता है। जैसे—द्वीप, समुद्र आदि के नाम । जं वत्णोऽभिहाणं पज्जयभेयाणुसारि तं नामं । पद्मभेयं जं नमए पइभेयं जाइ जं भणियं ॥ ( विभा ९४४ ) निक्षेप वस्तु के विविध पर्यायों— अवस्थाओं की वाचकशक्ति का अनुसरण करने वाला शब्द नाम कहलाता है । वह प्रत्येक पर्याय में वाचक के रूप में परिणत होता I स्थापना निक्षेप पुण तयत्यन्नं तयभिप्पाएण तारिसागारं । कीरइ व निरागारं इत्तरमियरं व सा ठवणा ॥ ( विभा २६ ) जो मूल अर्थ से शून्य और उसके अभिप्राय से आरोपित होती है, उसका नाम है स्थापना । वह मूल है। उसके दो प्रकार हैं - अल्पकालिक और यावत्कथिक आकार के सदृश और विसदृश - दोनों प्रकार की होती (दीर्घकालिक ) । नाम और स्थापना में अन्तर नामं आवकहियं ठवणा इत्तरिया वा होज्जा आवकहिया वा । ( अनु ११ ) णामं पायसो आवकथितं, ठवणा इत्तरिया वा होज्जा आवकहिया वा । तत्थ इत्तरिया जथा - अक्खो इंदो वा सरतकालभूसितो, एवमादि । आवकहिता जधा जे देवलोकादिसु घडसुत्थियादिणो चित्तकम्मलिहिया । अहवा इमो विसेसो - जहा ठवणाइंदो अणुग्गहत्थी हिं अभिव्वति ण एवं णामिदोत्ति । ( आवचू १ पृ ५ ) नाम प्रायः यावत्कथिक जीवनपर्यन्त होता है । स्थापना इत्वरिक (अल्पकालिक ) और यावत्क थिकदोनों प्रकार की होती है । इत्वरिक स्थापना — जैसे - शरद्काल में विभूषित अक्ष या इन्द्र | यावत्कथिक - जैसे -देवलोक में चित्रकर्मलिखित घट, स्वस्तिक आदि । नाम और स्थापना में एक अन्तर यह भी है कि जैसे स्थापना इन्द्र की पूजा की जाती है, वैसे नाम इन्द्र की पूजा नहीं की जाती । द्रव्य निक्षेप ..... दव्वं भव्वं भावस्स भूअभावं च जं जोग्गं ॥ अनुपयोगो द्रव्यम् (विभा २८ मवृ पृ २२ ) भूत और भावी पर्याय के योग्य वस्तु या व्यक्ति द्रव्यनिक्षेप है । अनुपयोग को भी द्रव्य कहा जाता है । द्रव्यनिक्षेप के भेद (द्र. आवश्यक, मंगल) Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निक्षेप ३८६ उत्तर शब्द के निक्षेप भाव निक्षेप नाम और द्रव्य इन्द्र से सम्बद्ध नहीं है।। भावो विवक्षितक्रियानुभूतियुक्तो हि वै समाख्यात: । द्रव्य-भाव : कारण-कार्य सर्वरिन्द्रादिवदिहेन्दनादिक्रियानुभवात् ॥ भावस्स कारणं जह दव्वं भावो अ तस्स पज्जाओ । (आवमवृ प ९) उवओग-परिणइमओ न तहा नाम न वा ठवणा ।। विवक्षित क्रिया की अनुभूति कराने में उपयुक्त जो (विभा ५४) है, वह है भाव निक्षेप । जैसे 'इन्द्र' को देखकर उसके भाव का कारण है-द्रव्य । द्रव्य का कार्य (पर्याय) ऐश्वर्य या दीप्ति की अनुभूति होती है, तो वह भावइन्द्र है- भाव । जैसे-अनुपयुक्त वक्ता द्रव्य है, उपयोगकाल में वही द्रव्य भाव का कारण बनता है। वही उपयोग नाम, स्थापना और द्रव्य में अभेद लक्षण वाला भाव अनुपयुक्त वक्ता रूप द्रव्य का पर्याय अभिहाणं दव्वत्तं तयत्थसुन्नत्तणं च तुल्लाई। होता है। को भाववज्जिआणं नामाईणं पइविसेसो ?॥ जैसे-जो साधु इन्द्र बनने वाला है, वह द्रव्य-इन्द्र (विभा ५२) भाव-इन्द्र रूप परिणमन का कारण होता है। वही भाव नाम, स्थापना और द्रव्य-ये तीनों तीन दृष्टियों इन्द्र रूप में परिणत भाव इन्द्र साधु द्रव्य-इन्द्र का पर्याय से परस्पर तल्य हैं -अभिधान, द्रव्यत्व और भावार्थ- या कार्य होता है। शुन्यत्व । जैसे–मंगल एक (शब्द) वस्तु है। 'मंगल' द्रव्य जिस रूप में भाव का कारण बनता है, वैसे या अभिधान नाम, स्थापना और द्रव्य-इन तीनों में समान उस रूप में न नाम कारण बनता है और न स्थापना रूप से विद्यमान है। ही। अतः नाम और स्थापना से द्रव्य भिन्न है। इसी प्रकार द्रव्यत्व और भावार्थशून्यता भी जैसे स ४. चार निक्षेप अवश्य करणीय - नाम में है, वैसे स्थापना और द्रव्य में भी है। नाम, स्थापना और द्रव्य में तीन भेद जत्थ य ज जाणेज्जा, निक्खेवं निक्खिवे निरवसेसं । आगारोऽभिप्पाओ बुद्धी किरिया फलं च पाएण । जत्थ वि य न जाणेज्जा, चउक्कयं निक्खिवे तत्थ ।। जह दीसइ ठवणिदे न तहा नामे न दव्विदे।। (अनु ७) (विभा ५३) जहां जितने निक्षेप ज्ञात हों, वहां उन सभी निक्षेपों का उपयोग किया जाए और जहां बहुत निक्षेप ज्ञात न १. आकार भेद स्थापना इन्द्र (इन्द्र की प्रतिमा) का जैसा आकार हों, वहां कम से कम निक्षेप-चतुष्टय-नाम, स्थापना, -कर्णकुण्डल, शिर:किरीट और करकूलिश-धारण द्रव्य, भाव का प्रयोग अवश्य किया जाए। जन्य अतिशय और सौन्दर्य है, वैसा आकार नाम इन्द्र ५. उत्तर शब्द के निक्षेप या द्रव्य इन्द्र में प्रायः दिखाई नहीं देता। नाम ठवणा दविए खित्तं दिसा तावखित्त पन्नवए । २. अभिप्राय भेद पइकालसंचयपहाणनाणकमगणणओ भावे ॥ ___ स्थापनाकर्ता (मूर्तिकार) का जैसा अभिप्राय (उनि १,चू पृ५,६; उशावृ प ३,४) (भाव) स्थापना इन्द्र (प्रतिमा) के प्रति होता है, वैसा पन्द्रह निक्षेपों के माध्यम से उत्तर शब्द का नाम और द्रव्य इन्द्र के प्रति नहीं होता। न्यास३. बुद्धि भेद १. नाम उत्तर-किसी का नामकरण-उत्तर । इन्द्र-प्रतिमा को देख द्रष्टा में इन्द्र के प्रति जो २. स्थापना उत्तर-अक्ष आदि में उत्तर की स्थापना । आदर-सम्मान की बुद्धि उत्पन्न होती है, वह नाम अथवा ३. द्रव्य उत्तर-१. आगमत:-उत्तर शब्द का ज्ञाता द्रव्य इन्द्र को देखकर नहीं होती। इसी प्रकार नमस्कार, किन्तु अनुपयुक्त। . पूजा, स्तुति आदि क्रियाएं तथा पुत्र, धन आदि फल की २. नो आगमतः के तीन भेद-१. जिसने अतीत प्राप्ति भी प्रायः स्थापना इन्द्र से जैसे सम्बद्ध है, वैसे . में 'उत्तर' शब्द को जाना उसका शरीर । Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निक्षेप और नय २. भव्यशरीर- अनागत में 'उत्तर' जानेगा । ३. तद्व्यतिरिक्त-तद्व्यतिरिक्त के तीन भेद २. अचित्त १. सचित्त-पिता के उत्तर में पुत्र । दूध का उत्तरवर्ती दही । ३. मिश्र - मां के शरीर से उत्पन्न रोम आदि युक्त सन्तान । ४. क्षेत्र उत्तर - मेरु आदि की अपेक्षा उत्तर में स्थित उत्तरकुरू । अथवा जो पहले शालिक्षेत्र था, बाद में इक्षुक्षेत्र हो गया । ५ दिशा उत्तर-उत्तर दिशा । ६. तापक्षेत्र उत्तर - ताप दिशा की अपेक्षा । जैसे सबके उत्तर में है मन्दराचल । ३८७ ७. प्रज्ञापक उत्तर - प्रज्ञापक के बायें भाग में स्थित व्यक्ति । ८. प्रति उत्तर-- एक दिशा में स्थित देवदत्त और यज्ञदत्त में देवदत्त से परे यज्ञदत्त उत्तर । ९. काल उत्तर --- समय के उत्तर में आवलिका । १०. संचय उत्तर - धान्यराशि के ऊपर काष्ठ । ११. प्रधान उत्तर१. सचित्त- (क) द्विपद में उत्तर - तीर्थंकर | (ख) चतुष्पदों में उत्तर - सिंह | (ग) अपद में उत्तर - सुदर्शनाजंबू वृक्ष । २. अचित्त - - चिन्तामणि । ३. मिश्र - - गृहस्थ तीर्थंकर | १२. ज्ञान उत्तर – निरावरणता के कारण केवलज्ञान अथवा स्वपरप्रकाशकत्व के कारण श्रुतज्ञान | अवस्था में अलंकार युक्त १३. क्रम उत्तर - (क) द्रव्यतः-परमाणु से उत्तर है द्विप्रदेशीस्कन्ध, त्रिप्रदेशी स्कन्ध, अनन्त प्रदेशी स्कन्ध । (ख) क्षेत्रत: - एक प्रदेश में अवगाढ, तीन प्रदेशों में अवगाढ, असमानवर्ती असंख्य प्रदेशावगाढ पर्यन्त | (ग) कालतः - एक समय की स्थिति के उत्तर में हैदो समय की स्थिति असंख्य समय की स्थिति । (घ) भावतः - एक गुण कृष्ण से उत्तर में है दो गुण कृष्ण... अनन्तगुण कृष्ण । निदान १४. गणना उत्तर- एक के उत्तर में दा, दो के उत्तर में तीन शीर्षप्रहेलिका पर्यन्त । १५. भाव उत्तर औदयिक आदि पांच भावों में क्षायिक भाव उत्तर है । ६. निक्षेप और नय नामाइतियं दव्वट्ठियस्स भावो य पज्जवनयस्स ।" ( विभा ७५ ) नाम आदि तीन निक्षेप द्रव्यार्थिक नय द्वारा और भाव निक्षेप पर्यायार्थिक नय द्वारा सम्मत है । निदान - पौद्गलिक सुखसमृद्धि के लिए किया जाने वाला संकल्प अथवा कोई भी आकांक्षात्मक संकल्प । निश्चितमादानं निदानं । अप्रतिक्रांतस्य अवस्यमुदयापेक्षः तीव्रः कर्मबन्ध इत्यर्थ । निदानमेव सल्लो निदानसल्लो । दिव्वं वा माणुसं वा विभवं पासितूण सोऊण वा निदाणस्स उववत्ती भवेज्जा । ( आवचू २ पृ७९ ) दोषसेवन का प्रतिक्रमण नहीं करने पर अवश्य उदय में आने वाला तीव्र कर्मबन्ध निदान है । आत्म विकास में SATE होने से यही निदान शल्य है । देवों और मनुष्यों के वैभव को देखकर या सुनकर उनकी प्राप्ति का संकल्प करना निदान है । निदानं – ममातस्तपः प्रभृत्यादेरिदं प्रार्थनात्मकम् । स्यादिति ( उशावृ प ५७९ ) 'यदि मेरी तपस्या का फल है तो मैं अगले जन्म में चक्रवर्ती बनूं' - इस प्रकार तप के फल के विनिमय में भोगप्राप्ति का संकल्प करना निदान है । सणिआणस्स चरितं न वट्टति । कस्मात् ? अधिकरणानुमोदनात् । तत्थोदाहरणं बंभदत्तो । ( आवचू २ पृ७९) जो निदानयुक्त होता है, उसके चारित्र नहीं होता, क्योंकि निदान के साथ हिंसा की अनुमोदना जुड़ी हुई है। यहां ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती का उदाहरण मननीय है । जाईपराजिओ खलु, कासि नियाणं तु हत्थिणपुरम्मि । उववन्नो चुलणीए बंभदत्तो, परमगुम्माओ ॥ हत्थिणपुरम्मि चित्ता, दट्ठूणं नरवई महिड्ढियं । कामभोगे गिद्धेणं, नियाणमसुहं कर्ड ॥ Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्जरा ३८८ नियुक्ति तस्स मे अपडिकंतस्स, इमं एयारिसं फलं । नियुक्ति स्वतन्त्र शास्त्र नहीं है, किन्तु वह अपनेजाणमाणो वि धम्म, कामभोगेस मच्छिओ ।। अपने सूत्र के अधीन है। जैसे-आवश्यक सूत्र से सम्बद्ध (उ १३।१,२८,२९) है आवश्यकनियुक्ति। सूत्र का सम्बन्ध अर्थ के साथ जाति से पराजित हुए संभूत ने हस्तिनापुर में निदान होता है, क्योंकि वह उससे अविच्छिन्न है। निर्युक्त का (चक्रवर्ती होऊ-ऐसा संकल्प) किया। वह सौधर्म अर्थ है -सूत्र के साथ अर्थ का एकात्मभाव से सम्बद्ध देवलोक के पद्मगुल्म नामक विमान में देव बना। वहां होना । युक्ति का अर्थ है- स्पष्टरूप से सूत्र से संपृक्त से च्युत होकर चलनी की कोख में ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती के अर्थ का क्रमबद्ध प्रतिपादन। मध्यवर्ती युक्त शब्द का रूप में उत्पन्न हुआ। लोप होने से नियुक्ति शब्द निष्पन्न होता है। (चित्त मुनि के द्वारा धर्म का उपदेश दिए जाने पर सुत्ते निज्जुत्ताणं निज्जुत्तीए पुणो किमत्थाणं ? । ब्रह्मदत्त ने कहा) चित्रमुने ! हस्तिनापुर में महान् ऋद्धि निज्जुत्ते वि न सव्वे कोइ अवक्खाणिए मुणइ ॥ वाले चक्रवर्ती (सनत्कुमार) को देख, भोगों में आसक्त (विभा १०८७) होकर मैंने अशुभ निदान (भोगसंकल्प) कर डाला। मन्दबुद्धि शिष्य व्याख्या के बिना सारे अर्थों को उसका मैंने प्रतिक्रमण (प्रायश्चित्त) नहीं किया। उसी नहीं जान पाते । अत: सूत्र में कहे गए अर्थों को भी का यह ऐसा फल है कि मैं धर्म को जानता हआ भी नियुक्ति के द्वारा व्याख्यात किया जाता है। कामभोगों में मूच्छित हो रहा हूं। अंतम्मि उ वणसिउं पूव्वमणुगमस्स जं नए भणइ । तं जाणावेइ समं वच्चंति नयाणुओगो य॥ निर्जरा-तपस्या के द्वारा कर्मविच्छेद होने पर उपक्रमः निक्षेप अनुगमः नया: इत्यनुयोगद्वाराआत्मा की जो उज्ज्वलता होती है, वह णामन्ते पूर्व नयानुपन्यस्य यदिदानीमनुगमस्यानुयोगस्य पूर्व निर्जरा है। यह नौ तत्त्वों में सातवां प्रथमं नयान् भणति, तज्ज्ञापयति भद्रबाहुस्वामी-नयातत्त्व है। कारण में कार्य का उपचार करने ऽनुयोगौ प्रतिसूत्रं युगपदेव व्रजतः । से तपस्या को भी निर्जरा कहा जाता (विभा १३५५ मवृ ५०१) है। उसके बारह भेद हैं। (द्र. तप) अनुयोगद्वार चार हैं--उपक्रम, निक्षेप, अनुगम और नय । जहां अनुगम से पूर्व नय का न्यास होता है, वह निर्जरा अनुप्रेक्षा इस बात का सूचक है कि प्रत्येक सूत्र में नय और अनूनिर्यक्ति-आगम की मूलस्पर्शी पद्यात्मक व्याख्या। गम अनुयोग एक साथ प्रवृत्त होते हैं - ऐसा भद्रबाहुनिज्जुत्ता ते अत्था जं बद्धा तेण होई निज्जुत्ती ।।... स्वामी ने प्रज्ञापित किया है। (आवनि ८८) नियुक्तिअनुगम के प्रकार (द्र. अनुयोग) सुत्तनिज्जुत्तअत्थनिज्जूहणं निज्जुत्ती। (आवचू १ पृ ९२) एवं सुत्ताणुगमो सुत्तालावगगओ य निक्खेवो । सूत्र में नियुक्त अर्थ की सुव्यवस्थित व्याख्या करने सुत्तप्फासियजुत्ती नया य वच्चंति समयं तु ।। वाला व्याख्या ग्रन्थ है - नियुक्ति । . (विभा १००१) निर्युक्तानामेव सूत्रार्थानां युक्तिः परिपाट्या योजनं । सूत्रानुगम, सूत्रालापकगत निक्षेप, सूत्रस्पर्शिकनिर्युक्तयुक्तिरिति वाच्ये युक्तशब्दलोपान्नियुक्तिः । नियुक्ति और नय-प्रत्येक सूत्र में इनका युगपत् प्रयोग (दहावृ प २) होता है। निर्यक्तयो न स्वतन्त्रशास्त्ररूपाः किन्तु तत्तत्सत्रपर- निज्जुत्ती वक्खाणं निक्खेवो नासमेत्तं तु । तन्त्राः तथा तद्व्युत्पत्त्याश्रयणात्, तथाहि-सूत्रोपात्ता (विभा ९६५) अर्थाः स्वरूपेण सम्बद्धा अपि शिष्यान् प्रति नियुज्यन्ते- नियुक्ति में सूत्र की व्याख्या होती है और निक्षेप निश्चितं सम्बद्धा उपदिश्य व्याख्यायन्ते यकाभिस्ता में सूत्र का न्यासमात्र होता है-निर्यक्ति और निक्षेप में नियुक्तयः । (पिनिवृ प १) यही अन्तर है । Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिक नियुक्ति नियुक्ति नियुक्तियां और नियुक्तिकार भद्रबाहुस्वामी कहते हैं- अर्हत्, चौदह पूर्वी, दस आवस्सयस्स दसकालियस्स तह उत्तरज्झमायारे । पूर्वी, ग्यारह अंगों के धारक और सब साधुओं को सूयगडे निज्जुत्ति वोच्छामि तहा दसाणं च ॥ नमस्कार कर सुविहितों पर अनुग्रह करने के लिए ओघकप्पस्स य निज्जुत्ति ववहारस्सेव परमनिउणस्स । नियुक्ति की रचना करूंगा, जो चरणकरणानुयोग से सरिअपण्णत्तीए वोच्छं इसिभासिआणं च॥ सम्बद्ध है, अल्प अक्षर और महान् अर्थ वाली है। (आवनि ८४,८५) यहां वृत्तिकार ने प्रश्न उठाया है कि भद्रबाहुस्वामी दस नियुक्तियां चौदह पूर्वी थे, तब फिर उन्होंने अपने से न्यून दस पूर्वी १. आवश्यक निर्यक्ति ६. दशाश्रुतस्कन्ध नियुक्ति आदि को नमस्कार क्यों किया? इसके समाधान में कहा २. दशवकालिक" ७. बृहत्कल्प गया है कि दस पूर्वी आदि श्रुतपरम्परा की अव्यवच्छित्ति ३. उत्तराध्ययन " ८. व्यवहार में योगभूत बनते हैं, अतः इस गुणाधिक्य के कारण उन्हें ४. आचारांग " ९. सूर्यप्रज्ञप्ति " नमस्कार करना अनुपयुक्त नहीं है। ५. सूत्रकृतांग " १०. ऋषिभाषित पुनः प्रश्न हुआ कि भद्रबाहुस्वामी ने ग्यारह अंगों स्थविराः--भद्रबाहुस्वाम्यादयस्तैः 'यत् कृतं' यद् के धारकों को नमस्कार क्यों किया ? इसके समाधान में दृब्धं श्रुतमावश्यकनियुक्त्यादिकं तद् अङ्गबाह्मम् अनङ्ग कहा गया कि ओघनियुक्ति ग्रन्थ चरणकरणात्मक है। प्रविष्टमुच्यते। (नन्दीमवृ प १६१) ग्यारह अंगों के धारक चरणकरणयुक्त होते हैं, क्योंकि स्थविर भद्रबाहस्वामी आदि ने आवश्यकनियुक्ति ग्यारह अंग चरणकरणानुयोग के अन्तर्गत हैं। उपयोगिता आदि (दस नियुक्तियों)-श्रुतग्रन्थों की रचना की, जो के कारण उनको नमस्कार करना युक्त ही है। अंगबाह्य या अनंग- प्रविष्ट कहलाते हैं। पिण्डनियुक्ति आवश्यकनियुक्ति दशाध्ययनपरिमाणश्चूलिकायुगलभूषितो दशवकालिको भगवंतो भद्रबाहस्वामिनः परमकरुणापरीतचेतस नाम श्रुतस्कन्धः । तत्र च पञ्चममध्ययनं पिण्डैषणानामकं, ऐदंयुगीनसाधनामुपकाराय आवश्यकस्य व्याख्यानरूपामिमां दशवकालिकस्य च नियुक्तिश्चतुर्दशपूर्वविदा भद्रबाहनियुक्ति कृतवन्तः । (आवमव प १,२) स्वामिना कृता। तत्र पिण्डैषणाभिधपञ्चमाध्ययनपरम कारुणिक भद्रबाहुस्वामी ने साधुओं के उपकार नियुक्तिरतिप्रभूतग्रन्थत्वात्पृथक् शास्त्रान्तरमिव व्यवस्थाके लिए आवश्यकसूत्र की व्याख्या स्वरूप आवश्यक- पिता, तस्याश्च पिण्डनियुक्तिरिति नाम कृतम् । नियुक्ति की रचना की। (पिनि प १) ओघनियुक्ति दशवकालिक के दश अध्ययन और दो चूलिकाएं हैं। दशवकालिक नियुक्ति चतुर्दशपूर्वी आचार्य भद्रबाहु द्वारा अरहते वंदित्ता चउदसपुत्वी तहेव दसपुवी । कृत है । दशवकालिक के पांचवें अध्ययन 'पिण्डषणा' की एक्कारसंगसुत्तत्थधारए सव्वसाहू य॥ ओहेण उ निज्जुत्ति वुच्छं चरणकरणाणुओगाओ। निर्यक्ति परिमाण में विस्तृत होने से पृथक् स्वतंत्र ग्रन्थ के अप्पक्खरं महत्थं अणग्गहत्थं सूविहियाणं ॥ रूप में व्यवस्थापित है, वह पिण्ड-निर्यक्ति नाम से भद्रबाहस्वामिनश्चतर्दशपूर्वधरत्वात दशपर्वधरादीनां प्रसिद्ध ह। च न्यूनत्वात्तत्कि तेषां नमस्कारमसौ करोति ? इति, दशवकालिकनियुक्ति अत्रोच्यते, गुणाधिका एव ते, अव्यवच्छित्तिगुणाधिक्यात्, दुमपूप्फियाए णिज्जुत्तिसमासो वण्णिओ विभासा य। अतो न दोष इति। एवं व्याख्याते सत्याह पर:--- जिण-चोद्दसपुव्वी वित्थरेण कहयंति से अह्र ।। एकादशाङ्गसूत्रार्थधारकाणां किमर्थं क्रियते ? इति, दुमपुप्फितअज्झयणविवरणं समासतोऽभिहितं । उच्यते, इह चरणकरणात्मिका ओघनियुक्तिः, एकादशाङ्ग- वित्थरेण सव्वक्खरसण्णिवायावदातागमबुद्धीहिं चोइससूत्रार्थधारिणश्च चरणकरणवन्त एव, एकादशानामङ्गानां पुव्वीहिं भण्णति । (दनि ५५ अच पृ ३५) चरणकरणानुयोगत्वात् उपयोगित्वेनांशेन तेषां नमस्कारः। द्रुमपुष्पिका (दशवैकालिक का प्रथम अध्ययन) की (ओनि १,२ व प ३) संक्षिप्त नियुक्ति की गई है। जिन और सर्वाक्षरसन्निपात Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निव ३९० निह्नव कौन ? लब्धि से सम्पन्न चतुर्दशपूर्वी मुनि विस्तार से उसका 'अहंत निसीदिका' का पाठ मिलता है। निसीदिया का अर्थ प्रतिपादित करते हैं। अर्थ है-निषद्या । यह स्वाभाविक प्रयोग है। स्थान के उत्तराध्ययननियुक्ति अर्थ में निसीहिया का संस्कृत रूप निषीधिका, नषेधिकी ओहाविउकामोऽवि य अज्जासाढो"" ॥ या निशीथिका किया जाए तो यह रूप मौलिक प्रतीत न च केषाञ्चिदिहोदाहरणानां नियुक्तिकालादर्वा- नहीं होता। 'निसीदिया' और 'निसीहिया' दोनों का क्कालभावितेत्यन्योक्तत्वमाशङ्कनीयं, स हि भगवांश- एकीकरण हो जाने पर आर्थिक जटिलता उत्पन्न हुई है।) चतुर्दशपूर्ववित् श्रुतकेवली कालत्रयविषयं वस्तु पश्यत्येव। निषीधिका-निषद्या। (द्र. परीषह) (उनि १२३ उशावृ प १३९,१४०) निह्नव–अर्हत-वचन का अपलाप करने वाले । उत्तराध्ययन सूत्र के 'परीषह प्रविभक्ति' नामक अध्ययन में दर्शन परीषह के संदर्भ में नियुक्तिकार ने | १. निह्नव कौन ? आचार्य आषाढ़ का उदाहरण दिया है, जो नियुक्तिकाल | २. जमालि और बहुरतवाद के पश्चात् घटित होने वाली घटना है। कुछ उदाहरण ३. तिष्यगुप्त और जीवप्रादेशिकवाद नियुक्तिकाल-पश्चात् भावी हैं, किंतु उनके आधार पर ४. आचार्य आषाढ़ के शिष्य और अव्यक्तवाद यह आशंका नहीं करनी चाहिए कि ये किसी अन्य व्यक्ति ५. अश्वमित्र और समुच्छेदवाद द्वारा प्रतिपादित हैं। क्योंकि आचार्य भद्रबाहु चौदहपूर्वी ६. आचार्य गंग और क्रियवाद थे। वे श्रुतकेवली होने के कारण कालिक विषयों के ७. रोहगुप्त और त्रैराशिकवाद ज्ञाता थे। ८. गोष्ठामाहिल और अबद्धिकवाद (यह वृत्तिकार का अभिमत है, किन्तु आषाढभूति ९. शिवभूति और बोटिकमत का प्रसंग यह प्रमाणित करता है कि नियुक्तिकार आचार्य १. निह्नव कौन ? भद्रबाह द्वितीय हैं। उनका अस्तित्व-काल विक्रम की पांचवीं-छठी शताब्दी है।) .''जो पुण पयं पि निण्हवइ । मिच्छाभिनिवेसाओ स निण्हवो ॥ (विभा २२९९) निवृत्तिबादर-जो संयती स्थूल कषाय से निवृत्त होता है, उसकी आत्म-विशुद्धि । तीर्थंकरभाषितमर्थमभिनिवेशात् निह नुवते- प्रपञ्चआठवां गुणस्थान । (द्र. गुणस्थान) तोऽपलपन्तीति निह्नवाः, एते च मिथ्यादृष्टयः सूत्रोक्तार्था पलपनात्", एते साक्षादुपात्ता उपलक्षणसूचिताश्च निषद्या-स्थान । स्वाध्याय भूमि । एक परीषह। देशविसंवादिनो द्रव्यलिङ्गेनाभेदिनो निह्नवाः । बोटिकास्तु (द्र. परीषह) वक्ष्यमाणाः सर्वविसंवादिनो द्रव्यलिङ्गतोऽपि भिन्ना (आगमों में तथा व्याख्या ग्रन्थों में निसीहिया शब्द निवाः। . (आवमवृ प ४०१) मिलता है और उसका संस्कृत रूप निशीथिका, निषी- जो अपने मिथ्या अभिनिवेश के कारण अर्हत्-प्रज्ञप्त धिका या नषेधिकी किया जाता है। जहां निसीहिया अर्थपद का अपलाप करते हैं. वे नितव कहलाते हैं। वे शब्द परीषह के अन्तर्गत आया है वहां निसीहिया और सूत्र के अर्थ का अपलाप करने के कारण मिथ्यादृष्टि होते स्थान को चूर्णिकार ने एकार्थक माना है। "णिसीहियत्ति हैं । निह्नव सिद्धांत के एक देश का विसंवाद करने वाले वा ठाणंति वा एगलैं' (उचू पृ ६७) । वृहदृवृत्ति पत्र ८३ तथा द्रव्यलिंग (वेश) से अभिन्न होते हैं। में इसका अर्थ स्वाध्याय भूमि किया गया है - बोटिकमतावलंबी सर्वविसंवादी तथा द्रव्यलिंग से "श्मशानादिका स्वाध्यायादिभूमिः निषधेति यावत्"। भिन्न होने पर भी निह्नव कहलाये। मूलतः यह पाठ निसीदिया होना चाहिए। प्राचीन लिपि (जिनका किसी एक विषय में, चालू जैन परम्परा के में 'द' और 'ह' का प्रायः साम्य है अत: लिपि परिवर्तन साथ, मतभेद हो गया और वे वर्तमान शासन से पृथक के साथ 'निसीदिया' का निसीहिया हो गया प्रतीत होता हो गये, किन्तु किसी अन्य धर्म को स्वीकार नहीं किया, है। खारवेल के शिलालेख में 'काय निसीदिका' और उन्हें निह्नव कहा गया ।) Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जमालि और बहुरतवाद २. जमालि और बहुरतवाद चोट्स वासाणि तया जिणेण उप्पाडियस्स नाणस्स । तो बहुरयाण दिट्ठी सावत्थीए समुत्पन्ना ॥ ( विभा २३०६ ) भगवान महावीर के कैवल्य प्राप्ति के चौदह वर्ष पश्चात् श्रावस्ती नगरी में बहुरतवाद की उत्पत्ति हुई । बहुसु समएसु कज्जसिद्धि पडुच्च रता-सक्ता बहुरता । आव १४१९) एकस्मिन् क्रियासमये वस्तु नोत्पद्यते किन्तु बहुभिः क्रियासमयैः इत्यभ्युपगमाद् बहुषु समयेषु रताः सक्ता बहुरता दीर्घकालवस्तुप्रभवप्ररूपकाः । ( विभामवृ २ पृ३३) कार्य की सिद्धि एक समय में नहीं होती, उसमें बहुत समय लगते हैं, वस्तु की उत्पत्ति दीर्घकाल सापेक्ष हैइस अभ्युपगम का प्रतिपादन जिसे मान्य है, वह बहुरतवाद है । कुंडपुरं नगरं । तस्स सामिस्स जेट्ठा भगिणी सुदंसणा नाम । तीए पुत्तो जमाली । सो सामिस्स मूले पव्वतो पंचहि सतेहि समं तस्स य भज्जा सामिणो धूता अणोज्जंगी नाम । बीयं नाम से पियदंसणा । सावि तमणुपव्वतिया ससहस्सपरिवारा, एक्कारस अंगा अधीता । सामिणा अणणुष्णातो सावत्थि गतो पंचसतपरिवारो । तत्थ तेंदुगुज्जाणे कोट्ठगे चेतिते समोसढो । तत्थ से अंतपंतेहि रोगो उप्पण्णो । न तरति तिट्ठेतुं अच्छितुं । ताहे सो समणे भणति मम सेज्जासंथारगं करेह । ते कातुमारद्वा । पुणो अधरो भणति -कतो ? कज्जति ? ते भणंति—न कतो, अज्जावि कज्जति । ( आवचू १ पृ ४१६) जमाली कुंडपुर नगर में, भगवान महावीर की ज्येष्ठा भगिनी सुदर्शना का पुत्र था। भगवान की पुत्री अनवद्यांगी उसकी भार्या थी । उसका दूसरा नाम था प्रियदर्शना । जमाली ने पांच सौ पुरुषों के साथ तथा प्रियदर्शना ने हजार स्त्रियों के साथ भगवान महावीर के पास दीक्षा स्वीकार की। उसने ग्यारह अंगों का अध्ययन किया । एक बार जमालि ने भगवान से अलग विहार की आज्ञा मांगी। भगवान की आज्ञा प्राप्त नहीं होने पर भी वह पांच सौ साधुओं के साथ श्रावस्ती चला गया। वहां तिन्दुक उद्यान के कोष्ठक चैत्य में ठहरा। अंत-प्रांत आहार सेवन से उसका शरीर रोगाक्रान्त हो गया । उसने श्रमणों से कहा- मेरा बिछौना करो। वे करने लगे । निह्नव अधीरता के कारण पुनः पूछा- क्या बिछौना कर दिया ? श्रमणों ने कहा - कर रहे हैं । ३९१ सक्खं चिय संथारो न कज्जमाणो कउ त्ति मे जम्हा । बेइ जमाली सव्वं न कज्जमाणं कयं तम्हा ॥ ( विभा २३०८ ) ताहे तस्स चिंता जाता-जणं समणे भगवं आइक्खति 'कज्जमाणे कडे चलमाणे चलिते उदीरिज्जमाणे उदीरिए जाव निज्जरिज्जमाणे निज्जिपणे' तण्णं मिच्छा । इमं णं पच्चक्खमेव दीसति सेज्जासंथारए कज्जमाणे अकडे संथारेज्जमाणे असंथारिए । ( आवचू १ पृ ४१६ ) उसके मन में विचिकित्सा उत्पन्न हुई - भगवान महावीर क्रियमाण को कृत, चलमान को चलित, उदीर्य - माण को उदीरित, निर्जीर्यमाण को निर्जीर्ण कहते हैंयह मिथ्या है । यह प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा है कि बिछौना क्रियमाण है पर कृत नहीं है । वह संस्तीर्यमाण है, किन्तु संस्तृत नहीं है । इस प्रकार वेदनाविह्वल जमालि मिथ्यात्वमोहनीय के उदय से निह्नव बन गया । उससे बहुरतवाद की उत्पत्ति हुई । अतिया ग्गिंथा एतमत्थं सद्दति । अत्थेगतिया सद्दति । जे ते सद्दहंति ते णं जमालि चेव अणगारं उवसंपज्जित्ताणं विहरति । जे ते णो सद्दहंति ते णं एवमाहंसु, जण्णं सामी आइक्खति तण्णं तह चेव, जं णं तुमं वयसि तं गं मिच्छा । ( आवचू १ पृ ४१६ ) जमालि के पांच सौ साधुओं में से कुछ साधुओं ने बहुरतवाद में श्रद्धा की, कुछ ने नहीं की। जिन्होंने श्रद्धा की, वे जमालि के पास रहे । जिन्होंने श्रद्धा नहीं की, उन्होंने कहा- जमालि ! भगवान् ने जो कहा है, वह तथ्य है । तुम जो कह रहे हो वह मिथ्या है । वे पुनः भगवान् महावीर के शासन में सम्मिलित हो गये । पियदंसणा ढंकस्स कुंभकारस्स घरे ठिता । सा आगता चेतियवंदिता, ताहे तंपि पण्णवेति । साति विप्पपच्छा डिवण्णा तस्स हाणुरागेण, गता अज्जाणं परिकहेति, तं च ढंकं भणति, सो जाणति जथा --- विप्पडिवण्णा नाहच्चएणं, ताहे सो भणति - अहं न याणामि एवं विसेसतरं । एवं तीसे अण्णदा कदायी सज्झायपोरिसि कती ते भायणाणि उव्वत्तंतेणं तत्तोहुत्तो इंगालो छूढो जथा तीसे संघाडी एगदेसंमि दड्ढा । सा भणति — इमा Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निह्नव ३९२ तिष्यगुप्त और जीवप्रादेशिकवाद अज्ज! संघाडी दड्ढा, ताहे सो भणति-तुब्भे चेव आयप्पवायपुव्वं अहिज्जमाणस्स तीसगृत्तस्स । पण्णवेह जथा-डज्झमाणे अदड्ढे, केण तुब्भं संघाडी नयमयमयाणमाणस्स दिट्ठिमोहो समुप्पण्णो । दड्ढा ? एत्थ सा संबुद्धा, तहत्ति पडिसुणेति । इच्छामो एगादओ पएसा नो जीवो नो पएसहीणो वि । अज्ज ! सम्म पडिचोदणा। ताहे सा गंतूण जमालि जं तो स जेण पुण्णो स एव जीवो पएसो ति ॥ पण्णवेति । सो जाहे न गेण्हति ताहे गता सहस्सपरिवारा गुरुणाऽभिहिओ जइ ते पढमपएसो न संमओ जीवो । सामि उवसंपज्जित्ताणं विहरति । तो तप्परिणामो च्चिय जीवो कहमंतिमपएसो ।। ......"तते णं से जमाली "बहूहिं असब्भावुब्भाव- तंतू पडोवयारी न समत्तपडो य समुदिया ते उ । णाहिं मिच्छत्ताभिनिवेसेहि य अप्पाणं च परं च तदुभयं सव्वे समत्तपडओ सव्वपएसा तहा जीवो । च वुग्गाहेमाणे वुप्पाएमाणे बहूई वासाइं सामण्णपरियायं इय पण्णविओ जाहे न पवज्जइ सो को तओ बज्झो । पाउणति, बहूहिं छट्ठट्ठमादीहिं अप्पाणं भावेति...."तस्स ततो आमलकप्पाए मित्तसिरिणा सुहोवायं ।। ठाणस्स अणालोइयपडिक्कते कालमासे कालं किच्चा भक्खण-पाण-वंजण-वत्थं तावयवलाभिओ भणइ । लंतए कप्पे तेरससागरोवमद्वितिकेसु देवेसु देवत्ताए सावय ! विधम्मिया म्हे कीस त्ति तओ भणइ सड्ढो।। उववण्णे। (आवच १ पृ ४१८,४१९) नणु तुझं सिद्धंतो पज्जतावयवमित्तओऽवयवी । साध्वी प्रियदर्शना कुंभकार ढंक के घर ठहरी हुई जइ सच्चमिणं तो का विहम्मणा मिच्छमिहरा भे॥ थी। वह जमाली के दर्शनार्थ आई। जमाली ने उसे सारी इय चोइय संबुद्धो खामियपडिलाभिओ पुणो विहिणा । बात कही। उसने पूर्व अनुराग के कारण जमाली की गंतुं गुरुपायमूलं ससीसपरिसो पडिक्कतो॥ बात मान ली। उसने कुंभकार को भी इससे अवगत कराया। प्रियदर्शना उन्मार्ग में प्रस्थित हो गई है यह __ (विभा २३३३-२३३७, २३४४,२३४८, २३५०, २३५५) ज्ञात होने पर कुंभकार ने स्पष्ट कहा-मैं इस सिद्धांत भगवान महावीर के कैवल्य प्राप्ति के १६ वर्ष का मर्म नहीं समझ सका । पश्चात् ऋषभपुर में जीवप्रादेशिकवाद की उत्पत्ति हुई। एक दिन प्रियदर्शना स्वाध्याय पौरुषी कर रही थी। ढंक ने एक अंगारा उस पर फेंका, जिससे उसकी साड़ी राजगृह नगर के गुणशील चैत्य में चतुर्दश पूर्वो के का एक कोना जल गया। उसने कहा-ढंक ! तुमने धारक आचार्य वसु का पदार्पण हुआ। उनके शिष्य का मेरी साड़ी जला दी है। तब ढंक ने कहा-साड़ी जली नाम तिष्यगुप्त था। गुरु तिष्यगुप्त को आत्मप्रवादपूर्व का कहां है, जल रही है। वह सम्बुद्ध हो गई। जमाली को अध्ययन करा रहे थे। नयवाद का प्रसंग चल रहा था। तिष्यगुप्त को समझ में नहीं आया तब उसके दृष्टिसमझाने गई। वह नहीं समझा । तब वह हजार साध्वीपरिवार के साथ भगवान की शरण में चली गई। विपर्यास उत्पन्न हो गया। जमालि असत्य प्ररूपणा तथा मिथ्या अभिनिवेश तिष्यगुप्त ने कहा-जब जीव एक प्रदेश नहीं, दो, के कारण स्वयं को तथा दूसरों को शंकित तथा भ्रमित तीन यावत् संख्येय प्रदेश जीव नहीं है, एक प्रदेश न्यून करने लगा। उसने अनेक वर्षों तक श्रामण्य-पर्याय का को भी जीव नहीं कहा जा सकता, तब जिस प्रदेश से पालन किया और विभिन्न प्रकार से तप तपा। किन्त वह पूर्ण होता है, वही जीव है। अपने दोषों की आलोचना-प्रतिक्रमण किए बिना ही गुरु ने कहा-जब प्रथम प्रदेश जीव नहीं है, तब मृत्यु को प्राप्त होकर वह लान्तक देवलोक में तेरह अन्तिम प्रदेश जीव कैसे होगा ? सागरोपम की स्थिति वाला देव बना। ___एक तन्तु समस्त पट नहीं होता किन्तु वे सारे तन्तु ३. तिष्यगुप्त और जीवप्रादेशिकवाद मिलकर समस्त पट का कथन प्राप्त करते हैं; वैसे ही सोलस वासाणि तया जिणेण उप्पाडियस्स नाणस्स। एक प्रदेश जीव नहीं, किन्तु सारे प्रदेश समुदित रूप से ही जीवपएसियदिट्ठी तो उसभपुरे समुप्पण्णा ॥ जीव हैं। रायगिहे गुणसिलए वसु चउदसपुग्वि तीसगुत्ते य..। गुरु ने उसे समझाया । उसने स्वीकार नहीं किया तब Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अश्वमित्र और समुच्छेदवाद ३९३ निह्नव उसे संघ से अलग कर दिया गया। वह वहां से आमल- और मृत शरीर में प्रवेश कर उन्होंने शिष्यों को योग कल्पा नगरी में आया। वहां मित्रश्री नाम का श्रमणो- साधना का क्रम पूर्ण करवाया। फिर देवरूप में प्रकट पासक था। उसने तिष्यगुप्त को प्रतिबोध देने के लिए होकर क्षमायाचना करके सारी घटना बतलाई, तब अपने घर आने का निमन्त्रण दिया। वह वहां गया। अव्यक्तवाद की दृष्टि का प्रादुर्भाव हआ। उसने उसके समक्ष खाद्य पदार्थ, वस्त्र आदि प्रस्तुत किए श्रमणों को संदेह हो गया कि कौन जाने कौन साधु और प्रत्येक पदार्थ का अन्तिम अवयव (छोटा टुकड़ा) ह आर कान है और कौन देव ? कोई वन्दनीय नहीं है। यदि वन्दना देने लगा। तिष्यगूप्त ने कहा- तुमने मेरा तिरस्कार करते हैं तो असंयमी को वंदना हो जाती है । अमुक व्रती किया है। श्रावक ने कहा-यह तो आपका सिद्धांत ही है-ऐसा कहना मृषावाद है। है कि अन्तिम अवयव वास्तविक है । यदि यह सत्य है तो बहुत समझाने पर भी आषाढ़ के शिष्यों ने अपना तिरस्कार कैसा ? यदि नहीं तो आप मिथ्या प्ररूपणा आग्रह नहीं छोड़ा, तब उन्हें संघ से बाहर कर दिया गया। वे वहां से विहार कर राजगृह नगर में आए। क्यों कर रहे हैं ? वहां के राजा बलभद्र को जब ज्ञात हुआ, उसने उनको ___ इस प्रकार प्रतिबोध पाकर तिष्यगुप्त ने श्रावक आमन्त्रित किया। उन्होंने कहा- हे श्रावक ! हम मित्रश्री से क्षमायाचना की और अपने शिष्य-परिवार तपस्वी हैं, सन्देह न करें। राजा ने कहा- कौन जानता के साथ गुरु के पास जाकर प्रतिक्रमण किया। है साधु के वेश में कौन चोर है? कौन चारिक है ? आज ४. आचार्य आषाढ के शिष्य और अव्यक्तवाद मैं आपका वध करूंगा। चउदस दो वाससया तइया सिद्धि गयस्स वीरस्स । मुनियों ने कहा-ज्ञान और चर्या के द्वारा श्रमण और अश्रमण की पहचान होती है। तुम श्रावक होकर तो अव्वत्तयदिट्टी सेववियाए समुप्पण्णा ।। सन्देह करते हो? सेयविपोलासाढे जोगे तद्दिवसहिययसूले य । राजा ने कहा-आपको भी परस्पर विश्वास नहीं सोहम्मनलिणिगुम्मे राय गिहे मुरियबलभद्दे । है तब मुझे ज्ञान और चर्या से कैसे विश्वास होगा? गुरुणा देवीभूएण समणरूवेण वाइया सीसा । इस प्रकार युक्ति और भय से संबोध पाकर उन्होंने सब्भावे परिकहिए अव्वत्तयदिट्ठिणो जाया ॥ राजा से क्षमायाचना की। पुनः गुरु के पास आए और को जाणइ कि साहू देवो वा तो न वंदणिज्जो त्ति । प्रायश्चित्त लेकर संघ में सम्मिलित हो गए। होज्जाऽसंजयनमणं होज्ज सावायममुगो त्ति ।। इय ते नाऽसग्गाहं मुयंति जाहे बहुं पि भण्णंता । ५. अश्वमित्र और समुच्छेदवाद ता संघपरिच्चत्ता रायगिहे निवतिणा नाउं । वीसा दो वाससया तइया सिद्धि गयस्स वीरस्स । बलभद्देणग्घाया भणंति सावय वयं तवस्सि ति । सामुच्छेइयदिट्ठी मिहिलपुरीए समुप्पन्ना ।। मा कुरु संकमसंकारुहेसु भणिए भणइ राया ।। मिहिलाए लच्छिघरे महगिरि कोडिन्न आसमित्ते य । को जाणइ के तुब्भे कि चोरा चारिआ अभिमर त्ति । नेउणियऽणुप्पवाए रायगिहे खंडरक्खा य॥ संजयरूवच्छण्णा अज्जमहं भे विवाएमि ।। नेउणमणुप्पवाए अहिज्जिओ वत्थुमासमित्तस्स । (विभा २३५६-२३५९, २३८३-२३८५) एगसमयाइवोच्छेयसुत्तओ नासपडिवत्ती ।। वीर निर्वाण के २१४ वर्ष व्यतीत होने पर श्वेतविका उप्पायाणंतरओ सव्वं चिय सव्वहा विणासि त्ति । नगरी में अव्यक्तवाद की उत्पत्ति हुई। गुरुवयणमेगनयमयमेयं मिच्छं न सव्वमयं ।। श्वेतविका नगरी के पोलाषाढ उद्यान में आचार्य (विभा २३८९-२३९२) आषाढ ठहरे हए थे। वे शिष्यों को योगाभ्यास कराते इअ पण्णविओ विजओ न थे। एक दिन आचार्य आषाढ को हृदयशूल उत्पन्न हुआ। पवज्जइ सो कओ तओ बज्झो । उससे उनकी मृत्यु हो गई। मरकर वे सौधर्म कल्प के विहरंतो रायगिहे नाउं तो खंडरक्खेहि ।। नलिनीगुल्म विमान में उत्पन्न हुए। गहिओ सीसेहिं सम एएऽहिमर त्ति जंपमाणेहिं । ... आचार्य आषाढ देवरूप में पोलाषाढ उद्यान में आए संजयवेसच्छण्णा, सज्जं सव्वे समाणेह ।। Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निह्नव आचार्य गंग और द्वेत्रियवाद अम्हे सावय ! जयओ वीरनिर्वाण के २२८ वर्ष व्यतीत होने पर उल्लुकाकत्थुप्पण्णा कहिं च पव्वइया ।। तीर नगर में द्विक्रियावाद की उत्पत्ति हई। अमृगत्थ बेंति सड्ढा ते वोच्छिण्णा तया चेव ।। उल्लुका नदी के एक किनारे खेड़ा था, दूसरे किनारे तुब्भे तव्वेसधरा भणिए भयओ सकारणं च त्ति । उल्लुकातीर नाम का एक नगर था। वहां महागिरि के पडिवण्णा गुरुमूलं गंतुण तओ पडिक्कंता॥ शिष्य आचार्य धनगुप्त रहते थे। उनके शिष्य का नाम (विभा २४२०-२४२३) गंग था। वे भी आचार्य थे। वे उल्लुका नदी के इस वीरनिर्वाण के २२० वर्ष व्यतीत होने पर मिथिला ओर खेड़े में वास करते थे। में समुच्छेदवाद की उत्पत्ति हुई। मिथिला नगरी के आचार्य गंग शरद ऋतु में अपने आचार्य को वन्दना लक्ष्मीगृह चैत्य में आचार्य महागिरि के शिष्य कौण्डिन्य करने के लिए निकले । नदी में उतरे । वे गंजे थे। ऊपर थे। कौण्डिन्य अपने शिष्य अश्वमित्र को अनुप्रवादपूर्व सूरज तप रहा था। नीचे पानी की ठंडक थी। उन्हें की नैपुणिक वस्तु की वाचना दे रहे थे। छिन्न-छेदनय एक समय (क्षण) में सिर को सूर्य की गरमी और परों की वक्तव्यता के अनुसार प्रथम समय के नारक को नदी की ठंडक का अनुभव हो रहा था। विच्छिन्न हो जायेंगे, दूसरे समय के नारक भी विच्छिन्न इस अनुभूति के आधार पर आचार्य गंग ने द्वैक्रियहो जायेंगे। उत्पत्ति के अनन्तर ही वस्तु विनष्ट हो वाद का प्रतिपादन किया।। जाती है, अश्वमित्र को ऐसा बोध हुआ। गुरु ने कहा तरतमजोगेणायं गुरुणाऽभिहिओ तुमं न लक्खेसि । यह बात ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा से है, सब नयों की समयाइसुहमयाओ मणोऽतिचलसुहमयाओ य ।। अपेक्षा से नहीं है । गुरु के समझाने पर भी उसने गुरु के सुहमासुचरं चित्तं इंदियदेसेण जेण जं कालं । कथन को स्वीकार नहीं किया। तब गुरु ने उन सबको सबज्झइ तं तम्मत्तनाण हेउ त्ति नो तेण।। संघ से अलग कर दिया। वे विहरण करते हुए राजगृह उवलभए किरियाओ जूगवं दो दरभिण्णदेसाओ । नगर में आए। वहां खण्डरक्षक श्रावक थे, जो वहां पाय-सिरोगयसीउण्हवेयणाणुभवरूवाओ॥ शुल्कपाल थे। उन्होंने उसको शिष्यों के साथ पकड़ बहु-वहुविहाइगहणे नणूवओगबहुया सुएऽभिहिआ । लिया और ये साधु-वेश में चोर हैं-ऐसा कहकर तमणेगग्गहणं चिय उवओगाणेगया नत्थि ।। पीटना शुरू किया। ते च्चिय न संति समयं सामण्णाणेगगहणमविरुद्धं । अश्वमित्र ने कहा-श्रावको ! हम साधु हैं। तब एगमणेगं पि तयं तम्हा सामण्णभावेणं । श्रावकों ने कहा-आप कहां उत्पन्न हुए? कब प्रव्रजित जं च विसेसन्नाणं सामन्नन्नाणपुव्वयमवस्सं । हए? आपके सिद्धान्त के अनुसार आपका श्रमण रूप तो तो सामण्ण विसेसन्नाणाइं नेगसमयम्मि ।। विच्छिन्न हो गया। आप सब वेशधारी हैं—ऐसा कहने मणिनागेणारुद्धी भओववत्तिओ पडिबोहिओ वोत्तुं । पर तथा भय और युक्ति से समझाने पर वे सब श्रावकों इच्छामो गुरुमूलं गंतूण तओ पडिक्कतो।। के वचनों को स्वीकार कर गुरु के पास जाकर (विभा २४२८-२४३०,२४३८,२४४२,२४४५,२४५०) प्रायश्चित्तपूर्वक पुनः संघ में प्रविष्ट हो गए। सो हिंडतो रायगिहं गतो महातपोतीरप्पभे पासवणे ६. आचार्य गंग और द्वेक्रियवाद तत्थ मणिनागो नाम नागो, तस्स चेतिते वेणति, सो तत्थ परिसामज्झे कहेति - एवं खलु जीवेण एगसमएण दो अठ्ठावीसा दो वाससया तइया सिद्धि गयस्स वीरस्स। किरियाओ वेदिज्जति । तासु तेण नागेण तीसे चेव दोकिरियाणं दिट्टी उल्लुगतीरे समुप्पण्णा ।। परिसाए मज्झे भणितो- मा एतं पण्णवणं पण्णवेहि । नइखेडजणवउल्लुग महगिरि धणगृत्त अज्जगंगे य।। एसा पण्णवणा दुठ्ठ सेहा ! , अहं एच्चिरं कालं वद्धमाणनइमुल्लगमुत्तरओ सरए सीयजलमज्जगंगस्स ।। सामिस्स मूले सुणे मि जथा-एगा किरिया (एगसमएण सुराभितत्तसिरसो सीओसिणवेयणोभयओ॥ वेइज्जति)। ......"छड्डे हि एतं वादं......"भगवता एत्थ लग्गोऽयमसग्गाहो जुगवं उभयकिरिओवओगो त्ति । ठितेण समोसरितेण वागरितं । एवं सो पण्णवितो अब्भवजं दो वि समयमेव य सीओसिणवेयणाओ मे ॥ गतो उवद्रितो भणति मिच्छामि दुक्कडंति। (विभा २४२४-२४२७) (आवचू १ पृ ४२४) . Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रोहगुप्त और त्रैराशिकवाद ३९५ निह्नव द्विक्रिया का प्रतिवाद करते हए गुरु ने कहा-समय, रासिद्गगहियपक्खो तइयं नो जीवरा सिमादाय । आवलिका आदि काल की सूक्ष्मता से मन की सूक्ष्मता गिहकोकिलाइपुच्छच्छेओदाहरणओऽभिहिए । और शीघ्रगामिता के कारण तुम क्रिया की पृथक्ता का भणइ गुरू सुठ्ठ कयं कि पूण जेऊण कीस नाभिहियं । अनुभव नहीं कर सकते। अयमवसिद्धंतो णे तइओ नो जीवरासि त्ति ।। चित्त अत्यंत सूक्ष्म और शीघ्रगामी है। वह जिस एवं गए वि गंतुं परिसामज्झम्मि भणसु नायं णे । काल में जिस इन्द्रिय से संबद्ध होता है, उस समय उतना सिद्धंतो किंतु मए बुद्धि परिभूय सो समिओ ।। मात्र ही ज्ञान कर सकता है। इसलिए पैर और सिर की बहुसो स भण्णमाणो गुरुणा, शीत और उष्ण वेदना-दो भिन्न देशों में होने के कारण पडिभणइ किमवसिद्धंतो । युगपत् दो क्रियाएं नहीं हो सकतीं।। जइ नाम जीवदेसो नो जीवो हज्ज को दोसो ?।। शिष्य बोला-आगम में कहा है-बहु, बहुविध एवं पि भण्णमाणो न पवज्जइ आदि अनेक का ग्रहण एक साथ होता है, तब उपयोग सो जओ तओ गूरुणा । भी अनेक होंगे ? चिंतियमयं पणट्ठो नासिहिई मा बहुं लोग ।। बह-बहुविध आदि वस्तु की अनेक पर्यायों का एक तो णं रायसभाए निग्गिण्हामि बहुलोगपच्चक्खं । साथ ग्रहण सामान्य रूप से होता है लेकिन उपयोग अनेक बहुजणनाओऽवसिओ होही अगेज्झपक्खो त्ति ।। नहीं होते। ___अनेक उपयोग युगपत् नहीं होते। अनेक अर्थों का तो बलसिरिनिवपुरओ वायं नाओवणीयमग्गाणं । ग्रहण एक साथ हो सकता है। सामान्य की अपेक्षा से कुणमाणाणमईया सीसा-ऽऽयरियाण छम्मासा ।। एक साथ अनेक अर्थों का ग्रहण होता है। विशेष की एक्को विनावसिज्जइ जाहे तो भणइ नरवई नाहं । अपेक्षा एक समय में एक ही अर्थ का ग्रहण होता है। सत्तो सोउं सीयंति रज्जकज्जाणि मे भगवं ॥ ___ आचार्य गंग संघ से अलग होकर राजगृह नगर में गुरुणाऽभिहिओ भवओ सुणावणथमियमेत्तियंभणियं । आए। वहां महातपतीरप्रभ नामक एक झरना था। वहां जइ सि न सत्तो सोउं तो निग्गिण्हामि णं कल्लं ।। मणिनाग नामक नागदेव का चैत्य था। आचार्य गंग ने बीयदिणे बेइ गुरू नरिंद ! जं मेइणीए सब्भूयं । उस चैत्य में परिषद् के सम्मुख द्वैक्रियवाद का प्रतिपादन तं कुत्तियावणे सव्वमथि सव्वप्पतीयमियं ।। किया। मणिनाग नागदेव ने परिषद् के मध्य प्रगट होकर तं कुत्तियावणसुरो नोजीवं देइ जइ, न सो नत्थि । कहा- तुम यह विपरीत प्ररूपणा मत करो। एक बार अह भणइ नत्थि, तो नत्थि, किं व हेउप्पबंधेणं ॥ भगवान् महावीर यहां समवसृत हुए थे। मैंने उनके मुंह तं मग्गिज्जउ मुल्लेण"...."परिसाहि ।। से यह सुना था कि एक समय में एक ही क्रिया का सिरिगुत्तेणं छलुगो छम्मास विकड्ढिऊण वाए जिओ। संवेदन होता है। तुम अपने मिथ्यावाद को छोड़ो। आहरण कुत्तिआवण चोयालसएण पुच्छाणं ॥ मिथ्या प्ररूपणा से तुम्हारा नाश ही होगा। नाग देव ने (विभा २४५१-२४५९; २४८१-२४८९) भय और युक्ति से उसे प्रतिबोध दिया। वह गुरु के पास वीरनिर्वाण के ५४४ वर्ष व्यतीत होने पर अंतरंजिका आया, प्रायश्चित्त लेकर संघ में सम्मिलित हो गया। नगरी में त्रैराशिक मत का प्रवर्तन हआ। ७. रोहगुप्त और त्रैराशिकवाद अंतरंजिका नगरी के बाहर भूतगह नामक चैत्य पंच सया चोयाला तइया सिद्धि गयस्स वीरस्स । था। वहां आचार्य श्रीगुप्त रहते थे। वहां के राजा का पूरिमंतरंजियाए तेरासियादिट्रि उत्पन्ना॥ नाम बलश्री था। रोहगुप्त आचार्य श्रीगुप्त का शिष्य पूरिमंतरंजि भूयगिह बलसिरि सिरिगुत्त रोहगुत्ते य । था। वह दूसरे स्थान पर रहता था। एक दिन वह परिवायपोटसाले घोसणपडिसेहणा वाए ॥ आचार्य को वंदना करने वहां आया। वहां पोटशाल विच्छू य सप्पे..... ॥ मोरी नउली....... ॥ नामक परिव्राजक भी रहता था। उसने वाद-विवाद के जेकण पोट्टसालं छलूओ भणइ गुरुमूलमागंतु । लिए नगर में उद्घोषणा की। रोहगुप्त ने उस चुनौती बायम्मि मए विजिओ सुणह जहा सो सहामझे ॥ को स्वीकार किया और सारी बात आचार्य को सुनाई । For Private & Personal. Use Only Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निह्नव गोष्ठामाहिल और अबद्धिकवाद आचार्य ने कहा - वह परिव्राजक वृश्चिक, सर्प आदि ८. गोष्ठामाहिल और अबद्धिकवाद सात विद्याओं में पारंगत है। मैं तुझे इन विद्याओं की ___पंच सया चुलसीया तइया सिद्धि गयस्स वीरस्स । प्रतिपक्षी-मायूरी, नाकूली आदि सात विद्याएं सिखा तो अबद्धियदिट्टी दसउरनयरे समुप्पन्ना ।। देता हैं, जिनसे तु अजेय होगा। (द्र. मंत्रविद्या) दसउरनयरुच्छघरे अज्जरक्खिय पुस पोटशाल को जीतकर रोहगुप्त गुरु के पास आया गोट्ठामाहिल नवमट्टमेसु पुच्छ य विझस्स ।। और कहा- मैं वाद में विजयी बना हूं। सोऊण कालधम्मं गुरुणो गच्छम्मि पूसमित्तं च । परिव्राजक ने 'राशि दो है' - इस पक्ष की स्थापना ठवियं गुरुणा किल गोट्ठमाहिलो मच्छरियभावो । की । मैंने छछंदर की कटी हुई पंछ का उदाहरण देकर वीसु वसहीए ठिओ छिद्दन्नेसणपरो य स कयाए । तीसरी राशि की स्थापना की। विझस्स सुणइ पासेऽणुभासमाणस्स वक्खाणं ।। गुरु ने कहा-जीतकर तुमने यह क्यों नहीं कहा कि न हि कम्म जीवाओ अवेइ अविभागओ पएसोव्व । 'यह अपसिद्धान्त है'। तीसरी नो-जीवराशि नहीं होती। तदणवगमादमुक्खो जुत्तमिणं तेण वक्खाणं । अतः पुनः परिषद् में जाकर कहो-यह हमारा सिद्धान्त पुट्ठो जहा अबद्धो कंचुइणं कंचुओ समन्नेइ । नहीं है किन्तु मैंने उसे बुद्धि से पराभूत कर, शान्त किया एवं पुटुमबद्धं जीवं कम्म समन्नेइ ।। है। (विभा २५०९-२५१२, २५१६, २५१७) गुरु के समझाने पर वह बोला--अपसिद्धान्त क्या वीरनिर्वाण के ५८४ वर्ष व्यतीत होने पर दशपुर है ? जीव का देश यदि नो-जीव होता हो तो इसमें क्या नगर में अबद्धिकवाद की उत्पत्ति हई। दोष है ? दशपुरनगर के इक्षुगृह में आर्यरक्षित घृतपुष्यमित्र, __ आचार्य के बहुत समझाने पर भी उसने स्वीकार वस्त्रमित्र, दुर्बलिकापुष्यमित्र, गोष्ठामाहिल आदि शिष्यों नहीं किया, तब आचार्य ने सोचा-यह स्वयं नष्ट होकर के साथ विराजमान थे। गण का दायित्व दुर्बलिकापुष्यदूसरे व्यक्तियों को भी नष्ट करेगा। मैं लोगों के समक्ष मित्र को देकर आर्यरक्षित कालधर्म को प्राप्त हुए । राजसभा में इसका निग्रह करूंगा, जिससे लोगों का इस दुर्बलिकापुष्यमित्र को गण का आचार्य जानकर गोष्ठापर विश्वास नहीं रहेगा और मिथ्या तत्त्व का प्रचार माहिल मात्सर्यभाव को प्राप्त हुआ। भी रुक जाएगा। वह पृथक् वसति में स्थित होकर दोषों को खोजने राजा बलश्री के समक्ष चर्चा प्रारम्भ हुई। चर्चा लगा। एक दिन व्याख्यानमण्डली में विन्ध्य द्वारा करते हुए छह मास व्यतीत हो गए। राजा ने कहा- आठवें कर्मप्रवादपूर्व की तथा नवमें प्रत्याख्यान पूर्व की मेरे राज्य का सारा कार्य अव्यवस्थित हो रहा है। यह व्याख्या को सुनकर वह विप्रतिपत्ति को प्राप्त हुआ। वाद कब तक चलेगा? आचार्य ने कहा-मैंने जान- उसने कहा-कर्म का जीव के साथ तादात्म्य सम्बन्ध होने बूझकर इतना समय बिताया है । मैं कल ही इसका निग्रह पर जीव की प्रदेशराशि की तरह कर्मराशि को जीव से करूंगा। अलग नहीं किया जा सकता। कर्म दूर हुए बिना जीव दूसरे दिन प्रातः वाद प्रारम्भ हुआ। आचार्य ने का मोक्ष नहीं होता। इसीलिए यह कथन उचित है कि कहा-यदि तीन राशि वाली बात सही है तो कुत्रिका- सर्प की कञ्चुकी की तरह कर्म जीव का स्पर्श करते हैं, पण में चलें । वहां सभी वस्तुएं उपलब्ध हैं। उससे बद्ध नहीं होते । यह अबद्धिकवाद है। राजा को साथ ले सभी कुत्रिकापण में पहुंचे। वहां अविभागत्थस्स वि से विमोयणं कंचणोवलाणं व । नो-जीव मांगा। वहां के अधिकारी देव ने कहा-नो नाण-किरियाहिं कीरइ मिच्छत्ताईहिं चायाणं ।। जीव की श्रेणी का कोई पदार्थ विश्व में नहीं है। इस (विभा २५३१) प्रकार आचार्य श्रीगुप्त ने १४४ प्रश्नों के द्वारा रोहगुप्त गुरु ने कहा-मिथ्यात्व आदि के द्वारा गृहीत कर्म का निग्रह कर उसे पराजित किया। (आवश्यकनियुक्ति- जीव के साथ एकीभूत हो जाते हैं। उन अविभक्त कर्मों दीषिका में १४४ प्रश्नों का विवरण प्राप्त है।) को ज्ञान और क्रिया के द्वारा विभक्त किया जा सकता Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिवभूति और बोटिक मत है, जैसे कि अग्नि के द्वारा सोने और मिट्टी को पृथक् किया जाता है । सोऊण भन्नमाणं पच्चक्खाणं पुणो नवमपुव्वे । सो जावज्जीवावहियं तिविहं तिविहेण साहूणं || जंप पच्चक्खाणं अपरिमाणाए होइ सेयं तु जेसि तु परिमाणं तं दुट्ठ आससा होइ ॥ ( विभा २५१८, २५१९) साधु के यावज्जीवन तीन करण तीन योग से सावध योग के प्रत्याख्यान होते हैं। नवमें प्रत्याख्यान पूर्व की इस व्याख्या को सुनकर गोष्ठामाहिल विप्रतिपत्ति को प्राप्त हुआ । गोष्ठा माहिल ने कहा - अवधि रहित प्रत्याख्यान ही श्रेयस्कर है । जिस प्रत्याख्यान में अवधि / सीमा होती है वह प्रत्याख्यान आशंसा दोष से दूषित होता है । ६. शिवभूति और बोटिक मत छव्वाससयाई नवुत्तराई सिद्धि गयस्स वीरस्स । तो बोडियाण दिट्ठी रहवीरपुरे समुप्पण्णा ॥ रहवीरपुरनगरं दीवगमुज्जाणमज्जकण्हे य । सिवभूइस्सुवहिम्मि पुच्छा थेराण कहणा य ॥ बोडियविभूईओ बोडियलिंगस्स होइ उप्पत्ती । .... उवहिविभागं सोउं सिवभूई अज्जकण्हगुरुमूले । जिणकप्पियाइयाणं, भणइ गुरुं कीस नेयाणि ॥ जिण कप्पोऽणुचरिज्जइ ? वोच्छिन्नोति भणिए पुणा भणइ । तदसत्तस्सोच्छिज्जउ, बुच्छिज्जइ कि समत्थस्स ? .....सो बेइ परिग्गहओ कसाय मुच्छा भयाईया || गुरुणाऽभिहिओ जइ जं कसायहेऊ परिग्गहो सो ते । तो सो देहो च्चिय ते कसायउप्पत्तिहेउ ति ॥ ( विभा २५५० - २५५५, २५५८) निह्नव १. जमाली २. तिष्यगुप्त ३. आचार्य आषाढ के शिष्य ४. अश्वमित्र ५. गंग ६. रोहगुप्त ७. गोष्ठामा हिल प्रवर्तित मत बहुरतवाद जीवप्रादेशिकवाद अव्यक्तवाद समुच्छेदवाद द्वैयिवाद त्रैराशिकवाद अबद्धिवाद ३९७ निह्नव परिग्गहसब्भावे कसायमुच्छाभयादयो बहू दोसा, अपरिग्रहत्वं च सुते भणितं । एवं सव्वं जथाय निग्गतो । 'तेण य दो सीसा पव्वाविता - कोडिण्णो कोट्टिवीरो य । ततो सीसपसीसाणं परंपरं फासो जातो । ( आवचू १४२८ ) ऋषभपुर श्वेतविका वीर - निर्वाण के ६०९ वर्ष व्यतीत होने पर रथवीरपुर में बोटिक मत की उत्पत्ति हुई । रथवीरपुर के दीपक उद्यान में आचार्य कृष्ण के पास से शिवभूति ने दीक्षा स्वीकार की । शिवभूति ने गुरु जिनकल्पी सम्बन्धी उपधि का विवेचन सुनकर पूछाआजकल इतनी उपधि क्यों रखी जाती है ? आज जिनकल्प को स्वीकार क्यों नहीं किया जा सकता ? मिथिला उल्लुकातीर अंतरंजिका दशपुर गुरु ने कहा- जिनकल्प का विच्छेद हो गया । शिवभूति बोल- विच्छेद अशक्त व्यक्ति के लिए हुआ है, समर्थ व्यक्ति के लिए नहीं । पुनः शिवभूति ने कहा- परिग्रह से ही कषाय, मूर्च्छा और भय की उत्पत्ति होती है । आर्य कृष्ण ने कहा- यदि परिग्रह कषाय का कारण है तब देह भी कषाय की उत्पत्ति का हेतु है, इसलिए उसे भी छोड़ देना चाहिए । निह्नव उत्पत्ति स्थान श्रावस्ती शिवभूति को आचार्य के कथन पर विश्वास नहीं हुआ । उसने सबकुछ छोड़कर वहां से प्रस्थान कर दिया। वह बोटिकमत का प्रवर्तक कहलाया । उसने दो शिष्यों को प्रव्रजित किया— कोडिन्न और कोट्टवीर । शिष्यप्रशिष्य की परंपरा आगे तक चली । काल भ. महावीर के कैवल्य प्राप्ति के १४ वर्ष पश्चात् कैवल्य प्राप्ति के १६ वर्ष पश्चात् वीर निर्वाण सं. २१४ वीर निर्वाण सं. २२० वीर निर्वाण सं. २२८ वीर निर्वाण सं. ५४४ वीर निर्वाण सं. ५८४ Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिकर्म निह्नवों के वादों का स्वरूप बहुरतवाद - कार्य की पूर्णता होने पर उसे पूर्ण कहना । जीवप्रादेशिकवाद - असंख्यातप्रदेशमय जीव का अन्तिम प्रदेश ही जीव है । अव्यक्तवाद कौन साधु ? कौन असाधु ? - निश्चयपूर्वक कुछ भी नहीं कहा जा सकता । सामुच्छेदिकवाद-वस्तु उत्पन्न होते ही सर्वथा विनष्ट हो जाती है । द्वैक्रियवाद - एक समय में दो क्रियाओं की अनुभूति होती है । त्रैराशिकवाद - जीव, अजीव और नोजीव – ये तीन राशियां हैं । अबद्धकवाद - कर्म आत्मा का स्पर्श करते हैं, उससे एकीभूत रहीं होते । (विशेष विवरण के लिए देखें - विशेषावश्यकभाष्य, गाथा २२९९-२६१० 1 ) नील लेश्या - अप्रशस्ततर भावधारा तथा उसकी उत्पत्ति में हेतुभूत नील वर्ण वाले पुद्गल । ( द्र. लेश्या ) नैरयिक - नरकभूमियों में उत्पन्न होने वाले जीव । ( द्र. नरक ) नषेधिको कार्य से निवृत्त होकर उपाश्रय में प्रवेश करते समय 'निसीहिया' शब्द का उच्चारण करना । सामाचारी का एक भेद । ( द्र. सामाचारी ) पंडितमरण-संयमी अवस्था में होने वाली मृत्यु । (द्र. मरण) पद्मलेश्या - प्रशस्ततर भावधारा उत्पत्ति में हेतुभूत पुद्गल । तथा उसकी पीतवर्ण वाले ( द्र. लेश्या) ( द्र. पुद्गल ) परमाणु - अविभाज्य पुद्गल । परिकर्म - दृष्टिवाद का एक विभाग । दृष्टिवाद के अन्यान्य प्रकारों को ग्रहण करने की योग्यता संपादित करने वाली विधि का ज्ञापक विभाग | (द्र दृष्टिवाद ) ३९८ परिग्रह – धन-धान्य आदि पदार्थ । मूर्च्छा । १. परिग्रह के छह प्रकार २. परिग्रह के नौ प्रकार ३. बाह्य आभ्यंतर परिग्रह ४. द्रव्य भाव परिग्रह ५. परिग्रह अनुप्रेक्षा ६. परिग्रह के परिणाम * परिग्रह विरमण * परिग्रह परिमाण व्रत परिग्रह के छह प्रकार १. धान्य २. रत्न ३. स्थावर धान्य के प्रकार १. परिग्रह के छह प्रकार धणाणि रयण थावर दुपय चउप्पय तहेव कुवियं च । ओहेण छव्विहत्थो एसो धीरेहिं पण्णत्तो ॥ (दनि १५३) परिग्रह के छह प्रकार धान्य के चौबीस प्रकार - १. जौ २. गेहूं ३. शालि चावल ४. ब्रीहि ५. साठी चावल ६. कोदो ७. अणुक ८. कांगणी धणाणि चउव्वीसं जव गोधूम सालि वीहि सट्ठीया । कोव अणुया कंगू रालग तिल मुग्ग मासा य ॥ अतसि हिरिमिंथ तिउडग, ९. रालक निष्फावsलिसिंद रायमासा य । इक्खू आसुरि तुवरी कुलत्थ तह धन्नग कलाया ॥ (दनि १५५, १५६ ) १०. तिल ११. मूंग १२. उड़द ( ब्र. महाव्रत) द्र. श्रावक ४. द्विपद ५. चतुष्पद ६. कुप्य । १३. अलसी १४. काला चना १५. तिउडग - खेसारी १६. निष्पाव १७. मोठ १८. राजमाष १९. इक्षु २०. लोबिया २१. अरहर २२. कुलथी २३. धनिया २४. मटर । Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिग्रह के नौ प्रकार रश्न के प्रकार रयणाई चउव्वीसं सुवण्ण तउ तंब रयय लोहाई । सीसग हिरण्ण पासाण वइर मणि मोत्तिय पवालं ।। संखो तिणिसो अगरु चंदणाणि, तह चम्म दंत वाला रत्न के चौबीस प्रकार - १. स्वर्ण वत्थाssमिलाणि कट्ठाणि । गंधा दव्वासहाई च ॥ रत्न ९. वज्र १०. मणि ११. मुक्ता १२. प्रवाल स्थावर के प्रकार ( दनि १५७, १५८ ) २. त्रपु — कलइ ३. ताम्र १५. अगरु ४. चांदी १६. चंदन ५. लोहा १७. वस्त्र ६. सीसा - रांगा ७. हिरण्य - रुपया ८. पाषाण - विजातीय २०. महिष, सिंह आदि का १८. अमिला - ऊनी वस्त्र १९. काष्ठ चर्म २१. दंत - हाथी दांत आदि २२. चमरी गाय आदि के बाल २३. गंध-सौगंधिक द्रव्य २४. द्रव्य - औषधि । १३. शंख १४. तिनिश भूमी घरं तरुगणा तिविहं पुण थावरं मुणेयव्वं । स्थावर के तीन प्रकार - १. भूमि - खेत आदि २. गृह - १. खात (भूमिगृह आदि ) (दनि १५९) २. उच्छ्रित (प्रासाद आदि ) ३. खातोच्छ्रित-भूमिगृह के ऊपर निर्मित प्रासाद ३. तरुगण – नारियल, आम्र आदि के बगीचे । द्विपद के प्रकार .....चक्कारबद्ध माणुस्स दुविहं पुण होइ दुपयं तु ॥ ( दनि ९५९) द्विपद के दो प्रकार१. चकारबद्ध - दो पट्टियों से चलने वाली गाड़ी, रथ आदि । २. मनुष्य - दास, भूतक आदि । परिग्रह दुपदं दासीदाससुगसारिगादि । अपदं वाहणरुक्खादि । (आवचू २ पृ २९२) दासी, दास, शुक, सारिका आदि द्विपद हैं । वाहन, वृक्ष आदि अपद हैं। चतुष्पद के प्रकार ३९९ गावी महिसी उट्टी अय एलब आस आसतरगा य । घोडग गद्दह हत्थी चउप्पयं होति दसहा उ ॥ ( दनि १६० ) के दस प्रकार - चतुष्पद १. गौ जाति २. महिष जाति ३. उष्ट्र जाति ४. अज जाति ५. भेड़ जाति कथ्य के प्रकार ६. अश्व जाति ( उत्तम अश्व ) ७. अश्वतर जाति ( खच्चर) ८. घोटक जाति ९. गर्दभ जाति १०. हस्ति जाति । विहोवकरणं णेगविहं कुप्पलक्खणं होइ ।'' कुवियं नाम घडघडिउचणियं सयणासणभायणादि गिहवित्थारो । (दनि ९६१ जिचू पृ २१३) कुवियं-घरोवक्खरकणगपारसलोहादीह कडा हगादि( आवचू २ पृ २९२) कुप्य का अर्थ है - घट, घटी, शयन, आसन, पात्र आदि गृहोपकरण । णाणाविहं । ....... चउसट्ठिविहो विभागेणं ।। (दनि ९५२) धन्नाणि चउव्वीसं, रयणाणि चउवीसं, थावरं तिविहं, दुपयं दुविहं, चउप्पयं दसविहं, कुवियं अणेगविहं, तं च अणेगविहमवि एवं चेव गणिज्जति, सव्वे ते भेया पिंडिया चउसट्ठी भवंति । (जिचू पृ २११ ) चौबीस प्रकार के धान्य, चौबीस प्रकार के रत्न, तीन प्रकार के स्थावर, दो प्रकार के द्विपद, दस प्रकार के चतुष्पद और कुप्य - इस प्रकार अर्थ के कुल चौंसठ प्रकार हैं । २. परिग्रह के नौ प्रकार परिग्गहे दुविहे – सचित्ते अचित्ते य। विभागतो पुण गविहो - धणधन्नखेत्तवत्थुरुप्प सुत्रण कुवितदुपदादिभेदेण । ( आवचू २ पृ २९२ ) परिग्रह के दो प्रकार - १. सचित्त - द्विपद, चतुष्पद आदि । Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिग्रह ४०० परिग्रह के परिणाम १४०) स्वर्ण, रजत आदि दस २. अचित्त-रत्न, वस्त्र आदि। अथवा परिग्रह के नौ प्रकार हैं धन, धान्य, क्षेत्र, वास्तु, रुप्य, स्वर्ण, कुप्य, द्विपद और चतुष्पद । धणं-भंडं । तं चउविहं--गणिमं धरिमं मेज परिछज्ज । तत्थ गणिमं पूगफलादि। धरिमं मंजिष्ठादि । मेज्जं लक्खायततेल्लादि। पारिच्छेज्जं परीक्ष्य मूलतः परिच्छिज्जते तच्च मणिपद्महीरकादि । (आवचू २ पृ २९२) धन के चार प्रकार१. गणिम-गिनने योग्य । सुपारी, नारियल __ आदि । २. धरिम तोलने योग्य । मजीठ आदि । ३. मेय-मापने योग्य । लक्षपाक तैल, घृत आदि। ४. परिच्छेद-परीक्षण करने योग्य । मणि, पद्म, हीरक आदि । ३. बाह्य-आभ्यंतर परिग्रह दुविहो य होइ गंथो बज्झो अभितरो य नायव्वो। अंतो य चउदसविहो दसहा पुण बाहिरो गंथो । (उनि २४०) ग्रन्थ (परिग्रह) के दो प्रकार हैं-बाह्य और आभ्यंतर । बाह्य ग्रन्थ के दस प्रकार और आभ्यंतर ग्रन्थ के चौदह प्रकार हैं। बाह्यग्रन्थ के प्रकार खेत्तं वत्थू धणधन्नसंचओ मित्तनाइसंजोगो। जाणसयणासणाणि अदासीदासं च कूवियं च ।। (उनि २४२) बाह्यग्रन्थ के दस प्रकार--- १. क्षेत्र ६. यान २. वास्तु ७. शयन ३. धन ८, आसन ४. धान्य ९. दास-दासी ५. ज्ञातिजनों का संयोग १०. कुप्य । आभ्यंतर प्रन्थ के प्रकार कोहो माणो माया लोभे पिज्जे तहेव दोसे य।। मिच्छत्त वेअ अरइ रइ हास सोगे भय दुग्गुंछा ।। (उनि २४१) आभ्यन्तर ग्रन्थ के चौदह प्रकार१. क्रोध ८. वेद २. मान ९. अरति ३. माया १०. रति ४. लोभ ११. हास्य ५. राग १२. शोक १३. भय ७. मिथ्यात्व १४. जुगुप्सा । ४. द्रव्य-भाव परिग्रह ......."दव्वत्थो हिरण्णादी। भावत्थो दुविहो - पसत्थो अपसत्थो य । पसत्थो नाण-दसण-चरित्ताणि । अप्पसत्यो अण्णाण-अविरतिमिच्छत्ताणि। स्वर्ण, रजत आदि द्रव्य अर्थ कहलाते हैं। भाव अर्थ के दो प्रकार हैं१. प्रशस्त-ज्ञान, दर्शन, चारित्र । २. अप्रस्त -अज्ञान, अविरति, मिथ्यात्व । ५. परिग्रह अनुप्रेक्षा जह अप्पो लोभो जध जध अत्पो परिग्गहारंभो । तह तह सुहं पवड्ढति धम्मस्स य होति संसिद्धी॥ धन्ना परिग्गहं उज्झिऊण मूलमिह सव्वपावाणं । धम्मचरणं पवन्ना मणण एवं विचितेज्जा ॥ (आवचू २ पृ २९४) जैसे-जैसे लोभ, परिग्रह और आरम्भ अल्प होते हैं, वैसे-वैसे सूख बढ़ता है तथा धर्म की संसिद्धि होती है। समस्त पापों के मूल परिग्रह को छोड़कर जो धर्म का आचरण करते हैं, वे धन्य हैं। ६. परिग्रह के परिणाम मोहाययणं मयकामवद्धणो जणियचित्तसंतावो। आरम्भकलहहेऊ, दुक्खाण परिग्गहो मूलं ।। (उसुव प ८३) परिग्रह मोह का आयतन, अहंकार और कामवासना को बढ़ाने वाला, चित्त में संताप पैदा करने वाला, हिंसा और कलह का हेतु तथा दुःखों का मूल है । वित्तेण त णं न लभे पमत्ते, इममि लोए अदुवा फ्रत्था । दीवप्पणठे व अणंतमोहे, नेआउयं दद्रुमदट्ठमेव ।। (उ ४/५) | Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग्य अयोग्य श्रोता ४०१ प्रमत्त मनुष्य इस लोक में अथवा परलोक में धन से त्राण नहीं पाता । अन्धेरी गुफा में जिसका दीप बुझ गया हो, उसकी भांति अनन्त मोह वाला प्राणी पार ले जाने वाले मार्ग को देखकर भी नहीं देखता । परिवर्तना - परिचित श्रुत को लिए उसको बार-बार स्वाध्याय का एक भेद । ( द्र. स्वाध्याय) श्रोताओं का परिषद् - जिज्ञासुओं अथवा समुदाय । १. परिषद् के प्रकार २. वाचनायोग्य परिषद स्थिर रखने के दोहराना । ३. योग्य-अयोग्य श्रोता : मुद्गशैल आदि दृष्टांत ४. प्रत्याख्यान और श्रुतग्रहण योग्य परिषद् * अयोग्य को वाचना देने से हानि * तीर्थंकरों की परिषद् (द्र. शिक्षा) ( द्र. समवसरण ) १. परिषद् के प्रकार सा समासओ तिविहा पण्णत्ता, तं जहा - जाणिया, अजाणिया, दुव्वियड्ढा । खीरमिव जहा हंसा जे घुट्टति इह गुरुगुणसमिद्धा । दोसे अविवज्जंती तं जाणसु जाणिअं परिसं ॥ जा होइ पगइमहुरा मियछावयसीहकुक्कुडयभूआ । रयणमिव असंठविआ अजाणिआ सा भवे परिसा || न कत्थइ निम्माओ न य पुच्छइ परिभवस्स दोसेणं । वत्थिन्व वायपुण्णो फुट्टइ गामिल्लयविअड्ढो || ( नन्दीमवु प ६३, ६४) परिषद् के तीन प्रकार --- १. ज्ञा परिषद् जो हंस की तरह क्षीर-नीर निर्णायक बुद्धि से सम्पन्न है, महान् गुणों से समृद्ध है, दोषों का परिहार करने वाली है, वह ज्ञा परिषद् है । २. अज्ञा परिषद् जो प्रकृति से मधुर भद्र है, जिसमें मृगशावक, सिंहशावक और कुक्कुटशावक जैसा भोलापन है, जो असंस्कारित जात्यरत्नों की तरह अन्तर्गुण से समृद्ध है, वह अज्ञा परिषद् है । परिषद् ३. दुविदग्धा परिषद् जो नैपुण्य के अहं के कारण किसी भी विषय को कहने में समर्थ नहीं होती, अपने पराभव के भय से गुरु से प्रश्न नहीं पूछती हवा से भरी हुई मशक की तरह जो अपने ज्ञान के अहं में फूली नहीं समाती, वह दुर्विदग्धा परिषद् है । २. वाचनायोग्य परिषद् नाणपरूवणणं अरिहस्त देज्जति, णो अरिहस्स देज्जइ । ( नन्दीच पृ १२) तिसृणां पर्षद मध्ये आद्ये द्वे पर्षदावनुयोगयोग्ये, तृतीया त्वयोग्या | आये एव द्वे अधिकृत्यानुयोगः प्रारंभणीयो, न तु दुर्विदग्धां मा भूदाचार्यस्य निष्फलः परि० ( नन्दीमवृप ६४ ) श्रमः । से योग्य शिष्य को वाचना नहीं । तीन परिषदों में परिषदें वाचना के योग्य हैं। वाचना के अयोग्य है । इसे का परिश्रम व्यर्थ चला जाता है । ३. योग्य-अयोग्य श्रोता दी जाती है, अयोग्य को प्रथम दो - ज्ञा और अज्ञा तीसरी 'दुर्विदग्धा' परिषद् वाचना देने वाले आचार्य सेल घण कुडग चालणि परिपूणग हंस महिस मेसे य । मसग जलूग विराली जाहग गो भेरि आभीरी ॥ ( नन्दी गाथा ४४ ) मुद्गल, घन, घट, चालनी, परिपूणक ( बया का घोंसला ), हंस, महिष, मेष, मशक, जलौका, बिल्ली, जाहक (झाबा), गौ, भेरी और आभीरी - इस प्रकार श्रोता अनेक प्रकार के होते हैं । मुद्गल और घन का दृष्टांत उल्लेऊण न सक्को गज्जइ इय मुग्गसेलओऽरन्ने । तं संवट्टयमे हो गंतुं तस्सोर्पार पडइ || रविउत्ति ठिओ मेहो, उल्लोऽम्हि न वत्ति गज्जइ य सेलो । सेलसमं गाहिस्सं निव्विज्जइ गाहगो एवं ॥ वुट्ठे वि दोणमेहे न कण्हभोमाओ लोठए उदयं । गहण - धरणासमत्थे इय देयमच्छित्तिकारिम्मि ॥ ( विभा १४५५, १४५६, १४५८ ) एक जंगल में पर्वत के समीपवर्ती प्रदेश में मुद्गशैल-गोल और चिकना पाषाण खंड था । उसने Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिषद् ४०२ महामेघ संवर्तक से कहा- मुझे कोई भी जल से आर्द्र नहीं कर सकता । उसकी चुनौती स्वीकार कर संवर्तक मेघ सात अहोरात्र तक निरन्तर बरसता रहा । 'अब मुद्गशैल खंड-खंड हो गया होगा' - यह सोच मेघ ने बरसना बन्द कर दिया, किन्तु देखने पर पता चला कि वह तो तिलतुषमात्र भी खंडित नहीं हुआ है और गीला भी नहीं हुआ है। मुद्गशैल की श्रेणी का शिष्य अथवा श्रोता आचार्य से एक अक्षर का ज्ञान भी ग्रहण नहीं कर सकता । आचार्य के सैकड़ों वचनों से भी उसके चित्त का भेदन नहीं हो सकता, प्रत्युत आचार्य को खेदखिन्न ही होना पड़ता है । इसके विपरीत जो शिष्य या श्रोता कृष्णभूमि के समान होता है, वह गुरु के एक भी वचन को व्यर्थ नहीं जाने देता। सूत्र और अर्थ के ग्रहण-धारण में कुशल वह शिष्य श्रुतपरम्परा को अविच्छिन्न रखता है । कृष्णभूमि इतनी ग्रहणशील होती है कि वह द्रोणमेघ की एक भी बूंद को व्यर्थ नहीं जाने देती सम्पूर्ण को सोख लेती है । जिसकी धारा से बड़ी कलशी भर जाती है, वह द्रोणमेघ कहलाता है । घटका ..... छड्डुकुड - भिन्न- खंडे सगले य परूवणा तेसिं ॥ ( विभा १४६२ ) चार प्रकार के घड़े होते हैं १. सच्छिद्र कुट - जिस घड़े के तल में छिद्र होता है, उसमें जितना जल डाला जाता है, सारा का सारा निकल जाता है । २. भिन्न कुट - जो घड़ा पेट से फूटा हुआ, दरारयुक्त होता है, उसमें डाला हुआ जल कुछ सुरक्षित रह जाता है और शेष बह जाता है । ३. खंडित कुट - जो घड़ा किनारों से फूटा हुआ होता है, उसमें काफी जल बचा रहता है, थोड़ा सा बह जाता है। ४. सकल कुट - जो घट परिपूर्ण होता है, उसमें डाला गया जल सारा सुरक्षित रहता है । इसी प्रकार चार प्रकार के श्रोता या शिष्य होते हैं । प्रथम कोटि का शिष्य इस कान से सुनता है, उस कान से निकाल देता है । दूसरी कोटि का शिष्य थोड़ा ग्रहण और अधिक को विस्मृत कर देता है। तीसरी करता महिष और मेष का दृष्टांत कोटि का शिष्य थोड़ा भूलता है और अधिक याद रखता है । चौथी कोटि का शिष्य अक्षर मात्रा और बिन्दु की भी विस्मृति नहीं होने देता, सम्पूर्ण श्रुत को ग्रहण - धारण करने में समर्थ होता है । चालनी और तापसपात्र का दृष्टांत एगेण विसइ बीएण नीइ कन्नेण चालणी आह । ..." तावसखउरकठिणयं चालणपडिवक्खो न सवइ दवं पि । " ( विभा १४६४, १४६५ ) चालनी जब तक जल में रहती है, भरी हुई रहती है, बाहर निकालते ही पूरी खाली हो कोटि का शिष्य गुरु के एक भी वचन डाला गया पानी टिकता नहीं, निकल जाती है । उसमें को अवधारित नहीं जाता है । इस कर पाता । तापसपात्र ( खउरकठिनक ) उसमें डाला गया जल किचित् भी इस कोटि का शिष्य आचार्य के प्रत्येक धारित कर लेता है । परिपूणक और हंस का दृष्टांत ..... परिपूणगम्मि उ गुणा गलंति दोसा य चिट्ठति ॥ अंबत्तणेण जीहाए कूचिया होइ खीरमुदगम्मि । हंसो मुत्तूण जलं आवियइ पयं तह सुसीसो ॥ ( विभा १४६५, १४६७) परिपूणक (सुघरी — बया के घोंसले ) में घृत आदि को छाना जाता है तो कचरा उसमें रह जाता है, सार पदार्थ नीचे भर जाता है । इस कोटि का शिष्य अपनी अपात्रता के कारण श्रुत में से दोषों को ग्रहण करता है, गुणों को छोड़ देता है । हंस की जीभ में अम्लता होती है। वह ज्यों ही अपनी चोंच दुग्धपात्र में डालता है, अम्लता के कारण दूध फट जाता है, पानी एक ओर हो जाता है और दूध छने के रूप में एक ओर हो जाता है । वह पानी को छोड़कर छैना खा लेता है । इस कोटि के शिष्य दोषों को छोड़, गुणों को ग्रहण कर लेते हैं । अत्यन्त सघन होता है, स्रवित नहीं होता । वचन को अव महिष और मेष का दृष्टांत समवि न पियइ महिसो न य जूहं पियइ लोडियं उदगं । विग्गहविगहाहि तहा अथक्कपुच्छाहि य कुसीसो ॥ Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिषद् भेरी का दृष्टांत ४०३ अवि गोपयम्मि वि पिवे सुढिओ तणुयत्तणेण तुंडस्स। जाहक (सैला) पात्र में से दूध पीते समय थोड़ान करेइ कलुस तोयं मेसो एवं सुसीसो वि ॥ थोड़ा पीकर उसके किनारे चाटता रहता है, इससे दूध (विभा १४६८, १४६९) की एक भी बंद नीचे नहीं गिरती। इसी प्रकार मतिमान महिष जब किसी जलाशय में पानी पीने के लिए शिष्य गुरु के पास श्रुत ग्रहण कर पहले उसे परिचित उतरता है तब वह आलोडन-विलोडन कर सारे पानी और स्थिर करता है, फिर नया श्रुत ग्रहण करता है। को कलुषित कर देता है। उस पानी को न तो वह स्वयं वह सम्पर्ण श्रतग्रहण पर्यंत यही क्रम चाल रखता है और पी सकता है और न दूसरे महिष ही पी सकते हैं। इसी गुरु को भी क्लान्त नहीं करता। प्रकार कुशिष्य व्याख्यामंडली में बैठकर विग्रह-विकथा करता है, असंबद्ध प्रश्न करता है, इससे वह स्वयं भी लाभ गो का दृष्टात से वंचित रहता है, दूसरों के भी बाधा उपस्थित करता है। अन्नो दोज्झिइ कल्ले निरत्थियं किं वहामि से चारि । मेष थोड़े से जल वाले जलाशय में, एक किनारे से चउचरणगवी उ मया अवन्न-हाणी य बडुयाणं ॥ धीरे-धीरे जल पीता है, पानी को कलुषित नहीं करता। मा मे होज्ज अवण्णो गोवज्झा वा पुणो वि न दविज्जा। इसी प्रकार सुशिष्य शांतभाव से गुरु के पास श्रुत ग्रहण वयमवि दोज्झामो पुणो अणुग्गहो अन्नदुद्धे वि ।। करता है और परिषद् में किसी प्रकार की बाधा उप (विभा १४७३, १४७४) स्थित नहीं करता। चार ब्राह्मणों को गाय दान में मिली। चारों ने मशक और जलौका का दृष्टांत बारी-बारी से गाय की रक्षा का भार लिया। पहले मसउ व्व तुदं जच्चाइएहिं निच्छुब्भए कुसीसो वि । ब्राह्मण ने गाय को दुहा और चारा डालते समय सोचा जलुगा व अदूमतो पिबइ सुसीसो वि सूयनाणं ॥ -'कल गाय को ले जाने वाला ब्राह्मण चारा डालेगा (विभा १४७०) ही। मैं नहीं डालूंगा तो क्या होगा ? चारों ने ऐसा ही मच्छर शरीर को व्यथित करता है, तब उसे उड़ाने सोचा। क्रम चलता रहा और चारे के अभाव में गाय साचा । क्रम चलता रहा आर चार क अ का प्रयत्न किया जाता है। इसी प्रकार कशिष्य जाति मर गई। चारों का लोगों में अवर्णवाद हुआ और गोआदि से संबंधित दोष उद्घाटित कर अपने गरु को हत्या का पाप लगा। व्यथित करता है, तब उसे मण्डली से निष्काशित कर दूसरे चार ब्राह्मणों को गाय दान में मिली । उन दिया जाता है। चारों ने गाय की सार-संभाल की और लम्बे समय तक जलौका शरीर से खून पीती है, पर उसे पीड़ित उसके दूध का लाभ उठाते रहे। वे गोहत्या के पाप से नहीं करती। इसी प्रकार सुशिष्य गुरु को व्यथित किये बच गए और लोगों में उनकी प्रशंसा हुई। बिना श्रुतज्ञान का पान करता है। ___इसी प्रकार अयोग्य शिष्य प्रथम चार ब्राह्मणों की मार्जारी और जाहक का दृष्टांत भांति सूत्रार्थ के लाभ से वंचित रह जाते हैं और अप कीर्ति के पात्र बनते हैं। योग्य शिष्य दूसरे चार ब्राह्मणों छड्डे उ भूमीए खीरं जह पियइ दुमज्जारी । की भांति गुरु की सम्यग् परिचर्या कर सूत्रार्थ से सम्पन्न परिसुट्ठियाण पासे सिक्खइ एवं विणयभंसी । हो जाते हैं। पाउं थोवं थोवं खीरं पासाईं जाहगो लिहइ । एमेव जियं काउं पुच्छइ मइमं न खेएइ । भेरी का दृष्टांत (विभा १४७१, १४७२) जो सीसो सुत्तत्थं चंदणकथं व परमयाईहिं । दुष्ट बिल्ली किसी पात्र में से सीधा दूध नहीं पीती। मीसेइ गलियमहवा सिक्खियमाणेण स न जोग्गो।। वह पहले उसे नीचे गिराती है, फिर पीती है। इसी (विभा १४३८) प्रकार कुशिष्य अपनी अस्मिता के कारण गुरु के पास वासुदेव के पास गोशीर्षचंदन की एक भेरी थी। वाचना नहीं लेता, किंतु वाचनापरिषद् की सम्पन्नता के उसको छह महीनों में एक बार बजाया जाता। जिसपश्चात् अन्य शिष्य से श्रुत ग्रहण करता है। जिसको उसका शब्द सुनाई देता, उसका उपद्रव मिट Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिषद् ४०४ परीत जाता । एक बार भेरी-रक्षक ने धन के लोभ से भेरी के ताए ण कहेतव्वं, ण केवलं पच्चक्खाणं सव्वमवि आवअंश को बेच डाला और दूसरे चंदन के टुकड़े से उस पर स्सयं सव्वमवि सूयणाणं । (आवहाव २५२४८) पेबंद लगादी। अब उस भेरी का शब्द अप्रभावी हो परिषद् (श्रोता) के अनेक प्रकार हैं-उपस्थितगया। अनुपस्थित, सम्यग् उपस्थित-मिथ्या उपस्थित, भावित___इसी प्रकार कुशिष्य सूत्र और अर्थ को परमत के अभावित, विनीत-अविनीत, व्याक्षिप्त-अव्याक्षिप्त, अर्थों से मिश्रित कर उसे विकृत कर डालता है । सुशिष्य उपयुक्त-अनुपयुक्त । इनको परस्पर संयुक्त-वियुक्त करने अनुयोग को यथावत् सुरक्षित रखता है। पर चौसठ विकल्प बनते हैं। उनमें पहला विकल्प हैआभीरी का दृष्टांत उपस्थित, सम्यक उपस्थित, भावित, विनीत, अव्यामुक्कं तया अगहिए दुपरिग्गहियं कयं तया कलहो । क्षिप्त और उपयुक्त (दत्तचित्त)--यह प्रथम परिषद् ही पिट्टण-अइचिरविक्कय गएसू चोरा य ऊणग्घे ॥ प्रत्याख्यान, आवश्यक सूत्र अथवा सम्पूर्ण श्रुतज्ञान को मा निण्हव इय दाउं उवजूज्जिय देहि किं विचितेसि । ग्रहण करने के योग्य है, शेष तिरसठ प्रकार की परिषद वच्चामेलियदाणे किलिस्ससी तं च हं चेव ।। अयाग्य है। __(विभा १४८०, १४८१) परिहारविशुद्धि-परिहार' तप की विशिष्ट अहीर पति-पत्नी घी बेचने नगर में गये । साधना का उपक्रम । चारित्र असावधानी के कारण घी का एक घड़ा फूट गया। अहीर का एक प्रकार। दंपती में कलह हुआ। पति-पत्नी एक दूसरे पर आरोप (द्र. चारित्र) प्रत्यारोप लगाने लगे। घी की विक्रय बेला बीत गई। परीत–सीमाकरण। घी को कम मूल्य में बेचकर जब वे घर लौटने लगे तब रात्रि में चोरों ने उन्हें लूट लिया। परीत्ता:-प्रत्येक शरीरिणः परीत्तीकृतसंसारा वा । - इसी प्रकार कुशिष्य अपने गुरु पर सूत्रार्थ विषयक (आवमवृ प ४२) मिथ्या आरोप लगाता है और पूछने पर कहता है-गुरु परीत के दो अर्थ हैं-प्रत्येक शरीरी और परीत ने मुझे इसका अर्थ यही बताया था। इस स्थिति में गुरु संसारी । और शिष्य-दोनों क्लेश पाते हैं। परीत संसारी इसके प्रतिपक्ष में घी का घड़ा फूट जाने पर अहीर जिणवयणे अणरत्ता, जिणवयणं जे करेंति भावेण । और अहीरी ने अपना ही प्रमाद माना। कलह नहीं हुआ। अमला असंकिलिट्ठा, ते होंति परित्तसंसारी ।। समय पर घी बिक गया । बहुत लाभ हुआ। (उ ३६/२६०) इसी प्रकार गुरु-शिष्य एक दूसरे पर आरोप-प्रत्या जो जिनवचन में अनुरक्त हैं तथा जिनवचनों का रोपन कर, एक दूसरे के प्रमाद की अवगणना करते भावपूर्वक आचरण करते हैं, वे निर्मल और असंक्लिष्ट हए बर्ताव करते हैं तो विवाद नहीं होता, क्लेश नहीं होकर परीत-संसारी (अल्प जन्म-मरण वाले) हो जाते होता। ४. प्रत्याख्यान और श्रुतग्रहण योग्य परिषद् परितः-समस्तदेवादिभावाल्पतापादनेन समन्तात् सोउं उवट्ठियाए विणीयवक्खित्ततदुवउत्ताए। खण्डितः परिमित इति यावत् स चासौ संसारश्च स विद्यते एवं विहपरिसाए पच्चक्खाणं कहेयव्वं ॥ येषां तेऽमी परीतसंसारिणः--कतिपयभवाभ्यन्तरमूक्ति(आवनि १६१८) भाजः । (उशावृ प ७०८) उवठियसम्मोवट्ठियभावितविणया य होइ वक्खित्ता । जिसने देव, मनुष्य आदि भवों को सीमित कर दिया उवउत्तिगा य जोग्गा सेस अजोगातो तेवट्रि॥ है, वह परीत संसारी कहलाता है। कतिपय भवग्रहण के एतं पच्चक्खाणं पढमपरिसाए कहेज्जति, तव्वतिरि- पश्चात् वह मुक्त हो जाता है। Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुधा परीषह अपरीत संसारी दप्युपरिसंसारा वा । अपरीतास्तु साधारणशरीरिणोऽपार्द्ध पुद्गलपरावर्त्ता( आम प ४२) साधारणशरीरी ( अनन्तकायिक वनस्पति ) जीव अपरीत कहलाते हैं । अथवा जिनका संसार - भवभ्रमण अपार्ध पुद्गलपरावर्त्त से भी अधिक अवशेष है, वे जीव अपरीत हैं । १. परीषह का निर्वाचन २. परीषह का प्रयोजन ३. परीषह के प्रकार ४. परीषह और कर्म विपाक ५. परीषह और गुणस्थान १. दिगिछापरीस २. पिवासापरीस हे ३. सीयपरीसहे ४. उणिपरीस ५. दंसमयपरी सहे ६. अचलपरी सहे ७. अरइपरी सहे ८. इत्थी परीसहे परीषह - मुनि जीवन में आने वाले क्षुधा आदि ९. चरियापरीसहे १०. निसीहियापरीसहे ११. सेज्जा१२. अक्कोस परीसहे १३. वहपरी सहे १६. रोग कष्ट । परीस हे १४. जायणापरी सहे १५. अलाभपरीसहे परीसहे १७. तणफासपसहे १९. सक्कारपुरक्कारपरी सहे १८. जलपरी सहे २०. पन्नापरीस हे २१. अन्नाणपरीसहे २२. दंसणपरीसहे । ( उ २ / सूत्र ३) ६. एक साथ कितने परीषह ? ७. परोषहप्रविभक्ति अध्ययन का उत्स ८. परीषह और नय - निक्षेप ० परीषह - कालमान • द्रव्य परीषह : भाव परीषह ४०५ १. परीषह का निर्वचन परीति - समन्तात् स्वहेतुभिरुदीरिता मार्गाच्यवननिर्जरार्थं साध्वादिभिः सह्यन्त इति परीषहाः । ( उशावृप ७२) जो कष्ट मार्ग से अविच्युति और निर्जरा के लिए साधु-साध्वियों द्वारा सहे जाते हैं, वे परीषह हैं । क्षुधा आदि परीषह अपने-अपने हेतुओं से उदीरित होते हैं । २. परीषह का प्रयोजन परिसोढव्वा जइणा मग्गा विच्चुइ- विणिज्जराहेऊ । जुत्ता परीसहा ते खुहादओ होंति बावीसं ।। ( विभा ३००४) च्युत न होने के परीषह शेष बीस परीषह निर्जरा के लिए होते हैं । तत्र मार्गाच्यवनार्थं दर्शनपरीषहः प्रज्ञापरीषहश्च शेषा विंशतिर्निर्जरार्थम् । प्रवचनसारोद्धार पत्र १९२ ) ३. परीषह के प्रकार परीषह सहने के दो प्रयोजन हैं१. मार्गाच्यवन - स्वीकृत मार्ग से लिए । २. निर्जरा -- कर्मों को क्षीण करने के लिए । ( बाईस परीषहों में दर्शन - परीषह और प्रज्ञा - परीषह — ये दो परीषह मार्ग से अच्यवन में सहायक होते हैं और परोषह बाईस हैं १. क्षुधा परीषह २. पिपासा परीषह ३. शीत परीषह ४. उष्ण परीषह ५. दंशमशक परीषह ६. अचेल परीषह ७. अरति परीषह ८. स्त्री परीषह ९. चर्या परीषह १०. निषद्या परीषह ११. शय्या परीषह १३. वध परीषह १४. याचना परीषह १५. अलाभ परीषह १६. रोग परीषह १७. तृण-स्पर्श परीषह १२. आक्रोश परीषह १८. जल्ल परीषह १९. सत्कार- पुरस्कार परीषह २०. प्रज्ञा परीषह २१. अज्ञान परीषह २२. दर्शन परीषह । परीषह के दो विभाग हैं wh १. शीत- मन्द परिणाम वाले । शीत परीषह और सत्कार परीषद् - ये दो अनुकूल परीबह हैं । २. उष्ण - तीव्र परिणाम वाले । शेष बीस प्रतिकूल परीषह हैं । (देखें आचारांगनिर्युक्ति २०२, २०३) क्षुधा परीषह दिगिछापरिगए देहे, तवस्सी भिक्खु थामव । न छिदे न छिदावए, न पए न पयावए ॥ कालीपव्वंग संकासे, किसे धमणिसंतए । मायने असणपाणस्स, अदीणमणसो चरे ॥ ( उ २२, ३) देह में क्षुधा व्याप्त होने पर तपस्वी और प्राणवान Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परीषह ४.६ अचेल परीषह भिक्ष फल आदि का छेदन न करे, न कराए। उन्हें न शीत से प्रताड़ित होने पर मुनि ऐसा न सोचे-- पकाए और न पकवाए। मेरे पास शीत-निवारक घर आदि नहीं हैं और छवित्राण शरीर के अंग भूख से सूखकर काकजंघा नामक (वस्त्र, कम्बल आदि) भी नहीं हैं, इसलिए मैं अग्नि का तण जैसे दुर्बल हो जाएं, शरीर कृश हो जाए, धमनियों __ सेवन करूं। का ढांचा भर रह जाए तो भी आहार-पानी की मर्यादा उष्ण परीषह। को जानने वाला साधु अदीनभाव से विहरण करे। उसिणपरियावेणं, परिदाहेण तज्जिए । दिगिंछा -देशीपरिभाषया बुभुक्षा, सैवात्यन्तव्या- घिसु वा परियावेणं, सायं नो परिदेवए। कुलताहेतुरप्यसंयमभीरुतया आहारपाकप्रासुकानेषणीय उण्हाहितत्ते मेहावी, सिणाणं नो वि पत्थए । गायं नो परिसिंचेज्जा, न वीएज्जा य अप्पयं ।। भुक्तिवाञ्छाविनिवर्त्तनेन परि-समन्तात् सह्यत इति परीषहो दिगिंछापरीषहः। (उसुवृ प १७) (उ २१८,९) गर्म धलि आदि के परिताप, स्वेद, मैल या प्यास क्षुधा अत्यन्त व्याकुलता का हेतु है, फिर भी मुनि के दाह अथवा ग्रीष्मकालीन सूर्य के परिताप से अत्यन्त असंयमभीरु होता है, अतः वह आहार का पचन-पाचन, पीड़ित होने पर भी मुनि सुख के लिए विलाप न करेअनेषणीय आहार आदि की इच्छा का विनिवर्त्तन कर आकुल-व्याकुल न बने । गर्मी से अभितप्त होने पर भी भूख को सहन करता है-यह क्षुधा परीषह है । मेधावी मुनि स्नान की इच्छा न करे। शरीर को गीला पिपासा परीषह न करे । पंखे से शरीर पर हवा न ले। तओ पुट्ठो पिवासाए, दोगुंछी लज्जसंजए । दंशमशक परीषह सीओदगं न सेविज्जा, वियडस्सेसणं चरे ॥ पुट्रो य दंसमसएहिं, समरेव महामुणी। छिन्नावाएसु पंथेसु, आउरे सुपिवासिए । नागो संगामसीसे वा, सूरो अभिहणे परं ।। परिसुक्कमुहेऽदीणे, तं तितिक्खे परीसहं ।। न संतसे न वारेज्जा, मणं पि न पओसए । (उ २।४,५) उवेहे न हणे पाणे, भंजते मंससोणियं ।। अहिंसक या करुणाशील, लज्जावान् संयमी साधु (उ २।१०,११) प्यास से पीड़ित होने पर सचित्त पानी का सेवन न करे, डांस और मच्छरों का उपद्रव होने पर भी महामुनि किन्तु प्रासुक जल की एषणा करे । निर्जन मार्ग में जाते समभाव में रहे, क्रोध आदि का वैसे ही दमन करे जैसे समय प्यास से अत्यन्त आकुल हो जाने पर, मुंह सूख युद्ध के अग्रभाग में रहा हुआ शूर हाथी बाणों को नहीं जाने पर भी साधु अदीनभाव से प्यास के परीषह को गिनता हुआ शत्रुओं का हनन करता है। सहन करे। भिक्षु उन दंशमशकों से संत्रस्त न हो, उन्हें हटाए शीत परीषह नहीं। मन में भी उनके प्रति द्वेष न लाए । मांस और रक्त खाने-पीने पर भी उनकी उपेक्षा करे, किन्तु उनका चरंतं विरयं लहं, सीयं फूसइ एगया । हनन न करे । नाइवेलं मुणी गच्छे, सोच्चाणं जिणसासणं ॥ न मे निवारणं अत्थि, छवित्ताणं न विज्जई । अचेल परीषह अहं तु अग्गि सेवामि, इइ भिक्ख न चितए । परिजुण्णे हिं वत्थेहिं, होक्खामि त्ति अचेलए । (उ. २।६,७) अदुवा सचेलए होक्खं, इइ भिक्खू न चितए । विचरते हुए विरत और रूक्ष शरीर वाले साधु को एगया चेलए होइ, सचेले यावि एगया । शीत ऋतु में सर्दी सताती है । फिर भी वह जिन- एयं धम्महियं नच्चा, नाणी नो परिदेवए। शासन को सुनकर (आगम के उपदेश को ध्यान में (उ २।१२,१३) रखकर) स्वाध्याय आदि की वेला (मर्यादा) का वस्त्र फट गए हैं इसलिए मैं अचेल हो जाऊंगा अतिक्रमण न करे। अथवा वस्त्र मिलने पर फिर मैं सचेल हो जाऊंगा वस्त्र फट गए हैं इसलिए मैं अचेल हो जाऊंग Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्या परीषह मुनि ऐसा न सोचे । ( दीनता और हर्ष दोनों प्रकार का भाव न लाए ।) जिनकल्प - दशा में अथवा वस्त्र न मिलने पर मुनि अचेलक भी होता है और स्थविरकल्प - दशा में वह सचेलक भी होता है । अवस्था भेद के अनुसार इन दोनों को यति-धर्म के लिए हितकर जानकर ज्ञानी मुनि वस्त्र न मिलने पर दीन न बने । जिनकल्पप्रतिपत्तौ स्थविरकल्पेऽपि दुर्लभवस्त्रादी वा सर्वथा चेलाभावेन सति वा चेले विना वर्षादिनिमित्तमप्रावरणेन जीर्णादिवस्त्रतया वा अचेलक इति अवस्त्रोऽपि भवति । ( उशावृ प ९२,९३) अचेल - परीषह जिनकल्पी मुनियों के लिए तथा ऐसे स्थविरकल्पी मुनियों के लिए ग्राह्य है जिन्हें वस्त्र मिलना अत्यन्त दुर्लभ है, जिनके पास वस्त्रों का अभाव है, जिनके वस्त्र जीर्ण हो गये हैं अथवा जो वर्षा आदि के बिना वस्त्र धारण नहीं कर सकते । अचेलता के परिणाम । ( द्र. शासनभेद ) ४०७ अरति परीषह गामाशुगामं रीयंतं अणगारं अकिंचणं । अरई अणुप्पविसे, तं तितिक्खे परीसहं || अरई पिट्टओ किच्चा, विरए आयरक्खिए । धम्मारामे निरारम्भे, उवसंते मुणी चरे ॥ ( उ २११४, १५) एक गांव से दूसरे गांव में विहार करते अकिंचन मुनि के चित्त में अरति उत्पन्न हो जाए तो उस परीषह को वह सहन करे । हिंसा आदि से विरत रहने वाला, आत्मा की रक्षा करने वाला, धर्म में रमण करने वाला, असत् प्रवृत्ति से दूर रहने वाला उपशान्त मुनि अरति को दूर कर विहरण करे । हुए रमणं रतिः - संयमविषया धृतिः, तद्विपरीता त्वरतिः, सैव परीषहः अरतिपरीषहः । ( उशावृ प ८२ ) संयम में धृति रखना रति है और अधृति रखना अरति है । यही परीषह है । स्त्री परीषह संगो एस मणुस्साणं, जाओ लोगंमि इत्थिओ | जस्स एया परिन्नाया, सुकडं तस्स सामण्णं ॥ एवमादाय मेहावी, पंकभूया उ इथिओ | नो ताहिं विणिहन्नेज्जा, चरेज्जत्तगवेसए || ( उ २।१६, १७) परीषह 'लोक में जो स्त्रियां हैं, वे मनुष्यों के लिए संग हैंलेप हैं' - जो इस बात को जान लेता है, उसके लिए श्रामण्य सुकर है । 'स्त्रियां ब्रह्मचारी के लिए यह जानकर मेधावी मुनि उनसे घात न होने दे, किन्तु आत्मा की विचरण करे । चर्या परीषह दलदल के समान हैंअपने संयम - जीवन की गवेषणा करता हुआ एग एव चरे लाढे, अभिभूय परीसहे । गामे वा नगरे वावि, निगमे वा रायहाणिए । असमाणो चरे भिक्खू, नेव कुज्जा परिग्गहं । असंसत्तो गिहत्थेहि, अणिएओ परिव्व ॥ ( उ २०१८, १९) संयम के लिए जीवन निर्वाह करने वाला मुनि परीषहों को जीतकर गांव में या नगर में, निगम में या राजधानी में अकेला ( राग-द्वेष रहित होकर) विचरण करे | मुनि एक स्थान पर आश्रम बनाकर न बैठे, किंतु विचरण करता रहे। गांव आदि के साथ ममत्व न करे, उनसे प्रतिबद्ध न हो । गृहस्थों से निर्लिप्त रहे । अनिकेत ( गृहमुक्त) रहता हुआ परिव्रजन करे । न विद्यते समानोऽस्य गृहिण्याश्रया मूच्छितत्वेन अन्यतीर्थिकेषु वाऽनियत विहारा दिनेत्यसमानः - असदृशो, यद्वा समान:- साहङ्कारो न तथेत्यसमानः । अथवा.... यत्रास्ते तत्राप्यसंनिहित एवेति हृदयं सन्निहितो हि सर्वः स्वाश्रयस्योदन्तमावहति अयं तु न तथेत्येवंविधः सन् चरेत्, अप्रतिबद्धविहारतया विहरेत् । ( उशावृप १०७ ) भिक्षु असमान ( असाधारण ) होता है, इसके पांच अर्थ प्राप्त हैं १. भिक्षु किसी घर या आश्रय में रहता है, पर गृह और गृहिणी के प्रति मूच्छित नहीं होता । २. वह अनियतविहारी होता है- अन्यतीर्थिकों की भांति नियत स्थानों में नहीं रहता । ३. वह असमान - अहंकाररहित होता है । ४. भिक्षु असन्निहित होने के कारण आश्रय की वार्ता से मुक्त होता है, उसकी प्रशंसा या सारसंभाल नहीं करता, गृहस्वामी से उसकी टूट-फूट संबंधी शिकायत नहीं करता । Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परीषह ५. वह अप्रतिबद्ध होकर विचरण करता है । निषद्या परिषह सुसाणे सुन्नगारे वा, रुक्खमूले व एगओ । अकुक्कुओ निसीएज्जा, न य वित्तासए परं ॥ तत्थ से चिट्टमाणस्स, उवसग्गाभिधारए । संकाभीओ न गच्छेज्जा, उट्ठित्ता अन्नमासणं ॥ ( उ २।२०, २१) राग-द्वेष रहित मुनि चपलताओं का वर्जन करता हुआ श्मशान, शून्यगृह अथवा वृक्ष के मूल में बैठे। दूसरों को त्रास न दे । ४०८ वहां बैठे हुए उसे उपसर्ग प्राप्त हों तो वह यह चितन करे – “ये मेरा क्या अनिष्ट करेंगे ?" किन्तु अपकार की शंका से डरकर वहां से उठ दूसरे स्थान पर न जाए । निषेधः पापकर्मणां गमनादिक्रियायाश्च स प्रयोजनमस्या नषेधिकी श्मशानादिका स्वाध्यायादिभूमिः निषद्येति यावत् सैव परीषहो नैषेधिकीपरीषहः । ( उशाबू प ८३) जिसमें पापक्रिया अथवा गमन आदि क्रिया का निषेध होता है, वह नैषेधिकी है। स्वाध्यायभूमि आदि में निषद्या से संबंधित कष्ट सहन करना नैषेधिकी परीषह है । (नषेधिकी की अपेक्षा निषद्या शब्द अधिक उपयुक्त हैद्र. निषद्या) उच्चावयाहि सेज्जाहि, तवस्सी भिक्खु थामवं । नाइवेलं विहन्नेज्जा, पावदिट्ठी विहन्नई ॥ परिक्कुवस्सयं लद्ध, कल्लाणं अदु पावगं । किमेरायं करिस्सइ, एवं तत्थऽहियासए ॥ ( उ २।२२, २३) तपस्वी और प्राणवान् भिक्षु उत्कृष्ट या निकृष्ट उपाश्रय को पाकर मर्यादा का अतिक्रमण न करे ( हर्ष या शोक न लाए) । जो पापदृष्टि होता है, वह विहत (हर्ष या शोक से आक्रांत ) हो जाता है । प्रतिरिक्त (एकान्त ) उपाश्रय - भले फिर वह सुन्दर हो या असुन्दर को पाकर "एक रात में क्या होना जाना है" - ऐसा सोचकर रहे, जो भी सुख-दुःख हो, उसे सहन करे । आक्रोश परीषह अक्कोसेज्ज परो भिक्खु, न तेसि पडिसंजले । सरिसो होइ बालाणं, तम्हा भिक्खू न संजले ॥ अलाभ परीषह सोच्चाणं फरुसा भासा, दारुणा गाम कण्टगा । तुसिणीओ उवेहेज्जा, न ताओ मणसीकरे ॥ ( उ २।२४, २५) कोई मनुष्य भिक्षु को गाली दे तो वह उसके प्रति क्रोध न करे । क्रोध करने वाला भिक्षु बाल ( अज्ञानियों) के सदृश हो जाता है, इसलिए भिक्षु क्रोध न करे । मुनि परुष, दारुण और ग्राम - कंटक ( कर्णकंटक) भाषा को सुनकर मौन रहता हुआ उसकी उपेक्षा करे, उसे मन में न लाए । वध परीषह हओ न संजले भिक्खू, मणं पिन पओसए । तितिक्खं परमं नच्चा, भिक्खुधम्मं विचितए ॥ समणं संजयं दंतं, हणेज्जा कोइ कत्थई । नत्थि जीवस्स नासु त्ति एवं पेहेज्ज संजए ॥ ( उ २।२६, २७) पीटे जाने पर भी मुनि क्रोध न करे। मन में भी द्वेष न लाए । तितिक्षा को परम जानकर मुनि-धर्म का चिन्तन करे । संयत और दान्त श्रमण को "आत्मा का नाश नहीं होता" प्रतिशोध की भावना न लाए । कोई कहीं पीटे तो वह ऐसा चिन्तन करे, पर याचना परीषह दुक्करं खलु भो ! निच्चं अणगारस्स भिक्खुणो । सव्वं ते जाइयं होइ, नत्थि किंचि अजाइयं ॥ गोयग्गविस पाणी नो सुप्पसारए । सेओ अगारवा त्ति, इइ भिक्खू न चितए ॥ ( उ २।२८, २९) कि उसे जीवनभर सब कुछ याचना से मिलता है, ओह ! अनगार भिक्षु की यह चर्या कितनी कठिन उसके पास अयाचित कुछ भी नहीं होता । है गोचरा में प्रविष्ट मुनि के लिए गृहस्थों के सामने हाथ पसारना सरल नहीं है। अतः 'गृहवास ही श्रेय हैमुनि ऐसा चिन्तन न करे । अलाम परीषह परेसु घासमेसेज्जा, भोयणे परिणिट्टिए । लद्धे पिंडे अलद्धे वा, नाणुतप्पेज्ज संजए || Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्कार-पुरस्कार परीषह ४०९ परीषह अज्जेवाहं न लब्भामि, अवि लाभो सुए सिया। तृणस्पर्श परीषह जो एवं पडिसंविखे, अलाभो तं न तज्जए । अचेलगस्स लहस्स, संजयस्स तवस्सिणो। (उ २।३०,३१) तणेसु सयमाणस्स, हुज्जा गाय-विराहणा ॥ गहस्थों के घर भोजन तैयार हो जाने पर मुनि आयवस्स निवाएणं, अउला हवइ वेयणा । उसकी एषणा करे। आहार थोड़ा मिलने या न मिलने एवं नच्चा न सेवंति, तंतुजं तणतज्जिया । पर संयमी मुनि अनुताप न करे । (उ २।३४,३५) "आज मुझे भिक्षा नहीं मिली, परन्तु संभव है कल अचेलक और रूक्ष शरीर वाले संयत तपस्वी के घास मिल जाये"--जो इस प्रकार सोचता है, उसे अलाभ पर सोने से शरीर में चभन होती है। गर्मी पड़ने से नहीं सताता। अतुल वेदना होती है-यह जानकर भी तृण से पीड़ित रोग परीषह मुनि वस्त्र का सेवन नहीं करते। नच्चा उप्पइयं दुक्खं, वेयणाए दुहट्टिए । जल्ल परीषह अदीणो थावए पन्नं, पुट्ठो तत्थहियासए । किलिन्नगाए मेहावी, पंकेण वा रएण वा । तेगिच्छं नाभिनंदेज्जा, संचिक्खत्तगवेसर। घिसू वा परितावेण, सायं नो परिदेवए ।। एवं खु तस्स सामण्णं, जं न कुज्जा न कारवे ।। वेएज्ज निज्जरापेही, आरियं धम्मऽणुत्तरं। (उ २।३२,३३) जाव सरीरभेउ त्ति, जल्लं काएण धारए । रोग को उत्पन्न हुआ जानकर तथा वेदना से पीड़ित (उ २०३६,३७) होने पर दीन न बने । व्याधि से विचलित होती हुई प्रज्ञा मैल, रज या ग्रीष्म के परिताप से शरीर के क्लिन्न को स्थिर बनाए और प्राप्त दुःख को समभाव से सहन " (गीला या पंकिल) हो जाने पर मेधावी मुनि सुख के करे। आत्मगवेषक मुनि चिकित्सा का अनुमोदन न करे। मोह लिए विलाप न करे। रोग हो जाने पर समाधिपूर्वक रहे। उसका श्रामण्य यही निर्जरार्थी मुनि अनुत्तर आर्य-धर्म (श्रुत-चारित्रधर्म) है कि वह रोग उत्पन्न होने पर भी चिकित्सा न करे, न को पाकर देहविनाश पर्यन्त काया पर "जल्ल" (स्वेदकराए। जनित मैल) को धारण करे और तज्जनित परीषह को जिनकल्पिकापेक्षया चैतत, स्थविरकल्पापेक्षया त सहन करे । 'जं न कूज्जा' इत्यादौ सावधमिति गम्यते । .."एतदप्यो- सत्कार-पुरस्कार परीषह त्सर्गिकम् । (उशावृ प १२०) अभिवायणमब्भुटाणं, सामी कुज्जा निमंतणं । चिकित्सा न करे, न कराए-यह उपदेश जिन जे ताइं पडिसेवंति, न तेसि पीहए मुणी ।। कल्पिक मुनियों के लिए है। स्थविरकल्पी मुनि सावध अणुक्कसाई अप्पिच्छे, अन्नाएसी अलोलुए। चिकित्सा न करे, न कराए-यह औत्सर्गिक विधि है। रसेसु नाणु गिज्झज्जा, नाणुतप्पेज्ज पन्नवं ॥ अपवादतस्तु सावद्याऽप्येषामियमनुमतैव । (उ २१३८,३९) काहं अछित्ति अदुवा अहीहं, तवोविहाणेण य उज्जमिस्सं । अभिवादन और अभ्युत्थान करना तथा 'स्वामी'गणं व णीतीइ वि सारविस्सं, सालंबसेवी समवेति मोक्खं ।। (उशाव प १२०) इस संबोधन से संबोधित करना--जो गृहस्थ इस प्रकार आपवादिक विधि में मूनि चार कारणों से सावध की प्रतिसेवना-सम्मान करते हैं, मुनि इन सम्मानजनक चिकित्सा का आलंबन ले सकता है-- व्यवहारों की स्पृहा न करे। १. मैं परम्परा को व्युच्छिन्न नहीं होने दूंगा। अल्प कषाय वाला, अल्प इच्छा वाला, अज्ञात कुलों २. मैं ज्ञानार्जन करूंगा। से भिक्षा लेने वाला, अलोलूप, प्रज्ञावान् मुनि रसों में गद्ध ३. मैं उपधान आदि तपोयोग के लिए उद्यम करूंगा। न हो, दूसरों को सम्मानित देख अनुताप न करे। ४. मैं नीतिपूर्वक गण की सार-संभाल करूंगा। सत्कारो-वस्त्रादिभिः पूजनं, पुरस्कारः-अभ्यु Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परीषह त्थानासनादिसम्पादनं यद्वा सकलैवाभ्युत्थानाभिवादनदानादिरूपा प्रतिपत्तिरिह सत्कारस्तेन पुरस्करणं सत्कारपुरस्कार: । ( उशावृप ८३ ) अतिथि की वस्त्रदान आदि से पूजा करना सत्कार है और अभ्युत्थान करना, आसन देना आदि पुरस्कार है । अथवा अभ्युत्थान, अभिवादन आदि सारी क्रियाएं सत्कार हैं और इनके द्वारा किसी की अगवानी करना पुरस्कार है । प्रज्ञा परीषह से नूणं मए पुव्वं, कम्माणाणफला कडा । जेणाहं नाभिजाणामि, पुट्ठो केणइ कण्हुई || अह पच्छा उइज्जति, कम्माणाणफला कडा । एवमस्सासि अप्पाणं, नच्चा कम्म- विवागयं ॥ ( उ २ ४०, ४१ ) निश्चय ही मैंने पूर्व काल में अज्ञानरूप फल देने वाले कर्म किए हैं। उन्हीं के कारण मैं किसी के कुछ पूछे जाने पर भी कुछ नहीं जानता - उत्तर देना नहीं जानता । 'पहले किए हुए अज्ञानरूप फल देने वाले कर्म पकने के पश्चात् उदय में आते हैं'- इस प्रकार कर्म के विपाक को जानकर मुनि आत्मा को आश्वासन दे 1 अज्ञान परीषह निरट्ठगम्मि विरओ, मेहुणाओ सुसंवुडो । जो सक्ख नाभिजाणामि, धम्मं कल्लाण पावगं ॥ तवोवहाणमादाय, पडिमं पडिवज्जओ । एवं पि विहरओ मे छउमं न नियट्टई ॥ ४१० ( उ २।४२, ४३) मैं मैथुन से निवृत्त हुआ, इन्द्रिय और मन का मैंने संवरण किया यह सब निरर्थक है । क्योंकि धर्म कल्याणकारी है या पापकारी यह मैं साक्षात् नहीं जानता । मैं तपस्या और उपधान को स्वीकार करता हूं, प्रतिमा का पालन करता हूं इस प्रकार विशेष चर्या से विहरण करने पर भी मेरा छद्म ( ज्ञान का आवरण ) निर्वार्तित नहीं हो रहा है मुनि ऐसा चिन्तन न करे । ( प्रज्ञा परीषह का संबंध श्रुतज्ञान से और अज्ञान परीषह का संबंध अवधिज्ञान आदि अतीन्द्रिय ज्ञान से है ।) दर्शन परीषह नथ नूणं परे लोए, इड्ढी वावि तवसिणो । अदुवा वंचिओ मित्ति, इइ भिक्खू न चितए || अभू जिणा अस्थि जिणा, अदुवावि भविस्सई । मुसं ते एवमाहंसु, ss भिक्खू न चितए || ( उ २।४४, ४५) निश्चय ही परलोक नहीं है, तपस्वी की ऋद्धि भी नहीं है, अथवा मैं ठगा गया हूं - भिक्षु ऐसा चिन्तन न करे । जिन हुए थे, जिन हैं और जिन होंगे ऐसा जो कहते हैं, वे झूठ बोलते हैं भिक्षु ऐसा चिन्तन न करे । ४. परीषह और कर्मविपाक पन्नान्नाणपरिसहा णाणावरणंमि हुति दुन्नेए । इक्को य अंतराए अलाहपरीसहो होइ ॥ अरई अचेल इत्थी निसीहिया जायणा य अक्कोसे । सक्कारपुरक्कारे चरितमोहंम सत्ते ॥ अरईइ दुगंछाए पुंवेय भयस्स चेव माणस्स | कोहस् य लोहस्स य उदएण परीसहा सत्त ॥ दंसणमोहे दंसणपरीसहो नियमसो भवे इक्को । सेसा परीसहा खलु इक्कारस वेयणिज्जंमि ॥ ( उनि ७४-७७ ) परीषह १. प्रज्ञा २. अज्ञान ३. अलाभ ४. अरति ५. अचेल ६. स्त्री ७. निषद्या ८. याचना ९. आक्रोश परीषह और कर्मविपाक १०. सत्कार पुरस्कार ११. दर्शन १२. क्षुधा १३. पिपासा १४. शीत १५. उष्ण कर्म का विपाक ज्ञानावरणीय "" अन्तराय अरति मोहनीय ( नोकषाय ) जुगुप्सा मोहनीय ( नोकषाय ) पुरुषवेद मोहनीय ( नोकषाय ) भय मोहनीय ( नोकषाय ) मन मोहनीय ( कषाय ) क्रोध मोहनीय ( कषाय ) लोभ मोहनीय ( कषाय ) दर्शन मोहनीय वेदनीय 11 11 23 Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य परीषह : भाव परीषह १६. दंश-मशक १७. चर्या १८. शय्या १९. वध २०. रोग २१. तृणस्पर्श २२. जल्ल वेदनीय 32 ५. परीषह और गुणस्थान 22 33 11 13 13 बावीसं बायरसंपराए चउदस य सुहुमरागंमि । छउमत्थवीयराए चउदस इक्कारस जिणंमि ॥ ( उनि ७९ ) बाईस परीषह नौवें गुणस्थान (बादरसंपराय) तक हो सकते हैं। दसवें गुणस्थान में चारित्रमोहनीय कर्म के उदय से होने वाले अरति आदि सात परीषह तथा दर्शन मोहनीय से उत्पन्न दर्शनपरीषह को छोड़कर शेष चौदह परीषह होते हैं । छद्मस्थ वीतराग अर्थात् ग्यारहवें - बारहवें गुणस्थानवर्ती मुनि में भी ये ही चौदह परीषह हो सकते हैं । केवली में मात्र वेदनीय कर्म के उदय से होने वाले ग्यारह परीषह पाये जाते हैं । ६. एक साथ कितने परोषह ? जस्स चउद्दस तस्स उक्कोसपदे बारस । एक्कारस परीसहा तस्स उक्कोसपदे उदेज्जेज्जा । ४११ जस्स दस परीसहा ( उचू पृ ५० ) जिसके चौदह परीषह होते हैं, उसके एक साथ उत्कृष्ट बारह परीषह हो सकते हैं। जिसके ग्यारह परीषह होते हैं, उसके एक साथ उत्कृष्ट दस परीषह हो सकते हैं । वीसं उक्कोसपए वट्टति जहन्नओ हवइ एगो । सीणि चरियं निसीहिया य जुगवं न वट्टति ॥ ( उनि ८२) एक साथ उत्कृष्टत: बीस परीषह और जघन्यतः एक परीषह हो सकता है । शीत और उष्ण- दोनों एक साथ नहीं होते, इन दोनों में से कोई एक होता है । चर्या और निषद्या में से कोई एक होता है । नषेधिकीवत्कथं शय्याऽपि न चर्यया विरुध्यते ? उच्यते, निरोधबाधादितस्त्वङ्गनिकादेरपि तत्र सम्भवानैधिकी तु स्वाध्यायादीनां भूमिः, ते च प्रायः स्थिरतायामेवानुज्ञाता इति तस्या एव चर्यया विरोधः । परीषह निषद्या की तरह शय्या परीषह भी चर्या परीषह का विरोधी क्यों नहीं है ? इसके समाधान में कहा गया है। कि मूत्र, उत्सर्ग आदि की बाधा-निवृत्ति के लिए शय्या में भी चर्या संभव है । निषद्या का अर्थ है- स्वाध्याय आदि की भूमि । स्वाध्यायभूमियां प्रायः स्थिरता में ही अनुज्ञात हैं । अतः निषद्या का ही चर्या से विरोध है । ७. परीषहप्रविभक्ति अध्ययन का उत्स कम्पवायव्वे सत्तरसे पाहुडंमि जं सुतं । सणयं सोदाहरणं तं चेव इहंपि णायव्वं ॥ ( उनि ६९ ) कर्मप्रवादपूर्व के सतरहवें प्राभृत में परीषहों का नय और उदाहरण सहित निरूपण है । वही उत्तराध्ययन के इस दूसरे अध्ययन का उत्स है । ८. परीषह और नय - निक्षेप तिहपि णेगमणओ परीसहो उज्जुसुत्ताओ । तिन्हं सद्दणयाणं परीसहो संजए होइ || ( उनि ७० ) नैगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र की अपेक्षा परीषह संयत, असंयत और संयतासंयत- तीनों के होते हैं । शब्द आदि तीनों नयों की अपेक्षा बाईस परीषह संयत के ही होते हैं । परीषह का कालमान वासग्गसो अ तिन्हं मुहुत्तमंतं च होइ उज्जुसुए । सदस्य एगसमयं परीसहो होइ नायव्वो । ( उनि ८३ ) नगम, संग्रह और व्यवहारनय की अपेक्षा परीषह वर्षों तक हो सकते हैं । ( जैसे सनत्कुमार चक्रवर्ती ने सात सौ वर्षों तक रोग परीषह को सहन किया । ) ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा अन्तर्मुहूर्त्त और तीन शब्दनयों की द्रव्य परीषह : भाव परोषह परीषह का कालमान अपेक्षा एक समय है । दव्वपरीसहा दुविहा, तं जहा कम्मदव्वपरी सहा य णोकम्मदव्वपरी सहा य । जाणि परीसहवेदणिज्जाणि कम्माणि बद्धाई ताव न उदेज्जंति ते कम्मदव्वपरी सहा । तिविहा णोकम्मदव्वपरी महासचित्ताचित्तमी सगा । ( उशावृप ७८ ) सचित्तणोकम्मदव्वपरीसहा जेहिं सचित्ते हि परीसहा Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्याप्ति उदेज्जंति जहा गिरिनिज्झरणपाणीयं, एयस्स छुहा उदेज्जति । अचित्ते णोकम्मदव्वपरीसहा जहा अग्गिदीवणियष्णेहि छुहा भवति । मीसे गुलल्लएणं छुहा भवति । पिवासावरीसहो लोणपाणीएण वा तण्हा उदेज्जति, तेलेहि य अचित्तंहि, णिङ्खलवणादीहि मिस्सेहि दव्वेहि खज्जतेहि यता उदेज्जति । भावपरीसहा, ते वेदणिज्जाणं कम्माणं, उदिण्णाणं वेदणिज्जाणं भवंति । ( उचू पृ ४७ ) द्रव्य परीषह के दो प्रकार हैं १. कर्मद्रव्यपरीषह-बद्ध परीषहवेदनीय जब तक उदय में नहीं आता । २. नोकद्रव्यपरीषह - परीषह के उदय में निमित्तभूत द्रव्य । ये तीन प्रकार के हैं— १. सचित्त - गिरिनिर्भर के जल आदि से क्षुधा का ४१२ उदय । २. अचित्त - अग्निउद्दीपकचूर्ण आदि से क्षुधा का उदय । ३. मिश्र -- गुड़ाईक से क्षुधा का उदय । इसी प्रकार लवणजल, तेल, स्निग्धलवण आदि के सेवन से पिपासा परीषह का उदय होता है । परीषवेदनीय कर्म का वेदन करना भाव परीषह है । परोक्षज्ञान- - इन्द्रिय और मन के माध्यम से होने वाला ज्ञान । पर्याप्ति ( द्र. ज्ञान ) -जन्म के प्रारंभ में होने वाली जीवनोपयोगी पौद्गलिक शक्ति । १. पर्याप्ति की परिभाषा २. पर्याप्ति के प्रकार ३. पर्याप्ति-निर्माण का हेतु ४. पर्याप्त और अपर्याप्त ५. अपर्याप्त के प्रकार * पर्याप्त अपर्याप्त : जीव के भेद ६. पर्याप्ति-निर्माण का कालमान ७. किस जीव में कितनी पर्याप्तियां ? पर्याप्ति के प्रकार पुद्गलद्रव्यों के उपचय से उत्पन्न शक्ति या सामर्थ्य का नाम है पर्याप्ति । पर्याप्तिः- आहारादिपुद्गलग्रहणपरिणमनहेतुरात्मनः शक्तिविशेषः, स च पुद्गलोपचयात् । उत्पत्तिदेशमागतेन येन गृहीता आहारादिपुद्गलास्तेषां तथा अन्येषां च प्रतिसमयं गृह्यमाणानां तत्सम्पर्कतः तद्रूपतया जातानामुपष्टस्भेन यः शक्तिविशेषो जीवस्याहारादिपुद्गलानां खलरसादिरूपतया परिणमनहेतुः " : ......सा पर्याप्तिः । १. पर्याप्ति की परिभाषा पज्जती नाम सत्ती सामत्थं । सा य पुग्गलदव्वोवचया उप्पज्जति । ( नन्दी पृ २२ ) ( नन्दीमवृप १०४, १०५ ) जीव उत्पत्तिस्थान को प्राप्त कर आहार आदि के योग्य पुद्गल ग्रहण करता है, फिर प्रतिसमय अन्य पुद्गल ग्रहण करता रहता है । प्रथम समय में गृहीत पुद्गलों के सम्पर्क से अन्य गृहीत पुद्गल भी उस रूप में परिवर्तित हो जाते हैं । उन पुद्गलों के उपष्टम्भ / अवलम्बन से जो विशेष प्रकार की शक्ति उत्पन्न होती है, वह जीवनपर्यन्त जीव के आहार आदि के पुद्गलों का ग्रहण तथा उन्हें खल, रस आदि के रूप में परिणत करने का हेतु बनती है । यह पौद्गलिक शक्तिविशेष ही पर्याप्ति है । २. पर्याप्ति के प्रकार छ पज्जतीतो- आहार- सरीर इंदिय - आणापाणु - भासा - मणपज्जत्ती । ( नन्दी पृ २२ ) पर्याप्ति के छह प्रकार - १. आहार पर्याप्ति २. शरीर पर्याप्ति ३. इन्द्रिय पर्याप्ति आहार पर्याप्त ४. प्राणापान पर्याप्ति ५. भाषा पर्याप्ति ६ मनः पर्याप्ति । आहारपज्जत्ती नाम खल रसपरिणामणसत्ती । ( नन्दीचू पृ २२ ) या बाह्यमाहारमादाय खलरसरूपतया परिणमयति साऽऽहारपर्याप्तिः । ( नन्दीमवृ प १०५ ) जीव जिससे आहारप्रायोग्य पुद्गलों के ग्रहण, खलरसरूप में परिणमन और उत्सर्जन की क्षमता प्राप्त ( द्र. जीव ) करता है, वह आहार पर्याप्ति है । शरीर पर्याप्ति सत्तधातुतया परिणामणसत्ती शरीरपज्जत्ती । ( नन्दी पृ २२ ) यया रसीभूतमाहारं रसासृग्मांसमेदोऽस्थिमज्जाशुक्रलक्षणसप्तधातुरूपतया परिणमयति सा शरीरपर्याप्तिः । ( नदीम १ १०५ ) Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपर्याप्त के प्रकार ४१३ पर्याप्ति . जो रस में परिणत आहार को सात धातुओं-रस, ३. पर्याप्ति-निर्माण का हेतु रक्त, मांस, वसा, अस्थि, मज्जा और शुक्र के रूप में एताओ पज्जत्तीओ पज्जत्तयणामकम्मोदएणं परिणत करती है, वह शक्ति शरीर पर्याप्ति है। णिव्वत्तिज्जति। __ (नन्दीचू पृ २२) इन्द्रिय पर्याप्ति पर्याप्तनामकर्म के उदय से पर्याप्तियों का निर्वर्तन/ पंचण्हमिदियाणं जोग्गा पोग्गला चियित्त अणाभोग- निमाण होता है। निव्वत्तितविरियकरणेण तब्भावणयणसत्ती इंदियपज्जत्ती। ४. पर्याप्त और अपर्याप्त (नन्दीचू पृ २२) ता जेसिं अत्थि ते पज्जत्तया । अपज्जत्तयणामकम्मोजिससे इन्द्रियों के योग्य पुद्गलों का चय होता है . दएणं अणिव्वत्तातो जेसिं ते अपज्जत्तया । और स्वतः स्फूर्त वीर्यकरण से इन्द्रियों की कार्यशक्ति पैदा होती है, वह शक्ति इन्द्रिय पर्याप्ति है। (नन्दीचू पृ २२) ये स्वयोग्यपर्याप्तिपरिसमाप्तिविकला: ते अपर्याप्ताः । यया धातुरूपतया परिणमितमाहारमिन्द्रियरूपतया परिणमयति सा इन्द्रियपर्याप्तिः । (नन्दीमवृ प १०५) (नन्दीमवृ प १०५) जो जीव अपने जन्म के योग्य सारी पर्याप्तियों को जो धातुरूप में परिणत आहार को इन्द्रियों के रूप पूर्ण कर लेता है, वह पर्याप्त कहलाता है। में परिणत करती है, वह इन्द्रिय पर्याप्ति है। अपर्याप्त नामकर्म के उदय से जो जीव अपने योग्य पर्याप्तियों को पूर्ण नहीं कर पाता, वह अपर्याप्त कहलाता प्राणापान पर्याप्ति उस्सासपोग्गलजोग्गाणापाणूण गहण-णिसिरणसत्ती आणापाणुपज्जत्ती। (नन्दीच १२२) ५. अपर्याप्त के प्रकार श्वासोच्छ्वास के योग्य पुद्गलों की ग्रहण और ते च द्विधा लब्ध्या करणश्च । येऽपर्याप्तका एव विसर्जन की शक्ति का नाम है प्राणापान (आनापान/ सन्तो म्रियन्ते न पूनः स्वयोग्यपर्याप्तीः सर्वा अपि श्वासोच्छ्वास) पर्याप्ति । समर्थयन्ते ते लब्ध्यपर्याप्तकाः। तेऽपि नियमादाहारभाषा पर्याप्ति शरीरेन्द्रियपर्याप्तिपरिसमाप्तावेव म्रियन्ते नार्वाक । वइजोग्गे पोग्गले घेत्तण भासत्ताए परिणामेत्ता। यस्मादागामिभवायुर्बद्धवा म्रियन्ते सर्व एव देहिनः । वइजोगत्ताए निसिरणसत्ती भासापज्जत्ती। तच्चाहारशरीरेन्द्रिय-पर्याप्तिपर्याप्तानामेव बध्यते । ये (नन्दीच पृ २२) पुनः करणानि –शरीरेन्द्रियादीनि न तावन्निवर्तयन्ति 'भाषा के योग्य पुद्गलों को ग्रहण कर, उन्हें भाषा - अथ चावश्यं निर्वर्तयिष्यन्ति ते करणापर्याप्तकाः। (नन्दीमत् प १०५) रूप में परिणत कर, वचनयोग से उनका निःसरण अपर्याप्त दो प्रकार के होते हैंकरने की पौद्गलिक शक्ति का नाम है भाषा पर्याप्ति । १. लब्धि अपर्याप्त-जो अपर्याप्त अवस्था में ही मर मनः पर्याप्ति जाते हैं, अपने योग्य पर्याप्तियों को पूर्ण नहीं कर ___ मणजोग्गे पोग्गले घेत्तूणं मणत्ताए परिणामेत्ता पाते, वे लब्धि अपर्याप्त हैं। वे भी आहार, शरीर मणजोगत्ताए निसिरणसत्ती मणपज्जत्ती। और इन्द्रिय-इन तीनों पर्याप्तियों को पूर्ण करने से (नन्दीचू पृ २२) पहले नहीं मरते। क्योंकि आगामी भव के आयुष्य यया मनोयोग्यवर्गणादलिकमादाय मनस्त्वेन परिणमय्यालम्ब्य च मुञ्चति सा मनःपर्याप्तिः।। का बंध होने पर ही प्राणी मरते हैं और आयुष्य का (नन्दीमत् प १०५) बंध इन पर्याप्तियों की पूर्णता होने पर ही होता जिस शक्ति से मनन के योग्य पुद्गलों का ग्रहण, मन रूप में परिणमन और विसर्जन होता है, वह २. करण अपर्याप्त-जो प्राणी जिस जन्म में शरीर मनःपर्याप्ति है। आदि पर्याप्तियों का निश्चित रूप में निर्माण करने Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पल्योपम ४१४ उद्धार पल्योपम के प्रकार वाले हैं, वे जब तक इनका निर्माण नहीं कर लेते, ० दृष्टान्त तब तक करण अपर्याप्त कहलाते हैं। • अध्व पल्योपम-सागरोपम का प्रयोजन ६. पर्याप्ति-निर्माण का कालमान ५. क्षेत्र पल्योपम के प्रकार उत्पत्तिप्रथमसमय एव चैता यथायथं सर्वा अपि ० दृष्टान्त क्षेत्र पल्योपम-सागरोपम का प्रयोजन युगपन्निष्पादयितुमारभ्यन्ते क्रमेण च निष्ठामुपयान्ति ।" ६. सागरोपम का परिमाण आहारपर्याप्तिश्च प्रथमसमय एव निष्पद्यते, शेषास्तु प्रत्येकमन्तर्मुहूर्तेन कालेन। (नन्दीमवृ प १०५) ७. पालि-महापालि *पल्योपम-सागरोपम : काल के भेव (द्र. काल) जन्म के प्रथम समय में ही इन छहों पर्याप्तियों का - प्रारम्भ एक साथ होता है और पूर्णता क्रमिक रूप से १. पल्योपम-सागरोपम की परिभाषा होती है। आहारपर्याप्ति प्रथम समय में ही निष्पन्न हो जं कालप्पमाणं ण सक्का घेत्तं तं उवमियं भवति । जाती है। शेष पर्याप्तियों को पूर्ण होने में एक-एक धण्णपल्ल इव तेण उवमा जस्स तं पल्लोवमं भण्णति । अन्तर्मुहर्त लगता है। सागरो इव जं महाप्रमाणं तं सागरोवमं । (अनुच पृ ५७) आहारपर्याप्त्या अपर्याप्तो विग्रहगतावेवोपपद्यते, जिस काल का प्रमाण संख्या से नहीं जाना जा नोपपातक्षेत्रमागतोऽपि, उपपातक्षेत्रमागतस्य प्रथमसमय सकता, वह उपमा से जाना जाता है। धान्यपल्य से एवाहारकत्वात्, तत एकसामयिकी आहारपर्याप्ति- उपमित काल पल्योपम कहलाता है। सागर की तरह निर्वत्तिः। (नन्दीमवृ प १०५) महाप्रमाण वाला काल सागरोपम कहलाता है। विग्रहगति में ही जीव आहारपर्याप्ति से अपर्याप्त होता है, उत्पत्तिक्षेत्र में नहीं। जीव उत्पत्तिक्षेत्र में आते पलिओवमे तिविहे पण्णत्ते, तं जहा -उद्धारपलिही प्रथम समय में आहारक हो जाता है, अतः आहार ओवमे अद्धापलिओवमे खेतपलिओवमे य। (अनु ४१९) पर्याप्ति-निर्माण का कालमान एक समय है। पल्योपम के तीन प्रकार७. किस जीव में कितनी पर्याप्तियां ? उद्धारपल्योपम-जिस कालखण्ड में बालाग्र अथवा एगिदियाणं चउरो, विलिदियाणं पंच, अस्सण्णीणं बालखण्ड का उद्धार किया जाता है, उसकी संज्ञा उद्धारसंववहारतो पंच चेव, सण्णीणं च छ। (नन्दीचू पृ २२) पल्योपम है। पृथ्वी आदि एकेन्द्रिय जीवों में प्रथम चार, विकले- अद्धापल्योपम-अद्धा कालवाचक शब्द है। इस न्द्रिय (द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय) जीवों में प्रथम कालखण्ड में सौ वर्ष से बालाग्र अथवा बालखण्ड का पांच, असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों में संव्यवहार की अपेक्षा से उद्धार किया जाता है। इसलिए इसकी संज्ञा अद्धा प्रथम पांच तथा संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों में छहों पर्याप्तियां पल्योपम है। होती हैं। क्षेत्रपल्योपम-जो कालखण्ड आकाश प्रदेशों के पल्योपम-पल्य की उपमा से उपमित काल। अवहार से मापा जाता है, उसकी संज्ञा क्षेत्रपल्योपम है । पल्य और सागर-ये दो उपमान हैं। ३. उद्धार पल्योपम के प्रकार १. पल्योपम-सागरोपम की परिभाषा उद्धारपलिओवमे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-सुहुमे य २. पल्योपम के प्रकार वावहारिए य । (अनु ४२०) ३. उद्धार पल्योपम के प्रकार उद्धार पल्योपम के दो प्रकार हैं-सूक्ष्म और ० दृष्टान्त व्यावहारिक । ० उद्धार पल्योपम-सागरोपम का प्रयोजन दृष्टांत-व्यावहारिक उद्धार पल्योपम ४. अध्व पल्योपम के प्रकार तत्थ णं जे से वावहारिए, से जहानामए पल्ले सिया Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अव पल्योपम के प्रकार - जोयणं आयाम - विक्खंभेणं, जोयणं उड्ढं उच्चत्तेणं, तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं, से णं पल्ले गाहिय - बेयाहिय - तेयाहिय, उक्कोसेणं सत्तरत्तपरूढाणं । सम्मट्ठे सन्निचित्ते, भरिए वालग्गकोडीणं ॥ से णं वालग्गे नो अग्गी डहेज्जा, नो वाऊ हरेज्जा, नो कुच्छेज्जा, नो पलिविद्धंसेज्जा, नो पूइत्ताए हव्वमा गच्छेज्जा । तओ णं समए - समए एगमेगं वालग्गं अवहाय जावइएणं काले से पल्ले खीणे नीरए निल्लेवे निट्ठिए भवइ । ( अनु ४२२ ) जैसे कोई कोठा एक योजन लम्बा, चौड़ा, ऊंचा और कुछ अधिक तिगुनी परिधि वाला है वह एक, दो, तीन यावत् उत्कृष्टतः सात रात के बढ़े हुए करोड़ों बालानों से ठूंस-ठूंसकर, घनीभूत कर भरा हुआ है । वे बाला न अग्नि से जलते हैं, न हवा से उड़ते हैं, न असार होते हैं, न विश्वस्त होते हैं और न दुर्गन्ध को प्राप्त होते हैं । उस कोठे से प्रत्येक समय में एक-एक बालाग्र को निकालने से जितने समय में वह कोठा खाली, रज रहित, निर्लेप और निष्ठित (अन्तिम रूप से खाली ) होता है, वह व्यावहारिक उद्धार पल्योपम है । दृष्टांत सूक्ष्म उद्धार पत्योपम सुमे उद्धारपलिओ मे से जहानामए पल्ले सिया - atri आयाम - विक्खंभेणं, जोयणं उड्ढ उच्चत्तेणं, तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं, से णं पल्ले -- गाहिय - बेया हि याहिय, उक्कोसेणं सत्तरत्तपरूढाणं । सम्मट्ठे सन्निचित्ते, भरिए वालग्गकोडीणं ॥ तत्थ णं एगमेगे वालग्गे असखेज्जाई खंडाई कज्जइ । ते णं वालग्गा दिट्ठीओगाहणाओ असंखेज्जइभागमेत्ता सुहुमस्स पण जीवस्स सरीरोगाहणाओ असखेज्जगुणा । ते णं वालग्गे तो अग्गी डहेज्जा, नो वाऊ हरेज्जा, नो कुच्छेज्जा, नो पलिविद्धंसेज्जा, नो पूइत्ताए हव्वमागच्छेज्जा । तओ णं समए - समए एगमेगं वालग्गं अवहाय जावइएणं कालेणं से पल्ले खीणे नीरए निल्लेवे निट्ठिए भवइ । से तं सुहुमे उद्धारपलिओवमे । ( अनु ४२४) जैसे कोई कोठा एक योजन लम्बा, चौड़ा, ऊंचा और कुछ अधिक तिगुनी परिधि वाला है। वह एक, दो, तीन दिन यावत् उत्कृष्टतः सात रात के बढ़े हुए करोड़ों बालाग्रों से ठूंस-ठूंसकर घनीभूत कर भरा हुआ है । पल्योपम इन बालों में से प्रत्येक बालाग्र के असंख्य खण्ड किए जाते हैं । वे बालाग्र दृष्टि विषय में आने वाले पुद्गलों की अवगाहना के असंख्येय भागमात्र और सूक्ष्म पनक जीव के शरीर की अवगाहना से असंख्य गुण अधिक हैं । वे बालाग्र न अग्नि से जलते हैं, न हवा से उड़ते हैं, न असार होते हैं, न विध्वस्त होते हैं और न दुर्गन्ध को प्राप्त होते हैं। ४१५ उस कोठे से प्रत्येक समय में एक-एक बालाग्र को निकालने से जितने समय में वह कोठा खाली, रजरहित, निर्लेप और निष्ठित ( अन्तिम रूप से खाली ) होता है, वह सूक्ष्म उद्धार पल्योपम है । उद्धार पत्योपम - सागरोपम का प्रयोजन एएसि वावहारिय-उद्धारपलिओम - सागरोवमेहि after faarai, केवलं पण्णवणट्ठे पण्णविज्जति । ( अनु ४२३ ) इन व्यावहारिक उद्धार पत्योपमों और सागरोपमों का कोई प्रयोजन नहीं है, केवल प्रज्ञापना के लिए प्रज्ञापन किया जाता है । दाणं उद्धारो घेप्पइ । एहि हुमउद्धारपओिवम-सागरोवमेहिं दीवसमु( अनु ४२५) इन सूक्ष्म उद्धार पल्योपमों और सागरोपमों से द्वीपसमुद्रों का उद्धार (परिमाण) किया जाता है । ४. अध्व पल्योपम के प्रकार अद्धापलिओ दुविहे पण्णत्ते, तं जहा -सुहुमे य वावहारिए । ( अनु ४२७) अध्व पत्योपम के दो प्रकार हैं-सूक्ष्म और व्यावहारिक दृष्टांत व्यावहारिक अध्व पल्योपम तत्थ णं जेसे वावहारिए से जहानामए पल्ले सिया - जोयणं आयाम - विक्खंभेणं, जोयणं उड्ढं उच्चत्तेणं, तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं, से णं पल्ले एगा हिय - बेयाहिय तेयाहिय, उक्कोसेणं सत्तरत्तपरूढाणं । सम्मट्ठे सन्निचित्ते, भरिए वालग्गकोडीणं ॥ से णं बालग्गे नो अग्गी डहेज्जा, नो वाऊ हरेज्जा, नो कुच्छेज्जा, नो पलि विद्धं सेज्जा, नो पूइत्ताए हव्वमागच्छेज्जा । तओ णं वाससए - वाससए गते एगमेगं वालग्गं अवहाय जावइएणं कालेणं से पल्ले खीणे नीरए निल्लेवे निट्ठिए भवइ । ( अनु ४२९ ) Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षेत्र पल्योपम के प्रकार ४१६ पल्योपम __जैसे कोई कोठा एक योजन लम्बा, चौड़ा, ऊंचा (अन्तिम रूप से खाली) होता है, वह सूक्ष्म अध्व पल्योपम और कुछ अधिक तिगुनी परिधि वाला है, वह एक, दो, है। तीन दिन यावत् उत्कृष्टतः सात रात के बढ़े हुए करोड़ों अध्व पल्योपम-सागरोपम का प्रयोजन बालानों से हूंस-ठूसकर घनीभूत कर भरा हुआ है। वे एएहिं वावहारिय-अद्धापलिओवम-सागरोवमेहिं नत्थि बालाग्र न अग्नि में जलते हैं, न हवा से उड़ते हैं, न असार किचिप्पओयणं केवलं पण्णवणटपण्णविज्जति । होते हैं. न विध्वस्त होते हैं और न दुर्गन्ध को प्राप्त होते (अनु ४३०) हैं। उस कोठे से सौ-सौ वर्ष में एक-एक बालान को इन व्यावहारिक अध्व पल्योपमों और सागरोपमों निकालने से जितने समय में वह कोठा खाली, रज- का कोई प्रयोजन नहीं है, केवल प्ररूपणा के लिए प्ररूपण रहित, निर्लेप और निष्ठित (अन्तिम रूप से खाली) किया जाता है। होता है, वह व्यावहारिक अध्व पल्योपम है। एएहिं सुहमअद्धापलिओवम सागरोवमेहिं नेरइयदृष्टांत-सूक्ष्म अध्व पल्योपम तिरिक्खजोणिय-मणुस्स-देवाणं आउयाई मविज्जंति । सुहमे अद्धापलिओवमे-से जहानामए पल्ले सिया - (अनु ४३२) जोयणं आयाम-विक्खंभेणं, जोयणं उडढं उच्चत्तेणं, तं इन सूक्ष्म अध्व पल्योपमों और सागरोपमों में नैरतिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं, से णं पल्ले - यिक, तिर्यग्योनिक, मनुष्य और देवों का आयुष्य नापा एगाहिय-बेयाहिय-तेयाहिय, उक्कोसेणं सत्तरत्तपरूढाणं । जाता है। सम्मठे सन्निचित्ते, भरिए वालग्गकोडीणं ॥ ५. क्षेत्र पल्योपम के प्रकार तत्थ णं एगमेगे बालग्गे असंखेज्जाइं खंडाई कज्जइ, खेत्तपलिओवमे विहे पण्णत्ते, तं जहा-सहमे य ते णं वालग्गे दिट्ठीओगाहणाओ असंखेज्जइ-भागमेत्ता बावटाशिा य (अनु ४३४) हमस्स पणगजीवस्स सरीरोगाहणाओ असंखेज्जगुणा । क्षेत्र पल्योपम के दो प्रकार हैं—सूक्ष्म और व्यावसे णं वालग्गे नो अग्गी डहेज्जा, नो वाऊ हरेज्जा, नो द्वारिक। कच्छेज्जा, नो पलिविद्धंसेज्जा, नो पूइत्ताए हव्वमागच्छे- दष्टांत-व्यावहारिक क्षेत्र पल्योपम ज्जा। तओ णं वाससए-वाससए गते एगमेगं वालग्गं से जहानामए पल्ले सिया-जोयणं आयाम-विक्खंअवहाय जावइएणं कालेणं से पल्ले खीणे नीरए निल्लेवे भेणं, जोयणं उड्ढं उच्चत्तेणं, तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेनिट्ठिए भवइ । (अनु ४३१) वेणं, से ण पल्लेजैसे कोई कोठा एक योजन लम्बा, चौड़ा, ऊंचा एगाहिय-बेयाहिय-तेयाहिय, उक्कोसेणं सत्तरत्तपरूढाणं । और कुछ अधिक तिगुनी परिधि वाला है, वह एक, दो, सम्मठे सन्निचित्ते, भरिए वालग्गकोडीणं ॥ तीन यावत् उत्कृष्टतः सात रात के बढ़े हुए करोड़ों से णं वालग्गे नो अग्गी डहेज्जा, नो वाऊ हरेज्जा बालानों से लूंस-ठूसकर घनीभूत कर भरा हुआ है। नो कुच्छेज्जा, नो पलिविद्धसेज्जा, नो पूइत्तार हव्वमाग इन बालानों में से प्रत्येक बालाग्र के असंख्य खण्ड च्छेज्जा। जे णं तस्स आगासपएसा तेहिं वालग्गेहिं किए जाते हैं। वे बालाग्र दृष्टि विषय में आने वाले पुद्गलों अप्फन्ना, तओ णं समए-समए एगमेगं आगासपएसं की अवगाहना के असंख्येय भागमात्र और सूक्ष्म पनक अवहाय जावइएण कालेणं से पल्ले खीणे नीरए निल्लेवे जीव के शरीर की अवगाहना में असंख्य गुना अधिक निट्रिए भवइ । (अनु ४३६) होते हैं। वे बालान न अग्नि में जलते हैं, न हवा से उड़ते जैसे कोई कोठा एक योजन लम्बा, चौड़ा, ऊंचा हैं, न असार होते हैं और न विध्वस्त होते हैं और न और कुछ अधिक तिगुनी परिधि वाला है, वह एक, दो, दुर्गन्ध को प्राप्त होते हैं। उस कोठे से सौ-सौ वर्ष के तीन यावत् उत्कृष्टत: सात रात के बढ़े हुए करोड़ों बीत जाने पर एक-एक बालाग्र निकालने से जितने समय बालानों से लूंस-ठूसकर घनीभूत कर भरा हुआ है। में वह कोठा खाली, रजरहित, निर्लेप और निष्ठित ये बालाग्र न अग्नि से जलते हैं, न हवा से उड़ते हैं, Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पालि - महापालि ४१७ न असार होते हैं, न विश्वस्त होते हैं और न दुर्गन्ध को प्राप्त होते हैं । उस कोठे के जो आकाशप्रदेश उन बालायों से व्याप्त हैं, उनमें से प्रति समय एक-एक आकाशप्रदेश का अपहार करने पर जितने समय में वह कोठा खाली, रजरहित, निर्लेप और निष्ठित ( अन्तिम रूप से खाली ) होता है, वह व्यावहारिक क्षेत्रपल्योपम है । दृष्टांत सूक्ष्म क्षेत्र- पल्योपम सुमे खेत्तपलिओ मे : से जहानामए - पल्ले सियाजोयणं आयाम - विक्खंभेणं, जोयणं उड्ढं उच्चत्तेणं, तं तिगुणं सविसेसं परवेणं, से णं पल्ले - एगा हिय - बेयाहिय याहिय, उक्कोसेणं सत्तरत्तपरूढाणं । सम्मट्ठे सन्निचित्ते, भरिए वालग्गकोडी | तत्थं णं एगमेगे वालग्गे असंखेज्जाई खंडाई कज्जइ, ते णं वालग्गा दिट्ठीओगाहणाओ असंखेज्जइभागमेत्ता सुहुमस्स पणगजीवस्स सरीरोगाहणाओ असंखेज्जगुणा । । जेणं तस्स पल्लस्स आगासपएसा तेहि वालगेहि अफुन्ना वा अणप्फुन्ना वा, तओ णं समए - समए मेगं आगासपri अवहाय जावइएणं काले से पल्ले खणे नीरए निल्लेवे निट्ठिए भवइ । ( अनु ४३८ ) चौड़ा, ऊंचा और वह एक, दो, तीन करोड़ों बालात्रों जैसे कोई कोठा एक योजन लम्बा, कुछ अधिक तिगुनी परिधि वाला है, यावत् उत्कृष्टतः सात रात के बढ़े हुए से ठूंस-ठूंसकर, घनीभूत कर भरा हुआ 1 इन बालों में से प्रत्येक बालाग्र के असंख्य खण्ड किए जाते हैं । वे बालाग्र दृष्टिविषय में आने वाले पुद्गलों की अवगाहना से असंख्येय भागमात्र और सूक्ष्म पनक जीव के शरीर की अवगाहना से असंख्य गुना अधिक होते हैं । उस कोठे के जो आकाशप्रदेश उन बालानों से व्याप्त हों या अव्याप्त, उनमें से प्रति समय एक-एक आकाशप्रदेश का अपहार करने पर जितने समय में वह कोठा खाली, रज-रहित, निर्लेप और निष्ठित ( अन्तिम रूप से खाली) होता है, वह सूक्ष्म क्षेत्र - पत्योपम है । क्षेत्र पल्योपम- सागरोपम का प्रयोजन एएहि सुहुमखेत्तपलिओवम-सागरोवमेहिं दिट्टिवाए दव्वा मविज्जति । ( अनु ४४० ) सूक्ष्म क्षेत्र पत्योपमों और सागरोपमों से दृष्टिवाद के द्रव्यों को नापा जाता है । ६. सागरोपम का परिमाण पारिणामिकी बुद्धि दस पल्लककोडाकोडीतो एगं सागरोवमं । ( अनुचू पृ ५७ ) दस कोटिकोटि पल्यों का एक सागरोपम होता है । एएसि पल्लाणं, कोडाकोडी हवेज्ज दसगुणिया । सुहुमस्स उद्धारसागरोवमस्स एगस्स भवे परिमाणं ॥ ( अनु ४२४) दस कोटिकोटि सूक्ष्म उद्धार पल्योपमों का एक सूक्ष्म उद्धार सागरोपम होता है । तं एएसि पल्लाणं, कोडाकोडी भवेज्ज दसगुणिया । तं सुहुमस्स अद्धासागरोवमस्स एगस्स भवे परिमाणं ॥ ( अनु ४३१) सूक्ष्म अध्व पल्योपम को दस कोटिकोटि से गुणित करने पर एक सूक्ष्म अध्व सागरोपम का परिमाण होता है। एएसि पल्लागं, कोडाकोडी भवेज्ज दसगुणिया । तं सुहुमस्स खेत्तसागरोवमस्स एगस्स भवे परिमाणं ॥ ( अनु ४३९) दस कोटिकोटि सूक्ष्म क्षेत्र पत्योपमों का एक सूक्ष्म क्षेत्र सागरोपम होता है । ७. पालि महापालि पालि :- जीवितजलधारणाद् भवस्थितिः । ( उशावृ प ४४५) जैसे पाल जल को धारण करती है, वैसे ही भवस्थिति जीवन-जल को धारण करती है, इसलिए उसे पाली कहा जाता है । पाली मर्यादा । या पत्योपमैः स्थितिः सा पाली । या पुनः सागरोपमैः स्थितिः सा महापाली । ( उचू पृ २४९ ) पल्योपम की काल मर्यादा का नाम है पाली । सागरोपम की काल मर्यादा का नाम है महापाली । पाप - अशुभ कर्म पुद्गल । ( द्र. कर्म) पारिणामिको बुद्धि - परिणाम / अवस्था के साथअनुभवों से साथ नाना उत्पन्न होने वाली बुद्धि । ( द्र. बुद्धि ) Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुद्गल ( द्र. तीर्थंकर) पार्श्वनाथ - तेईसवें तीर्थंकर । पाषण्ड- सम्प्रदाय । प्राचीन काल में मुख्यतया श्रमण सम्प्रदायों के लिए पाषण्ड शब्द का प्रयोग होता था । पासंडनामे -- समणे पंडुरंगे भिक्खू कावालिए तावसे परिव्वायगे । ( अनु ३४४ ) पाषण्ड के पांच प्रकार हैं श्रमण, पंडुरंग, भिक्षु, कापालिक (शैव की एक शाखा), तापस और परिव्राजक । निग्गंथ सक्क तावस गेरुय आजीव पंचहा समणा । निर्ग्रन्थाः साधवः, शाक्या मायासूनवीयाः, तापसा वनवासिनः पाखण्डिनः, गैरुका: गेरुकरञ्जितवाससः परिव्राजकाः, आजीवकाः गोशालक शिष्याः । (पिनि ४४५ वृप ६३० ) श्रमण के पांच प्रकार हैं निग्रंथ साधु बौद्ध शाक्य तापस - वनवासी परिव्राजक — गैरिक वस्त्र धारण करने वाले आजीवक - गोशालक के शिष्य । पुद्गल - वर्ण, गंध, रस और स्पर्श से युक्त पदार्थ । १. पुद्गलास्तिकाय * अस्तिकाय का एक भेद २. पुद्गल के लक्षण वर्ण आदि ३. वर्ण- गंध-रस स्पर्श के प्रकार ४. पुद्गल के प्रकार ० स्कन्ध देश प्रदेश ० परमाणु ५. परमाणु के प्रकार ० ४१८ ० व्यावहारिक परमाणु • परमाणु का सप्रदेशत्व - अप्रदेशत्व ६. पुद्गल की स्थिति और अन्तर ७. पुद्गल - परमाणु बन्ध की प्रक्रिया ८. पुद्गल संयोग के प्रकार संयुक्त संयोग ० 0 ( द्र. अस्तिकाय) ० ० इतरेतर संयोग इतरेतर परमाणु संयोग के प्रकार * संस्थान संयोग स्कन्ध संयोग ० संस्थान और स्कन्ध में अंतर ९. पुद्गल का अवगाहन क्षेत्र १०. अजीव द्रव्यकरण-भावकरण ११. शब्द पुद्गल है * शब्द श्रवण का सिद्धान्त पुद्गल की वर्गणाएं * पुद्गल के लक्षण २. पुद्गल के लक्षण १. पुद्गलास्तिकाय पुद्गलास्तिकाय: पूरणगलणभावत्तणतो पुद्गलाः । इहाप्यस्तिशब्दः प्रदेशवाचकोऽस्तित्वे वा कायशब्दोऽप्यत्र समूहवचनः समूहः प्रदेशानां सोऽवयवद्रव्यसमूहवचनो ( अनुचू पृ २९, ३० ) वा । परमाणु मिलते हैं, पृथक् होते हैं - यह पुद्गल का व्युत्पत्ति - लभ्य अर्थ है । अस्ति शब्द का अर्थ है - प्रदेश अथवा अस्तित्व । काय शब्द समूहवाचक है । प्रदेशों के समूह को तथा अवयवरूप पुद्गल द्रव्य के समूह को भी काय कहते हैं । ( द्र. संस्थान ) पुद्गलास्तिकाय का अर्थ है - पुद्गलों का प्रदेशसमूह अथवा पुद्गलद्रव्यों का समूह । (द्र भाषा ) (द्र. वर्गणा ) सधयारउज्जोओ पहा छायातवे aण्णरसगंधफासा, पुग्गलाणं तु इ वा । लक्खणं ॥ ( उ २८/१२) शब्द, अन्धकार, उद्योत, प्रभा, छाया, आतप, वर्ण, रस, गंध और स्पर्श-ये पुद्गल के लक्षण हैं । 'वण्णरसगंधफासा पोग्गलाण च लक्खणं' ( उशावृप २४ ) वर्ण, गंध, रस और स्पर्श – ये पुद्गल के लक्षण हैं । वण्णओ गंधओ चेव रसओ फासओ तहा । ठाणओ य विन्नेओ परिणामो तेसि पंचहा ॥ ( उ ३६।१५) वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से उनका परिणमन पांच प्रकार का होता है । Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुद्गल के प्रकार ४१९ पुद्गल ३. वर्ण-गंध-रस-स्पर्श के प्रकार ६. बादर-बादर--अग्नि, वनस्पति, पृथ्वी और त्रसवण्णओ परिणया जे उ, पंचहा ते पकित्तिया । जीवों का शरीर। किण्हा नीला य लोहिया, हालिद्दा सुक्किला तहा ॥ खंधा य खंधदेसा य, तप्पएसा तहेव य । गंधओ परिणया जे उ, विहा ते वियाहिया । परमाणुणो य बोद्धव्वा, रूविणो य चउव्विहा ।। सुब्भिगंधपरिणामा, दुब्भिगंधा तहेव य । (उ ३६।१०) रसओ परिणया जे उ, पंचहा ते पकित्तिया । पुद्गल के चार प्रकार-- तित्तकडुयकसाया, अंबिला मधुरा तहा ।। १. स्कन्ध-परमाणु-प्रचय । फासओ परिणया जे उ, अट्टहा ते पकित्तिया । २. स्कन्धदेश-स्कन्ध का कल्पित विभाग। कक्खडा मउया चेव, गरुया लहया तहा ॥ ३. स्कन्धप्रदेश-स्कन्ध से अपृथग्भूत अविभाज्य अंश । सीया उण्हा य निद्धा य, तहा लुक्खा य आहिया । ४. परमाणु-स्कन्ध से पृथक निरंश अंश । इइ फासपरिणया एए, पुग्गला समुदाहिया ॥ स्कन्ध (उ ३६।१६-२०) एगत्तेण पुहत्तेण. खंधा य परमाणुणो ।" वर्ण की अपेक्षा से पुद्गल की परिणति पांच प्रकार (उ ३६।११) की होती है--१. कृष्ण २. नील ३. रक्त ४. पीत और अनेक परमाणुओं के एकत्व से स्कन्ध बनता है और ५. शुक्ल । उसका पृथक्त्व होने से परमाणु बनते हैं। ____ गन्ध की अपेक्षा से पुद्गल की परिणति दो प्रकार परमाणुपुग्गला खलु दुन्नि व बहुगा य संहता संता। की होती है --१. सुगन्ध और २. दुर्गन्ध । निव्वत्तयंति खंधं.......... रस की अपेक्षा से पुद्गल की परिणति पांच प्रकार की होती है.---१. तिक्त २. कट ३. कसला ४. खट्टा (उनि ३७) स्कन्ध के दो प्रकारऔर ५. मधुर। १. द्विप्रदेशी स्कन्ध-दो अणुओं की संहति । स्पर्श की अपेक्षा से पुद्गल की परिणति आठ प्रकार की होती है--१. कर्कश २.मृदु ३. गुरु ४. लघु ५. शीत २. बहुप्रदेशी स्कन्ध-तीन, चार यावत् अनंत परमाणु६. उष्ण ७. स्निग्ध और ८. रूक्ष । पुद्गलों की संहति । स्कन्दन्ति-शुष्यन्ति धीयन्ते च--पोष्यन्ते च पद४. पुद्गल के प्रकार गलानां विचटनेन चेति स्कन्धाः (उशाव प ६७३) पोग्गला छव्विहा, तं जहा-सुहुमसुहुमा सुहमा जो पुदगलों के विघटन से क्षीण और संघटन से पुष्ट सुहुमबादरा बादरसुहुमा बादरा बादरबादरा। सुहमसुहमा होते है, वे स्कन्ध हैं । परमाणुपोग्गला, सुहुमा दुपएसियाओ आढत्ता जाव सुहुम- देश परिणओ अणंतपएसिओ खंधो, सुहुमबादरा गंधपोग्गला, देशः त्रिभागचतुर्भागादि। (उचू पृ २८१) बादरसुहमा वाउक्कायसरीरा, बादरा आउक्कायसरीरा दिश्यते प्रदेशापेक्षया समानपरिणतरूपत्वेऽपि देशाउस्सादीण, बादरबादरा तेउवणस्सइ-पुढवितससरीराणि । पेक्षायां असमानपरिणतिमाश्रित्य विशिष्टरूपतया (दजिचू पृ १४२) विवक्ष्यते- उपदिश्यत इति देश:। (उशाव प ३७२) पुद्गल के छह प्रकार -- प्रदेश की अपेक्षा समान परिणति होने पर भी, देश १. सूक्ष्म-सूक्ष्म-परमाणुपुद्गल । की अपेक्षा असमान परिणति के आधार पर जिसकी तीन २. सूक्ष्म-द्विप्रदेशी, त्रिप्रदेशी यावत् अनंतप्रदेशी भाग, चार भाग आदि के रूप में विशेष विवक्षा होती है. स्कंध । वह देश है। ३. सूक्ष्म-बादर - गन्ध पुद्गल । प्रदेश ४. बादर-सूक्ष्म -वायुकायशरीर । प्रदेशोऽसंख्येयतमोऽनन्ततमो वा प्रदेशः । ५. बादरअप्काय जीवों का शरीर, ओस आदि । (उचू पृ २८१) Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुद्गल ४२० पुद्गल की स्थिति और अंतर परमाणु प्रकर्षेणान्त्यत्वात्प्रदेशान्तराभावतः क्वचिदप्यनुगत- जा सकता, उस (व्यावहारिक) परमाणु को सिद्धपुरुष रूपाभावलक्षणेन दिश्यते-प्राग्वदुपदिश्यत इति प्रदेशो- (केवली) प्रमाणों का आदि बतलाते हैं। निरंशो भागस्तत्प्रदेश: । (उशावृ प ३७२) (व्यावहारिक परमाणु तलवार आदि शास्त्रों के स्कन्ध का निविभाग भाग प्रदेश कहलाता है। वह द्वारा अच्छेद्य, अभेद्य, अग्नि के द्वारा अदाह्य, जल में स्कन्ध का अंतिम भाग होता है, उसमें प्रदेशान्तर का रहकर भी अनार्द्र और सडान से परे हैं। वर्तमान में अभाव होता है और वह वस्तु से संलग्न होता है । वैज्ञानिकों ने परमाणु को तोड़ा है। जैनदर्शन का अभि मत है कि परमाणु अविभाज्य है, उसे तोड़ा नहीं जा सकता। इन दोनों अवधारणाओं में विरोधाभास प्रतीत परमाणू दव्वतो एगदव्वं । खेत्ततो एगपदेसोगाढं । कालतो जहन्नेणं एगं समयं उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं।। होता है । इस विरोध में समन्वय का सूत्र खोजा जा सकता है। सूक्ष्म अथवा नैश्चयिक परमाण निरवयव होने के (आवचू १ पृ १०८) परमाणु द्रव्य की अपेक्षा एक द्रव्य–एक संख्या कारण अविभाज्य है, उसे तोड़ा नहीं जा सकता। किन्तु वाला, क्षेत्र की अपेक्षा एक प्रदेश में अवगाढ तथा काल व्यावहारिक परमाणु सावयव है इसलिए उसे तोड़ना ___ संभव है। यहां सुतीक्ष्ण शस्त्र के द्वारा छेदन-भेदन का की अपेक्षा जघन्य एक समय, उत्कृष्ट असंख्येय काल निषेध किया गया है, यह तात्कालीन शस्त्रों की अपेक्षा वाला है। किया गया है। आधुनिक वैज्ञानिकों ने जिन सुतीक्ष्ण कारणमेव तदन्त्यं सूक्ष्मो नित्यश्च भवति परमाणुः । उपकरणों का निर्माण किया है, उनसे उसका भेदन भी एकरसवर्णगंधो द्विस्पर्शः कार्यलिंगश्च ।। हो सकता है।) __ (उशावृ प २४) परमाणु का सप्रदेशत्व-अप्रदेशत्व भाव की अपेक्षा परमाणु एक रस, एक वर्ण, एक गंध और दो अविरुद्ध स्पर्श वाला होता है तथा अपने दव्वओ परमाणू अपदेसो, सेसा सपदेसा। खेत्तओ कार्य रूप द्विप्रदेशी, त्रिप्रदेशी यावत् अनन्तप्रदेशी स्कंधों से एगपदसोगाढो अपदेसो सेसा सपदेसा। कालओ एकसमयजाना जाता है। वह अपने कार्यों का अन्तिम कारण, ट्ठितिओ अपदेसो, सेसा सपदेसा। भावतो एगगुणकालओ सूक्ष्म और नित्य होता है। अपदेसो, सेसा सपदेसा। अहवा वण्णगंधरसफासेहिं चउहा सपदेसत्तं वा अपदेसत्तं वा। (आवचू २ पृ ४,५) ५. परमाणु के प्रकार द्रव्य से-एक परमाणु अप्रदेश है, शेष सप्रदेश । परमाणू दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-सुहुमे य वावहारिए क्षेत्र से -एक प्रदेशावगाढ परमाणु अप्रदेश है, शेष य। (अनु ३९६) सब सप्रदेश। परमाण के दो प्रकार हैं -सूक्ष्म और व्यावहारिक । काल से-एक समय की स्थिति वाला परमाण व्यावहारिक परमाणु अप्रदेश है, शेष सब सप्रदेश । ___ वावहारिए -अणंताणं सुहुमपरमाणुपोग्गलाणं भाव से एक गुण काला परमाणु अप्रदेश, शेष सब समुदयसमितिसमागमेणं से एगे वावहारिए परमाणुपोग्गले सप्रदेश । अथवा वर्ण, गंध, रस, स्पर्श के आधार पर परमाण निप्फज्जइ।.. के सप्रदेशत्व-अप्रदेशत्व के चार विकल्प बनते हैं। सत्येण सुतिखेण वि, छेत्तुं भेत्तुं च जं किर न सक्का । तं परमाणुं सिद्धा, वयंति आई पमाणाणं ॥ ६. पुद्गल की स्थिति और अंतर (अनु ३९८) संतइं पप्प तेऽणाई, अपज्जवसिया वि य । अनन्त सूक्ष्म परमाणुपुद्गलों के समुदय, समिति और ठिइं पड़च्च साईया, सपज्जवसिया विय ।। (उ ३६।१२) समागम से एक व्यावहारिक परमाणुपुद्गल निष्पन्न होता स्कंध और परमाणु प्रवाह की अपेक्षा से अनादि सूतीक्ष्ण शस्त्र से भी जिसका छेदन भेदन नहीं किया अनंत हैं तथा स्थिति (एक क्षेत्र में रहने) की अपेक्षा से Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुद्गल संयोग के प्रकार सादि सान्त हैं । असंखकालमुक्कसं, एवं समयं जहन्निया । अजीवाण य रूवीणं, ठिई एसा वियाहिया | अतकालमुक्कसं, एवं समयं जहन्नयं । अजीवाण य रूवीणं, अन्तरेयं वियाहियं ॥ ( उ ३६।१३,१४) रूपी अजीवों (पुद्गलों) की स्थिति जघन्यतः एक समय और उत्कृष्टतः असंख्यात काल की होती है । उनका अन्तर (स्वस्थान से स्खलित होकर वापिस नहीं आने तक का काल ) जघन्यतः एक समय और उत्कृष्टतः अनन्त काल का होता है । ७. पुद्गल - परमाणु बन्ध की प्रक्रिया द्धिस्स णिद्वेण दुताहिएणं, लुक्खस्स लुक्खेण दुयाहिएणं । frद्धस्स लक्खेण उवेइ बंधो, जहन्नवज्जो विसमो समो वा ॥ एगगुणनिद्धो तिगुणणिद्धेणं बज्झति, तिगुणनिद्धो पंचगुणणिद्वेण, पंचगुणो सत्तगुणणिद्धेण, एवं दुयाहिएण बंधो भवति, तहा दुगुणणिद्धो चउगुणणिद्वेण, चउगुणणिद्धो छगुणणिद्वेण, छगुणणिद्धो अट्ठगुणणिद्वेण, एवं णेयं । लुक्खेवि एवं चेव । णिद्धलुक्खस्स पुण जहन्नगुणवज्जेसु सेसेसु विसमेसु समेसु वा बंधो भवति । एगगुणणिद्धो एगगुणलुक्खेणं ण बज्झति, दुगुणतिगुणठिएसु बज्झति । (उच्च् पृ १७) सेसे सदृश सम्बन्ध - स्निग्ध परमाणुओं का स्निग्ध परमाणुओं के साथ एवं रूक्ष परमाणुओं का रूक्ष परमाणुओं के साथ सम्बन्ध तब होता है, जब स्निग्ध का रूक्ष परमाणुओं में दो गुण या उनसे अधिक गुणों का अन्तर मिले । विसदृश सम्बन्ध - स्निग्ध परमाणुओं का रूक्ष परमाणुओं के साथ जघन्य को छोड़कर सम या विषम संख्या होने पर सम्बन्ध हो जाता है । गुण (अंश) १+१ १+२ १+३ २+३ २÷४ २+५ ३+४ सदृश नहीं नहीं है থক नहीं ४२१ विसदृश नहीं नहीं नहीं থকথেকথে पुद्गल वाले सरसगुणा सरिसगुणं अब्भहियगुणाण हीणगुणमेव । परिणामिउं समत्था न पुण ऊणा तु अहियाणं || जति कालियमेगगुणं सुक्किलयंपि हवेज्ज बहुयगुणं । परिणामिज्जति कालं सुक्त्रेण गुणाहियगुणेणं ॥ जति सुक्कं एगगुणं कालगदव्वंपि एगगुणमेव । कावतं परिणामं तुल्लगुणं जस्स संभवति ।। ( उचू पृ १८ ) बंध - काल में स्निग्ध परमाणु अपने समान गुण रूक्ष परमाणुओं को और रूक्ष परमाणु अपने समान गुण वाले स्निग्ध परमाणुओं को अपने-अपने रूप में परिणत कर लेते हैं। अधिक गुण वाले परमाणु हीन गुण वाले परमाणुओं को अपने रूप में परिणत कर लेते हैं । एक गुण काला परमाणु अधिक गुण वाले शुक्ल परमाणु के योग से शुक्ल हो जाता है। एक गुण काला परमाणु एक गुण शुक्ल परमाणु के योग से कापोत वर्ण में परिणत हो जाता है । ८. पुद्गल संयोग के प्रकार "दुविहो उ दव्वसंजोगो । संजुत्तगसंजोगो नायव्वियरेयरो चेव ॥ ( उनि ३० ) द्रव्य संयोग के दो प्रकार हैं— संयुक्तसंयोग और इतरेतरसंयोग । संयुक्त संयोग एगरस एगवण्णे एगे गंधे तहा दुफासे अ । परमाणू खंधेहि अ दुपए साईहि णायव्वो ।। यदा वा तिक्ततादिपरिणतिमपहाय कटुकत्वादिपरिगति प्रतिपद्यते तदाऽपि वर्णादिभिः संयुक्त एव कटुकत्वादिना संयुज्यते इति संयुक्तसंयोग उच्यते । ( उनि ३३ शावृप २४) एक रस, एक वर्ण, एक गंध और दो अविरुद्ध स्पर्श वाला परमाणु जब द्विप्रदेशी आदि स्कन्धों अथवा अन्य परमाणुओं अथवा अन्य वर्णों के साथ संयुक्त होता है, तब वह संयुक्त संयोग कहलाता है । अथवा वर्ण आदि से संयुक्त परमाणु तिक्तता आदि की परिणति को छोड़ agar आदि से संयुक्त होता है, वह भी संयुक्तसंयोग है । इतरेतर संयोग के प्रकार इयरेयरसंजोगो परमाणूणं तहा पएसाणं । .... Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुद्गल दुप्पभितीण परमाणूणं जो संजोगो सो इतरेतर संजोगो भवति परमाणूणं, पदेसेसु दुपदेसादीण नेयमिति । ( उनि ३५ चू पृ १७) इतरेतर संयोग के दो प्रकार - १. परमाणु संयोग - दो, तीन आदि परमाणुओं का संयोग । २. प्रदेश संयोग - द्विप्रदेशी आदि स्कन्धों का संयोग । इतरेतर प्रदेशसंयोग धम्माइपसाणं पंचह उ जो पएससंजोगो । तिह पुण अणाईओ साईओ होति दुष्हं तु ।। ( उनि ४२ ) धर्म, अधर्म, आकाश, जीव और पुद्गल इन पांचों द्रव्यों का सजातीय स्कंध देश-प्रदेशों के साथ जो संयोग होता है, वह इतरेतर प्रदेशसंयोग है । ४२२ धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय इन तीनों का सजातीय देश-प्रदेशों के साथ जो संयोग होता है, वह अनादि संयोग है । वह संयोग स्वाभाविक और अनादि है । जीवप्रदेशों और पुद्गल प्रदेशों का धर्म, अधर्म और आकाश के प्रदेशों के साथ तथा पुद्गलों के साथ जो संयोग होता है, वह सादि संयोग है । धर्म, अधर्म और आकाश के स्कन्धों के साथ जीवप्रदेशों और पुद्गलप्रदेशों का जो संयोग है, वह अनादि संयोग है । इतरेतर परमाणु संयोग के प्रकार परमाणूणं इतरेतरसंजोगो दुविहो - संठाणतो खंधतो ( उचू पृ. १७) इतरेतर परमाणु संयोग के दो प्रकार संस्थान और स्कन्ध | य । संस्थान और स्कन्ध में अन्तर 'खंधं तं संठाणं अणित्थंत्थं ॥ संस्थानम् - आकारस्तत् संस्था - तस्य स्कन्धस्य नम् । ........ नियतपरिमण्डलाद्यन्यतराकारं संस्थानं शेषोऽनियताकारस्तु स्कन्ध इत्यनयोर्विशेषः । ( उनि ३७ शावृप २७) स्कन्ध का आकार संस्थान कहलाता 1 परमाणु संहति अचित्तमहास्कन्ध अथवा अन्य अनित्थंस्थ- परिमण्डल आदि पांच संस्थानों से अतिरिक्त अनेक प्रकार के स्कन्धों का निर्माण करती है । संस्थान का आकार नियत होता है और स्कन्ध अनियत आकार वाले होते हैं । संस्थान और स्कन्ध में यही अन्तर है । ६. पुद्गल का अवगाहन क्षेत्र अजीव द्रव्यकरण .....लोएगदे से लोए य, भइयव्वा ते उ खेत्तओ ॥ परमाणूनामेकप्रदेश एवावस्थानात् स्कन्धविषयैव भजना द्रष्टव्या ते हि विचित्रत्वात् परिणतेर्बहुतरप्रदेशोपचिता अपि केचिदेकप्रदेशे तिष्ठन्ति । अन्ये तु संख्येयेषु च प्रदेशेषु यावत् सकललोकेऽपि तथाविधाचित्त महास्कन्धवद् भवेयुरिति भजनीया उच्यन्ते । ( ३६ ) ११ शावृ प ६७४) क्षेत्र की अपेक्षा से स्कन्ध लोक के एक देश और समूचे लोक में भाज्य हैं—असंख्य विकल्पयुक्त हैं । परमाणु आकाश के एक प्रदेश में अवगाहन करते हैं, इसलिए भजना अथवा विकल्प केवल स्कंध का ही होता है । स्कन्ध की परिणति नाना प्रकार की होती है। कुछ स्कंध आकाश के एक प्रदेश में भी अवगाहन करते हैं, कुछ आकाश के संख्येय प्रदेशों में अवगाहन करते हैं और कुछ स्कंध पूर्ण लोकाकाश में फैल जाते हैं— जैसे अचित्तमहास्कंध | १०. अजीव द्रव्यकरण अजियप्पओगकरणं दव्वे वण्णाइयाण पंचण्हं । चित्तकर (i) कुसुंभाईसु विभासा उ सेसाणं || ( उनि १९५ ) जं जं निज्जीवाणं कीरइ जीवप्पओगओ तं तं । वन्नाइ रुवकम्माइ वावि तदजीवकरणं ति ॥ ( विभा ३३४२ ) वस्त्र, काष्ठ आदि अजीव द्रव्यों पर जीवप्रयोग के द्वारा कुसुंभ आदि वर्णं चित्रित किये जाते हैं, पुत्तलिका आदि का रूपनिर्माण किया जाता है, द्रव्यकरण है । वह अजीव अजीव भावकरण वण्णरसगंधफासे संठाणे चेव होइ नायव्वं । पंचविहं पंचविहं दुविहऽविहं च पंचविहं || ( उनि २०२ ) Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुद्गल ४२३ अवरप्पओगजं जं अजीवरूवाइपज्जयावत्थं । पूर्व-पूर्वगत, दृष्टिवाद का अन्तरालवर्ती ग्रंथतमजीवभावकरणं तप्पज्जायप्पणावेक्खं ।। समूह। (विभा ३३५२) १. पूर्व नाम क्यों ? पांच वर्ण, पांच रस, दो गंध, आठ स्पर्श और पांच संस्थान इनके पर्यायों का परिणमन अजीव भावकरण २. पूर्वो की रचना और गणधर है । अभ्र, इन्द्रधनुष आदि में रूप, रस आदि पर्यायों का ३. पूर्व के प्रकार जो स्वाभाविक परिणमन होता है, वह अजीव भावकरण ४. पूर्व के वस्तु है । इसमें रूप आदि पर्यायों का प्राधान्य है जबकि द्रव्य ५. पूर्वो की चूलिकायें विस्रसाकरण में द्रव्य का प्राधान्य है। (द्र. करण) ६. चौदह पूर्व : एक परिचय * पूर्व : दृष्टिवाद का एक भेद (द्र. दृष्टिवाद) ११. शब्द पुद्गल है ७. परीषहप्रविभक्ति का उद्गम : पूर्व शब्दस्तावन्मूतत्वात्पीदगलिको, मृत्तिभावोऽस्य प्रति- | ८. दशवकालिक का उद्गम घातविधायित्वादिभ्यः । उक्तं हि ९. चतुर्दशपूर्वी प्रतिघातविधायित्वाल्लोष्टवन्मूर्तता वने । • आगम नि!हण द्वारवातानुपाताच्च, धूमवच्च परिस्फुटम् ।। १०. पूर्वधर : दृष्टि और श्रुत (उशावृ प ५६१) * श्रुतकेवली (इ. श्रुतकेवली) शब्द पुद्गल है, क्योंकि वह मूर्त है । लोष्ट की भांति | ११. पूर्व और प्रत्येकबुद्ध शब्द भी प्रतिघात करता है, वायु की भांति द्वार में १२. चतुर्दशपूर्वी का ज्ञान परस्पर तुल्य प्रवेश करता है और धुएं की भांति चारों ओर फैल १३. चतुर्दशपूर्वी में ज्ञान की तरतमता : श्रुतनिबद्ध जाता है, इसलिए वह मूर्त है। भाव नाकाशगुणः शब्दः किन्तु पुद्गलगुणः, ऐन्द्रियकत्वात् | १४: अन्तर्मुहूर्त में चौदह पूर्वो की अनुप्रेक्षा रूपादिवदिति। (विभामवृ १ पृ ५७५) १५. अवसर्पिणी काल में पूर्वधरों का क्रम शब्द आकाश का गुण नहीं है। वह पुद्गल का गुण १६. चौदहपूर्वो की स्मृति को भजना है। जैसे रूप चक्षुग्राह्य होने के कारण पौद्गलिक है, वैसे ० श्रुतज्ञान के नाश के कारण ही शब्द श्रोत्रेन्द्रियग्राह्य होने के कारण पोद्गलिक है। । * भद्रबाहु और पूर्व वाचना (द. आगम) पुदगलपरावर्तन-जितने समय में एक जीव समस्त | * अंतिम चौवहपूर्वी (द्र आगम) लोकाकाश के प्रदेशों, समस्त | १७. अंतिम दसपूर्वी पुद्गलों आदि का स्पर्श करता * चतुर्दशपूर्वी : उत्कृष्ट बहुश्रुत (द्र. बहुश्रुत) है, वह एक पुद्गलपरावर्तन * सामायिक : चौवह पूर्वो का सार (द्र. सामायिक) है। उसका कालमान अनन्त * पूर्व : गमिक श्रुत (द्र. श्रुतज्ञान) उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी जितना * चतुर्दशपूर्वी और आहारक शरीर (द्र. शरीर) है। (द्र. काल) *पूर्वधर : एक लब्धि (द्र. लब्धि) (पुद्गलपरावर्तन के मुख्यतः चार भेद हैं-द्रव्य, | * चतुर्दशपूर्वी के ध्यान (द्र. ध्यान) क्षेत्र, काल और भाव। प्रत्येक के दो-दो प्रकार हैंबादर और सूक्ष्म । पुद्गलपरावर्तन में आहारकशरीर- १. पूर्व नाम क्यों ? वर्गणा को छोड़कर शेष सात वर्गणाओं का ग्रहण और जम्हा तित्थकरो तित्थपवत्तणकाले गणधराण सव्व ता है। देखें-अनयोगद्वार सत्र ६१६ का सताधारत्तणतो पूव्वं पुव्वगतसुत्तत्थं भासति तम्हा पुव्व त्ति टिप्पण।) भणिता । गणधरा पूण सुत्तरयणं करेन्ता आयाराइकमेण Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ वीर्यप्रवाद पूर्व रयंति द्वति य । अण्णायरियमतेणं पुण पुव्वगतसुत्तत्थो पूर्वगत चौदह प्रकार का है --१. उत्पाद २. पुव्वं अरहता भासितो, गणहरेहि वि पुवगतसुतं चेव अग्रायणीय ३. वीर्यप्रवाद ४. अस्तिनास्तिप्रवाद ५. ज्ञानपुव्वं रइतं पच्छा आयाराइ। (नन्दीचू पृ ७५) प्रवाद ६. सत्यप्रवाद ७. आत्मप्रवाद ८. कर्मप्रवाद ९. तीर्थकर तीर्थप्रवर्तन के समय गणधरों के समक्ष प्रत्याख्यानप्रवाद १०. विद्यानुप्रवाद ११. अवंध्य सर्वप्रथम पूर्व का व्याकरण करते हैं। ये पूर्व समस्त सूत्रों (कल्याण) १२. प्राणायुप्रवाद १३. क्रियाविशाल १४. के आधारभूत होते हैं । ये सर्वप्रथम व्याकृत होने के कारण लोकबिन्दुसार । 'पूर्व' कहलाते हैं। गणधर जब सूत्र की रचना करते हैं, उत्पाट पर्व तब आचार आदि के क्रम से उनकी रचना और स्थापना पढमं उप्पायपुव्वं, तत्थ सव्वदव्वाणं पज्जवाण य होती है। दूसरा मत यह है कि तीर्थंकरों ने सर्वप्रथम उप्पायभावमंगीकाउं पण्णवणा कता, तस्स पदपरिमाणं पूर्वगत को व्याकृत किया और गणधरों ने भी सबसे पहले एक्का पदकोडी । (नन्दीचू पृ ७५) पूर्वगत की ही रचना की और बाद में आचार आदि की उत्पादपूर्व चौदह पूर्वो में प्रथम है। इसमें उत्पादरचना हुई। यह मत अक्षररचना की दृष्टि से है, स्थापना भाव को लक्ष्य कर सब द्रव्यों और पर्यायों की की दृष्टि से नहीं। स्थापना की दृष्टि से आचारांग का प्ररूपणा की गई है। इसका परिमाण है---एक करोड़ स्थान पहला है। पद। २. पूर्वो की रचना और गणधर अग्रायणीय पूर्व पूर्वाणि भगवद्भिर्गणधरैरुपनिबध्यन्ते । पूर्व करणात् बितियं अग्गेणीयं, तत्थ वि सव्वदव्वाण पज्जवाण य पूर्वाणीति पूर्वाचार्यप्रदर्शितव्युत्पत्तिश्रवणात सव्वजीवविसेसाण य अग्ग-परिमाणं वणिजइ ति सकलवाङ्मयस्यावतारो । न खलु तदस्ति यत्पूर्वेषु नाभि अग्गेणीतं, तस्स पदपरिमाणं छण्णउति पदसतसहस्सा । हितम् । (आवमवृ प ४८) (नन्दीचू पृ ७५) पूर्वो की रचना गणधर करते हैं। पूर्वाचार्यों के अग्रायणीय दूसरा पूर्व है। इसमें सब द्रव्यों, पर्यायों अनुसार गणधर सबसे पहले पूर्वो की रचना करते हैं। और सब जीवों का अग्र/परिमाण वर्णित है। इसका इसलिए ये पूर्व कहलाते हैं। पूर्वो में समस्त वाङमय का परिमाण है-छियानवे लाख पद । अवतरण हो जाता है । जो पूर्वो में न कहा गया हो, वैसा कुछ है ही नहीं। अग्रायणीय पूर्व का एक उद्धरण उसभसेणो णाम भरहस्स रन्नो पुत्तो सो धम्म सोऊण अग्गेणीअंमि य जहा दीवायण जत्थ एग तत्थ सयं । पव्वइतो। तेण तिहिं पुच्छाहिं चोद्दसपुव्वाइं गहिताई, जत्थ सयं तत्थेगो हम्मइ वा भुजए वावि ।। उप्पन्ने विगते धुवे। (आवचू १ पृ १८२) अग्गेणीते विरिते अत्थिणत्थिप्पवायपुव्वे य पाढो चक्रवर्ती भरत का पुत्र ऋषभसेन धर्मोपदेश सुनकर जत्थ एगो दीवायणो भुजति तत्थ दीवायणसयं भुजति प्रवजित हुआ। उसने उत्पन्न, विगम और ध्रुव- जत्थ सयं दीवायणा भुंजंति तत्थ एगो दीवायणो भुंजति, इन तीन निषधाओं में चौदह पूर्वो को ग्रहण किया । एवं हमइत्ति जाव तत्थ एगो दीवायणो हम्मति । ३. पूर्व के प्रकार सम्प्रदायाभावान्न प्रतन्यते । पुव्वगए चउद्दसविहे पण्णत्ते, तं जहा–१. उप्पाय (आवनि १०२२ चू १ पृ ६००; हावृ १ पृ ३१०) पुव्वं २. अग्गेणीयं ३. वीरियं ४ अत्थिनत्थिप्पवायं वीर्यप्रवाद पूर्व ५ नाणप्पवायं ६. सच्चप्पवायं ७. आयप्पवायं ८. ततियं वीरियप्पवायं, तत्थ वि अजीवाणं जीवाणं कम्मप्पवायं ९. पच्चक्खाणं १०. विज्जाणुप्पवायं ११. यसकम्मेतराण वीरियं प्रवदति ति वीरियप्पवादं, तस्स अवंझ १२. पाणाउं १३. किरियाविसालं १४. लोकबिंदू- वि पदपरिमाणं सरि पदसतसहस्सा। (नन्दीच पृ७५) सारं। (नन्दी १०४) वीर्यप्रवाद तीसरा पूर्व है। इसमें अजीवों तथा Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राणायुप्रवाद पूर्व ४२५ पूर्व सकर्म-अकर्म जीवों के वीर्य का प्रवाद/कथन है। इसमें पगति-द्विति-अणुभाग-प्पदेसादिएहिं भेदेहि अण्णे हि य सत्तर लाख पद हैं। उत्तरुत्तरभेदेहिं जत्थ वणिज्जति तं कम्मप्पवाद, तस्स अस्तिनास्तिप्रवाद पूर्व वि पदपरिमाणं एगा पदकोडी असीति च पदसहस्साणि भवंति । चउत्थं अत्थिणत्थिप्पवादं, जं लोए जहा अत्थि जहा (नन्दीचू १७६) वा णत्थि, अहवा सितवादभिप्पादतो तदेवास्ति नास्ती कर्मप्रवाद आठवां पूर्व है। इसमें ज्ञानावरणीय त्येवं प्रवदतीति अत्थिणत्थिप्पवादं भणितं, तं पि आदि आठ कर्म, उनकी प्रकृति-स्थिति-अनुभाग-प्रदेश पदपरिमाणतो सद्रिं पदसतसहस्साणि । (नन्दीच प्र७५) तथा मूल-उत्तर प्रकृतियां वर्णित हैं। इसका पदपरिमाण चतुर्थ पूर्व है अस्तिनास्तिप्रवाद । यह स्याद्वाद की है र है-एक करोड़ अस्सी हजार पद । दृष्टि से लोक में अस्ति और नास्ति (जो जैसे है या जो प्रत्याख्यान पूर्व जैसे नहीं है) का कथन करता है। इसमें साठ लाख पद णवमं पच्चक्खाणं, तम्मि सव्वपच्चक्खाणसरूवं वणिज्जति ति अतो पच्चक्खाणप्पवादं, तस्स य ज्ञानप्रवाद पूर्व पदपरिमाणं चतुरासीति पदसतसहस्साणि भवंति ।। पंचमं णाणप्पवादं ति, तम्मि मतिणाणाइपंचकस्स (नन्दीचू पृ ७६) नौवां पूर्व है-प्रत्याख्यान । इसमें सब प्रकार के सप्रभेदं प्ररूवणा जम्हा कता तम्हा णाणप्पवाद, प्रत्याख्यानों का स्वरूप वर्णित है। इसका पदपरिमाण तम्मि पदपरिमाणं एका पदकोडी एकपदूणा ।। है-चौरासी लाख पद । (नन्दीचू पृ ७५) ज्ञानप्रवाद पांचवां पूर्व है। इसमें मतिज्ञान आदि पांच विद्यानुप्रवाद पूर्व ज्ञानों का भेद-प्रभेद सहित प्ररूपण किया गया है। दसम विज्जणुप्पवातं, तत्थ य अणेगे विज्जातिसया इसका पदपरिमाण है-एक कम एक करोड पद। वण्णिता, तस्स पदपरिमाणं एगा पदकोडी दस य पदसतसत्यप्रवाद पूर्व सहस्साणि । (नन्दीचू पृ ७६) दसवें विद्यानुप्रवादपूर्व में अनेक प्रकार की विद्याओं छटठं सच्चप्पवाद, सच्चं-संजमो सच्चवयण वा, का अतिशय/विशिष्ट विद्याओं का वर्णन है। इसका पदतं सच्चं जत्थ सभेदं सपडिवक्खं च वणिज्जति तं परिमाण है-एक करोड दस लाख पद ।। सच्चप्पवाद, तस्स पदपरिमाणं एगा पदकोडी छप्पदाधिया। (नन्दीचू पृ ७५,७६) ___ अवन्ध्य पूर्व छठा पूर्व है-सत्यप्रवाद । सत्य का अर्थ है संयम एकादसमं अवंझ ति, वंझ णाम णिप्फलं, ण वंझअथवा सत्य वचन । इसका विषय है-सत्य और असत्य मवंझ, सफलेत्यर्थः, सव्वे णाण-तव-संजमजोगा सफला के भेदों का वर्णन। इसका पदपरिमाण है--एक करोड़ वणिज्जति, अप्पसत्था य पमादादिया सव्वे असुभफला छह पद । वण्णिता, अतो अवंझं, तस्स वि पदपरिमाणं छव्वीसं पदआत्मप्रवाद पूर्व कोडीओ। __ (नन्दीचू पृ ७६) सत्तमं आयप्पवातं, आय त्ति -आत्मा सो णेगहा ग्यारहवें अवन्ध्य पूर्व में ज्ञान, तप व संयमयोगों की जत्थ णयदरिसणेहिं वणिज्जति तं आयप्पवादं. तस्स सफलता/सार्थकता तथा प्रमाद आदि अप्रशस्त योगों वि पदपरिमाणं छव्वीसं पदकोडीओ। (नन्दीच १७६) की असफलता/व्यर्थता वर्णित है। इसका पदपरिमाण __ आत्मप्रवाद सातवां पूर्व है। इसमें नाना नय- है छब्बीस करोड़ पद । दृष्टियों से आत्मा का निरूपण किया गया है। इसमें प्राणायुप्रवाद पूर्व छब्बीस करोड़ पद है। बारसमं पाणायु, तत्थ आ\-प्राणविधाणं सव्वं सभेदं कर्मप्रवाद पूर्व अण्णे य प्राणा वण्णिता, तस्स पदपरिमाणं एगा पदकोडी अट्टम कम्मप्पवादं, णाणावरणाइयं अटुविधं कम्मं छप्पण्णं च पदसतसहस्सा। (नन्दीचू पृ ७६) Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ पूर्वो की चूलि कायें अठारह बारह सोलह तीस ४. अस्तिनास्तिप्रवाद ५. ज्ञानप्रवाद ६. सत्यप्रवाद ७. आत्मप्रवाद ८. कर्मप्रवाद ९. प्रत्याख्यानप्रवाद १०. विद्यानुप्रवाद ११. अवन्ध्य (कल्याण) १२. प्राणायुप्रवाद १३. क्रियाविशाल १४. लोकबिन्दुसार बीस पन्द्रह बारह तेरह तीस पच्चीस बारहवें प्राणायुप्रवाद पूर्व में आयुष्यप्राण तथा अन्य इन्द्रिय आदि सभी प्राण भेदोपभेद सहित प्ररूपित हैं। इसका पदपरिमाण है-एक करोड छप्पन लाख पद। क्रियाविशाल पूर्व तेरसमं किरियाविसालं, तत्थ कायकिरियादियाओ विसाल त्ति-सभेदा, संजमकिरियाओ य छंदकिरियविहाणा य, तस्स वि पदपरिमाणं णव कोडीओ। (नन्दीचू पृ७६) तेरहवें क्रियाविशाल पूर्व में कायिकी आदि क्रियाएं, संयमक्रियाएं, छन्द-शार्दूलविक्रीडित आदि, क्रियाएं करोति, भवति आदि तथा उनके प्रकार विस्तार से वणित हैं। इसका पदपरिमाण है -नौ करोड़ पद । लोकबिन्दुसार पूर्व चोद्दसमं लोगबिंदुसारं, तं च इमम्मि लोए सुतलोए वा बिंदुमिव अक्खरस्स सारं सव्वुत्तमं सव्वक्खरसण्णिवातपढितत्तणतो लोगबिंदुसारं, तस्स पदपरिमाण अड्ढतेरस पदकोडीओ। (नन्दीच पृ ७९) ___ लोकबिन्दुसार चौदहवां पूर्व है । यह लोक में अथवा श्रुतलोक में अक्षर पर बिंदु की भांति सर्वोत्तम है। यह सर्वाक्षर-सन्निपात लब्धि का हेतू है। इसका पदपरिमाण है-साढे बारह करोड़ पद । ४. पूर्व के वस्तु (अध्याय) दस चोदस अट्ठ, अट्ठारसेव बारस दुवे य वत्थूणि। सोलस तीसा वीसा, पण्णरस अणुप्पवायम्मि ।। बारस इक्कारसमे, बारसमे तेरसेव वत्थूणि । तीसा पुण तेरसमे, चोद्दसमे पण्णवीसाओ।। (नन्दी ११८ संग्रहणी गाथा १,२) वस्तु १. उत्पाद दस २. अग्रायणीय चौदह ३. वीर्यप्रवाद आठ __ चूडा इव चूडा, ग्रन्थे उक्ताऽनुक्तार्थसंग्रहपरा ग्रन्थपद्धतयश्चूडा। (नन्दीहाव पृ ९३) ___ मूल ग्रन्थ में प्रतिपादित-अप्रतिपादित अर्थ का संग्रह करने वाली ग्रन्थपद्धति का नाम है चला। दिट्टिवाते जं परिकम्म-सुत्त-पुव्व-अणुयोगे य ण भणितं तं चूलासु भणितं । ताओ य चलाओ आदिल्लपुव्वाण चतुण्हं जे चूलवत्थू भणिता ते चेव सव्वुवरि ट्ठविता पढिज्जति य, अतो ते सुयपव्वयचूला इव चूला । (नन्दीचू पृ ७९) परिकर्म, सूत्र, पूर्व और अनुयोग--दृष्टिवाद के इन चार भेदों में जो प्रतिपादित नहीं हुआ है, वह चलाओं में प्रतिपादित है। प्रथम चार पूर्वो की चूलाएं हैं। अध्ययन के क्रम में चूलावस्तु सबसे अंत में पढ़ी जाती हैं, अतः वे श्रुत रूप पर्वत की चूलाएं हैं। चत्तारि दुवालस अट्ट चेव दस चेव चुल्लवत्थूणि । आइल्लाण चउण्हं, सेसाणं चूलिया नस्थि ।। (नन्दी ११८१३) उत्पादपूर्व के चार, अग्रायणीय के बारह, वीर्यप्रवाद के आठ और अस्तिनास्तिप्रवाद के दस चूलिका-वस्तु हैं। शेष पूर्वो के चूलिका-वस्तु नहीं है। Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम चतुर्दशपूर्वी ४२७ चौदह पूर्व : एक परिचय पूर्व विषय | पद-परिमाण | वस्तु चूलिका-वस्तु १.उत्पाद द्रव्य और पर्यायों की उत्पत्ति १ करोड । १० । ४ २. अग्रायणीय द्रव्य, पर्याय और जीवों का परिमाण | ९६ लाख ३. वीर्यप्रवाद अजीवों तथा सकर्म-अकर्म जीवों के वीर्य का वर्णन ७० लाख ८ ८ ४. अस्तिनास्तिप्रवाद पदार्थ की सत्ता-असत्ता का निरूपण ।६० लाख ___ | १८ | १० ५. ज्ञानप्रवाद | पांच ज्ञानों का भेद-प्रभेद सहित प्ररूपण एक कम १ करोड १२ | ० ६.सत्यप्रवाद सत्य और असत्य के भेदों का वर्णन | १ करोड़ छह ।२ । ० ७. आत्मप्रवाद नाना नयदृष्टियों से आत्मा का निरूपण | २६ करोड़ |१६ | ० ८. कर्मप्रवाद कर्म का स्वरूप और प्रकार १ करोड ८० हजार ३० । ० ९. प्रत्याख्यानप्रवाद| प्रत्याख्यानों का स्वरूप वर्णन | चौरासी लाख | २० | . १०. विद्यानुप्रवाद | विशिष्ट विद्याओं का वर्णन १ करोड १० लाख १५ । ० ११. अवन्ध्य संयमयोगों की सार्थकता, असंयमयोगों की व्यर्थता | २६ करोड । १२ । ० १२. प्राणायुप्रवाद प्राणों के भेद-प्रभेद का प्ररूपण १ करोड ५६ लाख १३ । । १३. क्रियाविशाल क्रियाओं के भेद-प्रभेद का निरूपण | ९ करोड़ ।३० । . १४. लोकबिन्दुसार | सर्वाक्षरसन्निपात लब्धि का निरूपण | १२१ करोड़ । २५ | . ७. परीषह प्रविभक्ति का उद्गम : पूर्व वादपूर्व से, वाक्यशुद्धि (सातवां अध्ययन) सत्यप्रवादपूर्व अस्य कर्मप्रवादपूर्वसप्तदशप्राभृतोद्धततया वस्तुतः स आर शष सात अध्ययन प्रत्याख्यान पूव का ता सुधर्मास्वामिनैव जम्बूस्वामिनं प्रति प्रणीतत्वात् । वस्तु से उद्धृत किए गए हैं। (उशाव प १३२) दूसरी मान्यता के अनुसार इसका निर्यहण आर्य सुधर्मा ने जम्बूस्वामी को 'परीषहप्रविभक्ति' गणिपिटक द्वादशांगी से किया गया । (उत्तराध्ययन का दूसरा अध्ययन) की वाचना दी । यह ६. चतुर्दशपूर्वी अध्ययन कर्मप्रवादपूर्व के सतरहवें प्राभृत से उद्धृत है। ते किर चउदसपुब्बी, सव्वक्खरसन्निवाइणो निउणा ।... कम्मप्पवायपुव्वे सत्तरसे पाहुडंमि जं सुत्तं । (उनि ३१७) सणयं सोदाहरणं तं चेव इहंपि णायव्वं ।। चोहसुपुव्वीणं अजिणाणं जिणसंकासाणं सव्वक्खर (उनि ६९) सन्निवादीणं जिणोविव अवितहं वागरमाणाणं"। कर्मप्रवादपूर्व के सतरहवें प्राभृत में परीषहों का नय (आवचू १ पृ १५९) और उदाहरण सहित निरूपण है । चौदहपूर्वी जिन नहीं होते, जिन के सदृश होते हैं । ८. दशवकालिक का उद्गम वे जिन की तरह यथार्थभाषी होते हैं । उन्हें सर्वाक्षर सन्निपात लब्धि प्राप्त होती है।। आयप्पवायपुव्वा णिज्जूढा होई धम्मपण्णत्ती। आगमो चोद्दसपुव्वा णिट्ठ पत्ता जाव संयभूरमणे वि कम्मप्पवायपुव्वा पिंडस्स तु एसणा तिविधा ॥ जं मच्छओ करेति तं पि जाणति । (आवच १ पृ ५४३) सच्चप्पवातपुव्वा णिज्जूढा होति वक्कसुद्धी उ। चतुर्दशपूर्वी स्वयंभूरमण समुद्र के मत्स्यों की चेष्टाएं अवसेसा णिज्जूढा णवमस्स उ ततियवत्थूतो॥ भी जान सकते हैं। बितिओ वि य आदेसो गणिपिडगातो दुवालसंगातो। ऋद्धयश्चामखैषध्यादयश्चक्रवर्तिनमपि योधयेदित्येवं (दनि ५-७) विधपुलाकलब्ध्यादयश्च महत्य एवास्य भवन्ति, सन्ति दशवैकालिक का धर्मप्रज्ञप्ति (चौथा अध्ययन) चास्यापि चतुर्दशरत्नोपमानि सकलातिशयनिधानानि आत्मप्रवादपूर्व से, पिण्डैषणा (पांचवां अध्ययन) कर्मप्र- पूर्वाणि । (उशावृ प ३५०) Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ चतुर्दशपूर्वी में ज्ञान चतुर्दशपूर्वी आमषिधि आदि लब्धियों से सम्पन्न प्रत्येकबुद्ध में पूर्व अधीत श्रुत की नियमा हैहोते हैं । चक्रवर्ती के साथ भी युद्ध कर सके, वैसी पुलाक जघन्यत: ग्यारह अंग, उत्कृष्टतः भिन्न दस पूर्व । लब्धि उनके पास होती है । जैसे चक्रवर्ती चौदह रत्नों पुलागबकुसपडिसेवणाकुसीला य उक्कोसेणं अभिन्नके अधिपति होते हैं, वैसे ही वे अक्षय ज्ञानकोष रूप दसपुव्वधरा कषायकुशीलनिर्ग्रन्थौ चतुर्दशपूर्वधरी। चौदह पूर्वो के ज्ञाता होते हैं। जघन्येन पुलाकस्य श्रुतमाचारवस्तु नवमपूर्वे बकुशकुशील(चतुर्दशपूर्वी एक घट से हजार घट, एक पट से निर्ग्रन्थानां श्रुतमष्टौ प्रवचनमातरः । (उशावृ प २५८) हजार पट, एक कट से हजार कट, एक छत्र से हजार पुलाक, बकुश और प्रतिसेवनाकुशील-ये तीन छत्र और एक दंड से हजार दंड निर्मित कर दिखा प्रकार के निग्रंथ उत्कृष्टत: अभिन्न होते हैं सकते हैं। देखें -भगवती ५।४।११२) और कषायकुशील निग्रंथ चतुर्दशपूर्वधर होते हैं । पुलाक आगमनि!हण निग्रंथ जघन्यत: नौवें पूर्व की आचारवस्तु के ज्ञाता होते हैं और बकुश तथा कुशील निग्रंथ अष्ट प्रवचनचोद्दसपुव्वी कहिंपि कारणे समुप्पण्णे णिज्जूहइ, __ माता के ज्ञाता होते हैं। दसपुब्बी पुण अपच्छिमो अवस्समेव णिज्जूहइ, ममंपि इमं कारणं समुप्पण, अहमवि निज्जुहामि दसवेया १२. चतुर्दशपूर्वी का ज्ञान परस्पर तुल्य लियं । (दजिचू पृ ७) अक्खरलंभेण समा ऊणहिया होंति मइविसेसेहिं । ___ चौदहपूर्वी कारण उपस्थित होने पर नि!हण करते ते वि य मईविसेसे सुयनाणभंतरे जाण ॥ हैं । अन्तिम दशपूर्वी अवश्य नि!हण करते हैं । चौदहपूर्वी (विभा १४३) आचार्य शय्यंभव ने कारण उपस्थित होने पर दशका- अक्षरलाभ की अपेक्षा से सभी चौदहपूर्वी तुल्य होते लिक का नि!हण किया। हैं किंतु क्षयोपशम की विचित्रता से प्राप्त मतिविशेषों की अपेक्षा से उनमें न्यूनाधिकता भी होती है। ये मति१०. पूर्वधर : दृष्टि और श्रुत विशेष श्रुतानुसारी होने के कारण श्रतज्ञान के अन्तर्गत चोद्दस दस य अभिन्ने नियमा सम्मं तु सेसाए भयणा .. ही हैं, मतिज्ञानान्तर्भावी नहीं हैं। (विभा ५३४) चतुर्दशपूर्वी और पूर्ण दशपूर्वी नियम से सम्यक्दृष्टि १३. चतुर्दशपूर्वी में ज्ञान की तरतमता : श्रुतहोते हैं । शेष अपूर्ण दशपूर्वी से आचारांगधर पर्यन्त में निबद्ध भाव सम्यक्त्व की भजना है-वे सम्यकदष्टि भी हो सकते हैं जं चोद्दसपुव्वधरा छटाणगया परोप्परं होति । और मिथ्यादृष्टि भी। तेण उ अणंतभागो पण्णवणिज्जाण, जं सुत्तं ।। इच्चेयं दुवालसंग गणिपिडगं चोद्दसपुव्विस्स सम्मसुयं, अणंतभागहीणे वा, असंखेज्जभागहीणे वा, संखेज्जअभिण्णदसपुव्विस्स सम्मसुयं, तेण परं भिण्णेसु भयणा। भागहीणे वा, संखेज्जगुणहीणे वा, असंखेज्जगुणहीणे वा, (नन्दी ६६) अणंतगुणहीणे वा । अणंतभागब्भहिए वा, असंखेज्जद्वादशांग गणिपिटक चतुर्दशपूर्वी से अभिन्नदसपूर्वी भागब्भहिए वा, संखेज्जभागब्भहिए वा, संखेज्जगुणब्भहिए पर्यंत सम्यक् श्रुत होता है। शेष भिन्नदसपूर्वी आदि में वा, अणंतगुणब्भहिए वा। सम्यक् श्रुत की भजना है। यदि पूनर्यावन्तः प्रज्ञापनीया भावास्तावन्तः सर्वेऽपि सूत्रे निबद्धा भवेयुः, तदा तदवेदिनां तुल्यतैव स्यात्, न ११. पूर्व और प्रत्येकबुद्ध आदि षट्स्थानपातित्वम् । (विभा १४२ मवृ पृ ७५,७६) पत्तेयबुद्धाणं पुव्वाधीतं सुतं णियमा भवति-जहण्णेणं चौदहपूर्वी परस्पर षट्स्थानपतित--ग्रहणक्षमता में एक्कारसंगा, उक्कोसेणं भिण्णदसपुव्वा । न्यूनाधिक होते हैं। यदि सारे प्रज्ञापनीयभाव श्रुतनिबद्ध (नन्दोचू पृ २६) हों तो उनके ज्ञाता में तरतमता नहीं होती, वे सब समान Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तिम दसपूर्वी ४२९ पूर्व ही होंगे। परन्तु छह प्रकार से तरतमता है, इसलिए अवहृत किया जाये तो अनन्त उत्सर्पिणी और अनन्त प्रज्ञापनीय भावों का अनन्तवां भाग ही श्रुतनिबद्ध है। अवसपिणी में भी उनका अवहार नहीं हो सकता, इसे वे छह स्थान ये हैं भावतः अक्षीण कहा जाता है। न्यून अधिक १५. अवसर्पिणी काल में पूर्वधरों का क्रम १. अनन्तभाग हीन १. अनन्तभाग अधिक ____ अस्यामवसर्पिण्यां चतुर्दशपूर्व्यनन्तरं दशपूर्वधरा एव २. असंख्येयभाग हीन २. असंख्येयभाग अधिक ३ संख्येयभाग हीन ३. संख्येयभाग अधिक संजाता न त्रयोदशपूर्वधरा द्वादशपूर्वधरा एकादशपूर्वधरा वा । ४. संख्येयगुण हीन ४. संख्येयगुण अधिक (ओनिवृ प ३) ५. असंख्येयगुण हीन ५. असंख्येयगुण अधिक इस अवसर्पिणी कालखंड में चतुर्दशपूर्वी हुए हैं, ६. अनन्तगुण हीन ६. अनन्तगुण अधिक उनके पश्चात् दशपूर्वी ही हुए, किंतु तेरहपूर्वी, बारहपूर्वी उक्कोससुयन्नाणी वि जाणमाणो वि तेऽभिलप्पे वि। या ग्यारहपूर्वी नहीं हुए। न तरइ सव्वे वोत्तु न पहुप्पइ जेण कालो से ॥ १६. चौदह पूर्वो की स्मृति की भजना तस्योत्कृष्ट श्रुतज्ञानिनो वदतः कालो न प्रभवति न चोद्दसपुव्वी मणुओ देवत्ते तं न संभरइ सव्वं । पूर्यते, आयुषः परिमितत्वात् वाचश्च क्रमवर्तित्वात् । देसम्मि होइ भयणा सट्टाणभवे वि भयणा उ । (विभा ४५२ मवृ पृ २१४) (विभा ५३९) __एक चतुर्दशपूर्वी, जो उत्कृष्ट श्रुतज्ञानलब्धि से । चतुर्दशपूर्वी को देवलोक में उत्पन्न होने पर सारे श्रुत सम्पन्न है, सब भावों को जानता है, फिर भी वह सब की स्मृति नहीं रहती। आंशिक स्मृति रह भी सकती है, प्रज्ञापनीय (अभिलाप्य) भावों का पूर्णतया प्रतिपादन नहीं भी रहती। वर्तमान जन्म में भी भजना है। करने में समर्थ नहीं होता, क्योंकि आयूष्य परिमित और श्रुतज्ञान के नाश के कारण वचन क्रमवर्ती होने के कारण अनन्त भावों को व्यक्त करने जितना समय नहीं रहता। मिच्छ-भवंतर-केवल-गेलन्न पमायमाइण नासो ।.... (विभा ५४०) १४. अन्तर्मुहूर्त में चौदहपूर्वो की अनुप्रेक्षा श्रुत-नाश के ये कारण हैंमहापाणं किर जदा अतिगतो होति ताहे उप्पण्णे ० मिथ्यात्व कज्जे अन्तोमुहुत्तेण चोद्दसवि पुव्वाणि अणुप्पेहेज्जंति, ० भवान्तर-गमन उक्कइओवइयाणि करेति । (आव २ पृ १८७) ० केवलज्ञान की प्राप्ति __ महाप्राण (महापान) ध्यान की साधना सम्पन्न होने ___० रुग्ण शरीर पर चतुर्दशपूर्वी प्रयोजन उपस्थित होने पर अन्तर्मुहूर्त में ० प्रमाद आदि । चौदह ही पूर्वो की अनुप्रेक्षा--पर्यालोचना कर लेता है, । १७. अन्तिम दसपूर्वी अनुक्रम-व्युत्क्रम से उनका परावर्तन कर लेता है। ___चोदसपुव्वधरस्सागमोवउत्तस्स अन्तमुत्तमेत्तोवयोग अज्जवइरा उवउत्ता--"मतेहितो वोच्छिज्जिहिति काले अत्थोवलंभोवयोगपज्जवा जे ते समयावहारेण दसमपुव्वं । "तमि य भगवंते अद्धनारायसंघयणं दस अणंताहिवि उस्सप्पिणीओसप्पिणीहि णोवहिज्जति ते पुव्वाणि य वोच्छिण्णा। (आवहावृ १ पृ २०२, २०३) अतो भणितं आगमतो भावअझीणं । (अनुच १८८) आर्य वज्र (वीरनिर्वाण की छठी शती) के पश्चात चतुर्दश पूर्वविद् मुनि, जो आगम ग्रन्थों के विषय में विद्यानुप्रवाद नामक दशवां पूर्व तथा अर्धनाराच संहनन एकाग्रचित्त है, वह अन्तर्महर्त मात्र में असीम पर्यायों को -ये दोनों विच्छिन्न हो गये। जान लेता है, एक-एक पर्याय को एक-एक समय में Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोषरिहार ४३० पूर्वगत चौदह पूर्व । दृष्टिवाद का तीसरा भेद | ( द्र. पूर्व ) पूर्वानुयोग दृष्टिवाद का चौथा भेद । (द्र दृष्टिवाद) पृथ्वीकाय- पृथ्वी ही है शरीर जिनका, वे जीव । ( द्र. जीवनिकाय) पोट्टपरिहार - पुन: पुन: उसी शरीर में उत्पन्न होना - 'पउट्टपरिहारो नाम परा वर्त्य तस्मिन्नेव सरीरके उववज्जति । (आवचू १ पृ२९९) सिद्धत्थपुराओ य कुंमग्गामं संपत्थिया । तत्थ अंतरा एगो तिलभओ । तं दट्ठूण गोसालो भणति भगवं ! एस तिलथंभओ कि निप्फज्जिहिति न वत्ति ? सामी भणइ - निष्फज्जिही। एते य सत्त पुप्फजीवा ओदाइत्ता एतस्सेव तिलथंभस्स एगाए सिबलियाए पच्चायाहिति । ते असते अवक्कमित्ता सलेट्ठओ उप्पाडितो । एगंते य एडिओ । वुट्ठं पुष्फा य पच्चायाता । ( आवचू १ पृ २९७) कूर्मग्राम की ओर प्रस्थान पौधा था । गोशालक ने तिल का पौधा निष्पन्न महावीर ने सिद्धार्थपुर से किया । मार्ग में एक तिल का उसे देख पूछा - भगवन् ! यह होगा या नहीं ? महावीर ने कहा - यह पर लगे सात फूलों के जीव फली में पैदा होंगे । निष्पन्न होगा। इस पौधे मरकर इसी पौधे की एक गोशालक महावीर के वचनों पर अश्रद्धा करते हुए ने जड़ सहित पौधे को उखाड़ा और एकान्त में फेंक दिया । उसी समय आकाश में दिव्य बादल आए ।... उससे तिलस्तम्भ का रोपण हुआ। वह अंकुरित हुआ, बद्धमूल हुआ और वहीं पर प्रतिष्ठित हो गया । तिलपुष्प के वे सात जीव मरकर उसी तिलस्तंभ की एक फली में सात तिलों के रूप में उत्पन्न हो गए । अन्नदा सामी कुंमग्गामाओ सिद्धत्यपुरं संपत्थितो । पुणरवि तिलथंभस्स अदूरसामंतेण जाव वतिवयति ताहे पुच्छइ भगवं ! जहा न निष्फण्णो । प्रतिक्रमण भगवता कहितं - जहा निष्फण्णो । तं एवं वणप्फईण पउट्टपरिहारो । (आवचू १ पृ २९९) महावीर ने कूर्मग्राम से सिद्धार्थपुर की ओर प्रस्थान किया । ज्योंही तिल के पौधे के पास से गुजरे कि गोशालक ने पूछा- भगवन् ! तिल का पौधा निष्पन्न नहीं हुआ है । महावीर ने कहा- तिल का पौधा निष्पन्न हो गया है । 'पोट्टपरिहार' केवल बनस्पतिकाय में ही होता है । प्रच्छना - प्रतिप्रश्न करना । भेद । प्रतिक्रमण - असंयम से संयम में लौटना । १. प्रतिक्रमण का अर्थ * प्रतिक्रमण : आवश्यक का एक विभाग ( द्र. आवश्यक) मिच्छामि दुक्कडं का अर्थ २. प्रतिक्रमण के पर्याय ० • आठ दृष्टांत ३. प्रतिक्रमण के प्रकार • दैवसिक रात्रिक प्रतिक्रमण • इत्वरिक यावत्कथिक प्रतिक्रमण • पाक्षिक आदि प्रतिक्रमण क्यों ? ४. प्रतिक्रमण सूत्र ० ईर्यापथिक प्रतिक्रमण स्वाध्याय का एक ( द्र. स्वाध्याय) ० शय्या अतिचार प्रतिक्रमण * गोचरचर्या - अतिचार प्रतिक्रमण (द्र गोचरचर्या) ० स्वाध्याय प्रतिलेखना अतिचार प्रतिक्रमण ५. प्रतिक्रमण के स्थान ६. अतिचार के हेतु ७. असंभव अतिचारों का प्रतिक्रमण क्यों ? ८. तीन काल का प्रतिक्रमण ९. प्रतिक्रमण की सार्थकता १०. प्रतिक्रमण के परिणाम * प्रतिक्रमण का कल्प ( द्र. शासनभेद ) * प्रतिक्रमण: प्रायश्चित्त का एक भेद ( द्र. प्रायश्चित्त) * प्रतिक्रमण और कृतिकर्म * देवसिक आदि प्रतिक्रमण और ११. प्रतिक्रमण की उपसम्पदा ( द्र. वन्दना) लोगस्स परिमाण ( द्र. कायोत्सर्ग) Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण के पर्याय ४३१ प्रतिक्रमण १. प्रतिक्रमण का अर्थ मूलगुणों और उत्तरगुणों में स्खलना होने पर जब नेयं पडिक्कमामि त्ति भूयसावज्जओ निवत्तामि। संवेग की पुन: प्राप्ति होती है, तब मुनि भावना की तत्तो य का निवत्ती ? तदणुमईओ विरमणं जं ॥ विशुद्धि से प्रमाद की स्मृति करता हुआ आत्म-निन्दा (विभा ३५७२) और गर्दा करता है, वह प्रतिक्रमण है। प्रतिक्रमण का अर्थ है-भूतकाल के सावद्ययोगों मिच्छा मि दुक्कडं का अर्थ से निवृत्ति । यह निवृत्ति अनुमोदनविरमण रूप होती मित्ति मिउमद्दवत्ते छत्ति अ दोसाण छायणे होइ । मित्ति य मेराइ ठिओ दुत्ति दुगंछामि अप्पाणं ।। पडिक्कमामि नाम अपुणक्करणताए अब्भुठेमि कत्ति कडं मे पावं डत्तियं डेवेमि तं उबसमेणं । अहारिहं पायच्छित्तं पडिवज्जामि । (आव २ पृ ४८) एसो मिच्छादुक्कडपयक्खरत्थो समासेणं ।। प्रतिक्रमण का अर्थ है-दोष का पुनः सेवन न करने (आवनि १५०५, १५०६) का संकल्प और यथायोग्य प्रायश्चित्त का स्वीकरण तथा 'मि' के दो अर्थ हैं--काया की ऋजुता तथा भावों वहन । की ऋजुता, 'छा' का अर्थ है-असंयम का स्थगन, 'मि' स्वस्थानाद्यत्परं स्थानं, प्रमादस्य वशाद् गतः । का अर्थ है-मैं चारित्र की मर्यादा में स्थित हूं। 'दु' का तत्रैव क्रमणं भूयः, प्रतिक्रमणमुच्यते ।। अर्थ है-मैं दुष्कृतकारी आत्मा की निन्दा करता हूँ। क्षायोपशमिकाद्वापि, भावादौदयिकं गतः । 'क' का अर्थ है-मैंने पापकर्म किया है। 'ड' का अर्थ तत्रापि हि स एवार्थः, प्रतिकूलगमात् स्मृतः ।। है-मैं उसका अतिक्रमण करता हूं, लंघन करता हूं। पति पति पवत्तणं वा सुभेसु जोगेसु मोक्खफलदेसु । (इसका तात्पर्य है-मैं संयम में स्थित हैं। मेरे निस्सल्लस्स जतिस्सा जं तेणं तं पडिक्कमणं ।। द्वारा जो अनाचीर्ण का आचरण हआ है, उसे मैं काया (आवचू २ पृ ५२) और भावों की ऋजुता से स्वीकार कर उसका प्रायश्चित्त प्रतिक्रमण का अर्थ है करता हूं।) १. प्रमादवश पर-स्थान (असंयम) में चले जाने पर पुनः स्वस्थान (संयम) में आना । २. प्रतिक्रमण के पर्याय २. औदयिक भाव से क्षायोपशमिक भाव में पडिकमणं पडियरणा परिहरणा वारणा नियत्ती य । लौटना। निंदा गरिहा सोही पडिकमणं अट्टहा होइ ।। ३. निःशल्य हो अशुभयोग से शुभयोग में प्रवृत्त (आवनि १२३३) होना। प्रतिक्रमण, प्रतिचरण, परिहरण, वारणा, निवृत्ति, पडिक्कमणं पुण-पवयणमादिकादिसु आवस्सगाइ- निन्दा, गर्दा और शोधि-ये प्रतिक्रमण के आठ पर्याय क्कमे वा सहसाइक्कमणे पडिचोतितो सतं वा सरिऊण 'मिच्छा दुक्कडं' करेति, एवं तस्स सुद्धी। आठ दृष्टान्त (दअचू पृ १४) अद्धाणे पासाए दुद्धकाय विसभोयणतलाए । प्रवचनमाता (समिति-गुप्ति) के आचरण में अथवा आवश्यक में अतिक्रमण होने पर, सहसा अतिक्रमण होने दो कन्नाओ पइमारिया य वत्थे य अगए य ।। (आवनि १२४२) पर, दूसरे के द्वारा कहे जाने पर अथवा स्वयं उस अतिक्रमण की स्मृति कर 'मिच्छा मि दुक्कडं-मेरा दुष्कृत १. प्रतिक्रमण-प्रमादवश संयम से बाहर चले जाने पर मिथ्या हो'-ऐसा उच्चारण करना प्रतिक्रमण है। इससे पुनः संयम में लौट आना। दोषों की शुद्धि होती है। एक राजा नगर के बाहर प्रासाद का निर्माण मूलुत्तरावराहक्खलणाए क्खलितो पच्चागतसंवेगे। कराना चाहता था। उसने शुभ तिथि-नक्षत्र में कार्य प्रारंभ विसुज्झमाणभावो पमातकरणं संभरतो अप्पणो णिदण- किया। उस क्षेत्र के संरक्षण के लिए रक्षक नियुक्त कर गरहणं करेति । (अनुचू पृ १८) उन्हें कहा- जो इसमें प्रवेश करे, उसे मौत के घाट Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण ४३२ प्रतिक्रमण के दृष्टांत उतार देना। जो उन्हीं पैरों लौट आए, उसे मत पानी के स्रोतों-तालाब, वापी, सरोवर आदि में विष मारना । एक दिन दो ग्रामीण व्यक्ति अजान में उसमें मिला दिया। आक्रमणकारी राजा को यह ज्ञात हो घुस गए। आरक्षकों ने उन्हें पकड़ा। एक ने उइंडतापूर्वक गया। उसने अपने स्कंधावार में यह घोषणा करवाई कि कहा--भीतर आ गए तो क्या हुआ ? रक्षकों ने उसे यहां का सारा खाद्य और पेय विषमिश्रित है। कोई भी मार डाला। दूसरे ने गिड़गिड़ाते हुए कहा-आप जैसा उसे न खाए । जिन सुभटों ने घोषणा के अनुसार बरताव कहेंगे, वैसा करूंगा। मुझे न मारें। रक्षकों ने कहा- किया, वे जीवित रह गए, और जिन्होंने घोषणा की आगे मत जाना। वह उन्हीं पैरों लौट आया। उसके अवहेलना की, वे मृत्यु को प्राप्त हो गए। प्रतिक्रमण ने उसे बचा लिया। जो दोषों से दूर रहता है, वह चारित्र की सही २. प्रतिचरण--अकार्य का परिहार और कार्य में अनुपालना करता है। प्रवृत्ति । ५. निवृत्ति-अशुभ भावों से निवर्तन। एक धनाढ्य वणिक् ने विशाल हर्म्य बनाया। एक एक गच्छ में अनेक मुनि थे। एक तरुण मुनि बार वह वणिक अपना हर्म्य अपनी पत्नी को संभला कर व्युत्पन्न था। आचार्य उसको गणधारण के योग्य समझदेशान्तर चला गया। कुछ समय बीता। हम्यं का एक कर सदा बढ़ाते रहते । एक बार वह आवेश के वशीभूत खंड गलित-पलित होकर गिर गया। सेठानी ने कहा- होकर गण से निकल गया। मार्ग में जाते-जाते उसने एक इतने विशाल मकान का एक कोना गिर जाने से क्या गीत सुनाअनर्थ होगा? उसी मकान के एक ओर पीपल का अंकुर 'तरितव्वा य पतिण्णया, मरितव्वं वा समरे समस्थएणं । अंकुरित हो गया। सेठानी ने लापरवाही बरती। असरिसवयणुप्फेसया, न हु सहितव्वा कुले पसूयएणं ॥' कालान्तर में उसके विस्तार से सारा हर्म्य ढह पड़ा। उसने सोचा, गीत में कितना सुन्दर कहा है-- सेठानी ने सोचा-यदि मैं प्रारंभ से ही जागरूक रहती 'व्यक्ति को सत्यप्रतिज्ञ होना चाहिए । सामान्य व्यक्तियों तो यह दशा नहीं होती। का अपलाप सहने से युद्ध में मर जाना अच्छा है।' जो दोषों की उपेक्षा करता है, वह संयम से भ्रष्ट । इस गीत-भावना से प्रेरित होकर वह मुनि पुन: गण में होकर दु:खी हो जाता है । जो प्रायश्चित्त के द्वारा दोषों आ गया। की विशुद्धि कर लेता है, वह चारित्र की अखंड आराधना ६. निदा-आत्म-संताप । कर सकता है। एक राजा ने चित्रशाला के लिए दूर-दूर से चित्र३. परिहरण-अस्थानों-दोषों का परिहरण । कारों को बुलाया। कुछ चित्रकार स्थानीय थे। एक एक कूलपूत्र ने दो व्यक्तियों को दो-दो घड़े देकर बार तत्रस्थ चित्रकार की कन्या अपने पिता के लिए कहा-जाओ, गोकूल से दूध ले आओ। दोनों गए। भोजन लेकर जा रही थी। राजा घोडे को सरपट घड़ों को दूध से भरकर, कावड़ में घड़े रख, घर की दौड़ाता हुआ उधर से निकला। लड़की ने सड़क से ओर प्रस्थित हए। जाने के दो मार्ग थे। एक ऋजु कितु हटकर अपनी जान बचाई। वह चित्रशाला में पिता की ऊबड़-खाबड़, दूसरा वक्र किन्तु निरापद । एक ऋजु माग प्रतीक्षा करने लगी। उस समय उसने मयूरपिच्छ का से चला। मार्ग ऊंचा-नीचा होने के कारण ठोकर लगी। चित्र बनाया। इतने में ही राजा चंक्रमण करता हआ दोनों घड़े फूट गए। दूसरा वक्र मार्ग से चला और घड़ों वहां आया और उस चित्रगत मयूरपिच्छ को असली सहित घर पहुंच गया। समझ कर हाथ से उठाना चाहा। नखों पर आघात विषम स्थानों का परिहार करने वाला सुखपूर्वक लगा। कन्या हंस पडी । राजा ने हंसने का कारण पूछा। लक्ष्य तक पहुंच जाता है। लड़की निपुण थी। वह बोली-मेरी मंचिका के तीन ४. वारण-अपने आपको दोषों से दूर रखना । ही पाये हैं। आज तुम चौथे मिल गए । राजा ने कहा. एक राजा था। उसने पड़ोसी राज्य पर आक्रमण मैं चौथा कैसे ? कन्या ने उसको उसका रहस्य बताया कर दिया। पडोसी राजा ने सभी प्रकार के खाद्यों तथा और छह महीनों तक कथाओं में उलझाए रखा। कुछ Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण के प्रकार समय बीता। एक दिन कन्या ने अपना आत्म संताप करते 'हुए एकान्त में अपने आपसे कहा - 'अरे चित्रकारघुया ! तू यह गर्व मत करना कि तू राजा की प्रिया है।' राजा ने यह सुना और उसके आत्म-संताप और यथार्थ पर प्रसन्न होकर उसे अग्रमहिषी बना दिया । यह द्रव्य निदा है। मुनि भाव निन्दा करे हे जीव ! तुम अनन्तकाल से भवभ्रमण कर रहे हो। इस जन्म में तुम्हें मनुष्यत्व, सम्पक्त्व और चारित्र मिला। लोगों में तुम पूजनीय बने । परंतु यह गर्व मत करो कि तुम पूजनीय हो, बहुश्रुत हो आदि । ७. गगुरु के समक्ष आलोचना करना । ४३३ एक स्थविर ब्राह्मण अध्यापक की तरुण पत्नी एक पिंडारक में आसक्त थी । वह नर्मदा नदी के उस पार रहता था । तरुणी ब्राह्मणी वैश्वदेव बलि करती और कहती मुझे कौओं से भय लगता है। ब्राह्मण ने उसकी रक्षा के लिए छात्रों को नियुक्त कर दिया। एक दिन एक छात्र ने यह जान लिया कि यह तरुणी ब्राह्मणी प्रतिदिन मगरमच्छों से भरी नर्मदा नदी को तैर कर जाती है और कहती है में कौओं से डरती हूं। उस छात्र ने एक बार उसे कहा 'दिवा कागाण बीमेसि सि तरसि नम्मदं । कृतित्याणिव जाणासि, अच्छीणं उक्कणाणि च ।।' उस तरुणी ने जान लिया कि छात्र ने मेरा सारा रहस्य जान लिया है। वह उसमें आसक्त हो गई। छात्र ने कहा- अध्यापक को ज्ञात हो जाने पर ? तब उस तरुणी ने अपने पति अध्यापक को मरवा डाला । कालान्तर में वह विक्षिप्त हो गई। वह पर पर भिक्षा मांगने जाती और कहती 'मए मदणुसत्ताए, पती मारितो मे रखो । तरुण खमाणीए कुलं सीलं च कुंसितं ।' 'मैं पतिमारक हूं, मैं पतिमारक हूं, मुझे भिक्षा दो ।' वह ग करती रही। कालान्तर में वह प्रवजित होकर आत्म-साधना करने लगी । ८. शोधि दोषों का उच्छेद करना । राजा श्रेणिक ने एक बार रजक को दो रेशमी वस्त्र प्रक्षालन के लिए दिए। उस दिन कौमुदी महोत्सव था । रजक ने उत्सव का दिन सोचकर दोनों वस्त्र अपनी दोनों प्रतिक्रमण पत्नियों को दे दिए। वे उन्हीं रेशमी वस्त्रों को पहन कर महोत्सव में गईं । प्रच्छन्नरूप से घूमते हुए राजा ने अपने वस्त्र पहचान लिए। दोनों महिलाओं ने ताम्बूल से उन दोनों वस्त्रों को बिगाड़ डाला। घर पहुंचने पर रजक ने उन्हें उपालंभ दिया और क्षार पदार्थ से ताम्बूल के धब्बों को मिटाकर, प्रातः राजा को सौंपने गया । राजा ने रजक से पूछा । रजक ने सही-सही बता दिया । यह द्रव्य शोधि है । मुनि भावशोधि करे दोषों का प्रायश्चित्त लेकर शुद्ध हो जाए। ( आवचू २ पृ ५३ - ६१; हावृ २ पृ ४३-४८ ) ३. प्रतिक्रमण के प्रकार पडिकमणं देवसियं राज्यं च इत्तरियमावकहियं च । पक्खिय चउम्मासिय संवच्छर उत्तिमट्ठे य ॥ ( आवनि १२४७ ) प्रतिक्रमण के आठ प्रकार १. दैवसिक प्रतिक्रमण ५. पाक्षिक प्रतिक्रमण ६. चातुर्मासिक प्रतिक्रमण ७. सांवत्सरिक प्रतिक्रमण ४. यावत्कथिक प्रतिक्रमण ८ उत्तमार्थ प्रतिक्रमण २. रात्रिक प्रतिक्रमण ३. इत्वरिक प्रतिक्रमण अनशन के समय किया जाने वाला । देवसिक रात्रिक प्रतिक्रमण । देसियं च अइयारं चितिज्ञ अणुपुष्यसो नाणे दंसणे चेव, चरितम्मि तहेव य ॥ पारियक उस्सग्गो, वंदित्ताण तओ गुरुं । देसियं तु अइयारं, आलोएज्ज जहक्कमं ॥ पडिक्कमित्त निस्सल्लो, वंदिताण तओ गुरुं । काउस्सग्गं तओ कुज्जा, सव्वदुक्खविमोक्खणं ॥ ( उ २६ ३९-४१ ) सम्बन्धी दैवसिक ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप अतिचार का अनुक्रम से चिन्तन करे कायोत्सर्ग को समाप्त कर गुरु को वन्दना करे। फिर फिर अनुक्रम से देवसिक अतिचार की आलोचना करे । प्रतिक्रमण से निःशल्य होकर गुरु को वन्दना करे मुक्त करने वाला कायोत्सर्ग करे । । फिर सर्व दुःखों से राइयं च अइयारं चितिज्ज अणुपुव्वसो । नाणंमि दंसणंमी, चरितंमि तबंमिय ॥ Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण पारियकाउस्सग्गो, वंदित्ताण तओ गुरुं । राइयं तु अइयारं, आलोएज्ज जहक्क || पक्कि मित्तु निस्सल्लो, वंदित्ताण तओ गुरुं । काउस्सग्गं तओ कुज्जा, सव्वदुक्ख विमोक्खणं ॥ ( उ २६ । ४७- ४९ ) ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप सम्बन्धी रात्रिक अतिचार का अनुक्रम से चिन्तन करे । कायोत्सर्ग को समाप्त कर गुरु को वन्दना करे। फिर अनुक्रम से रात्रिक अतिचार की आलोचना करे । प्रतिक्रमण से निःशल्य होकर गुरु को वन्दना करे, फिर सर्व दुःखों से मुक्त करने वाला कायोत्सर्ग करे । जो होज्ज उ असमत्थो बालो वुड्ढो गिलाणपरितंतो । सो आवस्सगजुत्तो अच्छेज्जा निज्जरापेही ॥ (ओनि ६३७ ) असमर्थ (दुर्बल), बाल, वृद्ध और रोगाक्रान्त निर्जरार्थी साधु प्रतिक्रमण में बैठे-बैठे कायोत्सर्ग कर सकता है । इत्aरिक यावत्कथिक प्रतिक्रमण उच्चारे पासवणे खेले सिंघाणए पडिक्कमणं । आभोगमणाभोगे सहस्सकारे पडिक्कमणं ॥ ( आवनि १२४९ ) उच्चार- प्रस्रवण और श्लेष्म का परिष्ठापन कर किया जाने वाला प्रतिक्रमण तथा जान-अनजान में और सहसा गलती होने पर किया जाने वाला प्रतिक्रमण इत्वरिक प्रतिक्रमण कहलाता है । पंचय महत्वयाई राईछट्टाइ चाउजामो य । भत्तपरिणाय तहा दुव्हंपि य आवकहियाई ॥ ( आवनि १२४८ ) पांच महाव्रत, रात्रिभोजनविरति चातुर्याम, भक्तपरिज्ञा तथा इंगिनीमरण इनसे संबंधित प्रतिक्रमण यावत्कथिक प्रतिक्रमण है । पाक्षिक आदि प्रतिक्रमण क्यों ? जथा लोगे गेहं दिवसे दिवसे पमज्जिज्जंतंपि पक्षादिसु अब्भधितं अवले वणपमज्जणादीहि सज्जिज्जति, एवमिहावि ववसोहण विसेसा कीरति । ( आवचू २ पृ ६४) लोग अपने-अपने घरों को प्रतिदिन साफ करते हैं, फिर भी पक्ष, मास आदि में तथा विशेष उत्सवों के अवसर प्रतिक्रमण सूत्र पर घरों की लिपाई-पुताई करते हैं, विशेषरूप से साफसुथरा कर उसे सुसज्जित करते हैं। इसी प्रकार मुनि भी प्रतिदिन प्रतिक्रमण करते हैं, परंतु विशेष शोधन के लिए वे पाक्षिक, मासिक आदि प्रतिक्रमण करते हैं । ४. प्रतिक्रमण सूत्र ४३४ इच्छामि पडिक्कमिउं जो मे देवसिओ अइयारो कओ काइओ वाइओ माणसिओ उस्सुत्तो उम्मग्गो ract अकरणिज्जो दुज्झाओ दुव्विचितिओ अणायारो अणिच्छिroat असमणपाउग्गो नाणे दंसणे चरिते सुए सामाइए तिन्ह गुत्तीणं चउन्हं कसायाणं पंचण्हं महत्व - याणं छण्हं जीवनिकायाणं सत्तण्हं पिंडेसणाणं अट्ठण्हं पवयणमाऊणं नवहं बंभचेरगुत्तीणं दसविहे समणधम्मे समणाणं जोगाणं जं खंडियं जं विराहियं, तस्स मिच्छा मिदुक्कडं | ( आव ४ | ३ ) मैं अपने द्वारा किए हुए दिवससंबंधी कायिक, वाचिक और मानसिक अतिचार के प्रतिक्रमण की इच्छा करता हूं। मैंने उत्सूत्र की प्ररूपणा की हो, मोक्षमार्ग के प्रतिकूल मार्ग का प्रतिपादन किया हो, विधि के विरुद्ध आचरण किया हो, अकरणीय कार्य किया हो, अशुभ ( आर्त - रौद्र ) ध्यान किया हो असत् चिंतन किया हो, अनावरणीय और अवांछनीय का आचरण किया हो, श्रमण के अयोग्य कार्य का आचरण किया हो, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, श्रुत और सामायिक के विषय में तथा तीन गुप्ति, चार कषाय, पांच महाव्रत, षड्जीवनिकाय, सात पिण्डेषणा, आठ प्रवचनमाता, नौ ब्रह्मचर्य गुप्ति तथा दस प्रकार के श्रमण धर्म में होने वाले श्रमणयोगों की अखण्ड आराधना न की हो, विराधना की हो तो उससे सम्बन्धित मेरा दुष्कृत निष्फल हो । ईर्यापथिक प्रतिक्रमण इच्छामि पडिक्कमिउं इरियावहियाए विराहणाए गमणागमणे पाणक्कमणे बीयक्कमणे हरियक्कमणे ओसाउत्तंग - पणग-दगमट्टी - मक्कडासं ताणासंकमणे जे मे जीवा विराहिया एगिंदिया बेइंदिया तेइंदिया चउरिदिया पंचिदिया अभिया वत्तिया लेसिया संघाइया संघट्टिया परियाविया किलामिया उद्देविया ठाणाओ ठाणं संकामिया, जीवियाओ ववरोविया, तस्स मिच्छा मि दुक्कडं । ( आव ४।४) मैं ईर्यापथ में होने वाले अतिचारों के लिए प्रतिक्रमण करना चाहता हूं- गमनागमन में प्राण, बीज Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण के स्थान ४३५ प्रतिक्रमण आप' और हरितकाय का अतिक्रमण किया हो, ओस, चींटियों प्रमार्जन न किया हो अथवा अविधि से किया हो। के बिलों, फफूंदी, कीचड़ और मकड़ी के जालों का अतिक्रम --दोष-सेवन के लिए मानसिक संकल्प संक्रमण करते समय जो इन जीवों की विराधना की किया हो, हो, सामने आते हुए एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरि- व्यतिक्रम-दोष-सेवन के लिए प्रस्थान किया हो, न्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवों को हत-प्रतिहत किया हो, अतिचार-दोष-सेवन के लिए तत्परता की हो, उनकी दिशा बदली हो, उन्हें चोट पहुंचाई हो, गम्भीर __सामग्री जुटा ली हो, रूप से घायल किया हो, हिलाया-डुलाया हो, सताया अनाचार-दोष का आसेवन किया हो, हो, क्लान्त किया हो, उत्पीड़ित किया हो, स्थानान्तरित इस विषय में जो मैंने दिवस सम्बन्धी अतिचार किया हो और उन्हें मार डाला हो तो उससे सम्बन्धित किया हो तो उससे संबंधित मेरा दुष्कृत निष्फल हो । मेरा दुष्कृत निष्फल हो । ५. प्रतिक्रमण के स्थान शय्या-अतिचार प्रतिक्रमण मिच्छत्तपडिक्कमणं तहेव अस्संजमे पडिक्कमणं । इच्छामि पडिक्कमिउं पगामसेज्जाए निगामसेज्जाए कसायाण पडिक्कमणं जोगाण य अप्पसत्थाणं । उव्वट्टणाए परिवट्टणाए आउंटणाए पसारणाए छप्पइय- संसारपडिक्कमणं चउव्विहं होइ आणपुवीए। संघट्टणाए कूइए कक्कराइए छीए जंभाइए आमोसे, भावपडिक्कमणं पूण तिविहं तिविहेण नेयव्वं ।। ससरक्खामोसे, आउलमाउलाए सोयणवत्तियाए, इत्थी (आवनि १२५०,१२५१) विप्परियासिआए दिद्विविप्परियासिआए मणविप्परिया- मिथ्यात्व, असंयम, कषाय, अप्रशस्त योग और संसार सिआए पाणभोयणविप्परियासिआए, तस्स मिच्छा मि (नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव) इन पांच स्थानों से दुक्कडं। (आव ४।६) मनुष्य को लौटना चाहिए। मैं शय्या संबंधी प्रतिक्रमण करता हं--प्रकाम शय्या भावप्रतिक्रमण का अर्थ है(अतिनिद्रा) और निकामशय्या (बार-बार निद्रा) ली प्रमाद न करना-मनसा, वाचा, कर्मणा । हो, उद्वर्तन, परिवर्तन (करवट बदलना), शरीर का प्रमाद न करवाना-मनसा, वाचा, कर्मणा । संकोच-विकोच, जं का संघटन, नींद में बोलना, दांत प्रमाद का अनुमोदन न करना-मनसा, वाचा, पीसना, छींक, जम्हाई, वस्तु का स्पर्श, सचित्त वस्तु का कर्मणा। स्पर्श-इनसे संबंधित स्खलना हुई हो; स्वप्नहेतुक पडिलेहेउं पमज्जिय भत्तं पाणं च वोसिरेऊणं । वसहीकयवरमेव उ णियमेण पडिक्कमे साहू ।। आकुलव्याकुलता, स्त्रीसंबंधी विपर्यास, दृष्टिविपर्यास, मनविपर्यास और आहारसंबंधी विपर्यास हआ हो तो हत्थसया आगंतु गंतु च मुहुत्तगं जहिं चिठे । पंथे वा बच्चंतो णदिसंतरणे पडिक्कमइ ॥ उससे संबंधित मेरा दुष्कृत निष्फल हो। (आवहावृ २ पृ ५०) स्वाध्याय-प्रतिलेखना-अतिचार प्रतिक्रमण पडिसिद्धाणं करणे किच्चाणमकरणे य पडिक्कमणं । पडिक्कमामि चाउकालं सज्झायस्स अकरणयाए, असहहणे य तहा विवरीयपरूवणाए य॥ उभओकालं भंडोवगरणस्स अप्पडिलेहणाए दुप्पडिलेहणाए (आवनि १२७१) अप्पमज्जणाए दुप्पमज्जणाए अइक्कमे वइक्कमे अइयारे मुनि प्रतिक्रमण कब करे ? अणायारे जो मे देवसिओ अइयारो कओ, तस्स मिच्छामि १. प्रतिलेखन और प्रमार्जन कर, दुक्कडं । (आव ४७) २. भक्तपान का परिष्ठापन कर, मैं प्रतिक्रमण करता हूं--चातुष्कालिक (दिन के प्रथम ३. उपाश्रय के कूड़े-कर्कट का परिष्ठापन कर, और अन्तिम प्रहर तथा रात के प्रथम और अन्तिम प्रहर ४. सौ हाथ की दूरी तयकर महत भर उस स्थान में में) स्वाध्याय न किया हो, दिन के प्रथम तथा अन्तिम ठहरने पर, प्रहर में पात्र, वस्त्र आदि उपकरणों का प्रतिलेखन न ५. यात्रापथ से निवृत्त होने पर, किया हो अथवा अविधि से किया हो, स्थान आदि का ६. नदीसंतरण करने पर । Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण ४३६ प्रतिक्रमण की उपसम्पदा ७. प्रतिषिद्ध का आचरण करने पर, जइ य पडिक्कमियव्वं, अवस्स काऊण पावयं कम्मं । ८. करणीय (स्वाध्याय आदि) नहीं करने पर, तं चेव न कायव्वं, तो होइ पए पडिक्कतो। ९. अर्हत द्वारा प्रतिपादित तत्त्वों पर अश्रद्धा होने पर, (आवहाव १ पृ ३२३,३२४) १०. विपरीत प्ररूपणा करने पर । पापकारी प्रवत्ति हो जाने पर अवश्य प्रतिक्रमण ६. अतिचार के हेतु करना चाहिए और उस प्रवृत्ति का पुनः आचरण नहीं करना चाहिए, तभी प्रतिक्रमण की सार्थकता है। जो सहसा अण्णाणेण व भीएण व पिल्लिएण व परेण । व्यक्ति पाप करने पर कहता है-मिच्छा मि दुक्कडंवसणेणायंकेण व मूढेण व रागदोसेहिं ।। मेरा दुष्कृत मिथ्या हो और पुनः उसी पाप का आचरण जं किंचि कयमकज्ज नहु तं लब्भा पुणो समायरिउं । करता है तो वह प्रत्यक्ष झूठ बोलता है। यह मायातस्स पडिक्कमियव्वं न ह तं हियएण वोढव्वं ॥ निकृति का प्रसंग है। (ओनि ७९९,८००) सहसा अतकित. अज्ञान, भय. परप्रेरणा. विपत्ति १०. प्रातक्रमण क परिणाम रोग-आतंक , मूढता और रागद्वेष-इन हेतुओं से आच- पडिक्कमणणं वयछिद्दाई पिहेइ। पिहियवयछिद्दे रित दोषों का प्रतिक्रमण इस प्रकार से करना चाहिए कि पुण जीवे निरुद्धासवे असबलचरिते अट्ठसु पवयणमायासु पुन: उन दोषों का समाचरण न हो और न उनकी स्मृति उवउत्ते अपुहुत्ते सुप्पणिहिए विहरइ । (उ २९।१२) का भार ही रहे। प्रतिक्रमण से जीव व्रत के छेदों को ढक देता है। ७. असंभव अतिचारों का प्रतिक्रमण क्यों ? जिसने व्रत के छेदों को ढक दिया वैसा जीव आश्रवों को दिवसा असंभविणोवि देवसिए उच्चरिज्जति, राक दता है, चारित्र क धब्बा का मिटा दता है, आठ संवेगत्थं अप्पमादत्थं निंदणगरह्णत्थं एवमादि पडुच्च ।। प्रवचनमाताओं में सावधान हो जाता है तथा संयम में एवं रातिअसंभविणोवि विभावेज्जा। एकरस और सुसमाधिस्थ होकर विहार करता है । (आव २ पृ ७५) ११. प्रतिक्रमण की उपसम्पदा देवसिक और रात्रिक प्रतिक्रमण में उन अतिचारों ...."तस्स धम्मस्स केवलिपण्णत्तस्स अब्भुट्ठिओमि का भी उच्चारण किया जाता है, जिनका आसेवन दिन आराहणाए विरओमि विराहणाए । रात में संभव भी नहीं है। ऐसा क्यों ? इसके मुख्य हेतु असंजमं परियाणामि संजमं उवसंपज्जामि । हैं -१. संवेगवृद्धि २. अप्रमाद की साधना ३.निंदा-गर्दा। अबंभं परियाणामि बंभं उवसंपज्जामि । ८. तीन काल का प्रतिक्रमण अकप्पं परियाणामि कप्पं उवसंपज्जामि । पडिक्कमणं..."तीए पच्चप्पन्ने अणागए चेव कालंमि ।। अण्णाणं परियाणामि नाणं उवसंपज्जामि । (आवनि १२३१) अकिरियं परियाणामि किरियं उवसंपज्जामि । प्रतिक्रमण तीनों काल से सम्बद्ध है मिच्छत्तं परियाणामि सम्मत्तं उवसंपज्जामि। १. अतीत का प्रतिक्रमण-निन्दा द्वारा अशुभ योग अबोहिं परियाणामि बोहिं उवसंपज्जामि । से निवृत्त होना। अमग्गं परियाणामि मग्गं उवसंपज्जामि । २. वर्तमान का प्रतिक्रमण-संवर द्वारा अशुभ योग (आव २।९) से निवृत्त होना। मैं केवलिप्रज्ञप्त धर्म की आराधना में उपस्थित ३. अनागत का प्रतिक्रमण-प्रत्याख्यान द्वारा अशुभ होता हं, विराधना से विरत होता हैं। योग से निवृत्त होना। ___ मैं असंयम से निवृत्त होता हूं, संयम में प्रवृत्त होता ६. प्रतिक्रमण की सार्थकता जं दुक्कडं ति मिच्छा, तं चेव णिसेवई पुणो पावं। मैं अब्रह्मचर्य से निवृत्त होता हूं, ब्रह्मचर्य में प्रवृत्त पच्चक्खमुसावाई, मायाणियडिप्पसंगो य॥ होता हूं। Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारह उपासक-प्रतिमाएं '४३७ प्रतिमा मैं अकल्प्य (अनाचरणीय) से निवृत्त होता हं, चारी सचित्ताहारे से अपरिण्णाते भवति"उक्कोसेणं कल्प्य (आचरणीय) में प्रवृत्त होता हूं। छम्मासे विहरेज्जा। ___ मैं अज्ञान से निवृत्त होता हूं, ज्ञान में प्रवृत्त होता ७. अहावरा सत्तमा उवासगपडिमा सचित्ताहारे से परिणाए भवति......"उक्कोसेणं सत्त मासे ____ मैं अक्रिया (नास्तित्ववाद) से निवृत्त होता हूं, विहरेज्जा। क्रिया (अस्तित्ववाद) में प्रवृत्त होता हूं। ८. अहावरा अट्ठमा उवासगपडिमा""आरंभा से परि ण्णाता"उक्कोसेणं अट्ठ मासे विहरेज्जा।। मैं मिथ्यात्व से निवृत्त होता हूं, सम्यक्त्व में प्रवृत्त ९. अहावरा नवमा उवासगपडिमा""पेस्सा से परिण्णाया होता हूं। 'उक्कोसेणं नव मासे विहरेज्जा। ___ मैं अबोधि से निवृत्त होता हूं, बोधि में प्रवृत्त होता १०. अहावरा दसमा उवासगपडिमा'"उट्रिभत्ते से परि ण्णाए भवति । से णं खुरमुंडए वा छिह लिधारए वा, ___ मैं अमार्ग से निवृत्त होता हूं, मार्ग में प्रवृत्त होता तस्स णं आलत्तसमाभट्ठस्स कप्पंति दुवे भासाओ भासित्तए, तं जथा-जाणं वा जाणं अजाणं वा णो प्रतिमा -प्रतिज्ञा, अभिग्रह, साधना की विशिष्ट जाणं, से णं एतारूवेणं विहारेणं"उक्कोसेणं दस पद्धति । मासे विहरेज्जा। ११. अहावरा एक्कारसमा उवासगपडिमा...""तस्स णं १. ग्यारह उपासक-प्रतिमाएं गाहावतिकुलं पिंडवायपडियाए अणुप्पविट्ठस्स कप्पति २. भिक्षु-प्रतिमा की अर्हता एवं वदित्तए-समणोवासगस्स पडिमं पडिवण्णस्स ३. बारह भिक्ष-प्रतिमाएं भिक्खं दलयह"उक्कोसेणं एक्कारस मासे ४. भगवान् महावीर की एकरात्रिकी प्रतिमा विहरेज्जा। (आवचू २ पृ ११८,१२०) ___ * महावीर की प्रतिमासाधना (द्र. तीर्थकर) उपासक प्रतिमा के ग्यारह प्रकार हैं१. ग्यारह उपासक-प्रतिमाएं १. दर्शनश्रावक-- इसमें सर्वधर्मविषयक रुचि होती है । १. .."सव्वधम्मरुई यावि भवति पढमा उवासग २. कृतव्रतकर्म--इसमें पूर्वोक्त उपलब्धि के अतिरिक्त प्रतिमाधारी उपासक अनेक शीलव्रत, गुणव्रत, विरपडिमा। मण, प्रत्याख्यान, पौषधोपवास आदि का सम्यक् २. .....""तस्स णं बहुइं सीलव्वयगुणवेरमणपोसहो परिपालन करता है। ववासाइं सम्म पविताइं भवंति...'""दोच्चा । ३. कृतसामायिक- इसमें पूर्वोक्त उपलब्धि के अतिरिक्त उवासगपडिमा। प्रतिमाधारी उपासक प्रातः और सायंकाल सामायिक ३. ......"से णं सामाइयं देसावगासियं संमं अणुपालेत्ता और देशावकाशिक व्रत का सम्यक पालन करता भवति .. तच्चा उवासगपडिमा । ४ ......."से णं चाउद्दसिअट्ठमिपुण्णमासिणीसु पडिपुण्ण- ४. पौषधोपवासनिरत-इसमें पूर्वोक्त उपलब्धियों के पोसह संमं अणुपालेत्ता भवति ""चउत्था उवासग- अतिरिक्त प्रतिमाधारी उपासक चतुर्दशी, अष्टमी, पडिमा। अमावस्या और पौर्णमासी आदि पर्व दिनों में ५. अहावरा पंचमा उवासगपडिमा""से णं एगराइयं प्रतिपूर्ण पोषध करता है। उवासगपडिमं अणपालेत्ता भवति । से णं असिणाणए ५. दिन में ब्रह्मचारी--इसमें पूर्वोक्त उपलब्धियों के वियडभोई मउलियडे दिया बंभयारी रत्ति परिमाण- अतिरिक्त प्रतिमाधारी उपासक एकरात्रिकी उपासक कडे, से णं एयारूवेणं विहारेणं विहरमाणे जहणेणं प्रतिमा का सम्यक अनुपालन करता है तथा स्नान एगाहं.""उक्कोसेणं पंचमासे विहरेज्जा। नहीं करता, दिवाभोजी होता है, धोती के दोनों ६. अहावरा छटा उवासगपडिमा"रातोवरायं बंभ- अंचलों को कटिभाग में टांक लेता है-नीचे से नहीं For Private & Persamal Use Only Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत प्रतिमा ४३८ बारह भिक्षु-प्रतिमाएं बांधता, दिवा ब्रह्मचारी और रात्रि में अब्रह्मचर्य २. भिक्षु-प्रतिमा की अर्हता का परिमाण करता है । इसका जघन्य कालमान एक पडिवज्जइ संपुण्णो संघयणधिइजुओ महासत्तो । दिन और उत्कृष्ट कालमान पांच मास का है। पडिमाउ जिणमयंमी संमं गुरुणा अणु ग्णाओ॥ ६. दिन और रात में ब्रह्मचारी-इसमें पूर्वोक्त उप गच्छे च्चिय निम्माओ जा पुव्वा दस भवे असंपुण्णा । लब्धियों के अतिरिक्त प्रतिमाधारी उपासक दिन नवमस्स तइयवत्थु होइ जहण्णो सुयाभिगमो॥ और रात में ब्रह्मचारी रहता है, किन्तु सचित्त का (आवहाव २ पृ १०५) परित्याग नहीं करता। इसका उत्कृष्ट कालमान छह मास का है। भिक्षु-प्रतिमा की साधना करने वाला भिक्ष विशिष्ट ७. सचित्तपरित्यागी-इसमें पूर्वोक्त उपलब्धियों के । संहननसम्पन्न, धृतिसम्पन्न और शक्तिसम्पन्न होता है। अतिरिक्त प्रतिमाधारी उपासक सम्पूर्ण सचित्त का उस भावितात्मा भिक्षु की न्यूनतम श्रुतसम्पदा नौवें पूर्व परित्याग करता है। इसका उत्कृष्ट कालमान की तीसरी वस्तु तथा उत्कृष्ट श्रुतसम्पदा कुछ न्यून दस सात मास का है। पूर्व होनी चाहिये । वह गुरु से अनुज्ञा प्राप्त कर प्रतिमाओं ८. आरम्भपरित्यागी- इसमें पूर्वोक्त उपलब्धियों के को स्वीकार करता है। अतिरिक्त प्रतिमाधारी उपासक आरम्भ-हिंसा का ३. बारह भिक्षु-प्रतिमाएं परित्याग करता है। इसका उत्कृष्ट कालमान आठ मास का है। मासाई सत्तता पढमाबितिसत्त राइदिणा । ९. प्रेष्य-परित्यागी-इसमें पूर्वोक्त उपलब्धियों के अहराई एगराई भिक्खुपडिमाण बारसगं ।। अतिरिक्त प्रतिमाधारी उपासक प्रेष्य आदि से हिंसा (आवहाव २ पृ १०५) करवाने का परित्याग करता है। इसका उत्कृष्ट भिक्षु-प्रतिमा के बारह प्रकारकालमन नौ मास का है। १. एकमासिकी ७. सप्त मासिकी १०. उद्दिष्टभक्त-परित्यागी-इसमें पूर्वोक्त उपलब्धियों २. द्विमासिकी ८. सप्त अहोरात्रिकी के अतिरिक्त प्रतिमाधारी उपासक उद्दिष्ट भोजन ३. त्रिमासिकी ९. सप्त अहोरात्रिकी का परित्याग करता है। वह शिर को क्षुर से मुंडवा ४. चतुर्मासिकी १०. सप्त अहोरात्रिकी लेता है या चोटी रख लेता है। घर के किसी विषय ५. पंचमासिकी ११. एक अहोरात्रिकी में पूछे जाने पर जानता हो तो कहता है-मैं जानता ६. षण्मासिकी १२. एकरात्रिकी हूं और न जानता हो तो कहता है-मैं नहीं जानता वोसःचत्तदेहो उवसग्गसहो जहेव जिणकप्पी । हूं। इसका उत्कृष्ट कालमान दस मास का है। ११. श्रमणभूत-इसमें पूर्वोक्त उपलब्धियों के अतिरिक्त एसण अभिग्गहीया भत्तं च अलेवयं तस्स ।। प्रतिमाधारी उपासक शिर को क्षुर से मुंडवा लेता है गच्छा विणिक्खमित्ता पडिवज्जे मासियं महापडिमं । या लुंचन करता है। वह साधु का वेश धारण कर दत्तेगभोयणस्सा पाणस्सवि एग जा मासं ॥ साधु-धर्मों का पालन करता है। वह भिक्षा के लिए पच्छा गच्छमईए एव दुमासि तिमासि जा सत्त । गृहस्थ के घर में प्रवेश कर 'प्रतिमासम्पन्न श्रमणो नवरं दत्तीवुड्ढी जा सत्त उ सत्तमासीए॥ पासक को भिक्षा दो'ऐसा कहता है। इसका तत्तो य अट्रमीया हवइ ह पढमसत्तराइंदी । उत्कृष्ट कालमान ग्यारह मास का है।। तीय चउत्थचउत्थेणऽपाणएणं अह विसेसो॥ (बारहवती श्रावक के मन में जब साधना की तीव्र उत्ताणगपासल्लीणिसज्जीयावि ठाण ठाइत्ता । भावना उत्पन्न होती है, तब वह इन प्रतिमाओं को सहउवसग्गे घोरे दिव्वाई तत्थ अविकंपो॥ स्वीकार करता है। इनके प्रतिपूर्ण पालन में साढ़े पांच दोच्चावि एरिसच्चिय बहिया गामाइयाण णवरं तु । वर्ष लगते हैं। आनन्द श्रमणोपासक ने इन प्रतिमाओं को उक्कुडलगंडसाई डंडाइतिउव्व ठाइत्ता ।। स्वीकार किया था। देखें--समवाओ १११ का टिप्पण तच्चाए वि एवं णवरं ठाणं तु तस्स गोदोही । तथा दशाश्रुतस्कन्ध की छठी दशा) वीरासणमहवावी ठाइज्ज व अंबखुज्जो वा।। Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् महावीर की एकरात्रिकी प्रतिमा एमेव अहोराई छ भत्तं अपाणयं णवरं । गामणयराण बहिया वग्घारियपाणिए ठाणं ॥ एमेव एगराई अट्टमभत्तेण ठाण बाहिरओ | ईसी पब्भारगए अणिमयदिट्ठी || साहट्टु दोवि पाए वग्घारियपाणि ठायई ठाणं । Saraft लंबियभुओ सेसं दसासु जहा भणियं ॥ ( आवहावृ २ पृ १०५, १०६) पढमसत्तरातिदियं णं भिक्खुपडिमं पडिवण्णस्स अणगारस्स पारणए आयंबिल परिग्गहिते अचित्ते पोग्गले निज्झायमाणस्स उत्ताणगस्स वा पासल्लियस्स वा सिज्जितस्स वा ठाणं ठातित्तए । ( आवचू २ पृ १२५, १२६) भिक्षु गच्छ से निष्क्रमण कर एकमासिकी भिक्षु प्रतिमा की आराधना करता है। वह शरीर का परिकर्म और सारसंभाल नहीं करता, अलेपकृत् ( रूखा) आहार करता है । वह एषणा (संसृष्टा आदि सात) और गोरा (पेटा आदि आठ) – इनमें से कोई अभिग्रह धारण कर (अमुक द्रव्य अमुक अवस्था में मिले तो लूं, अन्यथा नहीं- - इस संकल्प के साथ) भिक्षा ग्रहण करता है । पहली प्रतिमा एक मास की होती है। इसमें मुनि आहार तथा पानी की एक-एक दत्ति लेता है। इनकी उत्तरोत्तर वृद्धि होती है। सातवीं प्रतिमा में सात-सात दत्तियां लेता है । द्विमासिकी से सप्तमासिकी पर्यंत प्रतिमाएं गच्छ में रहकर की जाती हैं। शेष प्रतिमाएं गांव के बाहर रहकर की जाती हैं । (छप्पकंपि जदि एक्कसि छुब्भति एक्का दत्ती, डोविलयंपि जदि वारे पप्फोडेति तावयियातो दत्तीतो ।) ४३९ ( आवचू २ पृ ३१० ) एक बार में दिया जाने ( एक दत्ति का अर्थ है वाला भक्त अथवा पान ।) आठवीं, नौवीं और दसवीं प्रतिमा सात-सात अहो - रात्र की होती है। आठवीं प्रतिमा में मुनि निर्जल उपवास और पारणे में आयंबिल करता है, अचित्त पुद्गल पर अनिमेष प्रेक्षा करता है तथा उत्तानशयन, पार्श्वशयन, निषद्या आदि आसनों में स्थित रहता है । मुनि नौवीं प्रतिमा में उत्कटुक, लगंडशयन और दंडायतिक आसन तथा दसवीं प्रतिमा में गोदोहिका, वीरासन और आम्रकुब्ज आसन का प्रयोग करता है । शेष विधि आठवीं प्रतिमा की तरह ही है । प्रतिमा ग्यारहवीं अहोरात्रिकी प्रतिमा में मुनि दो दिन के निर्जल उपवास में पैरों को सटाकर, भुजाओं को प्रलम्बित कर कायोत्सर्ग करता है । बारहवीं एकत्रिकी प्रतिमा में मुनि निर्जल उपवास के तीसरे दिन पूरी रात कायोत्सर्ग की मुद्रा में रहता है । उसकी शारीरिक स्थिति इस प्रकार होती है थोड़ा का हुआ शरीर, अनिमेष नयन, दोनों पैर सटे हुए, दोनों हाथ घुटनों की ओर प्रलम्बित । इन प्रतिमाओं में स्थित भिक्षु जिनकल्पी मुनि की भांति व्युत्सृष्ट-त्यक्तदेह होता है तथा देव, मनुष्य और तिर्यंच कृत उपसर्गों को समभाव से सहन करता है। यह सारा प्रसंग दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र की सातवीं दशा में विस्तार से वर्णित है। (बारह भिक्षुप्रतिमाओं तथा ग्यारह उपासकप्रतिमाओं को उपधानप्रतिमा कहा जाता है । जैन साधना पद्धति में प्रतिमाओं का बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है । आगम साहित्य में भद्रा, सुभद्रा, विवेक, व्युत्सर्ग, यवमध्यचन्द्र वज्रमध्यचन्द्र आदि अनेक प्रकार की प्रतिमाओं का उल्लेख उपलब्ध है । देखें — ठाणं २।२४३२४८ का टिप्पण) एगराइयं णं भिक्खुपडिमं संमं अणणुपालेमाणस्स अणगारस्स इमे तओ ठाणा अहिताए भवंति तं जहा - उम्मायं वा भेज्जा दीहकालियं वा रोगायंक पाउणेज्जा केवलिपण्णत्ताओ धम्माओ वा भंसिज्जा । एगराइयं णं भिक्खुपडिमं सम्मं अणुपालेमाणस्स अणगारस्स इमे तओ ठाणा हिताए जाव आणुगामित्ताए भवंति तं जथाअधिण्णा वा से समुप्पज्जेज्जा, मणपज्जवणाणे वा से समुपज्जेज्जा केवलणाणे वा से असमुप्पण्णपुब्वे समुप्प - ज्जिज्जा । ( आवचू २ पृ १२६, १२७ ) एकरात्रिकी भिक्षुप्रतिमा की सम्यक् अनुपालना नहीं करने वाले मुनि के तीन स्थान अहितकर होते हैंउन्माद की प्राप्ति, दीर्घकालिक रोग- आतंक की उत्पत्ति और केवलिप्रज्ञप्त धर्म से विच्युति । इस प्रतिमा की सम्यक् अनुपालना करने वाले मुनि को अवधिज्ञान, मनः पर्यवज्ञान अथवा केवलज्ञान उत्पन्न होता है । ४. भगवान् महावीर की एकरात्रिकी प्रतिमा भूमी बहिआ पेढालं नाम होइ उज्जाणं । पोलास चेइयंमी ठिएगराईमहापडिमं ॥ Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिलेखना अट्टमेण भत्तेण अपाणएण ईसिप भारगतेण, ईसिपब्भारगतो नाम ईसि ओणओ काओ, एगपोग्गल निरुद्धदिट्ठी अणिमिणणो तत्थवि जे अचित्तपोग्गला तेसु दिट्टि निवेसेति, सचितेहि दिट्ठी अप्पाइज्जति, जहा दुव्वाए । अहापणिहितेहिं गत्तेहि सब्बिदिएहि गुत्ते हि दोवि पादे सावधारियपाणी एगराइयं महापडिमं ठितो । ( आवनि ४९७ चू १ पृ ३०१ ) महावीर दृढभूमि गए । दृढ़भूमि के बाहरी भूभाग में पेढाल नाम का उद्यान था। वहां पोलाश नाम का चैत्य था। वहां महावीर ने तेले की निर्जल तपस्या की । ध्यान की मुद्रा में खड़े हुए। थोड़ा झुका हुआ शरीर । अनिमिष नयन ( अनिमेषप्रेक्षा / त्राटक ), एक पुद्गल - निरुद्ध दृष्टि - महावीर की दृष्टि अचित्त पुद्गल पर टिकी थी । वे सचित्त वस्तु पर दृष्टि नहीं टिकाते, यथादूर्वा आदि । सब अवयव अपने स्थान पर अवस्थित, सब इन्द्रियां छप्पुरिमा दोनों पैर सटे हुए, दोनों हाथ घुटनों की गुप्त, ओर प्रलम्बित - इस मुद्रा में महावीर एकरात्रिकी महाप्रतिमा में स्थित थे । प्रतिलेखना - वस्त्र, पात्र आदि को यथासमय सावधानीपूर्वक देखना । १. प्रतिलेखना के पर्याय • प्रतिलेखनीय २. प्रतिलेखना की विधि और प्रकार ३. प्रतिलेखना के विकल्प ४. प्रतिलेखना का क्रम ५. वस्त्रपात्र प्रतिलेखना काल * ६. तीन भूमियों की प्रतिलेखना ७. प्रतिलेखना के दोष मध वा कुड्यादिपरामर्शवद्यथा न भवति । छप्पुरिमत्ति षट् पूर्वाः पूर्वं क्रियमाणतया तिर्यक्कृतवस्त्रप्रस्फोटनात्मका क्रियाविशेषा येषु ते षट्पूर्वाः । नवखोडत्ति खोटकाः समयप्रसिद्धाः स्फोटनात्मकाः कर्त्तव्याः । ( उ २६ । २४, २५ शावृ प ५४०, ५४१) सबसे पहले उकडू आसन में बैठ, वस्त्र को ऊंचा 'प्रभातकालीन प्रतिलेखना काल (द्र. कालविज्ञान) रखे, स्थिर रखे और शीघ्रता किए बिना उसकी प्रति लेखना करे चक्षु से देखे ! दूसरे में वस्त्र को झटकाए और तीसरे में वस्त्र की प्रमार्जना करे । प्रतिलेखना करते समय निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिये ८. प्रतिलेखना- प्रमाद से छह काय की विराधना * प्रतिलेखना - अतिचार प्रतिक्रमण (द्र प्रतिक्रमण ) ९. केवली - छद्मस्थ की द्रव्य भाव प्रतिलेखना * प्रेक्षा संयम ४४० प्रतिलेखना की विधि... आभोग, मार्गणा, गवेषणा, ईहा, अपोह, प्रतिलेखना, प्रेक्षण, निरीक्षण, आलोकन और प्रलोकन—ये प्रतिलेखना के पर्याय हैं । प्रतिलेखनीय १. प्रतिलेखना के पर्याय आभोगमग्गण गवसणा य ईहा अपोह पडिलेहा । पेक्खनिक्खिणावि अ आलोयपलोयणेगट्ठा || (ओनि ३) ( ब्र. संयम ) ठाणे उवगरणे या थंडिलउवथंभमग्गपडिलेहा । '' (ओनि २६३ ) शरीर (खड़े होते, बैठते और सोते समय ), उपाश्रय, उपकरण, स्थण्डिल (परिष्ठापन भूमि), अवष्टम्भ और मार्ग - ये प्रतिलेखनीय हैं । २. प्रतिलेखना की विधि और प्रकार उड्ढं थिरं अतुरियं पुव्वं ता वत्थमेव पडिलेहे । तो बिइयं पप्फोडे तइयं च पुणो पमज्जेज्जा ।। अणच्चावियं अवलिये अणाणुबन्धि अमोसलि चेव । नव खोडा पाणीपाणविसोहणं ॥ अनत्तितं प्रस्फोटनं प्रमार्जनं वा कुर्वतो वस्त्रं वपुर्वा यथा नर्त्तितं न भवति । अवलितं यथाऽऽत्मनो वस्त्रस्य च वलितमिति मोटनं न भवति । अननुबन्धि अनुबन्धेन नैरन्तर्य लक्षणेन युक्तमनुबन्धि न तथा अलक्ष्यमाणविभागं यथा न भवति । आमोसलिन्ति सूत्रत्वादामर्शवत्ति १. अनर्तित वस्त्र या शरीर को न नचाए । २. अवलितवस्त्र या शरीर को न मोड़े । ३. अननुबन्धी-वस्त्र के दृष्टि से अलक्षित विभाग न करे । ४. अमोसली वस्त्र का मुसल की तरह दीवार आदि से स्पर्श न करे । ५. छह पूर्व - - वस्त्र के दोनों ओर तीन-तीन विभाग कर उसे झटकाए । Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्त्रपात्र-प्रतिलेखना काल ४४१ प्रतिलेखना ६. नव खोटक-प्रत्येक पूर्व में तीन-तीन बार खोटक (प्रमार्जन) करे। एक भाग में नौ खोटक होते हैं। तत्पश्चात् जो कोई प्राणी हो, उसका हाथ पर नौ बार विशोधन (प्रमार्जन) करे। . दृष्टि डालना, छह पूर्व और अठारह खोटक करना-इस प्रकार प्रतिलेखना के पच्चीस प्रकार होते ठाणनिसीयतुयट्टणउवगरणाईण गहणणिक्खेवे । पुव्वं पडिलेहे चक्खुणा उ पच्छा पमज्जेज्जा । (ओभा १५१) ___ स्थान, निषीदन, त्वक्वर्तन (शयन) तथा उपकरण आदि को लेते-रखते समय पहले दृष्टि-प्रतिलेखना की जाती है, फिर प्रमार्जन किया जाता है। धुवं च पडिलेहेज्जा, जोगसा पायकंबलं । सेज्जमुच्चारभूमि च, संथारं अदुवासणं ।। (द ८।१७) मुनि पात्र, कंबल, शय्या, उच्चारभूमि, संस्तारक अथवा आसन का यथासमय प्रमाणोपेत (न न्यून न अतिरिक्त) प्रतिलेखन करे । ३. प्रतिलेखना के विकल्प अण्णाइरित्तपडिलेहा, अविवच्चासा तहेव य । पढम पयं पसत्थं, सेसाणि उ अप्पसत्थाई॥ (उ २६।२८) वस्त्र के प्रस्फोटन और प्रमार्जन के प्रमाण से अन्यून, अनतिरिक्त (न कम और न अधिक) और अविपरीत प्रतिलेखना करनी चाहिए। इन तीनों विशेषणों के आधार पर प्रतिलेखना के आठ विकल्प बनते हैं। इनमें प्रथम विकल्प (अन्यून, अनतिरिक्त और अविपरीत) प्रशस्त है और शेष अप्रशस्त । आठ विकल्प ये हैं१. अन्यून अनतिरिक्त अविपरीत २. अन्यून अनतिरिक्त विपरीत ३. अन्यून अतिरिक्त अविपरीत ४. अन्यून अतिरिक्त विपरीत ५. न्यून अनतिरिक्त अविपरीत ६. न्यून अनतिरिक्त अविपरीत ७. न्यून अतिरिक्त अविपरीत . ८ न्यून अतिरिक्त विपरीत ४. प्रतिलेखना का क्रम पडिलेहगा उ दुविहा भत्तट्ठिय इयरा य नायव्वा । दोण्हवि य आइपडिलेहणा उ मुहणंतगसकायं ।। तत्तो गुरू परिन्ना गिलाणसेहाति जे अभत्तट्ठी । संदिसह पायमत्ते य अप्पणो पट्टगं चरिमं ।। पट्टग मत्तय सयमोग्गहो य गुरुमाइया अणन्नवणा । तो सेस पायवत्थे पाउंछणगं च भत्तट्टी। (ओनि ६२८-६३०) प्रतिलेखना करने वाले मुनि दो प्रकार के होते हैं १. तपस्वी (उपवास आदि करने वाले) २. आहारार्थी। दोनों ही प्रतिलेखक सर्वप्रथम मुखवस्त्र और उससे अपने शरीर का प्रमार्जन करते हैं । तत्पश्चात् तपस्वी मुनि गुरु, अनशनधारी, ग्लान, शैक्ष आदि के उपकरणों की प्रतिलेखना करते हैं। फिर गुरु से अनुज्ञा प्राप्त कर पात्र, मात्रक तथा अन्य उपधि और अन्त में चोलपट्रक की प्रतिलेखना करते हैं। भक्तार्थी मुनि अपने चोलपट्टक, मात्रक, पात्र आदि की प्रत्युपेक्षा कर गुरु आदि की उपधि की प्रत्युपेक्षा करते हैं । फिर गुरु को अनुज्ञापित कर शेष संघीय वस्त्र-पात्रों की प्रतिलेखना करते हैं और अन्त में पादप्रोञ्छन (रजोहरण) की प्रत्युपेक्षा करते हैं। ५. वस्त्रपात्र-प्रतिलेखना काल पूव्विल्लंमि चउब्भाए, पडिलेहित्ताण भंडयं । गुरुं वंदित्तु सज्झायं, कुज्जा दुक्खविमोक्खणं ।। पोरिसीए चउब्भाए, वंदित्ताण तओ गुरुं । अपडिक्कमित्ता कालस्स, भायणं पडिलेहए ।। मुहपोत्तियं पडिलेहित्ता, पडिले हिज्ज गोच्छगं । गोच्छगलइयंगुलिओ, वत्थाइं पडिलेहए। चउत्थीए पोरिसीए, निक्खवित्ताण भायणं । सज्झायं तओ कुज्जा, सव्वभावविभावणं ।। (उ २६१२१-२३,३६) दिन के प्रथम प्रहर के प्रथम चतुर्थ भाग में भाण्डउपकरणों का प्रतिलेखन कर, गुरु को वंदना कर, दुःख से मुक्त करने वाला स्वाध्याय करे। पौन पौरुषी बीत जाने पर गुरु को वंदना कर, काल का प्रतिक्रमण-कायोत्सर्ग किए बिना ही भाजन की प्रतिलेखना करे। मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना कर गोच्छग की प्रति Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिलेखना लेखना करे । गोच्छग को अंगुलियों से पकड़कर भाजन को ढांकने के पटलों की प्रतिलेखना करे । चौथे प्रहर में भाजनों को प्रतिलेखनपूर्वक बांधकर रख दे, फिर सर्व भावों को प्रकाशित करने वाला स्वाध्याय करे । .....पुव्वण्हे अवरण्हे मुहणंतगमाइ पडिलेहा ॥ ( ओभा १५८ ) वस्त्र - प्रतिलेखना के दो काल हैं - पूर्वाह्न (प्रथम प्रहर) और अपराह्न ( चतुर्थ प्रहर ) । ६. तीन भूमियों की प्रतिलेखना चउभागावसेसाए चरिमाए पडिक्कमित्तु कालस्स । उच्चारे पासवणे ठाणे चवीसई पेहे ॥ अहियासिया उ तो आसन्ने मज्भि तह य दूरे य । तिन्नेव अणहियासी अंतो छच्छच्च बाहिरओ || एमेव य पासवणे बारस चउवीसइं तु पेहित्ता । कासव तिन्नि भवे अह सूरो अत्थमुवयाई ॥ (ओनि ६३२-६३४) मुनि दिन की अंतिम पौरुषी का चतुर्थ भाग शेष रहने पर तीन भूमियों की प्रतिलेखना करता है २. मध्य १. उच्चारभूमि बारह१. निकट ४. अतिनिकट ५. मध्य ये छह भूमियां उपाश्रय के उपाश्रय के बाहर | २. प्रश्रवण भूमि बारह । ३. काल ( स्वाध्याय) भूमि तीन । ७. प्रतिलेखना के दोष ४४२ ३. दूर ६. कुछ दूर - परिसर में और छह आरभडा सम्मद्दा, वज्जेयव्वा य मोसली तइया । पफोडणा चउत्थी, विक्खित्ता वेइया छट्टा ॥ आरभटा विपरीतकरणमुच्यते त्वरितं वाऽन्यान्यवस्त्रग्रहणेनासो भवति । संमर्दा - वस्त्रान्तः कोणसंचलनमुपधेर्वा उपरि निषीदनम् । मोसलि त्ति तिर्यगूर्ध्वमधो वा घट्टना । प्रस्फोटना -प्रकर्षेण रेणुगुण्डितस्येव वस्त्रस्य काटना । विक्षिप्ता - प्रत्युपेक्षित वस्त्रस्यान्यत्राप्रत्युपेक्षिते क्षेपणं, प्रत्युपेक्षमाणो वा वस्त्राञ्चलं यदूर्ध्वं क्षिपति । वेतिया पंचविहा पन्नत्ता, तं जहा - उड्ढवेतिया अहोवेतिया तिरियवेतिया दुहतोवेतिया एगतोवेतिया । प्रतिलेखना के दोष तत्थ उड्ढवेतिया उवरि जुण्णगणं हत्थे काऊण पडिलेहेइ । अहोवेइया अहो जुणगाणं हत्थे काळण पडिलेहेइ । तिरियवेइया संडासयाणं मज्झेण हत्थेण वित्तूण पडिmes | दुहतोवेइया बाहाणं अंतरे दोवि जुणगा काऊण पडिलेहेति । एगतो वेइया एगं जुण्णगं बाहाणमंतरे काऊण पडिले हेति । ( उ २६ । २६ शावृप ५४१ ) प्रतिलेखना के छह दोष १. आरभटा विधि से विपरीत प्रतिलेखना करना अथवा एक वस्त्र का पूरा प्रतिलेखन किए बिना दूसरे वस्त्र का प्रतिलेखन करना । २. सम्मर्दा - प्रतिलेखन करते समय वस्त्र को इस प्रकार पकड़ना कि उसके बीच में सलवटें पड़ जायें अथवा प्रतिलेखनीय उपधि पर बैठकर प्रतिलेखना करना । ३. मोसली -- प्रतिलेखन करते समय वस्त्र को ऊपर, नीचे, तिरछे किसी वस्त्र या पदार्थ से संघट्टित करना । ४. प्रस्फोटना - प्रतिलेखन करते समय रज से लिप्त वस्त्र को गृहस्थ की तरह वेग भटकना । ५. विक्षिप्ता - प्रतिलेखित वस्त्रों को अप्रतिलेखित वस्त्रों पर रखना अथवा वस्त्र के अञ्चल को इतना ऊंचा उठाना कि उसकी प्रतिलेखना न हो सके । ६. वेदिका के पांच प्रकार हैं १. ऊर्ध्ववेदिका - दोनों जानुओं पर हाथ रखकर प्रतिलेखना करना । २. अधोवेदिका - दोनों जानुओं के नीचे हाथ रखकर प्रतिलेखना करना । ३. तिर्यग्वेदिका - दोनों जानुओं के बीच में हाथ रखकर प्रतिलेखना करना । ४. उभयवेदिका — दोनों जानुओं को दोनों हाथों के बीच रखकर प्रतिलेखना करना । ५. एक वेदिका एक जानु को दोनों हाथों के बीच रखकर प्रतिलेखना करना । पसिढिलपलंबलोला, एगामोसा अणेगरूवधुणा । कुणइ पमाणि पमायं संकिए गणणोवगं कुज्जा ।। २६।२७) प्रतिलेखना के सात दोष १. प्रशिथिल - वस्त्र को ढीला पकड़ना । २. प्रलम्ब - वस्त्र को विषमता से पकड़ने के कारण कोनों का लटकना । Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४३ केवली छद्मस्थ की द्रव्य भाव.... ३. लोल - प्रतिलेख्यमान वस्त्र का हाथ या भूमि से संघर्षण करना । ४. एकामर्शा - वस्त्र को बीच में से पकड़कर उसके दोनों पावों का एक बार में ही स्पर्श करना - एक दृष्टि में ही समूचे वस्त्र को देख लेना । ५. अनेक रूप धुनना - प्रतिलेखना करते समय वस्त्र को अनेक बार ( तीन बार से अधिक ) झटकना अथवा अनेक वस्त्रों को एक साथ झटकना ६. प्रमाण- प्रमाद - प्रस्फोटन और प्रमार्जन का जो प्रमाण (नौ-नौ बार करना) बतलाया है, उसमें प्रमाद करना । ७. गणनोपगणना - प्रस्फोटन और प्रमार्जन के निर्दिष्ट प्रमाण में शंका होने पर उसकी गिनती करना । ८. प्रतिलेखना- प्रभाव से छह काय की विराधना पडिलेहणं कुणतो मिहोकहं कुणइ जणवयकहं वा । देइ व पच्चक्खाणं वाएइ सयं पडिच्छइ वा ॥ पुढवी आउक्काए तेऊवाऊवणस्स इतसाणं । पडिलेहणापमत्तो छहं पि विराहओ होइ ॥ ( उ २६ २९, ३०) जो प्रतिलेखना करते समय कामकथा करता अथवा जनपद की कथा करता है अथवा प्रत्याख्यान करवाता है, दूसरों को पढ़ाता है अथवा स्वयं पढ़ता है, वह प्रतिलेखना में प्रमत्त मुनि पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय इन छहों कायों का विराधक होता है । ६. केवली - छमस्थ की द्रव्य भाव प्रतिलेखना दुविहा खलु पडिलेहा छउमत्थाणं च केवलीणं च । forर बाहिरिआ दुविहा दव्वे य भावे य ॥ (ओनि २५६ ) छद्मस्थ और केवली के दो-दो प्रकार की प्रतिलेखना होती है— द्रव्य और भाव । द्रव्य प्रतिलेखना बाह्य है और भाव प्रतिलेखना आभ्यन्तर है । पाणेहि उ संसत्ता पडिलेहा होइ केवलीणं तु । संसत्तम संसत्ता पडिलेहा ॥ छउमत्थाणं तु (ओनि २५७ ) प्रतिसंलीनता केवल के बाह्य प्रतिलेखना प्राणियों से संसक्त वस्तुविषयक होती है । छद्मस्थ के बाह्य प्रतिलेखना प्राणियों से संसक्त या असंसक्त वस्तुविषयक होती है । नाऊण वेणिज्जं अइबहुअं आउअं च थोवागं । कम्मं पडिलेहेडं वच्चंति जिणा समुग्धायं ॥ ( ओनि २५९ ) केवली आयुष्य कर्म को थोड़ा और वेदनीय आदि कर्मों को अधिक जानकर समुद्घात करते हैं । यह केवली भाव प्रतिलेखना है । किं कथं किंवा सेसं किं करणिज्जं तवं च न करेमि । पुव्वावत्तकाले जागरओ भावपडिलेहा ॥ (ओनि २६२ ) पूर्वरात्र और अपररात्र में मुनि यह चिंतन करे कि मैंने आज क्या किया ? क्या करना मेरे लिए शेष है ? जो तप आदि मैं कर सकता हूं, क्या मैं उसे नहीं कर रहा हूं - यह छद्मस्थ की भाव प्रतिलेखना है । प्रतिसंलीनता - इन्द्रिय आदि का बाह्य विषयों से प्रतिसंहरण करना — उनकी बहिवृत्तिको अन्तर्मुखी बनाना । बाह्य तप का छठा प्रकार । १. प्रतिसंलीनता के प्रकार २. इंद्रिय प्रतिसंलीनता ३. कषाय प्रतिसंलीनता ४. योग प्रतिसंलीनता ५. विविक्त- शयनासन ६. विविक्त शयनासन के परिणाम ( द्र. तप ) १. प्रतिसंलीनता के प्रकार संलीणता चउव्विहा, तं जहा इंदियसंलीणया कसाय संलीणया जोगसंलीणया विवित्तचरिया । ( अचू पृ १४ ) इन्द्रियसंलीनता श्रोत्रादिभिरिन्द्रियैः शब्दादिषु सुन्दरेतरेषु रागद्वेषाकरणं, कषायसंलीनता तदुदयनिरोध Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिसंलीनता ४४४ विविक्त-शयनासन के परिणाम उदीर्ण विफलीकरणं च । योगसंलीनता च मनोयोगा- ४. उदय में आने वाले लोभ का निरोध करना तथा दीनामकुशलानां निरोधः कुशलानामुदीरणम् । उदय प्राप्त लोभ को विफल करना । (उशावृ प ६०८) ४. योगसंलीनता प्रतिसंलीनता के चार प्रकार हैं जोगसंलीणया तिविहा, तं जहा-अकुसलमणनिरोहो १. इन्द्रिय-प्रतिसंलीनता-श्रोत्र आदि इन्द्रियों का कुसलमणउदीरणं वा, एवं वायाए, कायसंलीणया शब्द आदि अपने-अपने मनोज्ञ-अमनोज्ञ विषयों चंकमणादीणि ण अकज्जे, कज्जे जयणाए। (दअच ११४) में रागद्वेष का अभाव । योगसंलीनता के तीन प्रकार हैं२. कषाय प्रतिसंलीनता-क्रोध आदि के उदय का मनसंलीनता-अकुशल मन का निरोध, कुशल मन निरोध और उदीर्ण का विफलीकरण । का प्रवर्तन । ३. योगप्रतिसंलीनता---अकुशल मन-वचन-काया वचनसंलीनता-अकुशल वचन का निरोध, कुशल का निरोध, कुशल योगों में प्रवृत्ति । - वचन का प्रवर्तन । ४. विविक्तचर्या (विवक्त-शयनासन)-एकांत शयन कायसंलीनता---बिना प्रयोजन चंक्रमण आदि न और आसन का सेवन । करना, प्रयोजन होने पर यतनापूर्वक २. इन्द्रिय प्रतिसंलीनता चंक्रमण आदि करना। इंदियसंलीणया पंचविहा भण्णइ, तं जहा- ५. विविक्त-शयनासन सोइंदियसंलीणया, चक्खिदियसंलीणया, घाणिदिय एगतमणावाए, इत्थीपसुविवज्जिए। संलीणया, जिभिदियसंलीणया, फासिदियसंलीणया । सयणासणसेवणया, विवित्तसयणासणं ॥ . (दजिचू पृ २४) (उ ३०।२८) इन्द्रियसंलीनता के पांच प्रकार हैं एकान्त, अनापात और स्त्री-पशू आदि से रहित १. श्रोत्रेन्द्रियसंलीनता शयन और आसन का सेवन करना विविक्त-शयनासन २. चक्षुरिन्द्रियसंलीनता ३. घ्राणेन्द्रियसंलीनता (उत्तराध्ययन में यह गाथा बाह्य तप के छठे भेद ४. जिहन्द्रियसंलीनता 'प्रतिसंलीनता' की व्याख्या में दी गई है। परंतु यह ५. स्पर्शनेन्द्रियसंलीनता प्रतिसंलीनता के एक अवान्तर भेद-विविक्त-शयनासन की द्योतक मात्र है। वृत्तिकार शान्त्याचार्य ने इसका ३. कषायसंलीनता विमर्श इस प्रकार किया है-विविक्तचर्या नाम संलीनकसायसंलीणया चतुम्विहा, तं जहा-कोहोदय तोक्ता भवति... प्राधान्याच्चास्या एव साक्षादभिधानं, निरोहो वा उदयप्पत्तस्स वा कोहस्स विफलीकरणं, एवं प्राधान्यं चेन्द्रियादिसलीनतोपकारित्वादस्या: ।) सेसेसु वि। (दअचू पृ १४) (उशा प ६०८) कषायसंलीनता के चार प्रकार हैं ६. विविक्त-शयनासन के परिणाम १. उदय में आने वाले क्रोध का निरोध करना तथा विवित्तसयणासणयाए णं चरित्तगुत्ति जणयइ । उदय प्राप्त क्रोध को विफल करना । चरित्तगुते य णं जीवे विवित्ताहारे दढचरित्ते एगंतरए २. उदय में आने वाले मान का निरोध करना तथा मोक्खभावपडिवन्ने अटविहकम्मगंठिं निज्जरेइ । उदय प्राप्त मान को विफल करना । (उ २९।३२) ३. उदय में आने वाली माया का निरोध करना विविक्तशयनासन के सेवन से जीव चारित्र की रक्षा तथा उदय प्राप्त माया को विफल करना। को प्राप्त होता है। चारित्र की सुरक्षा करने वाला जीव Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिसेवना ४४५ प्रत्याख्यान पौष्टिक आहार का वर्जन करने वाला, दृढ़ चारित्र प्रत्याख्यान-आस्रव का निरोध । वाला, एकान्त में रत, अन्तःकरण से मोक्ष साधना में [ १.प्रत्याख्यान का अर्थ लगा हुआ, ज्ञानावरणीय आदि आठ प्रकार के कर्मों की | * प्रत्याख्यान : आवश्यक सूत्र का छठा अध्ययन गांट को तोड़ देता है। और उसका प्रतिपाद्य (5. आवश्यक) प्रतिसेवना-दोष का आचरण । २. प्रत्याख्यान के प्रकार पडिसेवणा मइलणा भंगो य विराहणा य खलणा य । ३. दस प्रत्याख्यान उवघाओ य असोही सबलीकरणं च एगट्ठा ।। (१) नमस्कार सहिता (ओनि ७८८) (२) पौरुषी * पौरुषी का प्रमाण (द्र. कालविज्ञान) प्रतिसेवना, मलिनता, भंग, विराधना, स्खलना, (३) पुरिमा, उपघात, अशोधि, शबलीकरण-ये सब एकार्थक हैं। (४) एकाशन पडिसेवणा य दुविहा मूलगुणे चेव उत्तरगुणे य । (५) एकस्थान मूलगुणे छट्ठाणा उत्तरगुणि होइ तिगमाई ।। (६) निविकृति (निविगय) हिंसालियचोरिक्के मेहुन्नपरिग्गहे य निसिभत्ते । * विकृति के प्रकार (द्र. रसपरित्याग) इय छट्ठाणा मूले उग्गमदोसा य इयरंमि ।। (७) आयंबिल (ओनि ७८६,७८७) (८) उपवास प्रतिसेवना के दो प्रकार हैं ० पारिष्ठापनिका आकार • देय परिष्ठापनीय आहार १. मूलगुण प्रतिसेवना-हिंसा, असत्य, चौर्य, (९) दिवसचरिम मैथुन, परिग्रह और रात्रिभक्त से सम्बन्धित (१०) अभिग्रह प्रतिसेवना। ० महत्तर आकार २. उत्तरगुण प्रतिसेवना-उद्गम-उत्पाद-एषणा ४. अनागत आदि बस प्रत्याख्यान के दोष तथा समिति, भावना, तप आदि से ५. कोटिसहित प्रत्याख्यान संबंधित प्रतिसेवना। ६. नियंत्रित प्रत्याख्यान जत्थ साहम्मिया बहवे, भिन्नचित्ता अणारिया। ७. अद्धा प्रत्याख्यान मूलगुणपडिसेवी, अणायतणं तं वियाणहि ॥ ८. प्रत्याख्यान की विशोधि के हेतु जत्थ साहम्मिया बहवे, भिन्नचित्ता अणारिया । ९. प्रत्याख्यान की अशोधि के हेतु उत्तरगुणपडिसेवी, अणायतणं तं वियाणहि ।। १०. प्रत्याख्याता""चार विकल्प (ओनि ७७९,७८०) ११. प्रत्याख्येय जहां बहुत से साधर्मिक साधु चंचल चित्त वाले, १२. प्रत्याख्यान पालन विधि मूलगुणप्रतिसेवी अथवा उत्तरगुणप्रतिसेवी होते हैं, वह १३. प्रत्याख्यान के परिणाम • आहार-प्रत्याख्यान के परिणाम अनायतन है। ० सहयोग-प्रत्याख्यान के परिणाम (प्रतिसेवना के दो प्रकार हैं-दपिका और • सद्भाव-प्रत्याख्यान के परिणाम कल्पिका। अनाभोग, प्रमाद आदि भी इसके भेद हैं। * उपधि-प्रत्याख्यान के परिणाम (द्र. उपधि) देखें ठाणं १०।६९ का टिप्पण)। कषाय-प्रत्याख्यान के परिणाम (द्र. कषाय) प्रत्यक्ष-बिना किसी माध्यम के होने वाला साक्षात् * भक्त-प्रत्याख्यान (अनशन) के परिणाम ज्ञान। (द्र. ज्ञान) (द्र. अनशन) Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्याख्यान दस प्रत्याख्यान प्रवृत्तिकोबारा जो१२० *प्रत्याख्यान और श्रतग्रहण योग्य परिषद तानि आवकहिताणि । साधूणं केति अभिग्गहविसेसा (त. परिषद) | सावगाणं चत्तारि सिक्खावताणि इत्तिरियाणित्ति । १४. प्रत्याख्यान-प्रतिपादन विधि (आवचू २ पृ २७३) * श्रावक के नवकोटि प्रत्याख्यान (द्र. श्रावक) भाव प्रत्याख्यान के दो प्रकार हैं-- श्रुत प्रत्याख्यान * साधु के प्रत्याख्यान (द्र. महाव्रत) और नोश्रुत प्रत्याख्यान । श्रुत प्रत्याख्यान के दो प्रकार हैं१. प्रत्याख्यान का अर्थ १. पूर्व श्रुत -- नौवां प्रत्याख्यान पूर्व । प्रत्याख्यायते-निषिध्यतेऽनेन मनोवाक्कायक्रिया- २. नोपूर्व श्रुत--प्रत्याख्यान अध्ययन, आतुरप्रत्याख्यान, जालेन किञ्चिदनिष्टमिति प्रत्याख्यानम् । महाप्रत्याख्यान आदि। (आवहाव २ पृ २०८) नोश्रुत प्रत्याख्यान के दो भेदमन, वचन और काया के द्वारा जो अनिष्टकारक १. मूल गुण-सर्वमूल गुण (महाव्रत), देशमूल गुण अथवा बंधकारक प्रवृत्ति का निषेध किया जाता है, वह (अणुव्रत)। प्रत्याख्यान कहलाता है। २. उत्तर गुण-सर्व उत्तरगुण (अनागत आदि दस जो अतियारो आलोयणपडिक्कमणकाउस्सग्गेहिं ण प्रत्याख्यान)। देश उत्तरगुण (तीन गुणवत, चार सुज्झति सो तवेण पच्चक्खाणेण य विसोधिज्जति। शिक्षाव्रत)। (आवच २ पृ २७२) अथवा उत्तर गुण के दो प्रकार ये हैं - जिन अतिचारों की शूद्धि आलोचना, प्रतिक्रमण और १. इत्वरिक-साधु के कुछ अभिग्रह आदि तथा श्रावक कायोत्सर्ग के द्वारा नहीं होती, उनकी शुद्धि तप और __ के चार शिक्षाव्रत इत्वरिक (अल्पकालिक)। प्रत्याख्यान से होती है। २. यावत्कथिक-साधु का नियंत्रित प्रत्याख्यान २. प्रत्याख्यान के प्रकार यावत्कथिक है, जिसका दुर्भिक्ष आदि में भी पालन किया जाता है। श्रावक के तीन गुणव्रत यावत्कथिक तं दुविहं सुअनोसुअ, सुयं दुहा पुव्वमेव नोपुव्वं ।। पुव्वसुय नवमपुव्वं, नोपुव्वसुयं इमं चेव ॥ नोसुअपच्चक्खाणं, मूलगुणे चेव उत्तरगणे य । ३. दस प्रत्याख्यान मुले सव्वं देसं, इत्तरियं आवकहियं च ।। नमुक्कारपोरिसीए पूरिमडढेगासणेगठाणे य । (आवभा २४१,२४२) आयंबिल अभत्तठे चरमे य अभिग्गहे विगई। णोपूव्वसुतपच्चक्खाणं तं अणेगविहं, तं जहा __ (आवनि १५९७) आतुरपच्चक्खाणं महापच्चक्खाणं, इमं पच्चक्खाणज्झयणं। प्रत्याख्यान के दस प्रकार-- जं तं णोसुतपच्चक्खाणं, तं दुविहं-मूलगुणपच्चक्खाणं १. नमस्कारसहिता (नवकारसी)- सूर्योदय से लेकर उत्तरगुणपच्चक्खाणं च । जं तं मूलगुणपच्चक्खाणं तं ४८ मिनट तक कुछ भी खाना-पीना नहीं। समय दुविहं-सव्वमूलगुणपच्चक्खाणं देसमूलगुणपच्चक्खाणं सम्पन्न होने पर नमस्कार मंत्र का स्मरण कर इसको च । सव्वमूलगुणपच्चक्खाणं पंच महब्वता, देसमूलगुण- पूरा किया जाता है, इस दृष्टि से इसका नाम पच्चक्खाणं च पंच अणुव्वता। उत्तरगुणपच्चक्खाणं नमस्कारसहिता रखा गया है। दुविहं-सव्वुत्तरगुणपच्चक्खाणं देसुत्तरगुणपच्चक्खाणं च। २. प्रहर-दिन के एक चौथाई भाग को प्रहर कहा सव्वुत्तरगुणपच्चक्खाणं दसविहं अणागतमतिक्कंत.... । जाता है। उतने समय तक खाद्य-पेय पदार्थों का देसुत्तरगुणपच्चक्खाणं सत्तविहं-तिन्नि गुणव्वताणि उपयोग नहीं किया जाता। चत्तारि सिक्खावताणि । अहवा उत्तरगुणपच्चक्खाणं ३. पुरिमार्ध-दिन का आधा भाग अर्थात् प्रथम दो दविहं-इत्तिरियं आवकहियं । जथा णियंटितं, तं दुब्भि- प्रहर के काल तक खान-पान का परित्याग करना क्खमादिसुवि जं पडिसेवति । सावगाणं च तिन्नि गुणव्व- आधा दिन या पुरिमार्ध कहलाता है। Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौरुषी ४४७ प्रत्याख्यान ४. एकाशन-दिन में एक स्थान पर बैठकर एक बार सूर्योदय होने पर नमस्कारसहिता में अशन, पान, से अधिक भोजन नहीं करना । खाद्य, स्वाद्य-इस चतुर्विध आहार का प्रत्याख्यान किया ५. एकस्थान-दिन में एक समय एक आसन में एक जाता है । इसके दो अपवाद हैं - बार से अधिक भोजन नहीं करना। इसमें शरीर १. अनाभोग-'नमो अरहताणं ...' इस प्रकार नमस्कार का संकोच-विकोच करना भी वजित है। मंत्र का उच्चारण कर नवकारसी को पूरा किया ६. निविगय-दिन में एक समय, एक बार से अधिक जाता है। अत्यंत विस्मृति होने पर नमस्कार का भोजन नहीं करना । भोजन में दूध, दही आदि सभी उच्चारण किये बिना ही मुंह में कवल लिया, किंतु विकृतियों का परिहार करना। छाछ, रोटी, चने याद आते ही उसे मुंह से निकालकर 'खेलमल्लक' में जैसे पदार्थों के अतिरिक्त सरस पदार्थों का सेवन डाल देने पर तथा हाथ का कवल पात्र में डाल देने नहीं करना। पर और नमस्कारपूर्वक पुन: उस कवल को खाने ७. आयंबिल-दिन में एक समय, एक बार केवल एक पर त्याग का भंग नहीं होता। धान्य के अतिरिक्त कुछ नहीं खाना। उसमें नमक, २. सहसाकार-अकस्मात् मुंह में कवल लेने पर, पुनः मसाले, घी आदि कुछ भी नहीं होने चाहिए। निकालकर नमस्कारपूर्वक खाने से त्याग का भंग ८. उपवास-एक दिन के लिए पानी के अतिरिक्त सब नहीं होता। ऐसा करने से आहार की अभिलाषा प्रकार के खाद्य-पेय पदार्थों का परिहार करना । का छेद और निर्जरा होती है। यह तिविहार उपवास का क्रम है। चौविहार पौरुषी उपवास में पानी नहीं पिया जाता। आगम साहित्य सूरे उग्गए पोरिसिं पच्चक्खाइ चउन्विहंपि आहारं में उपवास के लिए 'चउत्थभत्त' शब्द प्रयुक्त हुआ -असणं पाणं खाइमं साइमं, अन्नत्थणाभोगेणं सहसा गारेणं पच्छन्नकालेणं दिसामोहेणं साहुवयणेणं सव्वसमा९. दिवसचरिम -एक घण्टा दिन रहते-रहते भोजन- हिवत्तिआगारेणं वोसिरह । (आव ६२) पानी से निवृत्त होना, दूसरे दिन सूर्योदय तक कुछ पुरुषनिष्पन्ना पोरुषी, जदा किर चउब्भागो दिवसस्स भी नहीं खाना । गतो भवति तदा सरीरप्पमाणच्छाया भवति, तीसे छ १०. अभिग्रह --विशेष प्रतिज्ञा की संपूति होने से पहले आगारा। भोजन नहीं करना। . ""पच्छण्णातो दिसातो मेहेहिं रएहिं रेणुणा पव्वएण नमस्कारसहिता वा पुण्णे त्ति कए पजिमितो होज्जा, जाहे णायं ताहे ठाति, सूरे उग्गए नमुक्कारसहियं पच्चक्खाइ चउबिहंपि जं मुहे तं खेल्लमल्लए, जं लंबणे तं पत्ते, पुणो संदिसाआहारं - असणं पाणं खाइमं साइम, अन्नत्थणाभोगेणं वेति मिच्छादुक्कडन्ति करेति, जेमेति, अह एवं न करेति सहसागारेणं वोसिरइ। (आवास) तहेव जेमेति तो भग्गं । दिसामुढो ण जाणहिति हेमंते णमोक्कारं काऊणं जेमेउं वदति तम्हा जेमणवेलाए जहा पोरिसी, जाणति अवरण्हे वट्टइत्ति । साहवयणेणं भाणियव्वं-नमो अरहंताणं मत्थएण वंदामो खमा- अन्ने साहू भणंति उग्घाडा पोरुसी, सो जेमेत्ता मिणति समणा ! णमोक्कारं पारेमित्ति । अद्धजिमिते वा अण्णे मिणति तेण से कहियं जहा ण परिअणाभोगो णाम एकान्तविस्मृति:, विस्सरिएणं णमो- तित्ति, तहेव ठातितव्वं । समाधी णाम तेण य पोरुसी क्कारं अकाऊणं मूहे छूट होज्जा, संभरिते समाणे मुहे- पच्चक्खाया, आसुक्कारियं दुक्खं उप्पन्नं तस्स अन्नस्स वा, तणगं खेलमल्लए ज हत्थे तं पत्ते पच्छा भुंजे, णमोक्कारं तेण किंचि कायव्वं तस्स, ताहे परो विज्जेज्जा तस्त वा काऊणं जेमेति तो न भग्गं । सहसाकारे णाम सहसा मुहे पसमणणिमित्तं पाराविज्जति ओसह वा दिज्जति, एत्थंपक्खितं, छडुति, जाणतेवि तहेव विगिचित्ता णमोक्कारं तरा णाए तहेव विवेगो। (आव २ पृ ३१५,३१६) काऊणं भुंजति पच्छा, एवं पि किर जीवो आहाराभिमुहो सूर्योदय होने पर पौरुषी (प्रहर) में अशन, पान, णियत्तिओ भवति, तेण तण्हाच्छेदेण णिज्जरा । खाद्य, स्वाद्य-इस चतुर्विध आहार का प्रत्याख्यान किया (आव २ पृ ३१५) जाता है। For Private & Personal use only Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्याख्यान ४४८ एकस्थान पुरिमार्ध जो पुरुष से निष्पन्न है, वह पौरुषी है। दिन का हत्थे पायाणि चालेज्जावि, तस्स अट्र आगारा"...... चतुर्थ भाग बीत जाने पर पुरुष प्रमाण छाया होती है सागारियं अद्धसमूहिट्स्स आगतं, जदि वोलेति पडिच्छति, और यही पौरुषी (प्रहर) का प्रमाणकाल है । इसके छह अह थिरं ताहे सज्झायवाघातोत्ति उठूत्ता अन्नत्थ गंतूणं अपवाद हैं समुद्दिसति, हत्थं वा पायं वा सीसं वा आउंटेज्जा वा १. अनाभोग-अत्यंत विस्मृति होने पर। पसारेज्ज वा ण भज्जति, अभद्राणारिहो आयरितो वा २. सहसाकार-सहसा मुंह में कुछ डाल लेने पर। आगतो अब्भट्ठयव्वं, तस्स एवं समुद्दिट्टयस्स पारिद्वावणिया ३. प्रच्छन्नकाल-आकाश में बादल आदि छा जदि होज्जा करेति । (आव २ पृ ३१६) जाने से काल का पता न लगने पर। एकाशन में अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य-इस चतुर्विध ४. दिग्मूढ़-पौरुषी का कालमान ज्ञात न होने पर। आहार का प्रत्याख्यान किया जाता है। ५. साधुवचन - अन्य साधुओं के द्वारा प्रहर की पूर्णता एक आसन में बैठ, पुतों को स्थिर रख कर आहार ___ की सूचना मिलने पर। करना एकासन कहलाता है। इसमें हाथ-पैरों का संकोच६. सर्वसमाधिहेतु-अचानक किसी रोग के उभरने फैलाव किया जा सकता है। इसके आठ अपवाद हैंके कारण औषधि आदि दिए जाने पर। १. अनाभोग --अत्यंत विस्मृति होने पर। २. सहसाकार-सहसा मुंह में कूछ डाल लेने पर। सरे उग्गए पूरिमड्ढं पच्चक्खाइ चाउम्विहंपि आहारं ३. सागारिक-गहस्थ के आ जाने पर अन्यत्र जाकर -असणं पाणं खाइमं साइमं, अन्नत्थणाभोगेणं सहसा- खाने पर। गारेणं पच्छन्नकालेणं दिसामोहेणं साहुवयणेणं महत्तरा ४. हाथ-पैरों का संकुचन-प्रसारण करने पर। गारेणं सव्वसमाहिवत्तिआगारेणं वोसिरइ। (आव ६३) ५. गुरु-अभ्युत्थान-गुरु-आगमन पर खड़े होने पर। सूर्योदय होने पर पुरिमार्ध (दिन के प्रथम दो प्रहर) ६. पारिष्ठापनिका-अतिरिक्त आहार आ जाने पर में अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य-इस चतुर्विध आहार का परिष्ठापन की स्थिति में खाने पर। प्रत्याख्यान किया जाता है । इसके सात अपवाद हैं ७. महत्तराकार --आचार्य के द्वारा आज्ञा देने पर। १. अनाभोग-अत्यंत विस्मृति होने पर । ८. सर्वसमाधिहेतु-अचानक किसी रोग के उभरने के २. सहसाकार-सहसा मुंह में कुछ डाल लेने पर। कारण औषधि दिए जाने पर। ३. प्रच्छन्नकाल-आकाश में बादल आदि छा जाने से काल का पता न लगने पर। एकस्थान ४. दिग्मूढ-दो पौरुषी का कालमान ज्ञात न होने एगट्ठाणं पच्चक्खाइ चउन्विहंपि आहार-असणं पर। पाणं खाइमं साइमं, अन्नत्थणाभोगेणं सहसागारेणं सागा५. साधूवचन-अन्य साधुओं के द्वारा दो प्रहर की रियागारेणं गरुअब्भदाणेणं पारिद्रावणियागारेणं महत्तरा_पूर्णता की सूचना मिलने पर । गारेणं सब्वसमाहिवत्तिआगारेणं वोसिरइ । (आव ६।५) ६. महत्तराकार-आचार्य के द्वारा आज्ञा देने पर। एकस्थान में अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य-इस ७. सर्वसमाधिहेत-अचानक किसी रोग के उभरने के चविध आहार का प्रत्याख्यान किया जाता है। इसके ___ कारण औषधि आदि दिए जाने पर । सात अपवाद हैं --- एकाशन १. अनाभोग -अत्यंत विस्मृति होने पर। एगासणं पच्चक्खाइ चउन्विहंपि आहारं-असणं पाणं २. सहसाकार-सहसा मुंह में कुछ डाल लेने पर। खाइमं साइम, अन्नत्थणाभोगेणं सहसागारेणं सागारिया- ३. सागारिक - गृहस्थ के आने पर अन्यत्र जाकर गारेणं आउंटणपसारणेणं गुरुअब्भदाणेणं पारिद्वावणिया- खाने पर। गारेणं महत्तरागारेणं सबसमाहिवत्तिआगारेणं वोसिरइ। ४. गुरु-अभ्युत्थान -गुरु आगमन पर खड़े होने पर। (आव ६४) ५. पारिष्ठापनिका-अतिरिक्त आहार आ जाने पर एगासणगं नाम पुता भूमीतो ण चालिज्जति, सेसाणि परिष्ठापन की स्थिति में खाने पर। Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपवास प्रत्याख्यान ६. महत्तराकार-आचार्य के द्वारा आज्ञा देने पर। उक्खित्तविवेगो जं आयंबिले पडति विगतिमादि तं उक्खि७. सर्वसमाधिहेतु-अचानक किसी रोग के उभरने के वित्ता परिवाविज्जति य, णवरि गलिओ अण्णं वा कारण औषधि आदि दिये जाने पर। आयंबिलअप्पाउग्गं जदि उद्धरितुं तीरति, उद्धरिएणं ण निर्विकृति हम्मति । गिहत्थसंसठे णाम जदि गिहत्थडोयलियभायणं वा लेवालेवाडं कुसणादीहिं तेण जदि ईसित्ति लेवादीहिं निविगइयं पच्चक्खाइ चउव्विहंपि आहारं-असणं देति ण भञ्जति, जदि बहरसो आलिखिज्जति बहतो ताहे पाणं खाइमं साइमं, अन्नत्थणाभोगेणं सहसागारेणं लेवा ण कप्पति । लेवेणं गिहत्थसंसठेणं उक्खित्तविवेगेणं पडुच्चमक्खिएणं (आवचू २ पृ ३१७-३१९) पारिट्रावणियागारेणं महत्तरागारेणं सव्वसमाहिवत्तिआ आयंबिल में अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य-इस गारेणं वोसिरइ। आ चतुर्विध आहार का प्रत्याख्यान किया जाता है। इसके पडुच्चमक्खियं णाम जदि अंगुलीहिं गहाय मक्खेति आठ अपवाद हैंतेल्लेण वा घएण वा थोवएणं ताहे निव्वीतकस्स कप्पति, १. अनाभोग -अत्यन्त विस्मृति होने पर। धाराए य विगई भवति। (आव २ पृ ३२०) २. सहसाकार-सहसा मुंह में कुछ डाल लेने पर। निर्विगय में अशन, पान खाद्य, स्वाद्य -इस चतुर्विध ३. जिसमें दूध आदि का लेप लगा हो, उस पात्र से आहार का प्रत्याख्यान किया जाता है। इसके नौ आहार लेने पर। अपवाद हैं-- ४. आयंबिल प्रायोग्य द्रव्य में आयंबिल अप्रायोग्य द्रव्य १. अनाभोग - अत्यन्त विस्मृति होने पर। गिर जाये तो उसे निकाल देने पर। २. सहसाकार ... सहसा मुंह में कुछ डाल लेने पर। ५. अप्रायोग्य द्रव्य से संसृष्ट हाथ से लेने पर। ३. जिसमें दूध आदि का लेप लगा हो, उस पात्र से ६.पारिष्ठापनिका--अतिरिक्त आहार आ जाने पर आहार लेने पर। परिष्ठापन की स्थिति में खाने पर। ४. विकृति से संसृष्ट हाथ से लेने पर। ७. महत्तराकार-आचार्य के द्वारा आज्ञा देने पर। ५. निविकृति द्रव्य में विकृति द्रव्य गिर जाए तो उसे ८. सर्वसमाधिहेतु- अचानक किसी रोग के उभरने के निकाल देने पर। कारण औषधि आदि दिए जाने पर । ६. अंगुली से घी लेकर चुपड़ देने पर। उपवास ७. पारिष्ठापनिका अतिरिक्त आहार आ जाने पर। परिष्ठापन की स्थिति में खाने पर। सूरे उग्गए अभत्तट्ठ पच्चक्खाइ चउव्विहंपि आहारं८. महत्तराकार-आचार्य के द्वारा आज्ञा देने पर। असणं पाणं खाइमं साइम, अन्नत्थणाभोगेणं सहसागारेणं ९. सर्वसमाधिहेतु-अचानक किसी रोग के उभरने के पारिट्ठावणियागारेणं महत्तरागारेणं सव्वसमाहिवत्तिआगाकारण औषधि आदि दिए जाने पर। रेणं वोसिरइ। (आव ६७) आयंबिल सूर्योदय होने पर उपवास में अशन, पान, खाद्य, आयंबिलं पच्चक्खाइ चउव्विहंपि आहार---असणं स्वाद्य-इस चतुर्विध आहार का प्रत्याख्यान किया जाता है। इसके पांच अपवाद हैंपाणं खाइमं साइमं, अन्नत्थणाभोगेणं सहसागारेणं लेवालेवेणं उक्खित्तविवेगेणं गिहत्थसंसट्टेणं पारिढावणिया १. अनाभोग-अत्यंत विस्मृति होने पर। गारेणं महत्तरागारेणं सव्वसमाहिवत्तिआगारेणं वोसिरइ। २. सहसाकार-सहसा मुंह में कुछ डाल लेने पर। (आव ६६) ३. पारिष्ठापनिका अतिरिक्त आहार आ जाने पर समयक्कतं आयामेणं आंबिलेण य आहारो कीरति परिष्ठापन की स्थिति में खाने पर। तम्हा आयंबिलंति गोण्णं नाम । ४. महत्तराकार आचार्य के द्वारा आज्ञा देने पर। लेवालेवे जदि भायणेणं पुव्वं लेवाडं गहियं जा ५. सर्वसमाधिहेतु-अचानक किसी रोग के उभरने के समुद्दिळं संलिहियं जति तेणं आणेति ण भञ्जति, कारण औषधि आदि दिये जाने पर । Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्याख्यान पारिष्ठापनिका आकार आयंबिलमणायंबिल चउथा बालबुड्ढसहुअसहू । अडियहिंडियr पाहुणयनिमंतणावलिया || ( आवनि १६१० ) पारिट्ठावणिया आगारो- :- सो कस्स दायव्वो ण वा केरिस वा पारिट्ठावणियं दायव्वं ण दायव्वंति ? ते सव्वेवि दुविहा आयंबिलगो य अणायंबिलगो य, आयंबिलिओ आयंबिलतो चेव, अणायंबिलितो निव्वीयं एगासणगं एगट्टाणगं चउत्थं छट्ठ अट्टमं । दसमादियाणं ण वट्टति दातुं तस्स पेज्जे उण्हं वा देति, अवि य सो सदे - वयतो होति । एक्को आयंबिलिओ एगो चउत्थभत्तितो कस्स दायव्वं ? चउत्थभत्तियस्स दायव्वं, दोवि ते आयंबिलगा अभत्ता वा एगो वुड्ढो एगो बालो, बालस्स दायव्वं, दोवि बाला दोवि बुड्ढा एगो सहू एगो असहू, असहुस्स य दायव्वं, दोवि असहा एगो हिंडतो एगो अहिंडगो, अहिंडयस्स दायव्वं, दोवि हिडया दोवि वा अहिंडया, एगो पाहुणगो एगो वत्थव्वतो, पाहुणगस्स दायव्वं । ( आवचू २ पृ ३२० ) परिष्ठापनीय आहार ग्रहण के योग्य साधु दो श्रेणियों में विभक्त हैं - १. आचाम्ल करने वाले २. आचाम्ल नहीं करने वाले ( एकाशन, एकस्थान, उपवास, बेला, तेला करने वाले और निर्विकृतिक ) । ४५० दशमभक्त (चार दिन के उपवास ) वालों को परिष्ठापनीय आहार नहीं दिया जाता, केवल उष्ण जल दिया जा सकता है । उनके अधिष्ठित देव होता है । एक के आचाम्ल है और एक के उपवास है तो प्राथमिकता किसको दी जाये ? इसके समाधान में कहा गया है कि उपवास करने वाले को प्राथमिकता दी जाये । उपवास करने वालों में भी बाल और वृद्ध हों तो पहले बाल को दिया जाये। उनमें भी असहिष्णु, भ्रमणशील और प्राघूर्णक को दिया जाये, सहिष्णु, अभ्रमणशील और स्थिरवासी को नहीं । प्राघूर्णक न हो तो असहिष्णु, भ्रमणशील और वास्तव्य बाल को दिया जाये इन चार पदों के आधार पर आचाम्ल और उपवास के सोलह विकल्प बनते हैं। इसी प्रकार आचाम्ल के षष्ठभक्त, अष्टमभक्त आदि के साथ कुल छियानवे विकल्प बनते हैं । आचाम्लक और निर्विकृतिक में से आचाम्लक को प्राथमिकता दी जाये । दिवसचरिम एक मुनि के चतुर्थभक्त (उपवास) और एक के भक्त (बेला) है तो षष्ठभक्त वाले को परिष्ठापनीय आहार दिया जाता है। इसी प्रकार एकाशन और एकस्थान में एकस्थान को एकाशन और निर्विकृति में एकाशन को प्रथमता दी जाती है । अट्टमभत्तियस्त पारिट्ठावणिया ण दिज्जति ..... तं पुण विट्ठे । ति आयरिया अट्ठमा पभणति केति दसमादि, जेसि अट्टमं अवियट्ठ तेसि अट्टमेण य दायव्वं । ( आवचू २ पृ ३२१) अष्टमभक्त (तेला) विकृष्ट तप है, अतः अष्टमभक्तिक को परिष्ठापनीय आहार नहीं दिया जाता। जो आचार्य अष्टमभक्त को अविकृष्ट तप मानते हैं, उनके अनुसार अष्टमभक्ति को परिष्ठापनीय आहार दिया जा सकता है। देय परिष्ठापनीय आहार विहिहियं विहिभुत्तं उव्वरियं जं भवे असणमाई । तं गुरुणाऽणुन्नायं कप्पइ आयंबिलाईणं ॥ ( आवनि १६११ ) जो आहार निर्दोष विधि ( अलुब्धभाव) से गृहीत और विधभुक्त (मण्डली में कट- प्रतर छेद और सिंह की तरह विधि से खाया गया) है, उसमें से यदि कुछ बच जाता है तो वही बचा हुआ परिष्ठापनीय आहार आयंबिल, एकाशन, उपवास आदि करने वालों को गुरु की अनुज्ञा से दिया जा सकता है । ( अविधि से गृहीत और काक, शृगाल आदि की तरह अविधि से भुक्त आहार में से बचा हुआ आहार तपस्वी के लिए कल्पनीय नहीं है । ऐसा दोष दूषित आहार देने वाले और खाने वाले दोनों विवेक प्रायश्चित्त के भागी होते हैं । यदि वे इस स्खलना को पुनः न करने का संकल्प करते हैं तो उन्हें प्रायश्चित्त स्वरूप केवल पांच कल्याणक दिये जाते हैं । लुब्धभाव से गृहीत आहार को मंडलीरानिक साधु समरस करके खिलाता है, खाने के पश्चात् जो आहार बच जाता है, वह भी विधिभुक्त होने के कारण देय है ।) fereafte दिवसचरिमं पच्चखाइ चउव्विपि आहारं असणं पाणं खाइमं साइमं, अन्नत्थणाभोगेणं सहसागारेणं Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोटिसहित प्रत्याख्यान ४५१ प्रत्याख्यान महत्तरागारेणं सव्वसमाहिवत्तिआगारेणं वोसिरह । या अतपस्वी-जो भी समर्थ है, वह जाता है। यदि अन्य (आव ६८) शिष्य नहीं है या उस विशिष्ट कार्य को सम्पादित करने दिवसचरिम में अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य-इस में समर्थ नहीं है तो गुरु उस उपवासी (अभक्तार्थी) शिष्य चतुर्विध आहार का प्रत्याख्यान किया जाता है। इसके को ही भेजते हैं। गुरु का आज्ञावर्ती होने के कारण वह चार अपवाद हैं - आहार करता हुआ भी उपवास से होने वाली निर्जरा का १. अनाभोग--अत्यंत विस्मृति होने पर । भागी बनता है क्योंकि वह आहार की अभिलाषा से मुक्त २. सहसाकार-सहसा मुंह में कुछ डाल लेने पर। ३. महत्तराकार-आचार्य के द्वारा आज्ञा देने पर। ४. अनागत आदि दस प्रत्याख्यान ४. सर्वसमाधिहेतु --अचानक किसी रोग के उभरने के अणागयमइक्कत कोडियसहियं निअंटिअं चेव । कारण औषधि आदि दिए जाने पर । सागारमणागारं परिमाणकडं निरवसेसं ।। अभिग्रह संकेय चेव अद्धाए पच्चक्खाणं तु दसविहं।" अभिग्गहं पच्चक्खाइ। चउव्विहंपि आहारं-असणं (आवनि १५६४,१५६५) पाणं खाइमं साइम, अन्नत्थणाभोगेणं सहसागारेणं प्रत्याख्यान के अन्य दस प्रकार ये हैंमहत्तरागारेणं सव्वसमाहिवत्तिआगारेणं वोसिरह। १. अनागत - भविष्य में करणीय तप को पहले करना। (आव ६।९) २. अतिक्रान्त-वर्तमान में करणीय तप नहीं किया जा अभिग्रह में अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य-इस चतुर्विध सके, उसे भविष्य में करना। आहार का प्रत्याख्यान किया जाता है । इसके चार ३. कोटिसहित एक प्रत्याख्यान का अन्तिम दिन और अपवाद हैं -- दूसरे प्रत्याख्यान का प्रारम्भिक दिन हो, वह कोटि१. अनाभोग–अत्यन्त विस्मृत होने पर। सहित प्रत्याख्यान है। २. सहसाकार-सहसा मुंह में कुछ डाल लेने पर। ४. नियन्त्रित-नीरोग या ग्लान अवस्था में भी 'मैं ३. महत्तराकार-आचार्य के द्वारा आज्ञा देने पर। अमुक प्रकार का तप अमुक-अमुक दिन अवश्य ४. सर्वसमाधिहेतु अचानक किसी रोग के उभरने करूंगा'-इस प्रकार का प्रत्याख्यान करना। के कारण औषधि आदि दिए जाने पर। ५. साकार-अपवादसहित प्रत्याख्यान । महत्तर आकार ६. अनाकार-अपवादरहित प्रत्याख्यान । ___ महत्तरागारेहिं -महल्लपयोयणेहि, तेण अभत्तट्ठो। ७. परिमाणकृत-दत्ति, कवल, भिक्षा, गृह, द्रव्य आदि पच्चक्खातो ताथे आयरिएहिं भण्णति—अभूगं गाम के परिमाण से युक्त प्रत्याख्यान । गंतव्वं, तेण निवेइयं जथा मम अज्ज अब्भत्तट्ठो, जति ८. निरवशेष -अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का ताव समत्थों करेतु य, ण तरति अण्णो भत्तट्ठिओ वा जो सम्पूर्ण प्रत्याख्यान । तरति सो वच्चतु, णत्थि अण्णो तस्स वा कज्जस्स ९. संकेत–संकेत या चिह्न सहित किया जाने वाला असमत्थो ताथे तस्स चेव अभत्तट्रियस्स गुरू विसज्जयति, प्रत्याख्यान । एरिसस्स तं जेमंतस्स अणभिलासस्स अभत्तद्वितणिज्जरा १०. अध्वप्रत्याख्यान --मुहूर्त, पौरुषी आदि कालमान के जा सा से भवति गुरुणिओएण। (आवहा २ पृ २३५) आधार पर किया जाने वाला प्रत्याख्यान । महत्तराकार का अर्थ है-महान प्रयोजन । कोई ५. कोटिसहित प्रत्याख्यान संघीय सेवाकार्य आदि विशेष प्रयोजन उपस्थित होने पर पदवणओ अ दिवसो पच्चक्खाणस्स निटवणओ: आचार्य शिष्य से कहते हैं-आज तुम्हें अमुक गांव जाना जहियं समिति दुन्निवि तं भन्नइ कोडिसहियं तु ॥ है । वह निवेदन करता है-गुरुदेव ! आज मेरे उपवास (आवनि १५७०) है। इस निवेदन के पश्चात् यदि शिष्य समर्थ है तो अन्ये त्वाहः... आचाम्लमेकस्मिन दिने कृत्वा द्वितीये उपवास भी करता है और कार्य हेतु दूसरे गांव भी चला दिने च तपोऽन्तरमनुष्ठाय पुनस्तृतीयदिने आचाम्लमेव जाता है। यदि वह समर्थ नहीं है तो अन्य शिष्य तपस्वी कुर्वतः कोटीसहितमुच्यते। ष्ठाय पुनस्तृतीदिन ७०६) Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्याख्यान ४५२ प्रत्याख्याता"चार विकल्प कोटि का अर्थ है-कोण। पहले दिन आचाम्ल का मुहर्त है। अर्ध मास, मास यावत् छह मास पर्यंत की प्रत्याख्यान कर, उसका अहोरात्र पालन कर, दूसरे दिन तपस्या अद्धा प्रत्यख्यान के अन्तर्गत है। पुनः आचाम्ल करने से दूसरे दिन के आचाम्ल का ८. प्रत्याख्यान की विशोधि के स्थान आरम्भ कोण तथा प्रथम दिन के आचाम्ल का पर्यंत सा पुण सद्दहणा जाणणा य विणयाणभासणा चेव । कोण-दोनों कोणों के मिलने से इसको कोटिसहित तप अणुपालणा विसोही भावविसोही भवे छट्ठा । कहा जाता है। ____ अथवा-प्रथम दिन आचाम्ल, दूसरे दिन कोई (आवनि १५८६) प्रत्याख्यान-विशोधि के छह स्थान हैं--- दूसरा तप और तीसरे दिन फिर आचाम्ल, उसे कोटि १. श्रद्धाशुद्धि-प्रत्याख्यान में श्रद्धा । सहित तप कहते हैं। २. ज्ञानशुद्धि-प्रत्याख्यान विषयक ज्ञान । ६. नियंत्रित प्रत्याख्यान ३. विनयशुद्धि-कृतिकर्म आदि क्रियाओं में निपुणता । मासे मासे अ तवो अमुगो अमुगं दिणंमि एवइओ। ४. अनुभाषणशुद्धि-गुरुवचनों के अनुसरण में कुशलता । हठेण गिलाणेण व कायव्वो जाव ऊसासो॥ ५. अनुपालनाशुद्धि-कृत प्रत्याख्यान की अखंड अनुएयं पच्चक्खाणं नियंटियं धीरपुरिसपन्नत्तं । पालना। जं गिण्हंतऽणगारा अणिस्सि अप्पा अपडिबद्धा।। ६. भावशुद्धि-रागद्वेष रहित भावधारा। चउदसपूवी जिणकप्पिएस पढमंमि चेव संघयणे । इन छह स्थानों से प्रत्याख्यान दूषित नहीं होता, एयं विच्छिन्नं खलु थेरावि तया करेसी य ॥ शुद्ध होता है। (आवनि १५७१-१५७३) ६. प्रत्याख्यान को अशोधि के स्थान , जिसमें पूर्व स्वीकृत अमुक दिन अथवा अमुक मास में थंभा कोहा अणाभोगा अणापुच्छा असंतई। अमुक तप अंतिम श्वास तक निश्चित रूप से किया जाता परिणामओ असुद्धो अवाउ जम्हा विउ पमाणं ॥ है, वह नियन्त्रित प्रत्याख्यान है। इसमें स्वस्थता हो या (आवभा २५३) रुग्णता—किसी भी स्थिति में अपवादविधि का सेवन राग और द्वेष से संक्लिष्ट चित्त से कृत प्रत्याख्यान नहीं किया जाता। . अशुद्ध होता है । इसके मुख्य हेतु पांच हैंइस प्रत्याख्यान का वहन वे ही मुनि करते थे, जो १. स्तब्धता- 'इस तपस्वी की पूजा हो रही है । मैं तप विषयों से अनिश्रित, शरीर में अप्रतिबद्ध, वज्रऋषभ ___ करूंगा तो मेरी भी पूजा होगी'-इस भावना से तप नाराच संहननवाले, चतुर्दशपूर्वी अथवा जिनकल्पी आदि करना। होते थे। उस समय स्थविर मुनि भी इस प्रत्याख्यान के २. क्रोध-गुरु आदि के द्वारा प्रतिकूल वचन सुनकर अधिकारी थे। यह सोचना कि मैं तिरस्कृत हुआ हूं, अतः आहार चतुर्दशपूर्वी, प्रथम संहनन और जिनकल्पिक के नहीं करूंगा। विच्छेद के साथ यह नियंत्रित प्रत्याख्यान भी विच्छिन्न ३. अनाभोग-त्याग की विस्मृति होने पर कुछ खा हो गया। लेना। ७. अद्धा प्रत्याख्यान ४. अनापृच्छा ---गुरु की स्वीकृति से पूर्व खाना। अद्धा पच्चक्खाणं जं तं कालप्पमाणछएणं । ५. असत्-खाने योग्य कोई वस्तु न होने पर त्याग पुरिमड्ढपोरिसीए मुहुत्तमासद्धमासेहिं ।। करना। (आवनि १५७९) प्रत्याख्यान के संदर्भ में गुण-दोषों को जानने वाला पौरुषी आदि काल से जिसका परिमाण होता है. विद्वान् ही प्रमाण है। वह कालावबद्ध प्रत्याख्यान अद्धा प्रत्याख्यान कहलाता १०. प्रत्याख्याता"""चार विकल्प है। जैसे--पुरिमार्ध, पौरुषी (प्रहर) आदि। सबसे छोटा मूलगुणउत्तरगुणे सव्वे देसे य तह य सुद्धीए । प्रत्याख्यान नमस्कारसहिता है, जिसका कालमान एक पच्चक्खाणविहिन्न पच्चक्खाया गुरू होइ ।। Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्याख्यान के परिणाम ४५३ प्रत्याख्यान ९ . किइकम्माइविहिन्न उवओगपरो अ असढभावो अ। फासियं नाम जदि सो कालो अभग्गपरिणामेण अंतं संविग्गथिरपइन्नो पच्चक्खावितओ भणिओ॥ णीयो भवति । फासियं नाम जं अंतरा न खंडेति असुद्धइत्थं पुण चउभंगो जाणगइअरंमि गोणिनाएणं । परिणामो वा अंतं नेति । ....""पुणो पूणो पडिसुद्धासुद्धा पढमंतिमा उ सेसेसु अ विभासा ।। जागरति तेण तं पालियं। सोभितं नाम जो भत्तपाणं (आवनि १६१४-१६१६) आणेत्ता पुव्वं दाऊणं सेसं भुजति दायव्वपरिणामेण वा, जो प्रत्याख्यान-विधि के ज्ञाता हैं, मूलगूण, उत्तरगूण जदि पुण एक्कतो भुंजति ताहे न सोहियं भवति । पारियं तथा श्रद्धा आदि की शुद्धि से सम्पन्न हैं, वे गुरु नाम जदि पुन्नमेत्तए पच्चक्खाणे जेमेति, ताहे परं प्रत्याख्यान कराने वाले होते हैं। नीतं णो तीरियं, तीरियं पुण जं पुन्नेऽवि मुहुत्तमेत्तं जो कृतिकर्म आदि विनयविधि में कुशल, उपयोग- अच्छति असणं निरंभति । किट्टियं जदि जेमणवेलाए परायण, शृद्ध भावधारायुक्त, मोक्ष के अभिलाषी और उक्कित्तेति, जहा मए अमुगं पच्चक्खायन्ति, तुण्हिक्कएणं दढप्रतिज्ञ हैं, वे शिष्य प्रत्याख्यान करने वाले होते हैं। भुंजतेणं ण कड्ढियं भवति, एवं सवेहिं आराहियं इनके चार विकल्प हैं अणुपा लियं भवति । अनुपालियं नाम अनुस्मृत्यानुस्मृत्य १. जिसमें प्रत्याख्यान कराने वाला और प्रत्याख्यान तीर्थकरवचनं प्रत्याख्यानं पालयियव्वं । (आव २ पृ३१४) करने वाला-दोनों उपयोगयुक्त हैं, वह शुद्ध स्वीकृत प्रत्याख्यान के निर्वहन का क्रम इस प्रकार हैप्रत्याख्यान है। ० स्पृष्ट - अशुद्ध परिणामों का परिहार कर त्याग का २. जिसमें प्रत्याख्यान कराने वाला उपयोगयुक्त है, अखंड पालन करना। प्रत्याख्यान को विधियुक्त प्रत्याख्यान करने वाला किसी प्रयोजनवश उस क्षण ग्रहण करना। उपयोगयुक्त नहीं है किन्तु बाद में उपयोगयुक्त हो . पालित-बार-बार उसके प्रति जागत होना। जाता है तो वह प्रत्याख्यान भी शुद्ध है। ० शोभित भक्तपान लाकर पहले गुरु आदि को देना, ३. जिसमें प्रत्याख्यान कराने वाला उपयोगशून्य और शेष बचने पर स्वयं उपभोग करना अथवा देने के प्रत्याख्यान करने वाला उपयोगयुक्त है, वह प्रत्याख्यान परिणाम से भक्तपान लाना। यदि अकेला ही खाता भी शुद्ध है। है तो वह शोभित नहीं होता। ४. जिसमें प्रत्याख्यान कराने बाला और प्रत्याख्यान ० पारित-प्रत्याख्यान की अवधि पूर्ण होते ही भोजन करने वाला-दोनों उपयोगशून्य हैं, वह प्रत्याख्यान आदि कर लेना। अशुद्ध ही है। . तीरित-प्रत्याख्यान की अवधि पूर्ण हो जाने पर इस प्रसंग में गौ का दृष्टांत मननीय है-यदि गायों भी मुहर्त्तमात्र तक आहार का निरोध करना। का प्रमाण मालिक और ग्वाला-दोनों जानते हैं तो . कीर्तित-भोजन की वेला में—'मैने यह प्रत्याख्यान मूल्य चुकाने और ग्रहण करने में सुविधा होती है। किया था, अब वह पूर्ण हो गया है'-इस प्रकार ११. प्रत्याख्येय उच्चारण करता हुआ भोजन करे। मौन भाव से, दब्वे भावे य दुहा पच्चक्खाइव्वयं हवइ दुविहं । बिना कुछ कहे, यदि भोजन करता है तो वह दव्वंमि अ असणाई अन्नाणाई य भावंमि ॥ 'कीर्तित' नहीं कहलाता । (आवनि १६१७) __ . आराधित- इन सभी प्रकारों से पालन किया हआ प्रत्याख्येय वस्तु के दो प्रकार हैं प्रत्याख्यान आराधित कहलाता है। द्रव्य–अशन आदि का प्रत्याख्यान । ० अनुपालित-तीर्थंकर के वचनों का बार-बार भाव – अज्ञान आदि का प्रत्याख्यान । स्मरण कर प्रत्याख्यान का पालन करना। १२. प्रत्याख्यानपालन विधि १३. प्रत्याख्यान के परिणाम फासियं पालियं चेव, सोहियं तीरियं तहा । पच्चक्खाणेणं आसवदाराइं निरुंभइ। (उ २९।१४) किट्टिअमाराहिलं चेव, एरिसयंमी पयइयव्वं ।। पच्चक्खाणंमि कए आसवदाराइं हंति पिहियाई । (आवनि १५९३) आसववुच्छेएणं तण्हावुच्छेअणं होइ ।। Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्याख्यान ४५४ प्रत्याख्यान-प्रतिपादन विधि तण्हावोच्छेदेण य अउलोवसमो भवे मणस्साणं। केवलिसत्क (केवली के विद्यमान) चार कर्मों-वेदनीय, अउलोवसमेण पुणो पच्चक्खाणं हवइ सुद्धं ॥ आयुष्य, नाम और गोत्र को क्षीण कर देता है। उसके तत्तो चरित्तधम्मो कम्मविवेगो तओ अपुव्वं तु । पश्चात् वह सिद्ध, प्रशान्त, मुक्त और परिनिर्वत होता तत्तो केवलनाणं तओ अ मुक्खो सयासुक्खो॥ है तथा सब दुःखों का अन्त करता है। . (आवनि १५९४-१५९६) सदभावेन--सर्वथा पूनःकरणासंभवात्परमार्थेन प्रत्याप्रत्याख्यान की विधिवत् अनुपालना करने से आस्रव- ख्यानं सद्भावप्रत्याख्यानं सर्वसंवररूपा शैलेशीति। द्वारों का निरोध होता है। आस्रवद्वारों के निरोध से (उशावृ प ५८९) विषयाभिलाषा की निवृत्ति (तृष्णाक्षय), अतुल उपशम सद्भाव-प्रत्याख्यान का अर्थ है-पारमार्थिक प्रत्याकी वृद्धि, प्रत्याख्यान की विशोधि, चारित्रधर्म की आरा ख्यान । यह चौदहवें गुणस्थान में होता है--इस भूमिका धना, कर्म-विवेक, अपूर्वकरण (श्रेणीआरोहण), कैवल्य में परिपूर्ण प्रत्याख्यान होता है, ईसमें फिर किसी प्रत्याकी प्राप्ति और अन्त में मोक्ष की प्राप्ति होती है। ख्यान की अपेक्षा नहीं रहती। इस अवस्था को पूर्ण संवरआहार-प्रत्याख्यान के परिणाम रूप शैलेशी अवस्था कहा जाता है। आहारपच्चक्खाणेणं जीवियासंसप्पओगं वोच्छिदइ । १४. प्रत्याख्यान-प्रतिपादन विधि जीवियासंसप्पओगं वोच्छिदित्ता जीवे आहारमंतरेणं कथनविधिरुच्यते, तत्रायं वद्धवाद:-काए विधीए न संकिलिस्सइ। (उ २९।३६) कहितव्वं ? पढमं मूलगुणा कड्ढेति पाणातिपातवेरआहार प्रत्याख्यान से जीव जीवित रहने की अभि मणाति, ततो साधुधम्मे कथिते पच्छा असढस्स सावगलाषा के प्रयोग का विच्छेद कर देता है। जीवित रहने धम्मो, इहरा कहिज्जति सत्तिट्ठोवि सावयधम्म पढमं सोतुं की अभिलाषा का विच्छेद कर देने वाला व्यक्ति आहार तत्थेव वित्ति करेइ । उत्तरगुणेसुवि छम्मासिय आदि काउं के बिना (तपस्या आदि में) संक्लेश को प्राप्त नहीं होता। जं जस्स जोग्ग पच्चक्खाणं तं तस्स असढेण कहेतव्वं । सहयोग-प्रत्याख्यान के परिणाम (आवहाव २ पृ २४८) सहायपच्चक्खाणेणं एगीभावं जणयइ । एगीभावभूए प्रत्याख्यान विषय का प्रतिपादन करना हो तो सर्ववि य णं जीवे एगग्गं भावेमाणे अप्पसद्दे अप्पझंझे अप्प- प्रथम प्राणातिपातविरमण आदि पांच महाव्रतरूप साधूकलहे अप्पकसाए अप्पतुमंतुमे संजमबहुले संवरबहुले धर्म का प्रतिपादन कर फिर श्रावकधर्म का प्रतिपादन करना समाहिए यावि भवइ। (उ २९।४०) चाहिये । अन्यथा श्रावकधर्म को सर्वप्रथम सुनकर श्रोता सहाय-प्रत्याख्यान से जीव अकेलेपन को प्राप्त की मानसिकता में परिवर्तन आ सकता है, वह शक्तिहोता है। अकेलेपन को प्राप्त हुआ जीव एकत्व के सम्पन्न होने पर भी श्रावकधर्म को स्वीकार करना आलम्बन का अभ्यास करता हुआ कोलाहलपूर्ण शब्दों से चाहेगा, साधूधर्म को नहीं। उत्तरगुणों के सन्दर्भ में भी मुक्त, वाचिक कलह से मुक्त, झगड़े से मुक्त, कषाय से सर्वप्रथम पाण्मासिक तप की चर्चा कर फिर जो जिसके मुक्त, तू-तू से मुक्त, संयमबहुल, संवरबहुल और समाधिस्थ योग्य हो, उस तप का वर्णन करना चाहिये। हो जाता है। आणागिझो अत्थो आणाए चेव सो कहेयव्वो । सद्भाव-प्रत्याख्यान के परिणाम दिळंतिउ दिळंता कहणविहि विराहणा इअरा ।। सब्भावपच्चक्खाणेणं अनियदि जणयइ । अणियट्रि (आवनि १६१९) पडिवन्ने य अणगारे चत्तारि केवलिकम्मंसे खवेइ, तं अनागत आदि प्रत्याख्यानों का प्रतिपादन आगम में जहा ...- वेयणिज्ज आउयं नाम गोयं । तओ पच्छा प्रतिपादित अर्थ के अनुसार करना चाहिये । जहां सिज्झइ बुज्झइ मुच्चइ परिनिव्वाएइ सव्वदुक्खाणमंतं दृष्टांत अपेक्षित हो, वहां दृष्टांत का प्रयोग करना करेइ। (उ २९॥४२) चाहिये। ऐसा करने से प्रतिपादनविधि की आराधना सद्भाव-प्रत्याख्यान से जीव अनिवृत्ति-शुक्लध्यान होती है, अन्यथा विराधना होती है। को प्राप्त करता है। अनिवृत्ति को प्राप्त हुआ अनगार आज्ञाग्राह्योऽर्थः--सौधर्मादिः आज्ञयवासौ कथयि Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करकण्डु ४५५ प्रत्येकबुद्ध तव्यो, न दृष्टान्तेन, तत्र तस्य वस्तुतोऽसत्त्वात् । नमि और गान्धार में नग्गति-ये चारों राजेन्द्र (आवहाव २ पृ २४८) अपने-अपने पुत्रों को राज्य सौंप कर जिनशासन में प्रवसौधर्म आदि देवों की परिषद् हो तो प्रत्याख्यान का जित हुए और श्रमणधर्म में सदा यत्नशील रहे। केवल आगमपरक अर्थ ही प्रतिपादित करना चाहिये । वसभे अ इंदकेऊ वलए अंबे अ पुप्फिए बोही । वहां दृष्टांत से समझाने की अपेक्षा नहीं होती।। करकंडु दुम्मुहस्सा नमिस्स गंधाररणो अ ।। प्रत्येकबुद्ध-किसी एक बाह्य निमित्त से प्रतिबुद्ध पुप्फुत्तराउ चवणं पव्वज्जा होइ एगसमएणं । पत्तेयबुद्धकेवलि सिद्धि गया एगसमएणं । ने वाले। (उनि २६५, २७०) बाह्यं वसभादिकारणमभिवीक्ष्य बुद्धा पत्तेयबुद्धा करकंड बूढ़े बैल को देखकर, द्विमुख इन्द्रध्वज को एतेसि णियमा पत्तेयं विहारो जम्हा तम्हा ते देखकर, नमि एक चडी की नीरवता को देखकर तथा पत्तेयबुद्धा । जहा करकंडमादयो। किंच-पत्तेयबुद्धाणं नग्गति मंजरी विहीन आम्र-वृक्ष को देखकर प्रतिबुद्ध जहन्नेण दुविहो उक्कोसेण णवहिहो उवधी णियमा पाउ- हआ । रणवज्जो भवति । पत्तेयबुद्धाणं नियमा पुव्वाधीतं सुतं ये चारों प्रत्येकबुद्ध एक साथ, एक ही समय में भवति । जहन्नेण एक्कारसंगी उक्कोसेण भिन्नदसपुवी। देवलोक से च्यूत हए, एक साथ प्रवजित हुए, एक ही लिंग च देवया पयच्छति लिंगवज्जितो वा भवति । समय में बुद्ध हुए, एक ही समय में केवली बने और एक (आवच १ पृ ७६) साथ सिद्ध हुए। प्रत्येकबुद्ध की पहचान के मुख्य चार बिन्दु हैं -- चार प्रत्येकबुद्ध : एक परिचय १. बोधि–प्रत्येकबुद्ध बाह्य निमित्तों से प्रतिबुद्ध होते सेअं सुजायं सुविभत्तसिंगं, जो पासिया वसहं गुट्ठमज्झे । हैं और नियमत: प्रत्येक एकाकी विहार करते हैं। रिद्धि अरिद्धि समुपेहिया णं, २. उपधि - इनके जघन्यत: दो प्रकार की उपधि होती कलिंगरायावि समिक्ख धम्मं ।। है रजोहरण और मुखवस्त्रिका तथा उत्कृष्टतः जो इंदकेउं समलंकियं तु, दट्टे पडतं पविलुप्पमाणं । नौ प्रकार की उपधि होती है- पात्र, पात्रबंध, रिद्धि अरिद्धि समुपेहिआ णं, पात्रस्थापन, पात्रकेसरिका, पटल, रजस्त्राण, पंचालरायावि समिक्खधम्म ॥ गोच्छग, रजोहरण और मुखवस्त्र । चोलपट्ट, मात्रक वडिढच हाणि च ससीव दळं, पूरावरेगं च महानईणं । और तीन कल्प-यह पांच प्रकार की उपधि इनके अहो अणिच्चं अधुवं च नच्चा, नहीं होती । स्थविरकल्पी मुनि के चौदह प्रकार की पंचालरायावि समिक्ख धम्म ।। उपधि होती है (द्र. उपधि)।। बहुआणं सदयं सोच्चा, एगस्स य असहयं । ३. श्रुत-प्रत्येक बुद्ध के श्रुत नियमत: पूर्वअधीत होता वलयाण नमीराया निक्खंतो मिहिलाहियो । है जघन्यतः आचार आदि ग्यारह अंग, उत्कृष्टतः जो चूअरुक्खं तु मणाभिरामं, समंजरीपल्लवपुप्फचित्तं । भिन्न दस पूर्व। रिद्धि अरिद्धि समुपेहिया णं, ४. लिंग-इन्हें देवता लिंग प्रदान करते हैं अथवा ये गंधाररायावि समिक्ख धम्म । लिंगविहीन भी प्रव्रजित होते हैं। (उनि २७१-२७५) चार प्रत्येकबुद्ध : अभिनिष्क्रमण का हेतु १. करकण्डु करकण्डू कलिंगेसु, पंचालेसु य दुम्मुहो । कलिंग जनपद । चम्पा नगरी । वहा करकण्डु नाम नमी राया विदेहेसु, गंधारेसु य नग्गई। का राजा राज्य करता था । करकण्डु गो-प्रिय था । एक एए नरिंदवसभा, निक्खंता जिणसासणे । दिन वह गोकुल देखने गया । उसने एक कृशकाय बछड़े को पुत्ते रज्जे ठवित्ताणं, सामण्णे पज्जुवट्टिया ॥ देखा । उसका मन दया से भर गया । उसने आज्ञा दी (उ १८/४५, ४६) कि इस बछड़े को उसकी मां का सारा दूध पिलाया जाए कलिंग में करकण्ड, पांचाल में द्विमुख, विदेह में और जब यह बड़ा हो जाए तो दूसरी गायों का दूध भी Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्येकबुद्ध ४५६ नग्गति द्विमुख उसे पिलाया जाए। गोपालों ने यह बात स्वीकार की। अप्रिय लगते हैं, यह सोचकर सभी रानियों ने एक-एक बछड़ा सुखपूर्वक बढ़ने लगा। वह युवा हआ। कंकण के अतिरिक्त शेष कंकण उतार दिए हैं। अकेले उसमें अतुल शक्ति थी। राजा ने उसे देखा। वह बहत में घर्षण नहीं होता । घर्षण के बिना शब्द कहां से प्रसन्न हुआ। कुछ समय बीता । एक दिन राजा पुनः उठे? . वहां आया । उसने देखा कि वही बछड़ा आज ब्रढ़ा हो राजा नमि ने सोचा--'सुख अकेलेपन में है। जहां गया है, आंखें धंसी जा रही हैं, पर लडखडा रहे हैं और द्वन्द्व है, दो हैं, वहां दुःख है।' विचार आगे बढ़ा। उसने वह दूसरे छोटे-बड़े बैलों का संघटन सह रहा है। राजा । a या है। राजा सोचा-यदि मैं इस रोग से मुक्त हो जाऊंगा तो अवश्य का मन वैराग्य से भर गया। उसे संसार की परिवर्तन- ही प्रव्रज्या ग्रहण कर लूंगा। उस दिन कार्तिक मास की शीलता का भान हआ। वह प्रतिबुद्ध होकर प्रवजित हो । पूर्णिमा थी। राजा इसी चिंतन में लीन हो सो गया। गया। रात्रि के अन्तिम प्रहर में उसने स्वप्न देखा। नन्दीघोष की आवाज से जागा । उसका दाह-ज्वर नष्ट हो चुका था । उसने स्वप्न का चिन्तन किया। चितन करते-करते पांचाल देश में कांपिल्य नाम का नगर था। वहां उसे जाति-स्मति हो गई। वह प्रतिबद्ध हो प्रवनित हो द्विमुख नाम का राजा राज्य करता था। एक बार इन्द्र गया। महोत्सव आया। राजा की आज्ञा से नागरिकों ने इन्द्रध्वज की स्थापना की। वह इन्द्रध्वज अनेक प्रकार के नग्गति पुष्पों, घण्टियों और मालाओं से सज्जित किया गया। गांधार जनपद में पुण्ड्रवर्द्धन नाम का नगर था। लोगों ने उसकी पूजा की। स्थान-स्थान पर नत्य, गीत वहां नग्गति नाम का राजा राज्य करता था । एक दिन होने लगे। सारे लोग मोद-मग्न थे। इस प्रकार सात राजा नग्गति भ्रमण करने निकला। उसने एक पुष्पित दिन बीते । पूर्णिमा के दिन महाराज द्विमुख ने इन्द्रध्वज आम्र-वृक्ष देखा। एक मंजरी को तोड़ वह आगे निकला। की पूजा की। पूजा-काल समाप्त हुआ। लोगों ने इन्द्र- साथ वाले सभी व्यक्तियों ने मञ्जरी, पत्र, प्रवाल, पुष्प, ध्वज के आभूषण उतार लिए और काष्ठ को राजपथ फल आदि सारे तोड़ डाले । आम्र का वृक्ष अब केवल ठंठ पर फेंक दिया । एक दिन राजा उसी मार्ग से निकला। मात्र रह गया । राजा पुन: उसी मार्ग से लौटा । उसने उसने उस इन्द्रध्वज काष्ठ को मलमूत्र में पड़े देखा । उसे पूछा-'वह आम्र-वृक्ष कहां है ?' मंत्री ने अंगुली के वैराग्य हो आया। वह प्रतिबुद्ध हो पंचमुष्टि लोच कर इशारे से उस ठूठ की ओर संकेत किया। राजा आम प्रवजित हो गया। की उस अवस्था को देख अवाक् रह गया । उसे कारण ज्ञात हुआ। उसने सोचा-'जहां ऋद्धि है, वहां शोभा नरेश पद्मरथ विदेह राष्ट्र की राज्यसत्ता नमि को है परन्तु ऋद्धि स्वभावतः चंचल होती है'-इन विचारों सौंप प्रवजित हो गया। एक बार महाराज नमि को। से वह संबुद्ध हो गया। दाह-ज्वर हुआ। उसने छह मास तक अत्यन्त वेदना (इन चारों का विस्तृत वर्णन उत्तराध्ययनसूत्र की सही। वैद्यों ने रोग को असाध्य बतलाया। दाह-ज्वर सुख र सुखबोधा वृत्ति (पत्र १३३-१४५) में प्राप्त है। कुछ को शांत करने के लिए रानियां स्वयं चन्दन घिस रही भिन्नता के साथ बौद्धग्रन्थ (कुम्भकार जातक) में भी थी। उनके हाथ में पहने हए कंकण बज रहे थे। उनकी इन चार प्रत्यकबुद्धा आवाज से राजा को कष्ट होने लगा। उसने कंकण ऋषिभाषित प्रकीर्णक में पैतालीस प्रत्येकबुद्ध मुनियों उतार देने के लिए कहा । सभी रानियों ने सौभाग्य चिह्न का जीवन तथा उनके शिक्षापद निबद्ध हैं। उनमें बीस स्वरूप एक-एक कंकण को छोड़कर शेष सभी कंकण उतार प्रत्येकबुद्ध अर्हत् अरिष्टनेमि के तीर्थ में, पन्द्रह पावदिए। कुछ देर बाद राजा ने अपने मंत्री से पूछा- नाथ के तीर्थ में तथा दस महावीर के तीर्थ में हुए हैं। कंकण का शब्द क्यों नहीं सुनाई दे रहा है ? मंत्री ने उन पैंतालीस प्रत्येक बुद्धों में करकण्ड आदि चार प्रत्येक कहा-'राजन् ! उसके घर्षण से उठे हए शब्द आपको बुद्धों का उल्लेख नहीं है।) नमि Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाण भेद। विभाग निष्पन्न प्रमाण के प्रकार ४५७ प्रत्येकबुद्धसिद्ध प्रत्येकबुद्ध की अवस्था में सिद्ध ३. द्रव्य प्रमाण _होने वाले । सिद्धों का एक दव्वप्पमाणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा ---पएसनिप्फण्णे द्ध) य विभागनिप्फण्णे य।। (अनु ३७०) प्रदेश-वस्तु का अविभाज्य अंश। (द्र. पुद्गल) द्रव्य प्रमाण के दो प्रकारप्रमत्तसंयत--जो पूर्ण व्रती होने पर भी प्रमादयुक्त प्रदेश निष्पन्न-यह अपने प्रदेशों से निष्पन्न होता है। इसमें मेय और मापक पृथक्-पृथक् नहीं होते । विभाग निष्पन्न-इसमें मेय और मापक पृथकगुणस्थान । (द्र. गुणस्थान) पृथक् होते हैं। प्रमाण-ज्ञान अथवा ज्ञान के हेतु। (द्र. ज्ञान) पएसनिप्फण्णे -परमाणुपोग्गले दुपएसिए जाव प्रमाण -माप अथवा मापने के साधन । दसपएसिए संखेज्जपएसिए असंखेज्जपएसिए अणंत पएसिए। (अनु ३७१) १. प्रमाण की परिभाषा प्रदेशनिष्पन्न -परमाणुपुद्गल, द्विप्रादेशिक यावत् २. प्रमाण के प्रकार दस प्रादेशिक, संख्येय प्रादेशिक, असंख्येय प्रादेशिक ० द्रव्य प्रमाण और अनंत प्रादेशिक । ० क्षेत्र प्रमाण ४. विभाग निष्पन्न प्रमाण के प्रकार ० काल प्रमाण विभागनिष्फण्णे पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा-माणे ० भाव प्रमाण उम्माणे ओमाणे गणिमे पडिमाणे । ३. द्रव्य प्रमाण-प्रदेश निष्पन्न और विभाग निष्पन्न | (अनु ३७२) ४. विभाग निष्पन्न प्रमाण के प्रकार विभागनिष्पन्न के पांच प्रकार० मान प्रमाण मान-जिससे लम्बाई और चौड़ाई का माप किया • उन्मान प्रमाण जाए। उन्मान-जिससे वजन तोला जाए । ० अवमान प्रमाण अवमान-जिससे लम्बाई चौड़ाई और गहराई का ० गण्य प्रमाण माप किया जाए। ० प्रतिमान प्रमाण गणिमान--जिससे गणना की जाए। ५. क्षेत्र प्रमाण प्रतिमान-जिससे मूल्यवान वस्तुएं तोली जाए। ६. काल प्रमाण ७.'भाव प्रमाण मान प्रमाण माणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-धन्नमाणप्पमाणे य १. प्रमाण की परिभाषा रसमाणप्पमाणे य । (अनु ३७३) दव्वाइचउन्भेयं पमीयए जेण तं पमाणं ति । मान के दो प्रकार-धान्यमानप्रमाण और रसमान (विभा ९४६) प्रमाण । द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव रूप चतुर्विध प्रमेय को जिसके द्वारा जाना जाए, वह प्रमाण है। धन्नमाणप्पमाणे- दो असतीओ पसती, दो पसतीओ २. प्रमाण के प्रकार सेतिया, चत्तारि सेतियाओ कुलओ, चत्तारि कुलया पत्थो, पमाणे चउविहे पण्णत्ते, तं जहा-दव्वप्पमाणे चत्तारि पत्थया आढग, चत्तारि आढगाई दोणो, सद्रि सेत्तप्पमाणे कालप्पमाणे भावप्पमाणे। (अनु ३६९) आढगाइं जहण्णए कंभे, असीइं. आढगाई मज्झिमए प्रमाण के चार प्रकार हैं-द्रव्यप्रमाण, क्षेत्रप्रमाण, कुंभे, आढगसतं उक्कोसए कुंभे, अट्रआढगसतिए वाहे । कालप्रमाण और भावप्रमाण । (अनु. ३७४) For Private & Persamal Use Only Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ धान्यमानप्रमाण - दो असुति (एक पल का माप) की एक प्रसृति ( दो पल का माप), दो प्रसूति की एक सेतिका चार सेतिका का एक कुडव, चार कुडव का एक प्रस्थ, चार प्रस्थ का एक आढक, चार आढक का एक द्रोण, प्रमाण असृति प्रसृति सेतिका कुडव प्रस्थक आढक दो सौ छप्पन पल द्रोण (४ आढक ) एक हजार चौबीस पल जघन्य कुंभ (६० आढक) = पन्द्रह हजार तीन सौ साठ पल मध्यम कुंभ ( ८० आढक ) बीस हजार चार सौ अस्सी पल उत्कृष्ट कुम्भ - पच्चीस हजार छह सौ पल = (१०० आढक) वाह (८०० आढक) = एक पल = दो पल - = दो लाख चार हजार आठ सौ पल धन्नमाणप्यमाणेणं मुत्तोली- मुरव-इहर अलिंद ओचारसंसियाणं धन्नाणं धन्नमाणप्यमाणनिव्वित्तिलक्खणं भवइ । ( अनु ३७५ ) धान्यमान प्रमाण से मुक्तोली ( वह कोठी जो ऊपर-नीचे संकीर्ण और बीच में विशाल हो), मुरव (गाड़ी के ऊपर का ढक्कन), इडर ( ढकने का बड़ा पात्र), आलिन्दक (कुण्डा) और ओचार ( बड़ा कोठा) में रखे हुए धान्य का धान्यमान प्रमाण जाना जाता है । -चार पल - सोलह पल - चीसठ पल रसमान प्रमाण 1 रसमाणप्पमाणे धन्नमाणप्पमाणाओ चउभागविवढिए अभिवरसिहाजुत्ते रसमाणप्यमाणे विहिज्जइ तं जहा - चउसट्टिया ४, बत्तीसिया ८, सोलसिया १६, अट्टाभाइया ३२, उभाइया ६४, अद्धमाणी १२८, माणी २५६ । दो उसट्टियाओ बत्तीसिया दो बस्तीसियाओ अष्टभाविका चतुर्भागका अर्धमाणी माणी चतुःषष्टिका - ४ पल द्वात्रिंशिका ८ पल पोशिका = = = १६ पल ३२ पल ६४ पल = १२८ पल = २५६ पल = साठ आढक का एक जघन्य कुम्भ, अस्सी आढक का एक मध्यम कुम्भ, सौ आवक का एक उत्कृष्ट कुम्भ और आठ सौ आढक का एक वाह होता है। पार तोला आठ तोला सोलह तोला चौसठ तोला === = दो सौ छप्पन तोला (३३ सेर) एक हजार चौबीस तोला (१२ सेर) = चार हजार छियानवे तोला (१ मन ११ सेर) इकसठ हजार चार सौ चालीस तोला (१९ मन ८ सेर) इक्यासी हजार नौ सौ बीस तोला (२५ मन २४ सेर) = एक लाख दो हजार चार सौ तोला (३२ मन ) = आठ लाख उन्नीस हजार दो सौ तोला (२५६ मन ) सोलसिया, दो सोलसियाओ अटुभाइया, दो अद्रुभाइयाओ चउभाइया, दो उभाइयाओ अद्धमाणी दो अद्धमाणीओ माणी । ( अनु ३७६) रसमान प्रमाण - धान्यमान प्रमाण से चार भाग अधिक आभ्यन्तर शिखा से युक्त रसमान प्रमाण किया जाता है । जैसे चतुःषष्टिका, द्वात्रिंशिका, षोडशिका, अष्टभागिका, चतुर्भागिका, अर्धमाणी, माणी । चतुःषष्टिका के दो भाग करने से द्वात्रिंशिका, द्वात्रिंशिका के दो भाग करने से षोडशिका, षोडशिका के दो भाग भाग करने से अष्टभागिका, अष्टभागिका के दो भाग करने से चतुर्भागिका, चतुर्भागिका के दो भाग करने से अर्धमाणी और अर्धमाणी के दो भाग करने से माणी होती है। माणी का चौसठवां भाग माणी का बतीसवां भाग माणी का सौलहवां भाग माणी का आठवां भाग माणी का चौथा भाग माणी का आधा भाग = = रसमान प्रमाण १६ तोला ३२ तोला ६४ वोला १२० तोला (१ सेर) = २५६ तोला ( ३ सेर) ५१२ तोला ६ सेर) १०२४ तोला (१२ सेर) Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिमान प्रमाण प्रमाण रसमाणप्पमाणेणं वारग-घडग-करग-कलसिय-गग्गरि- दंडं धणुं जुगं नालियं च, अक्खं मुसलं च चउहत्थं । दइय-करोडिय-कुंडियसंसियाणं रसाणं रसमाणप्पमाण- दसनालियं च रज्जु, वियाण ओमाणसण्णाए ।। निवित्तिलक्खणं भवइ । (अनु ३७७) वत्थुम्मि हत्थमेज्ज, खित्ते दंड धणुं च पंथम्मि । __रसमान प्रमाण से वारक (छोटा घड़ा), घट, खायं च नालियाए, वियाण ओमाणसण्णाए॥ करक (झारी), कलशी, गगरी, दीवड़ी, करोटिका (अनु ३८०) (बड़ी कुण्डी) और कुण्डिका में डाले हुए रसों का रस- जिससे अवमान (लम्बाई, चौड़ाई और परिधि का मान प्रमाण जाना जाता है। माप) किया जाता है, वह अवमान है। जैसे-हाथ, उन्मान प्रमाण दण्ड, धनुष, युग, नालिका, अक्ष और मुसल । उम्माणे-जण्णं उम्मिणिज्जइ, तं जहा--अद्धकरिसो दण्ड, धनुष, युग, नालिका, अक्ष और मुसल चार करिसो, अद्धपलं पलं, अद्धतुला तुला, अद्धभारो भारो। हाथ का होता ह । दस हाथ का होता है। दस नालिका की एक रज्जू होती है। दो अद्धकरिसा करिसो, दो करिसा अद्धपलं, दो ये अवमान संज्ञा से ज्ञातव्य हैं। वास्तु (घर की भूमि) हाथ से मापा जाता है, खेत अद्धपलाई पलं, पंचुत्तरपलसइया तुला, दस तुलाओ अद्ध दण्ड से मापा जाता है, मार्ग धनुष से मापा जाता है भारो, बीसं तुलाओ भारो। (अनु ३७८) और खाई का गड्ढा नालिका से मापा जाता है। ये भी जिससे तोला जाता है, वह उन्मान है, जैसे -अर्धकर्ष, अवमान संज्ञा से ज्ञातव्य हैं । कर्ष, अर्धपल, पल, अर्धतुला, तुला, अर्धभार, भार । दो एएणं ओमाणप्पमाणेणं खाय-चिय-रचिय-करकचियअर्धकर्ष का एक कर्ष, दो कर्ष का एक अर्धपल, दो कड-पड-भित्ति-परिक्खेवसंसियाणं दवाणं ओमाणप्पअर्धपल का एक पल, एक सौ पांच पलों की एक तुला, का एक पल, एक सा पाच पला का एक तुला, माणनिवित्तिलक्खणं भवइ। (अनु ३८१) दस तुला का एक अर्धभार और बीस तुला का भार इस अवमान प्रमाण से खोदे हुए, चिने हुए, बनाए होता है। हुए, करोत से काटे हुए तथा कट, पट, भित्ति और अर्धकर्ष--आधा तोला परिधि - इनसे संबद्ध द्रव्यों का अवमान प्रमाण जाना कर्ष-एक तोला जाता है। अर्धपल-दो तोला गण्य प्रमाण पल-चार तोला गणिमे ---जण्णं गणिज्जइ, तं जहा-एगो दस सयं अर्धतुला--दो सौ दस तोला (२६ सेर) सहस्सं दससहस्साई सयसहस्सं दससयसहस्साई कोडी। तुला-चार सौ बीस तोला (५१ सेर) ___(अनु ३८२) अर्धभार-चार हजार दो सौ तोला (१ मन जो गिना जाता है वह गण्य है, जैसे-एक, दस, १२३ सेर) सौ हजार, दस हजार, सौ हजार (लाख), दस सौ भार-आठ हजार चार सौ तोला (२ मन २५ सेर) हजार (दस लाख) और कोटि । उम्माणप्पमाणेणं पत्त-अगरु-तगर-चोयय-कुंकुम-खंड- एएणं गणिमप्पमाणेणं भितग-भित्ति-भत्त-वेयण-आयगुल-मच्छंडियादीणं दव्वाणं उम्माणप्पमाणनिवित्ति- व्वयसंसियाणं दव्वाणं गणिमप्पमाणनिवित्तिलक्खणं लक्खणं भवइ। (अनु ३७९) भवइ । (अनु ३८३) __उन्मान प्रमाण से पत्र (तेजपत्र आदि), अगरु, तगर, इस गण्य प्रमाण से भृतक (कर्मकर), भृति (वृत्ति), चोयक (सुगन्धित द्रव्य), कुंकुम, खाण्ड, गुड़, मस्त्यण्डिका भक्त (भोजन), वेतन और आय-व्यय से संबद्ध द्रव्यों का (राब) आदि द्रव्यों का उन्मान प्रमाण जाना जाता है। गण्य प्रमाण जाना जाता है। अवमान प्रमाण प्रतिमान प्रमाण ओमाणे --जण्णं ओमिणिज्जइ, तं जहा-हत्थेण वा पडिमाणे-जण्णं पडिमिणिज्जइ, तं जहागुंजा दंडेण वा धणुणा वा जुगेण वा नालियाए वा अक्खेण वा। कागणी निष्फावो कम्ममासओ मंडलओ सुवण्णो । पंच मुसलेण वा। गुंजाओ कम्ममासओ, चत्तारि कागणीओ कम्ममासओ, Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाण ४६० प्रमाद तिणि निप्फावा कम्ममासओ, एवं चउक्कओ कम्ममा- ६.काल प्रमाण सओ । बारस कम्ममासया मंडलओ, एवं अडयालीसाए कालप्पमाणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-पएसनिप्फण्णे कागणीओ मंडलओ। सोलस कम्ममासया सुवण्णो, एवं य विभागनिष्फण्णे य । (अनु ४१३) चउसट्टीए कागणीओ सुवण्णो। (अनु ३८४) कालप्रमाण के दो प्रकार-प्रदेशनिष्पन्न और प्रतिमान-जिससे स्वर्ण आदि का तौल किया विभागनिष्पन्न । जाता है, जैसे गुजा, काकणी, निष्पाव, कर्ममाषक, ७. भाव प्रमाण मण्डलक और सुवर्ण । पांच गुञ्जा, चार काकणी और भावप्पमाणे तिविहे पण्णत्ते, तं जहा -गुणप्पमाणे तीन निष्पाव का एक कर्ममाषक होता है । नयप्पमाणे संखप्पमाणे । (अनु ५०६) ___इस प्रकार चार काकणी से निष्पन्न कर्ममाषक को भावप्रमाण के तीन प्रकार-गुणप्रमाण, नयप्रमाण चतुष्क कर्ममाषक कहते हैं । बारह कर्ममाषक का एक और संख्याप्रमाण । मण्डलक होता है। गुणप्रमाण इस प्रकार अड़तालीस काकणी का एक मण्डलक ___ गुणप्पमाणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-जीवगुणप्पमाणे और सोलह कर्ममाषक का एक सुवर्ण होता है। इस य अजीवगुणप्पमाणे य । (अनु ५०७) प्रकार चौसठ काकणी का एक सुवर्ण होता है। गुणप्रमाण के दो प्रकार- जीवगुणप्रमाण और एएणं पडिमाणप्पमाणेणं सुवण्ण-रजत-मणि-मोत्तिय अजीवगुणप्रमाण । संख-सिल-प्पवालादीणं दव्वाणं पडिमाणप्पमाणनिवित्ति अजीवगुणप्पमाणे पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा- वण्णलक्खणं भवइ। (अनु ३८५) गणप्पमाणे गंधगुणप्पमाणे, रसगुणप्पमाणे फासगूणप्पमाणे इस प्रतिमान प्रमाण से स्वर्ण, रजत, मणि, मौक्तिक, संठाणगुणप्पमाणे । (अनु ५०८) शंख, शिला (मूल्यवान पत्थर), प्रवाल आदि द्रव्यों का अजीवगुणप्रमाण के पांच प्रकार-वर्णगणप्रमाण, प्रतिमान प्रमाण जाना जाता है। गंधगुणप्रमाण, रसगुणप्रमाण, स्पर्शगुणप्रमाण और ५. क्षेत्र प्रमाण संस्थानगुणप्रमाण । खेत्तप्पमाणे दुविहे पण्णत्ते तं जहा–पएसनिप्फण्णे जीवगुणप्पमाणे तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-नाणय विभागनिप्फण्णे य ।। (अन् ३८६) गुणप्पमार्ण दसणगुणप्पमाणे चरित्तगुणप्पमाणे । क्षेत्रप्रमाण के दो प्रकार-प्रदेशनिष्पन्न और विभाग (अनु ५१४) निष्पन्न। जीवगुणप्रमाण के तीन प्रकार-ज्ञानगुणप्रमाण, पएसनिप्फण्णे - एगपएसोगाढे दुपएसोगाढे तिपए दर्शनगुणप्रमाण और चारित्रगुणप्रमाण । सोगाढे जाव दसपएसोगाढे संखेज्जपएसोगाढे असंखेज्ज- ज्ञानगुणप्रमाण पएसोगाढे। (अनु ३८७) नाणगुणप्पमाणे चउविहे पण्णते, तं जहा-पच्चक्खे प्रदेशनिष्पन्न -एकप्रदेशावगाढ, द्विप्रदेशावगाढ, अणुमाणे ओवम्मे आगमे। (अनु ५१५) त्रिप्रदेशावगाढ यावत् दसप्रदेशावगाढ, संख्येय प्रदेशावगाढ ज्ञानगुणप्रमाण के चार प्रकार-(१) प्रत्यक्ष और असंख्येय प्रदेशावगाढ । (२) अनुमान (३) उपमान (४) आगम। विभागनिप्फण्णे--- (द्र. संबद्ध नाम) अंगुल विहत्थि रयणी, कूच्छी धण गाउयं च बोधव्वं । जोयण सेढी पयरं, लोगमलोगे वि य तहेव ॥ प्रमाद-धर्माचरण में अनुत्साह । (अनु ३८८) मज्जं विसय कसाया निहा विगहा य पंचमी भणिया। अंगुल, वितस्ति, रत्नि, कुक्षि, धनुष, गव्यूत, योजन, (उनि १८०) श्रेणी, प्रतर, लोक और अलोक-यह विभागनिष्पन्न प्रमाद के पांच प्रकार-मद्य, विषय, कषाय, निद्रा प्रमाण है। और विकथा। Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाद प्रमाद : साधना का बाधक तत्व प्रचुरकर्मेन्धनप्रभवनिरन्तराविध्यातशारीरमानसा नेकदुःखहुतवहज्वालाकलापपरीतमशेषमेव संसारवासगृहं पश्यंस्तन्मध्यवर्त्त्यपि सति च तन्निर्गमनोपाये वीतरागप्रणीतधम्मं चिन्तामणी यतो विचित्रकर्मोदयसाचिव्यजनितात् परिणामविशेषादपश्यन्निव तद्द्भयमविगणय्य विशिष्टपरलोकक्रियाविमुख एवास्ते जीव स खलु प्रमादः । तस्य च प्रमादस्य ये हेतवो मयादयस्तेऽपि प्रमादास्तत्कारणत्वात् । ( नन्दीम प २०४ ) निरन्तर प्रज्वलित, अग्नि की ज्वालाओं । प्रचुर कर्मरूपी इन्धन से उत्पन्न शारीरिक और मानसिक दुःखरूपी से यह सारा संसार वास पिरा हुआ है उसमें रहने वाला व्यक्ति उस अग्नि को साक्षात् देख रहा है। उस प्रज्वलित गृह से निर्गमन का उपाय है वीतराग द्वारा प्रणीत धर्म का समाचरण । किन्तु कर्मोदय के विचित्र परिणाम विशेष से उसको न देखता हुआ, उस कराल अग्नि के भय की गणना न करता हुआ वह जीव परलोक के लिए की जाने वाली विशिष्ट क्रियाओं से विमुख ही रहता है । इसका मूल कारण है --प्रमाद । इस प्रमाद के मद्य आदि जो हेतु हैं, वे सभी प्रमाद हैं, क्योंकि वे प्रमाद के कारणभूत हैं । प्रमाद : भव-भ्रमण का हेतु एवं भवसंसारे संसरइ सुहासुहेहि कम्मेहि । जीवो पमायबहुलो, समयं गोयम ! मा पमायए ॥ (१०/२५) प्रमाद-बहुत जीव शुभ-अशुभ कर्मों मृत्युमय संसार में परिभ्रमण करता है, गौतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर । अप्रमतत्ता का आलम्बन ' इमं च मे अस्थि इमं च नरिथ, इमं च मे किच्च इमं अकिच्चं । ४६१ तं एवमेवं लालप्यमाणं, हरा हरंति त्ति कहूं पमाए ॥ द्वारा जन्मइसलिए हे (उ १४/१५) "यह मेरे पास है और यह नहीं है, यह मुझे करना है और यह नहीं करना है इस प्रकार वृथा बकवास करते हुए पुरुष को उठाने वाला काल उठा लेता है। इस स्थिति में प्रमाद कैसे किया ?" जाए अप्रमत्त पहले या पीछे ? स पुव्वमेवं न लभेज्ज पच्छा एसोमा सासयवाइयाणं । विसीयई सिढिले आउयंमि कालोवणीए सरीरस्स भेए ॥ खिष्पं न सक्केइ विवेगमे तम्हा समुट्ठाय पहाय कामे । समिच्च लोयं समया महेसी अप्पा रक्खी चरमण्यमत्तो ॥ (उ४/९, १०) जो पूर्व जीवन में अप्रमत नहीं होता वह पिछले जीवन में भी अप्रमाद को नहीं पा सकता। "पिछले जीवन में अप्रमत्त हो जाएंगे " ऐसा निश्चय वचन - शाश्वतवादियों के लिए ही उचित हो सकता है । पूर्व जीवन में प्रमत्त रहने वाला आयु के शिथिल होने पर मृत्यु के द्वारा शरीरभेद के क्षण उपस्थित होने पर विषाद को प्राप्त होता है । प्रवचन कोई भी मनुष्य विवेक को तत्काल प्राप्त नहीं कर सकता इसलिए मोक्ष की एषणा करने वाले महर्षि ! तुम उत्थित बनो - जीवन के अन्तिम भाग में अप्रमत्त बनेंगे इस आलस्य को त्यागो कामभोगों को छोड़, लोक को भलीभांति जान समभाव में रमण तथा आत्मरक्षक और अप्रमत्त होकर विचरण करो । सुत्ते यावी पडिबुद्धजीवी न वीससे पंडिए आपन्ने । घोरा मुहुत्ता अवलं सरीरं भाडपक्खी व चरप्यमत्तो ॥ ( उ ४ ६) आशुप्रज्ञ पंडित सोये हुए व्यक्तियों के बीच भी जागृत रहे । प्रमाद में विश्वास न करे । काल बड़ा घोर ( क्रूर) होता है। शरीर दुर्बल है। इसलिए वह भारण्ड पक्षी की भांति अप्रमत्त होकर विचरण करे । अप्रमत्त नियमतः अहिंसक कषायप्रमत्त योगप्रमत (x. arfiger) ( इ. गुणस्थान) (द्र प्रतिलेखना) प्रतिलेखना प्रमाद | प्रवचन - जिनशासन द्वादशांग । १. प्रवचन के अर्थ २. प्रवचन के पर्याय ३. निग्रंथ प्रवचन का स्वरूप और परिणाम ४. प्रवचन के प्रभावक *. प्रवचन: द्वादशांग ( द्र. अंगप्र विष्ट ) Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन ४६२ प्रवचन के प्रभावक १. प्रवचन के अर्थ ० प्रवचन आदि वचन है अथवा शिवप्रापक वचन है, पवयणं दुवालसंगं गणिपिडगं । (नन्दीच पृ १२) अतः इसे प्रवचन कहा गया है । प्रोच्यन्ते अनेन जीवादयः पदार्था इति प्रवचनम् " ३. निर्ग्रन्थप्रवचन का स्वरूप और परिणाम प्रवचनं द्वादशांग, तदुपयोगानन्यत्वाद् वा संघः । नमो चउवीसाए तित्थगराणं उसभादिमहावीरपज्ज(उचू पृ १) वसाणाणं इणमेव निग्गंथ पावयणं सच्चं अणुतरं केवलं प्रवचन का अर्थ है-द्वादशांग गणिपिटक । द्वादशांग पडिपुण्णं नेआउयं संसुद्धं सल्लगत्तणं सिद्धिमग्ग मुत्तिमग्गं का आधार है संघ और उसका उपयोग भी संघसापेक्ष निज्जाणमग्गं निव्वाणमग्गं अवितहमविसंधि सव्वदुक्खप्पहै, अतः संघ को प्रवचन कहा गया है। हीणमग्गं । एत्थं ठिया जीवा सिझंति बुझंति मुच्चंति सुयमिह जिणप्पवयणं तस्सुप्पत्ती। परिनिव्वायंति सव्वदुक्खाणं अंतं करेंति । तं धम्म सहहामि जिणगणहरवयणाओ"| पत्तियामि रोएमि फासेमि अणुपालेमि। (आव ४।९) एगट्रियाणि तिन्नि उ पवयण सूत्तं तहेव अत्थो य ।" ___मैं ऋषभ से महावीर पर्यंत चौबीस तीर्थंकरों ..."सामन्नं सुयनाणं विसेसओ सुत्तमत्थो य ।। को नमस्कार करता हूं। यह निर्ग्रन्थप्रवचन ही सत्य, (विभा १३६५-१३६७) अनुत्तर, अद्वितीय, प्रतिपूर्ण, मोक्ष की ओर ले जाने वाला जिनप्रवचन श्रुत कहलाता है । उसकी अर्थ रूप । सर्वत: शुद्ध, माया, निदान और मिथ्यादर्शन- इन तीनों उत्पत्ति अर्हत् से तथा सूत्र रूप उत्पत्ति गणधरों से होती शल्यों को छिन्न करने वाला है । यह सिद्धि, मुक्ति, निर्याण है । अत: प्रवचन, सूत्र और अर्थ-ये तीनों एकार्थक हैं। (मोक्ष) और निर्वाण (शांति) का मार्ग है। यह यथार्थ, सामान्यतः श्रुतज्ञान को और विशेषतः सूत्र तथा अर्थ को अविच्छिन्न और सर्व दुःखों के प्रहाण का मार्ग है। प्रवचन कहा गया है। इस निर्ग्रन्थ प्रवचन में स्थित जीव, सिद्ध, बुद्ध, २. प्रवचन के पर्याय मुक्त और परिनिर्वृत होते हैं तथा सब दुःखों का अन्त सुयधम्म तित्थ मग्गो पावयणं पवयणं च एगट्ठा। करते हैं। (आवनि १३०) मैं इस निग्रंथ प्रवचन पर श्रद्धा, प्रतीति और रुचि श्रतधर्म, तीर्थ, मार्ग, प्रावचन और प्रवचन--ये करता हूं, इसका आचरण और अनुपालन करता हैं। एकार्थक हैं। ४. प्रवचन के प्रभावक प्रवचन का आधारभूत होने के कारण तीर्थ को अइसेसइडिढयायरिय वाई धम्मकहि खवग नेमित्ती । प्रवचन कहा गया है।। (द्र. तीर्थ) विज्जा रायागणसंमया य तित्थं पभावति ।। जमिह पगयं पसत्थं पहाणवयणं च पवयणं तं च । (नन्दीमवृ प २१०) (विभा १३६७) प्रवचन अथवा तीर्थ के प्रभावक आठ घटकप्रशस्त और प्रधान वचन प्रवचन है । मज्जिज्जइ सोहिज्जइ जेणं तो पवयणं तओ मग्गो। १. अतिशेषऋद्धि-अतिशय ऋद्धिसम्पन्न । अहवा सिवस्स मग्गो मग्गणमन्नेसणं पंथो॥ २. आचार्य--युगप्रधान आगमपुरुष । ..."पावयणमाइवयणं वा । सिवपावयवयणं वा."|| ३. वादी-वाद-विद्या में निपुण । (विभा १३८१, १३८२) ४ धर्मकथी-धर्म-कथा में कुशल । ० मार्ग का अर्थ है-परिमार्जन, शोधन । प्रवचन ५. क्षपक-तपस्या करने वाला। परिमार्जन का हेतू है अतः उसे मार्ग कहा गया है। ६. नैमित्तिक-निमित्तविद् । अथवा मार्ग का अर्थ है- अन्वेषण। इससे शिवपथ ७. विद्याधर-प्रज्ञप्ति आदि विद्याओं का पारगामी। का अन्वेषण संभव है, अतः इसे मार्ग कहा गया ८. राजसम्मत--राजाओं द्वारा सम्मत व्यक्ति। Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन-माता ४६३ प्रायश्चित्त प्रवचन-माता-पांच समिति और तीन गुप्ति का वचनात्मकश्रुत गृहीत हो जाता है । द्वादशांग प्रवचन संयुक्त नाम । उससे बहिर्भूत नहीं है। अट्ट पवयणमायाओ समिई गुत्ति तहेव य ।" अथवा पांच समितियां और तीन गुप्तियां चारित्र एयाओ अटुसमिईओ समासेण वियाहिया। रूप हैं । ज्ञान, दर्शन और चारित्र का अविनाभावी संबंध दुवालसंग जिणक्खायं मायं जत्थ उ पवयणं ॥ है। इन तीनों के अतिरिक्त द्वादशांगी कुछ है ही नहीं, (उ २४११.३) इसलिए इन आठों में सारा प्रवचन समाया हआ है। समितिगुप्तिष प्रवचनं मातं स्थितमित्यर्थः । समिति-गुप्ति का स्वरूप (द्र. ममिति, गुप्ति) (उच पृ २६६) प्रायश्चित्त-दोष-विशुद्धि का उपाय। यदा तु माय त्ति पदस्य मातर इति संस्कारस्तदा"" | १.प्रायश्चित्त के निर्वचन भावमातरस्तु समितयः, एताभ्यः प्रवचनप्रसवात्। २. प्रायश्चित्त की परिभाषा (उशाव प ५१३, ५१४) * प्रायश्चित्त : तप का एक भेद (द्र. तप) पांच समिति और तीन गुप्ति-ये आठ प्रवचन ३. प्रायश्चित्त के प्रकार माताएं हैं। इनमें जिनभाषित द्वादशांग रूप प्रवचन ४. प्रायश्चित्त के स्थान समाया हुआ है। ५. प्रायश्चित्त के परिणाम ___'मायाओ' शब्द के 'माता:' और मातरः'-~-ये दो * आलोचना प्रायश्चित्त संस्कृत रूप किये जा सकते हैं । पहले में 'समाने' और (द. आलोचना) दूसरे में 'मां' का अर्थ है । इन आठ समितियों से प्रवचन * प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त (द्र. प्रतिक्रमण) का प्रसव होता है, इसलिए इन्हें प्रवचन-माता कहा जाता १. प्रायश्चित्त के निर्वचन पावं छिदति जम्हा पायच्छित्तं तु भण्णइ तेणं । समितियो में द्वादशांग का समवतरण पाएण वावि चित्तं विसोहए तेण पच्छित्तं ॥ अट्ठसुवि समिईसु अ दुवालसंग समोअरइ।... (आवनि १५०८) पायच्छित्तकरणं-प्राय इति बाहुल्यस्याख्या, चित्त ईर्यासमिती प्राणातिपातविरमणवतमवतरति, इति जीवितस्याख्या । प्रायश्चित्तं सोधयतीति तद्वत्तिकल्पानि च शेषतानि तत्रैवान्तर्भावमुपयान्ति, प्रायश्चित्तं । प्रशस्तं वा चित्तस्य विशुद्धिकारणमिति वा तेषु च न तदस्ति यन्न समवतरति।। प्रायश्चित्तं, वा अथवा 'चिती संज्ञाने' प्रायशः वितथभाषासमितिस्तु सावधवचनपरिहारतो निरवद्यवचो माचरितमर्थमनुस्सरतीति वा प्रायश्चित्तं । भाषणात्मिका तया च वचनपर्यायः सकलोऽप्याक्षिप्त एव, (आव २ पृ २५१) न च तदबहिर्भतं द्वादशाङ्गमस्ति, यद्वा सर्वा अप्यमू- जो पापकर्मों को क्षीण करता है, वह प्रायश्चित्त है। चारित्ररूपाः ज्ञानदर्शनाविनाभावि च चारित्रं, न चैतद् . जो प्रचुरता से चित्त-आत्मा का विशोधन करता त्रयातिरिक्तमन्यदर्थतो द्वादशामिति सर्वास्वप्येतासु है, वह प्रायश्चित्त है। प्रवचनं मातमुच्यते । (उनि ४५९ शाव प ५१४, ५१५) ० जो चित्तविशुद्धि का प्रशस्त हेतु है, वह प्रायश्चित्त है। __ आठ प्रवचन-माताओं में जिनभाषित द्वादशांगी . असत्य आचरण का अनुस्मरण करना प्रायश्चित्त है। समाई हुई है-- २. प्रायश्चित्त को परिभाषा • ईर्या समिति में प्राणातिपातविरमण व्रत का अवतरण अवराहे पायच्छित्तं कातव्वं.."अवराहेण मलिणत्तणं होता है। शेष सारे व्रत उसकी सुरक्षा के लिए हैं, भवतीति तद् विशुद्धिः कार्या."अवराहो सल्लं भवति, इसलिए उनका भी इसमें अन्तर्भाव हो जाता है। तत उद्धरेतव्वं.'अविहंपि कम्मं पावं जेण थोवेवि संते भाषा समिति में सावधवचन का परिहार होता है। व्वाणगमणं णत्थि, तेण तं अटविहंपि कम्मं णिग्यातेवह निरवद्यवचन रूप होती है। इसमें सारा तव्वं "तस्स पायच्छित्तस्स करणं। (आवच २ पृ २५१) Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्त अपराध (नियमों का अतिक्रमण ) होने पर आत्मा मलिन होती है । उसकी विशोधि के लिए जो अनुष्ठान किया जाता है, वह प्रायश्चित्त है। अपराध शल्य है । शल्य के उद्धरण के लिए जो किया जाता है वह प्रायश्चित्त है । आठों कर्म पाप हैं। उनके रहते निर्वाण नहीं होता । उनके उन्मूलन के लिए जो किया जाता है। वह प्रायश्चित है । ३. प्रायश्चित्त के प्रकार आलोयणा रिहाईयं, पायच्छित्तं तु दसविहं । (उ ३०|३१) पायच्छित्तं दसविहं तं जहा - आलोयणं, पडिक्कमणं, तदुभयं विवेगो, वियोसग्गो, तवो, छेदो, मूलं, अणवट्टप्पो, पारंचिओ । (दअचू पृ १४) ४६४ प्रायश्चित्त के दस प्रकार आलोचना - गुरु के समक्ष अपने दोषों का निवेदन करना । प्रतिक्रमण - किए हुए पापों से निवृत्त होने के लिए 'मिथ्या मे दुष्कृतम्' ऐसा कहना । तदुभय आलोचना एवं प्रतिक्रमण – दोनों करना । विवेक - अशुद्ध आहार आदि का उत्सर्ग करना । तप - उपवास आदि करना । छेद-संयम - काल को छेदकर कम कर देना । मूल - पुनः व्रत्तारोपण करना । अनवस्थाप्य तपस्या पूर्वक व्रतारोपण करना ! पारांचित - अवहेलनापूर्वक व्रतारोपण करना । ४. प्रायश्चित्त के स्थान परोपरस्स वायणपरियदृणवत्थदाणादिए अणालोतिए गुरूणं अविणओत्ति आलोयणारिहं । पडिक्कमणं पुण पवयणमादिसु आवस्सगकंमे वा सहसा अतिक्कम पडिचोतितो सयं वा सरितूण मिच्छादुक्कडं करेति एवं तस्स सुद्धी । आउत्तेण मूलुत्तरगुणातिक्कम संदेहे आलोय पक्किममुभयं । आहारातीण उग्गमादिअसुद्वाणं गहिताणं पच्छा विष्णाताणं संपत्ताण वा विवेगो परिच्चागो । वा कए विओसग्गो कातुरसग्गो गमनागमणसुविणण ईसंतरणादिसु । तवा मूलुत्तरगुणातियारे पंचराति दियाति छम्मासावसाणमणेकधा । प्रायश्चित्त के स्थान छेदो अवराधो पंचएण सासणविरुद्धादिसमायारेण वा तवारिहमतिक्कतस्स पंचराइं दियादिपव्वज्जाविच्छेदणं । मूलं पगाढतराहस्स मूलतो परियातो छिज्जति । अणवट्ठो मूल च्छेदाणंतरं केणति कालविहिणा पुणो दिक्खिज्जति । पारंचितो खेत्तातो देसातो वा णिच्छुब्भति । छेदमूल अणवट्टपारांचिताणि देसकाल पुरिससामत्यादी नि पडुच्च दीज्जति । ( आवचू २ पृ २४६, २४७ ) प्रायश्चित्त के दस स्थान १ आलोचना - गुरु को सूचित किए बिना परस्पर वाचना, परिवर्तना करने पर तथा वस्त्र आदि का आदान-प्रदान करने पर गुरु को निवेदन करना । ३. प्रतिक्रमण प्रवचन आदि अथवा आवश्यक कार्यों में सहसा नियमों का अतिक्रमण होने पर दूसरों से प्रेरित हो या स्वयं स्मृति कर 'मिच्छामि दुक्कडं ' करना । ३. तदुभय-मूलगुण अथवा उत्तरगुणों के अतिक्रमण में संदेह होने पर अथवा जानदूझकर अतिक्रमण करने पर तदुभय प्रायश्चित्त होता है । ४. विवेक - उद्गम आदि दोषों से अशुद्ध आहार आदि ग्रहण करने के पश्चात् जानकारी होने पर उस आहार का विसर्जन करना विवेक प्रायश्चित्त है । ५. व्युत्सर्ग- गमनागमन, स्वप्न, नदीसंतरण आदि प्रसंगों पर कायोत्सर्ग करना व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त है। ६. तप मूलगुण- उत्तरगुण में अतिचार होने पर अतिचार के अनुरूप तप करना तप प्रायश्चित्त है । इसका कालमान जघन्य पांच दिन-रात तथा उत्कृष्ट छह मास है । ७. छेद - अपराधों का उपचय और शासनविरुद्ध समाचरण होने पर तथा तप के योग्य प्रायश्चित्त का अतिक्रमण होने पर तथा प्रव्रज्या के पांच दिन आदि का छेद करना, संयमपर्याय को कम करना छेद प्रायश्चित्त है । ८. मूल - प्रगाढतर अपराध होने पर संयमपर्याय का मूल से विच्छेद करना - नई दीक्षा देना मूल प्रायश्चित्त है । ९. अनवस्थाप्य - एक निश्चित अवधि के बाद पुनः दीक्षा देना अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त 1 Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अबहुश्रुत कौन ? १०. पारांचित -- इसमें क्षेत्र और देश से व्यक्ति को पृथक् कर दिया जाता ' छेद, मूल, अनवस्थाप्य और पारांचित प्रायश्चित्त का प्रयोग देश, काल और पुरुष की शक्ति आदि को ध्यान में रखकर किया जाता है । ५. प्रायश्चित्त के परिणाम आराहेइ । पायच्छित्त करणेणं पावकम्मविसोहि जणयइ निरइयारे यावि भवइ । सम्मं च णं पायच्छित्तं पडिवज्जमाणे मग्गं चमग्गफलं च विसोहेइ आयारं च आयारफलं च ( उ २९।१७) प्रायश्चित्त करने से जीव पापकर्म की विशुद्धि करता है और निरतिचार हो जाता है । सम्यक् प्रकार से प्रायश्चित्त करने वाला मार्ग ( सम्यक्त्व ) और मार्गफल (ज्ञान) को निर्मल करता है तथा आचार ( चारित्र) और आचारफल (मुक्ति) की आराधना करता है । बंध आत्मा के साथ शुभ-अशुभ कर्मों का ( द्र. कर्म ) बलदेव - दो हजार सिंहों का बल एक अष्टापद में होता है और दस लाख अष्टपदों का बल एक बलदेव में होता है । दो बलदेवों का बल एक वासुदेव में होता है । बलदेव वासुदेव के बड़े भाई होते हैं । इनकी गति है - स्वर्ग या मोक्ष । सम्बन्ध । ( द्र. वासुदेव) बहुश्रुत-नाना श्रुतग्रन्थों का स्वाध्यायी । १. बहुश्रुत कौन ? २. अबहुश्रुत कौन ? ३. बहुश्रुत को शंख आदि की उपमा बहुश्रुतता की अर्हता ४६५ * ( द्र. शिक्षा) ( द्र. पूर्व ) * बहुश्रुत: चतुर्दशपूर्वी ४. बहुश्रुतता के परिणाम १. बहुश्रुत कौन ? परिसमत्तगणिपिडगज्झयणस्सवणेण य विसेसेण य बहुत । ( अचू पृ २५६ ) जो गणिपिटक ( आचार आदि द्वादशांग ) का विशिष्ट ( उचू पृ १९४) ज्ञाता है, वह बहुश्रुत है । बहुस्सुओ चोद्दसव्वी । जो चौदहपूर्वी है. वह बहुश्रुत है । बहुश्रुता विविधागमश्रवणावदातीकृतमतयः । ( उशावृ प २५३ ) विविध आगमों के श्रवण-अध्ययन से जिनकी बुद्धि निर्मल हो जाती है, वे बहुश्रुत कहलाते हैं । आगमसिद्ध सव्वंगपारओ गोअमुव्व गुणरासी ।" 'संखाईए उ भवे साहइ । तत्थागमसिद्ध किर संयभूरमणेऽवि मच्छगाइया । जं चिट्ठति स भगवं उवउत्तो जाणई तयंपि ॥' ( आवनि ९३५ हावृ १ पृ २७५ ) जो गणधर गौतम की तरह महान् अतिशयसम्पन्न और द्वादशांग का पारगामी है, वह आगमसिद्ध अथवा बहुश्रुत कहलाता है । वह प्राणियों के संख्यातीत भवों को जानता है । वह ज्ञानोपयोगउपयुक्त होने पर स्वयंभूरमण समुद्र के मत्स्य आदि प्राणियों की चेष्टाओं को भी जान लेता है । बहुश्रुत (बृहत्कल्पभाष्य, गाथा ४०२ के अनुसार बहुश्रुत तीन प्रकार के होते हैं १. जघन्य बहुश्रुत - निशीथ का ज्ञाता । २. मध्यम बहुश्रुत कल्प और व्यवहार का ज्ञाता । ३ उत्कृष्ट बहुश्रुत - नौवें और दशवें पूर्व का ज्ञाता । निशीथ भाष्य की चूर्णि, पृ. ४९५ के अनुसार बहुश्रुत के तीन प्रकार ये हैं- १. जघन्य बहुश्रुत निशीथ का ज्ञाता । २. मध्यम बहुश्रुत निशीथ और चौदह पूर्वो का मध्यवर्ती ज्ञाता । ३. उत्कृष्ट बहुश्रुत - चतुर्दशपूर्वी । धवला बहुश्रुत कहा गया है ।) २. अबहुश्रुत कौन ? ८ | ३ | ४१ में बारह अंगों के धारक को जे यावि होइ निव्विज्जे, थद्धे लुद्धे अणिग्गहे । अभिक्खणं उल्लवई, अविणीए अबहुस्सुए || ( उ ११।२) जो विद्याहीन है, विद्यावान् होते हुए भी जो अभिमानी है, जो सरस आहार में लुब्ध है, जो अजितेन्द्रिय Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुश्रुत ४६६ शंख आदि की उपमा ........""""॥ है, जो बार-बार असम्बद्ध बोलता है, जो अविनीत है, है, उसी प्रकार बहुश्रुत भिक्ष में धर्म, कीर्ति और श्रुत वह अबहुश्रुत कहलाता है । दोनों ओर (अपने और अपने आधार के गुणों) से सुणो३. बहुश्रुत को शंख आदि को उपमा भित होते हैं। जहा संखम्मि पयं, निहियं द्रहओ वि विरायइ । ___ कम्बोज अश्व-जिस प्रकार कम्बोज के घोड़ों में कन्थक घोड़ा शील आदि गुणों से आकीर्ण और वेग से एवं बहुस्सुए भिक्खू, धम्मो कित्ती तहा सुयं ।। जहा से कंबोयाणं, आइण्णे कथए सिया। श्रेष्ठ होता है, उसी प्रकार भिक्षुओं में बहथत श्रेष्ठ होता है। आसे जवेण पवरे, एवं हवइ बहुस्सुए। योद्धा जिस प्रकार आकीर्ण (जातिमान्) अश्व पर जहाइण्णसमारूढे, सूरे दढपरक्कमे । उभओनंदिघोसेणं, ............ ........... || चढ़ा हुआ दृढ़ पराक्रम वाला योद्धा दोनों ओर बजने वाले वाद्यों के घोष से अजेय होता है, उसी प्रकार बहुश्रुत जहा करेणुपरिकिण्णे, कुंजरे सट्ठिहायणे । अपने आसपास होने वाले स्वाध्याय-घोष से अजेय होता बलवंते अप्पडिहए,....." .................... ॥ जहा से तिखसिंगे, जायखंधे विरायई। गज-जिस प्रकार हथिनियों से परिवृत साठ वर्ष वसहे जहाहिवई,.......... का बलवान् हाथी किसी से पराजित नहीं होता, उसी जहा से तिक्खदाढे, उदग्गे दुप्पहंसए । प्रकार बहुश्रुत दूसरों से पराजित नहीं होता। सीहे मियाण पवरे, ... ... ..............। (साठ वर्ष की आयु तक हाथी का बल प्रतिवर्ष जहा से वासुदेवे, संखचक्कगयाधरे । बढ़ता रहता है, उसके बाद में कम होना शुरू हो जाता अप्पडिहयबले जोहे, ............... .......... || है। यहां हाथी की पूर्ण बलवत्ता बताने के लिए साठ वर्ष जहा से चाउरते, चक्कवट्टी महिड्ढिए । का उल्लेख किया गया है।) चउदसरयणाहिवई, ...... जहा से सहस्सक्खे, वज्जपाणी पुरंदरे । वृषभ-जिस प्रकार तीक्ष्ण सींग और अत्यन्त पुष्ट सक्के देवाहिवई,......" स्कन्ध वाला बैल यूथ का अधिपति बन सुशोभित होता । जहा से तिमिरविद्धंसे, उत्तिद्रुते दिवायरे । है, उसी प्रकार बहुश्रुत आचार्य बनकर सुशोभित होता जलते इव तेएण, ....... ........................|| जहा से उडुबई चंदे, नक्खत्तपरिवारिए । ___ सिंह –जिस प्रकार तीक्ष्ण दाढों वाला पूर्ण युवा पडिपुण्णे पुण्णमासीए, ..........................॥ और दुष्पराजेय सिंह आरण्य पशुओं में श्रेष्ठ होता है, जहा से सामाइयाणं, कोट्ठागारे सुरक्खिए । उसी प्रकार बहुश्रुत अन्यतीथिकों में श्रेष्ठ होता है। नाणाधन्नपडिपुण्णे,..... .................|| वासुदेव -जिस प्रकार शङ्ख, चक्र और गदा को जहा सा दुमाण पवरा, जंबू नाम सुदंसणा । धारण करने वाला वासुदेव अबाधित बल वाला योद्धा अणाढियस्स देवम्स,........ ...........॥ होता है, उसी प्रकार बहुश्रुत अबाधित बल वाला होता जहा सा नईण पवरा, सलिला सागरंगमा । सीया नीलवंतपवहा ........" ..................."|| चक्रवर्ती -जिस प्रकार महान ऋद्धिशाली, चतुरन्त जहा से नगाण पवरे, सुमहं मंदरे गिरी। चक्रवर्ती चौदह रत्नों का अधिपति होता है, उसी प्रकार नाणोसहिपज्जलिए,..... ... ...............।। बहुश्रुत चतुर्दश पूर्वधर होता है। जहा से सयंभूरमणे, उदही अक्खओदए । शकेन्द्र जिस प्रकार सहस्रचक्षु, वज्रपाणि और नाणारयणपडिपुण्णे, एवं हवइ बहुस्सुए। पुरों का विदारण करने वाला शक्र देवों का अधिपति (उ ११११५-३०) होता है, उसी प्रकार बहुश्रुत दैवी सम्पदा का अधिपति शंख-जिस प्रकार शङ्ख में रखा हुआ दूध दोनों ओर होता है। (अपने और अपने आधार के गुणों) से सुशोभित होता सूर्य-जिस प्रकार अंधकार का नाश करने वाला Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुश्रुत ४६७ बाहुबली उगता हुआ सूर्य तेज से जलता हुआ प्रतीत होता है, उसी बालपंडितमरण-संयमासंयमी अवस्था में होने प्रकार बहुश्रुत तप के तेज से जलता हुआ प्रतीत होता वाली मृत्यु । (द्र. मरण) बालमरण--असंयमी अवस्था में होने वाली मृत्यु । प्रतिपूर्ण चन्द्र-जिस प्रकार नक्षत्रपरिवार से (द्र. मरण) परिवृत ग्रहपति चन्द्रमा पूर्णिमा को प्रतिपूर्ण होता है, बाहुबली-भगवान् ऋषभ के पुत्र । उसी प्रकार साधुओं के परिवार से परिवृत बहुश्रुत सकल बाहबलिकोवकरणं निवेअणं चक्कि देवया कहणं । कलाओं से परिपूर्ण होता है।। नाहम्मेणं जुज्झे दिक्खा पडिमा पइण्णा य ॥ ___ कोष्ठागार-जिस प्रकार सामाजिकों (समुदायवृत्ति (आवनि ३४९) वालों का कोष्ठागार सुरक्षित और अनेक प्रकार के धान्यों से परिपूर्ण होता है, उसी प्रकार बहुश्रुत नाना पढमं दिट्ठीजुद्धं वायाजुद्धं तहेव बाहाहिं । मुट्ठीहि अ दंडेहि अ सव्वत्थवि जिप्पए भरहो । प्रकार के श्रुत से परिपूर्ण होता है। सो एव जिप्पमाणो विहरो अह नरवई विचितेइ । जम्बू वृक्ष-जिस प्रकार अनादत देव का आश्रय कि मनि एस चक्की ? जह दाणि दुब्बलो अहयं ।। सुदर्शना नाम का जम्बू वृक्ष सब वृक्षों में श्रेष्ठ होता है, संवच्छरेण धूअं अमूढलक्खो उ पेसए अरिहा । उसी प्रकार बहुश्रुत सब साधुओं में श्रेष्ठ होता है। हत्थीओ ओयरत्ति अ वृत्ते चिन्ता पए नाणं ।। शीता नदी-जिस प्रकार नीलवान पर्वत से निकल (आवभा ३२-३४) कर समुद्र में मिलने वाली शीता नदी सब नदियों में महाराज ऋषभ के भरत आदि सौ पुत्र और ब्राह्मीश्रेष्ठ है, उसी प्रकार बहुश्रुत सब साधुओं में श्रेष्ठ होता सुंदरी दो पुत्रियां थीं । भरत की माता का नाम सुमंगला और बाहुबली की माता का नाम सुनन्दा था। दोनों मन्दर पर्वत-जिस प्रकार अतिशय महान् और पुत्रियां-ब्राह्मी और सुन्दरी तथा शेष ९८ पुत्र भगवान् अनेक प्रकार की औषधियों से दीप्त मंदर पर्वत सब ऋषभ के पास प्रवजित हो गए । भरत चक्रवर्ती बना। पर्वतों में श्रेष्ठ है, उसी प्रकार बहथत सब साधुओं में उसने बाहुबली के पास दूत भेजकर स्वयं को प्रभ मानने श्रेष्ठ होता है। की बात कही । बाहुबली ने जब यह जाना कि शेष ९८ स्वयंभूरमण समुद्र जिस प्रकार अक्षय जल वाला भाई भरत के भय से प्रवजित होकर भगवान् की शरण स्वयंभूरमण समुद्र अनेक प्रकार के रत्नों से भरा हुआ में चले गए हैं, तब उसे बहुत रोष आया । उसने दूत से होता है, उसी प्रकार बहुश्रुत अक्षय ज्ञान से परिपूर्ण कहा- मेरे अन्य भाई नादान थे, कमजोर थे। मैं युद्ध होता है। करने में समर्थ हूं। तुम जाओ और भरत से कहो कि मेरे पर विजय प्राप्त किए बिना कैसा चक्रवर्तित्व ! ४. बहुश्रुतता का परिणाम युद्ध में ज्ञात हो जाएगा कि मैं राजा हूं या भरत राजा समुद्दगंभीरसमा दुरासया है ? दोनों सेनाएं देश के प्रत्यन्त भाग में मिलीं। बाहुबली अचक्किया केणइ दुप्पहंसया । ने भरत से कहा-'निरपराध प्राणियों को मारने से सुयस्स पुण्णा विउलस्स ताइणो, क्या प्रयोजन ? मैं और तुम दोनों परस्पर लड़ें। खवित्तु कम्म गइमुत्तमं गया । भरत ने यह बात स्वीकार कर ली। पांच प्रकार (उ ११॥३१) के युद्ध निश्चित हुए-दृष्टियुद्ध, वाक्युद्ध, बाहुयुद्ध, समुद्र के समान गम्भीर, दुराशय-जिनके आशय मुष्टियुद्ध और दंडयुद्ध । प्रथम चारों प्रकार के युद्धों तक पहुंचना सरल न हो, अशक्य--जिनके ज्ञान सिन्धु में भरत शामिन को को लांघना शक्य न हो, किसी प्रतिवादी के द्वारा अपरा- स्वयं को पराजित होते देख, भरत ने सोचा--ओह ! जेय और विपुलश्रत से पूर्ण बहुश्रुत मुनि कर्मों का क्षय यह क्या ! क्या चक्रवर्ती यह है या मैं हं ? मैं इतना करके उत्तम गति (मोक्ष) में गए। दुर्बल कैसे हो गया ? उसने संकल्प किया। देवता ने Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाहुबली ४६८ बुद्धि की परिभाषा उसे दिव्य दंडरत्न दिया। भरत उसको लेकर बाहुबली बुद्धबोधितसिद्ध प्रतिबोध से दीक्षित होकर मुक्त पर प्रहार करने दौड़ा। बाहुबली ने सगर्व मन ही मन होने वाले। (द्र. सिद्ध) सोचा ---मैं भरत का इस दिव्यरत्न के साथ ही साथ बुद्धि-विशेष प्रकार का बोध । नाश कर देता हूं । धिक्कार है भरत को ! वह तुच्छ राज्य के लिए अपनी प्रतिज्ञा को भंग कर रहा है । मैं | १. बुद्धि की परिभाषा ऐसे भ्रष्टप्रतिज्ञ को मारना नहीं चाहता । मेरे लिए २. बुद्धि के पर्याय प्रव्रज्या का मार्ग ही श्रेयस्कर है। उसने तब भरत से *.बुद्धिः अश्रुतनिधित मति (द. आभिनिबोधिक ज्ञान) कहा-मैं अपना राज्य तुमको देकर प्रवजित हो जाता | ३. औत्पत्तिकी बुद्धि को परिभाषा हूं। भरत ने बाहुबली के पुत्र को राज्य सौंप दिया। ० उदाहरण बाहुबली ने सोचा-पिता के पास मेरे अन्य भाई ४. वैनयिको बुद्धि की परिभाषा पहले से प्रव्रजित हैं। वे अतिशयज्ञानी हैं। मैं अनतिशय ० उदाहरण ज्ञानी उनके पास कैसे जाऊं। अच्छा है, मैं यहीं साधना ५. कर्मजा बुद्धि की परिभाषा में स्थित होकर, केवलज्ञान प्राप्त कर, फिर ऋषभ के ० उदाहरण पास जाऊं। ६. पारिणामिको बुद्धि की परिभाषा यह सोचकर बाहुबली प्रतिमा में स्थित हो गए। ० उदाहरण उनका मन अहंकार के शिखर को छू रहा था । ऋषभ को यह सारा ज्ञात था, परन्तु उन्होंने बाहुबली को ७. बुद्धि के गुण : श्रुतग्रहण की प्रक्रिया समझाने किसी को नहीं भेजा। वे जानते थे कि अभी १. बुद्धि की परिभाषा बाहबली अहंकार से अन्धा हो रहा है । इस समय वह समझ नहीं सकेगा। 'अमूढलक्खा तित्थयरा'-तीर्थकर अत्थस्स ऊह बुद्धी। (दभा २०) की प्रवृत्ति सलक्ष्य होती है । बाहुबली एक संवत्सर तक अर्थस्योहा बुद्धिः संज्ञिनः परनिरपेक्षोऽर्थपरिच्छेदः । कायोत्सर्ग प्रतिमा में खड़े रहे । लताओं ने उनके शरीर (दहावृ प १२५) को तथा वल्मीक से निर्गत भुजंगमों ने उनके पैरों को समतीते सत्थत्थभावभासणं बुद्धी । वेष्टित कर डाला । एक संवत्सर पूरा हुआ। भगवान् (दअचू पृ ६७) ने ब्राह्मी और संदरी-दोनों साध्वियों को भेजा। वे जो स्वतंत्ररूप से अर्थ का निर्णय करती है, वह बुद्धि बाहुबली की खोज में आईं। खोज करते-करते बल्लियों है। और तुणों से घिरे हुए तथा शिर और दाढ़ी-मूछ के जो अपनी मति से शास्त्र के अर्थ को प्रकाशित लम्बे और सघन बालों से परिवेष्टित बाहबली को करती है, वह बुद्धि है। देखा । वन्दना कर दोनों साध्वियों ने कहा- क्या हाथी पुणो पुणो अत्थावधारणावधारितं बुज्झतो बुद्धी पर आरूढ़ व्यक्ति कैवल्य प्राप्त कर सकता है ? इतना भवइ । (नन्दीचू पृ ३६) कहकर वे चली गईं। बाहबली ने सोचा-कैसा हाथी ? जो अर्थ की बार-बार अवधारणा करती है, निश्चय कहां है हाथी ? सोचते-सोचते वे गहराई में गए और करती है, वह बुद्धि है। ज्ञात हुआ कि अहंकार के मदोन्मत्त हाथी पर वे आरूढ़ अवधारितमर्थ क्षयोपशमविशेषात् स्थिरतया पुनः हैं । अहं क्यों ? कैसा ? किस पर ? अहंकारशून्य हो पुनः स्पष्टतरमेव बुद्धयमानस्य बुद्धिः । उन्होंने भगवान् के पास जाने तथा भ्राता-मुनियों को (नन्दीहाव पृ ५१) वंदन करने के लिए पैर उठाया । ज्ञानावरणीय कर्म क्षयोपशम की विशेषता तथा स्थिरता के कारण आदि घातिकर्मों का पर्दा उठा और वे केवली हो गए। जिससे जाना हुआ अर्थ पून:-पुनः स्पष्टतर जाना जाता वे भगवान की सन्निधि में गए और केवलियों की पंक्ति है, वह बुद्धि है। में बैठ गए। (देखें-आवचू १ पृ. २०९-२११) Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औत्पत्तिकी बुद्धि के उदाहरण ४६९ बुद्धि बुद्धि के पर्याय भरहसिल मिंढ कुक्कुड तिल .."अभिप्पाओ बुद्धिपज्जाओ।। वालुय हत्थि अगड वणसंडे । अभिप्रायो बुद्धिः अध्यवसाय इति पर्यायाः । पायस अइया पत्ते खाडहिला पंचपिअरो य॥ (विभा ३५९४ कोवृ पृ ७१२) (आवनि ९४१) अभिप्राय और अध्यवसाय बुद्धि के पर्याय हैं। औत्पत्ति की बुद्धि के उनचालीस उदाहरणविउला विमला सुहमा जस्स मई जो चतुविहाए वा । १. भरतशिला २१. रुपयों की नोली बुद्धीए संपन्नो स बुद्धिसिद्धो ॥ (आवनि ९३७) २. शर्त २२. भिक्षु जो विपुल, निर्मल और सूक्ष्म मति से सम्पन्न हैं, ३. वृक्ष २३. बालक का निधान वह बुद्धिसिद्ध कहलाता है। अथवा जो औत्पत्तिकी आदि ४. मुद्रिका २४. शिक्षा चार प्रकार की बुद्धि से सम्पन्न है, वह बुद्धि सिद्ध है। ५. वस्त्रखंड २५. अर्थशास्त्र ३. औत्पत्तिकी बुद्धि की परिभाषा ६. गिरगिट २६. मेरी इच्छा पुव्वमदिट्ठमसुयमवेय, तक्खणविसुद्धगहियत्था । ७. काग २७. एक लाख अव्वाय-फलजोगा, बुद्धी उप्पत्तिया नाम ।। ८. उत्सर्ग २८. मेंढा औत्पत्तिकी नाम प्रातिभमिति हृदयम् । ९. हाथी २९. मुर्गा (नन्दी ३८१२ हावटि पृ १३२) १०. भाण्ड ३०. तिल पहले अदृष्ट, अश्रुत, अनालोचित अर्थ का तत्क्षण ११. लाख की गोली ३१. बालुका यथार्थ रूप से ग्रहण करने वाली, जो प्रयोजन से १२. स्तम्भ ३२. हाथी युक्त और किसी दूसरे प्रयोजन से अव्याहत है, वह बुद्धि १३. क्षुल्लक ३३. कूप औत्पत्तिकी कहलाती है। यह प्रातिभज्ञान है। १४. माग ३४. वनखण्ड ___ उत्पत्तिरेव न शास्त्राभ्यासकर्मपरिशीलनादिकं ३५. खीर प्रयोजनं कारणं यस्याः सा औत्पत्तिकी। ..."क्षयोपशमः १६. पति ३६. अजिका सर्वबुद्धिसाधारणः । ततो नासौ भेदेन प्रतिपत्ति निबन्धनं १७. पुत्र ३७. पत्र भवति। व्यपदेशान्तरनिमित्तमत्र न किमपि विनयादिकं १८. मधुमक्खियों का छाता ३८. बकरी की मेगनी विद्यते । केवलमेवमेव तथोत्पत्तिः । (नन्दीमव १४४) १९. मुद्रिका अथवा गिलहरी शास्त्रों के अभ्यास और कर्मपरिशीलन के बिना ही २०. अब ३९. पांच पिता। जो स्वतः उत्पन्न होती है, वह औत्पत्तिकी बुद्धि है। मेंढे का उदाहरण क्षयोपशम सब बुद्धियों में रहता है, अतः वह भेद भयोऽपि राजा रोहकबद्धिपरीक्षार्थ मेण्ढकमेकं प्रेषितका कारण नहीं बन सकता। विनय आदि कोई भी अन्य। वान्, एष यावत्पलप्रमाणः सम्प्रति वर्तते पक्षातिक्रमेऽपि निमित्त इसमें अपेक्षित नहीं है। इसकी उत्पत्ति स्वतः तावत्पलप्रमाण एव समर्पणीयो, न न्यनो नाप्यधिक होती है। इति, तत एवं राजादेशे समागते सति सर्वोऽपि ग्रामो उदाहरण व्याकुलीभूतचेता: बहिः सभायामेकत्र मिलितवान्, सगौरवभरहसिल, पणिय, रुक्खे, खुड्डग, माकारितो रोहकः, उवाच रोहको-वकं प्रत्यासन्न पड, सरड, काय, उच्चारे । धृत्वा मेण्ढकमेनं यवसदानेन पुष्टीकुरुत, यवसं हि गय, घयण, गोल, खंभे, खुड्डग, भक्षयन्नेष न दुर्बलो भविष्यति, वृकं च दृष्ट्वा न बल मग्गि-त्थि पइ पुत्ते ॥ वृद्धिमाप्स्यतीति, ततस्ते तथैव कृतवन्तः, पक्षातिक्रमे च महुसित्थ-मुद्दि-अंके, य नाणए भिक्खु-चेडगनिहाणे । तं राज्ञः समर्पयामासुः, तोलने च स तावत्पलप्रमाण एव सिक्खा य अत्थसत्थे, इच्छा य महं सयसहस्से । जातः । (नन्दीमत् प १४६, १४७) (नन्दी ३८॥३,४) रोहक की बुद्धि का परीक्षण करने के लिए राजा ने १५. स्त्री सिकमपरिशीलनादिकं Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुद्धि गांव वालों के पास एक मेंढा भेजा और यह आज्ञा दी कि पन्द्रह दिन बाद इसे लौटा देना है, पर ध्यान रहे इस अवधि में उसका वजन कम या अधिक नहीं होना चाहिए । राजा का यह आदेश पाकर ग्रामवासी चिन्तातुर हो गए। ग्राम के बाहर एकत्रित हुए। रोहक को बुलाया । राजा के आदेश को सुनाया । रोहक ने कहा - इसे खाने के लिए पर्याप्त चारा ( यवस) दो, पर इसको भेड़िये के पिंजरे के पास बांध दो । पर्याप्त चारा खाकर यह दुर्बल नहीं होगा और भेड़िये को देखकर बलवृद्धि को प्राप्त नहीं होगा । उन्होंने ऐसा ही किया । पन्द्रह दिन बाद राजा को मेंढा लौटा दिया । राजा ने उसे तोला, पर मेंढे के वजन में कोई अन्तर नहीं पाया । यह औत्पत्तिकी बुद्धि का उदाहरण है । ४. वैनयिकी बुद्धि की परिभाषा भरनित्थरणसमत्था, तिवग्गसुत्तत्थ गहियपेयाला । उभओलोग फलवई, विणयसमुत्था हवइ बुद्धि ॥ ( नन्दी ३८५) भार के निर्वाह में समर्थ, त्रिवर्ग-धर्म, अर्थ और काम के अर्जनोपाय के प्रतिपादक सूत्र और अर्थ का सार ग्रहण करने वाली, उभयलोक फलवती, विनय से उत्पन्न बुद्धि का नाम वैनयिकी है । उदाहरण निमित्ते अत्थसत् य, लेहे गणिए य कूव अस्से य । गद्दभ - लक्खण-गंठी, अगए रहिए य गणिया य ॥ सीया साडी दीहं, च तणं अवसव्वयं च कुंचस्स । निव्वोदय गोणे, घोडगपडणं च रुक्खाओ ॥ वैनयिकी बुद्धि के चौदह उदाहरण ८. लक्षण ९. गांठ १०. औषध ११. रथिक गणिका १२. आर्द्रसाड़ी - दीर्घ तृण- उलटा घूमता हुआ क्रौञ्च पक्षी १३. नीत्रोदक - छत का पानी १४. बैल - घोड़े और वृक्ष से गिरना । १. निमित्त २. अर्थशास्त्र ३. लेख ४. गणित ५. कूप ६. अश्व ७. गर्दभ ( नन्दी ३८/६, ७) ----- ४७० कर्मजा बुद्धि की परिभाषा और उदाहरण अश्व का उदाहरण बहवोऽश्ववणिजो द्वारवतीं जग्मुः, तत्र सर्वे कुमाराः स्थूलान् बृहतश्चाश्वान् गृह्णन्ति । वासुदेवेन पुनर्यो निर्वाही प्रभूताश्वावहश्च जातः । वासुदेवस्य वैनयिकी लघीयान् दुर्बलो लक्षणसम्पन्नः स गृहीतः स च कार्यबुद्धिः । ( नदीवृप १६१ ) एक बार अनेक अश्ववणिक् द्वारिका नगरी में गये । वहां सब कुमारों ने स्थूलकाय और बड़े-बड़े हृष्टपुष्ट घोड़े खरीदे । श्रीकृष्ण ने अपनी वैनयिकी बुद्धि से पहचान कर एक क्रूशकाय दुर्बल घोड़ा खरीदा जो सर्व लक्षण सम्पन्न था । श्रीकृष्ण इस बुद्धि के प्रभाव से कार्य का निर्वहन करने में समर्थ तथा बहुविध अश्वों पर सवारी करने में निपुण हो गए। यह वैनयिकी बुद्धि का उदाहरण है । ५. कर्मजा बुद्धि की परिभाषा ओदिसारा, कम्मपसंगपरिघोलण-विसाला । साहुक्का र फलवई, कम्मसमुत्था हवइ बुद्धि ।। ( नन्दी ३८८ ) उपयोग (दत्तचित्तता) के द्वारा क्रिया के रहस्य को जानने वाली, साधुवाद है फल जिसका उस क्रिया से उत्पन्न होने वाली बुद्धि का नाम कर्मजा है । उदाहरण हेरणिए करिए, कोलिय डोए य मुत्ति घय-पवए । तुष्णाग वड्ढइ पूइए य, घड- चित्तकारे य ।। ( नन्दी ३८1९ ) कर्मजा बुद्धि के बारह उदाहरण१. स्वर्णकार ७. तैराक २. कृषक ३. जुलाहा ४. दर्वी ५. मणिकार ६. घृत-व्यापारी 5. रफू करने वाला ९. बढ़ई १०. रसोइया ११. कुम्भकार १२. चित्रकार | कृषक का उदाहरण कोऽपि तस्करो रात्रौ वणिजो गृहे पद्माकरं खातं खातवान्, ततः प्रातरलक्षितस्तस्मिन्नेव गृहे समागत्य जनेभ्यः प्रशंसा माकर्णयति । तत्रैकः कर्षकोऽब्रवीत् किं नाम शिक्षितस्य दुष्करत्वं ?, यद्येन सदैवाभ्यस्तं कर्म स Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिणामिकी बुद्धि के उदाहरण ४७१ तत्प्रकर्षप्राप्तं करोति, नात्र विस्मयः । ततः स तस्कर अनुमान, हेतु और दृष्टान्त से साध्य को सिद्ध करने एतद्वाक्यममर्षवैश्वानरसन्धुक्षणसममाकर्ण्य जज्वाल कोपेन, वाली, वय-विपाक से परिपक्व होने वाली, अभ्युदय और ततः पृष्टवान् कमपि पुरुष-कोऽयं कस्य वा सत्क निःश्रेयस फलवाली बुद्धि का नाम पारिणामिकी है। इति?, ज्ञात्वा च तमन्यदा क्षरिकामाकृष्य गतः क्षेत्रे सुदीर्घकालपूर्वापरपर्यालोचनजन्य आत्मनो धर्मविशेषः तस्य पार्वे, रे! मारयामि त्वां सम्प्रति, तेनोक्तं-- स प्रयोजनमस्याः सा पारिणामिकी। किमिति ?, सोऽब्रवीत् त्वया तदानीं न मम खातं (नन्दीमव प १४४) प्रशंसितमितिकत्वा, सोऽब्रवीत् -सत्यमेतत्, यो यस्मिन् दीर्घकालीन पूर्वापरपर्याय के पर्यालोचन से उत्पन्न कर्मणि सदैवाभ्यासपर: स तद्विषये प्रकर्षवान् भवती, तत्राह- बुद्धि पारिणामिकी है। मेव दृष्टान्तः, तथाहि अमून् मुदगान् हस्तगतान् यदि भणसि उदाहरण तहि सर्वानप्यधोमुखान् पातयामि यद्वा ऊर्ध्वमुखान् अथवा पार्श्वस्थितानिति, ततः सोऽधिकतरं विस्मितचेताः प्राह अभए सिट्रि-कुमारे, देवी उदिओदए हवइ राया। पातय सर्वानप्यधोमुखानिति, विस्तारितो भूमौ पट:, साहू य नंदिसेणे, धणदत्ते सावग-अमच्चे ।। पातिता: सर्वेऽप्यधोमुखा मुद्गाः । जातो महान् विस्मय खमए अमच्चपुत्ते, चाणक्के चेव थूलभद्दे य । श्चौरस्य, प्रशंसितं भूयो भूयस्तस्य कौशलमहो विज्ञानमहो नासिक्क- सुंदरीनंदे, वइरे परिणामिया बुद्धी ।। विज्ञानमिति । (नन्दीमत् प १६४,१६५) चलणाहण-आमंडे, मणी य सप्पे य खग्गि-भिदे । किसी चोर ने एक सेठ के घर में इस प्रकार सेंध परिणामियबुद्धीए, एवमाई उदाहरणा ।। लगाई कि उसका आकार कमल जैसा बन गया। प्रात: (नन्दी ३८।११-१३) काल लोगों ने देखा और चोर की प्रशंसा की। वहां खड़े पारिणामिकी बुद्धि के बाईस उदाहरणएक किसान ने कहा-कार्यविशेष में दक्ष व्यक्ति उस १. अभयकुमार १२ अमात्य काम को कितनी ही निपुणता से करे, इसमें आश्चर्य जैसा २. श्रेष्ठी १३. चाणक्य क्या है ? किसान की बात सुनकर चोर को गुस्सा आ ३. कुमार १४. स्थूलभद्र गया। उसने किसान का नाम-पता पूछ लिया। ४. देवी १५. नासिकपुर-सुंदरीनन्द संध्या के समय वह हाथ में तलवार लेकर किसान ५. उदितोदित राजा १६. वज्र के घर गया और उसे मारने के लिए उद्यत हुआ। ६. साधु १७. चरण से हत किसान ने पूछा ---मेरा अपराध क्या है ? चोर बोला ७. नन्दिषेण १८. कृत्रिम आंवला तुमने मेरा अपमान किया है। किसान बोला- मैंने जो ८. धनदत्त १९. मणि कहा है, वह असत्य नहीं है। जो जिस विषय में सदैव ९. श्रावक २०. सांप अभ्यास करता है वह उस विषय में उत्कर्षता को प्राप्त १०. मंत्री २१. गेंडा करता है । इसका मैं स्वयं उदाहरण हूं-ये मूंग के दाने हैं। तुम कहो तो मैं इनको पृथ्वी पर इस प्रकार गिरा ११. क्षपक २२. स्तूप-उखाड़ना । सकता हूं जिससे इनका मुंह ऊपर, नीचे, दाएं, बाएं हो कुमार का उदाहरण जाए। चोर ने उनको अधोमुख गिराने के लिए कहा। मोदकप्रियस्य कमारस्य प्रथमे वयसि वर्तमानस्य धरती पर एक वस्त्र बिछाकर किसान ने मूग गिराए। कदाचिद गणन्यां गतस्य प्रमदादिभिः सह यथेच्छ मोदकान सबका मुख नीचे की ओर था। चोर विस्मित हो गया। भक्षितवतोऽजीर्ण-रोगप्रादुर्भावादतिपूतिगन्धि वातकायउसने किसान की भूरि-भूरि प्रशंसा की। यह कार्य के मुत्सृजतो या उद्गता चिन्ता, यथा अहो ! तादृशान्यपि अभ्यास से उत्पन्न कर्मजा बुद्धि का उदाहरण है। मनोहराणि कणिक्वादीनि द्रव्याणि शरीर-सम्पर्क६. पारिणामिकी बुद्धि की परिभाषा वशात्पूतिगन्धानि जातानि, तस्माद् धिगिदमशुचि शरीरं, अणुमाणहेउदिळेंतसाहिया, वयविवागपरिणामा। धिग्मोहो । ततः ऊर्व तस्य शुभशुभतराध्यवसायहियनिस्से यसफलवाई, बुद्धि परिणामिया नाम ॥ भावतोऽन्तर्मुहूर्तेन केवलज्ञानोत्पत्तिः । (नन्दीमवृ प १६६) (नन्दी ३८।१०) एक राजकुमार था। उसे मोदक का बहुत शौक था। Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुद्धि ४७२ ब्रह्मचर्य एक बार उसने कुछ सुगन्धित पदार्थों से युक्त मोदक उपलब्धि मानते हैं। अर्हत-प्रवचन का परिज्ञान ही अतिमात्रा में खा लिए। उसे अजीर्ण हो गया और उसके वस्तुतः श्रुतज्ञान है। मुंह से दुर्गन्ध आने लगी। राजकुमार सोचने लगा-- बोधिदर्लभ भावना बोधि (सम्यक्त्व या सही यह शरीर कैसा अशुचिमय है। सुन्दर और मनोहर दृष्टिकोण) की दुर्लभता का वस्तुएं इस शरीर के संयोग से अशचि बन जाती हैं। बार-बार चिन्तन करना । इस प्रकार अशौच अनुप्रेक्षा से उसके अध्यवसाय (द्र. अनुप्रेक्षा) शुभ-शुभतर होते गए और उसने एक मुहूर्त्तमात्र में केवलज्ञान प्राप्त कर लिया। यह पारिणामिकी - अवस्था ब्रह्मचर्य-इन्द्रिय-संयम, मैथुन-विरति, आत्मके साथ-साथ परिपक्व होने वाली बुद्धि का उदाहरण है। रमण। (औत्पत्तिकी आदि चार बुद्धियों के शेष सम्पूर्ण १. ब्रह्मचर्य का निर्वचन उदाहरणों के लिए देखें-नन्दीमवृ प १४४-१६७; २. ब्रह्मचर्य का अर्थ आवहावृ १ पृ २७७-२८२) ३. ब्रह्मचर्य के अठारह प्रकार ७. बुद्धि के गुण : श्रुतग्रहण की प्रक्रिया ४. अब्रह्मचर्य के प्रकार सुस्सूसइ उ सोउं सुयमिच्छइ सविणओ गुरुमहाओ । ५. ब्रह्मचर्य-समाधि के स्थान पडिपुच्छइ तं गहियं पुणो वि नीसंकियं कुणइ ।।। ६. ब्रह्मचर्य-समाधि-स्थानों की उपेक्षा के परिणाम सुणइ तदत्थहीउं गहणे हावायधारणा तस्स । ७. ब्रह्मचर्य की साधना के विघ्न सम्म कुणइ सुयाणं अन्नपि तओ सुयं लहइ ।। * ब्रह्मचर्य : एक महाव्रत (द्र. महाव्रत) (विभा ५६२, ५६३) ८. ब्रह्मचर्य महाव्रत का स्वरूप १. शुश्रूषा-श्रुत को गुरुमुख से सविनय सुनने की ९. ब्रह्मचर्य महाव्रत की भावना इच्छा करना। * ब्रह्मचर्य : श्रावक का एक व्रत (द्र. श्रावक) २. प्रतिपृच्छा-गृहीत श्रुत में शंकित अथवा विस्मृत १०. ब्रह्मचर्य के परिणाम शब्दों को पुनः पुनः पूछना। * कामभोग (अब्रह्मचर्य) के परिणाम ३. श्रवण-श्रुत के अर्थ को सुनना। (द्र. कामभोग) ४. ग्रहण-सूत्र और अर्थ का अध्ययन कर श्रुत का सम्यक् ग्रहण करना। १. ब्रह्मचर्य का निर्वचन ५. ईहा-सूत्र और अर्थपदों की मार्गणा-गवेषणा बहति बंहितो वा अनेनेति ब्रह्म। (उच पृ २०७) करना। __ जो संयम का बृहण/पोषण करता है वह ब्रह्म/ ६. अवाय-'यह ऐसा ही है, अन्य प्रकार से नहीं ब्रह्मचर्य है। है'-इस प्रकार निश्चय करना । ७. धारण-परिवर्तना और अनूप्रेक्षा के द्वारा उसका २. ब्रह्मचय का अथ स्थिरीकरण करना। __बंभे-समणधम्मो पवयणमायाओ। ८. करण-श्रुत में प्रतिपादित अनुष्ठान का सम्यक (आव २ पृ १३७) आचरण करना। ब्रह्मचर्य का अर्थ है श्रमणधर्म और समिति-गुप्ति आगमसत्थग्गहणं, जं बुद्धिगुणेहि अट्ठहिं दिळें । रूप प्रवचनमाता। बिंति सूयनाणलंभं, तं पुव्वविसारया धीरा ॥ अब्रह्म-वस्त्यनियमलक्षणं विपरीतं ब्रह्म। (नन्दी १२७४२) (आवहाव २ पृ १८१) बद्धि के आठ गुण आगमशास्त्र के अर्थग्रहण में अब्रह्मचर्य का अर्थ है-वस्ति असंयम । ब्रह्मचर्य का कारणभत/हेतुभूत हैं। जो पूर्वो के पारगामी और धीर अर्थ है-वस्तिसंयम, मैथनविरति । पुरुष हैं, वे इस आगम ज्ञान के ग्रहण को ही श्रतज्ञान की १ Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य-समाधि के स्थान ४७३ ब्रह्मचर्य ३. ब्रह्मचर्य के अठारह प्रकार देवीनामिदं देवम्, अप्सरोऽमरसम्बन्धीति भावः । अट्ठारस विधं बंभं। (दअचू पृ २३४) (दहावृ प १४८) ___ अब्रह्मचर्य (मैथुन) दो तरह का होता है --१. रूप ओरालियं च दिव्वं मणवयकाएण करणजोएणं ।। में २. रूपसहित द्रव्य में। रूप में अर्थात् निर्जीव अणुमोयणकारावणकरणाणष्ट्रारसाबंभं ।। वस्तुओं के साथ-जैसे प्रतिमा या मृत शरीर के साथ । (उशावृ प ६१४) रूप सहित मैथुन तीन प्रकार का होता है-दिव्य, अब्रह्मचर्य के दो प्रकार हैं -औदारिक (मनुष्य और मानुषिक और तिर्यंच सम्बन्धी । देवी- अप्सरा तिर्यंच सम्बन्धी) तथा दिव्य (देव संबंधी) । इन दोनों को सम्बन्धी मैथुन को दिव्य कहते हैं। नारी से सम्बन्धित तीन करण (मन, वचन, काया) और तीन योग (कृत, मैथुन को मानुषिक और पशु-पक्षी आदि से संबंधित कारित, अनुमति] से गुणन करने पर अब्रह्मचर्य के मैथुन को तिर्यंच विषयक मैथुन कहते हैं। अठारह भेद हो जाते हैं। इन अठारह प्रकारों से अब्रह्मचर्य मेहुणे चउव्विहे पण्णत्ते, तं जहा–दव्वतो रूवेसु का सेवन न करने पर ब्रह्मचर्य के अठारह प्रकार निष्पन्न वा रूवसहगतेसु वा दव्वेसु, खेत्ततो उड्ढलोए वा होते हैं। अहोलोर वा तिरियलोए वा, कालतो दिया वा रातो औदारिक काममोगों का वा, भावतो रागेण वा दोसेण वा। (दअच पृ८४) १. मन से सेवन न करे, अब्रह्मचर्य (मैथुन) के द्रव्य, क्षेत्र........ २. मन से सेवन न कराए और द्रव्य-रूप और रूपसहगत द्रव्य (चेतन ३. मन से सेवन करने वाले का अनुमोदन भी न करे। और अचेतन द्रव्य) ४. वचन से सेवन न करे, क्षेत्र- ऊर्ध्वलोक, अधोलोक, तिर्यक्लोक ५. वचन से सेवन न कराए और काल-दिन-रात ६. वचन से सेवन करने वाले का अनुमोदन भी न करे। भाव-राग-द्वेष ७. काया से सेवन न करे, परदारे दुविहे-ओरालिए वेउव्विए य । ओरालिए ८. काया से सेवन न कराए और दुविहे-तेरिक्को माणुसे य। विउविए देवाण वा ९. काया से सेवन करने वाले का अनुमोदन भी न करे। माणुसाण वा। (आवचू २ पृ २८९) दिव्य कामभोगों का . परदारगमन अब्रह्मचर्य के दो प्रकार हैं१०. मन से सेवन न करे, १. औदारिक-तिर्यंच और मनुष्य सम्बन्धी। ११. मन से सेवन न कराए और २. वैक्रिय-देव अथवा मनुष्य सम्बन्धी। १२. मन से सेवन करने वाले का अनुमोदन भी न करे। ५. ब्रह्मचर्य-समाधि के स्थान १३. वचन से सेवन न करे, १४. वचन से सेवन न कराए और इह खलु थेरेहिं भगवंतेहिं दस बंभचेरसमाहिठाणा १५. वचन से सेवन करने वाले का अनुमोदन भी न करे। पन्नत्ता " १६. काया से सेवन न करे, विवित्ताई सयणासणाइं सेविज्जा, से निग्गंथे । नो १७. काया से सेवन न कराए और इत्थीपसुपंडगसंसत्ताई सयणासणाइं सेवित्ता हवइ, से १८. काया से सेवन करने वाले का अनुमोदन भी न करे। निग्गंथे । नो इत्थीणं कहं कहित्ता हवइ, से निग्गंथे। ४. अब्रह्मचर्य के प्रकार नो इत्थीणं सद्धि सन्निसेज्जागए विहरित्ता हवइ, से दव्वओ मेहुणं रूवेसु वा रूवसहगए सु वा दब्वेसु, निग्गंथे । तत्थ रूवेत्ति णिज्जीवे भवइ, पडिमाए वा मयसरीरे वा। नो इत्थीणं इंदियाइं मणोहराई, मणोरमाइं आलोरूवसहगयं तिविहं भवति, तं जहा-दिव्वं माणुसं इत्ता निझाइत्ता हवइ, से निग्गथे।। तिरिक्खजोणियंति। (दजिचू पृ १५०) नो इत्थीणं कुड्डंतरंसि वा, दूसंतरंसि वा, भित्तंत Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य ४७४ ब्रह्मचर्य-समाधि के स्थान रंसि वा, कुइयसई वा, रुइयसई वा, गीयसई वा, हसिय हत्थपायपडिच्छिन्नं, कण्णनासविगप्पियं । सई वा, थणियसई वा, कंदियसह वा, विलवियसह वा अवि वाससइं नारिं, बंभयारी विवज्जए। सुणेत्ता, से निग्गंथे। (द ८.५५) नो निग्गंथे पूवरयं पूव्वकीलियं अणुसरित्ता हवइ, जिसके हाथ-पैर कटे हुए हों, जो कान-नाक से से निग्गथे। विकल हो वैसी सौ वर्ष की बूढ़ी नारी से भी ब्रह्मचारी नो पणीयं आहारं आहारित्ता हवइ, से निग्गंथे। दूर रहे। नो अइमायाए पाणभोयणं आहारेत्ता हवइ, से न चरेज्ज वेससामंते, बंभचेरवसाणए । निग्गंथे । बंभयारिस्स दंतस्स, होज्जा तत्थ विसोत्तिया ।। नो विभूसाणुवाई हवइ, से निग्गंथे । अणायणे चरंतस्स, संसग्गीए अभिक्खणं । नो सद्दरूवरसगंधफासाणुवाई हवइ, से निग्गंथे । होज्ज वयाणं पीला, सामण्णम्मि य संसओ ॥ (उ १६।सूत्र १-१२) (द ५११९, १०) ब्रह्मचर्य-समाधि के दस स्थान ब्रह्मचर्य का वशवर्ती मुनि वेश्या-बाड़े के समीप १. जो एकांत शयन और आसन का सेवन करता न जाए। वहां दमितेन्द्रिय ब्रह्मचारी के भी विस्रोतसिका है, वह निर्ग्रन्थ है। वह स्त्री, पशु और नपुंसक से आकीर्ण शयन और आसन का सेवन न करे। हो सकती है -साधना का स्रोत मुड़ सकता है । २ स्त्रियों के बीच कथा न कहे। अस्थान में बार-बार जाने वाले के (वेश्याओं) का ३. स्त्रियों के साथ एक आसन पर न बैठे। संसर्ग होने के कारण व्रतों की पीड़ा (विनाश) और ४. स्त्रियों की मनोहर और मनोरम इन्द्रियों को श्रामण्य में सन्देह हो सकता है। दृष्टि गड़ाकर न देखे। समरेसु अगारेसु, संधीसु य महापहे । ५. स्त्रियों के कूजन, रोदन, गीत, हास्य, विलाप एगो एगित्थिए सद्धि, नेब चिट्ठे न संलवे ॥ आदि के शब्द न सुने । (उ १।२६) ६. पूर्व-क्रीड़ाओं का अनुस्मरण न करे। कामदेव के मन्दिरों में, घरों में, दो घरों के बीच ७. प्रणीत आहार न करे। की संधियों में और राजमार्ग में अकेला मुनि अकेली ८. मात्रा से अधिक न खाए और न पीए । स्त्री के साथ न खड़ा रहे और न संलाप करे । ९. विभूषा न करे। न रूवलावण्णविलासहासं, १०. शब्द, रस, रूप, गन्ध और स्पर्श में आसक्त न न जंपियं इंगियपेहियं वा। इत्थीण चित्तंसि निवेस इत्ता, जहा कुक्कुडपोयस्स, निच्चं कुललओ भयं । दठ्ठ ववस्से समणे तवस्सी।। एवं खु बंभयारिस्स, इत्थीविग्गहओ भयं ॥ अदसणं चेव अपत्थणं च, (द ८१५३) अचितण चेव अकित्तणं च । जिस प्रकार मुर्गे के बच्चे को सदा बिल्ली से भय इत्थीजणस्सारियाणजोग्गं, होता है, उसी प्रकार ब्रह्मचारी को स्त्री के शरीर से भय हियं सया बम्भवए रयाणं ।। होता है। जहा बिरालावसहस्स मूले, न मूसगाणं वसही पसत्था। (उ ३२।१४,१५) एमेव इत्थीनिलयस्स मज्झे, तपस्वी श्रमण स्त्रियों के रूप, लावण्य, विलास, न बंभयारिस्स खमो निवासो हास्य, मधुर. आलाप, इङ्गित और चितवन को चित्त में (उ ३२।१३) रमाकर उन्हें देखने का संकल्प न करे । जैसे बिल्ली की बस्ती के पास चूहों का रहना जो सदा ब्रह्मचर्य में रत है, उसके लिए स्त्रियों को न अच्छा नहीं होता, उसी प्रकार स्त्रियों की बस्ती के पास देखना, न चाहना, न चितन करना और न वर्णन करना ब्रह्मचारी का रहना अच्छा नहीं होता। हितकर है तथा आर्यध्यान-धर्म्यध्यान के लिए उपयुक्त है। Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य महाव्रत का स्वरूप ४७५ ब्रह्मचर्य चित्तभित्ति न निझाए, नारिं वा सुअलंकियं । ७. प्रणीत पान-भोजन । भक्खरं पिव दळूणं दिट्टि पडिसमाहरे ॥ ८. मात्रा से अधिक पान-भोजन । (द ८।५४) ९. शरीर को सजाने की इच्छा। चित्रभित्ति (स्त्रियों के चित्रों से चित्रित भित्ति) या १०. दुर्जय कामभोग–ये दस स्थान आत्मगवेषी आभूषणों से सुसज्जित स्त्री को टकटकी लगाकर न देखे । मनुष्य के लिए तालपुट विष के समान हैं। उस पर दृष्टि पड़ जाए तो उसे वैसे ही खींच ले जैसे ० गृहनिषद्या से ब्रह्मचर्य में हानि। (द्र. आचार) मध्याह्न के सूर्य पर पड़ी हुई दृष्टि स्वयं खिंच जाती है। ० स्त्रीकथा के प्रकार। (द्र. कथा) ६. ब्रह्मचर्य-समाधि-स्थानों की उपेक्षा के परिणाम ० प्रमाणातिरेक आहार के परिणाम । (द्र आहार) ____ बंभचेरे संका वा, कंखा वा वितिगिच्छा वा समु- ८. ब्रह्मचर्य महावत का स्वरूप प्पज्जिज्जा, भेयं वा लभेज्जा, उम्मायं वा पाउणिज्जा, चउत्थे भंते ! महव्वए मेहणाओ वेरमणं । सव्वं दीहकालियं वा रोगायंकं हवेज्जा, केवलिपन्नत्ताओ वा भंते ! मेहणं पच्चक्खामि । से दिव्वं वा माणुसं वा धम्माओ भंसेज्जा। तिरिक्खजोणियं वा, नेव सयं मेहणं सेवेज्जा नेवन्नेहि ब्रह्मचर्य के साधनों की उपेक्षा के दुष्परिणाम मेहुणं सेवावेज्जा मेहुणं सेवंते वि अन्ने न समणुजाणेज्जा १. शंका-ब्रह्मचर्य के पालन में संशय जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणणं वायाए काएणं न २. कांक्षा-अब्रह्मचर्य की अभिलाषा करेमि न कारवेमि करतं पि अन्न न समणजाणामि । ३. विचिकित्सा-धर्माचरण के प्रति संदेह, चित्त (द ४।सूत्र १४) विप्लव। भंते ! चौथे महाव्रत में मैथन से विरमण होता है। ४. भेद -चारित्र का विनाश शिष्य संकल्प करता है-भंते ! मैं सब प्रकार के मैथन ५. ६. उन्माद और रोग-हठपूर्वक ब्रह्मचर्यपालन (अब्रह्मचर्य) का प्रत्याख्यान करता हूं। से उन्माद या दीर्घकालीन रोग और आतंक देव सम्बन्धी, मनुष्य सम्बन्धी अथवा तिथंच संबन्धी उत्पन्न होते हैं। मैथुन का मैं स्वयं सेवन नहीं करूंगा, दूसरों से मैथन ७. धर्मभ्रंश-जो इन पूर्व अवस्थाओं से नहीं बच सेवन नहीं कराऊंगा और मैथुन सेवन करने वालों का पाता, वह केवली-प्रज्ञप्त धर्म से भ्रष्ट हो अनुमोदन भी नहीं करूंगा, यावज्जीवन के लिए, तीन जाता है। करण तीन योग से -मन से, वचन से, काया सेन ७. ब्रह्मचर्य की साधना के विघ्न करूंगा, न कराऊंगा और करने वाले का अनुमोदन भी आलओ थीजणाइण्णो, थीकहा य मणोरमा । नहीं करूंगा। संथवो चेव नारीणं, तासि इंदियदरिसणं ।। विरई अबंभचेरस्स, कामभोगरसन्नुणा। कुइयं रुइयं गीयं, हसियं भुत्तासियाणि य । उग्गं महव्वयं बंभं, धारेयव्वं सूक्करं ।। पणीयं भत्तपाणं च, अइमायं पाणभोयणं । (उ १९।२८) गतभूसणमिट्ठ च, कामभोगा य दुज्जया। कामभोग का रस जानने वाले व्यक्ति के लिए नरस्सऽत्तगवेसिस्स, विसं तालउडं जहा ॥ अब्रह्मचर्य की विरति करना और उग्र ब्रह्मचर्य महाव्रत (उ १६।११-१३) को धारण करना बहुत ही कठिन कार्य है। १. स्त्रियों से आकीर्ण आलय । अबंभचरियं घोरं, पमायं दुरहिट्टियं । २. मनोरम स्त्रीकथा। नायरंति मुणी लोए, भेयाययणवज्जिणो । ३. स्त्रियों का परिचय । मूलमेयमहम्मस्स, महादोससमुस्सयं । ४. उनकी इन्द्रियों को देखना । तम्हा मेहुणसंसग्गि. निग्गंथा वज्जयंति णं ॥ ५. उनके कूजन, रोदन, गीत और हास्ययुक्त शब्दों (द ६।१५,१६) ____ को सुनना। अब्रह्मचर्य लोक में घोर, प्रमादजनक और दुर्बल ६. भुक्तभोग और सहावस्थान को याद करना। व्यक्तियों द्वारा आसेवित है। चारित्रभंग के स्थान से Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य भगवान् बचने वाले मुनि उसका आसेवन नहीं करते । इसलिए साधक जीवनचर्या के प्रत्येक अंग मे-सामायिक ___अब्रह्मचर्य अधर्म का मूल और महान् दोषों की आदि प्रत्येक आवश्यक कार्य करने से पहले गुरु को राशि है । इसलिए निर्ग्रन्थ मैथुन के संसर्ग का वर्जन भंते ! शब्द से संबोधित करता है। भंते शब्द की विविध करते हैं। कोणों से व्याख्या की गई है। देखें विभा ३४३९ ३४७४)। ९. ब्रह्मचर्य महावत की भावना गणहरा भगवतो सकासे अत्थं सोऊण वतपडिवत्तीए तस्स णं इमाओ पंच भावणाओ भवंतिणो पाण एवमाहुतस्स भंते !""जहा जे वि इमम्मि काले ते पि भोयणं अतिमायाए आहारेत्ता भवति"अविभूसाणुवाई.... वताई पडिवज्जमाणा एवं भणंति-तस्स भंते ! णो इत्थीणं इंदियाई मणोहराई मणोरमाइं निझाइत्ता (दअच पृ ७८) भवति .... णो इत्थीपसुपंडगसंसत्ताइं सयणासणाई भंते ! -- इस सम्बोधन की उत्पत्ति के विषय में सेवेत्ता भवति" णो इत्थीणं कहं कहेत्ता भवति । चूर्णिकार कहते हैं(आव २ पृ १४५,१४६) गणधरों ने भगवान से अर्थ सुनकर व्रत ग्रहण किये, ब्रह्मचर्य महाव्रत की पांच भावनाएं - उस समय उन्होंने 'भंते' शब्द का व्यवहार किया। तभी १. मात्रा से अधिक और प्रणीत आहार न करना। से इसका प्रयोग गुरु को आमन्त्रण करने के लिए होता २. विभूषा न करना। ३. स्त्रियों के अवयवों का अवलोकन न करना। आ रहा है। इसका पर्याय शब्द है-भदन्त । ४. स्त्री, पशु और नपुंसक से संसक्त शयन और . भदि कल्लाणसुहत्थो धाऊ तस्स य भदंतसद्दोऽयं । स भदंतो कल्लाणो सुहो य कल्लं किलारुग्गं ।। आसन का वर्जन करना। ५. स्त्रीकथा का वर्जन करना। तं तच्चं निव्वाणं कारण कज्जोवयारओ वावि । तस्साहणमणसद्दो सहत्थो अहव गच्चत्थो । १०. ब्रह्मचर्य के परिणाम (विभा ३४३९, ३४४०) देवदाणवगंधव्वा, जक्खरक्खसकिन्नरा। 'भदि' कल्याणे सुखे च'-इस धातु से भदंत शब्द बंभयारिं नमसंति, दुक्करं जे करंति तं । निष्पन्न होता है। इसका अर्थ है-कल्याण, सुख । जो (उ १६।१६) कल्याण और सुख का प्रदाता है, वह है भंते -भदंत उस ब्रह्मचारी को देव, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस अर्थात् आचार्य, गुरु । कल्याण में दो शब्द हैं --कल्य और और किन्नर-ये सभी नमस्कार करते हैं, जो दुष्कर अण । कल्य का अर्थ है-आरोग्य अर्थात् निर्वाण अथवा ब्रह्मचर्य का पालन करता है। निर्वाण के साधनभूत ज्ञान-दर्शन-चारित्र । 'अण' का अर्थ भंते-भंते ! , गुरु, पूज्य। है प्राप्त कराना । सुख अर्थात् निर्बाध सुख, मोक्षसुख । भंते ! इति भगवतो आमंतणं। (दअचू पृ ७८) भदन्त का अर्थ है-पूज्य । इसका तात्पर्यार्थ है- वे गुरु, जो निर्वाण और निर्बाध सूख की प्राप्ति में भदन्तेति गुरोरामन्त्रणम् । भदन्त भवान्त भयान्त निमित्तभूत बनते हैं। इति साधरणा श्रुतिः । "एतच्च गुरुसाक्षिक्येव व्रतप्रतिपत्ति: साध्वीति ज्ञापनार्थम् । (दहावु प १४४) भगवती- व्याख्याप्रज्ञप्ति, पांचवां अंग। ___ 'भंते' शब्द के संस्कृत रूप तीन हैं-भदन्त, भवान्त (द्र. अंगप्रविष्ट) और भयान्त। भगवान् ज्ञानी, ऐश्वर्य आदि से सम्पन्न । यह भगवान् अथवा गुरु का संबोधन है। व्रतग्रहण इस्सरिय-रूव-सिरि-जस-धम्म-पयत्ता मया भगाभिक्खा । गुरु के साक्ष्य से होता है, इसलिए शिष्य, गुरु को संबो- ते तेसिमसामण्णा संति जओ तेण भगवंते ।। धित कर अपनी भावना का निवेदन करता है।। (विभा १०४८) (गुरुसाक्षी से किये गये संकल्प का स्थिरीकरण, ऐश्वर्य, रूप, श्री, यश, धर्म और प्रयत्न ये छह भग सम्यक परिपालन और निर्वहन सुकर हो जाता है, कहलाते हैं। जिनमें ये छहों असामान्य रूप से पाये जाते Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भव्यत्व और पारिणामिक भाव ४७७ भव्य हैं, उन्हें भगवान् कहते हैं। (निपूण, विकसित)—ये पर्यायवाची शब्द हैं। भव्यत्व धैर्यसौभाग्यमाहात्म्ययशोऽर्कश्रुतधीश्रियः । अनादि पारिणामिक भाव है। तपोऽर्थोपस्थपूयेशप्रयत्नतनवो भगाः॥ ___ अनंत (साधारण) वनस्पति के जीव भी भव्य हो (उशावृ प ३०६) सकते हैं। भग शब्द के अनेक अर्थ हैं ......"जीवत्ते सामण्णे भव्वोऽभव्वो त्ति को भेओ?|| धैर्य, सौभाग्य, माहात्म्य, यश, स , बुद्धि , दब्वाइत्ते तुल्ले जीव-नहाणं सभावओ भेओ। लक्ष्मी, तप, अर्थ, योनि, पुण्य, ईश, प्रयत्न और तनु । जीवाजीवाइगओ जह, तह भव्वेयरविसेसो ।। इनसे युक्त व्यक्ति को भगवान् कहते हैं । (विभा १८२१,१८२३) भरत-भगवान् ऋषभ का पुत्र, प्रथम चक्रवर्ती ।। जैसे द्रव्यत्व, प्रमेयत्व आदि तुल्य होने पर भी जीव और आकाश में चेतनत्व और अचेतनत्व कृत स्वाभाविक (द्र. चक्रवर्ती) भेद है, वैसे ही जीवत्व तुल्य होने पर भी जीवों में भव्यभवनपति-पाताल लोक के भवनों में वास करने अभव्यकृत भेद है। वाले देव । (द्र. देव) होउ व जइ कम्मकओ न विरोहो नारगाइभेउ व्व । भव भावना-संसार की नाना परिणतियों तथा . भणह य भव्वाऽभव्वा सभावओ तेण संदेहो ।। जन्म-मरण के चक्र से होने वाले (विभा १८२२) विविध परिवर्तनों का चिन्तन जीव स्वभाव से ही भव्य या अभव्य होते हैं। करना। (द्र. अनुप्रेक्षा) भव्यत्व-अभव्यत्व नारकत्व-देवत्व की तरह कर्मकृत नहीं, भव्य-मोक्षगमन के योग्य । स्वाभाविक अवस्था है। २. भव्यत्व और पारिणामिक भाव १. भव्य-अभव्य एवं पि भव्वभावो जीवत्तं पिव सभावजाईओ। २. भव्यत्व और पारिणामिक भाव पावइ निच्चो तम्मि य तदवत्थे नत्थि निव्वाणं ।। ३. भव्य-अभव्य अनन्त जह घडपुव्वाभावोऽणाइसहावो वि सनिहणो एवं । ४. सब भव्य सिद्ध नहीं होते जइ भव्वत्ताभावो भवेज्ज किरियाए को दोसो ?॥ ५. भव्य और ग्रंथिभेद (विभा १८२४,१८२५) * अभव्य के यथाप्रवृत्तिकरण (द्र. करण) जीव के जीवत्व की तरह उसका भव्यत्व भी स्वा* चक्रवर्ती और इन्द्र भव्य (द्र. चक्रवर्ती) भाविक होने से नित्य और अविनाशी हो जायेगा और ६. तीर्थकर भव्यों के त्राता ऐसा होने से जीव सिद्धत्व को कैसे प्राप्त कर सकेगा? क्योंकि सिद्ध न भव्य होते हैं, न अभव्य । १. भव्य-अभव्य इस जिज्ञासा के समाधान में घट और मिट्टी का भव्या अनादिपारिणामिकसिद्धिगमनयोग्यतायुक्ताः, दष्टांत मननीय है-मिट्टी में घट का प्राक् अभाव अनादितविपरीता अभव्याः। (नन्दोमवृ प २४७) कालीन है किन्तु घट निर्मित हो जाने पर वह अनादि अनादिपारिणामिकभव्यभावयुक्तः सत्त्वविशेषो भव्य प्राक् अभाव भी नष्ट हो जाता है। इसी प्रकार तपश्चरण उच्चते । भव्यो योग्यो दलमिति पर्यायाः। आदि के द्वारा जीव मुक्त हो जाता है और मुक्तावस्था में .... — भव्योऽनन्तवनस्पत्यादिरपि स्यात् । भव्यत्व नहीं रहता। ___ (विभाकोवृ पृ ५) भव्यत्वमाश्रित्य पुनरनादि: सान्तः"सिद्धावस्थायां जिनमें मुक्त होने की योग्यता नहीं होती, वे जीव भव्याभव्यत्वनिवृत्तेः । जीवत्वमभव्यत्वं चानादिरनन्तः । अभव्य और जिनमें मोक्षगमन की योग्यता होती है (विभामवृ १ पृ ७३४) वे जीव भव्य कहलाते हैं । भव्य, योग्य, दल भव्यत्व, अभव्यत्व और जीवत्व-ये पारिणामिक Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भव्य ४७८ भव्य और ग्रन्थिभेद भाव हैं। भव्यत्व की अपेक्षा पारिणामिक भाव अनादि- कि पूण जा संपत्ती सा जोग्गस्सेव न उ अजोग्गस्स। सांत भी है, क्योंकि सिद्धावस्था में भध्यत्व-अभव्यत्व तह जो मोक्खो नियमा सो भव्वाणं न इयरेसिं । भाव की निवृत्ति हो जाती है। जीवत्व और अभव्यत्व (विभा १८३३-१८३६) ये दोनों पारिणामिक भाव अनादि-अनंत हैं। (मति शिष्य ने प्रश्न किया कि सारे भव्य जीव किसी भी अज्ञान आदि भाव अभव्य की अपेक्षा अनादि-अपर्यवसित काल में सिद्ध नही होंगे तो फिर उनका भव्यत्व कैसा? हैं-द्र. भाव) क्या वे अभव्य नहीं माने जा सकते ? ३. भव्य-अभव्य अनंत सब भव्य सिद्ध नहीं होंगे। भव्य का अर्थ है..."अणंता भवसिद्धिया, अणंता अभवसिद्धिया । सिद्धिगमन के योग्य । योग्य होने मात्र से कोई सिद्ध नहीं (नन्दी १२४) होता । स्वर्ण, काष्ठ या पाषाण के प्रतिमा के योग्य होने षण्मासपर्यन्ते चावश्यमेकस्य भव्यस्य जीवस्य सिद्धि- पर भी उनकी सर्वत्र प्रतिमा नहीं बनायी जाती। प्रतिमा गमनात् । की निष्पत्ति योग्य सामग्री मिलने पर ही होती है। पर एवं भव्वुच्छेओ कोट्ठागारस्स वा अवचओ त्ति । सामग्री के अभाव में भी स्वर्ण, काष्ठ आदि द्रव्यों में प्रतिमा तं नाणंतत्तणओऽणागयकालं-बराणं व ॥ बनने की योग्यता को नकारा नहीं जा सकता। प्रतिमा जं चातीताणागयकाला तुल्ला जओ य संसिद्धो। योग्य वस्तु से प्रतिमा होती ही है-यह नियम नहीं बनाया एक्को अणंतभागो भव्वाणमईयकालेणं ॥ जा सकता। वियुक्त होने योग्य सोने और मिट्टी को अग्नि, एस्सेण तत्तिउ च्चिय जुत्तो जं तो वि सव्वभव्वाणं । ताप आदि उचित सामग्री के अभाव में अलग-अलग नहीं जुत्तो न समुच्छेओ होज्ज मई कहमिणं सिद्धं ॥ किया जा सकता। इसी प्रकार मिति के भव्वाणमणंतत्तणमणंतभागो व किह व मुक्को सि। की सम्प्राप्ति होने पर ही भव्य जीव सिद्ध हो सकता है, कालादओ व मंडिय ! मह वयणाओ व पडिवज्ज ॥ सामग्री के अभाव में नहीं। सामग्री न मिलने मात्र से वह (विभा १८२७-१८३० मवृ पृ ६५६) अभव्य नहीं हो जाता। किन्तु जब कभी मुक्ति होगी, प्रत्येक छह मास बाद एक भव्य जीव अवश्य सिद्ध भव्य की ही होगी, अभव्य की नहीं। होता है -निरन्तर इस क्रम से सिद्ध होने पर तो एक दिन संसार भव्य जीवों से शून्य हो जाएगा, जैसे थोडा- ५. भव्य और ग्रन्थिभेद थोड़ा धान्य निकालते रहने से एक दिन धान्य का कोष्ठा- भव्याः सम्यग्दर्शनादिगुणयोग्या भिन्नग्रंथयः । गार खाली हो जाता है। पर ऐसा नहीं होता, क्योंकि (उशाव प ७१२) अनागतकाल की अनन्त समयराशि और अनन्त आकाश सम्यक-दर्शन आदि गुणों के योग्य जीव भव्य की प्रदेशराशि की तरह भव्य जीवराशि अनन्तानन्त है। कहलाते हैं । भव्य जीव ही ग्रंथिभेदन में समर्थ होते हैं। अतीतकाल और अनागतकाल तुल्य हैं। अतीतकाल जे अभवितो सो तं गंठिं ण समत्थो भिदितुं तेण में भव्यों का अनन्तवा भाग सिद्ध हुआ है। अनागतकाल गंठियसत्तो, गंठिए वा सत्तो। तत्थ पूण अंतरे इढिविसेसं में भी भव्यों का अनन्तवां भाग ही सिद्ध होगा। अत: दठण तित्थगराणं अणगाराणं वा ताहे पव्वयति । तम्मूसब भव्यों के उच्छेद का प्रसंग ही नहीं आता। भव्य लागं देवलोगं गच्छति । जो भविओ तस्स तमि काले और अभव्य-दोनों प्रकार के जीव अनंत हैं। जति कोति संबोहेज्ज अहवा कोति सयं चेव संबूज्झति ४. सब भव्य सिद्ध नहीं होते तस्स एत्थ सुयसामाइयस्स लंभो भवति । भव्वा वि न सिज्झिरसंति केइ कालेण जइ वि सव्वेण । ___ (आवचू १ पृ १०१) नण ते वि अभव्व च्चिय किंवा भव्वत्तणं तेसिं। अभव्य प्राणी ग्रन्थि भेदन में समर्थ नहीं है। वह भण्णइ भव्वो जोग्गो न य जोग्गत्तेण सिझए सव्वो। तीर्थंकरों अथवा मुनियों की ऋद्धिविशेष को देखकर जह जोग्गम्मि वि दलिए सव्वम्मि न कीरए पडिमा ॥ प्रव्रजित हो सकता है और देवलोक में जा सकता है। जह वा स एव पासाण-कणगजोगो विओगजोग्गो वि। जो भव्य है, वह स्वयं अथवा दूसरों से सम्बुद्ध हो श्रुतन विजज्जइ सव्वो च्चिय स विजुज्जइ जस्स सपत्ती । सामायिक प्राप्त करता है। Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औदयिक भाव की परिभाषा ४७९ भाव रस ६. तीर्थंकर भव्यों के त्राता ८. क्षायिक भाव विकल्पातीत किं व कमलेसु राओ रविणो बोहेइ जेण सो ताई। ९. क्षायोपशमिक भाव की परिभाषा कुमुएसु व से दोसो जं न विबुज्झति से ताई। • ज्ञानावरण का क्षयोपशम जं बोहमउलणाई सूरकरामरिसओ समाणाओ। . . मोहकर्म का क्षयोपशम कमलकुमुयाण तो तं साभव्वं तस्स तेसि च ।। * दर्शनमोह-क्षयोपशम की प्रक्रिया (द्र. करण) जह वोलगाईणं पगासधम्मा वि सो सदोसेणं । १०.क्षायोपशमिक भाव के प्रकार उइओ वि तमोरूवो एवमभव्वाण जिणसूरो ॥ . क्षयोपशम चार घातिकर्मों का सझं तिगिच्छमाणो रोगं रागी न भण्णए वेज्जो । * कर्मों की प्रकृतियां (द्र. कर्म) मुणमाणो य असझं निसेहयंतो जह अदोसो ॥ ११. देशघाति-सर्वघाति प्रकृतियां : एक स्थानक आदि तह भव्वकम्मरोगं नासंतो रागवं न जिणवेज्जो । न य दोसी अभव्वासझकम्मरोगं निसेहंतो ।। ० सर्वघाति रसस्पर्धक देशधाति में परिणत (विभा ११०५-११०९) • कर्म और चतुःस्थानक आदि बन्ध दिन में कमल विकसित होते हैं, कुमुद विकसित • उपशम और क्षयोपशम में अन्तर नहीं होते-इसमें सूर्य का कमल के प्रति राग और कुमुद १२. पारिणामिक भाव की परिभाषा के प्रति द्वेष भाव कारण नहीं है, यह तो उनका अपना १३. पारिणामिक भाव के प्रकार अपना स्वभाव है। सूर्य की रश्मियां तो दोनों प्रकार के • सादि पारिणामिक पुष्पों का समान रूप से स्पर्श करती हैं। ० अनादि पारिणामिक सूर्य के उग जाने पर भी उल्ल को तो अपने स्वभाव १४. सान्निपातिक भाव के कारण अन्धकार ही प्रतिभासित होता है। इसी प्रकार १५. भाव : सावि-सपर्यवसित आदि चार विकल्प अभव्यों को तीर्थंकर रूप सूर्य मुक्ति का प्रकाश नहीं दे सकते। १. भाव के प्रकार जैसे एक कुशल वैद्य साध्य रोग की चिकित्सा करता उदइए, उवसमिए, खइए, खओवसमिए, पारिणामिए, है, असाध्य की नहीं, वैसे ही तीर्थंकर भव्य जीवों को। सन्निवाइए। (अनु २७१) कर्मरोग से मुक्त करते हैं, अभव्यों को नहीं। इसमें अर्हत् भाव के छह प्रकार हैं-औदयिक, औपशमिक, का भव्य के प्रति राग और अभव्य के प्रति द्वेष कारण क्षायिक, क्षायोपशमिक, पारिणामिक और सान्निपातिक । नहीं है, स्वभाव ही कारण है । अर्हत् वीतराग होते हैं। भाव-होना । कर्म के उदय, उपशम, क्षय और २. औदयिक भाव को परिभाषा क्षयोपशम से होने वाला जीव का स्पन्दन । ____ अट्टविहकम्मपोग्गला संतावत्थातो उदीरणावलिय मतिक्रान्ता अप्पणी विपागेण उदियावलियाए वट्टमाणा १. भाव के प्रकार उदिनाओत्ति उदयभावो भन्नति । (अनुच १४२) २. औदयिक भाव की परिभाषा सत्ता अवस्था में विद्यमान कर्मपुदगल उदीरणा३. औदयिक भाव के प्रकार वलिका का अतिक्रमण कर अपने परिपाक काल में • उदयनिष्पन्न के प्रकार उदयावलिका में प्रविष्ट हो उदय में आते हैं-वह ० जीवोदयनिष्पन्न औदयिक भाव है। उदय आठों कर्म प्रकृतियों का होता • अजीवोदयनिष्पन्न ४. औपशमिक भाव की परिभाषा उदयः - शुभानां तीर्थकरनामादिप्रकृतीनाम् अशुभाना ५. औपशमिक भाव के प्रकार च मिथ्यात्वादीनां विपाकतोऽनुभवनं तेन निवृत्तः ६. क्षायिक भाव की परिभाषा औदयिकः। (उशावृ प ३३) ७. क्षायिक भाव के प्रकार तीर्थकरनाम आदि शुभ प्रकृतियों के तथा मिथ्यात्व Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव ४८० औपशमिक भाव की परिभाषा आदि अशुभ प्रकृतियों के विपाक का अनुभव करना उदय काय छह-पृथ्वी, अप्, तेजः, वायु, वनस्पति, त्रस । है। उदय से होने वाली आत्मा की अवस्था औदयिक कषाय चार-क्रोध, मान, माया, लोभ । भाव है। वेद तीन-स्त्री, पुरुष, नपुंसक । ३. औदयिक भाव के प्रकार लेश्या छह-कृष्ण, नील, कापोत, तेजः, पद्म, शुक्ल। ____ उदइए दुविहे पण्णत्ते, तं जहा–उदए य उदय मिथ्यादृष्टि, अविरत, असंज्ञी, अज्ञानी, आहारक, छद्मस्थ, सयोगी, संसारस्थ, निप्फण्णे य। (अनु २७२) असिद्ध, अकेवली। औदयिक के दो प्रकार हैं अजीवोदय-निष्पन्न उदय-उदयावलिका में कर्मदलिक का विपाक। उदय-निष्पन्न -उदय में आकर किसी अन्य पर्याय अजीवोदयनिष्फण्णे अणेगविहे पण्णत्ते, तं जहाको जन्म देने वाला औदयिक भाव । ओरालियं वा सरीरं ओरालियसरीरपओगपरिणामियं वा दव्वं, वे उव्वियं वा सरीरं वेउव्वियसरीरपओगपरिणामियं उदय-निष्पन्न के प्रकार वा दव्वं"पओगपरिणामिए वण्णे गंधे रसे फासे । उदयनिष्फण्णे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा----जीवोदय (अनु २७६) निष्फण्णे य अजीवोदयनिप्फण्णे य। (अनु २७४) अजीवोदय-निष्पन्न के अनेक प्रकार हैं-औदारिक उदय-निष्पन्न के दो प्रकार हैं-जीवोदय-निष्पन्न और आदि पांच शरीर, पांच शरीर के प्रयोग द्वारा परिणामित अजीवोदय-निष्पन्न । पुद्गल द्रव्य, पांच वर्ण, दो गंध, पांच रस और आठ उदयणिप्फण्णो णाम उदिण्णेण जेण अण्णो निप्फा- स्पर्श। दितो सो उदयणिफण्णो"तत्थ जीवे कम्मोदएण जो ४. औपशमिक भाव को परिभाषा जीवस्स भावो णिव्वत्तितो जहा रइते इत्यादि, अजीवेसु विपाकप्रदेशानुभवरूपतया द्विभेदस्याप्युदयस्य जहा ओरालियदव्ववग्गणेहितो ओरालियसरीरप्पयोगे दव्वे विष्कम्भणमुपशमस्तेन निवृत्त औपशमिकः । घेत्तणं तेहिं ओरालियसरीरे णिव्वत्तेइ, णिव्वत्तिए वा तं उदयनिप्फण्णो भावो। (अनुचू पृ ४२) (उशाव प ३३) मोहनीय कर्म के विपाकोदय और प्रदेशोदय- इन कर्म के उदय से जो अवस्था निष्पन्न होती है, वह दोनों प्रकार के उदय को रोकना उपशम है और उससे उदय-निष्पन्न है। जैसे - नरकगतिनामकर्म के उदय से होने वाली आत्मा की अवस्था औपशमिक भाव है। जीव की नैरयिक अवस्था निष्पन्न होती है। यह जीव मोहणिज्जस्स कम्मस्स उवसमे णं। (अनु २७८) द्रव्य की उदय-निष्पन्नता है। उपशम केवल मोहनीयकर्म का होता है। औदारिक द्रव्यवर्गणा से औदारिक शरीर के प्रायोग्य (इसका हेतु यह है कि मोहनीय कर्म की प्रकृतियां पुद्गलों को ग्रहण कर औदारिक शरीर का निर्माण संवेगात्मक और विकारक हैं इसलिए उनका उपशम करना अजीवद्रव्य उदय-निष्पन्न है। किया जा सकता है। ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय जीवोदय-निष्पन्न कर्म की प्रकृतियां आवारक तथा अन्तराय कर्म की प्रकृजीवोदयनिष्फण्णे अणेगविहे पण्णत्ते, तं जहा-- तियां प्रत्युत्पन्नविनाशी और आगामी प्रतिरोधक हैं नेरइए "पुढविकाइएकोहकसाई ...'इत्थिवेए""कण्ह- इसलिए उनका उपशमन नहीं होता। अधाति कर्म का लेसे .."मिच्छदिदी अविरए असण्णी अन्नाणी आहारए उपशम नहीं होता । जैसे- वेदनीय कर्म सात या असात छउमत्थे सजोगी संसारत्थे असिद्धे अकेवली। के रूप में निरन्तर भोगा जाता है। आयुष्य कर्म भी (अनु २७५) निरंतर भोगा जाता है । जीवोदय-निष्पन्न के अनेक प्रकार हैं उपशम की तुलना मनोविज्ञान के Supression से गति चार-नैरयिक, तिर्यक्योनिक, मनुष्य और देव। की जा सकती है। आयुर्वेद में दो प्रकार के वेग बतलाए Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षायोपशमिक भाव की परिभाषा ४८१ भाव गये हैं --शारीरिक वेग और मानसिक वेग। शारीरिक २. दर्शनावरणीय कर्म-चक्षुदर्शनावरण आदि नौ वेग को नहीं रोकना चाहिये। मानसिक वेग को रोकना प्रकृतियों का क्षय । आवश्यक है।) ३. वेदनीय कर्म-सात और असात वेदनीय का क्षय । ५. औपशमिक भाव के प्रकार ४. मोहनीय कर्म-दर्शनमोह और चारित्रमोह की अठाईस प्रकृतियों का क्षय। उवसमिए दुविहे पण्णत्ते, तं जहा–उवसमे य ५. आयुष्य कर्म-नैरयिक आदि चार प्रकतियों का उवसमनिप्फण्णे य। (अनु २७७) क्षय। औपशमिक के दो प्रकार हैं-उपशम और उपशमनिष्पन्न । ६. नाम कर्म-शुभ नाम और अशुभ नाम का क्षय । ७ गोत्र कर्म-उच्च गोत्र और नीच गोत्र का क्षय । उवसमनिप्फण्णे अणेगविहे पण्णत्ते, तं जहा-उवसंतकोहे उवसंतमाणे उवसंतमाए उवसंतलोहे उवसंतपेज्जे.... ८. अन्तराय कर्म-दानान्तराय आदि पांच प्रकृतियों उवसमिया सम्मत्तलद्धी उवसमिया चरित्तलद्धी उवसंत- का क्षय । कसायछउमत्थवीयरागे। (अनु २७९) ८. क्षायिक भाव विकल्पातीत उपशम-निष्पन्न के अनेक प्रकार हैं-उपशांत क्रोध, ..."खयम्मि अविगप्पमाहंसु । उपशान्त मान, उपशान्त माया, उपशान्त लोभ, उपशान्त क्षायिकगुणसमुदायं अविकल्पं एगलक्षणं सव्वुत्तमं । प्रेम "औपशमिकी सम्यक्त्वलब्धि, औपशमिकी चारित्र (आवनि ५७२ च १ ३३०) लब्धि और उपशान्त कषायवाला छद्मस्थवीतराग । कर्मों के क्षय से निष्पन्न गुणों में कोई विकल्प या भेद नहीं होता। वे सब एक समान लक्षण वाले और ६. क्षायिक भाव की परिभाषा सर्वोत्तम होते हैं। क्षयः कर्मणामत्यन्तोच्छेदः तेन निवृत्तः क्षायिकः। (उशावृ प ३३) ___६. क्षायोपशमिक भाव की परिभाषा कर्मों का आत्यन्तिक उच्छेद होना क्षय है। उससे नण खीणम्मि उइण्णे सेसोवसमे खओवसमो। होने वाली आत्मा की अवस्था क्षायिक भाव है। (विभा १२९१) अट्ठण्हं कम्मपयडीणं खए णं। (अनु २८१) तस्स तस्स कम्मस्स सव्वधातिफडडगाणं उदयक्खयात्, क्षय आठों ही कर्म-प्रकृतियों का होता है। तेषामेव सदुपशमात् देशघातिफड्डगाणं उदयात् खतो७. क्षायिक भाव के प्रकार वसमितो भावो भवति । (आवचू १ पृ ९७) क्षयोपशम: देशघातिरसस्पर्द्धकानामुदये सति भवति ____खइए दुविहे पण्णत्ते, त जहा-खए य खनिप्फण्णे न सर्वघातिरसस्पर्द्ध कानाम् । कर्मणां प्रत्येकमनन्ताय। (अनु २८०) नन्तानि रसस्पर्द्ध कानि भवन्ति। (नन्दीमवृ प ७७) क्षायिक के दो प्रकार हैं-क्षय और क्षय-निष्पन्न । (ज्ञानाबरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय या खयनिप्फण्णे अणेगविहे पण्णत्ते, तं जहाखीण अन्तराय) कर्म के उदय प्राप्त सर्वघाति स्पर्धकों का क्षय आभिणिबोहियनाणावरणे .... खीणचक्खुदंसणावरणे... और विद्यमान (अन्तर्मुहूर्त के बाद उदय में आने वाले) खीणसायवेयणिज्जे""खीणदंसण-मोहणिज्जे खीणचरित्त स्पर्धकों का उपशम होने पर क्षयोपशमभाव होता है। मोहणिज्जे"खीणनेरइयाउएखीणसुभनामे खीण इसमें देशघाति स्पर्धकों का उदय रहता है। यह सर्वअसुभनामे"खीणउच्चागोए खीणनीयागोएखीण घाति रसस्पर्धकों के उदयकाल में नहीं होता। प्रत्येक दाणंतराए""" (अनु २८२) कर्म के अनंत अनंत रसस्पर्धक होते हैं। इसमें क्षय और क्षय-निष्पन्न के अनेक प्रकार हैं उपशम की प्रक्रिया निरन्तर चाल रहती है। १. ज्ञानावरणीय कर्म-मतिज्ञानावरण आदि पांच (क्षयोपशम शब्द में जो उपशम पद है, उसके दो प्रकृतियों का क्षय । रूप बनते हैं Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव ४८२ क्षयोपशम चार घातिकर्मों का १. उदयावलिका में आने योग्य कर्मदलिकों को क्षय और अनूदीर्ण दलिकों का उपशम होता है। विपाकोदय के अयोग्य बना देना। प्रत्याख्यान और संज्वलन कषाय के देशघाति रसस्पर्धकों २. तीव्ररस का मन्दरस में परिणमन होना ।) तथा नोकषाय का यथासंभव उदय रहता है। ज्ञानावरण का क्षयोपशम १०. क्षायोपशमिक भाव के प्रकार निहिएसु सव्वघाईरसेसु फड्डेसु देसघाईणं । खओवसमिए दुविहे पण्णत्ते, तं जहा खओवसमे य जीवस्स गुणा जायंति ओहिमणचक्खुमाईया ।। खओवसमनिप्फण्णे य ।। (अनु २८३) (नन्दीमवृ प ८०) क्षायोपशमिक भाव के दो प्रकार हैं-क्षयोपशम अध्यवसायों की विशुद्धि से ज्ञानावरणप्रकृतियों के और क्षयोपशम-निष्पन्न । सर्वघाति रसस्पर्धक देशघाति के रूप में परिणत होने पर, खओवसमनिप्फण्णे अणेगविहे पण्णत्ते, तं जहादेशघाति रसस्पर्धकों के अतिस्निग्ध और मंद रस वाले खओवस मिया आभिणिबोहियनाणलद्धी"खओवसमिया होने पर, उदयावलिका में प्राप्त अंश का क्षय, अनुदीर्ण मइअन्नाणलद्धी "खओवसमिया चक्खुदंसणलद्धी.. का उपशम और विपाकोदय का निरोध होने पर अवधि, खओवसमिया सम्मदंसणलद्धी, खओवसमिया मनःपर्यव आदि ज्ञान उत्पन्न होते हैं-यह ज्ञानावरणीय मिच्छादसणलद्धी, खओवसमिया सम्ममिच्छादसणलद्धी, कर्म के क्षयोपशम से निष्पन्न अवस्था है। खओवसमिया सामाइयचरित्तलद्धी....'"खओवसमिया मोह कर्म का क्षयोपशम दाणलद्धी खओवसमिया सोइंदियलद्धी.."खओवसमिए दसणमोहस्स खतोवसमेण अणंताणबंधिअणुदए आयारधरे, खओवसमिए सूयगडधरे...''खओवसमिए मिच्छत्तस्स सव्वघातिफड्डगाण उदयक्खते तेषामेव नवपुव्वी, खओवसमिए दसपुव्वी, खओवसमिए चउद्दससदुवसमे सम्मत्तमोहणीयस्स उदये इति । ""चरित्तमोह पुव्वी, खओवसमिए गणी, खओवस मिए वायए। से तं खतोवसमे णाम बारसकसायोदयखये सवसमे य । खओवसमनिप्फण्णे । (अनु २८५) संजलणचउक्कअन्नतरदेसघातिफड्डगोदए णोकसाय क्षयोपशम-निष्पन्न के अनेक प्रकार हैं ० ज्ञानलब्धि-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:नवगस्स य यथासंभवोदये इति। चरित्ताचरित्तं पूण पर्यवज्ञान, मतिअज्ञान,श्रुतअज्ञान, विभंगज्ञान । खओवसमिते चेव, कसायटूगोदयक्खए सदुवसमे य, ० दर्शनलब्धि -चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन, पच्चक्खाणकसायसंजलणचउक्कदेसघातिफड्डगोदये णो ___सम्यग्दर्शन, मिथ्यादर्शन, सम्यक्मिथ्यादर्शन । कसायणवगस्स जहासंभवोदये य । • चारित्रलब्धि–सामायिकचारित्र, छेदोपस्थापनीय(आवचू १ १९७, ९८) चारित्र, परिहारविशुद्धिचारित्र, सूक्ष्मसंपरायदर्शनमोह के क्षयोपशम में अनन्तानुबंधी कषाय का चारित्र, चारित्राचारित्र । अनुदय रहता है। उदयप्राप्त मिथ्यात्व के सर्वघाती ० वीर्यलब्धि-दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य, रसस्पर्धकों का क्षय तथा अनुदीर्ण (बंध आवलिका में बालवीर्य, पंडितवीर्य बालपंडितवीर्य । विद्यमान विवक्षित वर्तमान समय से आवलिका पर्यन्त जो दलिक उदय में आने योग्य नहीं हैं उन) दलिकों का ० इन्द्रियलब्धि-श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणे न्द्रिय, रसनेन्द्रिय, स्पर्शनेन्द्रिय । उपशम होता है और सम्यक्त्व मोहनीय का उदय चाल रहता है । ० श्रुतलब्धि -आचारांगधर यावत् दृष्टिवादधर, नवचारित्र मोहनीय के क्षयोपशम में उदय प्राप्त बारह पूर्वी, दसपूर्वी, चतुर्दशपूर्वी, गणी, वाचक । कषायों का क्षय, अनुदीर्ण दलिकों का उपशम तथा क्षयोपशम चार घातिकर्मों का संज्वलन कषाय और नोकषाय के देशघाति रसस्पर्धकों खओवसमे---चउण्हं घाइकम्माणं खओवसमे णंका यथासंभव उदय रहता है। देश चारित्र के क्षयोपशम नाणावरणिज्जस्स दंसणावरणिज्जस्स मोहणिज्जस्स में अनन्तानुबंधी और अप्रत्याख्यान कषाय के उदय का अंतरायस्स खओवसमे णं । (अनु २८४) Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देशघाति-सर्वघाति प्रकृतियां : एक स्थानक... ४८३ भाव ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और नकः । त्रयाणां कर्षाणामावर्त्तने कृते सति एकः कर्षोऽअंतराय-इन चार घातिकर्मों का क्षयोपशम होता है। वशिष्ट: त्रिस्थानकः । चतुण्ाँ कर्षणामावर्त्तने कृते सति (घातिकर्म की प्रकृतियां दो तरह की होती हैं---- उद्धरति य एक: कर्षः स चतु:स्थानकः । एकस्थानकोऽपि सर्वघाति और देशघाति । च रसो जललवबिन्दुचुलुकाईचुलुकप्रसृत्यञ्जलिकरकसर्वघाति-केवलज्ञानावरण, केवलदर्शनावरण, कुम्भद्रोणादिप्रक्षेपात् मन्दमन्दतरादिबहुभेदत्वं प्रतिपद्यते, पांच निद्रा, बारह कषाय, मिथ्यात्व । एवं द्विस्थानकादयोऽपि, एवं कर्मणामपि चतुःस्थानकादयो देशघाति -चार ज्ञानावरण, तीन दर्शनावरण. रसा भावनीयाः। (नन्दीमव प ७७,७८) संज्वलन क्रोध-मान-माया-लोभ, नोकषाय, पांच केवलज्ञानावरणीय आदि सर्वघाति प्रकृतियों के अन्तराय । --- कर्मग्रन्थ भाग ५ गाथा १३,१४ । रसस्पर्धक भी सर्वघाति होते हैं। देशघाति प्रकृतियों के इनके आधार पर क्षयोपशम के भी दो प्रकार बन रसस्पर्धक देशघाति भी होते हैं और सर्वघाति भी । जाते हैं चतु:स्थानक, त्रिस्थानक रस वाले स्पर्धक सर्वघाति होते १. देशघाति कर्मप्रकृतियों का क्षयोपशम । हैं। द्विस्थानक रस वाले स्पर्धक देशघाति और सर्वघाति २. सर्वघाति कर्मप्रकतियों का क्षयोपशम । दोनों होते हैं। एकस्थानक रस वाले स्पर्धक देशघाति ही देशघाति कर्मप्रकतियों के क्षयोपशम काल में संबद्ध होते हैं । इस प्रकार रसविपाकी प्रकृतियों के चार प्रकार प्रकति का मंद विपाकोदय रहता है। मंद विपाक अपने १. एकस्थानक रस आवार्य गुण के विकास को रोक नहीं सकता । इस ३. त्रिस्थानक रस अवस्था में सर्वधाति रस वाला कोई भी दलिक उदय में २. द्विस्थानक रस ४. चतुःस्थानक रस । नहीं रहता। शुभ प्रकतियों का रस क्षीर और खांड जैसा तथा अशुभ प्रकृतियों का रस घोषातकी (चिरायता) और सर्वघाती कर्मप्रकतियों के क्षयोपशम-काल में विपा नीम जैसा होता है। कोदय सर्वथा नहीं रहता, केवल प्रदेशोदय रहता है। केवलज्ञानावरण व केवलदर्शनावरण-इन दो सर्व क्षीर आदि का जो स्वाभाविक रस होता है, वह एकस्थानक रस कहलाता है। दो कर्ष (तोला) क्षीर को घाति कर्मप्रकृतियों का क्षयोपशम नहीं होता। आवर्तित करने (उबालने) पर जो एक कर्ष अवशिष्ट शुभ अध्यवसाय, शुभ लेश्या और शुभ योग के द्वारा रहता है, वह द्विस्थानक रस है। तीन कर्षों को आवर्तित । कर्मप्रकतियों के तीव्र विपाकोदय को मंद विपाकोदय में करने पर जो एक कर्ष बचता है, वह त्रिस्थानक रस है। और विपाकोदय को प्रदेशोदय में बदलने की प्रक्रिया चालू चार कर्षों को आवर्तित करने पर जो एक कर्ष बचता है, रहती है। औदयिक भाव और क्षायोपशमिक भाव का वह चतुःस्थानक रस है। एकस्थानक आदि रस अंजलि, संघर्ष निरन्तर चलता है । देखें- अनुयोगद्वार सूत्र करक, कुम्भ, द्रोण आदि में प्रक्षिप्त करने पर मंद, २७१-२८७ का टिप्पण) मंदतर आदि अनेक भेदों में विभक्त हो जाते हैं। इसी १. देशघाति-सर्वघाति प्रकृतियां : एक स्थानक प्रकार कर्मों के एकस्थानक आदि रस ज्ञातव्य हैं। ये आदि रस रस उत्तरोत्तर अनंतगुणा शक्ति वाले हैं। केवलज्ञानावरणीयादिरूपाणां सर्वघातिनीनां प्रकृतीनां जो घाएइ सविसयं सयलं सो होइ सव्वघाइरसो । सर्वाण्यपि रसस्पर्द्धकानि सर्वघातीनि, देशघातिनीनां पुनः सो निच्छिद्दो निद्धो तणुओ फलिहब्भहरविमलो॥ कानिचित् सर्वघातीनि कानिचिद्देशघातीनि " देसविघाइत्तणओ इयरो कडकंबलंसूसंकासो। चउतिद्वाणरसाणि य सव्वघाईणि होति फड्डाणि । विविहच्छिददहभरिओ अप्पसिणेहो अविमलो अ॥ ट्राणियाणि मीसाणि देसघाईणि सेसाणि ॥ (नन्दीमवृ प ७९) घोसाडइनिबुवमो असुभाण सुभाण खीरखंडुवमो । सर्वधाति प्रकतियों का रस यद्यपि ताम्रभाजन के क्षीरादिरसश्च स्वाभाविक एकस्थानकः। द्वयोस्तु कर्षयो- समान निश्छिद्र, घृत की तरह अति स्निग्ध, द्राक्षा की रावर्त्तने कृते सति योऽवशिष्यते एकः कर्षकः स द्विस्था- तरह तनुप्रदेश से उपचित, स्फटिक और अभ्रक की Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव ४८४ कर्म और चतुःस्थानक आदि बंध तरह अत्यन्त निर्मल होता है, किन्तु सम्पूर्ण गुणों का घात बन्धमेव नायान्ति, कुतः?, तस्यामवस्थायां तद्गतरसकरने से सर्वघाति कहलाता है। स्थानकचिन्तायामपि नरकगतिप्रायोग्यं बध्नतोऽतिसङ्-ि देशघाति प्रकतियों का रस यद्यपि सैकड़ों छिद्रों से क्लष्टस्यापि वैक्रियतैजसादिकाः प्रकृतयो बन्धमायान्ति, युक्त चटाई के समान, सूक्ष्म छिद्रों वाले कंबल के समान, तासामपि स्वभावतो द्विस्थानकरसस्यैव बन्धो नैकस्थाअल्प स्नेह वाला और अविशुद्ध होता है किन्तु एक देश नस्य, ततः शभप्रकतीनां व्यत्यासयोजना द्विस्थानकरसका घात करने के कारण देशघाति कहलाता है। बन्धादारभ्य कर्तव्या। (नन्दीमव प ७८) अघातिनीनां तु रसस्पर्द्ध कानि स्वरूपेण न सर्व पर्वत की रेखा के सदृश अनन्तानुबन्धी क्रोधप्रकृति घातीनि नापि देशघातीनि, केवलं सर्वघातिरसस्पर्द्धक का चतुःस्थानक बन्ध होता है। भूमि की रेखा के सदश संघर्षतः सर्वघातिरससदृशानि भवन्ति, यथा स्वयमचौरा अप्रत्याख्यानावरण क्रोधप्रकृति का त्रिस्थानक बंध होता इति चौरसम्पर्कत: चौरप्रतिभासाः । (नन्दीमवृ प ७९) है। बाल की रेखा के सदश प्रत्याख्यानावरण क्रोध अघाति प्रकृतियों के रसस्पर्धक सर्वघाति और देश प्रकृति का द्विस्थानक बंध होता है। जल की रेखा के घाति दोनों प्रकार के नहीं होते । किन्तु ये सर्वघाति सदृश संज्वलन क्रोधप्रकृति का एक स्थानक बन्ध होता है। रसस्पर्धक के संघर्षण से सर्वधातिरस के सदृश हो जाते हैं, शुभ प्रकृतियों का बन्ध इसके विपरीत होता है। जैसे-चोरी नहीं करने वाला चोर के सम्पर्क से चोर अत्यन्त विशुद्ध अवस्था में चतुःस्थानक तथा मंद और दिखाई देता है। मन्दतर विशद्धि में क्रमशः त्रिस्थानक और द्विस्थानक सर्वघाति रसस्पर्धक देशघाति में परिणत बन्ध होता है। अत्यन्त संक्लिष्ट परिणाम में भी एकदेशघातिनीनां मतिज्ञानावरणीयादिकर्मप्रकृतीनां । स्थानकरस वाली शुभ प्रकति का बन्ध नहीं होता। सर्वघातीनि रसस्पर्द्धकानि अध्यवसायविशेषतो देश- यथा-नरकगतिप्रायोग्य बन्ध करता हुआ जीव उन घातीनि कत्त" शक्यन्ते, ते पुदगला: केवलज्ञानकेवल- संक्लिष्ट परिणामों में वैक्रिय और तैजस प्रकति का भी दर्शनावरणयोर्योग्या ये द्विस्थानकरसपरिणता अपि न बन्ध करता है किन्तु वे प्रकृतियां भी द्विस्थानकरस देशघातिनो भवन्ति, नापि तेषां विपाकोदयनिरोधसम्भवः, वाली होती हैं, एकस्थानकरस वाली नहीं । अतः शुभ शेषाणां तु सर्वघातिप्रकृतीनां रसस्पर्द्ध कानि भवन्त्येवाध्य- प्रकतियों के बन्ध का प्रारम्भ द्विस्थानक से ही होता है, वसायविशेषतो विपाकोदयविष्कम्भभाजि। एक स्थानक से नहीं। (नन्दीमवृ ७९-८०) द्विधा घातिन्योऽशुभप्रकृतयः, तद्यथा-सर्वघातिन्यो मतिज्ञान आदि देशघाति प्रकृतियों के सर्वघाति देशघातिन्यश्च । तत्र याः सर्वघातिन्यः तासां जघन्यरसस्पर्धक अध्यवसाय विशेष से देशघाति में परिणत हो पदेऽपि द्विस्थानक एव रसो बन्धमायाति, नकस्थानकः, सकते हैं किन्तु केवलज्ञान और केवलदर्शन के आवारक तथास्वाभाव्यात् । तथाहि-क्षपक श्रेण्यारोहेऽपि सूक्ष्मपुद्गल द्विस्थानकरस वाले होने पर भी अध्यवसाय सम्परायगुणस्थानकचरमसमयेऽपि वर्तमानस्य केवलज्ञानाविशेष से देशघाति नहीं हो सकते और न विपाकोदय में वरणकेवलदर्शनावरणयोः रसबन्धो द्विस्थानक एवेति, उनका निरोध ही संभव है। शेष सर्वघाति प्रकृतियों के नकस्थानकः । यास्तु देशघातिन्यः तासां श्रेण्यारोहाभावे सर्वघाति रसस्पर्धक अध्यवसाय विशेष से देशघाति हो बन्धमागतानां नियमात् सर्वघातिनमेव रसं बध्नाति... सकते हैं और तब विपाकोदय का निरोध भी संभव है। श्रेण्यारोहे त्वनिवृत्तिबादरसम्परायगुणस्थानकाद्धायाः कर्म और चतुःस्थानक आदिबंध। संख्येयेषु भागेषु गतेषु सत्सु तत ऊर्ध्वमेकस्थानकरसपव्वयभूमीवालुयजलरेहासरिस संपराएसं । बन्धसम्भवः ।.. चउठाणाई असुभाण सेसयाणं तु वच्चासो ।। आवरणमसव्वग्धं पुंसंजलणंतरायपयडीओ। अत्यन्त विशुद्धौ वर्तमान : शुभप्रकृतीनां चतुःस्थानक- चउठाणपरिणयाओ दुतिचउठाणाउ सेसाओ ।। मेव रसं बध्नाति, ततो मन्दमन्दतरविशुद्धौ त्रिस्थानक (नन्दीमवृ ७८,७९) द्विस्थानकं वा, सङ्क्लेशाद्धायां तु वर्तमानस्य शुभप्रकृतयो अशभ घातिकर्मों की प्रकृतियों के दो प्रकार हैं Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सान्निपातिक भाव सर्वघाति और देशघाति । सर्वघाति प्रकृतियों का जघन्यतः भी द्विस्थानक रस बंध होता है, एक स्थानक रसबंध नहीं होता । क्षपकश्रेणि-आरोहण में भी सूक्ष्मसम्परायगुणस्थान के चरम समय में भी केवलज्ञानावरण केवलदर्शनावरण का रसबंध द्विस्थानक ही होता है, एकस्थानक नहीं । ४८५ देशघाति प्रकृतियों का रसबंध श्रेणिआरोहण से पूर्व द्विस्थानक आदि ही होता है । श्रेणिआरोहण के समय अनिवृत्तिबादर गुणस्थान के संख्यात भाग बीत जाने पर सतरह प्रकृतियों का एकस्थानक रसबंध सम्भव है । सतरह प्रकृतियां ये हैं- ज्ञानावरण की प्रथम चार, दर्शनावरण की प्रथम तीन पुरुषवेद, संज्वलनकषायचतुष्क और अंतराय कर्म की पांच प्रकृतियां । शेष अशुभ प्रकृतियों का इस गुणस्थान में बंध ही नहीं होता । उपशम और क्षयोपशम में अन्तर तथा सो चेव नणूवसमो उइए खीणम्मि सेसए समिए । सुहुमोदयता मीसे न तूवसमिए विसेसोऽयं ॥ वेएइ संतकम्मं खओवसमिएसु नाणुभाव सो । उवसंतकसाओ पुण वेएइ न संतकम्मं पि ॥ (विभा १२९२, १२९३ ) उपशम में उदय प्राप्त कषाय क्षीण हो जाता शेष कषाय का अनुदय रहता है । क्षयोपशम में क्षय और उपशम होने पर भी सूक्ष्म उदय यानी प्रदेशोदय चालू रहता है । उपशम में विद्यमान कर्म का वेदन नहीं होता । क्षयोपशम में विद्यमान कर्म का प्रदेशोदय में वेदन होता है, विपाकोदय में वेदन नहीं होता है । १२. पारिणामिक भाव की परिभाषा परि समंता णामो जं जं जीवं पोग्गलादियं दव्वं जं जं अवत्थं पावति तं अपरिचत्तसरूवमेव तथा परिणमति सा किरिया परिणामितो भावो भण्णति । ( अनुचू पृ ४४) परि का अर्थ है चारों ओर । नाम का अर्थ हैजीव, पुद्गल आदि की विभिन्न अवस्थाओं में परिणति । अपने स्वरूप को छोड़े बिना जो परिणमन होता है, वह पारिणामिक भाव है । परीति - सर्वप्रकारं नमनं जीवानामजीवानां च भाव जीवत्वादिस्वरूपानुभवनं प्रति प्रह्वीभवनं परिणामः । ( उशावृप ३३ ) जीव और अजीव का अपने स्वरूप के अनुभव में (परिणमन में) पूर्णतः संलग्न होना परिणाम है। उससे होने वाली अवस्था पारिणामिक भाव है । १३. पारिणामिक भाव के प्रकार पारिणामिए दुविहे पण्णत्ते, तं जहा - साइपारिणामिए य अणाइपारिणामिए य । ( अनु २८६ ) पारिणामिक भाव के दो प्रकार हैं - सादिपारिणामिक और अनादि पारिणामिक | सादि पारिणामिक साइपारिणामिए अणेगविहे पण्णत्ते, तं जहा - जुणसुरा जुण्णगुलो, जुण्णघयं जुण्णतंदुला चेव । अब्भा य अब्भरुक्खा, संझा गंधव्वनगरा य ॥ उक्कावायादिसादागज्जियं विज्जू निग्धाया जूवया जक्खालित्ता धर्मिया । ( अनु २८७ ) सादि पारिणामिक के अनेक प्रकार हैं, जैसेजीर्ण सुरा, जीर्ण गुड़, जीर्ण घी, जीर्ण चावल, अभ्र, अभ्रवृक्ष, संध्या, गन्धर्वनगर, उल्कापात, दिशादाह, गर्जन, विद्युत् निर्घात, यूपक, यक्षादीप्त, धूमिका आदि । अनादि पारिणामिक अणाइ पारिणामिए - धम्मत्थिकाए अधम्मत्थिकाए आगासत्थिकाए जीवत्थिकाए पोग्गलत्थिकाए अद्धासमए लोए अलोए भवसिद्धिया अभवसिद्धिया । ( अनु २८८ ) धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, अध्वासमय, लोकअलोक, भवसिद्धिक और अभवसिद्धिक- ये अनादिपारिणामिक भाव हैं । १४. सान्निपातिक भाव सन्निवाइए - एएसि चेव उदइय उवस मिय-खइयखओवसमिय- पारिणामियाणं तिगसंजोएणं चउक्कसंजोएणं सव्वे से सन्निवाइए नामे । भावाणं दुगसंजोए पंचगसंजोएणं जे निप्पज्जइ ( अनु २८९ ) औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक भावों में दो के संयोग से, तीन के संयोग से, चार के संयोग से और पांच के संयोग से जो भाव निष्पन्न होते हैं, वे सब सान्निपातिक भाव हैं । Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव ४८६ भावना का निर्वचन सन्निवादितो भावोऽन्यभावेन सह निपात्यत इति सम्मत्त-नाण-दसण-सिद्धत्ताई तु साइओऽणतो । संनिपातिकः। अविरोधेन वा द्विकादिनैकत्र मेलकः नाणं केवलवज्जं साई संतो खओवसमो।। सन्निपातकः। (अनुचू पृ४४) मइअन्नाणाईया भव्वाऽभव्वाण तइयचरमोऽयं । ० एक भाव का दूसरे भाव के साथ निपात-संयोग सम्वो पोग्गलधम्मो पढमो परिणामिओ होइ ।। सान्निपातिक भाव है। भव्वत्तं पुण तइओ जीवा-ऽभव्वाइं चरमभंगो उ । ० अविरोध रूप से दो, तीन, चार अथवा पांच भावों भावाणमयं कालो भावावस्थाणओऽणण्णो । का संयोग होना सन्निपात है । (विभा २०७७-२०८१) पांच भावों के चार विकल्प हैं१५. भाव : सादिसपर्यवसित आदि चार विकल्प १. सादि-सपर्यवसित ३. अनादि-सपर्यवसित जो नारगाइभावो तह मिच्छत्तादओ वि भव्वाणं । २. सादि-अपर्यवसित ४. अनादि-अपर्यवसित । ते चेवाभव्वाणं ओदइओ वितियवज्जोऽयं । कौन सा भाव किस विकल्प में समवतरित होता है, सम्मत्त-चरित्ताइं साई संतो य ओवसमिओऽयं । यो लिवदाणाइलद्धिपणगं चरण पि य खाइओ भावो ।। भावों के समवतार का यंत्र संख्या) विकल्प । औदयिक औपशमिक क्षायिक क्षायोपशमिक | पारिणामिक सादि नारक आदि भव | औपशमिक | क्षायिक चारित्र, प्रथम चार पुद्गल में | सपर्यवसित सम्यक्त्व, दान आदि पांच लब्धियां ज्ञान यणुक आदि औपशमिक (भवस्थ केवली की चारित्र अपेक्षा) सादि क्षायिक सम्यक्त्व, केवलअपर्यवसित ज्ञान, केवलदर्शन, सिद्धत्व अनादि कषाय, तीन वेद, मति-श्रुत अज्ञान भव्यत्व | सपर्यवसित | अज्ञान, असंयत, (भव्य जीवों असिद्धत्व, लेश्या की अपेक्षा) (भव्य जीवों की अपेक्षा) अनादि कषाय, तीन वेद, मति-श्रुत अज्ञान जीवत्व, अपर्यवसित अज्ञान, असंयत, (अभव्य जीवों अभव्यत्व असिद्धत्व, लेश्या की अपेक्षा) (अभव्य जीवों की अपेक्षा) भावना -पुनः पुनः अभ्यास । विविध संकल्पों से १. भावना का निर्वचन मन को भावित/वासित करना । भाव्यते-आत्मसान्नीयतेऽनयाऽऽत्मेति भावना। (उशाव प ७१०) १. भावना का निर्वचन भाव्यत इति भावना ध्यानाभ्यासक्रियेत्यर्थः । २. ज्ञान आदि भावनाएं (आवहाव २ प ६२) ३. कान्दपी आदि भावनाएं जो आत्मा को भावित करती है, आत्मसात् करती * अनित्य आदि भावनाएं (द्र० अनुप्रेक्षा) है, वह भावना है। * पच्चीस भावनाएं (द्र० महाव्रत) ध्यान के योग्य चेतना का निर्माण करने वाली ध्यान के अभ्यास की क्रिया का नाम है भावना । Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कान्दी आदि भावनाएं ४८७ भावना २. ज्ञान आदि भावनाएं एवं नाणेण चरणेण, दंसणेण तवेण य । पुव्वकयब्भासो भावणाहिं झाणस्स जोग्गयमुवेइ । भावणाहि य सुद्धाहिं, सम्म भावेत्तु अप्पयं ।। ताओ य नाणदंसणचरित्तवेरग्गजणियाओ ।। (उ १९१९४) (आवहाव २ पृ ६७) इस प्रकार ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और विशुद्ध जिसने भावनाओं के माध्यम से ध्यान का पहले भावनाओं के द्वारा आत्मा को भलीभांति भावित करो। अभ्यास किया है, वह ध्यान करने की योग्यता प्राप्त कर या है, वह ध्यान करन का याग्यता प्राप्त कर ३.कान्दी आदि लेता है। भावनाएं चार हैं - कंदप्पमाभिओगं, किब्बिसियं मोहमासुरत्तं च । १. ज्ञान भावना, २. दर्शन भावना, ३. चारित्र भावना, ४. वैराग्य भावना। एयाओ दुग्गईओ, मरणम्मि विराहिया होति ।। (उ ३६।२५६) णाणे निच्चब्भासो कुणइ मणोधारणं विसुद्धि च । कांदी, आभियोगी, किल्विषिकी, मोही तथा आसुरी नाणगुणमुणियसारो तो झाइ सुनिच्चलमईओ ।। -----ये पांच भावनाएं दुर्गति की हेतुभूत हैं। मृत्यु के संकाइदोसरहिओ पसमथेज्जाइगुणगणोवेओ । समय ये सम्यग्दर्शन आदि की विराधना करती हैं। होइ असंमूढमणो दंसणसुद्धीए झाणं मि ।। कान्दी भावना नवकम्माणायाणं पोराणविणिज्जरं सुभायाणं । कंदप्पकोक्कुइयाइं तह, सीलसहावहासविगहाहिं । चारित्तभावणाए झाणमयत्तेण य समेइ ।। विम्हावेंतो य परं, कंदप्पं भावणं कुणइ ।। सुविदियजगस्सभावो निस्संगो निब्भओ निरासो य । (उ ३६।२६३) वेरग्गभावियमणो झाणंमि सूनिच्चलो होइ॥ जो कामकथा करता रहता है, दूसरों को हंसाने की (आवहावृ २ पृ. ६७,६८) चेष्टा करता रहता है, शील, स्वभाव, हास्य और ज्ञान भावना-जो ज्ञान का नित्य अभ्यास करता है, ज्ञान विकथाओं के द्वारा दूसरों को विस्मित करता रहता है, में मन स्थिर करता है, सूत्र और अर्थ की वह कांदपी भावना का आचरण करता है। विशुद्धि रखता है, ज्ञान के माहात्म्य से आभियोगी भावना परमार्थ को जान लेता है, वह सुस्थिर चित्त मंताजोगं काउं, भूईकम्मं च जे पति । से ध्यान कर सकता है। सायरसइढिहेउं, अभिओगं भावणं कूणइ ।। दर्शन भावना-जो अपने को शंका आदि दोषों से रहित, (उ ३६।२६४) प्रशम, स्थैर्य आदि गुणों से सहित कर जो सुख, रस और समृद्धि के लिए मंत्र, योग और लेता है, वह दर्शनशुद्धि (दृष्टि की समी भूति-कर्म का प्रयोग करता है, वह आभियोगी भावना चीनता) के कारण ध्यान में अभ्रान्त का आचरण करता है। चित्त वाला हो जाता है। भूत्या-भस्मनोपलक्षणत्वान्मृदा सूत्रेण वा कर्मचारित्र भावना--- नए कर्मों का अग्रहण, पुराने बंधे हुए रक्षार्थ वसत्यादेः परिवेष्टनं भूतिकर्म । कर्मों का निर्जरण और शुभकर्मों का (उशावृ प ७१०) ग्रहण-इस चारित्र भावना से बिना भूति का अर्थ है-राख, मिट्टी अथवा धागा । प्रयत्न किए भी ध्यानावस्था प्राप्त हो मकान, शरीर, भंडोपकरण आदि की रक्षा के लिए जाती है। राख, मिट्री अथवा धागे के द्वारा उनका परिवेष्टन वैराग्य भावना-जो जगत् के स्वभाव को जानता है, करना भूति-कर्म कहलाता है। निस्संग (अनासक्त) है, अभय और किल्विषिकी भावना आशंसा से विप्रमुक्त है, वह वैराग्य नाणस्स केवलीणं, धम्मायरियस्स संघसाहणं । भावना से भावित मन वाला होता है। माई अवण्णवाई, किब्बिसियं भावणं कूणइ ॥ वह ध्यान में सहज ही निश्चल हो (उ ३६।२६५) जाता है। जो ज्ञान, केवलज्ञानी, धर्माचार्य, संघ तथा साधुओं Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा ४८८ द्रव्यभाषा-भावभाषा की निन्दा करता है, वह मायावी पुरुष किल्बिषिकी | ५. शब्दश्रवण की प्रक्रिया भावना का आचरण करता है । ६. भाषाद्रव्य की तीव्रतम गति आसुरी भावना ७. भाषाद्रव्य की लोक में व्याप्त होने की प्रक्रिया अणुबद्धरोसपसरो, तह य निमित्तंमि होइ पडिसेवि । । ८. अवगाहना वर्गणा एएहि कारणेहिं, आसुरिय भावणं कुणइ ।। । ९. भावभाषा के प्रकार (उ ३६।२६६) १०. द्रव्यभावभाषा के प्रकार जो क्रोध को सतत बढ़ावा देता रहता है और ० सत्यभाषा के प्रकार निमित्त कहता है, वह अपनी इन प्रवृत्तियों के कारण ० मृषाभाषा के प्रकार आसुरी भावना का आचरण करता है। ० मिश्रभाषा के प्रकार मोही भावना ० व्यवहार भाषा के प्रकार सत्थग्गहणं विसभक्खणं च जलणं च जलप्पवेसोय।। ११. श्रुतभाव भाषा अणायारभण्डसेवा, जम्मणमरणाणि बंधति ॥ १२. चारित्रमाव भाषा १९ (उ ३६।२६७) १३. भाषा के दो प्रकार जो शस्त्र के द्वारा, विष भक्षण के द्वारा, अग्नि में * वचन के सोलह अंग (द्र. अनुयोग) प्रविष्ट होकर या पानी में कूदकर आत्म-हत्या करता * अक्षरश्रुत : श्रुतज्ञान का एक भेव (. श्रुतज्ञान) है और जो मर्यादा से अधिक उपकरण रखता है, वह १. भाषा की परिभाषा जन्म-मरण की परम्परा को पुष्ट करता है-मोही भाष्यत इति भाषा-वाकशब्दरूपतया उत्सृज्यमाना भावना का आचरण करता है। (मूलाराधना (३।१७९-१८४) तथा प्रवचनसारोद्धार द्रव्यसन्ततिः । सा च वर्णात्मिका भेरीभाड्रारादिरूपा वा (गाथा ६४१-६४६) में भी इन संक्लिष्ट भावनाओं की द्रष्टव्या। (नन्दीमवृ प १८६) जो बोली जाती है, वह भाषा है। भाषावर्गणा के चर्चा है, जो उत्तराध्ययन से पूर्णतः प्रभावित हैं।) पुद्गलद्रव्य का ग्रहण और परिणमन के बाद वाणीभावितात्मा-विशिष्ट साधना संपन्न अनगार । शब्द के रूप में उत्सर्जन किया जाता है, तब भाषा सम्म{सणेण बहुविहेहि य तवोजोगेहि अणिच्चयादि- बनती है। वह वर्णात्मक होती है अथवा वह भेरी आदि भावणाहि य भावितप्पा। (दअचू पृ २५६) के भांकार रूप होती है। सम्यक् दर्शन, बहुविध तपोयोग और अनित्य आदि पर्याय भावनाओं से जिसकी आत्मा भावित/वासित होती है, वक्कं वयणं च गिरा सरस्सती भारतीय गो वाणी। वह भावितात्मा कहलाता है। भाषा पण्णवणी देसणी य वइजोग जोगे य॥ भाषा-ध्वन्यात्मक और शब्दात्मक प्रयोग । (दनि १७२) भावों की अभिव्यक्ति का माध्यम । वाक्य, वचन, गिरा, सरस्वती, भारती, गो, वाणी, भाषा, प्रज्ञापनी, देशनी, वाक्योग और योग-ये भाषा १. भाषा की परिभाषा के पर्याय हैं। __पर्याय २. द्रव्यभाषा-भावभाषा २. द्रव्यभाषा-भावभाषा ..."दव्वं तु भासदव्वाइं। भावे भासासहो'" ।। __ * भाषा : अगुरुलघु द्रव्यवर्गणा (द्र. वर्गणा) दव्ववक्कं वक्कजोग्गा दवा। ताणि चेव वक्कभाव३. द्रव्य भाषा के प्रकार परिणामिताणि निगिरिज्जमाणाणि तं भावं भावयंतीति ४. भाषाद्रव्य का ग्रहण-निसर्ग और काययोग भाववक्कं । "परावबोधायिकयाभिप्पायस्स सयमवधा• भाषा के ग्रहण-निसर्ग का कालमान रितत्थस्स वेदणादिव परं गमं अप्पसवित्तिरूवं वयणपणि• ग्रहण-निसर्ग के क्षण का भेद धाणं भावभासा। (दनि १७१ अचू पृ १५९) Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा द्रव्य का ग्रहण" ari वागुच्च वाण त्ति वायत्ति दव्वओ साय । तज्जोग्गपोग्गला जे गहिया तप्परिणया भावो || ४८९ ( विभा ३५२६) भाषा रूप में जो भावों को भाषा के योग्य द्रव्य द्रव्यवाक्य हैं। परिणत, बोले जाते हुए भाषा के द्रव्य, प्रकट करते हैं, वे भाववाक्य हैं। जैसे वेदना की अनुभूति स्वयं को और पर को होती है वैसे ही जिस वचनप्रणिधान से व्यक्ति स्वयं अर्थ का अवधारण करता है, फिर दूसरे को अर्थबोध कराता है, वह भावभाषा है । ३. द्रव्य भाषा के प्रकार God तिविधा गहणे य णिसिरणे तह भवे पराघाते । वइजोगपरिणतस्स अप्पणो गहणसमए भासादव्वोपादाणं गहणं । तेसिं चेव उर-कंठ-सिर- जिब्भा मूल-तालुणासिका-दसणोट्ठेसु जहाथाणसम्मुच्छिताणं विसज्जणं निसिरणं । निट्ठेिहि विघट्टिताणं तप्पाजोग्गाण दव्वाण भासापरिणती पराघातो । (दनि ९७३ अचू पृ १५९) द्रव्यभाषा के तीन प्रकार हैं१. ग्रहण - वचनयोग में परिणत आत्मा के द्वारा ग्रहणकाल में भाषाद्रव्य का उपादान / ग्रहण | २. निस्सरण -उर, कंठ, सिर, जिह्वामूल, तालु, नासिका, दांत और ओष्ठ पर यथास्थान सम्मूच्छित भाषा द्रव्यों का विसर्जन । ३. पराघात - निःसृष्ट द्रव्यों के द्वारा विघट्टित भाषा द्रव्यों की भाषापरिणति । ४. भाषा द्रव्य का ग्रहण- निसर्ग और काययोग frogs य काइए, निस्सरइ तह वाइएण जोगेणं । भासालद्धीओ जीवो भासा गहणपा उग्गाणि दव्वाणि कायजोगेण घेत्तूण भासत्ताए परिणामेउं वयजोगेण णिसिरति भासइति । ( आवनि ७ चू १ पृ १५ ) भाषालब्धि से सम्पन्न जीव काययोग से भाषा के प्रायोग्य शब्दद्रव्यों को ग्रहण करता है, उन्हें भाषा रूप में परिणत कर वचनयोग से छोड़ता है । तिविहमि सरीरंमि जीवपएसा हवंति जीवस्स । जेहि उ गिण्हइ गहणं तो भासइ भासओ भासं ॥ ओरालियवेउब्वियआहारो गिण्हइ मुयइ भासं ।''''' ( आवनि ८, ९ ) औदारिक, वैक्रिय और आहारक- ये तीन शरीर भाषा ऐसे हैं, जिनमें जीव के प्रदेश व्याप्त होते हैं, जिनसे भाषाद्रव्यों को ग्रहण किया जाता है, उसके आधार पर वक्ता बोलता है। बोलने के समय वे भाषा के रूप में परिणत हो जाते हैं और फिर उनका निसर्जन होता है । भाषा के ग्रहण निसर्ग का कालमान गहणं मोक्खो भासा समयं गह-निसिरणं च दो समया । होंति जहणंतरओ तं तस्स च बीयसमयंमि ॥ गहणं मोक्खो भासा गहण - विसग्गा य होंति उक्कोसं । अंतमुत्तमेत्तं पयत्तभेएण भेयो सिं ॥ ( विभा ३७१, ३७२ ) भाषाद्रव्य का ग्रहण एक समय में होता है । उसका निसर्ग भी एक समय में होता है । इस प्रकार भाषाद्रव्य के ग्रहण - निसर्ग का जघन्य काल दो समय है । भाषाद्रव्य के ग्रहण निसर्ग का उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। इनमें यह भेद वक्ता के प्रयत्न-भेद से होता है । ..... एगंतरं च गिण्हइ निसिरइ एगंतरं चेव || अंतोमुहुत्तस्स समया असंखेज्जा णायव्वा । तेसु एक्कंतरं गेहति णिसिरति य । जो भासतो णो उवरमति सो जंमि समए णिस्सरति तंमि चेव समए भासं भासतो अण्णाणि भासाव्वाणि पुणो गेण्हति । घेत्तूण य तइए समए णिसिरति । ताणि य बितियसमयगहिताणि तइए समए णिसिरमाणो अण्णाणि भासादव्वाणि पुणो गेहति, ताणि उत्थे णिसिरति । एवं एगंतरं गेव्हंतस्स एगंतरं णिस्सिरतस्स य अब्भं तरेसु मुहुत्तस्स असंखेज्जा समया भवंति । ( आवनि ७ चू १ पृ १५ ) अन्तर्मुहूर्त के असंख्येय समय होते हैं । उनमें भाषाद्रव्यों का प्रतिसमय ग्रहण और प्रतिसमय निसर्जन होता है । जो वक्ता विराम नहीं लेता है, वह जिस क्षण निसर्जन करता है, उसी क्षण अन्य भाषाद्रव्यों का पुनः ग्रहण करता है । दूसरे समय में गृहीत द्रव्यों का तीसरे समय में निसर्जन करता हुआ अन्य भाषाद्रव्यों का पुनः ग्रहण करता है तथा चतुर्थ समय में उनका निसर्जन करता है । इस प्रकार प्रतिक्षण ग्रहण और निसर्जन के अन्तरालवर्ती क्षणों में मुहूर्त्त के असंख्येय समय होते हैं । ग्रहण- निसर्ग के क्षण का भेद गहणावेक्खइ तओ निरन्तरं जम्मि जाई गहियाई । न वितम्मि चेव निसिरइ जह पढमे निसिरणं नत्थि ॥ ( विभा ३६९ ) Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९० एकेन - आद्येन समयेन गृह्णाति न तु निसृजति । द्वितीयसमयादारभ्य निसर्गस्य प्रवृत्तेः प्रथमसमये पूर्वगृहीतद्रव्यासम्भवात् तथा एकेन पर्यन्तवर्त्तिना समयेन निसृजति -- निसृजत्येव न तु गृह्णाति भाषणादुपरमात् । अपान्तरालवत्तिषु समयेषु ग्रहण निसर्गी । स्थापना - भाषा · ग्र ग्र ग्र ग्र ग्र o नि नि नि नि नि o ( आवमवृप ३३, ३४) जीव प्रथम समय में भाषावर्गणा के पुद्गल ग्रहण करता है, निसर्जन नहीं करता । निसर्जन दूसरे समय में प्रारम्भ होता है, क्योंकि प्रथम समय में पूर्वगृहीत भाषाद्रव्य नहीं होते। जिस क्षण वक्ता विराम लेता है, उस अंतिम क्षण में भाषाद्रव्यों का केवल निसर्जन होता है, ग्रहण नहीं होता । अन्तरालवर्ती क्षणों में ग्रहण और निसर्ग दोनों होते हैं । ५. शब्द-श्रवण की प्रक्रिया भासासमसेढीओ, सद्दं जं सुणइ मीसयं सुणइ । वढी पुस, सुणेइ नियमा पराधाए ॥ ( नन्दी ५४|५ ) जो श्रोता वक्ता की समश्रेणी में स्थित है, वह मिश्रित शब्द सुनता है । विषमश्रेणी में स्थित श्रोता नियमतः भाषाद्रव्यों से वासित शब्दों को सुनता है । argharaणाओ पडघायाभावओऽनिमित्ताओ । समयं तराणवत्थाणओ य मुक्काई न सुणेइ ॥ ( विभा ३५४ ) १. वक्ता द्वारा मुक्त भाषाद्रव्यों की गति अनुश्रेणी में होती है । २. वे सूक्ष्म होते हैं, इसलिए उनके प्रतिघात का कोई निमित्त नहीं बनता । ३. भाषा के द्रव्य प्रथम समय में समश्रेणी में ही जाते हैं । द्वितीय समय में उनके द्वारा वासित द्रव्य विषमश्रेणी में जाते हैं। इसका तात्पर्य है कि एक समय के पश्चात् वे मूल रूप में अवस्थित नहीं रहते । इन तीन कारणों से विषमश्रेणी में स्थित श्रोता वक्ता द्वारा मुक्त शब्दों को नहीं सुनता। वह केवल मुक्त शब्द से वासित शब्द को ही सुनता है । भाषाद्रव्य की लोक में .... ६. भाषा द्रव्य की तीव्रतम गति सेढी पएसपंती वदतो सव्वस्स छद्दिस ताओ । जासु विमुक्का धावइ भासा समयम्मि पढमम्मि || ( विभा ३५२ ) श्रेणयो नाम क्षेत्र प्रदेशपंक्तयोऽभिधीयन्ते । ताश्च सर्वस्यैव भाषमाणस्य षट्सु दिक्षु विद्यन्ते । यासूत्सृष्टा सती भाषा प्रथमसमय एव लोकान्तमनुधावति । ( नन्दीमवृ ११८६ ) आकाश की प्रदेश पंक्ति को श्रेणि कहते हैं । वे श्रेणियां सब वक्ताओं के छहों दिशाओं (पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊर्ध्व और अधः ) में होती हैं । उनमें उत्सृष्ट भाषाद्रव्य प्रथम समय में ही लोकान्त तक चले जाते हैं । ७. भाषाद्रव्य की लोक में व्याप्त होने की प्रक्रिया चउहि समएहि लोगो, भासइ निरंतरं तु होइ फुडो । लोगस्स य चरमंते, चरमंतो होइ भासाए || ( आवनि ११ ) चार समय में भाषाद्रव्य पूरे लोक में व्याप्त हो जाते हैं । लोक का अंतिम छोर भाषाद्रव्यों की व्याप्ति का अंतिम छोर है । कोइ मंदपयत्तो निसिरइ सयलाई सव्वदव्वाइं । अन्नो तिव्वपयत्तो सो मुंचइ भिदिउं ताई || गंतुमसंखेज्जाओ अवगाहणवग्गणा अभिन्नाई । भिज्जति धंसमिति य संखेज्जे जोअणे गंतुं ॥ भिन्नाई सुहुमयाए अनंतगुणवड्ढिआई लोगंतं । पावंति पूरयंति य भासाए निरंतरं लोगं ॥ (विभा ३५० - ३८२ ) मन्द प्रयत्न वाला वक्ता सब भाषा द्रव्यों का सकल ( अभिन्न) रूप में निसर्जन करता है । वे मन्द प्रयत्न से निसृष्ट भाषाद्रव्य असंख्येय अवगाहना वर्गणा तक जाकर भिन्न - खंडित हो जाते हैं । संख्येय योजन तक जाकर वे ध्वस्त हो जाते हैं - भाषारूप को छोड़ देते हैं । तीव्र प्रयत्न वाला वक्ता भाषाद्रव्यों का भेद -- विस्फोट कर उनका निसर्जन करता है । वे सूक्ष्मत्व और अनन्त गुण वृद्धि के कारण लोकान्त तक चले जाते हैं । उनके आघात से प्रभावित भाषाद्रव्य की संहति सम्पूर्ण लोक को आपूरित कर देती है । Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषाद्रव्य की लोक में व्याप्त... भाषा जाई भिण्णाई णिसिरति ताई महंतलेटठ्ठकसमाई यदा लोकमध्यस्थो वक्ता भवति तदा तेन निसृष्टानि चउहिं समएहिं लोगंतं पावंति। जाणि पूण अभिण्णाणि भाषापरिणतानि द्रव्याणि प्रथमसमय एव षट्सु दिक्ष णिसिरति ताणि खुडुलगलेगसमाणाई अंतरा चेव लोकान्तमनुधावंति, जीवसूक्ष्मपुद्गलानामनुश्रेणिगमनात् । विद्धंसमागच्छति । (आवच १ पृ १६) द्वितीयसमये तु त एव षट् दण्डा: चतुर्दिक्ष एकैकशोऽनभिन्न रूप में निसष्ट भाषाद्रव्य बडे पाषाणखंड की श्रेण्या वासितद्रव्यः प्रसरन्तः षट मन्थानो भवंति । तरह चार समय में लोकान्त तक चले जाते हैं । अभिन्न- तृतीयसमये तु पृथक् पृथक् तदन्तरालापूरणात् पूर्णी रूप में निसष्ट भाषाद्रव्य छोटे पाषाणखण्ड की तरह। भवति लोकः । एवं त्रिभिः समयषिया लोकः स्पृष्टो बीच में ही ध्वस्त हो जाते हैं। भवति । यदा तु स्वयंभूरमणपरतटवत्तिनि लोकान्ते यो मन्दप्रयत्नो वक्ता स यथारूपाणि शब्दद्रव्याणि अलोकस्यात्यन्तनिकटीभूय भाषको वक्ति त्रसनाड्या वा गृहीतवान् तथारूपाण्येवाभिन्नानि उपजातमन्दशब्दपरि- बहिश्चतसृणां दिशामन्यतमस्यां दिशि तदा चतुर्भिः णामानि निसृजति । तानि च तथा निसृष्टानि मन्द- समयैरापूर्यते । यदा त्रसनाड्या बहिर्व्यवस्थितो वक्ति तदा प्रयत्ननिसृष्टत्वात् परिस्थूराणि । अत एव तदन्यद्रव्य- एकेन समयेनान्तर्नाडौ शब्दद्रव्याण्यनुप्रविशन्ति, शेषसमयवासनोत्पादपाटवरहितानि । (आवम प ३५)। भावना च पूर्ववत् । (आवमवृ प ३६) मन्द प्रयत्न वाला वक्ता जिस रूप में शब्दद्रव्यों को तीन समय में पूरे लोक में व्याप्त ग्रहण करता है, उसी रूप में उनका निसर्जन करता है। शब्दों का परिणमन मन्द होने के कारण उनमें भेद/ जब वक्ता लोक के मध्यभाग में स्थित हो बोलता विस्फोट नहीं होता। वे अभिन्न शब्दद्रव्य स्थूल होते हैं, _है, तब उससे निसृष्ट भाषा के पुद्गल प्रथम समय में इसलिए उनमें अन्य द्रव्यों को वासित करने की क्षमता हो । ही छहों दिशाओं में लोकान्त तक चले जाते हैं, क्योंकि नहीं होती। जीव और सूक्ष्म पुद्गल अनुश्रेणी में गमन करते हैं। दूसरे यस्तु महाप्रयत्नो वक्ता, स खल्वादानप्रयत्नेनापि समय में ये षट् दण्डरूप में फैले हुए भाषाद्रव्य के पुद्गल भित्त्वैव गृह्णाति, गृहीत्वा च शब्दपरिणाममपि तेषामत्यु- अन्य द्रव्यों से अनुवासित होकर चारों दिशाओं में षट् स्कटमुत्पादयति, उत्पाद्य च निसर्गप्रयत्नेन भूयो भित्त्वा मथानी के रूप में फैल जाते हैं। तीसरे समय में निसृजति । तानि च तथा निसृष्टानि सूक्ष्मत्वादतिप्रभूत- अन्तरालों को आपूरित करते हुए वे पूरे लोक में व्याप्त त्वादत्युत्कटशब्दपरिणामत्वाच्च तदन्यानि बहनि द्रव्याणि हो जाते हैं। वासयन्ति । (आवमवृ प ३५, ३६) २५) चार समय में पूरे लोक में व्याप्त , तीव्र प्रयत्न वाला वक्ता ग्रहणप्रयत्न में भी भाषाद्रव्यों का भेद - विस्फोट कर ही ग्रहण करता है, उनकी जब वक्ता स्वयंभूरमण के परतटवर्ती भाग -लोकान्त में, अलोक के अत्यन्त निकट स्थित हो बोलता है, अथवा शब्दपरिणति भी उत्कट होती है और निसर्ग-प्रयत्न में। वसनाड़ी के बाहर किसी दिशा में स्थित हो बोलता है, पुनः उन द्रव्यों को भिन्न कर ही निसर्जन करता है। तब भाषा के पुद्गल चार समय में पूरे लोक में व्याप्त भिन्न रूप में निसष्ट भाषाद्रव्य सूक्ष्म और प्रभूत होते हैं, हो जाते हैं। उनकी शब्दपरिणति भी अत्यंत उत्कट होती है, इसलिए त्रसनाड़ी के बाहर किसी भी दिशा में स्थित उनमें अन्य बहुत द्रव्यों को वासित करने की क्षमता होती है। भाषक के भाषाद्रव्य प्रथम समय में त्रसनाडी में प्रवेश पढमसमए च्चिय जओ मुक्काइं जंति छद्दिसि ताई। करते हैं। शेष तीन समय में लोक को पूरित करते हैं। बितियसमयम्मि ते च्चिय छदंडा होति छम्मथा ।। पांच समय में पूरे लोक में व्याप्त मंथंतरेहिं तईए समते पुन्नेहिं पूरिओ लोगो। सनाड़ी के बाहर विदिशा में स्थित भाषक के चउहि समएहिं पूरइ लोगते भासमाणस्स ।। भाषाद्रव्य पहले समय में दिशा में आते हैं, दूसरे समय में दिसि विद्रियस्स पढमोऽतिगमे ते चेव सेसया तिन्नि। त्रसनाड़ी में प्रवेश करते हैं। शेष तीन समयों में लोक विदिसि ट्रियस्स समया पंचातिगमम्मि जं दोणि ॥ को आपूरित करते हैं। (विभा ३८४-३८६) Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा ४९२ द्रव्यभावभाषा के प्रकार ८. अवगाहना वर्गणा अवगाहना एकैकस्य भाषाद्र व्यस्कन्धस्याऽऽधारभूताऽसंख्येयप्रदेशात्मकक्षेत्रविभागरूपा, तासामवगाहनानाम नन्नभाषाद्रव्यस्कन्धाश्रयभूतक्षेत्रविशेषरूपाणां वर्गणा समुदायस्ता अवगाहनावर्गणाः। (विभामव १ पृ१८६) __ भाषा द्रव्य के एक-एक स्कन्ध के आधारभूत असंख्येय प्रदेशात्मक क्षेत्र का नाम है --अवगाहना । वैसी अनन्त भाषा द्रव्य के स्कन्धों की आधारभूत अवगाहनाओं के समुदाय का नाम है-अवगाहनावर्गणा । ६. भावभाषा के प्रकार ...भावे दव्वे य सुते चरित्त... ॥ (दनि १७३) भावभाषा के तीन प्रकार हैं - द्रव्य, श्रुत और चारित्र । १०. द्रव्यभावभाषा के प्रकार आराहणी यु दव्वे सच्चा मोसा विराहणी होति । सच्चामोसा मीसा असच्चमोसा य पडिसेधो ।। (दनि १७४) द्रव्यभावभाषा के चार प्रकार हैं१. आराधनी (सत्य)-यथार्थ का प्रतिपादक वचन । २. विराधनी (मृषा)-अयथार्थ का प्रतिपादक वचन । ३. आराधनी-विराधनी (सत्यमृषा)-यथार्थ और अयथार्थ का प्रतिपादक वचन ।। ४. आराधन-विराधन विरहित (असत्यमृषा)-विधि निषेध (व्यवहार) का प्रतिपादक वचन । सत्यभाषा के प्रकार जणवत समुति ट्ठवणा णामे रूवे पडुच्चसच्चे य । ववहार भाव जोगे दसमे ओवम्मसच्चे य॥ (दनि १७५) सत्यभाषा के दस प्रकार हैं - . जनपद सत्य --जिस देश में जैसी भाषा बोलने में काम आती है, उस देश में वह जनपद सत्य है। जैसे -- 'चोखा' शब्द मारवाड़ में 'अच्छे' के अर्थ में और मेवाड़ में 'चावल' के अर्थ में व्यवहृत है। २. सम्मत-सत्य ... प्राचीन विद्वानों ने जिस शब्द का जो अर्थ मान लिया है, उस अर्थ में वह शब्द सम्मत सत्य है । कमल और मेंढक दोनों ही पंक (कीचड़) में उत्पन्न होते हैं तो भी पंकज कमल को ही कहते हैं, मेंढक को नहीं। ३. स्थापना-सत्य-किसी भी वस्तु की स्थापना करके उसे उस नाम से कहना । जैसे- शतरंज के मोहरों को हाथी, घोड़ा, वजीर आदि कहना । ४ नाम-सत्य-गुण-विहीन होने पर भी किसी व्यक्ति विशेष या वस्तु विशेष का वैसा नाम रखकर, उस नाम से पुकारना। जैसे-धनहीन को लक्ष्मीपति कहना। ५. रूप-सत्य--किसी रूप-विशेष को धारण करने पर उस रूप-विशेष से पुकारना । जैसे साधु का वेश देखकर किसी व्यक्ति को साधु कहना। ६. प्रतीति-सत्य (अपेक्षा सत्य)-एक वस्तु की अपेक्षा से दूसरी वस्तु को छोटी-बड़ी, हल्की-भारी आदि कहना। अनामिका अंगूली को कनिष्ठा की अपेक्षा से बड़ी और मध्यमा की अपेक्षा से छोटी कहना। ७. व्यवहार-सत्य-जो बात व्यवहार में बोली जाए, वह व्यवहार सत्य है । जैसे पहुंचती तो है गाड़ी और कहते हैं लाडनूं आ गया। ८ भाव-सत्य-किसी वस्तु में जो भाव मुख्य रूप से मिलता है, उसे लेकर उसका प्रतिपादन करना । जैसे-तोते में कई रंग होते हैं, फिर भी उसे हरा कहना। ९. योग-सत्य-योग अर्थात वस्तु के सम्बन्ध से किसी व्यक्ति-विशेष को उस नाम से पुकारना । जैसे छत्रधारी को छत्री कहना। १०. उपमा सत्य-किसी एक बात में समानता होने पर एक वस्तु की दूसरी वस्तु से तुलना करना और उसे उस नाम से पुकारना । जैसे---आखें कमल के समान विकसित हैं। मृषाभाषा के प्रकार कोधे माणे माया लोभे पेज्जे तहेव दोसे य । हास भये अक्खाइय उवधाते णिस्सिता दसमा । (दनि १७६) मृषाभाषा के दस प्रकार हैं१. क्रोधनिश्रित-क्रोध में असत्य बोलना। २. माननिश्रित-अहंकार के आवेश में बोलना। ३. मायानिश्रित-कपट सहित बोलना, दूसरे को धोखा देने के लिए बोलना। ४. लोभनिश्रित-लोभ में आकर बोलना। ५. रागनिश्रित - प्रेम, मोह के वशीभूत होकर बोलना। Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार भाषा के प्रकार ४९३ भाषा ६. द्वेषनिश्रित-द्वेष सहित बोलना । देखकर कहना-ओह! यह कितना बड़ा जीवों ७. हास्यनिश्रित-हंसी में बोलना । का समूह है। ८. भयनिश्रित-डरकर बोलना । ५. अजीव-मिश्रित-कड़े-कचरे के ढेर को देखकर यह ९. आख्यायिकानिश्रित-कहानी कहते समय असंभव कहना-'यह सब अजीव है' किन्तु इसमें बहुत से बातें कह देना। जीव भी हो सकते हैं। १०. उपघातनिश्रित-प्राणियों की हिंसा हो, ऐसी ६. जीवाजीव-मिश्रित-जीव-अजीव की राशि में भाषा बोलना। अयथार्थ रूप में यह बताना कि इसमें इतने जीव हैं तत्थ मुसावातो चउन्विहो, तं जहा-सम्भावपडि- और इतने अजीव । सेहो असब्भूयुब्भावणं अत्यंतरं गरहा। तत्थ सब्भावपडि- ७. अनन्त-मिश्रित-आलू, ककड़ी आदि का समूह सेहो णाम जहा णत्थि जीवो नत्थि पूण्णं नत्थि पावं देखकर कहना-'यह सब तो अनन्तकाय है।' नत्थि बंधो णत्थि मोक्खो एवमादी । असन्भूयुब्भावणं नाम ८. प्रत्येक-मिश्रित-ककड़ी, आल आदि का समूह जहा अत्थि जीव (सव्ववावी) सामागतंदुलमेत्तो वा एव- देखकर कहना-'यह सब प्रत्येककाय है।' मादी। पयत्थंतरं नाम जो गावि भणइ एसो आसोत्ति । ९. अद्धा-मिश्रित -दिन-रात आदि काल के विषय में गरहा णाम 'तहेव काणं काणित्ति' एवमादी । मिश्र वचन बोलना। (दजिच पृ १४८) १०. अद्धाद्धा-मिश्रित-दिन या रात के एक भाग को मृषावाद के चार प्रकार हैं अद्धाद्धा कहते हैं। प्रधम पौरुषी के काल में यह १. सदभाव प्रतिषेध–जो है, उसके विषय में कहना कि कहना कि मध्याह्न हो गया है-यह अद्धाद्धा-मिश्रित यह नहीं है। जैसे जीव आदि हैं, उनके विषय में कहना कि जीव नहीं है, पुण्य नहीं है, पाप नहीं है, हा व्यवहार भाषा के प्रकार बंध नहीं है, मोक्ष नहीं है आदि । आमंतणि आणमणी जायणि तह पुच्छणी य पण्णवणी । २. असद्भाव उद्भावना--जो नहीं है, उसके विषय में पच्चक्खाणी भासा भासा इच्छाणुलोमा य॥ कहना कि यह है । जैसे आत्मा के सर्वगत, सर्वव्यापी अणभिग्गहिता भासा भासा य अभिग्गहम्मि बोधव्वा । न होने पर भी उसे वैसा बतलाना अथवा उसे संसयकरणी भासा वोकड अव्वोकडा चेव ।। श्यामाक तन्दुल के तुल्य बताना । (दनि १७८, १७९) ३. अर्थान्तर-जो है, उसको अन्य बताना। जैसे गाय व्यवहार भाषा के बारह प्रकार हैंको घोड़ा कहना आदि । १. आमंत्रणी-संबोधन करना । ४. गर्दा -जैसे काने को काना कहना। २. आज्ञापनी--आज्ञा देना। मिश्रभाषा के प्रकार ३. याचनी-याचना करना । उप्पण्ण विगत मीसग जीवमजीवे य जीव अज्जीवे । ४. प्रच्छनी-पूछना, किसी विषय में सन्देह होने पर तहऽणंतमीसिया खलू परित्त अद्धा य अद्धद्धा ।। पूछकर उसकी निवृत्ति करना। (दनि १७७) ५. प्रज्ञापनी--प्ररूपण करना। मिश्रभाषा के दस प्रकार हैं - ६ प्रत्याख्यानी-त्याग करना। १. उत्पन्न-मिश्रित जिस नगर में जितने बच्चों को ७. इच्छानुलोमा-इच्छानुसार अनुमोदन करना। जन्म हुआ है, उससे न्यूनाधिक बताना । ८. अनभिगहीता-अपनी सम्मति प्रकट न करना। २. विगत-मिश्रित-इसी प्रकार मरण के विषय में ९. अभिगहीता-सम्मति देना। न्यून और अधिक बताना । १०. संशयकारिणी-जिस शब्द के अनेक अर्थ हैं, उसका ३. उत्पन्न-विगत-मिश्रित-जन्म-मृत्यु - दोनों के विषय प्रयोग करना। ___ में न्यूनाधिक बताना। ११. व्याकृत-विस्तार सहित बोलना, जिससे स्पष्ट ४. जीव-मिश्रित-जीव-अजीव की विशाल राशि को समझ में आ जाए। Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा ४९४ भाषासमिति १२. अव्याकृत-अति गम्भीरतायुक्त बोलना, जो कि नहीं। भाषा के द्रव्य वज्र संस्थान से संस्थित और वर्णसमझ में आना कठिन हो जाए। गंध-रस-स्पर्शयुक्त होते हैं। इनका प्रभव (उद्भव) शरीर ११. श्रुतभावभाषा से होता है। इनका खंड, प्रतर आदि पांच प्रकार से भेद होता है। सुतधम्मे पुण तिविधा सच्चा मोसा असच्चमोसा य । एकेन्द्रिय जीव और सिद्ध अभाषक होते हैं, शेष सम्माद्दिट्टी तु सुते उवयुत्तो भासए सच्चं ।। जीव भाषक और अभाषक-दोनों प्रकार के होते हैं। सम्मद्दिट्ठी तु सुतम्मि अणुवयुत्तो अहेतुगं चेव । द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीव व्यवहार जं भासति सा मोसा मिच्छाहिटी वि य तहेव ॥ भाषा बोलते हैं, शेष जीव सत्य आदि चारों प्रकार की भवति तु असच्चमोसा सुतम्मि उवरिल्लए तिणाणम्मि । भाषा बोल सकते हैं। सत्यभाषा के रूप में गृहीत द्रव्यों जं उवउत्तो भासति ........... || का निसर्ग भी सत्य भाषा के रूप में ही होता है। देखें(दनि १८१-१८३) पन्नवणापद ११)। श्रुतभावभाषा के.तीन प्रकार हैं१. सत्य-श्रुत में उपयुक्त सम्यग्दृष्टि की भाषा । भाषापर्याप्ति-भाषा के योग्य पुद्गलों का ग्रहण, २. मृषा-श्रुत में अनुपयुक्त सम्यग्दृष्टि की अहेतुक परिणमन और उत्सर्ग करने वाली ___ भाषा अथवा मिथ्यादृष्टि की भाषा । पौद्गलिक शक्ति । (द्र. पर्याप्ति) ३. असत्यमृषा (व्यवहार)-अवधिज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी भाषासमिति-भाषा का सम्यक प्रयोग। और केवलज्ञानी के वचनों की तरह श्रुतज्ञानोपयुक्त के द्वारा दी जाने वाली वाचना आदि । १. भाषासमिति की परिभाषा २. भाषा के प्रकार १२. चारित्रभावभाषा ३. मुनि के लिए विहित भाषा पढम-बितिया चरित्ते भासा दो चेव होंति णायव्वा । ४. मुनि के लिए निषिद्ध भाषा सचरित्तस्स तु भासा सच्चा, मोसा तु इयरस्स ॥ ५. भाषा सम्बन्धी विधि-निषेध (दनि १८४) ० संबोधन चारित्रभावभाषा के दो प्रकार हैं -- ० क्रय-विक्रय १. सत्य-वह भाषा. जिससे चारित्र शुद्ध हो अथवा ० प्रकृति चारित्र की प्राप्ति हो। ० वनस्पति २. मृषा-वह भाषा, जिससे चारित्र शुद्ध न हो अथवा ० निश्चयकारिणी चारित्र की प्राप्ति न हो। ६. भाषा के आठ वर्जनीय स्थान १३. भाषा के दो प्रकार ७. भाषा चपल के प्रकार ८. वाक्यशुद्धि को निष्पत्ति सव्वा वि य सा दुविधा पज्जत्ता खलु तहा अपज्जत्ता। * भाषा : समिति का एक भेद (द्र. समिति) पढमा दो पज्जता उवरिल्ला दो अपज्जत्ता॥ * सत्य आदि चार भाषाओं के प्रकार (द्र. भाषा) अत्थावधारणसमत्था पज्जत्तिगा। तबिवक्खिया अपज्जत्तिगा। (दनि १८० अचू पृ १६१) १. भाषासमिति की परिभाषा _ भाषा के दो प्रकार हैं भाषासमिति म हितमितासन्दिग्धार्थभाषणम् । १. पर्याप्ता-जो अर्थ के अवधारण में समर्थ है। (आवहावृ २ पृ८४) जैसे -सत्य और मृषाभाषा। बोलते समय हित, परिमित और असंदिग्ध वाक्यों २. अपर्याप्ता-जो अर्थ के अवधारण में असमर्थ है। का प्रयोग करना भाषा समिति है। जैसे--मिश्र और व्यवहार भाषा।। २. भाषा के प्रकार (जीव भाषाद्रव्य के अनंतप्रदेशी स्कन्धों को ग्रहण सच्च सच्चामोसं, मोसं च असच्चमोसं च ॥ करता है, एक प्रदेशी यावत् असंख्यातप्रदेशी स्कन्धों को (आवनि ९) Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि के लिए निषिद्ध भाषा भाषासमिति २ . भाषा के चार प्रकार हैं एयं च अट्ठमन्नं वा, जं तु नामेइ सासयं । १. सत्य ३. मिश्र स भासं सच्चमोसं पि, तं पि धीरो विवज्जए ।। २. असत्य ४. व्यवहार । वितहं पि तहामुत्ति, जं गिरं भासए नरो । भासा-सच्चा, असच्चामोसा य। अभासा- तम्हा सो पुट्ठो पावेणं, किं पुण जो मुसं वए । मोसा, सच्चामोसा य । (नन्दीचू पृ६१) (द ७।४,५) सत्य वचन और व्यवहार वचन को भाषा कहा धीर पुरुष उस अनुज्ञात व्यवहार भाषा को भी न गया है। असत्यवचन और मिश्रवचन को अभाषा कहा बोले जो अपने आशय को 'यह अर्थ है या दूसरा'-इस गया है। प्रकार संदिग्ध बना देती है।। ३. मुनि के लिए विहित भाषा __ जो पुरुष सत्य दीखने वाली असत्य वस्तु का आश्रय लेकर बोलता है (पुरुष वेषधारी स्त्री को पुरुष कहता चउण्हं खलु भासाणं, परिसंखाय पन्नवं ।। है) उससे भी वह पाप से स्पृष्ट होता है तो फिर उसका दोण्हं तु विणयं सिक्खे, दोन भासेज्ज सव्वसो॥ क्या कहना जो साक्षात् मृषा बोले ? जं भातमाणो धम्म णातिक्कमइ, एसो विणयो तहेव फरुसा भासा, गुरुभूओवधाइणी । भण्णइ। (द ७।१ जिचू पृ २४४) सच्चा वि सा न वत्तव्वा, जओ पावस्स आगमो । प्रज्ञावान् मुनि चारों भाषाओं को जानकर दो के तहेव काणं काणे त्ति, पंडगं पंडगे त्ति वा। द्वारा विनय-भाषा का शुद्ध प्रयोग सीखे और दो वाहियं वा वि रोगे त्ति, तेणं चोरे त्ति नो वए । सर्वथा न बोले। (द ७।११,१२) यहां विनय का अर्थ है-मूनिधर्म का अतिक्रमण न मुनि परुष और महान् भूतोपघात करनेवाली सत्य करने वाली भाषा। भाषा भी न बोले, क्योंकि इससे पापकर्म का बंध होता असच्चमोसं सच्चं च, अणवज्जमकक्कसं । है। इसी प्रकार काने को काना, नपुंसक को नपुंसक, समुप्पेहमसदिद्धं, गिरं भासेज्ज पन्नवं ।। रोगी को रोगी और चोर को चोर न कहे। (द ७।३) अप्पत्तियं जेण सिया, आसु कुप्पेज्ज वा परो । प्रज्ञावान् मुनि व्यवहार भाषा और सत्य भाषा सव्वसो तं न भासेज्जा, भासं अहियगामिणि ॥ जो अनवद्य, मृदु और सन्देहरहित हो, उसे सोच (द ८/४७) विचारकर बोले। जिससे अप्रीति उत्पन्न हो और दूसरा शीघ्र कुपित दिळं मियं असंदिद्धं, पडिपुन्नं वियं जियं । हो-ऐसी अहितकर भाषा सर्वथा न बोले । अयंपिरमण व्विग्गं, भासं निसिर अत्तवं ।। तहेव सावज्जणुमोयणी गिरा, (द ८।४८) ओहारिणी जा य परोवघाइणी। आत्मवान् दृष्ट, परिमित, असंदिग्ध, प्रतिपूर्ण, से कोह लोह भयसा व माणवो, व्यक्त, परिचित, वाचालता-रहित और भय-रहित भाषा न हासमाणो वि गिरं वएज्जा । बोले। (द ७५४) मुनि सावध का अनुमोदन करने वाली, अवधारिणी ४. मुनि के लिए निषिद्ध भाषा (संदिग्ध अर्थ के विषय में असंदिग्ध) और पर-उपघातजा य सच्चा अवत्तव्वा, सच्चामोसा य जा मुसा । कारिणी भाषा क्रोध, लोभ, भय, मान या हास्यवश न जा य बुद्धे हिंऽणाइन्ना, न तं भासेज्ज पन्नवं ॥ बोले । (द ७२) गृहस्थ संबंधी जो अवक्तव्य सत्य, सत्यमुषा (मिश्र), मृषा और तहेवासंजय धीरो. आस एहि करेहि वा। वह व्यवहार भाषा जो बुद्धों के द्वारा अनाचीर्ण हो, उसे सय चिट्ठ वयाहि त्ति, नेवं भासेज्ज पन्नवं ॥ प्रज्ञावान् मुनि न बोले। (द ७।४७) . Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषासमिति धीर और प्रज्ञावान् मुनि असंयति (गृहस्थ ) को बैठ, इधर आ, (अमुक कार्य ) कर, सो, ठहर या खड़ा हो जा, चला जा - इस प्रकार न कहे । स्वप्नफल आदि संबंधी नक्खत्तं सुमिगं जोगं, निमित्तं मंत भेसजं । गिहिणो तं न आइक्खे, भूयाहिगरणं पयं ॥ (द ८५०) नक्षत्र, स्वप्नफल, वशीकरण, निमित्त, मंत्र और भेषज - ये जीवों की हिंसा के स्थान हैं, इसलिए मुनि गृहस्थों को इनके फलाफल न बताए । जय-पराजय संबंधी देवाणं मणुयाणं च तिरियाणं च वुग्गहे । अयाणं जओ होउ मा वा होउ त्ति नो वए । (द ७/५०) देव, मनुष्य और तिर्यञ्चों (पशु-पक्षियों) का आपस में विग्रह होने पर अमुक की विजय हो अथवा अमुक की विजय न हो - इस प्रकार न कहे । ५. भाषा संबंधी विधि - निषेध बहुं सुणेइ कण्णेहि, बहुं अच्छी हिं पेच्छइ । न यदिट्ठे सुयं सव्वं, भिक्खू अक्खाउमरिहइ || (द ८२० ) कानों से बहुत सुनता है, आंखों से बहुत देखता है, किन्तु सब देखे और सुने को कहना भिक्षु के लिए उचित नहीं । तव संखडि नच्चा, किच्चं तेगं वा वि वज् त्ति, ias Rafs बूया, बहुसमाणि तित्थाणि, ४९६ कज्जं ति नो वए । सुतित्थ त्ति य आवगा ।। पणियट्ठत्ति तेणगं । आवगाणं वियागरे ॥ (द ७/३६, ३७) संखड़ी (जीमनवार) और कृत्य —— मृत्युभोज को जानकर -ये करणीय हैं, चोर मारने योग्य है और नदी अच्छे घाट वाली है -मुनि इस प्रकार न कहे । ( प्रयोजनवश कहना हो तो ) संखड़ी को संखड़ी, चोर पणितार्थ (धन के लिए जीवन की बाजी लगाने वाला) और नदी के घाट प्रायः सम — इस प्रकार कहा जा सकता है । भाषा संबंधी विधि-निषेध संबोधन अज्जए पज्जए वा वि, बप्पो चुल्ल पिउत्तिय । माउला भाइणेज्जत्ति, पुत्ते नत्तुणिय त्तिय ॥ हे हो हले ति अन्ने त्ति, भट्टा सामिय गोमिए । होल गोल वसुले त्ति, पुरिसं नेवमालवे || नामधेज्जेण णं बूया पुरिसगोत्तेण वा पुणो । जहारिहमभिगिज्भ आलवेज्ज लवेज्ज वा ॥ (द ७१८-२० ) आर्य ! ( दादा !, हे नाना ! ) हे प्रार्थक ! (हे परदादा !, हे परनाना !) हे पिता ! हे चाचा !, मामा ! हे भानजा !, हे पुत्र !, हे पोता !, हल! हे अन्न ! हे भट्ट !, हे स्वामिन्! हे गोमिन् !, होल !, हे गोल !, हे वृषल ! इस प्रकार पुरुष को आमंत्रित न करे । किन्तु ( प्रयोजनवश ) यथायोग्य गुणदोष का विचार कर एक बार या बार-बार उन्हें उनके नाम या गोत्र से आमंत्रित करे । पंचिदियाण पाणाणं, एस इत्थी अयं जाव णं न विजाणेज्जा, ताव जाइ त्ति पुमं । आलवे || (द ७/२१) पंचेन्द्रिय तिर्यंच प्राणियों के बारे में जब तक - यह स्त्री है या पुरुष — ऐसा न जान जाए तब तक गाय की जाति, घोड़े की जाति इस प्रकार बोले । क्रय-विक्रय सव्वक्कसं परग्धं वा अचक्कियमवत्तव्वं सुक्कीयं वा सुविक्कीयं अकेज्जं केज्जमेव वा । इमं गेह इमं मुंच पणियं नो वियागरे । अपग्धे वा महग्घे वा, कए वा विक्कए वि वा । पणियट्ठे समुत्पन्ने, अणवज्जं वियागरे ॥ (द ७।४३,४५,४६) अउलं नत्थि एरिसं । अचितं चेव नो वए ॥ ( क्रय-विक्रय के प्रसंग में) यह वस्तु सर्वोत्कृष्ट है, यह बहुमूल्य है, यह तुलनारहित है, इसके समान दूसरी वस्तु कोई नहीं है, इसका मोल करना शक्य नहीं है, इसकी विशेषता नहीं कही जा सकती, यह अचिन्त्य हैइस प्रकार न कहे । पण्य वस्तु के बारे में ( यह माल) अच्छा खरीदा ( बहुत सस्ता आया ), ( यह माल) अच्छा बेचा ( बहुत Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा सबंधी विधि-निषेध ४९७ भाषासमिति प्रकृति नफा हुआ), यह बेचने योग्य नहीं है, यह बेचने योग्य है, व्यक्ति को देखकर 'यह ऋद्धिमान् पुरुष है' -- ऐसा कहे। इस माल को ले (यह महंगा होने वाला है), इस माल पनि को बेच डाल (यह सस्ता होने वाला है)-इस प्रकार न कहे। तहेव गंतुमुज्जाणं, पव्वयाणि वणाणि य। रुक्खा महल्ल पेहाए, नेवं भासेज्ज पन्नवं ।। ___ अल्पमूल्य या बहुमूल्य माल ले लेने या बेचने के प्रसंग में मुनि अनवद्य वचन बोले- क्रय विक्रय से विरत आसणं सयणं जाणं, होज्जा वा किंचुवस्सए । मुनियों का इस विषय में कोई अधिकार नहीं है इस भूओवघाइणि भासं, नेवं भासेज्ज पन्नवं ।। प्रकार कहे। जाइमंता इमे रुक्खा, दीहवा महालया। पयायसाला विडिमा, वए दरिसणि त्ति य ।। (द ७।२६,२९,३१) तहा नईओ पुण्णाओ, कायतिज्ज त्ति नो वए। उद्यान, पर्वत और वन में जा वहां बडे वक्षों को नावाहिं तारिमाओ त्ति, पाणिज्ज त्ति नो वए॥ देख प्रज्ञावान् मुनि भूतोपघातिनी भाषा न बोले। जैसे बहुवाहडा अगाहा, बहुसलिलुप्पिलोदगा। .. -इन वृक्षों में आसन, शयन, यान और उपाश्रय के बहु वित्थडोदगा यावि, एवं भासेज्ज पन्नवं ।। (द ७।३८,३९) उपयुक्त कुछ काष्ठ है। नदियां भरी हुई हैं, शरीर के द्वारा पार करने योग्य प्रयोजनवश कहना हो तो प्रज्ञावान् भिक्षु यों कहे--- हैं, नौका के द्वारा पार करने योग्य हैं और तट पर बैठे ये वृक्ष उत्तम जाति के हैं, लम्बे हैं, गोल हैं, बहुत विस्तार हुए प्राणी उनका जल पी सकते हैं - मुनि इस प्रकार न वाले अथवा स्कन्धयुक्त हैं, शाखा-प्रशाखा वाले हैं, दर्शनीय हैं। कहे । (प्रयोजनवश कहना हो तो) नदियां प्रायः भरी हुई हैं, प्रायः अगाध हैं, बहु-सलिला हैं, दूसरी नदियों के तहा फलाइं पक्काइं, पायखज्जाइं नो वए । द्वारा जल का वेग बढ़ रहा है, बहुत विस्तीर्ण जल वाली वेलोइयाई टालाइं, वेहिमाइ त्ति नो वए । हैं -प्रज्ञावान् भिक्षु इस प्रकार कहे। असंथडा इमे अंबा, बहुनिवट्टिमा फला । वाओ वुटुं व सीउण्हं, खेमं धायं सिवं ति वा । वएज्ज बहुसंभूया, भूयरूव त्ति वा पुणो ।। कया ण होज्ज एयाणि, मा वा होउ त्ति नो वए । (द ७।३२,३३) (द ७५१) ये फल पक्व हैं, पकाकर खाने योग्य हैं, (तथा ये वायु, वर्षा, सर्दी, गर्मी, क्षेम, सुभिक्ष और शिव, ये फल) वेलोचित (अविलम्ब तोड़ने योग्य) हैं, इनमें गुठली कब होंगे - ऐसा पछे जाने पर मनि कुछ न कहे तथा ये नहीं पड़ी है, ये दो टुकड़े करने योग्य हैं (फांक करने न हों तो अच्छा रहे - इस प्रकार न कहे। योग्य हैं)- इस प्रकार न कहे। (प्रयोजनवश कहना हो तहेव मेहं व नहं व माणवं, तो) ये आम्र-वृक्ष अब फल धारण करने में असमर्थ हैं, न देव देव त्ति गिरं वएज्जा । बहुनिवर्तित (प्रायः सम्पन्न) फल वाले हैं, बहु-संभूत सम्मुच्छिए उन्नए वा पओए, (एक साथ उत्पन्न बहुत फल वाले) हैं अथवा भूतरूप __ वएज्ज वा वुट्ठ बलाहए त्ति ॥ (कोमल) हैं-मुनि इस प्रकार कहे। अंतलिक्खे त्ति णं बूया, गुज्झाणचरिय त्ति य । तहेवोसहीओ पक्काओ, नीलियाओ छवीइय । रिद्धिमंतं नरं दिस्स, रिद्धिमतं ति आलवे ।। लाइमा भज्जिमाओ त्ति, पिहखज्ज त्ति नो वए ।। (द ७।५२,५३) रूढा बहुसंभूया, थिरा ऊसढा वि य । मेघ, नभ और मानव के लिए 'ये देव हैं'- ऐसी गब्भियाओ पसूयाओ, ससाराओ त्ति आलवे ॥ वाणी न बोले । पयोधर सम्मूच्छित हो रहा है -उमड़ (द ७।३४,३५) रहा है, अथवा उन्नत हो रहा है -झुक रहा है, अथवा औषधियां पक गई हैं, अपक्व हैं, छवि (फली) मेघ बरस पड़ा है - मुनि इस प्रकार बोले। मेघ और वाली हैं, काटने योग्य हैं, भूनने योग्य हैं, चिड़वा बनाकर नभ को अंतरिक्ष अथवा गुह्यानुचरित कहे । ऋद्धिसम्पन्न खाने योग्य हैं—मुनि इस प्रकार न बोले। Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषासमिति ४९८ वाक्यशुद्धि की निष्पत्ति (प्रयोजनवश बोलना हो तो) औषधियां अंकुरित हैं, ७. भाषा चपल के प्रकार निष्पन्न प्रायः हैं, स्थिर हैं, ऊपर उठ गई हैं, भुट्टों से भासाचवलो चउविहो, तं जहा-असप्पलावी रहित हैं, भुट्टों से सहित हैं, धान्य-कण सहित हैं-इस असब्भप्पलावी असमिक्खपलावी अदेसकालप्पलावी । तत्थ प्रकार बोले। असप्पलावी नाम जो असंतं उल्लावेति। असब्भप्पलावी निश्चयकारिणी जो असब्भं उल्लावेति। खरफरुसअक्कोसादि असम्भं । असमिक्खियपलावी असमिक्खिउं उल्लावेति। जं से मुहातो तम्हा गच्छामो वक्खामो, अमगं वाणे भविस्सई । एति तं उल्लावेति । अदेसकालपलावी जाहे किंचि कज्ज अहं वा णं करिस्सामि, एसो वा णं करिस्सई ।। अतीतं ताहे भणति–जति पकरेंति सुंदरं होतं, मए पुव्वं एवमाई उ जा भासा, एसकालम्मि संकिया। चेव चितितेल्लयं । (उचू पृ १९७) संपयाईयमठे वा, तं पि धीरो विवज्जए । भाषाचपल के चार प्रकार हैं - (द ७।६,७) १. असत् प्रलापी-जो असत्य प्रलाप करता है। 'हम जाएंगे', 'कहेंगे', 'हमारा अमुक कार्य हो २. असभ्य प्रलापी-जो अशिष्ट, कठोर, रूखे और जाएगा', 'मैं यह करूंगा' अथवा 'यह (व्यक्ति) यह आक्रोश भरे वचन बोलता है। (कार्य) करेगा'--- यह और इस प्रकार की दूसरी भाषा ३. असमीक्ष्यप्रलापी-जो हित-अहित की समीक्षा किए जो भविष्य-सम्बन्धी होने के कारण (सफलता की दृष्टि बिना बोलता है। जैसा मन में आता है, वैसा ही से) शंकित हो अथवा वर्तमान और अतीतकाल संबंधी अंटसंट बोलता है। अर्थ के बारे में शंकित हो, उसे भी धीर पुरुष न बोले। ४. अदेशकालप्रलापी-जब कोई कार्य हो चुकता हैअईयम्मि य कालम्मी, पच्चप्पन्नमणागए । तब कहता है -यदि इसे ऐसे किया जाता तो अच्छा जमलैं तु न जाणेज्जा, एवमेयं ति नो वए । होता । मैंने पहले ही सोच लिया था। ..."जत्थ संका भवे तं तु, एवमेयं ति नो वए ।। की निष्पत्ति ..."निस्संकियं भवे जंत, एवमेयं ति निहिसे ।। जं वक्कं वदमाणस्स संजमो सुज्झई न पूण हिंसा । (द ७८-१०) न य अत्तकलुसभावो तेण इहं वक्कसूद्धि त्ति ।। अतीत, वर्तमान और अनागत काल-सम्बन्धी जिस (दनि १९०) अर्थ को (सम्यक् प्रकार से) न जाने, जिस अर्थ में शंका जिन वाक्यों को बोलने से संयम की विशुद्धि, अहिंसा हो, उसे 'यह इस प्रकार ही है'-ऐसा न कहे; बल्कि की आराधना और भावधारा की पवित्रता होती है, वैसे जो अर्थ निःशंकित हो (उसके बारे में) 'यह इस प्रकार वाक्यों का प्रस्तुत अध्ययन में विवेचन है और यही ही है'-ऐसा कहे। वाक्यशुद्धि है। ६. भाषा के आठ वर्जनीय स्थान वयणविभत्तिअकुसलो अयोगतं बहुविधं अजाणतो । जति वि ण भासति किंची न चेव वतिगुत्तयं पत्तो ।। कोहे माणे य मायाए, लोभे य उवउत्तया । वयणविभत्तिकूसलो वयोगतं बहविधं वियाणंतो। हामे भए मोहरिए, विगहासु तहेव च ।। दिवसमवि भासमाणो अभासमाणो व वइगुत्तो ।। एपाइं अट्ठ ठाणाइं, परिवज्जित्तु संजए । (दनि १९२,१९३) अमावज्ज मियं काले, भासं भासेज्ज पन्नवं ।। जो वचनविभक्ति/भाषा के प्रयोग में अकुशल है और (उ २४१९,१०) भाषा के विविध प्रकारों को नहीं जानता, वह यदि क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, भय, वाचालता किंचित् भी नहीं बोलता है, तब भी वचनगुप्त नहीं है। और विकथा --इन आठ स्थानों का वर्जन कर प्रज्ञावान् जो वाणी के प्रयोग में कुशल है और उसके अनेक मुनि यथासमय निरवद्य और परिमित वचन बोले । भेदों को जानता है, वह दिनभर बोलता हुआ भी वचन गुप्त है। Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोचराग्र का अथ ४९९ भिक्षाचर्या सवक्कसुद्धि समुपेहिया मुणी, २. गोचरान का अर्थ गिरं च दुळं परिवज्जए सया। गोचरो नाम भ्रमणं."जहा गावीओ सहादिसु विसमियं अदु→ अणुवीइ भासए, एसु असज्जमाणीओ आहारमाहारेंति,""एवं साधुणावि सयाण मज्झे लहई पसंसणं ॥ विसएसु असज्जमाणेण समुदाणे उग्गमउप्पायणासुद्धे (द ७५५) निवेसियबुद्धिणा अरत्तदुह्रण भिक्खा हिंडियव्वत्ति ।" मुनि वाक्यशुद्धि को भलीभांति समझकर दोषयुक्त अग्गं नाम पहाणं भण्णइ, सो य गोयरो साहूणमेव पहाणो वाणी का प्रयोग न करे। मित और दोषरहित वाणी भवति, न उ चरगाईणं आहाकम्मुद्देसियाइ जगाणंति । सोच-विचारकर बोलने वाला साधु सत्पुरुषों में प्रशंसा ___ गोरिव चरणं गोचरः- उत्तमाधममध्यमकुलेष्वरक्तको प्राप्त होता है। द्विष्टस्य भिक्षाटनम् । पुचि बुद्धीए पासित्ता ततो वक्कमुदाहरे । (दजिचू पृ १६७,१६८, हावृ प १६३) अचक्खुओ व णेतारं बुद्धिमण्णे उ ते गिरा।। गोचर शब्द का अर्थ है भ्रमण अथवा गाय की तरह (दनि १९४) चरना--भिक्षाटन करना। जिस प्रकार गाय शब्द पहले बुद्धि से विमर्श कर बोलना चाहिए। वाणी आदि विषयों में गद्ध नहीं होती हुई आहार ग्रहण बुद्धि का वैसे ही अनुगमन करे जैसे अन्धा आदमी अपने करती है उसी प्रकार साधु भी आसक्त न होते हुए नेता का अनुगमन करता है । सामुदायिक रूप से उद्गम, उत्पाद और एषणा के .."अणुवीइ सव्वं सव्वत्थ, एवं भासेज्ज पन्नवं ।। दोषों से रहित भिक्षा के लिए भ्रमण करते हैं। मुनि (द ७१४४) सदोष आहार को वर्ज निर्दोष आहार लेते हैं, इसलिए सब प्रसंगों में पूर्वोक्त सब वचन-विधियों का अनु उनकी भिक्षाचर्या साधारण गोचर्या से विशिष्ट होती है चिन्तन कर प्रज्ञावान् मुनि इस प्रकार बोले कि कर्मबन्ध अत: गोचर के बाद 'अग्र' शब्द का प्रयोग किया गया है। न हो। भिक्षाचर्या विविध अभिग्रहों के द्वारा वृत्ति पेडा व अद्धपेडा, गोमुत्तिय पयंगवीहिया चेव । (चर्या) को संक्षिप्त करना। संबुकावट्टायय-गंतुंपच्चागया छट्ठा ॥ १. भिक्षाचर्या के अंग (उ ३०।१९) २. गोचरान का अर्थ १. पेटा २. अर्धपेटा ३. गोमूत्रिका ४. पतंग-वीथिका ० प्रकार ५. शम्बूकावर्ता (१. आभ्यन्तर शम्बूकावर्ता और २. * गोचरान : क्षेत्र ऊनोदरी (5. ऊनोदरी) | बाह्य शम्बूकावर्ता) ६. आयतं गत्वा-प्रत्यागता । * एषणा का अर्थ (द. एषणा) | शम्बूकावर्ता के उक्त दोनों प्रकारों को मानने पर तथा ३. सात प्रकार की एषणा आयत को गत्वा-प्रत्यागता से पृथक् मानने पर गोचराग्र ४. अभिग्रह के प्रकार के आठ प्रकार बनते हैं। * भिक्षाचर्या : तप का एक भेद (द्र. तप) पेडा पेडिका इव चउकोणा। अद्धपेडा इमीए चेव अद्धसंठिया घरपरिवाडी। गोमुत्तिया वंकावलिया। १. भिक्षाचर्या के अंग पयंगवीही अणियया पयंगुड्डाणसरिसा । शम्बूक:अट्टविहगोयरग्गं तु, तहा सत्तेव एषणा । शङ्खस्तस्यावर्त्तः शम्बूकावतस्तद्वदावर्तो यस्यां सा अभिग्गहा य जे अन्ने, भिक्खायरियमाहिया ।। शम्बूकावर्ता। सा च द्विविधा- यतः सम्प्रदाय: (उ ३०।२५) "अभितरसंबुक्का बाहिरसंबुक्का य, तत्थ अभिंतरआठ प्रकार के गोचराग्र तथा सात प्रकार की एषणा संबुक्काए संखनाभिखेत्तोवमाए आगिइए अंतो आढवति और जो अन्य अभिग्रह हैं. उन्हें भिक्षाचर्या कहा जाता बाहिरओ संणियटइ, इयरीए विवज्जओ।" आयतं दीर्घ प्राञ्जलमित्यर्थः। तथा च सम्प्रदायः- "तत्थ उज्जुयं गंतूण नियट्टइ।" (उशावृ प ६०५) प्रकार Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्षाचर्या ५०० भिक्षु १. पेटा-पेटा की भांति चतुष्कोण घूमते हुए ३. उद्धृता-अपने प्रयोजन के लिए रांधने के पात्र से (बीच के घरों को छोड़ चारों दिशाओं में समणि में दूसरे पात्र में निकला हआ आहार लेना। स्थित घरों में जाते हुए) मुझे भिक्षा मिले तो लं अन्यथा ४. अल्पलेपा-अल्पलेप वाली अर्थात चना, चिउड़ा नहीं-इस संकल्प से भिक्षा करने का नाम पेटा है। आदि रूखी वस्तु लेना। २. अचपेटा-अर्द्धपेटा की भांति द्विकोण घूमते हुए ५. अवगहीता-खाने के लिए थाली में परोसा हुआ (दो दिशाओं में स्थित गृह-श्रेणि में जाते हुए) मुझे आहार लेना। भिक्षा मिले तो लं अन्यथा नहीं-इस संकल्प से भिक्षा ६. प्रगृहीता-परोसने के लिए कड़छी या चम्मच से करने का नाम अर्द्धपेटा है। निकाला हुआ आहार लेना। ३. गो-मूत्रिका-गो-मूत्रिका की तरह बल खाते हुए ७. उज्झितधर्मा--जो भोजन अमनोज्ञ होने के कारण (बाएं पार्श्व के घरों से दाएं पार्श्व के घरों और दाएं परित्याग करने योग्य हो, उसे लेना। पाव से बाएं पार्श्व के घरों में जाते हुए) मुझे भिक्षा ४. अभिग्रह के प्रकार मिले तो लूं अन्यथा नहीं- इस संकल्प से भिक्षा करने का नाम गो-मूत्रिका है। अभिग्रहाश्च द्रव्यक्षेत्रकालभावविषयाः। तत्र द्रव्या४. पतंगवीथिका - पतंगा जैसे अनियत क्रम से भिग्रहा:-कुन्ताग्रादिसंस्थितमण्डकखण्डादि ग्रहीष्य उडता है, वैसे अनियत क्रम से मझे भिक्षा मिले तो लं इत्यादयः । क्षेत्राभिग्रहा-देहलीजङ्घयोरन्तविधाय यदि अन्यथा नहीं-इस संकल्प से भिक्षा करने का नाम दास्यति ततो ग्राह्यमित्यादयः । कालाभिग्रहाः-सकलपतंगवीथिका है। भिक्षाचरनिवर्तनावसरे मया पर्यटितव्यमित्यादयः । ५. शम्बूकावर्ता- शंख के आवों की तरह भावाभिग्रहास्तु-हसन् रुदन् बद्धो वा यदि प्रतिलाभभिक्षाटन करने को शम्बूकावा कहा जाता है। यिष्यति ततोऽहमादास्ये न त्वन्यथेत्येवमादयः । इसके दो प्रकार हैं-आभ्यन्तर शम्बूकावर्त्ता और बाह्य (उशावृ प ६०७) शम्बूकावर्ता। शंख के नाभि-क्षेत्र से प्रारम्भ होकर द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव संबंधी विविध अभिग्रहों बाहर आने वाले आवर्त की भांति गांव के भीतरी भाग से वृत्ति का संक्षेप किया जाता है। से भिक्षाटन करते हुए बाहरी भाग में आने को . द्रव्य-अभिग्रह-कुन्त के अग्रभाग आदि पर संस्थित 'आभ्यन्तर शम्बूकावर्ता' कहा जाता है। बाहर से रोटी आदि लंगा। भीतर जाने वाले शख के आवर्त की भांति गांव के ० क्षेत्र-अभिग्रह-दाता का एक पैर देहली के भीतर बाहरी भाग से भिक्षाटन करते हुए भीतरी भाग में आने और एक पैर देहली के बाहर होगा तो भिक्षा लूंगा। को 'बाह्य शम्बूकावर्ती' कहा जाता है। ० काल-अभिग्रह-सब भिक्षाचरों के लौटने के समय ६. आयत गत्वा-प्रत्यागता-सीधी सरल गली के भिक्षा के लिए जाऊंगा। अन्तिम घर तक जाकर वापिस आते हए भिक्षा लेने का ० भाव-अभिग्रह-दाता हंसता हुआ, रोता हआ या नाम आयतं गत्वा-प्रत्यागता है। बद्ध अवस्था में देगा तो लूंगा, अन्यथा नहीं। ३. सात प्रकार को एषणा भिक्षु-भिक्षाशील, साधु । संसट्टमसंसट्टा उद्धड तह अप्पलेवडा चेव । ..."भेत्तव्वं । उग्गहिया पग्गहिया उज्झियधम्मा य सत्तमिया । अट्ठविधं कम्मखुहं, तेण णिरुत्तं स भिक्खु त्ति ।। (उशाव ६०७) जं भिक्खमेतवित्ती तेण व भिक्ख""। एषणा के सात प्रकार हैं (दनि २४१,२४३) १. संसृष्टा-खाद्य वस्तुओं से लिप्त हाथ या पात्र से जो आठ प्रकार के कर्मों का भेदन करने में संलग्न देने पर भिक्षा लेना। है, वह भिक्षु है। २. असंसृष्टा–भोजन-जात से अलिप्त हाथ या पात्र जिसकी आजीविका का साधन केवल भिक्षा ही है, ... से देने पर भिक्षा लेना। वह भिक्षु है। Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्षु ५०१ भूतिप्रज्ञ द्रव्य भिक्ष भावभिक्ष मिच्छादिट्टी तस-थावराण पूढवादि-बदियादीणं । संवेगो निव्वेगो विसयविरागो सूसीलसंसग्गी । णिच्चं वधकरणरता अबंभचारी य संचइया ।। आराधणा तवो णाण दंसण चरित्त विणओ य ।। दुपय-चतुप्पय-धण-धण्ण-कुविय खंती य मद्दवऽज्जव विमुत्तया तिग-तिगपरिग्गहे निरता। तह अदीणय तितिक्खा । सच्चित्तभोति पयमाणगा य उहिट्रभोती य ।। आवस्सगपरिसुद्धी य होंति भिक्खुस्स लिंगाणि ।। करणतिए जोगतिए सावज्जे आयहेतु पर उभए । (दनि २४७,२४८) अट्ठा-पुणटुपवत्ते ते विज्जा दव्यभिक्ख त्ति ।। संवेग, निर्वेद, विषय-त्याग, सुशील-संसर्ग, आरा (दनि २३७-२३९) धना, तप, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, विनय, क्षांति, मार्दव, जो मांगकर तो खाता है पर मिथ्यादष्टि है, त्रस आर्जव, विमुक्तता, अदीनता, तितिक्षा, आवश्यकशुद्धिस्थावर जीवों का नित्य वध करने में रत है, अब्रह्म- ये भिक्ष के लिंग हैं। चारी है, संचय करने वाला है, परिग्रह में मन, वचन, भिक्षु को जात्यस्वर्ण की उपमा काया और कृत, कारित, अनुमोदन रूप से निरत विसघाति रसायण मंगलत्त विणिए पयाहिणावत्ते । आसक्त है, सचित्तभोजी है, स्वयं पकाने वाला है, गुरुए अडज्झऽकुच्छे अट्ठ सुवण्णे गुणा भणिता ।। उद्दिष्ट भोजी है, तीन करण और तीन योग से स्व और चतुकारणपरिसुद्धं कस-छेदण-ताव-तालणाए य । पर के लिए सावध प्रवृत्ति करता है तथा अर्थ-अनर्थ पाप जं तं विसघाति-रसायणादि गुणसंजुतं होति ।। में प्रवृत्त है, वह द्रव्य भिक्षु है। तं कसिणगुणोवेतं होति सुवणं, सेसयं जुत्ती । दबभिक्ख दुविहो, तं जहा-आगमतो णोआगमतो न य नाम-रूवमत्तेण एवमगुणो भवति भिक्खू ।। य । आगमतो जाणते अणु व उत्ते। णोआगमतो तिविहो, (दनि २५०-२५२) तं जहा -जाणगसरीरदवभिक्खु भवियसरीरदव्वभिक्खू जाणगसरीरभवियसरीरवतिरित्तो दवभिक्खू । जाणग • विष की घात करने वाला, रसायन, मांगलिक, विनयी-लचीला, दक्षिणावर्त्त, भारी, न जलनेसरीरभवियसरीरवतिरित्तो दवभिक्ख तिविहो, तं जहाएगभवियो बद्धाउओ अभिमुहणामगोतो। जो अणंतरं वाला, काटरहित-इन आठ गुणों से युक्त स्वर्ण ही उन्वट्टिऊणं भिक्ख भविस्सति सो एगभविओ । भिक्खूसु असली स्वर्ण होता है। जेण आउयं निबद्धं सो बद्धाउओ । जेण पदेसा निच्छूढा ० जो कष, छेद, ताप और ताडन-इन चार परीसो अभिमुहनामगोतो। (दअचू पृ २३१) क्षाओं में विषघाती आदि गुणों से संयुक्त ठहरता है, द्रव्यभिक्ष के दो प्रकार हैं वह भाव सुवर्ण-असली सुवर्ण है। १. आगमतः -भिक्ष शब्द के अर्थ का ज्ञाता किन्तु ० जिसमें सोने की युक्ति-रंग आदि होते हैं, जो नाम अनुपयुक्त। और रूप से तो जात्य स्वर्ण के सदृश है, किंतु जो २. नोआगमत: -- इसके तीन भेद हैं--ज्ञशरीर, भव्य- कसौटी पर अन्य गुणों से खरा नहीं उतरता, वह शरीर और तद् व्यतिरिक्त । तदव्यतिरिक्त के तीन यौगिक स्वर्ण स्वर्ण नहीं होता। इसी प्रकार जो प्रकार हैं केवल नाम और वेष से भिक्षु है, किन्तु भिक्षु के १. एकभविक-जो इस विवक्षित वर्तमान भव के गुणों से संयुक्त नहीं है, वह सच्चा भिक्षु नहीं है। पश्चात् अगले जन्म में भिक्षु होगा। भावभिक्ष को जीवन चर्या (द्र. श्रमण)। २. बद्धायुष्क -जिसने वर्तमान में भिक्षुभव का आयुष्य भूतिप्रज्ञ---सत्यप्रज्ञ, प्रचुर प्रज्ञावान् । बांध लिया है। ३. अभिमुखनामगोत्र- भावी जन्म की अत्यंत निकटता। भूतिर्मङ्गलं वृद्धी रक्षा चेति वृद्धाः । प्रज्ञायतेऽनया जब तक पंचेन्द्रिय जाति आदि कर्म उदय में नहीं वस्तुतत्त्वमिति प्रज्ञा । ततश्च भूति:-मङ्गलं सर्वमंगलोआते, अन्तमहर्त पश्चात् अवश्य उदय में आयेंगे, वह त्तमत्वेन वृद्धि, विद्धि विशिष्टत्वेन रक्षा वा प्राणिरक्षअभिमुखनामगोत्र है। कत्वेन प्रज्ञा-बुद्धिरस्येति भूतिप्रज्ञः । (उशावृ प ३६८) Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंगल भूति के तीन अर्थ हैं-मंगल वृद्धि और रक्षा । जिससे यथार्थ -- सत्य जाना जाता है वह प्रज्ञा है । भूतिप्रज्ञ के तीन अर्थ हैं जिसकी प्रज्ञा मंगलमय होती है। o • जिसकी प्रज्ञा प्रवृद्ध होती है । ० जिसकी प्रज्ञा सब जीवों की रक्षा में है । मंगल - कल्याण, विघ्नविनयन । १. मंगल का निर्वचन २. मंगल के निक्षेप ३. नाममंगल स्थापनामंगल ४. द्रव्यमंगल के ● आगमतः द्रव्य मंगल • नोआगमतः द्रव्य मंगल ५. तद्व्यतिरिक्त एकभविक आदि भेद ६. भावमंगल • उत्कृष्ट मंगल ७. द्रव्यमंगल और भावमंगल में अन्तर ८. मंगल का प्रयोजन * कायोत्सर्ग से अमंगल निवारण * प्रथम मंगल १. मंगल का निर्वचन प्रवृत्त होती ( द्र. कायोत्सर्ग) ( इ. नमस्कार महामंत्र ) ते तयं मंगिएऽधिगम्म जेण हि अहवा मंगो धम्मो तं लाइ मं गालयइ भवाओ मंगलं ।। ( विभा २२,२४) • जिसके द्वारा हित साधा जाता है, वह मंगल है । ● जो मंग धर्म को लाता है, वह मंगल - धर्म के उपादान का हेतु है। जो भव - जन्म मरण को नष्ट कर देता है, वह मंगल है | ५०२ मंगलं होइ । समादते ॥ मक्यतेऽलं क्रियते शास्त्रमनेनेति मंगलम् मन्यते ज्ञायते निश्चीयते विघ्नाभावोऽनेन । माद्यन्ति हृष्यन्ति मदमनुभवन्ति । शेरते विघ्नाभावेन निष्प्रकम्पतया सुप्ता इस जायन्ते । शास्त्रस्य पारं गच्छन्त्यनेनेति । मह्यन्ते पूज्यन्ते ऽनेनेति मङ्गलम् । ( विभामवृपृ२० ) ● जो शास्त्र को अलंकृत करता है, वह मंगल है। नाम मंगल स्थापना मगल ० जिसके द्वारा विघ्न का अभाव जाना जाता है, वह मंगल है | जिससे प्रसन्नता की अनुभूति होती है, वह मंगल है । ● जिससे निश्चितता की अनुभूति होती है, वह मंगल है । • जिससे शास्त्र का सुगमता से पार पाया जाता है, वह मंगल है। • जिससे लोक में पूजा प्राप्त होती है, वह मंगल है । मध्नाति विनाशयति शास्त्रपारगमनविघ्नान् गमयति शास्त्रस्थैर्य, लालयति च तदेव शिष्यप्रशिष्यपरम्परायामिति मङ्गलम् । यद्वा मन्यन्ते अनापायसिद्धि गायन्ति प्रबन्धप्रतिष्ठिति, लान्ति वाऽव्यवच्छिन्नसन्तानाः शिष्यप्रशिष्यादयः शास्त्रमस्मिन्निति मङ्गलम् । ( उशाबू प २) 1 'में' का अर्थ है मयन शास्त्राध्ययन में आने वाले विघ्नों का अपनयन 'ग' का अर्थ है-गमन ( प्राप्ति), शास्त्र का स्थिरीकरण अथवा शास्त्राभ्यास में स्थिरीकरण 'ल' का अर्थ है लालन, शिष्य-प्रशिष्य परम्परा की अव्यवच्छिति । अथवा 'मं' का अर्थ है - अनपाय निर्वाध-सिद्धि की स्वीकृति 'ग' का अर्थ है- प्रबन्ध को प्रतिष्ठित करने का संकल्प । 'ल' का अर्थ है- अविच्छिन्न शिष्यपरम्परा की प्राप्ति । २. मंगल के निक्षेप .....नामाइ चउव्विहं तं च || ( विभा २४ ) मंगल के चार निक्षेप हैं -नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । ३. नाममंगल स्थापनामंगल " जह मंगलमिह नामं जीवाजीवोभयाण देसीओ । रूढं जलणाईणं ठवणाए सोत्थिआई || ( विभा २७ ) जीवस्य यथा- सिन्धुविषयेऽग्नि मंगलमभिधीयते । अजीवस्य यथा श्रीमल्लाटदेशे दवरकवलनक मंगलमभिधीयते । उभयस्य यथा - वन्दनमाला | ( आवहावृ १ पृ ३) नाममंगल किसी पदार्थ का 'मंगल' नाम रखना यथा - सिन्धु देश में अग्नि को मंगल तथा लाट देश में मौली ( दवरक) को मंगल Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तव्यतिरिक्त : एकभविक आदि भेद ५०३ मंगल कहा जाता है। दोनों देशों में 'वन्दनवार' को शरीर जीवयुक्त होता है। वर्तमान में सर्वथा आगम मंगल कहा जाता है। यह मंगल अर्थ में रूढ़ रहित होने से यहां 'नो' शब्द सर्वथा निषेधवाची है। शब्द है। शरीर भूत और भावी ज्ञान का कारण होने से यहां स्थापनामंगल-अर्हत्, इन्द्र आदि तथा स्वस्तिक, अक्ष 'नो' शब्द एक देशवाची भी है। आदि आकृतियों की स्थापना करना जाणय-भव्वसरीराइरित्तमिह दव्वमंगलं होइ । स्थापनामंगल है। जा मंगल्ला किरिआ तं कुणमाणो अणुवउत्तो ।। ४. द्रव्यमंगल के भेद (विभा ४६) नोआगमतः द्रव्य मंगल का तीसरा भेद हैदव्वमंगलं दुविहं ---आगमतो णोआगमतो य । ज्ञशरीर-भव्यशरीर-व्यतिरिक्त । इसमें अनुपयुक्त होकर (आवचू १ पृ ५) प्रत्युपेक्षण-प्रमार्जन आदि मांगलिक क्रियाएं की जाती द्रव्य मंगल के दो प्रकार हैं हैं । उपयोगरूप आगम के अभाव में क्रिया करने से यह आगमतः द्रव्यमंगल और नोआगमतः द्रव्यमंगल । नोआगमतः तद्व्यतिरिक्त है। आगमत : द्रव्यमंगल जं भूयभावमङ्गलपरिणामं तस्स वा जयं जोग्गं । आगमओऽणुवउत्तो मंगलसद्दाणुवासिओ वत्ता । जं वा सहावसोहणवन्नाइगुणं सुवण्णाइ ।। तन्नाणलद्धिसहिओ वि नोवउत्तो त्ति तो दव्वं ॥ तं पि य हु भावमंगलकारणओ मंगलं ति निद्दिठं । (विभा २९) नोआगमओ दव्वं नोसद्दो सव्वपडिसेहे ।। एक पुरुष मंगल शब्द से अनुवासित है, उसके अर्थ (विभा ४७,४८) की ज्ञानलब्धि से सम्पन्न है, किन्तु मंगल शब्द के अर्थ में नोआगमतः तद्व्यतिरिक्त के अन्य प्रकारउपयुक्त (दत्तचित्त) नहीं है, वह आगम अथवा ज्ञान की ० अतीत में जिसने चरण-करण आदि क्रियाएं की, अपेक्षा द्रव्यमंगल है। किन्तु वर्तमान में उनसे शून्य है, वह शरीर या नोआगमतः द्रव्यमंगल जीवद्रव्य भी तद्व्यतिरिक्त है। नोआगमतस्त्रिविधं द्रव्यमङ्गलं, तद्यथा-ज्ञशरीर- ० जो मंगलक्रिया करने योग्य शरीर या जीव है, वह द्रव्यमङ्गल भव्यशरीरद्रव्यमङ्गलं ज्ञशरीरभव्यशरीरव्य- भा तद्व्यतिरिक्त है। तिरिक्तम् । (आवडाव १५३) ० जो प्रशस्त गुणसम्पन्न स्वर्ण, रत्न, कलश आदि नोआगमतः द्रव्यमंगल के तीन प्रकार हैं मंगल द्रव्य हैं वे भी तदव्यतिरिक्त हैं। १. ज्ञशरीर द्रव्यमंगल-मंगल शब्द के ज्ञाता का मृत ये सब भावमंगल का कारण होने से द्रव्य मंगल हैं। शरीर। यहां नोआगमतः का अर्थ है-आगम (ज्ञान) का सर्वथा २. भव्यशरीर द्रव्यमंगल-वह शरीर जो मंगल शब्द अभी का ज्ञाता बनेगा। ५. तव्यतिरिक्त : एकभविक आदि भेद ३. तद्व्यतिरिक्त द्रव्यमंगल—भूत और भावी पर्याय जाणगसरीर-भवियसरीर-वतिरित्ता दव्वसंखा से अतिरिक्त केवल क्रियाकारी मंगल । तिविहा पण्णत्ता, तं जहा-एगभविए बद्धाउए अभिमूहमंगलपयत्थजाणयदेहो भव्वस्स वा सजीवोत्ति । नामगोत्ते य । नोआगमओ दव्वं आगमरहिओ त्ति जं भणि ।। एगभविए''जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं अहवा नो देसम्म नोआगमओ तदेगदेसाओ। पुव्वकोडी। भूयस्स भाविणो वाऽऽगमस्स जं कारणं देहो। ____ बद्धाउए""जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं पुव्वकोडी (विभा ४४,४५) तिभागं । मंगल पदार्थ को जानने वाला ज्ञशरीर जीवमुक्त अभिमूह नामगोत्ते "जहण्णेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं होता है। मंगल पदार्थ को भविष्य में जानेगा, वह भव्य- अंतोमुहत्तं । (अनु ५६८) Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंगल ५०४ भावमंगल तव्यतिरिक्त द्रव्य शंख के तीन प्रकार हैं-(१) शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत नय अभिमुखनामगोत्र एकभविक (२) बद्धायुष्क (३) अभिमुख नामगोत्र। शंख को मान्य करते हैं। __एकविक-जो जीव वर्तमान जीवन पूरा कर अगले भावसंखा-जे इमे जीवा संखगइनामगोत्ताई भव में शंख रूप में उत्पन्न होगा, वह शंख का आयुष्य कम्माई वेदेति । (अनु ६०४) न बंधने पर भी एकभविक शंख कहलाता है। शंख भव जब यह जीव शंख के भव को प्राप्तकर तिर्यञ्च की प्राप्ति के बीच में एक वर्तमान भव है, इस अपेक्षा से गति नाम, द्वीन्द्रिय जातिनाम और नीच गोत्र कर्म का उसे एकभविक कहा गया है। वेदन करता है, तब वह भावशंख है। ___ इसकी स्थिति जघन्य अन्तरमुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्व- ""मंगलाणि दम्वम्मि पूण्णकलसादी।'' कोटि है । इसका हेतु है-जो जीव पृथ्वी आदि के भव (दनि २१) में अन्तर्मुहर्त जीकर अनन्तर भव में शंख बनता है, वह सोत्थियसिरिवच्छादिणो अट्रमंगलया सुवण्णदधिअन्तर्महर्त की स्थिति वाला एकभविक शंख होता है। अक्खयमादीणि य भावमंगलनिमित्ताणित्ति दव्वमंगलं । जो जीव मत्स्य आदि किसी भव में पूर्वकोटि जीकर फिर (आवचू १ पृ. ५) शंख के रूप में उत्पन्न होता है, वह पूर्वकोटि की आयु पूर्ण-क्लश आदि द्रव्यमंगल हैं। वाला एकभविक शंख है। स्वस्तिक, श्रीवत्स, नन्द्यावर्त्त, वर्धमानक, भद्रासन, बद्धायुष्क-जिस जीव ने शंख का आयुष्य बांध कलश, मत्स्य और दर्पण --ये अष्ट मंगल तथा स्वर्ण, लिया है पर अभी उस जीवन में उत्पन्न नहीं हुआ है, दही, अक्षत आदि भी द्रव्यमंगल हैं। वे भावमंगल में वह बद्धायुष्क कहलाता है। उसकी जघन्य स्थिति अन्त- निमित्त बनते हैं। महत और उत्कृष्ट स्थिति पूर्वकोटि का त्रिभाग है। स्वस्तिक आदि आकृतियां मंगल क्यों ? इसका हेतु है कि वर्तमान आयुष्य का एक तिहाई भाग आकृति-रचना और ऊर्जा के आकर्षण का परस्पर शेष रहता है तब आयुष्य का बंध होता है। इसलिए गहरा संबंध है। स्वस्तिक और नन्द्यावर्त्त की आकृति उत्कृष्ट स्थिति पूर्वकोटि का विभाग बतलाई गई है। रचना मंगलकारी परमाणुस्कन्धों का आकर्षण करती है अभिमुखनामगोत्र-शंख भव प्राप्त जीवों के इसलिए स्वस्तिक और नन्द्यावर्त को मांगलिक माना जघन्यतः एक समय और उत्कृष्टतः अन्तर्मुहूर्त पश्चात् गया है। दर्पण में पारदर्शी परमाणुस्कन्ध होते हैं और द्वीन्द्रिय जाति नाम और नीच गोत्र कर्म उदय में आते मत्स्य की रचना भी विशिष्ट परमाणुस्कन्धों से होती है हैं। जब तक इनका उदय नहीं होता है, वे जीव अभि इसलिए उन्हें मंगल की कोटि में परिगणित किया गया मुखनामगोत्र कहलाते हैं। . अभिमुखनामगोत्रता भावी जन्म की अत्यन्त निकटता में होती है, इसलिए इसकी स्थिति जघन्यतः एक समय भावमंगल और उत्कृष्टतः 1 ग्रहण की गई है। मंगलसुयउवउत्तो आगमओ भावमंगलं होइ । नेगम-संगह-ववहारा तिविहं संखं इच्छंति, तं जहा नोआगमओ भावो सुविसुद्धो खाइयाईओ। -एकभविय बद्धाउयं अभिमुहनामगोत्तं च । (विभा ४९) उज्जुसुओ दुविहं संखं इच्छइ, तं जहा-बद्धाउयं च भावमंगल के दो प्रकार हैंअभिमुहनामगोत्तं च । १. आगमत: भावमंगल --मंगल श्रुत में उपयुक्त वक्ता । तिष्णि सद्दनया अभिमुहनामगोत्तं संखं इच्छंति।। २. नोआगमतः भावमंगल -प्रशस्त क्षायिक भाव आदि। (अनु ५६८) अहवा सम्महसण-नाण-चरित्तोवओगपरिणामो। नैगम, संग्रह और व्यवहार नय तीनों शंख को मान्य नोआगमओ भावो नोसहो मिस्सभावम्मि ।। करते हैं एकभविक, बद्धायुष्क और अभिमुखनामगोत्र । अहवेह नमुक्काराइनाण-किरिआविमिस्सपरिणामो। ... ऋजुसूत्र नय दो शंख मान्य करता है-बद्धायुष्क नोआगमओ भण्णइ जम्हा से आगमो देसे ।। और अभिमुखनामगोत्र । (विभा ५०,५१) Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंगल का प्रयोजन नोआगमतः भावमंगल के अन्य प्रकार--- ० ज्ञान - दर्शन - चारित्र के उपयोग में उपयुक्त हो प्रतिक्रमण आदि क्रियाएं करना । स्तुति से पूर्व नमस्कार आदि में ज्ञानोपयोग से युक्त बद्धांजलि हो नमस्कार क्रिया करना । यहां 'नो' शब्द मिश्रवाची अथवा एक देशवाची है । यहां केवल आगम / ज्ञान या केवल नोआगम / क्रिया नहीं है। ज्ञानोपयोग और क्रिया से मिश्रित परिणाम है । उत्कृष्ट मंगल o धम्म मंगलमुट्ठि अहिंसा संजमो तवो । (द १1१) धर्म उत्कृष्ट मंगल है । उसका स्वरूप है अहिंसा, संयम और तप । चत्तारि मंगलं अरहंता मंगलं सिद्धा मंगल केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं । मंगलं साहू ( आव ४।२ ) अर्हत्, सिद्ध, साधु और केवलिप्रज्ञप्त धर्म – ये चारों भावमंगल हैं । ५०५ ७. द्रव्यमंगल और भावमंगल में अन्तर दवमंगलं अणेगं तिगं अणच्चन्तियं च भवति । भावमंगलं पुण एगंतियं अच्चतियं च भवइ । ( दजिचू पृ १९ ) द्रव्यमंगल में ऐकान्तिक सुखप्राप्ति व आत्यन्तिक दुःख विनाश नहीं होता । भावमंगल ऐकान्तिक और आत्यन्तिक मंगल है | ८. मंगल का प्रयोजन श्रेयांसि बहुविघ्नानि भवन्ति महतामपि । अश्रेयसि प्रवृत्तानां क्वापि यान्ति विनायकाः ॥ ततोऽस्य प्रारम्भ एव मङ्गलाधिकारे नन्दिर्व क्तव्यः । सकलप्रत्यू होपशमनाय ( नन्दीमवृप १) श्रेयस्कर कार्यों में विघ्न आते रहते हैं । इसलिए प्रत्येक शास्त्र के प्रारम्भ में विघ्नों के उपशमन के लिए मंगल अधिकार रहता है / मंगलाचरण किया जाता है । तं मंगलमाईए मझे पज्जन्तए य सत्थस्स । पढमं सत्थत्थाऽविग्धपारगमणाय निद्दिट्ठ ॥ तस्सेव य थेज्जत्थं मज्झिमयं अंतिमं पि तस्सेव । अव्वोच्छित्तिनिमित्तं सिस्स पसिस्साइवंसस्स ॥ ( विभा १३, १४ ) मंत्र - विद्या शास्त्र के आदि में, मध्य में और अन्त में मंगल किया जाता है । शास्त्र के अर्थ का निर्विघ्न पार पाने के लिए आदि में मंगल किया जाता है। प्राप्त अर्थ की स्थिरता के लिए मध्य में मंगल किया जाता है । शिष्यप्रशिष्य की परम्परा की अव्यवच्छित्ति के लिए शास्त्र के अंत में मंगल किया जाता है । मंगलपरिगहिया य सिस्सा अवग्गहेहा-वायधारणासमत्था सत्थाणं पारगा भवंति । ताणि य सत्थाणि लोगे विरायंति वित्थारं च गच्छंति । (दअचू पृ १ ) मंगलाचरण करने वाले शिष्य अवग्रह, ईहा अवाय और धारणा में समर्थ और शास्त्रों के पारगामी होते हैं । उनका शास्त्रीय ज्ञान निरंतर वर्धमान होता हुआ लोक में प्रसिद्धि प्राप्त करता है । मंत्र-विद्या - विशिष्ट प्रकार का वर्ण विन्यास | १. मंत्र का अर्थ २. मंत्र और विद्या में अन्तर ३. मंत्रसिद्ध : स्तम्भाकर्ष ४. विद्यासिद्ध: आर्य खपुट ५. योगसिद्ध : आर्य समित ० वृक्ष आयुर्वेद और योनिप्राभृत ६. आर्य वज्र और आकाशगामिनी विद्या * विद्याचारण आदि लब्धियां ७. चार महाविद्याएं ८. वृश्चिक आदि विद्याएं * नमस्कार मंत्र ( द्र लब्धि ) ( द्र. नमस्कार महामंत्र ) १. मंत्र का अर्थ मन्त्रम् ॐकारादिस्वाहापर्यन्तो ह्रीँ कारादिवर्णविन्यासात्मकः । ( उशावृ प ४१७ ) जिसके आदि में 'ओम्' और अन्त में 'स्वाहा' होता है, जो 'ह्रीं' आदि वर्णविन्यासात्मक होता है, उसे 'मंत्र' कहा जाता है । २. मंत्र और विद्या में अन्तर इत्थी विज्जाऽभिहिया पुरिसो मंतुति तव्विसे सोयं । विज्जा ससाहणा वा साहणरहिओ अ मंतुत्ति ॥ यत्र मन्त्रे देवता स्त्री सा विद्या, अम्बाकुष्माण्ड्यादि । Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंत्र-विद्या ५०६ योगसिद्ध : आर्य समित यत्र तु देवता पुरुष: स मन्त्रः, यथा विद्याराजः, की ओर प्रस्थित हो गए। वहां के एक परिव्राजक को हरिणेगमेषिरित्यादि। (आवनि ९३१ हावृ पृ २७४) जैन मुनियों ने पराजित किया था । वह मरकर गुडशस्त्र जिस मंत्र में स्त्रीदेवता अधिष्ठात्री हो, वह विद्या नगर में व्यंतर देव बना। वह सभी मुनियों को पीडित है। जैसे--अम्बा, कुष्माण्डी आदि। जिसमें पुरुषदेवता करने लगा। आचार्य खपुट इसी प्रयोजन से वहां गए अधिष्ठाता हो, वह मंत्र है। जैसे-विद्याराज, हरिणेग- और व्यन्तर की प्रतिमा के दोनों कानों में दो जते लटका मेषि आदि । अथवा जिसे साधा जाये, वह विद्या है और दिए । पुजारी ने देखा। उसने राजा से शिकायत की। जो बिना साधे ही पठितसिद्ध हो, वह मंत्र है। राजा ने आचार्य को लाठियों से पीटने का आदेश दिया। लाठी के प्रहार आचार्य की पीठ पर हो रहे थे, ३. मंत्रसिद्ध : स्तम्भाकर्ष पर रानियों की पीठे लहूलुहान हो रही थीं। राजा ने साहीणसव्वमंतो बहमंतो वा पहाणमंतो वा । चमत्कार जान लिया। नेओ स मंतसिद्धो खंभागरिसूव्व साइसओ। आचार्य खपुट का बालमुनि भानेज भृगुकच्छ गया (आवनि ९३३) और वहां आहार में गृद्ध होकर बौद्ध भिक्षु बन गया। जिसने सर्व मंत्रों को अथवा अनेक मंत्रों को अथवा अब वह अपने विद्याबल से गहस्थों के घर से सरस-सरस किसी एक प्रधान मंत्र को सिद्ध कर लिया, वह मंत्रसिद्ध भोजन के भरे पात्र आकाशमार्ग से मंगाने लगा। जनता कहलाता है। इसमें स्तम्भाकर्ष का दृष्टान्त ज्ञेय है-- में आक्रोश फैला । आचार्य खपुट वहां गए और अपने एक बार एक विषयलोलुप राजा ने एक सुन्दर साध्वी विद्याबल से आकाशमार्ग से आनेवाले खाद्य से भरे-पूरे को पकड़ लिया। सारा संघ एकत्रित हुआ । एक मंत्रसिद्ध भाजनों को फोड़ डाला ! शिष्य वहां से भाग गया। आचार्य ने राजा के आंगन के सभी स्तम्भों को अभि आचार्य बोद्धों के मठ में गए । बौद्ध भिक्षुओं ने कहा मंत्रित कर दिया। वे सारे स्तम्भ आकाश में उठे और -आओ, बुद्ध प्रतिमा के चरणों में नमस्कार करो। खट खट करने लगे। उस समय प्रासाद के स्तम्भ भी आचार्य खपूट तत्काल प्रतिमा को सम्बोधित कर बोले ---- प्रकंपित हो उठे। राजा भयभीत हुआ। साध्वी को शुद्धोदनसुत ! आओ, मुझे प्रणाम करो । बुद्ध की प्रतिमा ससम्मान विसर्जित कर संघ से क्षमायाचना की। से बुद्ध ने आकर आचार्य के चरणों में प्रणाम किया । द्वार (आवहाव १ पृ २७५) पर स्थित स्तूप से कहा- आओ, प्रणाम करो। स्तूप ने ४. विद्यासिद्ध : आर्य खपुट आकर प्रणाम किया। आचार्य बोले-उठ। वह स्तूप उठा और आचार्य की आज्ञा से अर्धावनत हो वहीं स्थित विज्जाण चक्कवट्टी विज्जासिद्धो स जस्स वेगावि । हो गया। (आवहाव १ पृ २७४,२७५) सिज्झिज्ज महाविज्जा विज्जासिद्धज्जखउडुव्व ॥ ५. योगसिद्ध : आर्य समित (आवनि ९३२) सभी विद्याओं का अधिपति "विद्यासिद्ध' कहलाता सव्वेवि दव्वजोगा परमच्छरयफलाऽहवेगोऽवि । जस्सेह हज्ज सिद्धो स जोगसिद्धो जहा समिओ ।। है। अथवा जिसके एक महाविद्या भी सिद्ध हो जाती है, (आवनि ९३४) वह आचार्य खपूट की भांति 'विद्यासिद्ध' कहलाता है। विभिन्न द्रव्यों के विभिन्न योग आश्चर्य पैदा करने आचार्य खपूट वीरनिर्वाण की चौथी शताब्दी के , वाले होते हैं। एक द्रव्य का योग भी जिसके सिद्ध हो महान् विद्यासिद्ध आचार्य थे। उनके पास उनका भानजा निजा जाता है वह योगसिद्ध कहलाता है, जैसे आर्यसमित । भी दीक्षित था। वह बालक था। उसने आचार्य से कुछ आभीर जनपद में वेना नदी के तट पर तापसों का विद्याएं सुन-सुनकर ग्रहण कर लीं। यह माना जाता है एला । यह माना जाता ह आश्रम था। वहां एक तापस पादुका पहनकर पानी पर कि विद्यासिद्ध व्यक्ति को नमस्कार करने से भी विद्याएं चलकर नदी के उस पार जाता-आता था। जनता में प्राप्त हो जाती हैं। एक बार आचार्य खपूट अपने मुनि चमत्कार हआ। अनेक लोग भक्त बन गए। श्रावकों की भानजे को साधुओं के पास छोड़कर, स्वयं गुडशस्त्रनगर निन्दा होने लगी। एक बार आर्यसमित वहां आए। जब Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्य वज्र और आकाशगामिनी विद्या वह ताप भिक्षा के लिए नदी के दूसरे तट पर गया तब एक श्रावक ने घर पर आमन्त्रित कर पैर प्रक्षालन के मिष से उसके पैर और पादुका - दोनों धो डाले । वह भिक्षा ले पानी पर चलने के लिए उद्यत हुआ । पैर तथा पादुका का लेप धुल गया था। वह पानी पर चलने में समर्थ नहीं हुआ । पानी में डूब गया । आचार्य समित नदी पर आए, द्रव्ययोग का प्रक्षेप किया और नदी से बोले - पुत्री ! वेना ! मुझे मार्ग दो। उसी समय दोनों तट परस्पर मिल गए और आचार्य उस तट पर पहुंच गए। अनेक तापस आचार्य के पास प्रव्रजित हो गए। ( आवहावृ १२७५) वृक्षआयुर्वेद और योनिप्राभृत जाइ सरो सिंगाओ भूतणओ सासवाणुलित्ताओ । संजायइ गोलोमा-विलोम संजोगओ दुव्वा ।। इति रुक्खायुव्वेदे जोणिविहाणे य विसरिसेहितो । दीसइ जम्हा जम्म 11 ( विभा १७७४, १७७५) श्रृंग से शर (बाण) का निर्माण होता है। सरसों से अनुलिप्त होने पर भूतॄण शस्य (अन्न) के रूप में परिणत हो जाता है । अविलोम गोलोमों (गाय के लोमों) से दूर्वा उत्पन्न हो जाती है। इस प्रकार वृक्षआयुर्वेद में विलक्षण द्रव्यों के संयोग से अनेक प्रकार की वनस्पतियों के उत्पन्न होने का उल्लेख है । नाना प्रकार की योनियों के प्रतिपादक योनिप्राभृत ग्रंथ में विसदृश द्रव्यों के संयोग से सर्प, सिंह आदि प्राणियों तथा मणि, स्वर्ण आदि पदार्थों की उत्पत्ति का उल्लेख है । ६. आर्य वज्र और आकाशगामिनी विद्या जेणुद्धरिया विज्जा आगासगमा महापरिन्नाओ । वंदामि अज्जवइरं अपच्छिमो जो सुअहराणं ॥ भइ अ आहिंडिज्जा जंबुद्दीवं इमाइ विज्जाए । गंतुं च माणुसनगं विज्जाए एस मे विसओ || भइ अधारेअव्वा न हु दायव्वा इमा मए विज्जा । अपढिया उम होहिति अओ परं अन्ने || ( आवनि ७६९-७७१ ) अंतिम श्रुतधर ( श्रुतकेवली) आर्य वज्र ने 'महापरिज्ञा' अध्ययन से आकाशगामिनी विद्या का उद्धार किया । इस विद्या से पूरे जम्बूद्वीप का पर्यटन कर मानुषोत्तर पर्वत पर पहुंचा जा सकता है । ५०७ मंत्र - विद्या आर्य वज्र ने संकल्प किया - इस विद्या को प्रवचनप्रभावना के लिए मैं धारण करूंगा, किंतु किसी को प्रदान नहीं करूंगा, क्योंकि भविष्य में मनुष्य अल्प ऋद्धि वाले होंगे । ७. चार महाविद्याएं दुवे नमणि कच्छमहाकच्छाणं पुत्ता उवट्ठिता, ...अन्नया धरणो णागकुमारिदो भगवं वंदओ आगओ अहं तु भगवतो भक्ती मा तुब्भं सामिस्स सेवा अफला भवतुत्तिकाउं पढितसिद्धाई गंधव्वपन्नगाणं अडयालीसं विज्जा सहस्सा देमि, ताण इमाओ चत्तारि महाविज्जाओ, तं जहा गोरी गंधारी रोहिणी पन्नत्ती । ( आवचू १ पृ १६१) कच्छ और महाकच्छ के पुत्र नमि और विनमि भगवान् ऋषभ की सेवा में उपस्थित थे । एक दिन धरणेन्द्र नागकुमार भगवान् की वन्दना के लिए उपस्थित हुए और बोले—तुम लोगों ने भगवान की पर्युपासना की है, वह निष्फल न हो, इसलिए मैं तुम्हें गंधर्व पन्नगों की अड़तालीस हजार विद्याएं देता हूं, जो पठितसिद्ध हैं उनमें गौरी, गांधारी, रोहिणी और प्रज्ञप्ति -- ये चार महाविद्याएं हैं । ८. वृश्चिक आदि विद्याएं विच्छू यसप्पे मूसग मिगी वराही य काग पोयाई । एयाहि विज्जाहिं सो य परिवायगो कुसलो ॥ मोरी नउली बिराली वग्घी सिही य उलुगि उवाई | एआओ विज्जाओ गिण्ह परिव्वायमहणीओ ॥ ( विभा २४५३, २४५४) रहरणं च से अभिमंतिऊण दिन्नं - जइ अन्नं पि उट्ठेइ तो यहरणं भमाडिय तेण वेव हणेज्जह, अजज्जो होस, इंदेणावि न सक्का जेउं सो निप्पटुपसिणवागरण कओ । ताहे सो परिव्वायगो रुट्ठी विच्छुए मुयइ । इरो पडिमल्ले मोरे मुयइ । तेहि विच्छुएहि हएहि पच्छा सप्पे मुयई । ताहे पोयागी सउलिया, तीसे उवाई ओलावित्ति वृत्तं भवइ । एवं जाहे न तरइ ताहे गद्दभी मुक्का । तेण य सा रयहरणेण आया । ( उसुवृ प ७२, ७३ ) अंतरंजिका नगरी में आचार्य श्रीगुप्त के शिष्य रोहगुप्त ने पोट्टशाल परिव्राजक की वाद संबंधी चुनौती को स्वीकार किया । आचार्य ने कहा - वत्स ! वह Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन परिव्राजक सात विद्याओं में पारंगत है— १. वृश्चिक २. सर्प १. मायूरी २. नाकुली ३. विडाली ५. वही ६. काक ७. पोताकी । ३. मूषक ४. मृगी मैं तुझे इन विद्याओं की प्रतिपक्षी सात विद्याएं दीर्घकालिकी संज्ञा है । यही मन है । सिखा देता हूं, जो पठितसिद्ध हैं ५. सिंही ६. उलूकी ७. उलावकी । ५०८ ४. व्याघ्री यदि इन विद्याओं के अतिरिक्त किसी दूसरी विद्या की आवश्यकता पड़े तो तुम इस रजोहरण को घुमाना, इससे तुम अजेय हो जाओगे, इन्द्र भी तुझे पराजित नहीं कर सकेगा । बाद में रोहगुप्त द्वारा पराजित होने पर परिव्राजक ने क्रुद्ध हो वृश्चिक विद्या का प्रयोग किया - रोहगुप्त के विनाश के लिए बिच्छुओं को छोड़ा। रोहगुप्त ने उसकी प्रतिपक्षी मायूरी विद्या से मयूरों को छोड़ा, जिससे बिच्छू समाप्त हो गये । इसी प्रकार परिव्राजक द्वारा किये गये सर्प आदि विद्याओं के प्रयोग को रोहगुप्त ने विफल बना दिया । अंत में परिव्राजक ने गर्दभी विद्या का प्रयोग किया। रोहगुप्त ने अभिमंत्रित रजोहरण का प्रयोग कर उसे भी विफल कर दिया । गुप्त से त्रैराशिक मत की स्थापना हुई । ( द्र. निह्नव) मतिज्ञान- इन्द्रिय और मन के माध्यम से होने वाला ज्ञान । ( द्र. आभिनिबोधिक ज्ञान ) मन- इन्द्रियों द्वारा ज्ञेय सब विषयों को जानने वाला आलोचनात्मक ज्ञान । चित्त ही मन चित्तं मनोद्रव्योप रंजितं । ( अनुचू पृ १३ ) मनोवगंणा के पुद्गलों से उपरंजित चित्त ही मन है । दीर्गकालिको संज्ञा ही मन इह दीहकालिगी कालिगित्ति सण्णा जया सुदीहं पि । संभरइ चितेइ य किह णु कायव्वं ॥ भूयमेस्सं मन के कार्य कालियसणि त्ति तओ जस्स तई सो य जो मणोजोग्गे । खंधेणंते घेत्तुं मन्नइ तल्ल द्धिसंपण्णो ॥ ( विभा ५०८, ५०९) जिसके द्वारा अतीत की स्मृति और भविष्य की चिन्ता - कल्पना की जाती है, वह कालिकी अथवा मनोलब्धि सम्पन्न जीव मनोवर्गणा के अनन्त स्कन्धों को ग्रहण कर मनन करता है, वह दीर्घकालिकी संज्ञा है । यह संज्ञा मनोज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से निष्पन्न होती है । ( जैन साहित्य में मन के लिए कालिकी संज्ञा, दीर्घकालिक संज्ञा, सम्प्रधारण संज्ञा, नोइन्द्रिय, अनिन्द्रिय और छुट्टी इन्द्रिय इन शब्दों का प्रयोग मिलता है 1) मन (दीर्घकालिक संज्ञा ) के कार्य कालिओवएसेणं जस्स णं अत्थि ईहा, अपोहो, मग्गणा, गवेसणा, चिता, वीमंसा से णं सण्णीति भइ । जस्स णं नत्थि ईहा, अपोहो, मग्गणा, गवेसणा, चिता, वीमंसा --- सेणं असण्णीति लब्भइ । ( नन्दी ६२ ) सद्दाइत्थमुवलद्धं अण्णत - वइरेगधम्मेहि ईहइ ति । तस्सेव परधम्मपरिच्चागे सधम्माणुगतावधारणे य 'अवोहो' त्ति अवातो । विसेसधम्मण्णेसणा मग्गणा, जहा मधुर- गंभीरत्तणतो एस संखसद्द इति 1 वीसस प्पयोगुब्भवणिच्चमणिच्चं चेत्यादि गवेसणा । जो यणागते य चितयति 'कहं वा तं तत्थ कातव्वं ?' इति अण्णोष्णालंबणाणुगतं चित्तं चिता आत-पर- इह-परत्थयहिताऽहितविमरिसो वीमंसा । ( नन्दी पृ ४६ ) मन के कार्य हैं । छह ईहा - शब्द आदि अर्थ के विषय में अन्वय और व्यतिरेक धर्मों का विचार करना । अपोहव्यतिरेक धर्म का परित्याग कर अन्वय धर्म का अवधारण करना । मार्गणा - विशेष धर्म का अन्वेषण करना । यथा- मधुर और गंभीर ध्वनि के कारण यह शब्द शंख का है । गवेषणा - स्वभावजन्य, प्रयोगजन्य, नित्य, अनित्य आदि का विचार करना । चिन्ता - यह कार्य कैसे करना चाहिये ? इस प्रकार का चिन्तन करना | विमर्श - हित-अहित की मीमांसा करना । Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन के अवग्रह, ईहा... ५०९ मन जिस जीव में दीर्घकालिकी संज्ञा का विकास होता जैसे चक्रवर्ती के चक्ररत्न में जो छेदन-सामर्थ्य है, वह संज्ञी (समनस्क) और जिसमें इसका विकास होता है, वह तलवार, दात्र या शरपत्र आदि में नहीं नहीं होता, वह असंज्ञी (अमनस्क) है। होता-छेदक भाव तुल्य होने पर भी इनका छेदन प्राणियों में अर्थोपलब्धि के स्तर सामर्थ्य क्रमशः हीयमान ही होता है, वैसे ही प्राणियों में रूवे जहावलद्धी चक्खुमओ दंसिए पयासेण । चैतन्य तुल्य होने पर भी समनस्क प्राणियों में अवग्रह तह छविहोवओगो मणदव्वपयासिए अत्थे ।। आदि संबन्धी वस्तुबोध की जो पटुता होती है, वैसी अविसुद्धचक्खुणो जह नाइपयासम्मि रूवविण्णाणं । पटुता एकेन्द्रिय आदि अमनस्क प्राणियों में नहीं होती। असण्णिणो तहत्थे थोवमणोदव्वलद्धिमओ॥ मन के अवग्रह, ईहाजह मुच्छियाइयाणं अव्वत्तं सव्वविसयविण्णाणं । ___ एवंचिय सुमिणाइसु मणसो सहाइएसु विसएसु । एगिदियाण एवं, सुद्धयर बेइंदियाईणं ॥ होंतिदियवावाराभावे वि अवग्गहाईया ।। (विभा ५१०-५१२) दत्तकपाट-सान्धकाराऽपवरकादीनीन्द्रियव्यापाराभावजैसे चक्षष्मान् व्यक्ति को प्रदीप के प्रकाश में स्फुट वन्ति स्थानानि गह्यन्ते, तेष केवलस्यैव मनसो मन्यअर्थ की उपलब्धि होती है, वैसे ही मनोविज्ञानावरण मानेषु शब्दादिविषयेष्ववग्रहादयोऽवग्रहे-हा-पाय-धारणा कर्म के क्षयोपशम से युक्त जीव को चिन्ताप्रवर्तक मनोद्रव्य भवन्तीति स्वयमभ्यूह्याः तथाहि स्वप्नादौ चित्तोत्प्रेक्षाके प्रकाश में अर्थ की उपलब्धि स्पष्ट होती है। शब्द मात्रेण श्रूयमाणे गीतादिशब्दे प्रथमं सामान्यमात्रोत्प्रेआदि अर्थ में छह प्रकार (पांच इन्द्रिय और एक मन) क्षायामवग्रहः, 'किमयं शब्दः, अशब्दो वा ?' इत्याद्यका उपयोग होता है । प्रेक्षाया त्वीहा, शब्दनिश्चये पुनरपायः, तदनन्तरं तु जैसे अविशुद्ध चक्षुष्मान् को मंद, मंदतर प्रकाश में धारणा । एवं देवतादिरूपे, कपरादिगन्धे। रूप की उपलब्धि अस्पष्ट होती है, वैसे ही असंज्ञी संमूच्छिम पंचेन्द्रिय को अर्थ की उपलब्धि अस्पष्ट होती (विभा २९४ मवृ पृ १४७) ___ इन्द्रियों की प्रवत्ति के पश्चात मन की प्रवत्ति होती है, क्योंकि क्षयोपशम की मंदता के कारण उसमें मनोद्रव्य है. किन्तु स्वप्न आदि में इन्द्रियव्यापार नहीं होता, को ग्रहण करने की शक्ति भी अत्यल्प होती है। जैसे मूच्छित व्यक्ति का शब्द आदि अर्थों का ज्ञान केवल मन की स्वतंत्ररूप से प्रवृत्ति होती है। मन्यअव्यक्त होता है, वैसे ही प्रकृष्ट ज्ञानावरण के उदय मान शब्द आदि विषयों में मन के अवग्रह, ईहा, अवाय के कारण एकेन्द्रिय जीवों का ज्ञान अव्यक्त होता है। और धारणा--ये चारों होते हैं। इनकी अपेक्षा द्वीन्द्रिय आदि जीवों का ज्ञान शुद्धतर, स्वप्न में श्रयमाण गीत के शब्द में मन सामान्य रूप शुद्धतम होता है । मानसिक प्रकाश के अभाव में अर्थ से उत्प्रेक्षा करता है, वह अवग्रह है। यह शब्द है या की उपलब्धि मंद, मंदतर होती चली जाती है - अशब्द ? --- इस प्रकार की उत्प्रेक्षा ईहा है। शब्द के प्राणी अर्थोपलल्धि के प्रकार निश्चय में अपाय और तत्पश्चात् धारणा होती है। गर्भजपंचेन्द्रिय विशुद्धतर इसी प्रकार स्वप्न में देवता आदि के रूप में, कर्पूर सम्मूच्छिम पञ्चेन्द्रिय अविशुद्ध आदि की गंध में, आम्र आदि के रस में, शरीर आदि के चतुरिन्द्रिय अविशुद्धतर स्पर्श में मन के अवग्रह आदि भेद प्रवृत्त होते हैं । त्रीन्द्रिय उससे अविशुद्धतर __ बन्द कपाट वाले अधकारपूर्ण कक्ष में यदि कोई घटना एकेन्द्रिय अविशुद्धतम घटित होती है तो उसकी जानकारी के लिए इन्द्रियां तुल्ले छेयगभावे जं सामत्थं तु चक्करयणस्स । प्रवृत्त नहीं होतीं। ऐसे स्थान मनोव्यापार के विषय बनते तं तु जहक्कमहीणं न होइ सरपत्तमाईणं ।। ईय मणोविसईणं जा पड़या होइ उग्गहाईस् । मन के प्रायोग्य द्रव्य मनन से पूर्व मनोद्रव्य कहलाते तुल्ले चेयणभावे असण्णीणं न सा होइ ।। हैं । मनन काल में उनकी संज्ञा है मन। (द्र. आत्मा ) (विभा ५१३,५१४) मन अथवा ज्ञान का न्यूनतम विकास एकेन्द्रिय में तथा Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन:पर्यवज्ञान ५१० मनःपर्यवज्ञान की परिभाषा सर्वोत्कृष्ट विकास अनुत्तर देवों में होता है । मन से जो मनोद्रव्य को सर्वात्मना जानता है, वह मनःपर्यवज्ञान होने वाले ज्ञान को संव्यवहार प्रत्यक्ष कहा जा सकता है। (द्र. ज्ञान) २. मनःपर्यवज्ञान की परिभाषा मन एक साथ अनेक अर्थों को ग्रहण कर सकता है मणपज्जवनाणं पुण, जणमणपरिचिंतियत्थपागडणं । किन्तु एक साथ दो क्रियायें या दो उपयोग नहीं हो माणुस खित्तनिबद्धं, गुणपच्चइयं चरित्तवओ। सकते। (द्र. निह्नव) (आवनि ७६) ___ मन अप्राप्यकारी है अतः उसके व्यंजनावग्रह नहीं मनःपर्यवज्ञान संज्ञीपंचेन्द्रिय के मनश्चिन्तित अर्थ होता। (द्र. आभिनिबोधिक ज्ञान) को प्रकट करता है। इसका संबंध मनुष्य क्षेत्र से है। मनरूप में परिणत मन के पुदगलस्कन्धों को मन:- यह गुणप्रत्ययिक है, चरित्रवान संयमी के ही होता है। पर्यवज्ञानी जानता है। (द्र. मन:पर्यवज्ञान) जेण उप्पण्णण णाणेण मास्या जेण उप्पण्णेण णाणेण मणुस्सखेत्ते . सन्निजीवेहिं दीर्घकालिकी संज्ञा : संज्ञीश्रुत का भेद । मणपातोग्गाणि दव्वाणि मण्णिज्जमाणाणि जाणति तं (द्र. श्रुतज्ञान) मणपज्जवणाणं भन्नति । जहा पिहजणो अन्नो अन्नस्स कस्सइ आगारे दळूणं दुमणं सुमणं वा भावं जाणति, मनःपर्यवज्ञान -मनोवर्गणा के आधार पर मान एवं मणपज्जवणाणीवि संनीणं पंचेदियाणं मणोगते भावे सिक भावों को जानने वाला अती जाणति, जहा एरिसेहिं दव्वेहिं मण्णिज्जमाणेहिं एरिसं न्द्रिय ज्ञान। चितितं भवति। (आवचू १ पृ७१) जिस ज्ञान के उत्पन्न होने पर मुनि मनुष्य क्षेत्र के १. मनःपर्यवज्ञान का निर्वचन संज्ञी जीवों के मनःप्रायोग्य मनरूप में परिणत मनो २. मनःपर्यवज्ञान की परिभाषा द्रव्यों को जानता है, वह मनःपर्यवज्ञान है। * मनःपर्यवज्ञान : प्रत्यक्ष ज्ञान (द्र. ज्ञान) जैसे एक सामान्य व्यक्ति किसी व्यक्ति के आकार* मन:पर्यवज्ञान स्वार्थ (द्र. ज्ञान) प्रत्याकार को देखकर उसके अच्छे-बुरे भाव जान लेता ३. मन:पर्यवज्ञान के प्रकार है, वैसे ही मनःपर्यवज्ञानी भी संज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीवों के ४. मनःपर्यवज्ञान का विषय मनोगत भाव जान लेता है---अमुक व्यक्ति ने अमुक ५. मनःपर्यवज्ञान की अर्हता प्रकार के मनोद्रव्य से मनन किया है, अतः इसका चिंतन ६. मनःपर्यवज्ञान की पश्यत्ता ऐसा होना चाहिए। ७• मनःपर्यवज्ञानी अचक्षुदर्शन से देखता है मूणइ मणोदव्वाइं नरलोए सो मणिज्जमाणाई। .. दव्वमणोपज्जाए जाणइ पासइ य तग्गएणते । ८. मन:पर्यवदर्शन नहीं होता तेनावभासिए उण जाणइ बज्झेऽणमाणेणं । ९. मन:पर्यवज्ञान और अवधिज्ञान में अन्तर (विभा ८१३,८१४) ० मन:पर्यवज्ञान और अवधिज्ञान में साधर्म्य मनःपर्यवज्ञानी तिर्यक्लोक में संज्ञी जीवों द्वारा १०. मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान में साधर्म्य गहीत मनरूप में परिणत द्रव्यमन के अनन्त पर्यायों तथा * मन:पर्यवज्ञान : एक लब्धि तद्गत वर्ण आदि भावों को जानता देखता है। वह * तीर्थकर और मनःपर्यवज्ञान (द्र. तीर्थकर) | द्रव्यमन से प्रकाशित चिन्तनीय वस्तु -घट, पट आदि १. मनःपर्यवज्ञान का निर्वचन को अनुमान से जानता है। सणिणा मणतेण मणिते मणोखंधे अणते अणंतपदेसिए मनसि मनसो वा पर्यवः मनःपर्यवः-सर्वतो मनो दव्वद्वताए तरंगते य वण्णादिए भावे मणपज्जवनाणेणं द्रव्यपरिच्छेदः । मनांसि --मनोद्रव्याणि पर्ये ति -- पच्चक्खं पेक्खमाणो जाणाति त्ति भणितं । मणितमत्थं सर्वात्मना परिच्छिनत्ति मनःपर्यायम् । (नन्दीमवृ प ६६) पूण पच्चक्खं ण पेक्खति, जेण मणालंबणं मुत्तममत्तं वा। मन में होने वाले अथवा मन के पर्यव मनःपर्यव सो य छदुमत्थो तं अणुमाणतो पेक्खति त्ति अतो हैं । अर्थात् सर्वथा मनोद्रव्य का परिच्छेद मनःपर्यव है। पासणता भणिता । (नन्दीचू पृ २४) Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनःपर्यवज्ञान का विषय मनःपर्यवज्ञान संज्ञी जीव द्वारा मनरूप में परिणत अनन्तप्रदेशी विपूलमति के स्कन्ध तथा तद्गत वर्ण आदि भावों को विउलं वत्थु विसेसणमाणं तग्गाहिणी मई विउला । मनःपर्यवज्ञानी साक्षात् देखता है । वह चितित पदार्थ को चितियमणुसरइ घडं पसंगओ पज्जवसएहिं ।। प्रत्यक्ष नहीं देखता, अनुमान से देखता है, इसलिए उसकी (विभा ७८५) पश्यत्ता बताई गई है। मन का आलम्बन मूर्त-अमूर्त घटोऽनेन चिन्तितः, स च सौवर्ण: पाडलिपूत्रकोऽद्यदोनों प्रकार के पदार्थ हो सकते हैं। छदमस्थ अमूर्त को तनो महान् अपवरकस्थितः फलपिहित इत्याद्यध्यवसायसाक्षात् नहीं देख सकता। हेतुभूता प्रभूतविशेषविशिष्टमनोद्रव्यपरिच्छित्तिरित्यर्थः । (मनःपर्यवज्ञान का विषय मन के द्वारा चिन्त्यमान (नन्दीमवृ प १०८) वस्तु है या चिन्तनप्रवृत्त मनोद्रव्य की अस्वथाएं हैं विशेषग्राहिणी मति विपुलमति है। अमुक व्यक्ति ने इस विषय में जैन परम्परा में मतैक्य नहीं है। निर्यक्ति- घड़े का चिन्तन किया है। वह घड़ा सोने का बना हुआ कार ने पहला पक्ष मान्य किया है। चूर्णिकार ने इसी है, पाटलिपुत्र में निर्मित है, आज ही बना है, आकार में गाथा की व्याख्या में लिखा है कि मनःपर्यवज्ञान अनन्त बड़ा है, कक्ष में रखा हुआ है, फलक से ढका हुआ है इस प्रकार के अध्यवसायों के हेतुभूत अनेक विशिष्ट प्रदेशी मन के स्कन्धों तथा तदगत वर्ण आदि भावों को मानसिक पर्यायों का ज्ञान विपुलमति मनःपर्यवज्ञान है। प्रत्यक्ष जानता है । चिन्त्यमान विषय वस्तु को साक्षात् नहीं जानता क्योंकि चिन्तन का विषय मूर्त और अमर्त ४. मनःपयवज्ञान का विषय दोनों प्रकार के पदार्थ हो सकते हैं। छद्मस्थ मनुष्य तं समासओ चउम्विहं पण्णत्तं तं जहा-दव्वओ, अमूर्त का साक्षात्कार नहीं कर सकता इसलिए मनः- खेत्तओ, कालओ, भावओ। पर्यवज्ञानी चिन्त्यमान वस्तु को अनुमान से जानता है। ० दव्वओ णं उज्जुमई अणते अणंतपएसिए खंधे जाणइ इसीलिए मनःपर्यवज्ञान की पश्यत्ता (पन्नवणा ३०।२) पासइ। ते चेव विउलमई अब्भहियतराए विउलका निर्देश भी दिया गया है। विशेषावश्यक भाष्य में भी तराए विसुद्धतराए वितिमिरतराए जाणइ पासइ । दूसरे पक्ष का अनुसरण किया गया है। देखें-नन्दी सूत्र ० खेत्तओ णं उज्जुमई अहे जाव इमीसे रयणप्पभाए २३ का टिप्पण) पुढवीए उवरिमहेट्ठिल्ले खुड्डागपयरे, उड्ढं जाव जोइसस्स उवरिमतले, तिरियं जाव अंतोमणुस्सखेत्ते ३. मनःपर्यवज्ञान के प्रकार अड्ढाइज्जेसु दीवसमुद्देसु (अर्धतृतीयाङ्गुलहीनेषु-- ___तं च दुविहं उप्पज्जइ, तं जहा-उज्जुमई य आवमवृ प ८२), पण्णरससु कम्मभूमीसु, तीसाए विउलमई य। (नन्दी २४) अकम्मभूमीसु, छप्पण्णए अंतरदीवगेसु सण्णीणं ___ मनःपर्यवज्ञान के दो प्रकार हैं—ऋजुमति और पंचेंदियाणं पज्जत्तयाणं मणोगए भावे जाणइ पासइ । विपुलमति । तं चेव विउलमई अड्ढाइज्जेहिमंगुलेहिं अब्भहियतरं विउलतरं विसुद्धतरं वितिमिरतरं खेत्तं जाणइ ऋजुमति पासइ। रिजु सामण्णं तम्मत्तगाहिणी रिजूमई मणोनाणं । ० कालओ णं उज्जुमई जहण्णेणं पलिओवमस्स पायं विसेसविमुहं घडमेत्तं चिंतियं मुणइ ।। असंखिज्जयभाग उक्कोसेण वि पलिओवमस्स असं(विभा ७८४) खिज्जयभागं अतीयमणागयं वा कालं जाणइ पासइ । ऋजु का अर्थ है - सामान्य । जो सामान्य रूप से तं चेव विउलमई अब्भहियतरागं विउलतरागं मनोद्रव्य को जानता है, वह ऋजुमति मनोज्ञान है। यह विसुद्धतरागं वितिमिरतरागं जाणइ पासइ । प्रायः विशेष पर्याय को नहीं जानता। ऋजुमति मन:- ० भावओ णं उज्जुमई अणते भावे जाणइ पासइ, पर्यवज्ञानी इतना ही जानता है कि अमुक व्यक्ति ने घट सव्वभावाणं अणंतभागं जाणइ पासइ। तं चेव का चिन्तन किया है। देश, काल आदि से सम्बद्ध घट के विउलमई अब्भहियतरागं विउलतरागं विसुद्धतरागं अन्य अनेक पर्यायों को वह नहीं जानता । वितिमिरतरागं जाणइ पासइ । (नन्दी २५) Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनःपर्यवज्ञान ५१२ मनःपर्य वज्ञानी अचक्षु दर्शन से देखता है विषयविभाग की अपेक्षा से मनःपर्यवज्ञान चार ६. मनःपर्यवज्ञान की पश्यत्ता प्रकार का है """पन्नवणाए मणपज्जवनाणपासणा भणिया ।.... १. द्रव्यत:--द्रव्य की दृष्टि से ऋजुमति मनःपर्यवज्ञानी मनःपर्यायज्ञानस्य प्रकृष्टेक्षणलक्षणा साकारोपयोगमनोवर्गणा के अनंत-अनंतप्रदेशी स्कन्धों को जानता विशेषरूपा पश्यत्ता प्रोक्ता, तयवासौ मन:पर्यायज्ञानी देखता है । विपुलमति मनःपर्यवज्ञानी उन स्कंधों को पश्यति इति व्यपदिश्यते । (विभा ८२२ मवृ पृ ३३६) अधिकतर, विपुलतर, विशुद्धतर और उज्ज्वलतर प्रज्ञापना आगम (३०।२) में मनःपर्यवज्ञान की रूप से जानता देखता है। प्रकृष्ट दर्शन लक्षण वाली विशिष्ट, ज्ञानोपयोगरूप २. क्षेत्रत:-क्षेत्र की दृष्टि से ऋजूमति मनःपर्यवज्ञानी पश्यत्ता बतलाई गई है। उसी पश्यत्ता से मन:पर्यवज्ञानी नीचे की ओर इस रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊध्र्ववती देखता है। क्षुल्लकप्रतर से अधस्तन क्षुल्लकनतर तक, ऊपर की ओर ज्योतिष्चक्र के उपरितल तक, तिरछे भाग में ७. मनःपर्यवज्ञानी अचक्षुदर्शन से देखता है मनुष्यक्षेत्र के भीतर अढ़ाई द्वीप समुद्र (ढाई अंगुल सो य किर अचक्खुदंसणेण पासइ जहा सुयन्नाणी।" हीन) तक, पन्द्रह कर्मभूमियों, तीस अकर्मभूमियों (विभा ८१५) और छप्पन अन्तर्वीपों में वर्तमान पर्याप्त समनस्क जैसे श्रुतज्ञानी अचक्षुदर्शन से देखता है, वैसे ही मन: पंचेन्द्रिय जीवों के मनोगत भावों को जानता देखता पर्यवज्ञानी अचक्ष दर्शन से देखता है। है। विपुलमति मनःपर्यवज्ञानी उस क्षेत्र से अढ़ाई मनःपर्यायदर्शनं भिन्नं नोक्तं, कथं 'पश्यति' इत्यूअंगुल अधिकतर (सम्पूर्ण मनुष्य क्षेत्र) विपुलतर च्यते ? अचक्षुर्दर्शनाख्यं मनोरूपनोइन्द्रियं दर्शनविषयविशुद्धतर और उज्ज्वलतर क्षेत्र को जानता देखता मस्य द्रष्टव्यम्, तेनास्य दर्शनसम्भवः । परस्य घटादिकमर्थं चिन्तयतः साक्षादेव मनःपर्यायज्ञानी मनोद्रव्याणि ताव३. कालतः --काल की दृष्टि से ऋजुमति मन:पर्यव- ज्जानाति, तान्येव च मानसेनाचक्षुर्दर्शनेन विकल्पयति । जानी जघन्यतः पल्योपम के असंख्यातवें भाग को, अतो मानसाचक्षदर्शनापेक्षया पश्यतीत्युच्यते। ततश्चैकउत्कृष्टत: पल्योपम के असंख्यातवें भाग अतीत और स्यैव मनःपर्यायज्ञानिनः प्रमातुर्मनःपर्यायज्ञानादनन्तरभविष्य को जानता देखता है। विपुलमति मन:- मेव मानसाचक्षदर्शनमूत्पद्यते इत्यसावेक एव प्रमाता मन:पर्यवज्ञानी उस कालखण्ड को अधिकतर विपूलतर पर्यायज्ञानेन मनोद्रव्याणि जानाति, तान्येव चाचक्षदर्शनेन विशुद्धतर और उज्ज्वलतर जानता देखता है। मानसेन पश्यतीत्यभिधीयते ।"विशेषोपयोगापेक्षया ४. भावत:-भाव की दृष्टि से ऋजुमति मनःपर्यव- जानाति, सामान्यार्थोपयोगापेक्षया पश्यतीत्युक्तम । ज्ञानी अनंतभावों को जानता देखता है, सब भावों (नन्दीहावृ पृ १२२) के अनन्तवें भाग को ही जानता देखता है । विपुल मनःपर्यव दर्शन स्वतंत्ररूप से प्रतिपादित नहीं है, मति मनःपर्यवज्ञानी उन भावों को अधिकतर, तब 'पश्यति' का प्रयोग क्यों ? अचक्षुदर्शननामक मनविपुलतर विशुद्धतर और उज्ज्वलतर जानता देखका रूप नोइन्द्रिय इसके दर्शन का विषय है, इसलिए दर्शन सम्भव है। ५. मनःपर्यवज्ञान की अर्हता कोई व्यक्ति घट का चिंतन कर रहा है। मनःपर्यव........'इडिढपत्त-अपमत्तसंजय-सम्मदिदि-पज्जत्तग- ज्ञानी उसके मनोद्रव्यों को साक्षात् जानता है और मानस संखेज्जवासाउयकम्मभूमिय-गब्भवक्कंतियमणस्साणं......" अचक्षुदर्शन से उन्हीं का विकल्प करता है। अत: मानस मणपज्जवनाणं समुपज्जइ। (नन्दी २३) अचक्षुदर्शन की अपेक्षा से सूत्रपाठ में 'पासइ' का प्रयोग मनः पर्यवज्ञान ऋद्धिप्राप्त (लब्धि प्राप्त), अप्रमत्त- हआ है। संयत, सम्यग्दृष्टि, पर्याप्तक, संख्यात वर्ष आयुष्य वाले, एक ही मनःपर्यवज्ञानी प्रमाता के मनःपर्यवज्ञान के कर्मभूमि में उत्पन्न गर्भज मनुष्यों को होता है । बाद ही मानस अचक्षुदर्शन पैदा होता है। वह मन: Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान में साधर्म्य ५१३ मनःपर्यवज्ञान पर्यवज्ञान से मनोद्रव्यों को जानता है तथा मानस अचक्ष- तोऽतीतानागतपल्योपमासंख्येयभागविषयं, भावतो दर्शन से उन्हीं को देखता है । मनोद्रव्यगतानन्तपर्यायालम्बनम् । ततोऽवधिज्ञानाद् वह विशेष उपयोग की अपेक्षा से जानता है, सामान्य । भिन्नम् । (नन्दीमत् प १११) अर्थोपयोग की अपेक्षा से देखता है। अवधिज्ञान ८. मनःपर्यव दर्शन नहीं होता १. स्वामी-अविरतसम्यगदष्टि, देशविरत, विशिष्टतरमनोद्रव्याकारपरिच्छेदापेक्षया सामान्य सर्वविरत । रूपमनोद्रव्याकारपरिच्छेदो व्यवहारतो दर्शनरूप उक्तः । २.विषय परमार्थतः पुनः सोऽपि ज्ञानमेव, यत: सामान्यरूपमपि ० द्रव्य से-अशेष रूपी द्रव्य । मनोद्रव्याकारप्रतिनियतमेव पश्यति । प्रतिनियतविशेष ० क्षेत्र से पूरा लोक और अलोक में लोकग्रहणात्मकं च ज्ञानं न दर्शनम । अत एव सूत्रेऽपि दर्शनं प्रमाण असंख्येय खण्ड । चतुर्विधमेवोक्तं न पञ्चविधमपि, मनःपर्यायदर्शनस्य ० काल से-असंख्येय अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी परमार्थतोऽसम्भवादिति । (नन्दीमवृ प १०९) प्रमाण अतीत-अनागत काल । विशिष्टतर मनोद्रव्य के ज्ञान की अपेक्षा से ही ० भाव से--प्रत्येक रूपी द्रव्य के असंख्येय सामान्यरूप मनोद्रव्य के ज्ञान को व्यवहार में दर्शन कहा पर्याय । गया है । वास्तव में वह भी ज्ञान ही है। क्योंकि सामान्य मनःपर्यवज्ञान रूप होने पर भी वह प्रतिनियत मनोद्रव्य को ही देखता है। प्रतिनियत-विशेष को ग्रहण करने वाला ज्ञान ही १. स्वामी-ऋद्धि सम्पन्न अप्रमत्त संयत । होता है, दर्शन नहीं। इसलिए आगम में भी चार दर्शन २. विषय (चक्षु-अचक्षु-अवधि-केवल) प्रतिपादित हैं, पांच नहीं। ० द्रव्य से--संज्ञी जीवों का मनोद्रव्य । मनःपर्यवदर्शन वस्तुत: नहीं होता। ० क्षेत्र से मनुष्य क्षेत्र। ___ मनःपर्यायज्ञानं मनोद्रव्याणां पर्यायानेव गृह्णन् उप ० काल से-पल्योपम के असंख्येय भाग प्रमाण जायते । पर्यायाश्च विशेषाः । विशेषग्राहकं च ज्ञानमतो अतीत-अनागतकाल । मनःपर्यायज्ञानमेव भवति, न तु मनःपर्यायदर्शनम् । • भाव से-मनोद्रव्य के अनन्त पर्याय । (आवमव प ८२) मनःपर्यवज्ञान और अवधिज्ञान में साधर्म्य मनःपर्यवज्ञान में क्षयोपशम की पटुता होती है, अतः ..."छउमत्थ-विसय-भावादिसामण्णा ॥ (विभा ८७) वह मनोद्रव्य के पर्यायों को ही ग्रहण करता हुआ उत्पन्न दोनों ज्ञान छद्मस्थ के होते हैं। होता है । पर्याय विशेष होते हैं। विशेष का ग्राहक ज्ञान दोनों ज्ञानों का विषय है-रूपीद्रव्य । है, इसलिए मन:पर्यव ज्ञान ही होता है, मनःपर्यव दर्शन दोनों ज्ञान क्षायोपशमिक भाव हैं। नहीं होता। दोनों प्रत्यक्ष ज्ञान हैं। ६. मन:पर्यवज्ञान और अवधिज्ञान में अन्तर १०. मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान में साधर्म्य अवधिज्ञानमविरतसम्यगदष्टेरपि भवति । द्रव्य यथा मनःपर्यायज्ञानमप्रमत्तयतेरेव भवति एवं केवलतोऽशेषरूपिद्रव्यविषयं, क्षेत्रतो लोकविषयं कतिपयलोकप्रमाणक्षेत्रापेक्षया अलोकविषयं च । कालतोऽतीतानागता ज्ञानमप्यप्रमत्तभावयतेरेवेति साधर्म्यम् ।....... यथा मन:पर्यायज्ञानं विपर्ययज्ञानं न भवति एवं केवलज्ञानमसंख्येयोत्सप्पिणीविषयं, भावतोऽशेषेषु रूपिद्रव्येषु । प्रतिद्रव्यमसंख्येयपर्यायविषयम् । मनःपर्यायज्ञानं पुनः पीति साधर्म्यम् ।। (नन्दीहाव पृ २०) संयतस्याप्रमत्तस्यामषौषध्याद्यन्यतद्धिप्राप्तस्य। द्रव्यतः . जैसे मनःपर्यवज्ञान अप्रमत्त यति के होता है, वैसे ही संज्ञिमनोद्रव्यविषयं, क्षेत्रतो मनुष्यक्षेत्रगोचरं, काल- केवलज्ञान भी अप्रमत्त यति के होता है। Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्य ५१४ मनुष्य के प्रकार • मनःपर्यवज्ञान विपर्ययज्ञान नहीं होता, केवलज्ञान भी * लेश्या की स्थिति (द्र. लेश्या) विपर्ययज्ञान नहीं होता। * चार प्रकार की सामायिक (द्र. सामायिक) मनःपर्याप्ति-मन के योग्य पुद्गलों का ग्रहण, * अवधिज्ञान का संस्थान (द्र. अवधिज्ञान) परिणमन और उत्सर्ग करने वाली । १. मनुष्य के प्रकार पौद्गलिक शक्ति की प्राप्ति । (द्र. पर्याप्ति) जि मणुया दुविहभेया उ, ते मे कित्तयओ सुण । संमुच्छिमा य मणुया, गब्भवक्कंतिया तहा ।। मनुष्य-विकास की सर्वाधिक क्षमता रखने वाला (उ ३६।१९५) प्राणी। मनुष्य के दो प्रकार हैं-सम्मूच्छिम और गर्भ व्युत्क्रान्तिक । १. मनुष्य के प्रकार गर्भव्युत्क्रान्तिक के निर्वचन २. कर्मभूमिज मनुष्य ___गर्ने व्युत्क्रान्ति:-उत्पत्तिर्येषां ते गर्भव्युत्क्रान्तिकाः, ३. अकर्मभूमिज मनुष्य अथवा गर्भाद् व्युत्क्रान्तिः-- व्युत्क्रमणं निष्क्रमणं येषां ते ४. अन्तर्वीपज मनुष्य गर्भव्युत्क्रान्तिकाः, उभयत्रापि गर्भजा इत्यर्थः । ५. अन्तीपज तिर्यच (नन्दीमव प १०२) ६. छप्पन अन्तःप १. जिनकी गर्भ में व्युत्क्रांति/उत्पत्ति होती है, वे • क्षेत्रीय वैशिष्ट्य गर्भव्युत्क्रांतिक/गर्भज हैं। ७. सम्मूच्छिम मनुष्य के उत्पत्ति स्थान २. जिनका गर्भ से व्युत्क्रमण/निष्क्रमण होता है, वे ८. मनुष्य को आयुस्थिति गर्भव्युत्क्रांतिक/गर्भज हैं। ० कायस्थिति गब्भवतिया जे उ, तिविहा ते वियाहिया। ० अन्तर काल अकम्मकम्मभूमा य, अंतरद्दीवया तहा ।। • अवगाहना (उ ३६।१९६) ० संख्यापरिमाण गर्भज मनूष्य तीन प्रकार के हैं-१. कर्मभूमिज २. अकर्मभूमिज और ३. अन्तर्वीपज। ९. मनुष्यभव की प्राप्ति का हेतु पन्नरस तीसइ विहा, भेया अट्ठवीसइं। १०. चार अंग दुर्लभ संखा उ कमसो तेसि, इइ एसा वियाहिया ।। ११. मनुष्य भव की दुर्लभता : बस दृष्टान्त (उ ३६।१९७) १२. आर्यक्षेत्र की दुर्लभता सम्मूच्छिमा-वान्तादिसमुद्भवाः । कर्मभूमका:१३. पूर्ण इन्द्रियों की दुर्लभता पञ्चदशकर्मभूमिजाताः। अकर्मभ्रमका: --विशदकर्म१४. श्रुति की दुर्लभता और उसके हेतु भूमिजाताः। अन्तरद्वीपका:-षट्पञ्चाशत् अन्तरद्वीपेषु १५. श्रद्धा की दुर्लभता जाताः। (आवमवृ प ४३९) १६. आचरण की दुर्लभता मनुष्य के चार प्रकार हैं१७. दुर्लभता के अन्य प्रकार ० सम्मूच्छिम –वान्त, उच्चार-प्रस्रवण आदि चौदह • मनुष्य जन्म : दस अंग स्थानों में उत्पन्न होने वाले। १८. मनुष्य को दस अवस्थाएं ० कर्मभूमिज-पन्द्रह कर्मभूमियों में उत्पन्न होने वाले। * मनुष्य गति : शुभ नामकर्म (द्र. कर्म) ० अकर्मभूमिज-तीस अकर्मभ्रमियों में उत्पन्न होने * मनुष्य में शरीर (द्र. शरीर) वाले। शरीर की अवगाहना का माप (द्र. अंगुल) ० अन्तर्वीपज-छप्पन अन्तर्वीपों में उत्पन्न होने * आयुष्य का माप (द्र. पल्योपम) वाले । Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तद्वपज मनुष्य (सूत्रकार ने अठाईस अन्तद्वीपों का उल्लेख किया है । यह हिमवत् के पाद में प्रतिष्ठित अन्तद्वीपों का ही कथन है । शिखरी के पाद में भी अठाईस अन्तद्वीप हैं ) । एएसि वण्णओ चेव, गंधओ रसफासओ । संठाणादेसओ वावि, विहाणाई सहस्ससो ॥ ( उ ३६।२०३) वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और संस्थान की दृष्टि से मनुष्य के हजारों भेद होते हैं । ५१५ २. कर्मभूमिज मनुष्य • कृषिवाणिज्य तपः संयमानुष्ठानादिकर्मप्रधाना भूमयः कर्मभूमयो - भरतपञ्चकैरवतपञ्चकमहाविदेहपञ्चकलक्षणाः पञ्चदश तासु जाताः कर्मभूमिजाः । ( नन्दीमवृप १०२ ) जिसमें कृषि, व्यापार आदि कर्म तथा संयम, तप आदि अनुष्ठान होते हैं, वह कर्मभूमि कहलाती है । वे कर्मभूमियां पन्द्रह हैं पांच भरत, पांच ऐरवत और पांच महाविदेह । इनमें उत्पन्न होने वाले मनुष्य कर्मभूमिज कहलाते हैं । ३. अकर्म भूमिज मनुष्य कृष्यादिकर्म्मरहिताः कल्पपादपफलोपभोग प्रधाना भूमयो हैमवतपञ्चकहरिवर्ष पञ्चकदेवकुरुपञ्चकोत्तरकुरुपञ्चकरम्यकपञ्चक हैरण्यवतपञ्चकरूपास्त्रिशदकर्मभूमयः । ( नन्दीमवृप १०२ ) जो कृषि आदि कर्म से रहित है, जहां कल्पवृक्षों से आवश्यकताएं पूर्ण होती हैं, वह अकर्मभूमि कहलाती है । अकर्मभूमियां तीस हैं - पांच हैमवत, पांच हरिवर्ष, पांच देवकुरु, पांच उत्तरकुरु, पांच रम्यक्वास, पांच हैरण्यवत | इन अकर्मभूमियों में उत्पन्न होने वाले मनुष्य कर्मभूमि कहलाते हैं । ४. अन्तद्वीप मनुष्य अन्तरे - लवणसमुद्रस्य मध्ये द्वीपा अन्तरद्वपा:एको रुकादयः षट्पञ्चाशत् तेषु जाताः अन्तरद्वीपजाः । ( नन्दी मवृ प १०२ ) लवणसमुद्र के मध्य जो एकोरुक आदि छप्पन द्वीप हैं वे अन्तद्वीप कहलाते हैं। वहां उत्पन्न होने वाले मनुष्य और तिर्यच अन्तद्वपज कहलाते हैं । अन्तरद्वीपवासिनो मनुष्या वज्रर्षभनाराचसंहनिनः मनुष्य समचतुरस्र संस्थानसंस्थिताः समग्र शुभलक्षण तिलकमषपरिकलिता देवलोकानुकारिरूपलावण्यालङ्कारशोभितविग्रहाः । अष्टधनुः शतप्रमाणशरीरोच्छ्रायाः । स्त्रीणां त्विदमेव किञ्चिन्न्यूनं द्रष्टव्यं तथा पल्योपमासंख्येयभागप्रमाणायुषः । स्त्रीपुरुष युगलव्यवस्थिताः । दशविधकल्पपादपसम्पाद्योपभोगसम्पदः । प्रकृत्यैव शुभचेतसो विनीताः प्रतनुक्रोधमानमायालोभाः सन्तोषिणो निरौत्सुक्याः कामचारिrisोमवायुवेगाः । सत्यपि मनोहारिणि मणिकनकमौक्तिकादिके ममत्वकारिणि ममत्वाभिनिवेशरहिताः । सर्वथापगतवैरानुबन्धाः । परस्परप्रेष्यादिभावविनिर्मुक्ता, अत एवाहमिन्द्राः । हस्त्यश्वकरभगोमहिष्यादीनां सद्भावेऽपि तत्परिभोगपराङ्मुखाः पादविहारचारिणो रोगवेदनादिविकला वर्त्तन्ते । चतुर्थाहारमेते गृह्णन्ति । चतुः षष्टिश्च पृष्ठकरण्डकास्तेषाम् । षण्मासावशेषायुषश्चामी स्त्रीपुरुषयुगलं प्रसुवते । एकोनाशीतिदिनानि च तत् परिपालयन्ति । स्तोकस्नेहकषायतया च ते मृत्वा देवलोकमुपसर्पन्ति । तेषु च द्वीपेषु शाल्यादीनि धान्यानि विस्रसात एव समुत्पद्यन्ते परं न ते मनुष्यादीनां परिभोगाय जायन्ते । ( नन्दीमवृप १०४ ) संहनन संस्थान - अन्तद्वपज मनुष्यों के वज्रऋषभ - नाराच संहनन और समचतुरस्र संस्थान होता है । उनकी पृष्ठरज्जु में चोसठ करण्डक (मनके) होते हैं । रूपलावण्य - उनका सौन्दर्य देवों के तुल्य होता है । उनका शरीर तिल, मष आदि समग्र शुभ लक्षणों से युक्त और अलंकारों से अलंकृत होता है । अवगाहना और आयुष्य - पुरुषों की अवगाहना आठ सौ धनुष और स्त्रियों की अवगाहना इससे कुछ कम होती है । इनका आयुष्य पल्योपम का असंख्यातवां भाग होता है । व्यवस्था, स्वभाव आदि - वे स्त्री और पुरुष युगलरूप में रहते हैं । इस यौगलिक व्यवस्था में आहार, वस्त्र आदि संबंधी आवश्यक कार्य दस प्रकार कल्पवृक्षों से सम्पादित होते हैं। उनमें स्वामी सेवक आदि का भेद नहीं होता, अतः वे अहमिन्द्र होते हैं, सभी स्वामी होते हैं । वहां हस्ति, अश्व, ऊंट, गाय, Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्य छप्पन अन्तर्वीप भैस आदि पशु होते हैं। योगलिक उनका उपयोग योजनशतान्यायामविस्तराभ्यां प्रथमेऽन्तरद्वीपाः, ततोऽप्येनहीं करते । वे पादविहारी होते हैं। कैकयोजनशतवृद्धावगाहनया योजनशतचतुष्टयाद्यायामवे स्वभाव से ही शुभ चित्त वाले और विनीत होते विस्तरा द्वितायादयः षट्,"""प्रथमस्य विस्तरा द्वितीयादयः षट्,"""प्रथमस्य चतुष्कस्य हैं। उनके क्रोध, मान, माया और लोभ प्रतन-उपशान्त एकोहक आभाषिको लांगुलिको वषाणिक इति नाम, होते हैं। वे संतोषी और औत्सुक्यविहीन होते हैं। वे द्वितीयस्य """सप्तमस्य घनदन्तो गूढदन्तः श्रेष्ठदन्तः स्वतंत्र विचरण करने वाले और अनुलोम वायुवेग वाले शुद्धदन्त इति । एतन्नामान एव चैतेषु युगलधार्मिका होते हैं । सहज समुपलब्ध चित्ताकर्षक मणि, मुक्ता, स्वर्ण प्रतिवसन्ति । (उशाव प ७००) आदि में उनकी ममत्वबुद्धि नहीं होती। वे वैरभाव से हिमवान् पर्वत की चारों विदिशाओं में तीन-तीन सर्वथा मुक्त होते हैं। वे सब प्रकार के रोगों और सौ योजन लवण समद्र के भीतर, तीन-तीन सौ योजन वेदनाओं से मुक्त होते हैं। आयाम-विस्तार वाले प्रथम चार अन्तर्वीप हैं। इसी माहार-वे एक दिन के अन्तर से आहार करते हैं। प्रकार लवण समद्र के भीतर क्रमशः चार सौ, पांच सौ, अन्तीपों में शालि आदि धान्य स्वभाव से ही छह सौ, सात सौ, आठ सौ तथा नौ सौ योजन आगे चारों उत्पन्न होते हैं, किन्तु वहां के मनुष्य इनका परि- विदिशाओं में चार-चार अन्तर्वीप हैं। इस प्रकार सात भोग नहीं करते। श्रेणियों में एक-एक चतुष्क अन्तर्वीप हैं। अर्थात् ७४४ संततिक्रम · जब उनकी आयु छह मास शेष रहती है, =२८ अन्तर्वीप हैं। उनके नाम ये हैंतब वे एक युगल (पुत्र और पुत्री) को जन्म देते हैं पहला चतुष्क-एकोरुक, आभाषिक, लांगूलिक,वैषाणिक । और उन्यासी दिन तक उस युगल का पालन --- दूसरा चतुष्क-हयकर्ण, गजकर्ण, गोकर्ण, शष्कूलीकर्ण । संरक्षण करते हैं। तीसरा चतुष्क-आदर्शमुख, मेषमुख, हयमुख, गजमुख । गति-राग और द्वेष (आवेश-आवेग) की अल्पता के चौथा चतुष्क - अश्वमुख, हस्तिमख, सिंहमूख, व्याघ्रमुख । कारण वे मृत्यु के पश्चात् देवलोक में उत्पन्न होते पांचवां चतुष्क -अश्वकर्ण, सिंहकर्ण, गजकर्ण, कर्ण प्रावरण । ५. अन्तर्वीपज तिर्यञ्च छठा चतुष्क - उल्कामुख, विद्युन्मुख, जिह्वामुख, मेघमुख । व्याघ्रसिंहसदियो रौद्रभावरहिततया न परस्पर सातवां चतुष्क - घनदन्त, गूढदन्त, श्रेष्ठदन्त, शुद्धदन्त । हिंस्यहिंसकभावे वर्तन्ते । तत एव तेऽपि देवलोकगामिनो इसी प्रकार छठे शिखरी पर्वत के लवण समद्रगत भवन्ति । (नन्दामवृप १०४) इन्हीं नामवाले अन्य अठाईस अन्तर्वीप हैं। अन्तर्वीप के व्याघ्र, सिंह, सर्प आदि तिर्यञ्च रौद्र दोनों को मिलाने पर २८+२८=५६ अन्तर्वीप भाव से रहित होते हैं। उनमें परस्पर हिंस्य-हिंसक भाव होते हैं। इनमें रहनेवाले युगलधर्मा मनुष्य तद्-तद् नाम नहीं होता, इसलिए वे भी देवलोकगामी होते हैं। वाले होते हैं । (देखें -जीवाजीवाभिगम ३।२१६)। ६. छप्पन अन्तर्वीप क्षेत्रीय वैशिष्ट्य तिण्णि जोयणसते लवणजलमोगाहित्ता चुल्ल हिमवंतसिहरिपादपतिट्ठिता एगूरुगादि छप्पण्णं अंतरदीवगा। तेषु च द्वीपेषु दंशमशकयूकामत्कुणादय शरीरोपद्रव (नन्दीचू पृ २२) कारिणोऽनिष्टसूचकाश्च चन्द्रसूर्योपरागादयो न भवन्ति । लवणसमुद्र में तीन सौ योजन भीतर चल्लहिमवान् भूमिरपि तत्र रेणुपङ्ककण्टकादिरहिता सकलदोषपरित्यक्ता के पाद में एकोहक आदि अठाईस अन्तर्वीप तथा शिखरी सर्वत्र समतला रमणीया च वर्त्तते । (नन्दीमवृ प १०४) के पाद में एकोहक आदि अन्य अठाईस अन्तर्वीप उन अन्तर्वीपों में शारीरिक उपद्रव पैदा करने वाले प्रतिष्ठित हैं। इस प्रकार छप्पन अन्तर्वीप हैं। डांस, मच्छर, जूं, खटमल आदि नहीं होते । अनिष्ट के ____ अन्तरद्वीपानां हिमवतः पूर्वापरप्रान्तविदिक्प्रसृत- सूचक चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहण भी नहीं होते। वहां की कोटिषु त्रीणि त्रीणि योजनशतान्यवगाह्य तावन्त्येव भूमि धूलि, कीचड़ और कांटों से रहित होती है। वह Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्य की आयुस्थिति सब दोषों से मुक्त, सर्वत्र समतल और रमणीय होती है । ७. सम्मूच्छिम मनुष्य के उत्पत्ति स्थान अंतमणुसखेत्ते पणयालीसाए जोयणसय सहस्सेसु अड्ढाइज्जेसु दीव-समुद्देसु पन्नरससु कम्मभूमीसु तीसाए अकम्मभूमीसु छप्पन्नाते अंतरदीवएसु गन्भवक्कंतियमणुस्साणं चेव उच्चारेसु वा पासवणेसु वा खेलेसु वा सिंघाणेसु वासु वा पित्सु वा सोणिएसु वा सुक्केसु वा सुक्कपोग्गल परिसाडेसु वा विगयजीवकलेवरेसु वा थी पुरिससंजोगेसु वा गामणिद्धमणेसु वा नगरणिद्धमणेसु वा सव्वेसु चेव असुइट्ठाणेसु वा, एत्थ णं सम्मुच्छिममणुस्सा समुच्छंत ( नन्दीहावृ पृ३३ ) पैंतालीस लाख योजन प्रमाण मनुष्यक्षेत्र में अढ़ाई द्वीप समुद्रों, पन्द्रह कर्मभूमियों, तीस अकर्मभूमियों तथा छप्पन अन्तद्वीपों के गर्भज मनुष्यों के उच्चार, प्रस्रवण, श्लेष्म, सिंघाण, वमन, पित्त, शोणित, शुक्र, परिशारित शुक्रपुद्गल, मृतकलेवर, स्त्रीपुरुष संयोग, ग्रामनालियों नगरनालियों तथा सब अशुचि स्थानों में सम्मूर्छिम मनुष्य पैदा होते हैं । अवगाहना... आयुष्य अंगुलस्म असंखेज्जइभागमेत्तीए ओगाहणाए असन्नी मिच्छादिट्ठी अन्नाणी सव्वाहि पज्जत्तीहि अपज्जत्तगा अंतमुत्ताउया चेव कालं करंति । ( नन्दीहावृ पृ ३३ ) संमुच्छिमाणं चउव्वीस मुहुत्ता अंतरं अंतोमुहुत्तं च ठिती । ( अनुचू पृ ६९) सम्मूच्छिम मनुष्य की अवगाहना है-अंगुल का असंख्यातवां भाग । वह असंज्ञी, मिध्यादृष्टि, अज्ञानी और अपर्याप्त होता है । उसका आयुष्य अन्तर्मुहुर्त तथा अंतर काल चौबीस मुहूर्त का होता है । ८. मनुष्य की आयुस्थिति पलिओ माई तिणि उ, उक्कोसेण आउट्टिई मणुयाणं, अंतोमुहुत्तं मनुष्य की आयुस्थिति जघन्यतः उत्कृष्टतः तीन पल्योपम की है । कायस्थिति वियाहिया । जहनिया ॥ ५१७ ( उ ३६।२०० ) अन्तर्मुहूर्त और पलिओ माई तिणि उ, उक्कोसेण वियाहिया । पुव्वकोडी पुहते, अंतमुत्तं जहन्निया ॥ ( उ ३६।२०१) मनुष्य मनुष्यों की काय स्थिति जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टत: पृथक्त्व (दौ से नो तक) करोड़ पूर्व अधिक तीन पल्योपम है | पंचिदिकायमइगओ, उक्कोसं जीवो उ संवसे । सत्तभवग्गणे ( उ १०/१३) अधिक सात आठ जन्म उसी कार्य में पंचेन्द्रिय काय में उत्पन्न हुआ है । ( पांच इन्द्रिय वाले जीव लगातार एक सरीखे सातअन्तर्मुहूर्त्त और उत्कृष्टतः पृथक्त्व कोटि पूर्व अधिक तीन आठ जन्म ले सकते हैं । मनुष्यों की कायस्थिति जघन्यतः पल्योपम है । यह तीन पत्योपम की भवस्थिति यौगलिक मनुष्यों की होती है। शेष मनुष्यों की उत्कृष्ट भवस्थिति एक कोटिपूर्व की होती है । एक कोटिपूर्व आयुष्य वाले मनुष्य के सात भवों का कालमान सात कोटिपूर्व होता है । वही मनुष्य आठवां भव यदि यौगलिक का करता है तब कुल मिलाकर उसकी स्थिति तीन पल्य और सात पूर्वकोटि की हो जाती है। जीवाजीवाभिगम ९।२२५) अन्तरकाल ... अनंत कालमुक्कोसं, अंतोमुहुत्तं जहन्नयं । ( उ ३६।२०२ ) मनुष्य का अन्तरकाल ( मनुष्य के काय को छोड़कर पुन: उसी काय में उत्पन्न होने तक का काल ) जघन्यत: अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः अनन्त काल का है । अवगाहना ग्रहण कर सकता जीव अधिक से शरीरस्यावगाहना तत् जघन्यम् - अंगुलासंख्येयभागलक्षणम् उत्कृष्टं - त्रिगव्यूतप्रमाणम्) । मनुष्य के शरीर की जघन्य असंख्येय भाग और उत्कृष्ट ( तीन कोस ) प्रमाण होती है । संख्या परिमाण ( आवमवृप ४४६ ) अवगाहना अंगुल का अवगाहना तीन गव्यूत gri ओरालिया बद्धेल्लिया सिय संखिज्जा सिय असंखेज्जा, जहण्णपदे संखेज्जा । गब्भवक्कंतिया णिच्चकालमेव संखेज्जा, परिमितक्षेत्रवर्तित्वात् महाकायत्वात् प्रत्येकशरीरत्वाच्च । ( अनुचू पृ ६८ ) गर्भज मनुष्य सदा संख्येय होते हैं, क्योंकि उनका Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्य ५१८ मनुष्य भव की दुर्लभता : दस दृष्टांत क्षेत्र परिमित होता है। वे महाकाय और प्रत्येक शरीरी अत्यन्त वेदना वाले हैं, वे अपने कृत कर्मों के द्वारा होते हैं । मनुष्यों के औदारिक शरीर संख्येय अथवा मनुष्येतर (नरक, तिर्यञ्च) योनियों में ढकेले जाते हैं। असंख्येय होते हैं । यह असंख्येयता समूच्छिम मनुष्यों की कालक्रम के अनुसार कदाचित् मनुष्यगति को रोकने अपेक्षा से है। वाले कर्मों का नाश हो जाता है। उस शुद्धि को पाकर मणुयाण जहण्णपदे एक्कारस पुव्वकोडिकोडीतो। जीव मनुष्य भव को प्राप्त होते हैं। बावीस कोडिलक्खा कोडिसहस्सा य चुलसीति । प्रहीयमाणेषु मनुष्ययोनिधातिषु कर्मसु निर्वर्तकेषु अठेव य कोडिसता पुव्वाण दसुत्तरा ततो होति । वा आनुपूर्येण उदीर्यमाणेसु, कथं आनुपूा उदीर्यते ? एकासीति लक्खा पंचाणउई सहस्सा य॥ उच्यते, उक्कडढतं जहा तोयं, अहवा कम्म वा जोगं व छप्पण्णा तिणि सता पूव्वाणं पुव्ववणिया अण्णे। भवं च आयूगं वा मणस्सगतिणामगोत्तस्स कस्मिश्चित्तु एत्तो पूव्वंगाई इमाइं अहियाई अण्णाई ।। काले कदाचित तु प्ररणे, न सर्वदेवैत्यर्थः । (उच पृ ९८) लक्खाई एक्कवीसं पूवंगाण सरि सहस्सा य ॥ तिर्यच और नरकगति के योग्य कर्म मनुष्यगति की छच्चेवेगूणदा पुव्वंगाणं सता होंति ॥ प्राप्ति के प्रतिबन्धक होते हैं। उनके अस्तित्व-काल में तेसीति सतसहस्सा छप्पण्णा खलु भवे सहस्सा य। जीव मनुष्यगति को प्राप्त नहीं होता। मनुष्यगति के तिन्नि सया छत्तीसं एवइया वेगला मणुया ॥ बाधक कर्मों का नाश तथा मनुष्य-आनुपूर्वी नामकर्म का __ (अनुचू पृ७१) उदय होने पर जीव को मनुष्यगति में आने की शुद्धि मनष्य का जघन्यपद में संख्यापरिमाण संख्यात प्राप्त होती है। उसी अवस्था में वह मनुष्य बनता है। कोटिकोटि में बताया गया है - ग्यारह कोटिकोटि बाईस लाख कोटि चौरासी हजार १०. चार अग दुलभ कोटि आठ सौ दस कोटि पूर्व, इक्यासी लाख पिच्यानवे चत्तारि परमंगाणि, दुल्लहाणीह जंतुणो। हजार तीन सौ छप्पन पूर्व, इक्कीस लाख सत्तर हजार माणुसत्तं सुई सद्धा संजमम्मि य वीरियं ।। छह सौ उनसठ पूर्वांग, तैयासी लाख छप्पन हजार तीन (उ ३।१) सौ छत्तीस। इस संसार में प्राणियों के लिए चार परम अंग (चौरासी लाख का एक पूर्वांग होता है। चौरासी दुर्लभ हैं-मनुष्यत्व, श्रुति, श्रद्धा और संयम में पराक्रम । लाख को चौरासी लाख से गुणन करने पर जो संख्या लब्ध हो, वह एक पूर्व है। अनुयोगद्वारचूणि में मनुष्यों ११. मनुष्य भव को दुर्लभता : दस दृष्टांत की जघन्य पद संख्या के उनतीस स्थान निर्दिष्ट हैं।) चल्लग पासग धन्ने जए रयणे य समिण चक्के य। (द. शरीर) चम्म जुगे परमाणू दस दिळंता मण अलंभे ॥ ६. मनुष्य भव की प्राप्ति का हेतु (उनि १५९) दुल्लहे खलु माणुसे भवे, चिरकालेण वि सव्वपाणिणं । १. चोल्लग-बारी-बारी से भोजन । ब्रह्मदत्त का गाढा य विवाग कम्मुणो""" ........... एक कार्पटिक सेवक था जिसने उसको अनेक बार (उ१०।४) विपत्तियों से बचाया था। वह सदा उसका सहायक बना - सब प्राणियों को चिरकाल तक भी मनष्य जन्म रहा। ब्रह्मदत्त राजा बन गया। पर इस बेचारे को कहीं मिलना दुर्लभ है। कर्म के विपाक तीव्र होते हैं। आश्रय नहीं मिला। राजा से अब मिलना दुष्कर हो कम्मसंगेहिं सम्मूढा, दुक्खिया बहुवेयणा । गया। बारह वर्ष बीत गए । अभिषेक का बारहवां वर्ष । अमाणुसासु जोणीसु, विणिहम्मति पाणिणो ।। कार्पटिक ने उपाय सोचा । वह ध्वजारोहकों के साथ कम्माणं तु पहाणाए, आणपुवी कयाइ उ । चल पड़ा। राजा ने उसे पहचान लिया । राजा ने उसको जीवा सोहिमणुप्पत्ता, आययंति मणुस्सयं ॥ अपने पास बुलाकर कहा-जो इच्छा हो वह मांगो। (उ ३।६,७) कार्पटिक बोला-राजन् ! मैं पहले दिन आपके प्रासाद जो जीव कर्मों के संग से सम्मूढ, दुःखित और में भोजन करूं, फिर बारी-बारी से आपके समस्त राज्य Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्य भव की दुर्लभता दस दृष्टांत के सभी संभ्रान्त कुलों में भोजन प्राप्त कर पुनः आपके प्रासाद में भोजन करूं - यह वरदान दें । राजा बोलायह क्यों ? तुम चाहो तो मैं तुम्हें गांव दे सकता हूं, धन दे सकता हूं। तुम्हें ऐसा बना सकता हूं कि तुम जीवन भर हाथी के होदे पर सुखपूर्वक घूमते रहो। कार्यटिक बोला मुझे इन सब प्रपंचों से क्या ? राजा ने तथास्तु कहा। ५१९ अब वह बारी-बारी से नगर के घरों में जीमने लगा। उस नगर में अनेक कुलकोटियां थीं। क्या वह अपने जीवनकाल में उस नगर के घरों का अन्त पा सकता था ? कभी नहीं फिर संपूर्ण भारतवर्ष की बात ही क्या । संभव है किसी उपाय या देवयोग से वह संपूर्ण भारतवर्ष के घरों का पार पा जाए, किन्तु मनुष्य जन्म को पुनः प्राप्त करना दुष्कर है। २. पाशक एक व्यक्ति ने स्वर्ण अर्जित करने की एक युक्ति निकाली । उसने जुए का एक प्रकार निकाला और यंत्रमय पाशकों का निर्माण किया । एक व्यक्ति को दीनारों से भरा थाल देकर घोषणा करवाई कि कोई मुझे इस जुए में जीत लेगा, मैं दीनारों से भरा यह थाल उसे दे दूंगा । यदि वह व्यक्ति मुझे नहीं जीत सका तो उसे एक दीनार देना होगा । यंत्रमय पाशक होने के कारण कोई उसे जीत न सका और धीरे-धीरे उसने स्वर्ण के अनेक दीनार अर्जित कर लिए । कदाचित् कोई व्यक्ति उसको जीत भी ले, पर मनुष्य जन्म से भ्रष्ट जीव पुनः मनुष्य जन्म सहजता से प्राप्त नहीं कर सकता । ३. धान्य-धान्य के विविध प्रकारों को मिश्रित कर ढेर लगा दिया । उसमें एक प्रस्थ सरसों के दाने मिला दिए एक वृद्धा उन सरसों के दानों को बीनने । बैठी । क्या वह उन सरसों के दानों को पृथक् कर पाएगी ? देवयोग से पृथक् कर भी ले, फिर भी जीव को पुनः मनुष्य जन्म मिलना दुष्कर है। ४. द्यूत - राजसभा का मंडप एक सौ आठ स्तम्भों पर आधृत था। राजकुमार का मन राज्य लिप्सा से आक्रांत हो गया । उसने राजा को मार डालना चाहा । अमात्य को इसका पता चला। उसने राजा से कहाहमारे वंश की यह परम्परा है कि राजकुमार राज्य प्राप्ति के अनुक्रम को सहन नहीं करता, उसे जुआ मनुष्य खेलना होता है और उस जुए में जीतने पर ही उसे राज्य प्राप्त हो सकता है। उसने पूछा - जीतने की शर्त क्या है ? राजा ने कहा एक गांव तुम्हारा होगा, शेष हमारे । एक ही दांव में यदि तुम आठ सौ खेमों के एक-एक कोण को आठ सौ बार जीत लोगे तो तुम्हें राज्य सौंप दिया जाएगा। जैसे यह असंभव है, वैसे ही मनुष्य जन्म भी असंभव है । ५. रत्न- एक वृद्ध वणिक् के पास अनेक रत्न थे । एक बार वृद्ध देशान्तर चला गया । पुत्रों ने सारे रत्न अन्यान्य व्यापारियों को बेच डाले। बुद्ध देशान्तर से आया और रत्नों के विक्रय की बात सुनकर चिंतित हो गया। उसने पुत्रों से कहा बेचे हुए रत्नों को पुनः एकत्रित करो पुत्र परेशान हो गए, क्योंकि उन्होंने । सारे रत्न परदेशी व्यापारियों को बेच डाले थे । वे सारे व्यापारी दूर-दूर तक चले गए थे जैसे उनसे रत्न । एकत्रित करना असंभव था, वैसे ही मनुष्य जन्म पुनः प्राप्त होना असंभव है । ६. स्वप्न एक कार्यटिक ने स्वप्न में देखा कि - उसने पूर्ण चन्द्रमा को निगल लिया है । उसका फल स्वप्नपाठकों से पूछा । उन्होंने कहा - बड़ा घर मिलेगा। उसे मिल गया। दूसरे कार्यटिक ने भी स्वप्न में संपूर्ण चन्द्र मण्डल को देखा। उसने स्वप्नपाठकों से इसका फल पूछा। वे बोले- तुम राजा बनोगे । उस देश का राजा सात दिन के बाद मर गया । अश्व की पूजा कर उसे गांव में छोड़ा। वह उसी व्यक्ति के पास जाकर हिनहिनाया। उसे पीठ पर बिठाकर राजमहल ले आया । वह राजा बन गया । पहले कार्यटिक ने सोचा मैं भी ऐसा ही स्वप्न । देखूं वह दूध पीकर सो गया। क्या वैसा स्वप्न पुनः सुलभ हो सकता है ? कभी नहीं। वैसे ही मनुष्य जन्म पुनः सुलभ नहीं होता । ७. चक्र – इन्द्रदत्त इन्द्रपुर नगर का राजा था । उसके बाईस पुत्र थे। एक बार वह अमात्य की पुत्री में आसक्त हो, उसके साथ एक रात रहा । वह गर्भवती हुई । उसने पुत्र का प्रसव किया। उसका नाम सुरेन्द्रदत्त रखा । राजा के सभी पुत्र और सुरेन्द्रदत्त कलाचार्य के पास शिक्षा ग्रहण करने लगे। सुरेन्द्रदत्त विनीत और Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्य अचल था। उसने कलाचार्य से बहुत कुछ शिक्षा प्राप्त कर ली। शेव राजकुमार स्थिर नहीं थे। वे वैसे ही रह गए। मथुरा के अधिपति जितशत्रु की पुत्री का नाम निर्वृति था। जब वह विवाह योग्य हुई, तब राजा के पूछने पर उसने कहा- पिताजी! जो राधावेध कर पाएगा, वही मेरा पति होगा । स्वयंवर की घोषणा हुई। एक अक्ष पर आठ चक और उस पर एक पुतली स्थापित की गई । उसकी आंख को बींधने की शर्त रखी। इन्द्रदत्त अपने पुत्रों के साथ वहां आया। सभी पुत्रों ने पुतली की आंख को बींधने का प्रयत्न किया, पर सब व्यर्थ । अन्त में अमात्य के कहने पर सुरेन्द्रदत्त आया। उसको स्खलित करने के अनेक प्रयत्न हुए. पर उसने पुतली की आंख को बींध डाला । लोगों ने जय जयकार किया उसे निर्वृति और राज्य प्राप्त । हुआ और शेष पराजित होकर अपने-अपने देश चले गए। जैसे उस पुतली की आंच को बींधना दुष्कर था, वैसे ही मनुष्य जन्म दुष्कर है। ८. चर्म - एक तालाब था । वह पानी से लबालब भरा हुआ था। पूरे तालाब पर सघन शैवाल छाई हुई थी, मानो वह शैवाल रूपी धर्म से अवनद्ध हो एक कछुआ उसमें रहता था । एक बार उसने पानी में तैरते तैरते एक स्थान पर शैवाल में छिद्र देखा । उसने छिद्र में से ऊपर देखा । आकाश में बाद चमक रहा था, तारे टिमटिमा रहे थे। कुछ क्षणों तक वह देखता रहा। फिर सोचा, परिवार के सभी सदस्यों को यहां लाकर यह मनोरम 'दृश्य दिखाऊं वह तत्काल गया और पूरे परिवार के साथ लौट आया। हटी हुई शैवाल पुनः एकाकार हो गई थी। छिद्र नहीं मिला। सभी सदस्य निराश हो लौट गए। क्या पुनः वह कभी छिद्र को पा सकेगा ? ९. युग (जुआ) – एक अथाह समुद्र । समुद्र के एक छोर पर जुआ है और दूसरे छोर पर उसकी कील पड़ी है । उस कील का जुए के छिद्र में प्रवेश होना दुर्लभ है, उसी प्रकार मनुष्य जन्म भी दुर्लभ है। कील उस अथाह पानी में प्रवाहित हो बहते संभव है वह इस छोर पर आकर जुए ५२० गई । बहतेके छिद्र में आर्य क्षेत्र की दुर्लभता प्रवेश कर ले, किन्तु मनुष्य जन्म से भ्रष्ट जीव का पुनः मनुष्य जन्म पाना दुर्लभ है। " १०. परमाणु – एक विशाल स्तंभ । एक देव उस स्तम्भ का चूर्ण कर एक नलिका में भर मंदरपर्वत पर जाकर उसे फूंक से बिखेर देता है । स्तम्भ के वे सारे परमाणु इधर-उधर बिखर जाते हैं। 1 क्या दूसरा कोई भी व्यक्ति पुनः उन परमाणुओं को एकत्रित कर वैसे ही स्तम्भ का निर्माण कर सकता है ? कभी नहीं। वैसे ही एक बार मनुष्य जीवन को व्यर्थ खो देने पर पुनः उसकी प्राप्ति दुष्कर होती है। (देखें - उशावृ प १४५ - १५० ) १२. आर्य क्षेत्र की दुर्लभता लक्षूण वि माणुसत्तणं, आरिक्षतं पुणरावि दुलहं । बहवे दवा मिलेक्या ( उ १०।१६) मनुष्य जन्म दुर्लभ है । उसके मिलने पर भी आर्यत्व पाना और भी दुर्लभ है बहुत सारे लोग मनुष्य होकर भी दस्यु और म्लेच्छ होते हैं। ( आर्य के नौ प्रकार - १. क्षेत्र आर्य २. जाति आर्य २. कुल आर्य ४. कर्म आर्य ५. शिल्प आर्य साढ़े पचीस देश क्षेत्रार्य माने गए हैं ९. पांचाल १. मगध २. अंग ३. बंग ४. कलिंग ५. काशी ६. कौशल ७. कुरु ८. कुशावर्त ६. भाषा आर्य ७. ज्ञान आर्य ८. दर्शन आर्य ९. चारित्र आर्य | १०. जांगल ११. सौराष्ट्र १२. विदेह १३. वत्स १४. शांडिल्य १५. मलय १६. मत्स्य १७. वरण १८. दशार्ण १९. चेदि २०. सिंधु सौवीर २१. शूरसेन २२. भंगि २३. वट्ट २४. कुणाल २५. लाढ़ अर्थ कैकय । देखें प्रज्ञापना ११९२.९३ ) म्लेच्छ म्लेच्छा - अव्यक्तवाचो, न यदुक्तमार्येश्वधार्यते, ते च शकयवनशवरादिदेशोद्भवाः येप्यवाप्यापि मनुजत्वं Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्लभता के अन्य प्रकार ५२१ मनुष्य """॥ जन्तुरुत्पद्यते, एते च सर्वेऽपि धर्माधर्मगम्यागम्यभक्ष्या- १५. श्रद्धा को दुर्लभता भक्ष्यादि सकलार्यव्यवहारबहिष्कृतास्तिर्यक्प्राया एव । ___लभ्रूण वि उत्तमं सुइं, सद्दहणा पुणरावि दुल्लहा । (उशावृ प ३३७) मिच्छत्तनिसेवए जणे...." जिसकी भाषा अव्यक्त होती है, जिसका कहा हुआ (उ १०११९) आर्य लोग नहीं समझ पाते, उन्हें म्लेच्छ कहा जाता उत्तम धर्म की श्रुति मिलने पर भी श्रद्धा होना है। शक, यवन, शबर आदि देशों में उत्पन्न लोगों को अधिक दुर्लभ है। बहुत सारे लोग मिथ्यात्व का सेवन म्लेच्छ कहा गया है। वे आर्यों की व्यवहार पद्धति -धर्म करने वाले होते हैं। अधर्म, गम्य-अगम्य, भक्ष्य-अभक्ष्य से भिन्न प्रकार का १६. आचरण की दुर्लभता जीवन जीते थे, इसलिए आर्य लोग उन्हें हेय दृष्टि से देखते थे। धम्म पि हु सद्दहंतया, दुल्लहया काएण फासया । इह कामगुणे हि मुच्छिया... १३. पूर्ण इंद्रियों की दुर्लभता (उ १०.२०) लदधण वि आरियत्तणं, अहीणपंचिदियया ह दुल्लहा। उत्तम धर्म में श्रद्धा होने पर भी उसका आचरण विगलिंदियया ह दीसई.......... करने वाले दुर्लभ हैं। इस लोक में बहुत सारे लोग (उ १०।१७) कामगुणों में मूच्छित होते हैं। आर्यदेश में जन्म मिलने पर भी पांचों इन्द्रियों से १७. दुर्लभता के अन्य प्रकार पूर्ण स्वस्थ होना दुर्लभ है। बहुत सारे लोग इन्द्रियहीन दीख रहे हैं। माणस्स खित्त जाई कुल रूवारोग्ग आउयं बुद्धी। सवणुग्गह सद्धा संजमो अ लोगंमि दुलहाई॥ १४. श्रुति को दुर्लभता और उसके हेतु (उनि १५९) अहीणपंचिदियत्तं पि से लहे, उत्तमधम्मसुई हु दुल्लहा। मनुष्यत्व की दुर्लभता के प्रसंग में बारह दुर्लभ कुतित्थनिसेवए जणे.. ए जण ................................. ॥ वस्तुओं का उल्लेख है(उ १०।१८) १. मनुष्य जन्म ७. आयुष्य पांचों इन्द्रियां पूर्ण स्वस्थ होने पर भी उत्तम धर्म २. आर्यक्षेत्र ८. बुद्धि ३. आर्यजाति की श्रुति दुर्लभ है । बहुत सारे लोग कुतीथिकों की सेवा ९. धर्म का श्रवण करने वाले होते हैं। ४. आर्यकुल १०. धर्म का अवधारण आलस्स मोहऽवन्ना थंभा कोहा पमाय किविणत्ता। ५. सुरूपता ११. श्रद्धा भय सोगा अन्नाणा वक्खेव कूऊहला रमणा । ६. आरोग्य १२. संयम एएहिं कारणेहिं लक्ष्ण सुदुल्लहपि माणस्सं ।। इंदियलद्धी निव्वत्तणा य पज्जत्ति निरुवहय खेमं । न लहइ सुइं हिअरि संसारुत्तारिणि जीवो।। धाणारोग्गं सद्धा गाहग उवओग अट्ठो य॥ (उनि १६०,१६१) (उशावृ प १४५) श्रुति की दुर्लभता के तेरह कारण --- ग्यारह वस्तुएं दुर्लभ हैं१. आलस्य ८. भय १. इन्द्रियलब्धि · पांच इन्द्रियों की प्राप्ति । २. मोह ९. शोक २. निर्वर्तना --इन्दियों की पूर्ण रचना । ३. अवज्ञा या अश्लाघा १०. अज्ञान ३. पर्याप्ति – पूर्ण पर्याप्तियों की प्राप्ति ।। ४. अहंकार ११. व्याक्षेप ४. निरुपहतता-- अंगविकलता से रहित । ५. क्रोध १२. कुतूहल ५. क्षेम-संपन्न देश की प्राप्ति । ६. प्रमाद १३. क्रीडाप्रियता। ६. ध्राण-भिक्ष क्षेत्र अथवा वैभवशाली क्षेत्र की ७. कृपणता प्राप्ति। Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्य ५२२ मनुष्य की दस अवस्थाएं सत्तमि च दसं पत्तो, आणपूव्वीइ जो नरो। निठहइ चिक्कणं खेल, खासइ य अभिक्खणं ।। संकुचियवलीचम्मो, संपत्तो अमि दसं । णारीणमणभिप्पेओ, जराए परिणामिओ ॥ णवमी मम्मुही नाम, जं नरो दसमस्सिओ। जराघरे विणस्संतो, जीवो वसइ अकामओ॥ हीणभिन्नसरो दीणो, विवरीओ विचित्तओ । दुब्बलो दुक्खिओ सुवइ, संपत्तो दसमि दसं ॥ (दहाव प८,९) १. बाला--यह नवजात शिशु की दशा है। इसमें सुख दुःख की अनुभूति तीव्र नहीं होती। २. क्रीड़ा --- इसमें खेलकूद की मनोवृत्ति अधिक होती है, कामभोग की तीव्र अभिलाषा उत्पन्न नहीं होती। ३. मन्दा-इस दशा में मनुष्य में काम-भोग भोगने का सामर्थ्य हो जाता है। वह विशिष्ट बल-बुद्धि के कार्य-प्रदर्शन में मन्द रहता है। ४. बला-इसमें बल-प्रदर्शन की क्षमता होती है। ५. प्रज्ञा-इसमें मनुष्य' स्त्री, धन आदि की चिन्ता करने लगता है और कुटुम्बबुद्धि का विचार करता ७. आरोग्य-स्वस्थता। ८. श्रद्धा। ९. ग्राहक-शिक्षक, गुरु । १०. उपयोग -स्वाध्याय आदि में जागरूकता। ११. अर्थ-धर्म विषयक जिज्ञासा । मनुष्य जन्म : दस अंग तत्थ ठिच्चा जहाठाणं, जक्खा आउक्खए चुया । उति माणुसं जोणि, से दसंगेऽभिजायई ॥ खेत्तं वत्थु हिरण्णं च, पसवो दास पोरुसं । चत्तारि कामखंधाणि, तत्थ से उववज्जई ।। मित्तवं नायवं होइ, उच्चागोए य वण्णवं । अप्पायंके महापन्ने, अभिजाए जसोबले । (उ ३।१६-१८) देव अपनी शील आराधना के अनुरूप स्थानों (कल्पों) में रहते हुए आयुक्षय होने पर वहां से च्युत होते हैं। फिर मनुष्य योनि को प्राप्त होते हैं। वे वहां दश अंगों वाली भोग सामग्री से युक्त होते हैं १. वे उन कूलों में उत्पन्न होते हैं, जहां चार काम- स्कन्ध-क्षेत्र, वास्तु, पशु और दास-पौरुषेय होते हैं। २. वे मित्रवान् ३. ज्ञातिमान् ४. उच्चगोत्र वाले ५. वर्णवान् ६. नीरोग ७. महाप्रज्ञ ८. अभिजात (शिष्ट, विनीत) ९. यशस्वी और १०. बलवान होते हैं। १८. मनुष्य को दस अवस्थाएं बाला किड्डा मंदा बला य पन्ना य हायणि पवंचा। पब्भार मम्मुही सायणी य दसमा उ कालदसा ।। जायमित्तस्स जंतुस्स, जा सा पढमिया दसा । ण तत्थ सुहदुक्खाई, बहुं जाणंति बालया॥ बिइयं च दसं पत्तो, णाणाकिड़ाहिं किडइ । न तत्थ कामभोगेहिं, तिव्वा उप्पज्जई मई ।। तइय च दसं पत्तो, पंच कामगुणे नरो। समत्थो भंजिउं भोए, जइ से अस्थि घरे धुवा । च उत्थी उ बला नाम, जं नरो दसमस्सिओ। समत्यो बलं दरिसिउं, जइ होइ निरुवद्दवो ॥ पंचमि तु दसं पत्तो, आण पुव्वीइ जो नरो। इच्छियत्थं विचितेइ, कुडुंबं वाऽभिकखई ।। छट्ठी उ हायणी नाम, जं नरो दसमस्सिओ। विरज्जइ य कामेसु, इंदिएसु य हायई ।। ६. हायनी-इसमें मनुष्य भोगों से विरक्त होने लगता है और इन्द्रियबल क्षीण हो जाता है। ७. प्रपञ्चा -इसमें मुंह से थक गिरने लगता है, कफ बढ़ जाता है और बार-बार खांसना पड़ता है। ८. प्रारभारा-इसमें चमड़ी में झुर्रियां पड़ जाती हैं और बुढ़ापा घेर लेता है। मनुष्य नारी-वल्लभ नहीं रहता। ९. मृन्मुखी इसमें शरीर जरा से आक्रान्त हो जाता है । जीवन-भावना नष्ट हो जाती है। १०. शायनी-इसमें व्यक्ति हीनस्वर, भिन्नस्वर, दीन. विपरीत, विचित्त (चित्तशून्य), दुर्बल और दुःखित हो जाता है। यह दशा व्यक्ति को निद्राणित जैसा बना देती है। (सामान्यतः मनुष्य की आयु सौ वर्ष की मानी जाती है। वह दस-दस वर्ष के अनुपात में बाला, क्रीडा आदि दस अवस्थाओं में विभक्त है। आचारांग सूत्र में सौ वर्ष के संपूर्ण आयु के तीन विभाग किए गये हैं - प्रथम वय-३० वर्ष तक । मध्यम वय-६० वर्ष तक । अंतिम वय--१०० वर्ष तक । Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरण के दो प्रकार ५२३ मरण मध्यम वय के प्रथम दशक (४० वर्ष) तक शरीर १. मरण के दो प्रकार का उपचय होता रहता है। फिर शरीर की शोभा, शक्ति संतिम य दुवे ठाणा, अक्खाया मारणंतिया । आदि की हानि प्रारंभ हो जाती है। पचास वर्ष की अकाममरणं चेव, सकाममरणं तहा ।। अवस्था में इन्द्रियों की शक्ति क्षीण होने लग जाती है। (उ ५५२) फिर बय के साथ-साथ इन्द्रिय-शक्ति की क्षीणता का मरण के दो प्रकार हैं -अकाम मरण और सकाम अनुभव होने लगता है । प्रतीत होता है, सबसे पहले चक्षु मरण । इन्द्रिय की शक्ति क्षीण होती है, फिर श्रोत्र और घ्राण की। अन्त में रसनेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय क्षीण होती अकाम मरण है। अंतिम वय में इन्द्रियां मूढभाव को पैदा करती हैं। ...अकाममरणं बालाणं"। (उ ५।१७) इसका तात्पर्य है कि इन्द्रियों की शक्ति जैसे-जैसे क्षीण अज्ञानी और अविरत का मरण अकाम मरण (बाल होती है, पुरुष उन इन्द्रिय-विषयों के प्रति अधिक आसक्त मरण) कहलाता है। होता जाता है। बुढ़ापे में प्रायः लोगों का स्वभाव ते हि विषयाभिष्वंगतो मरणमनिच्छन्त एव म्रियन्ते । मूर्खाग्रस्त हो जाता है। दुष्कृतकर्मणां परलोकाद् बिभ्यतां यन्मरणमुक्तम् । इन्द्रियों के केन्द्रबिन्दु पृष्ठमस्तिष्क में होते हैं। (उशाव प २४२) इन्द्रियों का प्रज्ञान उनके केन्द्रबिन्दुओं के क्षीण होने पर जो व्यक्ति विषय में आसक्त होने के कारण मरना क्षीण होता है। उस स्थिति में असमय में भी मृत्यू हो नहीं चाहता, विवशता की स्थिति में मरता है, उस मरण सकती है। श्रोत्र आदि इन्द्रियों के लाखों स्नायू होते हैं। को अकाम मरण कहा जाता है। उनके अभिघात से मृत्यु हो सकती है।) सकाम मरण मनोगुप्ति मन की प्रवृत्ति का निरोध । असत् .."सकाममरणं पंडियाणं ॥ (उ ५।१७) चिन्तन से निवर्तन। संयति का मरण सकाम मरण (पंडित मरण) (द्र. गुप्ति) कहलाता है। मनोयोग-मन की प्रवृत्ति। (द्र. योग) सह कामेन ---अभिलाषेण वर्तते इति सकामं । मरण-आयु की समाप्ति । सकाममिव सकामं मरणं प्रत्यसंत्रस्ततया, तथात्वं चोत्सवभूतत्वात् तादृशां मरणस्य । (उशावृ प २४२) १. मरण के दो प्रकार जो मृत्युकाल में भयभीत नहीं होता और उसे ० अकाम मरण ० सकाम मरण उत्सव-रूप मानता है, उसका इच्छामरण सकाम मरण कहलाता है। २. मरण के सतरह प्रकार (बाल-मरण के बारह भेद हैं• आवीचि मरण आदि १. वलय ७. जल-प्रवेश • गृद्धपृष्ठ और वैहायस मरण २. वशात ८. अग्नि-प्रवेश ३. प्रशस्त मरण * भक्तपरिज्ञा आदि (द्र. अनशन) ३ अन्तःशल्य ९. विष-भक्षण ४. तद्भव १०. शस्त्रावपाटन * आयुष्य क्षीण होने के कारण ५. गिरि-पतन * सोपक्रम-निरूपक्रम आयुष्य ११ वैहायस (द्र. कर्म) ६. तरु-पतन १२. गृद्धपृष्ठ। ४. एक साथ कितने मरण ? पंडित-मरण के दो भेद हैं -प्रायोपगमन और भक्त५. मरण कितनी बार ? प्रत्याख्यान । ६. मरण : काल, अंतर आदि यहां इंगिनीमरण को भक्तप्रत्याख्यान का ही एक . * केवली-मरण कवला) | भेद स्वीकार किया गया है। देखें- भगवई २०४९ की वृत्ति ।) (द्र. कर्म) Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरण मरणं पि सपुण्णाणं, जहा मेयमणुस्सुयं । विप्पसण्णमणाघायं, संजयाण वसीमओ || न इमं सव्वेसु भिक्खुसु न इमं सव्वेसुगारिसु । नाणासीला अगारत्था, विसमसीला य भिक्खुणो ॥ (उ ५।१८, १९) पुण्यशाली, संयमी और जितेन्द्रिय पुरुषों का मरण प्रसन्न और आघातरहित होता है। सकाम मरण न सब भिक्षुओं को प्राप्त होता है और न सभी गृहस्थों को । क्योंकि गृहस्थ विविध प्रकार के शील वाले होते हैं और भिक्षु भी विषमशील वाले होते हैं । २. मरण के सतरह प्रकार आवीचि ओहि अंतिय वलायमरणं वसट्टमरणं च । अंतोसल्लं तब्भव बालं तह पंडियं मीसं ॥ छउमत्थमरण केवलि वेहाणस गिद्धपिट्टमरणं च । मरणं भत्तपरिण्णा इंगिणी पाओवगमणं च ॥ ( उनि २१२,२१३) मरण के सतरह प्रकार हैं१. आवीचिमरण २. अवधिमरण ३. अत्यंतमरण ४. वलन्मरण ५. वशार्त्तमरण ६. अन्तः शल्यमरण ७. तद्भवमरण १५. भक्तपरिज्ञामरण ८. बालमरण १६. इंगिनीमरण ९. पंडितमरण १७. प्रायोपगमनमरण । (सतरह मरण विभिन्न विवक्षाओं से प्रतिपादित हैं। आवीचि, अवधि, अत्यंत और तद्भव मरण भव की दृष्टि से, वलन्, वैहायस, गृद्धपृष्ठ, वशार्त्त और अन्तःशल्यमरण आत्मदोष, कषाय आदि की दृष्टि से, बाल और पंडित मरण चारित्र की दृष्टि से, छद्मस्थ और केवलिमरण ज्ञान की दृष्टि से तथा भक्तपरिज्ञा, इंगिनी और प्रायोपगमन मरण अनशन की दृष्टि से प्रतिपादित हैं । समवाओ १७।९ में भक्तपरिज्ञा के स्थान पर भक्त - प्रत्याख्यान नाम । मूलाराधना की विजयोदया वृत्ति में क्रम तथा नामों में भी अन्तर है ।) आवीचिमरण १०. बाल - पंडितमरण ११. छद्मस्थमरण १२. केवलिमरण ५२४ १३. वैहायसमरण १४. गृद्धपृष्ठ (गृध्रस्पृष्ट) मरण अणुसमयनिरंतरमवी इसन्नियं तं भांति पंचविहं । दवे खित्ते काले भवे य भावे य संसारे ॥ मरण के सतरह प्रकार प्रतिसमयमनुभूयमानायुषोऽपरायुर्दलिकोदयात् पूर्वपूर्वायुर्दलिक विच्युतिलक्षणाऽवस्था यस्मिंस्तदाऽऽवीचि । ...' अथवा वीचिः विच्छेदस्तदभावादवीचि तत्संज्ञितम् । ( उनि २१५ शावृ प २३१) तरंग । समुद्र और नदी में प्रति का अर्थ है क्षण लहरें उठती हैं। वैसे ही आयुकर्म भी प्रतिसमय उदय में आता है और प्रत्येक समय का जीवन प्रतिसमय में होता है । इस प्रकार प्रतिक्षण आयुकर्म के दलिकों की विच्युति आवीचिमरण कहलाता है । अथवा वीचि का अर्थ है --विच्छेद । जिसमें प्रतिक्षण- निरन्तर मृत्यु होती है, बीच में विच्छेद या व्यवधान नहीं होता, वह अवीचिमरण । द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव की अपेक्षा से आवीचिमरण के पांच प्रकार हैं । अवधिमरण एमेव ओहिमरणं जाणि मओ ताणि चेव मरइ पुणो । अवधिनाम यानि द्रव्याणि साम्प्रतं आयुष्कत्वेन गृहीतानि पुनरायुष्कत्वेन गृहीत्वा मरिष्यति इत्यतो अवधिमरणम् । ( उनि २१६, चू पृ १२७, १२८) जो कर्मद्रव्य वर्तमान आयुष्य के रूप में गृहीत हैं और पुनः आयुष्य के कर्मद्रव्य ग्रहण कर ( नया आयुष्य कर्म बांधकर ) जीव मरता है, वह अवधिमरण है । अत्यंत मरण .....आइयंतियमरणं नवि मरइ ताइ पुणो ॥ आत्यन्तिकं अवधिमरणविपर्यासाद्धि आदियंतियमरणं भवति । तं जहा यानि द्रव्याणि सांप्रतं मरति, न ह्यसौ पुनस्तानि मरिष्यति । ( उनि २१६, चूपृ १२८ ) जीव वर्तमान आयु-कर्म के पुद्गलों का अनुभव कर मरण प्राप्त हो, फिर उस भव में उत्पन्न न हो तो उस मरण को अत्यंत मरण कहा जाता है । वलन्मरण संजमजोगविसन्ना मरंति जे तं वलायमरणं तु । ... वलंता क्षुधापरीसहेहि मरंति, ण तु उवसग्गमरणं तितं वलायमरणं । ( उनि २१७, चू पृ १२८ ) जो संयमयोगों में विषण्ण होकर, क्षुधा आदि परीषहों से पराजित होकर मरते हैं, उनकी मृत्यु को वलन्मरण कहा जाता है । यह उपसर्गों से होने वाली मृत्यु नहीं है। Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृद्धपृष्ठ और वैहायस मरण वशार्त्तमरण ......इंदिय विसयवसगया मरंति जे तं वसट्टं तु ॥ ( उनि २१७ ) जो इन्द्रियों के वशीभूत होकर मरण को प्राप्त करते हैं, वह वशात मरण कहलाता है । अन्तः शल्यमरण लज्जाइ गारवेण य बहुस्सुयमएण वाऽवि दुच्चरिअं । जे न कहंति गुरूणं न हु ते आराहगा हुंति ॥ arrai bfनिबुड्डा अइयारं जे परस्स न कहंति । दंसणनाणचरिते ससल्लमरणं हवइ तेसि ॥ ( उनि २१८,२१९ ) जो लज्जा, गौरव और बहुश्रुत होने के अभिमान से अतिचारों की गुरु के समक्ष आलोचना न कर दोषपूर्ण अवस्था में मरण को प्राप्त करते हैं, उनका मरण अन्तःशल्यमरण कहलाता है । ५२५ तद्भव मरण मोत्तुं अकम्मभूमगनरतिरिए सुरगणे अ नेरइए । सेसाणं जीवाणं तब्भवमरणं तु केसिचि ॥ ( उनि २२१ ) अकर्मभूमि मनुष्य और तिर्यंच तथा देव और नारकों के अतिरिक्त शेष जीवों का मरण तद्भवमरण कहलाता है । वर्तमान में जिस भव में है, पुन: उसी भव का आयुष्य बांधकर जो जीव मरता है, वह तद्भवमरण है । कर्मभूमिजनरतिरश्चां प्राणिनां तद्भवमरणं, तेषामेव पुनस्तत्रोत्पत्तेः तद्धि यस्मिन् भवे वर्त्तते जन्तुस्तद्भवयोग्यमेवायुर्बध्वा पुनस्तत्क्षयेण म्रियमाणस्य भवति, तुशब्दस्तेषामपि संख्येयवर्षायुषामेवेति विशेषख्यापकः । असंख्येयवर्षायुषां हि युगलधार्मिकत्वाद कर्मभूमिजानामिव देवेष्वेवोत्पादः । तेषामपि न सर्वेषां किन्तु केषाञ्चित् तद्भवोत्पादानुरूपमेवायुः कर्मोपचिन्वतामिति । ( उशावृ प २२३) संख्ये वर्षजीवी कर्मभूमिज मनुष्य और तिर्यंचों का तद्भवमरण होता है क्योंकि वे ही पुनः उसी भव में उत्पन्न हो सकते हैं । वे वर्तमान में जिस भव में हैं, उसी भव के योग्य आयुष्य बांधकर आयु क्षीण होने पर पुनः वहीं उत्पन्न हो जाते हैं । संख्येयवर्षजीवियों में भी सबका तद्भवमरण नहीं होता, केवल उन्हीं का होता है, जो उस भव के योग्य आयुकर्म का बंध करते हैं । अकर्मभूमिज मनुष्यों की तरह असंख्येयवर्षजीवी कर्मभूमिज मनुष्य यौगलिक होने के कारण देवों में ही उत्पन्न होते हैं । मरण बाल, पंडित और बालपंडितमरण अविरयमरणं बालं मरणं विरयाण पंडियं बिति । जाणाहि बालपंडियमरणं पुण देसविरयाणं ॥ ( उनि २२२ ) बालमरण - अविरत का मरण । पंडित मरण - सर्वविरत ( संयंती ) का मरण । बालपंडितमरण - देशविरत ( संयतासंयती ) मरण । छद्मस्थमरण का मणपज्जवोहिनाणी सुअमइनाणी मरंति जे समणा । छउमत्थमरणमेयं || ( उनि २२३) मनः पर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, श्रुतज्ञानी और मतिज्ञानी श्रमण के मरण को छद्मस्थमरण कहा जाता है । केवलीमरण ..... केवलिमरणं तु केवलिणो ॥ ( उनि २२३) केवलज्ञानी का मरण केवलीमरण कहलाता है । गृद्धपृष्ठ और वैहायसमरण गिद्धाsभक्खणं गिद्धपिट्ठ उब्बंधणार वेहासं । एए दुन्निवि मरणा कारणजाए अणुष्णाया ॥ गृद्धाः प्रतीतास्ते आदिर्येषां शकुनिकाशिवादीनां तर्भक्षणं गम्यमानत्वादात्मनः तदनिवारणादिना तद्भक्ष्यकरिकरभादिशरीरानुप्रवेशेन च गृधादिभक्षणं गृध्रः स्पृष्टं - स्पर्शनं यस्मिस्तद्गृध्रस्पृष्टम्, यदिवा गृध्राणां भक्ष्यं पृष्ठमुपलक्षणत्त्वादुदरादि च मर्तुर्यस्मिस्तद्गृध्रपृष्ठम्, सालक्तकपूणिकापुटप्रदानेनाप्यात्मानं गृध्रादिभिः पृष्ठादौ भक्षयतीति । पश्चान्निर्दिष्टस्यापि चास्य प्रथमतः प्रतिपादनमत्यन्तमहासत्त्वविषयतया कर्मनिर्जरां प्रति प्राधान्यख्यापनार्थम् उत् ऊर्ध्वं वृक्षशाखादौ बन्धनमुद्बन्धनं तदादिर्यस्य तरुगिरिभृगुप्रपातादेरात्मजनितस्य मरणस्य तदुद्बन्धनादि "गृध्र पृष्ठवहायसाख्ये मरणे कारणजाते कारणप्रकारे दर्शनमालिन्यपरिहारादिके उदायिनृपानुमृततथाविधाचार्यवत् अनुज्ञाते, तीर्थंकृद्गणधरादिभिरिति । ( उनि २२४ शावृप २३४, २३५) Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरण किसी कारणवश किए जाने वाले ये दो प्रकार के मरण- गूढपृष्ठमरण तथा वैहायसमरणमुनि के लिए अनुज्ञात हैं । हाथी, ऊंट आदि वृहदकाय पशुओं के कलेवर में प्रविष्ट होने पर उस कलेवर के साथ-साथ उस जीवित शरीर को भी गीध, चील, श्रृंगाल आदि जानवर नोंचकर मार डालते हैं। उस समय वह अनुप्रविष्ट जीवित मनुष्य उनको निवारित नहीं करता । गृद्धपृष्ठ का अर्थ है - गीध आदि के द्वारा खाये जाने वाले शरीर के पीठ, उदर आदि अवयव । इस प्रकार का मरण अत्यन्त साहसी और सत्त्वशाली व्यक्ति ही स्वीकार कर सकता है, सामान्य व्यक्ति नहीं। यह कर्मनिर्जरा का एक प्रधान साधन है । गले में रस्सी बांधकर वृक्ष की शाखा पर लटकने, पर्वत से गिरने, प्रपात से झंपा लेने से होने वाले मरण को वैहायसमरण कहा जाता है। ये दोनों प्रकार के मरण दर्शन आदि की मलिनता के प्रसंग उपस्थित होने पर अथवा ऐसे ही किसी कारणवश तीर्थंकरों तथा गणधरों द्वारा अनुज्ञात हैं। उदायी राजा के मरण का अनुसरण कर एक आचार्य ने इन दोनों में से किसी एक मरण को स्वीकार किया था । ( आवारी ६५८ में ब्रह्मचर्य की सुरक्षा के लिए मुनि को वैहायसमृत्यु के प्रयोग की स्वीकृति दी गई है। ठाणं २०४१३ में शीलरक्षा आदि प्रयोजन होने पर मुनि के लिए दो प्रकार के मरण अनुमत हैं - वैहायसमरण तथा गृद्धस्पृष्टमरण | देखें - आचारांगभाष्यम् पृ. ३७८,३७९ ।) गृधपृष्ठस्य वैहासिकेऽन्तर्भावः केवलमल्पसरध्यवसातुमशक्तास्थापनार्थमस्य भेदेनोपन्यासः । ..... ( उणावुप २३४) गृधपृष्ठमरण का वैहायसमरण में अन्तर्भाव हो जाता है। अल्प शक्ति वाले व्यक्ति इसे स्वीकार करने में असमर्थ होते हैं, इसलिए इसका पृथक् ग्रहण किया गया है । ३. प्रशस्त मरण एतपसत्था तिणि इत्थ मरणा जिणेहि पण्णत्ता । मतपरिण्णा इंगिणी पाउवगमणं च कमजिट्ठे ।। ( उनि २३४) तीन मरण एकांत प्रशस्त हैं एक साथ कितने मरण ? भक्तपरिज्ञा, इंगिनी और प्रायोपगमन ये तीनों मरण उत्तरोत्तर उत्कृष्ट हैं । (द्र. अनशन) ४. एक साथ कितने मरण ? ५२६ दुन्नि व तिन्निव चत्तारि पंच मरणाइ अवीइमरणमि । कइ मरइ एगसमयं सि विभासावित्यरं जाने ॥ सव्वे भवत्थजीवा मरंति आवीइअं सया मरणं । ओहि आइअंतिय दुनिवि एयाइ भयणाए । च ओहि च आइअंतिम बाल तह पंडियं च मीसं च । छउमं केवलिमरणं केवलिमरणं अन्नुन्नेणं विरुज्यंति || ( उनि २२७-२२९ ) एक समय में जितने मरण हो सकते हैं, वे बाल, बालपंडित और पंडित मरण की अपेक्षा से इस प्रकार हैं बाल की अपेक्षा -- १. एक समय में दो मरण-अवधि और आत्यन्तिक में से एक और दूसरा बाल-मरण । २. एक समय में तीन मरण - जहां तीन होते हैं वहां तद्भवमरण और बढ़ जाता है। ३. एक समय में चार मरण-जहां चार होते हैं वहां वशार्तमरण और बढ़ जाता है। ४. एक समय में पांच मरण वैहायस और गुडपृष्ठ में से कोई एक बढ़ जाता है । वलन्मरण और शल्यमरण को बाल-मरण के अन्तर्गत स्वीकार किया गया है । पंडित की अपेक्षा पंडित मरण की विवक्षा दो प्रकार से की गई हैदृढ़ संयमी पंडित और शिथिल संयमी पंडित । (क) दृढ़-संयमी पंडित १. जहां दो मरण एक समय में होते हैं, वहां अवधि - मरण और आत्यन्तिक-मरण में से कोई एक होता है क्योंकि दोनों परस्पर विरोधी हैं। दूसरा पंडित मरण । २. जहां तीन मरण एक साथ होते हैं, वहां छद्मस्थमरण और केवल मरण में से एक बढ़ जाता है । ३. जहां चार मरण की विवक्षा है, वहां भक्तप्रत्याख्यान, इंगिनी और प्रायोपगमन में से एक बढ़ जाता है । ४. जहां पांच मरण की विवक्षा है, वहां वैहायस और गृद्धपृष्ठ में से एक मरण बढ़ जाता है । Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरण : काल, अंतर आदि ५२७ मरण (ख) शिथिल संयमी पंडित एव च प्रशस्तमरणभावादाद व्यवधानमवि देवभवैरा१. जहां दो मरण की एक समय में विवक्षा है, वहां श्रीयते । (उनि २३० शावृ प २३९) अवधि और आत्यन्तिक में से एक और किसी अप्रशस्त मरण पंचेन्द्रिय अविरत और देशविरत कारणवश वैहायस और गद्धपृष्ठ में से एक हो जीवों के संख्यात बार तथा पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, सकता है। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय-इन जीवों के २. कथंचिद शल्य-मरण होने से तीन भी हो जाते हैं। असंख्यात बार और वनस्पति जीवों के अनंत बार हो ३. जहां वलन्मरण होता है, वहां एक साथ चार हो सकता है। इन जीवों की कायस्थिति क्रमश: बहु, बहुतर जाते हैं। और बहतम होती है। इस कायस्थिति की अपेक्षा से ही ४. छद्मस्थ-मरण की जहां विवक्षा होती है वहां एक यह प्रतिपादन हआ है। प्रशस्त मरण (पंडित मरण) सर्वसाथ पांच मरण हो जाते हैं। विरत के होता है और वह सात-आठ बार हो सकता है। भक्तप्रत्याख्यान, इंगिनी और प्रायोपगमनमरण चारित्र की प्राप्ति निरंतर नहीं होती, अतः इसमें देवभव विशुद्ध संयम वाले पंडितों के ही होता है। दोनों प्रकार का व्यवधान रहता है। केवलीमरण एक बार ही होता है। के पंडित-मरण की विवक्षा में तदभव-मरण नहीं लिया ६. मरण : काल, अंतर आदि गया है क्योंकि वे देवगति में ही उत्पन्न होते हैं। मरणे अणंतभागो इक्किक्के मरइ आइमं मोत्तुं । बाल-पंडित की अपेक्षा अणुसमयाई नेयं पढमचरिमंतरं नस्थि ।। १. जहां दो मरण की एक समय में विवक्षा है, वहां सेसाणं मरणाणं नेओ संतरनिरंतरो उ गमो। अवधि और आत्यन्तिक में से कोई एक और बाल- साई सपज्जवसिया सेसा पढमिल्लुगमणाइ ॥ पंडितमरण । तथा च वृद्धा:-"बालमरणाणि अणाइयाणि वा २. तद्भव-मरण साथ होने से तीन मरण । अपज्जवसियाणि वा, अणादियाणि वा सपज्जवसियाणि, ३. वशात-मरण साथ होने से चार मरण । पंडियमरणाणि पुण साइयाणि सपज्जवसियाणि' मुक्त्य४. वैहायस अथवा गृद्धपृष्ठ साथ होने से पांच । वाप्तौ तदुच्छित्तिसम्भवादिति भावः। प्रथमकम्-आवीचि (उशाव प २३७,२३८) मरणम् आदिरहितं प्रवाहापेक्षयेतिभावः, प्रतिनियतायु:५. मरण कितनी बार ? पुद्गलापेक्षया तु साद्यपि सम्भवति, उपलक्षणत्वाच्चास्याबालाणं अकामं तु मरणं असई भवे । पर्यवसितं च अभव्यानां, भव्यानां पूनः सपर्यवसितमपि । पंडियाणं सकामं तु उक्कोसेण सइं भवे ।। (उनि २३१, २३२ शावृ प २४०) (५३) (उ ॥३) आवीचिमरण सिद्धों के अतिरिक्त सब जीवों के बाल जीवों के अकाम मरण बार-बार होता है। भी होता है। सिद्ध अनंत हैं, इसलिए आवीचिमरण के स्वामी ह पंडितों (केवलियों) के सकाम मरण उत्कृष्टत: एक बार - सब ज सब जीवों से अनंत भाग न्यून हैं। होता है। शेष प्रत्येक मरण के स्वामी सब जीवों की अपेक्षा संखमसंखमणता कमो उ इक्किक्कगमि अपसत्थे। अनंत भाग ही हैं। सत्तट्टग अणबंधो पसत्थए केवलिंमि सइं।। समय-आवीचिमरण जीवनपर्यंत अनुसमय-सतत होता सामान्येन पञ्चेन्द्रियाविरतदेशविरतौ च सङ्खचाता:, है, शेष मरण आयु के अंतिम समय में ही होते हैं। शेषाः पृथिव्युदकाग्निवायद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियाः अंतर-आवीचिमरण निरंतर होता है, अत: वह सांतर/ असंख्याताः, वनस्पतयोऽनन्ता, एते हि कायस्थित्यपेक्षया व्यवहित नहीं है। केवलीमरण चरमशरीरी के होता यथाक्रमं बहुबहुतरबहुतमस्थितिभाज इति कृत्वा । प्रशस्ते है, वह अंतिम मरण है, उसका पुनः मरण नहीं कति वारा म्रियत इत्याह"सप्त वा अष्ट वा वारा होता, अतः केवली मरण भी सांतर नहीं है। म्रियते, क्व? प्रशस्तके सर्वविरतिसम्बन्धिनि पण्डित- शेष अवधि आदि पन्द्रह मरण सांतर और निरंतरमरणे, इह च चारित्रस्य निरन्तरमवाप्त्यसम्भवात् तद्वत दोनों प्रकार के हो सकते हैं। For Private & Persortal Use Only Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाव्रत काल- आवीचिमरण प्रवाह की अपेक्षा अनादि और प्रतिनियत आयुद्रव्य की अपेक्षा सादि भी है । यह अभव्यों की अपेक्षा अपर्यवसित और भव्यों की अपेक्षा पर्यवसित भी है। शेष सोलह मरण एक सामयिक होने से सादि सपर्यवसित हैं । प्रवाह की अपेक्षा इनमें तीनों विकल्प प्राप्त हैं-सादि- सपर्यवसित, अनादि सपर्यवसित, अनादि- अपर्यवसित । बालमरण अनादि - अपर्यवसित और अनादि-सपर्यंवसित है । पंडितमरण सादि सपर्यवसित है ।' मा मा हु विचितेज्जा जीवामि चिरं मरामि य लहुति । इच्छसि तरिउ जे संसारमहोदहिमपारं ॥ ( उशावृ प २४२ ) यदि तुम संसारसागर से तैरना चाहते हो तो यह मत सोचो कि मैं दीर्घजीवी बनूं या शीघ्र मेरी मृत्यु हो । किर सो पएसो, लोए वालग्गकोडिमेत्तो वि । जम्मणमरणाबाहा, जत्थ जिएहिं न संपत्ता ॥ ( उसु प ६७ ) लोक में केश के अग्रभाग जितना भाग भी ऐसा नहीं है, जहां जीव ने जन्म-मरण न किया हो । जइ मरुदेवा - भगवान ऋषभ की माता । इस अवसर्पिणी काल में प्रथम सिद्ध । ( द्र. तीर्थंकर) मल्लि - उन्नीसवें तीर्थंकर । महावीर - चौबीसवें तीर्थंकर । महाव्रत -- प्राणातिपात आदि पावद्य सर्वथा प्रत्याख्यान । ४. अहिंसा महाव्रत की भावना ५. अहिंसा प्रधान मूलगुण ६. हिंसा का स्वरूप ५२८ १. महाव्रत का अर्थ और प्रयोजन २. पांच महाव्रत * छठा व्रत (द्र. रात्रिभोजन विरमण ) ३. प्राणातिपात विरमण (अहिंसा) महाव्रत का स्वरूप * छह जीवनिकायसंयम : श्रमण का आचार ( . अहिंसा) O हिंसा के द्रव्य क्षेत्र-काल- भाव ( द्र. तीर्थंकर) ( द्र. तीर्थंकर) योग का ७. सत्य महाव्रत ८. सत्य महाव्रत की भावना * सत्य आदि भाषा के प्रकार * भाषा सम्बन्धी विवेक ९. मृषावाद का स्वरूप ० प्रकार १०. अचौर्य महाव्रत ११. अचौर्य महाव्रत की भावना १२. भाव चौर्य के प्रकार और परिणाम १३. अदत्तादान के प्रकार * ब्रह्मचर्य महाव्रत १४. अपरिग्रह महाव्रत १५. अपरिग्रह महाव्रत की भावना १६. परिग्रह के द्रव्य, क्षेत्र महाव्रत का अर्थ और प्रयोजन * परिग्रह के प्रकार मूर्च्छा परिग्रह १७. परिग्रह की निकृष्टता १८. परिग्रहत्याग की निष्पत्ति महाव्रत और शासनभेद महाव्रत और चारित्र o * * (द्र. भाषा) ( व्र. भाषासमिति ) ( . ब्रह्मचर्यं ) (द्र. परिग्रह ) ( ब्र. शासनभेद ) ( द्र. चारित्र ) १. महाव्रत का अर्थ और प्रयोजन सावगवयाणि खुड्डुगाणि, ताणि पडुच्च साहूण वयाणि महंताणि भवंति । जम्हा य भगवंतो साधवो तिविहं तिविण पच्चवखायंति तम्हा तेसि महव्वयाणि भवंति, सावयाणं पुणतिविहं दुविहं पञ्चकखायमाणाणं देस विरईए खडुगाणि वाणि भवंति । ( दजिचू पृ १४४, १४६ ) महाव्रत का अर्थ है- महान् व्रत । साधु तीन करण और तीन योग से पापों का त्याग करते हैं अतः उनके व्रत महाव्रत होते हैं। श्रावक के दो करण तथा तीन योग आदि के रूप में प्रत्याख्यान होने से देशविरति होती है, अतः उनके व्रत अणु होते हैं । इच्चेयाई पंच महव्वयाई राईभोयणवेरमणछट्टाई अत्तहिपट्टयाए उवसंपज्जित्ताणं विहरामि । (द ४ / सूत्र १७ ) मैं अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह - इन पांच महाव्रतों और रात्रिभोजनविरति रूप छठे व्रत को आत्महित- मोक्ष के लिए अंगीकार कर विहार करता हूं । Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंसा का स्वरूप महाव्रत २. पांच महाव्रत प्रत्याख्यामीति प्रतिशब्दः प्रतिषेधे आङाभिमुख्ये पंचहि महत्वहि-पाणाइवायाओ वेरमणं मुसा - ख्या प्रकथने, प्रतीपमभिमुखं ख्यापनं प्राणातिपातस्य वायाओ वेरमण अदिन्नादाणाओ वेरमणं मेहुणाओ वेरमणं करोमि प्रत्याख्यामीति, अथवा प्रत्याचक्षे -संवृतात्मा परिग्गहाओ वेरमणं । ( आव ४१८ ) साम्प्रतमनागतप्रतिषेधस्य आदरेणाभिधानं करोमीत्यर्थः । ( दहावृ प १४४, १४५) प्रत्याख्यान में 'प्रति' शब्द निषेध अर्थ में, 'आ' अभिमुख अर्थ में और 'ख्या' धातु कहने के अर्थ में है । महाव्रत के पांच प्रकार हैं--- १. प्राणातिपातविरमण । प्राणातिपात का प्रत्याख्यान करता हूं, अर्थात् प्राणातिपात के प्रतीप अभिमुख कथन करता हूंप्राणातिपात न करने की प्रतिज्ञा करता हूं। अथवा मैं संवृतात्मा अनागत पाप के प्रतिषेध के लिए आदरपूर्वक - भावपूर्वक अभिधान करता हूं । ४. अहिंसा महाव्रत की भावना २. मृषावादविरमण । ३. अदत्तादानविरमण | ४. मैथुनविरमण । ५. परिग्रहविरमण | ५२९ अहिंस सच्चं च अतेणगं च, तत्तो य बंभं अपरिग्गहं च । पडिवज्जिया पंच महव्वयाणि, चरिज्ज धम्मं जिणदेसियं विऊ || ( उ २१।१२) अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह - ये पांच महाव्रत हैं । ३. प्राणातिपात विरमण ( अहिंसा) महाव्रत का स्वरूप पढमे भंते ! महत्वए पाणाइवायाओ वेरमणं । सव्वं भंते ! पाणाइवायं पच्चक्खामि – से सुहुमं वा बायरं वा तसं वा थावरं वा, नेव सयं पाणे अइवाएज्जा नेवनेहि पाणे अइवायावज्जा पाणे अइवायंते वि अन्ने न समणजाणेज्जा जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वाया काणं न करेमि न कारवेम करतं पि अन्नं न समजाणामि । (द ४, सू ११ ) भंते! पहले महाव्रत में प्राणातिपात से विरमण होता है । भंते ! मैं सर्व प्राणातिपात का प्रत्याख्यान करता हूं। सूक्ष्म या स्थूल, त्रस या स्थावर जो भी प्राणी हैं उनके प्राणों का अतिपात मैं स्वयं नहीं करूंगा, दूसरों से नहीं कराऊंगा और अतिपात करने वालों का अनुमोदन भी नहीं करूंगा, यावज्जीवन के लिए तीन करण तीन योग से -मन से, वचन से, काया से न करूंगा न कराऊंगा और करने वाले का अनुमोदन भी नहीं करूंगा । पाणावायवेरमणं नामं नाउं सहिऊण पाणाति( दजिचू पृ १४६ ) वायस्स अकरणं भण्णइ । प्राणातिपात विरमण का अर्थ है- सम्यक्ज्ञान और श्रद्धापूर्वक प्राणातिपात से सर्वथा निवृत्त होना । पढमस्स महव्वयस्स इमाओ पंच भावणाओ भवंति-free आलोइयपाणभोयणभोयी आदाणभंडमत्तनिक्वणासमिए सया मणसमिए वइसमिए । ( आवचू २ पृ १४३) अहिंसा महाव्रत की पांच भावनाएं हैं१. ईर्यासमिति । २. आलोकित पान - भोजन । ३. आदाननिक्षेप समिति । ४. मन समिति । ५. वचन समिति । "पंचवीसाए भावणाहि... ( आव ४1८ ) ताओ महत्वयाणं थिरीकरणनिमित्तं भवति । (आवचू २ पृ १४३) महाव्रतों के स्थिरीकरण के लिए पच्चीस भावनाओं का अभ्यास किया जाता है । ५. अहिंसा प्रधान मूलगुण महव्वतादौ पाणातिवाताओ वेरमणं पहाणो मूलगुण इति, जेण अहिंसा परमो धम्मो । सेसाणि महव्वताणि एतस्सेव अत्थविसेसगाणीति तदणंतरं । ( अचू पृ८२) महाव्रतों में प्राणातिपातविरमण प्रधान मूलगुण है । अहिंसा परम धर्म है । शेष महाव्रत अहिंसा को विशिष्ट / पुष्ट बनाते हैं । अतः क्रम की दृष्टि से अहिंसा महाव्रत का प्रथम स्थान है । ६. हिंसा का स्वरूप पाणातिपातो नाम पाणाणं साधुमेरा तिक्कमेणपातो । ( आवचू २ पृ९३) Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाव्रत ५३० मृषावाद का स्वरूप साधु-मर्यादा का अतिक्रमण कर प्राणों का अतिपात मुसावाओ य लोगम्मि, सव्वसाहहिं गरहिओ। करना प्राणातिपात है। अविस्सासो य भूयाणं, तम्हा मोसं विवज्जए । प्राणाः-इन्द्रियादयः तेषामतिपातः प्राणातिपात:-- (द ६।१२) जीवस्य महादुःखोत्पादनं, न तु जीवातिपात एव । इस समूचे लोक में मृषावाद सब साधुओं द्वारा गहित है और वह प्राणियों के लिए अविश्वसनीय है। (दहावृ प १४४) केवल जीवों को मारना ही अतिपात नहीं है, उनको अत: निर्ग्रन्थ असत्य न बोले । किसी प्रकार का कष्ट देना भी प्राणातिपात है। ८. सत्य महाव्रत की भावना हिंसा के द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव दोच्चे महव्वते मुसावायाओ वेरमणं, तस्स खलु पाणातिपाते चतुम्विहे, तं जहा -दव्वतो खेत्ततो इमाओ पंच भावणाओ"हासं परियाण ति से निग्गंथे". कालतो भावतो। दव्वतो छस् जीवनिकाएस, खेत्ततो अणुवीइभासए""क्रोधं परियाणति""लोभं परियाणति.. सव्वलोगे, कालतो दिया वा राओ वा, भावतो रागेण वा । भयं परियाणति'..। (आवच २ पृ १४४) दोसेण वा । सत्य महाव्रत की पांच भावनाएं(दअचू पृ८०) १. हास्य विवेक। प्राणातिपात के चार प्रकार २. विमर्शपूर्वक बोलना। द्रव्यत:-छह जीवनिकाय । ३. क्रोध विवेक। क्षेत्रतः-समूचा लोक । ४. लोभ विवेक। कालतः-दिन-रात । ५. भय विवेक। भावतः-राग-द्वेष । ६. मृषावाद का स्वरूप ७. सत्य महाव्रत मुसावातो नाम असच्चवयणं । साधणमधितं तमसच्चं दोच्चे भंते ! महव्वए मूसावायाओ वेरमणं । सत्तऽहियं असच्चति वयणाओ। किंच अहितं ? जं सव्वं भंते ! मुसावायं पच्चक्खामि-से कोहा वा लोहा साधुमेरातिक्कमणंति । वा भया वा हासा वा, नेव सयं मुसं वएज्जा नेवन्नेहि मुसं मृषावाद का अर्थ है-असत्य वचन । साधु के लिए वायावेज्जा मुसं वयंते वि अन्ने न समणजाणेज्जा जाव- जो अहितकर है, वह असत्य है । साधु की मर्यादा का ज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि अतिक्रमण ही अहित है। न कारवेमि करतं पि अन्नं न समण जाणामि । मुसावाते चउविहे, तं जहा-दव्वतो सव्वदव्वेसु, (द ४ सूत्र १२) खेत्ततो लोगे वा अलोगे वा, कालतो दिया वा रातो वा, भावतो कोहेण वा लोभेण वा भतेण वा हासेण वा । भन्ते ! दूसरे महाव्रत में मृषावाद की विरति होती (दअचू पृ ८२) मृषावाद के चार प्रकारभन्ते ! मैं सर्व मृषावाद का प्रत्याख्यान करता हैं। द्रव्यत:-सब द्रव्य । क्रोध से या लोभ से, भय से या हंसी से, मैं स्वयं क्षेत्रत:--लोक और अलोक । असत्य नहीं बोलूंगा, दूसरों से असत्य नहीं बुलवाऊंगा कालत:-दिन-रात । और असत्य बोलने वालों का अनुमोदन भी नहीं करूंगा, भावत:-क्रोध, लोभ, भय और हास्य । यावज्जीवन के लिए, तीन करण तीन योग से-मन से, मृषावाद के छह कारण वचन से, काया से न करूंगा, न कराऊंगा और करने क्रोधाद्वा त्वं दास इत्यादि । मानाद्वा अबहुश्रुत एवाहं वाले का अनुमोदन भी नहीं करूंगा। बहश्रत इत्यादि। मायातो भिक्षाटनपरिजिहीर्षया पादसच्चं-अणुवघायगं परस्स वयणं । (दअचू पृ ११) पीडा ममेत्यादि । लोभाच्छोभनतरानलाभे सति प्रान्तस्यजो वचन दूसरे का उपघात नहीं करता, वह सत्य है। षणीयत्वेऽप्यनेषणीयमिदमित्यादि। यदि वा 'भयात्' __ (आवचू २ पृ ९३) Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावचौर्य के प्रकार और परिणाम महाव्रत किञ्चिद्वितथं कृत्वा प्रायश्चित्तभयान्न कृतमित्यादि, एवं संयमी मुनि सजीव या निर्जीव, अल्प या बहत, हास्यादिष्वपि वाच्यम् ।। (दहाव प १४७) दन्तशोधन मात्र वस्तु का भी उसके अधिकारी की आज्ञा मृषा बोलने के मुख्यत: छह हेतु हैं लिए बिना स्वयं ग्रहण नहीं करता, दूसरों से ग्रहण नहीं १. क्रोध से-तू दास है इस प्रकार कहना । करवाता और ग्रहण करने वाले का अनुमोदन भी नहीं २. मान से अबहुश्रुत होते हुए भी अपने को बहुश्रुत करता । कहना। इत्तरियं पिन कप्पइ अविदिन्नं खलू परोग्गहाईसं। ३. माया सेभिक्षाटन से जी चुराने के लिए 'पैर में चिद्वित्त निसिइत्त व तइयव्वयरक्खणटाए । पीड़ा है' यों कहना। (आवनि ७२१) ४. लोभ से--सरस भोजन की प्राप्ति होते देख एषणीय अचौर्य महाव्रत की रक्षा के लिए मुनि दूसरों के नीरस को अनेषणीय कहना । अयाचित अवग्रह में थोड़े समय के लिए भी न कायोत्सर्ग ५. भय से -दोष सेवन कर प्रायश्चित्त के भय से उसे करता है और न ही वहां बैठता है। स्वीकृत न करना। अदिन्नादाणं नाम जं साधूण अणणुणातं । ६. हास्य से-कुतूहलवश असत्य बोलना । (आवचू २ पृ ९३) १०. अचौर्य महावत साधु के लिए जो अनुज्ञात नहीं है, उसका ग्रहण और __तच्चे भंते ! महव्वए अदिन्नादाणाओ वेरमणं । आचरण अदत्तादान है । सव्वं भंते ! अदिन्नादाणं पच्चक्खामि-से गामे वा ११. अचौर्य महावत की भावना नगरे वा रणे वा अप्पं वा बहुं वा अणुं वा थूलं वा तच्चे महव्वए अदिण्णादाणाओ वेरमणं तस्स खलु चित्तमंतं वा अचित्तमंतं वा, नेव सयं अदिन्नं गेण्हेज्जा ___ इमाओ पंच भावणाओ भवंति"....."अणुवीई ओग्गहं नेवन्नेहिं अदिन्नं गेण्हावेज्जा अदिन्नं गेण्हते वि अन्ने न समणुजाणेज्जा जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं जाएज्जा........."उग्गहणसीलए........."जाव तस्स य उग्गहे जाव तस्स परिक्खेवे इत्तावता से कप्पति ........... वायाए काएणं न करेमि न कारवेमि करतं पि अन्नं न अणण्णवियपाणभोयणभोई............ अणण्ण विय-ओग्गहसमणुजाणामि । (उ ४।सूत्र १३). अणु भंते ! तीसरे महाव्रत में अदत्तादान की विरति होती ' जाती से निग्गंथे साधंमिएस् । (आवचू २ पृ. १४४,१४५) भंते ! मैं सर्व अदत्तादान का प्रत्याख्यान करता है। अचौर्य महाव्रत की पांच भावनाएं गांव में, नगर में या अरण्य में--कहीं भी अल्प या १. अवग्रह की अनुज्ञा लेना। बहत, सूक्ष्म या स्थूल, सचित्त या अचित्त किसी भी २. अवग्रह का सीमा बोध करना। अदत्त वस्तु का मैं स्वयं ग्रहण नहीं करूंगा, दूसरों से ३. अनुज्ञात अवग्रह की सीमा में रहना। अदत्त वस्तु को ग्रहण नहीं कराऊंगा और अदत्त वस्तु ४. भक्त-पान का आचार्य आदि को दिखाकर उपभोग ग्रहण करने वालों का अनुमोदन भी नहीं करूंगा, याव करना। ज्जीवन के लिए, तीन करण तीन योग से--मन से, ५. सार्मिक द्वारा याचित अवग्रह में उनकी आज्ञा वचन से, काया से-न करूंगा, न कराऊंगा और करने लेकर रहना। वाले का अनुमोदन भी नहीं करूंगा। चित्तमंतमचित्तं वा, अप्पं वा जइ वा बहुं । १२. भावचौर्य के प्रकार और परिणाम दंतसोहणमेत्तं पि, ओग्गहंसि अजाइया । तवतेणे वयतेणे, रूवतेणे य जे नरे । तं अप्पणा न गेण्हंति, नो वि गेण्हावए परं। आयारभावतेणे य, कुव्वइ देवकिब्बिसं ।। अन्न वा गेण्हमाणं पि, नाणजाणंति संजया ।। लदधण वि देवत्तं, उववन्नो देवकिब्बिसे । (द ६।१३,१४) तत्था वि से न याणाइ, कि मे किच्चा इमं फलं ।। Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाव्रत अपरिग्रह महाव्रत पाना । तत्तो वि से चइत्ताण, लम्भिही एलमूययं । समणुजाणेज्जा जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं नरयं तिरिक्खजोणि वा, बोही जत्य सुदुल्लहा ।। वायाए काएणं न करेमि न कारवेमि करतं पि अन्नं न (द ५।२।४६-४८) समणुजाणामि । (द ४।सूत्र १५) भावचौर्य के पांच प्रकार हैं भंते ! पांचवें महाव्रत में परिग्रह की विरति होती १. तप-चोर -तपस्वी न होते हुए भी स्वयं को तपस्वी बताना। भंते ! मैं सब प्रकार के परिग्रह का प्रत्याख्यान २. वाणी-चोर -धर्मकथी या वादी न होते हुए भी करता हूं। गांव में, नगर में या अरण्य में-कहीं भी, अल्प स्वयं को वैसा बताना । या बहुत, सूक्ष्म या स्थूल, सचित्त या अचित्त-कभी भी ३. रूप-चोर-उच्चजातीय न होते हुए भी स्वयं को वैसा बताना। परिग्रह का ग्रहण मैं स्वयं नहीं करूंगा, दूसरों से परिग्रह ४. आचार-चोर-आचार-संपन्न न होते हए भी स्वयं का ग्रहण नहीं कराऊंगा और परिग्रह ग्रहण करने वालों को आचारवान् बताना । का अनुमोदन भी नहीं करूंगा, यावज्जीवन के लिए, ५. भाव-चोर-सूत्र और अर्थ को न जानते हुए भी तीन करण तीन योग से-मन से, वचन से, काया सेअभिमानवश जानने का भाव प्रदर्शित बत न करूंगा, न कराऊंगा और करने वाले का अनुमोदन करना। भी नहीं करूंगा। यह भावचौर्य किल्बिषिक देव योग्य कर्म का हेतु है। तहेव असणं पाणगं वा, विविहं खाइमसाइमं लभित्ता। किल्बिषिक देव के रूप में उत्पन्न जीव देवत्व को पाकर होही अट्टो सुए परे वा, भी वहां वह नहीं जानता कि 'यह मेरे किस कार्य का तं न निहे न निहावए जे स भिक्खू ॥ फल है।' वहां से च्युत होकर वह मनुष्य गति में आ (द १०८) एडमूकता (गूगापन) अथवा नरक या तिर्यंचयोनि को विविध अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य को विधि से पाएगा, जहां बोधि अत्यन्त दुर्लभ होती है। प्राप्त कर-यह कल या परसों काम आएगा-इस १३. अदत्तादान के प्रकार प्रकार से जो न सन्निधि (संचय) करता है और न कराता अदिण्णादाणे चतूविहे पण्णत्ते, तं जहा-दब्वतो है, वह भिक्षु है। अप्पं वा बहुं वा अणुं वा थुलं वा चित्तमंतं वा सन्निहिं च न कुव्वेज्जा, लेवमायाए संजए। अच्चित्तमंतं वा, खेत्ततो गामे वा गरे वा अरण्णे वा, पक्खी पत्तं समादाय, निरवेक्खो परिव्वए । कालतो दिया वा रातो वा, भावतो अप्पग्घे वा महग्धे (उ ६।१५) वा। (दअचू पृ८३) संयमी मूनि पात्रगत लेप को छोड़कर अन्य किसी अदत्तादान के प्रकार प्रकार के आहार का संग्रह न करे। पक्षी अपने पंखों को द्रव्यतः-अल्प-बहुत, सूक्ष्म-स्थूल, सचित्त-अचित्त। साथ लिए उड़ जाता है वैसे ही मुनि अपने पात्रों को क्षेत्रतः --ग्राम, नगर, अरण्य । साथ ले, निरपेक्ष हो परिव्रजन करे।। कालत:--दिन-रात। बिडमुन्भेइमं लोणं, तेल्लं सप्पि च फाणियं । भावतः -- अल्पमूल्य और बहुमूल्य । न ते सन्निहिमिच्छति, नायपुत्तवओरया ।। १४. अपरिग्रह महावत लोभस्सेसो अणुफासो, मन्ने अन्नयरामवि । जे सिया सन्निहीकामे, गिही पव्वइए न से ।। पंचमे भंते ! महव्वए परिग्गहाओ वेरमणं । सव्वं भंते ! परिग्गहं पच्चक्खामि----से गामे वा नगरे (द ६।१७,१८) वा रणे वा अप्पं वा बहुं वा अणुं वा थूलं वा चित्तमंतं वा जो महावीर के वचन में रत हैं, वे मुनि बिडलवण, अचित्तमंत वा, नेव सयं परिग्गहं परिगेण्हेज्जा नेवन्नेहिं सामुद्रलवण, तैल, घी और द्रव-गुड़ का संग्रह करने की परिग्गहं परिगेण्हावेज्जा परिग्गहं परिगेण्हते वि अन्ने न इच्छा नहीं करते ।। Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाव्रत माहम जो कुछ भी संग्रह किया जाता है वह लोभ का ही मूर्छा परिग्रह प्रभाव है-ऐसा मैं मानता हैं। जो श्रमण सन्निधि का न सो परिग्गहो वृत्तो, नायपुत्तेण ताइणा । कामी है, वह गृहस्थ है, प्रव्रजित नहीं है। मुच्छा परिग्गहो वुत्तो, इह वुत्तं महेसिणा ।। सव्वत्थुवहिणा बुद्धा, संरक्खणपरिग्गहे । (द ६।२०) अवि अप्पणो वि देहम्मि, नायरंति ममाइयं ॥ सब जीवों के त्राता ज्ञातपुत्र महावीर ने वस्त्र आदि (द ६।२१) को परिग्रह नहीं कहा है । मूर्छा परिग्रह है - ऐसा महर्षि सब काल और सब क्षेत्रों में तीर्थकर उपधि (एक (गणधर) ने कहा है। दूष्य वस्त्र) के साथ प्रवजित होते हैं। प्रत्येकबुद्ध, जिन- ...."गंथोऽगंथो व मओ मुच्छममुच्छाहिं निच्छयओ। कल्पिक आदि भी संयम की रक्षा के निमित्त उपधि ग्रहण . (विभा २५७३) करते हैं। वे उपधि पर तो क्या, अपने शरीर पर भी निश्चय नय के अनुसार मूर्छा परिग्रह है और ममत्व नहीं करते। अमूर्छा अपरिग्रह है। १७. परिग्रह को निकृष्टता १५. अपरिग्रह महाव्रत की भावना आयाणं नरयं दिस्स, नायएज्ज तणामवि । पंचमे महव्वते य परिग्गहाओ वेरमणं, तस्स इमाओ (उ ६७) पंच भावणाओ भवंति ...''"सोइंदिएण मणण्णामणण्णाई 'परिग्रह नरक है' यह देखकर एक तिनके को भी सहाई सूणेत्ता भवति.."चक्खिदिएण मणुण्णामणुण्णाई अपना बनाकर न रखे । रूवाइं पासित्ता भवति...."घाणिदिएणं अग्घाइत्ता......" १८. परिग्रह-त्याग को निष्पत्ति जिभिदिएणं आसाएत्ता...."फासिदिएणं पडिसंवेदेत्ता। (आवच २ पृ १४६) गवासं मणिकुंडलं, पसवो दासपोरुसं। अपरिग्रह महाव्रत की पांच भावनाएं सव्वमेयं चइत्ताणं, कामरूवी भविस्ससि ।। (उ६५) मनोज्ञ-अमनोज्ञ शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्श गाय, घोड़ा, मणि, कुंडल, पशु, दास और कर्मकरों इन पांचों के प्रति प्रियता-अप्रियता का भाव न लाना । का समूह-इन सबको छोड़ ऐसा करने पर तु कामरूपी १६. परिग्रह के द्रव्य क्षेत्र (इच्छानुकूल रूप बनाने में समर्थ) होगा। परिग्गहो नाम साधुमेरातिक्कमेण गहो। माहन-अहिंसक, श्रमण । ब्राह्मण । __(आवच २ पृ ९३) ___ 'माहणे' त्ति मा वधीत्येवंरूपं मनो वाक् क्रिया च साधु-मर्यादा का अतिक्रमण कर वस्तु का ग्रहण यस्यासौ माहनः । करना परिग्रह है। (उशाव प ४४२) परिग्गहे चउन्विहे पण्णत्ते, तं जहा–दव्वतो, खेत्ततो, जो कहता है-मा हन-मत मारो और जिसकी कालतो, भावतो। दब्बतो सव्वदव्वेहि, खेत्ततो सव्वलोए, मानसिक-वाचिक-कायिक प्रवृत्ति अहिंसात्मक होती हैं, कालतो दिया वा रायो वा, भावतो अप्पग्धे वा महग्घे वा। (दअचू १८५) जो लोए बंभणो वुत्तो, अग्गी वा महिओ जहा। परिग्रह के चार प्रकार सया कुसलसंदिठें, तं वयं बूम माहणं ।। द्रव्यत:-सब द्रव्य। जो न सज्जइ आगंतुं, पव्वयंतो न सोयई। क्षेत्रत:--सब क्षेत्र। रमए अज्जवयणमि, तं वयं बूम माहणं ।। कालतः --दिन-रात । जायरूवं जहामट्ठं, नितमलपावगं । भावतः- अल्पमूल्य और बहुमूल्य । रागहोसभयाईयं, तं वयं बम माहणं ।। Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माहन माहणं ॥ तसपाणे वियाणेत्ता, संगण य थावरे | जोन हिंसइ तिविणं, तं वयं बूम माहणं ॥ कोहा वा जइ वा हासा, लोहा वा जइ वा भया । मुसं न वयई जो उ, तं वयं बूम माहणं ॥ चित्तमंतमचित्तं वा, अप्पं वा जइ वा बहुं । न गेण्ड्इ अदत्तं जो, तं वयं बूम दिव्वमाणुसतेरिच्छं, जो न सेवइ मणसा कायवक्केणं, तं वयं बूम जहा पोमं जले जायं, नोवलिप्पइ एवं अलितो कामेहि, तं वयं बूम माहणं ॥ अलोलुपं मुहाजीवी, अणगारं अकिंचणं । असंसत्तं हित्थेसु तं वयं बूम माहणं ॥ ( उ २५।१९-२७) मेहुणं । माहणं ॥ वारिणा । माहन वह है, जो अग्नि की भांति सदा लोक में पूजित है । ● जो संयोग होने पर आसक्त नहीं होता, वियोग के समय शोक नहीं करता, जो आर्यवचन में रमण करता है । 0 जो अग्नि में तपाकर शुद्ध किए हुए और घिसे हुए सोने की तरह विशुद्ध है तथा राग-द्वेष और भय से रहित है । • जो त्रस और स्थावर जीवों को भली-भांति जानकर मन, वाणी और शरीर से उनकी हिंसा नहीं करता । ० ५३४ "कम्मुणा बंभणो होइ ( उ २५।२९-३१) ओम् का जप करने मात्र से कोई ब्राह्मण नहीं होता । ब्रह्मचर्य के पालन से ब्राह्मण होता है । • मनुष्य कर्म से ब्राह्मण होता है । नैव ॐकारोपलक्षणत्वाद् ॐ भूर्भुवः स्व' रित्याद्युच्चारणरूपेण ब्राह्मणः । ब्रह्मणश्चरणं ब्रह्मचर्यम् |'''' द्वे ब्रह्मणी वेदितव्ये, शब्दब्रह्मपरं च यत् । शब्दब्रह्मणि निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छति ॥ O ० माहन की उत्पत्ति ( उशावृ प ५२८ ) 'ॐ भूर्भुवः स्वः' इत्यादि उच्चारण से कोई ब्राह्मण नहीं होता । जो ब्रह्म की चर्या में लीन रहता है, वह ब्राह्मण है । जो ब्रह्मचर्य का पालन करता है, वह ब्राह्मण है । O जो क्रोध, हास्य, लोभ या भय के कारण असत्य नहीं ताहे अभिगयाणि सड्ढाणि भवंति बोलता । • जो सचित्त या अचित्त कोई भी पदार्थ थोड़ा या अधिक कितना ही क्यों न हो, उसके अधिकारी के दिए बिना नहीं लेता | ● जो देव, मनुष्य और तिर्यंच संबंधी मैथुन का मन, वचन और काया से सेवन नहीं करता । • जिस प्रकार जल में उत्पन्न हुआ कमल जल से लिप्त नहीं होता, इसी प्रकार जो कामभोगों से लिप्त नहीं होता । लोलुप नहीं है, निष्कामजीवी, गृह-त्यागी और अकिंचन है तथा गृहस्थों में अनासक्त है । .......न ओंकारेण बंभणो 'बंभचेरेण बंभणो.... ब्रह्म के दो प्रकार हैं शब्दब्रह्म और परब्रह्म । शब्दब्रह्म में निष्णात व्यक्ति परब्रह्म को प्राप्त करता है । माहन की उत्पत्ति भरहो सावए सहावेत्ता भणतिमा कम्मं पेसणादि वा करेह, अहं तुब्भं वित्ति कप्पेमि, तुम्भेहि पढ़ते ह सुतेहि साधुसुस्सूसणं कुणंतेहि अच्छियव्वं, ताहे ते दिवसदेवसियं भुंजंति । य भांति - जहा तुब्भं जिता अहो भवान् वर्द्धते भयं मा हणाहित्ति एवं ते उप्पन्ना माहणा णाम, जे तेसि पुत्ता उप्पज्जंति ते साहूणं उवणिज्जंति, जति णित्थरंति तो लट्ठ अह न नित्थरंति आरिया वेदा कता भरहादीहि तेसि सज्झातो होउत्ति, तेसु वेदेसु तित्थगरथुतीओ जतिसावगधम्मो संतिकम्मादि यन्निज्जति । ( आवचू १ पृ २१३ - २१५ ) ऋषभपुत्र चक्रवर्ती भरत ने श्रावकों को आमन्त्रित कर निर्देश दिया- तुम कृषि, व्यापार आदि कोई कर्म मत करो, मैं तुम्हें आजीविका दूंगा। आज से पठनश्रवण और संतों की उपासना- ये ही तुम्हारे कार्य होंगे। तुम मुझे प्रतिदिन इस भाषा में सावधान करते रहो - अहो ! कषाय और प्रमाद का भय बढ़ रहा है, आप उनसे पराजित हो रहे हैं, अतः 'मा हन, मा हन', किसी को उत्पीड़ित मत करो। इस प्रकार 'माहन' शब्द की उत्पत्ति हुई । उन ब्राह्मणों के पुत्र यदि समर्थ होते तो साधु बन जाते अन्यथा व्रतधारी तत्त्वज्ञ श्रावक बन जाते । Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्ष का स्वरूप ५३५ मोक्ष भरत ने उनके स्वाध्याय के लिए वेदों की रचना य । तत्थ जो महंत गंथं अहिज्जति सो गंथमेधावी। की, जिनमें अर्हत-स्तुति, मुनिधर्म, श्रावकधर्म और मेरा मज्जाया भण्णति तीए मेराए धावतित्ति मेराशांतिकर्म उपवर्णित थे। मेधावी। (दजिचू पृ २०३) (ब्राह्मण शब्द के प्राकृत रूप दो बनते हैं—माहण मेधावी-अध्ययनार्थावधारणशक्तिमान् मर्यादावर्ती वा । और बंभण । 'माहण' अहिंसा का और 'बंभण' ब्रह्मचर्य ....मेधावी मर्यादानतिवर्ती ॥ (उशाव ५.९०) (ब्रह्म-आराधना) का सूचक है । अहिंसा के बिना ब्रह्म मेधावी दो प्रकार के हैंकी आराधना नहीं हो सकती । इस प्रगाढ़ संबंध से दोनों १. ग्रन्थमेधावी ---महान् ग्रन्थों का अध्येता, बहुश्रुत शब्द एकार्थवाची बन गए । शान्त्याचार्य ने एक स्थान पर ___ अथवा अध्ययन के लिए अवधारणशक्ति संपन्न । 'माहण' की व्याख्या अहिंसक के रूप में की है और शेष २. मर्यादामेधावी - मेधा-मर्यादा के अनुसार चलने स्थानों में 'माहण' का अर्थ उन्होंने ब्राह्मण जाति से वाला, मर्यादा का अतिक्रमण नहीं करने वाला। संबंधित माना है। देखें--उत्तरज्झयणाणि ९।६ का टिप्पण)। (मेहावित्ति सकृद् दृष्टश्रुतकर्मज्ञः-जो एक बार देखे मिथ्याकार-सामाचारी का एक भेद । अनुचित हुए या सुने हुए कार्य को करने की पद्धति जान जाता है, वह मेधावी होता है। ---उपासकदशावत्ति पत्र २१८) कार्य होने पर 'मेरा पाप निष्फल । हो' ऐसा कहना। (द्र. सामाचारी) मोक्ष-कर्मबन्धन से मुक्त अवस्था । मिथ्यादृष्टि-मिथ्यात्व, सत्य के प्रति विपरीत १. मोक्ष का स्वरूप दृष्टि। (द्र. गुणस्थान) २. मोक्ष का मार्ग मिथ्याश्रुत -मिथ्यादृष्टि का श्रुतज्ञान • ज्ञान-क्रिया-समन्वय से मोक्ष (द्र. वाद) (द्र. श्रुतज्ञान) ३. मोक्ष : साध्य और सिद्धि मुनि-ज्ञानी, साधु । * मोक्ष से पूर्व की अवस्था (द्र. सिद्ध) * जीव और कर्म का संबंध अनादि ....... 'नाणेण य मुणी होइ........। (उ २५।३०) (द्र. कर्म) ४. अनादि संबंध का अंत कैसे ? विजाणतीति मुणी, सावज्जेसु वा मोणवतीति मुणी । | * मोक्ष का स्थान (द्र. ईषत्प्राग्भारा) (दअचू पृ २३३) जो ज्ञान की आराधना करता है, वह मुनि होता है। १. मोक्ष का स्वरूप जो ज्ञाता है, वह मुनि है अथवा जो सावध कार्यों के ....... अट्ठविहकम्ममुक्को नायव्वो भावओ मुक्खो ।। प्रति मौन रहता है, वह मुनि है। मोक्षः अष्टविधक च्छेदः । क्षायिकभाव एवात्मनो मुणति-प्रतिजानीते सर्व विरतिमिति मणिः । मुक्तत्वलक्षणो मोक्षः । (उनि ४९७ शाव प ५५५) (उशावृ प ३५७) मुक्त जो सर्वविरति की प्रतिज्ञा करता है, वह मुनि है। मोक्ष का अर्थ हैमुनि को जीवनचर्या । (द्र. श्रमण) १. ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मों का समूल उच्छेद। मुनिसुव्रत-उन्नीसवें तीर्थंकर। (द्र. तीथंकर) २. आत्मा का क्षायिकभाव में प्रतिष्ठित होना। मूल-प्रायश्चित्त का आठवां प्रकार ।। बन्धं जीवकर्मयोगदुःखलक्षणं, मोक्षं च तद्वियोगसुख(द्र. प्रायश्चित्त) लक्षणम् । (दहावृ प १५९) मेधावी-अर्थ के ग्रहण और अवधारण में कुशल । जीव और कर्म का संबंध होना बंध है। उसका ___ मर्यादावान् । लक्षण है-दुःख । कर्म के योग से विमुक्त होना मोक्ष है। मेधावी दुविहो, तं जहा-गंथमेधावी मेरामेधावी उसका लक्षण है-अव्याबाध सुख । Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्ष गाणं पयासगं सोहओ तवो संजमो य गुत्तिकरो । तिहपि सभाओगे मोक्खो जिणसासणे भणिओ || ( आवनि १०३ ) ५३६ ज्ञान प्रकाश करने वाला है । तप शोधन करता है । संयम गुप्ति - निग्रह करता है । तीनों के समायोग समन्विति को जिनशासन में मोक्ष कहा गया है। निव्वाणं ति अबाहं ति, सिद्धी लोगग्गमेव य । खेमं सिवं अणाबाहं, जं चरंति महेसिणो ॥ ( उ २३३८३ ) जो निर्वाण है, जो अबाध, सिद्धि, लोकाग्र, क्षेम, शिव और अनाबाध है, जिसे महान् की एषणा करने वाले प्राप्त करते हैं, वह मोक्ष है । ..... सव्वगुणसंपन्नयाए णं अपुणरावत्ति जणयइ । अणरावत पत्तए य णं जीवे सारीरमाणसाणं दुक्खाणं नो भागी भवइ । ( उ २९/४५) सर्वगुणसंपन्नता से जीव अपुनरावृत्ति (मुक्ति) को प्राप्त होता है । अपुनरावृत्ति को प्राप्त करने वाला जीव शारीरिक और मानसिक दुःखों का भागी नहीं होता । २. मोक्ष का मार्ग नाणं च दंसणं चेव चरितं च तवो तहा । एयं मग्गमणुपत्ता जीवा गच्छंति सोग्गइं ॥ ( उ २८।३) ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप के मार्ग में प्रस्थित जीव सद्गति को प्राप्त होते हैं । नादंसणिस्स नाणं, नाणेण विणा न हुंति चरणगुणा । अगुणिस्स नत्थि मोक्खो, नत्थि अमोक्खस्स निव्वाणं ॥ ( उ २८ ३०) अदर्शनी ( असम्यक्त्वी) के सम्यग्ज्ञान नहीं होता । ज्ञान के बिना चारित्रगुण नहीं होते । अगुणी व्यक्ति की मुक्ति नहीं होती । अमुक्त का निर्वाण नहीं होता । तस्सेस मग्गो गुरुविद्ध सेवा, विवज्जणा बालजणस्स द्वरा । सज्झायए गंत निसेवणा य, सुत्तत्थसंचितणया धिय ॥ ( उ ३२/३ ) गुरु और वृद्धों की सेवा करना, अज्ञानी जनों का दूर से ही वर्जन करना, स्वाध्याय करना, एकांतवास करना, सूत्र और अर्थ का चिन्तन करना तथा धैर्य रखना - यह मोक्ष का मार्ग है । मोक्ष: साध्य और सिद्धि छंद निरोहेण उवेइ मोक्खं, आसे जहा सिक्खिय वम्मधारी । पुव्वाई वासाइं चरप्पमत्तो, तम्हा मुणी खिप्पमुवेइ मोक्खं ॥ ( उ ४।८) शिक्षित ( शिक्षक के अधीन रहा हुआ) तनुत्राणधारी अश्व जैसे रण का पार पा जाता है, वैसे ही स्वच्छन्दता का निरोध करने वाला मुनि संसार का पार पा जाता है । पूर्वजन्म में जो अप्रमत्त होकर विचरण करता है, वह उस अप्रमत्तविहार से शीघ्र ही मोक्ष को प्राप्त होता है । सद्धं नगरं किच्चा, तवसंवरमग्गलं । खंति निउणपागारं तिगुत्तं दुप्पधंसयं ॥ धणुं परक्कम किच्चा, जीवं च इरियं सया । धिरं च केयणं किच्चा, सच्चेण पलिमंथए । तवनारायजुत्तेण, भेत्तूर्ण मुणी विगयसंगामो भवाओ 1 कम्मकंचुयं परिमुच्चए || ( उ ९।२०- २२) ० श्रद्धा को नगर, तप और संयम को अर्गला, क्षमा या सहिष्णुता को त्रिगुप्त – बुर्ज, खाई और शतघ्नी स्थानीय मन, वचन और कायगुप्ति से सुरक्षित, दुर्जेय और सुरक्षा निपुण परकोटा बना । • पराक्रम को धनुष, ईर्यापथ को उसकी डोर और धृति को उसकी मूठ बना उसे सत्य से बांधे । • तप- रूपी लोह - बाण से युक्त धनुष के द्वारा कर्म रूपी कवच को भेद डाले। इस प्रकार संग्राम का अन्त कर मुनि संसार से मुक्त हो जाता है । ३. मोक्ष : साध्य और सिद्धि सोच्चा जाणइ कल्लाणं, सोच्चा जाणइ पावगं । उभयं पि जाणई सोच्चा, ज छेयं तं समायरे ॥ (द ४|११ ) जीव सुनकर कल्याण को जानता है और सुनकर ही पाप को जानता है । कल्याण और पाप सुनकर ही जाने जाते हैं । वह उनमें जो श्रेय है उसी का आचरण करे । जो जीवे विवियाणाइ, अजीवे वि वियाणइ । जीवाजीवे वियाणतो, सो हु नाहिइ संजमं ॥ जया जीवे अजीवे य, दो वि एए वियाणइ । तया गई बहुविहं, सव्वजीवाण जाई ॥ ....तया पुण्णं च पावं च, बंधं मोक्खं च जाणई ॥ तया निव्विदिए भोए, जे दिव्वे जे य माणुसे ॥ Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्ष योग "तया चयइ संजोगं, सब्भितरबाहिरं ।। जीवकर्मणोरनादिसंयोगस्य धातूकनकादिसंयोग""तया मुंडे भवित्ताणं, पव्वइए अणगारियं ॥ दृष्टांतद्वारेणाभिधानं तद्वदेवानादित्वेऽप्युपायतो जीवकर्म.''तया संवरमुक्किळं, धम्म फासे अणुत्तरं । संयोगस्याभावख्यापनार्थम्, अन्यथा मुक्त्यनुष्ठान'"तया धुणइ कम्मरयं, अबोहिकलुसं कडं ॥ वैफल्यापत्तेः । (उनि ३४ शावृ प २५) .."तया सव्वत्तगं नाणं, दंसणं चाभिगच्छई ।। जैसे स्वर्ण और मिट्टी का अनादिकालीन संयोग .."तया लोगमलोगं च, जिणो जाणइ केवली ।। संतानगत होने पर भी अग्नि आदि उपायों से विच्छिन्न ..."तया जोगे निलंभित्ता, सेलेसि पडिवज्जई ॥ होता है, वैसे ही जीव और कर्म का प्रवाहरूप से अनादि .."तया कम्म खवित्ताणं, सिद्धि गच्छइ नीरओ।। संबंध तप, संयम आदि उपायों से विच्छिन्न होता है। ..."तया लोगमत्थयत्थो, सिद्धो हवइ सासओ। अन्यथा मुक्ति के लिए किये जाने वाले अनुष्ठानों की (द४।१३-२५) सार्थकता नहीं हो सकती। साध्य-सिद्धि का क्रम मोहनीय–श्रद्धा और चारित्र को विकृत करने ० जो जीवों को भी जानता है, अजीवों को भी जानता वाला कर्म । (द्र. कर्म) है, वह जीव और अजीव दोनों को जानने वाला ही यथाख्यात चारित्र-वीतराग का चारित्र । संयम को जानता है।। (द्र. चारित्र) • जब मनुष्य जीव और अजीव -इन दोनों को जान लेता है तब वह सब जीवों की बहविध गतियों को मान यथाप्रवृत्तिकरण -वह परिणामविशेष जिससे जीव भी जान लेता है। दुर्भेद्य रागद्वेषात्मक ग्रंथि के ० वह पुण्य, पाप, बन्ध और मोक्ष को भी जान लेता है। समीप पहुंचता है । (द्र. करण) • वह देव और मनुष्य के भोगों से विरक्त हो योग-मन, वचन और शरीर की प्रवृत्ति । जाता है। । १. योग की परिभाषा और प्रकार • वह आभ्यन्तर और बाह्य संयोगों को त्याग देता है। * मनोयोग ० वह मुंड होकर अनगार-वृत्ति को स्वीकार करता है। * केवली के मनोयोग (द. गुणस्थान) ० वह उत्कृष्ट संवरात्मक अनुत्तर धर्म का स्पर्श ० वचनयोग करता है। * केवली का बोलना वचनयोग (द्र. केवली) ० वह अबोधि रूप पाप द्वारा संचित कर्म-रज को ० काययोग प्रकम्पित कर देता है। २. द्रव्ययोग-भावयोग ० वह सर्वत्रगामी केवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त । ३. भावयोग मिश्र नहीं कर लेता है। ४. भावसत्य ० वह जिन और केवली होकर लोक-अलोक को जान | ५. करणसत्य लेता है। ६. योगसत्य • वह योगों का निरोध कर शैलेशी अवस्था को प्राप्त ७. योगपरित्याग के परिणाम * योगनिरोध की प्रक्रिया होता है। (द्र. केवली) . वह कर्मों का क्षय कर रज-मुक्त बन सिद्धि को * योग और लेश्या (द्र. लेश्या) * योग से कर्मबंध (द्र. कर्म) प्राप्त करता है। • वह लोक के अग्र भाग में शाश्वत सिद्ध होता है। १. योग की परिभाषा और प्रकार ४. अनादि संबंध का अन्त कैसे ? जं तेण जुज्जए वा स कम्मुणा जं च जुज्जए तम्मि । जह धाऊ कणगाई सभावसंजोगसंज्या हंति । तो जोगो सो य मओ तिविहो कायाइवावारो ।। इअ संतइकम्मेणं अणाइसंजुत्तओ जीवो । (विभा ३४९९) Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग ५३८ जिससे आत्मा कर्म से सम्बद्ध होती है, वह योग है । उसके तीन प्रकार हैं- मनोयोग, वचनयोग, काययोग । मनोयोग .....तणुवावाराहिअमणदव्वसमूहजीववावारो । सोमण जोगो भण्णइ मण्णइ नेयं जओ तेणं ॥ काययोग से गृहीत मनोद्रव्य के व्यापार होता है, वह मनोयोग है। चिंतन-मनन किया जाता है । औदारिकर्वक्रियाहारकशरीरव्यापाराहृतमनोद्रव्यसाचिव्याज्जीवव्यापारो मनोयोगः । ( नन्दीमवृप ११२ ) ( विभा ३६४ ) द्वारा जीव का जो मनोयोग से ज्ञेय का औदारिक, वैक्रिय और आहारक शरीर की प्रवृत्ति से गृहीत मनोवर्गणा के पुद्गलों के सहयोग से होने वाला जीव का चिन्तनात्मक प्रयत्न मनोयोग है । वचनयोग ....तणुजोगा हिअवइदव्वसमूहजीववावारो । सो व जोगो भण्णइ वाया निसिरिज्जए तेणं ॥ ( विभा ३६३ ) द्वारा जीव का जो वचनयोग से शब्द - काययोग से गृहीत शब्दद्रव्य के व्यापार होता है, वह वचनयोग है । द्रव्यों का निसर्जन होता है । औदारिकवैक्रियाहारकव्यापाराहृतवाग्द्रव्यसमूहसाचिव्याज्जीवव्यापारो वाग्योगः । ( नन्दीमवृप ११२) औदारिक, वैक्रिय और आहारक शरीर की प्रवृत्ति से गृहीत भाषावर्गणा के पुद्गलों के सहयोग से होने वाला जीव का भाषात्मक प्रयत्न वचनयोग है । काययोग औदारिकादिशरीरयुक्तस्यात्मनो वीर्यपरिणतिविशेषः ( नन्दीमवु प ११२ ) काययोगः । औदारिक आदि शरीर के द्वारा होने वाली आत्मा की वीर्यपरिणति काययोग है । काययोग के तीन रूप ....तणुसंरंभेण जेण मुंबइ स वाइओ जोगो । Hors यस माणसिओ तणुजोगो चेव स विभत्तो ॥ ( विभा ३५९ ) भावयोग मिश्र नहीं जिस कायव्यापार से जीव शब्द द्रव्यों को छोड़ता है, वह वचनयोग है । जिस काय की प्रवृत्ति से जीव मनोद्रव्यों को मनन में व्यापृत करता है, वह मनोयोग है । एक काययोग ही उपाधिभेद से तीन रूपों में विभक्त है । २. द्रव्ययोग- भावयोग मनो-वाक् काययोगप्रवर्तकानि द्रव्याणि मनो-वाक्कायपरिस्पन्दात्मको योगश्च द्रव्ययोगः । यस्त्वेतदुभयरूपयोगहेतुरध्यवसायः स भावयोगः । (विभामवृ १ पृ ६८५ ) द्रव्ययोग - १. मन, वचन और काय के प्रवर्तक द्रव्य । २. मन, वाक् और शरीर का परिस्पन्दन । भावयोग-द्रव्ययोग के सहयोग से होने वाला अध्यवसाय | ३. भावयोग मिश्र नहीं कम्मं जोगनिमित्तं सुभोऽसुभो वा स एगसमयम्मि । होज्ज न उ उभयरूवो कम्मंपि तओ तयणुरूवं ॥ न मण-इ-काओगा सुभासुभा वि समयम्मि दी संति । दव्वम्मि मीसभावो भवेज्ज न उ भावकरणम्मि || भाणं सुभम सुभं वा न उ मीसं जं च भाणविरमे वि । लेसा सुभासुभा वा सुभमसुभं वा तओ कम्मं ॥ ( विभा १९३५ - १९३७) वह योग एक समय में या नहीं होता । कर्मबंध का हेतु है योग । तो शुभ होता है या अशुभ, मिश्र कुछ कहते हैं-' अविधि से दान आदि का उपदेश देने, अविधि से पूजा, वन्दना आदि प्रवृत्ति करने से शुभ और अशुभ - मिश्र योग होता है' पर यह कथन अयुक्त है। व्यवहार नय की अपेक्षा द्रव्ययोग मिश्र हो भी सकता है किन्तु निश्चय नय के अभिमत में द्रव्ययोग और भावयोग — दोनों ही मिश्र नहीं हो सकते । अध्यवसाय के दो प्रकार हैं शुभ और अशुभ । अध्यवसाय का तीसरा प्रकार शुभाशुभ या मिश्र अध्यवसाय आगमों में कहीं भी प्रतिपादित नहीं है । कारण के अनुरूप कार्य होता है इसलिए शुभ अध्यवसाय या भावयोग से पुण्य और अशुभ से पाप का बंध होता है । पुण्य और पाप का मिश्रण नहीं होता, मिश्र बंध नहीं होता । Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगपरित्याग के परिणाम योगसंग्रह ध्यान और लेश्या शुभ या अशुभ होते हैं, मिश्र नहीं योगसंग्रह-आलोचना आदि के द्वारा प्रशस्त होते । ये भावयोग हैं। अत: भावयोग मिश्र नहीं होता। योगों का संग्रहण । ज्ञान आदि की ४. मावसत्य वृद्धि के हेतुओं का संग्रहण । भावसत्येन शुद्धान्तरात्मतारूपे पारमार्थिकावितथत्वे । आलोयणा निरवलावे, आवई दढधम्मया । (उशावृ प ५९१) अणिस्सिओवहाणे य, सिक्खा णिप्पडिकम्मया ।। भावसत्य का अर्थ है-अन्तरात्मा की सचाई। अण्णाणया अलोहे य, तितिक्खा अज्जवे सुई । भावसच्चेणं भावविसोहिं जणयइ। भावविसोहीए सम्मदिट्ठी समाही य, आयारे विणओवए । वद्रमाणे जीवे अरहंतपन्नत्तस्स धम्मस्स आराहणयाए धिई मई य संवेगे, पणिही सुविहि संवरे । अब्भुठेइ, "अब्भुट्टित्ता परलोगधम्मस्स आराहए हवइ । अत्तदोसोवसंहारो, सव्वकामविरत्तिया ।। (उ २९।५१) पच्चक्खाणा विउस्सग्गे, अप्पमाए लवालवे । भावसत्य से जीव भाव की विशुद्धि को प्राप्त करता झाणसंवरजोगे य, उदए मारणंतिए । है । भावविशुद्धि में वर्तमान जीव अर्हत्-प्रज्ञप्त धर्म की संगाणं च परिणा, पायच्छित्तकरणे इय । आराधना के लिए तैयार होता है । अर्हत् प्रज्ञप्त धर्म की आराहणा य मरणंते, बत्तीसं जोगसंगहा ।। आराधना में तत्पर होकर वह परलोक धर्म का आराधक (आवनि १२७४-१२७८) होता है। योगसंग्रह के बत्तीस प्रकार-. ५.करणसत्य १. आलोचना-अपने प्रमाद का निवेदन करना। करणसत्यं-यत्प्रतिलेखनादिक्रियां सम्यगुपयुक्तः । २. निरपलाप-आलोचित प्रमाद का अप्रकटीकरण । (उशाव प ५९२) ३. आपत्काल में दृढ़धर्मता-किसी भी प्रकार की विहित क्रियाओं (प्रतिलेखना आदि) को सम्यक् __ आपत्ति में दृढ़धर्मी बने रहना। प्रकार से सम्पादित करना करणसत्य है। ४. अनिश्रितोपधान दूसरों की सहायता लिए बिना करणसच्चेणं करणसत्ति जणयइ। करणसच्चे वट्ट तपःकर्म करना। माणे जीवे जहावाई तहाकारी यावि भवइ । ५. शिक्षा-सूत्रार्थ का पठन-पाठन तथा विहित क्रिया (उ २९।५२) का आचरण। करणसत्य से जीव करण-शक्ति (अपूर्व कार्य करने ६. निष्प्रतिकर्मता-शरीर की सार-संभाल या चिकित्सा का सामर्थ्य) को प्राप्त करता है। करण-सत्य में वर्तमान का वर्जन। जीव जैसा कहता है वैसा करता है। ७. अज्ञातता-अज्ञात रूप में तप करना, उसका प्रदर्शन ६. योगसत्य या प्रख्यापन नहीं करना । ८. अलोभ-निर्लोभता का अभ्यास । जोगसच्चेणं जोगं विसोहेइ । (उ २९।५३) ९. तितिक्षा-कष्ट-सहिष्णुता, परीषहों पर विजय पाने योगसत्य से मन, वाणी और काया की प्रवृत्ति का का अभ्यास । विशोधन होता है। १०. आर्जव-सरलता । ७. योगपरित्याग के परिणाम ११. शुचि-पवित्रता-सत्य, संयम आदि का आचरण । जोगपच्चक्खाणेणं अजोगत्तं जणयइ। अजोगी णं १२. सम्यग्दष्टि सम्यग्दर्शन की शुद्धि । जीवे नवं कम्मं न बंधइ पुव्वबद्धं निज्जरेइ । (उ २९।३८) १३. समाधि-चित्त-स्वास्थ्य । योग-प्रत्याख्यान से जीव अयोगत्व (सर्वथा अप्रकंप- १४. आचार-आचार का सम्यक् प्रकार से पालन । भाव) को प्राप्त होता है। अयोगी जीव नए कर्मों का १५. विनयोपग ---विनम्रता । अर्जन नहीं करता और पूर्व अजित कर्मों को क्षीण कर १६. धतिमति-धैर्ययुक्त बुद्धि। १७. संवेग --संसार-वैराग्य अथवा मोक्ष की अभिलाषा । For Private & Personal use only Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगसंग्रह १८. प्रणिधि - अध्यवसाय की एकाग्रता । १९. सुविधि सद् अनुष्ठान । २०. संवर - आश्रवों का निरोध । २१. आत्मदोषोपसंहार अपने दोषों का उपसंहरण | २२. सर्वकामविरक्तता सर्व विषयों से विमुखता । २३. प्रत्याख्यान मूलगुण विषयक त्याग । २४. प्रत्याख्यान उत्तरगुण विषयक त्याग । २५. व्युत्सर्ग- शरीर, भक्तपान, उपधि तथा कषाय का विसर्जन ५४० २६. अप्रमाद -आत्मा की सतत स्मृति । २७. लवालव - सामाचारी के पालन में सतत जागरूकता । २८. ध्यानसंवरयोग - महाप्राण ध्यान की साधना । २९. मारणांतिक उदय मारणांतिक वेदना के उदय होने पर भी शान्त और प्रसन्न रहना । ३०. संग- परिज्ञा आसक्ति का त्याग ३१. प्रायश्चित्तकरण दोष-विशुद्धि का अनुष्ठान । ३२. मारणांतिक आराधना-मृत्युकाल में आराधना । योगसंग्रह के चार उदाहरण उज्जेणीए धणवसु अणगारे धम्मघोस चंपाए । asate सत्थविभम वोसिरणं सिज्झणा चेव ॥ गवरं च विवक्षण मुंडिबंब अजपूसभूई य । आयाण समित्ते सुहुमे झाणे विवादो य ॥ रोहीडगं य नवरं ललिओ गुड्डी अ रोहिणी गणिआ । धम्मरु कटुअदुद्धिदाणाययणे अ कंमुदए । नयरी व चंपनामा जिणदेवो सत्यवाह अहिछत्ता । अडवी य तेण अगणी सावय संगाण वोरिणा ॥ ( आवनि १२८१,१३१७- १३१९) १. दुधर्मिता योगसंग्रह उज्जयिनी नगरी के श्रेष्ठी धनवसु का सार्थ चम्पा मगरी की ओर जा रहा था। उस सार्थ के साथ धर्मपोष मुनि भी थे। भीलों के आतंक के कारण सार्थ अटवी में भटक गया। सार्थ के लोग कंदमूल खाकर अपना पेट भरते । उन्होंने मुनि को भी आमंत्रित किया, किन्तु मुनि के लिए कंदमूल अब्राह्म थे, अतः मुनि ने अदीन भाव से भक्तप्रत्याख्यान अनशन स्वीकार कर लिया। उन्होंने ध्यानमुद्रा में कैवल्य प्राप्त किया और मुक्त हो गए। इस प्रकार मुनि ने दुढ़धर्मिता से योगों का संग्रह किया । योगसंग्रह के चार उदाहरण २. ध्यानसंवर योगसंग्रह शिम्बवर्धन नगर मुंडिकाचक राजा पुष्यभूति आचार्य । एक बार उन बहुश्रुत आचार्य के मन में संकल्प जागा कि 'सूक्ष्म ध्यान में प्रवेश करूं, जो महाप्राणध्यान के सदृश होता है। इसमें योगनिरोध कर निश्चेष्ट होना होता है। इस ध्यान की निविघ्नता के लिए बहुश्रुत शिष्य की अपेक्षा रहेगी। अभी यहां जो शिष्य हैं, वे सब अगीतार्थ हैं यह सोचकर आचार्य ने बहिविहारी गीतार्थ शिष्य पुष्यमित्र को बुलाया और ध्यानकक्ष के द्वार पर उसे प्रहरी के रूप में नियुक्त कर ध्यानस्थित हो गये । पुष्यमित्र किसी को भी वन्दना के लिए कक्ष के भीतर नहीं जाने देता था। इससे अन्य शिष्यों के मन में कुतूहल और संदेह हो गया। एक शिष्य ने उन्हें पूर्णतः निश्चेष्ट देखकर कह दिया कि आचार्य तो कालधर्म को प्राप्त हो गये हैं, किन्तु पुष्यमित्र बता नहीं रहा है, कोई बंदाल साध रहा होगा। उसने कहा- आचार्य जीवित हैं, ध्यान कर रहे हैं, आप लोग कोई विघ्न न करें। किसी ने इस बात का विश्वास नहीं किया, उससे झगड़ने लगे। राजा को भी बुला लिया। राजा ने आचार्य की मृत्यु की घोषणा कर शिविका तैयार करवाई। आचार्य ने पुष्यमित्र से ध्यान से पूर्व ही कह दिया था कि कोई विशेष आपत्तिजनक स्थिति हो तो मेरे अंगूठे को दबा देना इस निर्देश के अनुसार शिष्य ने अंगूठे का स्पर्श किया और आचार्य ने तत्काल ध्यान को सम्पन्न कर उपालम्भ दिया कि मेरे ध्यान में यह व्याघात क्यों किया ? इस प्रकार आचार्य ने ध्यान-संदरयोग से योग संगृहीत किये। ३. मारणांतिक वेदना - अधिसहन योगसंग्रह - रोटिक नगर में ललिता गोष्ठी रोहिणी गणिका उस गोष्ठी के लिए भोजन पकाती थी । एक दिन उसने लौकी (तुम्बा) की सब्जी अत्यन्त आरम्भपूर्वक बनाई। उसने गंध से जान लिया कि लौकी कड़वी है । गोष्ठी के सदस्यों के तिरस्कार के भय से उसने तत्काल निर्णय लिया मैं दूसरी लौकी की सब्जी बना देती हूं और इसे भिक्षाचरों को दे देती हूं उसी समय धर्मरुचि अनगार मासक्षमण के पारणे के लिए उस पर में प्रविष्ट हुए। उसने वह पूरी सब्जी मुनि के पात्र में डाल दी। मुनि उसे लेकर उपाश्रय में आए, गुरु को निवेदित किया। गुरु ने देखा और जान लिया कि यह आहार जो भी करेगा वह मृत्यु को प्राप्त होगा। गुरु ने उसे विसर्जित Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योनि के प्रकार 1 करने का निर्देश दिया । धर्मरुचि अनगार उस आहार को लेकर जंगल में गए । परिष्ठापन के लिए बैठे । एक बूंद नीचे गिर गई। वहां चींटियां आई और तत्काल मर गईं । 'मैं स्वयं ही इसको खा लूं जिससे अन्य जीवों का घातक न बनूं', यह सोच उन्होंने उस शाक को खा लिया । तीव्र मारणान्तिक वेदना हुई । उस वेदना को समभाव से सहन कर मुक्त हो गए । मारणान्तिक वेदना को सहन करने से योग संगृहीत होते हैं। I इस प्रकार ४. संगपरिज्ञा योगसंग्रह 'जिनदत्त सार्थवाह चंपानगरी से अहिच्छत्रा की ओर जा रहा था । मार्ग में भीलों के आतंक से आतंकित हो वह सघन जंगल में पहुंच गया, जहां सामने अग्नि जल रही थी, पीछे से व्याघ्र आ रहे थे, दोनों ओर प्रपात थे । इस स्थिति में अपने आपको असुरक्षित जानकर जिनदत्त ने सामायिक का संकल्प ग्रहण किया और कायोत्सर्ग प्रतिमा में स्थित हो गया। जंगल के हिंस्र पशुओं ने उसे घेर लिया और मांस खाने उस पर झपट पड़े। वे नोच-नोंचकर मांस खाने लगे। जिनदत्त समभाव की श्रेणी में आरोहण करता गया । कुछ ही समय में वह सिद्ध, बुद्ध मुक्त हो गया । इस प्रकार उसने शरीर के ममत्व-त्याग से योगों का संग्रहण किया । (बत्तीस योगसंग्रह के अन्य उदाहरणों के लिए देखें – आवनि १२७९-१३२० २१५२-२१२) योगसंग्रह के अपर प्रकार बत्तीसं जोगसंगहा - धम्मो सोलसविधं एवं सुक्कंपि, एते बत्तीस जोगाणं संगहहेतू । ( आवचू २ पृ १५२) योगसंग्रह के अन्य बत्तीस प्रकार - धर्मध्यान और शुक्लध्यान के सोलह-सोलह प्रकार प्रकार (स्वरूप), लक्षण, आलम्बन और अनुप्रेक्षाइनमें से प्रत्येक के चार-चार प्रकार होने से धर्म और शुक्ल ध्यान के बत्तीस प्रकार होते हैं । (द्र ध्यान ) - उत्पत्तिस्थान | योनि - ५४१ ---- १. योनि का निर्वचन २. योनि के प्रकार ३. सचित्त-अचित्त मिश्र योनि ४. शीत-उष्ण- मिश्र योनि ५. संवृत - विवृत मिश्र योनि ६. योनि के अन्य प्रकार १. योनि का निर्वचन युवन्ति - तैजसका र्म्मणशरीरवन्तः सन्त औदारिकशरीरेण वैक्रियशरीरेण वाऽऽस्विति योनयो जीवानामेवोत्पत्तिस्थानानि । ( नन्दी मवृ प ८ ) जहां औदारिक अथवा वैक्रिय शरीर के साथ तैजस और कार्मण शरीर का मिश्रण होता है, यह योनिजीव का उत्पत्तिस्थान है । योनि २. योनि के प्रकार जोणीओ सचित्त - सीत-संबुडादियाओ चउरासीतिलक्खविहाणा वा । ( नन्दी पृ १) योनि के तीन-तीन प्रकार -- १. सचित्त, अचित्त, मिश्र । २. शीत, उष्ण, शीतोष्ण । ३. संवृत, विवृत, संवृत-विवृत । अथवा योनि के चौरासी लाख प्रकार हैं । ( चौरासी लाख जीवयोनि पुढवीजलजलणमारुय एक्केक्के सत्त सत्त लक्खाओ । वर्ण पत्तेय अणते दस चोट्स जोणिलक्खाओ || विलिदिए दो दो चउरो चउरो य णारयसुरेसु । तिरिए हुंति चउरो चोट्स लक्खा य मणुएसु || ( आचारांग वृत्ति पत्र २२ ) सात लाख पृथ्वीकाय, सात लाख अप्काय, सात लाख तेजस्काय, सात लाख वायुकाय, दस लाख प्रत्येक वनस्पतिकाय, चौदह लाख साधारणवनस्पतिकाय, दो लाख द्वीन्द्रिय, दो लाख त्रीन्द्रिय, दो लाख चतुरिन्द्रिय, चार लाख नारक, चार लाख देवता, चार लाख पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च और चौदह लाख मनुष्य ये चौरासी लाख जीवयोनियां हैं । पृथ्वीकाय के मूल भेद ३५० हैं । उनको अनुक्रम से पांच वर्ण, दो गंध, पांच रस, आठ स्पर्श और पांच संस्थान से गुणा करने पर पृथ्वीकाय की सात लाख जातियां बनती हैं। इसी प्रकार अप्काय, तेजस्काय और वायुकाय में से प्रत्येक के मूलभेद ३५० हैं । इनको भी पूर्वोक्त विधि से गुणा करने पर प्रत्येक की सात-सात लाख जातियां बनती हैं। प्रत्येक वनस्पति के मूल भेद ५००, साधारण वनस्पति के ७००, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय एवं चतुरिन्द्रिय में से प्रत्येक के १००, नारक, देवता व तिर्यंचपंचेन्द्रिय में से प्रत्येक के २०० तथा मनुष्य के ७०० मूल Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योनि के अन्य प्रकार ५४२ रसपरित्याग भेद हैं। इन मूल भेदों का गणित इस प्रकार है २. उष्ण-तेजस्काय के जीवों की योनि उष्ण होती है। ५ वर्ण, २ गंध, ५ रस, ८ स्पर्श और ५ संस्थान-- ३. मिश्र-शीतोष्ण-देव, गर्भज-तिथंच और गर्भजइनका परस्पर गुणन करने पर २००० की संख्या प्राप्त मनुष्यों की योनि शीतोष्ण होती है। पृथ्वीकाय, होती है। इस संख्या का सात लाख पृथ्वीकाय में भाग अपकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, दीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, देने पर (७०००००-२०००) भागफल ३५० होता है चतुरिन्द्रिय, सम्मूच्छिमतिर्यक्पंचेन्द्रिय और सम्मूऔर ये ही पृथ्वीकाय के मूल भेद हैं। इसी प्रकार शेष च्छिममनुष्यों की योनि शीत, उष्ण और शीतोष्णयोनियों के मूल भेद जाने जा सकते हैं । जीवों के उत्पत्ति- तीनों प्रकार की होती है। स्थान असंख्य हैं, किन्तु समान वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और योनि संस्थान वाले स्थानों को एक मानकर उन्हें चौरासी लाख एगिदिय-नेरइया संवुडजोणी हवंति देवा य । कहा गया है।) विगलिंदियाण वियडा, संवडवियडा य गब्भम्मि ।। ३. सचित्त-अचित्त-मिश्र योनि (नन्दीहावृटि पृ १००) मिस्सत्तं जोणीए सुक्कमचित्तं सचेयणं रुहिरं । योनि के तीन प्रकारअहवा सुक्कं रुहिरं अचेयण-सचेयणा जोणी ।। १. संवृत-ढकी हुई । देव, नारक और एकेन्द्रिय जीवों एवं मिश्रत्वं तिर्यग्-मनुष्यस्त्रीयोनेः । तथा की योनि संवृत होती है। अचित्ता खलु जोणी नेरइयाणं तहेव देवाणं । २. विवृत-प्रकट । विकलेन्द्रिय, सम्मूच्छिमतिर्यंचमीसा य गब्भवसही, तिविहा जोणी उ सेसाणं ।। पंचेन्द्रिय और सम्मृच्छिममनुष्यों की योनि विवृत तिर्यग्-मनुष्यगर्भजव्यतिरिक्तानां सम्मूर्छनजतिर्यग् होती है। मनुष्याणां यथा गोकृम्यादीनां सचित्ता, काष्ठघणादीनाम ३. मिश्र--गर्भज तिर्यंचपंचेन्द्रिय और गर्भज मनुष्यों चित्ता, गोकृम्यादीनामेव केषाञ्चित् पूर्वकृतक्षते समुद्- की योनि संवृत-विवृत होती है। भवतां मिश्रेति त्रिधात्वम् । (नन्दीहावृष्टि पृ १००) ६. योनि के अन्य प्रकार योनि के तीन प्रकार शङ्खावर्ता कूर्मोन्नता वंशीपत्रा चेति त्रिधा मनुष्य, सचित्त-सजीव । जीवित गाय के शरीर में कृमि स्त्रीविषया स्यात । तत्र चपैदा होते हैं, वह सचित्त योनि है। उत्तमनरमाऊणं नियमा कुम्मुन्नया हवइ जोणी । २. अचित्त-निर्जीव । देव और नारकी की योनि इयराण वंसपत्ता, संखावत्ता उ रयणस्स । ___अचित्त होती है। (नन्दीहावृटि पृ १००) ३. मिश्र-सजीव-निर्जीव । गर्भज-मनुष्य और गर्भज- १. शंखावर्ता-शंख के समान आवर्त (घुमाव) वाली। तिर्यंचों की योनि मिश्र होती है। इनकी उत्पत्ति यह योनि स्त्री-रत्न की होती है। शुक्र और शोणित के सम्मिश्रण से होती है। शुक्र २. कूर्मोन्नता--कछुए के समान उन्नत । यह योनि और शोणित के जो पुदगल आत्मसात् हो जाते हैं, तीर्थंकर आदि उत्तम पुरुषों की माता के होती है। वे सचित्त और जो आत्मप्रदेशों से सम्बद्ध नहीं होते, ३. वंशीपत्रिका-बांस की जाली के पत्रों के आकार वे अचित्त कहलाते हैं। वाली। यह योनि सामान्य-जनों की माता के होती सम्मूच्छिम तिर्यंच और सम्मूच्छिम मनुष्यों की योनि तीनों प्रकार की होती है। (शंखावर्ता योनि में बहत से जीव और पुदगल आते ४. शीत-उष्ण-मिश्र योनि हैं, गर्भरूप में उत्पन्न होते हैं। उनका चय-उपचय भी होता सीओसिणजोणिया सव्वे देवा य गब्भवक्कंती । है, किन्तु वे निष्पन्न नहीं होते। (देखें-पनवणा ९।२६) उसिणा य तेउकाए, दुह नरए, तिविह सेसाणं ॥ रसपरित्याग-दूध, दही आदि रसों का वर्जन । ___ (नन्दीहावृटि पृ १००) खीरदहिसप्पिमाई पणीयं पाणभोयणं । योनि के तीन प्रकार परिवज्जणं रसाणं तु भणियं रसविवज्जणं ।। १. शीत-प्रथम नरक के नारकों की योनि शीत होती है। (उ ३०।२६) Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजीमती 1 दूध, दही, घृत आदि तथा प्रणीत पान भोजन और रसों के वर्जन को रसविवर्जन ( रसपरित्याग ) तप कहा जाता है । यह तप का चौथा भेद है ( द्र. तप) तत्थ नव विगतीतो तं जहा - खीरं दधि नवनीतं सप्पि तेल्लं महुं मज्जं गुलो पुग्गलति । तत्थ पंच खीराणि - गावणं महिसणं उट्टीणं अजाणं एलियाणं, उट्ठीणं दधि नत्थि नवनीतं घयं च णवणीतघयवज्जा चत्तारि खीरा । अतसी कुसुंबसरिसवतेल्लाणि, एयातो विगतीतो लेवाडाति पुण होंति । दो विगडा ट्ठनिप्पण्णं उच्छुमादि पिट्ठनिष्फण्णं फाणिया दोन्नि --- दवगुडो य पिंडगुडो य । मधूणि तिष्णि - मच्छियं कुत्तियं भामरं । पोग्गलाणि जलचरं थलचरं खहचरं अहवा चम्मं मंसं सोणितं । एयातो नव विगतीतो ओगाहिमं च दसमं । ( आवचू २ पृ ३१९ ) रस ( विकृति) के नौ प्रकार हैं--क्षीर, दधि, नवनीत, घृत, तेल, गुड़, मधु, मद्य, पुद्गल (मांस) । • क्षीर के पांच प्रकार- गाय, महिषी, अजा, भेड़ और उष्ट्रिका का दूध 0 उष्ट्रिका के दूध का दही नहीं जमता । अतः दधि, घृत और नवनीत के चार प्रकार ही बनते हैं । तैल के चार प्रकार तिल, अलसी, कुसुम्भ और सरसों -- इन चारों का तैल विकृति ( विगय ) है | शेष तैल विगय नहीं हैं, किन्तु लेपयुक्त हैं । ० गुड़ के दो प्रकार - द्रवगुड़ और पिण्डगुड़ । ० मधु के तीन प्रकार- मधुमक्खी, कुन्त और भ्रमर से प्राप्त माक्षिक, कौन्तिक तथा भ्रामर मधु । ० मद्य के दो प्रकार - काष्ठनिष्पन्न तथा ईक्षुपिष्टनिष्पन्न | ० ० पुद्गल (मांस) के तीन प्रकार जलचरज, स्थलचरज, खेचरज अथवा चर्म, मांस, शोणित । ५४३ ये नव विकृतियां हैं। दसवीं विकृति अवगाहिमघी या तेल में तला हुआ पदार्थ है । विस्तृत विवरण के लिए देखें - ठाणं ९।२३ का टिप्पण ) | राजीमती - भोजकुल के राजन्य उग्रसेन की पुत्री । राजीमती अरिष्टनेमि के पूर्वभव एगम्मि सन्निवेसे गामाहिवस्स सुतो आसि धणनामो कुलपुत्तओ | माउलदुहिया धणवई तस्स भारिया । अन्नया ताई गिम्हयाले मज्भण्हे गयाई पओयणवसेणमरन्नं । दिट्ठो य तत्थ पंथपरिभट्ठो तण्हाछुहापरिस्समाइरेगेण निमीलियलोयणो किच्छपाणी भूमितलमइगतो किससरीरो राजीमती - अरिष्टनेमि के पूर्वभव गोणी । तं च दट्ठूण 'अहो ! महातवस्सी एस कोइ इममवत्थं पत्तो' त्ति संजायभत्तिकरुणेहि सित्तो जलेण, वीइतो चेलंचलेण, संबाहियाणि य धणेण अंगाई | जातो समासत्यो नीतो सग्गामं, पडियरओ य पच्छाऽऽहाराईहि । मुणिणा वि दिन्नो उचिओवएसो । 1 ..... पडिवन्नो य तेहि कालेण जइधम्मो । कालं काऊण सोहम्मे सामाणितो जातो धणो, इयरा वि जातो तस्सेवमित्तो । तत्थ दिव्वसुरसुहमणुभविउ चुतो संतो धणो उववन्नो वेयड्ढे सूरतेयराइणो पुत्तो चित्तगइनामा विज्जाहरराया । धणवई वि सूररायकन्नगा होऊण जाया तस्सेव भारिया रयणवई नाम । आसेवियमुणिधम्मो माहिदे घणो सामाणितो, इयरा य तम्मित्तो जातो । ततो चुतो धणो अवराजितो नाम राया जातो, सावि पिइमई तस्स पत्ती । काऊण समणधम्मं गयाई आरणके कप्पे । धणो सामाणितो जाओ, इयरा वि तम्मित्तो । ततो चुओ धणो संखराया जातो, सा वि जसमई तस्सेव कंता । तत्थ संखो पडिवन्नमुणिधम्मो अरहंत वच्छल्लाइऊहिं निबद्धतित्थयरनामो उववन्नो अवराइयविमाणे । जसमईवि साहुधम्मपहावेण तत्थेवोववण्णा । ततो चविऊण धण सोरियपुरे नयरे दसण्हं दसाराणं जेटुस्स समुद्द्विजयस्स राणो सिवादेवीए भारियाए कुच्छिसि चोद्दसमहासुमिणसूइतो कत्तिय कहबारसीए उववन्नो पुत्तत्ताए । उचियसमएण य सावणसुद्धपंचमीए पसूया सिवादेवी दारयं । ..... अरिनेमित्तिक पिउणा नामं । उग्गसेणरायदुहिया रायमई कन्नगा । सा पुण धणवइजीवो अपराजियविमाणातो चविऊण य तत्थोववन्ना । ( उसुवृ प २७७-२७९) एक सन्निवेश में धन नाम का कुलपुत्र था, जो ग्राम के अधिपति का पुत्र था । उसके धनपति नाम की भार्या थी । एक बार वे दोनों किसी प्रयोजनवश जंगल में गये । ग्रीष्मकाल मध्याह्न का समय । वहां उन्होंने एक कृशकाय मुनि को देखा, जो भूख-प्यास से क्लांत, निमीलितनयन, मूच्छित अवस्था में भूमितल पर लेटा हुआ था। महातपस्वी के प्रति उनके मन में करुणा और भक्ति का भाव जागा, उस पर जल छिड़का, वस्त्र से हवा की और अंगों को दबाया । इससे मुनि को मूर्च्छा टूट गई । वे उसे अपने गांव ले गये और वहां आहार आदि से उसकी परिचर्या की। मुनि ने उपदेश दिया ! अन्तिम वय में उन्होंने भी मुनिदीक्षा ग्रहण की। वहां से मर कर मुनि धन सौधर्म Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजीमती ५४४ रथनेमि और राजीमती कल्प में सामानिक देव बना, धनपति भी उसी विमान में सत्यनेमि और दृढ़नेमि । अरिष्टनेमि बाईसवें तीर्थंकर उत्पन्न हुई। हए और रथनेमि तथा सत्यनेमि प्रत्येकबुद्ध हुए। वहां से च्यवन कर धन का जीव वैताढ्य गिरि पर धिरत्थ ते जसोकामी, जो तं जीवियकारणा। सुरतेज राजा के पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ । उसका नाम वंतं इच्छसि आवेउ, सेयं ते मरणं भवे ।। चित्रगति रखा गया। वह विद्याधरों का राजा बना । अस्ट्रिणे मिसामिणो भाया रहणेमी भट्रारे पव्वइतं धनपति का जीव सूरराजा की पुत्री के रूप में रायमति आराहेति 'जति इच्छेज्ज।' सा निविण्णकामउत्पन्न हुआ । उसका नाम रत्नवती रखा गया। चित्रगति भोगा तस्स विदिताभिप्पाया कल्लं मधु-घयसंजुत्तं पेज्जं के साथ उसका पाणिग्रहण हुआ । अन्त में दोनों ने मुनि- पिबित आगते कुमारे मदणफलं मुहे पक्खिप्प पात्रीए छड्डे धर्म स्वीकार किया । चित्रगति माहेन्द्र कल्प में सामानिक । तुमूवणिमंतेति -पिबसि पेज्ज? तेण पडिवणे वंतवणदेव बना और रत्नवती उसका मित्रदेव बनी। यति । तेण "किमिदं' ? इति भणिते भणति- इदमवि वहां से च्यवन कर चित्रगति (धन) अपराजित राजा एवंप्रकारमेव, भावतो हं भगवता परिच्चत्त त्ति वंता, और रत्नवती (धनपति) उसकी प्रियमती पत्नी बनी। अतो तुज्झ मामभिलसंतस्स........ (द २७ अच पृ ४९) श्रमण-धर्म का पालन कर वह आरण कल्प में सामानिक (केशव ने अरिष्टनेमि के लिए राजीमती की मांग देव और प्रियमती उसका मित्रदेव बनी। की। विवाह के लिए जाते हए अरिष्टनेमि ने पशुओं का वहां से च्यवन कर वे शंख राजा और यशोमती करुण क्रन्दन सुना। उनका मानस द्रवित हो उठा। वे रानी बने । शंख ने उसी भव में श्रमण-धर्म स्वीकार कर प्रव्रज्या के लिए वहीं से मुड़ गए।) तीर्थकरनामगोत्र का बन्ध किया और अपराजित विमान जब अरिष्टनेमि प्रवजित हो गए, तब उनके में उत्पन्न हुआ, यशोमती भी मुनिधर्म के प्रभाव से वहीं भ्राता रथनेमि राजीमती को प्रसन्न करने लगे, जिससे उत्पन्न हुई। कि वह उन्हें चाहने लगे। भगवती राजीमती का अपराजित विमान से च्यवन कर शंख का जीव : मन काम-भोगों से उदासीन हो चुका था । उसे सोरियपूर में कार्तिक कृष्णा द्वादशी को शिवादेवी के गर्भ रथनेमि का अभिप्राय ज्ञात हो गया। एक बार उसने में उपपन्न हुआ । माता ने चौदह स्वप्न देखे। श्रावण मधु-घृत संयुक्त पेय पीया और जब रथनेमि आये तो शुक्ला पंचमी को इस पुत्ररत्न का जन्म हुआ, जिसका मदनफल मुख में ले उसने उल्टी की और रथनेमि से नाम रखा गया अरिष्टनेमि । इनके पिता समुद्रविजय दस बोली...'इस पेय को पीओ।' रथनेमि बोले-'वमन दशा) में ज्येष्ठ राजा थे। उस समय सोरियपुर में द्वैध किए हुए को कैसे पीऊं?' राजीमती बोली-'यदि वमन राज्य था । अंधक और वृष्णि -ये दो राजनैतिक दल किया हआ नहीं पीते तो मैं भी अरिष्टनेमि स्वामी द्वारा वहां का शासन चलाते थे। समुद्रविजय अंधकों के नेता वमन की हुई हूं। मुझे ग्रहण करना क्यों चाहते हो ? थे और वसुदेव वृष्णियों के । धिक्कार है तुम्हें जो वमी हुई वस्तु को पीने की इच्छा यशोमती (धनपति) का जीव अपराजित विमान से करते हो। इससे तो तुम्हारा मरना श्रेयस्कर है।'. च्यवकर राजीमती के रूप उत्पन्न हुआ। उसके पिता का इसके बाद राजीमती ने धर्म कहा। रथनेमि समझ गए नाम उग्रसेन और माता का नाम धारिणी था। और प्रवजित हो गये। राजीमती भी उन्हें बोध दे रथनेमि और राजीमती प्रवजित हुई। तेसिं पुत्ता चउरो अरिट्ठनेमी तहेव रहनेमी । गिरि रेवययं जंती, वासेणुल्ला उ अंतरा । तइओ अ सच्चनेमी चउत्थओ होइ दढनेमी ।। वासंते अंधयारम्मि, अंतो लयणस्स सा ठिया ।। जो सो अरिदुनेमी बावीसइमो अहेसि सो अरिहा। चीवराई विसारंती, जहाजाय त्ति पासिया। रहनेमि सच्चनेमी एए पत्तेयबुद्धा उ । रहनेमी भग्गचित्तो, पच्छा दिवो य तीइ वि।। (उनि ४४४,४४५) भीया य सा तहिं दर्छ, एगते संजयं तयं । समुद्रविजय के चार पुत्र थे -अरिष्टनेमि, रथनेमि, बाहाहि काउं संगोफ, वेवमाणी निसीयई ।। Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजीमती रात्रिभोजनविरमण अह सो वि रायपुत्तो, समुद्दविजयंगओ । उग्गं तवं चरित्ताणं, जाया दोष्णि वि केवली । भीयं पवेविय दट्ठं, इमं वक्कं उदाहरे ।। सव्वं कम्म खवित्ताणं, सिद्धि पत्ता अणत्तरं ।। रहनेमी अहं भद्दे, सुरूवे ! चारुभासिणि !। (उ २२।४६,४८) ममं भयाहि सुयण ! न ते पीला भविस्सई ॥ रहनेमिस्स भगवओ गिहत्थए चउर इंति वाससया । (उ २२॥३३-३७) संवच्छर छउमत्थो पंचसए केवली हुंति ॥ एक बार राजीमती अरिष्टनेमि को वंदना करने नववाससए वासाहिए उ सव्वाउगस्स नायव्वं । रेवतक पर्वत पर जा रही थी। बीच में वर्षा से भीग गई। एसो उ चेव कालो रायमईए उ नायव्वो । वर्षा हो रही थी, अंधेरा छाया हुआ था, उस समय वह (उनि ४४६, ४४७) लयन (गुफा) में ठहर गई। (उस गुफा को आज भी संयमिनी राजीमती के इन सभाषित वचनों को 'राजीमतीगुफा' कहा जाता है—विविधतीर्थकल्प पृष्ठ ६)। सुनकर रथनेमि धर्म में वैसे ही स्थिर हो गया, जैसे अंकुश उसी गुफा में मुनि रथनेमि पहले से ही रुका हआ था। से हाथी होता है। उग्रतप का आचरण कर तथा सब चीवरों को सुखाने के लिए फैलाती हई राजीमती को। कर्मो को खपा राजीमती और रथनेमि दोनों अनुत्तर रथनेमि ने यथाजात (नग्न) रूप में देखा। वह भग्नचित्त । सिद्धिगति को प्राप्त हुए । दोनों का गृहस्थपर्याय चार सौ वर्ष, छद्मस्थपर्याय हो गया। बाद में राजीमती ने भी उसे देख लिया। एकांत में उस संयति को देख वह डरी और दोनों भुजाओं . र एक वर्ष तथा केवलीपर्याय पांच सौ वर्ष था। इस प्रकार के गुम्फन से वक्ष को ढांककर कांपती हई बैठ गई। उस उनका संपूर्ण आयुष्य नौ सौ एक वर्ष का था। समय समुद्रविजय के अंगज राजपुत्र रथनेमि ने राजीमती रात्रिभोजनविरमण-रात्रिभोजन का वर्जन । को भीत और प्रकम्पित देखकर यह कहा- भद्रे ! मैं १. रात्रिभोजनविरमण : छठा व्रत रथ नेमि हूं। सुरूपे ! चारुभाषिणि ! तू मुझे स्वीकार २. रात्रिभोजनवर्जन और अहिंसा कर । सुतनु ! तुझे कोई पीड़ा नहीं होगी। ३. रात्रिभोजनविरमण उत्तरगुण जइ सि रूवेण वेसमणो, ललिएण नलकूबरो। ४. रात्रिभोजनविरमण मूलगुण तहा वि ते न इच्छामि, जइ सि सक्खं पुरंदरो । * श्रावक और रात्रिभोजन का विकल्प (द. श्रावक) (पक्खंदे जलियं जोई, धमकेउं दुरासयं । ५. रात्रिभोजनविरमण और शासनभेद नेच्छंति वंतयं भोत्तुं, कुले जाया अगंधणे ।।) ६. रात्रिभोजन के द्रव्य, क्षेत्र .. अहं च भोयरायस्स, तं च सि अंधगवण्हिणो । • रात्रिभोजन : एक अनाचार (व. अनाचार) मा कूले गंधणा होमो, संजमं निहओ चर ॥ (उ २२।४१,४३) १.रात्रिभोजनविरमण : छठा व्रत राजीमती ने रथनेमि से कहा-यदि तू रूप से अहावरे छटठे भंते ! वए राईभोयणाओ वेरमणं । वैश्रवण है, लालित्य से नलकूबर है, और तो क्या, यदि . सव्वं भंते ! राईभोयणं पच्चक्खामि । से असणं वा पाणं तू साक्षात् इन्द्र है तो भी मैं तुझे नहीं चाहती । (अगंधन । वा खाइमं वा साइमं वा, नेव सयं राई भुजेज्जा नेवन्नेहिं कूल में उत्पन्न सर्प ज्वलित, विकराल, धूमशिख-अग्नि राई भंजावेज्जा राई भंजते वि अन्ने न समण जाणेज्जा में प्रवेश कर जाते हैं परन्तु (जीने के लिए) वमन किए जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए काएणं न हुए विष को वापस पीने की इच्छा नहीं करते ।) मैं को मार तिन मणजाणामि । भोजराज की पुत्री हूं और तू अन्धकवृष्णि का पुत्र । हम (द ४।सूत्र १६) कुल में गन्धन सर्प की तरह न हों। तू स्थिर मन हो-- भंते ! छठे व्रत में रात्रिभोजन की विरति होती है । संयम का पालन कर । भंते ! मैं सब प्रकार के रात्रिभोजन का प्रत्याख्यान करता तीसे सो बयणं सोच्चा, संजयाए सुभासियं । हं। अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य-किसी भी वस्तु को अंकुसेण जहा नागो, धम्मे संपडिवाइओ।। रात्रि में मैं स्वयं नहीं खाऊंगा, दूसरों को नहीं खिलाऊंगा Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रात्रिभोजनविरमण ५४६ रात्रिभोजनविरमण और शासनभेद और खाने वालों का अनुमोदन भी नहीं करूंगा, याव- सम्यक्त्व, महाव्रत और अणुव्रत मूलगुण हैं। मूलगुण ज्जीवन के लिए तीन करण तीन योग से -- मन से, वचन उत्सरगुणों के आधार हैं। से, काया से --न करूंगा, न कराऊंगा और करने वाले __ रात्रिभोजन-विरमण व्रत के बिना मूलगुण परिपूर्ण का अनुमोदन भी नहीं करूगा । नहीं होते । अतः मुलगुण के ग्रहण से अर्थत: उसका भी अत्थंगयम्मि आइच्चे, पुरत्था य अणुग्गए। ग्रहण हो जाता है। आहारमइयं सव्वं, मणसा वि न पत्थए । ....."वयधारिणो च्चिय तयं मूलगुणो सेसयस्सियरो॥ (द ८।२८) सव्वव्वओवगारिं जह तं न तहा तवादओ वीसुं । मुनि सूर्यास्त से लेकर पुनः सूर्योदय न हो, तब तक जं ते तेणुत्तरिया होति गुणा तं च मूलगुणो।। सब प्रकार के आहार की मन से भी इच्छा न करे। उभयधर्मकं हि रात्रीभोजनविरमणम्, यतो गृहस्थ स्य तदुत्तरगुण:, तस्याऽऽरम्भजप्राणातिपातादनिवृत्तत्वात, १. रात्रिभोजन वर्जन और अहिंसा निशि भोजनेऽपि मूलगुणानामखण्डनात्, अत्यन्तोपकारासंतिमे सुहुमा पाणा तसा अदुव थावरा । भावादिति; वतिनस्तु तदेव मूलगुणः, तस्याऽऽरम्भजादपि जाइं राओ अपासंतो कहमेसणियं चरे? | प्राणातिपाताद् निवृत्तत्वात्, रजनिभोजने च तत्संभवात, उदउल्लं बीयसंसत्तं पाणा निवडिया महिं । अतस्तद्विधाने मूलगुणानां खण्डनात्, तद्विरमणे तु तेषां दिया ताई विवज्जेज्जा राओ तत्थ कहं चरे ।। संरक्षणेनात्यन्तोपकारात् तत् तस्य मूलगुणः । तप:एय च दोसं दठ्ठणं नायपुत्तेण भासियं । प्रभृतीनां चेत्थमत्यन्तोपकारित्वाभावादुत्तरगुणत्वमिति । सव्वाहारं न भुजंति, निग्गंथा राइभोयणं ।। (विभा १२४०,१२४५ मवृ पृ ४७१) (द ६।२३-२५) रात्रिभोजनविरमण व्रत उभय धर्मात्मक है--साध जो त्रस और स्थावर सूक्ष्म प्राणी हैं, उन्हें रात्रि में के लिा के लिए वह मूलगुण और गृहस्थ के लिए उत्तरगुण वर नहीं देखता हआ निर्ग्रन्थ एषणा कैसे कर सकता है ? उदक है। गहस्थ श्रावक आरंभजन्य हिंसा से पण से आई और बीजयुक्त भोजन तथा जीवाकूल मार्ग नहीं होता, अतः रात्रिभोजन से उसके मूलगुण खंडित उन्हें दिन में टाला जा सकता है पर रात में उन्हें टालना नहीं होते । साधु पूर्णतः अहिंसक हाते हैं, अतः रात्रिशक्य नहीं इसलिए निग्रंथ रात को भिक्षाचर्या कैसे कर भोजन से भोजन से उनके मूलगुण खंडित होते हैं। रात्रिभोजन सकता है ! ज्ञातपुत्र महावीर ने इस हिसात्मक दोष का विरमण से मूल गुणों का संरक्षण होता है, अतः वह मूलदेखकर कहा.-..--"जो निग्रंथ होते हैं वे रात्रिभोजन नहीं गुणों का अत्यंत उपकारी होने से मूलगुण के रूप में करते, चारों प्रकार के आहार में से किसी भी प्रकार का स्वीकृत है। तप, स्वाध्याय आदि मूल गुणों के अत्यंत उपआहार नहीं करते ।" कारक न होने के कारण उत्तरगुण हैं। ३. रात्रिभोजनविरमण उत्तरगुण ५. रात्रिभोजनविरमण और शासनभेद कि रातीभोयणं मूलगुण: उत्तरगुणः ? उत्तरगुण पुरिमजिणकाले पुरिसा उज्जुजडा पच्छिम जिणकाले एवायं । तहावि सव्वमूलगुणरक्खाहेतुत्ति मूलगुणसम्भूतं पुरिसा वंकजडा । अतो निमित्तं महव्वयाण उरि ठवियं, पढिज्जति। (दअचू पृ८६) जेण तं महब्वयमिव मन्नंता ण पिल्लेहिंति । मज्झिमगाणं पांच महाव्रत मूलगुण हैं और रात्रिभोजनविरमण पुण एवं उत्तरगुणेसु कहियं । किं कारणं ? जेण ते उज्जुउत्तरगुण है। फिर भी यह मूलगुणा का रक्षा का हेतु है, पण्णत्तणेण सहं चेव परिढरंति। (दजिच ११५३) इसलिए इसका मूलगुणों के साथ प्रतिपादन किया गया है। प्रथम तीर्थंकर के मुनि ऋजूजड़ और अंतिम तीर्थकर ४. रात्रिभोजनविरमण मूलगुण के मुनि वक्रजड़ होते हैं। रात्रिभोजनविरमण व्रत को सम्मत्तसमेयाई महव्वयाणुव्वयाई मूलगुणा । महाव्रतों की श्रृंखला में छठा व्रत रखा गया है, जिससे मूलं सेसाहारो ........." कि वे इसका महाव्रतों की तरह पालन कर सकें। जम्हा मूलगुण च्चिय न होति तविरहियस्स पडिपुन्ना। मध्यवती तीर्थंकरों के मुनियों के लिए इस तो मूलगुणग्गहणे तग्गहणमिहत्थओ नेयं ।। गिनाया है, क्योंकि वे ऋजूप्राज्ञ होते हैं इसलिए वे रात्रि (विभा १२३९, १२४३) भोजन का परिहार सरलता से कर लेते हैं । Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (दअचू पृ८५) शक्याः । लब्धि के सतरह प्रकार ५४७ लब्धि ६. रात्रिभोजन के द्रव्य, क्षेत्र... अभ्यास से प्राप्त या गुणहेतुक शक्तिविशेष को रातीभोयणे चउविहे पण्णते, तं जहा—दव्वतो लाब्ध कहत ह । खेत्ततो कालतो भावतो। दव्वतो असणे वा पाणे वा लब्धिरिति यः अतिशयः, स तावल्लब्धिरहितखादिमे वा सादिमे वा । खेत्ततो समयखेत्ते । कालतो सामान्यजीवेभ्यो विशेष उच्यते । ते च विशेषाः कर्मक्षयराती । भावतो तित्ते वा कडुए वा कसाए वा अंबिले वा क्षयोपशमादिवैचित्र्याज्जीवानामपरिमिता: संख्यातुममहरे वा लवणे वा। (विभामवृ १ प ३२८) रात्रिभोजन के चार प्रकार हैं लब्धि का अर्थ है वे अतिशय, जो कर्मों के क्षय, द्रव्यत'--अशन, पान, खादिम, स्वादिम । क्षयोपशम आदि से उत्पन्न होते हैं । वे अपरिमित हैं। क्षेत्रतः-समयक्षेत्र। उनकी गणना संभव नहीं है। कालतः-रात्रि। २. लब्धि के सतरह प्रकार भावतः--तिक्त, कटु, कषैला, खट्टा, मधुर अथवा "इड्ढी एसा (ओही) वण्णिज्जइ त्ति तो लवण रस । सेसियाओऽवि ।। रुचि-यथार्थ तत्त्वश्रद्धा। (द्र. सम्यक्त्व) आमोसहि विप्पोसहि खेलोसहि जल्लमोसही चेव । रौद्रध्यान-हिंसा, असत्य, चोरी और विषयभोगों संभिन्नसोउज्जुमइ, सम्वोसहि चेव बोद्धव्वो ॥ की रक्षा के निमित्त होने वाली चारणआसीविस केवली य मणनाणिणो य पुव्वधरा । चिन्तन की एकाग्रधारा । (द्र. ध्यान) अरहंतचक्कवट्टी, बलदेवा वासुदेवा य । (आवनि ६८-७०) लब्धि-ऋद्धि, योगज विभूति । लब्धि के सतरह प्रकार ये हैं१. लब्धि की परिभाषा १. अवधिज्ञान १०. आशीविष २. लन्धि के सतरह प्रकार २. आमर्ष-औषधि ११ केवली . आमर्ष-औषधि आदि लब्धिय ३. विपुडौषधि १२. मनःपर्यवज्ञानी ३. लब्धि के बीस प्रकार ४. श्लेष्मौषधि (विपुलमति) • कोष्ठबुद्धि आदि लब्धियां ५. जल्लौषधि १३. पूर्वधर ४. अन्य लब्धियां ६. संभिन्नश्रोत १४. तीर्थंकर • तेजोलब्धि ७. ऋजुमति (मनःपर्यवज्ञान) १५. चक्रवर्ती ० पुलाकलब्धि ८. सर्व-औषधि १६. बलदेव ० आकाशगामी विद्या ९. चारण १७. वासुदेव • घतानवलब्धि आमर्ष-औषधि ० व्यञ्जनलन्धि संफुरिसणमामोसो.......। (विभा ७८१) ० गन्धौषधि आमोसधी नाम रोगाभिभूतं अत्ताणं परं वा जं चेव ५. लन्धि का अधिकारी तिगिच्छामित्ति संचितेऊण आमसति तं तक्खणा चेव ६. लब्धि और साकारोपयोग ववगयरोगातंकं करोति, सा य आमोसधीलद्धी सरीरेगदेसे ७. लब्धि और औदयिक आदि भाव वा सम्वसरीरे वा समुप्पज्जतित्ति । (आवच १ पृ६८) ८. लब्धियों की निष्पत्ति आमर्ष का अर्थ है-स्पर्श करना । आमर्ष-औषधि९. मनःपर्यव लब्धि आदि बारह बातों का विच्छेद लब्धि सम्पन्न व्यक्ति 'मैं चिकित्सा करता हूं'-ऐसा * अवधिज्ञान आदि क्षयोपशम लन्धि (द्र. ज्ञान) संकल्प कर स्वयं का या दूसरे रोगी का स्पर्श करता है १. लब्धि की परिभाषा तो उस स्पर्श से रोगी तत्काल रोग तथा आतंक से मुक्त गुणप्रत्ययो हि सामर्थ्य विशेषो लब्धिः । हो जाता है । यह आमषिधिलब्धि शरीर के किसी एक (आवमवृ प ७९) भाग में अथवा पूरे शरीर में उत्पन्न हो सकती है। Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धि ५४८ जंघाचारण लब्धि विौषधि लम्धि कारित्वात् चक्षुरूपतामापन्नं, चक्षरपि श्रोत्रकार्यकारिवि ओसहिसामत्थजुत्तत्तण विप्पोसही भन्नति । त्वात् तद्रूपतामापन्नमित्येवं संभिन्नानि यस्य परस्परबिप्पोसधी य रोगाभिभूत अप्पाणं वा परं वा छिवत्ति तं मिन्द्रियाणि स संभिन्नश्रोता: । (आवमव प ७८) तक्खणा चेव ववगयरोगायंकं करेति । (आवचू १ पृ६८) श्रोत का अर्थ है-इन्द्रियां । संभिन्न का अर्थ हैजिसका मल औषधि-सामर्थ्य से यक्त हो जाता है. परस्पर एकरूप हो जाना । जैसे श्रोत्र चक्ष का कार्य वह विघुट् औषधि लब्धि सम्पन्न होता है। उसके मल के करने पर वह चक्षुरूप हो जाता है और चक्षु भी श्रोत्र स्पर्श से रोगाभिभूत व्यक्ति स्वस्थ हो जाता है। का कार्य करने पर श्रोत्ररूप हो जाता है । इस प्रकार जिसकी इन्द्रियां परस्पर एकरूप हो जाती हैं, वह संभिन्नश्रोत लब्धि संभिन्नश्रोता है। जो सुणइ सव्वओ मुणइ सव्वविसए व सव्वसोएहिं ।। सर्व-औषधि लब्धि सुणइ बहुए व सद्दे भिन्ने संभिन्नसोओ सो॥ सव्वोसधी नाम सब्वाओ ओसधीओ आमोसधि (विभा ७८३) मादीयाओ एगजीवस्स चेव जस्स समुप्पण्णाओ स सम्वोजो सर्वतः सुनता है, सब श्रोतों-इन्द्रियों से सब सधी भन्नति । अहवा सव्वसरीरेण सव्वसरीरावयवेहिं विषयों को जानता है अथवा एक साथ अनेक प्रकार के वा खेलोसधिमादीहि जो ओसहिसामथजत्तो सो सव्वोशब्दों को भिन्न-भिन्न रूप में (अपने-अपने गुणधर्मों के । सधी भन्नति अहवा सव्ववाहीणं जो निग्गहसमत्थो सो अनुरूप) सुन लेता है, वह संभिन्नश्रोता है। सम्वोसधी भन्नति । (आवचू १ पृ ६८, ६९) संभिन्नसोयरिद्धी नाम जो एगतरेणवि शरीरदेसेण जिस किसी एक व्यक्ति में आमषिधि आदि सर्व पंचवि इंदियविसए उवलभति सो संभिन्नसोयत्ति औषधि से संबद्ध लब्धियां उत्पन्न हो जाती है, वह सर्वभन्नति । संभिन्नसोतो णाम जति बारसजोयणचक्कवट्टि- औषधिलब्धि संपन्न कहलाता है। खंधावारे जमग-समग बोल्लेज्जा सव्वेसि पत्तेयं पत्तेयं . अथवा जो पुरे शरीर से या शरीर के सभी अवजाणति । एगेण वा इदिएणं पंचवि इंदियत्थे उवलभति। यवों से श्लेष्मौषधि आदि से औषधियों का सामर्थ्य प्राप्त अहवा सम्वेहि अंगोवंगेहि। अहवा चक्कवट्टिखंधावारे कर लेता है. वह सषिधि है। सव्वतराणं विसेसं उवलभति । एस संभिन्नसोओ भन्नति । ० अथवा जो सभी व्याधियों का निग्रह करने में (आवच १६८, ७०) समर्थ होता है वह सओषधिलब्धि सम्पन्न कहलाता है। • जो शरीर के किसी एक भाग से पांचों इन्द्रिय चारण लब्धि विषयों को जान लेता है, वह संभिन्नश्रोता है। अतिशयवद्गमनागमनरूपाच्चारणाच्चारणाः सातिजो बारह योजन विस्तृत चक्रवर्ती की सेना में एक शयगमनाऽऽगमनल ब्धिसम्पन्ना: साधुविशेषा एव । साथ बोले जाने वाले नाना प्रकार के शब्दों को एक साथ (विभामवृ १ पृ ३२२) सुनकर पृथक्-पृथक् जान लेता है, वह संभिन्नश्रोता है। अतिशायी गमन और आगमन की क्षमता चारण० जो किसी एक इन्द्रिय से पांचों इन्द्रियविषयों को लब्धि है। अतिशायी गमनागमन की शक्ति से सम्पन्न जान लेता है, वह संभिन्नश्रोता है । विशिष्ट साधु ही होते हैं । ० जो अंग-उपांगों से सभी इन्द्रिय-विषयों को ते च द्विधा-जंघाचारणा विद्याचारणाश्च । जानता है, वह संभिन्नश्रोता है। . (नन्दीमव प १०६) • जो चक्रवर्ती की सेना में एक साथ सुनाई देने चारण के दो प्रकार हैं-जंघाचारण और विद्यावाली सभी वाद्यों की ध्वनियों को पृथक-पृथक जान लेता चारण। है, वह संभिन्नश्रोता है। जंघाचारण लब्धि श्रोतांसि --इन्द्रियाणि, संभिन्नानि-परस्परत ये चारित्रतपोविशेषप्रभावतः समुद्भूतगमनविषयएकरूपतामापन्नानि यस्य स तथा, श्रोत्रं चक्षुःकार्य- लब्धिविशेषास्ते जङ्घाचारणाः। (नन्दीमवृ प १०६) Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्याचारण लब्धि ५४९ लब्धि जिन्हें चारित्र और विशिष्ट तपोनुष्ठान से गमन- जन्य लब्धि क्षीण होने लगती है । इसलिए लौटते समय आगमन विषयक लब्धि प्राप्त होती है, वे जंघाचारण मुनि दो उड़ानों में अपने स्थान पर पहुंचता है । विद्याचारण लब्धि अस्य च यथाविधि सातिशयाष्टमलक्षणेन विकृष्ट- यो विद्यावशतः यो विद्यावशतः समुत्पन्नगमनागमनलब्ध्य तिशयाः ते तपसा सर्वदैव तपस्यतो जङ्गाचारणलब्धिरुत्पद्यते । विद्याचारणाः। (नन्दीमवृ प १०६) (विभाम१पृ ३२३) जिनमें विद्याबल से गमन और आगमन की लब्धि की विधिपूर्वक विशेष रूप से तेले-तेले (तीन-तीन दिन विशेषता उत्पन्न होती है, वे विद्याचारण हैं। का उपवास) की विकृष्ट तपस्या निरन्तर करने से जंघा यथाविधि सातिशयषष्ठलक्षणेन तपसा सर्वदैव चारण लब्धि उत्पन्न होती है । तपस्यतो विद्याचारणलब्धिरुत्पद्यते। ___ जंघाचारणलद्धिसंपन्नो अणगारो लूतापुडकतंतुमेत्त (विभामवृ १ पृ ३२२) मवि णीसं काऊण गच्छति । (आवचू १पृ ६९) विधिपूर्वक सातिशय बेले-बेले (दो-दो दिन का जंघाचारण लब्धि सम्पन्न मुनि मकड़ी के जाले से उपवास) की निरन्तर तपस्या करने से विद्याचारण लब्धि निष्पन्न तंतु के सहारे गमनागमन कर लेता है। प्राप्त होती है। जनाचारणा यत्र कुत्रापि गन्तुमिच्छवः तत्र रवि- विज्जाचारणलद्धीओ विज्जातिसयसामत्थजत्तयाए करानपि निश्रीकृत्य गच्छन्ति । (नन्दीमव प १०७) पुव्वविदेहअवरविदेहादीणि खेत्ताणि अप्पेण कालेण आगा सेण गच्छति। जंघाचारण मुनि सूर्य की किरणों के सहारे भी र (आवचू १ पृ ६९) विद्याचारण लब्धि सम्पन्न व्यक्ति विद्या के अतिशय गमनागमन करते हैं । से अल्पकाल में ही आकाशमार्ग से पूर्व विदेह से अपर- जंघाचारणास्तु रुचकवरद्वीपं यावद् गन्तुं समर्थाः ।.... विदेह आदि क्षेत्रों में चला जाता है। जवाचारण: रुचकवरद्वीपं गच्छन्ने केनैवोत्पातेन गच्छति, विद्याचारणा नन्दीश्वरं विद्याचारण: पुनः प्रथमेप्रतिनिवर्तमानस्त्वेकेनोत्पातेन नन्दीश्वरमायाति द्वितीयेन । नोत्पातेन मानुषोत्तरं पर्वतं गच्छति द्वितीयेन तु नन्दीस्वस्थानं, यदि पुनरुशिखरं जिगमिषुस्तहि एकेनैवोत्पा श्वरं, प्रतिनिवर्तमानस्त्वेकेनवोत्पातेन स्वस्थानमायाति । तेन पण्डकवनमधिरोहति, प्रतिनिवर्तमानस्तु प्रथमेनोत्पा तथा मेरुं गच्छन् प्रथमेनोत्पातेन नन्दनवनं गच्छति तेन नन्दनवनमागच्छति द्वितीयेन स्वस्थानमिति । जंघा द्वितीयेन पण्डकवनं, प्रतिनिवर्त्तनमानस्त्वेकेनैवोत्पातेन चारिणो हि चारित्रातिशयप्रभावतो भवति ततो लब्ध्यु- स्वस्थानमायाति । विद्याचारणो हि विद्यावशाद भवति, पजीवने औत्सुक्यभावतः प्रमादसंभवाच्चारित्रातिशयनि- विद्या च परिशील्यमाना स्फुटा स्फुटतरोपजायते, ततः बन्धना लब्धिरपहीयते ततः प्रतिनिवर्तमानो द्वाभ्यामुत्पा- प्रतिनिवर्तमानस्य शक्त्यतिशयसम्भवादेकेनोत्पातेन ताभ्यां स्वस्थानमायाति । (नन्दीमवृ प १०७) स्वस्थानागमनम् । (नन्दीमवृ प १०७) जंघाचारण लब्धि से सम्पन्न मुनि रुचकवरद्वीप तक विद्याचारण मुनि नन्दीश्वरद्वीप तक जाने में समर्थ जा सकता है। वह प्रथम उड़ान में रुचकवरद्वीप में जाता होता है। वह प्रथम उड़ान में मानुषोत्तर पर्वत पर है। लौटते समय दूसरी उड़ान में नन्दीश्वरद्वीप में आता जाता है । दूसरी उड़ान में वहां से नन्दीश्वरद्वीप है, तीसरी उड़ान में अपने मूल स्थान पर आ जाता है। में जाता है। वहां से एक ही उड़ान में अपने स्थान यदि वह मेरुशिखर पर जाता है तो प्रथम उड़ान में पण्डक पर लौट आता है। वन में जाता है। दूसरी उड़ान में नन्दनवन में लौट मेरुपर्वत पर जाता हआ वह प्रथम उड़ान में नन्दनआता है। तीसरी उड़ान में वहां पहुंच जाता है, जहां से वन में तथा दूसरी उड़ान में पण्डकवन में जाता है। उड़ान भरी थी। लौटते समय एक ही उड़ान में अपने मूल स्थान पर आ जंघाचारण लब्धि चारित्र के अतिशय के प्रभाव जाता है। से उत्पन्न होती है। लब्धि के प्रयोग में उत्सुकता विद्याचारणलब्धि विद्या के अतिशय से प्राप्त होती का भाव तथा प्रमाद की सम्भावना के कारण चारित्र- है। पूनः पुनः परिशीलन से विद्या स्फूट-स्फूटतर हो Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धि जाती है । अतः लौटते समय अतिशय शक्ति के कारण एक ही उड़ान में मुनि स्वस्थान में आ जाता है । आशीविष लब्धि आसीविसोविव कुवितो जो देहविणिवायसामत्थजुत्तो सो आसी विसलद्धीओ भन्नति । ( आवचू १ पृ ६९ ) आशीविष सर्प की तरह जो कुपित होकर दूसरों को मारने में समर्थ होता है, वह आशीविषलब्धिसम्पन्न है । आसी दाढा तग्गयमहाविसासीविसा दुविहभेया । ते कम्मजाइभेएण णेगहा विहविगप्पा || जातितो वृश्चिक- मण्डूक- सर्प मनुष्यजातयः क्रमेण बहु- बहुत - बहुतमविषाः वृश्चिकविषं हि उत्कृष्टतोऽर्श्वभर क्षेत्र प्रमाणं शरीरं व्याप्नोतीति, मण्डूकविषं तु भरतक्षेत्र प्रमाणम्, भुजङ्गविषं तु जम्बूद्वीपप्रमाणम्, मनुष्यविषं तु समयक्षेत्र प्रमाणं वपुर्व्याप्नोति । कर्मतस्तु पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चः, मनुष्या, देवाश्चाssसहस्रारादिति । एते हि तपश्चरणानुष्ठानतोऽन्यतो वा गुणत आशीविषवृश्चिक - भुजङ्गादिसाध्य कर्मक्रियां कुर्वन्ति शापप्रदानादिना परं व्यापादयन्तीत्यर्थः । देवाश्चाऽपर्याप्तावस्थायां तच्छक्तिमन्तो द्रष्टव्याः, ते हि पूर्व मनुष्य भवे समुपार्जिताशीविषलब्धयः सहस्रारान्तदेवेष्वभिनवोत्पन्ना अपर्याप्तावस्थायां प्राग्भविकाऽऽशीविषलब्धिमन्तो मन्तव्याः, ततः परं तल्लब्धिनिवृत्तेः । पर्याप्ता अपि देवाः शापादिना परं विनाशयन्ति, किन्तु लब्धिव्यपदेशस्तदा न प्रवर्तते । ( विभा ७९१ मवृ पृ ३२३) जिसके आशी - दाढा में विष होता है, वह आशीविष है । उसके दो प्रकार हैं १. जाति - आशीविष - जो जन्म से आशीविष होते हैं। उनके चार प्रकार हैं १. वृश्चिक - बिच्छू का विष उत्कृष्टतः अर्धभरतक्षेत्र प्रमाण शरीर को व्याप्त कर सकता है। २. मंडूक - मेंढक का विष सम्पूर्ण भरतक्षेत्रप्रमाण शरीर को व्याप्त कर सकता है । ३. भुजंग - सर्प का विष जम्बूद्वीपप्रमाण शरीर को प्रभावित कर सकता है । ४. मनुष्य - - मनुष्य का विष सम्पूर्ण मनुष्यलोक ( ढाई द्वीपप्रमाण क्षेत्र) को प्रभावित कर सकता है । लब्धि के बीस प्रकार २. कर्मआशीविष- जो तप अनुष्ठान अथवा किसी विशिष्ट गुण का विकास कर बिच्छू, सर्प आदि जैसी क्रिया करने में कुशल होते हैं- शाप आदि के द्वारा दूसरों को मारने में समर्थ होते हैं, वे कर्मतः आशीविष हैं। पंचेन्द्रिय तिर्यंच, मनुष्य और सहस्रार कल्प तक के देव कर्मतः आशीविष हो सकते हैं। यहां ज्ञातव्य है कि मनुष्य में उपार्जित आशीविष लब्धि वाले जीव मर कर जब सहस्रार पर्यंत विमानों में उत्पन्न होते हैं, तब उन देवों में अपर्याप्त अवस्था में ही वह लब्धि संभव है, पर्याप्त होते ही वह लब्धि क्षीण हो जाती है । पर्याप्त अवस्था में वे देव शाप आदि के द्वारा दूसरों का विनाश कर सकते हैं, किन्तु वह लब्धि उनमें नहीं होती। ३. लब्धि के बीस प्रकार ५५० केइ भणति वीसं लद्धीओ तं न जुज्जए जम्हा । लद्धित्ति जो विसेसो अपरिमिया ते य जीवाणं ॥ ( विभा ८०२ ) कुछ मानते हैं कि लब्धियां बीस ही हैं - यह कथन ऐकांतिक नहीं है । क्योंकि लब्धियां विशेष- अतिशय हैं । वे जीवों को कर्मक्षय आदि से प्राप्त होती हैं । वे अपरिमित हैं । केचिदाचार्यदेश्यीया विंशति संख्या नियमिता एव लब्धी: प्राहु:-- सव्वे य । संभिन्ने ॥ आमोसही य खेले जल्ल- विप्पे य होइ कोट्ठे य बीयबुद्धी पयाणुसारी य रिजुमइ - विउल-क्खीरमहु - अक्खीणे विउब्वि-चरणे य । विज्जाहर - अरहंता चक्की बल-वासु वीस इमा ॥ ( विभामवृ पृ ३२८ ) कुछ आचार्य नियमतः बीस लब्धियां मानते हैं । वे ये हैं १. आमषषधि २. श्लेष्मौषधि ३. जल्लोषधि ४. विप्रुडोषधि ५. सर्व औषधि ६. कोष्ठबुद्धि ७. बीजबुद्धि ८. पदानुसारिणीबुद्धि ९. संभिन्नश्रोत १०. ऋजुमति ११. विपुलमति १२. क्षीरमध्वाश्रव १३. अक्षीणमहानस १४. वैक्रिय १५. चारण १६. विद्याधर १७. अर्ह १८. चक्रवर्ती १९. बलदेव २०. वासुदेव Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धि और भव्य जीव कोष्ठबुद्धि ..... कोट्टयधन्नसुनिग्गलसुत्तत्था कोट्टबुद्धीया ।। (विभा ७९९ ) कोष्ठ इव धान्यं या बुद्धिराचार्य मुखाद्विनिर्गतो तदस्थावेव सूत्रार्थी धारयति न किमपि तयो: सूत्रार्थयोः कालान्तरेऽपि गलति सा कोष्ठबुद्धिः । ( नन्दीमवृप १०६ ) जिस प्रकार कोष्ठ में धान्य सुरक्षित रहता है, उसी प्रकार जो बुद्धि आचार्य द्वारा कथित सूत्र और अर्थ को उसी रूप में धारण कर लेती है तथा कालान्तर में भी उनका क्षरण नहीं होता, वह कोष्ठबुद्धि है । बोजबुद्धि जो अत्थपए णत्थं अणुसरइ स बीयबुद्धी उ ।। ( विभा ८०० ) ateबुद्धी नाम बीजमात्रेण उवलभति, जहा सित्थेण दोणपाकं । ( आवचू १ पृ७० ) या पुनरेकमर्थपदं तथाविधमनुसृत्य शेषमश्रुतमपि यथावस्थितं प्रभूतमर्थमवगाहते सा बीजबुद्धिः । ( नन्दीमवृप १०६ ) जो एक अर्थपद का अनुसरण कर शेष अश्रुत प्रचुर अर्थों को यथार्थ रूप में जानती है, वह बीजबुद्धि है । जैसे एक सिक्थ से द्रोणपाक जान लिया जाता है । बीजबुद्धि और गणधर बुद्धि: सर्वोत्तम प्रकर्षप्राप्ता भगवतां गणभृतां, ते हि उत्पादादिपदत्रयमवधार्यं सकलमपि द्वादशाङ्गात्मकं प्रवचनमभिसूत्रयन्ति । ( नन्दीमवृप १०६ ) सभी गणधर सर्वोत्तम बीजबुद्धि के धारक होते हैं । उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य - इस त्रिपदी का अवधारण कर वे संपूर्ण द्वादशांगात्मक प्रवचन की रचना करते हैं । पदानुसारिणी बुद्धि जो सुत्तएण बहुं सुयमणुधावर पयाणुसारी सो ।'''' ( विभा ८०० ) जो एक भी सूत्रपद का अवधारण कर शेष प्रभूत सूत्रपदों का यथार्थ अवगाहन कर लेती है, वह पदानुसारी बुद्धि है । क्षीरात्रव लब्धि ५५१ खीरासवो बोलेज्ज णज्जति खीरासवं मुयति, खीरासवो नाम जहा चक्कवट्टिस्स लक्खो गावीणं, ताणं जं खीरं तं अद्धद्धस्स दिज्जति, तं चातुरक्कं एवं खीरासवो भवति । (आवचू १ पृ७०, ७१) लब्धि क्षीरास्रव लब्धि सम्पन्न व्यक्ति जब बोलता है, तब ऐसा प्रतीत होता है मानो क्षीर का स्रवण हो रहा है । चक्रवर्ती की एक लाख गायों का दूध पचास हजार गायों को पिलाया जाता है । फिर उनका दूध पच्चीस हजार गायों को पिलाया जाता है, तत्पश्चात् पच्चीस हजार गायों का दूध साढ़े बारह हजार गायों को पिलाया जाता है । इस क्रम से अन्तिम एक गाय का दूध आगम की भाषा में चातुरक्य कहलाता है । क्षीरास्रवलब्धिधर के वचन में उस दूध के समान मिठास होती है । अक्षीणमहानस लब्धि अक्खमाणसियस्स भिक्खं ण अन्नेणं णिट्ठविज्जति, तंमि जिमिते निट्टाति । ( आवचू १ पृ ७१ ) अक्षीणमहानस लब्धि से सम्पन्न मुनि का भिक्षा में प्राप्त भोजन समाप्त नहीं होता चाहे वह कितने ही मुनियों को भोजन खिलाये । उसके स्वयं के खाने के बाद ही वह भोजन समाप्त होता है । लब्धि और भव्य जीव भवसिद्धियाणमेया वीसं पि हवंति एत्थ लद्धीओ.... जिण-बल-चक्की - केसव - संभिन्नेजंघचरण पुव्वे य । भविया इत्थीए एयाओ न सत्त लद्धीओ ॥ शेषास्तु त्रयोदश: लब्धयः स्त्रीणां भवन्तीति सामयद् गम्यते । रिजुमइ विउलमईओ सत्त य एयाओ पुव्वभणियाओ । लद्धीओ अभव्वाणं होंति नराणं पि न कयाइ ॥ अभवियमहिलाणं पि हु एयाओ न होंति भणियलद्धीओ । महुखीरासवलद्धी वि नेय सेसा उ अविरुद्धा ।। ( विभामवृ १ पृ ३२८ ) भव्य जीवों के बीसों लब्धियां हो सकती हैं । अर्हत्, बलदेव, चक्रवर्ती, वासुदेव, संभिन्नश्रोत, जंघाचारण और पूर्व - ये सात लब्धियां स्त्री में नहीं होतीं, शेष तेरह लब्धियां हो सकती हैं । अर्हत्, बलदेव, वासुदेव, चक्री, संभिन्नश्रोत, जंघा - चारण, पूर्वधर, ऋजुमति और विपुलमति ये लब्धियां अभव्य पुरुषों और अभव्य स्त्रियों में नहीं होतीं । अभव्य स्त्री को मधुक्षीरास्रव लब्धि भी प्राप्त नहीं हो सकती । गणधर - पुलाका-ऽऽहारका दिलब्धयो भव्यानामेव भवन्ति । ( विभामवृ १ पृ ३२९ ) गणधर, पुलाक, आहारक आदि लब्धियां भव्यों के ही हो सकती हैं । Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धि ५५२ लब्धि का अधिकारी ४. अन्य लब्धियां पुण्ड्रजातीय इक्षु को खाने वाली गायों के दूध से गणहर-तेया-हारय-पुलाय-वोमाइगमणलद्धीओ। निकाला हुआ, अग्नि की मन्द आंच में तपाया हुआ घी एवं बहुगाओ वि य सुन्वति न संगिहीआओ। विशिष्ट वर्ण आदि से युक्त होता है। घृतास्रवलब्धि वाले (विभा ८०३) के वचन में उस घत के समान स्निग्धता होती है। गणधर, तेजःसमुद्घात, आहारकशरीरनिर्माण, व्यञ्जनलब्धि पुलाक, आकाशगमन आदि अनेक लब्धियां श्रुत-विश्रुत हैं, .."परियट्टणाए णं वंजणाई जणयइ बंजणलद्धि च उप्पाएइ। किन्तु वे सब संग्रहीत नहीं हैं। "विगलितान्यपि गुणयतो झगित्युत्पतन्तीत्युत्पादितेजोलब्धि छटठं छठेण अणि क्खित्तेणं तवोकम्मेणं आयावेति, तान्युच्यन्ते, तथा तथाविधकर्मक्षयोपशमतो व्यञ्जनलब्धिम् । (उ २९।२२ शाव प ५८४) पारणए सणहाए कुम्मासपिडियाए एगेण य वियडासएण जावेद जाव छम्मासा, से णं संखित्तविउलतेयलेस्सो सूत्रों की परिवर्तना के द्वारा तदावारक कर्म का भवति। (आवहाव १ पृ१४३) क्षयोपशम होता है, जिससे विस्मृत व्यंजन शीघ्र स्मृति में जो छह महीने तक लगातार बेले-बेले (दो-दो दिन आ जाते हैं । इससे एक व्यञ्जन के आधार पर शेष व्यंजनों को प्राप्त करने की क्षमता आ जाती है। इसे का उपवास) की तपस्या करता है, आतापना लेता है, व्यंजन लब्धि (वर्ण-विद्या) कहते हैं। पारणा में छिलके सहित मुट्ठीभर कुल्माष और एक चुल्लू पानी लेता है, उसे संक्षिप्त-विपुल-तेजोलेश्या प्राप्त गन्धौषधि होती है। एए अन्ने य बहू जेसि सव्वे य सुरभओऽवयवा। पुलाक लन्धि रोगोवसमसमत्था ते होंति तओसहि पत्ता । लद्धिपुलाओ पूण जस्स देविदरिद्धिसरिसा रिद्धी । (विभा ७८२) सो सिंगणादियकज्जे समुप्पण्णे चक्कवट्टिपि सबलवाहणं जिन मुनियों के मल-मूत्र अथवा शरीर के अन्य चुणेउं समत्थो। अवयव-केश, नख, दांत आदि सुगंधित हो जाते हैं, वे पूलाक लब्धि से सम्पन्न मुनि की ऋद्धि इन्द्र की उन-उन अवयवों से रोगों का उपशमन करने में समर्थ ऋद्धि के समान होती है। श्रृंगनादित संघकार्य उत्पन्न होते हैं। उन-उन अवयवों के आधार पर वे केशौषधि, होने पर वह चक्रवर्ती की सेना तथा रथ आदि सभी नखौषधि आदि से संपन्न कहलाते हैं। वाहनों को चूर्ण करने में समर्थ होता है । ५. लब्धि का अधिकारी आकाशगामी विद्या __ ऋद्धीश्च प्राप्नुवन्ति विशिष्टमुत्तरोत्तरमपूर्वापूर्वार्थजेणद्धरिया विज्जा आगासगमा महापरिन्नाओ। प्रतिपादकं श्रुतमवगाहमाना: श्रुतसामर्थ्यतस्तीवां तीव्रतरां वंदामि अज्जवइरं अपच्छिमो जो सुअहराणं ।। शुभभावनामधिरोहन्तोऽप्रमत्तयतयः । भणइ अ आहिंडिज्जा जंबुद्दीवं इमाइ विज्जाए। 'अवगाहते च स श्रुतजलधि प्राप्नोति चावधिज्ञानम् । गंतुं च माणुसनगं विज्जाए एस मे विसओ ।। मानसपर्यायं वा ज्ञानं कोष्ठादिबुद्धिर्वा ।। (आवनि ७६९, ७७०) चारणवैक्रियसवौंषधताद्या वा लब्धयस्तस्य । अन्तिम दस पूर्वधर आर्य वज्र ने आचारांग के सातवें प्रादुर्भवन्ति गुणतो बलानि वा मानसादीनि ॥' अध्ययन महापरिज्ञा से आकाशगामी विद्या का उद्धार (नन्दीमवृ प १०६) किया। इस विद्या के प्रभाव से मुनि जंबूद्वीप का पर्यटन जो उत्तरोत्तर अपूर्व-अपूर्व अर्थ के प्रतिपादक विशिष्ट कर मानुषोत्तर पर्वत तक जा सकता है। श्रुत का अवगाहन करते हैं और श्रुत के सामर्थ्य से तीव्रघृतास्रव लब्धि तीव्रतर शुभ भावना का आरोहण करते हैं, वे अप्रमत्त घृतमपि पुंड्रेक्षुचारिगोक्षीरसमुत्थं मन्दाग्निक्वथितमति- मुनि ऋद्धियां प्राप्त करते हैं। विशिष्ट वर्णाद्युपेतम् । घतमिव वचनमाश्रवन्तीति घता- 'जो श्रुतसागर का अवगाहन करते हैं, उन्हें अवधिश्रवाः । (आवमवृ प ८०) ज्ञान, मनःपर्यवज्ञान, कोष्ठ आदि बुद्धि, चारणलब्धि, Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनःपर्यवलब्धि आदि ५५३ लिंग वैक्रियलब्धि, सौंषधिलब्धि आदि लब्धियां अप्रमत्तता के व्यक्ति हैं। ऋद्धिसम्पन्न साधु अपनी चरणरज से क्षणभर गुण से प्राप्त होती हैं, तथा मानसिक, वाचिक और में सब रोगों का उपशमन कर सकते हैं । वे तृण के अग्रकायिक बल भी प्रादुर्भूत होते हैं । भाग से तीनों लोकों को विस्मित करने वाली उपभोग६. लब्धि और साकारोपयोग परिभोग सामग्री दे सकते हैं। उन्हें रत्नवृष्टि, स्वर्णवृष्टि .."सवाओ लद्धीओ जं सागारोवओगलाभाओ। आदि की शक्ति उपलब्ध हो जाती है। हजारों विशाल (विभा ३०८९) शिलाखण्डों को गिराने की क्षमता भी लब्धि से प्राप्त सभी लब्धियां साकारोपयोग (ज्ञानोपयोग) में ही होती है। प्राप्त होती हैं। ६. मनःपर्यवल ब्धि आदि बारह बातों का विच्छेद ७. लब्धि और औदयिक आदि भाव मण-परमोहि-पुलाए आहारग-खवग-उवसमे कप्पे । संजमतिय-केवलि-सिझणा य जंबुम्मि वच्छिण्णा ॥ उदय-खय-खओवसमोवसमसमुत्था बहुप्पगाराओ। एवं परिणामवसा लद्धीओ होंति जीवाणं ।। (विभा २५९३) जीवानां शुभ-शुभतर-शुभतमपरिणामवशाद् बहु आचार्य जम्बू के मुक्त होने के पश्चात् बारह वस्तुएं प्रकारा अपरिमितसंख्या लब्धयो भवन्ति । वैक्रियाऽऽहार विच्छिन्न हो गईं--- १. मनःपर्यवज्ञान ७. जिनकल्प कनामादिकर्मोदयसमुत्थास्तावद् वैक्रिया-ऽऽहारकशरीरकरणादिका लब्धयो भवन्ति । दर्शनमोहादिक्षयसमुत्थास्तु २. परमावधिज्ञान ८. परिहारविशुद्धि क्षायिकसम्यक्त्व-क्षीणमोहत्व-सिद्धत्वादयः । ३. पुलाक लब्धि दान ९. सूक्ष्मसम्पराय लाभान्तरायादिकर्मक्षयोपशमसमुत्था अक्षीणमहानस्यादयः । ४. आहारक लब्धि १०. यथाख्यात चारित्र ५, क्षपकश्रेणि ११. केवली ''दर्शनमोहाद्युपशमसमुत्था औपशमिकसम्यक्त्वोपशान्तमोहत्वादिका लब्धयो भवन्ति । (विभा ८०१ मत् पृ ३२७) ६. उपशमश्रेणि १२. मुक्ति । जीवों के शुभ-शुभतर-शुभतम परिणामों के आधार लिग-वश । पर लब्धियां प्राप्त होती हैं । उनके मुख्य भेद चार और द्रव्यलिंग-भावलिंग अवान्तर भेद अनेक हैं--- भावलिङ्गगभं तु द्रव्यलिङ्गं नमस्क्रियते तस्यैवाभि० कर्मों के उदय से प्राप्त लब्धि - वैक्रियनामकर्म के लषितार्थक्रियाप्रसाधकत्वात्, रूपकदृष्टान्तश्चात्रउदय से वैक्रियशरीरकरण । आहारकनामकर्म के रुप्पं टंक विसमाहयक्खरं नवि रूवओ छेओ। उदय से आहारकशरीरकरण आदि। दुहंपि समाओगे रूवो छेयत्तणमुवेइ । ० कर्मों के क्षय से प्राप्त-दर्शनमोहनीय आदि के क्षय रुप्प पत्तेयबुहा टंक जे लिंगधारिणो समणा । से क्षायिक सम्यक्त्व, क्षीणमोह, सिद्धत्व आदि । दव्वस्स य भावस्स य छेओ समणो समाओगे ।। ० कर्मों के क्षयोपशम से प्राप्त - दान-लाभ-अन्तराय अत्र तावच्चतुर्भङ्गी-रूपम् अशुद्धं टकं विषमाआदि कर्म के क्षयोपशम से अक्षीणमहानस आदि । हताक्षरमित्येकः । रूपमशुद्धं टङ्कं समाहताक्षरमिति ० कर्मों के उपशम से प्राप्त-दर्शन मोहनीय कर्म के तीमा द्वितीयः । रूपं शुद्धं टङ्क विषमाहताक्षरमिति तृतीयः । उपशम से औपशमिक सम्यक्त्व आदि । रूपं शुद्धं टवं समाहताक्षरमिति चतुर्थः । अत्र च रूप८. लब्धियों की निष्पत्ति कल्पं भावलिङ्ग, टङ्ककल्पं द्रव्यलिङ्गम् । इह च प्रथमऋद्धिः तपोमाहात्म्यरूपा, सा च आमशौषध्यादिः -- भङ्गतुल्याश्चरकादयः, अशुद्धोभयलिङ्गत्वात् । द्वितीयपादरजसा प्रशमनं सर्वरुजां साधवः क्षणात्कुर्युः। भङ्गतुल्याः पार्श्वस्थादयः, अशुद्धभावलिङ्गत्वात् । तृतीयत्रिभुवनविस्मयजननान् दद्युः कामांस्तृणाग्राद्वा ॥ भङ्गतुल्याः प्रत्येकबुद्धा अन्तर्मुहर्तमानं कालमगृहीत द्रव्यधर्माद्रत्नोन्मिश्रितकाञ्चनवर्षादिसर्गसामर्थ्यम् । लिङ्गाः । चतुर्थभङ्गतुल्याः साधवः शीलयुक्ताः गच्छगता अद्भुतभीमोरुशिलासहस्रसम्पातशक्तिश्च निर्गताश्च जिनकल्पिकादयः । (उशावृ प १३१) (आवनि ११३८, ११३९ हावृ २ पृ २४,२५) आमषौंषधि आदि लब्धियां तप की महत्ता की अभि- सामान्य विधि के अनुसार वह साधु वन्दनीय है, जो Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिंग वेश : व्यावहारिक-नैश्चयिक दृष्टिकोण द्रव्यलिङ्ग और भावलिंग दोनों से युक्त होता है । जैसे- जातो। तस्सवि तं बझकरणं गुणकरणं न जातं । किंतु वही रुपया चलता है जो शुद्ध होता है और सम अक्षरों अज्झप्पविसूदी।" में आहत-मुद्राङ्कित होता है । भावलिग रुपये के समान आहच्च भावकहणे करणं णासे ति जिणवरिदाणं । है, द्रव्यलिंग मुद्रांकन के समान है। रुपये के चार भंग सब्भावमयाणंता पंचहि ठाणेहिं पासत्था । बनते हैं आहच्चभावो नाम कादाचित्क: पत्तेयबुद्धलाभादी १. रुपया अशुद्ध, मुद्रांकन विषम अक्षरों में। तस्स कहणे सति आगमे तं आलंबितण केयी करणं२. रुपया अशुद्ध, मुद्रांकन सम अक्षरों में । बाहिरमणुट्ठाणं णासें ति-परिहरंतीति भावः । ३. रुपया शुद्ध, मुद्रांकन विषम अक्षरों में । (आवनि ११५० चू २ पृ २९,३०) ४. रुपया शुद्ध, मुद्रांकन सम अक्षरों में । आभ्यन्तरकरण-आन्तरिक विशुद्धि । इसका १. प्रथम भंग के तुल्य हैं-चरक आदि। इनके दोनों निदर्शन है-भरत चक्रवर्ती । उन्होंने मुनिवेष नहीं लिंग अशुद्ध होते हैं। पहना । वस्त्रों और आभूषणों से अलंकृत अवस्था में २. दूसरे भंग के तुल्य हैं--पार्श्वस्थ-शिथिल आचार आत्मविशुद्धि से कैवल्य प्राप्त किया। बाह्यकरण (वस्त्र, __ वाले साधु । इनका भावलिंग अशुद्ध होता है। आभूषण) उनके लिए बाधक नहीं बना । रजोहरण आदि ३. तीसरे भंग के तुल्य हैं--प्रत्येकबुद्ध । द्रव्यलिङ्ग उनके लिए गुणकारी (आवश्यक) नहीं हुए। ४. चौथे भंग के तुल्य हैं-स्थविरकल्पी-जिनकल्पी बाह्य करण-वेष या बाह्य क्रिया। इसका निदर्शन साधु । ये द्रव्यलिंग और भावलिंग दोनों से युक्त है प्रसन्नचन्द्र । उत्कृष्ट बाह्यकरण होते हुए भी आन्तरिक होते हैं। विशुद्धि के अभाव में उन्होंने सातवीं नारकी के प्रायोग्य वेश : व्यावहारिक-नैश्चयिक दृष्टिकोण कर्मों का संचय कर लिया। उनके लिए बाह्यकरण गुणपच्चयत्थं च लोगस्स, नाणाविहविगप्पणं । कारी नहीं हुआ। जत्तत्थं गहणत्थं च, लोगे लिंगप्पओयणं ।। तत्पश्चात् आन्तरिक विशुद्धि से उन्होंने मुक्ति का अह भवे पइन्ना उ, मोक्खसब्भूयसाहणे । वरण किया । कदाचित् घटित होने वाली घटना को नाणं च दंसणं चेव, चरित्तं चेव निच्छए ।। सार्वकालिक आलम्बन के रूप में स्वीकार नहीं किया जा (उ २३।३२,३३) सकता । भरत आदि के आगमिक कथन का आलम्बन लोगों को यह प्रतीति हो कि ये साधु हैं, इसलिए लेकर जो अनुष्ठान-बाह्यक्रिया को या मूनिवेश को नाना प्रकार के उपकरणों की परिकल्पना की गई है। उपेक्षित कर देते हैं, वे अर्हत द्वारा प्रतिपादित यथार्थजीवनयात्रा को निभाना और 'मैं साधु हं'---ऐसा ध्यान भाव को नहीं जानने के कारण चारित्र से भ्रष्ट हो जाते आते रहना -ये वेशधारण के प्रयोजन हैं। तित्थगराणं जो सब्भावो जथा कत्थति ववहारविहीए यदि मोक्ष की वास्तविक साधना की प्रतिज्ञा हो तो पयट्टितव्वं, कत्थय निच्छय विधीए, कत्थय उभयविधीए, निश्चय दृष्टि से उसके साधन ज्ञान, दर्शन और चारित्र ही हैं। कत्थय बाहिरकरणं, एवं अभितरकरणे, उभये । एवमादि भरहो पसन्नचंदो सम्भितरबाहिरं उदाहरणं । अनियतपवित्तिनिवत्तीहिं कज्जसिद्धित्ति, न पूण नियतं दोसुप्पत्तिगुणकरं न तेसि बझं भवे करणं ॥ केणति, एस सब्भावो । तं अयाणंता''चरणं णासेंति । अब्भंतरं भरहो, जतो तस्स बाहिरक रणविहूणस्सवि (आव २ पृ ३०) आभरितविभूसितस्स अज्झप्पविसुद्धीए चेव केवलनाणं तीर्थंकरों ने सद्भाव - यथार्थ प्ररूपणा की-कहीं उप्पण्णं । तस्स तं बज्झकरणं दोसउप्पादणकरं न जातं, व्यवहार विधि से, कहीं निश्चय विधि से और कहीं बाहिरंग च रयहरणवंदणगादि गुणकर न जातं । बाहिरं उभयविधि से प्रवृत्ति करनी चाहिए। कहीं बाह्यकरण उदाहरणं पसण्णचंदो, जतो तस्स पगिट्ठबाहिरकरण- और कहीं आन्तरिक करण और कहीं दोनों होते हैं । इस वतोवि अभितरकरणविगलस्स अहे सत्तमपुढविपायोग्ग- प्रकार अनियत प्रवृत्ति और निवत्ति के द्वारा कार्यसिद्धि कम्मबंधोऽभूत् । पच्छावत्तीए अज्झप्पसुद्धीतो मोक्खो होती है, किसी एक नियत प्रवृत्ति या निवृत्ति से नहीं। Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेश्या की परिभाषा लेश्या यह सद्भाव है ---तीर्थकर द्वारा प्रतिपादित वास्तविक | १०. लेश्यापरिणामों के प्रकार सचाई है। जो इसे नहीं जानते, वे चारित्र का नाश कर | ११. लेश्यापरिणति और मृत्यु देते हैं। १२. श्रुत आदि सामायिक और लेश्या लिंग का मूल्य १३. लेश्या के स्थान सक्के देविदे देवराया आगओ भणति-दवलिंग * लेश्या और ध्यान (द्र. ध्यान) ___ * चित्त का एक नाम लेश्या पडिवज्ज, जाहे निक्खमणमहिमं करेमि । ततो तेण पंच (द्र. आत्मा) मट्रिओ लोओ कओ । देवरायाए रओहरणपडिग्गहादि १. लेश्या की परिभाषा उवकरणमुवणीयं । (आवमवृ प २४६) । कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यात्, परिणामो य आत्मनः । . चक्रवर्ती भरत को आदर्शगृह में केवलज्ञान उत्पन्न स्फटिकस्येव तत्रायं, लेश्याशब्दः प्रयुज्यते ।। होने पर देवेन्द्र ने उपस्थित होकर भरत से कहा-आप (उशावृ प ६५६) द्रव्यलिंग (मुनि का वेश) धारण करें, जिससे हम आपका कृष्ण आदि छह प्रकार के पुद्गल द्रव्यों के सहयोग निष्क्रमण महोत्सव मना सकें । भरत ने पंचमुष्टि लोच से स्फटिक के परिणमन की तरह होने वाला आत्मकिया, तब देवेन्द्र ने रजोहरण, प्रतिग्रह आदि उपकरण परिणाम लेश्या है । उपहृत किये। कायाद्यन्यतमयोगवतः कृष्णादिद्रव्यसंबंधादात्मनः कृष्णादिपरिणामाः। (आवमवृ प ४०) लेश्या- भावधारा। भावधारा की उत्पत्ति में काय, वचन और मन-इनमें से किसी भी योग हेतुभूत पुद्गल द्रव्य। वाले प्राणी के कृष्ण आदि द्रव्य के संबंध से होने वाले १. लेश्या की परिभाषा आत्मा के कृष्ण आदि परिणाम लेश्या है। ० कर्मद्रव्य लेश्या लेस्सत्ति--रस्सीयो (नन्दीच पृ४) ० नोकर्म जीवद्रव्य लेश्या : आभामंडल लेश्या का अर्थ है रश्मि । • अजीव द्रव्य लेश्या ('रस्सी' का संस्कृत रूप बनता है...रश्मि । रस्सी २. लेश्या और योग देशी शब्द भी है । उसका अर्थ है रज्जु । भावधारा को ३. लेश्या के प्रकार रश्मि और रज्जु दोनों रूपों से अंकित किया जा सकता ० अप्रशस्त-प्रशस्त लेश्या है। हमारे परिणाम तेजस शरीर से प्रभावित होकर ० विशुद्ध लेश्या विद्युतीकरण को प्राप्त कर इस स्थूल शरीर-औदारिक ४. लेश्याओं का वर्ण और वैक्रिय शरीर में संक्रांत होते हैं।) ५. लेश्याओं का रस लेण्याभिरात्मनि कर्माणि संश्लिष्यन्ते। योगपरिणामो ६. लेश्याओं की गंध लेस्या। (आवचू २ पृ ११२) ७. लेश्याओं का स्पर्श योगपरिणाम लेश्या है । लेश्या के द्वारा कर्मपुद्गलों ८. लेश्याओं की स्थिति का आत्मा के साथ संश्लेष होता है। ० नरक-लेश्या-स्थिति सयोगिकेवली शुक्ललेश्यापरिणामेन विहृत्यान्तमहत्त • भवनपति-ध्यंतर-लेश्या-स्थिति शेषे योगनिरोधं करोति, ततोऽयोगित्वमलेश्यत्वं च • वैमानिक-लेश्या-स्थिति प्राप्नोति, अतोऽवगम्यते योगपरिणामो लेश्या । ० तियंच-मनुष्य-लेश्या-स्थिति (उशावृ प ६५०) ९. लेश्याओं के परिणाम सयोगीकेवली में शुक्ल लेश्या होती है। वे अंतर्मुहूर्त ० जम्बूखादक का दृष्टांत आयु शेष रहने पर योगनिरोध करते हैं, तत्पश्चात् वे ० ग्रामवध का दृष्टांत अयोगी और अलेश्यी हो जाते हैं। इससे जाना जा सकता Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेश्या ५५६ लेश्या और योग है कि योगपरिणाम लेथ्या है। अतीव चक्षुराक्षेपिका स्निग्धदीप्तरूपा छाया । यथैव कायादिकरणयुक्तस्यात्मनो वीर्यपरिणतिर्योग (उशावृ प ६५०) उच्यते तथैव लेश्याऽपीति। गुरवस्तु व्याचक्षते-कर्म- जो दूसरों की आंखों को अपनी ओर आकृष्ट करती निस्यन्दो लेश्या, यतः कर्मस्थितिहेतवो लेश्या:। है, उस आणविक आभा, कांति, प्रभा या छाया का नाम ता: कृष्णनीलकापोततेजसीपद्मशुक्लनामान: । है लेश्या । ये जीव को प्रभावित करने वाले एक प्रकार श्लेष इव वर्णबन्धस्य कर्मबन्धस्थितिविधात्यः । के पुद्गल हैं। (उशाव १६५०) शरीरलेश्यास् हि अशुद्धास्वपि आत्मलेश्या शुद्धा जैसे काय आदि करणों से युक्त आत्मा की वीर्य भवंति । शुद्धा अपि शरीरलेश्या भजनीया। परिणति योग है, वैसे ही करणों से युक्त आत्मा की वीर्य (उचू पृ २१२) परिणति लेश्या है । लेश्या कर्म-निस्यन्द है, क्योंकि यह शरीरवर्णलेश्या के अशुद्ध होने पर भावलेश्या शुद्ध कर्म के स्थितिबंध का हेतु है। हो सकती है। शुद्ध भाव लेश्या में शरीर की लेश्या शुद्ध वर्णबन्ध के श्लेष की तरह ये छह लेश्याएं कर्मबंध भी हो सकती है और अशुद्ध भी। की स्थिति का हेतु बनती हैं। अजीव द्रव्यलेश्या कर्मद्रव्य लेश्या - चंदाण य सूराण य गहगणनक्खत्तताराणं ।। जा दव्वकम्मलेसा सा नियमा छन्विहा उ नायव्वा । आभरणच्छायणादंसगाण मणिकागिणीण जा लेसा। किण्हा नीला काऊ तेऊ पम्हा य सुक्का य॥ अजीवदव्वलेसा नायव्वा दसविहा एसा ॥ शरीरनामकर्मद्रव्याण्येव कर्मद्रव्यलेश्या । (उनि ५३७,५३८) (उनि ५६९ शावृ प ६५०) अजीव द्रव्यलेश्या के दस प्रकार हैंद्रव्यकर्मलेश्या के नियमत: छह प्रकार हैं-कृष्ण, १. चन्द्र ६. आभरण नील, कापोत, तेजस्, पद्म और शुक्ल। यहां शरीरनाम २. सूर्य ७. छादन (सुवर्णखचित वस्त्र) कर्म के द्रव्यों को ही कर्मद्रव्यलेश्या कहा गया है। २. ग्रह ८. आदर्श नोकर्म जीवद्रव्यलेश्या : आभामंडल ४. नक्षत्र ९. मणि जीवानां भवति सप्तविधा इहापि लेश्येति प्रक्रमः, ५. तारा १०. काकिणी। अत्र च जयसिंहसूरिः-कृष्णादयः षट्, सप्तमी संयोगजा। २. लेश्या और योग इयं च शरीरच्छायात्मका परिगह्यते । अन्ये त्वौदारिको योगपरिणामत्वे तु लेश्यानां "योगा पयडिपएसं ठिइदारिकमिश्रमित्यादिभेदतः सप्तविधत्वेन जीवशरीरस्य तच्छायामेव कृष्णादिवर्णरूपां नोकर्मणि सप्तविधां जीव अणभागं कसायओ कुणति" ति वचनात्प्रकृतिप्रदेशबन्धद्रव्य लेश्यां मन्यन्ते । (उशाव प ६५०) हेतुत्वमेव स्यात् न तु कर्म स्थितिहेतुत्वम् । कर्मनिस्यन्द रूपत्वे तु यावत्कषायोदयस्तावत्तन्निस्यन्दस्यापि सद्___ जीव के सात प्रकार की लेश्या होती है। जयसिंह भावात्कर्मस्थितिहेतुत्वमपि युज्यत एव। (उशाव प ६५०) सूरि का अभिमत है— कृष्ण आदि छह लेश्याएं हैं। सातवीं लेश्या है संयोगजा। यह शरीर की छाया- याग-पारणाम लेश्या है। योग से प्रकृति और प्रदेश आभामंडल रूप है। कुछ आचार्यों का अभिमत है-- * का अभिमत है - का वन्ध होता है। कषाय से स्थिति और अनुभाग का नोकर्म जीवद्रव्यलेश्या के सात प्रकार हैं-औदारिक, बन्ध होता है । इस वचन के आधार पर लेश्या प्रकृति औदारिकमिश्र, वैक्रिय, वैक्रियमिश्र, आहारक, आहारक- और प्रदेश बन्ध का हेतु है, कर्मस्थिति का हेत नहीं मिश्र और कार्मण । कष्ण, नील आदि वर्णों वाली इन है। कर्मनिस्यन्द का नाम लेश्या है। जब तक कषाय का सातों शरीरों की पोद्गलिक आभा का नाम है-द्रव्य उदय रहता है, तब तक कर्मनिस्यन्द का सद्भाव रहता लेश्या। है-इस दृष्टि से लेश्या को कर्म की स्थिति का हेत भी लेभयति- श्लेषयतीवात्मनि जननयनानीति लेश्या- माना जा सकता है । Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेश्या का वर्ण लेश्या योग (लेश्या या भावधारा की संरचना में तीन तत्त्वों का प्रकृति में सहयोग है। जाति-स्मृति, अवधि, मन:योग है-१. शरीर २. वीर्य-लब्धि ३. कषाय का उदय पर्याय और केवल-इन सब ज्ञानों की उत्पत्ति में शुभ या विलय । लेश्या के सहकारी द्रव्य (द्रव्य लेश्या) योग- अध्यवसाय, शुभ परिणाम और लेश्या की विशुद्धि की वर्गणा में समाविष्ट होते हैं। आठ वर्गणाओं में लेश्याओं अनिवार्यता मानी गई है। इससे भी प्रतीत होता है कि की कोई स्वतंत्र वर्गणा नहीं है । वह शरीर-योग-वर्गणा अनुभाग की तरतमता में लेश्या एक हेतु है।) की एक अवान्तर वर्गणा है । भाव लेश्या कषाय के उदय (देखें-भगवई १११०२ का भाष्य) या विलय से सम्बद्ध है। वीर्य लब्धि का भावधारा की योग और लेश्या में अन्तर लेश्या १. आत्मिक स्वरूप मन, वचन शरीर की प्रवृत्ति जीव का परिणाम (भावधारा) २. पौद्गलिक स्वरूप औदारिक, वैक्रिय, आहारक, कार्मण वर्गणा, तैजस वर्गणा भाषा वर्गणा, मनोवर्गणा ३. प्रवर्तक शक्ति वीर्य-लब्धि वीर्य-लब्धि ४. घटक शक्ति शरीर नामकर्म शरीर नामकर्म ५. कार्य १. सभी वर्गणाओं का ग्रहण १. भावों का निष्पादन २. गति २. आभामंडल या वर्ण का हेतु ३. क्रिया ४. वाणी ५. चितन ६. कर्म-बन्ध प्रकृति, प्रदेश बन्ध का हेतु अनुभाग बन्ध की तरतमता का हेतु ३. लेण्या के प्रकार वाली हैं। किण्हा नीला य काऊ य तेऊ पम्हा तहेव य । तेजस्, पद्म और शुक्ल-ये तीनों धर्मलेश्याएं सुक्कलेसा य छट्ठा उ नामाइं तु जहक्कम ॥ विशुद्ध, प्रशस्त, असंक्लिष्ट और सुगति में ले जाने वाली (उ ३४/३) लेश्या के छह प्रकार हैं विशुद्ध लेश्या १. कृष्ण ४. तेजस् द्विविधा विशुद्धलेश्या"..... कषायोपशमजा कषाय२. नील ५. पद्म क्षयजा च । एकान्तविशुद्धि चाऽऽश्रित्येवमभिधानम् । ३. कापोत ६. शुक्ल । अन्यथा हि क्षायोपशमिक्यपि शुक्ला तेजःपद्म च विशुद्धअप्रशस्त-प्रशस्त लेश्या लेश्ये संभवत एवेति (उशावृ प ६५१) किण्हा नीला काऊ, तिन्नि वि एयाओ अहम्मलेसाओ। विशुद्ध लेश्या के दो प्रकार हैं-१. उपशमजाएयाहि तिहि वि जीवो, दुग्गई उववज्जई बहुसो । कषाय के उपशम से होने वाली, २. क्षयजा-कषाय के क्षय से होने वाली। यह कथन एकान्त विशुद्धि की अपेक्षा तेऊ पम्हा सुक्का, तिन्नि वि एयाओ धम्मलेसाओ । एयाहि तिहि वि जीवो, सुग्गइं उववज्जई बहसो॥ से है। अन्यथा क्षायोपशमिकी शुक्ल लेश्या, तेजस् लेश्या तओ लेसाओ अविसद्धाओ तओ विसदाओ। तओ और पद्म लेश्या विशुद्ध लेश्या ही है। पसत्थाओ तओ अपसत्थाओ। तओ संकिलिट्राओ तओ ४. लेश्याओं का वर्ण असंकिलिट्ठाओ। तओ दुग्गतिगामियाओ तओ सुगतिगा- जीमूयनिद्धसंकासा, गवलरिट्ठगसन्निभा । मियाओ। (उ ३४/५६, ५७ शाव प ६६१) खंजणंजणनयननिभा, किण्हलेसा उ वण्णओ।। कृष्ण, नील और कापोत-ये तीनों अधर्मलेश्याएं नीलाऽसोगसंकासा, चासपिच्छसमप्पभा । अविशुद्ध, अप्रशस्त, संक्लिष्ट और दुर्गति में ले जाने बेरुलियनिद्धसंकासा, नीललेसा उ वण्णओ।' Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेश्या लेश्याओं का स्पर्श अयसीपुप्फसंकासा, कोइलच्छदसन्निभा । त्रिकटु-सूठ, पिप्पल और कालीमिर्च तथा गजपारेवयगीवनिभा, काउलेसा उ वण्णओ ।। पीपल का रस जैसा तीखा होता है, उससे भी अनन्त हिंगुलुयधाउसंकासा, तरुणाइच्चसन्निभा । गुना तीखा रस नीललेश्या का होता है। सुयतुंडपईवनिभा, तेउलेसा उ वण्णओ ।। कच्चे आम और कच्चे कपित्थ का रस जैसा कसैला हरियालभेयसंकासा, हलिहाभयसंनिभा । होता है, उससे भी अनन्त गूना कसैला रस कापोत लेश्या सणासणकुसुमनिभा, पम्हलेसा उ वण्णओ। का होता है। पके हुए आम और पके हए कपित्थ का रस संखककुंदसंकासा, खीरपूरसमप्पभा । जैसा खट-मीठा होता है, उससे भी अनन्त गुना खटरययहारसकासा, सुक्कलेसा उ वण्णओ ।। (उ ३४॥४-९) मीठा रस तेजोलेश्या का होता है। कृष्ण लेश्या का वर्ण स्निग्ध मेघ, महिष, द्रोण प्रधान सुरा, विविध आसवों, मधु और मैरेयक काक, खञ्जन, अञ्जन व नयनतारा के समान होता है। मदिरा का रस जैसा अम्ल-कसैला होता है, उससे भी नील लेश्या का वर्ण नीलअशोक, चाष पक्षी के परों अनन्त गुना मीठा, मधुर और अम्ल-कसैला रस पद्मऔर स्निग्ध वैडूर्य मणि के समान होता है। लेश्या का होता है। ___ खजूर, दाख, क्षीर, खांड और शक्कर का रस जैसा कापोत लेश्या का वर्ण अलसी के पुष्प, तैल-कंटक मीठा होता है, उससे भी अनन्त गुना मीठा रस शुक्ल व कबूतर की ग्रीवा के समान होता है। लेश्या का होता है। तेजोलेश्या का वर्ण हिंगुल, धातु-गेरु, नवोदित सूर्य, ६. लेश्याओं की गंध तोते की चोंच, प्रदीप की लौ के समान होता है । जह गोमडस्स गंधो, सुणगमडगस्स व जहा अहिमडस्स । ___ पदम लेश्या का वर्ण भिन्न हरिताल, भिन्न हल्दी, एत्तो वि अणंतगुणो, लेसाणं अप्पसत्थाणं ।। सण और असन के पुष्प के समान होता है। जह सुरहिकुसुमगंधो, गंधवासाण पिस्समाणाणं । शुक्ल लेश्या का वर्ण शंख, अंकमणि, कुंदपुष्प, दुग्ध एत्तो वि अणतगुणो, पसत्थलेसाण तिण्हं पि ।। प्रवाह, चांदी व मुक्ताहार के समान होता है । (उ ३४.१६,१७) ५. लेश्याओं का रस गाय, श्वान और सर्प के मृत कलेवर की जैसी गन्ध होती है, उससे भी अनन्त गुना गन्ध तीनों अप्रशस्त जह कडुयतुंबगरसो, निबरसो कडुयरोहिणिरसो वा । लेश्याओं की होती है। एत्तो वि अणंतगुणो, रसो उ किण्हाए नायव्वो ॥ सुगन्धित पुष्पों और पीसे जा रहे सुगन्धित पदार्थों जह तिगडयस्स य रसो,तिक्खो जह हथिपिप्पलीए वा। की जैसी गंध होती है, उससे भी अनन्त गूना गंध तीनों एतो वि अणंतगुणो, रसो उ नीलाए नायव्वो ॥ प्रशस्त लेश्याओं की होती है। जह तरुणअंबगरसो, तुवरकविट्ठस्स वावि जारिसओ । ७. लेश्याओं का स्पर्श एत्तो वि अणंतगुणो, रसो उ काऊए नायव्वो॥ जह करगयस्स फासो, गोजिब्भाए व सागपत्ताणं । जह परिणयंबरसो, पक्ककविद्वस्स वावि जारिसओ । एत्तो वि अणंतगुणो, लेसाणं अप्पसत्थाणं ।। एत्तो वि अणंतगुणो, रसो उ तेऊए नायव्वो ॥ जह बरस्स व फासो, नवणीयस्स व सिरीसकुसुमाणं । वरवारुणीए व रसो, विविहाण व आसवाण जारिसओ। एत्तो वि अणंतगुणो, पसत्थलेसाण तिण्हं पि ॥ महमेरगस्स व रसो, एत्तो पम्हाए परएणं ।। (उ ३४६१८,१९) खज्जरमुद्दियरसो, खीररसो खंडसक्कररसो वा । __ करवत, गाय की जीभ और शाक वृक्ष के पत्रों का एत्तो वि अणंतगुणो, रसो उ सुक्काए नायव्वो ।। स्पर्श जैसा कर्कश होता है, उससे भी अनंत गुना कर्कश (उ ३४११०-१५) स्पर्श तीनों अप्रशस्त लेश्याओं का होता है। कडुवे तुम्बे, नीम व कटुक रोहिणी का रस जैसा बूर, नवनीत और शिरीष के पुष्पों का स्पर्श जैसा कड़वा होता है, उससे भी अनन्त गुना कड़वा रस कृष्ण मृद्र होता है, उससे अनन्त गूना मृदू स्पर्श तीनों प्रशस्त लेश्या का होता है। लेश्याओं का होता है। Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेश्याओं की स्थिति लेश्या ८. लेश्याओं को स्थिति दस उदही पलिओवम, असंखभागं च उक्कोसा ।। मुहत्तद्धं तु जहन्ना, तेत्तीस सागरा मुहुत्तहिया । दस उदही पलियमसंखभागं जहन्निया होइ । उक्कोसा होइ ठिई, नायव्वा किण्हलेसाए । तेत्तीससागराइं उक्कोसा, होइ किण्हाए । मुहुत्तद्धं तु जहन्ना, (उ ३४।४१-४३) दस उदही पलियमसंखभा गमब्भहिया । नारकीय जीवों के कापोत लेश्या की जघन्य स्थिति उक्कोसा होइ ठिई, नायव्वा नीललेसाए । पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक तीन सागर की मृहुत्तद्धं तु जहन्ना, होती है। तिण्णुदही पलियमसंखभागमभहिया । नील लेश्या की जघन्य स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें उक्कोसा होइ ठिई, नायव्वा काउलेसाए । भाग अधिक तीन सागर और उत्कृष्ट स्थिति पल्योमुहुत्तद्धं तु जहन्ना, पम के असंख्यातवें भाग अधिक दश सागर की होती है। दोउदही पलियमसंखभागमब्भहिया । कृष्ण लेश्या की जघन्य स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें उक्कोसा होइ ठिई, नायव्वा तेउलेसाए । भाग अधिक दश सागर और उत्कृष्ट स्थिति तेतीस मुहत्तद्धं तु जहन्ना, दस होंति सागरा मुहुत्तहिया। सागर की होती है। उक्कोसा होइ ठिई, नायव्वा पम्हलेसाए ॥ भवनपति-व्यंतर-लेश्या-स्थिति मुहुत्तद्धं तु जहन्ना, तेत्तीस सागरा मुहुत्तहिया ।। उक्कोसा होइ ठिई, नायव्वा सुक्कलेसाए । दस वाससहस्साई, किण्हाए ठिई जहन्निया होइ । (३४.३४-३९) पलियमसंखिज्जइमो, उक्कोसा होइ किण्हाए ॥ कृष्ण लेश्या की जघन्य स्थिति अन्तर्महत और जा किण्हाए ठिई खलु, उक्कोसा सा उ समयमब्भहिया । उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहर्त अधिक तेतीस सागर की होती जहण्णेणं नीलाए, पलियमसंखं तु उक्कोसा ।। जा नीलाए ठिई खलु, उक्कोसा सा उ समयमब्भहिया । नील लेश्या की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और जहन्नेणं काऊए, पलियमसंखं च उक्कोसा ।। उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक दश (उ ३४।४८-५०) भवनपति और वानव्यन्तर देवों के कृष्ण लेश्या की सागर की होती है। जघन्य स्थिति दश हजार वर्ष और उत्कष्ट स्थिति कापोत लेश्या की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहर्त और पल्योपम के असंख्यातवें भाग की होती है। उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक तीन कृष्ण लेश्या की जो उत्कृष्ट स्थिति है, उसमें एक सागर की होती है। समय मिलाने पर वह नील लेश्या की जघन्य स्थिति होती तेजो लेश्या की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और है और उसकी उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें उत्कष्ट स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक दो भाग जितनी है। सागर की होती है। नील लेश्या की जो उत्कृष्ट स्थिति है, उसमें एक पद्म लेश्या की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहर्त और समय मिलाने पर वह कापोत लेश्या की जघन्य स्थिति उत्कृष्ट स्थिति मुहूर्त अधिक दश सागर की होती है। शुक्ल लेश्या की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और . होती है और उसकी उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग जितनी है। उत्कृष्ट स्थिति मुहूर्त अधिक तेतीस सागर की होती है । (भवनपति देवों की जघन्य स्थिति दश हजार नरक-लेश्या-स्थिति वर्ष की और उत्कृष्ट स्थिति सातिरेक एक सागर दस वाससहस्साई, काऊए ठिई जहन्निया होइ । की है। वानव्यंतर देवों की जघन्य स्थिति दश तिण्णदही पलिओवम, असंखभागं च उक्कोसा ॥ हजार वर्ष की और उत्कृष्ट स्थिति एक पल्पोपम तिण्ण दही पलियमसंखभागा जहन्नेण नीलठिई। की है । अतः प्रस्तुत श्लोक में जो उत्कृष्ट स्थिति है Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेश्या वह मध्यम आयु वाले भवनपति और वानव्यंतर देवों की अपेक्षा से है ।) तेजोलेश्या की स्थिति दस वाससहस्साइं, तेऊए ठिई जहन्निया होइ। दुष्णुदही पलिओम, असंखभागं च उक्कोसा || ( उ ३४/५३) भवनपति, व्यंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक — इन चारों प्रकार के देवों की अपेक्षा तेजोलेश्या की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक दो सागर की होती है । वैमानिक - लेश्या स्थिति पलिओवमं जहन्ना, उक्कोसा सागरा उ दुहहिया । पलियमसंखेज्जेणं, होइ भागेण ऊ || जा तेऊए ठिई खलु, उक्कोसा सा उ समयमब्भहिया । जहन्ने पम्हाए दस उ, मुहुत्तहियाइं च उक्कोसा || पहा ठिई खलु, उक्कोसा सा उ समयमब्भहिया । जहन्नेणं सुक्काए, तेत्तीस मुहुत्तममहिया || ( उ ३४।५२,५४,५५) वैमानिक देवों के तेजोलेश्या की जघन्य स्थिति एक पल्योपम और उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक दो सागर की होती है । तेजोलेश्या की जो उत्कृष्ट स्थिति है, उसमें एक समय मिलाने पर वह पद्म लेश्या की जघन्य स्थिति होती है और उसकी उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त्त अधिक दश सागर की होती है । पद्म लेश्या की जो उत्कृष्ट स्थिति है, उसमें एक समय मिलाने पर वह शुक्ल लेश्या की जघन्य स्थिति होती और उसकी उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त्त अधिक तेतीस सागर की होती है । इह च नारकाणामुत्तरत्र च देवानां द्रव्यलेश्या - स्थितेरेवैवं चिन्त्यते । तद्भावलेश्यानां परिवर्त्तमानतयाऽन्यथाऽपि स्थितेः सम्भवात् । देवाण नारयाण य दव्वलेसा भवंति एयाओ । भावपरावत्तीए सुरणेरइयाण छल्लेसा ॥ ( उशावृ प ६५९ ) देव और नारक की लेश्या की जो स्थिति बताई गई है, वह द्रव्यलेश्या की अपेक्षा से है । भावपरिवर्तन की लेश्याओं के परिणाम अपेक्षा से उनमें छहों लेश्याएं होती हैं, जिनकी स्थिति अन्यथा भी हो सकती है । ५६० तियंच- मनुष्य- लेश्या - स्थिति अंतोमुहुत्तम, लेसाण ठिई जहि जहि जा उ । तिरियाणं नराणं वा, वज्जित्ता केवलं लेसं ॥ मुहुत्तद्धं तु जहन्ना, उक्कोसा होइ पुव्वकोडी उ । नवहि वरिसेहि ऊणा, नायव्वा सुक्कलेसाए ॥ ( उ ३४१४५,४६ ) तिर्यञ्च और मनुष्य में जितनी लेश्याएं होती हैं, उनमें से शुक्ल लेश्या को छोड़कर शेष सब लेश्याओं की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त की होती है । मनुष्य में लेश्या की जघन्य स्थिति अंतर्मुहूर्त्त शुक्ल और उत्कृष्ट स्थिति नौ वर्ष न्यून एक करोड़ पूर्व की होती है । इह च यद्यपि कश्चित् पूर्व कोट्यायुरष्टवार्षिक एव व्रतपरिणाममाप्नोति तथापि नैतावद्वयःस्थस्य वर्षपर्यायादर्वाक् शुक्ललेश्याया: सम्भव इति नवभिर्वर्षेना पूर्व कोटिरुच्यते । ( उशावृ प ६६० ) शुक्ल लेश्या की स्थिति नौ वर्ष न्यून एक पूर्व कोटि बतलाई गई है । इसका हेतु है – एक करोड़पूर्व की आयु वाला कोई पुरुष आठ वर्ष की अवस्था में ही मुनि बन जाता है । उस वय में शुक्ल लेश्या संभव नहीं होती । एक वर्ष के मुनि पर्याय के पश्चात् ही उसका उदय होता है, इसलिए यहां नौ वर्ष न्यून की बात कही गई है । ६. लेश्याओं के परिणाम पंचासवप्पवत्तो तीहि अगुत्तो छसु अविरओ य । तिव्वारंभपरिणओ खुद्दो साहसिओ नरो ॥ निबंध सपरिणामो निस्संसो अजिइंदिओ । एयजोगसमाउत्तो किण्हलेसं तु परिणमे || इस्साअमरिसअतवो अविज्जमाया अहीरिया । गेद्धी पओसे य सढे पत्ते रसलोलुए सायगवेसए य ।। आरंभाओ अविरओ खुद्दो साहस्सिओ नरो । एयजोगसमाउत्तो नीललेसं तु परिणमे || वंके वकसमायारे नियडिल्ले अणुज्जुए । पलिउंचग ओहिए मिच्छदिट्ठी अणारिए || उप्फालगदुदुवाई य तेणे यावि य मच्छरी । एजोगसमाउत्तो काउलेसं तु परिणमे ॥ Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूखादक का दृष्टांत ५६१ लेश्या नीयावित्ती अचवले अमाई अकूऊहले । है, दान्त है, समाधियुक्त है, उपधान (श्रुत अध्ययन करते विणीयविणए दंते जोगवं उवहाणवं ।। समय तप) करने वाला है, धर्म में प्रेम रखता है, धर्म में पियधम्मे दढधम्मे वज्जभीरू हिएसए। दृढ़ है, पापभीरू है, हित चाहने वाला है -जो इन सभी एयजोगसमाउत्तो तेउलेसं तु परिणमे ।। प्रवृत्तियों से युक्त है, वह तेजोलेश्या में परिणत होता है । पयणक्कोहमाणे य मायालोभे य पयणुए। पद्म लेश्या के परिणाम पसंतचित्ते दंतप्पा जोगवं उवहाणवं ।। जिस मनुष्य के क्रोध, मान, माया और लोभ अत्यन्त तहा पयणुवाई य उवसंते जिइंदिए । अल्प हैं, जो प्रशान्त-चित्त है, अपनी आत्मा का दमन एयजोगसमाउत्तो पम्हलेसं तु परिणमे ।। करता है, समाधियुक्त है, उपधान करने वाला है, अत्यल्पअट्टरुद्दाणि वज्जित्ता धम्मसुक्काणि झायए । भाषी है, उपशान्त है, जितेन्द्रिय है- जो इन सभी पसंतचित्ते दंतप्पा समिए गुत्ते य गुत्तिहिं ।। प्रवृत्तियों से युक्त है, वह पद्म लेश्या में परिणत होता है। सरागे वीयरागे वा उवसंते जिइंदिए । एयजोगसमाउत्तो सुक्कलेसं तु परिणमे ।। शुक्ल लेश्या के परिणाम (उ ३४।२१-३२) जो मनुष्य आर्त और रौद्र --इन दोनों ध्यानों को कृष्ण लेश्या के परिणाम छोड़कर धर्म्य और शुक्ल-इन दो ध्यानों में लीन रहता ___ जो मनुष्य पांचों आश्रवों में प्रवृत्त है, तीन गुप्तियों है, प्रशान्त-चित्त है, अपनी आत्मा का दमन करता है, से अगुप्त है, षटकाय में अविरत है, तीव्र आरम्भ (सावद्य समितियों से समित है, गुप्तियों से गुप्त है, उपशान्त है, व्यापार) में संलग्न है, क्षद्र है, बिना विचारे कार्य करने जितेन्द्रिय है- जो इन सभी प्रवृत्तियों से युक्त है, वह वाला है, लौकिक और पारलौकिक दोषों की शंका से सराग हो या वीतराग, शुक्ल लेश्या में परिणत होता है। रहित मन वाला है, नशंस है, अजितेन्द्रिय है-जो इन जम्बूखाबक का दृष्टान्त सभी से युक्त है, वह कृष्ण लेश्या में परिणत होता है। एगत्थ छहिं मणूसेहिं जंबू दिट्ठा फलभरिता । नील लेश्या के परिणाम तत्थेगो पुरिसो भणति-मूला छिज्जतु तो पडिताए खाइ स्सामो, सो कण्हाए । बितिओ भणति मा विणासिज्जतु, ___ जो मनुष्य ईर्ष्यालु है, कदाग्रही है, अतपस्वी है, साला छिज्जंतु, सो नीलाए वट्टति। ततिओ-मा साला अज्ञानी है, मायावी है, निर्लज्ज है, गृद्ध है, प्रद्वेष करने छिज्जंतु, साहाओ विच्छिज्जंतु, एवं काउलेसा। चउत्थो वाला है, शठ है, प्रमत्त है, रस-लोलुप है, सुख का गवेषक है, आरम्भ से अविरत है, क्षद्र है, बिना विचारे भणति-गोच्छा छिज्जंतु, एसो तेऊए । पंचमो भणति आरोभित खामो धुणमो वा जेण पक्काणि पडंति ताणि कार्य करने वाला है जो इन सभी से युक्त है, वह नील लेश्या में परिणत होता है। खामो, एसो पीताए। छट्ठो भणति - सयं पडिताणि पभूताणि ताणि खामो, सो सुक्काए। कापोत लेश्या के परिणाम (आवचू २ पृ ११३) जो मनुष्य वचन से वक्र है, जिसका आचरण वक्र है, छह व्यक्ति एक साथ घूमने निकले । उन्होंने परिपक्व माया करता है, सरलता से रहित है, अपने दोषों को फलों के भार से झुका हुआ एक जामुन का वृक्ष देखा। छपाता है, छद्म का आचरण करता है, मिथ्यादृष्टि है, उनकी जामन खाने की इच्छा हई। एक व्यक्ति ने कहा अनार्य है, हंसोड़ है, दुष्ट वचन बोलने वाला है, चोर है, -वृक्ष को मूल सहित भूमि पर गिरा देना चाहिए। मत्सरी है जो इन सभी प्रवृत्तियों से युक्त है, वह तब दूसरे व्यक्ति ने कहा-वक्ष को गिराने से क्या ? बडीकापोत लेश्या में परिणत होता है। बड़ी शाखाओं को काट लेना चाहिए। तीसरे ने कहातेजोलेश्या के परिणाम शाखाओं को नहीं, प्रशाखाओं को काटना चाहिए । चौथे ___ जो मनुष्य नम्रता से बर्ताव करता है, अचपल है, ने कहा-हमें फलों के गुच्छों को तोड़ना चाहिए । पांचवें माया से रहित है, अकुतूहली है, विनय करने में निपुण ने कहा--गुच्छों को क्यों ? हमें तो केवल फल ही तोड़ने Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेश्या ५६२ लेण्यापरिणति और मृत्यु A चाहिए। तब छठे व्यक्ति ने कहा-हमें खाने तो केवल ० इक्यासी परिणाम-सत्ताईस के तीन-तीन प्रकार फल ही हैं, वे भूमि पर गिरे हुए ही हैं, उन्हें ही खा लेना (२७४३-८१)। चाहिए। पहले व्यक्ति के विचारों के समान कृष्ण लेश्या . दो सौ तयालीस परिणाम -इक्यासी के तीन-तीन के परिणाम और क्रमश: छठे व्यक्ति के विचारों के प्रकार (८१४३-२४३) । समान शुक्ल लेश्या के परिणाम हैं। ११. लेश्यापरिणति और मृत्यु ग्रामवध का दृष्टान्त लेसाहिं सव्वाहिं, पढमे समयम्मि परिणयाहिं तु । पढमओ भणति --- सजणवयं गोमाहिसं मारेमो, न वि कस्सवि उववाओ, परे भवे अत्थि जीवस्स ॥ बितिओ माणुसाणि, ततिओ पुरिसे, चउत्थो आउधहत्थे, लेसाहिं सव्वाहिं, चरमे समयम्मि परिणयाहिं तु । पंचमो जे जुझंति, छट्ठो कि एतेहिं मारिएहिं ? धणं न वि कस्सवि उववाओ परे भवे अत्थि जीवस्स ।। हीरंतु, एवं छल्लेसाओ समोतारेतव्वाओ। अंतमुहुत्तम्मि गए, अंतमुहुत्तम्मि सेसए चेव । (आवचू २ पृ ११३) लेसाहिं परिणयाहिं, जीवा गच्छंति परलोयं ।। छह चोर ग्रामवध के लिए निकले। उनमें से एक (उ ३४।५८-६०) चोर ने कहा-जो भी दृष्टि में आए, उन द्विपद, . पहले समय में परिणत सभी लेश्याओं में कोई भी चतुष्पद सभी को मार डालो। दूसरे ने केवल मनुष्य जाति जीव दूसरे भव में उत्पन्न नहीं होता। को और तीसरे ने केवल पुरुषों को मारने के लिए कहा। ० अन्तिम समय में परिणत सभी लेश्याओं में कोई भी तब चौथे ने कहा-केवल शस्त्रधारी पुरुषों को ही मारना जीव दूसरे भव में उत्पन्न नहीं होता। चाहिए । इसका प्रतिवाद करते हुए पांचवे ने कहा-जो ० लेश्याओं की परिणति होने पर अन्तर्महर्त बीत जाता हमारे साथ युद्ध करें, उन्हीं को मारना चाहिए। छठे व्यक्ति ने कहा हम किसी को क्यों मारें ? हमें तो ___है, अन्तर्मुहूर्त शेष रहता है, उस समय जीव परलोक ___ में जाता है। केवल धन चाहिये। यहां प्रथम व्यक्ति के विचारों के समान कृष्णलेश्या के परिणाम और क्रमश: छठे व्यक्ति के इत्थं चैतन्मृतिकाले भाविभवलेश्याया उत्पत्तिकाले विचारों के समान शुक्ललेश्या के परिणाम ज्ञातव्य हैं। वा अतीतभवलेश्याया अन्तर्मुहूर्तमवश्यम्भावात् ।......" देवनारकाणां स्वस्वलेश्यायाः प्रागुत्तरभवान्तर्मुहूर्तद्वय१०. लेश्या-परिणामों के प्रकार सहितनिजायू:कालं यावदवस्थितत्वात....."कण्हलेसे तिविहो व नवविहो वा, सत्तावीसइविहेक्कसीओ वा। रतिए कण्हलेसेसु णे रइएसु उववज्जति कण्हलेसेसु उव्वदुसओ तेयालो वा, लेसाणं होइ परिणामो । ट्टइ, जल्लेसे उववज्जइ तल्लेसे उव्वट्टति, एवं नीललेसेवि। इह च विविधः-जघन्य-मध्यमोत्कृष्टभेदेन । (उशावृ प ६६२) नवविधः -यदेषामपि जघन्यादीनां स्वस्थानतारतम्य- वर्तमान भव का आयुष्य जब अन्तर्महत परिमाण चिन्तायां प्रत्येक जघन्यादित्रयेण गुणना एवं पुनस्त्रिकगुण- शेष रहता है उस समय परभव की लेश्या का परिणाम नया सप्तविशतिविधत्वमेकाशीतिविधत्वं त्रिचत्वारिशद्- आरब्ध हो जाता है। वह परिणाम अन्तर्महत तक द्विशतविधत्वं च भावनीयम् । वर्तमान जीवन में रहता है और अन्तर्मुहूर्त तक परभव में (उ ३४।२० शावृ प ६५५) उत्पन्न होने के पश्चात् रहता है। इस प्रकार लेश्या की तारतम्य की अपेक्षा से लेश्याओं के परिणाम इस अवस्थिति दो अन्तर्मुहूत्तों तक रहती है। दो अन्तमहत्तों प्रकार हैं का नियम नारक और देवों पर भी लागू होता है, किन्तु ० तीन परिणाम-जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट । वे जिस लेश्या में उत्पन्न होते हैं वह लेश्या उनके ० नौ परिणाम-इन तीनों के जघन्य आदि तीन-तीन आयुष्य पर्यन्त रहती है। जैसे कृष्ण लेश्या में उत्पन्न प्रकार (३४३=९)। नारक कृष्ण लेश्या में ही उद्वृत्त होता है। इसी प्रकार • सत्तावीस परिणाम-नौ के तीन-तीन प्रकार भवनपति आदि देव भी जिस लेश्या में उत्पन्न होते हैं, (९४३=२७)। उसी लेश्या में उद्धृत्त अथवा च्यवित होते हैं। Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेश्या के स्थान लेश्या गण मइसुयालय कहादवलेवासाओ ।। (तिर्यंच और मनुष्य जिस लेश्या में उत्पन्न होते हैं, प्रतिबिम्बसंक्रान्तौ रक्तादिरूपता प्रतिपद्यते तथा कृष्णाद्यउस लेश्या में भी मर सकते हैं और अन्य लेश्या में भी शुभद्रव्याण्यपि तेजस्यादिशुभद्रव्यप्रतिबिम्बसंक्रमे निजरूपोमर सकते हैं। देखें-पण्णवणा पद १७।१०२-१०४। त्कटतां परित्यज्य तदाभासतां प्रतिपद्यन्ते । ततो नारकाजीव जिस लेश्या में मरता है, उसी लेश्या में उत्पन्न दीनामपि कृष्णाद्यशुभद्रव्यानुभावं मन्दतां नीत्वा शुभानि होता है। भगवई ३।१८३) तेजस्यादिद्रव्याणि शुभां भावलेश्यां जनयन्ति। १२. श्रुत आदि सामायिक और लेश्या (विभामवृ २ पृ १६३) देव और नारक के द्रव्यलेश्या अवस्थित होती है, सम्मत्तसुयं सव्वासु लहइ सुद्धासु तीसु य चरित्तं ।। तब सम्यक्त्व आदि की प्राप्ति के समय अवस्थित कृष्ण पुव्वपडिवनगो पुण अण्णयरीए उ लेसाए । आदि लेश्याओं के अशुभ द्रव्य शुभ भावलेश्या को कैसे (आवनि ८२२) उत्पन्न कर सकते हैं क्योंकि द्रव्यलेश्या भावलेश्या का सम्यक्त्व और श्रुत सामायिक की प्राप्ति कृष्ण आदि जनक है? छहों लेश्याओं में हो सकती है। देशविरति और चारित्र सम्यक्त्व प्राप्ति के समय यथाप्रवृत्तिकरण (आत्मा सामायिक की प्राप्ति तीन शुभ लेश्याओं में ही होती है। के परिणाम विशेष) के द्वारा तैजस आदि शुभलेश्या के पूर्व प्रतिपन्नता की अपेक्षा चारों सामायिक छहों लेश्याओं में हो सकती हैं। द्रव्य आक्षिप्त होते हैं। शुभ द्रव्यों के प्रतिबिम्ब संक्रान्त होने पर कृष्ण आदि द्रव्य अपनी उत्कटता को छोडकर नणु म इसुयाइलाभोऽभिहिओ सुद्धासु तीसु लेसासु । शुभ द्रव्यों के रूप में आभासित होते हैं जैसे श्वेत दर्पण में सुद्धासु असुद्धासु य कहमिह सम्मत्त-सुयलाभो ? | सुर-नरइएसु दुगं लब्भइ य, दव्वलेसया सव्वे । जपाकुसुम आदि का प्रतिबिम्ब पड़ने पर दर्पण भी रक्तता नाणेसु भावलेसाऽहिगया इह दव्वलेसाओ।। को प्राप्त हो जाता है। कृष्ण आदि अशुभ द्रव्यों का का अनुभाव मन्द हो जाने से शुभ द्रव्य शुभ भावलेश्या को मतिज्ञान और श्रुतज्ञान की प्राप्ति तीन शूद्ध लेश्याओं निष्पन्न करते हैं। में बताई गई है, तब सम्यक्त्व और श्रुत सामायिक की १३. लेश्या के स्थान प्राप्ति शुद्ध-अशुद्ध छहों लेश्याओं में कैसे? असंखिज्जाणोसप्पिणीण, उस्सप्पिणीण जे समया । ज्ञान के प्रसंग में भावलेश्या की अपेक्षा से तथा संखाईया लोगा, लेसाण हुंति ठाणाई ।। सामायिक के प्रसंग में द्रव्य लेश्या की अपेक्षा से यह निरूपण है। (उ ३४।३३) देव और नारक सम्यक्त्व और श्रत सामायिक प्राप्त असंख्येय अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी के जितने समय करते हैं। सम्यक्त्व आदि की प्राप्ति के समय भाव होते हैं, असंख्यात लोकों के जितने आकाश-प्रदेश होते हैं, लेश्या शुद्ध ही होती है। उतने ही लेश्याओं के स्थान (अध्यवसाय-परिणाम) होते तिर्यञ्च और मनुष्य की द्रव्य लेश्या और भाव लेश्या परिवर्तित होती रहती है। देव और नारक की (प्रत्येक लेश्या की अनंत वर्गणाएं हैं, प्रत्येक लेश्या द्रव्य लेण्या अवस्थित होती है, भाव लेश्या परिवर्तित असंख्यात आकाशप्रदेशों में अवगाढ है। जैसे वैडूर्यमणि होती रहती है। अपने उपाधिद्रव्यों के प्रतिबिम्ब से उस-उस रूप में परियदि देवनारकाणां कष्णादिका अशभा द्रव्यलेश्याः णत हो जाती है, वैसे ही एक लेश्या दूसरी लेश्या के वर्ण. सदाऽवस्थिता भवन्ति तदा सम्यक्त्वादिलाभकाले कथं तेषां गंध आदि रूप में परिणत हो सकती है। नारक और शुभभावलेश्यासंभवः ? द्रव्यलेश्या हि भावलेश्या जन- देवों की द्रव्यलेश्या में यह परिणमन सम्भव नहीं है। यन्ति ।"नारकादीनामपि सम्यक्त्वादिलाभकाले कथमपि भवनपति और व्यन्तर देवों में कृष्ण, नील, कापोत यथाप्रवृत्तिकरणेन शुभानि तेजस्यादिद्रव्यलेश्याद्रव्याण्या- और तेजोलेश्या होती है। ज्योतिष्क तथा सौधर्म और क्षिप्यन्ते । ततो यथाऽऽदर्शः श्वेतोऽपि जपा-कुसुमादिवस्तु- ईशान देवों में केवल तेजोलेश्या होती है। सनत्कुमार, Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोक लोक के विभाग माहेन्द्र और ब्रह्मलोक में पद्मलेश्या और उनसे आगे के धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव--ये कल्पों में शुक्ललेश्या होती है। बादर पृथ्वीकाय, छह द्रव्य हैं। यह षड्द्रव्यात्मक जो है, वही लोक है। अप्काय और प्रत्येक वनस्पतिकाय में प्रारम्भ की चार पंचत्थिकायमइयं लोगमणाइणिहणं जिणक्खायं।.. लेश्यायें, गर्भज मनुष्यों और तिर्यञ्चों में छह लेश्यायें । (आवहावृ २ पृ.७३) तथा शेष जीवों में प्रथम तीन लेश्यायें होती हैं। देखें जहां धर्म, अधर्म, आकाश, पुदगल और जीव-ये पांच अस्तिकाय हों, वह लोक है। लोक अनादि-अनन्त पण्णवणा पद १७) लोक--विश्व, जगत् । योऽसावाकाशास्तिकायः स संपूर्णोऽलोके, लोके तु तस्य देश: प्रदेशाश्च । (आवचू २ पृ ९) १. लोक का निर्वचन आकाशास्तिकाय की सम्पूर्णता अलोक में होती है। * लोक-अलोक : आकाश के भेद (द्र. अस्तिकाय) । लोक में उसके देश और प्रदेश हैं । • लोक-अलोक की परिभाषा २. लोक-अलोक के विभाजन का हेतु २. लोक-अलोक के विभाजन का हेतु तम्हा धम्मा-ऽधम्मा लोयपरिच्छेयकारिणो जुत्तो। ३. लोक के विभाग इहरागासे तुल्ले लोगोऽलोगो त्ति को भेओ? || लोकस्थिति (विभा १८५२) ४. लोक-अलोक का संस्थान धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय ही लोक का विभाजन ५. लोक का प्रमाण करते हैं। अन्यथा लोक और अलोक-दोनों में आकाश ६. लोकाकाश के प्रतर तो समान है। वह विभाजक नहीं होता। ७. रुचकप्रदेश : दिशा-विदिशा का प्रवर्तक लोगविभागाभावे पडिघायाभावओऽणवत्थाओ। ८. दिशा के प्रकार संववहाराभावो संबंधाभावओ होज्जा ।। ९. दिशाओं के संस्थान (विभा १८५३) १०. मनुष्यलोक-समयक्षेत्र लोकविभाग के अभाव में निम्न दोष आते हैं११. असंख्य द्वीप-समुद्र १. अप्रतिघात -लोक और अलोक के विभाग के अभाव १. लोक का निर्वचन में जीव और पुदगल की अप्रतिहत गति होगीलोक्यते-केवलिप्रज्ञया परिच्छिद्यत इति लोकः । गति का प्रतिघात नहीं होगा। (अनुमवृ प ८०) २. अनवस्था-प्रतिघात के अभाव में गति का अवस्थान केवली अपनी प्रज्ञा से जिसे विभागपूर्वक जानते हैं, नहीं होगा। वह लोक है। ३. संबंध अभाव --आकाश अनंत होने से जीव और लोक-अलोक की परिभाषा पुद्गल का सम्बन्ध नहीं होगा। ४. व्यवहार अभाव-सम्बन्ध के अभाव में सुख-दुःख, जीवा चेव अजीवा य, एस लोए वियाहिए। बंध-मोक्ष आदि का व्यवहार नहीं होगा। अजीवदेसमागासे, अलोए से वियाहिए। (उ ३६२) ३. लोक के विभाग • यह लोक जीव और अजीवमय है। जहां अजीवदेश अहोलोए, तिरियलोए, उड्ढलोए। (अनु १७७) अर्थात् अजीव के चार विभागों में से केवल एक विभाग अधोव्यवस्थितो लोकोऽधोलोकः, अथवा अधःशब्दोआकाश ही है, उसे अलोक कहा गया है। ऽशुभपर्यायः, · तत्र च क्षेत्रानुभावाद् बाहुल्येनाशुभ एव । धम्मो अधम्मो आगासं, कालो पूग्गलजंतवो। परिणामो द्रव्याणां जायते ।" उपरि व्यवस्थापितो लोक: - एस लोगो त्ति पन्नत्तो, जिणेहिं वरदंसिहि ॥ ऊर्ध्वलोकः । अथवा तत्र च क्षेत्रस्य शुभत्वात्तदनुभावाद् (उ २८७) द्रव्याणां प्राय: शुभा एव परिणामा भवन्ति ।" Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोक - अलोक का संस्थान व्यवस्थितो समयपरिभाषया तिर्यग्— [- मध्ये लोकस्तिर्यग्लोकः । अथवा तिर्यक्शब्दो मध्यमपर्याय: । ( अनुमवृप ८० ) लोक के तीन विभाग हैं१. अधोलोक - यह लोक के अधोभाग में व्यवस्थित का परिणमन - । यहां क्षेत्र के प्रभाव प्राय: अशुभ ही होता है । पृथ्वियां अधोलोक में हैं । २. तिर्यक्लोक - यह लोक के मध्य में है । का परिणमन प्रायः मध्यम होता है । ३. ऊर्ध्वलोक - यह लोक के ऊर्ध्व भाग में व्यवस्थित है । शुभ क्षेत्र के कारण यहां द्रव्यों का परिणमन प्रायः शुभ ही होता है सौधर्म से सर्वार्थसिद्ध पर्यंत विमान ऊर्ध्वलोक में (द्र. देव) हैं । लोकस्थिति से द्रव्यों रत्नप्रभा आदि सात ( द्र. नरक ) यहां द्रव्यों ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी ऊर्ध्वलोक में है । खिइवलयदीवसागरन रयविमाणभवणाइसंठाणं । विहाणं ॥ मापट्टा निययं ( द्र. ईषत्प्राग्भारा ) ( आवहावृ २ पृ७४) लोकस्थिति इस प्रकार है ० क्षिति - घर्मा आदि सात तथा ईषत्प्राग्भारा - ये आठ पृथ्वियां हैं। ० वलय - घनोदधि, घनवात और तनुवात । घर्मा आदि सात भूमियों के परिक्षेप के रूप में इक्कीस वलय हैं । • द्वीप - जम्बूद्वीप से स्वयंभूरमण पर्यंत असंख्य द्वीप हैं । • समुद्र - लवणसमुद्र से स्वयंभूरमण पर्यंत असंख्य समुद्र हैं । ० नरक - सीमंतक से अप्रतिष्ठान पर्यंत संख्येय नरकावास हैं । ० विमान - ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के असंख्येय विमान हैं । ० भवन आदि - भवनपति देवों के संख्येय आवास और व्यंतर देवों के असंख्येय नगर हैं । ० व्योमप्रतिष्ठान - आकाश, वायु आदि प्रतिष्ठान । लोकस्थिति के ये प्रकार शाश्वत हैं । का ५६५ এইএ मध्यलोक अधोलोक लोक को संस्थिति Ja भ ४ अनुतर लोक - जब ग्रैवेयक - ११ आरण १२ अच्युत -- आनत १०. प्राणत सहस्त्रार 1--6 महाशुक्र ६ भांतक - ५ ब्रह्मलोक ३ सनत्कु४- माहेन्द्र १ सौधर्म २ - ईशान ज्योतिष - न भवनपति --2 शर्कराप्रमा - व्यन्तर -३ बालुकाप्रमा पंकजना धूम उम नमधुन ४. लोक- अलोक का संस्थान हेट्ठा मज्झे उवरि छन्बीझल्लरिमुइंगसंठाणे । लोगो अ ( उ ? ) द्वागारो अ ( उ ? ) द्वखेत्तागिई नेओ । ( आवहावृ २ पृ७३) लोए सुपतिट्ठासंठिते । अलोए सुसिरगोलकसंठिते । ( आवचू २८५) अधोलोक वंशपिटक - ऊर्ध्व आयत तथा ऊपर से कुछ संकरा - के संस्थान वाला है । मध्यलोक Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोक लोकाकाश के प्रतर झल्लरी-उभयतः विस्तीर्ण तथा मध्य में संकीर्ण-के जोयणसतप्पमाणो तिरियभागट्ठियत्तणतो तिरियलोगो। संस्थान वाला है। ऊर्ध्व लोक मृदंग-ऊर्ध्व-आयत, ऊपर (अनुचू पृ ३४,३५) से तनु तथा नीचे से विस्तीर्ण-के संस्थान वाला है। बहुसम (समतल) भूमिभाग वाले रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊर्ध्वलोक की आकृति ऊर्ध्व मृदंग जैसी है। मध्यभाग में स्थित मेरु के मध्य अष्टप्रदेशी रुचक है। लोक सुप्रतिष्ठक संस्थान वाला है अर्थात् त्रिशराव- उसके अधोवर्ती प्रतर के नीचे नौ सौ योजनपर्यंत तिर्यक सम्पुटाकार है। एक शराव उल्टा रखकर उस पर एक लोक है। उससे आगे अधःस्थित साधिक सात रज्जु शराव सीधा और फिर उस पर एक शराव उल्टा रखने प्रमाण अधोलोक है। रुचक के ऊर्ववर्ती प्रतर के ऊपर पर त्रिशरावसम्पुट की आकृति बनती है। यही लोक को ना सा याजन त नौ सौ योजन तक ज्योतिश्चक्र के उपरितल पर्यन्त तिर्थक की आकृति है। लोक है। उससे ऊपर कुछ न्यून सात रज्जु प्रमाण ऊर्ध्व__ अलोक शुषिरगोलक के संस्थान वाला है। लोक है। अधोलोक और ऊर्वलोक के मध्य में तिर्यग वैशाखस्थानस्थं प्रसारितपादं कटिस्थकरयुग्मं पुरुष भाग में स्थित अठारह सौ योजन प्रमाण तिर्यक लोक है। मिव लोक व्यवस्थाप्य सर्वमिदं भावनीयम् । से समासओ तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-सेढीअंगुले (नन्दीहावटि १२२) पयरगुले घणंगुले। असंखेज्जाओ जोयणकोडाकोडीओ खडे-खडे मन्थन करते शाप के पैर फैले द्वारा सेढी, सेढी सेढीए गुणिया पयर, पयरं सेढीए गुणियं दोनों हाथ कटिभाग पर रखे हए हैं—पूरुष के इस आकार लोगो, संखेज्जएणं लोगो गुणितो संखेज्जा लोगा. में लोकपुरुष संस्थित है। असंखेज्जएणं लोगो गुणितो असंखेज्जा लोगा। (लोक पुरुष के दोनों पैरों के स्थान में है अधोलोक । (अनु ४११) उसके कटिस्थानीय है ज्योतिश्चक्र । लोकपुरुष के कोहनी- प्रमाणांगुल के तीन प्रकार हैं-श्रेणीअंगुल, प्रतरस्थानीय ब्रह्मलोक है और उसके मस्तक का तिलक है अंगुल और घनअंगुल । प्रमाणांगुल से निष्पन्न असंख्यात सिद्धशिला।) कोडाकोडी (१०००००००४१०००००००) योजनों की ५. लोक का प्रमाण एक प्रदेशात्मक श्रेणी होती है । श्रेणी को श्रेणी से गुणित करने पर प्रतर और प्रतर को श्रेणी से गुणित करने पर लोगो चउद्दसरज्जूसितो। हेट्ठा देसूणसत्तरज्जू लोक होता है। लोक को संख्येय से गुणित करने पर विच्छिण्णो, तिरियलोगमज्झे रज्जुविच्छिण्णो, एवं बंभ संख्येय लोक और असंख्येय से गणित करने पर असंख्येय लोगमज्झे पंच, उरि लोगते एगरज्जूविच्छिण्णो । रज्जू लोक होते हैं। पुण सयंभुरमणसमुद्दपुरथिमपच्चत्थिमवेइयंता। (प्रस्तुत प्रकरण में घनांगुल का प्रमाण और लोक (अनुहावृ पृ ७६) का प्रमाण एक समान है। लोक का प्रमाण ३४३ घन लोक की ऊंचाई चौदह रज्जू है । अधोलोक कुछ कम रज्जु है। दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराएं इसमें सात रज्ज् विस्तीर्ण है । तिर्यग् लोक एक रज्जू, ब्रह्मलोक एकमत हैं, परन्तु लोक की आकृति के कारण गणित की पांच रज्जू और ऊपर लोकांत के पास एक रज्जू विस्तीर्ण प्रक्रिया में भिन्नता है। देखें-अणुओगदाराई सूत्र ४११ है । स्वयंभूरमणसमुद्र पूर्व से पश्चिम वेदिकान्त तक का का टिप्पण) प्रमाण एक रज्जू है। ६. लोकाकाश के प्रतर ___ बहुसमभूमिभागे रयणप्पभामज्झभागे मेरुमज्झे अट्ठ लोकाकाशप्रदेशा उपरितनाधस्तनदेशरहिततया विवपदेसो रुयगो। तस्सऽधोपतरातो अहे य णं नव जोयण- क्षिता मण्डकाकारतया व्यवस्थिताः प्रतरमित्युच्यन्ते । तत्र सताणि जाव ता तिरियलोगो । ततो परेण अहेट्टितत्तणतो तिर्यग्लोकस्योवधिोऽपेक्षयाऽष्टादशयोजनशतप्रमाणस्य अहोलोगो साहियसत्तरज्जुप्पमाणो। रुचतोवरिपतरातो मध्यभागे द्वौ लघक्षुल्लकप्रतरौ। उवरिहुत्तो नवजोयणसताणि जोतिसचक्कस्स उवरितलो .... "तौ च द्वौ सर्वल प्रतरावङगुलासंख्येयभागताव तिरियलोगो। ततो उड्ढभागठितत्तणतो उड्ढलोगो बाहल्यावलोकसंवत्तितौ रज्जुप्रमाणी तत एतयोरुपर्यन्येऽन्ये देसूणसत्तरज्जुप्पमाणो। अहउड्ढलोगाण मज्झे अट्ठारस- प्रतरास्तिर्यगंगुलासंख्येयभागवृद्ध्या वर्द्धमानास्तावद्दष्टव्या Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिशा के प्रकार ५६७ लोक यावदूर्ध्वलोकमध्यं, तत्र पञ्चरज्जुप्रमाणः प्रतरः, तत क्षेत्र, तापक्षेत्र, प्रज्ञापक और भाव । भावदिशा के उपर्यन्येऽन्ये प्रतरास्तिर्यगंगुलासंख्येयभागहान्या हीयमाना- अठारह प्रकार हैं । स्तावदवसेया यावल्लोकान्ते रज्जुप्रमाणः प्रतरः । द्रव्यविशा (नन्दीमत् प ११०) तेरसपएसियं जं जहण्णओ दसदिसागिई दव्वं । लोकाकाश के प्रदेश प्रतर कहलाते हैं। यह ऊपर उक्कोसमणंतपएसियं च सा होइ दव्वदिसा ।। का भाग है, यह नीचे का भाग है-इस रूप में इनका एक्केको विदिसासु मज्झे य दिसासुमायया दो दो। विभाग नहीं होता तथा ये मंडक (रोटी) के आकार में बिति दसाणगमण्णे दसदिसमेक्कक्कयं काउं ।। व्यवस्थित हैं। तं न दसदिसागारं जं चउरस्सं ति तन्न दव्वदिसा ।" मेरु के समभूभाग से नीचे नौ सौ योजन तथा ऊपर जघन्यतस्त्रयोदशप्रदेशावगाढात त्रयोदशप्रदेशिकात, नौ सौ योजन- इस प्रकार अठारह सौ योजन प्रमाण उत्कृष्टतस्त्वसंख्येयप्रदेशावगाढादनन्तप्रदेशिकाद् द्रव्याद् तिर्यक्लोक है । उसके मध्य में दो क्षुल्लक प्रतर हैं। दश दिश उत्तिष्ठन्ति । एतच्च द्रव्यं संपूर्णदशदिगुत्थानअलोक का स्पर्श करने वाले इन दो सर्वलघु प्रतरों की मोटाई अंगूल का असंख्येय भाग और लम्बाई एक कारणत्वाद् द्रव्यदिगुच्यते । (विभा २६९८-२७०० मवृ पृ १४७) रज्जु प्रमाण है । इनके ऊपर-ऊपर अन्यान्य प्रतर अंगुल जो द्रव्य दस दिशाओं के उत्थान का कारण है, वह के असंख्येय भाग की वृद्धि के क्रम से बढ़ते-बढ़ते ऊर्ध्व द्रव्यदिशा है। यह जघन्यत: तेरह प्रदेशी और तेरह लोक के मध्य भाग तक प्रतर की लम्बाई पांच रज्जु हो । आकाशप्रदेशों में अवगाढ होती है तथा उत्कृष्टतः अनंतजाती है। उसके ऊपर जो अन्य प्रतर हैं, उनमें क्रमश: प्रदेशी और असंख्यात आकाशप्रदेशों में अवगाढ होती है। अंगुल के असंख्येय भाग की हानि होती चली जाती है तेरह प्रदेशों की स्थापनाऔर लोकांत का स्पर्श करने वाले प्रतर की लम्बाई एक रज्जु रह जाती हैं। ७. रुचकप्रदेश : दिशा-विदिशा का प्रवर्तक ___ तयोर्मध्यभागे जम्बूद्वीपे रत्नप्रभाया बहुसमे भूमिभागे मेरुमध्येऽष्टप्रादेशिको रुचकः । तत्र गोस्तनाकाराश्चत्वार उपरितनाः प्रदेशाश्चत्वारश्चाधस्तनाः । एष एव रुचकः सर्वासां दिशां विदिशां वा प्रवर्तकः, एतदेव च सकल मध्य में एक और चार विदिशाओं में एक-एकतिर्यग्लोकमध्यम् । (नन्दीमत् प ११०) इस प्रकार पांच प्रदेशावगाढ पांच परमाणु तथा चार दिशाओं में आयत रूप में अवस्थित दो-दो परमाणुतिरछे लोक के मध्य में दो क्षुल्लक प्रतर हैं। उनके इस प्रकार जघन्यत: तेरह आकाशप्रदेशों में अवगाढ तेरह मध्य में, जम्बूद्वीप में, रत्नप्रभा के समतल भूमिभाग पर, प्रदेशी स्कंध दस दिशाओं के उत्थान का हेतु है और यही मेरु के मध्य में आठ प्रदेश वाला रुचक है। उस रुचक के द्रव्यदिशा है। चार ऊपर के और चार नीचे के आठों प्रदेश गोस्तन कुछ आचार्य दस परमाणुओं को दस दिशाओं में आकार वाले हैं। यह रुचक सब दिशाओं और विदिशाओं स्थापित कर उन्हें दिशाओं के उत्थान का हेतु मानते हैं, का प्रवर्तक है। यह सम्पूर्ण तिर्यक लोक के ठीक मध्य में जो समीचीन नहीं है, क्योंकि दस दिशाओं का आकार स्थित है। चतुरस्र होता है और वह दस परमाणुओं से संभव नहीं ८. दिशा के प्रकार है । अत: तेरह परमाणु ही दस दिशाओं के उत्थान के निबन्धक हैं, न्यून या अधिक नहीं। नाम ठवणा दविए खेत्तदिसा तावखेत्त पन्नवए । सत्तमिया भावदिसा सा होअट्ठारसविहा उ॥ क्षेत्र विशा (आवनि ८०९) "खेत्तदिसपएसियरुयगाओ मेरुमज्झम्मि । दिशा के सात प्रकार हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य, (विभा २७००) Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोक ५६८ मनुष्यलोक-समयक्षेत्र दुपएसाइ दुरुत्तर एगपएसा अणुत्तरा चेव । दिश्यते नारकादित्वेनास्यां संसारीति दिक । चउरो चउरो य दिसा चउराइ अणुत्तरा दुन्नि ।। (उशाव प २७६) इंदग्गेई जम्मा य नेरई वारुणी अवायव्वा । जिससे या जिसमें पृथ्वी, नारक आदि के रूप में सोमा ईसाणाविअ विमला य तमा य बोद्धव्वा॥ संसारी प्राणियों का व्यपदेश किया जाता है, वह भाव (आवमवृ प ४३८) दिशा है।। मेरु के मध्य में अष्टप्रदेशी रुचक है। इसी से सब ""अद्वारस भावदिसा जीवस्स गमागमो जेसू ।। दिशाएं और विदिशाएं निकलती हैं, जिन्हें क्षेत्रदिशा पुढवि-जल-जलण-वाया मूला-खंध-ग्ग-पोरबीया य । कहा जाता है। बि-ति-चउ-पंचिदिय-तिरिय-नारगा देवसंघाया ॥ रुचक से बाहर चार दिशाओं में से प्रत्येक दिशा के संमूच्छिम-कम्माऽकम्मभूमगनरा तहंतरहीवा। प्रारम्भ में दो-दो प्रदेश निकलते हैं, फिर चार-चार, भावदिसा दिस्सइ जं संसारी निययमेयाहिं ।। छह-छह, आठ-आठ-इस प्रकार दो-दो के क्रम से उनकी (विभा २७०२-२७०४) वद्धि होती जाती है। कर्म के वशीभूत होकर जीव विभिन्न दिशाओं में इसी रुचक से एक-एक आकाशप्रदेश से निष्पन्न भ्रमण करते हैं, वे भावदिशाएं कहलाती हैं। वे अठारह चार विदिशाएं निकलती हैं, जो चार दिशाओं के चार कोणों में होती हैं। इनके प्रदेशों में वृद्धि नहीं होती। १. पृथ्वी १०. त्रीन्द्रिय ऊर्ध्व और अधः दिशा चार-चार आकाशप्रदेशों से २. जल निष्पन्न हैं। इनमें भी वद्धि नहीं होती। ११. चतुरिन्द्रिय ३. अग्नि १२. तिर्यंच पंचेन्द्रिय दस दिशाओं के नाम ये हैं --ऐन्द्री (पूर्व), आग्नेयी, याम्या (दक्षिण), नैऋती, वारुणी (पश्चिम), बायव्या, ४. वायु १३. संमूच्छिम मनुष्य सोमा (उत्तर), ईशानी, विमला (ऊर्ध्व) और तमा ५. मूल १४. कर्मभूमिज मनुष्य ६. स्कंध १५. अकर्मभूमिज मनुष्य (अधः)। ७. अग्रबीज १६. अन्तर्वीपज मनुष्य तापक्षेत्र दिशा ८. पर्वबीज १७. नारक जेसि जत्तो सूरो उएइ तेसिं तई हवइ पुव्वा । ९. द्वीन्द्रिय १८. देव तावक्खित्तदिसाओ पयाहिणं सेसियाओ सि ।। 8. विशाओं के संस्थान (विभा २७०१) ताप - सूर्य के आश्रित दिशा तापक्षेत्र दिशा है। सगडुद्धिसंठिआओ महादिसाओ हवंति चत्तारि । भरतक्षेत्र आदि के निवासी लोगों के जिस दिशा में सूर्य मृत्तावली अचउरो दो चेव य हंति रुअगनिभा । उदित होता है, वह उनके लिए पूर्वदिशा है। सूर्य की (आवमवृ प ४३८) ओर मुंह किए खड़े मनुष्य की दाहिनी ओर दक्षिण, पीठ पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण--ये चार महाकी तरफ पश्चिम तथा बायीं ओर उत्तर दिशा होती है। दिशाए शकटाद्ध सस्था दिशाएं शकटोद्धि संस्थान से संस्थित हैं। चार विदिशाएं प्रज्ञापक दिशा मुक्तावलि संस्थान से तथा ऊर्ध्व और अधः दिशा रुचक __ संस्थान से संस्थित हैं। पण्णवओ जदभिमुहो सा पुव्वा सेसिया पयाहिणओ। (दिशाओं के विस्तृत वर्णन के लिए देखें - आचारांग (विभा २७०२) प्रज्ञापक के आधार पर प्रज्ञापक दिशा होती है। नियुक्ति ४०-६२) वह जिस दिशा के अभिमुख हो सूत्र आदि की व्याख्या १०. मनुष्यलोक-समयक्षेत्र करता है, वह पूर्व दिशा है । शेष दक्षिण आदि दिशाएं हैं। पुष्करवरद्वीपस्य अर्धपुष्करवरदीवडढं तंमि धातकीभावदिशा खंडे य दीवे जंबुद्दीवे य अड्ढाइज्जा दीवा समयखेत्तं । तं ____दिश्यते अयममुकः संसारीति यया सा दिक् भावः- च माणुसुत्तरेणं णगरमिव सव्वतो पागारपरिक्खित्तं । पृथिवीत्वादिलक्षणः पर्यायः । (आवमवृ प ४३९) (आवचू २ पृ २५८) Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य-भाव वन्दना ५६९ वन्दना समयोपलक्षितं क्षेत्र समयक्षेत्रम-अर्द्धतृतीयद्वीप- वन्दना-अभिवादन समुद्राः । (उशावृ प ६७३) १. वन्दना के पर्याय __ जहां समय, आवलिका आदि कालविभाग विद्यमान | २. द्रव्य-भाव वन्दना है, वह समयक्षेत्र कहलाता है । • दृष्टान्त जम्बूद्वीप, धातकीखण्ड एवं अर्धपुष्कर-इन ढाई ३. वन्दनीय की अर्हता द्वीपों की संज्ञा समयक्षेत्र है। इसके चारों ओर नगर के ४. वन्दनीय की पहचान परकोटे की तरह मानूषोत्तर पर्वत की परिधि है। ५. अवन्दनीय कौन ? ११. असंख्य द्वीप-समुद्र ६. वन्दना सूत्र ७कृतिकर्म के प्रकार जंबुद्दीवे लवणे, धायइ-कालोय-पुक्खरे वरुणे । ८. वन्दना के दोष , खीर-घय-खोय-नंदी अरुणवरे कुंडले रुयगे ।। ९. वन्दना का विवेक जंबुद्दीवाओ खलु निरंतरा सेसया असंखइमा । १०. वन्दना के विशेष प्रसंग भुयगवर-कुसवरा वि य, कोंचवराभरणमाईया ।। | ११. बन्दना का प्रयोजन और परिणाम आभरण-वत्थ-गंधे, उप्पल-तिलए य पूढवि-निहि-रयणे। * वन्दना : आवश्यक का एक प्रकार वासहर-दह-नईओ विजया वक्खार-कप्पिदा ॥ (द्र. आवश्यक) कुरु-मंदर-आवासा, कूडा नक्खत्त-चंद-सूरा य । । * वन्दना और स्तुति एकार्थक (द्र. स्तव-स्तुति) | देवे नागे जक्खे, भूए य सयंभुरमणे य॥ (अनु १८५) १. वन्दना के पर्याय जंबूद्वीप, लवणसमुद्र, धातकीखण्डद्वीप, कालोदसमुद्र, वंदणचिइकिइकम्म पूयाकम्म य विणयकम्मं च ।" पुष्करद्वीप, वरुणसमुद्र, क्षीर, घृत, इक्षु, नन्दी, अरुणवर, (आवनि ११०३) कुण्डलवर, रुचकबर-ये सारे द्वीप और समुद्र परस्पर वन्दना के पांच पर्याय - संलग्न हैं तथा रुचकवर से असंख्य द्वीप और समुद्रों के बाद भुजगवर द्वीप है। इसी प्रकार कुसवर, चितिकर्म-कशल कर्म का चय । रजोहरण आदि उपधि क्रौञ्चवर, आभरण आदि द्वीपों के बीच असंख्य का ग्रहण । द्वीप और समुद्रों का व्यवधान है। आभरण, वस्त्र, गंध, कृतिकर्म--अवनाम, आवर्त आदि क्रियाएं । उत्पल, तिलक, पृथ्वी, निधि, रत्न, वर्षधर, द्रह, नदी, पूजाकर्म-प्रशस्त मन, वचन और काय की चेष्टा । विजय, वक्षस्कार, कल्पेन्द्र, कुरु, मन्दर, आवास, कट, विनयकर्म-कर्म का अपनयन । गुरु आदि का विनय । नक्षत्र, चन्द्र, सूर्य, देव, नाग, यक्ष, भूत और स्वयंभू- २. द्रव्य-भाव वन्दना रमण --ये सारे द्वीप और समुद्र हैं। वन्दनकर्म द्विधा-द्रव्यतो भावतश्च । द्रव्यतो मिथ्या(आभरण, वस्त्र आदि पदार्थों के जितने शुभ नाम दष्टेरनुपयुक्तसम्यग्दृष्टेश्च, भावत: सम्यग्दृष्टेरुपयुक्तस्य, हैं, जितने शुभ रूप, रस आदि हैं, उनके सदृश उतने ही चितिकर्मापि द्विधव -द्रव्यतो भावतश्च, द्रव्यतस्तापसादिनाम असंख्य द्वीप-समुद्रों के हैं। देखें-अनुमवृ पत्र ८२) लिङ्गग्रहणकर्मानुपयुक्तसम्यग्दृष्टे रजोहरणादिकर्म च, लोकभावना-पुरुषाकार लोक की विविधता का । भावतः सम्यग्दृष्ट्युपयुक्ता रजोहरणाद्युपधिक्रियेति, कृति कर्मापि द्विधा-द्रव्यतः निह्नवादीनामवनामादिकरणअनुचिन्तन करना, उसमें एकाग्र । मनुपयुक्तसम्यग्दृष्टीनां च । भावतः सम्यग्दृट्युपयुक्तानाहोना। (द्र. अनुप्रेक्षा) मिति । (आवहावृ २ पृ १५) वनस्पतिकाय-छह जीव-निकाय का पांचवां भेद। द्रव्य और भाव के भेद से वन्दना आदि के दो-दो (द्र. जीवनिकाय) प्रकार--- Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वन्दना ५७० वन्दनीय की पहचान द्रव्यवन्दन -मिथ्यादृष्टि और अनुपयुक्त सम्यग्दृष्टि का शीतल ने सोचा- इन्होंने मेरे मन की बात कैसे जान वन्दन । ली? पूछने पर ज्ञात हुआ कि वे चारों केवली हो गए भाववन्दन- उपयुक्त सम्यग्दृष्टि का वन्दन । हैं। आचार्य को मन ही मन अत्यंत पश्चात्ताप हुआ कि द्रव्यचितिकर्म-तापस आदि की लिङ्गग्रहण की क्रिया, मैंने केवलियों की आशातना की है। भावना का प्रकर्ष अनुपयुक्त सम्यग्दृष्टि की रजोहरण उपधि आदि। हुआ, आचार्य चारों केवलियों को वंदना करने लगे। ग्रहण की क्रिया। भाववन्दना के उत्कर्ष से ज्योंही उन्होंने चौथे केवली को भावचितिकर्म-उपयुक्त सम्यग्दष्टि की रजोहरण आदि वन्दना की, वे स्वयं केवली बन गए। ग्रहण की क्रिया। ____एक कायिकी चेष्टा-द्रव्य वंदना बन्धन के लिए द्रव्यकृतिकर्म-निह्नव और अनुपयुक्त सम्यग्दृष्टि की होती है और एक कायिकी चेष्टा-भाव वंदना मोक्ष के अवनाम. आवर्त आदि क्रियाएं । लिए होती है। भावकृतिकर्म --उपयुक्त सम्यग्दष्टि की अवनाम, आवर्त (क्षुल्लक आदि शेष दृष्टांतों के लिए देखें-आवहावृ आदि क्रियाएं । २ पृ १५-१७) दृष्टांत ३. वंदनीय की अर्हता सीयले खुडडए कण्हे सेवए पालए तहा । दसणनाणचरित्ते तवविणए निच्चकालमुज्जुत्ता। पंचेते दिळंता किइकम्मे होंति णायव्वा ।। एए उ वंदणिज्जा जे जसकारी पवयणस्स ।। (आवनि ११०४) आयरिय उवज्झाए पव्वत्ति थेरे तहेव रायणिए । द्रव्य-भाव वन्दना के प्रसंग में पांच दृष्टात हैं- एएसि किइकम्म कायव्वं निज्जरढाए॥ शीतल, क्षुल्लक, कृष्ण, सेवक और पालक । पंचमहव्वयजुत्तो अणलस माणपरिवज्जियमईओ । शीतल आचार्य संविग्गनिज्जरट्री किइकम्मकरो हवइ साह ।। राजपुत्र शीतल प्रवजित हुआ, आगमों का अध्ययन (आवनि ११९३,११९५,११९७) कर आचार्य बन गया। उसकी बहिन के चारों पुत्र अपने ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और विनय की आराधना मातूल की प्रव्रज्या से प्रेरित होकर, स्वयं प्रवजित हो में सतत संलग्न, प्रवचनप्रभावक मुनि बन्दनीय हैं। गए। वे बहुश्रुत होकर अपने मातुल आचार्य के दर्शनार्थ आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर तथा रात्निक प्रस्थित हए । छानबीन करने पर पता चला कि आचार्य मुनि वन्दनीय हैं । अमुक गांव में हैं। जैसे ही वे उस गांव के परिसर में जो मुनि पांच महाव्रतों से युक्त, जागरूक, निरभिपहुंचे, सूर्यास्त हो गया । वे गांव की बहिरिका में ही मान, वैराग्यसम्पन्न और निर्जरार्थी होते हैं, वे कृतिकर्म ठहर गए । संदेशवाहक ने आचार्य शीतल से चारों मूनि के योग्य हैं। भानजों के आगमन की बात कही। वे अत्यंत प्रसन्न समणं वंदिज्ज मेहावी, संजयं सुसमाहियं । हए । चारों मुनि रात्री में धर्मजागरिका कर रहे थे। पंचसमिय तिगुत्तं, अस्संजमदुगुंछगं ।। परिणामों की विशुद्धि बढ़ी और वे चारों ही केवली हो (आवनि ११०६) गए। पांच समितियों और तीन गुप्तियों से युक्त तथा प्रातःकाल हआ। आचार्य प्रतीक्षा में बैठे थे। चारों असंयम से जुगुप्सा करने वाले संयत सुसमाहित श्रमण नहीं पहुंचे, तब आचार्य स्वयं वहां गए । चारों केवली वन्दनीय हैं। मुनियों ने आचार्य को देखा,पर उठे नहीं। आचार्य असमंजस में पड़ गए, पूछा- 'मैं किसको वन्दना करूं?' ४. वन्दनीय की पहचान उन्होंने कहा-जैसी इच्छा। आचार्य ने सोचा-ये शिष्य सुविहिय दुविहियं वा नाहं जाणामि हं ख छउमत्थो । मुनि कितने अविनीत हो गए हैं ? फिर भी आचार्य ने लिंगं तु पूययामी तिगरणसुद्धेण भावेणं ।। उन्हें वन्दना की । केवली मुनि बोले-"आर्य ! द्रव्य- जइ ते लिंग पमाणं वंदाही निण्हवे तुमे सव्वे । वन्दना से क्या प्रयोजन ? भाववंदना करें।" आचार्य एए अवंदमाणस्स लिंगमवि अप्पमाणं ते॥ Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वन्दना सूत्र ५७१ वन्दना जइ लिंगमप्पमाणं न नज्जई निच्छएण को भावो ? | असंयत वन्दनीय नहीं होते, फिर चाहे माता-पिता, दळूण समलिंगं कि कायव्वं तु समणेणं ?॥ गुरु, सेनापति, प्रशास्ता, राजा और देव भी क्यों न अप्पुव्वं दळूणं अब्भुट्ठाणं तु होइ कायव्वं । हो । साहम्मि दिठ्ठपुवे जहारिहं जस्स जं जोग्गं ॥ दसणनाणचरित्ते तवविणए निच्चकालपासत्था । (आवनि ११२२-११२५) एए अवंदणिज्जा जे जसघाई पवयणस्स ।। छद्मस्थ मुनि सुविहित और दुविहित मुनि को नहीं । (आवनि ११९१) जान सकता । इसलिए मन, वाणी और काय की दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और विनय में सदा प्रमाद पवित्रता से लिंग की ही पूजा करनी चाहिए। शिष्य के करने वाले पार्श्वस्थ अवंदनीय हैं । वे प्रवचन की यशोइस कथन पर गुरु ने कहा---यदि लिंग ही प्रमाण है तब गाथा का हनन करने वाले हैं। तो सारे निह्नव भी वंदनीय हो जाएंगे। यदि वे अवंदनीय पार्श्वस्थ के पांच प्रकार हैं, तब लिंग भी अप्रमाण है। पासत्थो ओसन्नो होई कुसीलो तहेव संसत्तो । लिंग अप्रमाण है, भावों को निश्चयपूर्वक जाना नहीं अहछंदोऽविय एए अवंदणिज्जा जिणमयंमि ।। जा सकता, तब श्रमण के लिंग को देखकर क्या करना (आवहावृ २ पृ १८) चाहिए? १. पार्श्वस्थ-अतिचार-अनाचार का सेवन करने इसके समाधान में गुरु ने कहा-पहले जिस मुनि वाला, राजपिण्ड, अग्रपिण्ड, शय्यातर का भोजन को नहीं देखा, उसके आगमन पर अभ्युत्थान अवश्य आदि लेने वाला। करना चाहिए। उद्यतविहारी को वंदना करनी चाहिए, २. अवसन्न-सामाचारी में शिथिल, आलसी । शिथिलाचारी को वंदना नहीं करनी चाहिए । ३. कुशील-विद्या, मंत्र, निमित्त आदि बताने वाला। आलएणं विहारेणं ठाणचंकमणेण य । ४. संसक्त-मूलोत्तर गुणों एवं दोषों-दोनों में संसक्त । सक्को सुविहिओ नाउं भासावेणइएण य॥ ५. यथाच्छन्दक-उत्सूत्र की प्ररूपणा करने वाला, पायं आलयादीहिं लक्खिज्जति सुविहितऽसुविहिता। आगमनिरपेक्ष आचरण करने वाला। जदिवि य कत्थइ न लक्खिज्जति तहवि आगमोवयोगतो ये पांचों प्रकार के साधु जिनमत में अवन्दनीय हैं। पयत्तो सुद्धो चेव । तम्हा आगमोवउत्तेहिं पयत्तेहिं किइकम्मं च पसंसा सूहसीलजणम्मि कम्मबंधाय । सव्वमणुट्टाणमणुसीलणीयं ति एस कप्पो अम्हं ति । जे जे पमायठाणा ते ते उववाहिया हंति ॥ (आवनि ११४८ चू २ पृ ३०,३१) (आवनि ११९२) एकांत स्थान में प्रवास, मासकल्प आदि विहार, पार्श्वस्थ सुखशील होते हैं, उनको कृतिकर्मयथाविधि कायोत्सर्ग, ईर्यासमितिपूर्वक गमन, भाषाविवेक, वन्दना करना तथा उनकी प्रशंसा करना कर्मबंध का आचार्य आदि का विनय-इन लक्षणों से सुविहित साधु कारण है और उससे प्रमादस्थानों का उ होता है। की पहचान हो जाती है। पार्श्वस्थ और कुशील अनायतन हैं। (द्र. आयतन) यदि स्थान, वेश आदि से शुद्ध साधु की पहचान न ६. वन्दना सूत्र हो, तब आगम के निर्देश के अनुसार वंदना आदि प्रवृत्ति करना शुद्ध है। प्रत्येक अनुष्ठान आगमोपयुक्त होकर ___ इच्छामि खमासमणो ! वंदिउं, जावणिज्जाए निसीकरना चाहिए, यह हमारा आचार है। हियाए । अणुजाणह मे मिउग्गहं निसीहि अहोकायं लिंग भी मुनि की पहचान का हेतु है। (द्र. लिंग) कायसंफासं खमणिज्जो भे किलामो । अप्पकिलंताणं बहसुभेण भे दिवसो वइक्कतो? जत्ता भे? जवणिज्ज ५. अवंदनीय कौन ? असंजयं न वंदिज्जा, मायरं पियरं गुरुं । खामेमि खमासमणो ! देवसियं वइक्कम । आवस्सिसेणावई पसत्थारं, रायाणं देवयाणि य ।। याए पडिक्कमामि खमासमणाणं देवसियाए आसायणाए (आवनि ११०५) तित्तीसन्नयराए जं किंचि मिच्छाए मणदुक्कडाए Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वन्दना ५७२ वन्दना के दोष वइदुक्कडाए कायदुक्कडाए कोहाए माणाए मायाए ३. यथाजात (अंजलिपुट को शिर से सटाकर कृतिकर्म लोभाए सव्वकालियाए सव्वमिच्छोवयाराए सव्वधम्मा- करना) इक्कमणाए आसायणाए जो मे अइयारो कओ तस्स ४-१५. बारह आवर्त (सूत्रोच्चारणपूर्वक कायिक खमासमणो ! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं प्रवृत्ति)। वोसिरामि। (आव ३३१) १६-१९. चतुःशिर (शिर से चार बार अवनमन)। क्षमाश्रमण ! मैं संयत निषद्या से संयमपूर्वक बैठकर २०-२२. त्रिगुप्त (मनोगप्त, वचनगुप्त तथा कायगुप्त) । आपको वन्दना करना चाहता हूं। २३,२४. द्विप्रवेश (अवग्रह में दो बार अनुज्ञापूर्वक आप मुझे अपने परिमित अवग्रह में आने की अनुज्ञा प्रवेश। दें। (अनुज्ञा प्राप्त करने के बाद) बैठकर मैं आपके चरण २५. एक निष्क्रमण (अवग्रह में प्रथम प्रवेश के का शिर से स्पर्श करता है। इस स्पर्श में आपको कोई बाद किये जाने वाला निष्क्रमण)। कष्ट हुआ हो तो आप मुझे क्षमा करें। कृतिकर्म : कब ? कितने ? ____ आप कष्टानुभूति से रहित हैं । आपका यह दिन चत्तारि पडिक्कमणे किइकम्मा तिन्नि हुंति सज्झाए । निर्विघ्नरूप में कल्याणकारी प्रवृत्ति में बीता? पुव्वण्हे अवरण्हे किइकम्मा चउदस हवंति ।। आपकी यात्रा-तप, नियम, स्वाध्याय, ध्यान की। गुरुं पुन्वसंझाए वंदित्ता आलोएइत्ति एवं एक्क, प्रवृत्ति-प्रशस्त रही ? अब्भुठ्ठियावसाणे जं पुणो वंदति गुरुं एयं बिइयं," . आपका यमनीय-इन्द्रिय और मानसिक संयम आयरियस्स अल्लिविज्जइ तं तइयं, पच्चक्खाणे चउत्थं । प्रशस्त रहा ? क्षमाश्रमण ! आपके प्रति होने वाले सज्झाए पूण बंदित्ता पठ्ठवेइ पढम, पविए पवेदयंतस्स दिवस-सम्बन्धी व्यतिक्रम के लिए आप मुझे क्षमा बितियं..कालवेलाए वंदिउं पडिक्कमइ, एयं तइयं । करें। (आवनि १२०१ हावृ २ पृ ३५) आपके प्रति अवश्य करणीय कार्य में मेरे द्वारा कोई पूर्वाह्न में सात और अपराह्न में सात-इस प्रकार प्रमाद हुआ हो तो मैं उसका प्रतिक्रमण करता हूं। एक दिन में चौदह कृतिकर्म किए जाते हैं। ___आपकी तेतीस में से कोई एक भी आशातना की हो, प्रतिक्रमण के समय चार कृतिकर्मआपके प्रति यत् किंचित् मिथ्याभाव आया हो या मिथ्या १. आलोचना के समय । व्यवहार किया हो, मन में कोई बुरा विचार आया हो, २. क्षामणा के समय । वचन का दुष्प्रयोग किया हो, काया की दुष्प्रवृत्ति की। ३. आचार्य आदि के आश्रयण-निवेदन के समय । हो, क्रोध, मान, माया और लोभ के आवेश में कोई ४. प्रत्याख्यान के समय । __स्वाध्याय के समय तीन कृतिकर्मअवांछनीय व्यवहार किया हो, सर्वकाल में होने वाली १. स्वाध्याय प्रस्थापन के समय । सर्व मिथ्या उपचारों से युक्त, सब धर्मों का अतिक्रमण करने वाली कोई भी आशातना की हो, उसके विषय में २. स्वाध्याय प्रवेदन के समय । ३. स्वाध्याय के पश्चात् । जो मैंने अतिचार किया हो, हे क्षमाश्रमण ! मैं उसका (कृतिकर्म का विस्तृत वर्णन देखें-समवाओ १२१३ प्रतिक्रमण करता हूं, निंदा करता हूं, गर्दा करता हूं, का टिप्पण) आशातना में प्रवृत्त अपने आपका व्युत्सर्ग करता हूं। ८. वन्दना के दोष ७. कृतिकर्म के प्रकार अणाढियं च थद्धं च, पविद्धं परिपिडियं । दोओणयं अहाजायं किइकम्मं बारसावयं । टोलगइ अंकुसं चेव, तहा कच्छभरिंगियं ।। चउसिरं तिगुत्तं च दुपवेसं एगनिक्खमणं ।। मच्छव्वत्तं मणसा पउ8, तह य वेइयावद्धं । (आवनि १२०२) भयसा चेव भयंतं, मित्ती गारवकारणा ॥ कृतिकर्म के पचीस प्रकार हैं तेणियं पडिणियं चेव, रुठं तज्जियमेव य । १,२. अवनमन सद च हीलियं चेव, तहा विपलिउंचियं । प Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वन्दना के दोष ५७३ वन्दना दिट्रमदिठं च तहा, सिंगं च करमोअणं । दिट्रमदिठं नाम एवं सिग्धं वंदति जथा केणइ दिदो आलिट्ठमणालिजें, ऊणं उत्तरचूलियं ।। केणइ न दिदो। सिंगं नाम सीसे एगेण पासेण वंदति मूयं च ढड्ढरं चेव, चुड्डलिं च अपच्छिमं । अहवा अण्णेहिं साधहि समं संगेण जह वा तह वा बत्तीसदोसपरिसुद्धं, किइकम्मं पउंजई । वंदति । करो नाम एसोवि राणओ करो जह वतह व अणाडियं नाम अणादरेण वंदति । थद्धं अट्टहं अण्ण- समाणेतब्वओ, वेट्ठी एसा न निज्जरत्ति मंणति । मोयणं तरेण मत्तो । पविद्धं वंदणगं देंतओ चेव उठेत्ता नाम न अन्नहा मोक्खो, एतेण पुण दिण्णेण मुश्चामित्ति णासति । परिपिडितं भणति--एतं भे सव्वस्स चेव वंदति । आलिद्धमणालिद्धं रयहरणे य निडाले य किंचि कालप्पगतस्स वंदणगं, अहवा न वोच्छिण्णे आवत्त वंज- आलभति किंचि नालभति, एत्थ चउभंगो, सीसे आलिद्धं णाणि वा करेति, पिंडलओ वा जाहओ वंदति, संकुयओ रयहरणे आलिद्धं, पढमो सुद्धो। ऊणं वंजणेहिं आवस्सउप्पीलणसंपीलणाए वा वंदति । टोलगति टोलो जथा एहिं वा। उत्तरचलिया नाम एतेहिं वंजणेहिं आवस्सएहि उठेत्ता अण्णमण्णस्स मूलं जाति । अंकुसो दुविहो, मूले वंदित्ता भणत्ति-मत्थएण वंदामित्ति । मयं नाम गंडस्स रयहरणं गहाय भणति-निवेस जा ते वंदामि, मयो वंदति न किंचि वि उच्चारेति । महता सट्टेण अहवा दोहिवि हत्थेहिं अंकुसं जथा गहाय भणति - ढड्ढरं । चुडली नाम चुडलं जथा रयहरणं गहाय वंदति, वंदामि । कच्छरिगियं एक्कं वंदित्ता अण्णस्स मूलं रिंगतो अहवा दिग्धं हत्थं पसारेति, भणति-वंदामि, अहवा जाति, ततोवि अण्णस्स मूलं जाति । मच्छुव्वत्तं एक्कं हत्थं भमाडेति, सव्वे बंदामित्ति । छड्डति बितिएण पासें ति परियत्तति रेचका- (आवनि १२०७-१२११ चू २ पृ ४२-४४) वर्तेन । मणसा पदुटठं, सो हीणो केणति, ताहे हियएण कृतिकर्म के ३२ दोष हैंचितेति-एतेण एवग्गतेणं वंदाविज्जामि, अण्णं वा १. अनादत-अनादरपूर्वक वंदना करना । किंचि पओसं वहति । वेदियावद्धं नाम तं पंचविहं- २. स्तब्ध-गर्व से उद्धत हो वन्दना करना । उवरि जाणगाणं हत्थे निवेसितूणं वंदति हेटा वा ३. प्रविद्ध-वन्दना करते-करते बीच में ही भाग जाना। जानूकाणं एगं वा जाणुं अंतो दोण्हं हत्थाणं करेति ४. परिपिडित-१. कालगत सभी मुनियों को मेरी उच्छंगे वा हत्थे कातूणं वंदति । भयसा भएणं वंदना, यह कहते हुए वन्दना करना । २. आवर्त का वंदति, मा निच्छुब्भिहामि संघातो कुलाओ गणाओ विच्छेद न होने पर भी स्तुति करते हए बंदना गच्छाओ खेत्ताओत्ति । भयंत नाम भयति अम्हाणं अम्हेवि करना। ३. घुटनों का स्पर्श करते हुए वंदना पडिभयामोत्ति । मेत्तीए स मम मित्तोत्ति, अहवा मेत्ति करना। ४. झुककर घुटनों का उत्पीडन-संपीडन तेण समं काउं मग्गंति । गारवा नाम जाणंतु ता मम करते हुए वंदना करना। जहेस सामायारीकुसलोत्ति । कारणं नाम सुत्तं वा अत्थं ५. टोलगति-ऊंट जैसे उठकर एक-दूसरे के पास वा वत्थं वा पोत्थगं वा दाहितित्ति कज्जनिमित्तं चला जाता है, वैसे इधर-उधर जाते हुए वंदना वंदति । तेणियं नाम जदि दीसति तो वंदति । अहवा करना अथवा टिड्डी की तरह फुदक-फुदक कर न दीसति अंधकारो वा ताहे न वंदति । पडिणीयं वंदना करना । नाम सण्णभूमं पधाइयं वंदति भोत्तु कामं पट्टितं वा ६. अंकुश-१. रजोहरण को हाथ में लेकर कहनाभणति ---भट्टारगा अवस्स वंदितव्वगा। रुळं रुळं यहां बैठो, मैं तुम्हें वंदना करता हूं, ऐसा कहकर नाम रोसिओ केणति तो धमधमेंतेण हियएण वंदति । वंदना करना । २. दोनों हाथो से अंकुश की भांति तज्जितं नाम भणति–अम्हे तुमं वंदामो, तुमं पुण न रजोहरण को पकड़कर वंदना करना । वाहिज्जसि न वा पसीदसि जथा थूभो, अंगुलिमादीहिं वा ७. कच्छभरिंगित- कछुए की भांति रेंगते हुए वन्दना तज्जतो वंदति । सढं हट्ठस्समत्थो निद्धम्मत्तेण रज्जु- करना। गोज्ज करेति, संघसं करोतीत्यर्थः । हीलितं नमेमि ८. मत्स्योद्वर्त-एक को वन्दन कर मत्स्य की भांति वायगा वंदितुं गणी महत्तरगा जेट्ठज्ज एवमादि । पलि- शीघ्रता से दूसरे मुनि को पार्श्व परिवर्तन कर कंचितं नाम वंदंतो देसरायजणपदविकहाओ करेति । रेचकावर्त की मुद्रा में वन्दन करना। Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वन्दना का विवेक ५७४ वन्दना के दोष ९. मनसा प्रदुष्ट-मन से दूसरे को हीन मानकर २. किसी ने देखा या किसी ने नहीं देखा, इस असूया से वन्दन करना अथवा 'इसको मैं एकान्त प्रकार शीघ्रता से वन्दन करना। में वन्दन करूंगा' ऐसा सोचना ।। २४. शृंग-१. मस्तक के एक पार्श्व से वन्दन करना। १०. वेदिकाबद्ध -१. घटनों पर हाथ रखकर वंदन २. अनेक साधुओं के साथ जैसे-तैसे वन्दन करना। करना। २. घटनों के नीचे हाथ रखकर वंदन २५. राजकर-वन्दना को ऋण मानकर, वेठ मानकर करना। ३. घुटनों के पार्श्व में हाथ रखकर वंदन वन्दन करना, निर्जरा मानकर नहीं। करना। ४. गोद में हाथों को रखकर वंदन करना। २६. मोचन-वंदना किए बिना मोक्ष नहीं मिलता५. एक घटने को दोनों हाथों के बीच रखकर वंदन यह मानकर वन्दन करना। करना। २७. आश्लिष्ट-अनाश्लिष्ट-इसके चार विकल्प हैं११. भय-संघ, कुल, गण, गच्छ तथा क्षेत्र से मुझे कोई १. हाथों से रजोहरण पकड़ हाथों को शिर पर निकाल न दे-इस भय से वन्दन करना। लगाना। १२. भजत् --यह मेरा भक्त है, इस दृष्टि से वन्दन २. केवल रजोहरण पकड़ना, शिर पर नहीं लगाना। करना। ३. हाथों को शिर पर लगाना, रजोहरण को नहीं। १३. मैत्री-यह मेरा मित्र है अथवा मैं इसके साथ ४. न रजोहरण को हाथों से पकड़ना, न शिर पर मित्रता करूं-यह सोचकर वन्दन करना । लगाना । पहला भंग प्रशस्त है शेष अप्रशस्त । १४. गौरव -गौरव के लिए वन्दन करना-यह सोचना २८. न्यून -व्यंजन और 'आवश्यकों' से न्यून । ___कि ये मुझे जानें कि मैं सामाचारी कुशल हूं। २९. उत्तरचूडा वंदन कर 'मस्तक से वंदना करता हूं' इस प्रकार उच्च स्वर से बोलना। १५. कारण -यह मुझे सूत्र, अर्थ, वस्त्र, पुस्तक देगा ---- इस प्रयोजनवश वंदन करना । ३०. मूक-आलापकों का अनुच्चारण करते हुए वंदन करना। १६. स्तन्य-१. अपने आपको गुप्त रखकर चोर की भांति वन्दन करना। २. यदि देखता है तो वन्दन ३१. ढड्ढर-उच्च स्वर से आलापकों को बोलते हुए करता है, अंध- कार के कारण नहीं देखता है तो वंदन करना। वन्दन नहीं करता। ३२. चुडली--किनारे से रजोहरण को पकड़कर, १७. प्रत्यनीक-गुरुओं को संज्ञाभूमि में जाते समय या ___ अलात की भांति घूमाते हुए वंदन करना । अथवा आहार करते समय वंदन करना । हाथ को लंबा पसारकर वंदन करना अथवा हाथों १८. हष्ट-क्रोधावेश में वंदन करना। को घमाते हए 'सवको वंदना करता हं' कहते हए १९. तजित-१. तुम पत्थर की मूर्ति की भांति न प्रसन्न वंदन करना। होते हो और न क्रुद्ध होते हो- इस प्रकार तर्जना है. वन्दना का विवेक करते हुए वन्दन करना। २. अंगुली से तर्जना करते वक्खित्तपराहुत्ते अ पमत्ते मा कया हु वंदिज्जा । हुए वन्दन करना। आहारं च करितो नीहारं वा जइ करेइ॥ २०. शठ-१. शठता से वन्दन करना। २. रोगी होने पसंते आसणत्थे य, उवसंते उवट्ठिए । का बहाना कर सम्यक् वन्दन न करना । अणुन्नवित्तु मेहावी, किइकम्मं पउंजए । २१. हीलित-तिरस्कार करते हुए वन्दन करना। (आवनि ११९८, ११९९) २२. पलिकंचित-वन्दना करते हए विकथा करना। मुनि पीठ पीछे से, क्लांत और अनुपशांत अवस्था में २३. दृष्टादृष्ट-१. आचार्य आदि के न देखने अथवा तथा आहार-नीहार के समय वन्दना न करे। . अंधकार का व्यवधान होने पर वन्दन करना। मेधावी मुनि अनुज्ञा प्राप्त कर कृतिकर्म का प्रयोग Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वन्दना का प्रयोजन और परिणाम ५७५ तब करे, जब वन्दनीय व्यक्ति प्रशांत हो, आसन पर बैठा हो, उपशान्त हो, उपस्थित हो— वन्दना करवाने की स्थिति में हो । १०. वंदना के विशेष प्रसंग उत्तमट्ठे • प्रतिक्रमण, स्वाध्याय और कायोत्सर्ग के समय । • आशातना - विराधना होने पर । पडिकमणे सज्झाए काउसग्गावराहपाहुणए । आलोयणसंवरणे य वंदणयं ॥ O ज्येष्ठ अतिथि साधु के आगमन पर । आलोचना, प्रत्याख्यान और अनशन के समय । - इन विशेष प्रसंगों में वंदना का विधान है । ११. वन्दना का प्रयोजन और परिणाम ० ( आवनि १२०० ) कातव्वं । णी इहलो गट्टताए वंदेज्जा, नो परलोगट्टताए, नो कित्तिवण्णसहसिलो गट्टताए नण्णत्थ निज्जरट्ठताए । विसेसओ नागोत्तमवताए अट्ठविहंपि माणं निहणिऊणं । ( आवचू २३९ ) सीसेण पदे पदे संवेगमावज्जंतेणं नीयागोत्तखवणट्टताए अगोत्तस्स य ठाणस्स फलं हितदए कातूण वंदणगं ( आवचू २ पृ ४९ ) व्यक्ति गुरुजनों को ऐहिक प्रयोजन के लिए वन्दना न करे, पारलौकिक प्रयोजन के लिए वन्दना न करे और न कीर्ति, वर्ण, शब्द और श्लोक की प्राप्ति के लिए वन्दना करे | वह केवल निर्जरा के लिए तथा विशेष रूप से आठ प्रकार के मद का परिहार कर नीच - गोत्र कर्म की क्षीणता के लिए वंदना करे । संवेग रस से परिपूर्ण हो गोत्रातीत अवस्था की प्राप्ति के लिए पुनः पुनः वन्दना करे । वंद एणं नीयागोय कम्मं खवेइ, उच्चगोयं निबंध | सोहग्गं चणं अपsिहयं आणाफलं निव्वत्तेइ, दाहिणभावं च णं जणयइ । ( उ २९।११) वंदना से जीव नीच कुल में उत्पन्न करने वाले कर्मों को क्षीण करता है, उच्च कुल में उत्पन्न करने वाले कर्म का अर्जन करता है। जिसकी आज्ञा को लोग शिरोधार्यं करें वैसा अबाधित सौभाग्य और जनता की अनुकूल भावना को प्राप्त करता है । वर्गणा विणओवयार माणस्स भंजणा पूयणा गुरुजणस्स । तित्थयराण य आणा सुअधम्माराहणाऽकिरिया ॥ ( आवनि १२१५ ) वन्दना की छह निष्पत्तियां१. विनय की आराधना २. अहंकार का नाश ४ अर्हत् आज्ञा का पालन ५. श्रुतधर्म की आराधना ३. गुरुजनों की पूजा ६. मोक्ष की प्राप्ति । fasaम्मं च पसंसा संविग्गजणंमि निज्जरट्ठाए । जे जे विरईठाणा ते ते उवबूहिया हुंति ॥ ( आवनि १९९४ ) शुद्ध साधु को वंदना करने और उसकी प्रशंसा करने से निर्जरा होती है । इससे विरतिस्थानों को प्रोत्साहन मिलता है । वर्गणा - सजातीय वस्तुसमूह | १. वर्गणा का अर्थ २. वर्गणा के भेदों का प्रयोजन कृविकर्ण का दुष्टांत ३. वर्गणा के प्रकार ४. द्रव्यवर्गणा • द्रव्यवर्गणा के प्रकार ५. द्रव्यवर्गणा : गुरुलघु और अगुरुलघु ६. अन्य द्रव्यवर्गणाएं ध्रुव अध्रुव आदि वर्गणाएं ७. अचित्तमहा स्कंध वर्गणा ८. क्षेत्रवर्गणा ९. कालवर्गणा १०. भाववर्गणा १. वर्गणा का अर्थ सजातीयवस्तुसमुदायो वर्गणा, समूहो वर्गः राशि: इति पर्यायाः । (विभामवृ १ पृ २७८) सजातीय वस्तुओं के समुदाय का नाम वर्गणा है । समूह, वर्ग और राशि इसके पर्याय हैं । २. वर्गणा के भेदों का प्रयोजन: कुविकर्ण का दृष्टांत कुइयण्ण गोविसे सोवलक्खणोवम्मओ विणेयाणं । दवावग्गणाहि पोग्गलकार्य पयंसेंति ।। ( विभा ६३२) Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्गणा ५७६ कुइयण्णगाहावइस्स अणेगा गोउलाण वग्गा । तेसि पुण वग्गाण एक्केक्को वग्गो पिहप्पिहं रक्खगाण दिण्णो । ततो तेसि एगभूमीए चरंताणं अण्णवग्गमिलणेणं अतिबहुलत्तणेण य गोणीणं ते गोवाला असंजाणंता मम एसा ण एसा तुब्भंति परोप्परओ भंडणं कुव्वंति । तेसि च भंडण मारणं ताओ गोणीओ सीहवग्घाईहि खज्जंति, grafaeमेसु य पडियाओ भज्जंति मरंति य । ततो तेण कुण एवं दो णाऊण तेसि गोवालाणं असंमोहणिमित्तं एगो कालियाणं वग्गो कओ, एगो नीलियाणं, एगो लोहियाणं, एगी सुक्किलियाणं, एगो सबलाणं वग्गो कतो | एवं सिंगा कि विसेसेऽवि काउं पिहप्पिहं समप्पिया । पच्छा ते गोवा ण संमुच्छंति ण वा कलहिंति । एवं आयरिओ सिस्साणुग्गहणिमित्तं इमाओ चउव्विहाओ वग्गणाओ दंसेति । (आवचू १ पृ ४४,४५) विकर्ण ( कुचिकर्ण) नामक गृहपति के पास अनेक गोकुल थे । उसने गोकुल को अनेक वर्गों में विभक्त कर प्रत्येक वर्ग के संरक्षण के लिए पृथक्-पृथक् ग्वालों की नियुक्ति की । वे सभी अपने-अपने गोवर्ग को एक ही चरागाह में चराने के लिए ले जाते । विभिन्न गोवर्ग की गाएं परस्पर मिल जातीं। गायों की संख्या अधिक होने के कारण वे चरवाहे 'यह गाय मेरी है, तुम्हारी नहीं है, ' इस प्रकार आपस में कलह करने लग जाते। उनके इस कलह के कारण गायों के संरक्षण में प्रमाद होता और उस प्रमाद के कारण सिंह, व्याघ्र आदि हिंस्र पशु गायों को मार डालते अथवा उचित संरक्षण के अभाव में गायें विषम दुर्गों में, खाइयों में गिरकर अंगविहीन हो जातीं या मर जातीं । कुविकर्ण गृहपति को जब यह ज्ञात हुआ, तब उसने उन चरवाहों की असंमूढ़ता के लिए रंगों के आधार पर गायों को बांटकर, भिन्न-भिन्न रंग की गायों के अलग अलग गोवर्ग कर दिये । काली, नीली, लाल, श्वेत और चितकबरी गायें -इस प्रकार समूचे गोकुल को उसने पांच वर्गों में विभक्त कर दिया । उसने गायों के सींगों की आकृतियों को चिह्नित कर चरवाहों को पृथक्पृथक् सौंप दिया। अब वे चरवाहे अपनी गायों को पहचानने में संमूढ नहीं होते, कलह नहीं करते । इसी प्रकार आचार्य भी शिष्यों पर अनुग्रह कर पुद्गलास्तिकाय की सही पहचान कराने के लिए पुद्गल वर्गणाओं के द्रव्यवर्गणा आदि चार प्रकार निर्दिष्ट करते । ३. वर्गणा के प्रकार वर्गणाः सामान्यतश्चतुर्विधा भवन्ति, तद्यथा-- द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्च । ( आवमवृप ५७ ) सामान्य रूप से वर्गणा के चार प्रकार हैं - द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतः और भावतः । ४. द्रव्यवर्गणा एगा परमाणू गुत्तरवढिया तओ कमसो । संखेज्जपएसाणं, संखेज्जा वग्गणा होंति ॥ संखाईआसंखाइयप्पएससमाणाणं । तत्तो तत्तो पुणो द्रव्यवर्गणा अतातपसाण गंतूणं ॥ ( विभा ६३३, ६३४) समस्त लोकाकाश के प्रदेशों पर अवस्थित एकाकी परमाणुओं की एक वर्गणा है । द्विप्रदेशी स्कन्धों की एक वर्गणा है । त्रिप्रदेशी स्कन्धों की एक वर्गणा है । इस प्रकार क्रमशः एक-एक परमाणु की एकोत्तर वृद्धि होने पर संख्यात प्रदेशी स्कन्धों की संख्येय वर्गणाएं हैं। इनमें एक-एक परमाणु की एकोत्तर वृद्धि होने पर असंख्यात प्रदेशी स्कन्धों की असंख्येय और अनंतप्रदेशी स्कन्धों की अनंत वर्गणाएं हैं । द्रव्यवर्गणा के प्रकार ओरालविवाहा रते अभासाणपाणमणकम्मे अह दव्ववग्गणाणं, कमो oraणा के आठ प्रकार हैं१. औदारिक वर्गणा २. वैक्रिय वर्गणा 11 ( आवनि ३९ ) ५. भाषा वर्गणा ६. श्वासोच्छ्वास वर्गणा ७. मनोवर्गणा ८. कार्मण वर्गणा । ३. आहारक वर्गणा ४. तेजस वर्गणा औदारिक शरीर वर्गणा तापदेसिया खंधा एक्कुत्तरियाए परिवुड्ढीए अणते वारे गुणिया ताहे ओरालियसरीरस्स एगा गहणपाउरगा दव्ववग्गणा भवति तावरूविमेत्ते हि खंधेहि ओरालियसरीरं णिप्फज्जति । ( आवचू १ पृ ४६ ) अनन्तानन्त प्रदेशी स्कन्धों में एक-एक प्रदेश की वृद्धि होने पर और उन्हें अनन्त बार गुणित करने पर औदारिक शरीर के ग्रहणप्रायोग्य एक द्रव्यवर्गणा होती है । मात्र उतने स्कन्धों से ओदारिक शरीर निष्पन्न होता है । Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य द्रव्यवर्गणाएं वैक्रिय वर्गणा वेव्वियसरीरं ओरालियसरी रातो जतिवि सुहुमयरागं दीसति तहावि तं बहुतरएहि परमाणु संघायनिप्फण्णे हि खंधे हि निष्फज्जति । घणणिचियत्तणेण य ताओ ओरालियसरीराओ सिढिलखंधनिष्कण्णातो !.... जहा वर सकातो पमाणातो अण्णेण त दुगुणपमाणमेण सिढिलखंधणिफणणेण फुट्टपत्थरादिणा दव्वेण सह तोलिज्माणं घणणिचियत्तणेण खंधाणं डहरयंपि दीसमाणं बहुतरायं तुलति । एवं वेउब्वियसरीरं सुहुमतरागंपि दीसमाणं ओरालियसरी पाउग्गखंधे हितो बहुतरएहिं परमाणुसंघाय निष्फण्णेहि खंधेहिं निप्फज्जति । (आवचू १ पृ ४६, ४७) यद्यपि वैक्रिय शरीर बहुत परमाणुस्कन्धों से निष्पन्न होता है फिर भी वह औदारिक शरीर से सूक्ष्म होता है । इसका निचय बहुत सघन होता है । औदारिक शरीर का पुद्गलनिचय शिथिल होता है उसमें सघनता नहीं होती । एक वज्र को अपने प्रमाण से दुगुने प्रमाण वाले प्रस्तरखण्ड से तोलने पर वज्र का तोल अधिक होता है । वह सघन निचय वाले स्कन्धों से निर्मित होने के कारण छोटा दिखाई देता है। वैक्रिय शरीर के लिए भी यही नियम घटित होता है । ५. द्रव्यवर्गणा : गुरुलघु और अगुरुलघु ओरालि उवि आहारगतेअ गुरुलहू दव्वा । कम्मगमणभासाई, एआइ ५७७ वर्गणा औदारिक, वैक्रिय, आहारक और तैजस- ये चार द्रव्यवर्गणाएं गुरुलघु हैं । कार्मण, मन, भाषा और आनापान ये चार द्रव्यवर्गणाएं अगुरुलघु हैं । ६. अन्य द्रव्यवर्गणाएं अगुरुलहुआ || ( आवनि ४१ ) ओरालियरस गहण पाओग्गा वग्गणा अनंताओ । अग्गहण पाओग्गा तस्सेव तओ अनंताओ || एवमजोग्गा जोग्गा पुणो अजोग्गा य वग्गणाणता । उब्वियाइयाणं नेयं तिविगप्पमेवकेवकं ॥ ( विभा ६३५, ६३६ ) औदारिक शरीर के ग्रहणप्रायोग्य वर्गणाएं अनन्त हैं। उसके अग्रहणप्रायोग्य वर्गणाएं उनसे भी अनन्त हैं । इसी प्रकार वैक्रिय आदि प्रत्येक वर्गणा के तीन-तीन विकल्प बनते हैं--- कर्म वर्गणा से आगे की वर्गणाएं ग्रहण के प्रायोग्य नहीं होतीं। उनमें एक परमाणु की वृद्धि होने पर जघन्य १. अयोग्य २. योग्य और पुनः ३. अयोग्य । ये ध्रुववर्गणा होती । इसी प्रकार एक-एक की वृद्धि होने वर्गणाएं अनन्त हैं । पर अनंत ध्रुववर्गणाएं होती हैं । ध्रुव वर्गणाओं में एकएक परमाणु की वृद्धि होने पर अनंत अध्रुव वर्गणाएं होती हैं । उनमें फिर एक-एक परमाणु की वृद्धि होने पर अनन्त अशून्या- न्तर वर्गणाएं होती हैं । इसी क्रम से अचित्त महास्कंध वर्गणा पर्यंत ज्ञातव्य है । कम्मोवरि धुवेरसुण्णेयरवग्गणा अणंताओ । चवणंतरतणुवग्गणा य मीसो तहाऽचित्तो ॥ ( आवनि ४० ) कर्म वर्गणा के ग्रहण के अयोग्य, उससे अग्रवर्ती वर्गणाएं चौदह हैं१. ध्रुववर्गणा २. अध्रुव वर्गणा ३. शून्यान्तर वर्गणा ४. अशून्यान्तर वर्गणा ५-८. चार ध्रुवानन्तर वर्गणाएं (प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ) ९-१२. चार तनुवर्गणाएं (औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस) १३. मिश्रस्कन्धवर्गणा १४. अचित्तस्कन्धवर्गणा कम्मस्स उवरिल्ला अग्गहणपाउगा दव्ववग्गणा । ताओ एकुत्तरियातो अनंतातो दव्ववग्गणाओ गंता ता अताओ धुववग्गणाओ भवंति । ताओऽवि एकुत्तरियाओ अताओ धुवाओ गंता ताहे अणंताओ अद्भुववग्गणाओ भवति । ताओऽवि एगुत्तरियाओ अनंताओ गंता ताहे अताओ सुन्नंतर वग्गणाओ भवंति । तातोऽवि एकुत्तरियातो अनंताओ गंता ताहे अणंतातो असुण्णंतर वग्गणातो भवंति । चत्तारि ध्रुवणंतराइं चत्तारि सरीरवग्गणातो गंता एत्थ मीसयखंधो भवतित्ति । पच्छा अचित्तमहाखंधो भवति, एवमेयाओ दव्ववग्गणाओ भणियातो । (आवचू १ पृ ४७ ) Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्गणा ध्रुव-अध्रुव आदि वर्गणाएं निच्च होंति धुवाओ इयरा लोए न होंति वि कयाइ । एको वुड्ढी कयाइ सुतराओ वि ॥ जाओ हवंति ताओ सुण्णंतरवग्गण त्ति भण्णंति । निययं निरंतराओ होंति असुण्णंतरा उत्ति ।। ध्रुवणंतराई चत्तारि जं धुवाई अणंतराई च । भयपरिमाणओ जा सरीरजोग्गत्तणाभिमुहा ॥ खंधदुगदेहजोग्गत्तणेण वा देहवग्गणाउ ति । दरगयबायर परिणामो मीसक्खंधो || ( विभा ६३९-६४२) ध्रुव वर्गणाएं सदा नियत होती हैं । अध्रुव वर्गणाएं कभी होती हैं, कभी नहीं भी होतीं। एक-एक परमाणु वृद्धि होने पर शून्यान्तर वर्गणाएं होती हैं । ये निरंतर अनन्त रहती हैं, पर कभी - कभी परमाणुओं की वृद्धि में व्यवधान आ जाता है। इनमें एक-एक परमाणु की वृद्धि होने पर अशून्यान्तर वर्गणाएं होती हैं। ये लोक में निरंतर रहती हैं । इनके परमाणुओं की वृद्धि के क्रम में कभी व्यवधान नहीं आता है । अशून्यान्तर वर्गण के पश्चात् चार ध्रुवानन्तर वर्गणाएं हैं । ये ध्रुव (सर्वकालभाविनी) हैं, अनन्त हैं और इनमें निरन्तर एक-एक परमाणु की वृद्धि होती रहती है । इनका परिणमन अत्यन्त सूक्ष्म होता है और ये प्रचुर द्रव्यों से उपचित हैं, अतः ध्रुववर्गणाओं से भिन्न । चार ध्रुवानन्तर वर्गणाओं के पश्चात् एक-एक परमाणु की वृद्धि से युक्त अनन्त वर्गणात्मक चार तनुवर्गणाएं है । भेद और संघात के परिणमन के द्वारा ये औदारिक आदि चार शरीरों की योग्यता के अभिमुख होती हैं । अथवा जो मिश्र स्कन्ध और अचित्त स्कन्ध के देह- उपचय की योग्यता के अभिमुख वर्गणाएं हैं, वे तनुवर्गणाएं हैं । मिश्रस्कन्ध वर्गणा जो सूक्ष्म परिणमन वाली है, किंचित् स्थूल परिणमन के अभिमुख है और अनन्त अनन्त परमाणुओं से उपचित है, वह मिश्रस्कन्ध वर्गणा है । ७. अचित्त महास्कन्धवर्गणा केवलिउग्घातो इव समयट्ठकपूरए य तियलोगं । अचियत्तमहाखंधो वेला इव अतर नियतो य ॥ ५७८ अचित्त महास्कन्धवर्गणा अत्तिमहाबंध सो लोगमेत्तो वीससापरिणामतो भवति । तिरियमसंखेज्जजोयणप्यमाणो संखेज्जजोयणमाणे वा अणियतकालोथाई वट्टो । उड्ढअधोचोहसर - ज्जुप्पमाणे सुमपोग्गलपरिणामपरिणतो पढमसमए दंडो भवति, बितिए कवाडं ततिए मत्थंकरणे चउत्थे लोगपूरणं । पंचमादि समसु पडिलोमसंथारे अट्ठमए सव्वहा तस्स खंधत्तविणासो । एस जलनिहिवेला इव लोगापूरणसंहारकरणठितो लोग पुग्गलाणुभावो सव्वष्णूवयणतो सद्धेतो । ( अनुचू पृ ३३, ३४) अचित्तमहास्कन्ध केवलिसमुद्घात की तरह आठ समय में तीनों लोकों को आपूरित करता है। यह समुद्रवेला की तरह दुस्तर, विशाल एवं नियत है । वह अचित्तमास्कन्ध लोकप्रमाण और स्वाभाविक परिणमन से होता है । तिरछे लोक में यह असंख्येय होता है। इसके होने का काल नियत नहीं है । ऊर्ध्व लोक योजन प्रमाण अथवा संख्येय योजन प्रमाण में वृत्ताकार और अधोलोक में यह चौदह रज्जु प्रमाण सूक्ष्म पुद्गल परिणाम में परिणत हो प्रथम समय में दण्डाकार होता है । दूसरे समय में कपाट और तीसरे समय में मंथान के आकार में होता है । चौथे समय में पूरे लोक में व्याप्त हो जाता है। अंतिम चार समयों में प्रतिलोम-क्रम से पांचवें समय में मंथान, छठे समय में कपाट, सातवें समय में दण्ड तथा आठवें समय में सर्वथा उस स्कन्ध का विनाश हो जाता है । वह समुद्र -ज्वार की तरह लोक को आपूरित करता है और फिर संकुचित हो जाता है । यह लोकवर्ती पुद्गलों का अनुभाव -सामर्थ्य है । यह सर्वज्ञ वचन से श्रद्धेय है । जइणसमुग्धायगईए चउहि समयेहिं पूरणं कुणइ । लोगस्स तेहि चेव य संहरणं तस्स पडिलोमं । जइणसमुग्धायस चित्तकम्मपोग्गलमयं महाखंधं । पर तस्समाणुभावो होइ अचित्तो महाखंधो ॥ (विभा ६४३, ६४४) अचित्तमहास्कन्ध अपनी स्वाभाविक परिणति से केवली समुद्घात की तरह चार समयों में लोक को आपूरित करता है । चार समयों में प्रतिलोम क्रम से उसका संहरण होता है । केवलिसमुद्घात के समय कर्मपुद्गलमय महास्कंध जीव से अधिष्ठित होने के कारण सचित्त होता है । पुद्गलमय महास्कंध अचित्तमहास्कंध कहलाता है । Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाववर्गणा वर्गणा यह उस सचित्त महास्कन्ध के समान क्षेत्र, काल और अनुभाव वाला होता है। चतुर्थे समय द्वावपि लोकक्षेत्र व्याप्नुतः, अष्टसामयिकं च कालं द्वावपि तिष्ठतः वर्णपञ्चक-गन्धद्वयरसपञ्चक-स्पर्शचतुष्टयलक्षणगुणयुक्तौ च द्वावपि भवतः । (विभामवृ पृ २८२) अचित्तमहास्कन्ध और सचित्तमहास्कन्ध-दोनों का क्षेत्र है--संपूर्ण लोकाकाश-चतुर्थ समय में ये पूरे लोक में व्याप्त हो जाते हैं। दोनों का स्थितिकाल हैआठ समय । दोनों में पांच वर्ण, दो गंध, पांच रस और चार स्पर्श (शीत, उष्ण, स्निग्ध, रूक्ष) होते हैं। सव्वक्कोसपएसो एसो केई, न चायमेगंतो। उक्कोसपएसो जमवगाहट्ठिइओ चउट्ठाणो।। अट्रप्फासो य जओ भणिओ, एसो य जं चउप्फासो। अण्णे वि तओ पोग्गलभेया संति त्ति सद्धेयं ।। (विभा ६४५, ६४६) कुछ यह मानते हैं कि यह अचित्तमहास्कन्ध सर्वोत्कृष्ट संख्यक परमाणुओं से प्रचित है यह कथन एकांत सत्य नहीं है, क्योंकि पण्णवणा में उत्कृष्टप्रदेशी स्कन्धों को अवगाहना और स्थिति की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित बताया गया है। वहां उत्कृष्टस्कन्ध को अष्टस्पर्शी और और यहां अचित्तमहास्कन्ध को चतुःस्पर्शी कहा गया है। इससे ज्ञात होता है कि पुद्गलास्तिकाय इतना ही नहीं है। पुद्गल के अन्य भेद भी हैं, जो यहां संगृहीत नहीं ८. क्षेत्रवर्गणा एगपएसोगाढाण वग्गणेगा पएसवड्ढीए । संखेज्जोगाढाणं संखेज्जा वग्गणा तत्तो । तत्तो संखाईयाऽसंखाईयप्पएसमाणाणं । गंतुमसंखेज्जाओ जोग्गाओ कम्मुणो भणिया । . तत्तो संखाईया तस्सेव पुणो हवंतऽजोग्गाओ। माणसदव्वाईण वि एवं तिविगप्पमेक्कक्कं ॥ (विभा ६४७-६४९) ० एक प्रदेश में अवगाढ पुद्गलस्कन्धों की एक वर्गणा होती है। दो प्रदेशों में अवगाढ पुद्गलस्कन्धों की एक वर्गणा है। इस प्रकार क्रमश: एक-एक प्रदेश की वृद्धि होने से संख्येय प्रदेशों में अवगाढ पूदगलस्कन्धों की संख्येय वर्गणाएं होती हैं। . असंख्येय प्रदेशों में अवगाढ पुदगलस्कन्धों की असंख्येय वर्गणाएं होती हैं। असंख्येय प्रदेशों में अवगाढ वर्गणाएं ही कर्म के योग्य होती हैं । ० कर्मवर्गणा के अवगाढ क्षेत्र में एक-एक आकाश-प्रदेश की वृद्धि होने पर उनमें अवगाढ वर्गणाएं कर्म के अग्रहण योग्य हो जाती हैं । मन के अग्रहण योग्य वर्गणाएं भी असंख्य हैं। इसी प्रकार आनापान, भाषा, तेजस, आहारक, वैक्रिय और औदारिक के अयोग्य, योग्य और अयोग्य वर्गणाओं के क्षेत्र की अपेक्षा से तीन-तीन विकल्प बनते हैं। ६. कालवर्गणा नेगम ववहाराणं आण पुग्विदम्बाई लोगस्स कतिभागे एगा समयठिईणं संखेज्जा संखसमयठिइयाणं । होज्जा ?......"एकदव्वं पडुच्च लोगस्स..."असंखेज्जेसु होति असंखेज्जाओ तत्तो असंखेज्जसमयाणं ।। भागेसु वा होज्जा, देसूणे लोए वा होज्जा। (अनु १६८) (विभा ६५०) महखंधापुन्नेवी अव्वत्तब्बगअणणुपुग्विदम्बाई । एक समय की स्थिति वाले परमाणु स्कन्धों की एक देसोगाढाई तहे सेणं स लोगूणो ॥ वर्गणा होती है। एक-एक समय की वद्धि होने से संख्यात (अनुचू पृ ३२) समय की स्थिति वाले पुद्गलों की संख्येय और असंनैगम-व्यवहारनय सम्मत आनुपूर्वी द्रव्य देशोन। ख्यात समय की स्थिति वाले पुद्गलों की असंख्येय (कुछ न्यून) लोक में व्याप्त होते हैं । वर्गणाएं होती हैं। अचित्तमहास्कन्ध की अपेक्षा एक आनुपूर्वी द्रव्य पूरे १०. भाववर्गणा लोक में व्याप्त होता है। यहां देशोन लोक कहने का तात्पर्य है कि लोक के देश-एक प्रदेश और द्विप्रदेश में एगा एगगुणाणं एगुत्तरवृढिया तओ कमसो। अनानुपूर्वी और अवक्तव्य द्रव्य रहते हैं। देश-लोक में संखेज्जगुणाण तओ संखेज्जा वग्गणा होति । उनकी प्रधानता की विवक्षा से आनपूर्वी द्रव्य को देशोन संखाईयगुणाणं संखाईया य वग्गणा तत्तो। लोक में अवगाढ कहा गया है। होंति अणंतगूणाणं दवाणं वग्गणाऽणंता ।। Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाद वण-रस-गंध-फरसाण होंति वीसं समासभेएणं । गुरुलहु-अगुरुलहूणं बायर - सुहुमाण दो वग्गा ॥ (विभा ६५१-६५३) एक गुण (वर्ण, गंध, रस, स्पर्श) वाले परमाणुओं और स्कंधों की एक वर्गणा होती है। एक-एक गुण की वृद्धि होने पर संख्येय गुण वाले द्रव्यों की संख्येय वर्गणाएं, असंख्येय गुण वाले द्रव्यों की असंख्येय वर्गणाएं और अनन्त गुण वाले द्रव्यों की अनन्त वर्गणाएं होती हैं । संक्षेप में भाव वर्गणा के बीस प्रकार हैं- पांच वर्ण, दो गंध, पांच रस और आठ स्पर्श – इनमें से प्रत्येक की एक गुण वाले द्रव्य की एक वर्गणा यावत् अनन्त गुण वाले द्रव्यों की अनन्त वर्गणाएं हैं । गुरुलघुपर्याय वाले स्थूलपरिणामी द्रव्यों की एक वर्गणा है । अगुरुलघु पर्याय वाले सूक्ष्मपरिणामी द्रव्यों की एक वर्गणा है । इस प्रकार इन दो वर्गों में संपूर्ण पुद्गला - स्तिकाय का समावेश हो जाता है । वर्धमान - अवधिज्ञान का एक प्रकार जो उत्पत्तिकाल से क्रमशः बढ़ता जाता है । वस्त्र - कपास आदि के तंतुओं से निर्मित पट । ( द्र. सूत्र ) वाचना-पढ़ाना, सूत्र व अर्थ प्रदान करना । स्वाध्याय का एक भेद । ( द्र. स्वाध्याय) वाचनाचार्य -वाचना देने वाले आचार्य या ( द्र आचार्य) उपाध्याय । वाद-मत, दर्शन । १. क्रियावाद २. अक्रियावाद विनयवाद ३. ४. अज्ञानवाद ५. ज्ञानवाद ६. ज्ञान-क्रियावाद ० ० ५८० अंध और पंगु का दृष्टान्त मार्गज्ञ, नर्तकी और तैराक का दृष्टान्त कूर्म का दृष्टान्त ० दीपक का दृष्टान्त १. क्रियावाद - क्रियां - अस्ति जीव इत्यादिरूपां सदनुष्ठानात्मिकां ( उशावृ प ४४७) वा । अक्रियावाद क्रियावाद का अर्थ है - आत्मा के अस्तित्व का स्वीकरण और सत् अनुष्ठान का आचरण । क्रियावादिनो नाम येषामात्मनोऽस्तित्वं प्रत्यविप्रतिपत्तिः, किन्तु स विभुरविभुः कर्त्ताऽकर्त्ता क्रियावानितरो मूर्तिमानमूर्तिरित्येवमाद्याग्रहोपहृत प्रीतयस्ते । ( उशावू प ४४३ ) क्रियावादी आत्मा का अस्तित्व मानते हैं । किन्तु वह व्यापक है या अव्यापक, कर्त्ता है या अकर्त्ता, क्रियावान् है या अक्रियावान्, मूर्त है या अमूर्त – इसमें उन्हें विप्रतिपत्ति रहती 1 ( क्रियावादी जीव का अस्तित्व मानते हैं । उसका अस्तित्व मानने पर भी वे उसके विषय में एकमत नहीं हैं । कुछ जीव को सर्वव्यापी मानते हैं, कुछ उसे अ-सर्वव्यापी मानते हैं । कुछ मूर्त मानते हैं, कुछ अमूर्त्त । कुछ उसे अंगुष्ठ जितना मानते हैं और कुछ श्यामाक तंदुल जितना । क्रियावाद के चार फलित होते हैं - १. आस्तिकवाद २. सम्यग्वाद ३. पुनर्जन्मवाद ४. कर्मवाद । देखें सूयगडो १।१२।१ का टिप्पण ) २. अक्रियावाद ये पुनरिहाक्रियावादिनस्तेषामात्मैव नास्ति, न चावक्तव्यः शरीरेण सहैकत्वान्यत्वे प्रति, उत्पत्त्यनन्तरप्रलयस्वभावको वा तस्मिन्ननिणिक्ते च कर्तृत्वादिविशेषमूढा एव । अक्रियां नास्त्यात्मेत्यादिकां मिथ्यादृक्परिकल्पिततत्तदनुष्ठानरूपां वा । ( उशावृ प ४४३, ४४७) जो आत्मा के अस्तित्व को नहीं मानते वे अक्रियावादी हैं । कई अक्रियावादी आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं परन्तु " आत्मा का शरीर के साथ एकत्व है या अन्यत्व - यह नहीं कहा जा सकता" - ऐसा मानते हैं। कई अक्रियावादी आत्मा की उत्पत्ति के अनन्तर ही उसका प्रलय मानते हैं । अक्रियावाद का एक अर्थ है - मिध्यादृष्टि द्वारा परिकल्पित अनुष्ठान ( नास्ति के आधार पर अक्रियावाद की व्याख्या के चार फलित हैं - १. आत्मा का अस्वीकार । २. आत्मा के कर्तृत्व का अस्वीकार । ३. कर्म का अस्वीकार । ४. पुनर्जन्म का अस्वीकार । अक्रयावादी को Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान-क्रियावाद ५८ १ नास्तिकवादी, नास्तिकप्रज्ञ, नास्तिकदृष्टि कहा गया है । देखें सूयगडो १।१२।१ का टिप्पण ) ३. विनयवाद वैनयिकवादिनो नाम येषां सुरासुरनृपतपस्विकरितुरगहरिण - गोमहिष्यजाविकश्व शृगालजलचरकपोतकाकोलूकचकप्रभृतिभ्यो नमस्कारकरणात् क्लेशनाशोऽभिप्रेतो विनयाच्छु यो भवति नान्यथेत्यध्यवसिताः । ( उशावृ प ४४४ ) जो विनय से ही मुक्ति मानते हैं, वे विनयवादी हैं । उनकी मान्यता है कि देव, दानव, राजा, तपस्वी, हाथी, घोड़ा, हरिण, गाय, भैंस, शृगाल आदि को नमस्कार करने से क्लेश का नाश होता है । विनय से कल्याण होता है, अन्यथा नहीं । (विनयवाद का मूल आधार है- विनय । विनयवादियों का अभिमत है कि सबके प्रति विनम्र होना चाहिए । विनयवादियों के बत्तीस प्रकार निर्दिष्ट हैंदेवता, राजा, यति, ज्ञाति, स्थविर, कृपण, माता, पिता-इन आठों का मन से, वचन से, काया से और दान से विनय करना । देखें – सूयगडो १।१२।१ का टिप्पण) ४. अज्ञानवाद अज्ञानवादिनस्त्वाहु:-अपवर्गं प्रत्यनुपयोगित्वात् ज्ञानस्य । केवलं कष्टं तप एवानुष्ठेयं, न हि कष्टं विनेष्ट सिद्धिः । ( उशावृ प ४४४ ) जो अज्ञान से ही सिद्धि मानते हैं, वे अज्ञानवादी हैं । उनकी दृष्टि में ज्ञान स्वर्ग की प्राप्ति में अनुपयोगी और अकिंचित्कर है। केवल कष्टप्रद तप का ही अनुष्ठान करना चाहिए। कष्ट के बिना इष्टसिद्धि नहीं होती । ( अज्ञानवाद का आधार है -अज्ञान । अज्ञानवाद में दो प्रकार की विचारधाराएं संकलित । कुछ अज्ञानवादी आत्मा के होने में संदेह करते हैं। उनका मत है, आत्मा है तो भी उसे जानने से क्या लाभ ? दूसरी विचारधारा के अनुसार ज्ञान सब समस्याओं का मूल है, अत: अज्ञान ही श्रेयस्कर है । देखें - सूयगडो १।१२।१ का टिप्पण) क्रियावाद के १८०, अक्रियावाद के ८४, अज्ञानवाद के ६७ तथा विनययवाद के ३२ - इस प्रकार प्रावादुकों के ३६३ भेद हैं । (देखें - नन्दीहावृ पृ ७७-७९) ५. ज्ञानवाद इहमेगे उ मन्नन्ति, अप्पच्चक्खाय पावगं । आयरियं विदित्ताणं सव्वदुक्खा विमुच्चई ॥ भणंता अकरेन्ता य, बंधमोक्खपइण्णिणो । वायावी रियमेत्तेण, समासासेन्ति अप्पयं ॥ न चित्ता तायए भासा, कओ विज्जाणुसासणं ? विसन्ना पावकम्मेहि, बाला पंडियमाणिणो ॥ वाद इस संसार में कुछ लोग ऐसा मानते त्याग किए बिना ही आचार को जानने सब दुःखों से मुक्त हो जाता है । 'ज्ञान से ही मोक्ष होता है' जो ऐसा कहते हैं, पर उसके लिए कोई क्रिया नहीं करते, वे केवल बन्ध और मोक्ष के सिद्धान्त की स्थापना करने वाले हैं, केवल वाणी की वीरता से अपने आपको आश्वासन देने वाले हैं । पढमं नाणं तओ दया, एवं अन्नाणी कि काही, किंवा विविध भाषाएं त्राण नहीं होतीं। विद्या का अनुशासन भी कहां त्राण देता है ? (जो इनको त्राण मानते हैं, वे ) अपने आपको पंडित मानने वाले अज्ञानी मनुष्य प्रायः कर्मों द्वारा विषाद को प्राप्त हो रहे हैं । ६. ज्ञान-क्रियावाद ( उ ६ ८-१० ) हैं कि पापों का मात्र से जीव पहले ज्ञान फिर दया - इस प्रकार सब मुनि स्थित होते हैं। अज्ञानी क्या करेगा ? वह क्या जानेगा क्या श्रेय है और क्या अश्रेय ? हयं नाणं कियाहीणं, पासंतो पंगुलो दड्ढो, चिट्ठइ सव्वसंजए । छेय - पावगं ॥ नाहिइ (द ४|१० ) जहा खरो चंदणभारवाही, भारस्स भागी न हु चंदणस्स । एवं खु नाणी चरणेण हीणो, नाणस्स भागी न हु सोग्गईए ॥ हया अन्नाणओ किया ॥ धावमाणो य अंधओ ॥ ( आवनि १००, १०१ ) चन्दन का भार ढोने वाला गधा केवल भार का भागी होता है, चन्दन की सुगन्ध का नहीं । उसी प्रकार चरित्रहीन ज्ञानी केवल जान लेता है, सद्गति को प्राप्त नहीं कर सकता । आचारहीन ज्ञान पंगु है और ज्ञानहीन आचार अंधा है। पंगु आग को देखता हुआ भी जल जाता है। Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाद ५८२ मार्गज्ञ, नर्तकी और तैराक का दृष्टांत और अंधा दौड़ता हुआ भी आग की चपेट में आ जाता जाऊं? मैं तुम्हें दूर तक मार्ग दिखाने में समर्थ हैं, किन्तु मैं पंगु हूं, इसलिए तुम मुझे अपने कंधे पर बिठाओ। मैं सर्प, कांटे, अग्नि आदि सभी बाधाओं अंध और पंगु का दृष्टान्त से दूर रखते हुए सुखपूर्वक तुम्हें नगर में पहुंचा दूंगा। एगंमि महाणगरदाहे अंधलगपंगुलगा दो अणाहा। अंधे ने पंग के प्रस्ताव को स्वीकार किया। उसने पंग णगरजणे जलणसंभमुब्भंतलोयणे पलायमाणे पंगुलओ को अपने कंधे पर बिठाया। पंग के पास दष्टि थी और गमणकिरियाऽभावातो जाणतोऽवि पलायणमग्गं कमागतेण अंधे के पास पैर थे। दोनों मिलकर कुशलता से नगर में अग्गिणा दड्ढो, अंधोऽवि गमणकिरियाजुत्तो पलायण- पहंच गए । मग्गमजाणतो तुरितं जलणतेण गंतुं अगणिभारयाए संजोगसिद्धीइ फलं वयंति, न ह एगचक्केण रहो पयाइ । खाणीए पडिऊण दड्ढो। (आवचू १ पृ ९६) अंधो य पंगू य वणे समिच्चा, ते संपउत्ता नगरं पविट्ठा ॥ एक महानगर में आग लग गई । वहां दो अनाथ णाणं पयासगं, सोहगो तवो संजमो य गुत्तिकरो । व्यक्ति रहते थे । एक पंगु और दूसरा अंधा । अग्नि से तिण्डंपि समाजोगे, मोक्खो जिणसासणे भणिओ ॥ भयभीत हुए नागरिक जन अपने-अपने बचाव के लिए (आवनि १०२,१०३) दौड़ने लगे । पंगु व्यक्ति उन्हें दौड़ते हुए देख रहा था, __दो का संयोग मिलने पर ही कार्य की निष्पत्ति पर वह दौड़ने में असमर्थ था। वह बचाव का रास्ता होती है। एक चक्के से रथ नहीं चलता । जंगल में अंधा जानता था, पर पंगु होने के कारण चल नहीं सका । वह और पंगु मिल गए तो परस्पर के सहयोग से नगर में आग में जल गया। अंधा व्यक्ति दौड़ता हआ अग्निकुंड में जा गिरा। वह बचाव का मार्ग देख नहीं पा रहा प्रविष्ट हो गए। ज्ञान प्रकाश देता है । तप शोधन करता है और . एगंमि रन्ने राजभएण णगराओ उव्वसिय लोगो संयम निरोध करता है। इन तीनों का सम्यक योग होने ठितो। पूणोवि धाडिभएण पवहणाणि उझिय पलाओ। पर हा माक्ष होता है। तत्थ दुवे अणाहप्पाया अंधो पंगू य उज्झिता। लोगग्गिणा मार्गज्ञ, नर्तकी और तैराक का दृष्टांत य वणदवो लग्गो । ते य भीता । अंधो छटकच्छो अग्गि नाण सविसयनिययं न नाणमित्तेण कज्जनिप्फत्ती । तेण पलायति । पंगुणा भणितं-अंधा ! मा इतो नास । मग्गण्णू दिळेंतो होइ सचिट्ठो अचिट्ठो य ॥ णणु इतोप्पेव अग्गि । सो आह- कतो पूण गच्छामि ? आउज्जनट्टकुसलावि नट्टिया तं जणं न तोसेइ । पंगू भणति- अहं मग्गदेसणासमत्थो पंगू । ता में खंधे जोगं अजंजमाणी निदं खिसं च सा लहइ ॥ करेहि जेण अहिकंटकजलणादिअवाए पग्हिरावेतो सुहं जाणतोऽवि य तरिउ काइयजोगं न जंजइ नईए । णगरं पावेमि । तेण तहत्ति पडिवज्जितं । अणुद्वितं सो वुज्झइ सोएणं एवं नाणी चरणहीणो। पंगूवयणं । गता य खेमेण दोवि णगरं।। (आवनि ११४३,११४४,११४६) (आवचू १ पृ ९६) ज्ञान का अपना निश्चित विषय है। उसकी सीमा कुछ लोग राजभय से नगर छोड़ जंगल में जाकर है। मात्र ज्ञान से कार्य निष्पन्न नहीं होता। दृष्टांत की रहने लगे । वहां एक बार डकैतों ने हमला किया। डकैतों भाषा में कहा गया-मार्ग को जानने वाला यदि सचेष्ट के भय से वे अरण्यवासी अपने वाहनों को छोड़कर जान है तो वह लक्ष्य तक पहुंच जाता है और यदि सचेष्ट बचाने के लिए भागे। दो अनाथ व्यक्ति वहीं रह गए। नहीं है तो एक चरण भी आगे नहीं बढ़ पाता। जंगल में लोगों द्वारा आग जलाई गई थी। हवा के योग से उसने दावानल का रूप ले लिया। वे दोनों भयभीत वाद्यकला और नृत्यकला में कुशल नर्तकी जब तक हुए। अंधा व्यक्ति जंगल को छोडकर अग्नि की ओर नृत्य नहीं करती, तब तक वह लोगों को संतुष्ट नहीं कर दौड़ा। पंगु ने कहा-ओ अंधे ! इधर मत जाओ। सकती। अपितु वह निंदा और अवहेलना को ही प्राप्त आगे अग्नि है। अंधे ने पूछा-तो फिर मैं किधर होती है । Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपक का दृष्टां तैरने की विद्या को जानता हुआ तैराक यदि तैरने के लिए नदी में अपने हाथ-पांव नहीं फैलाता है तो वह प्रवाह में बह जाता है, वैसे ही चरित्रहीन ज्ञानी पुरुष लक्ष्य को नहीं पा सकता । कर्म का दृष्टांत आण्णाणी कुम्मी पुणो निमज्जेज्ज न उ मतं नाणी । सक्किरियापरिहीणो बुड्डइ नाणी जहन्नाणी ॥ नेच्छयनयमएण वा अन्नाणी चेव सो मुणंतो वि । नाणफलाभावाओ कुम्मो व निबुड्डइ भवोहे ॥ ( विभा १९५०, ११५१) जाता है, वैसे ही भवसागर में डूब जैसे अज्ञानी कछुआ जल में डूब सत्क्रिया से परिहीन ज्ञानी मनुष्य भी है। ज्ञान का फल है-आचार - क्रिया । जो जानता हुआ भी क्रिया नहीं करता, वह अज्ञानी है—यह निश्चय न का अभिमत है । तह नाणदीवविमलं संजम संवरियमुहं दीपक का दृष्टान्त असहाय मसोहिकरं नामिह पगासमेत्तभावाओ । सोइ घरकयारं जह सुपगासो विन पईवो ॥ न य सव्वविसोहिकरी किरिया वि जमपगासधम्मासा । जह न तमोगेहमलं नरकिरिया सव्वहा हरइ ॥ दीवाsपयासं पुण सक्किरियाए विसोहियकारं । संवरियsयारागमदारं सुद्धं घरं होइ ॥ तवकिरियासुद्ध कम्मयकयारं । हो सुविसुद्धं ॥ ( विभा ११७०-११७३) प्रकाशवान् प्रदीप घर की शुद्धि नहीं कर सकता, वैसे ही मात्र प्रकाश स्वभाव वाला अकेला ज्ञान आत्मशोधन नहीं कर सकता। घर में अंधेरा होने पर केवल परिमार्जन की क्रिया से शुद्धि नहीं हो सकती, वैसे ही अप्रकाशधर्मा क्रिया मात्र से आत्मशोधन सम्भव नहीं है । जीवघरं ५८३ दीपक का प्रकाश हो, परिमार्जन की क्रिया हो और रजकण आने के द्वार बंद हों तो घर पूर्णतः शुद्ध हो जाता है । इसी प्रकार ज्ञानदीप प्रज्वलित हो, तप अनुष्ठान से संचित कर्ममल क्षीण हो और संयम से नये कर्मप्रवेश के द्वार संवृत हों तो आत्मगृह की पूर्ण शोधि होती है । ( तप और संयम चारित्र के ही दो रूप हैं ।) वासुदेव निच्छयमवलंबता निच्छयओ निच्छ्यं अणायंता । नासंति चरणकरणं बाहिरकरणालसा केइ || केचिदिदं चाङ्गीकुर्वन्ति यदुत परिशुद्धपरिणाम एव प्रधानो नतु बाह्यक्रिया, एतच्च नाङ्गीकर्त्तव्यं यतः परिणाम एव बाह्य क्रियारहितः शुद्धो न भवतीति, ततश्च निश्चय व्यवहारमतमुभयरूपमेवाङ्गीकर्त्तव्यमिति । (ओनि ७६१ वृप २२२) कुछ ऐसा मानते हैं कि 'मोक्षमार्ग में शुद्ध परिणाम ही प्रधान है, वैयावृत्त्य आदि बाह्य क्रियाएं आवश्यक नहीं हैं । यह कथन ठीक नहीं है । बाह्य क्रियारहित होने मात्र से परिणाम शुद्ध नहीं होते । निश्चयनय और व्यवहारनय – इन दोनों का अवलम्बन अपेक्षित है । केवल निश्चयनय का अवलम्बन लेकर बाह्यकरण में आलसी बने हुए मुनि अपने चारित्र को नष्ट कर देते हैं । वे वस्तुतः निश्चय को नहीं जानते । वायुकाय - वे जीव जिनका वायु ही है शरीर । जीवनिकाय का चौथा भेद । ( द्र. जीवनिकाय) वासुदेव - अर्धभरत क्षेत्र (तीन खंड) के अधिपति, बलदेव के छोटे भाई । १. वासुदेव - बलदेव : एक परिचय २. वासुदेव का वर्ण, निदान आदि ३. वासुदेव का बल ४. त्रिपृष्ठ वासुदेव * * वासुदेव चक्रवर्ती कब ? वासुदेव का क्रम वासुदेव बलदेव एक लब्धि वासुदेव बलदेव : भव्य १. वासुदेव बलदेव : एक परिचय नाम * } (द्र. चक्रवर्ती) ( द्र. लब्धि) (व्र लब्धि ) तिविट्ठू अदिविट्ठू सयंभू पुरिसुत्तमे पुरिससी हे । तह पुरिसपुंडरीए दत्ते नारायणे कहे ॥ अयले विजये भद्दे सुप्पभे अ सुदंसणे । आणंदे णंदणे पउमे रामे आवि अपच्छिमे || ( आवभा ४०, ४१ ) Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वासुदेव अवगाहना गोत्र नगर ढोधणूसीई सत्तरि सट्ठी अ पण्ण पणयाला । अउणत्तीसं च धणू छब्वीसा सोलस दसेव ॥ बलदेववासुदेवा अट्ठेव हवंति गोयमसगुत्ता । नारायणपउमा पुण कासवगुत्ता मुणेअव्वा ॥ आयुष्य चउरासी बिसत्तरि सट्टी तीसा य दस य लक्खाई । पण्णट्ठि सहस्साई छप्पण्णा बारसेगं च ॥ पंचासीई पण्णत्तरी अ पण्णट्ठि पंचवण्णा य । सत्तरस सयसहस्सा पंचमए आउअं होइ ॥ पंचासीइ सहस्सा पण्णट्टी तह य चेव पण्णरस । बारस सयाई आउं बलदेवाणं जहासंखं ॥ ५८४ पण बारवइतिगं अस्सपुरं तह य होइ चक्कपुरं । वाणारसि रायगिहं अपच्छिमो जाओ महुराए । माता मिगावई उमा चेव पुहवी सीआ य अम्मया । लच्छी मई सेसमई मई देवई इअ || भद्द सुभद्दा सुप्पभ सुदंसणा विजय वेजयंती अ । तह य जयंती अपराजिआ य तह रोहिणी चेव ॥ पिता हवई पाव बंभो रुद्दो सोमो सिवो महसिवो अ । अग्गिसिहे अ दसरहे नवमे भणिए अ वसुदेवे || गति एगो अ सत्तमाए पंच य छट्टीए पंचमी एगो । एगो अ चउत्थीए कण्हो पुण तच्चपुढवीए ॥ अट्ठतगडा रामा एगो पुण बंभलोगकप्पंमि । उववण्णु तओ चइउं सिज्झिस्सइ भारहे वासे ॥ ( आवनि ४०२ - ४११, ४१३, ४१४) प्रतिवासुदेव आसग्गीवे तारय मेरय महुकेढवे निसुंभे अ । बलि पहराए तह रावणे अ नवमे जरासंधू ॥ ( आवभा ४२ ) २. वासुदेव का वर्ण, निदान आदि वणेण वासुदेवा सव्वे नीला बला य सुक्किलया । '' परिआओ पव्वज्जाऽभावाओ नत्थि वासुदेवाणं । होइ बलाणं सो पुण पढमऽणुओगाओ णायव्वो । गति अवगाहना वासुदेव बलदेव : एक परिचय गोत्र पता बलदेव वासुदेव ७२ " आयुष्य ८० धनुष्य | ८५ लाख | ८४ लाख | मोक्ष बलदेव माता सातवीं नरक अश्वग्रीव वासुदेव छुट्टी नरक नगर गतिम 6 बलदेव वासुदेव - बलदेव : एक परिचय " पतिनपुर द्वारवती १. अचल २. 11 " " ब्रह्मदत्त सोमदत्त रुद्र मृगावती प्रजापति वासुदेव " उमा पृथ्वी सीता ६० ३० १० ५६ ८५ हजार ६५ हजार ६५ ५५ १७ ६५ १५ १२०० 11 ५० ४५ २९ २६ " भद्र सुप्रभ बलदेव भद्रा सुभद्रा सुप्रभा सुदशना विजया वैजयंती जयंती mo पांचवीं नरक प्रभराज "1 ela लक्ष्मीवती महाशिव शेषवती अग्निसिंह अम्बका अश्वपुर चक्रपुर वाराणसी नंदन चौथी ब्रह्मलोक तीसरी ७. १२ " | " १ १६ काश्यप गौतम १० वसुदेव अपराजिता कैकयी दशरथ देवकी रोहिणी राजगृह मथुरा Bh 5 राम Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिपृष्ठ वासुदेव विनय अणिआणकडा रामा सव्वेऽवि अ केसवा निआणकडा। राजा विश्वभूति मुनि पर्याय में जब गाय के धक्के उड्ढंगामी रामा केसव सव्वे अहोगामी ॥ से गिर पड़ा तब उसने निदान किया-यदि मेरी तपस्या, वासुदेवाः सप्तरत्नाधिपा: अर्द्धभरतप्रभवः । नियम और ब्रह्मचर्य का फल हो तो भवान्तर में मैं अमित (आवनि ४०२,४१२,४१५, मवृ प ७९) बल वाला होऊं। उसने आलोचना और प्रतिक्रमण नहीं सभी वासुदेव नील वर्ण वाले और सभी बलदेव श्वेत किया। वह महाशुक्र कल्प में उत्पन्न हुआ। वहां से वर्ण वाले होते हैं। च्यवकर वह रानी मृगावती की कुक्षि में उत्पन्न हुआ। वासुदेव सात रत्नों के स्वामी और अर्धभरतक्षेत्र रानी ने सात स्वप्न देखे । स्वप्नपाठकों ने उसे प्रथम (तीन खंड) के अधिपति होते हैं। वे प्रव्रज्या स्वीकार वासुदेव घोषित किया। तीन पृष्ठकरण्डक होने से उसका नहीं करते । सभी वासुदेव निदान करते हैं और अधोगति नाम त्रिपृष्ठ रखा गया । में जाते हैं। त्रिपृष्ठ : महावीर का अठारहवां भव (द्र. तीर्थकर) __ सभी बलदेव प्रव्रज्या स्वीकार करते हैं। वे निदान (शेष वासुदेवों के निदान आदि से संबंधित विवरण नहीं करते और ऊर्ध्वगति (स्वर्ग या मोक्ष) में जाते हैं। के लिए देखें-समवाओ पइण्णगसमवाओ सूत्र २३८३. वासुदेव का बल २४७ तथा उनके टिप्पण) सोलस सयसहस्सा सव्वबलेणं तु संकलनिबद्धं । वासुपूज्य-बारहवें तीर्थंकर। (द्र. तीर्थंकर) अंछंति वासुदेवं अगडतडम्मी ठियं संतं ।। विकृति–दूध, दही आदि पदार्थ । घेत्तण संकलं सो वामगहत्थेण अंछमाणाणं । (द्र. रसपरित्याग) भुंजिज्ज विलिंपिज्ज व महुमहणं ते न चाएंति ॥ विद्या-देवी-अधिष्ठित मंत्र। (द्र. मंत्रविद्या) (आवनि ७१,७२) वासुदेव वीर्यान्तरायकर्म के क्षयोपशम के कारण विनय-विनम्रता । आचार । शिक्षा। अतिशय बलसम्पन्न होते हैं। सोलह हजार राजा अपनी १. विनय का निर्वचन चतुरंगिणी सेना के साथ होने पर भी पतट पर स्थित, २. विनय का स्वरूप सांकल से बद्ध वासुदेव को खींच नहीं सकते । वासुदेव ३. विनय के सात प्रकार सांकल को पकड़कर अपने बायें हाथ से उन्हें खींच सकते ० ज्ञान विनय ० दर्शन विनय (वासुदेव में चक्रवर्ती की अपेक्षा आधा-२० लाख | . चारित्र विनय अष्टापद जितना बल होता है।) ० मन-वचन विनय ० काय विनय ४. त्रिपृष्ठ वासुदेव ० औपचारिक विनय सो य विस्सभूती अणगारो"तत्थंतरा सो सूतियाए । ४. विनय के अन्य प्रकार गावीए सोल्लितो पडिततो""सो णियाणं करेति, जदि ५. मोक्ष विनय इमस्स तवनियमबंभचेरस्स अत्थि फलं तो आगमेस्साणं ० प्रतिरूपयोग विनय अपरिमियबलो भवामि, ताहे सो तत्थ अणालोइयपडिक्कतो ० अनाशातना विनय महासुक्के उववन्नो ।..."महासुक्कातो चुतो तीसे | ६. विनय की निष्पत्ति मिगावतीए कुच्छिसि उववन्नो, सत्त सुविणा दिट्ठा, सुविण- | * विनयसमाधि (द्र. समाधि) पाढएहिं पढमवासुदेवो आदिट्ठो, कालेण जातो, तिन्नि * विनय : तप का एक भेद (द्र. तप) पिटुकरंडगा तेण से तिविठ्ठत्ति णामं कतं । * विनीत शिष्य के गुण (द्र. शिष्य) * विनीत : शिक्षा का अधिकारी (द्र. शिक्षा) (आवचू १ पृ २३१,२३२) ।। Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनय १. विनय का निर्वचन जम्हा विणयइ कम्मं अट्ठविहं चातुरंतमुक्खाए । तम्हा उ वयंति विऊ विणउत्ति विलीनसंसारा ॥ विनीयते- अपनीयतेऽनेन कर्मेति विनयः । ( आवनि १२१७ ) ( उशावृ प १६ ) अपनयन जो आठ प्रकार के कर्मों का विनयन करता है, वह विनय है । २. विनय का स्वरूप अट्ठाणं अंजलिकरणं, तवासणदायणं । गुरुभत्तिभावसुस्सा, विणओ एस वियाहिओ ॥ ( उ ३०1३२) अभ्युत्थान, हाथ जोड़ना, आसन देना, गुरुजनों की भक्ति करना और भावपूर्वक शुश्रूषा करना विनय कह - लाता है। विणओवयार माणस्स भंजणा पूयणा गुरुजणस्स । तित्थयराण य आणा सुयधम्माराहणा किरिया ॥ (विभा ३४६९ ) विनयोपचार, निरभिमानता, गुरुजनपूजा, अर्हत्आज्ञा और श्रुतधर्म की आराधना- ये सभी क्रियाएं विनय हैं । ३. विनय के सात प्रकार विणयो सत्तविहो, तं जहा - नाणविणओ दंसणविणओ चरितविणओ मणविणओ वतिविणओ कायविणओ ओवयारियविणओ । ( अचू पृ १४ ) विनय के सात प्रकार हैं-ज्ञानविनय, दर्शनविनय, चारित्रविनय, मनविनय, वचनविनय, कायविनय और औपचारिक विनय । ज्ञान विनय जस्स पंचसु वि नाणेसु भत्ती बहुमाणो वा, जे वा एएहि भावा दिट्ठा तेसु सद्दहणं ति नाणविणतो । ( अचू पृ १४ ) मतिज्ञान, श्रुतज्ञान आदि पांच ज्ञानों के प्रति भक्तिबहुमान के भाव रखना ज्ञान विनय है । अथवा जिन्होंने इन ज्ञानों के माध्यम से भावों को देखा है-तत्त्व को जाना है, उन ज्ञानियों के प्रति श्रद्धाभाव रखना ज्ञान विनय है । ५८६ विनय के सात प्रकार दर्शन विनय दंसणविणतो दुविधो, तं जहा सुस्सूसणाविणतो अणासायणाविणओ य । ( अचू पृ १५ ) दर्शनविनय के दो प्रकार हैं-शुश्रूषाविनय और अनाशातनाविनय । शुश्रूषा विनय सुस्साविणतो अणे गप्पगारो, तं जहा -सक्कारविणतो सम्माणविणतो अब्भुट्ठाणविणतो आसणाभिग्गहो आसणाणुप्पदाणं कितिकम्मं अंजलिपग्गहो एंतस्स अणुगच्छणता ठितस्स पज्जुवासणया गच्छंतस्स अणुव्वयणं । ( अचू पृ १५ ) शुश्रूषा विनय के अनेक प्रकार हैं-सत्कारविनय (वस्त्र आदि देना ), सम्मानविनय (स्तुति करना), अभ्यु - त्थानविनय, आसन अभिग्रहण का अनुरोध, आसन देना, कृतिकर्म / वन्दना करना, हाथ जोड़ना, आगन्तुक के सम्मुख जाना, बैठ जाने पर उसकी पर्युपासना करना, पहुंचाने जाना... । अनाशातना विनय अणायणाविणतो पण्णरसविधो, तं जहा -अरहंताणं अणासायणा, अरहंतपण्णत्तस्स धम्मस्स अणासायणा एवं आयरियाणं उवज्झायाणं थेर-कुल- गण संघ-संभोगस्स अणासातणा, किरियाए अणासायणा । आभिणिबोहियनाणस्स अणासायणा जाव केवलनाणस्स अणासायणा । एतेसिं पण्णरसहं कारणाणं एक्केक्कं तिविहं, तं जहा - अरहंताणं भत्ती अरहंताणं बहुमाणो अरहंताणं वण्णसंजलणता, एवं जाव केवलनाणं पि तिविहं । सव्वे वि एते भेदा पंचचत्तालीसं । ( अचू पृ १५ ) अनाशातना विनय के पन्द्रह प्रकार हैं-अर्हत्, अर्हत्-प्रज्ञप्त धर्म, आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, कुल, गण, संघ, संभोज, क्रियावाद (आस्तिक), मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनः पर्यवज्ञान और केवलज्ञान इनकी आशातना न करना अनाशातना विनय है । अर्हत् - अनाशातना के तीन प्रकार हैं- १. भक्ति करना २. बहुमान करना ३. वर्णसंज्वलन ( गुणोत्कीर्तन ) करना । इसी प्रकार प्रत्येक के साथ तीन का गुणन करने पर ( १५ x ३) अनाशातना विनय के पैंतालीस भेद होते हैं । चारित्र विनय चरितविणतो, सो पंचविहो, तं जहा - सामायिय Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनय के अन्य प्रकार चरितविणतो एवं छेदोवट्टावणियचरित्त विणतो परिहारविसुद्धिगचरितविणतो सुहुमसंपरागचरित्तविणतो अधक्खायचरितविणतो । एतेसि पंचहं चरित्ताणं को विणतो ? भण्णति - पंचविधस्स वि चरित्तस्स जा सद्दहणता सद्दहियस्स य कारण फासणया विहिणा य परूवणया एस चरित्तविणयो । ( दअचू पृ १५ ) चारित्र विनय के पांच प्रकार हैं १. सामायिकचारित्रविनय । २. छेदोपस्थापनीयचारित्र विनय । ३. परिहारविशुद्धिचारित्रविनय । ४. सूक्ष्म सम्पराय चारित्रविनय । ५. यथाख्यातचारित्र विनय । ५८७ प्रश्न होता है कि चारित्र का कैसा विनय ? समाधान में कहा है - चारित्र के प्रति सम्यक् श्रद्धा, उसकी सम्यक् अनुपालना और उसकी विधिपूर्वक प्ररूपणा - यही चारित्र का विनय है । मन-वचन विनय मणविणयो-आयरियादिसु अकुसल मणवज्जणं कुसलमणउदीरणं च । एवं वायाविणओ वि । ( अचू पृ १५ ) आचार्य, उपाध्याय आदि के प्रति अकुशल मन ( दुश्चिन्तन) का वर्जन और उनके प्रति कुशल मन का प्रवर्तन ( आदरास्पद भावधारा) मन विनय है आचार्य आदि के प्रति अकुशल वचन का वर्जन एवं कुशल वचन का प्रयोग करना वचन विनय है । काय विनय कायविणतो तेसि चेवाऽऽयरियादीणं अद्धाणवायणातिपरिसंताणं सीसादारब्भ जाव पादतला पयत्तेण विस्सामणं । ( अचू पृ १५ ) आचार्य आदि जब गमनागमन अथवा वाचना देने से परिश्रान्त हो जाएं तो उन्हें सिर से पैर तक चांपना कार्याविनय है । औपचारिक विनय ओवयारियविणतो सत्तविहो, तं जहा -सदा आयरियाण अब्भा से अच्छणं, छंदाणुवत्तणं, कारियनिमित्तकरणं, कतपडिकतिता, दुक्खस्स गवेसणं, देसकालण्णुया, सत्सु अणुलोमया । ( अचू पृ १५ ) लोकोपचार विनय के सात प्रकार हैं१. अभ्यासवृत्तिता - सदा आचार्य के समीप रहना । विनय २. छन्दानुवृत्तिता - आचार्य के अभिप्राय का अनुवर्तन करना । ३. कार्यनिमित्तकरण कार्य की सिद्धि के लिए अनुकूल वर्तन करना, आचार्य में चैतसिक प्रसन्नता उत्पन्न करना । ४. कृतप्रतिक्रिया -- कृत उपकार के प्रति अनुकूल वर्तन करना । ५. दुःख की गवेषणा -- आर्त की गवेषणा करना । ६. देशकालज्ञता - देश और काल को समझना । ७. सर्वार्थ- अनुलोमता - सब प्रकार के प्रयोजनों की सिद्धि के लिए अनुकूल वर्तन करना । ४. विनय के अन्य प्रकार fare दुविहे गहणविणए, आसेवणाविणए । ( जिचू पृ ३०१ ) विनय के दो प्रकार हैं १. ग्रहण विनय ज्ञानात्मक विनय । २. आसेवनाविनय क्रियात्मक विनय । लोगोवयारविणयो अत्यणिमित्तं च कामहेउं च । refore मोक्खविणयो विणयो खलु पंचहा होइ || ( दनि २११ ) विनय ( अनुवर्तन) के पांच प्रकार हैं१. लोकोपचार विनय - अनुशासन, शुश्रूषा और शिष्टा चार पालन । २. अर्थविनय - अर्थ के लिए अनुवर्तन करना । ३. कामविनय - काम के लिए अनुवर्तन करना । ४. भयविनय -- भय के लिए अनुवर्तन करना । ५. मोक्षविनय - मोक्ष के लिए अनुवर्तन करना । अभुट्ठाणं अंजलि आसणदाणं च अतिधिपूया य । लोगोवयारविणयो देवतपूया य विभवेणं ॥ अब्भासवित्ति छदाणुवत्तणं देस- कालदाणं च । अब्भुट्ठाणं अंजलि आसणदाणं च अत्थकते || एमेव कामविणयो भवे य णेयव्वो आणुपुव्वीए ।... (दनि २१२-२१४) लोकोपचार विनय पांच प्रकार से किया जाता है१. अभ्युत्थान २. अञ्जलिकरण ३. आसनदान ४. अतिथिपूजा और ५. देवपूजा । अर्थ की प्राप्ति के लिए छह प्रकार से विनय किया जाता है - - १. अभ्यासवृत्तिता २. छन्दानुवर्तन ३. देशकालदान ४. अभ्युत्थान ५. अञ्जलिकरण ६. आसनदान । Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनय विनय की निष्पत्ति इसी प्रकार काम और भय के निमित्त भी इन छह अब्भद्राणं अंजलि आसणदाणं अभिग्गह किती य । प्रकारों मे विनय किया जाता है। सुस्सूसण मणुगच्छण संसाधण काय अट्ठविहो । (धन के लिए राजा आदि के पास रहना, उनके हित मित अफरुसभासी अणुवीतिभासि वायियो विणओ। अभिप्राय को समझना, अपेक्षा होने पर धन आदि से अकुसलमणोनिरोहो कुसलमणउदीरणा चेव ॥ उनका सहयोग करना अर्थविनय है। काम के निमित्त (दनि २२१-२२३) स्त्री आदि के पास रहना, मधुर वचनों से उसे आश्वस्त प्रतिरूपयोगविनय के तीन प्रकार हैंकरना, वस्त्र आदि देना कामविनय है। दास, भूतक १. कायिक विनय-अभ्युत्थान, अञ्जलिकरण, आसनआदि भय से अपने स्वामी के पास रहते हैं, उनकी आज्ञा दान, अभिग्रह, कृतिकर्म, शुश्रूषा, अनुगमन और का अनुवर्तन करते हैं...-यह भयविनय है। देखें-दजिच संसाधन (पहुंचाने जाना)। पृ २९५,२९६) २. वाचिक विनय-हित, मित, अपरुष और विमर्श६. मोक्ष विनय पूर्वक बोलना । ३. मानसिक विनय-अकुशल मन का निरोध और दंसण नाण चरिते तवे य तह ओवयारिए चेव । एसो उ मोक्खविणयो पंचविहो होइ णायव्यो ।। कुशल मन का प्रवर्तन । दव्वाण सव्वभावा उवदिट्रा जे जहा जिणवरेहिं । पडिरूवो खलु विणयो पराणवत्तीपरो मुणेयब्वो । ते तह सद्दहति णरो दंसणविणयो भवति तम्हा ।। अप्पडिरूवो विणयो णायव्वो केवलीणं त्॥ नाणं सिक्खति नाणं गुणे ति णाणेण कुणति किच्चाणि। (दनि २२४) नाणी ण ण बंधति नाणविणीयो भवति तम्हा ॥ छद्मस्थ के प्रतिरूपविनय होता है, क्योंकि वे अट्ठविधं कम्मचयं जम्हा रित्तं करेति जयमाणो। परानुवृत्तिपरायण होते हैं। केवली के अप्रतिरूपविनय होता है। णवमण्णं च ण बंधति चरित्तविणयो भवति तम्हा ।। अवणेति तवेण तम उवणेति य मोक्खमग्गमप्पाणं । अनाशातनाविनय तवणियमणिच्छितमती तवोविणयो भवति तम्हा ।। तित्थकर सिद्ध कूल गण संघ किरिय धम्म नाण नाणीणं । अध ओवगारिओ पूण दुविधो विणओ समासतो होति। आयरिय थेरुवज्झाय गणीणं तेरस पदाणि ॥ पडिरूवजोगजंजणओऽणच्चासातणाविणओ ॥ अणसातणा य भत्ती बहमाणो तह य वण्णसंजलणा । __ (दनि २१५-२२०) तित्थगरादी तेरस चतुग्गुणा होंति बावण्णा ।। मोक्षविनय के पांच प्रकार हैं (दनि २२६-२२७) १. दर्शनविनय-जिनप्रवचन में श्रद्धा । अनाशातनाविनय के बावन प्रकार हैं२. ज्ञानविनय-ज्ञानपदों को सीखना, उनका अभ्यास अनाशातना, भक्ति, बहुमान और वर्ण-संज्वलनकरना, नये कर्मों का बंध न करना। इन चार प्रकारों से अर्हतों का विनय होता है। इसी ३. चारित्रविनय-अष्टविध कर्मोपचय से रिक्त होना प्रकार सिद्ध, कुल, गण, संघ, क्रियावाद, धर्म, ज्ञान, तथा नये कर्मों का बंध न करना । ज्ञानी, आचार्य, स्थविर, उपाध्याय एवं गणी-इन तेरह ४. तपविनय--अनशन आदि बारह प्रकार के तप से के साथ अनाशातना, भक्ति, बहमान और वर्ण संज्वलनअज्ञान आदि रूप तम को क्षीण कर मोक्ष के निकट इन चारों का गुणन करने पर बावन प्रकार बनते हैं। पहुंचना। ६. विनय की निष्पत्ति ५. उपचारविनय-गुरु आदि का सत्कार-बहुमान करना। विणओ सासणे मूलं, विणीओ संजओ भवे । उपचारविनय के दो प्रकार हैं-१. प्रतिरूपयोग विणयाउ विप्पमुक्कस्स, कओ धम्मो कोतवो।। विनय २. अनाशातनाविनय । (आवनि १२१६) प्रतिरूपयोगविनय विनय शासन (द्वादशाङ्ग) का मूल है। विनीत पडिरूवो खलु विणयो कायियजोगे य वाय माणसिओ। संयत होता है। जो विनय से शून्य है, उसके कहां धर्म अट्ठ चउव्विह दुविहो परूवणा तस्सिमा होति ॥ और कहां तप ? Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैयावृत्त्य का स्वरूप एवं धम्मस्स विणओ, मूलं परमो सो मोक्खो । जेण कित्ति सुयं सिग्धं, निस्सेसं चाभिगच्छई ॥ विणयं पि जो उवाएणं, चोइओ कुप्पई नरो । दिव्वं सो सिरिमेज्जंति, दंडे पडिसेहए || (द ९।२।२, ४) धर्म का मूल है विनय ( आचार) और उसका परम फल है मोक्ष । विनय के द्वारा मुनि कीर्ति, श्लाघनीय श्रुत और समस्त इष्ट तत्त्वों को प्राप्त करता है । I विनय में उपाय के द्वारा भी प्रेरित करने पर जो कुपित होता है, वह आती हुई दिव्य लक्ष्मी को डंडे से रोकता है। वेदक सम्यक्त्व - क्षायोपशमिक सम्यक्त्व से क्षायिक सम्यक्त्व को उपलब्ध करते समय, अन्तिम समय में जब जीव सम्यक्त्व मोहनीय का प्रदेशोदय में वेदन करता है, उस समय प्राप्त होने वाला सम्यक्त्व । ( द्र. सम्यक्त्व ) विपुलमति-—- मानसिक चिन्तन के पुद्गलों की वेदनीय कर्म - सुख-दुःख के संवेदन का हेतुभूत कर्म । विविध परिणतियों को विशेष रूप से जानने वाला ज्ञान । ( द्र. कर्म ) वैक्रिय शरीर - विविध रूप करने में समर्थ शरीर । ( द्र. शरीर ) वैनयिकी बुद्धि - विनय - शिक्षा से उत्पन्न क्षमता । (द्र. बुद्धि) वैमानिक - ज्योतिश्चक्र से असंख्य योजन की दूरी पर स्थित विमानों में उत्पन्न होने वाले देव । (द्र देव ) (द्र. मनः पर्यवज्ञान ) विमल - तेरहवें तीर्थंकर । ( द्र. तीर्थंकर) विवेक - अशुद्ध आहार आदि का परिष्ठापन | प्रायश्चित्त का चौथा प्रकार । (द्र प्रायश्चित्त) वैयावृत्त्य - सेवा, शुश्रूषा । वृद्धश्रावक - तापसों का एक सम्प्रदाय । उस्सण्णं बुड्ढवते पव्वयंति ति तावसा बुड्ढा भणिता । सावगधम्मातो पसूयत्ति बंभणा बोहगत्ति भणिता । अण्णे भांति - वुड्ढा सावगा बंभणा इत्यर्थः । ( अनुचू पृ १२ ) वृद्धा: - तापसाः प्रथमसमुत्पन्नत्वात् प्रायो वृद्धकाल एव दीक्षाप्रतिपत्तेः । श्रावका धिग्वर्णाः । अन्ये तु वृद्धश्रावका इति व्याचक्षते धिग्वर्णा एव । (अनुहावृ पृ १७ ) श्रावका — ब्राह्मणाः प्रथमं भरतादिकाले श्रावकाणामेव सत्ता पश्चाद् ब्राह्मणत्वभावाद् । ( अनुमवृप २३) वृद्धश्रावक शब्द में दो पद हैं-वृद्ध और श्रावक । बद्ध का अर्थ है तापस और श्रावक का अर्थ है ब्राह्मण । भगवान् ऋषभ की प्रव्रज्या के बाद सबसे पहले तापसों की उत्पत्ति हुई, इसलिए वे वृद्ध कहलाये । अथवा तापस प्रायः वृद्धावस्था में संन्यास स्वीकार करते थे, इस कारण वे वृद्ध कहलाए । वैयावृत्त्य कुछ आचार्यों ने वृद्धश्रावक शब्द को एक ही पद मानकर ब्राह्मण का वाचक बतलाया है । सम्राट् भरत आदि के समय में जो श्रावक थे, वे कालान्तर में ब्राह्मण कहलाये । ५८९ १. वैयावृत्त्य का स्वरूप २. वैयावृत्य किनकी ? ३. वैयावृत्त्य की अर्हता ४. वैयावृत्त्य अप्रतिपाती ५. वैयावृत्त्य के उदाहरण ६. वैयावृत्त्य के परिणाम * वैयावृत्त्य : तप का एक भेद (द्र. तप) १. वैयावृत्त्य का स्वरूप वेयावच्चं वावडभावो तह धम्मसाहणणिमित्तं । अन्नाइयाण विहिणा संपाडणमेस भावत्थो ॥ ( उशावृप ६०९ ) धर्मसाधना में सहयोग करने के लिए संयमी को शुद्ध आहार, औषध आदि लाकर देना तथा उसके अन्य कार्यों व्यावृत होना वैयावृत्त्य है । Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैयावृत्त्य ५९० वैयावृत्त्य के उदाहरण उदाहरण आयरियमाइयम्मि य वेयावच्चम्मि दसविहे । कारण अथवा मृत्यु के पश्चात् चारित्र नष्ट हो जाता आसे वणं जहाथामं, वेयावच्चं तमाहियं ।। है; पढा हुआ, सीखा हआ ज्ञान परिवर्तना के अभाव में (उ ३०॥३३) विस्मृत हो जाता है। व्यावृत: ----कुलादिकार्येषु व्यापारवांस्तद्भावो । वैयावृत्त्यम् । (उशावृ प ५९०) दसविध वैयावृत्त्याह मुनियों के वैयावृत्त्य में यथाशक्ति भरहो बाहुबलीवि य दसारकुलनंदणो य वसुदेवो । व्यापृत होना वैयावृत्त्य है। वेयावच्चाहरणा तम्हा पडितप्पह जईणं ।। (ओनि ५३५) २. वैयावृत्त्य किनकी? भरत, बाहुबलि, दशारकुलनन्दन वसुदेव-ये सेवा वेयावच्चं "इमेसि दसह-आयरियउवज्झायथेर- के उदाहरण हैं। तवस्सिगिलाणसिक्खगसाहम्मियकूलगणसंघाणं । भरत-बाहुबली (दअचू पृ १५) .."पुंडरगिणिए उ चुया तओ सुया वइरसेणस्स ।। वैयावृत्त्याह के दस भेद-आचार्य, उपाध्याय, पढमित्थ वइरणाभो बाह सुबाह य पीढमहपीढे । स्थविर, तपस्वी, ग्लान, शैक्ष, सार्मिक, कुल, गण, संघ । तेसि पिआ तित्थअरो णिक्खंता तेऽवि तत्थेव ।। ३. वैयावृत्त्य को अर्हता पढमो चउदसपुवी सेसा इक्कारसंगविउ चउरो। अलसं घसिरं सुविरं खमगं कोहमाणमायलोहिल्लं! बीओ वेयावच्चं किइकम्मं तइअओ कासी ।। कोऊहलपडिबद्धं वेयावच्चं न कारिज्जा । भोगफलं बाहुबलं पसंसणा जिट्ट इयर अचियत्तं ।... एयद्दोसविमुक्कं कडजोगि नायसीलमायारं । (आवनि १७५-१७८) गुरुभत्तिसंविणीयं वेयावच्चं तु कारेज्जा ।। जम्बूद्वीप में पुंडरीकिणी नगरी । वज्रसेन राजा । धारिणी रानी । उसके वज्रनाभ, बाहु, सुबाहु, पीठ और (ओभा १३३,१३४) जो व्यक्ति आलसी, बहुभोजी, ऊंघने वाला, तपस्वी, महापीठ-ये पांच पुत्र थे । वज्रसेन प्रवजित होकर क्रोधी, अहंकारी, मायावी, लोभी, कुतूहल प्रिय और सूत्र तीर्थंकर बने । वज्रनाभ चक्रवर्ती बना, शेष चार मांडलिक अर्थ में प्रतिबद्ध हो, उसे सेवाकार्य में नियोजित नहीं। राजा हुए। एक दिन नलिनीगूल्म उद्यान में वज्रसेन का करना चाहिये। पदार्पण हुआ। ये पांचों भाई पिता के पास प्रवजित हो जो इन दोषों से मुक्त है, कृतयोगी-गीतार्थ है, गए। वज्रनाभ ने चतुर्दश पूर्वो का अध्ययन किया, शेष भाइयों ने एकादश अंगों को पढ़ा । बाहु सबकी वैयावृत्य शील और आचार को जानने वाला है, गुरुभक्त है, बाह्य उपचार को जानता है, वह वैयावत्त्य करने का करता । सुबाहु भगवान् का कृतिकर्म करता। एक दिन अधिकारी है। वज्रनाभ ने उन दोनों का गुणोत्कीर्तन किया-तुम लोगों ने साधुओं की वैयावृत्त्य करके अपने जीवन को सफल ४. वैयावृत्त्य अप्रतिपाती बना लिया है। उन दोनों की प्रशंसा सुनकर पीठ और वेयावच्चं निययं करेह उत्तमगुणे धरिताणं । महापीठ को अप्रीति उत्पन्न हुई। उन्होंने कहा-हम सव्वं किल पडिवाई वेयावच्चं अपडिवाई ।। इतना स्वाध्याय करते हैं, लेकिन हमारी प्रशंसा नहीं पडिभग्गस्स मयस्स व नासइ चरणं सुयं अगुणणाए। होती । यह ठीक भी है। जो काम करता है, उसी की न ह वेयावच्चचिअं सुहोदयं नासए कम्मं ।। प्रशंसा होती है । वैयावृत्त्य संघ की अव्यवच्छित्ति और (ओनि ५३२,५३३) महान् निर्जरा का हेतु है। उत्तम गुणों से सम्पन्न साधुओं की वैयावृत्त्य अवश्य बाहु और पीठ भरत और ब्राह्मी के रूप में तथा करनी चाहिये । वैयावृत्त्य अप्रतिपाती है-इससे अजित सुबाहु और महापीठ बाहुबली और सुन्दरी के रूप में शभरूप में उदय में आने वाला कर्मफल नष्ट नहीं होता। उत्पन्न हए । (देखें-आवच १५१३३,१५३) चारित्र और ज्ञान प्रतिपाती हैं-प्रमाद या कर्मोदय के Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैयावृत्त्य के परिणाम ६. वैयावृत्त्य के परिणाम arraच्चेणं तित्थयरनामगोत्तं कम्मं निबंधइ । ( उ २९/४४) वैयावृत्त्य से जीव तीर्थंकर नाम गोत्र कर्म का बंध करता है । ५९१ लाभेण जोजयंतो जइणो लाभंतराइयं हणइ । कुणमाणो य समाहिं सव्वसमाहि लहइ साहू || वेयावच्चे अब्भुट्टियस्स सद्धाए काउकामस्स । लाभो चैव तवस्सिस्स होइ अद्दीणमणसस्स || (ओनि ५३४, ५३७) जो मुनि आहार, औषधि, उपधि आदि के द्वारा साधुओं की वैयावृत्त्य करता है, वह लाभांतराय कर्म को क्षीण करता है । वह पादप्रक्षालन, प्रक्षण, मर्दन आदि सेवाकार्यों से सेवार्ह साधुओं की चित्तसमाधि में योगभूत बनता है तथा वह स्वयं सर्वसमाधि (शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य ) को प्राप्त करता है । श्रद्धा (घनीभूत इच्छा) से वैयावृत्य के लिए अभ्युत्थित अदीनमना तपस्वी साधु को निर्जरा का लाभ अवश्य होता है, चाहे उसे आहार आदि का लाभ हो या न हो । जो गिलाणं पडियरइ सो मं पडिअरति । जो मं पडिअरइ सो गिलाणं पडियरति । गुरुसाहम्मिय सुस्सू सणयाए णं विणयपडिवत्ति जणयइ । विणयपडिवन्ने य णं जीवे अणच्चा सायणसीले नेरइयतिरिक्खजोणियमणुस्सदेवदोग्गईओ निरंभइ । वण्णसंज भत्तिबहुमाणय ए व्याकरण शब्दशास्त्र । मणुदेवसग्गओ निबंध व्यंजनावग्रह - इंद्रिय और अर्थ का संबंध | सिद्धि सोग्गइं च विसोहेइ । पसत्थाइं च णं विणयमूलाई ( द्र. आभिनिबोधिक ज्ञान ) सव्वकज्जाइं साहेइ | अन्ने य बहवे जीवे विणइत्ता भवइ । व्यंतर - जो मध्य लोक में पहाड़ों तथा वनों के ( उ २९।५) अन्तरों में रहते हैं, वे देव । ( द्र. देव ) गुरु और साधर्मिक की शुश्रूषा से जीव विनय को प्राप्त होता है । विनय को प्राप्त करने वाला व्यक्ति गुरु का अविनय या परिवाद करने वाला नहीं होता, इसलिए वह नैरयिक, तिर्यग्योनिक, मनुष्य और देव - सम्बन्धी दुर्गति का निरोध करता है । श्लाघा, गुण- प्रकाशन, भक्ति और बहुमान के द्वारा मनुष्य और देव-सम्बन्धी सुगति से संबंध जोड़ता है । सिद्धि और सुगति का मार्ग प्रशस्त करता है । विनयमूलक सब प्रशस्त कार्यों को सिद्ध करता है और दूसरे बहुत व्यक्तियों को विनय के पथ पर ले आता है । (ओनिवृ प ३९ ) जो ग्लान की सेवा करता है, वह मेरी ( तीर्थंकर की ) सेवा करता है । जो मेरी सेवा करता है, वह ग्लान की सेवा करता है । वैहायसमरण-मरण का एक प्रकार । १. व्याकरण का निर्वचन २. व्याकरण के अंग • वचन विभक्ति ( कारक ) • समास ० तद्धित ३. लिंग ४. सन्धि व्याकरण ५. पद ६. नाम की परिभाषा ० प्रकार (द्र. मरण ) १. व्याकरण का निर्वचन व्याक्रियन्ते लौकिकाः सामयिकाश्च शब्दा अनेनेति व्याकरणं - शब्दशास्त्रम् । ( आवमवृप २५९ ) जिसके द्वारा लौकिक और सामयिक शब्द व्युत्पन्न किए जाते हैं, वह व्याकरण - शब्दशास्त्र है । २. व्याकरण के अंग भावप्पमाणे चउव्विहे पण्णत्ते, तं जहा -- सामासिए तद्धित धाउए निरुत्तिए । ( अनु ३४९ ) - भावप्रमाण के चार प्रकार हैं१. समास - दो या दो से अधिक पदों का परस्पराश्रय भाव से संबंध | २. तद्धित-तद्धित प्रत्यय का हेतुभूत अर्थ । Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याकरण ५९२ व्याकरण के अंग ३. धातु-भू (सत्ता), एध (वद्धि) आदि धातुएं । आमन्त्रण में अष्टमी विभक्ति होती है---हे जुवाण ! ४. निरुक्ति-अक्षरार्थ। जैसे-भ्रमति च रौति हे युवक ! आदि। च-भ्रमण और गुंजारव करता है, इसलिए (वयण विभत्ती) वित्थरो सिं सद्दपाहुडातो नायव्वो भ्रमर । मह्यां शेते--पृथ्वी पर सोता है इसलिए पुव्वणिग्गतेसु वा बागरणादिसु । (अनुचू पृ ४७) महिष । वचनविभक्ति की विशद व्याख्या पूर्वगत के शब्दप्राभूत - (शब्दसिद्धि और शब्दसंरचना की प्रामाणिकता में थी । इस समय उसे प्राभूत के आधार पर निर्मित व्याकरण के द्वारा होती है । इस अपेक्षा से समास, तद्धित व्याकरणों से जानना चाहिए। आदि को भावप्रमाण बतलाया गया है।) समास .."कारग-समास-तद्धिय-निरुत्तवच्चो वि य पयत्थो।। सत्त समासा भवंति, तं जहा (विभा १००३) दंदे य, बहुव्वीही, कम्मधारए, दिऊ तहा । पदार्थ के चार प्रकार हैं तप्पुरिस व्वईभावे, एगसेसे य सत्तमे । १. कारक-जैसे-पचतीति पाचकः । __(अनु ३५०) समास के सात प्रकार-- २. समास-जैसे-राज्ञः पुरुषः राजपुरुषः । १. द्वन्द्व-जिस समास में सब पदों की प्रधानता हो । ३. तद्धित-जैसे-वसुदेवस्यापत्यं वासुदेवः । ४. निरुक्त--जैसे-ऊर्ध्वकर्ण: उलकः । जैसे-दन्तश्च औष्ठश्च-दन्तोष्ठम्, अहिश्च नकुलश्च-अहिनकुलम् ।। वचनविभक्ति (कारक) २. बहुब्रीहि-जिस समास में अन्य पदार्थ की अविहा वयण विभत्ती पण्णत्ता, तं जहा प्रधानता हो । जैसे—पुष्पितकुटजकदम्बः गिरिः । निद्देसे पढमा होइ, बितिया उवएसणे । ३. कर्मधारय-जिस तत्पुरुष समास में विशेषण तइया करणम्मि कया, चउत्थी संपयावणे।। और विशेष्य का तुल्यार्थ में प्रयोग हो। जैसेपंचमी च अवायाणे, छटी सस्सामिवायणे । धवलो वसहो-धवलवसहो । सत्तमी सन्निहाणत्थे, अट्रमाऽऽमंतणी भवे ॥ ४. द्विगु --जिस तत्पुरुष समास में पूर्वपद संख्या""हंदि नमो साहाए""आधारकालभावे य। __वाचक होता है । जैसे–त्रिकटुकम्, त्रिसरम् । ५. तत्पुरुष-जिस समास में उत्तरपद की प्रधानता (अनु ३०८।१,२,४,६) हो । जैसे-राज्ञः पुरुषः--राजपुरुषः। वचनविभक्ति के आठ प्रकार हैं ६. अव्ययीभाव-जिस समास में पूर्वपद की निर्देश में प्रथमा-सो-वह, इमो-यह आदि । प्रधानता हो। जैसे-ग्रामस्य पश्चात् -- उपदेश में द्वितीया-इमं भण-यह कहो आदि । अनुग्रामम् । करण में तृतीया---तेण भणियं-उसने कहा आदि । ७. एकशेष-जिस समास में एक समान रूप वाले हंदि, नमो और स्वाहा के योग में तथा सम्प्रदान में अनेक शब्दों में एक शब्द शेष रहता है। जैसे---- चतुर्थी-उपाध्यायाय गां ददाति-उपाध्याय को जिनश्च जिनश्च जिनश्च-जिना: । गाय देता है आदि। पायं पयविच्छेओ समासविसओ तयत्थनियमत्थं । अपादान में पंचमी----इतो गिण्ह-इससे ग्रहण कर पयविग्गहो त्ति भण्णइ सो सुद्धपए न संभवइ ।। आदि । (विभा १००६) स्वस्वामिवचन (संबंध) में षष्ठी-तस्स इमं वत्थ इष्ट पदार्थ के नियमन के लिए सामासिक पदों का उसकी यह वस्तु आदि । विच्छेद/विग्रह किया जाता है। यथा श्वेतः पटोऽस्येति आधार, काल और भाव में सप्तमी-इमम्मि -- श्वेतपटः । शुद्धपद-एक पद में पदविग्रह संभव नहीं इसमें आदि। Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद ५९३ व्याकरण तद्धित आकारंता माला, ईकारंता सिरी य लच्छी य तद्धितए अट्टविहे पण्णत्ते, तं जहा ऊकाग्ता जंबू. बहू य अंता उ इत्थीणं ।। कम्मे सिप्प सिलोए, संजोग समीवओ य सजहे। अंकारंतं धन्नं, इंकारंतं नपुंसगं अच्छि । इस्सरिया वच्चेण य, तद्धितनामं तु अढविहं ॥ उंकारंत पील, महुं च अंता नपुंसाणं ।। (अनु ३५८) (अनु २६४।२-६) तद्धित के आठ प्रकार लिंग के तीन प्रकार१. कर्म--सौत्रिक, कासिक आदि । पूल्लिग-पुल्लिगवाची शब्दों के अन्त में आ ई ऊ २. शिल्प-तुन्नवाय, तन्तुवाय आदि । और ओ--ये चार प्रत्यय होते हैं । यथा ३. श्चोक - श्रमण, माहण आदि । राया, गिरी, विण्हू, दुमो। ४. संयोग--राजा का श्वसुर, राजा का दामाद स्त्रीलिंग - स्त्रीलिंग शब्दों के अन्त में ओकार को आदि । छोड़कर आ, ई, ऊ तीन प्रत्यय होते हैं। ५. समीप-गिरिनगर (गिरि के समीप का नगर) यथा-माला, लच्छी, बहू । वैदिश (विदिशा के समीप का नगर) आदि । नपंसकलिंग-नपंसकलिंगवाची शब्दों के अन्त में ६. संयूथ -"तरंगवतीकार, मलयवतीकार आदि । अं इं और उं ये तीन प्रत्यय होते हैं। ७. ऐश्वर्य राजा, ईश्वर, कोटवाल आदि । यथा-धन्न, अच्छि, पीलं । ८. अपत्य --अपत्य के कारण होने वाला नाम --- ४. सन्धि अर्हत्माता, चक्रवर्तीमाता आदि। चउनामे चउविहे पण्णत्ते, तं जहा-आगमेणं लोवेणं यहां तद्धित शब्द के द्वारा तद्धित प्रत्यय के हेतुभूत द्धत शब्द कद्वारा तद्धित प्रत्यय क हदभूत पयईए विगारेणं । . (अनु २६५) अथं का ग्रहण करना चाहिए। तुन्नवाय, तंतुवाय जैसे चतुर्नाम के चार प्रकार-- शब्दों में तद्धित का प्रत्यय नहीं है फिर भी उसका हेतु आगम--शब्द में किसी वर्ण का आगमन । यथा भूत अर्थ यहां विद्यमान है इसलिए उन्हें तद्धित माना पयांसि । (यहां पयस् शब्द में नुम् का आगम हुआ गया है। इस व्याख्या के आधार पर यह स्पष्ट होता है कि सूत्रकार द्वारा उदाहृत नामों में कुछ नाम तद्धित प्रत्यय लोप - पदान्त में स्थित एकार और ओकार के आगे युक्त हैं और कुछ नाम तद्धित प्रत्ययों के अर्थ से युक्त अकार का लोप हो जाता है। यथा-पटोऽत्र । हैं। तरंगवतीकार आदि नाम कृदन्त प्रत्यय वाले हैं प्रकृति-प्रकृति भाव संधि में द्विवचनान्त ईकारान्त, फिर भी उन्हें तद्धित नामों के साथ प्रस्तुत किया गया ऊकारान्त और एकारान्त शब्दों में संधि नहीं होती। है। इसका कारण चूर्णिकार द्वारा किया गया व्यापक वे अपनी प्रकृति में स्थित रहते हैं । यथा- अग्नी+ अर्थ है। (देखें-अणुओगदाराई ३५८ का टिप्पण) एतौ । ३. लिंग विकार-विकार से होने वाला नाम । यथा - मधु+उदकम् --- मधूदकम् । तत्थ पुरिसस्स अंता, आ ई ऊ ओ हवंति चत्तारि । ते चेव इत्थियाए, हवं ति ओकारपरिहीणा ॥ ५. पद अंति य इति य उ ति य , अंता उ नपंसगस्स बोद्धव्वा । पंचनामे पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा ...नामिक, एएसि विण्हपि य, वोच्छामि निदसणे एत्तो।। नैपातिक, आख्यातिकं, औपसगिकं, मित्रम् । अश्व इति आकारंतो राया, ईकारंतो गिरी य सिहरी य। नामिकम । खल्विति नैपातिकम। धावतीत्याख्यातिकम् । ऊकारंतो विण्हू, दुमो ओअंतो उ पुरिसाणं ॥ परीत्यौपसर्गिकम । संयत इति मिश्रम् । (अनु २७०) Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याकरण ५९४ व्युत्सर्ग वा। पंचनाम (पद) पांच प्रकार का है इसलिए पवन है। १. नामिक -धातु, विभक्ति और वाक्य को छोड़कर २. नोगौण-गुणशून्य नाम । मुद्ग युक्त न होने पर कोई भी अर्थवान् शब्द नाम कहलाता है । यथा भी पेटी का नाम समुद्ग है । इन्द्र की रक्षा अश्व । न करने पर भी एक कीट का नाम इन्द्रगोपक २. नैपातिक-अमुक-अमुक अर्थों को व्यक्त करने के लिए निश्चित किये गये वे पद, जो सब विभक्तियों ३. आदानपद-आदि पद से होने वाला नाम । और लिंगों में समान होते हैं । यथा-खलु, च, आवंती-आयारो का पांचवां अध्ययन । ४. प्रतिपक्षपद-प्रतिपक्ष के आधार पर किया जाने ३. आख्यातिक -धातु के आगे प्रत्यय लगाकर जो वाला नाम । अशिवा (सियारिन) को शिवा रूप निष्पन्न किया जाता है। यथा-धावति । कहना। ४. औपसगिक-निपातसंज्ञक शब्दों के अन्तर्गत ५. प्रधान -जिन वस्तुओं की प्रधानता होती है आए कुछ शब्द क्रिया के योग में उपसर्ग संज्ञा उसके आधार पर होने वाला नाम । अशोकवन । प्राप्त कर लेते हैं। यथा-प्र, परि आदि। ६. अनादिसिद्धान्त -अनादि सिद्धान्त से होने वाला ५. मिश्र-उपसर्ग, धातु, प्रत्यय आदि के योग से नाम । धर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय।। जो शब्दरूप बनते हैं । यथा-संयत । ७ नाम-किसी पूर्वज के नाम के आधार पर होने पयमत्यवायगं जोयगं च ..... :(विमा १००३) वाला नाम । नौ नंद, विक्रमादित्य । ८. अवयव--अवयव के आधार पर होने वाला पद के दो प्रकार हैं नाम । शृंग के आधार पर बारहसिंगा। १. अर्थवाचक-वक्षः, तिष्ठति आदि । ९. संयोग-संयोग के आधार पर होने वाला २. द्योतक-प्र आदि, च आदि । नाम । हल से व्यवहार करने वाला हालिक । ६. नाम की परिभाषा १०. प्रमाण-प्रमाण से होने वाला नाम। जं वत्थुणोऽभिहाणं पज्जवभेदाणुसारि तं णामं । व्युत्सर्ग-शरीर, कषाय आदि का विसर्जन । पतिभेतं यण्णमते पडिभेदं जाति जं भणितं । सयणासणठाणे वा, जे उ भिक्ख न वावरे । दव्वं गुणं पज्जवं णामेति --आराधयति त्ति णाम । कायस्स विउस्सग्गो, छद्रो सो परिकित्तिओ। (अनुचू पृ ४१) (उ ३०।३६) पर्यवभेदों के अनुसार वस्तु का जो अभिधान है, वह सोने, बैठने या खड़े रहने के समय जो भिक्षु व्यापृत नाम है। नहीं होता, उसके काया की चेष्टा का जो परित्याग जो प्रत्येक भेद का अनुगमन करता है, वह ताजसेव्यत्सर्ग कट जाता है। वह आध्यान्तर तप नाम है। का छठा प्रकार है। (द्र. तप) जो द्रव्य, गुण और पर्याय का--प्रसाधन-प्रतिपादन व्युत्सर्ग के प्रकार करता है, वह नाम है । दव्वविउस्सग्गो गणउवधिसरीरभत्तपाणाण विउप्रकार स्सग्गो, जो वा धम्माणुढाणपवत्तो काउस्सग्गादिट्टितो दसनामे दसविहे पण्णत्ते, तं जहा--१. गोण्णे २.। अट्टवसट्टो तस्सवि दव्वविउस्सग्गो, अणुवउत्तो वा। भावनोगोणे ३. आयाणपएणं ४. पडिवक्खपएणं ५. पाहण्ण- विउस्सग्गो मिच्छत्तअन्नाणअविरतीणं, अहवा कसायसंसारयाए ६ अणाइसिद्धतेणं ७. नामेणं ८. अवयवेणं ९. कम्माण वा विउस्सग्गो। (आवच १५६१६) संजोगेणं १० पमाणेणं । (अनु ३१९) द्रव्यव्युत्सर्ग: आर्तध्यानादिध्यायिनः कायोत्सर्गः । नाम के दश प्रकार-- भावव्युत्सर्गस्त्वज्ञानादिपरित्याग: अथवा धर्मशुक्लध्या१. गौण —गुणनिष्पन्न नाम । पावन करता है यिनः कायोत्सर्गः । (आवहाव १ पृ ३२५) Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्युत्सर्ग ५९५ शकुन व्युत्सर्ग के दो प्रकार हैं वे रोद्रध्यान में चले गए। उधर राजा श्रेणिक भग१. द्रव्यव्युत्सर्ग---- गण, उपधि, शरीर अन्न-पान आदि वान् को वन्दना करने जा रहा था। मार्ग में मुनि का व्युत्सर्ग अथवा आर्तध्यान आदि करने वाले प्रसन्नचन्द्र को देखा, वन्दना की। तत्पश्चात् वह भगवान् का कायोत्सर्ग अथवा कायोत्सर्ग में अनुपयुक्त । महावीर के समवसरण में पहुंचा। वहां उसने भगवान् २. भावव्युत्सर्ग-मिथ्यात्व, अज्ञान, अविरति का से पूछा--भंते ! मुनि प्रसन्नचन्द्र ध्यान में स्थित हैं। व्युत्सर्ग अथवा संसार, कषाय, कर्म का व्युत्सर्ग अभी वे मृत्यु को प्राप्त हो जाएं तो कहां उत्पन्न होंगे ? अथवा धर्मध्यान, शुक्लध्यान करने वाले का भगवान ने कहा....सातवीं नरक में । इसी बीच मानसिक कायोत्सर्ग । वितोसग्गो-परिच्चागो। सो बाहिर-ऽब्भंतरोवहिस्स संग्राम में मुनि के सारे शस्त्र नष्ट हो गए। तब शिरस्त्राण जिणथेरकप्पियाणं चल-अचेला विहा बारसावसाण द्वारा मारता हूं-यह सोच अपना हाथ सिर पर रखा। चउद्दसोवग्गहे अणेगविहगण-भत्त-सरीर-वायामाणसाणं लुचित सिर को देख वे संवेग को प्राप्त हो गए। विशुद्ध अभंतरस्स मिच्छादरिसणाविरतिपमायकसायाणं वितो परिणामों से आत्मा की निन्दा कर पुनः शुक्लध्यान में सम्गो। अवस्थित हो गए। उधर श्रेणिक ने पुनः पूछा----- (दअचू पृ १९) भगवन ! प्रसन्नचन्द्र राजर्षि इस समय मृत्यु को प्राप्त व्युत्सर्ग का अर्थ है - परित्याग । उसके दो प्रकार हों तो कहां उत्पन्न होंगे? भगवान् ने कहा- अनुत्तर हैं-१. बाह्य उपधि का त्याग २. आभ्यन्तर उपधि का विमान में। इसी बीच श्रेणिक ने देवदुन्दुभि का स्वर त्याग। बाह्य उपधि-जिनकल्पी के बारह उपकरण, स्थविर सुना । भगवान् ने कहा- उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो गया है। देवता उनकी महिमा कर रहे हैं। यह प्रसन्नचन्द्र कल्पी के चौदह उपकरण तथा गण, आहार, शरीर, राजर्षि के द्रव्यध्यत्सर्ग और भावव्यत्सर्ग का उदाहरण वचन और मन की प्रवृत्ति का त्याग । आभ्यन्तर उपधि --मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद (आवच् १ पृ ४५५ हावृ १ पृ ३२५) और कषाय का त्याग। व्रत- प्रत्याख्यान। . (द्र. श्रावक) व्युत्सर्ग का उदाहरण : प्रसन्नचन्द्र राजर्षि शकुन-- पशु, पक्षी, व्यक्ति, वस्तु आदि से मिलने दव्वविउस्सग्गे खलु पसन्नचंदो हवे उदाहरण । वाली शुभ-अशुभ की पूर्व-सूचना । पडिआगयसंवेगो भावंमि वि होइ सो चेव ।। जंबू अ चासमऊरे भारहाए तहेव नउले अ। (आवनि १०५१) दसणमेव पसत्थं पयाहिणे सव्वसंपत्ती ।। क्षितिप्रतिष्ठित नगर में महाराज प्रसन्नचन्द्र भगवान् नंदी तूरं पुण्णस्स दंसणं संखपडहसद्दो य । महावीर के प्रवचन को सुन विरक्त हो गए। दीक्षा भिंगारछत्तचामर धयप्पडागा पसत्थाई। स्वीकार की। जिनकल्प स्वीकार करने की इच्छा से समणं संजयं दंतं सुमणं मोयगा दहिं । सत्त्व भावना से अपने आपको भावित कर रहे थे। एक मीणं घंटं पडागं च सिद्धमत्थं विआगरे ।। दिन राजगृह नगर के बाहर श्मशान में प्रतिमा में स्थित (ओभा ८४-८६) थे । भगवान् महावीर वहां पधारे। सारे लोग वन्दना प्रस्थान वेला में सियार, पपीहा, मयूर, भारद्वाज को जा रहे थे। दो वणिक भी वहां से गुजरे । प्रसन्नचन्द्र को ध्यानस्थ देखकर एक ने कहा-ये हमारे (भरत पक्षी), नकुल का दिखना शुभ है। सियार आदि दाहिनी ओर प्राप्त होने से अत्यधिक प्रशस्त हैं। राजा हैं। राजलक्ष्मी को छोडकर तप:श्री को स्वीकार किया है। ये धन्य हैं। तब दूसरे ने कहा- क्या धन्य नंदी वाद्य, तूर्य, पूर्ण कलश, शंख और पटह का है ? अपने नाबालिग पुत्र को राज्य सौंप कर स्वयं शब्द, झारी, छत्र, चामर, ध्वज-पताका आदि का योग संन्यासी बन गए । सारी जनता दुःखी है । यह सुनते ही प्रशस्त है । मुनि कुपित हो गए । मानसिक संग्राम प्रारम्भ हो गया। लिंगमात्रधारी तथा संयत और दान्त श्रमण, पुष्प, Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शरीर मोदक, दही, मत्स्य, घंटा, पताका सरसों आदि की प्राप्ति शुभ है। प्रस्थान वेला में इनके प्राप्त होने से कार्य की सिद्धि होती है । अप्रशस्त शकुन मइल कुचेले अब्भंगिएलए साण खुज्जवडभे या । एए उ अप्पसत्था हवंति खित्ताउ निताणं ॥ नारी पीवरगभा बहुकुमारी य कट्टभारो अ । कासायवत्थ कुच्चंधरा य कज्जं न साहेंति ।। ( ओभा ८२,८३) शरीर और वस्त्रों से मलिन तथा जीर्णवस्त्रधारी, स्नेहाभिषिक्त शरीर वाला, श्वान (बायें पार्श्व से दायें पार्श्व की ओर जाता हुआ कुत्ता), कुब्ज, वामन, निकट प्रसव वाली स्त्री ( आपन्नसत्त्वा), वर्धकुमारी, काष्ठ का गट्ठर, कषाय रंग के वस्त्रों को धारण करने वाला, दाढीमूंछ को धारण करने वाला ये सब अप्रशस्त हैं। प्रस्थानवेला में इनके प्राप्त होने में कार्य की सिद्धि नहीं होती । शरीर — काय । पौद्गलिक सुख-दुःख की अनुभूति का माध्यम । १. द्रव्यकाय भावकाय २. शरीर के प्रकार ३. औदारिक शरीर ० प्रकार ● मनुष्यों के शरीर जघन्य पद संख्या ४. वैक्रिय शरीर ५. आहारक शरीर ० प्रकार ६. तेजस शरीर ७. कार्मण शरीर ८. किस जीव के कितने शरीर ? ९. शरीरों को क्रम व्यवस्था १०. जीवप्रयोगकरण : शरीरकरण ११. जीवप्रयोगकरण: संघातपरिशाटकरण १२. औदारिक शरीर और रोग १३. शरीरधारण का प्रयोजन १४. शरीरप्रत्याख्यान का परिणाम * शरीर की वर्गणायें * कर्म और शरीर का सम्बन्ध * शरीर की प्रवृत्ति * शरीरनामकर्म की स्थिति ५९६ ( व्र. वर्गणा ) ( द्र. कर्म) ( द्र. योग ) औदारिक शरीर १. द्रव्य काय-भावकाय जीवस्स निवासाओ पोग्गलचयओ य सरणधम्माओ । काasarवसमाहाणओ य दव्व-भावमओ ॥ तज्जोग्गपुग्गला जे मुक्का य पजगपरिणया जाव । सो होइ दव्वकाओ बद्धा पुण भावओ काओ ॥ चयनं कायः चीयतेऽनेनेति वा कायो निवास- चितिशरीरो-पसमाधानेषु । तं च जीवप्रयोगपरिणामं ते मुक्ताः पुद्गला जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तम् उत्कृष्टतस्त्वसंख्येयं कालं न मुञ्चन्ति ततः परं त्ववश्यं परित्यजन्ति तमिति । ( विभा ३५२७, ३५२८ मवृ पृ ३५३, ३५४) शरीर का पर्याय है - काय । काय के चार अर्थ हैं - निवास, चय, विशरण और अवयवों का सम्यक् आधान । काय में जीव का निवास होता है, प्रतिक्षण पुद्गलों का उपचय और अपचय होता है, सिर, बाहु आदि अवयव सम्यक्रूप से व्यवस्थित होते हैं - इन कारणों से शरीर को काय कहा जाता है । औदारिककाय के योग्य पुद्गल, जो औदारिककाय की परिणति के अभिमुख हैं, किन्तु अभी तक जीव ने उन्हें ग्रहण नहीं किया है, वह द्रव्यकाय है । जीव ने औदारिक वर्गणा के जिन पुद्गलों को औदारिककाय प्रयोग के रूप में परिणत कर छोड़ दिया है, वे भी तब तक द्रव्यकाय हैं, जब तक औदारिक शरीरकाय प्रयोगपरिणाम को छोड़ कर अन्य रूप में परिणत नहीं होते हैं। वे पुद्गल जघन्यतः अन्तमुहूर्त और उत्कृष्टतः असंख्येय काल तक जीव के प्रयोगपरिणाम को नहीं छोड़ते, उसके पश्चात् अवश्य छोड़ देते हैं । जीव से बद्ध, औदारिक आदि कायरूप में परिणत पुद्गल भावकाय है । २. शरीर के प्रकार पंच सरीरा पण्णत्ता, तं जहा - ओरालिए वेउब्विए आहारए तेयए कम्मए । ( अनु ४४६ ) शरीर के पांच प्रकार हैं-औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तेजस और कार्मण । ३. औदारिक शरीर उदारं उरालं उरलं उरालियं वा उदारियं, तित्थगरगणधरसरीराई पडुच्च उदारं, उदारं नाम प्रधानं, उरालं नाम विस्तरालं, विशालंति वा जं भणिते होति, कहं ? (द्र. कर्म) | सातिरेगजोयणसहस्समवद्वियप्यमाणमोरालियं अण्णमेद्दह Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औदारिक शरीर ५९७ शरीर मित्तं णत्थि, वेउब्वियं होज्जा लक्खमहियं, अवट्टियं है। क्षेत्र की दृष्टि से वे अनन्त लोक जितने हैं। द्रव्य पंचधणुसते, इमं पुण अवट्टितपमाणं अतिरेगजोयणसहस्सं की दृष्टि से अभवसिद्धिक जीवों से अनन्तगुना अधिक वनस्पत्यादीनामिति । उरलं नाम स्वल्पप्रदेशोपचितत्वाद् और सिद्धों के अनन्तवें भाग में हैं। बृहत्त्वाच्च भिण्डवत् । उरालं (उरालियं ?) नाम प्रत्येकशरीरिणस्तावदसंख्याता एवातस्तेषां शरीरामांसास्थिस्नाय्वाद्यवयवबद्धत्वात् । (अनुहाव पू८७) ण्यप्यसंख्यातान्येव, साधारणशरीरिणस्तु विद्यन्ते अनन्ताः औदारिक शरीर को औदारिक कहने के चार हेतु किन्तु तेषां नैकैकजीवस्यकैकं शरीरं किन्त्वनन्तानामनन्ता नामेकैकं वपूरित्यत औदारिकशरीरिणामानन्त्येऽपि १. उदार-तीर्थंकर और गणधर भी औदारिक शरीराण्यसंख्येयान्येवेति । (अनुमव प १८१) शरीर धारण करते हैं इस अपेक्षा से वह उदार औदारिक शरीर वाले जीव अनंत हैं, फिर भी अथवा प्रधान शरीर है।। उनके शरीर असंख्य ही हैं। प्रत्येकशरीरी जीव (एक २. उराल-उराल का अर्थ है.--विशाल । औदा- शरीर में एक जीव) असंख्य उनी शरीर में एक जीव) असंख्य हैं। उनके शरीर भी असंख्य रिक शरीर की ऊंचाई एक हजार योजन से हैं। साधारणशरीरी जीव (एक शरीर में अनंत जीव) अधिक होती है । यद्यपि वैक्रिय शरीर की ऊंचाई एक शरीर में अनंत होते हैं. अतः उनके शरीर असंख्य कुछ अधिक एक लाख योजन प्रमाण होती है ही हैं। किन्तु वह अवस्थित नहीं है, वह उत्तरवक्रिय कहं पूनस्तान्यनंतलोकप्रदेशप्रमाणान्येकस्मिन्नेव काल में होती है । वैक्रिय शरीर की स्वाभाविक लोकेऽवगाहंत इति ? अत्रोच्यते, यर्थकप्रदीपाचिष्यप्येकऊंचाई ५०० धनुष्य प्रमाण होती है। भवनावभासिन्यामन्येषामप्यतिबहूनां प्रदीपानामचिषस्त३. उरल-भिण्डी की तरह जिसका आकार बड़ा थैवानुविशंति अन्योन्याविरोधादेवमौदारिकान्यपीति, एवं और प्रदेश का उपचय अल्प होता है उसकी संज्ञा सर्वशरीरेष्वप्यायोज्यम् । (अनुचू पृ ६३) है उरल। औदारिक शरीर आकार में बहत मुक्त औदारिक शरीर क्षेत्र की दृष्टि से अनंत लोकऔर प्रदेशोपचय की दृष्टि से स्वल्प होता है । प्रमाण बतलाये गये हैं, फिर उनका समावेश एक लोक में ४. उरालिय-औदारिक शरीर जो मांस, अस्थि, कैसे हो सकता है ? इसका समाधान प्रकाश के दृष्टांत स्नायु आदि अवयवों से बद्ध होता है। से किया गया है। जैसे एक प्रदीप के प्रकाश में अनेक प्रकार प्रदीपों का प्रकाश समाविष्ट हो जाता है, इसी प्रकार ___..'ओरालियसरीरा'"दुविहा पण्णत्ता, तं जहा- एक औदारिक शरीर के अवगाहनक्षेत्र में अनेक औदाबद्धेल्लया य मुक्केल्लया य । तत्थ ण जेते बद्धल्लया त रिक शरीरों का अवगाहन हो जाता है। णं असंखेज्जा, असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणी-ओसप्पिणीहिं (यह परिणतिवैचित्य का सिद्धांत है-एक आकाशअवतीरंति कालओ. खेत्तओ असंखेज्जा लोगा। तत्थ ण प्रदेश में एक परमाण भी रहता है और उसी आकाशजेते मक्केल्लया ते णं अणता अणंताहिं उस्सप्पिणी- प्रदेश में अनंतप्रदेशी स्कन्ध भी रहता है। यदि ओसप्पिणीहि अवहीरंति कालओ, खेत्तओ अणंता लोगा, पूदगल द्रव्य में सूक्ष्म परिणति की क्षमता नहीं होती तो दव्वओ अभवसिद्धिएहि अणंतगुणा सिद्धाणं अणंतभागो। अनंत परमाणुओं और अनंत स्कंधों के लिए अनंत लोक (अनु ४५७) अपेक्षित होते किन्तु सूक्ष्म परिणति की क्षमता के कारण औदारिक शरीर के दो प्रकार हैं- बद्ध और मुक्त। वे सब एक लोक में समाए हुए हैं।) उनमें जो बद्ध हैं, वे असंख्येय हैं। काल की दृष्टि से मणुस्साणं भंते ! केवइया ओरालियसरीरा पण्णत्ता ? असंख्येय उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी में उनका अपहार दुविहा पण्णत्ता, तं जहा बद्धेल्लया य मुक्केल्लया य । होता है। क्षेत्र की दष्टि से वे असंख्येय लोक जितने तत्थ णं जेते बद्धेल्लया ते णं सिय संखेज्जा सिय असंखेज्जा। जहण्णपए संखेज्जा- संखेज्जाओ कोडीओ उनमें जो मुक्त हैं वे अनन्त हैं। काल की दृष्टि से एगूणतीसं ठाणाई, तिजमलपयस्स उवरिं चउजमलपयस्स अनन्त उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी में उनका अपहार होता हेट्टा, अहव णं छट्ठो वग्गो पंचमवग्गपडुप्पण्णो, अहव णं Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शरीर छट्टो वग्गो पंचमवग्गपडप्पण्णो, अहव णं छण्णउइछेयणगदायरासी । उक्कोसपए असंखेज्जा - असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणी ओसप्पिणीहि अवहीरंति कालओ, खेत्तओ उक्कोसपर रूवपक्खित्तेहि मणुस्सेहि सेढी अवहीरइ, असंखेज्जाहि उस्सप्पिणी ओसप्पिणीहि कालओ, खेत्तओ अंगुल पढमवग्गमूलं तइयवग्गमूल पडुप्पण्णं । जहा ओहिया ओरालिया । मुक्केल्लया ( अनु ४९० ) मनुष्यों के औदारिक शरीर कितने प्रज्ञप्त हैं ? औदारिक शरीर के दो प्रकार हैं - बद्ध और मुक्त 1 उनमें जो बद्ध हैं वे कभी संख्येय होते हैं और कभी असंख्येय होते हैं । जघन्यपद में मनुष्यों के बद्ध औदारिक शरीर संख्येय होते हैं । संख्येय का प्रमाण इस प्रकार है— सख्येय करोड़, उनतीस अंक जितने ( आगमिक संज्ञा के अनुसार ) त्रियमल पद से अधिक और चतुर्थयमल पद से कम होते हैं । अथवा पांचवें वर्ग से गुणित छठे वर्ग, अथवा जो राशि आधे-आधे रूप में छिन्न करने पर छियानवे बार छिन्न हो सके, उतने होते हैं । उत्कृष्टपद में मनुष्यों के बद्ध औदारिक शरीर असंख्येय होते हैं । काल की दृष्टि से उनका अपहार असंख्येय उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी में किया जाता है । क्षेत्र की दृष्टि से उत्कृष्ट पद में होने वाले मनुष्यों में एक मनुष्य का प्रक्षेप करने पर उनके द्वारा एक आकाश प्रदेश की श्रेणी का अपहार होता है । इस कार्य में असंख्येय उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी का काल लगता है । क्षेत्र खंड का अपहार किया जाए तो श्रेणी के अंगुल प्रमाण क्षेत्र में होने वाली प्रदेश राशि के प्रथम वर्गमूल को तृतीय वर्गमूल से गुणित करने पर जो प्रदेश राशि प्राप्त होती है, उतने मनुष्य होते हैं । मुक्त शरीर औधिक औदारिक शरीर की भांति प्रतिपादनीय है । (देखें - अनु ४५७) अहं अट्ठण्हं ठाणाणं जमलपदत्ति सण्णा सामयिकी ।छ वग्गा ठविज्जंति, तंजहा एक्कस्स वग्गो एक्को एस गुणवुड्ढी रहितोत्ति कातुं वग्गो चेव ण भवति ते विहं वग्गो चत्तारि एस पढमो वग्गो, एयस्स वग्गो सोलस एस बितिओ वग्गो, एयस्स वग्गो दो सता छप्पण्णा, एस ततितो वग्गो, एतस्स वग्गो पण्णट्ठि सहस्साई पंच सयाई छत्तीसाई एस चउत्थो वग्गो, एयस्स इमो वग्गो तंजहा ४२९४९६७२९६ । पंचमवग्गस्स इमो वग्गो होति. १८४४६७४४०७३७०९५५१६१६ । एत्थ य पंचम छट्ठेहि पयोयणं, एस छट्टो वग्गो पंचमेण वग्गेण औदारिक शरीर पडुप्पाइज्जइ, पडुप्पाइए समाणे जं होति एवइया जहण्णपदिया मणुस्सा भवंति, ते य इमे एवइया ७९२२८१६२५१४२६४३३७५९३५४३९५०३३६ एवमेताई अउणतीसं ठाणाई एवइया जहण्णपदिया मणस्सा । ( अनुचू ६९, ७० ) संख्यात के भी संख्यात भेद होते हैं । इसलिए संख्यात कहने से निश्चित संख्या का बोध नहीं होता । निश्चित संख्या का कथन करने के लिए संख्यात कोटाकोटि कहा गया है । इसको और स्पष्ट करने के लिए २९ स्थान (अंक दशमलव ) कहे गए हैं। तीन यमलपद से अधिक और चार यमलपद से कम कहा गया है । आठ अंकों (दशमलव ) का एक यमलपद होता है । यह आगमिक संज्ञा है । २९ अंकों (दशमलव ) में तीन यमलपद से पांच अंक अधिक और चार यमलपद से तीन अंक कम हैं । प्रकारान्तर से कहा गया है पांचवें वर्ग और छट्ठे वर्ग के गुणनफल जितना है। इसे सरलता से इस प्रकार समझा जा सकता है । एक का वर्ग एक ही आता है उसके कितने ही वर्ग करो एक ही आएगा । इसलिए वर्गफल के लिए दो की संख्या को ग्रहण किया जाता है। २x२=४ पहला वर्गफल । ४४४ = १६ दूसरा वर्गफल । १६×१६ = २५६ तीसरा वर्गफल । २५६×२५६= ६५५३६ चौथा वर्गफल | ६५५३६×६५५३६= ४२९४९६७२९६ पांचवां वर्गफल । ४२९४९६७२९६४ ४२९४९६७२९६ १८४४६७४४०७३७०९५५१६१६ छट्टा वर्ग । अब पांचवें और छट्ठे वर्गफल को गुणा किया ४२९४९६७२९६४ १८४४६७४४०७३७०९५५१६१६= ७९२२८१६२५१४२६४३३७५९३५४३९५०३३६ । इसी ५९८ में २९ अंक है । प्रकारान्तर से तीसरी व्याख्या मिलती है कि उस राशि के छियानवे छेदनकदायी होते हैं । जो आधे-आधे करते छियानवें बार छेदन को प्राप्त हो और अंत में एक बच जाए उसे छियानवे छेदनकदायी राशि कहते हैं । इसका क्रम इस प्रकार है प्रथम वर्गफल (२×२ ) = ४ का छेदन छेदनक होते हैं। अगले अगले वर्गफल में छेदनक होते जाते हैं । दूसरे वर्गफल के ४ छेदनक तीसरे वर्गफल के ८ छेदनक चौथे वर्गफल के १६ छेदनक करने से दो पूर्व से दुगुने Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्मण शरीर पांचवें वर्गफल के ३२ छेदनक और छट्ठे वर्गफल के ६४ छेदनक | इन दोनों का योग करने से ३२+६४= ९६ छेदनक होते हैं । प्रकारान्तर से एक के अंक को स्थापित कर उत्तरोतर उसे छियानवे बार दुगुना दुगुना करने पर जितनी राशि आती है वह छियानवे छेदनकदायी राशि कहलाती है । इस छियानवे छेदन कदायी राशि का प्रमाण उतना ही होगा जितना कि पांचवें वर्गफल और छट्टे वर्गफल का गुणा करने से आता है । ४. वैक्रिय शरीर ५९९ पुण विविहा विट्टिगा वा किरिया विकिरिय तीए जं तमिह । नियमा विउब्वियं णारगदेवाण पयतीए ॥ ( अनुहावृ पृ८७ ) जो शरीर नाना रूपों का निर्माण करने में समर्थ होता है, वह वैक्रिय शरीर है । नारक और देव के वह स्वाभाविक होता है । मनुष्य और तिर्यंचों के यह लब्धिजन्य होता है । वायुकाय के भी वैक्रिय शरीर होता है । ५. आहारक शरीर विलिणा विसिद्धीय | जं एत्थ आहरिज्जइ भणति आहारयं तं तु ॥ ( अनुहावृ पृ ८७ ) आह्रियते इत्याहारकं गृह्यत इत्यर्थः । कार्यपरिसमाप्तेश्च पुनर्मुच्यते याचितोपकरणवत् । कार्याण्यमूनि -- तानि च पाणिदरिद्धिसंदरिसणत्थमत्थोवगाहणहेतुं वा । गमणं जिणपादमूलंमि || संसय वोच्छेयत्थं ( अनुचू पृ ६१ ) आहारकलब्धि के द्वारा निर्मित शरीर आहारक शरीर कहलाता है। श्रुतवकेली विशिष्ट प्रयोजन उत्पन्न होने पर इसका निर्माण करते हैं और कार्य संपन्न होने पर याचित उपकरण की तरह उसे छोड़ देते हैं । प्राणीदया, अर्हतों की ऋद्धि का दर्शन, नवीन अर्थ का अवग्रहण और संशय - अपनयन इन प्रयोजनों से आहारक शरीर अर्हत् की सन्निधि में जाता है । तथाविधप्रयोजने चतुर्दश पूर्वविदा आह्रियते – गृह्यत इत्याहारकम्, अथवा आह्रियन्ते गृह्यन्ते केवलिनः समीपे सूक्ष्मजीवादयः पदार्था अनेनेत्याहारकम् । (अनुमवृप १८१ ) शरीर चौदह पूर्वी विशिष्ट प्रयोजन उत्पन्न होने पर जिसका आहरण / ग्रहण करते हैं, वह आहारक शरीर है । अथवा जिस शरीर के होने पर केवली के समीप जाकर जीव आदि पदार्थों का सूक्ष्म विश्लेषण प्राप्त होता है, वह आहारक शरीर है । प्रकार """" ..... आहारगसरीरा ''' दुविहा पण्णत्ता, तं जहाबल्लया य मुक्केल्लया य । तत्थ णं जेते बद्धेल्लया ते णं सिय अत्थि सिय नत्थि, जइ अत्थि जहण्णेणं एगो वा दो वा तिणि वा, उक्कोसेणं सहस्सपुहत्तं । मुक्केल्लया जहा ओरालियसरी रस्स तहा भाणियव्वा । ( अनु ४५९ ) आहारक शरीर के दो प्रकार हैं- बद्ध और मुक्त | उनमें जो बद्ध हैं, वे कभी होते हैं और कभी नहीं होते । यदि होते हैं तो जघन्यतः एक, दो अथवा तीन और उत्कृष्टतः दो हजार से नौ हजार तक होते हैं। मुक्त आहारक शरीर औदारिक शरीर को भांति प्रतिपादनीय है । तस्स अंतरं, जहणं एक्कं समयं उक्कोसेणं छम्मासा, तेण ण होंतिवि कयाइं । ( अनुचू पृ ६४ ) बद्ध आहारक शरीर का अंतर काल जघन्यतः एक समय और उत्कृष्टतः छह महीने है । इसीलिए कहा गया है कि वह कभी होता है, कभी नहीं भी होता, निरंतर नहीं होता । ६. तेजस शरीर सव्वस्स उपहसिद्धं रसादिआहारपागजणणं वा । तेयगलद्धिनिमित्तं व तेयगं होति णायव्वं ॥ ( अनुचू पृ ६१ ) जो ऊष्मामय है, जिससे आहार का परिपाक होकर रस आदि निष्पन्न होते हैं और जो तेजोलब्धि का निमित्त है, वह तेजस शरीर है । ७. कार्मण शरीर कर्मणो विकारः कार्मणं, अष्टविधकर्मनिष्पन्नं सकलशरीर निबंधनं च । ( अनुहावृ पृ८७ ) अष्टविध कर्मसमुदाय निष्पन्नमौदारिकादिशरीरनिबन्धनं च भवान्तरानुयायि कर्मणो विकारः कर्मैव वा कार्मणम् । ( अनुमवृप १८१ ) कर्म का विकार कार्मण शरीर है। इसका निर्माण अष्टविध कर्मपुद्गलों से होता है । यह शेष सब शरीरों का मूल कारण है और एक भव से दूसरे भव में जीव के Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शरीर ६०० शरीरों की क्रम-व्यवस्था साथ जाने वाला है। पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं जहा वाउकाइयाणं । ..."पच्चक्खं चिय जीवोवनिबंधणं जह सरीरं। मणस्साणं "पंच सरीरा पण्णत्ता, तं जहाचिइ कम्मयमेवं भवंतरे जीवसंजुत्तं ।। ओरालिए। (विभा १६३६) वाणमंतराणं जोइसियाणं वेमाणियाणं जहा नेरइयह प्रत्यक्ष है कि जीव के साथ स्थूल शरीर संबद्ध याणं । . (अनु ४४४-४५६) है, उसी प्रकार भवान्तर में भी जीव के साथ कर्मशरीर पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजस्काय, वनस्पतिकाय, संबद्ध रहता है। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय-इन जीवों के तीन(मलधारीयवृत्ति में 'कर्म ही कार्मण शरीर है' ---- तीन शरीर हैं-औदारिक, तेजस और कार्मण । यह वैकल्पिक अर्थ भी प्राप्त है। सिद्धसेनगणी ने तत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् २।३७ की भाष्यानुसारिणी में इस वायुकाय और पंचेन्द्रियतियंचों के चार-चार शरीर अर्थ का मतांतर के रूप में उल्लेख किया है तथा कार्मण हैं-औदारिक, वैक्रिय, तेजस और कामण। शरीर कर्म से निष्पन्न है और कर्म ही कार्मण शरीर मनुष्यों के पांच शरीर हैं - औदारिक, वैक्रिय, है-इन दोनों पक्षों को अनेकांत दृष्टि से सगत बतलाया आहारक, तंजस और कार्मण।। नैरयिक जीवों तथा सभी देवों के तीन-तीन शरीर कर्म कार्मण शरीर में होते हैं पर कर्म भिन्न है, हैं-वैक्रिय, तेजस और कार्मण । कार्मण शरीर भिन्न है। कर्म की उत्पत्ति बंधन नामकर्म (औदारिक शरीर की जघन्य अवगाहना अंगुल का और रागद्वेष के निमित्त से होती है। शरीर की उत्पत्ति असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट अवगाहना कुछ अधिक शरीरनाम कर्म के उदय से होती है। इसी प्रकार इनका एक हजार योजन है। वैक्रिय शरीर की जघन्य अवगाहना विपाक भी भिन्न है। ज्ञानावरण आदि कर्म का विपाक अंगुल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट अवगाहना अज्ञान आदि उत्पन्न करता है । कार्मण शरीर का विपाक सातिरेक एक लाख योजन है। आहारक शरीर जघन्यतः कार्मण शरीर को ही परिपुष्ट करता है। देशोन रत्नि और उत्कृष्टतः एक रत्निप्रमाण होता है। तत्त्वार्थधिगमसूत्रम् ६।१० की व्याख्या में सिद्धसेन औदारिक शरीर नाना संस्थान वाला है। आहारक गणी ने कार्मण शरीर को अपने योग्य द्रव्यों से निर्मित शरीर समचतुरस्र संस्थान वाला है। सब शरीरों की स्वसंस्थान वाला बतलाया है। कार्मण शरीर कर्माशय अवगाहना, संस्थान आदि के लिए देखें--पण्णवणा के रूप में उत्पन्न होता है और वह कर्म के लिए आधार पद २१) भूत बनता है।) ८. किस जीव के कितने शरीर ? ९. शरीरों को क्रम-व्यवस्था नेरइयाण "तओ सरीरा पण्णत्ता, तं जहा- परं परं प्रदेश सूक्ष्मत्वात परं परं प्रदेशबाहल्यात परं देउव्विए तेयए कम्मए। परं प्रमाणोपलब्धित्वात् प्रथित एवौदारिकादिक्रमः । असुरकुमाराणं ""तओ सरीरा पण्णत्ता, तं जहा (अनुचू पृ ६१) वेउव्विए तेयए कम्मए । स्वल्पपदगलनिष्पन्नत्वादबादरपरिणामत्वाच्च प्रथमएवं तिण्णि-तिण्णि एए चेव सरीरा जाव थणिय मौदारिकस्योपन्यासः। ततो बहुबहुतरवहुतमपुद्गलकुमाराणं भाणियब्वा। निर्वत्तत्वात सक्ष्मसूक्ष्मतरसूक्ष्मतमत्वाच्च क्रमेण शेषपुढविकाइयाणं "तओ सरीरा पण्णत्ता, तं जहा---- ओरालिए तेयए कम्मए। शरीराणामिति । (अनुमवृ प १८१) एवं आउ-तेउ-वणस्सइकाइयाण वि एए चेव तिण्णि औदारिक शरीर स्वल्प पुद्गलों से निष्पन्न तथा सरीरा भाणियव्वा । स्थूल परिणति वाला है। वाउकाइयाणं ''चत्तारि सरीरा पण्णत्ता, तं जहा----- वैक्रिय आदि शेष चार शरीर क्रमशः बहु, बहुतर, ओरालिए वे उब्विए तेयए कम्मए । बहतम पुदगलों से निष्पन्न होते हैं। इनकी परिणति बेइंदिय-तेइंदिय-चाउरिदियाणं जहा पूढविकाइयाणं । क्रमशः सूक्ष्म, सूक्ष्मतर, सूक्ष्मतम होती है। Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवप्रयोगकरण : संघातपरिशाटकरण शरीर पांचों शरीरों की क्रमव्यवस्था का मुख्य हेतु है- कहलाता है, जो अंगोपांग नाम कर्म के उदय से इनकी उत्तरोत्तर सूक्ष्मता और प्रदेशबहुलता। ये अनेक निष्पन्न है। तैजस और कार्मण शरीर के अंगोपांग प्रमाणों से गम्य हैं। नहीं होते। १०. जीवप्रयोगकरण : शरीरकरण भाष्यकार ने अंगों के निर्माण को भी मूलकरण तथा दुविहं पओगकरणं जीवेतर मूल उत्तरं जीवे। हाथ, पैर, अंगुलि आदि उपांगों के निर्माण को उत्तरकरण मूले पंचसरीरा तिसू अंगोवंगणामं च ॥ कहा है-यह कथन आपेक्षिक है। सीसमुरोयरपिट्ठी दो बाहू अ हुंति ऊरू अ। ___औदारिक शरीर का परिकर्म, परिवर्धन आदि एए अळंगा खलु अंगोवंगाई सेसाई ॥ करना भी उत्तरकरण है । जैसे-केश, नख, दांत आदि हुँति उवंगा कण्णा नासऽच्छी जंघ हत्थ पाया य । को संस्कारित करना, लक्षपाक तैल आदि भेषज द्रव्यों से अंगोवंगा अंगुलिनहकेसामंसु एमाइ ।। शरीर के रूपलावण्य को बढ़ाना, कानों को खींचकर तेसि उतरकरणं बोधव्वं कण्णखंधमाईयं । बड़ा करना, कंधों को मर्दन आदि से मजबूत बनाना इंदियकरणा ताणि य उवधायविसोहिओ हंति ॥ आदि। अवयवविभागविरहितमौदारिकशरीराणां प्रथमम विषभक्षण आदि से आंख, कान आदि को क्षति भिनिवर्त्तनं तत् मूलकरणं"औदारिकर्वक्रियाहारेषु पहुंचती है, दृष्टि और श्रवणशक्ति नष्ट हो जाती है। तैजसकार्मणयोस्तदसम्भवादङ्गोपाङ्गनामैवोत्तरकरणम् ... ब्राह्मी, समीरांजन आदि के द्वारा इन्द्रियों की ग्रहणअंगोपांगनामशब्देनाङ्गोपाङ्गनामकर्मनिर्वतितान्यंगोपांगानि क्षमता वृद्धिंगत होती है। इस प्रकार इन्द्रियकरण भी गृह्यन्ते । वृद्धास्त्वंगान्यपि मूलकरणमिति मन्यन्ते, उत्तरकरण है । आपेक्षिकत्वाच्चमूलोत्तरत्वयोरुभयथाऽप्यविरोधः । “एवं इसी प्रकार केश, नख, दांत आदि के परिकर्म के वैक्रियस्यापि, आहारकस्य तु नास्त्येव, गमनादिना रूप में वैक्रिय शरीर का उत्तरकरण होता है। आहारक वा तस्याप्युत्तरकरणम् । शरीर के केश, नख, दांत आदि सहज रूप से ही विशिष्ट (उनि १८८-१९१ शाव प १९७) होते हैं, उनका परिकर्म नहीं किया जाता। सज्जीवं मूलुत्तरकरणं मूलकरणं जमाईयं । सिर, उर, उदर, पीठ, बाहुयुगल और ऊरुद्वय-ये पंचण्हं देहाणं उत्तरमाइत्तियस्सेव ॥ आठ अंग हैं। मूलकरणं सिरोरुपिट्टी बाहोदरोरुनिम्माणं । ___कर्णयुगल, नासिका, अक्षियुगल, जंघा, हाथ और उत्तरमवसेसाणं करणं केसाइकम्मं व॥ पैर --ये उपांग हैं। संठवणमणेगविहं दुण्हं, पढमस्स भेसएहिं पि। पाददुगं जंघोरू गातदुगद्धं च दो य बाहूओ। वण्णाईणं करणं, परिकम्मं तइयए नत्थि ।। गीवा सिरं च पुरिसो बारसअंगो.....॥ (विभा ३३१३ ३३१५) प्रयोगकरण के दो प्रकार हैं-जीवप्रयोगकरण और ___ (नन्दीहावृ पृ ६९) शरीर के बारह अंग हैं-दो पैर, दो जंघा, दो ऊरू, अजीवप्रयोगकरण। जीव औदारिक आदि शरीरों का निर्माण करता उर, पीठ, दो बाहु, ग्रीवा और सिर । है, वह जीवप्रयोगकरण कहलाता है। उसके दो भेद ११. जीवप्रयोगकरण : संघातपरिशाटकरण संघायण परिसाडणमुभयं करणमहवा सरीराणं । १. मूलकरण–शरीर का अवयवविभाग से रहित आदानमयणसमओ तदंतरालं च कालो सि ।। प्रथम निर्माण मूलकरण है। इसे पुदगलसंघात (विभा ३३१६) करण कहा जा सकता है। यह पांचों शरीरों का जीवप्रयोगकरण के तीन प्रकार हैंहोता है। संघातकरण, परिशाटकरण और उभयकरण। २. उत्तरकरण -औदारिक, वैक्रिय और आहारक पूर्वभविक औदारिक आदि शरीरपुद्गलों को शरीर के अंग-उपांगों का निर्माण उत्तरकरण छोड़कर अग्रिम भव में पूनः पुदगलों का संग्रहण संघात Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शरीर करण है। अथवा शरीरपुद्गलों का प्रथम ग्रहण संघात है । ६०२ औदारिक आदि पुद्गलों को छोड़ते समय चरम समय में उनका सर्वथा परित्याग परिशाटकरण है। संघात और परिशाट का कालमान एक - एक समय है । इन दोनों के अंतराल में उभयकरण होता है। संघयणपरिसारणउभयं तिसु दोसु नरिव संघाओ ।"" ( उनि १९२ ) तेवाकम्माणं पुण संताणोऽणाइओ न संपाओ । भव्वाण होज्ज साडो सेलेसीचरिमसमयम्मि || उभयमणाइनिणं, संत भव्याण होज्ज केसिथि अंतरमणाइभावा अच्चतविभोगओ ऐसि ॥ ( विभा २३३९,३३४० ) औदारिक, वैक्रिय और आहारक इन तीनों शरीरों के संघात आदि तीनों करण होते हैं। तेजस और कार्मण शरीर प्रवाह रूप से अनादिकालीन है, अतः इनका संघात नहीं होता । संघात का विषय है गृह्यमाण शरीर का प्रथम समय । इसी प्रकार इनका परिशाट भी नहीं होता, केवल उन भव्यों के शैलेशी अवस्था के चरम समय में होता है, जो मुक्त होने वाले हैं। तेजस और कार्मण शरीर का उभयकरण अभव्यों की अपेक्षा अनादि अनंत है। सिद्धिगमन के समय भब्य की अपेक्षा यह सांत है। औदारिकशरीर संघातपरिशाटकाल । तत्थोरा लियसंघाय करणं एगसमइयं, जं पढमसमओववन्नगस्थ जहा तेल्ले ओगामितो छूढो तप्पढमयाए आइयति, एवं जीवोऽवि उववज्जंतो पढमे समये गेहति ओरालियस रीरपाओग्गाई दबाई, न पुण मुंचति किचिवि परिसाउणादि समओ, मरणकालसमए एगंततो मुंचति न गिण्हति । ममिकाले किंचि गेहद किचि मुंचति । ( उशावृप १९८ ) औदारिक संघातकरण एक सामयिक होता है। जैसे तेल की तप्त कडाही में प्रक्षिप्त अपूप प्रथम क्षण में तेल को ग्रहण करता है, वैसे ही जीव उत्पत्ति के प्रथम समय में औदारिक शरीर के प्रायोग्य द्रव्य ग्रहण करता है। मृत्यु के समय पुद्गलों का एकांतत परिशाटन होता है, ग्रहण नहीं यह भी एक सामयिक है। जीवन के मध्य भाग में पुद्गलों का ग्रहण और मोचन होता रहता है । । आहारक शरीर संघातपरिशाटकाल : खुड्डागभवग्गणं तिसमयहीणं जहन्नमुभयस्स । पल्लतियं समऊणं उक्कोसोंतरालकालोऽयं ॥ दो विग्गहम्मि समया समओ संघायणाइ तेहूणं । डागभवग्गणं सजणट्टिईकालो ॥ (विभा ३३१७,३३१८ ) शरीरपुद्गलों के संघात और परिशाट के मध्य का काल संघातपरिशाट अथवा उभय काल है। इसका जघन्य कालमान तीन समय न्यून एक क्षुल्लक भवग्रहण ( दो सौ छप्पन आवलिका) तथा उत्कृष्ट कालमान एक समय न्यून तीन पत्योपम है। एक उच्छ्वासनिःश्वासप्रमाण काल में एक जीव साढे सतरह क्षुल्लकभव ग्रहण कर सकता है। एक क्षुल्लकभव वाले प्राणी का आयुष्य दो सौ छप्पन आवलिका है। एक जीव दो समय वाली विग्रह गति कर तीसरे समय में शुलकभव में उत्पन्न होता है। विग्रहगति के दो समय और उत्पत्ति के समय संघात का एक समय - इस प्रकार तीन समय न्यून दो सौ छप्पन आवलिका संघातपरिशाट का सर्वजघन्य काल है । देवकुरु आदि में उत्पन्न जीव प्रथम समय में औदारिकशरीर का संचात कर तीन पत्योपमप्रमाण उत्कृष्ट आयु भोगकर मरता है, उसकी अपेक्षा संघात परिशाट का उत्कृष्ट कालमान संघात का एक समय न्यून तीन पत्योपम होता है । आहारक शरीर संघातपरिशाटकाल : आहारोभयकालो दुविहोयंतरंतियं जहन्नं ति । अंतमुत्तमुक्कोसम परिवट्टमूर्ण च ॥ (विभा ३३३८) आहारक शरीर का संपात और परिशाट एक-एक समय का होता है । संघातपरिशाटात्मक उभय काल जघन्य और उत्कृष्ट दोनों ही अंतर्मुहूर्त है, क्योंकि आहारक शरीर का स्थितिकाल अंतर्मुहूर्त ही है । चतुर्दशपूर्वी आहारक शरीर का निर्माण कर प्रयोजन सिद्ध हो जाने पर उसे छोड़ देता है और पुनः प्रयोजन होने पर अंतर्मुहूर्त पश्चात् पुनः आहारकशरीर का निर्माण कर सकता है इस प्रकार संघातपरिशाट का जपन्य अंतराल अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अंतरकाल किचित् म्यून अर्धपुद्गलपरावर्त है एक चतुर्दशपूर्वी प्रमाद के कारण प्रतिपतित हो वनस्पति आदि में इतने काल तक रहकर पुनः चतुर्दशपूर्वी हो सकता है। Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शरीर ६०३ शरीर-प्रत्याख्यान का परिणाम शरीरप्रयोगकरण ___ इत्तो उत्तरकरणं सरीरकरणं पओगनिप्फन्न ।.... आतङ्कन-आशुधातिना शूलविसूचिकादिरोगेण । तस्य प्रयोगः-वीर्यान्तरायक्षयोपशमजजीववीर्यजनितो (उशावृ प २४६) व्यापारः तेन निष्पन्नं शरीरकरणप्रयोगनिष्पन्नम्, अत ___ आङिति सर्वात्मप्रदेशाभिव्याप्त्या तङ्कयन्ति-कृच्छएव शरीरनिष्पत्त्यपेक्षयाऽस्योत्तरत्त्वम् । जीवितमात्मानं कुर्वन्तीत्यातङ्काः–सद्योघातिनो रोग(उनि १९३ शावृ प २०१) विशेषाः ।। (उशावृ प ३३८) वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से होने वाला जीव शिर:शूल, विसूचिका आदि सद्योघाती रोग आतंक का वीर्यजनित व्यापार शरीरप्रयोगकरण है। शरीर की कहलाते हैं। आतंक सर्व आत्मप्रदेशों में व्याप्त हो कष्ट निष्पत्ति जीवमुलप्रयोगकरण है और शरीर की प्रवत्ति पहुंचाता है। यह प्राणी को अल्पजीवी बनाता है। उत्तरप्रयोगकरण है । इसके चार भेद हैं -- मुत्तनिरोहे चक्खू, वच्चनिरोहेण जीवियं चयइ । १. संघात-तंतुओं के संघात से पट का निर्माण । उड्ढ निरोहे को8, गेलन्नं वा भवे तिसुवि ।। २. परिशाट -- अतिरिक्त भाग के परिशाट से शंख (ओनि १९७) ___का निर्माण करना आदि । शारीरिक आवेगों को रोकने से व्याधियां होती हैं। ३. मिश्र ----कीलिका आदि का संघात तथा मूत्रनिरोध से दृष्टि लुप्त हो जाती है। मलनिरोध अतिरिक्त काष्ठ का परिशाट कर शकट का से मृत्यु तक हो जाती है । ऊर्ध्ववायु के निरोध से कोढ का निर्माण करना। रोग हो जाता है । तीनों के निरोध से शक्ति की क्षीणता ४. प्रतिषेध-न संघात, न परिशाट । जैसे स्थूणा होती है। को ऊपर-नीचे करना। १३. शरीर-धारण का प्रयोजन यद्यपि यह अजीव का उत्तरकरण है, किंतु जीव के बहिया उड्ढमादाय, नावकखे कयाइ वि । द्वारा किया जाता है, इस अपेक्षा से इसे जीवकरण कहा पुब्बकम्मखयट्ठाए, इमं देहं समुद्धरे ।। गया है। (उ ६.१३) १२. औदारिक शरीर और रोग बाह्य-शरीर से भिन्न ऊर्ध्व-आत्मा है। इसे सासे खासे जरे डाहे, कुच्छिसूले भगंदरे । स्वीकार कर किसी प्रकार की आकांक्षा न करे । पूर्व कर्मों अरिसा अजीरए दिट्ठी-मुहसूले अरोयए ।। के क्षय के लिए ही इस शरीर को धारण करे । अच्छिवेयण कंडू य, कन्नवाहा जलोयरे । सरीरमाहु नावत्ति, जीवो वुच्चइ नाविओ। कोढे एमाइणो रोगा, पीलयंति सरीरिणं ।। संसारो अण्णवो वुत्तो, जं तरंति महेसिणो ।। (उसुव प १६३) (उ २३७३) श्वास, खांसी, ज्वर, दाह, कुक्षिशूल, भगंदर, अर्स, जीव नाविक है। संसार समुद्र है। उसको तैरने अजीर्ण, दृष्टिशूल, मुखशूल, अरुचि, अक्षिवेदना, खाज, का एकमात्र साधन है नौका । वह नौका शरीर ही है। कर्णबाधा, जलोदर, कोढ आदि रोग शरीर को पीडित करते हैं। १४. शरीर-प्रत्याख्यान का परिणाम अरतिः बातादिजनितश्चित्तोद्वेगः। विध्यतीव सरीरपच्चक्खाणेणं सिद्धाइसयगुणत्तणं निव्वत्तेइ । शरीरं सूचिभिरिति विसूचिका-अजीर्णविशेषः । सिद्धाइसयगुणसंपन्ने य णं जीवे लोगग्गमुवगए परमसुही (उशाव प ३३८) भवइ । (उ २९।३९) वायु आदि से उत्पन्न चित्त का उद्वेग अरति शरीर के प्रत्याख्यान (देहमुक्ति) से जीव मुक्त कहलाता है। आत्माओं के अतिशय गुणों को प्राप्त करता है और लोक अजीर्णविशेष को विसूचिका कहते हैं। इसमें रोगी के शिखर पर पहुंचकर परम सुखी हो जाता है । को ऐसा महसूस होता है कि शरीर सूइयों से बींधा जा Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शासन-भेद सचेल और अचेल शरीरपर्याप्ति-शरीर के योग्य पुद्गलों का ग्रहण कुमारश्रमण केशी ने पूछा---गौतम ! हमारा एक परिणमन और उत्सर्ग करने वाली ही उद्देश्य है, फिर इस भेद का क्या कारण है ? धर्म पौद्गलिक शक्ति । (द्र. पर्याप्ति) के इन दो प्रकारों में तुम्हें संदेह कैसे नहीं होता ? शान्ति-सोलहवें तीर्थंकर। (द्र. तीर्थंकर) गौतम ने कहा-पहले तीर्थंकर के साधु ऋजु और जड़ होते हैं। अन्तिम तीर्थंकर के साधु वक्र और जड़ शासन-भेद-अर्हत् पार्श्व और श्रमण महावीर के होते हैं । बीच के तीर्थंकरों के साधु ऋजु और प्राज्ञ होते शासन में होने वाला आचार-भेद और हैं, इसलिए धर्म के दो प्रकार किए हैं। व्यवस्था-भेद। पूर्ववर्ती साधुओं के लिए मुनि के आचार को यथावत् ग्रहण कर लेना कठिन है। चरमवर्ती साधुओं के लिए १. चातुर्याम और पंचयाम मुनि के आचार का पालन कठिन है । मध्यवर्ती साधु उसे ० भेव का कारण यथावत् ग्रहण कर लेते हैं और उसका पालन भी वे • रात्रिभोजनविरमण और शासनभेद सरलता से कर लेते हैं। (द्र. रात्रिभोजनविरमण) २. सामायिक और छेदोपस्थापनीय २. सामायिक और छेदोपस्थापनोय ३. प्रतिक्रमण का भेद बावीसं तित्थयरा सामाइयसंजमं उवइसति । ४. सचेल और अचेल छओवट्ठावणयं पुण वयति उसभो य वीरो य । ५. वेश के प्रति दृष्टिकोण (आवनि १२४६) ६. अचेलता के परिणाम ७. परिहारविशुद्धि चारित्र बाईस तीर्थंकर सामायिक चारित्र का व्यवस्थापन करते हैं । अर्हत् ऋषभ तथा महावीर छेदोपस्थानीय की १. चातुर्याम और पंचयाम भी व्यवस्था करते हैं। चाउज्जामो य जो धम्मो, जो इमो पंचसिक्खिओ। देसिओ वद्धमाणेण, पासेण य महामुणी ।।। ३. प्रतिक्रमण का भेद (उ २३११२) सपडिक्कमणो धम्मो पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स । धर्म के दो प्रकार हैं मज्झिमयाण जिणाणं कारणजाए पडिक्कमणं ।। १. चातुर्याम धर्म २. पंचयाम धर्म । (आवनि १२४४) अहिंसा, सत्य, अचौर्य, बाह्य-आदान-विरति-इस प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के समय में प्रतिक्रमण चातुर्याम धर्म का प्रतिपादन अर्हत् पार्श्व ने किया है। करना अनिवार्य है-उनका धर्म सप्रतिक्रमण धर्म है। अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह- इस पंच शेष तीथंकरों के शासन में कारण (अतिचार आदि) होने शिक्षात्मक धर्म का प्रतिपादन भगवान महावीर ने किया पर प्रतिक्रमण किया जाता है। भेद का कारण एगकज्जपवन्नाणं विसेसे कि न कारणं ?। धम्मे दुविहे मेहावि, कहं विप्पच्चओ न ते ?|| पुरिमा उज्जुजडा उ, वंकजडा य पच्छिमा। मज्झिमा उज्जुपन्ना य, तेण धम्मे दुहा कए । पुरिमाणं दुव्विसोझो उ, चरिमाण दुरणपालओ। कप्पो मज्झिमगाणं तु, सुविसोझो सुपालओ। (उ २३।२४,२६,२७) ४. सचेल और अचेल अचेलगो य जो धम्मो, जो इमो संतरुत्तरो। देसिओ वद्धमाणेण, पासेण य महाजसा ।। (उ २३।२९) ___ महामुनि वर्धमान ने जो आचार-धर्म की व्यवस्था की है वह अचेलक है और महान् यशस्वी पार्श्व ने जो यह आचार-धर्म की व्यवस्था की है वह सान्तर (अन्तर् वस्त्र) तथा उत्तर (उत्तरीय वस्त्र) है । Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिहारविशुद्धि चारित्र ६०५ शासन-भेद अचेलं --चेलाभावो जिनकल्पिकादीनाम् । अन्येषां परिहारविशुद्धि चारित्र प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर तु भिन्नमल्पमूल्यं च चेलमप्यचेलमेव । (उशाव प ८२) के समय में ही होता है ।। अचेल के दो अर्थ हैं (भगवान् पार्श्व और भगवान महावीर के शासन-भेद १. वस्त्र का अभाव या वस्त्र न रखना । इस अपेक्षा सहित से जिनकल्प मुनि अचेल होते हैं। भगवान पार्श्व भगवान् महावीर २. अल्प परिमाण में और अल्पमूल्य वाले वस्त्र १. चातुर्याम १. पांच महाव्रत रखना, अखंड वस्त्र ग्रहण न करना। २. सामायिक चारित्र २. छेदोपस्थापनीय चारित्र ५. वेश के प्रति दृष्टिकोण ३. रात्रिभोजन न करना ३. रात्रिभोजन न करना पच्चयत्थं य लोगस्स, नानाविहविगप्पणं ।... उत्तर गुण मूल गुण ४. सचेल ४. अचेल अह भवे पइण्णा उ, मोक्खसन्भूयसाहणे । ५. दोष होने पर प्रतिक्रमण ५. नियमतः दो बार नाणं च दंसणं चेव, चरित्तं चेव निच्छए । प्रतिक्रमण (उ २३।३२,३३) ६. औद्देशिक--एक साधु के ६. औद्देशिक—एक साधु व्यावहारिक दृष्टिकोण ----- लिए बने आहार का दूसरे के लिए बने आहार लोगों को यह प्रतीति हो कि ये साधु हैं, इसलिए द्वारा ग्रहण का दूसरे द्वारा वर्जन। नाना प्रकार के उपकरणों की परिकल्पना की गई है। ७. राजपिण्ड का ग्रहण ७. राजपिण्ड का वर्जन नैश्चयिक दृष्टिकोण ८. मासकल्प का अनियम । ८. मासकल्प का नियम यदि मोक्ष के वास्तविक साधन की प्रतिज्ञा हो तो जीवन-भर एक गांव -एक स्थान में एक निश्चय-दष्टि में उसके साधन ज्ञान, दर्शन और चारित्र में रहने का विधान । मास से अधिक न कीचड़ और जीव-जन्तु न रहने का विधान । ६. अचेलता के परिणाम हो उस स्थिति में वर्षा- वर्षकाल में बिहार न काल में भी विहार का करने का विधान। पडिरूवयाए णं लावियं जणयइ । लहभूए णं जीवे विधान । अप्पमत्ते पागडलिंगे पसत्थलिगे विसुद्धसम्मत्ते सत्तसमिइ ९. पर्युषण कल्प का ९. पर्युषण कल्प का समत्ते सव्वपाणभूय-जीवसत्तेसु वीससणिज्जरूवे अप्पडिलेहे अनियम। नियम । जघन्यतः जिइंदिए विउलतवसमिइसमन्नागए यावि भवइ ।। भाद्रव-शुक्ला पंचमी (उ २९।४३) से कार्तिक शुक्ला प्रतिरूपता (अचेलता) से जीव हल्केपन को प्राप्त होता पंचमी तक और है । उपकरणों के अल्पीकरण से हल्का बना हुआ जीव उत्कृष्टतः आषाढ़ अप्रमत्त, प्रकटलिंग वाला, प्रशस्त लिंग वाला, विशुद्ध पूर्णिमा से कार्तिक सम्यक्त्व वाला, पराक्रम और समिति से परिपूर्ण, सर्व प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों के लिए विश्वसनीय रूप पूर्णिमा तक एक स्थान में रहने का नियम। वाला, अल्प प्रतिलेखन वाला, जितेन्द्रिय तथा विपुल १०. १०. परिहार विशुद्धि चारित्र । तप और समितियों का सर्वत्र प्रयोग करने वाला होता । विस्तृत जानकारी के लिए देखें-उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन, पृष्ठ १२३-१३१) ७. परिहारविशुद्धि चारित्र ठियकप्पे च्चिय नियमा दो पुरिसजुगाइं ते होंति ।। (विभा १२७६) Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिक्षा ६०६ कैसे सीखें? शिक्षा- अध्ययन । अभ्यास । विमर्श-पुनः विचार-विमर्श करना। १. शिक्षा के प्रकार प्रसंगपारायण-सुने हुए श्रुतप्रसंग का पारायण करना। २. श्रवणविधि परिनिष्ठा-तत्त्वनिरूपण में पारगामिता प्राप्त ३. शिक्षाग्रहण की विधि करना। ४. कैसे सीखें ? इस श्रवण-विधि से श्रुत की समीचीन प्राप्ति होती है। ५. श्रुत-अध्ययन के उद्देश्य श्रुतग्रहण की प्रक्रिया ६. शिक्षा की अर्हता (द्र. बुद्धि) ३. शिक्षाग्रहण की विधि __ * योग्य-अयोग्य श्रोता : मुद्गशैल आदि दृष्टांत (द्र. परिषद) सिक्खयमंतं नीयं हिययम्मि ठियं जियं दुयं एइ । ७. अयोग्य को वाचना वेने से हानि संखियवण्णाइ मियं परिजियमेतुक्कमेणं पि ।। ८. शिक्षाशील के लक्षण जह सिक्खियं सनामं तह तं पितहा ठियाइ नामसमं । ९. शिक्षा के बाधक तत्त्व गुरुभणियघोसस रिसं गहियमुदत्तादओ ते य॥ (विभा ८५१, ८५२) १. शिक्षा के प्रकार ग्रहण-विधि के सात सूत्रसिक्खा दुविहा, तं जहा-गहणसिक्खा आसेवणसिक्खा शिक्षित - सीख लेना, कण्ठस्थ कर लेना । य । गहणसिक्खा नाम सुत्तत्थाणं गहणं । आसेवणासिक्खा स्थित --अप्रच्युत बना लेना, हृदय में व्यवस्थित कर नाम जे तत्थ करणिज्जा जोगा तेसिं काएणं संफासणं, लेना। अकरणिज्जाण य वज्जणया। (दजिच पृ २०९) चित -- शीघ्र याद आ जाना। शिक्षा के दो प्रकार हैं मित-वर्ण आदि का संख्या-परिमाण जान लेना। १. ग्रहण शिक्षा-सूत्र और अर्थ को ग्रहण करना। परिचित-उत्क्रम या प्रतिलोम पद्धति से दोहरा लेना। २. आसेवन शिक्षा-जो करणीय अनुष्ठान हैं, उनका नामसम--- अपने नाम के समान सदा स्मृति में अवस्थित काया से संस्पर्श करना- आचरण करना और रखना। जो अकरणीय हैं, उनका वर्जन करना । घोषसम-वाचनाचार्य द्वारा कृत उदात्त-अनुदात्त-स्वरित आसेवणसिक्खा जथा ओहसामायारीए पयविभाग- घोष के समान घोष ग्रहण करना। सामायारीए य वणितं । गहणसिक्खाइ सुयं जथा ४.कैसे सीखें? भगवता थलभद्दसामिणा गहितं अणिविण्णणं होतूण। न विहीणक्खरमहियक्खरं च वोच्चत्थ रयणमाल व्व । (आव २ पृ १५७, १५८) वाइद्धक्ख रमेवं वच्चासियवण्णविण्णासं ।। जो ओघ सामाचारी और पदविभाग सामाचारी में न खलियमुवलहलं पिव, न मिलियमसरूव धण्णमेलो व्व । वणित है, वह आसेवन शिक्षा है । भगवान् स्थूलभद्रस्वामी वोच्चत्थगंथमहवा अमिलियपय-वक्कविच्छेयं ।। ने अश्रांतभाव से (आचार्य भद्रबाहु से) जो श्रुत ग्रहण न य विविहसत्थपल्लवविमिस्समट्ठाणच्छिन्नगहियं वा । किया, वह ग्रहण शिक्षा है । विच्चामेलिय कोलिय पायसमिव भेरिकंथ व्व ।। २. श्रवण-विधि मत्ताइनिययमाणं छंदसाहवऽत्थेणं । मूअं हुंकारं वा, बाढक्कार पडिपूच्छ वीमंसा। नाकंखाइसदोसं पुण्णमुदत्ताइघोसेहिं । तत्तो पसंगपारायणं परिणिट्र सत्तमए । कंठोडविप्पमुक्कं नाव्वत्तं बाल-मूयभणियं व । (नन्दी १२७।४) गुरुवायणोवयातं न चोरियं पोत्थयाओ वा ।। श्रवण-विधि के सात अंग-- (विभा ८५३-८५७) मूक - मूक, मौन भाव से सुनना।। सीखने के दस सूत्रहुंकार ---'हं' ऐसा कहकर स्वीकार करना । अहीनाक्षर-अक्षर हीन न हो । वाढंकार . ऐसा ही है अन्यथा नहीं है, ऐसे कहना। अनत्यक्षर-अक्षर अधिक न हो। प्रतिपृच्छा --प्रश्न करना । अव्याविद्धाक्षर ... जिसका वर्णविन्यास ग्रामीण अहीरन के Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिक्षा की अर्हता द्वारा पिरोई गई माला के रत्नों के समान विपर्यस्त न हो । अस्खलित- जो विषम भूमि पर स्खलित गति से चलने वाले हल के समान न हो । अमीलित पद-वाक्य - विजातीय धान्य के समान जिसके पद, वाक्य आदि आपस में मिले हुए न हों अथवा जिसके पदच्छेद, वाक्यविच्छेद आदि मिले हुए नहीं । अभ्यत्या डित - जिसमें विविध शास्त्रों के वाक्यों का मिश्रण न 'अथवा जो कोलिक - पायस या भेरीकन्या के समान न हो । परिपूर्ण - जो मात्रा आदि से निश्चित परिमाण वाला हो तथा जिसमें आकांक्षा - क्रिया आदि के अध्याहार की अपेक्षा न हो । पूर्णघोष - परावर्तन काल में उदात्त आदि घोषों से परिपूर्ण उच्चारण हो । कण्ठौष्ठ विप्रमुक्तकण्ठ, होठ आदि से स्पष्ट उच्चारण हो । जो बाल, मूक आदि के कथन के समान अव्यक्त न हो । गुरुवाचनोपगत - जो गुरु के द्वारा साक्षात् पढ़ाया हुआ हो, पुस्तक से पढ़ा हुआ न हो अथवा गुरु दूसरे को पढ़ा रहे हों, उसे सुनकर सीखा हुआ न हो । ५. श्रुत-अध्ययन के उद्देश्य खलु सुयसमाही भवइ, तं जहा १. सुयं मे भविस्सइ त्ति अभाइयव्वं भवइ । २. एगग्गचित्तो भविस्सामि त्ति अज्झाइयव्वं भवइ । ३. अप्पाणं ठावइस्सामि त्ति अज्झाइयव्वं भवइ । ४. ठिओ परं ठाव इस्सामि त्ति अज्झाइयव्वं भवइ । (द ९/४/५ ) श्रुत-समाधि ( श्रुताध्ययन) के चार हेतु -- १. मुझे श्रुत का लाभ होगा, ज्ञान बढ़ेगा । २. मैं एकाग्र चित्त हो पाऊंगा । ३. मैं स्वयं को धर्म में स्थापित करूंगा । ४. मैं स्वयं धर्म में स्थापित होकर दूसरों को उसमें स्थापित करूंगा । तम्हा यम हिट्ठेज्जा, उत्तम गवेस । जेणपाणं परं चेव, सिद्धि संपाउणेज्जासि ॥ ( उ ११।३२) ६०७ श्रुत - अध्ययन के तीन प्रयोजन हैं१. परम अर्थ (मोक्ष) की खोज । २. स्वयं सिद्धि प्राप्त करने की अर्हता । ३. दूसरों को सिद्धि प्राप्त कराने की क्षमता । अज्झष्पस्साणयणं, कम्माणं अवचओ उवचियाणं । अणुवचओ य नवाणं, तम्हा अज्झयणमिच्छति ॥ ( अनु ६३१ ) अध्ययन के तीन उद्देश्य हैं - • अध्यात्म की उपलब्धि । उपचित कर्मों का अपचय / क्षय । ० • नये कर्मों का अनुपचय / निरोध | शिक्षा जेण सुहज्झप्पजणं अज्झष्पाणयणमहियमयणं वा । बोहस्स संजमस्स व मोक्खस्स व जं तमज्झयणं ॥ ( विभा ९६० ) जिससे शुभ चित्त का निर्माण होता है, अध्यात्म की उपलब्धि होती है तथा जिससे बोधि, संयम और बन्धनमुक्ति के तथ्यों की अधिक प्राप्ति होती है, वह अध्ययन है । ६. शिक्षा की अर्हता उवहिजो गदव्व देसे काले परेण विणएणं । चित्तण्णू अणुकूलो सीसो सम्मं सुयं लहइ || ( विभा ९३७ ) देश और काल गुरु का अतिशय विनय करने वाला, के अनुकूल द्रव्य - अंशन, पान, वस्त्र, पात्र, औषध आदि उपलब्ध कराने वाला, अभिप्राय को जानने वाला अनुकूल शिष्य सम्यक् श्रुत को प्राप्त करता है । विणओएहि कयपंजलीहि छंदमणुअत्तमाणेहि । आराहिओ गुरुजणो सुयं बहुविहं लहुं देइ || ( आवनि १३८ ) जो शिष्य विनीत है, बद्धांजलि होकर गुरु से बात करता है, गुरु के अभिप्राय का अनुवर्तन करता है, जो गुरुजनों की आराधना करता है, उसे गुरु विविध प्रकार का ज्ञान शीघ्र करा देते हैं । जे आयरिय उवज्झायाणं, सुस्सूसावयणंकरा । तेसि सिक्खा पवति, जलसित्ता इव पायवा ।। (द ९/२/१२) जो मुनि आचार्य और उपाध्याय की शुश्रूषा और आज्ञा-पालन करते हैं, उनकी शिक्षा उसी प्रकार बढ़ती है, जैसे जल से सींचे हुए वृक्ष । Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिष्य सुविनीत शिष्य कौन? वसे गुरुकूले निच्चं, जोगवं उवहाणवं । अविद्वान-विवेकहीन व्यक्ति का ऐश्वर्य उसी के विनाश पियंकरे पियंवाई, से सिक्खं लद्धमरिहई ।। के लिए होता है। (उ ११११४) ८. शिक्षाशील के लक्षण जो सदा गुरुकुल में वास करता है, जो एकाग्र होता अह अहिं ठाणे हिं, सिक्खासीले त्ति वच्चई। है, जो उपधान-तप करता है, जो प्रिय व्यवहार करता अहस्सिरे सया दंते, न य मम्ममुदाहरे । है, जो प्रिय बोलता है वह शिक्षा प्राप्त कर सकता है। नासीले न विसीले, न सिया अइलोलुए। ७. अयोग्य को वाचना देने से हानि अकोहणे सच्चरए, सिक्खासीले त्ति वच्चई ।। आयरिए सुत्तम्मि य परिवाओ सुत्तअत्थपलिमंथो । (उ ११।४,५) शिक्षाशील व्यक्ति के आठ लक्षणअन्नेसि पि य हाणी पुट्ठा वि न दुद्धया वंझा ॥ १. जो हास्य नहीं करता। २. जो सदा इन्द्रियों (विभा १४५७) और मन पर नियंत्रण रखता है। ३. जो मर्म का प्रकाजो एक अर्थपद को भी यथार्थ रूप से ग्रहण नहीं कर शन नहीं करता। ४. जो चरित्र से हीन नहीं है। पाता, ऐसे अयोग्य शिष्य को वाचना देने से आचार्य और ५. जिसका चरित्र दोषों से कलुषित नहीं है। ६. जो श्रुत का अवर्णवाद होता है। कोई कहता है-आचार्य रसों में अतिलोलुप नहीं है । ७. जो क्रोध नहीं करता। कुशल नहीं है, उनमें प्रतिपादन की क्षमता नहीं है । कोई ८. जो सत्यनिष्ठ है। कहता है--श्रुतग्रंथ परिपूर्ण अथवा उपयुक्त नहीं है। ९. शिक्षा के बाधक तत्त्व उस शिष्य को वाचना देने में समय अधिक बीत अह पंचहि ठाणेहि, जेहिं सिक्खा न लब्भई। जाता है, इससे आचार्य सूत्र और अर्थ का परावर्तन नहीं थंभा कोहा पमाएणं, रोगेणाऽलस्सएण य ।। कर सकते, अन्य योग्य शिष्यों को पूर्ण वाचना नहीं दे (उ ११२३) सकते । इस प्रकार सूत्र और अर्थ की परिहानि होती है। . अहंकार, क्रोध, प्रमाद, रोग और आलस्य-इन जैसे वन्ध्या गाय सस्नेह आस्फालन करने पर भी पांच हेतुओं से शिक्षा प्राप्त नहीं होती। दूध नहीं देती, वैसे ही मूढ शिष्य कुशल गुरु से एक शिष्य- अनुशासन में रहने वाला। अक्षर भी ग्रहण नहीं कर सकता। अयोग्य को वाचना देने १. सुविनीत शिष्य कौन ? वाला क्लेश का अनुभव करता है और प्रायश्चित्त का २. अनुशासन और शिष्य भामी होता है। ३. शिष्य का कर्तव्य थंमा व कोहा व मयप्पमाया . ४. आचार्य के समीप बैठने की विधि गुरुस्सगासे विणयं न सिक्खे । ५. आचार्य के साथ वार्तालाप की विधि सो चेव उ तस्स अभूइभावो ६. विनीत शिष्य की उपलब्धियां फलं व कीयस्स वहाय होइ ! ७. बिनीत शिष्य और अश्व (द ९।१११) ८. अविनीत शिष्य कौन ? जो मुनि गर्व, क्रोध, माया या प्रमादवश गुरु के ९. अविनीत शिष्य का स्वभाव समीप विनय की शिक्षा नहीं लेता, वही विनय की | १०. अविनीत शिष्य : कुछ उपमाएं अशिक्षा उसके विनाश के लिए होती है। जैसे कीचक | ११. अविनय का परिणाम (बांस) का फल उसके वध के लिए होता है। * आचार्य की आशातना के परिणाम (द. आचार्य) पक्षाः पिपीलिकानां, फलानि तलकदलीवंशपत्राणाम । * विनीत शिष्य: शिक्षा की अर्हता (5. शिक्षा) ऐश्वर्यञ्चाविदुषामुत्पद्यन्ते विनाशाय ।। १. सुविनीत शिष्य कौन ? (दअचू पृ २०६) अह पन्नरसहि ठाणेहि, सुविणीए त्ति वुच्चई । चींटियों के पर, ताड़, कदली और बांस के फल तथा नीयावत्ती अचवले, अमाई अकुऊहले ॥ Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशासन और शिष्य शिष्य अप्पं चाऽहिक्खिवई, पबंधं च न कुव्वई । अपवादविधि से प्रतिपादन करना आज्ञानिर्देश है। उसके मेत्तिज्जमाणो भयई, सूयं लद्धं न मज्जई ।। अनुरूप अनुष्ठान करने वाला शिष्य आज्ञानिर्देशकर कहन य पावपरिक्खेवी, न य मित्तेसु कुप्पई । लाता है । अथवा 'यह ऐसे करो, यह ऐसे करो'- इस अप्पियस्सावि मित्तस्स, रहे कल्लाण भासई। प्रकार के आज्ञानिर्देश का पालन करने वाला आज्ञानिर्देशकलहडमरवज्जए, बुद्धे अभिजाइए। कर कहलाता है। हिरिमं पडिसंलीणे, सूविणीए त्ति वुच्चई। गुरु-उपपातकारक (उ ११।१०-१३) आचार्यादीनां उपपातः दृग्वचनविषयदेशावस्थानं सुविनीत शिष्य के पन्द्रह लक्षण तत्कारक..... तदनुष्ठाता, न तु गुर्वादेशादिभीत्या तव्य१. जो नम्र व्यवहार करता है । वहितदेशस्थायी। (उशाव प ४४) २. जो चपल नहीं होता । ___ जहां बैठा हुआ शिष्य गुरु को दृग्गोचर होता रहे, ३. जो मायावी नहीं होता। जहां बैठा हुआ वह गुरु के वचन को सुन सके, उतनी दूरी ४. जो कुतुहल नहीं करता। तक बैठना उपपात है। जो इसका पालन करता है, वह ५. जो किसी का तिरस्कार नहीं करता। उपपातकारक कहलाता है। वह इस भय से दूर नहीं ६. जो क्रोध को टिकाकर नहीं रखता । बैठता कि कहीं गुरु मुझे कुछ आदेश न दे दें। ७. जो मित्रभाव रखने वाले के प्रति कृतज्ञ होता है। इंगित-आकारसम्प्रज्ञ ८. जो श्रुत प्राप्त कर मद नहीं करता। इंगितं-निपुणमतिगम्यं प्रवृत्तिनिवृत्तिसूचकमीषद् ९. जो स्खलना होने पर किसी का तिरस्कार नहीं शिरःकम्पादि. आकारः .. स्थलधीसंवेद्यः । करता। भावाभिव्यजको दिगवलोकनादिः। अनयोर्द्वन्द्वे इंगिता१०. जो मित्रों पर क्रोध नहीं करता। कारी तो अर्थाद् गुरुगतौ सम्यक प्रकर्षेण जानाति ११ जो अप्रिय मित्र की भी एकांत में प्रशंसा करता इंगिताकारसंप्रज्ञः। यद्वा इंगिताकाराभ्यां गुरुगतभाव परिज्ञानमेव कारणे कार्योपचाराद इंगिताकारशब्देनोक्तं १२. जो कलह और हाथापाई का वर्जन करता है। तेन सम्पन्नो-युक्तः।। (उशाव प ४४) २३. जो कुलीन होता है। अत्यन्त निपुणमति के द्वारा जानने योग्य प्रवृत्ति १४. जो लज्जावान होता है। और निवत्ति के सूचक भ्र कंपन, शिरःकम्पन आदि सूक्ष्म १५. जो प्रतिसंलीन-इन्द्रिय और मन का संगोपन चेष्टाएं इंगित हैं। करने वाला होता है। स्थूलबुद्धि के द्वारा ज्ञेय, प्रस्थान आदि के भावों को अन्य तीन लक्षण अभिव्यंजित करने वाली दिग अवलोकन आदि स्थल आणानिद्देसकरे गुरूणमुववायकारए । चेष्टाएं आकार हैं। इंगियागार-संपन्ने, से विणीए त्ति वुच्चइ ।। आगारिगियकुसलं जइ सेयं वायसं वए पुज्जा। (उ ११२) तहवि य सि न विकूडे विरहम्मि य कारणं पुच्छे ।। १. जो गुरु की आज्ञा और निर्देश का पालन करता (विभा ९३३) इंगित-आकार को जानने वाला विनीत शिष्य २. जो गुरु की शुश्रुषा करता है।। 'कौआ सफेद है' -गुरु के इस कथन को भी सहजता से ३. जो गुरु के इंगित और आकार को जानता है। स्वीकार कर लेता है । जिज्ञासा होने पर एकांत में गुरु से आज्ञा-निर्देशकर इसका रहस्य पूछता है। आज्ञा-भगवदभिहितागमरूपा तस्या निर्देशाउत्सर्ग- २. अनुशासन और शिष्य अपवादाभ्यां प्रतिपादनमाज्ञानिर्देशः, इदमित्थं विधेयमिद- जं मे बुद्धाणसासंति, सीएण फरुसेण वा । मित्थं वेत्येवमात्मकः तत्करणशीलस्तदनुलोमानुष्ठानो वा मम लाभो त्ति पेहाए, पयओ तं पडिस्सुणे ।। आज्ञानिर्देशकरः । (उशावृ प ४४) अणुसासण मोवायं, दुक्क डस्स य चोयणं । अर्हत् कथित आगमरूप आज्ञा का उत्सर्ग और हियं तं मन्नए पण्णो, वेसं होइ असाहुणो ॥ Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिष्य ६१० शिष्य का कर्तव्य हियं विगयभया बुद्धा, फरुसं पि अणुसासणं । न्द्रिय होते हुए भी शिक्षाकाल में (शिक्षक के द्वारा) घोर वेसं तं होइ मूढाणं, खंतिसोहिकरं पयं ।। बन्ध, वध और दारुण परिताप को प्राप्त होते हैं। फिर (उ १२७-२९) भी वे उस शिल्प के लिए उस गुरु की पूजा करते हैं, आचार्य मुझ पर कोमल या कठोर वचनों से जो सत्कार करते हैं, नमस्कार करते हैं और संतुष्ट होकर अनुशासन करते हैं, वह मेरे लाभ के लिए है -ऐसा सोच- उसकी आज्ञा का पालन करते हैं। कर, जागरूकतापूर्वक उनके वचनों को स्वीकार करे । जो आगमज्ञान को पाने में तत्पर और अनन्तहित मृदु या कठोर वचनों से किया जाने वाला अनुशा- (मोक्ष) का इच्छुक है उसका फिर कहना ही क्या ? सन हित-साधन का उपाय और दुष्कृत का निवारक इसलिए आचार्य जो कहे, शिष्य उसका उल्लंघन न करे । होता है। प्रज्ञावान् मुनि उसे हित मानता है। वही ३. शिष्य का कर्तव्य असाधु के लिए द्वेष का हेतु बन जाता है। अणुसासिओ न कुप्पेज्जा, खंति सेविज्ज पंडिए । ___ भयमुक्त बुद्धिमान् शिष्य गुरु के कठोर अनुशासन खड्डे हिं सह संसरिंग, हासं कीडं च वज्जए ।। को भी हितकर मानते हैं। परन्तु मोहग्रस्त व्यक्तियों के मा य चण्डालियं कासी, बहुयं मा य आलवे । लिए वही-सहिष्णुता और चित्त-विशद्धि करने वाला कालेण य अहिज्जित्ता, तओ झाएज्ज एगगो ।। गुणवृद्धि का आधारभूत-अनुशासन द्वेष का हेतु बन (उ १।९,१०) जाता है। बुद्धिमान् शिष्य गुरु के द्वारा अनुशासित होने पर खड्डया मे चवेडा मे, अक्कोसा य वहा य मे। क्रोध न करे, क्षमा की आराधना करे । क्षद्र व्यक्तियों के कल्लाणमणुसासंतो, पावदिट्ठि त्ति मन्नई।। साथ संसर्ग, हास्य और क्रीडा न करे। पुत्तो मे भाय नाइ त्ति, साहू कल्लाण मन्नई। मुनि चण्डालोचित कर्म (कर व्यवहार) न करे । पावदिट्टी उ अप्पाणं, सासं दासं व मन्नई।। बहत न बोले । स्वाध्याय के काल में स्वाध्याय करे और (उ ११३८,३९) उसके पश्चात् अकेला ध्यान करे । पापदृष्टि वाला शिष्य गुरु के कल्याणकारी अनुशा- पडिणीयं च बुद्धाणं, वाया अदुव कम्मुणा । सन को भी ठोकर मारने, चांटा चिपकाने, गाली देने व आवी वा जइ वा रहस्से, नेव कुज्जा कयाइ वि ।। प्रहार करने के समान मानता है। (उ १११७) गुरु मुझे पुत्र, भाई और स्वजन की तरह अपना लोगों के समक्ष या एकान्त में, वचन से या कर्म से, समझकर शिक्षा देते हैं. ऐसा सोच विनीत शिष्य उनके कभी भी आचार्यों के प्रतिकूल वर्तन न करे । अनुशासन को कल्याणकारी मानता है, परन्तु कुशिष्य न कोवए आयरियं, अप्पाणं पि न कोवए। हितानुशासन से शासित होने पर भी अपने को दास तुल्य बुद्धोवघाई न सिया, न सिया तोत्तगवेसए । मानता है। आयरियं कुवियं नच्चा, पत्तिएण पसायए । अप्पणट्टा परट्ठा य, सिप्पा उणियाणि य । विज्झवेज्ज पंजलिउडो, वएज्ज न पुणो त्ति य ॥ गिहिणो उवभोगट्ठा, इहलोगस्स कारणा ।। धम्मज्जियं च ववहारं, बुद्धेहायरियं सया । जेण बंधं वहं घोरं, परियावं च दारुणं । तमायरंतो ववहारं, गरहं नाभिगच्छइ ।। सिक्खमाणा नियच्छति, जूत्ता ते ललिइंदिया ।। (उ १६४०-४२) ते वि तं गुरुं पूयंति, तस्स सिप्पस्स कारणा। शिष्य आचार्य को कुपित न करे। स्वयं भी कुपित सक्कारेंति नमसंति, तुट्टा निद्देसवत्तिणो ।। न हो । आचार्य का उपघात करने वाला न हो। उनका किं पुण जे सुयग्गाही, अणंतहियकामए । छिद्रान्वेषी न हो। आयरिया जं वए भिक्खू, तम्हा तं नाइवत्तए ।। आचार्य को कुपित हुए जानकर विनीत शिष्य (द ९।२।१३-१६) प्रतीतिकारक (या प्रीतिकारक) वचनों से उन्हें प्रसन्न जो गही अपने या दूसरों के लिए, लौकिक उपभोग करे । हाथ जोड़कर उन्हें शांत करे और यों कहे कि 'मैं के निमित्त शिल्प और नैपुण्य सीखते हैं, वे पुरुष ललिते- पुनः ऐसा नहीं करूंगा।' Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनीत शिष्य की उपलब्धियां जो व्यवहार धर्म से अर्जित हुआ है, जिसका तत्त्वज्ञ आचार्यों ने सदा आचरण किया है, उस व्यवहार का आचरण करता हुआ मुनि कहीं भी गर्हा को प्राप्त नहीं होता । अमोहं वयण कुज्जा, आयरियस्स महप्पणो । तं परिगिज्भ वायाए, कम्मुणा उववायए ।। (द ८/३३) मुनि महान् आत्मा आचार्य के वचन को सफल करे । ( आचार्य जो कहे ) उसे वाणी से ग्रहण कर कर्म से उसका आचरण करे । नीयं सेज्जं गइं ठाणं, नीयं च आसणाणि य । नीयं च पाए वंदेज्जा, नीयं कुज्जा य अंजलि ॥ (द ९/२०१७ ) शिष्य ( आचार्य से ) नीची शय्या करे, नीची गति करे, नीचे खड़ा रहे नीचा आसन करे, नीचा होकर आचार्य के चरणों में वन्दना करे और नीचा होकर अञ्जलि करे- हाथ जोड़े । ४. आचार्य के समीप बैठने की विधि न पक्खओ न पुरओ, नेव किच्चाण पिट्ठओ । न जुंजे ऊरुणा ऊरुं, सयणे नो पडिस्सुणे ॥ नेव पल्हत्थियं कुज्जा, पक्खपिंड व संजए । पाए पसारिए वावि, न चिट्ठे गुरुणंतिए । ( उ १११८, १९) आचार्य के बराबर न बैठे, आगे और पीछे भी न बैठे, उनके ऊरु से अपना ऊरु सटाकर न बैठे, बिछौने पर बैठा हुआ ही उनके आदेश को स्वीकार न करे । किन्तु उसे छोड़कर स्वीकार करे । संयमी मुनि गुरु के समीप पालथी लगाकर ( घुटनों और जंघाओं के चारों ओर वस्त्र बांधकर ) न बैठे । पक्षपिण्ड कर (दोनों हाथों से घुटनों और साथल को बांधकर ) तथा पैरों को फैलाकर न बैठे । आसणे उवचिट्ठेज्जा, अणुच्चे अकुए थिरे । अप्पुष्ट्ठाई निरुट्ठाई, निसीएज्जप्पकुक्कुए || ६११ ५. आचार्य के साथ वार्तालाप की विधि रिएहि वाहतो, सिणीओ न कयाइ वि । पसायपेही नियागट्ठी, उवचिट्ठे गुरुं सया || आलवंते लवंते वा न निसीएज्ज कयाइ वि । चइऊणमासणं धीरो, जओ जत्तं पडिस्सुणे ॥ आसणगओ न पुच्छेज्जा, नेव सेज्जा-गओ कया 1 आगमुक्कुडओ संतो, पुच्छेज्जा पंजलीउडो ॥ ( उ ११२०-२२ ) आचार्यों के द्वारा बुलाए जाने पर किसी भी अवस्था में मौन न रहे। गुरु के प्रसाद को चाहने वाला मोक्षाभिलाषी शिष्य सदा उनके समीप रहे । स देवगंधव्वमणुस्स पुइए ( उ १।३० ) जो के आसन से नीचा हो, अकंपमान हो और सिद्धे वा हवइ सासए, गुरु स्थिर हो, (जिसके पाये धरती पर टिके हुए हों) वैसे आसन पर बैठे, प्रयोजन होने पर भी बार-बार न उठे और प्रयोजन के बिना तो उठे ही नहीं, बैठे तब स्थिर एवं शांत होकर बैठे, हाथ-पैर आदि से चपलता न करे । शिष्य धृतिमान् शिष्य गुरु के साथ आलाप करते और प्रश्न पूछते समय कभी भी बैठा न रहे, किंतु वे जो आदेश दें, उसे आसन को छोड़कर संयत में यत्नपूर्वक स्वीकार करे । मुद्रा आसन पर अथवा शय्या पर बैठा-बैठा कभी भी गुरु से कोई बात न पूछे। उनके समीप आकर ऊकडू बैठ, हाथ जोड़कर पूछे । अपुच्छिओ न भासेज्जा, भासमाणस्स अंतरा । पिट्ठिमंसं न खाएज्जा, मायामोसं विवज्जए । (द ८४६ ) बिना पूछे न बोले, बीच में न बोले, पृष्ठमांसचुगली न खाए और कपटपूर्ण असत्य का वर्जन करे । ६. विनीत शिष्य की उपलब्धियां वित्ते अचोइए निच्चं, खिप्पं हवइ सुचोइए । जहोवइट्ठ सुकयं किच्चाई कुव्वई सया || नच्चा नमइ मेहावी लोए कित्ती से जायए । हवई किच्चाणं सरणं, भूयाणं जगई जहा || पुज्जा जस्स पसीयंति, संबुद्धा पुण्वसंथुया । पन्ना लाभइस्संति, विलं अट्टियं सुयं ।। पुज्जत्थे सुविणीयसंसए, मणोरुई चिट्ठई कम्मसंपया । तवोसमायारिसमा हिसंवडे, महज्जुई पंचवयाइं पालिया ॥ चइत्तु देहं मलपंकपुव्वयं । देवे वा अप्पर महिड्दिए || (38188-85) जो विनय से प्रख्यात होता है वह सदा बिना प्रेरणा दिए ही कार्य करने में प्रवृत्त होता है । वह अच्छे प्रेरक गुरु की प्रेरणा पाकर तुरन्त ही उनके उपदेशानुसार Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिष्य ६१२ अविनीत शिष्य कौन ? (उ ११७-९; ११३) भलीभांति कार्य संपन्न कर लेता है। ८. अविनीत शिष्य कौन ? मेधावी मुनि उक्त विनय-पद्धति को जानकर उसे अभिक्खणं कोही हवइ, पबंधं च पकुव्वई । क्रियान्वित करते में तत्पर हो जाता है। उसकी लोक में मेत्तिज्जमाणो वमइ, सूयं लद्धण मज्जई ॥ कीर्ति होती है। जिस प्रकार पृथ्वी प्राणियों के लिए अवि पावपरिक्खेवी, अवि मित्तेसु कुप्पइ । आधार होती है, उसी प्रकार वह आचार्यों के लिए सुप्पियस्सावि मित्तस्स, रहे भासइ पावगं ।। आधारभूत बन जाता है। पइण्णवाई दुहिले, थद्धे लुद्धे अणिग्गहे । उस पर तत्त्ववित् पूज्य आचार्य प्रसन्न होते हैं। असं विभागी अचियत्ते, अविणीए त्ति वुच्चई। अध्ययनकाल से पूर्व ही वे उसके विनय समाचरण से परि आणाऽनिद्देसकरे गुरूणमणववायकारए । चित होते हैं । वे प्रसन्न होकर उसे मोक्ष के हेतुभूत विपुल पडिणीए असंबुद्धे अविणीए त्ति वुच्चई ॥ श्रुतज्ञान का लाभ करवाते हैं। वह पूज्यशास्त्र होता है - उसके शास्त्रीयज्ञान का अविनीत शिष्य के लक्षण ---- बहुत सम्मान होता है । उसके सारे संशय मिट जाते हैं । १. जो बार-बार क्रोध करता है। वह गुरु के मन को भाता है । वह कर्म-संपदा (दसविध २. जो क्रोध को टिकाकर रखता है। सामाचारी) से सम्पन्न होकर रहता है। वह ३. जो मित्रभाव रखने वाले को भी ठकराता है। तपःसामाचारी और समाधि से संवत होता है । वह पांच ४. जो श्रुत प्राप्त कर मद करता है। महाव्रतों का पालन कर महान् तेजस्वी हो जाता है। ५. जो किसी की स्खलना होने पर उसका तिरस्कार देव, गन्धर्व और मनुष्यों से पूजित वह विनीत शिष्य करता है। मल और पंक से बने हुए शरीर को त्यागकर या तो ६. जो मित्रों पर कुपित होता है। शाश्वत सिद्ध होता है या अल्पकर्म वाला महद्धिक देव ७. जो अत्यन्त प्रिय मित्र की भी एकांत में बुराई होता है। करता है। ७. विनीत शिष्य और अश्व ८. जो असंबद्धभाषी है। मा गलियस्से व कसं, वयणमिच्छे पुणो पुणो । ९. जो द्रोही है। कसं व दट्ठमाइण्णे, पावगं परिवज्जए ॥ १०. जो अभिमानी है। ११. जो सरस आहार आदि में लुब्ध है । जैसे अविनीत घोड़ा चाबुक को बार-बार चाहता है, १२. जो अजितेन्द्रिय है। वैसे विनीत शिष्य गुरु के वचन (आदेश, उपदेश) को १३. जो असंविभागी है। बार-बार न चाहे । जैसे विनीत घोड़ा चाबुक को देखते १४ जो अप्रीतिकर है। ही उन्मार्ग को छोड़ देता है, वैसे ही विनीत शिष्य गुरु १५. जो गुरु की आज्ञा और निर्देश का पालन नहीं के इंगित और आकार को देखकर अशुभ प्रवृत्ति छोड़ करता। दे। १६. जो गुरु की शुश्रूषा नहीं करता। रमए पण्डिए सासं, हयं भदं व वाहए । १७ जो गुरु के प्रतिकूल वर्तन करता है। बालं सम्मइ सासंतो, गलियस्सं व वाहए । १८. जो इंगित तथा आकार को नहीं समझता। (उ १३७) कस्स न होही वेसो अनब्भुवगओ अ निरुवगारी अ। जैसे उत्तम छोड़े को हांकते हुए उसका वाहक आनंद अप्पच्छंदमईओ पट्टिअओ गंतुकामो अ। पाता है, वैसे ही पंडित (विनीत) शिष्य पर अनुशासन (आवनि १३७) करता हुआ गुरु आनन्द पाता है। जैसे दुष्ट घोड़े को जो श्रुतसम्पदा से सम्पन्न नहीं है, निरुपकारी है, हांकते हुए उसका वाहक खिन्न होता है, वैसे ही बाल स्वच्छन्द बुद्धि वाला है, संयम से उत्प्रवजित होने वालों (अविनीत) शिष्य पर अनुशासन करता हुआ गुरु खिन्न का साथ देने वाला है, स्वयं उत्प्रव्रजन के लिए समुद्यत होता है। रहता है-वह शिष्य अयोग्य-अप्रीतिकर होता है। Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अविनय का परिणाम .६१३ शिष्य ६. अविनीत शिष्य का स्वभाव छिनाल वृषभ रास को छिन्न-भिन्न कर देता है, इड्ढीगारविए एगे, एगेत्थ रसगारवे । दुर्दान्त होकर जुए को तोड़ देता है और सों-सों कर वाहन सायागारविए एगे, एगे सुचिरकोहणे ॥ को छोड़कर भाग जाता है। भिक्खालसिए एगे, एगे ओमाणभीरुए थद्धे । जुते हए अयोग्य बैल जैसे वाहन को भग्न कर देते एगं च अणुसासंमि, हेऊहिं कारणेहि य ।। सो वि अंतरभासिल्लो, दोसमेव पकुव्वई । हैं, वैसे ही दुर्बल धति वाले शिष्यों को धर्मयान में जोत आयरियाणं तं वयणं, पडिकलेइ अभिक्खणं ।। दिया जाता है तो वे उसे भग्न कर डालते हैं। न या ममं वियाणाइ, न वि सा मज्झ दाहिइ । दंसमसगस्समाणा जलयकविच्छयसमा य जे हुंति । निग्गया होहिई मन्ने, साहु अन्नोत्थ वच्चउ ।। ते किर होंति खलुका तिक्खम्मिउचंडमद्दविया ।। पेसिया पलिउंचंति, ते परियंति समंतओ।' (उनि ४९२) रायवेट्रि व मन्नंता, करेंति भिडिं महे ॥ अविनीत शिष्य खलंक जैसा होता है। वह दंश (उ २७९-१३) मशक की तरह कष्ट देने वाला, जलोक की तरह गुरु के कोई शिष्य ऋद्धि का गौरव करता है तो कोई रस दोष ग्रहण करने वाला, वृश्चिक की तरह वचन-कण्टकों का गौरव करता है, कोई साता-सुखों का गौरव करता से बींधने वाला, असहिष्णु, आलसी और गुरु के कथन है तो कोई चिरकाल तक क्रोध रखने वाला है। को न मानने वाला होता है। कोई भिक्षाचरी में आलस्य करता है तो कोई अप ११. अविनय का परिणाम मानभीरू और अहंकारी है। किसी को गुरु हेतुओं व कारणों द्वारा अनुशासित करते हैं तब वह बीच में ही जहा सुणी पूइकण्णी, निक्कसिज्जइ सव्वसो । बोल उठता है, मन में द्वेष ही प्रकट करता है तथा एवं दुस्सील-पडिणीए, मुहरी निक्कसिज्ज इ ।। बार-बार आचार्य के वचनों के प्रतिकूल आचरण करता कणकुण्डगं चइत्ताणं, विट्ठ भुजइ सूयरे । एवं सील चइत्ताणं, दुस्सीले रमई मिए ।। (गुरु प्रयोजनवश किसी श्राविका से कोई वस्तु लाने (उ ११४,५) को कहे तब वह कहता है) वह मुझे नहीं जानती, वह जैसे सड़े हुए कानों वाली कुतिया सभी स्थानों से मुझे नहीं देगी, मैं जानता हूं, वह घर से बाहर गई निकाली जाती है, वैसे ही दुःशील, गुरु के प्रतिकूल वर्तन होगी । इस कार्य के लिए मैं ही क्यों ? कोई दूसरा साधु करने वाला और वाचाल शिष्य गण से निकाल दिया चला जाए। किसी कार्य के लिए उन्हें भेजा जाता है और वे कार्य किए बिना ही लौट आते हैं। पूछने पर कहते हैं-- जिस प्रकार सूअर चावलों की भूसी को छोड़कर उस कार्य के लिए आपने हमसे कब कहा था? वे चारों विष्ठा खाता है, वैसे ही अज्ञानी शिष्य शील को छोडकर ओर घूमते हैं किंतु गुरु के पास कभी नहीं बैठते। कभी दुःशील में रमण करता है। गुरु का कहा कोई काम करते हैं तो उसे राजा की बेगार शीतल-दसवें तीर्थकर। (द्र. तीर्थंकर) की भांति मानते हुए मुंह पर भृकुटि तान लेते हैं -मुंह को मचोट लेते हैं। शीर्षप्रहेलिका-जैन गणित की सबसे बड़ी संख्या, जिसमें ५४ अंक और १४० शून्य होते हैं। १०. अविनीत शिष्य : कुछ उपमाएं (द्र. काल) छिन्नाले छिदइ सेल्लि, दुईतो भंजए जुगं । से वि य सुस्सुयाइत्ता, उज्जाहित्ता पलायए । शुक्ललेश्या-प्रशस्ततम भावधारा तथा उसकी खलुका जारिसा जोज्जा, दुस्सीसा वि हु तारिसा। उत्पत्ति में हेतुभूत श्वेत वर्ण वाले पुद्गल । जोइया धम्मजाणम्मि, भज्जति धिइदुब्बला ॥ (द्र. लेश्या) (उ २७१७-८) Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ्रमण ६१४ श्रमण कौन ? श्रमण-साधु, मुनि, निग्रंथ । १ श्रमण कौन ? २. श्रमण (अनगार) के सत्ताईस गुण ३. श्रमण की पृष्ठभूमि ४. श्रमण के एकार्थक * श्रमण के प्रकार (द्र. पाषंड) ५. प्रमत्त श्रमण ० अप्रमत्त श्रमण ६. श्रमण की दिनचर्या ० स्वाध्याय-क्रम * स्वाध्याय-काल (द्र. काल विज्ञान) * प्रतिलेखनाविधि (द. प्रतिलेखना) * भिक्षाविधि (द्र. गोचरचर्या) * भिक्षा के दोष (द्र. एषणा) * आहारविधि (द्र. आहार) ७. शयन विधि ० संस्तारक भूमि ० शय्या-अतिचार प्रतिक्रमण ८. विहार विधि : नौकल्पी विहार ० विहार करने के कारण ० विहार का अधिकारी ० गमन-मार्ग का निर्धारण • जल संतरण विधि ९. श्रामण्य की दुश्चरता १०. श्रमण : उरग, गिरि आदि उपमाएं ११. श्रमण की अवहेलना के परिणाम * श्रमण का आचार, प्रतिक्रमण, महावत, संयम, समिति, गप्ति, परीषह, प्रत्याख्यान, गणस्थान (द्र. संबद्धनाम) * चारित्र के अठारह हजार अंग (द्र. चारित्र) * चारित्रिक स्थिरता के आलम्बन (द्र. चारित्र) * श्रमण और श्रावक में अन्तर (द्र.श्रावक) * श्रमण धर्म (द्र. धर्म) * भिक्षुप्रतिमा (. प्रतिमा) नस्थि य से कोइ वेसो, पिओ व सव्वेसु चेव जीवेसु । एएण होइ समणो, एसो अ.नो वि पज्जाओ ।। .."तो समणो जइ सुमणो, भावेण य जइ न होइ पावमणो। सयणे य जणे य समो. समो य माणावमाणेसु ।। (अनु ७०८) • जैसे मुझे दुःख प्रिय नहीं है वैसे ही सब जीवों को दुःख प्रिय नहीं है, यह जानकर जो किसी प्राणी की घात न करता है और न करवाता है। इस प्रकार समता में गतिशील होने के कारण वह समण कहलाता है। ० सब जीवों में कोई उसका अप्रिय और प्रिय नहीं है। . सब जीवों में सम मन वाला होने के कारण वह समन (समना) कहलाता है। • जो सु-मन-श्रेष्ठ मन वाला होता है, भाव से पाप-मन वाला नहीं होता, स्व जन और अन्य जन में तथा मान और अपमान में सम होता है, वह श्रमण कहलाता है । रागडोसा दंडा जोगा तह गारवा य सल्ला य । विगहाओ सण्णाओ खुहं कसाया पमाया य ।। एयाइं तु खुहाई जे खलु भिदंति सुव्वया रिसओ। ते भिन्नकम्मगंठी उविति अयरामरं ठाणं ।। (उनि ३७८,३७९) श्रमण वह है० जो राग-द्वेष को जीत लेता है। • जो मन, वचन और काया-इन तीनों दण्डों में सावधान रहता है । ० जो न सावध कार्य करता है, न दूसरों से करवाता है और न उसका अनुमोद। करता है। . ० जो ऋद्धि, रस और साता का गौरव नहीं करता। ० जो मायावी नहीं होता, जो निदान नहीं करता __ और जो सम्यग्दर्शी होता है। ० जो विकथाओं से दूर रहता है । ० जो आहार, भय, मैथुन और परिग्रह इन चार संज्ञाओं को जीत लेता है। • जो कषायों पर विजय पा लेता है। • जो प्रमाद से दूर रहता है। जो कर्म-बन्धन को तोड़ने के लिए सदा प्रयत्नशील रहता है। जो ऐसा होता है, वह समस्त ग्रन्थियों का छेदन कर अजर-अमर पद को पा लेता है। १. श्रमण कौन ? समयाए समणो होइ । (उ २५।३०) 'जो समभाव की साधना करता है, वह श्रमण है। जह मम न पियं दुक्खं, जाणिय एमेव सव्वजीवाणं । न हणइ न हणावइ य, सममणती तेण सो समणो ।। Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण की पृष्ठभूमि श्रमण मोणं चरिस्सामि समिच्च धम्म --यह कल या परसों काम आएगा---इस विचार से जो सहिए उज्जुकडे नियाणछिन्ने । न सन्निधि (संचय) करता है और न कराता है-वह संथवं जहिज्ज अकामकामे भिक्षु है। ___ अन्नायएसी परिव्वए जे स भिक्खू ॥ जो हाथों से संयत है, पैरों से संयत है, वाणी से जं किंचि आहारपाणं विविहं संयत है, इन्द्रियों से संयत है, अध्यात्म में रत है, भलीखाइमसाइमं परेसिं लदधं । भांति समाधिस्थ है और जो सत्र और अर्थ को यथार्थ जो तं तिविहेण नाणुकंपे रूप से जानता है वह भिक्षु है। मणवयकायसुसंवुडे स भिक्खू ।। वादं विविहं समिच्च लोए, गिहिणो वेयावडियं न कुज्जा, सहिए खेयाणगए य कोवियप्पा। अभिवायणं वंदण पूयणं च । पन्ने अभिभूय सव्वदंसी असंकिलिलैंहिं समं वसेज्जा, उवसंते अविहेडए स भिक्खू ।। मुणी चरित्तस्स जओ न हाणी।। न या लभेज्जा निउणं सहायं, __(उ १५॥१,१२,१५) गुणाहियं वा गुणओ समं वा। 'धर्म को स्वीकार कर मुनि-व्रत का आचरण करूंगा' एक्को वि पावाइं विवज्जयतो, -जो ऐसा संकल्प करता है, जो सहिष्णु है. जिसका अनु विहरेज्ज कामेसु असज्जमाणो।। ष्ठान ऋजु है, जो वासना के संकल्प का छेदन करता है, (दचूला २।९,१०) जो परिचय का त्याग करता है, जो काम-भोगों की साधु गृहस्थ का वैयावृत्य न करे, अभिवादन, वंदन अभिलाषा को छोड़ चुका है, जो तप आदि का परिचय और पूजन न करे । मुनि संक्लेश रहित साधुओं के साथ दिए बिना भिक्षा की खोज करता है, जो अप्रतिबद्ध रहे जिससे कि चारित्र की हानि न हो। विहार करता है वह भिक्षु है। यदि कदाचित् अपने से अधिक गुणी अथवा अपने गृहस्थों के घर से जो कुछ आहार, पानक और समान गुण वाला निपुण साथी न मिले तो पाप-कर्मों का विविध प्रकार के खाद्य-स्वाद्य प्राप्त कर जो गृहस्थ की वर्जन करता हआ काम-भोगों में अनासक्त रह अकेला ही मन, वचन और काया से अनुकम्पा नहीं करता- उन्हें (संघ-स्थित विहार करे। आशीर्वाद नहीं देता. जो मन, वचन और काया से : २. श्रमण (अनगार) के सत्ताईस गुण सुसंस्कृत होता है - वह भिक्ष है। वयछक्कमिदियाणं च निग्गहो भाव करणसच्चं च । जो लोक में विविध प्रकार के वादों को जानता है, खमया विरागयाविय (चिय?) मणमाईणं णिरोहो य । जो सहिष्णु है, जो संयमी है, जिसे आगम का परम अर्थ प्राप्त हुआ है, जो प्राज्ञ है, जो परीषहों को जीतने वाला कायाण छक्क जोगम्मि जुत्तया वेयणाहियासणया । और सब जीवों को आत्म-तुल्य समझने वाला है, जो तह मारणंतियहियासणया एएऽणगारगुणा ॥ (उशाव प ६१६) उपशान्त और किसी को भी अपमानित न करने वाला श्रमण के सत्ताईस गुण हैं होता है वह भिक्ष है। १. प्राणातिपातविरमण ११. स्पर्शनेन्द्रियनिग्रह तहेव असणं पाणगं वा, २. मृषावादविरमण १२. भावसत्य विविहं खाइमसाइमं लभित्ता। ३. अदत्तादानविरमण १३. करणसत्य होही अट्ठो सुए परे वा, ४ मैथुनविरमण १४. क्षमा तं न निहे न निहावए जे स भिक्ख । ५. परिग्रहविरमण १५. वैराग्य हत्थसंजए पायसंजए, - वायसंजए संजइंदिए। ६. रात्रिभोजनविरमण १६. मनोनिग्रह अज्झप्परए सुसमाहियप्पा, ७. श्रोत्रेन्द्रियनिग्रह १७. वचननिग्रह सुत्तत्थं च वियाणई जे स भिक्खू ॥ ८. चक्षुरिन्द्रियनिग्रह १८. कायनिग्रह (द १०८, १५) ९. घ्राणेन्द्रियनिग्रह १९. पृथ्वीकायसंयम विविध अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य को प्राप्त कर १०. रसनेन्द्रियनिग्रह २०. अप्कायसंयम Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण २१. तेजस्कायसंयम २२. वायुकायसंयम २३. वनस्पतिकायसंयम २४. जसकायसंयम ३. श्रमण की पृष्ठभूमि कहं नु कुज्जा सामण्णं, जो कामे न निवारए । पए पए विसीयंतो, संकष्पस्स वसं गओ ॥ (द २९) वह कैसे श्रामण्य का पालन करेगा जो काम (विषयराग ) का निवारण नहीं करता, जो संकल्प ( काम अध्यवसाथ) के वशीभूत होकर पग-पग पर विषादग्रस्त होता है ? काम ! जानामि ते रूपं संकल्पात् किल जायसे । न ते संकल्पयिष्यामि ततो मे न भविष्यसि । ( अचू पृ ४१ ) काम ! मैं तुझे जानता हूँ तू संकल्प से पैदा होता 1 तू मेरे मन में है मैं तेरा संकल्प ही नहीं करूंगा I उत्पन्न ही नहीं हो सकेगा । 1 समाए हाए परिव्ययंतो सिया मणी निस्सरई बहिदा नसा महं नोवि अहं पि तीसे, इच्चेव ताओ विणएज्ज रागं ।। आयावया ही चय सोउमल्लं कामे कमाही कमियं खु दुक्खं । छिन्दाहि दोसं विणएज्ज रागं एवं सुही होहिसि संपराए । (द २/४,५ ) २५. योगयुक्तता २६. वेदना अधिसहन २७ मारणांतिक अधिसन समदृष्टि पूर्वक विचरते हुए भी यदि कदाचित् मन ( संयम से) बाहर निकल जाए तो यह विचार करे कि वह मेरी नहीं है और न मैं ही उसका हूं मुमुक्षु उसके प्रति होने वाले विषयराग को दूर करे। कामविजय और भावसमाधि प्राप्त करने के उपाय • आतापना • द्वेष का उच्छेद ४. भ्रमण के एकार्थक ० सौकुमार्य का त्याग ० राग का विनयन | पव्वइए अणगारे पासंडी चरक तावसे भिक्खु परिवायए य समणे णिग्गंथे संजए मुत्ते ॥ तिण्णे णेया दविए मुणी य खंते य दंत विरए य । हे तीरी विय हवंति समणस्स णामाई ॥ (दनि ६५, ६६ ) ६१६ ० प्रव्रजित – गृहनिर्गत ० अनगार गृहरहित • पाषंडी - अष्टकर्म प्रासाद का बंसी ० चरक - तपस्या का आचरण करने वाला तपस्या करने वाला • तापस ० भिक्षु भिक्षाजीवी ० परिवाजक पाप का अपहरण करने वाला ० समन - समान मन वाला ० निर्ग्रन्थ - बाह्य आभ्यन्तर ग्रन्थि से शून्य • संयत असा आदि से ओतप्रोत प्रमत्त भ्रमण • मुक्त स्नेह आदि बंधनों से मुक्त ० तीर्ण - संसार सागर को तैरने वाला ० नेता - सिद्धि तक पहुंचाने वाला ० द्रव्य - राग-द्वेष से शून्य • मुनि - सावद्य न बोलने वाला क्षमाशील • क्षान्त ० दान्त ० विरत • रूक्ष प्रान्त रूवासेवी, स्नेह वर्जित • तीरार्थी -- संसार सागर से पार - इन्द्रिय और कषायों का दमन करने वाला प्राणातिपात आदि से विरत ५. प्रमत्त श्रमण ज्ञान आचार में प्रमत्त सेज्जा दहा पाउरणं मे अत्थि, उप्पज्जई भोक्तुं तहेब पाउं । जाणामि जं बट्टई आउ ! ति कि नाम काहामि सुरण भंते ! ॥ जे के इमे पव्वइए, निद्दासीले पगामसो । भोच्चा पेच्या मुहं सुबइ पावसमणि ति वुच्चई ॥ ( उ १७।२, ३) (गुरु के द्वारा अध्ययन की प्रेरणा प्राप्त होने पर जो कहता है--) मुझे रहने के लिए अच्छा उपाश्रय मिल रहा है, कपड़ा भी मेरे पास है, खाने-पीने को भी मिल जाता है। आयुष्मन् ! जो हो रहा है, उसे मैं जान लेता हूं। भंते! फिर में भूत का अध्ययन कर क्या करूंगा ? गुरु कहते हैं जो प्रवजित होकर बार-बार नींद लेता है, खा-पीकर आराम से लेट जाता है, वह ज्ञानाचार में प्रमत्त श्रमण है । Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण की दिनचर्या दर्शन आचार में प्रमत्त आयरियउवज्झायाणं, सम्मं नो अपfsyre थद्धे, पावसमणि त्ति पडितप्पइ । वुच्चई | ( उ १७/५) जो आचार्य और उपाध्याय के कार्यों की सम्यक् प्रकार से चिन्ता नहीं करता --उनकी सेवा नहीं करता, जो बड़ों का सम्मान नहीं करता, जो अभिमानी होता है, वह दर्शनाचार में प्रमत्त श्रमण है । चारित्र आचार में प्रमत्त सम्ममाणे पाणाणि, बीयाणि हरियाणि य । असंजए संजयमन्नमाणे, पावसमणि त्ति वुच्चई ॥ बहुमाई पमुहरे, थद्धे लुद्धे afroad | संविभागी अचित्ते, पावसमणि त्ति वुच्चई ॥ वावडे | सयं गेहं परिचज्ज, परगेहंसि निमित्तेण य ववहरई, पावसमणि त्ति वुच्चई ॥ सन्नाइ पिण्डं जेमेइ, नेच्छई सामुदायिं । गिहिनिसेज्जं च वाहेइ, पावसमणि त्ति वुच्चई ॥ ( उ १७/१७-१९ ) जो आचार्य को छोड़ दूसरे धर्म-सम्प्रदायों में चला जाता है, जो छह मास की अवधि में एक गण से दूसरे गण में संक्रमण करता है, जिसका आचरण निन्दनीय है, जो अपना घर छोड़कर ( प्रव्रजित होकर ) दूसरों के घर में व्यापृत होता है, उनका कार्य करता है, जो शुभाशुभ बताकर धन का अर्जन करता है, जो अपने ज्ञातिजनों के घरों में भोजन करता है किन्तु सामुदायिक भिक्षा करना नहीं चाहता, जो गृहस्थ की शय्या पर बैठता है, वह वीर्याचार में प्रमत्त श्रमण ( उ १७६,११) 1 द्वीन्द्रिय आदि प्राणी तथा बीज और मर्दन करने वाला, असंयमी होते हुए भी संयमी मानने वाला चारित्राचार में प्रमत्त है । ६१७ हरियाली का अपने आपको श्रमण होता भक्त-पान जो बहुत मायावी, वाचाल, अभिमानी, लालची, इन्द्रिय और मन पर नियंत्रण न रखने वाला, आदि का संविभाग न करने वाला और गुरु आदि से प्रेम न रखने वाला होता है, वह चारित्राचार में प्रमत्त श्रमण है । तप आचार में प्रमत्त दुदही विगईओ, आहारेइ अभिक्खणं । अ य तवकम्मे, पावसमणि त्ति वुच्चई || अत्यंतम्मिय सूरम्मि, आहारेइ अभिक्खणं । चोइओ पडिचोएइ, पावसमणि त्ति बुच्चई ॥ ( उ १७/१५,१६) जो दूध, दही आदि विकृतियों का बार-बार आहार करता है और तपस्या में रत नहीं रहता, जो सूर्य के उदय से लेकर अस्त होने तक बार-बार खाता रहता है तथा 'ऐसा नहीं करना चाहिए - इस प्रकार सीख देने वाले को कहता है कि तुम उपदेश देने में कुशल हो, करने में नहीं, वह तप आचार में प्रमत्त श्रमण है । वीर्य आचार में प्रमत्त आयरियपरिच्चाई, परपासंडसेवए । गाणंगणिए दुब्भूए, पावसमणि त्ति बुच्चई | श्रमण अप्रमत्त श्रमण अप्पमत्त संजता जिणकप्पिया परिहारविसुद्धिया अहालंदिया पडिमा पडिवण्णगा य एते सततोवयोगोवउत्तणतो अप्पमत्ता । गच्छवासिणो पुण पमत्ता, कण्डुइ अणुवयोगसंभवतातो | अहवा गच्छवासी णिग्गता य पमत्ता वि अप्पमत्ता विभवंति परिणामवसओ । ( नन्दीचू पृ २२ ) जिनकल्पिक, परिहारविशुद्धिक, यथालन्दिक और प्रतिमा प्रतिपन्न - ये संयत अप्रमत्त होते हैं, सतत उपयोग उपयुक्त ( जागरूक ) होते हैं । गच्छवासी सतत उपयोग उपयुक्त नहीं होने के कारण प्रायः प्रमत्त होते हैं । अथवा गच्छवासी और गच्छनिर्गतये दोनों प्रकार के भ्रमण परिणामधारा के आधार पर प्रमत्त और अप्रमत्त होते हैं । ६. श्रमण की दिनचर्या पुव्विलंमि चउब्भाए, आइच्चमि समुट्ठिए । भंडयं पडिलेहिता, वंदित्ता य तओ गुरुं ॥ पुच्छेज्जा पंजलिउडो, कि कायव्वं मए इहं ? | इच्छं निओइडं भंते ! वेयावच्चे व सज्झाए | वेयावच्चे निउत्तेण, कायव्वं अगिलायओ । सज्झाए वा निउत्तेण सव्वदुक्खविमोक्खणे ॥ ( उ २६ ८-१० ) सूर्य के उदय होने पर दिन के प्रथम प्रहर के प्रथमचतुर्थ भाग में भाण्ड - उपकरणों की प्रतिलेखना करे । तदनन्तर गुरु को वन्दना कर, हाथ जोड़कर पूछे- अब Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण शयनविधि मुझे क्या करना चाहिए ? भंते ! मैं चाहता हूं कि आप रात्रि के प्रथम प्रहर में सब साधु स्वाध्याय करते हैं। मुझे वैयावृत्त्य या स्वाध्याय में से किसी एक कार्य में प्रथम और दूसरे प्रहर में गीतार्थ साधु, तीसरे प्रहर में नियुक्त करें। __ आचार्य तथा चतुर्थ प्रहर में पूनः सब साधु स्वाध्याय वैयावृत्त्य में नियुक्त किए जाने पर अग्लान भाव से करते हैं । (द्र. कालप्रतिलेखना) वैयावृत्त्य करे अथवा सर्व दुःखों से मुक्त करने वाले स्वा- पोरिसीए चउत्थीए, कालं तु पडिलेहिया । ध्याय में नियुक्त किए जाने पर अग्लान भाव से स्वाध्याय सज्झायं तओ कुज्जा, अबोहेंतो असंजए । करे। पोरिसीए चउब्भाए, वंदिऊण तओ गुरुं । पढम पोरिसिं सज्झायं बीयं झाणं झियायई । पडिक्कमित्तु कालस्स, कालं तु पडिलेहए ।। तइयाए भिक्खायरियं पूणो चउत्थीए सज्झायं ।। आगए कायवोस्सग्गे, सव्वदुक्खविमोक्खणे ।। (उ २६।१२) काउस्सग्गं तओ कूज्जा, सव्वदुक्खविभोक्खणं ।। प्रथम प्रहर में स्वाध्याय और दूसरे में ध्यान करे। (उ २६४४४-४६) तीसरे में भिक्षाचरी और चौथे में पुन: स्वाध्याय करे । चौथे प्रहर में काल की प्रतिलेखना कर असंयत चउत्थीए पोरिसीए, निक्खिवित्ताण भायणं । व्यक्तियों को न जगाता हआ स्वाध्याय करे। चौथे प्रहर सज्झायं तओ कूज्जा, सव्वभावविभावणं ।। के चतुर्थ भाग में गुरु को वन्दना कर, काल-प्रतिक्रमण पोरिसीए चउब्भाए, वंदित्ताण तओ गुरुं । कर (स्वाध्याय काल से निवत्त होकर) काल की प्रतिपडिक्क मित्ता कालस्स, सेज्जं तु पडिलेहए ॥ लेखना करे । कायोत्सर्ग का समय आने पर सर्व दुःखों पासवणुच्चारभूमि च, पडिले हिज्ज जयं जई। से मुक्त करने वाला कायोत्सर्ग करे । काउस्सग्गं तओ कुज्जा, सव्वदुक्खविमोक्खणं ॥ ७. शयनविधि (उ २६।३६-३८) पोरिसिआपुन्छणया सामाइय उभयकायपडिलेहा । चौथे प्रहर में भाजनों को प्रतिलेखनपूर्वक बांधकर साहणिअ दुवे पट्टे पमज्ज भूमि जओ पाए । रख दे, फिर सर्व भावों को प्रकाशित करने वाला स्वाध्याय अणुजाणह संथारं बाहुवहाणेण वामपासेणं । करे। कुक्कुडिपायपसारण अतरंत पमज्जए भूमि ॥ __ चौथे प्रहर के चतुर्थ भाग में पौन पौरुषी बीत जाने संकोए संडासं उव्वत्तंते य कायपडिलेहा । पर स्वाध्याय के पश्चात् गुरु को वन्दना कर, काल का दवाईउवओगं णिस्सासनिरंभणालोयं ॥ प्रतिक्रमण कर (स्वाध्यायकाल से निवृत्त होकर) शय्या (ओनि २०४-२०६) की प्रतिलेखना करे। आचार्य के समीप जाकर शिष्य निवेदन करे-भंते ! यतनाशील यति फिर प्रस्रवण और उच्चारभूमि की प्रथम प्रहर व्यतीत हो गया है, अब मुझे संस्तारक पर प्रतिलेखना करे। तदनन्तर सर्व दुःखो से मुक्त करने वाला जाने-सोने की आज्ञा दें। फिर तीन बार सामायिक पाठ कायोत्सर्ग करे। का उच्चारण कर शयन करे। पढमं पोरिसिं सज्झायं, वीयं झाणं झियायई। भजा का उपधान कर वाम पार्श्व से शयन करे। पैरों तइयाए निद्दमोक्खं तु, चउत्थी भुज्जो वि सज्झायं ॥ को कुक्कुटी की तरह पहले आकाश में फैलाये। यदि ऐसा (उ २६।१८) करने में समर्थ न हो तो भूमि का प्रमार्जन करके भूमि पर रात्रि के प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, दूसरे में ध्यान, स्थापित करे । यदि पून: पैरों का संकोच करना हो तो तीसरे में नींद और चौथे में पूनः स्वाध्याय करे । ऊरुसन्धि का प्रमार्जन करे। स्वाध्याय-क्रम अजयं सयमाणो उ, पाणभूयाइं हिंसई । सब्वेवि पढमजामे दोन्नि उ वसभा उ आइमा जामा । बंधई पावयं कम्म, तं से होइ कडुयं फलं ।। तइओ होइ गुरूणं चउत्थओ होइ सम्वेसि ।। (द ४। गाथा ४) (ओनि ६६०) आउंटण-पसारणादिसू पडिलेहणपमज्जण अकरितस्स Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शय्या-अतिचार-प्रतिक्रमण श्रमण पकामणिकामं रत्ति दिवा य सुयन्तस्स। (दअचू पृ ९२) संस्तारक बिछाने और पात्र रखने में बीस अंगुल का अयतनापूर्वक सोने वाला अस और स्थावर जीवों की अन्तर अवश्य होना चाहिए। हिंसा करता है। उससे पाप कर्म का बंध होता है । वह दो हत्था य अबाहा नियमा साहुस्स साहूओ। उसके लिए कटु फल वाला होता है। (ओनि २२७) अयतना या असंयम से सोने का अर्थ है--प्रतिलेखन सोते समय एक साधु दूसरे साधु से सटकर न सोये प्रमार्जन किये बिना हाथ-पैर आदि का संकोच-विकोच -कम से कम दो हाथ की दूरी रहे । करना । प्रकामशय्या-निकामशय्या करना, बिना प्रयोजन संस्तारक भूमि दिन-रात में बार-बार सोना। जयणं कुव्वंतो कुम्मो इव गुत्तिदिओनिद्दामोक्खं संथारगभूमितिगं आयरियाणं तु सेसगाणेगा। करेमाणो आउंटणपसारणाणि पडिलेहिय पमज्जिय रुंदाए पुप्फइन्ना मंडलिआ आवली इयरे ।। करेज्जा। (दजिचू पृ १६०) (ओनि २०२) यतं स्वपेत् – समाहितो रात्रौ प्रकामशय्यादि आचार्य के तीन संस्तारक भूमियां होती हैं ..... परिहारेण । (दहाव प १५७ १. निवात २. प्रवात ३. निवात-प्रवात । संयमपूर्वक सोने का अर्थ है-कर्म की भांति मुनि के लिए एक संस्तारक भूमि होती है। गुप्तेन्द्रिय हो सोना । करवट बदलते समय, हाथ-पैर संस्तारक भूमि यदि विस्तीर्ण हो तो बिखरे हुए फैलाते समय शय्या का प्रतिलेखन-प्रमार्जन करना। पुष्पों की तरह शयन करे। वसति यदि छोटी हो तो समाहितचित्त हो रात्रि में प्रकाम शय्या आदि का मध्य में पात्र आदि रखकर मण्डली के पावं में शयन परिहार करना। करे । यदि वसति प्रमाणयुक्त हो तो पंक्तिबद्ध शयन करे। अद्धाणपरिस्संतो गिलाणवुड्ढा अणुण्णवेत्ताणं ।' (ओभा १५६) शय्या-अतिचार-प्रतिक्रमण जो मुनि विहार से परिश्रांत हो गया हो, वृद्ध हो, इच्छामि पडिक्कमिउं पगामसेज्जाए निगामसेज्जाए रोगी हो, वह मूनि आचार्य से आज्ञा लेकर दिन में भी उव्वट्टणाए परिवट्टणाए आउंटणाए पसारणाए छप्पइयसो सकता है, अन्यथा नहीं। संघट्टणाए कूइए कक्कराइए छीए जंभाइए आमोसे ससर(नींद लेने का उपयुक्तकाल रात है। यदि रात में क्खामोसे, आउलमाउलाए सोयणवत्तियाए इत्थीविप्परिपूरी नींद न आए तो प्रात:काल भोजन से पूर्व सोए। यासिआए दिट्ठिविप्परियासिआए मणविप्परियासिआर रात में जागने से रूक्षता और दिन में सोने से स्निग्धता पाणभोयणविप्परियासिआए, तस्स मिच्छामि दुक्कडं । पैदा होती है । परन्तु दिन में बैठे-बैठे नींद लेना न रूक्षता (आव ४।५) पैदा करता है और न स्निग्धता । यह स्वास्थ्य के लिए मैं प्रतिक्रमण करना चाहता हूं-अतिमात्र नींद लेने लाभप्रद है। में, जब इच्छा हई तब नींद लेने में या बार-बार नींद यथाकालमतो निद्रां, रात्रौ सेवेत सात्मतः । लेने में, उठने-बैठने में, करवट लेने में, शरीर को असात्म्याद् जागरादधं प्रातः स्वप्यादभुक्तवान् । सिकोड़ने-फैलाने में, जं को इधर-उधर करने में, नींद में रात्री जागरणं रूक्षं, स्निग्धं प्रस्वप्नं दिवा । बोलने और दांत पीसने में, छींक और जम्हाई लेने में, अरूक्षमनभिस्यन्दि, वासीनप्रचलायितम् ॥ किसी का स्पर्श करने में तथा सचित्तरजयुक्त वस्तु का -अष्टांगहृदय ७।५५,६५) स्पर्श करने में अतिचार किया हो, स्वप्नहेतुक आकुलतम्हा पमाणजुत्ता एक्केक्कस्स उ तिहत्थसंथारो। व्याकुलता, स्त्रीविषयक कामराग, दृष्टि राग, मनोराग भायणसंथारंतर जह वीसं अंगुला हुंति ॥ और खाने-पीने के वियष में अन्यथा भाव किया हो तो (ओनि २२६) उससे संबंधित मेरा दुष्कृत निष्फल हो। एक साधु के संस्तारक का प्रमाण है तीन हाथ । Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण ६२० विहारविधि : नौकल्पी विहार १२॥ ८. विहारविधि : नौकल्पी विहार साथ, अन्यथा अकेला ही विहार करे। अन्य सांभोजिक संवच्छरं चावि परं पमाणं, ग्लान की परिचर्या की विधि यह है कि परिचारक दूसरी बीयं च वास न तहिं वसेज्जा। . वसति में रहकर परिचर्या करे । सुत्तस्स मग्गेण चरेज्ज भिक्खू, विहार करने के कारण सुत्तस्स अत्थो जह आणवेइ ।। चक्के थभे पडिमा जम्मण निक्खमण नाण निव्वाणे। संबच्छर इति कालपरिमाणं, तं पुण णेह बारसमा- संखडि विहार आहार उवहि तह सणढाए॥ सिगं संबज्झति किंतु वरिसारत्तचातुम्मासितं । स एव एते अकारणा संजयस्स असमत्त तदुभयस्स भवे । जेट्टोग्गहो। ते चेव कारणा पुण गीयत्थविहारिणो भणिआ ॥ .."बितियं च वासं--बितियं ततो अणंतरं, च सद्देण (ओनि ११९,१२०) ततियमवि, जतो भणितं-'तं दुगुणं दुगुणेणं, अपरिहरित्ता गीतार्थ के विहार के हेत ण वट्टति ।' (दचूला २।११ अचू पृ २६७) धर्मचक्र, स्तूप, प्रतिमा, अर्हतों की जन्मभूमि, जिस गांव में मुनि काल के उत्कृष्ट प्रमाण तक रह दीक्षाभूमि, केवलज्ञानभूमि, निर्वाणभूमि को देखने चुका हो अर्थात् वर्षाकाल में चातुर्मास और शेष काल में । के लिए। एक मास रह चका हो, वहां दो वर्ष (दो चातुर्मास और ० संखडी प्रकरण के लिए। दो मास) का अन्तर किए बिना न रहे । भिक्षु सूत्रोक्त ० विहार के लिए (स्थान-परिवर्तन हेतु) मार्ग से चले, सूत्र का अर्थ जैसी आज्ञा दे, वैसे चले । ० अनुकूल भोजन और उपधि की प्राप्ति के लिए मुनि के लिए नौकल्पी विहार का विधान है- ० दर्शनीय स्थलों को देखने के लिएचातुर्मासिक वर्षावास का एक कल्प, शेष आठ मास के जो गीतार्थ है, उसके लिए ये विहार के हेतु हैं। आठ कल्प। लेकिन जो अगीतार्थ है, उसके लिए ये कारण नहीं निक्ख विउं किइकम्म दीवणऽणाबाह पुच्छणा सहाओ। हैं-उसे इन कारणों से विहार नहीं करना गेलण्ण विसज्जणया अविसज्जुवएस दावणया ।। चाहिए। (ओनि ६८) विहार के अधिकारी यात्रा करता हुआ मुनि जब अपने सांभोजिक साधुओं गीयत्थो य विहारो बिइओ गीयत्थमीसिओ भणिओ। से मिले तब सबसे पहले अपने पात्र आदि सांभोगिक के एत्तो तइय विहारो नाणुन्नाओ जिणवरेहिं ।। हाथ में देकर रत्नाधिक को बन्दना करे । संजमआयविराहण नाणे तह दंसणे चरित्ते अ । ० आने का उद्देश्य स्पष्ट करे। आणालोव जिणाणं कुव्वइ दीहं तु संसारं ॥ ० दोनों परस्पर सुखपृच्छा करें। (ओनि १२१,१२२) • विहार करे तो वहां स्थित मुनि पहुंचाने जाएं। दो विहार अनुज्ञात हैं --- ० यदि वहां ग्लान हो तो अपने को सेवा के लिए १. गीतार्थ साधु (बहुश्रुत, सूत्र-अर्थ का ज्ञाता)। प्रस्तुत करे। २. गीतार्थ के साथ अन्य साधु । ० ग्लान के लिए औषध आदि की संयोजना करने तीसरा विहार अर्हतों द्वारा प्रज्ञप्त नहीं है। वाला न हो तो स्वयं उसकी संयोजना करे और स्वयं गीतार्थ या गीतार्थ की निश्रा में इन दो के उसकी विधि बतलाकर विहार करे। अतिरिक्त अगीतार्थ अकेला विहार करने वाला मुनि पढमावियारजोगं नाउं गच्छे बिइज्जए दिण्णे। आत्मविराधना, संयमविराधना और ज्ञान, दर्शन, चारित्र एमेव अण्णसंभोइयाण अण्णाइ वसहीए । की विराधना करता है। वह भगवान् की आज्ञा का लोप (ओनि ७१) करता है और अपने भव-भ्रमण को दीर्घ करता है। ग्लान मुनि अपने लिए प्रातराश लाने तथा उत्सर्ग- गमन-मार्ग का निर्धारण भूमि जाने में समर्थ हो जाए-यह जानकर परिचारक पुढविदए य पुढविए उदए पुढवितस बालकंटा य। मुनि वहां से विहार करे, दूसरा सहायक हो तो उसके पुढविवणस्सइकाए ते चेव उ पुढविए कमणं ।। Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण श्रामण्य की दुश्चरता पुढवितसे तसरहिए निरंतरतसेम् पूढविए चेव । तट पर आने के बाद एक पैर को जल में दूसरे पर आउवणस्सइकाए वणेण नियमा वणं उदए ॥ को आकाश में-ऊपर उठाकर रखे। तेऊवाउविहूणा एवं सेसावि सव्वसंजोगा। जब पानी भर जाये तब उसे सूखी भूमि पर रखे। नच्चा विराहणदुगं वज्जतो जयसु उवउत्तो ॥ दूसरे पैर को रखने की भी यही विधि है फिर वह तीर (ओनि ४३-४५) पर कायोत्सर्ग करे। यात्रापथ में यदि दो मार्ग हैं—जलमार्ग और सचित्त नवि पूरओ नवि मग्गओ मज्झे उस्सग्ग पण्णवीसाउ। पृथ्वीमार्ग तो मुनि को पृथ्वीमार्ग से जाना चाहिए, जल- दइउदयं तुंबेसु अ एस विही होई संतरणे ॥ मार्ग से नहीं, क्योंकि जल में त्रस और वनस्पति- ये (ओनि ३८) दोनों प्रकार के जीव होते हैं। सचित्त पृथ्वी-मार्ग और नौका के तट पर पहुंच जाने पर मुनि सबसे पहले न वनस्पतिमार्ग की युगपत् प्राप्ति होने पर पृथ्वी के मार्ग से उतरे। सब यात्रियों के उतर जाने के बाद न उतरे, जाना चाहिए। सचित्त पृथ्वीमार्ग और त्रसजीवों से। किन्तु कुछेक यात्रियों के उतर जाने पर मुनि नौका से निरंतर संकूल मार्ग की प्राप्ति होने पर पृथ्वी के मार्ग से उतर जाए । फिर तट पर खड़ा रहकर पच्चीस श्वासोच्छगमन करना चाहिए। वास का कायोत्सर्ग करे । दृति (मशक), छोटी नौका जल और वनस्पति के मार्ग की युगपत् प्राप्ति होने पर वनस्पति के मार्ग से जाना चाहिये, जलमार्ग से नहीं, तथा तुंबे से जल-तरण की भी यही विधि है। क्योंकि जल में वनस्पति की नियमा है। अणिएयवासो समुयाणचरिया अन्नायउंछं पइरिक्कया य । तेजस्काय और वायुकाय को छोड़कर शेष सबके साथ सब काय का संयोग हो सकता है। अत: मुनि को आत्म अप्पोवही कलहविवज्जणा य विराधना और संयम विराधना से रहित मार्ग से गमन में विहारचरिया इसिणं पसत्था । (दचूला २।५) उपयुक्त होकर गमन करना चाहिए। अनिकेतवास (गृहवास का त्याग), समुदानचर्या जल-संतरण विधि (अनेक कुलों से भिक्षा लेना), अज्ञात कुलों से भिक्षा असइ गिहि नालियाए आणक्खेउं पूणोऽवि पडियरणं ।। लेना, एकान्तवास, उपकरणों की अल्पता और कलह का एगाभोग पडिग्गह केइ सव्वाणि न य पुरओ॥ वर्जन-यह विहार-चर्या (जीवन-चर्या) ऋषियों के लिए (ओनि ३६) प्रशस्त है। गहस्थ के अभाव में मुनि स्वयं नालिका (अपने शरीर-प्रमाण से चार अंगुल बड़ी यष्टि) के द्वारा नदी के ६. श्रामण्य की दुश्चरता जावज्जीवमविस्सामो, गुणाणं तु महाभरो। जल का मापन करता है और अपने उपकरणों के पास लौट आता है । फिर वह अपने उपकरणों को और सभी गुरुओ लोहभारो व्व, जो पुत्ता ! होइ दुव्वहो ।। पात्रों को बांधता है। यह नदी-संतरण की सामान्य विधि आगासे गंगसोउ व्व, पडिसोओ ब्व दुत्तरो। है। यदि नदी को नोका से पार करना है तो मुनि नौका बाहाहि सागरो चेव, तरियव्वो गुणोयही ॥ वालुयाकवले चेव, निरस्साए उ में पहले न चढ़े । कुछ यात्रियों के चढ़ने के बाद चढ़े। संजमे। सागारं संवरणं ठाणतिरं परिहरित्तुऽनाबाहे। असिधारागमणं चेव, दुक्करं चरिउं तवो । ठाइ नमोक्कारपरो तीरे जयणा इमा होइ ।। अहीवेगंतदिट्ठीए, चरित्ते पुत्त ! दुच्चरे । (ओनि ३७) जवा लोहमया चेव, चावेयवा सुदुक्करं ।। मुनि नौका आरोहण के समय प्रत्याख्यान (सागारी जहा अग्गिसिहा दित्ता, पाउं होइ सुदुक्करं । अनशन) करता है । नौका में आगे, पीछे या मध्य में तह दुक्करं करेउं जे, तारुण्णे समणत्तणं ।। नहीं बैठता, एक पाश्वं में अप्रमत्त हो बैठता है और जहा दुक्खं भरेउं जे, होइ वायस्स कोत्थलो। नमस्कार महामंत्र के जप में लीन हो जाता है। तहा दुक्खं करेउं जे, कीवेणं समणत्तणं ।। एगो जले थलेगो निप्पगले तीरमुस्सग्गो ।" जहा तुलाए तोलेउ, दुक्करं मंदरो गिरी। (ओभा ३४) तहा निहुयं नीसंकं, दुक्करं समणत्तणं ।। Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण ६२२ श्रमण की अवहेलना के परिणाम जहा भुयाहिं तरिउं, दुक्करं रयणागरो । प्रवेश कर जाता है वैसे ही जो आहार का स्वाद तहा अणुवसंतेणं, दुक्करं दमसागरो॥ लिए बिना उसको निगल जाता है। (उ १९।३५-४२) ० जो गिरि की भांति निश्चल होता है. शील में राजकूमार मृगापूत्र ने माता-पिता से जब प्रव्रज्या अडोल होता है। की अनुमति मांगी तब उन्होंने श्रामण्य की दुश्चरता ० जो अग्नि की भांति तेजस्वी होता है। बताते हुए कहा-पुत्र ! श्रामण्य में जीवन पर्यन्त विश्राम ० जो सागर की भांति गंभीर-ज्ञान-दर्शन तथा नहीं है । यह गुणों का महान् भार है। भारी भरकम __चारित्र में निपुण होता है। लोह-भार की भांति इसे उठाना बहुत ही कठिन है। ० जो गमन की भांति निरालंब होता है। आकाश गंगा के स्रोत, प्रति-स्रोत और भुजाओं से ० जो तरु की भांति सम होता है, छेदन-भेदन में सागर को तैरना जैसे कठिन कार्य है वैसे ही गुणोदधिसंयम को तैरना कठिन कार्य है। सम रहता है। ० जो भ्रमर की भांति अनियतवृत्ति होता है। संयम बाल के कोर की तरह स्वाद-रहित है । तप ० जो मृग की भांति संसारभय से उद्विग्न होता है। का आचरण करना तलवार की धार पर चलने जैसा ० जो पृथ्वी की भांति सर्वसह होता है। पुत्र ! सांप जैसे एकानदृष्टि से चलता है, वैसे ० जो कमल की भांति निरुपलेप होता है। एकाग्रदृष्टि से चारित्र का पालन करना बहुत ही कठिन • जो सूर्य की भांति स्व-पर प्रकाशी होता है। कार्य है । लोहे के यवों को चबाना जैसे कठिन है वैसे ही ० जो वायु की भांति अप्रतिबद्धविहारी होता है। चारित्र का पालन करना कठिन है। ० जो विष की भांति सर्वरसानुपाती होता है। जैसे प्रज्वलित अग्नि-शिखा को पीना बहुत ही कठिन ० जो तिनिस वृक्ष की भांति नमनशील होता है। कार्य है वैसे ही यौवन में श्रमण धर्म का पालन करना • जो वंजुल वृक्ष की भांति विष का उपशमन करने कठिन है। वाला होता है। जैसे वस्त्र के थैले को हवा से भरना कठिन • जो कणवीर की भांति स्पष्ट होता है। कार्य है वैसे ही सत्वहीन व्यक्ति के लिए श्रमणधर्म का • जो उत्पल की भांति शील सौरभ से युक्त होता पालन करना कठिन कार्य है। जैसे मेरु पर्वत को तराजू से तोलना बहुत ही कठिन • जो भ्रमर की भांति अनुपरोध वृत्ति वाला होता कार्य है वैसे ही निश्चल और निर्भय भाव से श्रमण-धर्म का पालन करना बहुत ही कठिन कार्य है। • जो उंदुर की भांति देश-कालचारी होता है। जैसे समुद्र को भुजाओं से तैरना बहत ही कठिन • जो नट की भांति विविध रूप वाला होता है। कार्य है, वैसे ही उपशमहीन व्यक्ति के लिए दमरूपी समुद्र ० जो कुक्कुट की भांति संविभागी होता है। को तैरना बहुत ही कठिन कार्य है। ० जो आदर्श (कांच) की भांति स्पष्ट होता है। १०. श्रमण : उरग, गिरि आदि उपमाएं (दअचू पृ ३६,३७) उरग गिरि जलण सागर गगण तरुगणसमो य जो होइ। भमर मिग धरणि जलरुह रवि पवणसमो यतो समणो॥ ११. श्रमण की अवहलना के परिणाम विस तिणिस वाउ बंजुल कणवीरुप्पलसमेण समणेण । गिरि नहेहिं खणह, अयं दंतेहिं खायह । भमरुंदुर णड कुक्कुड अदागसमेण भवितव्वं ॥ जायतेयं पाएहि हणह, जे भिक्खं अवमन्नह ।। (दनि ६३,६४) आसीविसो उग्गतवो महेसी ० जो सर्प की भांति एकाग्रदृष्टि होता है, घोरव्वओ घोरपरक्कमो य। जो सर्प की भांति परकृत-आवास में रहता है अगणि व पक्खंद पयंगसेणा तथा जैसे सर्प बिल का स्पर्श किए बिना उसमें जे भिक्खुयं भत्तकाले वहेह ।। Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अगार धर्म : श्रावक धर्म ६२३ श्रावक सीसेण एवं सरणं उवेह १. श्रावक कौन ? समागया सव्वजणेण तुब्भे । ये अभ्युपेतसम्यक्त्वाः प्रतिपन्नाणुव्रता अपि प्रतिदिवसं जइ इच्छह जीवियं वा धणं वा लोग पि एसो कुविओ डहेज्जा ।। यतिभ्यः साधूनामगारिणां चोत्तरोत्तरविशिष्टगुणप्रतिपत्ति (उ १२१२६-२८) हेतोः सामाचारी शण्वन्ति ते श्रावका: । (नन्दीमव प ४४) एक बार मुनि हरिकेशबल एक मास तप के पारणे जो सम्यग्दृष्टि हैं, जो अणव्रती हैं, जो उत्तरोत्तर के दिन भिक्षा के लिए यज्ञमण्डप में गए। वहां ब्राह्मण- विशिष्ट गुणों की प्राति के लिए प्रतिदिन यतिजनों से कुमारों ने मुनि की अवहेलना की, तब पुरोहित-पत्नी साधु और गृहस्थ की सामाचारी को सुनते हैं, वे श्रावक भद्रा ने कहा—भिक्षु का अपमान करना नखों से पर्वत हैं। को कुरेदना है, दांतों से लोहे के चने चबाना है, पैरों से २.श्रावकत्व की प्राप्ति का हेत अग्नि को रौंदना है। चरित्ताचरित्तं पुण खओवसमिते चेव, कसायट्ठगोदययह महर्षि आशीविष लब्धि से सम्पन्न है। उग्र क्खए सदुवसमे य । पच्चक्खाणकसायसंजलणचउक्कतपस्वी है । घोरव्रती और घोर पराक्रमी है। भिक्षा के । देसघातिफडगोदये णोकसायणवगस्स जहा-संभवोदये य । समय तुम इस भिक्षु को व्यथित कर पतंगसेना की भांति (आवचू १ पृ९८) अग्नि में झंपापात कर रहे हो। यदि तुम जीवन और धन उदयप्राप्त अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्क और अप्रत्याचाहते हो तो सब मिलकर, शिर झुकाकर इस मुनि की ख्यानकषायचतुष्क का क्षय तथा विद्यमान का उपशम शरण में आओ। कुपित होने पर यह समूचे संसार को होने पर चारित्राचारित्र (देशविरत) प्राप्त होता है । भस्म कर सकता है। इसमें प्रत्याख्यानकषाय-चतुष्क और संज्वलनकषाय-चतुष्क श्रावक-सम्यग्दृष्टि । व्रत का आचरण करने के देशघाति स्पर्धकों का उदय तथा नोकषाय का यथावाला। संभव उदय रहता है। १.श्रावक कौन ? ३. अगार धर्म : श्रावक धर्म २. धावकत्व की प्राप्ति का हेतु अगारसामाइयस्स ...."अंगाणि बारसविधो सावग३. अगारधर्म : श्रावक धर्म धम्मो । (उचू पृ १३९) ० अगार सामायिक के अंग अगार सामायिक का अर्थ है-बारह प्रकार का ४. श्रावक के बारह व्रत और अतिचार श्रावक धर्म । •संलेखना व्रत (द्र. संलेखना) अगार सामायिक के अंग * श्रावक : विरताविरत गुणस्थान (इ. गुणस्थान) समणोवासगधम्मस्स मूलवत्थं सम्मत्त......"पंच * श्रावक में देशविरति सामायिक (द्र. सामायिक) | अइयारविसुद्धं अणुव्वय-गुणव्वयाइं च अभिग्गा अन्नेवि * देशविरति सामायिक का काल, (द्र. सामायिक) | पडिमादओ विसेसकरणजोगा। (आव परि पृ २३) स्थिति, क्षेत्र श्रावकधर्म का मूल सम्यक्त्व है। श्रावक उसका ५. देशविरति सामायिक के पर्यायवाची निरतिचार पालन करता है। वह अणुव्रत और गुणवत ६. श्रावक के प्रकार धारण करता है तथा अभिग्रह, प्रतिमा आदि विशेष ७. श्रावक के प्रत्याख्यान : उनचास भंग योगों की आराधना करता है। दो करण तीन योग से प्रत्याख्यान अगारीसामाइयंगाई सड्ढी काएण फासए ।" ० मौकोटि प्रत्याख्यान सामायिकं -सम्यक्त्वश्रुतदेशविरतिरूपं, तस्याङ्गानि८. साधु और धावक में अंतर निःशङ्कताकालाध्ययनाणुव्रतादिरूपाणि अगारिसामा* श्रावक : बालपंडित मरण (द्र. मरण) यिकाङ्गानि । (उ ५।२३ शावृ प २५१) * उपासक-प्रतिमा (द्र. प्रतिमा) अगार सामायिक के तीन प्रकार हैं---१. सम्यक्त्व * श्रावक और ध्यान (द्र. ध्यान) २. श्रुत और ३. देशविरति । Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक ६२४ श्रावक के बारह व्रत... अगार सामायिक के अंग हैं-नि:शंकता, काला- किसी पर आरोप लगाना । ध्ययन, अणवत आदि । २. रहस्याभ्याख्यान-रहस्यपूर्ण वृत्त के आधार पर ४. श्रावक के बारह व्रत और अतिचार आरोप लगाना । १: स्थूलप्राणापिपात विरमण ३. स्वदारमंत्रभेद--अपनी पत्नी के रहस्य को प्रकट करना। थलगपाणाइवायं समणोवासओ पच्चक्खाइ, से। ४. मृषोपदेश-मिथ्या मार्ग-दर्शन करना । पाणाइवाए दुविहे पण्ण ते, तं जहा-संकप्पओ अ आरं ५. कुटलेखकरण-जाली हस्ताक्षर और दस्तावेज भओ अ। तत्थ समणोवासओ संकप्पओ जावज्जीवाए तैयार करना। पच्चक्खाइ, नो आरंभओ। थलगपाणाइवायवेरमणस्स ३. स्थूलमवत्तादान विरमण समणोवासएणं इमे पंच अइयारा जाणियव्वा, तं जहाबंधे वहे छविच्छेए अइभारे भत्तपाणवच्छए। थूलगअदत्तादाणं समणोवासओ पच्चक्खाइ, से (आव परि २१) अदिन्नादाणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-सचित्तादत्तादाणे श्रमणोपासक स्थूल प्राणातिपात का प्रत्याख्यान अचित्तादत्तादाणे अ । थूलादत्तादाणवेरमणस्स समणोवासकरता है। प्राणातिपात दो प्रकार का है--संकल्पजा एणं इमे पंच अइयारा जाणियब्वा, तं जहा ---- तेनाहडे और आरम्भजा। श्रमणोपासक संकल्पजा हिंसा का तक्करपओगे विरुद्धरज्जाइक्कमणे कुडतुल-कुडमाणे जीवनपर्यन्त प्रत्याख्यान करता है, आरम्भजा हिंसा का तप्पडिरूवगववहारे। (आव परि १२१) नहीं। श्रमणोपासक स्थूल अदत्तादान का प्रत्याख्यान करता ___ स्थूल प्राणातिपात विरमण के पांच अतिचार है- है। अदत्तादान दो प्रकार का है-सचित्तअदत्तादान, १. बंध-मनुष्य, पशु आदि को गाढ बंधन से बांधना। अचित्तअदत्तादान । २. वध-लाठी आदि से प्रहार करना । स्थल अदत्तादान विरमण के पांच अतिचार हैं३. छविच्छेद-अंग-भंग करना। १. स्तेनाहृत -चोर द्वारा चुराई हई वस्तु लेना। ४. अतिभार-अतिभार लादना । २. तस्कर प्रयोग --चोरी करने में सहयोग देना। ५. भक्तपानव्यवच्छेद-भोजन-पानी (आजीविका) का ३. विरुद्धराज्यातिक्रम-राज्यनिषिद्ध वस्तुओं का विच्छेद करना। ___आयात-निर्यात करना। २. स्थूलमृषावाद विरमण ४. कूटतोल-कूटमान-झूठा तोल-माप करना। थलगमुसावायं समणोवासओ पच्चक्खाइ, से य ५. तत्प्रतिरूपक व्यवहार - असली वस्तु के स्थान पर मुसावाए पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा-कन्नालीए गवालीए नकली वस्तु देना । भोमालीए नासावहारे कूडसक्खिज्जे । बलगमूसावायवेर- ४. स्वदारसन्तोष मणस्स समणोवासएणं इमे पंच अइयारा जाणियव्वा, तं परदारगमणं समणोवासओ पच्चक्खाइ सदारसंतोसं जहा-सहस्सब्भक्खाणे रहस्सब्भक्खाणं सदारमतभेए वा पडिवज्जइ, से य परदारगमणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहामोसुवएसे कूडलेहकरणे। (आव परि पृ २१) ओरालियपरदारगमणे वेउव्वियपरदारगमणे । सदारश्रमणोपासक स्थूल मृषावाद का प्रत्याख्यान करता संतोसस्स समणोबासएणं इमे पंच अइयारा जाणियन्वा, है । मृषावाद के पांच प्रकार हैं तं जहा - अपरिगहियागमणे १. कन्यालीक-वर-वधू संबन्धी झूठ बोलना। इत्तरियपरिगहियागमणे अणगकीडा परवीवाहकरणे कामभोगतिव्वाभिलासे । २. गवालीक-पशु संबन्धी झूठ बोलना । ३. भूमि-अलीक-भूमि संबन्धी झूठ बोलना। (आव परि पृ २२) ४ न्यासापहार-धरोहर को नकारना । श्रमणोपासक परदारगमन का प्रत्याख्यान करता है, ५. कूट साक्षी --झूठी गवाही देना। स्वदारसंतोष स्वीकार करता है । परदारगमन के दो स्थूल मृषावाद विरमण के पांच अतिचार हैं -- प्रकार हैं---१. औदारिकपरदारगमन २. वैक्रियपरदार१ सहसाभ्याख्यान ----बिना सोचे-समझे अकस्मात् गमन । Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मादान ६२५ श्रावक स्वदारसंतोष के पांच अतिचार हैं इन तीनों दिशाओं में जाने का परिमाण करता है। १. अपरिगृहीतागमन- वेश्यागमन करना। दिग्वत के पांच अतिचार हैं२. इत्वरिकपरिग्रहीतागमन-परस्त्री गमन करना । १. ऊर्वदिशा के परिमाण का अतिक्रमण । ३. अनंगक्रीडा-अप्राकृतिक मैथुन सेवन करना । २. अधोदिशा के परिमाण का अतिक्रमण । - ४. परविवाहकरण- व्यावसायिक वत्ति से विवाह संबंध ३. तिर्यदिशा के परिमाण का अतिक्रमण । ___जोड़ना। ४. एक दिशा का परिमाण घटाकर, दूसरी दिशा के ५. कामभोगतीवाभिलाषा-कामभोग में तीव्र इच्छा परिमाण का विस्तार करना । करना। ५. दिशा के परिमाण की विस्मृति । ५. इच्छापरिमाण ७. उपभोग-परिभोग परिमाण ____ अपरिमियपरिग्गहं समणोवासओ पच्चक्खाइ इच्छापरिमाणं उवसंपज्जइ । से परिग्गहे दुविहे पण्णत्ते, तं उवभोगपरिभोगवए दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-- जहा--सचित्तपरिग्गहे अचित्तपरिग्गहे य । इच्छापरि दारि. भोअणओ कम्मओ अ। भोअणओ समणोवासएणं इमे पंच माणस्स समणोवासएणं इमे पंच अध्यारा जाणियब्वा. तं अइयारा जाणियव्वा, तं जहा–सचित्ताहारे सचित्तपडिजहा-धणधन्नपमाणाइक्कमे खित्तवत्थपमाणाइक्कमे बद्धाहारे अप्पउलिओसहिभक्खणया तुच्छोसहिभक्खणया हिरन्नसुवण्णपमाणाइक्कमे दुपयचउप्पयपमाणाइक्कमे दुप्पउलिओसहिभक्खणया। (आव परि पृ २२) कुवियपमाणाइक्कमे। (आव परि पृ २२) का उपभोग-परिभोग दो प्रकार का है-१. भोजन की श्रमणोपासक अपरिमित परिग्रह का प्रत्याख्यान अपेक्षा से २. कर्म की अपेक्षा से। भोजन की अपेक्षा से करता है, इच्छाओं का परिमाण करता है। परिग्रह के दो इस व्रत के पांच अतिचार है। प्रकार हैं-सचित्त परिग्रह, अचित्त परिग्रह । १. प्रत्याख्यान के उपरांत सचित्त वस्तु का आहार करना। इच्छापरिमाणवत के पांच अतिचार है २. प्रत्याख्यान के उपरांत सचित्तप्रतिबद्ध वस्तु का १. धनधान्यप्रमाणातिरेक-धन और धान्य के प्रमाण आहार करना। __ का अतिक्रमण करना। ३ अपक्व धान्य का आहार करना । २. क्षेत्रवास्तुप्रमाणातिरेक-खेत और घर के प्रमाण का ४. असार धान्य का आहार करना । अतिक्रमण करना। ५. अर्ध पक्व धान्य का आहार करना । ३. हिरण्यसुवर्णप्रमाणातिरेक-हिरण्य और सुवर्ण के प्रमाण का अतिक्रमण करना । कर्मादान ४. द्विपदचतुष्पदप्रमाणातिरेक नौकर, पक्षी, पशु आदि असावद्यजीवनोपायाभावेपि तेषामत्कटज्ञानावरणीयादिके प्रमाण का अतिक्रमण करना। कर्महेतुत्वादादानानि कर्मादानानि ज्ञातव्यानि न समाचरि५. कूप्यप्रमाणातिरेक--गृहसामग्री के प्रमाण का अति- तव्यानि । (आवहाव २ पृ २२६) क्रमण करना। कम्मओ णं समणोवासएणं इमाइं पन्नरस कम्मा६. दिग्वत दाणाई जाणियब्वाई, तं जहा-इंगालकम्मे वणकम्मे दिसिवए तिविहे पण्णते-उड्ढदिसिवए अहोदिसिवए । साडीकम्मे भाडीकम्मे फोडीकम्मे दंतवाणिज्जे लक्खतिरियदिसिवए । दिसिवयस्स समणोवासएणं इमे पंच वाणिज्जे रसवाणिज्जे केसवाणिज्जे विसवाणिज्जे जंतपीलणअइयारा जाणियव्वा, तं जहा-उडढदिसिपमाणाडक्कमे कम्मे निल्लंछणकम्मे दवग्गिदावणया सरदहतलायअहोदिसिपमाणाइक्कमे तिरियदिसिपमाणाइक्कमे खित्त- सोसणया असईपोसणया। (आव परि पृ २२) वुड्ढी सइअंतरद्धा । (आव परि पृ २२) आजीविका के निरवद्य साधन न होने पर भी दिग्वत के तीन प्रकार हैं अंगारकर्म आदि कर्मादान (व्यवसाय) करणीय नहीं हैं। ऊर्व दिग्वत, अधो दिग्वत, तिर्यक दिग्वत । श्रावक इनसे ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का उत्कृष्ट बंध होता है। Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक कर्म ( प्रवृत्ति) की अपेक्षा श्रमणोपासक के पन्द्रह कर्मादान अर्थात् महान् आरंभ के स्थान हैं १. अंगारकर्म - अग्नि के महारंभ वाला उद्योग । २ वनकर्म वन काटने का उद्योग । ३. शाकटकर्म - वाहन का उद्योग । ४. भाटककर्म - बाहन के द्वारा माल ढोने का उद्योग । ५. स्फोटक खदान से खनिज निकालने का उद्योग । ६. दंतवाणिज्य हाथीदांत आदि का व्यवसाय । ७. लाक्षावाणिज्य -- लाख का व्यवसाय । ८. रसवाणिज्य शराब आदि का व्यवसाय । ९. केसवाणिज्य भेड़ आदि के पालन का व्यवसाय । - १०. विषवाणिज्य - विष का व्यवसाय । ११. यंत्र पीलन कोल्हू चलाने का उद्योग । १२. निखन कर्म - बैल आदि को नपुंसक बनाने का कर्म । १३. दवाग्निदापनता - जंगलों को जलाना । १४. सरद्रहतडागशोषण जलाशयों को सुखाना | १५. असतीजनपोषण - मुर्गीपालन तथा हिंस्र प्राणियों का पोषण । २. प्रमादाचरितप्रमादपूर्ण प्रवृत्ति । ३. त्रिप्रदान-शस्त्र देना । ४. पापकर्मोपदेश हिंसा का प्रशिक्षण देना । अनर्थदण्ड विरमणव्रत के पांच अतिचार हैं१. कंद कामोद्दीपक क्रियाएं । २. कौत्कृष्ण भांड चेष्टा - भांड करना, हंसोड़ प्रवृत्तियां । की भांति चेष्टा ३. मौखर्य - वाचालता । - ४. संयुक्ताधिकरण शस्त्रों के पुर्जे तैयार करना एवं उनका संयोजन करना । ५. उपभोग- परिभोगातिरेक सीमा से अतिरिक्त उपभोग- परिभोग करना । ६२६ ८. अनर्थदण्ड विरमण - अणत्थदंडे चउव्विहे पण्णत्ते, तं जहा – अवज्झाणायरिए पमत्तायरिए सिप्पयाणे पावकम्मोबएसे । अणत्थदंडवेरमणस्स समणोवासएणं इमे पंच अइयारा जाणि दिसिव्ययगहियस्स दिसापरिमाणस्स पइदिणं परियन्वा, तं जहा --कंदप्पे । कुक्कुइए मोहरिए संजुताहिगरणे माणकरण देसावनासिवं । देसावगासियस्स समणोवासएणं उपभोगपरिभोगाइरेगे । ( आव परि पृ २२ ) इमे पंच अश्वारा जाणियब्वा तं जहा आणवणप्पओगे अनर्थदण्ड चार प्रकार का है। पेसवणत्यओगे सद्दाणुवाए स्वाणुवाए बहिया पुग्गलपक्खेवे | (आय परिपृ२३) दिशाव्रत में दिशा में जाने का जो परिमाण किया है, उसका प्रतिदिन संकोच करना देशावकाशिक व्रत है। उसके पांच अतिचार हैं १. अपध्यानाचरित- आर्तध्यान और रौद्रध्यान से युक्त प्रवृत्ति । १. आनयनप्रयोग - दिग्व्रत में क्षेत्र की जो सीमा की हो, उससे बाहर की वस्तु मंगाना । २. प्रेष्यप्रयोग - दिग्व्रत में क्षेत्र की जो सीमा की हो, उससे बाहर की वस्तु मंगाने के लिए प्रेष्य को भेजना । देशावका शिक ९. सामायिक सामाइयं नाम सावज्जजोगपरिवज्जणं निरवज्जजोगपडिसेवणं च । सामाइयस्स समणोवसरणं इमे पंच अध्यारा जाणि यव्वा तं जहा मणदुष्पणिहाने बहदुप्पणिहाणे कायदुप्पणिहाणे सामाइयस्स सइअकरणया सामाइयस्स अणवद्वियस्स करणया । ( आव परि २२, २३) प सामायिक का अर्थ है - सावद्य प्रवृत्ति का परित्याग और निरवद्य प्रवृत्ति का आचरण । सामायिक के पांच अतिचार हैं १. मन की असम्यक् प्रवृत्ति । २. वचन की असम्यक् प्रवृत्ति । ३. शरीर की असम्यक् प्रवृत्ति ४. सामायिक की विस्मृति । ५. नियत समय से पहले सामायिक को सम्पन्न करना। सामाइयम्मि उ कए समणो इव सावओ हवइ जम्हा । एएण कारणेणं बहुसो सामादयं कुज्जा ॥ ( आवनि ८०१ ) सामायिक के समय धावक भी भ्रमण की तरह होता है। इसलिए उसे अनेक बार सामायिक करनी चाहिए। १०. देशावका शिक - ३. शब्दानुपात दिव्रत में क्षेत्र की जो सीमा की हो, उससे बाहर शब्द कर कार्य करवाना । ४. रूपानुपात - दिव्रत में क्षेत्र की जो सीमा की हो, उससे बाहर अंगुली आदि का संकेत कर कार्य करवाना | Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देशविरति सामायिक ५. बहिः पुद्गलप्रक्षेप - दिग्व्रत में क्षेत्र की जो सीमा की हो, उससे बाहर किसी वस्तु को फेंककर कार्य करवाना। ११. पौषधोपवास पोसहोववासे चव्विहे पण्णत्ते, तं जहा आहारपोसहे सरीरसक्कारपोस हे बंभचेरपोसहे अव्वावारपोसहे । पोसहोववासस्स समणोवासएणं इमे पंच अइयारा जाणिव्वा तं जहा - अप्पडिले हिय - दुप्पडिले हिय - सिज्जा संथारए अप्पमज्जिय- दुप्पमज्जिय सिज्जासंथारए अप्प - डिले हिय- दुप्पडिले हिय - उच्चारपासवणभूमीओ अप्पमज्जिय- दुप्पमज्जिय - उच्चारपासवणभूमीओ पोसहोववा - सस्स सम्म अणणुपालणया । ( आव परि पृ २३ ) पौषधोपवासव्रत के चार प्रकार हैं- आहार का पौषध, शरीर-सत्कार का पौषध, ब्रह्मचर्य पौषध, प्रवृत्ति - वर्जनरूप पोषध | पौषधोपवास व्रत के पांच अतिचार हैं— १. स्थान और बिछौने का प्रतिलेखन न करना अथवा सम्यक् प्रकार से न करना । २. स्थान और बिछौने का प्रमार्जन न करना अथवा सम्यक् प्रकार से न करना । ३. उच्चार- प्रस्रवण भूमियों का प्रतिलेखन न करना अथवा सम्यक् प्रकार से न करना । ४. उच्चार-प्रस्रवण भूमियों का प्रमार्जन न करना अथवा सम्यक् प्रकार से न करना । ५. पौषध-व्रत का सम्यक् प्रकार से पालन न करना । पोषणं पोषः, स चेह धर्म्मस्य तं धत्त इति पोषधः । द्वयोरपि सितेतररूपयोः पक्षयोश्चतुर्दशी पूर्णमास्यादिषु तिथिषु अपेर्गम्यमानत्वादेक रात्रमपि उपलक्षणत्वाच्च - क दिनमपि न हानि प्रापयति । रात्रिग्रहणं च दिवा व्याकुलतया कर्तुमशक्नुवन् रात्रावपि पोषधं कुर्यात् । 1 ( उशावृ प २५१ ) जो धर्म को पुष्ट करता है, वह पौषध है । पौषध कृष्णपक्ष और शुक्लपक्ष की चतुर्दशी, पूर्णिमा, अमावस्या आदि तिथियों में किया जाता है। इसका कालमान हैअहोरात्र | व्याकुलता के कारण यदि कोई दिन में पौषध न कर सके तो वह रात्रि में भी किया जा सकता है । १२. अतिथि संविभाग अतिहिसंविभागो नाम नायागयाणं कप्पणिज्जाणं अन्नपाणाईणं दव्वाणं देसकालसद्धासक्का रकमजुअं पराए ६२७ श्रावक भत्तीए आयाणुग्गहबुद्धीए संजयाणं दाणं । अतिहिसंविभागस्स समणोवासएणं इमे पंच अइयारा जाणियव्वा तं जहा - सच्चित्तनिवखेवणया, सच्चित्तपिहृणया का लाइक्कमे परववए से मच्छरिया य । ( आव परि पृ २३ ) अतिथि संविभाग ( यथासंविभाग ) का अर्थ हैआत्मानुग्रह की बुद्धि से संपन्न हो परम भक्तिपूर्वक संयमी को दान देना । वह अन्नपान आदि देय वस्तु न्याय से अजित, एषणीय, देश - काल - श्रद्धा सत्कार और क्रम से युक्त हो । अतिथि संविभाग के पांच अतिचार हैं १. मुनि के लिए ग्रहणीय वस्तु को सचित्त वस्तु के ऊपर रखना । २. मुनि के लिए ग्रहणीय वस्तु को सचित्त वस्तु से ढकना । ३, भिक्षा के काल का अतिक्रमण करना । ४. अपनी वस्तु न देने की भावना से उसे दूसरों की बतलाना । ५. दूसरे को दान देते देखकर प्रतिस्पर्धात्मक भाव से दान देना । समणोवासगधम्मे पंचाणुव्वयाई तिन्नि गुणव्वयाई आवकहियाई, चत्तारि सिक्खावयाइं इत्तरियाई । ( आव परि पृ २३ ) श्रावक के पांच अणुव्रत और तीन गुणव्रत यावत्कथिक - जीवनपर्यंत तथा चार शिक्षाव्रत इत्वरिक अल्पकालिक होते हैं । शिक्षा नाम यथा शैक्षकः पुनः पुनर्विद्यामभ्यसति एवमिमाणि चत्तारि सिक्खावयाणि पुणो पुणो अब्भसिज्जंति । ( आवचू २ पृ २९८ ) शिक्षार्थी पुनः पुनः विद्या का अभ्यास करता है । इसी प्रकार जिनका पुनः पुनः अभ्यास किया जाता है, शिक्षाव्रत कहलाते हैं । वे चार हैं -सामायिक, देशाकाशिक, पौषधोपवास और यथासंविभाग । ५. देशविरति सामायिक ( अगारधर्म) के पर्यायवाची विरयाविरई संवुडमसंबुडे बालपंडिए चेव । देसेक्सविरई अणुधम्मो अगारधम्मो य ॥ ( आवनि ८६३) विरताविरत, संवृतासंवृत, बालपंडित, देशक देश Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२८ विरति, अणुधर्म, अगारधर्म-ये देशविरति सामायिक के पर्यायवाची हैं । श्रावक ६. श्रावक के प्रकार .....साभिग्गहा व निरभिग्गहा व ओहेण सावया दुविहा ( अवनि १५५७ ) सामान्यतः श्रावक के दो प्रकार हैं १. साभिग्रह व्रतसम्पन्न । २. निरभिग्रह – सम्यक्दर्शन सम्पन्न । दुविहतिविहेण पढमो दुविहं दुबिहेण बीयओ होइ । दुविहं एगविहेणं एगविहं चेव तिविहेणं ॥ एगविहं दुविहेणं इक्विक विहेणं छटुओ होइ । उत्तरगुण सत्तमओ अविरयओ चेव अटुमभो ॥ ( आवनि १५५८, १५५९) त्याग की तरतमता की अपेक्षा से श्रावक के आठ प्रकार हैं १. दो करण तीन योग से त्याग करने वाला । २. दो करण दो योग से त्याग करने वाला । ३. दो करण एक योग से त्याग करने वाला । ४ एक करण तीन योग से त्याग करने वाला । ५. एक करण दो योग से त्याग करने वाला । ६. एक करण एक योग से त्याग करने वाला । ७. उत्तरगुणसम्पन्न | ८. अविरत सम्यदृष्टि । ७. आवक के प्रत्याख्यान उनचास भंग करणतिगेणे क्किक्कं कालतिगे तिघणसंखियमिसीणं । सम्बं ति जओ गहियं सीवालसयं पुण गिहीणं ॥ ( विभा ३५४० ) साधु तीन योग (कृत, कारित, अनुमति) और तीन करण (मन, वचन, काया) से सर्व सावध योग (पापकारी प्रवृत्ति) का त्याग करता है। तीन को तीन से गुणन करने पर नौ भंग बनते हैं। इन नौ भंगों को अतीत, वर्तमान और अनागत- इन तीन कालों से गुणन करने पर सत्ताईस भंग बनते हैं (९×३ - २७) । ये भंग साधु = | की अपेक्षा से हैं। धावक के आंशिक प्रत्याख्यान होते हैं। इस दृष्टि से तीन योग और तीन करण से उसके उनचास भंग बनते हैं उनचास भंग (विकल्प) १. करण १ योग १, प्रतीक अंक ११, भंग ९ : श्रावक के प्रत्याख्यान १. करूं नहीं मन से २. करूं नहीं वचन से ३. करूं नहीं काया से ४. कराऊं नहीं मन से ५. कराऊं नहीं वचन से ६. कराऊं नहीं काया से ७. अनुमोदूं नहीं मन से ८. अनुमोदं नहीं वचन से ९. अनुमोदू नहीं काया से । २. करण १ योग २, प्रतीक अंक १२, भंग ९ : १. करूं नहीं मन से वचन से २. करूं नहीं मन से काया से ३. करूं नहीं वचन से काया से ४. कराऊं नहीं मन से वचन से ५. कराऊं नहीं मन से काया से ६. कराऊं नहीं वचन से काया से ७. अनुमोदूं नहीं मन से वचन से ८. अनुमोदूं नहीं मन से काया से ९. अनुमोदू नहीं वचन से काया से ३. करण १ योग ३, प्रतीक अंक १३, भंग ३ : १. करूं नहीं मन से वचन से काया से २. कराऊं नहीं मन से वचन से काया से ३. अनुमोदूं नहीं मन से वचन से काया से । ४. -करण २ योग १, प्रतीक अंक २१, भंग ९ : १. करूं नहीं कराऊं नहीं मन से २. करूं नहीं कराऊं नहीं वचन से ३. करूं नहीं कराऊं नहीं काया से ४. करूं नहीं अनुमोदूं नहीं मन से ५. करूं नहीं अनुमोदूं नहीं वचन से ६. करूं नहीं अनुमोदूं नहीं काया से ७. कराऊं नहीं अनुमोदूं नहीं मन से ८. कराऊं नहीं अनुमोदूं नहीं वचन से ९. कराऊं नहीं अनुमोदूं नहीं काया से । ५. करण २ योग २, प्रतीक अंक २२, भंग ९ : १. करूं नहीं कराऊं नहीं मन से वचन से २. करूं नहीं कराऊं नहीं मन से काया से ३. करूं नहीं कराऊं नहीं वचन से काया से ४. करूं नहीं अनुमोदूं नहीं मन से वचन से ५. करूं नहीं अनुमोदूं नहीं मन से काया से + Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नौ कोटि प्रत्याख्यान ६२९ श्रावक ६. करूं नहीं अनुमोदूं नहीं वचन से काया से नौ कोटि प्रत्याख्यान ७. कराऊं नहीं अनुमोदूं नहीं मन से वचन से नण तिविहं तिविहेणं पच्चक्खाणं सुयम्मि गिहिणो वि । ८. कराऊं नहीं अनुमोदूं नहीं मन से काया से तं थूलवहाईणं न सव्वसावज्जजोगाणं । ९. कराऊं नहीं अमुमोदूं नहीं वचन से काया से । जइ किचिदप्पओयणमप्पप्पं वा विसेसियं वत्थं । ६.-करण २ योग ३, प्रतीक अंक २३, भंग ३ : १. करूं नहीं कराऊं नहीं मन से वचन से काया से । पच्चक्खेज्ज न दोसो सयंभूरमणाइमच्छ व्व ।। जो वा निक्खमिउमणो पडिमं प्रत्ताइसंतइनिमित्तं । २ करूं नहीं अनुमोदूं नहीं मन से वचन से काया से पडिवज्जेज्ज तओ वा करेज्ज तिविहं पि तिविहेणं ॥ ३. कराऊं नहीं अनुमोदूं नहीं मन से वचन से काया से। ७.-करण ३ योग १, प्रतीक अंक ३१, भंग ३ : __(विभा २६८६-२६८८) १. करूं नहीं कराऊं नहीं अनुमोदूं नहीं मन से । भगवत्यामागमे त्रिविधं त्रिविधेनेत्यपि प्रत्याख्यान२. करूं नहीं कराऊं नहीं अनुमोदं नहीं वचन से मुक्तमगारिणः। तच्च श्रुतोक्तत्वादनवद्यमेव । तदिह ३. करूं नहीं कराऊं नहीं अनुमोदूं नहीं काया से। कस्मान्नोक्तं नियुक्तिकारेणेति ? तस्य विशेषविषयत्वात। ८.-करण ३ योग २, प्रतीक अंक ३२, भंग ३ : तथाहि-किल यः प्रविजिषुरेव प्रतिमां प्रतिपद्यते पुत्रादि१. करूं नहीं कराऊनहीं अनुमोदं नहीं मन से ववन से सन्ततिपालनाय स एव त्रिविधं त्रिविधेनेति करोति । तथा २. करूं नहीं कराऊं नहीं अनुमोदूं नहीं मन से काया से विशेष्यं वा किञ्चिद् वस्तु स्वयम्भूरमणमत्स्यादिकं तथा ३. करूं नहीं कराऊं नहीं अनुमोदूं नहीं वचन से काया से। स्थूलप्राणातिपातादिकं चेत्यादि । न तु सकलसावधव्या९. करण ३ योग ३, प्रतीक अंक ३३, भंग १: पारविरमणमधिकृत्येति। ननु च निर्यक्तिकारेण स्थल र प्राणातिपातादावपि त्रिविधं त्रिविधेनेति नोक्तो विकल्पः । १. करूं नहीं कराऊ नहीं अनुमोदूं नहीं मन से त्रा (आवहाव २ पृ २१०)) वचन से काया से। इन ४९ भंगों को अतीत, अनागत और वर्तमान---- ___ आगमग्रन्थ भगवती (८५) में प्रतिपादित हैइन तीन से गुणन करने पर १४७ भंग होते हैं। इससे गृहस्थ तीन करण, तीन योग से प्रत्याख्यान कर सकता है। यह तथ्य आगमिक होने के कारण निर्दोष है। अतीत का प्रतिक्रमण, वर्तमान का संवरण और भविष्य के लिए प्रत्याख्यान होता है। आवश्यकनियुक्ति में यह तथ्य प्रतिपादित नहीं है, क्योंकि सीयालं भंगसयं पच्चक्खाणम्मि जस्स उवलद्धं । यह विशेष आपवादिक स्थितिजन्य है। वे विशेष स्थितियां सो सामाइयकुसलो सेसा सब्वे अकुसला उ ।। १. जो गृहस्थ प्रवजित होना चाहता है, किन्तु प्रत्याख्यान सम्बन्धी १४७ भंग होते हैं। जो इन सन्तान की इच्छा, अनुरोध आदि कारणों से वह तत्काल भंगों से प्रत्याख्यान करता है, वह सामायिक-कुशल है प्रवजित न होकर ग्यारहवीं उपासक प्रतिमा स्वीकार और अन्य सब अकुशल हैं। करता है, उस समय वह नवकोटि त्याग कर सकता है। २. वह अप्राप्य वस्तु का नवकोटि त्याग कर सकता होकरण तीन योग से प्रत्याख्यान है। जैसे-स्वयंभूरमणसमुद्र के मत्स्य को मारने का गिहिणा वि सव्ववज्जं दुविहं तिविहेण छिन्नकालं तं । त्याग । मनुष्यक्षेत्र से बाहर के हाथी-दांत, व्याघ्रचर्म के कायव्वमाह सब्वे को दोसो भण्णएऽणुमई ॥ उपयोग का त्याग। (विभा २६८३) ३. वह स्थूल प्राणातिपात, स्थूल मृषावाद आदि का घर में आरम्भ-समारम्भ की अनेक प्रवृत्तियां चाल नवकोटि त्याग कर सकता है, जैसे-सिंह, हाथी आदि है और गहस्थ का अनुमोदन उनके साथ जुड़ा हुआ है, को मारने का त्याग । किन्तु वह सर्वथा सावद्ययोग का इसलिए गहस्थ सर्वसावद्ययोग का परित्याग नहीं कर त्याग नहीं कर सकता। सकता। वह दो करण, तीन योग से एक मुहर्त, दो मूहर्त ४. वह अप्रयोजनीय वस्तु का नवकोटि त्याग कर आदि तक सामायिक करता है। सकता है। जैसे--काक-मांस खाने का त्याग । Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक ८. साधु और श्रावक में अंतर संति गेहि भिक्खूहि, गारत्था संजमुत्तरा । गारत्थे हि य सव्वेहि, साहवो संजमुत्तरा ॥ (उ ५।२० ) कुछ भिक्षुओं से गृहस्थों का संयम प्रधान होता है । किन्तु साधुओं का संयम सब गृहस्थों से प्रधान होता है । मासे मासे तु जो बालो कुसग्गेण तु भुंजए । न सो सुक्खायधम्मस्स कलं अग्धइ सोलसि ॥ की ( उ ९।४४ ) कोई बाल (गृहस्थ ) मास मास तपस्या के अनन्तर कुश की नोक पर टिके उतना सा आहार करे तो भी वह सु-आख्यात धर्म चारित्र धर्म की सोलहवीं कला को भी प्राप्त नहीं होता । तथा च वृद्धसम्प्रदायः - एगो सावगो साहुं पुच्छति - सावगाणं साहूणं किमंतरं ? साहुणा भण्णति सरिसवमंदरंतरं ततो सो आउलीहूओ पुणो पुच्छति कुलिगीणं सावगाण य किमंतरं ?, तेण भण्णति--तदेव सरिसवमंदरंतरं ति, ततो समासासितो । में देसेक्सविरया समणाणं सावगा सुविहियाणं । जेसि परपासंडा सतिमपि कलं न अग्घंति ।। ( उशावृ प २५० ) एक श्रावक ने साधु से पूछा -- श्रावक और साधु कितना अन्तर है ? साधु ने कहा- 'सरसों और मन्दर पर्वत जितना ।' तब उसने पुनः आकुल होकर पूछा - कुलिंगी ( वेषधारी) और श्रावक में कितना अन्तर है ? साधु ने कहा - वही, सरसों और मन्दर पर्वत जितना । उसे समाधान मिल गया । सुविहित आचार वाले मुनियों के श्रावक देशविरत | कुतीर्थिक उनकी सौवीं कला को भी प्राप्त नहीं होते होते. । अंतर के पांच बिन्दु - तस्स पंचसमियत्तणं पित्तिरियं ण आवकहियं, साहुस्स पुण आवक हितं । ........सिक्खा दुविहा – आसेवणसिक्खा । साहू आसेवणं सिक्खं दसविहचक्क - बालसामायारि सव्वं सव्वकालं अणुपालेइ, सावतो देसं इत्तिरियं अणुपालेति । गहणसिक्खं साहू जहष्णेणं अट्ठपव मायातो सुत्तमवि अत्थतोवि उक्कोसेण दुवाल संगाणि । सावगस्स जहणेणं तं चेव उक्कोसेणं छज्जीवणिकायं सुत्ततोवि अत्थओऽवि पिडेसणज्भवणं ण सुत्ततो, अत्थतो पुण उल्लावेण सुणदि । ६३० साधु और श्रावक में अन्तर बंधति साधु सत्तविहं वा अदुविहं वा छव्विहं वा एगविहं वा अबर्द्धतो वा उवासतो सत्त वा अट्ठ वा । वेदन्ति साहवो सत्त वा अट्ठ वा चत्तारि वा सावतो अट्ठ वेदेति । पडिवत्तीए साहू नियमा रातीभोयणवेरमणछट्टाणि पंच महव्वयाणि, सावगो एगं वा २-३-४-५ अहवा साधू सामातियं एक्कसि पडिवन्नो, सावतो पुणो पुणो पडिवज्जति । साहुस्स एगंमि वते भग्गे सव्वाणि भज्जति सावगस्स एवं चैव भज्जति । जहणेणं सोधम्मे उक्कोसेणं सावगस्स अच्चुते, साहुस्स जहणणं सोहम्मे उक्कोसेणं सव्वट्टसिद्धी ।'' गतिपि पहुच्च साधू पंचमंपि गति गच्छति । ( आवचू २ पृ ३००, ३०१ ) ..... भिक्खाए वा गिहत्थे वा, सुब्बए कम्मई दिवं ॥ (उ ५।२२) अविराहियसामण्णस्स साहुणो, सावगस्स य जहण्णो । उववातो सोहम्मे भणितो तेलोक्कदंसीहि || ( उशावृप २५१ ) समिति - सामाचारी- साधु के समिति यावत्कंथिक होती है। और श्रावक के इत्वरिक । साधु दसविध चक्रवाल सामाचारी का सम्पूर्ण रूप से सदा पालन करता है । श्रावक उसका देशतः कदाचित् पालन करता है । श्रुत अध्ययन - साधु जघन्यतः आठ प्रवचनमाता का का सूत्रतः और अर्थत: तथा उत्कृष्टत: द्वादशांग अध्ययन करता है । श्रावक जघन्यतः और उत्कृष्टत: षड्जीवनिका के सूत्र और अर्थ को पढ सकता है । पिण्डेषणा अध्ययन को सूत्रतः नहीं पढ सकता किंतु उसका अर्थ सुन सकता है। कर्मबंध और वेदन साधु के चार प्रकार का कर्मबंध हो सकता है- -- सात-आठ कर्मों का, छह कर्मों का ( मोह और आयुष्य वर्जित), एक कर्म ( सातवेदनीय) का अथवा वह अबंध भी होता है। श्रावक के सातआठ कर्मों का बंध होता है । सात-आठ कर्मों का अथवा चार कर्मों का ( केवली की अपेक्षा) वेदन करता है। श्रावक सातआठ कर्मों का वेदन करता है । प्रत्याख्यान-साधु पांच महाव्रत और रात्रिभोजनविरमण -छहों व्रत नियमतः यावज्जीवन के लिए स्वीकार करता है | श्रावक एक, दो अथवा सब व्रत स्वीकार कर सकता है। साधु एक बार सामायिक ग्रहण करता है, श्रावक पुनः पुनः ग्रहण करता है। साधु Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतकेवली श्रुतज्ञान के एक व्रत का भंग होने पर सभी व्रतों का भंग हो ६. श्रुत के एकार्थक जाता है। श्रावक के एक व्रत का भंग होने पर एक | ७. श्रतज्ञान के प्रकार ही व्रत का भंग होता है, सबका नहीं। ८. अक्षरश्रुत की परिभाषा गति-भिक्षु हो या गृहस्थ, यदि वह सुव्रती है तो स्वर्ग | ० रूढि से वर्ण ही अक्षर में जाता है । जिसने संयम की विराधना नहीं की, ९. अक्षरश्रुत के प्रकार वैसा आराधक साधु जघन्यत: सौधर्मकल्प और • संज्ञाक्षर उत्कृष्टतः सर्वार्थसिद्ध विमान में उत्पन्न होता है • व्यञ्जनाक्षर अथवा पांचवीं गति-मोक्ष में जाता है। श्रावक • लब्ब्य क्षर जघन्यतः सौधर्मकल्प और उत्कृष्टत: अच्युतकल्प १०. लम्ब्यक्षर के भेद . लब्ब्यक्षर और संज्ञी-असंज्ञी जीव में उत्पन्न होता है। • एकेन्द्रिय में लब्ध्यक्षर (भावश्रुत) श्रुतकेवली-चतुर्दशपूर्वी। ११. अक्षरों के संयोग अनन्त श्रुतज्ञानी चेहाभिन्नदशपूर्वधरादिश्रुतकेवली परि- १२. अकार के स्व-पर पर्याय गृह्यते, तस्यैव नियमतः श्रुतज्ञानबलेन सर्वद्रव्यादिपरि- १३. एक का ज्ञान : सर्व का ज्ञान ज्ञानसम्भवात् । (नन्दीमवृ प २४९) | १४. अक्षर का पर्यवपरिमाण १५. अनक्षर श्रुत अभिन्न दशपूर्वी यावत् श्रुतकेवली-चतुर्दशपूर्वी अपने | श्रुतज्ञान से नियमतः सब द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावों को १६. संज्ञी-असंज्ञी श्रुत * कालिक्युपदेश (दीर्घकालिको) (. मन) जानते हैं। ० हेतूपदेश श्रुतकेवली प्राणियों के अतीत और अनागत के संख्या • दृष्टिवादोपदेश तीत भवों को जानते हैं। वे उत्कृष्ट बहुश्रुत होते हैं। * संज्ञा के स्वामी (द्र. संज्ञा) (द्र. बहुश्रुत) १७. सम्यक्-मिथ्याश्रुत वे अनेक अतिशयों से सम्पन्न होते हैं। (द्र. पूर्व) • सम्यक्-मिथ्या श्रुत के अधिकारी श्रुतज्ञान-शब्द, शास्त्र, संकेत, प्रकम्पन आदि के ___० सम्यक्-मिथ्या श्रुत के हेतु माध्यम से होने वाला ज्ञान । १८. सादि-सपर्यवसित तथा अनादि-अपर्यवसित श्रुत १९. गमिक-अगमिक श्रुत १. श्रुतज्ञान की परिभाषा -० गमिक श्रुत के प्रकार * श्रुतज्ञान : परोक्ष ज्ञान का एक भेद (द्र. ज्ञान) * अंगप्रविष्ट श्रुत, (द्र. अंगप्रविष्ट) * द्वादशांग ही श्रुतज्ञान (द्र. अंगप्रविष्ट) * अनंगप्रविष्ट श्रुत (द. अंगबाह्य) * श्रुतधर्म तीर्थ का पर्याय (द्र. तीर्थ) २०. श्रुतकरण : बद्ध-अबद्धश्रुत २. द्रव्यश्रुत और मावश्रुत . अबधुत : पांच सौ आदेश ३. द्रव्यश्रुत-भावभुत और मतिज्ञान का संबंध २१. श्रुतज्ञान की पश्यत्ता • मति और भुत की भेदरेखा २२. प्राणीमात्र में ज्ञान की सत्ता • श्रुतज्ञान : मतिज्ञान का एक भेद २३. जघन्य श्रुत का हेतु * मति और श्रुत में साधम्यं २४. श्रुतज्ञान-विशुद्धि का तारतम्य (प्र. मामिनिबोधिक ज्ञान) २५. श्रुतज्ञान का महत्त्व ४. श्रुतज्ञान परार्थ * श्रुताध्ययन का उद्देश्य (. शिक्षा) ५. भुतज्ञान का विषय * श्रुतग्रहण की प्रक्रिया (द्र. शिक्षा) Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतज्ञान द्रव्यश्रुत-भावश्रुत २६. श्रुतज्ञान और केवलज्ञान में अन्तर २. द्रव्यश्रुत और भावश्रुत * मति, श्रुत और अवधि में साधर्म्य आगमओ दव्वसुयं वत्ता सुत्तोपोगनिरवेक्खो । (द्र. अवधिज्ञान) नोआगमओ जाणय-भव्वसरीराऽइरित्तमिदं ।। * श्रुतज्ञान : ज्ञान और अज्ञान (5. अज्ञान) पत्ताइगयं सुत्तं । (विभा ८७७,८७८) * श्रुतसमाधि (द्र. समाधि) श्रुत के उपयोग से निरपेक्ष अनुपयुक्त वक्ता आगमतः * श्रुतसामायिक के भेद (. सामायिक) द्रव्यश्रुत है। पत्र-पुस्तक आदि में लिखित सूत्र तथा श्रतसामायिक की स्थिति, नक्षत्र आदि अण्डज, कपास आदि सूत्र (धागे) ज्ञ-भव्य-शरीर-व्यति (द्र. सामापिक) | रिक्त नोआगतः द्रव्यश्रुत है। * श्रुसपुरुष के अंग (द्र. अंगप्रविष्ट)। श्रुत में उपयुक्त श्रुत का अध्येता आगमतः भावश्रुत २७. श्रुतस्थान है क्योंकि वह श्रुतोपयोग से अभिन्न होता है। चरणाइसमेयम्मि उ उवओगो जो सुए तओ समए । १. श्रुतज्ञान की परिभाषा नोआगमो त्ति भण्णइ नोसहो मीसभावम्मि । श्रुतं-वाच्यवाचकभावपुरस्सरीकारेण शब्दसंस्पृष्टार्थ (विभा ८८४) ग्रहणहेतुरुपलब्धिविशेषः । एवमाकारं वस्तु जलधारणा आचरण से युक्त श्रुत के उपयोग को सिद्धान्त में द्यर्थक्रियासमर्थ घटशब्दवाच्यमित्यादिरूपतया प्रधानीकृत- नोआगमतः भावश्रुत कहा गया है। 'नो' शब्द यहां मिश्र/ त्रिकालसाधारणसमानपरिणामः शब्दार्थपर्यालोचनानसारी युक्त अर्थ का वाचक है। इन्द्रियमनोनिमित्तोऽवगम विशेषः। (नन्दीमत् प ६५) ३. द्रव्यश्रुत-भावश्रुत और मतिज्ञान का संबंध ' वाच्य-वाचक के सम्बन्धज्ञान पूर्वक शब्द से सम्बद्ध इंदिय-मणोनिमित्तं जं विण्णाणं सुयाणुसारेणं । अर्थ को जानने का जो हेतु है, वह श्रुतज्ञान है। जैसे निययत्युत्तिसमत्थं तं भावसुयं मई सेसं ।। अमुक आकार वाली वस्तु, जो जलधारण आदि अर्थक्रिया (विभा १००) में समर्थ है, वह घट (वाचक) शब्द के द्वारा वाच्य है, इन्द्रिय और मन का निमित्त मिलने पर जो श्रुतानुइत्यादि । जिस ज्ञान में कालिक-साधारण, समान परि सारी ज्ञान होता है तथा जो अपने अर्थ को कहने में गाम मुख्य होता है, जो शब्द और अर्थ के पर्यालोचन के समर्थ है, वह भावश्रुत है, शेष मतिज्ञान है। भनुसार होता है, जो इन्द्रिय और मन के निमित्त से। ""भावसुयं मइपुव्वं, दव्वसुयं लक्खणं तस्स ।। होता है, वह श्रुतज्ञान है। सुयविण्णाणप्पभवं दव्वसुयमियं जओ विचितेउं । पुव्वं पच्छा भासइ लक्खिज्जइ तेण भावसुयं ॥ श्रूयते तदिति श्रुतं- शब्दमात्रम् । तच्च द्रव्यश्रुत (विभा ११२,११३) मेव । यत्पुन: शब्दमाकर्णयत: स्वयं वा वदतः पुस्तका- भावश्रुत मतिपूर्वक होता है । द्रव्यश्रुत उसका लक्षण दिन्यस्तानि वा चक्षुरादिभिरक्षराण्युपलभमानस्य शेषेन्द्रिय- है। द्रव्यश्रुत भावश्रुत से उत्पन्न होता है। पहले भावगृहीतं वाऽर्थ विकल्पयतोऽक्षरारूषितं विज्ञानमुपजायते श्रुत से चिंतन किया जाता है, तत्पश्चात् उसे शब्द से तदिह भावश्रुतं श्रुतशब्देनोक्तम् । (उशावृ प ५५६,५५७) प्रकट किया जाता है । अतः द्रव्यश्रुत से भावश्रुत लक्षित ___ जो सुना जाता है वह श्रुत-शब्द है। शब्द द्रव्य- होता है। श्रुत ही है। जब शब्द को सुना जाता है, बोला जाता है, बुद्धिढेि अत्थे जे भासइ तं सुयं मईसहियं । पुस्तक आदि में न्यस्त अक्षर-विन्यास चक्षइन्द्रिय से पढ़ा इयरत्थ वि होज्ज सुयं उवलद्धिसमंजइ भणेज्जा। जाता है अथवा शेष इंद्रियों से अवगहीत अर्थ का पर्या (विभा १२८) लोचन किया जाता है, उस समय जो अक्षरानुसारी/ जो ज्ञान बुद्धिदृष्ट अर्थों का प्रतिपादन करने में श्रुतानुसारी विज्ञान उत्पन्न होता है, वह भावश्रुत है और समर्थ होता है, वह श्रुतज्ञान है। वह मतिज्ञान सहित वही यहां श्रुत शब्द से अभिहित है। होता है। प्रतिपादन का संबंध द्रव्यश्रत से है और Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतज्ञान का विषय मति सहित होने का संबंध भावश्रुत से । भावश्रुत के साथ द्रव्यश्रुत भी होता है, यदि वह जितनी ज्ञान की उपलब्धि है, उतना निरूपण करता 1 मति और श्रुत की भेवरेखा सोइंदिओवलद्धी होइ सुयं सेसयं तु मइनाणं । मोत्तूणं दव्वसुयं अक्खरलंभो य सेसेसु ॥ न केवलं शेषेन्द्रियोपलब्धिर्मतिज्ञानम् । किन्तु श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिश्च काचिदवग्रहेहादिमात्ररूपा मतिज्ञानं भवति पुस्तकादिलिखितं यद् द्रव्यश्रुतं तद् मुक्त्वा परित्यज्यैव शेषं मतिज्ञानं द्रष्टव्यम् न केवलं श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिः श्रुतम्, किन्तु यश्च शेषेसु चतुर्षु चक्षुरादीन्द्रियेषु श्रुतानुसारिसाभिलापविज्ञानरूपोऽक्षरलाभः सोऽपि श्रुतम्, न त्वक्षरलाभमात्रम् । तस्येहा-पायाद्यात्मके मतिज्ञानेऽपि सद्भावात् । ( विभा ११७ मबृ पृ ६५ ) श्रोत्रेन्द्रिय के माध्यम से होने वाला ज्ञान श्रुतज्ञान है । शेष चक्षु आदि इन्द्रियों से अवग्रह, ईहा आदि के रूप में जो अश्रुतानुसारी बोध होता है, वह मतिज्ञान है । श्रोत्रेन्द्रिय का ज्ञान भी जो अवग्रह, ईहा आदि रूप होता है, वह भी मतिज्ञान है । पुस्तक आदि में लिखित द्रव्यश्रुत को छोड़कर शेष मतिज्ञान है । केवल श्रोत्रेन्द्रिय से होने वाला ज्ञान ही श्रुतज्ञान नहीं है । चक्षु आदि इन्द्रियों से जो श्रुतानुसारी साभिलाप ज्ञान होता है, वह भी श्रुतज्ञान है । मति-सुताणं अष्णोष्णाणुगताण वि आयरिया भेदमाह दिट्ठतसामत्थतो, जहा आगासपइट्ठिताणं धम्माऽधम्माण अष्णोष्णानुगताणं लक्खणभेदा भेदो दिट्ठो तहा मति - सुताण विसामि - कालादि अभेदे वि भेदो भण्णति । ( नन्दी चू पृ ३१) मति और श्रुत] अन्योन्य अनुगत हैं। इनमें स्वामी, अभेद है, फिर भी इनमें भिन्नता है । जैसे आकाशप्रतिष्ठित धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय अन्योन्य - अनुगत होने पर भी अपने-अपने लक्षण-भेद से भिन्न हैं । शुतज्ञान: मतिज्ञान का एक भेद **** || विसिट्ठो वा । मइभेओ चेव सुयं इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तद्वारेणोपजायमानं सर्वं मतिज्ञानमेव केवलं परोपदेशादागमवचनाच्च भन्व विशिष्ट: ६३३ कश्चिद् मतिभेद एव श्रुतं नान्यत् । श्रुतज्ञान ( विभा ८६ मवृ पृ ४९ ) इन्द्रिय और मन के निमित्त से होने वाला सारा ज्ञान मतिज्ञान है । परोपदेश और आगमवचन - इन दो विशेषताओं से विशिष्ट श्रुतज्ञान मतिज्ञान का ही एक भेद है, इससे भिन्न नहीं है । जावतो वयणपहा सुयाणुसारेण केइ लब्भंति । ते सव्वे सुयनाणं ते याणंता मइविसेसा ॥ ( विभा ४५१ ) श्रुतग्रंथों का अनुसरण करने वाले जितने वचन-पथ हैं, वे सब श्रुतज्ञान हैं । वे श्रुतानुसारी मतिविशेष के भेद हैं और वे अनन्त हैं । ४. श्रुतज्ञान परार्थ पाएण पराहीणं दीवोव्व परप्पबोहयं जं च । सुयनाणं तेण परप्पबोहणत्थं तदणुओगो ॥ प्रत्येकबुद्धादीनां श्रुतस्य स्वयमेव भावात् तद्व्यवच्छेदार्थं प्रायोग्रहणम् । ( विभा ८३९ मवृ पृ ३४१ ) दीपक पर को प्रकाशित करता है । इसी प्रकार श्रुतज्ञान भी स्व और पर स्वरूप का प्रकाशन - विश्लेषण करने में समर्थ है । पर प्रबोधक होने से ही वह शिक्षा अथवा व्याख्या के लिए अधिकृत है। श्रुतज्ञान गुरु से प्राप्त होता है इसलिए वह प्रायः पराधीन है। यहां 'प्रायः ' शब्द का प्रयोग सूचित करता है कि प्रत्येकबुद्ध आदि का श्रुतज्ञान स्वायत्त होता है, परायत्त नहीं । सुयणाणेणं अवसेसाणि णाणाणि णज्जंति परूविज्जंति वा । चत्तारि णाणाणि ससमुत्थाणि इमं परसमुत्थं । (आवचू १ पृ७७ ) श्रुतज्ञान से मति आदि चारों ज्ञान जाने जाते हैं तथा उनकी प्ररूपणा होती है। चार ज्ञान स्वसमुत्थ तथा श्रुतज्ञान परसमुत्थ है । ५. श्रुतज्ञान का विषय से समासओ चउव्विहे पण्णत्ते, तं जहा - दव्वओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ । दव्वओ णं सुयनाणी उवउत्ते सव्वदव्वाइं जाणइ पासइ । खेत्तओ णं सुयनाणी उवउत्ते सव्वं खेत्तं जाणइ पासइ । कालओ णं सुयनाणी उवउत्ते सव्वं कालं जाणइ पासइ । भावओ णं सुयनाणी उवउत्ते सव्वे भावे जाणइ पासइ ॥ ( नन्दी १२७) Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतज्ञान संक्षेप में श्रुतज्ञान चार प्रकार का है द्रव्यतः " द्रव्य की दृष्टि से श्रुतज्ञानी उपयुक्त (ज्ञेय के प्रति दत्तचित्त ) होने पर सब द्रव्यों को जानता देखता है | क्षेत्रत:- क्षेत्र की दृष्टि से श्रुतज्ञानी उपयुक्त होने पर सब क्षेत्रों को जानता देखता है । कालतः - काल की दृष्टि से श्रुतज्ञानी उपयुक्त होने पर सर्व काल को जानता देखता है । -भाव की दृष्टि से सब भावों को जानता देखता है । भावतः ६. श्रुत के एकार्थक सुय सुत्त गंथ सिद्धंत, सासणे आण वयण उवएसे । पण्णवण आगमे य, एगट्ठा ६३४ श्रुतज्ञानी उपयुक्त होने पर पज्जवा सुते ॥ ( अनु ५१ ) श्रुत, सूत्र, ग्रंथ, सिद्धांत, शासन, आज्ञा, वचन, उपदेश, प्रज्ञापन और आगम-ये श्रुत के एकार्थक हैं । ७. श्रुतज्ञान के प्रकार तं समासओ दुविहं पण्णत्तं तं जहा - अंगपविट्ठ अंगबाहिरं च । ( नन्दी ७३) श्रुतज्ञान संक्षेपतः दो प्रकार का है अंगप्रविष्ट ओर अंगबाह्य | तं च सुतावरणखयोवसमत्तणतो एगविहं पितं अक्खरादिभावे पडुच्च जाव अंगबाहिरं ति चोद्दसविधं भण्णति । ( नन्दीचू पृ ४४) श्रुतज्ञानावरण के क्षयोपशम की अपेक्षा श्रुतज्ञान एक प्रकार का ही है। अक्षर आदि भावों की अपेक्षा से वह चौदह प्रकार का है। सुयनाणपरोक्खं चोदसविहं पण्णत्तं तं जहा - १. अक्खरसुयं २. अणक्खरसुयं ३. सण्णिसुयं ४ असणसुयं ५. सम्मसुयं ६. मिच्छसुयं ७. साइयं ८. अणाइयं ९. सपज्जवसियं १०. अपज्जवसियं ११. गमियं १२. अगमियं १३. अंगपविट्ठ १४. अगंगपविट्ठं । ( नन्दी ५५ ) श्रुतज्ञान परोक्ष ज्ञान है । उसके चौदह प्रकार हैं१. अक्षरश्रुत २. अनक्षरश्रुत ३. संज्ञीश्रुत ४. असंज्ञीश्रुत ५. सम्यकश्रुत ६. मिध्याश्रुत ७. सादिश्रुत ८. अनादिश्रुत ९. सपर्यवसितश्रुत १०. अपर्यवसितश्रुत ११. गमिकश्रुत ( श्रुतज्ञान के ये चौदह भेद छह हेतु सापेक्ष हैं १. अक्षरश्रुत-अनक्षरश्रुत— अक्षर तथा संकेत के आधार पर होने वाले ज्ञान की अपेक्षा से । २. संज्ञीश्रुत - असंज्ञीश्रुत मानसिक विकास और अविकसित मन के आधार पर होने वाले ज्ञान की अपेक्षा से । अक्षरश्रुत की परिभाषा १२. अगमिकश्रुत १३. अंगप्रविष्टश्रुत १४. अनंगप्रविष्टश्रुत - ३. सम्यक् श्रुत - मिध्याश्रुत - प्रवचनकार और ज्ञाता के आधार पर होने वाले ज्ञान की अपेक्षा से । ४. सादि-अनादिश्रुत, सपर्यवसित- अपर्यवसितश्रुतकालावधि के आधार पर होने वाले ज्ञान की अपेक्षा से । ५. गमिक - अगमिकश्रुत- रचनाशैली की अपेक्षा से । ६. अंग - अनंगश्रुत -- ग्रन्थकार की अपेक्षा से । श्रुतज्ञान के चौदह भेदों की अवधारणा आवश्यक निर्युक्ति और नंदीसूत्र में उपलब्ध होती है । देवेन्द्रसूरि कृत कर्मविपाक में श्रुतज्ञान के चौदह और बीस दोनों प्रकार उपलब्ध हैं । षट्खण्डागम में श्रुतज्ञान के बीस प्रकार बतलाए गए हैं। देखें-नन्दी सूत्र ५५ का टिप्पण) पत्ते मक्खराई, अक्खरसंजोग जत्तिया लोए । एवइया पयडीओ, सुयनाणे हृति णायव्वा ॥ ( आवनि १७ ) लोक में जितने अक्षर हैं और उनके जितने विविध संयोग हैं, उतने ही श्रुतज्ञान के भेद हैं । ८. अक्षरश्रुत की परिभाषा न तव्विरहे । न क्खरइ अणुवओगे वि अक्बरं सो य चेयणाभावो । अविसुद्ध नयाण मयं सुद्धनयाण क्खरं चैव ॥ उवओगे वि य नाणं सुद्धा इच्छंति जं उपाय-भंगुरा वा जं तेसि अभिलप्पा वि य अत्था सव्वे दव्वट्टियाए जं निच्चा । पज्जायेणानिच्चा तेण खरा अक्खरा चेव || (विभा ४५५-४५७) सव्वपज्जाया ॥ अनुपयोग काल में भी जिसका क्षरण नहीं होता, वह अक्षर है और वह चेतना का ज्ञान परिणाम है । नैगम आदि अविशुद्ध नयों की दृष्टि में ज्ञान अक्षर है- उसका Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्षरश्रुत के प्रकार ६३५ श्रुतज्ञान प्रच्यवन नहीं होता। ऋजुसूत्र आद्धि शुद्ध नयों की दृष्टि जहा–वट्टो ठकारो, वज्जागिती वकारो। में ज्ञान क्षर है-अनुपयोग अवस्था में उसका प्रच्यवन (आवचू १ पृ २६) होता है। उपयोग अवस्था में ही ज्ञान होता है। हंसलिपि आदि अठारह प्रकार की लिपियों से सम्बद्ध शुद्ध नय की दृष्टि में सर्व पदार्थ उत्पाद और व्यय । अक्षरों का आकार संज्ञाक्षर है। जैसे-अर्धचन्द्राकार स्वभाव वाले हैं, अतः क्षर हैं । ज्ञान भी उत्पाद-व्ययशील टकार, घटाकार वृत्त ठकार, वज्राकार वकार । होने से क्षर है-अभिलाप विज्ञान की अपेक्षा से यह ____ अक्षरस्य पट्टिकादौ संस्थापितस्य संस्थानाकृतिः अक्षरता-अनक्षरता प्रतिपादित है। संज्ञाक्षरमुच्यते । तच्च ब्राह्मयादिलिपिभेदतोऽनेकप्रकारम् । तत्र नागरी लिपिमधिकृत्य किञ्चित्प्रदर्यते-मध्ये स्फाटितघट, व्योम आदि अभिलाप्य पदार्थ द्रव्यास्तिक नय की अपेक्षा से नित्य हैं, अतः अक्षर हैं। पर्यायास्तिक नय चुल्लीसन्निवेशसदृशो रेखासन्निवेशो णकारो, वक्रीकी अपेक्षा से अनित्य हैं, अतः क्षर हैं । भूतश्वपुच्छसन्निवेशसदृशो ढकार इत्यादि । (नन्दीमत् प १८८) रूढ़ि से वर्ण ही अक्षर पट्टिका आदि पर संस्थापित अक्षर की संस्थानाकृति जइ विह सव्वं चिय नाणमक्खरं तह वि रूढिओ वन्नो ।'" संज्ञाक्षर कहलाती है। वह संस्थान अनेक प्रकार का है। विभा ४५९) जैसे ब्राह्मी लिपि आदि । नागरी लिपि के उदाहरणयद्यपि च सर्व ज्ञानमविशेषेणाक्षरं प्राप्नोति तथाऽपीह मध्य में स्फाटित चुल्ही सन्निवेश की तरह रेखासन्निवेश श्रुतज्ञानस्य प्रस्तावादक्षरं श्रुतज्ञानमेव द्रष्टव्यं, न शेषं, वाला णकार। कुत्ते की टेढी पंछ की आकृति वाला इत्थम्भूतभावाक्षरकारणं वाऽकारादि वर्णजातं ततस्त- ढकार । दप्युपचारादक्षरमुच्यते । (नन्दीमत् प १८७,१८८) लिपि के अठारह प्रकार _सब ज्ञान सामान्य रूप से अक्षर हैं, फिर भी यहां हंसलिवी भूयलिवी जक्खी तह रक्खसी य बोधव्वा । श्रुतज्ञान का प्रसंग होने से श्रुतज्ञान ही अक्षर है, शेष उड्डी जवणि तुरुक्की कीरी दविडी य सिंधविया ।। ज्ञान नहीं। इस प्रकार के भावश्रुत (भाव अक्षर) का मालविणी नडि नागरी लाडलिवी पारसी य बोधव्वा । कारणभूत अकार आदि जो वर्णसमूह है, उपचार से वह तह अनिमित्ती न लिवी चाणक्की मूलदेवी य॥ भी अक्षर कहलाता है। (विभामवृ १ पृ २१७) १. हंसलिपि ६. अक्षरश्रुत के प्रकार १०. सैन्धवी २. भूतलिपि ११. मालविनी अक्खरसुयं तिविहं पण्णत्तं, तं जहा ३. यक्षी १२. नटी १. सण्णक्खरं २. वंजणक्खरं ३. लद्धिअक्खरं । ४. राक्षसी १३. नागरी (नन्दी ५६) ५. उड़िया १४. लाट अक्षरश्रुत के तीन प्रकार हैं ६. यवनानी १५. पारसी १. संज्ञाक्षर, २. व्यञ्जनाक्षर, २. लब्ध्यक्षर । ७. तुरुष्की १६. अनिमित्ती अक्खरं तिविहं-नाणक्खरं अभिलावक्खरं वण्णक्खरं ८. कीरी १७. चाणक्यी च। (नन्दीचू पृ ४४) ९. द्राविडी ५८. मूलदेवी अक्षर के तीन प्रकार हैं-ज्ञानाक्षर, अभिलाप्याक्षर (समवाओ, पन्नवणा, भूवलय-इन ग्रन्थों में अठा—ज्ञेयाक्षर और वर्णाक्षर । रह लिपियों के नाम कुछ प्रकारभेद से मिलते हैं। देखेंसंशाक्षर की परिभाषा समवाओ १८/५ का टिप्पण) . सम्णक्खरं--अक्खरस्स संठाणागिई। (नन्दी ५७) व्यञ्जनाक्षर ......"सुबहुलिविभेयनिययं सण्णक्खरमक्खरागारो। वंजणक्चरं-अक्खरस्स वंजणाभिलावो। (नन्दी ५८) (विभा ४६४) अक्षर का उच्चारण करना व्यञ्जनाक्षर है। Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतज्ञान वंजिज्जइ जेणत्थो घडो व्व दीवेण वंजणं तो तं । भण्णइ भासिज्जतं सव्वमकाराइ तक्कालं ॥ ( विभा ४६५ ) प्रदीप से घट की तरह जिससे अर्थ अभिव्यक्तप्रकाशित होता है, वह व्यञ्जन है । अकार से हकार तक के भाष्यमाण शब्द उच्चारणकाल में व्यञ्जनाक्षर कहलाते हैं । वंजणक्खरो अभिधेयातो भिन्नं अभिन्नं च । जम्हा मोदउत्ति भणिए णो वयणस्स पूरणं भवति । अतो गज्जति जहा भिन्नया । जम्हा पुण मोदउत्ति भणितं तंमि चेव संपच्चतो भवति, णो तव्वतिरित्तेसु घटादिसु, अतो अभिन्नया । ( आव ११२७) व्यञ्जनाक्षर अभिधेय से भिन्न भी है, अभिन्न भी है । 'मोदक' शब्द कहने से मुंह नहीं भरता - इस दृष्टि से वाच्य वाचक से भिन्न है । मोदक कहने से मोदक का ही संप्रत्यय होता है, तद्द्व्यतिरिक्त घट आदि का नहीं । अतः वाच्य वाचक से अभिन्न है । लन्ध्यक्षर जो अक्खरोवलंभी सा लद्धी, तं च होइ विष्णाणं । इंदिय-मणोनिमित्तं जो यावरणक्खओवसमो || (विभा ४६६ ) अक्षर की प्राप्ति लब्ध्यक्षर है । इन्द्रिय और मन के निमित्त से होने वाला श्रुतग्रन्थानुसारी विज्ञान -- -श्रुतज्ञान का उपयोग और श्रुतज्ञानावरण का क्षयोपशम ये दोनों लब्ध्यक्षर हैं । १०. लब्ध्यक्षर के भेद अक्खरलद्धियस्य लद्धिअक्खरं समुप्पज्जइ, तं जहा - सोइंदियलद्धिअक्खरं चक्खिदियलद्धिअक्खरं, घाणिदिय लद्धिअक्खरं, रसणिदियलद्धिअक्खरं, फासिंदियलद्धिअक्खरं नोइंदियल द्धिअक्खरं । ( नन्दी ५९ ) जो अक्षरलब्धि से सम्पन्न है, उसके लब्ध्यक्षर ( भावश्रुत) उत्पन्न होता है । लब्ध्यक्षर के छह भेद हैं१. श्रोत्रेन्द्रिय लब्ध्यक्षर । २. चक्षुरिन्द्रिय लब्ध्यक्षर । ३. घ्राणेन्द्रिय लब्ध्यक्षर । ४. रसनेन्द्रिय लन्ध्यक्षर । ६३६ लब्ध्यक्षर के भेद ५. स्पर्शनेन्द्रिय लब्ध्यक्षर । ६. नोइन्द्रिय ( मन ) लब्ध्यक्षर । यच्छ्रोत्रेन्द्रियेण शब्दश्रवणे सति शाङ्खोऽयमित्याद्यक्षरानुविद्धं शब्दार्थ पर्यालोचनानुसारि विज्ञानं तच्छ्रोत्रेन्द्रियलब्ध्यक्षरं तस्य श्रोत्रेन्द्रियनिमित्तत्वात् । चक्षुषा आम्रफलाद्युपलभ्याम्रफलमित्याद्यक्षरानुविद्धं शब्दार्थ पर्यालोधनात्मकं विज्ञानं तच्चक्षुरिन्द्रियलब्ध्यक्षरम् । ( नन्दीमवृप १८८१८९ ) श्रोत्रेन्द्रिय से शब्द सुनने पर 'यह शंख का शब्द है' — इत्यादि अक्षरमय शब्दार्थ पर्यालोचन से जो ज्ञान होता है, वह श्रोत्रेन्द्रियलब्ध्यक्षर है, क्योंकि वह श्रोत्रेन्द्रिय के निमित्त से हुआ है । आंख से आम्रफल देखने पर 'आम्रफल' इन अक्षरों चक्षुइन्द्रियलब्ध्यक्षर है । से अनुविद्ध शब्दार्थ पर्यालोचनात्मक ज्ञान होता है, वह लब्ध्यक्षर और संज्ञी-असंज्ञी जीव असणिणो पंचेंदिया पासंतावि अत्थे घडपडादिणो णोऽभिजाणंति किमवि एयंति । तम्हा पायसो एसो लद्धिअक्खरलंभो सण्णीणं भवति, णो असण्णीणं ति । ( आवचू १ पृ २८ ) असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीव घट, पट आदि पदार्थों को देखता हुआ भी नहीं जानता कि 'यह कुछ है' । अतः लब्ध्यक्षर प्रायः संज्ञी के होता है, असंज्ञी के नहीं । लब्ध्यक्षरं संज्ञिनामेव पुरुषादीनामुपपद्यते नासंज्ञिनामेकेन्द्रियादीनां तेषामकारादीनां वर्णानामवगमे उच्चारणे वा लब्ध्यसम्भवात् न हि तेषां परोपदेशश्रवणं सम्भवति येनाकारादिवर्णानामवगमादि भवेत् अथचकेन्द्रियादीनामपि लब्ध्यक्षरमिष्यते, तथाहि पार्थिवादीनामपि भावश्रुतमुपवर्ण्यते । तेषां तथाविधक्षयोपशमभावत: कश्चिदव्यक्तोऽक्षरलाभो भवति यद्वशदक्षरानुषक्तं श्रुतज्ञानमुपजायते, इत्थं चैतदङ्गीकर्त्तव्यं तथाहि - तेषामप्याहाराद्यभिलाष उपजायते, अभिलाषश्च प्रार्थना, सा च यदीदमहं प्राप्नोमि ततो भव्यं भवतीत्याद्यक्षरानुविद्धैव ततस्तेषामपि कश्चिदव्यक्ताक्षरलब्धिरवश्यं प्रतिपत्तव्या । ( नन्दीमवृप १८८ ) लब्ध्यक्षर अक्षरानुविद्ध ज्ञान है इसलिए वह समनस्क जीवों के ही हो सकता है । अमनस्क जीव अक्षर को पढ़ नहीं सकते और उसके उच्चारण को Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकार के स्व-पर पर्याय समझ नहीं सकते । है । अतः उनके लब्ध्यक्षर संभव नहीं किन्तु पृथ्वी आदि केन्द्रिय जीवों में भावश्रुत होने का उल्लेख है । ज्ञानावरण के किचित् क्षयोपशम के कारण उनको अल्पतम अव्यक्त अक्षर लाभ होता । उससे अमनस्क जीवों में अक्षरानुषक्त श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है । इस तथ्य की पुष्टि के लिए आहार आदि की अभिलाषा की चर्चा की गई है। अभिलाषा का अर्थ है - मुझे वह वस्तु मिले - यह अभिलाषा अक्षरानुविद्ध होती है इसलिए एकेन्द्रिय आदि अमनस्क जीवों में अव्यक्त अक्षरलब्धि care स्वीकार्य है । ( एकेन्द्रिय आदि अमनस्क जीव ध्वनि के प्रकम्पनों को पकड़ लेते हैं और उन्हें अव्यक्त अक्षर के रूप में बदल लेते हैं। इसे फेक्स मशीन की प्रक्रिया से समझा जा सकता है 1 ) एकेन्द्रिय में लब्ध्यक्षर ( भावश्रुत) "दव्वसुयाभावम्मि वि भावसुयं सुत्तजइणो व्व ॥ एकेन्द्रियाणामपि सामग्रीवैकल्याद् यद्यपि द्रव्यश्रुताभावः, तथाऽप्यावरणक्षयोपशमरूपं भावश्रुतमवसेयम् । (विभा १०१ मवु पृ ५७ ) यद्यपि मन आदि कारण सामग्री के अभाव में एकेन्द्रिय प्राणियों में द्रव्यश्रुत नहीं होता, फिर भी श्रुतआवरण के क्षयोपशमरूप भावश्रुत होता ही है । जैसेसुप्त साघु में भावश्रुत होता है। जह सुमं भाविदियनाणं दविदियावरोहे वि । तह दव्वसुयाभावे भावसुयं पत्थिवाईणं ॥ ( विभा १०३ ) जैसे पृथ्वी आदि एकेन्द्रिय जीवों में पौद्गलिक इन्द्रियों के अभाव में भी भावेन्द्रियां होती हैं, वैसे ही उनमें शब्दात्मक ज्ञान न होने पर भी भावश्रुत होता है । दव्वसुयं सण्णा वंजणक्खरं भावसुत्तमियरं तु । ( विभा ४६७ ) संज्ञाक्षर और व्यञ्जनाक्षर भावश्रुत के कारण होने से द्रव्यश्रुत हैं । लब्ध्यक्षर भावश्रुत है । ११. अक्षरों के संयोग अनन्त संजुत्ता-संजुत्ताण ताणमेकखराइसंजोगा । होंति अनंता तत्थ वि एक्केकोऽणंतपज्जाओ ।। ६३७ ---- श्रुतज्ञान एक्केक्कमक्खरं पुण स-परपज्जायभेयओ भिन्नं । सव्वदव्व-पज्जायरासिमाणं तं ॥ ( विभा ४४५, ४७७ ) संयुक्त (अब्धि, सिद्धि) और असंयुक्त (घट, पट आदि) अक्षरों के संयोग अनन्त हैं। एक-एक अक्षरसंयोग के स्व-पर- पर्याय अनन्त हैं । प्रत्येक संयोग अनन्त पर्याय वाला होता है । प्रत्येक अक्षर के स्वपर्याय और परपर्याय सब द्रव्यों की पर्यायराशि के तुल्य हैं । १२. अकार के स्व- पर पर्याय जे लभइ केवल सेसवन्नसहिओ व पज्जवेऽयारो । ते तस्स सपज्जाया सेसा परपज्जया सव्वे ॥ यानुदात्ताऽनुदात्त सानुनासिक - निरनुनासिकादीनात्मगतान् पर्यायान् केवलोऽन्यवर्णेनाऽसंयुक्तः, अन्यवर्ण संयुक्तो वाsकारो लभतेऽनुभवति ते तस्य स्वपर्यायाः प्रोच्यन्ते, अस्तित्वेन संबद्धत्वात्, ते चाऽनन्ता: .............. घटादिगताश्चाऽस्य परपर्यायाः, तेभ्यो व्यावृत्तत्वेन नास्तित्वेन संबन्धात् । ( विभा ४७८ मवृ पृ २२२ ) अकार के अन्य वर्णों से असंयुक्त उदात्त - अनुदात्त आदि पर्याय अथवा संयुक्त पर्याय अस्तित्व से संबद्ध होने के कारण स्वपर्याय हैं । वे अनन्त हैं। शेष घट आदि के पर्याय नास्तित्व से सम्बद्ध होने के कारण अकार के परपर्याय हैं । एगमेगस्स अक्खरस्स दुविहा पज्जाया भवंति । तं जहा --- सपज्जाया असपज्जाया य । तत्थ जे ते सपज्जाया ते दुविहा, तं जहा - संबद्धा असंबद्धा य । जेऽवि असपज्जाया तेऽवि दुविहा, तं जहा - संबद्धा असंबद्धा य । एत्थणिय-रिसणं- अकारो । अकारस्स जे सपज्जाया ते अस्थित्तेण संबद्धा णत्थित्तेण असंबद्धा । ते चेव अकारपज्जाया अण्णेसि अत्थित्तेण असंबद्धा णत्थित्तेण संबद्धा । तहा जे असपज्जाया अकारस्स ते णत्थित्तेण संबद्धा, अत्थित्तेण असंबद्धा । ते चेव अकारस्स असपज्जाया अन्नेसि अत्थितेण संबद्धा णत्थित्तेण असंबद्धा । ( आवचू १२८, २९) प्रत्येक अक्षर के दो-दो प्रकार के पर्याय होते हैं - स्वपर्याय और परपर्याय । इनके दो-दो प्रकार हैं— सम्बद्ध और असम्बद्ध । जैसे अकार के स्वपर्याय उसके अपने अस्तित्व से सम्बद्ध हैं और नास्तित्व से असम्बद्ध हैं । अकार के वे ही स्वपर्याय अन्य अक्षरों के अस्तित्व से Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतज्ञान अनक्षर श्रुत असंबद्ध हैं और उनके नास्तित्व से संबद्ध हैं। इसी प्रकार १४. अक्षर का पर्यवपरिमाण अकार के जो परपर्याय हैं, वे उसके नास्तित्व से संबद्ध हैं सव्वागासपएसग्गं सव्वागासपएसेहिं अणंतगुणियं और अस्तित्व से असंबद्ध हैं । ये अन्य अक्षरों के अस्तित्व प पज्जवग्गखर निप्फज्जइ। नि । (नन्दी ७०) से संबद्ध और नास्तित्व से असंबद्ध हैं। समस्त आकाशप्रदेशों को समस्त आकाशप्रदेशों से अनन्त बार गुणन करने पर जितना परिमाण होता है, १३. एक का ज्ञान, सर्व का ज्ञान उतने ही परिमाण में विद्यमान हैं-- अक्षर के पर्यव । एगं जाणं सव्वं जाणइ सव्वं च जाणमेगं ति । (प्रस्तुत सूत्र में अक्षर अथवा केवलज्ञान का प्रमाण इय सव्वमजाणतो नागारं सव्वहा मुणइ ।। ज्ञेय के आधार पर समझाया गया है। आकाश के एक एक किमपि वस्तु सर्वेः स्वपरपर्यायैर्युक्तं जानन्नव- प्रदेश में अगुरुलघु पर्याय अनन्त होते हैं। लोकाकाश बुध्यमानः सर्वं लोकाऽलोकगतं वस्तु सर्वैः स्वपर्यायैर्युक्तं और अलोकाकाश दोनों को मिलाकर आकाश के प्रदेश जानाति, सर्ववस्तुपरिज्ञाननान्तरीयकत्वादेकवस्तुज्ञानस्य । अनंत हैं। सब आकाशप्रदेशों को सब पर्यायों से अनंत यश्च सर्व सर्वपर्यायोपेतं वस्तु जानाति स एकमपि बार गुणित करने पर जो प्रमाण प्राप्त होता है, वह पर्याय सर्वपर्यायोपेतं जानाति, एकपरिज्ञानाऽविनाभावित्वात् का प्रमाण होता है । अक्षर अथवा केवलज्ञान का परिमाण सर्वपरिज्ञानस्य । (विभा ४८४ मवृ पृ २२५) इतना ही होता है । देखें -- नन्दीच पृ ५२) जो समग्र स्व और पर पर्यायों से युक्त किसी एक भी अविसेसियं पि सुत्ते अक्खरपज्जायमाणमाइटठं । वस्तु को जानता है, वह सारे लोक और अलोक में सुय-केवलक्खराणं एवं दोण्हं पि न विरुद्धं ।। विद्यमान स्व-पर-पर्यायों से युक्त सर्व वस्तु को जानता (विभा ४९६) है। क्योंकि एक वस्तु का परिज्ञान सर्व वस्तू के परिज्ञान अक्षर का पर्यव-परिमाण सामान्य रूप से निरूपित का अविनाभावी है। है। यहां अक्षर का संबंध श्रत-अक्षर और केवल-अक्षर जो समस्त पर्यायों से युक्त सर्व वस्तु को जानता है, दोनों के साथ जोड़ा जा सकता है। श्रुत-अक्षर के जितने वह सर्व पर्यायोपेत एक वस्तु को भी जानता है। क्योंकि स्व-पर पर्याय हैं, उतने ही पर्याय केवल-अक्षर के हैं। सर्व वस्तु का परिज्ञान एक वस्तु के परिज्ञान का अविना- १५. अ १५. अनक्षर श्रुत भावी है। जो सर्व वस्तु को नहीं जानता, वह एक अकार अणक्ख रसुयं अणेगविहं पण्णत्तं, तं जहाअक्षर को भी पूर्ण रूप से नहीं जानता । ऊससियं नीससियं, निच्छुढं खासियं च छीयं च । पण्णवणिज्जा भावा वण्णाण सपज्जया तओ थोवा । सेसा परपज्जाया तोऽणंतगूणा निरभिलप्पा ।। निस्सिघियमणुसार, अणक्खरं छेलियाईयं ।। (विभा ४८८) (नन्दी ६०) अनक्षर श्रत के अनेक भेद हैं। जैसे- उच्छवासअभिलाप्य वस्तु का कथन वर्गों के द्वारा होता है। निःश्वास, थूकना, खांसना, छींकना, नाक की आवाज, अतः प्रज्ञापनीय-अभिलाप्य भाव अकार आदि वर्गों के स्वपर्याय हैं। ये परपर्याय के अनन्तवें भाग जितने हैं। शेष अनुस्वार, सेंटित-सीटी बजाना आदि। अनभिलाप्य भाव अक्षर के परपर्याय हैं। ये स्वपर्याय से ऊससियाई दव्वसुयमेत्तमहवा सुओवउत्तस्स । अनन्तगुण अधिक हैं। सव्वो च्चिय वावारो सूयमिह तो किन चेद्रा वि।। पण्णवणिज्जा भावा अणंतभागो उ अणभिलप्पाणं । रूढी य तं सुयं सुव्वइ त्ति चेट्टा न सुम्वइ कयाइ । पण्णवणिज्जाणं पुण अणंतभागो सूयनिबद्धो ।। अहिगमया वण्णा इव जमणुस्सारादओ तेणं ।। (विभा १४१) (विभा ५०२,५०३) अनभिलाप्य (अप्रज्ञापनीय) भावों का अनन्तवां भाग उच्छ्वास-नि:श्वास आदि से जो ज्ञान होता है, वह अभिलाप्य (प्रज्ञापनीय) भाव है। प्रज्ञापनीय भावों का अनक्षर श्रुत है । यह श्रुतज्ञान का कारण है, अतः द्रव्यअनन्तवां भाग श्रुत निबद्ध है। श्रत है। विशिष्ट अभिप्रायपूर्वक उच्छवास आदि का Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संज्ञी-असंज्ञी श्रुत श्रुतज्ञान प्रयोग होता है, तब वह श्रुतज्ञान का कारण बनता है। जो अभिसंधारण-अव्यक्त या व्यक्त विज्ञान से क का सारा व्यापार ही श्रुत प्रवृत्ति करता है, वह हेतूपदेश संज्ञा से युक्त होता है। है किन्तु सिर धुनना आदि चेष्टाएं श्रुत नहीं हैं। जिसमें अभिसंधारणपूर्वक करणशक्ति नहीं होती, वह उच्छवास आदि ही श्रुत के रूप में रूढ हैं । जो सुना असंज्ञी है। जाता है, वह श्रत है। उच्छ्वास आदि श्रवण के विषय हेउगोवएसो गोविंदणिज्जूत्तिमादितो। तंमि भणितंहैं । सिर, हाथ आदि की चेष्टा दृश्य है, श्रव्य नहीं है, .."अभिसंधारणपूव्विया णाम मणसा पुव्वापरं संचितिऊण अतः वह श्रुत नहीं है। अनुस्वार अकार आदि वर्णों की जा पवित्ती वा निवत्ती वा सा अभिसंधारणपुग्विगा तरह अर्थ का ज्ञापक है, अतः श्रुत है। करणसत्ती भण्णति । सा च जेसि अत्थि ते जीवा जं सई (भाषा अक्षरात्मक और अनक्षरात्मक दोनों प्रकार सोऊण बुझंति तं हेउगोवएसेण सण्णिसूर्य भण्णति । की होती है। जहां जीव का वाक् प्रयत्न हो और भाषा (आवचू १ पृ ३१) वर्णात्मक न हो, वह नो-अक्षरात्मक बन जाती है । उच्छ् गोविन्दनियुक्ति के अनुसार अभिसंधारणपूर्वक करणवास-निःश्वास वाक प्रयत्न से उत्पन्न नहीं हैं अतः भाषा शक्ति का अर्थ है-मन से पूर्वापर का विमर्श कर प्रवृत्तिस्मक नहीं हैं फिर भी श्रुतज्ञान के कारण हैं इसलिए इन्हें निवत्ति करना । जिन जीवों में यह शक्ति होती है, वे अनक्षर श्रुत माना गया है । अकलंक ने अक्षर श्रुत और जिस शब्द को सुनकर ज्ञान करते हैं, वह हेत्वादोपदेशिक अनक्षर श्रुत की संयोजना अनुमान, उपमान आदि के साथ की है। उनके अनुसार स्वार्थानुमान- स्वप्रतिपत्ति संजीश्रुत है। के काल में अनक्षर श्रुत होता है। परार्थानुमान-दूसरे जे पुण संचितेउं इट्टाणिठेसु विसयवत्थुसु । वटंति निवटैंति य सदेहपरिपालणाहेउं ।। के लिए प्रतिपादन के काल में अक्षर श्रुत होता है । इसी पाएण संपए च्चिय कालम्मि न याइदीहकालण्णा । प्रकार उपमान प्रमाण भी अक्षर श्रुत और अनक्षर श्रुत ते हेउवायसण्णी निच्चेट्ठा होंति अस्सण्णी ।। दोनों प्रकार का होता है। देखें-नन्दी ६० का टिप्पण) (विभा ५१५,५१६) १६. संज्ञी-असंज्ञी श्रुत जो जीव अपने देहपरिपालन के लिए चिन्तनपूर्वक (संज्ञा का अर्थ है-मनोविज्ञान । जिनमें ईहा, अपोह । इष्ट विषय में प्रवृत्त और अनिष्ट विषय से निवृत्त होते आदि की शक्ति है, जिनमें इष्ट के लिए प्रवृत्ति और हैं, वे हेतुवादोपदेश की अपेक्षा संज्ञी हैं। हेतुवाअनिष्ट से निवृत्त होने की क्रिया है, जिनमें अनेकांतवाद दोपदेशिकी संज्ञा प्रायः वर्तमानकालिक होती है, किन्तु का संज्ञान है, वे संज्ञी हैं। एकेन्द्रिय जीव असंज्ञी की। दीर्घकालिक नहीं होती। हेतुवाद की अपेक्षा से केवल कोटि में परिगणित हैं।) निश्चेष्ट एकेन्द्रिय (पृथ्वी आदि) ही असंज्ञी हैं, शेष सण्णिसुयं तिविहं पण्णत्तं, तं जहा-कालिओवएसेणं द्वीन्द्रिय आदि सब जीव संज्ञी हैं। हेउवएसेणं दिद्विवाओवएसेणं । (नन्दी ६१) संज्ञी श्रुत के तीन प्रकार हैं ३. दृष्टिवादोपदेश १. कालिक्युपदेश। दिट्रिवाओवएसेणं-सण्णिसूयस्स खओवसमेणं सण्णीति २. हेतूपदेश। लब्भइ । असण्णिसुयस्स खओवसमेणं असण्णीति लब्भइ । ३. दृष्टिवादोपदेश । - (नन्दी ६४) १. कालिक्युपदेश दष्टिवाद की अपेक्षा संज्ञीश्रुत के क्षयोपशम से संज्ञी विवरण के लिए देखें-मन । और असंज्ञीश्रुत के क्षयोपशम से असंज्ञी होता है। . २. हेतूपदेश जेहिं कम्मेहि सण्णिभावो आवरितो, तेसि केसिंचि हेउवएसेणं-जस्स णं अत्थि अभिसंधारणपब्विया खएण केसिंचि उवसमेणं सण्णिभावो लब्भति । सोय करणसत्ती-से णं सण्णीति लब्भइ । जस्स णं नत्थि सण्णी जं सई सुणेति सुणिता य पुवावरं बुज्झति तं अभिसंधारणपब्बिया करणसत्ती--से णं असण्णीति दिदिवाओवदेसेण सण्णिसूयं भण्णति । लब्भइ। (नन्दी ६३) (आवचू १ पृ ३१) Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतज्ञान ६४० सम्यक्-मिथ्या-श्रुत जिन कर्मों से संज्ञीभाव आवृत है, उनमें से कुछ के लिए सम्यक् श्रुत है। भिन्न दशपूर्वी से सामायिक का क्षय और कुछ का उपशम अर्थात् क्षयोपशम होने से पर्यंत सभी श्रुतस्थान सम्यग्दष्टि स्वामी के लिए सम्यक संज्ञी-भाव प्राप्त होता है । वह संज्ञी जीव शब्द को सुनकर श्रुत और मिथ्यादष्टि स्वामी के लिए मिथ्या श्रुत हैं। पूर्वापर का बोध करता है, वह दृष्टिवादोपदेश संज्ञीश्रत अंगाणंगपविठं सम्मसुयं लोइयं तु मिच्छसुयं । आसज्ज उ सामित्तं लोइय-लोउत्तरे भयणा ॥ मिच्छत्तस्स सुतावरणस्स य खयोवसमेणं कतेणं सण्णि (विभा ५२७) सुतस्स लंभो भवति,...."सो य मिच्छत्तस्सुदयतो अंगप्रविष्ट और अनंगप्रविष्ट आगम सम्यकश्रुत हैं। अस्सण्णी भवति......."तं च सुतअण्णाणावरणखयोवसमेणं लौकिक शास्त्र मिथ्याश्रुत हैं । श्रुत का स्वामी सम्यकलब्भति । (नन्दीचू पृ ४७) दृष्टि है तो उसके लिए लौकिक और लोकोत्तर-दोनों दृष्टिवादोपदेश की अपेक्षा सम्यग्दृष्टि का श्रुत संज्ञी- शास्त्र सम्यक्श्रुत हैं। मिथ्यादृष्टि के लिए दोनों मिथ्याश्रुत और मिथ्यादृष्टि का श्रुत असंज्ञीश्रुत कहलाता है। श्रुत हैं । मिथ्यात्व मोहनीय और श्रुतज्ञानावरण के क्षयोपशम से इहंगगतं आयारादि, अणंगगतं च आवस्सगादि । एतं संजीश्रुत की प्राप्ति होती है । मिथ्यात्व मोहनीय के उदय सव्वं दव्वट्ठितणयमतेण सामिणा असंबद्ध पंचत्थिकाया इव और श्रुतअज्ञानावरण के क्षयोपशम से असंज्ञीश्रुत की णिच्चं सम्मसुतं भण्णति । (नन्दीचू पृ ४९) प्राप्ति होती है। आचार आदि अंगप्रविष्ट और आवश्यक आदि १७. सम्यक-मिथ्या-श्रुत अनंगप्रविष्ट श्रुत पंचास्तिकाय की तरह सदा सम्यक्श्रुत है। यहां स्वामी की संबद्धता विवक्षित नहीं है। सम्मसुयंजं इमं अरहंतेहिं भगवंतेहिं....."पणीयं दुवालसंग गणिपिडगं। सम्यक्-मिथ्या-श्रुत का हेतु मिच्छसुयं-जं इमं अण्णाणिएहिं मिच्छदिट्ठिहिं .."बावत्तरिकलाओ"एयाई मिच्छदिट्ठिस्स मिच्छत्तसच्छंदबुद्धिमइविगप्पियं । परिग्गहियाई मिच्छसुयं । एयाई चेव सम्मदिट्ठिस्स अहंतों द्वारा प्रणीत द्वादशांग गणिपिटक सम्यकश्रुत सम्मत्तपरिग्गहियाई सम्मसुयं । है। मिथ्यादष्टि द्वारा कृत स्वच्छन्द निरूपण मिथ्याश्रत ""मिच्छदिहिस्स वि एयाइं चेव सम्मसुयं । कम्हा? सम्मत्तहेउत्तणओ। जम्हा ते मिच्छदिद्रिया तेहिं चेव समएहिं चोइया समाणा केइ सपक्खदिदीओ चयंति । सम्यक्-मिथ्या-श्रुत के स्वामी (नन्दी ६७) दुवालसंगं गणिपिडगं चोइसपूव्विस्स सम्मसूयं, बहत्तर कलाएं आदि मिथ्यादष्टि के मिथ्यारूप में अभिष्णदसव्विस्स सम्मसुयं, तेण परं भिण्णेसु भयणा । परिणत होने के कारण मिथ्याश्रत होते हैं और सम्यक्त्वी परिणत होने के कारण मित्र के सम्यक् रूप में परिणत होने के कारण सम्यक् श्रुत ___ जो चोदसपुवी तस्स सामादियादि बिंदुसारपज्जव- होते हैं। साणं सव्वं नियमा सम्मसुतं, ततो ओमत्थगपरिहाणीए मिथ्यादृष्टि के भी ये सम्यक्श्रुत हो सकते हैं क्योंकि जाव अभिण्णदसव्वी एताण वि सामाइयादि सव्वं सम्म- उनकी सम्यक्त्व प्राप्ति में ये हेतु बनते हैं। कुछेक सतं सम्मगणतणतो चेव भवति ।"..."अभिण्णदसपुवे- मिथ्यादष्टि उन्हीं शास्त्रों से प्रेरित होकर अपने आग्रह को हिंतो हेद्रा ओमत्थगपरिहाणीए जाव सामादितं ताव सव्वे छोडते हैं। सुतट्ठाणा सामिसम्मगुणत्तणतो सम्मसुतं भवति, ते चेव भवसिद्धिया उ जीवा सम्मद्दिट्टी उ जं अहिज्जति । सुतट्ठाणा सामिमिच्छगुणतणतो मिच्छसुतं भवति । तं सम्मसुएण सुयं कम्मट्ठविहस्स सोहिकरं ।। (नन्दीच पृ ४९) । मिच्छद्दिट्ठी जीवा अभव्वसिद्धी य जं अहिज्जति । स्वामित्व की अपेक्षा द्वादशांग गणिपिटक चतुर्दशपूर्वी, तं मिच्छसुएण सुयं कम्मादाणं च तं भणियं ।। त्रयोदशपूर्वी, द्वादशपूर्वी, एकादशपूर्वी और अभिन्नदशपूर्वी (उनि ३१३,३१४) ज Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गमिक-अगमिक श्रुत ६४१ श्रुतज्ञान भव्य सम्यकदष्टि जीव जो श्रुत पढते हैं, वह सम्यक् अथवा भव्य (मोक्षगामी) का श्रत सादि-सान्त श्रुत है । यह श्रुत अष्टविध कर्मों का शोधन-अपनयन और अभव्य का श्रुत अनादि-अनन्त है। करता है। अभव्य मिध्यादृष्टि जीव जो श्रुत पढ़ते हैं, वह उवओग-सर-पयत्ता थाणविसेसा य होंति पण्णवए । मिथ्याश्रुत है । यह श्रुत कर्म के उपादान का हेतु है। गइ-ट्ठाण-भेय-संघाय-वण्ण-सद्दाइभावेसु १८. सादि-सपर्यवसित तथा अनादि-अपर्यवसित श्रुत (विभा ५४७) इच्चेयं दुबालसंग गणिपिडगं वुच्छित्तिनयट्ठयाए प्रज्ञापक के श्रुत का उपयोग, स्वर, प्रयत्न (तालु साइयं सपज्जवसियं । अवच्छित्तिनयट्टयाए अणाइय आदि का व्यापार) और आसन-ये भाव-पर्याय बदलते अपज्जवसियं। (नन्दी ६८) रहते हैं । इस परिवर्तन की अपेक्षा द्वादशाङ्ग को सादिव्यवच्छित्तिनय (पर्यायास्तिक नय) की अपेक्षा से सपर्यवसित कहा गया है। द्वादशांग गणिपिटक सादि-सपर्यवसित है। गति, अवस्थिति, भेद, संघात, वर्ण, शब्द, रस, अव्यवच्छित्तिनय (द्रव्यास्तिक नय) की अपेक्षा से परमाणु आदि प्रज्ञापनीय भावों के ये पर्याय बदलते रहते द्वादशांग गणिपिटक अनादि-अपर्यवसित (कालिक) है। हैं। इन ग्राह्य विषयों के परिवर्तन की अपेक्षा से श्रत को तं समासओ चउब्विहं पण्णत्तं, तं जहा-दवओ, सादि-सपर्यवसित कहा गया है। खेत्तओ. कालओ, भावओ। १९. गमिक-अगमिक श्रुत ____ दवओ णं-सम्मसुयं एगं पुरिसं पडुच्च साइयं गमियं दिट्ठिवाओ । अगमियं कालियं सुयं । सपज्जवसियं, बहवे पुरिसे य पहुच्च अणाइयं अपज्जवसियं । (नन्दी ७२) खेत्तओ णं -पंच भरहाई पंच एरवयाई पडुच्च साइयं भंगगणियाइ गमियं जं सरिसगमं च कारणवसेण । सपज्जवसियं, पंच महाविदेहाइं पडुच्च अणाइयं गाहाइ अगमियं खलु कालियसुर्य दिट्रिवाए वा ।। अपज्जवसियं । (विभा ५४९) कालओ णं-ओसप्पिणि उस्सप्पिणि च पडुच्च जिस श्रुत में भंग, गणित अथवा गमों-सदृश पाठों साइयं सपज्जवसियं, नोओस प्पिणि नोउस्सप्पिणि च की बहुलता हो, वह गमिक श्रुत है, जैसे --दृष्टिवाद । पडुच्च अणाइयं अपज्जवसियं । जिसमें प्रायः गाथा, श्लोक, वेष्टक आदि असदश ___ भावओ णं-जे जया जिणपण्णत्ता भावा आघ पाठों की बहुलता हो, वह अगमिक श्रुत है, जैसेविज्जति......"ते तया पडुच्च साइयं सपज्जवसियं, कालिकश्रुत । खाओवस मियं पूण भावं पडच्च अणाइयं अपज्जवसियं । आदिमध्यावसानेष किञ्चिद्विशेषतो भूयो भूयस्तस्यैव अहवा-भवसिद्धियस्स सुयं साइयं सपज्जवसियं, सूत्रस्योच्चारणं गमः ।“गमा अस्य विद्यन्ते इति अभवसिद्धियस्स सुयं अणाइयं अपज्जवसियं । (नन्दी ६९) गमिकम् । (नन्दीमवृ प २०३) सम्यक् श्रुत के चार प्रकार हैं१. द्रव्यतः-सम्यक श्रत एक पुरुष की अपेक्षा सादि आदि, मध्य और अन्त में किंचित विशेषता के साथ पुनः-पुनः उसी सदृश सूत्रपाठ का उच्चारण 'गम' सांत है, बहुत पुरुषों की अपेक्षा अनादि-अनन्त है। कहलाता है । जिसमें गम/सदृश पाठ हों, वह गमिक है। २. क्षेत्रत:-पांच भरत और पांच ऐरवत की अपेक्षा गमा:-अर्थपरिच्छित्तिप्रकाराः ।। सादि-सान्त है, महाविदेह की अपेक्षा अनादि-अनन्त (उशावृ प ७१३) अर्थपरिज्ञान के प्रकार गम कहलाते हैं । ३. कालत:--- अवसर्पिणी और उत्सपिणी की अपेक्षा सादि-सान्त है। जहां काल के ये विभाग नहीं हैं. गमिक श्रुत के प्रकार उनकी अपेक्षा अनादि-अनन्त है। गमियं णाम जं भंगजुत्तं गणितगमियं वा । जं वा ४. भावतः-अर्हत-प्रज्ञप्त भाव प्रज्ञापक और प्रज्ञापनीय कारणवसेण सरिसगमं भवति। तत्थ भंगगमियं एगद्गतिगभाव की अपेक्षा सादि-सान्त है । क्षायोपशमिक भाव चउभंगमादी। गणियगमितं णाम जहा एक्कजीवाधणकी अपेक्षा अनादि-अनन्त है। पट्टकरणेण अण्णाणिवि जीवाधणपट्राणि गणिज्जति । Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतज्ञान ६४२ श्रुतकरण : बद्ध-अबद्धश्रुत सरिसगमं णाम जहा-कोहस्स उदयनिरोहो कायव्वो भूआपरिणयविगए सद्दकरणं तहेव न निसीहं । उदयपत्तस्स विफलीकरणं कायव्वं ति तहा माणमाया- पच्छन्नं तु निसीहं निसीहनामं जहऽज्झयणं । लोभाणवि। __ (आवचू १ पृ ३४) अग्गेणीअंमि जहा दीवायण जत्थ एग तत्थ सयं । गमिक के दो प्रकार हैं-भंगगमिक और गणित जत्थ सयं तत्थेगो हम्मइ वा भुजए वावि ।। गमिक । सदश पाठ भी गमिक कहलाते हैं। अतः तीसरा (आवनि १०२१, १०२२) विकल्प सदृश गमिक बन जाता है। वस्तु उत्पन्न होती है, नष्ट होती है, स्थिर रहती • भंग गमिक-एक भंग, दो भंग, तीन भंग आदि। है-यह कथन स्पष्ट प्रतिभासित-प्रकाशित होने से अनि• गणित गमिक-एक जीवा और धनुपृष्ठ के गणित के शीथ (शब्दकरण) है। निशीथ वह है जो प्रच्छन्न है, अनुसार अन्य जीवा और धनुपृष्ठ का भी गणित जिसका सूत्रपाठ और अर्थ गूढ़ रहस्यमय है, जैसे-निशीथ कर लेना चाहिए। अध्ययन। • सदश गमिक—क्रोध के उदय का निरोध करना अथवा गुप्त अर्थ निशीथ कहलाता है। जैसे-अग्राय चाहिए और उदय प्राप्त क्रोध का विफलीकरण णीय पूर्व में एक पाठ है-"अग्गेणीअम्मि.......... || करना चाहिए। इसी प्रकार मान, माया, लोभ जहां एक द्वीपायन खाता है, वहां सौ द्वीपायन खाते का निरोध और विफलीकरण करना चाहिए। हैं। जहां सौ द्वीपायन खाते हैं, वहां एक द्वीपायन खाता २०. श्रुतकरण : बद्ध-अबद्ध श्रत इसी प्रकार जहां सौ द्वीपायन आहत होते हैं, वहां जीवकरणं तु विहं सयकरणं चेव नो य सूयकरणं । एक द्वीपायन आहत होता है। (सम्प्रदायाभावान्न प्रतन्यते बद्धमबद्धं च सुअं निसीहमनिसीहबद्धं तु॥ -परम्परा विच्छिन्न होने के कारण इसकी व्याख्या ज्ञात (उनि २०३) नहीं है--आवहाव १ पृ ११०) जीवकरण के दो प्रकार हैं-श्रुतकरण और नोश्रुत- ये लोकोत्तर बद्धश्रुत हैं। आरण्यक, महाभारत करण । श्रुतकरण के दो भेद हैं -बद्धश्रुत और अबद्ध- जामिनोनित आदि लौकिक बद्धश्रुत हैं। श्रुत। अबद्धश्रुत : पांच सौ आदेश बद्धमबद्धं तु सुअं बद्धं तु दुवालसंग निद्दिढें । तविवरीअमबद्धं निसीहमनिसीहबद्धं तु ॥ .."बद्धमबद्धं आएसाणं हवंति पंचसया । (आवनि १०२०) जह एगा मरुदेवी अच्चंतत्थावरा सिद्धा ।। बद्धाबद्धं च पुणो सत्थासत्थोवएसभेयाओ । (आवनि १०२३) एक्केक्कं सद्दनिसीहकरणभेयं मुणेयव्वं ।। लोए अणिबद्धाइं अड्डिय-पच्चड्डियाइं करणाई । उत्ती उ सद्दकरणं पगासपाढं च सरविसेसो वा । पंचादेससयाई मरुदेवाईणि उत्तरिए । गूढत्थं तु निसीहं रहस्ससुत्तत्थमहवा जं ।। (विभा ३३५७) (विभा ३३५५,३३५६) अत्र वृद्धसम्प्रदायः......"बिइयं सयंभुरमणे समुद्दे श्रुत के दो प्रकार हैं मच्छाणं पउमपत्ताण य सव्वसंठाणाणि अत्थि वलयसंठाणं .. बद्ध-गद्य-पद्य में निबद्ध शास्त्रोपदेश । मोत्तुं । • अबद्ध-अशास्त्रोपदेशरूप, केवल कंठों से श्रावणीय। . तइयं विण्हस्स सातिरेगजोयणसयसहस्सविउव्वणं । इन दोनों के दो-दो भेद हैं-शब्दकरण और . चउत्थं करडओकुरुडा दोसट्रियरुवझाया, कुणालानिशीथकरण । णयरीए निद्धमणमूले वसही। वरिसासु देवयाणुशब्दकरण का अर्थ है-उक्तिविशेष, स्पष्ट पाठ कंपणं । नागरेहि निच्छुहणं । करडेण रुसिएण अथवा उदात्त आदि स्वरविशेष । वुत्तं-'वरिस देव ! कुणालाए, उक्कुरुडेण भणियंनिशीथकरण का अर्थ है - गूढार्थ, रहस्यपूर्ण सूत्रार्थ । 'दस दिवसाणि पंच य' पूणरवि करडेण भणियं . . Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राणीमात्र में ज्ञान की सत्ता 'मुट्ठिमेत्ताहि धाराहि', उक्कुरुडेण भणियं -- 'जहा रति तहा दिवं', एवं वोत्तूणमवक्कंता | कुणालाएवि पण्णरस दिवस अणुबद्धव रिसणेणं सजणवया जलेण अक्कता तओ ते तइयवरिसे साएए णयरे दोऽवि कालं काऊ आहे सत्तमाए पुढवीए काले णरगे बावीससागरोवमट्टिइआ णेरइया संवृत्ता | कुणालाणयरीविणासकालाओ तेरसमे वरिसे महावीरस्स haaणाणसमुप्पत्ती । एवं अनिबद्धं । लोइयं अबद्धकरणं बत्तीसं अड्डियाओ बत्तीसं पच्चड्डियाओ सोलस करणाणि, लोगप्पवाए पंचद्वाणाणि तं जहा - आलीढं पच्चालीढं वइसाहं मंडलं समपायं । .... सयणकरणं छट्ठ ठाणं । ( वहावृ १३१०) जो पाठ अंग- उपांग आगम में उपलब्ध नहीं हैं, वे अबद्ध हैं, उन्हें 'आदेश' कहा जाता है । वे अर्हत्प्रवचन में पांच सौ की संख्या में हैं। जैसे ६४३ श्रुतज्ञान वर्ष में भगवान् महावीर को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ । इस प्रकार के पांच सौ आदेश सूत्रों में निबद्ध नहीं हैं । ये लोकोत्तर आदेश हैं । लौकिक अबद्धकरण १. अर्हत् ऋषभ की माता मरुदेवी अनन्त वनस्पति से उद्वृत्त होकर सिद्ध हुई । २. स्वयम्भूरमण समुद्र के मत्स्यों और पद्मपत्रों के वलय संस्थान को छोड़कर शेष सब संस्थान होते हैं । ३. श्री विष्णु ने सातिरेक ( कुछ अधिक ) एक लाख योजन की विकुर्वणा की । ४. कुणाला नगरी में कुरुट और उत्कुरुट- ये दो उपध्याय रहते थे । इन दोनों की वसति नगरी के जलनिर्गमनमार्ग पर थी । वर्षावास का समय । इन्होंने वर्षा न होने के लिए देवता की अनुकम्पा प्राप्त की । नागरिकों ने यह जानकर उनको वहां से निकाल दिया। तब रुष्ट होकर कुरुट ने कहा देव ! कुणाला में बरसो । उत्कुरुट ने कहा-पन्द्रह दिन तक निरंतर बरसो । कुरुट ने पुन: कहामुसलाधार वर्षा करो। उत्कुरुट ने इतना और जोड़ दिया - दिन-रात एक समान बरसो । ऐसा कहकर दोनों ने वहां से प्रस्थान कर दिया। तीसरे वर्ष साकेत नगरी में वे दोनों मरकर सातवीं पृथ्वीकाल नरक में बाईस सागरोपम की स्थिति वाले नैरयिक बने । उधर निरन्तर पन्द्रह दिन-रात तक मुसलाधार वर्षा के कारण कुणाला नगरी जलाप्लावित होकर विनष्ट हो गई | कुणाला के विनाश के बारह वर्ष पश्चात् तेरहवें बत्तीस after ( मल्लों की क्रियाविशेष ), बत्तीस प्रत्यड्डिका, सोलह करण तथा लोकप्रवाद में वर्णित पांच स्थान - आलीढ, प्रत्यालीढ, वैशाख, मण्डल और समपाद । छठा स्थान शयनकरण - ये कथन लौकिक शास्त्रों में निबद्ध नहीं हैं । २१. श्रुतज्ञान की पश्यत्ता उवउत्तो सुयनाणी सव्वं दव्वाई जाणइ जहत्थं । पासइय केइ सो पुण तमचक्खद्दंसणेणं ति ॥ मइभेयमचक्खुसणं च वज्जितु पासणा भणिया । पण्णवणाए उ फुडा तेण सुए पासणा जुत्ता ॥ ( विभा ५५३,५५५ ) द्रव्यों को ययार्थ कि वह अचक्षुदर्शन ज्ञान में उपयुक्त श्रुतज्ञानी सब जानता है । एक मान्यता यह भी है से देखता है । प्रज्ञापना (३०१२ ) में मति ज्ञान, मति अज्ञान और अचक्षु दर्शन को छोड़कर शेष ज्ञानभेदों की पश्यत्ता स्पष्ट प्रतिपादित है । इसलिए श्रुतज्ञान की पश्यत्ता युक्तियुक्त है । जे जाणति पासति त्ति एवं पढति ते इमं कारणं पडुच्च, जम्हा सुयणाणी दीवसमुद्दाणं देवकुरूत्तरकुरादीणं च भवणाणं संठाणादीणि जाणतो पासंतो इव आलिहिऊणं दरिसेति । अतो जाणति पासतित्ति एस आलावगो न विरुज्झइ । ( आवचू १ पृ ३५, ३६) श्रुतज्ञानी अदृष्ट द्वीपसमुद्रों और देवकुरु - उत्तरकुरु के भवनों की आकृतियों (संस्थानों) का इस रूप में आलेखन करता है कि मानों उन्हें साक्षात् देखा हो । अतः 'श्रुतज्ञानी जानता है, देखता है' यह आलापक विपरीत नहीं है। २२. प्राणीमात्र में ज्ञान की सत्ता सव्वजीवाणं पिय णं अक्खरस्स अनंतभागो निच्चुग्घाडिओ, जइ पुण सो वि आवरिज्जा, तेणं जीवो अजीवत्तं पाविज्जा । सुट्ठवि मेहसमुदए, होइ पभा चंदसूराणं । (नन्दी ७१) Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतज्ञान ६४ श्रुतज्ञान और केवलज्ञान में अन्तर सभी जीवों में अक्षर (ज्ञान) का अनन्तवां भाग च जाव पुढविकाइयाणं ताव असंखेज्जगुणपरिहीणा सेढी। नित्य उद्घाटित रहता है। यदि वह भी आवृत हो जाए (आवचू १ पृ ३०) तो जीव अजीव हो जाये। अनुत्तरोपपातिक देवों का श्रुतज्ञान सर्वाधिक विशुद्ध 'सघन मेघों के होने पर भी सूर्य और चन्द्र की होता है । उससे असंख्यातगुण परिहीन श्रुतज्ञान होता है प्रभा तो रहती ही है।' इसी प्रकार आत्मा का प्रत्येक उपरितन अवेयक देवों का । इस प्रकार क्रमश: असंख्येयगुण प्रदेश ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्म के अनन्त परिहीन की श्रृंखला में पृथ्वीकायिक जीवों का तज्ञान पुद्गल स्कन्धों से आवेष्टित, परिवेष्टित है फिर भी ज्ञान सर्वाधिक अविशुद्ध होता है । का अनन्तवां भाग कर्मावरण के पटल का भेदन कर अव चेतना के विकास का तारतम्य (द. ज्ञान) भासित रहता है। २५. श्रुतज्ञान का महत्त्व तस्स उ अणंत भागो निच्चुग्घाडो य सव्वजीवाणं । सव्वचरणकरणक्रियाधारं सुतणाणं । (नन्दीचू पृ ४४) भणियो सुयम्मि केवलिवज्जाणं तिविहभेओ वि॥ श्रुतज्ञान समस्त क्रियाओं का आधार है, चाहे वे (विभा ४९७) क्रियाएं चरणसंबन्धी (नित्य किये जाने वाले अनुष्ठान) ज्ञान का अनन्तवां भाग सदा उद्घाटित रहता है। हों अथवा करणसंबन्धी (प्रयोजनवश किये जाने वाले यही जीव और अजीव की भेदरेखा का निर्माण करता अनुष्ठान) हों। है। केवलज्ञान सर्वथा भेद-विमुक्त है । केवलज्ञानी को सुयस्स आराहणयाएणं अन्नाणं खवेइ न य संकिछोड़कर शेष जीवों के ज्ञान सम्बन्धी तीन भेद होते हैं- लिस्सइ । (उ २९।२५) जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट । श्रत की आराधना से जीव अज्ञान का क्षय करता है (प्रस्तुत सूत्र में अक्षर का प्रयोग ज्ञानात्मक ही विव- और राग-द्वेष आदि से उत्पन्न होने वाले मानसिक क्षित है। केवलज्ञान का कोई विभाग नहीं होता इसलिए संक्लेशों से बचता है। ज्ञान के विकास का अनन्तवां भाग उससे संबद्ध नहीं है। सामाइयमाईयं सुयनाणं जाव बिंदुसाराओ । अवधिज्ञान की प्रकृतियां असंख्येय हैं इसलिए ज्ञान के तस्सवि सारो चरणं सारो चरणस्स णिवाणं ।। विकास का अनन्तवां भाग उससे संबद्ध नहीं है। (आवनि ९३) मनःपर्यवज्ञान का भी वह संभव नहीं हो सकता । अवधि सामायिक (आवश्यक) से बिन्दुसार (चौदहवें पूर्व) ज्ञान और मनःपर्यवज्ञान नित्य उदघाटित नहीं रहते। पर्यन्त शास्त्र श्रुतज्ञान है। श्रुतज्ञान का सार चारित्र है। श्रुतज्ञानात्मक अक्षर का अनन्तवां भाग ही उदघाटित चारित्र का सार निर्वाण है। रहता है। श्रुत और मति दोनों सहचारी हैं।) २६. श्रुतज्ञान और केवलज्ञान में अन्तर २३. जघन्य श्रुत का हेतु सयपज्जवेहिं तं केवलेण तुल्लं न होज्ज न परेहिं । स-परपज्जाएहि उ तुल्लं तं केवलेणेव ॥ थीणद्धिसहियनाणावरणोदयओ स पत्थिवाईणं । अविसेसकेवलं पुण सयपज्जाएहिं चेव तत्तुल्लं । बेइंदियाइयाणं परिवड्ढइ कमविसोहीए । जं नेयं पइ तं सव्वभावव्वावारविणिउत्तं ॥ (विभा ४९९) स्त्यानद्धि निद्रा युक्त ज्ञानावरण के उदय के कारण (विभा ४९३,४९४) एकेन्द्रिय जीवों का अक्षर के अनन्तवें भाग जितना अकार, इकार आदि वर्ण श्रुतज्ञान (श्रुताक्षर) के सर्वजघन्य चैतन्य सदा उद्घाटित रहता है (वह कभी आवृत स्वपर्याय हैं। ये पर्याय सर्व पर्यायों का अनन्तवां भाग हैं । नहीं होता)। फिर ऋमिक विशुद्धि के साथ-साथ द्वीन्द्रिय केवलज्ञान के स्वपर्याय अनंत हैं। अत: स्वपर्यायों से आदि जीवों में उसका क्रमिक विकास होता जाता है। श्रुतज्ञान केवलज्ञान के तुल्य नहीं है । स्व और पर पर्यायों के समुदित रूप में श्रुतज्ञान केवलज्ञान के तुल्य है। २४. श्रुतज्ञान-विशुद्धि का तारतम्य सर्व-द्रव्य-पर्याय केवलज्ञान का ज्ञेय है । वह ज्ञेय के ___ अणुत्तरोववाइयाणं देवाणं सम्वविसुद्धं सुतणाणं, प्रति सर्व पर्यायों के परिज्ञान में प्रवृत्त होने से केवल स्वतयणंतरं असंखेज्जगुणपरिहीणं उवरिमगेवेज्जगाणं । एवं पर्यायों से ही श्रुतज्ञान के तुल्य है। Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतज्ञान आभिनिबधिक ज्ञान द्रव्य आदेशतः सर्व द्रव्यों को जानतादेखता है। क्षेत्र आदेशत: सर्व क्षेत्रों को जानतादेखता है । आदेशतः सर्व काल को जानतादेखता है । भाव आदेशतः सर्व भावों को जानता| देखता है । काल २७. श्रुतस्थान ..... सुयठाणं गणिमाई अहह्वा वायणारियमाई ॥ (पिनि ३१५) गणी (आचार्य), उपाध्याय, वाचनाचार्य, प्रवर्तक आदि-ये श्रुतस्थान हैं । श्रुतनिश्चित मति - मतिज्ञान का एक भेद । ( द्र. आभिनिबोधिक ज्ञान ) श्रेयांस - ग्यारहवें तीर्थंकर । षट्स्थानपतित- वृद्धि और हानि के छह स्थान । ( द्र. तीर्थंकर) वुड्ढी वा हाणी वाणता-संखिज्जासंखभागाणं । संखिज्जासंखिज्जाणंतगुणा चेति छन्भेया ॥ ( विभा ७२९ ) वृद्धि और हानि के छह-छह प्रकार हैंअनन्त भाग हानि असंख्यात भाग हानि संख्यात भाग हानि संख्यात गुण हानि असंख्यात गुण हानि अनन्त गुण हानि । अनन्त भाग वृद्धि असंख्यात भाग वृद्धि संख्यात भाग वृद्धि संख्यात गुणवृद्धि असंख्यात गुण वृद्धि अनन्त गुण वृद्धि १. संख्या के प्रकार औपम्य संख्या परिमाण संख्या श्रुतज्ञान श्रुतोपयोग अवस्था में सर्व जानता देखता 1 तोपयोग अवस्था में सर्व जानता देखता है । श्रुतोपयोग अवस्था में सर्व जानता-देखता है । श्रुतोपयोग अवस्था में सर्व | जानता देखता है । ( देखें - भगवई ८।१८४-१८८ का भाष्य ) • O ० ज्ञान संख्या • गणना संख्या * शीषं प्रहेलिका पर्यंत गणना संख्या २. संख्या का अर्थ ६४५ द्रव्यों को क्षेत्रों को काल को भावों को ५. अनन्त के प्रकार ३. संख्येय के प्रकार • उत्कृष्ट संख्यात: पल्य का दृष्टांत ४. असंख्येय के प्रकार • उत्कृष्ट असंख्यात असंख्यात केवलज्ञान सर्व द्रव्यों को जानता देखता है । सर्व क्षेत्रों को जानता - देखता द्रव्यसंख्या - जिसने 'संख्या' यह पद सीख लिया । औपम्यसंख्या - उपमा के माध्यम से वस्तु का बोध । परिमाणसंख्या आगम के ग्रन्थाग्र का ज्ञान । संख्या-वस्तु का परिच्छेद और निर्णय । गणना ज्ञानसंख्या - विषयवस्तु के ज्ञान के आधार पर जानने इसका एक भेद है । वाले का ज्ञान । 1 सर्व काल को जानता - देखता है । सर्व भावों को जानता - देखता | है | • उत्कृष्ट अनन्त अनन्त : एक विमर्श संख्या : भाव प्रमाण का एक भेद * संख्या १. संख्या के प्रकार संखष्पमाणे अट्ठविहे पण्णत्ते, तं जहा नामसंखा ठवणसंखा दव्वसंखा ओवम्मसंखा परिमाणसंखा जाणणासंखा गणणा संखा भावसंखा । ( अनु ५५८ ) का संख्या नाम नामसंख्या -- किसी जीव या अजीव करना । स्थापनासंख्या - काष्ठाकृति या पुतली आदि में संख्या का रूपांकन या कल्पना करना । गणनासंख्या गिनती करना । भावसंख्या - जो संख्या पद में उपयुक्त है । औपम्यसंख्या ( द्र. प्रमाण ) ओवम्मसंखा चउव्विहा पण्णत्ता, तं जहा -- १. अस्थि संतयं संतएणं उवमिज्जइ, २ . अस्थि संतयं असंतएण उवमिज्जइ, ३. अस्थि असंतयं संतएणं (द्र. काल ) | उवमिज्जइ ४. अत्थि असंतयं असंतएणं उवमिज्जइ । ( अनु ५६९ ) Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संख्या ६४६ संख्या का अर्थ औपम्यसंख्या के चार प्रकार हैं हो जाओगे । यह बात गिरता हुआ पीला पत्ता किशलयों १. सत् को सत् से उपमित किया जाता है । से कहता है। २. सत् को असत् से उपमित किया जाता है। किशलयों और पीले पत्तों में न कभी वार्तालाप ३. असत् को सत् से उपमित किया जाता है। हआ और न होगा। भव्यजनों को बोध देने के लिए यह ४. असत् को असत् से उपमित किया जाता है। उपमा दी गई है। १. सत् सत् से उपमित-- ४. असत् असत् से उपमितसंतयं संतएणं उवमिज्जइ, जहा--संता अरहंता असंतयं असंतएणं उवमिज्जइ-जहा खरविसाणं संतएहिं पुरवरेहिं, संतएहि कवाडेहिं संतएहिं वच्छेहिं तहा ससविसाणं । . (अनु ५६९) उवमिज्जति, जहा जैसे गधे का सींग वैसे खरगोश का सींग। पुरवर-कवाड-वच्छा, फलिहभुया दुंदुहि-त्थणियघोसा। परिमाणसंख्या सिरिवच्छंकियवच्छा, सव्वे वि जिणा चउव्वीसं ।। परिमाणसंखा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-कालियसुय परिमाणसंखा दिट्टिवायसुयपरिमाणसंखा य । सत् अर्हत् का वक्ष सत् पुरवर के कपाट से उपमित (अनु ५७०) किया जाता है-चौबीस तीर्थकर पूरवर कपाट के समान परिमाणसंख्या के दो प्रकार हैंवक्ष, परिघ के समान भुजा और दुन्दुभि एवं मेघगर्जन १. कालिकश्रुत परिमाणसंख्या ।। के समान घोष वाले तथा श्रीवत्स से अंकित वक्ष वाले २. दृष्टिवादश्रुत परिमाणसंख्या । (द्र. संबद्ध नाम) होते हैं। ज्ञानसंख्या २. सत् असत् से उपमितसंतयं असंतएणं उवमिज्जइ, जहा~संताई नेरइय जाणणासंखा-जो जं जाणइ, तं जहा-सह सहिओ, तिरिक्खजोणिय-मणुस्स-देवाणं आउयाइं असंतएहिं गणियं गणियओ, निमित्तं नेमित्तिओ, कालं कालनाणी, पलिओवम-सागरोवमेहि उवमिज्जति। (अनु ५६९) वेज्जयं वेज्जो। (अनु ५७३) जो जिसे जानता है (वह उसे जानने के कारण सत् नैरयिक, तिर्यग्योनिक, मनुष्यों और देवों का आयुष्य असत् पल्योपम और सागरोपम से उपमित किया अभेदोपचार से ज्ञानसंख्या है) जैसे-शब्द को जानने जाता है। वाला शाब्दिक, गणित को जानने वाला गणितज्ञ, निमित्त को जानने वाला नैमित्तिक, काल को जानने ३. असत् सत् से उपमित वाला कालज्ञानी, वैद्यक को जानने वाला वैद्य होता है। असंतयं संतएणं उवमिज्जइ, जहापरिजरियपेरंतं, चलंतबेटे पडतनिच्छीरं । गणनासंख्या पत्तं वसणप्पत्तं, कालप्पत्तं भणइ गाहं ॥ गणणासंखा-एक्को गणणं न उवेइ, दुप्पभिइ जह तुब्भे तह अम्हे, तुम्हे वि य होहिहा जहा अम्हे। संखा, तं जहा -संखेज्जए असंखेज्जए अणंतए । अप्पाहेइ पडतं, पंड्यपत्तं किसलयाणं ॥ (अनु ५७४) नवि अस्थि न वि य होही, उल्लावो किसल-पंडपत्ताणं । 'एक' यह गणना संख्या में नहीं है। वह 'दो' से उवमा खलू एस कया, भवियजण-विबोहणटाए । आगे बढ़ती है । उसके तीन प्रकार हैं-संख्येय, असंख्येय. . (अनु ५६९) अनन्त । जिसका पर्यन्त भाग जीर्ण और वन्त विचलित हो २. संख्या का अर्थ गया है, जो वृक्ष से गिरने वाला है, जिसका दूध सूख संख्यानं संख्या-परिच्छेदो वस्तुनिर्णय इत्यर्थः । गया है, वह कष्ट में पड़ा हुआ पका पत्ता (किशलयों से आदानसमर्पणादिव्यवहारकाले एक वस्तु प्रायो न निम्न निर्दिष्ट) गाथा कहता है कश्चिद् गणयत्यतोऽसंव्यवहार्यत्वादल्पत्वाद् वा नको . जैसे तुम हो वैसे ही हम थे, जैसे हम हैं वैसे ही तुम गणनासंख्यामवतरति । (अनुमत् प २१४, २१७) Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संख्येय के प्रकार ६४७ संख्या संख्या का अर्थ होता है-परिच्छेद, विभाग। लेन- दो सौ सत्ताईस योजन तीन कोस एक सौ अट्ठाईस धनुष देन के व्यवहार में 'एक' वस्तु प्रायः गणना का विषय साढा तेरह अंगुल से कुछ अधिक है । वह पल्य सरसों से नहीं बनती। असंव्यवहार्य और अल्प होने के कारण भरा हुआ है, उन सरसों से द्वीप और समुद्रों का उद्धार एक (१) को गणना संख्या में नहीं गिना जाता। गणना (परिमाण) जाना जाता है। एक सरसों द्वीप में और संख्या में वही गिना जाता है, जिसका वर्ग करने से वद्धि एक समुद्र में, फिर एक सरसों द्वीप में और एक समुद्र में--- होती है। 'एक' का वर्ग करने से १४१=१ एक ही। इस क्रम से उन्हें गिराते जाने से जितने द्वीप और समुद्र आता है, वृद्धि नहीं होती, इसलिए 'एक' गणना संख्या उन सरसों के दानों से व्याप्त होते हैं, यह इतने प्रमाण में नहीं गिना जाता। वाला क्षेत्र अनवस्थित पल्य सरसों से भरा हआ बुद्धि से परिकल्पित किया गया है। प्रथम शलाका-सरसों का एक ३. संख्येय के प्रकार दाना शलाका पल्य में डाला जाता है। इन शलाकाओं संखेज्जए तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-जहण्णए उक्को- (सरसों के दानों) से प्रचुर संख्या वाले शलाका पल्य आकण्ठ सए अजहण्णमणुक्कोसए। (अनु ५७५) भरे जाएं फिर भी उत्कृष्ट संख्येय लब्ध नहीं होता। . संख्येय के तीन प्रकार हैं जैसे कोई एक मंच (मचान) आंवलों से भरा हुआ जघन्य संख्यात-दो की संख्या। है। वहां एक आंवला डाला वह समा गया, दूसरा डाला उत्कृष्ट संख्यात-इसका स्वरूप असत् कल्पना से वह भी समा गया, तीसरा डाला वह भी समा गया। ज्ञेय है। इस प्रकार उन्हें डालते-डालते ऐसा आंवला भी होगा मध्यम संख्यात-तीन से लेकर उत्कृष्ट संख्यात से जिसके डालने से मंच भर जाएगा। उसके बाद वहां एक कम। आंवला नहीं समाएगा। उत्कृष्ट संख्यात: पल्य का दृष्टांत .."जंबुद्दीवप्पमाणमेत्ता चत्तारि पल्ला --- पढमो अण वट्टियपल्लो बितितो सलागापल्लो तइओ पडिसलागापल्लो उक्कोसयस्स संखेज्जयस्स परूवणं करिस्सामि-से। चउत्थो महासलागापल्लो, एते चउरोपि रयणप्पभापुढजहानामए पल्ले सिया एग जोयणसयसहस्सं आयाम वीए पढमं रयणकंडं जोयणसहस्सावगाढं भित्तूण बितिए विक्खंभेणं, तिण्णि जोयणसयसहस्साई सोलस सहस्साई वेरकंडे पतिट्रिया हेद्रा......................"एत्थं जावतिया दोण्णि य सत्तावीसे जोयणसए तिण्णि य कोसे अट्ठावीसं अणवट्रियपल्ले सलागापल्ले पडिसलागापल्ले महासलागाच धणुसयं तेरस य अंगुलाई अद्ध अंगुलं च किंचिविसेसा पल्ले य दीवसमुद्दा उद्धरिता ये य चतुपल्लट्ठिया सरिसवा हियं परिक्खेवेणं पण्णत्ते । से णं पल्ले सिद्धत्थयाणं एस सव्वोवि एतप्पमाणो रासी एगरूवेणोणो उक्कोसयं भरिए । तओ णं तेहिं सिद्धत्थएहि दीव-समुद्दाणं उद्धारो संखेज्जयं भवति, जहण्णुक्कोसयाण मज्झे जे ठाणा ते सव्वे घेप्पइ । एगे दीवे एगे समुद्दे-एगे दीवे एगे समुद्दे एवं पत्तेयं अजहण्णमणुक्कोसया भाणियव्वा सिद्धते जत्थ जत्थ पक्खिप्पमाणेहि-पक्खिप्पमाणेहिं जावइया दीवसमुद्दा संखेज्जयगहणं कतं तत्थ सव्वं अजहण्णमणक्कोसयं दट्टव्वं । तेहिं सिद्धत्थएहिं अप्फुण्णा, एस णं एवइए खेत्ते पल्ले (अनुचू पृ ७९-८१) पढमा सलागा। एवइयाणं सलागाणं असंलप्पा लोगा असत् कल्पना से उत्कृष्ट संख्यात का स्वरूप इस भरिया तहा वि उक्कोसयं संखेज्जयं न पावइ। प्रकार हैजहा को दिळंतो? से जहानामए मंचे सिया आमलगाणं भरिए तत्थ एगे आमलए पक्खित्ते से माते, अण्णे चार पल्यों (कुण्डों) की कल्पना की गई हैवि पक्खित्ते से वि माते, अण्णे वि पक्खित्ते से वि माते एवं पक्खिप्पमाणेहि-पक्खिप्पमाणेहि होही से आमलए अनवस्थित शलाका प्रतिशलाका महाशलाका जम्मि पक्खित्ते से मंचे भरिज्जिहिइ। होही से आमलए प्रारंभ में अनवस्थित पल्य जंबूद्वीप प्रमाण १ लाख जे तत्थ न माहिइ। (अनु ५५६) योजन लंबा और चौड़ा है । गहराई में रत्नप्रभा पृथ्वी __ जैसे कोई पल्य (कोठा) एक लाख योजन की लंबाई- के रत्नकांड से भी नीचे स्थित वज्रकाण्ड पर्यन्त एक चौड़ाई वाला है। उसकी परिधि तीन लाख सोलह हजार हजार योजन और ऊंचाई में पद्मवर वेदिका जितना Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संख्या ६४८ उत्कृष्ट संख्यात... साढे आठ योजन है । अर्थात् तल से शिखा तक ऊंचाई करने पर १ दाना शलाका पल्य में डाला गया। अंतिम अथवा गहराई १००८३ योजन है। दाना जिस समुद्र या द्वीप में डाला गया, उसकी लंबाई ___ शलाका पल्य, प्रतिशलाका पल्य और महाशलाका और चौड़ाई जितना दूसरी बार अनवस्थित पल्य बनाया पल्य--ये तीनों लंबाई और चौड़ाई में १ लाख योजन गया । उसे भरा गया, फिर खाली किया गया। पहली तथा गहराई अथवा ऊंचाई में १००८३ योजन है। बार जिस समुद्र या द्वीप में गिराया गया था, उससे आगे ___अनवस्थित कंड को सर्षप के दानों से भरा गया, के द्वीप-समुद्रों में क्रमशः एक-एक दाना डालकर खाली (शिखा सहित) इतना भरा कि उसमें एक दाना भी और किया गया । भरने और खाली करने की प्रक्रिया चलती न समा सके । फिर देवों के द्वारा एक-एक दाना क्रमशः रहती है । दाना डालने की प्रक्रिया भी क्रमशः आगे-आगे द्वीप और समुद्र में डाला गया। पहला दाना जंबूद्वीप में, के द्वीप-समुद्रों में होती है । खाली करने पर अन्तिम दाना दूसरा दाना लवण समुद्र में, तीसरा धातकीखंड जिस-जिस समुद्र या द्वीप में गिराया जाता है, उसी में-इस क्रम से द्वीप और समुद्र में डालकर अनवस्थित प्रमाण का अगली बार अनवस्थित पल्य बनाया जाता है। पल्य को खाली किया गया। एक बार भरकर खाली अनवस्थित पल्य एक बार खाली करने पर १ दाना अन्तिम द्वीप/समुद्र के परिमाण वाला अनवस्थित पल्य शालाका पल्य में डालने की प्रक्रिया से शलाका पल्य को बनाया जाता है। वह अनवस्थित पल्य और शलाका भरा जाता है। उस (शलाका पल्य) को शिखा सहित पल्य भरे रहते हैं। प्रतिशलाका पल्य खाली करने के बाद पूर्ण भर कर आगे के द्वीप-समुद्रों में दाना डालकर खाली उससे आगे के द्वीप-समुद्रों में शलाका पल्य खाली किया किया जाता है। परिणाम स्वरूप १ दाना तीसरे प्रति- जाता है फिर उसके आगे अनवस्थित पल्य खाली किया शलाका पल्य में डाला जाता है। नया अनवस्थित पल्य जाता है। पुनः अनवस्थित पल्य से शलाका पल्य भरा अन्तिम द्वीप समुद्र के लम्बाई-चौड़ाई के परिमाण वाला जाता है और शलाका पल्य से प्रतिशलाका पल्य भरा बनाकर भरा जाता है। जब शलाका पल्य खाली किया जाता है। जाता है तब अनवस्थित पल्य भरा रहता है। शलाका प्रतिशलाका पल्य को बार-बार भर कर एवं खाली पल्य खाली करने के बाद अनवस्थित पल्य को खाली कर एक-एक दाने से महाशलाका पल्य भरा जाता है। किया जाता है। फिर पूर्व क्रम से पुन: शलाका पल्य को शिखा सहित महाशलाका पल्य भर जाने के बाद उसे भरा जाता है। भरा हुआ ही रखा जाता है। फिर पूर्व प्रक्रिया के अनूशलाका पल्य के बार-बार भर कर एवं खाली कर सार शलाका पल्य से प्रतिशलाका पल्य भरा जाता है एक-एक दाने से प्रतिशलाका पल्य भरा जाता है। जब और अनवस्थित पल्य से शलाका पल्य भरा जाता है। प्रतिशलाका पल्य शिखा सहित पूर्ण भर जाता है तब उसे अनवस्थित पल्य को खाली करके शलाका पल्य को आगे-आगे के द्वीप-समुद्रों में दाना डालकर खाली किया शिखा सहित भरने वाला अनवस्थित पल्य का जो अंतिम जाता है। परिणाम स्वरूप १ दाना महाशलाका पल्य में दाना था और वह जिस समुद्र या द्वीप में गिराया गया डाला जाता है। प्रतिशलाका पल्य खाली करते समय था उस (द्वीप या समुद्र) की लंबाई और चौड़ाई जितना Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्यम असंख्यात - असंख्यात अन्तिम अनवस्थित पल्य बनाया जाता है । उसे भी शिखा सहित पूर्ण भरा जाता है । भरे हुए महाशलाका पल्य, प्रतिशलाका पल्य, शलाका पल्य और अनवस्थित पल्य के दानों को एकत्रित करके द्वीप और समुद्र में जितने दाने डाले गए थे उन दानों को उनमें मिलाया जाता है । उनकी जितनी संख्या होती है उससे एक कम संख्या उत्कृष्ट संख्यात की संख्या होती है । ४. असंख्येय के प्रकार असंखेज्जए तिविहे पण्णत्ते, तं जहा परितासखेज्जए जुत्तासंखेज्जए असंखेज्जासंखेज्जए । परितासंखेज्जए तिविहे पण्णत्ते, तं जहा जहण्णए उक्कोसए अजहण्णमणुक्कोसए । जुत्तासंखेज्जए तिविहे पण्णत्ते, तं जहा- जहण्णए उक्कोसए अजहणमणुक्कोसए । -- असंखेज्जासंखेज्जए तिविहे पण्णत्ते, तं जहाजहणए उक्कोसए अजहण्णमणुक्कोसए । ( अनु ५७६-५७९ ) असंख्येय के तीन प्रकार हैं- परीत- असंख्येय, युक्तअसंख्येय और असंख्येय असंख्येय | इनमें से प्रत्येक के तीन-तीन भेद हैं जघन्य, उत्कृष्ट और अजघन्य - अनुत्कृष्ट । एवामेव उक्कोसए संखेज्जए रूवं पक्खित्तं जहण्णयं परित्तासंखेज्जयं भवइ । ते पर अजहणमणुक्कोसयाई ठाणाई जाव उक्को - सयं परित्तासंखेज्जयं न पावइ ।। जहणयं परितासंखेज्जयं जहण्णयपरित्तासंखेज्जयमेत्ताणं रासीणं अण्णमण्णभासो रूवणो उक्कोसयं परित्तासंखेज्जयं होइ । अहवा जहण्णयं जुत्तासंखेज्जयं रूवणं उक्कोसयं परित्तासंखेज्जयं होइ ॥ जहण्णयं परित्तासंखेज्जयं जहण्णयपरित्तासंखेज्जयमेत्ताणं' रासीणं अण्णमण्णभासो पडिपुण्णो जहण्णयं जुत्तासंखेज्जयं होइ | अहवा उक्कोसए परित्तासं वज्जए रूवं पक्खित्तं जहण्णयं जुत्तासंखेज्जयं होइ । आवलिया वि तत्तिया चेव ॥ ते परं अजहणमणुक्कोसयाई ठाणाई जाव उक्कोसयं जुत्तासंखेज्जयं न पावइ ॥ जहणणं जुत्तासंखेज्जएणं आवलिया गुणिया संख्या अण्णमण्णभासो रूवूणो उक्कोसयं जुत्तासंखेज्जयं होइ । अहवा जहण्णयं असंखेज्जासंखेज्जयं रूवूणं उक्कोसयं जुत्तासंखेज्जयं होइ || ६४९ जहणणं जुत्तासंखेज्जएणं आवलिया गुणिया अण्णभासो पsिपुणो जहण्णयं असंखेज्जासंखेज्जयं होइ । अहवा उक्कोस जुत्तासंखेज्जए रूवं पक्खित्तं जहण्णयं असंखेज्जासंखेज्जयं होइ । तेण परं अहमणुकोसाइं ठाणाई जाव उक्कोस असंखेज्जासंखेज्जयं न पावइ ॥ जहण्णयं असंखेज्जा संखेज्जयं जहण असंखेज्जासंखेज्जयमेत्ताणं रासीणं अण्णमण्णब्भासो रूवूणो उक्कोसयं असंखेज्जासं खेज्जयं होइ ॥ अहवा जहणयं परित्ताणंतयं रूवणं उक्कोसयं असंखेज्जासखेज्जयं होइ ॥ ( अनु ५८७-५९५ ) जघन्य परीत- असंख्येय उत्कृष्ट संख्येय में एक का प्रक्षेप करने पर जघन्य परीत-असंख्येय होता है । अजघन्य - अनुत्कृष्ट परीत- असंख्येय – जघन्य परीतअसंख्येय से आगे उत्कृष्ट परीत- असंख्येय से पूर्व बीच की सारी संख्याएं अजघन्य - अनुत्कृष्ट परीत-असंख्येय होती हैं । उत्कृष्ट परीत- असंख्येय - जघन्य परीत- असंख्येय को जघन्य परीत- असंख्येय से गुणित करने पर जो संख्या प्राप्त होती है, उससे एक कम उत्कृष्ट परीतअसंख्येय होता है । अथवा एक कम जघन्य युक्तअसंख्येय उत्कृष्ट परीत- असंख्येय होता है । जघन्य युक्त असंख्येय - जघन्य परीत- असंख्येय को जघन्य परीत - असंख्येय से गुणन करने पर जो संख्या प्राप्त होती है, वह जघन्य युक्त असंख्येध है । अथवा उत्कृष्ट परीत- असंख्येय में एक का प्रक्षेप करने पर जघन्य युक्त असंख्येय होता है । एक आवलिका की समय राशि भी उतनी ही होती है । अजघन्य- अनुत्कृष्ट युक्त असंख्येय - जघन्य युक्त-असंख्येय से आगे उत्कृष्ट युक्त असंख्येय से पूर्व बीच की सभी संख्याएं अजघन्य - अनुत्कृष्ट युक्त संख्येय होती हैं । उत्कृष्ट युक्त असंख्येय — जघन्य युक्त-असंख्येय को आवलिका से गुणित करने पर अथवा जघन्य युक्तअसंख्येय को जघन्य युक्त असंख्येय से गुणित करने Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संख्या ६५० अनंत के प्रकार पर जो संख्या प्राप्त होती है, उससे एक कम उत्कृष्ट असंख्यात मान वाली दस राशियां जोड़कर पुन: तीन बार युक्त-असंख्येय होती है। अथवा एक कम जघन्य वर्ग किया जाता है। लब्धराशि में से एक घटाने पर असंख्येय-असंख्येय उत्कृष्ट युक्त-असंख्येय होता है। उत्कृष्ट असंख्यात-असंख्यात का मान प्राप्त होता है। जघन्य असंख्येय-असंख्येय- जघन्य युक्त-असंख्येय को जोड़ी जाने वाली राशियां ये हैं आवलिका से गुणित करने पर अथवा जघन्य युक्त- १. लोकाकाश के प्रदेश असंख्येय को जघन्य-युक्त असंख्येय से गुणित करने २. धर्मास्तिकाय के प्रदेश पर जो संख्या प्राप्त होती है, वह जघन्य असंख्येय ३. अधर्मास्तिकाय के प्रदेश असंख्येय होती है। अथवा उत्कृष्ट युक्त-असंख्येय में ४. एक जीव के प्रदेश एक का प्रक्षेप करने पर जघन्य असंख्येय-असंख्येय ५. निगोद जीवों के शरीर होता है। ६. प्रत्येकशरीरी जीव अजघन्य-अनुत्कृष्ट असंख्येय-असंख्येय-जघन्य असंख्येय ७. स्थिति बन्ध के कारणभूत अध्यवसाय स्थान असंख्येय से आगे उत्कृष्ट असंख्येय-असंख्येय से पूर्व ८. अनुभाग बन्ध के कारणभूत अध्यवसाय स्थान बीच की सभी संख्याएं अजधन्य-अनुत्कृष्ट असंख्येय ९. मन-वचन-काय योग के अविभाज्य विभाग असंख्येय होती हैं। १०. उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल के समय । उत्कष्ट असंख्येय-असंख्येय-जघन्य असंख्येय-असंख्येय को । ५. अनंत के प्रकार जघन्य असंख्येय-असंख्येय से गुणित करने पर जो राशि प्राप्त होती है, उससे एक कम उत्कृष्ट अणंतए तिविहे पण्णत्ते, तं जहा---परित्ताणंतए असंख्येय-असंख्येय होता है। अथवा एक कम जघन्य जुत्ताणतए अणंताणतए। परीत-अनन्त उत्कृष्ट असंख्येय-असंख्येय होता है। परित्ताणतए तिविहे पण्णत्ते, तं जहा--जहण्णए उत्कृष्ट असंख्यात-असंख्यात उक्कोसए अजहण्णमणुक्कोसए । जुत्ताणतए तिविहे पण्णत्ते, तं जहा—जहण्णए अन्ने पूण आयरिया उक्कोसगं असंखेज्जअसंखेज्जग उक्कोसए अजहण्ण मणक्कोसए। इमेन प्रकारेण पन्नति–जहण्णगअसंखेज्जासंखेज्जगरासिस्स अणंताणतए दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-जहण्णए वग्गो कज्जति, तस्स वग्गरासिस्स पुणो वग्गो कज्जति, (अनु ५८०-५८३) तस्स वग्गस्स पुणो वग्गो कज्जति, एवं तिणि वारा अनन्त के तीन प्रकार हैं-१. परीत-अनन्त वग्गियसंवग्गिते इमे दस असंखयपक्खेवया पक्खि- २. युक्त-अनन्त ३. अनन्त-अनन्त । प्पिज्जति परीत-अनन्त और युक्त-अनन्त के तीन-तीन भेद हैंलोगागासपदेसा धम्माधम्मेगजीवदेसा य । जघन्य, उत्कृष्ट और अजघन्य अनुत्कृष्ट । अनन्त-अनन्त के दो भेद हैंदवट्टिया णियोया पत्तेया चेव बोद्धव्वा ।। जघन्य और अजघन्य-अनुत्कृष्ट । ठितिबंधज्झवसाणा अणुभागा योगच्छेदपलिभागा। 'जहण्णयं असंखेज्जासंखेज्जयं जहण्णयअसंखेज्जादोण्हवि समाण समया असंखये खेवया दस त ॥ संखेज्जमेत्ताणं रासीणं अण्णमण्णन्भासो पडिपूण्णो (अनुच पृ८३) जहण्णयं परित्ताणतयं होइ। अनुयोगद्वार सूत्र ५९५ में उत्कृष्ट असंख्यात-असंख्यात अहवा उक्कोसए असंखेज्जासंखेज्जए रूवं पक्खित्तं की दो परिभाषाएं की गई हैं। कुछ आचार्य इसकी। जहण्णयं परित्ताणतयं होइ॥ तीसरी परिभाषा भी करते हैं ---- तेण पर अजहण्ण मणक्कोसयाइं ठाणाइं जाव उक्कोजघन्य असंख्यात-असंख्यात का वर्ग करने से जो सयं परित्ताणतयं न पावइ । राशि प्राप्त हो, उसका पुन: वर्ग किया जाता है। लब्ध जहण्णयपरित्ताणतयमेत्ताणं रासीणं अण्णमण्णभासो राशि का वर्ग करने से जो राशि प्राप्त हो उसमें निम्न रूवूणो उक्कोसयं परित्ताणतयं होइ। जनन्त । Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्कृष्ट अनंत..... अहवा जहण्णयं जुत्ताणंतयं रूवणं उक्कोसयं परिताणतयं होइ ॥ जहण्णयं परित्ताणंतयं जहण्णपरित्ताणंतयमेत्ताणं रासी अण्णमण भासो पडिपुण्णो जहण्णयं जुत्ताणंतयं होइ । अहवा उक्कोस परित्ताणंतए रूवं पक्खित्तं जहण्णयं जुत्ताणंतयं होइ । अभवसिद्धिया वि तत्तिया चेव ।। ते परं अजहणमणुक्कोसयाई ठाणाई जाव उक्कोसयं जुत्ताणंतयं न पावइ || जहष्ण एणं जुत्ताणंत एणं अभवसिद्धिया गुणिया अण्णमण्णभासो रूवूणो उक्कोसयं जुत्ताणंतयं होइ ॥ अहवा जहण्णयं अनंताणंतयं रूवणं उक्कोसयं जुत्तापंतयं होइ ॥ जहण जुत्ताणं एवं अभवसिद्धिया गुणिया अण्णHoroभासो पsिyणो जहण्णयं अनंताणंतयं होइ । अहवा उक्कोसए जुत्ताणंतए रूवं पक्खित्तं जहणणयं अनंताणंतयं होइ || ते परं अजहण मणुक्कोसयाई ठाणाई || ( अनु ५९६-६०३) जघन्य परीत- अनन्त - जघन्य असंख्येय- असंख्येय राशि को जघन्य असंख्येय असंख्येय राशि से गुणित करने पर प्राप्त संख्या अथवा उत्कृष्ट असंख्येय - असंख्येय में एक मिलाने से जघन्य परीत-अनन्त होता है । अजघन्य - अनुत्कृष्ट परीत- अनन्त - जघन्य परीत- अनन्त से आगे उत्कृष्ट परीत- अनन्त से पूर्व बीच की सभी संख्यायें अजघन्य - अनुत्कृष्ट परीत-अनन्त होती हैं । उत्कृष्ट परीत- अनन्त - जघन्य परीत- अनन्त को जघन्य परीत - अनन्त से गुणित करने पर जो संख्या आती है, उससे एक कम उत्कृष्ट परीत- अनन्त होता है । अथवा एक कम जघन्य युक्त-अनन्त उत्कृष्ट परीतअनन्त होता है । जघन्य युक्त-अनन्त- जघन्य परीत-अनन्त को जघन्य परीत - अनन्त से गुणित करने पर जो संख्या आती है वह जघन्य युक्त - अनन्त होती है । अथवा उत्कृष्ट परीत - अनन्त में एक का प्रक्षेप करने पर जघन्य 'युक्त-अनन्त होता है । अभवसिद्धिक जीव भी उतने ही हैं । अजघन्य - अनुत्कष्ट युक्त-अनन्त - जघन्य युक्त-अनंत से • संख्या आगे उत्कृष्ट युक्त- अनंत से पूर्व बीच की सारी संख्याएं अजघन्य - अनुत्कृष्ट युक्त-अनन्त होती हैं । उत्कृष्ट युक्त अनन्त - जघन्य युक्त-अनन्त को अभवसिद्धिक जीवों की संख्या से गुणित करने पर अथवा जघन्य युक्त-अनन्त को जघन्य युक्त-अनन्त से गुणित करने पर जो संख्या आती है उसमें एक कम करने से उत्कृष्ट युक्त - अनन्त होता है । अथवा एक कम जघन्य अनन्त-अनन्त उत्कृष्ट युक्त-अनन्त होता है । जघन्य अनन्त अनन्त -- जघन्य युक्त-अनन्त को अभवसिद्धिक जीवों की संख्या से गुणित करने पर अथवा जघन्य युक्त-अनन्त को जघन्य युक्त-अनन्त से गुणित करने पर जो संख्या आती है वह जघन्य अनन्तअनन्त होती है । अथवा उत्कृष्ट युक्त-अनन्त में एक का प्रक्षेप करने पर जघन्य अनन्त अनन्त होता है । अजघन्य - अनुत्कृष्ट अनन्त अनन्त - जघन्य अनन्त - अनन्त से आगे सभी संख्याएं अजघन्य - अनुत्कृष्ट अनन्तअनन्त होती हैं । उत्कृष्ट अनन्त अनन्त यह विकल्प नहीं होता । ६५१ उत्कृष्ट अनंत अनंत एक विमर्श उक्कोसयमणंताणंतयं नास्त्येव इत्यर्थः । अन्ने य आयरिया भणति जहण्णगं अगंताणंतगं तिष्णि वारा afग्गयं ताधे इमे अणतपक्खेवा पक्खित्ता, तं जधा --- सिद्धा णियोयजीवा वणस्सती काल पोग्गला चेव । सव्वमलोगागासं छप्पेते गंत पवखेवा || - एते पक्खिविऊण तिणि वारा वग्गियसंवग्गितो तथावि उक्कोसयं अणंताणंतयं ण पावति, ततो केवलणाणं केवलदंसणं च पक्खित्तं, तहावि उक्कोसयं अनंताणंतयं ण पावति सुत्ताभिप्पायतो । अण्णायरियाभिप्पायतो केवलणाणदंसणेसु पक्खित्तेसु पत्तं उक्कोसमणंताणंतयं, जतो सव्वमत मित्थ अण्णं न किंचिदिति । जहि अनंताणंतयं मग्गिज्जति तहि अजहण्णमणुक्कोसयं अनंताणंतयं महेयव्वं । ( अनुचू पृ ८४, ८५) उत्कृष्ट अनन्त - अनन्त - इस भेद का अस्तित्व नहीं है । कुछ आचार्य इस भेद को स्वीकार करते हैं, जिसका गणित इस प्रकार है जघन्य अनन्त अनन्त का तीन बार वर्ग (अष्टघात ) करना चाहिये। किसी संख्या का तीन बार वर्ग करना Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ ६५२ संघ को उपमाएं हो तो उस संख्या का वर्ग, फिर वर्गजन्य संख्या का वर्ग, संजम-तव-तुंबारयस्स नमो सम्मत्त-पारियल्लस्स फिर वर्गजन्य संख्या का वर्ग किया जाता है। जैसे ... अप्पडिचक्कस्स जओ, होउ सया संघचक्कस्स ।। ४ का तीन बार वर्ग करना है। भई सीलपडागूसियस तव-नियम-तुरय-जुत्तस्स । ४ का वर्ग-४४४-१६ --- संघरहस्स भगवओ, सज्झाय-सुनंदि-घोसस्स ।। १६ का वर्ग-~१६४१६-२५६ कम्मरय-जलोह-विणिग्गयस्स सुयरयणदीहनालस्स । २५६ का वर्ग-२५६४२५६-६५५३६ पंचमहव्वयथिरकण्णियस्स गुणकेसरालस्स ॥ दूसरे शब्दों में इसे अष्टघात भी कह सकते हैं- सावग जणमहुअरिपरिवडस्स जिणसूरतेयबुद्धस्स । ४४४४४४४४४४४४४४४=६५५३६ संघपउमस्स भई, समणगणसहस्सपत्तस्स ॥ तीन बार संवगित करने के बाद उसमें निम्न अनन्त । तव-संजम-मयलंछण ! अकिरिय-राहमूह-रिस निच्चं। मान वाली छह राशियों का प्रक्षेप करना चाहिये-- जय संघचंद ! निम्मल-सम्मत्त-विसुद्धजुण्हागा ॥ १. सब सिद्ध जीव, २. सूक्ष्म-बादर निगोद के जीव, परितित्थियगह-पह-नासगस्स तवतेयदित्तलेसस्स । ३. प्रत्येक-साधारण वनस्पतिकायिक जीव, ४. तीनों नाणुज्जोयस्स जए, भदं दमसंघसूरस्स ।। (भूत, वर्तमान, भविष्यत्) काल के समय, ५. सर्व पुद्गल (नन्दी गाथा ४-१०) द्रव्य, ६. सर्व आकाश की प्रदेशराशि । नगर उत्तरगुण रूप भवनों से गहन, श्रुतरूप रत्नों इनको प्रक्षिप्त कर फिर सर्व राशि को तीन बार से यक्त, विशद्ध दर्शन रूप मणियों से संकल. चरित्र रूप संगित करके उस राशि में केवलज्ञान और केवलदर्शन अखण्ड प्राकार वाले संघनगर ! तुम्हारा कुशल हो। के अनन्त पर्यायों को मिलाने पर उत्कृष्ट अनन्त-अनन्त चक्र --जिस चक्र के संयम रूप तुम्ब और तप रूप की संख्या का परिमाण होता है। क्योंकि इससे आगे अर हैं, बाह्य पृष्ठ के लिए सम्यक्त्व रूप भ्रमि है तथा संख्या की कोई वस्तु नहीं है। श्वेताम्बर आगम सूत्र के जिसके समान दूसरा चक्र नहीं है, ऐसे विजयी संघचक्र अनुसार उत्कृष्ट अनन्त-अनन्त नहीं होता । सूत्र में जहां- को सदा नमार हो। जहां अनन्तानंत का उल्लेख है वहां मध्यम अनन्त का ग्रहण ही अभीष्ट है, क्योंकि इस संख्या के मान का रथ-जिसके शील रूप ऊंची पताका है, तप-नियम कोई पदार्थ नहीं है। रूप घोड़े जुते हुए हैं, स्वाध्याय रूप नन्दी घोष है। ऐसे (दिगम्बर परम्परा में और कर्म ग्रंथ में इसकी भिन्न संघरथ का कुशल हो। भिन्न परिभाषाएं हैं। देखे -अण गदाराइं सूत्र ६०३ कमल-जो श्रमणगण रूप सहस्रपत्रों से युक्त है। का टिप्पण) कर्म रज रूप समुद्र से बाहर निकला हुआ है ।श्रुत की रचना रूप दीर्घ नालिका वाला है। पांच महाव्रत रूप संग्रह नय—अभेदपरक दृष्टिकोण। (द्र. नय) स्थिर कणिका वाला है। उत्तर गुणरूप केसरों वाला संघ-समान लक्ष्य वाले व्यक्तियों का संगठन । है। श्रावक रूप मधुकरों से घिरा हुआ है और जिनेश्वर .."संघो जो नाणचरणसंघाओ।" (विभा १३८०) देव रूप सूर्य से विकसित है, ऐसे संघकमल का कुशल हो । जो ज्ञान, दर्शन और चारित्रगुणों का संघात है, वह चन्द्र-तप-संयम रूप मृग लांछन वाले, अक्रियावादी संघ है। नास्तिक राहुओं के मुंह से अपराजित ! हे निर्मल सम्यक्त्व प्रवचन का आधार होने के कारण संघ को प्रवचन रूप विशुद्ध ज्योत्स्ना वाले संघचन्द्र ! तुम विजयी हो। कहा गया है। (द्र. प्रवचन) सूर्य-जो अन्यतीथिक ग्रहों की प्रभा क्षीण कर, चतुर्विध श्रमणसंघ। (द्र. तीर्थ) तप तेज से दीप्त लेश्या वाला है और ज्ञान से उद्योतवान संघ को नगर आदि की आठ उपमाएं है। ऐसे उपशम प्राप्त संघसूर्य का शुभ हो। गुणभवण-गहण! सुयरयणभरिय! दसंण-विसुद्ध-रत्थागा। भई धिइ-वेला-परिगयस्स सज्झायजोग-मगरस्स। संघणगर! भदंते अक्खंडचरित्त-पागारा!॥ अक्खोभस्स भगवओ, संघसमूहस्स रुदस्स" Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ का महत्त्व ६५३ संज्ञा सम्मइंसण-वइर-दढ-रूढ-गाढावगाढ-पेढस्स संघ का महत्त्व धम्मवर-रयण-मंडिय-चामीयर-मेहलागस्स णाणस्स होइ भागी थिरयरगो दसणे चरित्ते य । नियमूसिय-कणय-सिलायलुज्जल-जलंत-चित्तकूडस्स । धन्ना आवकहाए गुरुकुलवासं न मुंचंति ।। नंदणवण-मणहर-सुरभि-सील-गंधुद्धमायस्स (उचू पृ १९८) जीवदया-सुंदर-कंदरुद्दरिय-मुणिवर-मइंद-इण्णस्स । गुरुकुल में रहने से ज्ञान की प्राप्ति होती है, दर्शन हेउसय-धाउ-पगलंत-रयण - दित्तोसहि-गुहस्स ॥ और चारित्र में स्थिरता आती है। वे धन्य हैं जो जीवनसंवर-वरजल-पगलिय-उज्झर-प्पविरायमाण-हारस्स। पर्यन्त गुरुकुलवास नहीं छोड़ते । सावग-जण-पउर-रवंत-मोर - णच्चंत-कुहरस्स ॥ जस्सेवमप्पा उ हवेज्ज निच्छिओ, विणय-णय-पवर-मुणिवर-फूरत-विज्जू-ज्जलंत-सिहरस्स । चएज्ज देहं न उ धम्मसासणं । विविहगुण-कप्परुक्खग - फलभर-कुसुमाउल-वणस्स ।। तं तारिसं नो पयलेंति इंदिया, नाण-वररयण-दिप्पंत-कंत-वेरुलिय-विमल-चूलस्स । उवेंतवाया व सुदंसणं गिरिं ॥ वंदामि विणयपणओ, संघमहामंदरगिरिस्स ।। (दचूला १।१७) (नन्दी गाथा ११-१७) जिसकी आत्मा दृढ़ संकल्पयुक्त होती है- 'देह को त्याग देना चाहिए पर धर्म-शासन को नहीं छोडना समुद्र-जो धैर्य रूप वेला से युक्त है, स्वाध्याययोग चाहिए'-उस दृढ़प्रतिज्ञ साधु को इन्द्रियां उसी प्रकार रूप मकरों वाला है, अप्रकंपित है, विस्तीर्ण है-वह विचलित नहीं कर सकती जिस प्रकार वेगपूर्ण गति से संघ-समुद्र शिव को प्राप्त करे। आता हुआ महावायु सुदर्शन गिरि को। सुमेरु-जिसके दढ़ रूढ (चिरकाल से समागत), गाढ जह सागरंमि मीणा संखोहं सागरस्स असहंता। (तीव्र तत्त्व रुचि से युक्त), अवगाढ़-गहरी (पदार्थों के निति तओ सुहकामी निग्गयमित्ता विणस्संति ॥ यथार्थ ज्ञान से युक्त) सम्यग्दर्शन रूप वज्रमय पीठ है, जो एवं गच्छसमुद्दे सारणवीईहिं चोइया संता। धर्म रूप श्रेष्ठ रत्नों से जड़े हुए स्वर्ण के कन्दोरे वाला है, निति तओ सहकामी मीणा व जहा बिणस्संति ॥ जो नियम रूप कनक शिलातल से ऊंचा बना हुआ है, (ओनि ११६, ११७) जो उज्ज्वल ज्वलन्त चित्त रूप चोटियों वाला है, जो जो सुखकामी मत्स्य सागर की क्षुब्धता को सहन नंदनवन की मनहर सुरभि रूप शील गंध से परिव्याप्त है, नहीं कर पाते वे सागर से अलग होकर विनष्ट हो जाते जो जीव दया रूप सुन्दर कन्दरा वाला है, जो अहिंसा के हैं। इसी प्रकार गच्छरूपी सागर में सारणा-वारणा को प्रति दर्पित मुनिवर रूपी मृगेन्द्रों से आकीर्ण है, जो व्या ___ सहन नहीं करने वाला सुखकामी शिष्य संघ से अलग ख्यान मालाओं में सैकड़ों हेतु रूप (अन्वय-व्यतिरेक) होकर मत्स्य की तरह नष्ट हो जाता है। धातुओं के द्वारा निष्यन्दमान श्रुतरत्न और दीप्त औषधि वाला है, जो संवर रूप निरंतर करने वाले श्रेष्ठ प्रवाह संज्ञा--ओभलाषा । मनोविज्ञान । रूप हार वाला है, जो विविध शब्द करते हुए (स्तुति-। १.संज्ञा के प्रकार स्तोत्र आदि के द्वारा) श्रावक रूप मयूरों के प्रचुर सशब्द २. संज्ञाओं के अर्थ तथा उत्पत्ति के कारण नृत्य वाला है तथा जहां शास्त्र-मंडप आदि रूप कुहर हैं, ३. संज्ञा (ज्ञानात्मक) के स्वामी जो विनयप्रणत श्रेष्ठ मुनिवरों की स्फुरित विद्युत् ४. एकेन्द्रिय असंज्ञी क्यों ? (तपस्या) से ज्वलंत शिखरों वाला है, जो प्रावनिक ५. एकेन्द्रिय में बुत और आहार आदि संज्ञाएं (आचार्यो) के विविध गुण रूप कल्पवृक्षों के फलों और • वनस्पति में संज्ञा पुष्पों (ऋद्धियों) से व्याप्त वन (गच्छ) वाला है। तथा * दीर्घकालिकी आदि संज्ञाएं (द्र. श्रुतज्ञान) जिसके प्रधान ज्ञान रूपी वैडूर्य रत्न से देदीप्यमान कांत, विमल चला है, उस संघ-महामंदराचल को विनय- १. संज्ञा के प्रकार प्रणत होकर वंदना करता हूं। सण्णा दुविहा खओवसमिया कम्मोदइया य । तत्थ Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संज्ञा खओवसमिया णाणावरणखओवसमेण आभिणिबोहियनाणसण्णा भवति । ..... कम्मोदइया चतुव्विहा । ( आवचू २ पृ८० ) ६५४ संज्ञा के दो प्रकार हैं १. क्षायोपशमिक संज्ञा कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न, जैसे— ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से होने वाली आभिनिबोधिक संज्ञा । २. कमौदयिक संज्ञा कर्म की भिन्न-भिन्न प्रकृतियों के उदय से होने वाली आहार आदि संज्ञाएं । ..... चउहि सण्णाहि आहारसण्णाए भयसण्णाए मेहुणा परिग्गहसण्णाए । ( आव ४ ( ८ ) कर्मोदय से निष्पन्न संज्ञा के चार प्रकार हैं -आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा और परिग्रहसंज्ञा । (संज्ञा के दस प्रकार भी हैं - आहार, भय, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, लोक और ओघ संज्ञा । नैरयिकों में भय संज्ञा, तिर्यंचों में आहार संज्ञा, मनुष्यों में मैथुन संज्ञा और देवों में परिग्रह संज्ञा की प्रधानता होती है । देखें - पण्णवणा पद ८ ) २. संज्ञाओं के अर्थ तथा उत्पत्ति के कारण आहारसण्णा नाम आहाराभिलाससंज्ञानं, आहाररागसंवेदनमित्यर्थः, तीए चत्तारि उदयहेतुणो 'चउहि ठाणेहिं आहारसणा समुपज्जति - ओमकोट्ठताए, छुहावेद णिज्जस्स कम्मस्स उदएणं, मतीए तदट्ठोवयोगेणं, तत्थ मती सोतुं दठ्ठे आघातुं रसेणं फासेणं वा भवति, तदट्ठोवयोगेणं आहारं चितेति, सुत्तत्थतदुभएहिं वा अप्पाणं वावडं न करेतित्ति । भय सण्णानाम भयाभिनिवेसो भयमोहोदय संवेदनमित्यर्थः तीए चत्तारि हेतुणो- चउहि ठाणेहिं भयसण्णा उप्पज्जति - हीणसत्तयाए भयमोह णिज्जउदएणं मतीए तदट्ठोवयोगताए । मेहुणाणाम स्त्याद्यभिलाससंज्ञानं, वेदमोहोदयसंवेदनमित्यर्थः, तीए चत्तारि हेतु 'चउहि ठाणेहि मेहुणसण्णा समुपज्जति, तं जहा - चितमंससोणितयाए वेदमोहणिज्जोदणं मतीए तदट्ठोवयोगेणं । परिग्गहसण्णा णाम परिग्गहाभिलाससण्णाणं, परिगहरागसंवेदनमित्यर्थः, तीसे हेतुणो- अविवित्तताए लोभोदणं मतीए तदट्ठोवयोगेणं । (आवचू २ पृ ८०,८१) उपयोगमात्र मोघसंज्ञा, लोकसंज्ञा स्वच्छन्दविकल्पिता एकेन्द्रिय असंज्ञी क्यों ? विश्वगमा लौकिकैराचरिता, तद्यथा - " अनपत्यस्य न सन्ति लोका" इत्यादि, अन्ये तु व्याचक्षते - ओघसंज्ञा दर्शनोपयोगः, , लोकसंज्ञा ज्ञानोपयोगः । ( नन्दीहावृ पृ ६१ ) १. आहारसंज्ञा - आहार की अभिलाषा का संज्ञान, आहार के प्रति राग का संवेदन | इसके चार कारण हैं - १. पेट के खाली हो जाने पर २. क्षुधावेदनीय कर्म के उदय से ३. आहार की बात सुनने, आहार देखने, गंध लेने आदि से उत्पन्न मति से ४. सूत्रार्थ के चितन से शून्य होकर आहार के विषय में सतत चिंतन से । २. भयसंज्ञा - भय का अभिनिवेश अर्थात् भयमोह का संवेदन | इसके चार कारण हैं - १. सत्त्वहीनता से २. भयमोहनीय कर्म के उदय से ३. भय की बात सुनने से उत्पन्न मति से ४. भय के सतत चिंतन से । ३. मैथुनसंज्ञा- स्त्री आदि की अभिलाषा रूप संज्ञान अर्थात् वेदमहोदय कर्म का संवेदन | इसके चार कारण हैं- १. अत्यधिक मांस- रक्त का उपचय होने से २ वेदमोहनीय कर्म के उदय से ३. मैथुन की मति से ४ मैथुन का सतत चिंतन करने से । ४. परिग्रहसंज्ञा - परिग्रह की अभिलाषा रूप संज्ञान, परिग्रह के प्रति रागभाव का संवेदन | इसके चार कारण हैं - १. परिग्रह से विविक्त न होने से २. लोभमोहनीय कर्म के उदय से ३. परिग्रह की मति से ४ परिग्रह का सतत चिंतन होने से । ५८. क्रोध आदि चारों संज्ञाएं- क्षेत्र, वास्तु, शरीर और उपधि के कारण उत्पन्न होती हैं । (देखें - ठाणं ४/८०-८३) ९. ओघसंज्ञा - सामान्य अवबोध, दर्शनोपयोग । यह उपयोगमात्र निर्विभाग ज्ञान है । इन्द्रिय और मन से नहीं होता । इसकी उत्पत्ति स्वाभाविक है । १०. लोकसंज्ञा - विशेष अवबोध, ज्ञानोपयोग | स्वच्छंद सूत्र में विकल्पित लौकिक मान्यता । जैसे— पुत्रहीन की गति नहीं होती, आदि । (इन दस संज्ञाओं में प्रथम आठ संवेगात्मक और अंतिम दो ज्ञानात्मक हैं । इनकी उत्पत्ति बाह्य और Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामी एकेन्द्रिय में श्रुत ६५५ संज्ञा आंतरिक उत्तेजना से होती है । देखें-ठाणं १०।१०५ अभिहित नहीं हो सकता । मूर्त्तता रूप है, पर उसके होने का टिप्पण। मात्र से कोई रूपवान् नहीं हो सकता। धनवान् वह होता आचारांग निर्यक्ति गाथा ३९ में इन दस संज्ञाओं के है जो प्रभूत धन का स्वामी होता है। रूपवान वह होता अतिरिक्त ये चार संज्ञाएं और प्राप्त होती हैं-सुख-दुःख है जिसका आकार-प्रत्याकार मनमोहक होता है। संज्ञा, मोह संज्ञा, विचिकित्सा संज्ञा और धर्म संज्ञा)। एगिदियाणं ओहसण्णा चेव अतो ते असण्णी चेव, तेहितो बेइंदियाइ जाव सम्मुच्छिमपंचेंदी एते विसिट्टतर३. संज्ञा (ज्ञानात्मक) के स्वामी सण्णाए हेतुवायसण्णी भणिता, कालितोवदेसं पुण पडुच्च पंचण्हमूहसण्णा हेउसण्णा बेइंदियाईणं । ते वि असण्णी, विण्णाणअविसित्तणतो, दिट्ठिवातोबदेसं सुर-नारय-गब्भुन्भवजीवाणं कालिगी सण्णा ॥ पुण पडुच्च कालिकोपदेसा वि असण्णी अविसिट्रत्तणतो छउमत्थाणं सण्णा सम्म हिट्ठीण होइ सुयनाणं ।। चेव, अतो णज्जति दिट्रिवातसण्णी सव्वत्तमो। मइवावारविमुक्का सण्णाईआ उ केवलिणो॥ (नन्दीच पृ ४८) (विभा ५२३, ५२४) __ जिनमें विशिष्ट संज्ञाएं-दीर्घकालोपदेशिकी, हेतुपृथ्वी, अप, तेजस्, वायु और वनस्पति-इन पांचों उपदेशिकी और दृष्टिवादोपदेशिकी होती हैं, वे ही वास्तव ओघ संज्ञा होती है। द्वीन्द्रिय आदि में हेतु (हेतूपदेश) में संज्ञी कहलाते हैं। एकेन्द्रिय जीवों में अल्प ज्ञानात्मक संज्ञा तथा देव, नारक और गर्भज प्राणियों में दीर्घ केवल ओघसंज्ञा होती है। वे असंज्ञी ही हैं। द्वीन्द्रिय से कालिकी संज्ञा होती है । सम्यकदृष्टि छद्मस्थ के दृष्टिवाद संमृच्छिम पंचेन्द्रिय तक के जीव हेतुवादसंज्ञी हैं, परंतु संज्ञा होती है। अतः उसके श्रुतज्ञान को संज्ञिश्रुत कहा कालिकोपदेश संज्ञा की अपेक्षा वे भी असंज्ञी हैं क्योंकि गया है। मति-श्रुत के व्यापार से विमुक्त होने से केवली उनका विज्ञान विशिष्ट नहीं है । इसी प्रकार दृष्टिवादोसंज्ञातीत होते हैं। पदेशसंज्ञा की अपेक्षा से कालिकोपदेश संज्ञा वाले असंज्ञी ४. एकेन्द्रिय असंज्ञी क्यों ? हैं । इसलिए दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा सर्वोत्तम है। ..."एगिदियाइयाण वि जं सण्णा दसविहा भणिया ।। ५. एकेन्द्रिय में श्रुत और आहार आदि संज्ञाएं (विभा ५०५) बकुलादीनां स्पर्शनेन्द्रियातिरिक्तद्रव्येन्द्रियलब्धिविकलयदि स्वल्पसंज्ञायोगाद् विकलेन्द्रियादयः संज्ञिन इष्यन्ते, . त्वेऽपि तेषां किमपि सूक्ष्म भावेन्द्रियपञ्चकविज्ञानमभ्युपपृथिव्यादयः किं नेष्यन्ते ? यतस्तेषामपि दशविधाः संज्ञा गम्यते "तथा भाषाश्रोत्रेन्द्रियलब्धिविकलत्वेऽपि तेषां विद्यन्त एव"""""इहोघसंज्ञा स्तोकत्वाद् आहारादिसंज्ञा किमपि सूक्ष्म श्रुतं भविष्यति, अन्यथाऽऽहारादिसंज्ञाऽनुश्चानिष्टत्वान्नाधिक्रियन्ते । यथा न कार्षापणमात्रेण पपत्तेः । धनवानभिधीयते मूर्तिमात्रेण वा रूपवानिति, किन्तु यथा अभिलाषश्च ममैवरूपं वस्तु पूष्टिकारि तद्यदीदप्रभूतरत्नादिसमन्वितो धनवान् प्रशस्तमूर्तियुक्तश्च रूप मवाप्यते ततः समीचीनं भवतीत्येवं शब्दार्थोल्लेखानविद्धः वानभिधीयते एवं महती शोभना च संज्ञा यस्यास्त्यसो स्वपुष्टिनिमित्तभूतप्रतिनियतवस्तुप्राप्त्यध्यवसायः, स च संजीति, विशिष्टतरा च विकलेन्द्रियसंज्ञा। श्रतमेव, तस्य शब्दार्थपर्यालोचनात्मकत्वात्,''शब्दानाम (नन्दीहाव प्रश्न होता कि विकलेन्द्रिय जीवों में स्वल्पतम संज्ञा तर्जल्पाकाररूपाणामपि विवक्षितार्थवाचकतया प्रवर्तहोती है, फिर भी वे संज्ञी कहलाते हैं तो फिर एकेन्द्रिय मानत्वात्, श्रुतस्य चैवलक्षणत्वात्। (नन्दीमत् प १४१) जीवों में तो दस संज्ञाएं होती हैं, वे संज्ञी क्यों नहीं बकुल आदि वनस्पतियों तथा अन्य एकेन्द्रिय जीवों मिता पाणियों में में स्पर्शन इन्द्रिय के अतिरिक्त अन्य द्रव्य इन्द्रियां नहीं ओघसंज्ञा अल्पतम होती है तथा आहार आदि संज्ञाएं होतीं, किन्तु उनमें पांचों भाव इन्द्रियों का किंचित सक्ष अनिष्ट होने के कारण उनकी गणना नहीं होती, इसलिए विज्ञान रहता है । यद्यपि उनकी कोई भाषा नहीं होती, वे जीव असंज्ञी कहलाते हैं। कार्षापण एक सिक्का है। श्रोत्रेन्द्रिय भी नहीं होती, फिर भी उनमें सूक्ष्म श्रत होता वह भी धन है । पर उससे व्यक्ति जैसे धनवान के रूप में है, अन्यथा उनमें आहार, भय, मैथुन और परिग्रह की Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयम संयम के सतरह प्रकार संज्ञा भी नहीं हो सकती । किन्तु ये संज्ञाएं उनमें हैं। • अपहृत्य संयम जिसमें यह अध्यवसाय होता है कि अमुक पुष्टिकारक • प्रमार्जन संयम वस्तु मुझे मिल जाये तो अच्छा रहे-यह शब्दार्थ के ० मन-वचन-शरीर संयम उल्लेख से अनुविद्ध तथा स्वपुष्टि में निमित्तभूत पदार्थ का ० उपकरण संयम अध्यवसाय श्रुत ही है । श्रुत शब्द और अर्थ का पर्या- ३. जीव-अजीव संयम लोचन करता है। शब्द अन्तर्जल्पाकार होने पर भी ४. संयम की श्रेष्ठता विवक्षित अर्थ के वाचक होते हैं । श्रुत का भी यही लक्षण | ५. संयम के परिणाम ६. मन-वचन-शरीर संयम के परिणाम ७. संयमी की जीवन-शैली वनस्पति में आहार आदि चारों संज्ञाएं • संयम-रमण : सुर-सुख दृश्यते हि जलाद्याहारोपजीवनाद वनस्पत्यादीनामाहार- * संयम-आचरण को दुर्लभता (द्र. मनुष्य) संज्ञा, संकोचनवल्ल्यादीनां तु हस्तस्पर्शादिभीत्याऽवयव- * श्रुति संयम और चक्षु संयम (5. ब्रह्मचर्य) संकोचनादिभ्यो भयसंज्ञा, विरहक-तिलक-चम्पक-केशरा- * इन्द्रिय संयम के परिणाम (द्र. इन्द्रिय) शोकादीनां तु मैथुनसंज्ञा दशितव, बिल्वपलाशादीनां तु *संयम में स्थिरता के आलम्बन (द्र. चारित्र) निधानीकृतद्रविणोपरि पादमोचनादिभ्यः परिग्रहसंज्ञा । न चैताः संज्ञा भावतमन्तरेणोपपद्यन्ते। १. संयम की परिभाषा (विभाम१पृ ५९) संजमो समिति-गुत्तीसु उवरमो ।""सव्वावस्थवनस्पति जीवों में आहार आदि चारों संज्ञाएं पाई महिसोवकारी संजमो। (दअचू पृ९) जाती हैं। सभी प्रकार के वनस्पतिजीव जल आदि को संयम का अर्थ है-समिति और गुप्ति का पालन ग्रहण कर जीवित रहते हैं, अतः उनमें आहार संज्ञा है। करना। जो सर्वत्र अहिंसा का उपकारी है, वह संयम कुछेक लताएं और वल्लियां हाथ का स्पर्श होते ही है। भयभीत होकर सिकुड़ जाती हैं। उनमें भयसंज्ञा है। संजमो नाम उवरमो, रागहोसविरहियस्स एगीभावे तिलक, चंपक आदि वृक्ष स्त्रियों के पादाघात, आलिंगन भनी (दजिचू पृ १५) आदि से पुष्पित और फलित होते हैं। यह उनमें मैथुन संयम का अर्थ है-उपरति । राग-द्वेष से शून्य होकर संज्ञा का प्रतीक है । बिल्व, पलाश आदि वृक्षों की जड़े भूमि में गड़े हुए धन पर छितर जाती हैं । यह उनमें एकीभाव में स्थित होना संयम है। परिग्रहसंज्ञा का द्योतक है । ये चारों संज्ञाएं भावश्रुत के संयमः आश्रवद्वारोपरमः । “संयमस्याहिंसाया एव बिना उत्पन्न नहीं होती, अतः उन एकेन्द्रिय जीवों में उपग्रहकारित्वात्, संयमिन एव भावतः खल्वहिंसकत्वात् । भावश्रुत होता ही है। (दहाव प २१, २६) संभव-तीसरे तीर्थंकर। (द्र. तीर्थंकर) संयम का अर्थ है--हिंसा आदि आश्रवद्वारों से विरति । संयम अहिंसा का ही आलंबन है। संयमी के ही संयम-उपरति । निग्रह । नियंत्रण । भावत: सम्पूर्ण अहिंसा हो सकती है। १. संयम की परिभाषा संयम के एकार्थक ० संयम के एकार्थक दया य संजमे लज्जा, दुगुंछाऽछलणा इअ । २. संयम के सतरह प्रकार तितिक्खा य अहिंसा य, हिरि एगट्टिया पया ।। • पृथ्वीकाय"संयम (उनि १५८) प्रेक्षा संयम दया, संयम, लज्जा, जुगुप्सा, अछलना, तितिक्षा, ० उपेक्षा संयम | अहिंसा और ह्री-ये संयम के एकार्थक हैं। Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयम के सतरह प्रकार २. संयम के सतरह प्रकार संजमो सत्तरसविहो, तं जहा पुढविकायसंजमो, आउकाय संजमो, ते काय संजमो, वाउ काय संजमो, वणस्सतिकायसंजमो, बेइंदियसंजमो, तेइं दियसंजमो, चउरदियसंजमो, पंचेंदियसंजमो, पेहासंजमो, उवेहासंजमो, अवहट्टसजमो, पमज्जियसंजमो, मणसंजमो, वतिसंजमो, कायसंजमो, उवगरणसंजमो । ( अचू पृ १२ ) संयम सतरह प्रकार का है – पृथ्वी काय संयम, अकायसंयम, तेजस्कायसंयम, वायुकायसंयम, वनस्पतिकायसंयम, द्वीन्द्रियसंयम, त्रीन्द्रियसंयम, चतुरिन्द्रियसंयम, पंचेन्द्रियसंयम, प्रेक्षासंयम, उपेक्षासंयम, अपहृत्य ( उत्सर्ग ) संयम, प्रमार्जन संयम, मनसंयम, वचनसंयम, काय संयम उपकरणसंयम | ... १९. पृथ्वी काय पंचेन्द्रिय संयम पुढविकायसंजमो - पुढविकायं तियोगेन ण हिंसतिण हिसावेति हिंसंतं नाणुजाणति । एवं आउक्कायसंजमो जाव पंचेंदियसंजमो । (दअचू पृ १२ ) पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पतिकाय तथा द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय एवं पंचेन्द्रिय जीवों की मनसा, वाचा, कर्मणा हिंसा न करना, न करवाना, न अनुमोदन करना क्रमशः पृथ्वीकाय संयम, अष्काय संयम, तेजस्काय संयम, वायुकाय संयम, वनस्पतिकाय संयम, द्वन्द्रिय संयम, श्रीन्द्रिय संयम, चतुरिन्द्रिय संयम और पंचेन्द्रिय संयम है । १०. प्रेक्षा संयम ठाणाइ जत्थ चेए, पुव्वं पडिले हिऊण चेएज्जा । ( ओभा १७१ ) पेहासंजमो- - जत्थ ठाण-नीसीयण तुयट्टणं काउकामो तं पडिलेहिय पमज्जिय करेमाणस्स संजमो भवति । (दअचू पृ १२ ) स्थान ( कायोत्सर्ग), निषीदन और शयन के स्थान का प्रतिलेखन (चक्षु से निरीक्षण) और प्रमार्जन करना प्रेक्षा संयम है । प्रतिलेखन विधि और क्रम (द्र प्रतिलेखना) ११. उपेक्षा संयम ..... संजय गिहिचोयणऽचोयणे य वावारओवेहा | ६५७ संयम संयमी को प्रेरित करना, असंयमी के कार्य में उदासीन रहना उपेक्षा संयम है । उवेहा संजमो -संजमवतं संभोइयं पमायंतं चोदेंतस्स संजमो । असंभोइयं चोयंतस्स असंजमो । पावयणीए कज्जे चियत्ता वा से पडिचोयण त्ति अण्णसंभोइयं प चोएति । गिहत्थे कम्मायाणेसु सीदमाणे उपेहंतस्स संजमो, वावारितस्स असंजमो । ( अचू पृ १२ ) उपेक्षा संयम के दो प्रकार हैं १. प्रमत्त सांभोजक साधु को अप्रमाद के प्रति प्रेरित करना उपेक्षा संयम है । असांभोजिक को प्रेरित करना असंयम है । प्रवचन की प्रभावना के लिए प्रीतिकारक प्रेरणा से अन्य सांभोजिक को भी प्रेरित किया जा सकता है । २. गृहस्थ के सावध व्यापार के प्रति उदासीन रहना उपेक्षा संयम है, सावध व्यापार में व्यापृत होना असंयम है । १२. अपहृत्य संयम अवहट्ठ संजमो अतिरेगोवगरणं विगिवंतस्स संजमो । पाणजातीए य आहारादिसु असुद्धोवहिमादीणि परिति । ( अचू पृ १२ ) अतिरिक्त उपकरणों का परित्याग करना, सचित आहार आदि तथा अशुद्ध उपधि आदि का परिष्ठापन करना अपहृत्य संयम है । परिष्ठापन की विधि ( द्र समिति ) १३. प्रमार्जन संयम ..... सागारिएपमज्जए संजम सेसे पमज्जणया || ( ओभा १७२ ) न करना संयम प्रमार्जन करना संयम गृहस्थ के सामने पैरों का प्रमार्जन है । गृहस्थ न हो उस स्थिति में है । १४- १६. मन-वचन- शरीर संयम मणसंजमो - अकुसलमणनिरोहो वा कुसलमणउदीरणं वा । वतिसंजमो - अकुसलवइनिरोहो वा कुसलवतिउदीरणं वा । कायसंजमो अवस्सकरणीयवज्जं सुसमाहियस्स कुम्म इव गुत्तिदिय चिट्ठमाणस्स संजमो । (दअचू पृ १२ ) अकुशल मन और वचन का निरोध तथा कुशल मन ( ओभा १७१ ) और वचन का प्रवर्तन मन संयम और वचन संयम है । Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • संयम ६५८ संयम के परिणाम आवश्यक आदि करणीय कृत्यों के अतिरिक्त सुसमा- जो मनुष्य प्रतिमास दस लाख गायों का दान देता है, हित मुनि कूर्म की तरह गुप्तेन्द्रिय ---सुस्थिर रहता है- उसके लिए भी संयम ही श्रेय है। भले फिर वह कुछ भी यह कायसंयम है। न दे। १७. उपकरण संयम थोवाहारो थोवभणिओ य जो होइ थोवनिहो य । थोवोवहिउवगरणो तस्स ह देवावि पणमंति ।। उवगरणसंजमो.-पोत्थएस घेप्पतेसू असंजमो महाधणमोल्लेसु वा दूसेसु, वज्जणं तु संजमो। (आवनि १२६८) आहारसंयम, वाक्संयम, निद्रासंयम और उपधिकालं पडुच्च चरणकरणळं अव्वोच्छित्तिनिमित्तं उपकरण संयम करने वाले को देवता भी प्रणाम करते हैं। गेण्हंतस्स संजमो भवति । (दअचू पृ १२) पुस्तकों तथा अधिक मूल्य वाले वस्त्रों का ग्रहण हत्थसंजए पायसंजए, करना उपकरण असंयम है। उनका वर्जन करना उपकरण वायसंजए संजइंदिए । संयम है । अवसर को जानकर चारित्र की अनुपालना अज्झप्परए सुसमाहियप्पा, और श्रत की अव्यवच्छित्ति के निमित्त इनका ग्रहण करना सुत्तत्थं च वियाणई जे स भिक्खू । भी संयम है। (द १०।१५) (आवहाव २ पृ १०८ में संयमभेदों के क्रम तथा जो हाथों से संयत है, पैरों से संयत है, वाणी से नामों में किंचित् अंतर है । वहां उपकरण संयम के स्थान संयत है, इंद्रियों से संयत है, अध्यात्म में रत है, भलीभांति में अजीव संयम तथा अपहृत्य संयम के स्थान में परिष्ठा समाधिस्थ है और जो सूत्र और अर्थ को यथार्थरूप से पन संयम का उल्लेख है। समवाओ १७।२ में भी जानता है-वह भिक्षु है। उपकरण संयम के स्थान में अजीव संयम का उल्लेख ५. संयम के परिणाम ३. जीव-अजीव संयम संजमेणं अणण्हयत्तं जणयइ। (उ २९।२७) संयम से जीव आश्रव का निरोध करता है। जस्स जीवाजीवपरिण्णा अत्थि सो जीवाजीवसंजमं सुयनाणम्मिवि जीवो वटतो सोन पाउणइ मोक्खं । वियाणइ, तत्थ जीवा न हंतव्वा एसो जीवसंजमो भण्णइ । जो तवसंजममइए जोए न चएइ वोढं जे॥ अजीवावि मंसमज्जहिरण्णादिदव्वा संजमोवघाइया ण घेत्तव्वा एसो अजीवसंजमो, तेण जीवा य अजीवा य जह छयलद्धनिज्जामओवि वाणियगइच्छियं भूमि । परिणाया जो तेसु संजमइ। (दजिचू पृ १६१, १६२) वाएण विणा पोओ न चएइ महण्णवं तरिउं ॥ संयम दो तरह का होता है-जीव संयम और अजीव तह नाणलद्धनिज्जामओवि सिद्धिवसहि न पाउणइ । संयम । किसी जीव को नहीं मारना यह जीव संयम है। निउणोऽवि जीवपोओ तवसंजममारुअविहूणो । मद्य, मांस, स्वर्ण आदि द्रव्य जो संयम के घातक हैं उनका (आवनि ९४-९६) परिहार करना अजीव संयम है। जो जीव और अजीव जो जीव तपोयोग और संयमयोग का वहन नहीं कर उनके प्रति संयत हो सकता है । जो सकता, वह केवल श्रुतज्ञान-शास्त्रों के अध्ययन से मुक्ति जीव-अजीव को नहीं जानता, वह संयम को भी नहीं प्राप्त नहीं कर सकता। जानता, वह उनके प्रति संयम भी नहीं कर सकता । जैसे निपूण कर्णधार होने पर भी अनुकूल हवा के ४. संयम की श्रेष्ठता बिना जहाज महार्णव को पार नहीं कर सकता, वैसे ही जो सहस्सं सहस्साणं, मासे मासे गवं दए। निपुण ज्ञानी निर्यामक होने पर भी जीव रूप पोत, तपतस्सावि संजमो सेओ, अदितस्स वि किंचणं ॥ संयम रूप हवा के बिना सिद्धिस्थान को प्राप्त नहीं कर (उ ९।४०) सकता । Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयमी की जीवन शैली ६५९ संयम ६. मन-वचन-शरीर संयम के परिणाम जो संयमपूर्वक चलता है, खड़ा होता है, बैठता है, सोता है, खाता है और बोलता है, उसके पापकर्म का बंध मणसमाहारणयाए णं एगग्गं जणयइ, जणइत्ता नाणपज्जवे जणयइ, जणइत्ता सम्मत्तं विसोहेइ मिच्छत्तं च नहा हाता। निज्जरेइ। (उ २९।५७) गमन विधि (द्र. समिति) मन-समाधारणा--मन को आगम-कथित भावो में भाषा-विवेक (द्र. भाषासमिति) भली-भांति लगाने से जीव एकाग्रता को प्राप्त होता है। आहार-विवेक (द्र. आहार) एकाग्रता को प्राप्त होकर ज्ञान-पर्यवों-ज्ञान के विविध अजयं चरमाणो उ पाणभूयाइं हिंसई । आयामों को प्राप्त होता है । ज्ञान-पर्यवों को प्राप्त कर बंधई पावयं कम्म, तं से होइ कड़यं फलं ।। सम्यक् दर्शन को विशुद्ध और मिथ्यात्व को क्षीण करता अजयं चिटुमाणो......"आसमाणो..... सयमाणो...''भुंजमाणो" भासमाणो।। वइसमाहारणयाए णं वइसाहारणदंसणपज्जवे (द ४ गाथा १-६) विसोहेइ, विसोहेत्ता सुलहबोहियत्तं निव्वत्तेइ दुल्लहबो जो असंयमपूर्वक चलता है, खडा होता है, बैठता है, हियत्तं निज्जरेइ । (उ २९।५८) सोता है, भोजन करता है, बोलता है, वह त्रस और वाक-समाधारणा-वाणी को स्वाध्याय में भली स्थावर जीवों की हिंसा करता है, उसके पाप कर्म का भांति लगाने से जीव वाणी के विषयभूत दर्शन-पर्यवों-- बंध होता है। वह उसके लिए कटु फल वाला होता है। सम्यक् -दर्शन के विविध आयामों को विशुद्ध करता है। दशन पर्यवों को विशुद्ध कर वह बोधि की सुलभता को संयमरमण : सुरसुख प्राप्त होता है और बोधि की दुर्लभता को क्षीण करता देवलोगसमाणो उ परियाओ महेसिणं । रयाणं अरयाणं तु महानिरयसारिसो॥ कायसमाहारणयाए णं चरित्तपज्जवे विसोहेइ. अमरोवमं जाणिय सोक्खमुत्तमं विसोहेत्ता अहक्खायचरित्तं विसोहेइ, विसोहेत्ता चत्तारि रयाण परियाए तहारयाणं । केवलिकम्मंसे खवेइ । तओ पच्छा सिझइ बुज्झइ मुच्चइ निरओवमं जाणिय दुक्खमुत्तमं परिनिव्वाएइ सव्वदुक्खाणमंतं करेइ । (उ २९।५९) रमेज्ज तम्हा परियाय पंडिए । ___ काय-समाधारणा-संयमयोगों में काय को भलीभांति (दचूला १।१०, ११) लगाने से जीव चारित्र-पर्यवों-चारित्र के विविध संयम में रत महर्षियों के लिए मुनि-पर्याय देवलोक आयामों को विशुद्ध करता है । चारित्र-पर्यवों को विशुद्ध । के समान सुखद होता है और जो संयम में रत नहीं होते कर यथाख्यात चारित्र (वीतराग भाव) को प्राप्त करने उनके लिए मुनि-पर्याय महानरक के समान दुःखद होता के योग्य विशुद्धि करता है। यथाख्यात चारित्र को विशुद्ध कर है। केवलि-सत्क (के वली के विद्यमान) चार कर्मों-वेदनीय, संयम में रत मुनियों का सुख देवों के समान उत्कृष्ट आयुष्य, नाम और गोत्र को क्षीण करता है। उसके जानकर तथा संयम में रत न रहने वाले मुनियों का दुःख पश्चात् सिद्ध होता है, प्रशांत होता है, मुक्त होता है, नरक के समान उत्कृष्ट जानकर पण्डित मूनि संयम में परिनिर्वृत होता है और सब दुःखों का अन्त करता है। ही रमण करे। ७. संयमी की जीवन शैली (एक मास की संयम पर्याय वाला मूनि व्यंतर देवों जयं चरे जयं चिठे, जयमासे जयं सए । की तेजोलेश्या का अतिक्रमण कर देता है।""बारह मास जयं भुजतो भासंतो, पावं कम्मं न बंधई ।। की संयम पर्याय वाला मुनि अनुत्तर देवों की तेजोलेश्या (द ४ गाथा ८) का अतिक्रमण कर देता है। देखें-- भगवई १४।१३६) Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संलेखना संलेखना --- शरीर और कषाय का कृशीकरण | अनशन की प्रारंभिक साधना । १ द्रव्य भाव संलेखना २. संलेखना कब ? ३. संलेखना का क्रम ४. संलेखना के अतिचार * संलेखना : अनशन १. द्रव्य-भाव संलेखना संलेखनं द्रव्यतः शरीरस्य भावतः कषायाणां कृश( उशावृ प ७०६ ) तापादनम् । शरीर को कृश करना द्रव्य संलेखना है । कषाय को कृश करना भाव संलेखना है । २. संलेखना कब ? लाभंतरे जीविय वूहइत्ता । पच्छा परिन्नाय मलावधंसी ॥ .... ( उ ४/७ ) लाभ:- अपूर्वार्थप्राप्तिः अन्तरं - विशेष : यावद्विशिष्ट विशिष्टतरसम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्रावाप्तिरित: सम्भवति तावदिदं जीवितं अन्नपानोपयोगादिना वृद्धि नीत्वा लाभविशेषप्राप्त्युत्तरकालं सर्वप्रकारैरवबुध्य यथेदं नेदानीं प्राग्वत्सम्यग्दर्शनादिविशेषहेतुः तथा च नातो निर्जरा, न हि जरया व्याधिना वा अभिभूतं तत् तथाविधधर्माधानं प्रति समर्थम् एवं ज्ञपरिज्ञया परिज्ञाय ततः प्रत्याख्यानपरिज्ञया च भक्तं प्रत्याख्याय, सर्वथा जीवितनिरपेक्षो भूत्वा मलविनाशकृत् "" 'संलेखनादिविधानतस्त्यजेत् । ( उशावृप २१७, २१८ ) जब तक अपूर्व विशिष्ट विशिष्टतर ज्ञान, दर्शन और चारित्र के गुणों की उपलब्धि हो, तब तक अन्नपान आदि के द्वारा इस जीवन को पोषण दे और जब बह उपलब्धि न हो तब साधक सब प्रकार से यह जान ले कि अब यह शरीर पूर्व की भांति ज्ञान, दर्शन और चारित्र के गुणों की विशिष्ट प्राप्ति करने में असमर्थ है, इससे निर्जरा नहीं हो रही है, यह बुढापे और रोग से आक्रांत है, अतः अब धर्माराधना करने में भी समर्थ नहीं है । इस प्रकार ज्ञपरिज्ञा से जानकर प्रत्याख्यानपरिज्ञा से बहार का परित्याग कर शरीर से सर्वथा निरपेक्ष हो ६६० संलेखना का क्रम जाये और विधिपूर्वक संलेखना का आचरण कर अंत में यावज्जीवन अनशन द्वारा शरीर का त्याग करे । मुनि मरणकाल प्राप्त होने पर संलेखना के द्वारा ( द्र. अनशन) शरीर का त्याग करता है । भक्त-परिज्ञा, इङ्गिनी और प्रायोपगमन - इन तीनों में से किसी एक अनशन को स्वीकार कर सकाम मरण से मरता है । अह कालंमि संपत्ते, आघायाय समस्ये । सकाममरणं मरई, तिहमन्नयरं मुणी ॥ (उ ५।३२) कदा च मरणमभिप्रेतम् ? यदा योगा नोत्सर्पन्ति । "समुच्छ्रयम् — अन्तः कार्मणशरीरं बहिरीदारिकम् । ( उशावृ प २५४ ) जब मानसिक, वाचिक और कायिक योगों से नये विकास की संभावना क्षीण हो जाये, तब संलेखना - अनशन करना चाहिए । इस उपक्रम से कार्मण शरीर और औदारिक शरीर दोनों क्षीण होते हैं । अहवा ण कुज्जाहारं, छहि ठाणेहिं संजए । पच्छा पच्छिमकालंमि, काउं अप्पक्खमं खमं ॥ (पिनि ६६५ ) आहार न करने के छह कारणों में अंतिम कारण है- शरीर त्याग । आदि दायित्व-निर्वहन कर आत्मविहारी मुनि जीवन के शिष्य - निर्माण, धर्मप्रचार हेतु सुदूर क्षेत्रों की यात्रा सन्ध्याकाल में संलेखना करते हैं। संलेखना द्वारा शरीर को कृश कर अनशन की अर्हता प्राप्त कर वे यावज्जीवन के लिए आहार का परित्याग कर शरीर का व्युत्सर्ग कर देते हैं । ३. संलेखना का क्रम बारसेव उ वासाई, संलेहुक्कोसिया भवे । संवच्छरं मज्भिमिया, छम्मासा य जहन्निया ॥ पढमे वासच उक्कम्मि, विगईनिज्जूहणं करे । fare arearrafo, विचित्तं तु तवं चरे ॥ एगंतरमायामं, कट्टु संवच्छरे दुवे | तओ संवच्छरद्धं तु, नाइविगिट्ठ तवं चरे ॥ Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संलेखना के अतिचार तओ संवच्छरद्धं तु विगिट्ठे तु परिमियं चेव आयामं, तंमि संवच्छरे कोडीस हिमायाम, कट्टु संवच्छरे मुणी | मासद्ध मासिएणं तु, आहारेण तवं चरे ॥ ( उ ३६।२५१-२५५) तवं चरे । करे ॥ ( प्रवचनसारोद्धार के अनुसार प्रथम चार वर्षों में विचित्र तप किया जाता है और उसके पारण में यथेष्ट भोजन किया जाता है। दूसरे चार वर्षों में विचित्र तप किया जाता है, किन्तु पारण में विकृति का त्याग किया जाता है। ६६१ इसे समणोवासएणं इमे पंच अइयारा जाणियव्वा, तं जहा - इहलोगासंसप्पओगे परलोगासंसप्पओगे जीवियासंसओगे मरणासंसप्पओगे कामभोगासंसप्पओगे । ( आव परि पृ २३ ) संलेखना उत्कृष्टत: बारह वर्ष, मध्यमतः एक वर्ष तथा जघन्यतः छह मास की होती है। संलेखना करने वाला मुनि पहले चार वर्षों में विकृतियों (रसों) का परित्याग करे । दूसरे चार वर्षों में विचित्र तप ( उपवास, बेला, तेला आदि) का आचरण करे। फिर दो वर्षों तक एकान्तर तप ( एक दिन उपवास तथा एक दिन भोजन ) करे । भोजन के दिन आचाम्ल करे । ग्यारहवें वर्ष के पहले छह महीनों तक कोई भी विकृष्ट तप (तेला, चोला आदि) न करे । ग्यारहवें वर्ष के पिछले छह महीनों में विकृष्ट तप करे । इस पूरे वर्ष में परिमित (पारणा के दिन) आचाम्ल करे । बारहवें वर्ष में मुनि कोटि सहित संसार भावना-संसार की नाना परिणतियों का ( निरन्तर ) आचाम्ल करे । फिर पक्ष चिन्तन | ( द्र. अनुप्रेक्षा ) आहारत्याग ( अनशन) करे । संस्थान आकृति, शरीर के अवयवों अथवा परमाणु - पुद्गलों की रचना । संवर भावना - आश्रवों का निरोध करने वाले अनुप्रेक्षा । (द्र. अनुप्रेक्षा ) या मास का अनुसार बारहवें निशीथचूर्णि (भाग ३ पृ २९४) के वर्ष में क्रमश: आहार की इस प्रकार कमी की जाती है, जिससे आहार और आयु एक साथ ही समाप्त हों। उस वर्ष के अंतिम चार महीनों में मुंह में तेल भरकर रखा जाता है। उसका प्रयोजन है— मुखयंत्र नमस्कारमंत्र आदि का उच्चारण करने में असमर्थं न हो । ४. संलेखना के अतिचार आचाम्ल, छह प्रकार के बाह्य तप, भिक्षुप्रतिमाये सब शरीरसंलेखना के साधन हैं। संलेखना के लिए वही तप स्वीकार करना चाहिए, जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और शरीरधातु के अनुकूल हो । देखें - उत्तरज्झयणाणि ३०।१३ का टिप्पण) अपच्छिमा मारणंतिया संलेहणाभूषणा राहणया । अंतिम समय में की जाने वाली तपस्या और अनशन की आराधना का नाम है-मारणांतिक संलेखना व्रत । इसके पांच अतिचार हैं संस्थान १. इहलोक संबन्धी सुखों की अभिलाषा । २. परलोक संबन्धी सुखों की अभिलाषा । ३. जीने की आकांक्षा । ४. मरने की आकांक्षा । ५. काम भोग की आकांक्षा । १. शरीर के संस्थान * संस्थान : नाम कर्म की प्रकृति * संस्थान प्रकृति का क्षय * यौगलिकों के संस्थान * अवधिज्ञान, इन्द्रिय और सिद्धों का संस्थान हंडे । ( ब्र. कर्म) ( ब्र. गुणस्थान) (द्र. मनुष्य) * संस्थान और सामायिक प्राप्ति २. वृषभ संस्थान वाली वसति ३. पौद्गलिक संस्थान ४. संस्थानों के प्रकार ५. संस्थानसंरचना: परमाणुओं का इतरेतर संयोग ( ब्र. संबद्ध नाम ) (द्र. सामायिक) १. शरीर के संस्थान ... समचउरंसे नग्गोहपरिमंडले साई खुडजे वामण ( अनु २३५) समाः - शास्त्रोक्तलक्षणाविसंवादिन्यश्चतुर्दिग्वर्तिनः अवयवरूपाश्चतस्रोऽस्रयो यत्र तत् समचतुरस्रं संस्थानं, Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्थान संस्थान के प्रकार तुल्यारोहपरिणाहः सम्पूर्णलक्षणोपेताङ्गोपाङ्गावयवः पताका संस्थान से संस्थित हैं। विकलेन्द्रिय, नैरयिक, स्वङगूलाष्टाधिकशतोच्छयः सर्वसंस्थानप्रधानः पञ्चेन्द्रिय- सम्मूच्छिम तियंच, सम्मूच्छिम मनुष्य-इनके हण्ड जीवशरीराकारविशेषः । नाभेरुपरि न्यग्रोधवन्मण्डल- संस्थान होता है। शेष पंचेन्द्रिय तिथंच और मनुष्य छहों माद्यसंस्थानलक्षणयुक्तत्वेन विशिष्टाकारं न्यग्रोधमण्डलं, संस्थान वाले होते हैं। देवों का संस्थान समचतुरस्र होता न्यग्रोधो-- वटवृक्षः, यथा चायमुपरि वृत्ताकारतादिगुणोपेत- है। देखें-पण्णवणा पद २१) । त्वेन विशिष्टाकारो भवत्यधस्तू न तथा एवमेतदपीति २. वृषभ संस्थान वाली वसति भावः । सह आदिना नाभेरधस्तनकायलक्षणेन वर्तते सादि। ......"यत्र पाणिपादशिरोग्रीवं समग्रलक्षणपरिपूर्ण शेषं तु सिंगक्खोडे कलहो ठाणं पूण नेव होइ चलणेसुं । हृदयोदरपृष्ठलक्षणं कोष्ठं लक्षणहीनं तत् कुन्जम् । यत्र तु अहिठाणि पोट्टरोगो पुच्छंमि अ फेडणं जाण ।। हृदयोदरपृष्ठं सर्वलक्षणोपेतं शेषं तु हीनलक्षणं तद्वामनं, (ओभा ७६) कुब्जविपरीतमित्यर्थः । यत्र सर्वेऽप्यवयवाः प्रायो लक्षण • वृषभ रूप क्षेत्र के श्रृंगप्रदेश में वसति (प्रवास विसंवादिन एव भवन्ति तत्संस्थानं हुण्डम् ।। स्थल) होने से कलह होता है । (अनुमवृ प ९३) ० पादप्रदेश में वसति होने से अवस्थिति नहीं संस्थान के छह प्रकार हैं होती। समचतुरस्र-जिसमें चारों कोण समान होते हैं, • अपानप्रदेश में वसति होने से उदर रोग होते शरीर की ऊंचाई और चौड़ाई समान होती है, सम्पूर्ण अवयव प्रमाणोपेत होते हैं, ऊंचाई आत्मांगुल से १०८ ० पुच्छ प्रदेश में होने से वसति छीन ली जाती है । अंगुल होती है, वह समचतुरस्र संस्थान कहलाता है । यह ० मुख प्रदेश पर होने से पर्याप्त आहार की प्राप्ति केवल पंचेन्द्रिय जीवों के होता है। होती है। ___ न्यग्रोधपरिमंडल --न्यग्रोध (वटवृक्ष) की तरह। , • शिर (शृङ्ग मध्य) और ककुद भाग में होने से जिसमें नाभि से ऊपर के अवयव प्रमाणोपेत होते हैं और पूजा-सत्कार होता है। नाभि से नीचे के अवयव प्रमाणोपेत नहीं होते, वह ० स्कन्ध और पृष्ठ प्रदेश पर होने से वसति समागत न्यग्रोधपरिमंडल संस्थान है। साधुओं से समाकीर्ण रहती है। सादि-जिसमें नाभि से नीचे का भाग लक्षण युक्त ० उदर प्रदेश में होने से तृप्ति मिलती है । हो, वह सादि संस्थान है। (वाम पार्श्व में पूर्वाभिमुख उपविष्ट वृषभ रूप क्षेत्र कुब्ज-जिसके हाथ, पैर, सिर और ग्रीवा लक्षण- की कल्पना के आधार पर उपर्युक्त कथन है।) युक्त हों, हृदय, उदर और पीठ लक्षणहीन हों, पीठ ३. पौद्गलिक संस्थान पर पुद्गलों का अधिक संचय हो, वह कुब्ज संस्थान है। वामन–जिसमें हृदय, उदर और पीठ लक्षणयुक्त संतिष्ठतेऽनेन रूपेण पुद्गलात्मकं वस्त्विति संस्थानम् ----आकारविशेषः ।""संतिष्ठन्त एभिस्कन्धादय इति हों, शेष अवयव लक्षणहीन हों, वह वामन संस्थान है। संस्थानानि । (उसुवृ प २६, ६७७) हुण्ड-जिसमें सब लक्षण विसंवादी होते हैं, शरीर पौद्गलिक वस्तुओं अथवा पुद्गलस्कन्धों के जो के सब अवयव प्रायः प्रमाणहीन और असंस्थित होते हैं, विविध आकार हैं, वे संस्थान कहलाते हैं । बह हुण्ड संस्थान है। (आहारक शरीर का संस्थान समचतुरस्र तथा ४. संस्थान के प्रकार औदारिक आदि शरीरों का संस्थान नाना प्रकार का इत्थमित्थं तिष्ठति इत्थंस्थं, न तथा अनित्थंस्थम, होता है। अनेन नियतपरिमण्डलाद्यन्यतराकारं संस्थानं शेषोऽनियतातेजस्काय सूचीकलाप संस्थान से तथा वायुकाय ऽऽकारस्तु स्कन्धः । (उशावृ प २७) Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्थान संरचना" संस्थान संस्थान के दो प्रकार हैं १. ओजःप्रदेश प्रतरवृत्त ३. ओजःप्रदेश घनवृत्त १. इत्थंस्थ-परिमण्डल आदि नियत आकार । २. युग्मप्रदेश प्रतरवृत्त ४. युग्मप्रदेश घनवृत्त । २. अनित्थंस्थ-अनियत आकार । परिमण्डलादि प्रत्येक जघन्यमत्कृष्टं च, तत्रोत्कृष्टं संठाणपरिणया जे उ, पंचहा ते पकित्तिया । सर्वमनन्ताणुनिष्पन्नमसंख्यप्रदेशावगाढं चेत्येकरूपतयापरिमण्डला य वट्टा, तंसा चउरंसमायया ॥ अनुक्तमपि सम्प्रदायाज्ज्ञातुं शक्यमिति तदुपेक्ष्य जघन्यं तु (उ ३६।२१) प्रतिभेदमन्यान्यरूपतया न तथेति तदुपदर्शनार्थमाहपरिमण्डलं-बहिर्वृत्ततावस्थितप्रदेशजनितमन्तः पंचग बारसगं खलू सत्तग बत्तीसगं तु वटॅमि । शुषिरः यथा वलयस्य । वृत्तं तदेवान्तःशुषिरविरहितं तिय छक्कग पणतीसा चत्तारि य हंति तंसंमि ।। यथा कुलालचक्रस्य । व्यस्रं-त्रिकोणं, यथा शङ्गाटकस्य । नव चेव तहा चउरो सत्तावीसा य अट्र चउरंसे । चतुरस्रं -चतुष्कोणं, यथा कुम्भिकायाः । आयतं-दीर्घ, तिगद्गपन्नरसेवि य छच्चेव य आयए हंति ।। यथा दण्डस्य। (उशावृ प २७) पणयालीसा बारस छब्भेया आययंमि संठाणे । पौद्गलिक संस्थान के पांच प्रकार हैं वीसा चत्तालीसा परिमंडलि हंति संठाणे ।। १. परिमण्डल-वलय की तरह बाहर से गोल और भीतर से शुषिर। __इत्थं चैषां प्ररूपणमितोऽपि न्यूनदेशतायां यथोक्त संस्थानासम्भवात्, न चैतान्यतीन्द्रियत्वेनातिशायिगम्यत्वात् २. वृत्त-कुलालचक्र की तरह बाहर से गोल तथा __अन्दर से पोलाल रहित । सर्वथाऽनुभवमारोपयितुं शक्यन्ते, स्थापनादिद्वारेण च ३. त्यस्र-सिंघाड़े की तरह त्रिकोण । कथञ्चिच्छक्यानीति तथैव दशितानि । ४. चतुरस्र-कुम्भिका की तरह चतुष्कोण । (उनि ३९-४१ शावृ प २७-२९) ५. आयत-दण्ड की तरह दीर्ष । परिमण्डल आदि पांचों संस्थान जघन्य और उत्कृष्ट परिमंडलसंठाणे, भइए से उ वण्णओ । -दोनों प्रकार के होते हैं । जो उत्कृष्ट हैं, वे सब अनंत गंधओ रसओ चेव, भइए फासओ वि य॥ अणुनिष्पन्न और असंख्य प्रदेशावगाढ होने से एक रूप हैं, ( 361४) अतः परम्परा से जाने जा सकते हैं । जो पुद्गल संस्थान से परिमण्डल है, (वत्त, त्रिकोण, जघन्य परिमंडल आदि संस्थानों के भेदों में एकचतुष्कोण अथवा आयत है) वह वर्ण, गन्ध, रस और रूपता नहीं है। प्रत्येक भेद की भिन्नता इस प्रकार उपस्पर्श से भाज्य होता है। दशित है५. संस्थानसंरचना : परमाणओं का इतरेतर वृत्त संस्थान संयोग १. ओजःप्रदेश प्रतरवृत्त-यह पांच अणुओं से निष्पन्न, परिमंडले य वट्टे तंसे चउरंसमायए चेव । पांच आकाशप्रदेशों में अवगाढ होता है-एक अणु घणपयर पढमवज्जं ओयपएसे य जुम्मे य ।। मध्य में और चार अणु चार दिशाओं में स्थापित (उनि ३८) किये जाते हैं। परिमण्डल, वृत्त, व्यस्र, चतुरस्र और आयत-इन २. युग्मप्रदेश प्रतरवृत्त-यह बारह अणुओं से निष्पन्न पांच संस्थानों के दो-दो प्रकार हैं-प्रतर और घन। और बारह आकाशप्रदेशों में अवगाढ होता है-चार प्रतर और धन के दो-दो प्रकार हैं प्रदेशों पर मध्य में निरन्तर चार अणु और उसके ओजःप्रदेश (विषम संख्यक परमाणु) और युग्म- परिक्षेप में आठ अणु स्थापित किये जाते हैं। प्रदेश (समसंख्यक परमाणु)। ३. ओजःप्रदेश धनवृत्त-यह सात अणुओं से निष्पन्न परिमण्डल समसंख्यक अणुओ में ही होता है, अतः और सात प्रदेशों में अवगाढ होता है--पांच अणुओं परिमण्डल वजित वत्त आदि के चार-चार भेद होते हैं, वाले प्रतरवृत्त के मध्य स्थित अणु के ऊपर और जैसे नीचे एक-एक अणु की स्थापना । Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्थान ४. युग्मप्रदेश घनवृत्त बत्तीस अणु बत्तीस आकाशप्रदेशों में अवगाव - प्रतरवृत्तके बारह अणुओं पर अन्य बारह अणु और उनके ऊपर-नीचे चार-चार अणु स्थापित करने पर जघन्य युग्मप्रदेश घनवृत्त संस्थान बनता है । न्यत्र संस्थान १. ओजः प्रदेश प्रतरन्यत्र तीन अणुओं से निष्पन्न त्रिप्रदेशावगाढदो अणु तिर्यक् स्थापित कर प्रथम अणु के नीचे एक अणु स्थापित करने से यह संस्थान बनता है । २. युग्मप्रदेश प्रतरन्यत्र -छह अणुओं से निष्पन्न छह प्रदेशों में अवगाढ- तीन अणु तिर्यक् स्थापित कर प्रथम अणु के नीचे अधः ऊर्ध्व-भाव से दो अणु और द्वितीय अणु के नीचे एक अणु स्थापित करने से यह संस्थान बनता है। ६६४ २. ओजः प्रदेश घनश्यत्र पचीस अणु पचीस आकाशप्रदेशों में अवगाढ- पांच अणु तिर्यक् स्थापित कर उनके नीचे-नीचे क्रमशः चार, तीन, दो और एक अणु की तिर्यक् स्थापना और इस प्रतर के ऊपर सब पंक्तियों के अन्तिम अन्तिम अणु का परिहार कर शेष दस अणुओं की स्थापना, उसी प्रकार उनके ऊपर-ऊपर छह, तीन और एक अणु की क्रमशः स्थापना करने से यह संस्थान बनता है। - ४. युग्मप्रदेश घनव्यस्र-वार अणु चार आकाशप्रदेशों में अवगाढ - तीन अणु वाले प्रतरत्र्यत्र के किसी एक अणु पर एक अन्य अणु स्थापित करने से यह संस्थान बनता है । चतुरस्र संस्थान १. ओजःप्रदेश प्रतरचतुरस्रनो अणु नौ आकाशप्रदेशों में अवगाढ- तीन-तीन अणु तीन पंक्तियों में तिर्यक् स्थापित करने से यह संस्थान बनता है। २. युग्मप्रदेश प्रतरचतुरस्र-चार अणु चार आकाशप्रदेशों में अवगाढ - दो-दो अणुओं की दो पंक्तियों में तिर्यक् स्थापना | ३. ओजः प्रदेश घनचतुरस्र - सत्ताईस अणु सत्ताईस आकाशप्रदेशों में अवगाढनो अणुओं वाले प्रतर परिमंडल संस्थान चतुरस्र के नीचे और ऊपर नौ-नौ अणुओं की तिर्यक् स्थापना । ४. युग्मप्रदेश धनचतुरस्र-आठ अणु आठ आकाश प्रदेशों में अवगाढ- चार अणु वाले प्रतरचतुरस्र के ऊपर चार अन्य अणुओं की स्थापना । आयत संस्थान १. ओजः प्रदेश श्रेणिआयत तीन अणु तीन आकाशप्रदेशों में अवगाढ तीन अणुओं की तिर्यक् स्थापना | - २. युग्मप्रदेश श्रेणिआयत दो अणु द्विप्रदेशावगाढदो अणुओं की तिर्यक् स्थापना । ३. ओजः प्रदेश प्रतरायत पन्द्रह अणु पन्द्रह प्रदेशों में अवगाढ- पांच-पांच अणुओं की तीन पंक्तियों में तिर्यक् स्थापना | ४. युग्मप्रदेश प्रतरायत छह अणु छह प्रदेशों में अवगाढ -- तीन-तीन अणुओं की दो पंक्तियों में तिर्यक् स्थापना | ५. ओज प्रदेश बनायत पैतालीस अणु पैंतालीस प्रदेशों में अवगाढ - पन्द्रह अणुओं वाले प्रतरायत के नीचे और ऊपर पन्द्रह - पन्द्रह अणुओं की तिर्यक् स्थापना । ६. युग्मप्रदेश बनायत - बारह अण् बारह प्रदेशों में अवगाढ -- छह अणुओं के प्रतरायत के ऊपर छह अणुओं की तिर्वक् स्थापना । -- परिमंडल संस्थान १. प्रतर परिमंडल बीस अणु बीस प्रदेशों में अवगाढ - पूर्व आदि चार दिशाओं में चार-चार और चार विदिशाओं में एक-एक अणु की स्थापना । २. घन परिमण्डल - चालीस अणु चालीस प्रदेशों में अवगाढ बीस अणुओं के प्रतर परिमण्डल पर अन्य बीस अणुओं की स्थापना । इस प्रकार इस प्ररूपण से फलित होता है कि यहां निर्दिष्ट संख्या से एक भी अणु कम हो तो यथेष्ट संस्थान निर्मित नहीं हो सकता । यद्यपि यह विषय अतिशायी अतीन्द्रिय ज्ञानियों द्वारा ही गम्य है, सामान्य ज्ञानी इसका सर्वधा अनुभव में आरोपण नहीं कर सकते, फिर भी स्थापना आदि के द्वारा जितना संभव हुआ है, उतना प्ररूपित किया गया है। Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्थान ओज: प्रदेश प्रतरत ० O ० O ० ० O ० ० ०|० ● ० १५ प्रदेश बड़ा खोज: प्रदेश घनवारत प्रदेश ० 0 ५ प्रदेश र प्रदेश • ०० २ प्रदेश ० ०० गाः प्रदेश श्रेष्यागत 0 o o ओज: प्रदेश प्रतर नुस ३ प्रदेश युग्म प्रदेश श्रेण्यात ६६५ परमाणुओं के संयोग से निर्मित संस्थानों की स्थापना युग्मप्रदेश उत ० 00 ०००० 0000 ०० ० ० O ० ० ४ प्रदेश O ० ० 010 ० 肥診 खोजाप्रदेश प्रतरन्यस्त ३ प्रदेश ० युग्मप्रदेश तर रस्त १० प्रदेश ० ओज: प्रदेश प्रतशयत O ० ३५ प्रदेश ० o ० ० O प्रतर परिमंडल ० ० o ० ० ० ० ० ० ०|०|०|० ० ० ५५ प्रदेश ० ० प्रदेश ० Q ० O छ प्रदेश ० २० प्रदेश o 0 युग्मप्रदेश प्रतरन्यस्त्र 0 ० ० ० ० ६ प्रदेश संस्थान ० १ प्रदेश ० ०० ० 00 ० युग्म प्रदेश प्रतरायत ६ प्रदेश Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संहनन संहनन संहनन-अस्थि-संरचना। वज्जरिसभणारायं पढमं बितियं च रिसभणारायं । णाराय अद्धणारायं कीलिया तह य छेवढें ॥ रिसभो उ होइ पट्टो वज्ज पुण कीलिया मुणेयव्वा । उभओ मक्कडबंधं णारायं तं वियाणाहि ॥ (आवहावृ १ पृ २२५) संहनन वजऋभनाराच Mir गि R ऋवभनाराच जाराच वज्जरिसभणारायं नाम वज्जबंधो वज्जवेढो वज्जकीलिया य, बितिए वेढओ णत्थि खीलिया, ततिए ण वेढओ णावि खीलिया, चउत्थं एगओ बद्धं, पंचम दुहओवि अबद्धं, छठें णवरं कोडीए मिलितं । (आवच १ पृ १२९,१३०) संहनन के छह प्रकार हैं१. वजऋषभनाराच-वज्र का अर्थ है कील, ऋषभ का अर्थ है वेष्टन और नाराच का अर्थ है मर्कटबन्ध (परस्पर गूंथी हुई आकृति)। जिस संहनन में अपनी माता की छाती से चिपके हुए मर्कटबन्दर के बच्चे की-सी आकृति वाली संधि की दोनों हड्डियां परस्पर गूंथी हुई हों, उन पर तीसरी हड्डी का परिवेष्टन हो और चौथी हड्डी की कील उन तीनों का भेदन करती हुई हो, ऐसी सुदढ़तम अस्थि-रचना को वज्रऋषभनाराच संहनन कहा जाता है। २. ऋषभनाराच-इसमें हड़ियों की आंटी और वेष्टन होते हैं, कील नहीं होती। ३. नाराच-इसमें केवल हड्डियों की आंटी होती है लेकिन वेष्टन और कील नहीं होते। ४. अर्धनाराच-इसमें हड्डी का एक छोर मर्कट बन्ध से बंधा हुआ होता है तथा दूसरा छोर कील से भेदा हुआ होता है। ५. कीलिका- इसमें हड्डियां केवल एक कील से जुड़ी हुई होती हैं, मर्कट-बन्ध आदि कुछ नहीं होते। ६. सेवातं-इसमें हड्डियां पर्यन्तभाग में एक-दूसरे से स्पर्श करती हुई-सी रहती हैं । संहतिः संहननमस्थिसंचयविशेषः । (विभामवृ २ पृ १६१) इह चेत्थम्भूतास्थिसञ्चयोपमितः शक्तिविशेषः संहननमुच्यते न त्वस्थिसञ्चय एव, देवानामस्थिरहितानामपि प्रथमसंहननयुक्तत्वात् । (आवहाव १ पृ २२५) संहनन का एक अर्थ है-अस्थि-संरचना। इसका अर्हताराच chudaliz कोलिका सेवा Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवसरण ६६७ समवसरण (द्र. दूसरा अर्थ है---अमुक-अमुक प्रकार के अस्थि-संचय से त्रिक में स्त्री-पुरुष दोनों हैं। दूसरे त्रिक में केवल स्त्रियां उपमित शक्ति-विशेष । देवों के शरीर में अस्थियां नहीं और तीसरे त्रिक में केवल पुरुष हैं। यह प्रथम परकोटे होतीं, किन्तु वे प्रथम संहननयुक्त होते हैं अर्थात् उनमें की अवस्थिति है। प्रथम संहनन जितनी शक्ति होती है। आयाहिण पुव्वमुहो तिदिसि पडिरूवगा उ देवकया। अर्धनाराच संहनन का विच्छेद जेट्ठगणी अण्णो वा दाहिणपुब्वे अदूरंमि ।। तित्थाइसेससंजय देवी वेमाणियाण समणीओ । अज्जवइरा..."तंमि य भगवंते अद्धनारायसंघयणं भवणव इवाणमंतर जोइसियाणं च देवीओ। दस पुव्वाणि य वोच्छिण्णा । भवणवई जोइसिया बोद्धव्वा वाणमंतरसुरा य । (आवहाव १ पृ २०२, २०३) ___ आर्य वज्र (वी०नि० की छठी शताब्दी) के पश्चात् वेमाणिया य मणुया पायाहिणं जं च निस्साए । दश पूर्वी की परम्परा तथा अर्धनाराच संहनन-ये दोनों (आवनि ५५६, ५५८, ५६०) तीर्थकर पूर्वाभिमख विराजमान होते हैं। शेष तीन विच्छिन्न हो गए। संहनन : नाम कर्म की प्रकृति (द्र. कर्म) दिशाओं में देवता तीर्थंकर के प्रतिरूपों का निर्माण संहनन प्रकृति का क्षय (द्र. गुणस्थान) करते हैं। तीर्थंकर के समीप दक्षिण-पूर्व दिशा में गणधर यौगलिकों का संहनन . मनष्य) बैठते हैं। उनके पीछे-पीछे क्रमशः केवली, मनःपर्यवज्ञानी. संहनन और सामायिक (द्र. सामायिक) अवधिज्ञानी, चौदहपूर्वी, ऋद्धिसम्पन्न मुनि तथा अन्य सब सकाममरण-संयमी का मरण । (द्र. मरण) मुनि बैठते हैं। उनके पीछे वैमानिक देवियां तथा सत्य-भाषा-भाषा का एक प्रकार। (द्र. भाषा) साध्वियां खड़ी रहती हैं। दक्षिण-पश्चिम दिशा में क्रमशः सत्य-महाव्रत-महाव्रत का एक प्रकार । भवनपति, ज्योतिष्क और व्यन्तर देवों की देवियां खड़ी रहती हैं । उत्तर-पश्चिम दिशा में भवनपति, ज्योतिष्क सत्य-व्रत-श्रावक का एक व्रत। (द्र. श्रावक) और व्यन्तर देव खड़े रहते हैं। उत्तर-पूर्व दिशा में समभिरूढ-पर्यायवाची शब्दों के भेद से अर्थ में वैमानिक देव, मनुष्य और महिलाएं खड़ी रहती हैं। . भेद करने वाला विचार। (द्र. नय) बिइयंमि होति तिरिया तइए पागारमंतरे जाणा । समय-काल का सर्वसूक्ष्म भाग । (द्र.काल) पागारजढे तिरियाऽवि होति पत्तेय मिस्सा वा॥ समयक्षेत्र-मनुष्यलोक । (द्र. लोक) (आवनि ५६३) दूसरे परकोटे में तिर्यंच (पशु-पक्षी) होते हैं। तीसरे समवसरण-तीर्थकरों की परिषद्, प्रवचनस्थल । परकोटे में यान-वाहन रहते हैं। परकोटे के बाहर तियंच बारह प्रकार की परिषद् भी होते हैं, मनुष्य और देव भी हो सकते हैं। एक्केक्कीय दिसाए तिगं तिगं होइ सन्निविट्ठ तु ।। प्राकार रचना आदिचरिमे विमिस्सा थीपुरिसा सेस पत्तेयं ॥ (आवनि ५६१) जत्थ अपुव्वोसरणं जत्थ व देवो महिड्ढिओ एइ । प्रत्येक दिशा में एक-एक त्रिक होता है वाउदयपुप्फवद्दलपागारतियं च अभिओगा ॥ १. दक्षिण-पूर्व में-साधु, वैमानिक देवियां और (आवनि ५४४) जिस क्षेत्र में अपूर्व अथवा भूतपूर्व समवसरण होता साध्वियां । २. दक्षिण-पश्चिम में भवनपति, ज्योतिष्क और है, वहां महद्धिक देव आते हैं। व्यन्तर देवों की देवियां। आभियोगिक देव धूलि आदि को साफ करने के लिए ३. उत्तर-पश्चिम में-भवनपति, ज्योतिष्क और व्यन्तर वहां वायु की विकुर्वणा करते हैं, भावी रेणु के संताप की देव। शांति के लिए जलवृष्टि एवं भूमी की विभूषा के लिए ४. उत्तर-पूर्व में-वैमानिक देव, मनुष्य और स्त्रियां। पुष्पवृष्टि करते हैं। फिर तीन प्राकारों की रचना करते बारह प्रकार की इस परिषद् में प्रथम और अन्तिम हैं। Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि ६६८ विनय-समाधि अब्भंतर मज्झ बहिं विमाणजोइभवणाहिवकया उ। समाधि का अर्थ है-चित्त की स्वस्थता, समाधान । पागारा तिण्णि भवे रयणे कणगे य रयए य॥ समाधि के दो प्रकार हैं (आवनि ५४९) द्रव्यसमाधि और भावसमाधि। द्रव्यसमाधि का वैमानिक देव भीतरी रत्नमय परकोटे की रचना अर्थ है-वे साधन जिनके उपयोग से शारीरिक स्वास्थ्य करते हैं। ज्योतिष्क देव मध्य में स्वर्णमय और भवनपति बना रहता है, जैसे-दूध और शर्करा। ये द्रव्य परस्पर देव बाहरी रजतमय परकोटे की रचना करते हैं। अविरोधी हैं और इनसे स्वास्थ्यलाभ होता है। चेइदुमपेढछंदयं च आसणछत्तं चामराओ य । भावसमाधि का अर्थ है-अनुपम स्वास्थ्य की उपजं चऽण्णं करणिज्जं करेंति तं वाणमंतरिया ।। लब्धि । यह है आध्यात्मिक स्वास्थ्य और इसके उपयोगी (आवनि ५५३) साधन हैं-ज्ञान, दर्शन आदि । समवसरण में भगवान के शरीर प्रमाण से बारह गुणा समाधि:-चित्तस्वास्थ्यं तत्प्रधाना योगा: शुभमनोऊंचा अशोक वृक्ष होता है । उसके नीचे रत्नमयपीठ होता वाक्कायव्यापाराः समाधियोगाः । यद्वा समाधिश्च शुभहै। उसके ऊपर देवछंदक होता है। उस पर सिंहासन और चित्तकाग्रता योगाश्च-पृथगेव प्रत्यूपेक्षणादयो व्यापारा: सिंहासन के ऊपर छत्र होते हैं । यक्षों के हाथ में चामर समाधियोगाः । (उशावृ प २९६) होते हैं और पद्म पर धर्मचक्र होता है। शेष करणीय समाधियोग के दो अर्थ हैंकार्यों की रचना व्यन्तर देव करते हैं। १. चित्त की स्वस्थता से युक्त मन, वचन और काया तित्थपणामं काउं कहेइ साहारणेण सद्देणं । की प्रवृत्ति। सव्वेसि सण्णीणं जोयणणीहारिणा भगवं ।। २. शुभचित्त की एकाग्रता से होने वाली प्रत्युपेक्षणा (आवनि ५६६) आदि प्रवृत्तियां। प्रवचन करने से पूर्व तीर्थकर तीर्थ को प्रणाम करते समाधानं समाधिः-परमार्थत आत्मनो हितं सुखं हैं (यह नियुक्तिकार की मान्यता है), फिर सर्वसामान्य स्वास्थ्यम् । (दहावृ प २५६) शब्दों में प्रवचन करते हैं। उनकी वाणी योजनव्यापी समाधि का अर्थ है-आत्मा का हित, सुख और होती है और उससे समवसरणस्थ सभी संज्ञी प्राणियों की स्वास्थ्य । जिज्ञासाएं शांत हो जाती है । यह भगवान् का अतिशय समाधि के प्रकार विशेष है। मणुए चउमण्णयरं तिरिए तिण्णि व दुवे व पडिवज्जे। चत्तारि विणयसमाहिद्वाणा पन्नत्ता, तंजहा-विनयजइ णत्थि नियमसो च्चिय सुरेसु सम्मत्तपडिवत्ती॥ समाही सुयसमाही तवसमाही आयारसमाही। (आवनि ५६५) (द ९।४। सूत्र ३) भगवान के समवसरण में मनुष्य चारों प्रकार की विनय-समाधि के चार प्रकार हैंसामायिक, तिथंच तीन अथवा दो प्रकार की सामायिक विनय-समाधि, श्रुत-समाधि, तप-समाधि और स्वीकार करते हैं। प्रथम समवसरण में यदि सामायिक ग्रहण आचार-समाधि । करने वाले मनुष्य और तिर्यञ्च नहीं होते हैं तो देवता विनय-समाधि निश्चित रूप से सम्यक्त्व सामायिक स्वीकार करते हैं। चउबिहा खलु विणयसमाही भवइ, तं जहासमवायांग-अंगप्रविष्ट आगम । (द्र. अंगप्रविष्ट) अणुसासिज्जंतो सुस्सूसइ, सम्म संपडिवज्जइ, वेयमाराहयइ, समाधि-समाधान । चैतसिक स्वास्थ्य । न य भवइ अत्तसंपग्गहिए। (द ९।४। सूत्र ४) समाधिः-चेतसः स्वास्थ्यम् । समाधानं समाधिः । विनय-समाधि के चार प्रकार हैं स च द्विधा-द्रव्यतो भावतश्च । द्रव्यसमाधिर्यदु- १. शिष्य आचार्य के अनुशासन को सुनना चाहता है। पयोगात्स्वास्थ्यं भवति । यथा वा पयःशर्करादिद्रव्याणां २. अनुशासन को सम्यग् रूप से स्वीकार करता है। परस्परमविरोधः । भावसमाधिस्तु ज्ञानादीनि, तदुपयोगा- ३. वेद (ज्ञान) की आराधना करता है अथवा अनुदेवानुपमस्वास्थ्ययोगात् । (उशावृ प ६६,५५०) शासन के अनुकूल आचरण कर आचार्य की वाणी Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि ६६९ समिति को सफल बनाता है। समिति—सम्यक् प्रवृत्ति । ४. आत्मोत्कर्ष नहीं करता। श्रुत-समाधि १. समिति की परिभाषा २. समिति के प्रकार चउव्विहा खलु सुयसमाही भवइ, तं जहा ३. ईर्या समिति १. सुयं मे भविस्सइ त्ति अज्झाइयव्वं भवइ । ईर्या के आलम्बन आदि २. एगग्गचित्तो भविस्सामि त्ति अज्झाइयध्वं भवइ । ० अविधि गमन का निषेध ३. अप्पाणं ठावइस्सामि त्ति अज्झाइयव्वं भवइ । * भिक्षागमन : विधि-निषेध (द्र. गोचरचर्या) ४. ठिओ परं ठावइस्सामित्ति अज्झाइयव्वं भवइ। * गमनमार्ग का निर्धारण (द्र. श्रमण) (द ९।४। सूत्र ५) ईसिमित : अहिंसक * भाषा समिति, एषणा समिति (इ. संबद्ध नाम) श्रुत-समाधि के चार प्रकार हैं ४. आदान-निक्षेप समिति १. मुझे श्रुत प्राप्त होगा, इसलिए अध्ययन करना ५. उत्सर्ग समिति चाहिए। . उत्सर्ग योग्य स्थण्डिल भूमि २. मैं एकाग्र-चित्त होऊंगा, इसलिए अध्ययन करना ० शव-परिष्ठापन विधि __ चाहिए। * आहार-जल परिष्ठापन विधि (द्र. आहार) ३. मैं आत्मा को धर्म में स्थापित करूंगा, इसलिए | ६. पांच समितियों के उदाहरण ___अध्ययन करना चाहिए। ७. समिति-गप्ति : प्रवचनमाता ४. मैं धर्म में स्थित होकर दूसरों को उसमें स्थापित ८. समिति के आठ प्रकार करूंगा, इसलिए अध्ययन करना चाहिए । ९. समिति और गप्ति : एक विमर्श तप-समाधि चउन्विहा खलु तवसमाही भवइ, तं जहा १. समिति की परिभाषा १. नो इहलोगट्ठयाए तवमहिछेज्जा। समिति :--सम्यक सर्ववित्प्रवचनानुसारितया इति:२. नो परलोगट्ठयाए तवमहिछेज्जा। आत्मन: चेष्टा समितिः तान्त्रिकी सञ्ज्ञा ईर्यादिचेष्टासु ३. नो कित्तिवण्णसद्दसिलोगट्टयाए तवमहिद्वैज्जा। पञ्चसु। (उशावृ प ५१४) ४. नन्नत्थ निज्जरट्ठयाए तवमहिद्वैज्जा। जिनप्रवचन के अनुरूप प्रवृत्ति करना समिति है। यह ६) जैन सिद्धान्त का पारिभाषिक शब्द है । तप-समाधि के चार प्रकार हैं जहा जलमज्झे गच्छमाणा अपरिस्सवा नावा जलकंतारं १. इहलोक (वर्तमान जीवन की भोगाभिलाषा) के वीईवयइ न य विणासं पावइ । "एवं साहूवि जीवाउले निमित्त तप नहीं करना चाहिए। लोगे गमणादीणि कुव्वमाणो संवरियासवदुवारत्तणेण २. परलोक (पारलौकिक भोगाभिलाषा) के निमित्त तप संसारजलकतारं वीयीवयइ । संवरियासवदुवारस्स न नहीं करना चाहिए। कुओवि भयमथि। (दजिचू पृ १५९) ३. कीति, वर्ण,शब्द और श्लोक के लिए तप नहीं करना जिस प्रकार निश्छिद्र नौका जल में तैरती हुई भी चाहिए। डबती नहीं और समुद्र के पार पहुंच जाती है, वैसे ही ४. निर्जरा के अतिरिक्त अन्य किसी भी उद्देश्य से तप इस जीवाकुल लोक में संयमपूर्वक गमन आदि करता हुआ नहीं करना चाहिए। संवृतात्मा भिक्षु संसार-समुद्र का पार पा लेता है। आचार-समाधि (द्र. आचार) जिसने आश्रवरूपी छिद्रों को बन्द कर दिया, उसको कहीं से भी भय नहीं है। Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समिति ६७० ईर्या समिति २. समिति के प्रकार ईर्या का आलम्बन है ज्ञान, दर्शन और चारित्र । पंचहिं समिईहिं--इरियासमिईए भासासमि ईए ईर्या का काल है-दिवस । एसणासमिईए आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिईए उच्चार ईर्या का मार्ग है-उत्पथ का वर्जन । पासवण-खेल-सिंघाण-जल्ल-पारिट्रावणियासमिईए । ईर्या की यतना है(आव ४८) ० द्रव्य से -देखते हुए चलना। समिति के पांच प्रकार ० क्षेत्र से-युगमात्र भूमि को देखते हुए चलना। ० काल से-जब तक चले तब तक देखते हुए ईर्या समिति-गमनागमन संबंधी अहिंसा का चलना। विवेक । • भाव से-गमन में दत्तचित्त रहना । भाषा समिति--भाषा सम्बन्धी अहिंसा का विवेक । इंदियत्थे विवज्जित्ता, सज्मायं चेव पंचहा । एषणा समिति-आहार, वस्त्र आदि के ग्रहण और तम्मुत्ती तप्पुरक्कारे, उवउत्ते इरियं रिए॥ उपयोग संबंधी अहिंसा का विवेक । आदान समिति-दैनिक व्यवहार में आनेवाले (उ २४८) इन्द्रियों के विषयों और पांच प्रकार के स्वाध्याय का पदार्थों के व्यवहरण संबंधी अहिंसा का विवेक । वर्जन कर, ईर्या में तन्मय हो, उसे प्रमुख बना, उपयोगउत्सर्ग समिति-उत्सर्ग सम्बन्धी अहिंसा का पूर्वक चले। विवेक । ईर्यायां मूर्तिः - शरीरमाद् व्याप्रियमाणा यस्यासो ३. ईर्या समिति तन्मूर्तिः तथा तामेव पुरस्करोति-तत्रैवोपयुक्ततया ईरणमीर्या-गतिपरिणामः । प्राधान्येनाङ्गीकुरुत इति तत्पुरस्कारः । अनेन काय (उशाव प ५१४) मनसोस्तत्परतोक्ता, वचसो हि तत्र व्यापार एव न गतिपरिणाम --गमन में सम्यक प्रवत्त होना ईर्या- समस्ति । एवमुपयुक्तः सन्नीया रीयेत यतिः ।। समिति है। (उशावृप ५१६) जयं नाम उवउत्तो जुगंतरदिट्ठी दट्टण तसे पाणे जिसका शरीर ईर्या में ही व्याप्त होता है, वह उद्धट्टपाए रीएज्जा। (दजिच १६०) तन्मूर्ति है । जो उसी में उपयुक्त हो जाता है-ईर्या को संयमपूर्वक चलने का अर्थ है-ईर्यासमिति में साव- ही प्रधान बनाकर चलता है, वह तत्पुरस्कार है। धान हो युगप्रमाण भूमि को देखते हुए चलना, मार्ग में काया और मन का ईर्या में ही लगे रहना गमन चींटी आदि स प्राणी आ जाए तो पैर को ऊंचा उठाकर की उपयुक्तता है। उसमें वचन का व्यापार ही नहीं (अन्यत्र रखकर) चलना। होता । इस प्रकार मुनि उपयुक्त होकर गमन करे । ईर्या के आलम्बन आदि अविधि-गमन का निषेध आलंबणेण कालेण, मग्गेण जयणाइ य । ओवायं विसमं खाणं, विज्जलं परिवज्जए। चउकारणपरिसुद्धं, संजए इरिय रिए । संकमेण न गच्छेज्जा, विज्जमाणे परक्कमे ।। तत्थ आलंबणं नाणं, दंसणं चरणं तहा । पवडते व से तत्थ, पक्खलंते व संजए । काले य दिवसे वुत्ते, मग्गे उप्पहवज्जिए । हिंसेज्ज पाणभूयाई, तसे अदुव थावरे ।। दवओ खेत्तओ चेव, कालओ भावओ तहा । (द ५११४,५) जयणा चउव्विहा वुत्ता, मुनि दूसरे मार्ग के होते हुए गड्ढे, उबड़-खाबड़ भूभाग, दब्वओ चक्खुसा पेहे, जूगमित्तं च खेत्तओ । कटे हुए सूखे पेड़ या अनाज के डंठल और पंकिल मार्ग कालओ जाव रीएज्जा, उवउत्ते य भावओ। को टाले तथा संक्रम (जल या गड्ढे को पार करने के (उ २४१४-७) लिए काष्ठ या पाषाणरचित पुल) के ऊपर से न जाये। संयमी मुनि आलम्बन, काल, मार्ग और यतना-इन वहां गिरने या लड़खड़ा जाने से वह संयमी त्रस चार कारणों से परिशुद्ध ईर्या (गति) से चले। अथवा स्थावर जीवों की हिंसा करता है। गिरने पर क०६ Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्सर्ग समिति हाथ, पैर आदि टूटने से आत्मविराधना होती है । त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा होने से संयम की विराधना होती है अतः मुनि ऐसे मार्ग का वर्जन करे । ईर्यासमित: अहिंसक उचालियम पाए ईरियासमियस्स संकमट्टाए । वावज्जेज्ज कुलिंगी मरिज्ज तं जोगमासज्ज || (ओनि ७४८) समित मुनि संक्रमण के लिए अपने पैर को ऊपर उठाता है, उस समय यदि कोई कुलिंगी - द्वीन्द्रिय आदि प्राणी पैर के नीचे आकर मर जाए तो उस निमित्त से उसके सूक्ष्म कर्मबन्ध भी नहीं होता, क्योंकि उसके मन, वाणी औरकाया का प्रयोग सर्वात्मना निरवद्य है - यह सिद्धान्त में प्रतिपादित है । भाषा समिति, एषणा समिति (द्र सम्बद्ध नाम ) ४. आदान-निक्षेप समिति ओहोवहोवग्गहियं, भंडगं दुविहं मुणी । गिण्हंतो निक्खिवंतो य, पउंजेज्ज इमं विहिं चक्खुसा पडिले हित्ता, पमज्जेज्ज जयं जई । आइए निक्खिवेज्जा वा, दुहओ वि समिए सया ॥ ( उ २४ । १३,१४) सदा सम्यक् प्रवृत्त यति ओघ उपधि और औपग्रहिक उपधि- दोनों प्रकार के उपकरणों का चक्षु से प्रतिलेखन ( निरीक्षण ) कर तथा रजोहरण आदि से प्रमार्जन कर संयमपूर्वक उनका आदान और निक्षेपण करे — उन्हें ले और रखे यह आदाननिक्षेप समिति है । उपधि का विवरण ( द्र. उपधि) उपधि की प्रतिलेखना विधि ( द्र. प्रतिलेखना) ५. उत्सगं समिति उच्चारं पासवणं खेलं सिंघाणजल्लियं । आहारं उवह देहं अन्नं वावि तहाविहं || ( उ २४ । १५) मुनि उच्चार, प्रस्रवण, श्लेष्म, नाक का मैल, मैल, आहार, उपधि, शरीर या उसी प्रकार की दूसरी कोई उत्सर्ग करने योग्य वस्तु का उपयुक्त स्थण्डिल में उत्सर्ग करे । समिति आगम्म पडिक्कतो अणुपेहे जाव चोद्दसवि पुव्वे । परिहाणि जा तिगाहा निद्दपमाओ जढो एवं ॥ (ओनि २०८ ) कायिकी का परिष्ठापन करके ईर्ष्यापथिकी प्रतिक्रमण करे, फिर यदि वह आनप्राणलब्धि से संपन्न हो तो चतुर्दश पूर्वो का अनुस्मरण करे। यदि ऐसा करने समर्थ न हो तो कम से कम तीन गाथाओं की अनुप्रेक्षा अवश्य करे । इससे निद्रा - प्रमाद का परिहार होता है । उत्सर्ग योग्य स्थण्डिल भूमि ६७१ अणावामसंलोए, अणावाए चेव होइ संलोए । आवायमसंलोए, आवाए चेव संलोए । अणावायमसंलोए परस्सऽणुवघाइए । समे अज्भुसिरे यावि अचिरकालकयंमि य । वित्थिष्णे दूरमोगाढे नासन्ने बिलवज्जिए । तसपाणबीयरहिए उच्चाराईणि वोसिरे ॥ (उ२४।१६-१८) स्थण्डिल चार प्रकार के होते हैं१. अनापात - असंलोक - जहां लोगों का न हो, वे दूर से भी न दीखते हों । २. अनापात -संलोक-जहां लोगों का आवागमन न हो, किन्तु वे दूर से दीखते हों । ३. आपात असंलोक - जहां लोगों का आवागमन हो किन्तु वे दूर से न दीखते हों । ४. आपात -संलोक - जहां लोगों का आवागमन भी हो और वे दूर से दीखते भी हों । जो स्थण्डिल अनापात असंलोक, पर के लिए अनुपघातकारी, सम, अशुषिर ( पोल या दरार रहित), कुछ समय पहले ही निर्जीव बना हुआ कम से कम एक हाथ विस्तृत तथा नीचे से चार अंगुल की निर्जीव परत वाला, गांव आदि से दूर, बिलरहित और त्रस प्राणी तथा बीजों से रहित हो उसमें उच्चार आदि का उत्सगं करे । आवागमन अचिरकालकृते च दाहादिना स्वल्पकाल निर्वर्तिते, चिरकालकृते हि पुनः संमूर्च्छन्त्येव पृथ्वीकायादयः । ( उशावृप ५१८ ) स्वल्पकाल के पूर्व दग्ध स्थान सर्वथा अचित्त ( जीव-रहित ) होते हैं । जो चिरकाल के दग्ध स्थान हैं, वहां पृथ्वीका आदि के जीव पुनः उत्पन्न हो जाते हैं । Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समिति ६७२ पांच समितियों के उदाहरण शवपरिष्ठापन विधि साधु के कालगत होते ही, जब तक कि वायू से सारा पडिलेहणा दिसा गंतए य काले दिया य राओ य।। शरीर अकड़ न जाए, उसके हाथ और पैरों को एकदम कुसपडिमा पाणगणियत्तणे य तणसीसउवगरणे ।। सीधे लम्बे फैला दें, मुंह खुला हो तो बंद कर उस पर उठाणणामगहणे पयाहिणे काउसग्गकरणे य । मुखवस्त्रिका बांध दें, पैरों और हाथों के अंगूठों को रस्सी खमणे य असज्झाए तत्तो अवलोयणे चेव ।। से बांध दें, मृतक के अक्षत देह में अंगूली के बीच के पर्व (आवनि १२७२,१२७३) का कुछ छेदन करें। कालगत मूनि की निर्हरण क्रियाविधि का सोलह साधु के शव को देखकर मुनि विषाद न करें। दष्टियों से विचार किया गया है आचार्य या गीतार्थ मुनि और इनके अभाव में अगीतार्थ प्रतिलेखना, दिशा, वस्त्र, काल, कुशप्रतिमा, पानक, मुनि जो इस मृतक-क्रियाविधि को जानता हो, वह विधि निवर्तन, तृण, शीर्ष, उपकरण, उत्थान, नामग्रहण, से शव का व्युत्सर्जन करे। स्थंडिलभूमि से उपाश्रय में प्रदक्षिणा, कायोत्सर्ग, क्षपण (तप), अस्वाध्याय और आकर आचार्य के पास कायोत्सर्ग करे। अवलोकन । कछेक का विवरण इस प्रकार है (विशेष विवरण के लिए देखें-आवचू २ पृ० १०२-तीन महास्थडिला (जहा मृतक का परिष्ठा- १०९ तथा ठाणं ६।३ का टिप्पण।) पित किया जाता है) का निरीक्षण आवश्यक आहार-जल परिष्ठापन विधि । (द्र. आहार) होता है-गांव के नजदीक, बीच में और ६. पांच समितियों के उदाहरण । गांव से दूर। इन तीनों की अपेक्षा इसलिए ५ है कि एक के अव्यवहार्य होने पर दूसरा एगो साहू ईरियासमिईए जुत्तो, सक्कस्स आसणं स्थंडिल काम में आ सके । चलितं, वंदति । मिच्छट्ठिी देवो आगतो, मच्छियप्पदिशा-पश्चिमदक्षिण दिशा में स्थंडिल का निरीक्षण माणाओ मंडक्कियाओ विउव्वति। पिट्रओ हत्थिभयं, करना चाहिए । यह समाधि में निमित्त बनता गति न भिंदति, हत्थिणा उक्खिवितुं पाडितो, न सरीरं पेहति, सत्ता मारिज्जिहित्ति जीवदयापरिणतो। वस्त्र-मृतक को ढाई हाथ लंबे श्वेत और सुगंधित वस्त्र भासासमितीए-एगो साह णगररोहगे भिक्खस्स से ढंकना चाहिये । उसके नीचे भी वैसा ही निग्गतो। कडगे हिंडतो पुच्छितो केवइया आसा हत्थी एक वस्त्र बिछाना चाहिये। फिर उसको उन एवमादि। भणति-न सुठ्ठ जाणामो"बह सूणेति वस्त्रों सहित एक डोरी से बांधकर, उस डोरी कण्णेहिं"। को ढंकने के लिए तीसरा अति उज्ज्वल वस्त्र एसणासमितीए-नंदीसेणो अणगारो""छट्रक्खमओ ऊपर डाल देना चाहिये। मलिन वस्त्रों से जातो, अभिग्गहं गेण्हति-वेयावच्चं मए कायव्वं.... ढंकने से प्रवचन की अवज्ञा होता है। तुरितं घेत्तूण पाणगं जातु । नंदिसेणो अपारितो चेव काल-जिस समय साधु कालगत हुआ हो, उसे उसी समय पाणगस्स गाम अतिगतो, भिक्खंतो हिंडतो देवाणभावेणं निकालना चाहिये, फिर चाहे दिन हो या न लभति, चिरस्स लद्धं"। रात। किन्तु रात्रि में हिम गिरता हो, अहवा इमं दिट्टिवातियं-पंच संजता""पाणगं हिंसक जानवरों आदि का भय हो, नगर के मग्गंति, अणेसणं लोगो करेति, न लद्धं, कालगता द्वार बंद हों, मृतक के संबंधियों ने रोकने के लिए कहा हो, मृतक मुनि आचार्य या विशिष्ट पंचवि। तपस्वी हो-इत्यादि कारणों से मुनि के शव दिट्ठिवाइगं-सेट्ठिसुतो पन्वइतो। सेहो पंचण्हं को रखना पड़े तो रात्रिजागरण करना संजतसताणं जो जो एति तस्स तस्स दंडगं गहाय ठवेति... चाहिये। निद्राजयी, उपायकुशल, धैर्यशाली, उवरि हेद्रा य पमज्जित्ता ठवेति । एवं बहएणवि कालेण शक्तिसम्पन्न और अभय मुनि शव के पास न परितम्मति । बैठकर धर्मकथा करें। दिट्ठिवाइगं......."चउव्वीसं उच्चारपासवणभूमीसु Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समिति के उदाहरण ६७३ समिति तिण्णि कालभूमीओ न पडिलेहेति । भणति - किमेत्थ का आगमन हुआ। नदीसेन उनके पास प्रवजित हो गया। उठो उवविसेज्ज? देवता उद्ररूवेण तत्थ ठिता"पडि- बेले-बेले की तपस्या करने लगा और यह अभिग्रह चोदितो कीस सत्तवीसं न पडिले हिसि ? सम्म पडि- धारण कर लिया कि वह वैयावृत्त्य में सदा व्याप्त वण्णो । एस पारिट्रावणियासमितित्ति । रहेगा । देवता ने परीक्षा करनी चाही। एक दिन नंदीसेन (आवच २ पृ ९३-९५) बेले का पारणा करने बैठा। इतने में ही देव-श्रमण ने १. ईर्या समिति कहा--तृषा से आकुल-व्याकुल एक मुनि अटवी में बैठा __ एक मुनि ईर्या में उपयुक्त होकर विहरण कर रहे थे। है । तत्काल कोई पानक की व्यवस्था हो । नंदीसेन उठा। इन्द्र ने देवसभा में उनके दृढ़ संकल्प की प्रशंसा की । एक पारणे को वहीं छोड़ गांव में पानक की गवेषणा करने देवता ने परीक्षा करने के निमित्त मूनि के मार्ग में गया। देवमाया से सभी घरों में पानक अनेषणीय था। मक्षिका प्रमाण मेंढकों की विकर्वणा की। सारा मार्ग एक स्थान पर पानक मिला। वह अटवी में गया । कोई मेंढकों से भर गया। मुनि अपने ईर्यापथ का शोधन करते मुनि दृष्टिगोचर नहीं हुआ, तब उसने जोर-जोर से बाल सोमानित हो गई। इतने मेंदी आवाज लगाई । प्रत्युत्तर मिला । उसने देखा मुनि अतिएक हाथी चिंघाड़ता हुआ पीछे से आता-सा प्रतीत हुआ। सार से पीड़ित हैं और जर्जरित हो गए हैं । नंदीसेन उन्हें मुनि ने अपनी गमन विधि में कोई अन्तर नहीं डाला। पीठ पर बिठाकर गांव की ओर चला । अतिसार से ग्रस्त हाथी आया। मुनि को संघट्रित किया। मुनि भूमि पर मुनि ने पीठ पर ही मल-मूत्र कर दिया। नंदीसेन गांव गिर पड़े । मूनि ने शरीर पर ध्यान नहीं दिया। उन्होंने की ओर त्वरा से चलने लगा। मुनि ने कहा- तेज गति मन ही मन सोचा-मेरे नीचे गिरने से कितने जीवों से मेरे वेदना होती है, धीरे चल । नंदीसेन अग्लानभाव से की घात हो गई ? उनका मन करुणा से ओतप्रोत हो समतापूर्वक मुनि को गांव की ओर ले जा रहा था । मनि गया। के समताभाव को देखकर, उसने अपना मूल देवरूप प्रगट २. भाषा समिति कर क्षमायाचना की। किसी शत्र राजा ने नगर को घेर लिया। बाहर पांच श्रमण साथ-साथ विहार कर रहे थे। अटवी छावनी के पास एक भिक्ष भिक्षा के लिए घूम रहा था। के दीर्घ मार्ग में वे भटक गए। भूख और प्यास से एक सुभट ने पूछा-यहां कितने घोड़े हैं ? कितने हाथी अत्यंत आकुल-व्याकुल होकर वे गतिमान थे। अटवी के हैं ? धान्य-भंडार कितने हैं ? राजा से रुष्ट और अरुष्ट बाहर निकलते ही वे बैताली गांव में पहुंचे और सबसे नागरिक कितने हैं ? तुम हमें बताओ। मुनि बोले- पहले पानक की एषणा करने लगे। वहां के लोगों ने हम तो निरंतर स्वाध्याययोग और ध्यानयोग में निरत अपने सभी घरों में पानक को अनेषणीय कर डाला। रहते हैं। पूरा दिन उसी में बीत जाता है। तब सुभट मुनियों को पानक नहीं मिला। पांचों दिवंगत हो बोला-क्या घूमते हुए कुछ नहीं देखते ? कुछ नहीं गए। सुनते ? यह कैसे संभव हो सकता है ? तब मुनि बोलाभगवान् ने हमें अनुशासना देते हुए कहा है ४. आदान-निक्षेप समिति ___साधु बहुत कुछ देखता है, सुनता है, पर उसका आचार्य के पास एक श्रेष्ठीपुत्र प्रवजित हुआ। वह यह विवेक है कि वह सब कुछ देखा हुआ या सुना हआ पांच सौ साधुओं के उस संघ में सबसे छोटा था। पांच दूसरों को न कहे।' सौ साधुओं में से कोई भी आता, वह शैक्ष मूनि उनके ३. एषणा समिति दंड को ग्रहण कर, भूमि का प्रमार्जन कर उसे रखता। ___मगध जनपद में सालिग्राम नाम के नगर में गृहपति इस प्रकार कोई मुनि आता और कोई बाहर जाता। का पुत्र नंदीसेन रहता था। जब वह गर्भ में था तब वह सभी के दंड लेकर व्यवस्थित रखता । यह ध्यानपूर्वक पिता का देहावसान हो गया और जब वह छह महीने का अचपल और अत्वरित होकर वह क्रिया विधिवत् करता। हुआ तब माता मृत्यु की ग्रास बन गई। मामा ने उसका बहुत समय बीत जाने पर भी वह परिक्लान्त नहीं हुआ। पालन-पोषण किया। एक बार वहां नंदीवर्धन अनगार यह आदान-निक्षेप समिति के प्रति उसकी जागरूकता थी। For Private & Personal' Use Only Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समिति ६७४ सम्मूच्छिम ५. उत्सर्ग समिति आगमानुसारी विधि से मार्ग-व्यवस्थापन और उच्चार-प्रस्रवण की चौबीस भूमियां और तीन काल उन्मार्ग-गमन निवारण करना गुप्ति है। सच्चेष्टात्मक होने भूमियां हैं । मुनि ने यह सोचकर कि क्या परिष्ठापनभूमी में से इसे समिति भी कहा गया है। ऊंट बैठे रहते हैं, उनका प्रतिलेखन नहीं किया। रात्री में समिति और गुप्ति परस्पर भिन्न भी है, अभिन्न प्रस्रवण की बाधा हुई, वह प्रथम भूमी में गया । वहां ऊंट भी है । समिति केवल प्रवृत्तिरूप है, गुप्ति प्रवृत्तिनिवृत्तिबैठा हुआ था। दूसरी और तीसरी भूमी में भी ऊंट बैठा रूप है। समिति में गुप्ति नियम से होती है। गुप्ति में हआ मिला । उसने तब ऊंट को वहां से उठाया। देव ने समिति होती भी है, नहीं भी होती। कुशल वचन बोलने प्रतिबोध होते हए कहा-अरे! तुम सत्ताईस भूमियों वाला वचनगुप्त भी है, समित भी है। की प्रतिलेखना क्यों नहीं करते ? मुनि को भूल का भान सच्चेष्टासु प्रवृत्तावेव समितयः, तथा गुप्तयो हुआ। निवर्त्तनेऽप्युक्ता अशोभनमनोयोगादिभ्यः, चरणप्रवर्त्तने च, उपलक्षणं चैतत् शुभार्थेभ्योऽपि निवृत्तेः, वाक्काययोनि७. समिति-गुप्ति : प्रवचनमाता व्यापारताया अपि गुप्तिरूपत्वात । उक्तं हि गन्धहस्तिना अपवयणमायाओ, समिई गुत्ती तहेव य । .--- सम्यगागमानुसारेणारक्तद्विष्टपरिणतिसहचरितमनोपंचेव य समिईओ, तओ गुत्तीओ आहिया ।। व्यापारः कायव्यापारो वाग्व्यापारश्च निर्व्यापारता वा (उ २४.१) वाक्काययोगप्तिरिति तदनेन व्यापाराव्यापारात्मिका पांच समितियां और तीन गुप्तियां-इन आठों को गुप्तिरुक्तेति । (उशावृ प ५१९,५२०) प्रवचनमाता कहा गया है। (द्र प्रवचनमाता) शुभ/सम्यक कार्यों में प्रवृत्ति करना समिति है। ८. समिति के आठ प्रकार अशुभ योगों से निवृत्ति गुप्ति है। गुप्ति प्रवर्तन और निवर्तन-व्यापार और निर्व्यापार दो रूप वाली है। इरियाभासेसणादाणे, उच्चारे समिई इय । योगों की अशुभ या शुभ प्रवृत्ति के निरोध को गुप्ति कहते मणगुत्ती वयगुत्ती, कायगुत्ती य अट्ठमा ।। एयाओ अट्ठ समिईओ, समासेण वियाहिया । ___ समिति का अर्थ है-शुभ योगों में प्रवृत्ति । गुप्ति के दुवालसंग जिणक्खायं, मायं जत्थ उ पवयणं ।। तीन रूप हैं-अशुभ योगों से निवत्ति, शुभ योगों में (उ २४।२,३) प्रवृत्ति तथा शुभ योगों से भी निवृत्ति (वचन और काय समिति के आठ प्रकार हैं योग का निर्व्यापार)। ईर्यासमिति, भाषासमिति, एषणासमिति, आदान- आचार्य गंधहस्ती के अनुसार गुप्ति के दो प्रकार समिति, उच्चारसमिति, मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और हैं -प्रवृत्त्यात्मक और अप्रवृत्त्यात्मक । आगम के अनुसार कायगुप्ति। इनमें जिन-भाषित द्वादशांगरूप प्रवचन राग-द्वेष रहित परिणाम से मानसिक, वाचिक और समाया हुआ है। कायिक प्रवृत्ति करना प्रवृत्त्यात्मक गुप्ति है तथा वाणी ६. समिति और गुप्ति : एक विमर्श और काया की अप्रवृत्ति अप्रवृत्त्यात्मक गुप्ति है। प्रवचन विधिना मार्गव्यवस्थापनमन्मार्गगमन निवारण गुप्ति के तीन प्रकार (द्र. गप्ति ) गुप्तिरिति वचनात्कथञ्चित्सच्चेष्टात्मकत्वात्समितिशब्द- सम्मूर्छिम-स्त्री और पुरुष के संयोग के बिना बाच्यत्वमस्तीत्येवमुपन्यासः, यत्तु भेदेनोपादानं तत्समितीनां ही लोकाकाश में बिखरे हुए परप्रवीचाररूपत्वेन गुप्तीनां प्रवीचाराप्रवीचारात्मकत्वेना माणुओं और विशिष्ट पर्यावरण के न्योऽन्यं कथञ्चिद् भेदात्, तथा चागमः-- योग से स्वतः उत्पन्न होने वाले जीव । समिओ णियमा गुत्तो गुत्तो समियत्तणंमि भइयव्यो । एकेन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय तक सभी कूसलवइमुदीरंतो जं वइगुत्तोऽवि समिओऽवि ।। जीव निश्चित रूप से सम्मूच्छिम (उशा प ५१४) होते हैं। तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय जीव दोनों Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक्त्व का निर्वचन ६७५ सम्यक्त्व प्रकार के होते हैं-सम्मूछिम तथा । १८. सम्यक्त्व से ज्ञान विशोधि गर्भज । सम्मूच्छिम मनुष्य मनुष्य के ० सम्यक्त्व और ज्ञान में भेद मल, मूत्र आदि चौदह अशुचि स्थानों | १९. सम्यक्त्व और चारित्र में उ २०. सम्यक्त्व (दर्शन) की महत्ता सम्यक्त्व - सम्यक् दृष्टिकोण । तत्त्व के प्रति | २१. सम्यक्त्व के परिणाम यथार्थ रुचि। * सम्यक्त्व : सामायिक का एक भेद * सम्यक्त्व के आकर्ष, विरहकाल, क्षेत्रस्पर्शना", १. सम्यक्त्व का निर्वचन (द्र. सामायिक) २. सम्यक्त्व का स्वरूप ० हाथी का दृष्टांत १. सम्यक्त्व का निर्वचन * प्रथिभेद और सम्यक्त्व की प्राप्ति (करण) जीवादिवस्तुबोधं प्रति समिति सम्यग् अवपरीत्येन, ३. सम्यक्त्व के पर्यायवाची अञ्चति प्रवर्तते इति सम्यक, तस्य भावः सम्यक्त्वम् । ४. सम्यक्त्व के प्रकार (विभामवृ १ पृ २४३) ५. औपशमिक सम्यक्त्व तत्त्वबोध के प्रति जो सम्यक् रूप से प्रवृत्त होता है, * प्रथम बार सम्यक्त्व प्राप्ति : तीन अभिमत वह सम्यक्त्व है। (उ.करण) | सम्यग् इति प्रशंसार्थः, दर्शनं दष्टिः सम्यगविपरीता ६. सास्वादन सम्यक्त्व दृष्टि: सम्यग्दृष्टि: ‘अर्थानां' इति गम्यते । ७. क्षायोपशमिक सम्यक्त्व (विभामवृ २ पृ १७५) • कोद्रव का दृष्टांत सम्यक् शब्द प्रशंसार्थक अव्यय है । पदार्थ के प्रति ० अनम्तानुबन्धी कषाय सम्यक्त्व का बाधक नहीं अविपरीत दृष्टि सम्यग्दृष्टि---- सम्यक्त्व है । * अनन्तानुबन्धी कषाय : सम्यक्त्व का अभिघात । २. सम्यक्त्व का स्वरूप (द्र. कषाय) तहियाणं तु भावाणं, सब्भावे उवएसणं । *क्षायोपशमिक सम्यक्त्व की स्थिति (द्र. सामायिक) भावेणं सद्दहंतस्स, सम्मत्तं तं वियाहियं ।। * क्षयोपशम भाव (द्र. भाव) (उ २८।१५) ८. वेदक सम्यक्त्व नौ तत्त्वों के सदभाव के निरूपण में जो अन्तःकरण ९. क्षायिक सम्यक्त्व से श्रद्धा करता है, उसके सम्यक्त्व होता है। ० अग्नि का दृष्टांत दश्यते तत्त्वमस्मिन्निति दर्शनम्। इदमपि सम्यग्रूप१०. सम्यक्त्व के प्रकार : अभिगम आदि ११. कारक-रोचक-दीपक सम्यक्त्व मेव दर्शनमोहनीयक्षयक्षयोपशमोपशमसमुत्पादितमहदभि - हित जीवादितत्त्वरुचिलक्षणात्मशुभभावरूपम् । १२. सम्यक्त्व के लक्षण ० संवेग के परिणाम (उशावृ प ५५६) ० निर्वेद के परिणाम जिसमें तत्त्व सही रूप में दृष्टिगत होते हैं, वह १३. सम्यक्त्व के आचार सम्यग् दर्शन है । इसकी उत्पत्ति का कारण है -- दर्शन___ * सम्यग दर्शन : आचार का एक भेद (द. आचार) | मोहनीय कर्म का क्षय, क्षयोपशम अथवा उपशम । इसका १४. सम्यक्त्व के अतिचार लक्षण है-अर्हतों द्वारा निरूपित जीव, अजीव आदि १५. सम्यक्त्व : आयुबन्ध और गति तत्त्वों में रुचि । १६. उत्कृष्ट आयुस्थिति में सम्यक्स्व-प्राप्ति मिच्छत्तमयसमूह सम्मत्तं जं च तदुवगारम्मि। १७. मिथ्यावृष्टि-सम्यगदष्टि की श्रद्धा में अन्तर वटइ परसिद्धंतो तो तस्स सओ ससिद्धंतो॥ * मिथ्यादृष्टि, सम्यग्-मिथ्यावृष्टि (व. गुणस्थान) (विभा ९५४) Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक्त्व औपशमिक सम्यक्त्व एकान्त क्षणिकत्व, एकान्त नित्यत्व आदि मिथ्यात्व है जिससे जीव आदि के स्वरूप का अवबोध होने पर भी मतों का समूह सम्यक्त्व है यदि वह 'स्यात्' पद से युक्त किसी-किसी को ही उसकी सम्यक् प्रतिपत्ति होती है, है। परसिद्धांत स्वसिद्धांत का उपकारी होता है, इसलिए सबको नहीं। के लिए वह स्वसिद्धांत ही है क्योंकि परसिद्धात ३. सम्यक्त्व के पर्यायवाची की व्यावृत्ति से स्वसिद्धांत की सिद्धि होती है, उसके सम्मद्दिट्रि अमोहो सोही सम्भावदसणं बोही। विसंवादी निरूपण को देख अपने सिद्धांत में स्थिरता होती अविवज्जओ सुदिदित्ति एवमाई निरुत्ताई ।। (आवनि ८६१) हाथों का दृष्टांत सम्यक्त्व के सात पर्यायवाची हैं - जमणेगधम्मणो वत्थुणो तदंसे च सव्वपडिवत्ती। १. सम्यग्दृष्टि -अविपरीत प्रशस्त दृष्टि । अंधव्व गयावयवे तो मिच्छद्दिट्ठिणो वीसु ।। २. अमोह-- अवितथ आग्रह । जं पुण सम्मत्तपज्जायवत्थुगमग त्ति समुदिया तेणं। ३. शोधि-मिथ्यात्व का अपनयन । सम्मत्तं चक्खुमओ सव्वगयावयवगहणे व्व । ४. सदभावदर्शन-जिनप्रवचन की उपलब्धि । (विभा २२६९,२२७०) ५. बोधि-परमार्थ का बोध । हाथी के एक-एक अवयव को सम्पूर्ण हाथी समझने ६. अविपर्यय-तत्त्व का निश्चय । वाले चक्षुहीन व्यक्तियों की भांति जो अनन्तधर्मात्मक ___७. सुदृष्टि-प्रशस्त दृष्टि । वस्तु के केवल एक धर्म में समस्त वस्तु की प्रतिपत्ति ४. सम्यक्त्व के प्रकार मानता है, वह मिथ्यादृष्टि कहलाता है। सम्मत्तपरिग्गहियं सम्मसुयं, तं च पंचहा सम्म । हाथी के समस्त अवयवों के समुदाय को हाथी उवसमियं सासाणं खयसमजं वेययं खइयं ॥ समझने वाले चक्षष्मान की तरह वस्तु के समस्त (विभा ५२८) पर्यायों के समुदाय को पूर्णवस्तु मानने वाला सम्यग्दृष्टि सम्यक्त्व के पांच प्रकार हैंहोता है। १. औपशमिक एग जाणं सव्वं जाणइ सव्वं च जाणमेगं ति । २. सास्वादन इय सव्वमयं सव्वं सम्मदिटिस्स जं वत्थु ।। ३. क्षायोपशमिक (विभा ३२०) ४. वेदक एक वस्तु को जानने वाला सब वस्तुओं को जानता ५. क्षायिक । है और सब वस्तुओं को जानने वाला एक वस्तु को जानता है, क्योंकि सब वस्तुएं सर्वमय होती हैं। यद्यपि ५. औपशमिक सम्यक्त्व सम्यग्दष्टि व्यक्ति (अकेवली अवस्था में) सब नहीं खीणम्मि उइण्णम्मि य अण इज्जते य सेसमिच्छत्ते । जानता, पर वह इस पर श्रद्धा करता है कि 'सर्व अंतोमुहत्तमेत्तं उसमसम्मं लहइ जीवो ॥ सर्वमय है।' (विभा ५३०) एग पि असद्दहओ जं दव्वं पज्जवं च मिच्छत्तं । उदयावलिका में प्राप्त मिथ्यात्व मोह के क्षय तथा (विभा २७५२) अनुदीर्ण अवशिष्ट मोहकर्म के उपशमन से अन्तर्मुहर्त जो किसी एक तत्त्व, द्रव्य या पर्याय पर भी अश्रद्धा अवधि वाला उपशम सम्यक्त्व प्राप्त होता है। करता है, वह भी मिथ्यात्वी कहलाता है । उवसामगसे ढिगयस्स होइ उवसामियं तु सम्मत्तं । अवश्यं हि स कश्चिदात्मनः परिणामोऽस्ति येन जो वा अकयतिपुंजो अखवियमिच्छो लहइ सम्मं ।। सत्यपि जोवादिस्वरूपावबोधे कस्यचिदेव सम्यक प्रतिपत्ति (विभा ५२९) भवति न पुनः सर्वस्य । (उशावृ प ५६३) उपशम श्रेणि में आरूढ व्यक्ति के दर्शन सप्तक की सम्यक्त्व निश्चित ही आत्मा का एक ऐसा परिणाम प्रकृतियों का उपशम होने पर औपशमिक सम्यक्त्व होता Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षायोपशमिक सम्यक्त्व ६७७ सम्यक्त्व है । अथवा जो तीन पुंज (शुद्ध, मिश्र, अशुद्ध) नहीं बनाता, विद्यमान (अन्तर्मुहूर्त के बाद उदय में आने वाले) जिसका मिथ्यात्व क्षीण नहीं होता, उसके औपशमिक स्पर्धकों का उपशम होने पर क्षयोपशम सम्यक्त्व होता सम्यक्त्व होता है। है । इसमें सम्यक्त्व मोहनीय का उदय रहता है। उपशम श्रेणी : मोह उपशम की प्रक्रिया । मिच्छत्तं जमुइण्ण तं खीणं अणइयं य उवसंतं । (द्र. गुणस्थान) मीसीभावपरिणयं वेइज्जंतं खओवसमं ।। औपशमिक भाव। (द्र. भाव) (विभा ५३२) प्रथम बार औपशमिक सम्यक्त्व" (द्र. करण) उदीर्ण मिथ्यात्व का क्षय और अनूदीर्ण मिथ्यात्व ६. सास्वादन सम्यक्त्व का उपशम-~~-दोनों का मिश्रण चलता रहता है, इस उवसमसम्मत्ताओ चयओ मिच्छं अपावमाणस्स । मिश्रीभाव परिणत अवस्था का वेदन करना क्षयोपशम सासायणसम्मत्तं तयंतरालम्मि छावलियं ।। सम्यक्त्व है। इहान्तरकरणे औपशमिकसम्यक्त्वाद्धायां जघन्यतः यदुदीर्णमुदयमागतं मिथ्यात्वं तद् विपाकोदयेन समयशेषायां, उत्कृष्टतस्तु षडावलिकावशेषायां वर्तमानस्य वेदितत्वात् क्षीणं निर्जीणं, यच्च शेषं सत्तायामनुदयागतं कस्यचिदनन्तानबन्धिकषायोदयो भवति । अतस्तेन कषायो- वर्तते तदपशान्तम। उपशान्तं नाम विकभितोटयम्पनीतदयेनोपशमिकसम्यक्त्वाच्च्यवमानस्य मिथ्यात्वमद्याप्य- मिथ्यास्वभावं च शेषमिथ्यात्वं, मिथ्यात्व-मिश्रपुञ्जावाप्राप्नवतोऽत्रान्तरे जघन्यतः समयं, उत्कृष्टतस्तु षडावलिका श्रित्य विष्कम्भितोदयं, शद्धपञ्जमाश्रित्य पूनरपनीतसास्वादनसम्यक्त्वम् । मिथ्यास्वभावमित्यर्थः।"तस्य विपाकेन साक्षादनुभूयमान(विभा ५३१ मवृ पृ २४२) त्वादिति ।..."अपनीतमिथ्यास्वभावत्वात् स्वरूपेणऽनुदयात् सम्यक्त्वप्राप्ति की प्रक्रिया में अन्तरकरण में औप- तस्याऽप्यनुदीर्णतोपचारः क्रियते । अनुदीर्णत्वमशुद्धमिश्रशमिक सम्यक्त्व प्राप्त होता है। उसका कालमान अन्त- पुजद्वयरूपस्य मिथ्यात्वस्यव योज्यते, न तु सम्यक्त्वस्य, मुहर्त है। जब उस काल का जघन्यतः एक समय अथवा तस्यापनीतमिथ्यास्वभावत्वलक्षणम्पशान्तत्वमेव योज्यते । उत्कृष्टतः छह आवलिका जितना काल शेष रहता ..."शद्धपुञ्जलक्षणं मिथ्यात्वमपि क्षयोपशमाभ्यां निर्वत्तहै, उस समय जिस जीव के अनंतानुबंधी कषाय का त्वात क्षायोपशमिकं सम्यक्त्वमुच्यते । शोधिता हि मिथ्यात्वउदय हो जाता है, वह औपशमिक सम्यक्त्व से च्युत हो पूदगला अतिस्वच्छवस्त्रमिव दष्टेर्यथावस्थिततत्त्वरुच्यध्यजाता है. किन्तु जब तक मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं होता, सायरूपस्य सम्यक्त्वस्याऽवारका भवति । तब तक उसके सास्वादन सम्यक्त्व होता है। इसका (विभामवृ १ पृ २४३) कालमान जघन्यत एक समय, उत्कृष्टतः छह आवलिका है। क्षायोपशमिक सम्यक्त्व का अर्थ है उदीर्ण मिथ्यात्व द्वित्रिचतुरिन्द्रियास्तु करणापर्याप्तावस्थायां पूर्वभवा का विपाकोदय में वेदन कर उसे क्षीण कर देना तथा यातं सास्वादनसम्यक्त्वम् । (आवमवृ प ३९) शेष अनुदीर्ण मिथ्यात्व का उपशम करना। यहां उपशम द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जीवों के अपर्याप्त दो रूप वाला है - अवस्था में पूर्वभव से आयातित सास्वादन सम्यक्त्व १.मिथ्यात्व, मिश्र और सम्यक्त्व-दर्शनमोह के होता है। सास्वादन गुणस्थान इन तीन पुंजों में से प्रथम दो पुंजों के उदय का (द्र. गुणस्थान) विष्कभित होना। ७. क्षायोपशमिक सम्यक्त्व २. सम्यक्त्वमोह के पुंज का शुद्ध (मिथ्या स्वभाव दसणमोहस्स खवोवसमेण अणंताणुबंधिअणुदए से रहित) होना। मिच्छत्तस्स सव्वघातिफड्डगाण उदयक्खते तेषामेव सवसमे सम्मत्तमोहणीयस्स उदये। (आव १ पृ ९७) यद्यपि इसमें सम्यक्त्वमोह का मन्द विपाकोदय रहता दर्शनमोह का क्षयोपशम होने पर क्षायोपशमिक है, किन्तु वह स्वरूप से इस सम्यक्त्व में बाधक नहीं सम्यक्त्व होता है। अनन्तानुबन्धीचतुष्क का अनुदय, बनता, इसलिए उसको उपचार से अनुदीर्ण कहा गया उदयप्राप्त मिथ्यात्व के सर्वघाति स्पर्धकों का क्षय तथा है। Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक्त्व ६७८ क्षायिक सम्यक्त्व . अथवा ऐसा भी कहा जा सकता है कि अशुद्ध और अनन्तानुबन्धी कवाय सम्यक्त्व का बाधक नहीं मिश्र पंज वाला मिथ्यात्व अनुदीर्ण तथा शुद्ध पंज वाला किह दंसणाइघाओ न होइ संजोयणाइ वेदयओ। मिथ्यात्व उपशांत रहता है। मंदाणुभावयाए जहाणुभावम्मि वि कहिंचि ।। उदीर्ण मिथ्यात्व का क्षय और अनुदीर्ण मिथ्यात्व का निच्चोदिन्नपि जहा सयलचउण्णाणिणो तदावरणं । उपशम ---इन दो भावों के मिश्रण में परिणत शुद्ध पुंज न विघाइ मंदयाए पएसकम तहा नेयं ।। लक्षण वाले मिथ्यात्व का वेदन होता है, यही क्षायोप (विभा १२९७,१२९८) शमिक सम्यक्त्व है। क्षय और उपशम से निर्वर्तित जैसे मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्यवमिथ्यात्व को ही उपचार से सम्यक्त्व कहा गया है। ज्ञान के आवारक कर्मों का मंद विपाकोदय रहता है. क्योंकि शोधित मिथ्यात्व के पुद्गल तत्त्वरुचि रूप सम्यक्त्व किंतु मद अनुभाव के कारण वह विपाकोदय मतिज्ञान के आवारक नहीं होते। अ दि में बाधक नहीं बनता, वैसे ही क्षायोपश मिक सम्यक्त्व में अनंतानुबंधी कषाय का प्रदेशोदय रहता है, कोद्रव का दृष्टांत किन्तु वह उस सम्यक्त्व में बाधक नहीं बनता। ८.वेदक सम्यक्त्व अपुग्वेण तिपुंज मिच्छत्तं कुणइ कोहवोवमया । अनियट्टीकरणेण उ सो सम्मईसणं लहइ । वेययसम्मत्तं पुण सव्वोइयचरमपोग्गलावत्थं ।.... (विभा १२१८) (विभा ५३३) जब दर्शनसप्तक की प्रकृतियां प्रायः क्षीण हो जाती जैसे कोद्रव धान्य के शोधन के आधार पर तीन पुंज किए जाते हैं-शुद्ध, अर्धशुद्ध और अविशुद्ध । उसी प्रकार हैं और सम्यक्त्वमोह के चरम पुद्गलों का वेदन होता है, जीव अपूर्वकरण के द्वारा मिथ्यात्व का शोधन कर तब वेदक सम्यक्त्व प्राप्त होता है। उसके तीन पुंज करता है । अनिवृत्तिकरण के द्वारा जीव ६. क्षायिक सम्यक्त्व इस शुद्धपुंज को प्राप्त होकर सम्यकदर्शन प्राप्त कर लेता .."खीणे दंसणमोहे तिविहम्मि वि खाइयं होइ। (विभा ५३३) वेएइ संतकम्मं खओवसमिएस नाणुभावं सो।। अनन्तानुबन्धिकषाय चतुष्टय के क्षीण होने के अनन्तर मिथ्यात्व मोहनीय, मित्र मोहनीय और स क्षयोपशमावस्थकषायवाजीवः क्षायोपशमि सम्यक्त्व मोहनीय के क्षीण होने पर क्षायिक सम्यक्त्व केष्वनन्तानुबन्ध्यादिषु तत्संबन्धि सत्कर्माऽनुभवति प्राप्त होता है। प्रदेशकर्म वेदयति, न विपाकतस्तु तान् वेदयति ।। निव्वलियमयण कोहवरूवं मिच्छत्तमेव सम्मत्तं । (विभा १२९३ मवृ पृ ४८५) खीण न उ जो भावो सहहणालक्खणो तस्स ।। क्षयोपशम सम्यक्त्व में अनंतानबन्धी कषाय का सो तस्स विसुद्धयरो जायइ, सम्मत्तपोग्गलक्खयो। प्रदेशोदय के रूप में वेदन होता है, विपाकोदय के रूप में दिट्टि ब्व सण्हसुद्धब्भपडलविगमे मणूसस्स ।। वेदन नहीं होता। जह सुद्धजलाणुगयं वत्थं सुद्धं जलक्खए सुतरं । सम्मत्त सुद्धपोग्गलपरिक्खए दंसणं पेवं ।। संजोयणाइयाणं नणदयो संजयस्स पडिसिद्धो । (विभा १३१९-१३२१) सच्चमिह सोऽणुभावं पडुच्च न पएसकम्मं तु ॥ सम्यक्त्व मोह की कर्मप्रकृति के क्षीण होने पर (विभा १२९) मिथ्यात्व ही क्षीण होता है न कि तत्त्वश्रद्धान रूप संयमी के अनंतानुबंधी कषाय आदि का उदय नहीं सम्यक्त्व । शोधित मदन कोद्रव की तरह शोधित रहता । यह निषेध विपाकोदय की अपेक्षा से है, प्रदेशोदय मिथ्यात्व पुद्गलों को ही यहां उपचार से सम्यक्त्व कहा का प्रतिषेध नहीं है। गया है। इन सम्यक्त्वपुद्गलों के क्षीण होने पर जीव का श्रद्धानरूप भाव विशुद्धतर होता है। जैसे कि श्लक्ष्ण Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्ररुचि शुद्ध अभ्रपटल के छंट जाने पर मनुष्य आकाश को स्पष्टता से देख पाता है । जैसे साफ धोया हुआ गीला वस्त्र सूख जाने पर पूर्ण निर्मल हो जाता है, वैसे ही सम्यक्त्वमोह के पुद्गल क्षीण हो जाने पर सम्यक्त्व निर्मल होता है । सेन्नाणावगमे सुद्धयरं केवलं जहा नाणं । तह खाइयसम्मत्तं खओवसमसम्म विगमम्मि ॥ ( विभा १३२२) जैसे चार ज्ञानों का अपगम होने पर शुद्ध केवलज्ञान प्रकट होता है, वैसे ही क्षयोपशम सम्यक्त्व के दूर होने पर क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त होता है । अग्नि का दृष्टांत खीणा निव्वाय हुयासणी व छारपिहिय दरविज्झायविहाडियजलणोवम्मा व्व उवसंता । aratमा | ( विभा १२५६ ) बुी हुई अग्नि के समान क्षीण कषाय, राख से ढकी अग्नि के समान उपशांत कषाय और आधी बुझी हुई तथा खंडित अग्नि के समान क्षयोपशम कषाय है । १०. सम्यक्त्व के प्रकार : अभिगम आदि दो प्रकार का सम्यक्त्व सम्मत्तं दुविहं - अभिगमसंमत्तं निसग्गसम्मत्तं च । ( आवचू २ पृ १३४) सम्यक्त्व के दो प्रकार हैं— अभिगम सम्यक्त्व और निसर्ग सम्यक्त्व | दस प्रकार का सम्यक्त्व निसग्गुवएस हर्ड, आणारुइ सुत्तवीयरुइमेव | अभिगमवित्थार रुई, किरियासंखे वधम्मरुई ॥ ( उ २८/१६) of (सम्यक्त्व) के दस प्रकार हैं - निसर्गरुचि, उपदेशरुचि, आज्ञारुचि, सूत्ररुचि, बीजरुचि, अभिगमरुचि, विस्ताररुचि, क्रियारुचि, संक्षेपरुचि और धर्मरुचि । निसर्गरुचि भूयत्थे णाहिगया, जीवाजीवा य पुण्णपावं च । सहसम्मुइयासव संवरो य, रोएइ उ निसग्गो ॥ जो जिगदिट्ठे भावे चव्विहे सद्दहाइ सयमेव । एमेव नन्नह त्तिय निसग्गरुइ त्ति नायव्वो । ( उ २८११७-१८ ) जो परोपदेश के बिना जातिस्मृति, प्रतिभा आदि के ६७९ सम्यक्त्व द्वारा जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर आदि तत्त्वों को भूतार्थ-यथार्थ मानता है और उन पर श्रद्धा करता है, वह निसर्गरुचि है जो जिनेन्द्र द्वारा दृष्ट तथा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से विशेषित पदार्थों पर स्वयं ही 'यह ऐसा ही है, अन्यथा नहीं है' — ऐसी श्रद्धा रखता है, उसे निसर्गरुचि कहते हैं । निसग्गो नाम सभावो, जथा सावगपुत्तनत्तुयाणं कुलपरंपरागतं निसग्गसम्मत्तं भवति, जहा वा सयंभुरमणमच्छाण पडिमा संठिताणि साहुसंठिताणि य पउमाणि मच्छर वा दट्ठूणं कम्माणं खओवसमेणं निसग्गसम्मत्तं भवति । ( आवचू २ पृ १३४) निसर्ग का अर्थ है - स्वभाव। जैसे श्रावक के पुत्रों तथा पौत्रों को जो कुलपरंपरागत सम्यक्त्व प्राप्त होता है, वह निसर्ग सम्यक्त्व कहलाता । अथवा जैसे स्वयंभूरमण समुद्र में रहने वाले मत्स्यों को प्रतिमा के आकार वाले तथा साधु के संस्थान वाले पद्मों को देखकर तद्आवरणीय कर्मों का क्षयोपशम होने पर नैसर्गिक सम्यक्त्व प्राप्त होता है । उपदेशरुचि एए चेव उ भावे, उवइट्ठे जो परेण सद्दहई । छउमत्थेण जिणेण व उवएसरुइ त्ति नायव्वो । ( उ २८/१९) जो दूसरों - छद्मस्थ या केवली के द्वारा उपदेश प्राप्त कर इन भावों पर श्रद्धा करता है, वह उपदेशरुचि वाला है । आज्ञारुचि रागो दोसो मोहो अण्णाणं जस्स अवगयं होइ । आणाए रोयंतो, सो खलु आणारुई नाम || ( उ २८/२० ) जो व्यक्ति राग, द्वेष, मोह और अज्ञान के दूर हो जाने पर वीतराग की आज्ञा में रुचि रखता है, वह आज्ञारुचि है । सूत्ररुचि जो सुत्तमहिज्जन्तो, सुएण ओगाहई उ सम्मत्तं । अंगेण बाहिरेण व, सो सुत्तरुइ त्ति नायव्वो ॥ ( उ २८।२१) जो अंग प्रविष्ट या अंग बाह्य सूत्रों को पढ़ता हुआ Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक्त्व ६८० कारक-रोचक उनके द्वारा सम्यक्त्व पाता है, वह सूत्ररुचि है। संक्षेपरुचि जानना चाहिए। वह जिन-प्रवचन में बीजरचि विशारद नहीं होता और अन्य दर्शनों का भी जानकार एगेण अणेगाइं, पयाइं जो पसरई उ सम्मत्तं । नहीं होता। उदए ब्ब तेल्लबिंदू, सो बीयरुइ त्ति नायब्बो ॥ धर्मचि (उ २८।२२) जो अस्थिकायधम्म सुयधम्म खलु चरित्तधम्मं च । पानी में डाले हए तेल की बंद की तरह जो सम्यक्त्व सदहइ जिणाभिहियं, सो धम्मरुइ त्ति नायव्वो ॥ एक पद (तत्त्व) से अनेक पदों में फैलता है. उसे बीजरुचि (उ २८।२७) कहते हैं। जो जिन-प्ररूपित अस्तिकाय-धर्म. श्रत-धर्म और अभिगमरुचि चारित्र-धर्म में श्रद्धा रखता है उसे धर्मरुचि जानना सो होइ अभिगमरुई, सूयनाणं जेण अत्थओ दिळं। चाहिए। एक्कारस अंगाइं पइण्णगं दिट्ठिवाओ य ।। ११. कारक-रोचक-दीपक सम्यक्त्व (उ २८।२३) सम्मत्तसामाइयं-कारगं रोचगं दीवगं। कारगं जथा जिसे ग्यारह अंग, प्रकीर्णक और दृष्टिवाद आदि साधणं । रोचगं सेणियादीणं। दीवगं अभवसिद्धियस्स, श्रुतज्ञान अर्थ सहित प्राप्त है, वह अभिगमरुचि है। मिच्छदिद्विस्स वा भवसिद्धियस्स । अभवसिद्धियस्स कहं ? जीवाजीवपुण्णपावासवसंवरनिज्जरबंधमोक्खेसु परि सो एक्कारस अंगाई पढति न य सद्दहति, धम्म च कहेति, च्छित्तनवपदत्थाभिगमपच्चइयं अभिगमसंमत्तं । एवं दीवगं। (आवचू १४३६) (आवचू २ पृ १३४) यस्मिन सम्यक्त्वे सति सदनुष्ठानं श्रद्धत्ते सम्यक् जीव, अजीव, पुण्य. पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा, करोति सदनुष्ठानमिति कारकं, यत्तु सदनुष्ठानं रोचयत्येव के बंध और मोक्ष - इन नौ तत्त्वों को जानकर उनके केवलं न पुनः कारयति तत् रोचकं, यत् स्वयं तत्त्वश्रद्धानअस्तित्व के प्रति आस्थावान होना अभिगम सम्यक्त्व है। हीन एव मिथ्यादृष्टि: परस्य धर्मकथादिभिस्तत्त्वश्रद्धानं विस्ताररुचि दीपयति-उत्पादयति तस्य परिणाम-विशेषः कारणे दवाण सव्वभावा, सव्वपमाणेहि जस्स उवलद्धा । कार्योपचारात् सम्यक्त्वं दीपकमुच्यते । सव्वाहि नयविहीहि य, वित्थाररुइ त्ति नायव्वो॥ (आवमवृ प ४३४) (उ २८।२४) सम्यक्त्व के तीन प्रकार हैंजिसे द्रव्यों के सब भाव सभी प्रमाणों ओर सभी १. कारक सम्यक्त्व-इस सम्यक्त्व के होने पर व्यक्ति नय-विधियों से उपलब्ध हैं, वह विस्ताररुचि है। सम्यक् आचरण करता है । जैसे साधु । क्रियारुचि २. रोचक सम्यक्त्व - इस सम्यक्त्व के होने पर व्यक्ति दंसणनाणचरित्ते, तवविणए सच्चसमिइगुत्तीसु । सदनुष्ठान में केवल रुचि रखता है, क्रिया नहीं जो किग्यिाभावरुई, सो खल किरियारुई नाम ।। करता । जैसे- सम्राट् श्रेणिक आदि । (उ २८।२५) ३. दीपक सम्यक्त्व- इसका शाब्दिक अर्थ है-सम्यक्त्व दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, विनय, सत्य, समिति, को दीप्त करना । तत्त्वश्रद्धा से शून्य मिथ्यादष्टि गुप्ति आदि क्रियाओं में जिसकी वास्तविक रुचि है, वह व्यक्ति भी धर्मकथा आदि के द्वारा दूसरों में तत्त्वक्रियारुचि है। श्रद्धा उत्पन्न कर देता है। कारण में कार्य का उपचार संक्षेपरुचि कर उसके इस उद्दीपन के परिणाम विशेष को दीपक अणभिग्गहियकुदिट्टी, संखेवरुइ त्ति होइ नायव्वो। सम्यक्त्व कहा गया है। अभव्य और मिथ्यादृष्टि अविसारओ पवयणे, अणभिग्गहिओ य सेसेसु ।। भव्य के यह सम्यक्त्व होता है। अभव्य व्यक्ति भी (उ २८।२६) आचार आदि ग्यारह अंग पढ़ सकता है, किन्तु उन जिसमें कुदृष्टि (एकांतवाद) की पकड़ नहीं है, उसे पर श्रद्धा नहीं करता। Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक्त्व के आचार ६८१ सम्यक्त्व मवई। १२. सम्यक्त्व के लक्षण उसके विशुद्ध होने पर तीसरे जन्म का अतिक्रमण नहीं सम्मत्ते पसत्थसम्मत्तमोहणीयकम्माण वेयणोवसम- करते-उसमें अवश्य ही सिद्ध हो जाते हैं। खयसमुत्थे पसमसंवेगादिलिंगे सुभे आयपरिणामे पण्णत्ते । निर्वेद के परिणाम (आव २ पृ २७५) निव्वेएणं दिव्वमाणसतेरिच्छिएस कामभोगेसु निव्वेयं प्रशमसंवेगनिर्वेदानुकम्पास्तिक्याभिव्यक्तिलक्षण:। हव्वमागच्छइ, सव्वविसएस विरज्जइ । सव्वविसएस (आवहाव २ पृ६८) विरज्जमाणे आरंभपरिच्चायं करेइ। आरंभपरिच्चायं आत्मा का वह शुभ परिणाम क्षायोपशमिक सम्यक्त्व करेमाणे संसारमग्गं वोच्छिदइ, सिद्धिमग्गे पडिवन्ने य है, जो मिथ्यात्वमोह और मिश्रमोह के क्षयोपशम से भवइ । (उ २९।३) उत्पन्न होता है। इसमें प्रशस्त सम्यक्त्व मोहनीय कर्म का निर्वेद (भव-वैराग्य) से जीव देव, मनुष्य और तियंच अनुवेदन होता है । संबंधी कामभोगों में तीव्र ग्लानि को प्राप्त होता है, इसके पांच लक्षण हैं सब विषयों से विरक्त हो जाता है। सब विषयों से प्रशम-क्रोध आदि कषायों की शांति । विरक्त होता हुआ वह आरम्भ और परिग्रह का परित्याग संवेग-मोक्ष की अभिलाषा । करता है। आरम्भ का परित्याग करता हुआ संसारमार्ग निर्वेद- संसार से विरति । का विच्छेद करता है और सिद्धिमार्ग को प्राप्त करता अनुकम्पा-प्राणिमात्र के प्रति दयाभाव । आस्तिक्य-आत्मा, कर्म आदि में विश्वास । १३. सम्यक्त्व के आचार परमत्वसंथ वो वा सुदिपरमत्थसेवणा वा वि । निस्संकिय निक्कंखिय निव्वितिगिच्छा अमूढदिछी य । वावन्नकुदंसणवज्जणा य सम्मत्तसद्दहणा ॥ उववह थिरीकरणे वच्छल्ल पभावणे अद्र ।। (उ २८२८) (उ २८।३१) परमार्थ का परिचय, परमार्थद्रष्टाओं की सेवा, व्यापन्न दर्शनी (सम्यक्त्व से शून्य) और कुदर्शनी व्यक्तियों ___शङ्कितं---देशसर्वशङ्कात्मकं तस्याभावो निःशङ्कितम्। का वर्जन, यह सम्यक्त्व का श्रद्धान है। कांक्षितं ----युक्तियुक्तत्वादहिंसाद्यभिधायित्वाच्च शाक्योसंवेग के परिणाम लकादिदर्शनान्यपि सुन्दराण्येवेत्यन्यान्यदर्शनग्रहात्मक तदभावो निष्काङ्क्षितम्। विचिकित्सा - फलं प्रति संवेगेणं अणत्तरं धम्मसद्धं जणयइ । अणुत्तराए धम्म सन्देहो यथा--किमियत: क्लेशस्य फलं स्यादुत नेति ? सद्धाए संवेगं हव्वमागच्छइ, अणंताणुबंधिकोहमाणमाया किममी यतयो मल दिग्धदेहा: ? प्रासुकजलस्नाने हि क लोभे खवेइ, कम्मं न बंधइ । तप्पच्चइयं च णं मिच्छत्त इव दोषः स्यादित्यादिका निन्दा तदभावो निविचिकित्सं विसोहि काऊण दंसणाराहए भवइ । दसणविसोहीए य णं निर्विजुगुप्सं वा। विसुद्धाए अत्थेगइए तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झइ । सोहीए य णं विसुद्धाए तच्चं पुणो भवग्गहणं नाइक्कमइ । ___अमूढा ऋद्धिमत्कुतीथिकदर्शने यनवगीतमेवास्मद्दर्शन (उ २९।२) मिति मोहविरहिता सा चासो दृष्टिश्च बुद्धिरूपा अमूढसंवेग (मोक्ष की अभिलाषा) से जीव अनुत्तर धर्म- दृष्टिः । उपबृंहणमुपबृंहा-दर्शनादिगुणान्वितानां सुलब्धश्रद्धा को प्राप्त होता है। अनुत्तर धर्म-श्रद्धा से तीन जन्मानो यूयं युक्तं च भवादशामिदमित्यादिवचोभिस्तत्तदसंवेग को प्राप्त करता है। अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, गुणपरिवर्द्धनम् । स्थिरीकरणं च - अभ्युपगमधर्मानुष्ठानं माया और लोभ का क्षय करता है। नये कर्मों का संग्रह प्रति विषीदतां स्थर्यापादनम् । वात्सल्यं-सार्मिकजनस्य नहीं करता। कषाय के क्षीण होने से प्रकट होने वाली भक्तपानादिनोचितप्रतिपत्तिकरणम् । प्रभावना --स्वतीमिथ्यात्व-विशुद्धि कर दर्शन (सम्यक श्रद्धान) की आरा र्थोन्नतिहेतुचेष्टासू प्रवर्तनात्मिका। (उशाव ५६७) धना करता है । दर्शनविशोधि के विशद्ध होने पर कई सम्यक्त्व के आठ आचार हैंएक जीव उसी जन्म से सिद्ध हो जाते हैं और कुछ १. निःशंकित .. शंका का अर्थ है-संदेह । जिनभाषित Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक्त्व ६८२ सम्यक्त्व : आयुबंध... करना निर्विचिकिकारना और मैल अथ सम्यक्दृष्टि जीवन तत्त्व के प्रति अंशत: या सर्वतः संदेह न होना ३. विचिकित्सा-लक्ष्यपूर्ति के साधनों के प्रति संशयनिशंकित (सम्यक्त्व का प्रथम अंग) है। शीलता। २. निष्कांक्षित-बौद्ध, वैशेषिक आदि दर्शन भी युक्ति ४. परपाषण्डप्रशंसा-लक्ष्य के प्रतिकूल चलने वालों की युक्त हैं, अहिंसा के व्याख्याता हैं, इसलिए ये भी प्रशंसा । सुन्दर हैं-इस प्रकार अन्यान्य दर्शनों के अभिमत ५. परपाषण्डसंस्तव-लक्ष्य के प्रतिकूल चलने वालों का को ग्रहण करने की इच्छा कांक्षा है और उसका परिचय। अभाव निष्कांक्षा है। . १५. सम्यक्त्व : आयुबंध और गति ३. निविचिकित्सा-विचिकित्सा के दो अर्थ हैं१. धर्म के फल में संदेह, जैसे-इस कष्टमयी सम्मद्दिट्ठी जीवो विमाणवज्ज ण बंधए आउं । साधना का फल होगा या नहीं? । जइवि ण सम्मत्तजढो अहव ण बद्धाउओ पूवि ।। (दहावृ प ११३) २. जुगुप्सा, निन्दा-इन मुनियों के शरीर पर मैल क्यों है ? प्रासुक जलस्नान में क्या दोष है ? सम्यकदष्टि जीव यदि सम्यक्त्व से च्युत न हुआ हो इस प्रकार धर्मफल में सन्देह न करना और मल अथवा पूर्वबद्धायु न हो तो वह वैमानिक देव के सिवाय आदि से घणा न करना निर्विचिकित्सा है। अन्य आयुष्य का बंध नहीं करता। ४. अमूढदृष्टि-ऋद्धि संपन्न कुतीथिकों को देखकर भी विराधितसम्यक्त्वो हि षष्ठपृथ्वीं यावद् गृहीतेनाऽपि जिसकी बुद्धि मूढ/विपर्यस्त नहीं होती, वह अमृढ- सम्यक्त्वेन सैद्धान्तिकमतेन कश्चिदत्पद्यते । कार्मगथिकदृष्टि है। मतेन तु वैमानिकदेवेभ्योऽन्यत्र तिर्यङ मनुष्यो वान्तेनंव ५. उपबंद्रण-जो दर्शन आदि गुणों से संपन्न हैं उन क्षायोपश मिकसम्यक्त्वेनोत्पद्यते, न गृहीतेन । सप्तमपृथिव्यां व्यक्तियों के गुणों का उपबंहण-संवर्धन या संकीर्तन पुनरुभयमतेनाऽपि वान्तेनैव तेनोपजायते। करते हुए कहना-आपका जन्म सुलब्ध है। आप (विभामवृ १ पृ २०८) जैसे व्यक्तियों के लिए यह उचित है, यह उपबंहण । सम्यक्त्व की विराधना करने वाला कोई जीव छठी नरकभूमि तक सम्यक्त्व लेकर भी जा सकता है-यह ६. स्थिरीकरण-धर्ममार्ग से विचलित हो रहे व्यक्तियों सैद्धांतिक मान्यता है। कर्मग्रन्थ के अभिमत में वैमानिक देवों को छोड़कर तिर्यंच और मनुष्य क्षयोपशम सम्यक्त्व को पुनः स्थिर करना स्थिरीकरण है। के वान्त होने पर ही छठी नरक भूमि तक उत्पन्न हो ७. वात्सल्य -सामिक व्यक्तियों को यथायोग्य आहार, सकते हैं, सम्यक्त्व को साथ लेकर वे वहां उत्पन्न नहीं वस्त्र, पानी आदि देना, गुरु, ग्लान तथा शैक्ष हो सकते । सातवीं नरक में वान्त सम्यक्त्वी ही जा सकते साधुओं की विशेष सेवा करना वात्सल्य है। हैं - यह उभयमत सम्मत है। ८. प्रभावना --तीर्थ की उन्नति में हेतुभूत चेष्टा करना कोऽपि सम्यग्दृष्टिः श्रुतज्ञानी पूर्व नरके बतायुष्कः प्रभावना है। पश्चाद् विराधितात्यक्तसम्यक्त्वः षष्ठप्रथिव्यामिलिकागत्या १४. सम्यक्त्व के अतिचार समुत्पद्यमानो लोकस्य पञ्च चतुर्दशभागान स्पशति । सम्मत्तस्स ....." इमे पंच अइयारा जाणियव्वा....." (विभामवृ २ पृ १७४, १७५) तं जहा-संका कंखा वितिगिच्छा परपासंडपसंसा, पर- जो सम्यग्दृष्टि श्रुतज्ञानी नरक आयुष्य का बंध पासंडसंथवो। (आवहाव २ पृ २१४) करने के पश्चात् सम्यक्त्व प्राप्त करता है, वह सम्यक्त्व सम्यक्त्व के पांच अतिचार हैं की विराधना कर सम्यक्त्व सहित जब इलिका गति से १. शंका-लक्ष्य के प्रति संदेह । छठी नरकभूमि में उत्पन्न होता है, तब वह चौदह २. कांक्षा–लक्ष्य के विपरीत दृष्टिकोण के प्रति रज्जु वाले लोकाकाश के पांच रज्जु-प्रमाण भाग का स्पर्श अनुरक्ति । करता है। Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक्त्व से ज्ञानविशोधि आगमणं पिनिसिद्धं चरिमाउ एइ जं तिरिक्खेसु । सुरनारगाय सम्मद्दिट्ठी जं एंति मणुसु ॥ 'सत्तममहिनेरइया तेऊवाऊअणं तरुण्वट्टा, न य पावे माणुस्सं ।' सुरनारकाश्च सम्यक्त्वसहिता यस्माद् मनुष्येष्वे - वाऽऽयान्ति, अतः सामर्थ्यात् तिर्यग्गतिगामिनः सप्तमपृथ्वीनारका मिथ्यात्वसहिता एवाऽऽगछन्ति । रूप (विभा ४३१ मवृ पृ २०८ ) सातवीं पृथ्वी के नैरयिक गृहीतसम्यक्त्वी के में 'उद्वृत्त नहीं होते, इसलिए वे मनुष्य गति में उत्पन्न नहीं होते । वे मिथ्यात्वी होने के कारण तिर्यंच गति में ही उत्पन्न होते हैं। तेजस्कायिक और वायुकायिक जीव भी मनुष्य गति में उत्पन्न नहीं होते । सम्यग्दृष्टि देव और नैरयिक मनुष्य गति में उत्पन्न होते हैं । ६८३ सम्यक्त्व मिध्यादृष्टि जीव सर्वज्ञ द्वारा उपदिष्ट प्रवचन पर श्रद्धा नहीं करता । वह कुतीर्थिकों के असद्भाव - अयथार्थ सिद्धांत पर श्रद्धा करता है, फिर चाहे वे उपदिष्ट हों या अनुपदिष्ट । सम्मट्ठी जीव उवइट्ठे पवयणं तु सद्दहइ । सद्दहइ असम्भावं अणभोगा गुरुनिओगा वा ॥ ( उनि १६३) सम्यग्दृष्टि जीव सर्वज्ञ द्वारा उपदिष्ट प्रवचन पर श्रद्धा करता है और वह अपने अज्ञान के कारण तथा गुरु के कहने पर असद्भाव पर भी श्रद्धा करता है । १८. सम्यक्त्व से ज्ञानविशोधि विसोहेइ । विसोहंति ॥ जुगवपि समुपपन्नं सम्मत्तं अहिगमं जह कायगमंजणाई जलदिट्ठीओ जह जह सुज्झइ सलिलं तह तह रुवाई पासई दिट्ठी । इय जह जह तत्तरुई तह तह तत्तागमो होइ ॥ कारण कज्जविभागो दीवपगासाण जुगवजम्मेवि । जुगवुवन्नपि तहा हेऊ नाणस्स सम्मत्तं ॥ ( आवनि १९५४ - १९५६ ) जैसे काचक फल (फिटकरी आदि) जल को विशोधित करता है, अंजन आंख को विशोधित करता है, वैसे ही सम्यक्त्व ज्ञान को निर्मल करता जैसे-जैसे पानी निर्मल होता है बिम्ब स्पष्ट दिखाई देने लगता है । जैसे तत्त्व की रुचि बढ़ती है, वैसे-वैसे होता जाता है । जैसे दीपक और प्रकाश के युगपत् उत्पन्न होने पर भी कारण कार्य का विभाग होता है, वैसे ही सम्यक्त्व और ज्ञान युगपत् उत्पन्न होने पर भी सम्यक्त्व ज्ञान का हेतु है । सम्यक्त्व और ज्ञान में भेद १६. उत्कृष्ट आयुस्थिति में सम्यक्त्व प्राप्ति आउक्कोसे दुणि उपवज्जमाणो पवण्णो वा । ( विभा २७२४) आयुष्य की उत्कृष्ट स्थिति में प्रथम दो सामायिक पूर्वप्रतिपन्न भी हो सकते हैं और प्राप्त भी हो सकते हैं । आयुषस्त्रयस्त्रिशत्सागरोपमलक्षणायामुत्कृष्टस्थितौ वर्तमानोऽनुत्तरसुरः प्रथमसामायिकद्वयस्य पूर्वप्रतिपन्नः प्राप्यते, सप्तमपृथिव्य प्रतिष्ठान - नारकस्तु षण्मासावशेषायुस्तथाविधविशुद्धियुक्तत्वादस्यैव सामायिकद्वयस्य प्रतिपद्यमानकः पूर्वप्रतिपन्नश्च लभ्यते । (विभामवृ२ पृ १५६, १५७ ) अनुत्तर देवों का उत्कृष्ट आयुष्य - तेतीस सागरोपम होता है । तेतीस सागरोपम की उत्कृष्ट आयु वाले अनुत्तर देव श्रुत सामायिक और सम्यक्त्व सामायिक से पूर्व प्रतिपन्न होते हैं । सातवीं पृथ्वी में अप्रतिष्ठान - नैरयिक की जब छह माह की आयु शेष रहती है, तब वह तदनुरूप विशुद्धि होने पर श्रुत और सम्यक्त्व सामायिक प्राप्त करता है - इस दृष्टि से वहां प्रतिपद्यमान और पूर्वप्रतिपन्न दोनों हो सकते हैं । सामायिक प्राप्ति के प्रथम समय में जीव प्रतिपद्यमान और शेष समयों में वह पूर्वप्रतिपन्न कहलाता है । १७. मिथ्यादृष्टि - सम्यग्दृष्टि की श्रद्धा में अन्तर मिच्छादिट्ठी जीवो उवइट्ठ पवयणं ण सद्दहइ । सद्दहइ असम्भावं उवइट्ठ वा अणुवइ जीवादिस्वरूपपरिज्ञानस्य सम्यग्भावहेतुरात्मपरिणामविशेषः सम्यक्त्वं न तु ज्ञानस्वरूपमेव । अत एव हि ज्ञानादावरणभेदो विषयभेदः कारणभेदो ज्ञानकारणत्वं च सम्यक्त्वस्य श्रुतके वलिनोक्तं, यत्तु तत्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनमपायसद्द्रव्यतया सम्यग्दर्शनमपायो मतिज्ञानतृतीयांश: । ( उशावृप ५६३) जीव आदि तत्त्वों के सही परिज्ञान का हेतुभूत आत्म( उनि १६२ ) परिणाम सम्यक्त्व है । सम्यक्त्व ज्ञानरूप नहीं है । । 1 वैसे-वैसे उसमें प्रतिउसी प्रकार जैसेतत्त्वों का ज्ञान Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक्त्व ६८४ सम्यक्त्व (दर्शन-सम्पन्नता).... श्रुतकेवलियों ने ज्ञान से पृथक् सम्यक्त्व का प्रतिपादन अमुक्त का निर्वाण नहीं होता। किया है। इस भिन्नता के तीन हेत हैं-आवरणभेद, __ण सेणिओ आसि तया बहुस्सुओ, विषयभेद और कारणभेद । न यावि पन्नत्तिधरो न वायगो। सम्यक्त्व ज्ञान का कारण है। ज्ञान सम्यक्त्व का सो आगमिस्साइ जिणो भविस्सइ, कार्य है। कारण और कार्य में अभेद मानकर तत्त्वार्थभाष्य समिक्ख पन्नाइ वरं खु दंसणं ॥ कार ने सम्यक्त्व को मतिज्ञान का तीसरा भेद 'अपाय' भट्ठण चरित्ताओ सुट्ट्यरं सणं गहेयव्वं । बताया है। सिझंति चरणरहिया दसणरहिया न सिझंति ॥ दर्शनमोहनीयकर्मक्षयोपशमादिना या तत्त्वश्रद्धाना (आवनि ११५८,११५९) त्मिका तत्त्वरुचिरुपजायते, तया तत्त्वश्रद्धानात्मकं जीवादि श्रेणिक न बहुश्रुत था, न प्रज्ञप्तिधर था और न ही तत्त्वरोचकं विशिष्ट श्रुतं जन्यते, ततस्तत् श्रुताज्ञान वाचक था, फिर भी वह आगामी काल में तीर्थकर होगा। व्यपदेशं परिहृत्य श्रुतज्ञानसज्ञां समासादयति । (विभामव १५२४५) प्रज्ञा से समीक्षा करो कि दर्शन ही प्रधान दर्शनमोह कर्म के क्षयोपशम आदि से तत्त्वरुचि चारित्र से भ्रष्ट होने पर भी दर्शन (सम्यक्त्व) को उत्पन्न होती है। उस तत्त्व-रुचि से जब तत्त्वश्रद्धात्मक दृढ़ रखना चाहिए क्योंकि चारित्र से रहित व्यक्ति सिद्ध श्रुत उत्पन्न होता है, तब श्रुतअज्ञान श्रुतज्ञान बन जाता हो सकता है, दर्शन से रहित सिद्ध नहीं हो सकता। (यह है। श्रुत और सम्यक्त्व में यही अंतर है। आपेक्षिक कथन है। निश्चय में तो दर्शन, ज्ञान और १६. सम्यक्त्व और चारित्र चारित्र की त्रिपदी ही मुक्ति का मार्ग है।) नत्थि चरितं सम्मत्तविहणं, सणे उ भइयव्वं । नाणेण जाणई भावे, दंसणेण य सद्दहे । सम्मत्तचरित्ताई, जुगव पुवं व सम्मत्त । चरित्तेण निगिण्हाइ, तवेण परिसुज्झई ॥ (उ २८।२९) (उ २८।३५) सम्यक्त्व-शून्य चारित्र नहीं होता। दर्शन में चारित्र जीव ज्ञान से पदार्थों को जानता है, दर्शन से श्रद्धा की भजना है । सम्यक्त्व और चारित्र युगपत् उत्पन्न होते करता है, चारित्र से निग्रह करता है और तप से शुद्ध हैं । और जहां वे युगपत् उत्पन्न नहीं होते, वहां पहले। ___ होता है। सम्यक्त्व होता है। (श्रीमज्जयाचार्य लिखते हैं -पहिला सम्यक्त्व आवै २१. सम्यक्त्व (दर्शन-सम्पन्नता) के परिणाम अनै पछै चारित्र पावै एतो प्रत्यक्ष दीसेज छै। पिण सणसंपन्नयाए णं भवमिच्छत्तछेयणं करेइ. परं न सम्यक्त्व चारित्र साथै आवै कह्यो ते किम । तेहनों विज्झायइ। अणत्तरेणं नाणदंसणेणं अप्पाणं संजोएमाणे उत्तर । एक मुनि छठे गुणठाणे हुँतो। तिणन किणही सम्म भावेमाणे विहरह। (उ २९६१) बोलनी शंका पडी। तिवारे समकित चारित्र दोनूं दर्शन-सम्पन्नता (सम्यक दर्शन की सम्प्राप्ति) से ही गया । पहिलं गुण ठाणे आयो। पर्छ अन्तर्मुहूर्त में जीव संसार-पर्यटन के हेतु-भूत मिथ्यात्व का उच्छेद शंका मिट्यां पाछो छठे गुणठाणे आयां सम्यक्त्व चारित्र करता है, क्षायिक सम्यक् दर्शन को प्राप्त करता है। उससे सहित थयो। इम सम्यक्त्व चारित्र साथै आवै । एहवं आगे उसकी प्रकाश-शिखा बुझती नहीं। वह अनुत्तर ज्ञान न्याय संभव - उत्तराध्ययन की जोड़ २८।२९ का वार्तिक) और दर्शन से अपने आपको संयोजित करता हुआ, उन्हें २०. सम्यक्त्व (दर्शन) की महत्ता सम्यक् प्रकार से आत्मसात् करता हुआ विहरण करता नादंसणिस्स नाणं, नाणेण विणा न हुंति चरणगुणा। . है। अगणिस्स नत्थि मोक्खो, नत्थि अमोक्खस्स निव्वाणं । मिच्छत्तपरिणतो जीवो कम्मघणमहाजालं अणुसमयं (उ० २८।३०) बंधति, तविवागेण जातिजरामरणादिवसणसतससारं अदर्शनी के ज्ञान नहीं होता, ज्ञान के बिना चारित्र- परियट्टइ । पडिक्कंतस्स पुण गुणा सुदेवत्तसुमाणुसत्तादि गुण नहीं होते । अगुणी व्यक्ति की मुक्ति नहीं होती। मोक्खपज्जवसाणत्ति । तत्पुनः सम्यक्त्वं यथा कुड्यादिभूमी Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सार्मिक ६८५ साधु सुष्ठु परिकमितायां यदि चित्रं क्रियते तदा शोभनं राजते, ७. लिंग सार्मिक-समान वेश वाले। एवं यदि सम्यक्त्वं सुष्ठ मिथ्यात्वा सुपरिसुद्धं कृत्वा व्रता- ८. दर्शन सार्मिक-दर्शन के तीन प्रकार हैं-क्षायिक न्यारोप्यन्ते ततस्तानि व्रतानि विशद्धिफलानि भवंति अतः दर्शन, क्षायोपशमिक दर्शन, औपशमिक दर्शन । सम्यक्त्वं सुपरिसुद्धं कर्तव्यम् । (आवचू २ पृ २७५) इसके आधार पर दर्शन सामिक के भी तीन प्रकार मिथ्यात्व से प्रतिक्षण सघन कर्मबंध होता है, जिसका हैं, जैसे-क्षायिक दर्शन वाला क्षायिक दर्शनी का परिणाम है-जन्म, जरा और मृत्यू वाले संसार में परि- सार्मिक होता है। भ्रमण | मिथ्यात्व से प्रतिक्रमण कर सम्यक्त्व में स्थित ९. ज्ञान सार्मिक–समान ज्ञान वाले। ज्ञान के पांच होने का परिणाम है-देवत्व, मनुष्यत्व की प्राप्ति और प्रकारों के आधार पर इसके पांच प्रकार हैं, जैसेअंत में मोक्ष । मतिज्ञान वाला मतिज्ञानी का सार्मिक है। जैसे परिकमित स्वच्छ भित्ति पर आलेखित चित्र १०. चारित्र सार्मिक-समान चारित्र वाले। चारित्र सुन्दर होता है, वैसे ही सम्यक्त्व के विशुद्ध होने पर स्वी के पांच प्रकारों के आधार पर इसके पांच प्रकार कृत व्रतों की परिपालना परिशुद्ध परिणाम वाली होती है। हैं--जैसे-सामायिक चारित्र बाला सामायिक सम्यक् श्रुत-सम्यग्दृष्टि का श्रुत । (द्र. श्रुतज्ञान) चारित्री का सार्मिक है।। ११. अभिग्रह सार्मिक-द्रव्याभिग्रह, क्षेत्राभिग्रह, सयोगीकेवली-केवली की योग-मन, वचन व ' कालाभिग्रह तथा भावाभिग्रह के आधार पर इसके शरीर की प्रवृत्त्यात्मक अवस्था। चार प्रकार हैं। द्रव्याभिग्रही का द्रव्याभिग्रही (द्र. गुणस्थान) सार्मिक है। सार्मिक-ज्ञान, आचरण आदि की दृष्टि से १२. भावना सार्मिक-अनित्य, अशरण आदि बारह समान भूमिका वाला। भावनाओं के आधार पर बारह प्रकार के साधर्मिक नामं ठवणा दविए खेत्ते काले अपवयणे लिंगे । होते हैं। दसण नाण चरित्ते अभिग्गहे भावणाओ य ।। साधु-मुनि, श्रमण। नामंमि सरिसनामो ठवणाए कट्रकम्ममाईया । दव्वंमि जो उ भविओ साहमि सरीरगं चेव ॥ निव्वाणसाहए जोए, जम्हा साहंति साहुणो । खेत्ते समाणदेसी कालंमि समाणकालसंभूओ। (आवनि १००२) पवयणि संघेगयरी लिंगे रयहरणमुहपोत्ती ।। जो निर्वाण-साधक योगों-ज्ञान, दर्शन, चारित्र को दसण नाणे चरणे तिग पण पण तिविह होइ उ चरित्ते। साधते हैं, वे साधु हैं। दव्वाइओ अभिग्गह अह भावणमो अणिच्चाई। महुकारसमा बुद्धा, जे भवंति अणिस्सिया । (पिनि १३८-१४१) नाणापिंडरया दंता, तेण वच्चंति साहणो॥ बारह प्रकार के सार्मिक (द ११५) १. नाम सार्मिक-समान नाम वाला साधु या जो बुद्ध पुरुष मधुकर के समान अनिश्रित होते हैंगृहस्थ । किसी एक पर आश्रित नहीं होते, नाना पिंड में रत हैं २. स्थापना सार्मिक-जीवित या मृत साधु की काष्ठ, और जो दांत हैं, वे अपने इन्ही गुणों से साधु कहलाते हैं। पाषाण आदि की प्रतिमा-यह अन्य जीवित मुनियों सम्वेसिपि नयाणं बहुविहवत्तव्वयं निसामित्ता। के लिए स्थापना सार्मिक है। इसके दो प्रकार हैं तं सव्वनयविसुद्धं जं चरणगुणट्ठिओ साहू ॥ -सद्भाव स्थापना और असद्भाव स्थापना । (आवनि १०५५) ३. द्रव्य सार्मिक--भविष्य में होने वाला साधु । सर्व नयों की बहविध वक्तव्यता को सुनकर जो सर्व४. क्षेत्र साधर्मिक-समान क्षेत्र में उत्पन्न । नय विशुद्ध चरणगुणों में स्थित होता है वह साधु है। ५. काल सार्मिक -समान काल में उत्पन्न । साधु की जीवनचर्या (द्र. श्रमण) ६. प्रवचन सार्मिक-चतुर्विध संघ का कोई सदस्य । साधु मंगल है। (द्र. नमस्कार) Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाचारी ६८६ दशविध सामाचारी सामाचारी-मुनि का संघीय व्यवहार । अन्तर्भाव धर्मकथानुयोग में होता है। पदविभाग सामा चारी का अन्तर्भाव छेदसूत्र (चरणानुयोग) में होता है । १. सामाचारी का अर्थ २. सामाचारी के प्रकार ३. दशविध सामाचारी ३. दशविध सामाचारी पढमा आवस्सिया नाम, बिइया य निसीहिया । ४. सामाचारी का महत्त्व आपुच्छणा य तइया, चउत्थी पडिपुच्छणा ।। पंचमा छंदणा नाम, इच्छाकारो य छट्ठओ। १. सामाचारी का अर्थ सत्तमो मिच्छकरो य, तहक्कारो य अट्ठमो॥ यतिजनेतिकर्तव्यतारूपा सामाचारी। अन्भट्ठाणं नवमं, दसमा उवसंपदा । (उशाव प ५३३) एसा दसंगा साहूणं, सामायारी पवेइया ।। मुनियों का पारस्परिक संघीय व्यवहार सामाचारी (उ २६॥२-४) सामाचारी के दस प्रकार हैं२. सामाचारी के प्रकार १. आवश्यकी ६. इच्छाकार .."सामायारी तिविहा ओहे दसहा पयविभागे ॥ २. नषेधिकी ७. मिथ्याकार ओघसामाचारी सामान्यतः संक्षेपाभिधानरूपा, सा ३. आप्रच्छना ८. तथाकार चोधनियुक्तिरिति । दशविधसामाचारी इच्छाकारादि- ४. प्रतिप्रच्छना ९. अभ्युत्थान लक्षणा । पदविभागसामाचारी छेदसूत्राणि । ५. छन्दना १०. उपसम्पदा। ____तत्रौघसामाचारी नवमात्पूर्वात् तृतीयाद्वस्तुन आचा आवश्यकी सामाचारी राभिधानात् तत्रापि विंशतितमात्प्राभृतात्, तत्राप्योध गमणे आवस्सियं कुज्जा।" (उ २६१५) प्राभूतप्राभृतात् नियूं ढेति,""""दशविधसामाचारी पुनः स्थान से बाहर जाते समय 'आवश्यकी' शब्द का षड्विंशतितमादुत्तराध्ययनात् स्वल्पतरकालप्रवजितपरि उच्चारण करे। ज्ञानार्थं नियंढेति, पदविभागसामाचार्यपि छेदसूत्र गमने तथाविधालम्बनतो बहिनि:सरणे आवश्यकेषलक्षणान्नवमपूर्वादेव नियूंढा । (आवनि ६६५ हावृ पृ १७२) अशेषावश्यकर्त्तव्यव्यापारेषु सत्सु भवाऽऽवश्यकी। सामाचारी के तीन प्रकार हैं (उशावृ प ५३४) आवश्यक कार्य के लिए बाहर जाना आवश्यकी है। १. ओघ सामाचारी-ओघनियुक्ति । 'आवश्यकी'--मैं आवश्यक कार्य के लिए स्थान या २. दशधा सामाचारी-इच्छाकार आदि दश प्रकार निषद्या से बाहर जा रहा हैं"-इस उच्चारण के द्वारा ___ की सामाचारी। अपने जाने की सूचना देना आवश्यकी सामाचारी है। ३ पदविभाग सामाचारी-- छेदसूत्र । ओघनियुक्ति नौवें प्रत्याख्यान पूर्व की तीसरी नषेधिको सामाचारी आचार वस्तु के बीसवें प्राभूत के ओघप्राभूतप्राभूत .""ठाणे कुज्जा निसीहियं ।' से निर्यढ है। शैक्ष मुनियो के अवबोध के लिए दशविध यत्रास्पदे स्थेयं तत्र नैषेधिकीपूर्वकमेव प्रवेष्टव्यम् । सामाचारी उत्तराध्ययन के छब्बीसवें अध्ययन से तथा (उ २६१५ शावृ प ५३४) पदविभाग सामाचारी (छेद सूत्र) प्रत्याख्यान पूर्व से स्थान में प्रवेश करते समय नषेधिकी करे-'नषेनिर्यढ है। धिकी' का उच्चारण करे। सामाचारी दशविधा, ओघरूपा पदविभागात्मिका निसीहि नाम सरीरगं वसही थंडिलं च भण्णति । चेह नोक्ता, धर्मकथाऽनुयोगत्वादस्य, छेदसूत्रान्तर्गतत्वाच्च जतो निसीहिता नाम आलयो वसही थंडिलं च । सरीरं तस्याः । (उशाव प ५४७) जीवस्स आलयोत्ति । तथा पडिसिद्धनिसेवणनियत्तस्स ओघ सामाचारी और दशविध सामाचारी का किरिया निसीहिया। (आवचू २ पृ ४६) Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इच्छाकार सामाचारी ६८७ सामाचारी निषीधिका--निषद्या के कई अर्थ हैं-शरीर, आलय, सम्पादित हो चुका हो । वसति, स्थण्डिल । शरीर जीव का आलय है। प्रतिषिद्ध ......"पुवनिसिद्धेण होइ पडिपुच्छा ।... के आसेवन का निवर्तन करने वाली क्रिया निषीधिका (आवनि ६९७) प्रयोजनवश पूर्वनिषिद्ध कार्य करने की आवश्यकता होने पर गुरु से उसकी आज्ञा लेना प्रतिपृच्छा है । आप्रच्छना सामाचारी ......."आपुच्छणा सय करणे. (उ २६१५) छन्दना और अभ्युत्थान सामाचारी ___ अपना कार्य करने से पूर्व गुरु से अनुमति लेना छंदणा दव्वजाएणं... । आप्रच्छना सामाचारी है। अभट्टाणं गुरुपूया" "॥ (उ २६।६,७) सकलकृत्याभिव्याप्त्या प्रच्छना आप्रच्छना-इदमहं """पुव्वगहिएण छंदण णिमंतणा होअगहिएणं ॥ कुर्या न वेत्येवंरूपा तां स्वयमित्यात्मनः करणं कस्यचिद् (आवनि ६९७) विवक्षितकार्यस्य निर्वर्तनं स्वयंकरणम् । आभिमुख्येनोत्थानम् - उद्यमनमभ्युत्थानं तच्च गुरुउच्छवासनि:श्वासी विहाय सर्वकार्येष्वपि स्वपर- पूजाया, सा च गारवाहाणा आचाय पूजायां, सा च गौरवार्हाणां आचार्यग्लानबालादीनां सम्बन्धिषु गुरवः प्रष्टव्याः, अतः सर्वविषयमपि प्रथमतः यथोचिताहारभेषजादिसम्पादनम् । इह च सामान्याभिप्रच्छन मापृच्छा। (उशाव प ५३४, ५३५) धानेऽप्यभ्युत्थानं निमन्त्रणारूपमेव परिगृह्यते । सब कार्यों के लिए 'मैं यह काम करूं या नहीं ?' (उशाव प ५३५) इस प्रकार गुरु से अनुमति लेना आप्रच्छना है। अपने मुनि पूर्वगहीत-भिक्षा में प्राप्त अशन आदि द्रव्यों किसी विवक्षित कार्य को करना स्वयंकरण है। से गुरु आदि को निमंत्रित करे-यह छंदना सामाचारी __ श्वासोच्छवास को छोड़कर स्व और पर से संबंधित गुरुपूजा-आचार्य, ग्लान, बाल आदि साधुओं के प्रत्येक कार्य को करने से पूर्व गुरु से आपृच्छा करना लिए यथोचित आहार, औषधि आदि लाना अभ्युत्थान आप्रच्छना है। सामाचारी है । अभ्युत्थान और निमन्त्रण एकार्थक हैं। किच्चाकिच्चं गुरवो विदंति विणयपडिवत्तिहेउं च । इच्छाकार सामाचारी उस्सासाइ पमोत्तुं तदणापुच्छाए पडिसिद्धं ॥ (विभा ३४६४) .."इच्छाकारो य सारणे ।... गुरु कृत्याकृत्य को जानते हैं। विनयप्रतिपत्ति के लिए सारणे इत्यौचित्यत आत्मन: परस्य वा कृत्यं उच्छ्वास आदि को छोड़ कोई कार्य गुरु को बिना पूछे । प्र . प्रति प्रवर्त्तने । तत्रात्मसारणे यथेच्छाकारेण यूष्मच्चिनहीं करना चाहिए। कीषितं कार्यमिदमहं करोमीति । "अन्यसारणे च मम पात्रलेपनादि सूत्रदानानि वा इच्छाकारेण कुरुतेति । प्रतिप्रच्छना सामाचारी (उ २६।६ शाव प ५३५) ..."परकरणे पडिपुच्छणा ।। जइ अब्भत्थेज्ज परं कारणजाए करेज्ज से कोई। परकरणे अन्यप्रयोजन विधाने प्रतिप्रच्छना, गुरुनियु- तत्थवि इच्छाकारो ण कप्पई बलाभिओगो उ ।। क्तोऽपि हि पुनः प्रवृत्तिकाले प्रतिपृच्छत्येव गुरुं, स हि (आवनि ६६८) कार्यान्तरमप्यादिशेत सिद्धं वा तदन्यतः स्यादिति । सारणा में इच्छाकार का प्रयोग करना--जहां (उ २६।५ शाव प ५३४) औचित्य हो, वहां स्वयं और अन्य के कार्य में प्रवृत्त होना एक कार्य को सम्पन्न कर परकरण-दूसरा कार्य इच्छाकार सामाचारी है । जैसेकरते समय गुरु से पुनः पूछना प्रतिप्रच्छना है। गुरु के आत्मसारण-इच्छा हो तो आपका यह कार्य मैं द्वारा किसी कार्य में नियुक्त होने पर भी प्रवृत्तिकाल में करू । -कार्य करते समय पुन: गुरु की आज्ञा लेनी चाहिये । अन्यसारण - आपकी इच्छा हो तो आप मुझे सूत्र संभव है गुरु किसी दूसरे कार्य के लिए आदेश दें। यह की वाचना दें, पात्र के लेप लगा दें आदि । भी संभव है, पूर्व निर्दिष्ट कार्य किसी अन्य के द्वारा प्रयोजन होने पर जो दूसरे से अपना कार्य कराना Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाचारी ६८८ उपसम्पदा सामाचारी चाहता है, वहां वह इच्छाकार का प्रयोग करे-आपकी स्वीकृति) के लिए तथाकार (यह ऐसे ही है) का प्रयोग इच्छा हो तो आप मेरा यह कार्य कर दें, किन्तु जबरन करे। उनसे वह कार्य न करवाए । कप्पाकप्पे परिणिट्रियस्स ठाणेसु पंचसु ठियस्स । अब्भुवगमंमि वज्जइ अब्भत्थेउं ण वट्टइ परो उ । संजमतववड्ढगस्स उ अविकप्पेणं तहाकारो॥ अणिगृहियबलविरिएण साहुणा ताव होयव्वं ॥ वायणपडिसुणणाए उवएसे सुत्तअत्थकहणाए । जइ हुज्ज तस्स अणलो कज्जस्स वियाणती ण वा वाणं । अवितहमेयं ति तहा पडिसुणणाए तहक्कारो॥ गेलन्नाइहिं वा हुज्ज विवडो कारणेहिं सो ॥ (आवनि ६८८,६८९) राइणियं वज्जेत्ता इच्छाकारं करेइ सेसाणं । जो कल्प-अकल्प (विधि-निषेध) का ज्ञाता है, महाएवं मझं कज्जं तुन्भे उ करेह इच्छाए । व्रतों में स्थित है, संयम और तप से सम्पन्न है, उसके (आवनि ६६९-६७१) प्रति तथाकार का प्रयोग करना चाहिये। साधु अपने बल-वीर्य का गोपन नहीं करते, अत: गुरु जब सूत्र पढाएं, सामाचारी आदि का उपदेश दें, दूसरे साधु से अपने कार्य के लिए अभ्यर्थना करना उचित सूत्र का अर्थ बताएं अथवा कोई बात कहें, तब शिष्य को नहीं है । किंतु यदि वह प्रस्तुत कार्य को करने में समर्थ तथाकार-आप जो कह रहे हैं, वह अवितथ (ठीक) है न हो अथवा उस कार्यविधि से अनभिज्ञ हो अथवा ग्लानवैयावत्य आदि कार्यों में व्यापत हो तो वह रत्नाधिक साधु के अतिरिक्त अन्य साधुओं से अभ्यर्थना या इच्छा 'उपसम्पदा सामाचारी कार सामाचारी का प्रयोग कर सकता है। ..."अच्छणे उवसम्पदा ।.... संजमजोए अब्भुट्टियस्स किंचि वितहमायरियं । आचार्यान्तरादिसन्निधौ अवस्थाने उप-सामीप्येन मिच्छा एतंति वियाणिऊण मिच्छत्ति कायव्वं ॥ सम्पादनं-गमनम्"""इयन्तं कालं भवदन्तिके मयाऽऽसित(आवनि ६८२) व्यमित्येवंरूपा। (उ २६१७ शाद प ५३५) संयमयोगों की साधना में अभ्यत्थित मनि द्वारा ज्ञान आदि की उपलब्धि के लिए दूसरे गण के अन्यथा आचरण होने पर और उसकी जानकारी हो जाने के आचार्य आदि की सन्निधि में रहना, 'मैं आपका शिष्य पर उसे मिथ्याकार सामाचारी-'मिच्छा मि दुक्कडं' का र । हं'-इस रूप में मर्यादित काल तक शिष्यत्व स्वीकार करना उपसम्पदा सामाचारी है। प्रयोग करना चाहिये। उवसंपया य तिविहा णाणे तह दंसणे चरित्ते य । . मिच्छा मि दुक्कडं का अर्थ । (द्र. प्रतिक्रमण) दसणणाणे तिविहा दुविहा य चरित्तअट्ठाए ।। मिथ्याकार सामाचारी वत्तणा संधणा चेव गहणं सुत्तत्थतदुभए । .....मिच्छाकारो य निदाए ।।... (उ २६।६) वेयावच्चे खमणे, काले आवकहाइ य ।। अनाचरित की निन्दा के लिए मिथ्याकार का प्रयोग (आवनि ६९८,६९९) करना मिथ्याकार सामाचारी है। उपसम्पदा के तीन प्रकार हैं--ज्ञान-उपसम्पदा, मिथ्येदमिति प्रतिपत्तिः, सा चात्मनो निन्दा--जुगुप्सा दर्शन-उपसम्पदा और चारित्र-उपसम्पदा । दर्शन और ज्ञान की उपसंपदा के तीन-तीन प्रकार और चारित्र की तस्यां, वितथाचरणे हि धिगिदं मिथ्या मया कृतमिति निन्द्यत एवात्मा विदितजिनवचनैः। (उशाव प ५३५) उपसम्पदा के दो प्रकार हैं। ज्ञान तथा दर्शन की उपसम्पदा के तीन-तीन __ गलत आचरण होने पर--'हा ! धिक्कार है, मैंने प्रकारगलती की'-इस रूप में अपनी निंदा करना तथा उस • वर्तना-पूर्वगृहीत सूत्र का परावर्तन । आचरण के प्रति जूगुप्सा करना मिथ्याकार है। ० संधना –विस्मृत सूत्र की पुनः संघटना। तथाकार सामाचारी • ग्रहण-नए सूत्र और अर्थ का ग्रहण। ""तहक्कारो य पडिस्सुए। (उ २६१६) चारित्र की उपसम्पदा के दो प्रकार... मुनि प्रतिश्रवण (गुरु द्वारा प्राप्त उपदेश की १. वयावृत्य के लिए। Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाचारी ६८९ सामायिक * * २.क्षपण-तपस्या के लिए । ३. सामायिक के प्रकार यह उपसम्पदा इत्वरिक अथवा यावत्कथिक होती | सम्यक्त्व सामायिक (द्र. सम्यक्त्व ) श्रुतसामायिक (5. श्रुतज्ञान) ४. सामाचारी का महत्त्व * देशविरत सामायिक (द्र. श्रावक) सामायारि पवक्खामि, सव्वदुक्खविमोक्खणि। * सर्वविरत सामायिक (व्र. चारित्र) (उ २६।१) ४. सामायिक का निर्गम एवं सामायारि जंजंता चरणकरणमाउत्ता। ० कर्ता साह खवंति कम्मं अणेगभवसंचियमणंतं ॥ • लक्षण (ओनि ८१०) ०काल सामाचारी सब दुःखों से मुक्ति दिलाने वाली है। ० स्थिति चारित्र और समिति-गुप्ति में सावधान साधु ५. सामायिक : आवरण क्षय सामाचारी का प्रयोग करता हआ अनेक भवों में संचित ६. सामायिक और नय अनन्त कर्मों को क्षीण कर देता है। ७. सामायिक और लोक (दसविध सामाचारी की सम्यक परिपालना से व्यक्ति • महाविदेह आदि में सामायिक में निम्न गुण उत्पन्न होते हैं ० अकर्मभूमि और सामायिक १-२. आवश्यिकी और नषेधिकी से निष्प्रयोजन गमना • अन्तरकाल गमन पर नियंत्रण रखने की आदत पनपती है। ० विरहकाल ३. मिच्छाकार से पापों के प्रति सजगता के भाव पनपते ० अविरहकाल ०भव ४-५. आपृच्छा और प्रतिपृच्छा से श्रमशील तथा दूसरों। ० आकर्ष के लिए उपयोगी बनने के भाव बनते हैं । ८. सामायिक और क्षेत्रस्पर्शना ६. छन्दना से अतिथि सत्कार की प्रवृत्ति बढ़ती है। ० भावस्पर्शना ७. इच्छाकार से दूसरों के अनुग्रह को सहर्ष स्वीकार | ९. सामायिक और ज्ञान करने तथा अपने अनुग्रह में परिवर्तन करने की कला १०. सामायिक और उपयोग आती है । दूसरों के अनुग्रह की हार्दिक स्वीकृति ११. सामायिक और कर्मस्थिति स्वयं में विनय पैदा करती है। १२. सामायिक और संज्ञी-असंज्ञी ८. उपसम्पदा से परस्पर-ग्रहण की अभिलाषा पनपती ० आहारक-पर्याप्तक ० संस्थान, संहनन, अवगाहना ९. अभ्युत्थान (गुरु-पूजा) से गुरुता की ओर अभिमुखता ० आयुष्य होती है। • चार गति १०. तथाकार से आग्रह की आदत छट जाती है. विचार | १३. सामायिक के ग्राह्य और वर्जनीय नक्षत्र करने के लिए प्रवृत्ति सदा उन्मुक्त रहती है।) • ग्राह्य और वर्जनीय तिथियां • प्राह दिशाएं सामायिक- समता की साधना। • प्रशस्त-अप्रशस्त क्षेत्र १. सामायिक की परिभाषा १४. सामायिकसूत्र १५. सामायिक का महत्त्व ० अर्हता ० चौवह पूर्वो का सार २. सामायिक के आठ निर्वचन * सामायिक : आवश्यक का एक भेद (द. आवश्यक) • आठ उदाहरण * सामायिक और लेश्या (द्र. लेश्या ) ० उद्देश्य Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायिक १. सामायिक की परिभाषा आया खलु सामाइयं पञ्चवखायंतओ हवइ आया।... ( आवनि ७९० ) सामाइयभावपरिणइभावाओ जीव एव सामइयं । '''' (विभा २६३६) सावद्य योग का प्रत्याख्यान करने वाला आत्मा सामायिक है । सामायिक भाव में परिणत होने से आत्मा सामायिक है। जो न विवट्ट रागे नवि दोसे दोन्ह मझवारम्भि सो होइ उ मकत्वो सेसा सम्बे अमज्झत्या | ( आवनि ८०३ ) जो न राग में वर्तन करता है और न द्वेष में वर्तन करता है, दोनों से स्पृष्ट न होकर मध्य में रहता है, वह मध्यस्थ होता है । शेष सभी अमध्यस्थ होते हैं । सामायिक का उद्देश्य सावज्जजोग परिवज्जणट्ठा सामाइयं केवलियं पसत्थं । गिहत्यधम्मा परमंति णच्चा कुज्जा बुही आयहियं परत्थं ॥ ( आवनि ७९९ ) सावद्ययोग से बचने के लिए सामायिक एकमात्र पूर्ण और पवित्र अनुष्ठान है । यह गृहस्थ के अन्यान्य धर्मों में प्रधान है, परम है। आत्महित और मोक्ष के लिए इसकी आराधना करनी चाहिए। ६९० सामायिक की अर्हता पियधम्मो दढधम्मो संविग्गोऽवज्जभीरू असढो य । तो दंतो गुत्तो पिरग्यय जिइंदिओ उज्जू ॥ असढो तुलासमाणी समिओ तह साहुसंगहरओ य गुणसंपओववीओ जुग्गो सेसो अजुग्गो य ॥ (विमा ३४१०, ३४११ ) प्रियधर्मा, दृढधर्मा, संविग्न, पापभीरु, अशठ, क्षान्त, दान्त, गुप्त, स्थिरव्रती जितेन्द्रिय ऋजु, मध्यस्थ, समित और साधुसंगति में रत- इन गुणों से सम्पन्न शिष्य सामायिक ग्रहण करने के योग्य होता है, शेष अयोग्य हैं। जस्स सामाणिओ अप्पा संजमे नियमे तवे । तस्स सामाइयं होइ इइ केवलिभासियं ॥ जो समो सम्बभूएसु तसेसु थावरेसु य तस्स सामाइयं होइ इइ केवलिभासियं ॥ ( अनु ७०८ / गाथा १, २ ) जिस व्यक्ति की आत्मा संयम, नियम और तप में सामायिक के निर्वाचन जागरूक है, उसके सामायिक होता है जो त्रस और स्थावर सब प्राणियों के प्रति समभाव रखता है, उसके सामायिक होता है। यह केवली द्वारा भाषित है । २. सामायिक के आठ निर्वाचन - सामाइयं समइयं सम्मावाओ समास संखेवो । अणवज्जं च परिष्णा पञ्चनखाणे व ते अट्ठ ॥ ( आवनि ०६४) 'सामायिक' शब्द के आठ निक हैं- १. सामायिक- - जिसमें सम - मध्यस्थभाव की आय -- उपलब्धि होती है, वह सामायिक ( आत्मा का एकान्ततः प्रशमभाव) है। २. समयिक - सभी जीवों के प्रति सम्यक् - दयापूर्ण प्रवर्तन | ३. सम्यवाद राग-द्वेष शून्य होकर यथार्थ कथन - करना । ४. समास - सं + आस - जीव की संसार समुद्र से पारगामिता अथवा कर्मों का सम्यक क्षेपण । 1 । ५. संक्षेप - महान् अर्थ का अल्पाक्षरों में कथन यह चौदह पूर्वो का सार है । ६. अनवद्य-पापशून्य प्रक्रिया | ७. परिक्षा पाप के परित्याग का संपूर्ण ज्ञान । ८. प्रत्याख्यान- गुरु की साक्षी से परिहरणीय प्रवृत्ति से निवृत्ति | आठ निरुक्तों के आठ उदाहरण दमते मेयज्जे कालयपुच्छा चिलाय अत्तेय । धम्मरुद्द इला तेवलि सामाइए अदुदाहरणा ॥ ( आवनि ८६५) १. बत हस्तीशीर्ष नगर में राजा दमदन्त राज्य करता था । हस्तिनापुर में पांडवों का राज्य था दमदन्त का उनके साथ वैरभाव था। एक बार राजा दमदन्त राजगृह गया हुआ था, तब पांडवों ने उसके राज्य को लूट लिया और राजधानी को जला डाला । दमदंत ने प्रतिशोधन हस्तिनापुर पर आक्रमण कर दिया । उसके भय से कोई बाहर नहीं आया तब दमदंत पुनः अपने देश लौट आया। संयोगवश अतिसंवेग से वह प्रव्रजित हो एकलविहार प्रतिमा की साधना करते हुए हस्तिनापुर आया और गांव के Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायिक के निरुक्त : उदाहरण सामायिक बाहर प्रतिमा में स्थित हो गया। पांचों पांडव उसे ३. कालकपृच्छा वन्दन करने गए । दुर्योधन भी वहां आया । जब उसे कालक प्रवजित हो गए। दत्त राजा बना। ज्ञात हुआ कि यह दमदत है, तब उसमें वैर का भाव उसने मुनि कालक से भविष्य पूछा। मुनि ने कहाजागा और देखते-देखते मुनि के चारों ओर पत्थरों 'सातवें दिन तुम श्वकुंभी में पकार जाओगे।' इसका का जमाव हो गया। पत्थरों से मुनि ढक गए। क्या विश्वास? राजा के पूछने पर मूनि ने कहालौटते हुए युधिष्ठिर को ज्ञात हुआ कि यह दुर्योधन सातवें दिन तुम्हारे मुंह में मल का निक्षेप होगा। का दुष्कृत्य है। उन्होंने सारे पत्थरों को हटाया, राजा ने मुनि को कैद कर लिया। मुनि का अभ्यंगन किया और दुष्कृत्य के लिए क्षमा सातवें दिन राजा अश्वक्रीडा के लिए गया । लौटते याचना की। मुनि दमदंत का पांडवों और दुर्योधन समय उसने सोचा--आज मुनि को मार डालना है। ----दोनों के प्रति समभाव था। वह आगे बढ़ा । एक स्थान पर अश्व रुका । उस २. (क) महाराजा चन्द्रावतंसक अश्व ने पैर पटका । उस स्थान पर मल विसर्जित माघ का महिना । साकेत नगरी के राजा चन्द्रावतं- कर किसी ने उस पर पुष्प डाल दिए थे। घोड़े के सक ने प्रतिमा स्वीकार करते हुए यह प्रतिज्ञा की पैर से मल उछलकर राजा के मुंह में चला गया । कि जब तक वासगृह में दीपक जलता रहेगा तब तक राजा डरा। दंडिकों ने जान लिया कि राजा मुनि प्रतिमा में स्थित रहूंगा। पहला प्रहर बीत गया। को मारेगा। उन्होंने उसे पकड़ कर एक कुंभी में डाल दूसरे प्रहर में दासी ने सोचा कि स्वामी ध्यानस्थ दिया। उसी कुंभी में दो-चार कुत्ते भी डाल दिए। हैं । अंधेरा न हो जाए। उसने दीपक में तेल डाल कुंभी को अग्नि पर चढ़ाया। ताप लगा। कुत्ते दिया। चारों प्रहर वह दीपक जलता रहा। अत्यंत खंखार होकर राजा को काटने लगे। उसे खंड-खंड शीत के कारण राजा प्रातःकाल दिवंगत हो गया। कर मार डाला। कालक ने जैसा कहा वैसे ही उसने वेदना को समभाव से सहा । दासी पर कूपित हुआ । यह सम्यग्वाद है। नहीं हुआ। ४. चिलात (ख) मुनि मेतार्य राजगृह में धन नामक सार्थवाह रहता था। उसकी चांडाल मूनि मेतार्य भिक्षा के निमित्त एक स्वर्णकार दासी का नाम था चिलाता। दासी के पुत्र का नाम था के वहां गए । स्वर्णकार महाराज श्रेणिक के लिए चिलातक । सुंसुमा धन सार्थवाह की प्रिय पुत्री थी। स्वर्ण-यवों का निर्माण कर रहा था। मुनि को आए एक बार धन ने कुपित होकर दासीपुत्र चिलातक को देख वह उठा । भीतर गया। वह भिक्षा लेकर नहीं घर से निकाल दिया। वह वहां से गया और दस्युदल आया। मुनि वहां से चले गए। इतने में ही क्रौंच के साथ जुड़ गया । कालान्तर में वह दस्यु सेनापति पक्षी ने 'यव' निगल लिए। स्वर्णकार ने यवों को न बना और उसी धन सार्थवाह को लटने राजगह में देख, मुनि पर आशंका की। मुनि से पूछताछ की। आया । सारा धन बटोर कर जाते समय उसने मुनि मौन रहे । तब स्वर्णकार ने गीले चमड़े से उनके सुसुमा का भी अपहरण कर लिया। सेठ ने दलबल सिर को बांधा । ज्यों-ज्यों चमड़ा सूखता गया, मुनि के साथ पीछा किया। जब चोरपति चिलातक ने को असह्य वेदना होने लगी। आंखें बाहर आ गिरी। देखा कि वह सुसुमा को ले जाने में असमर्थ है, तब मुनि निष्प्राण होकर भूमि पर गिर पड़े। इतने में उसने सुसुमा का सिरच्छेद कर, धड़ को वहीं फेंक, ही किसी कारणवश क्रौंचपक्षी ने यवों को उगल केवल सिर को ले आगे बढ़ा । वह दिग्मूढ हो गया । डाला। लोगों ने स्वर्णकार को बुरा-भला कहा । एकांत में एक मुनि को ध्यानस्थ देखा। वन्दना कर मुनि मेतार्य को क्रौंच पक्षी द्वारा यव निगलने की धर्म पूछा । मुनि ने समासरूप में धर्म बताते हुए कहा बात ज्ञात थी, पर उन्होंने प्राणीदया से प्रेरित होकर -उपशम, विवेक, संवर । आवेग का उपशम करो, स्वप्राणों की बलि देना ही उचित समझा। ममत्व का विवेक करो-परित्याग करो और इंद्रिय Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायिक ६९२ सामायिक के निरुक्त : उदाहरण ७. इलापुत्र तथा मन का निग्रह करो। इन तीन शब्दों में लीन होकर चिलातक ध्यानारूढ हो गया। चींटियों ने उसके शरीर को छलनी बना डाला। परन्तु चिलातक ध्यान से विचलित नहीं हुआ। धर्म का समासरूप उसका त्राण बन गया। ५. ऋषि आत्रेय चार ऋषि महाराज जितशत्र के पास उपस्थित होकर बोले-हमने चार ग्रन्थों का निर्माण किया है । प्रत्येक ग्रन्थ लाख-लाख श्लोक परिमाण है। आप उन्हें सुनें। राजा ने कहा- मेरे पास इतना समय नहीं है। आप अपने ग्रन्थों को संक्षिप्त करें। संक्षिप्त करते-करते उन्होंने चार लाख श्लोकों का सार एक श्लोक में आबद्ध कर राजा से कहा जीर्णे भोजनमात्रेयः, कपिलः प्राणिनां क्या । बृहस्पतिरविश्वासः, पञ्चालः स्त्रीषु मार्दवम् ॥ आयुर्वेद के आचार्य आत्रेय ने कहा-किए हुए भोजन के जीर्ण होने पर भोजन करना ही आरोग्य का गुर है। धर्मशास्त्र के प्रणेता कपिल बोले-प्राणी मात्र पर दया रखना ही श्रेष्ठ धर्म है। नीतिशास्त्र के विशारद बृहस्पति बोले-किसी पर विश्वास नहीं करना चाहिए और कामशास्त्र के प्रणेता पंचाल ने कहा-स्त्रियों के प्रति मृदुता बरतनी चाहिए। यह संक्षेपीकरण का उत्कृष्ट उदाहरण है। ६. धर्मरुचि वसंतपुर के जितशत्रु राजा का पुत्र धर्मरुचि था। उसकी माता का नाम था धारिणी। राजा पुत्र को राज्यभार देकर प्रव्रजित होना चाहता था। पुत्र ने मां से पूछा-मां! पिताजी मुझे राज्यभार देकर स्वयं राज्य क्यों छोड़ना चाहते हैं ! मां ने कहावत्स ! राज्य संसार बढ़ाने वाला होता है । धर्मरुचि बोला-मां ! मैं फिर क्यों राज्य में फंसू । तब पिता, पुत्र और मां--तीनों तापस बन गए। अमावस्या आई। उद्घोषित हुआ कि कल अमावस्या है । आज .. ही फलफूलों का संग्रह कर लें। कल अनाकट्टि होगी। धर्मरुचि ने सोचा-अरे! यह क्या ? अनवद्यअनाकुट्टि तो प्रतिदिन होनी चाहिए। चिंतन आगे बढ़ा । जातिस्मृति ज्ञान उत्पन्न हुआ और वे प्रत्येकबुद्ध हो गए। इलावर्धन नगर में 'इला' देवता का मंदिर था। एक सार्थवाही पुत्र के निमित्त देवता की पूजा-अर्चा करती थी। उसे पुत्र की प्राप्ति हुई। पुत्र का नाम 'इलापुत्र' रखा । उसने अनेक कलाएं सीखीं और उन सबमें दक्षता प्राप्त कर ली। एक बार वह नट मंडली की एक कन्या में आसक्त हो गया। उसने नट-मुखिया से उसकी याचना करते हुए कहानटिनी के वजन जितनी स्वर्ण-मूद्राएं मैं देने के लिए तैयार हूं। नट बोला-यह पुत्री हमारी अक्षयनिधि है । यदि तुम हमारी नट विद्या में प्रवीण होकर हमारे साथ-साथ घूमोगे तो संभव है यह कन्या तुम्हें वरण कर ले।' इलापुत्र नटविद्या सीखने लगा। कुछ ही समय में वह निपुण हो गया। एक बार राजा के समक्ष नट-विद्या दिखाने के लिए पूरी मंडली वेणातट पर गई । राजा अपने पूरे परिवार के साथ नटविद्या देखने उपस्थित हआ। नटों की कला देखते-देखते राजा का मन उस नट-पुत्री में अटक गया। वह उसमें आसक्त होकर उसकी कामना करने लगा। नट इलापुत्र अपना करतब दिखा रहा था। राजा अन्यमनस्क था। इलापुत्र के कला-कौशल पर राजा के अतिरिक्त सब दर्शक मंत्रमुग्ध थे। राजा इलापुत्र की मृत्यु की कामना कर रहा था। इलापुत्र ने तीन बार अपना कौशल दिखाया । प्रत्येक बार पूछने पर राजा यही कहता-मैंने पूरा नहीं देखा, पुनः दिखाओ । चौथी बार इलापुत्र ने सोवा-धिक्कार है कामभोगों को। राजा इतनी रानियों से भी तृप्त नहीं हुआ । यह नट-कन्या में आसक्त है और मुझे मारना चाहता है । इलापुत्र बांस के अग्र भाग पर कला दिखा रहा था। उसने देखा, एक कुलवधू मुनि को भिक्षा दे रही है। मुनि उस रूपसुंदरी की ओर न देखते हुए अपनी भिक्षाचर्या में प्रशान्तभाव से तल्लीन हैं । इलापुत्र के अध्यवसाय विशुद्धतर होते गए। उसी समय उसे केवलज्ञान हो गया। नटकन्या विरक्त हो गई। अग्रमहिषी और राजा भी उपशम में अग्रसर हुए और इस प्रकार चारों केवलज्ञानी हुए और सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो गए। इलापूत्र ने 'परिज्ञा' के द्वारा अपना लक्ष्य प्राप्त कर लिया। Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायिक का निर्गम सामायिक कर्ता ८. तेतलीपुत्र चारित्र सामायिक के दो भेद हैं - अगार सामायिक तेतलीपूर नगर के राजामात्य का नाम तेतलीपत्र (देशविरति) और अनगार सामायिक (सर्वविरति)। . था। उसकी पत्नी पोटिला कालान्तर में प्रव्रजित अध्ययन-श्रुत सामायिक के तीन भेद हैं-सूत्र होकर समाधि मृत्यु को प्राप्त कर देवलोक में देव सामायिक, अर्थ सामायिक तथा तदुभय सामायिक । . रूप में उत्पन्न हई। एक बार अमात्य तेतलीपुत्र ४. सामायिक का निर्गम राजा द्वारा अवमानित होकर दुर्ध्यान में दिन बिताने वइसाहसुद्धएक्कारसीए पूव्वण्हदेसकालंमि । लगा। उसने आत्महत्या के नानाविध प्रयत्न किए, महसेणवणज्जाणे अणंतरं परंपर सेसं ।।। पर सब व्यर्थ । वह चिन्ताग्रस्त होकर बैठा था। (आवनि ७३४) उस समय उसकी स्वर्गस्थ पत्नी पोट्टिला, जो देव वैशाख शुक्ला एकादशी, पूर्वाह्न काल, महासेनवन बनी थी, वह मूलरूप में वहां आई और अपनी उद्यान में भगवान महावीर ने (पहली बार) सामायिक कृत्रिम व्यथा प्रगट करती हुई बोली-तेतली! मैं का निरूपण किया। चारों ओर से आपदाओं से घिर गई हूं। अब बताओ, मैं कहां जाऊं? तब तेतली बोला'पोट्टिले ! भीयस्स खलु भो! पव्वज्जा""सहाय- केण कयं ति य ववहारओ जिणिदेण गणहरेहिं च । किच्चं'--भयभीत के लिए प्रव्रज्या ही सरण है।' तस्सामिणा उ निच्छयनयस्स तत्तो जओऽणन्नं ।। पोट्रिलारूपी देव ने कहा- तुम स्वयं प्रव्रज्या ग्रहण (विभा ३३८२) करो। इतना कहकर देव अदश्य हो गया। तेतली- व्यवहार दृष्टि में सामायिक का प्रतिपादन तीर्थङ्कर पुत्र चिन्तन की गहराई में उतरा। शुभ अध्यवसाय और गणधरों ने किया। निश्चय नय के अनुसार सामायिक से उसे जातिस्मति ज्ञान उत्पन्न हुआ। उसने अपना का कर्ता है सामायिक का अनुष्ठान करने वाला । क्योंकि पूर्वभव देखा और यह जान लिया कि उसने पूर्वजन्म सामायिक का परिणाम उसके अनुष्ठाता से अन्य नहीं है। में श्रामण्य का पालन किया था। वह और गहराई लक्षण में गया। उसने उसी पथ पर जाने का निश्चय नाणेण जाणई भावे दंसणेण य सद्दहे । किया। तत्क्षण पूर्व-अधीत सारा श्रुत उसके स्मृति चरित्तेण निगिण्हाइ'. "" ""॥ पटल पर नाचने लगा। उसने देवता द्वारा प्रतिबुद्ध होकर सर्व सावध योगों का प्रत्याख्यान कर लिया (उ २८।३५) और उस प्रत्याख्यान में वह दृढ़ रहा । उसी की यह जीव ज्ञान से पदार्थों को जानता है, दर्शन से श्रद्धा फलश्रुति थी कि वह केवली, सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हो करता है और चारित्र से निग्रह करता है। गया । सद्दहइ जाणइ जओ पच्चक्खायं तओ जओ जीवो।"" (देखें-आवनि ८६५-८७९ हावृ १ पृ २४३-२५०; ..."सद्धेय-नेय-किरिओवओगओ सव्वदव्वाई।। आवचू १ ४९१-५०१) (विभा २६३५, २६३६) ३. सामायिक के प्रकार सम्यक्त्व सामायिक का लक्षण है-तत्त्वश्रद्धा। श्रुत सामायिक का लक्षण है - तत्त्वपरिज्ञान । सामाइयं च तिविहं सम्मत्त सूयं तहा चरित्तं च । चारित्र सामायिक का लक्षण है--- सावद्ययोगदविहं चेव चरित्तं अगारमणगारियं चेव ॥ विरति । (आवनि ७९६) अज्झयणं पि य तिविहं सुत्ते अत्थे अ तदुभए चेव । (विभा २६७४) सम्मत्तस्स सुयस्स य पडिवत्ती छविहे वि कालम्मि । सामायिक के तीन भेद हैं -सम्यक्त्व सामायिक, विरई विरयाविरइं पडिवज्जइ दोसु तिसु वावि ।। श्रत सामायिक तथा चारित्र सामायिक । (आवनि ८११) काल एचव। Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायिक ६९४ सामायिक और लोक . सम्यक्त्व सामायिक और श्रुत सामायिक की प्रति- से होती है। देश विरति सामायिक की प्राप्ति अप्रत्यापत्ति सुषम-सुषमा आदि छहों कालखण्डों में होती है। ख्यानावरण के क्षयोपशम से तथा सर्वविरति सामायिक देश विरति और सर्वविरति सामायिक की प्रतिपत्ति की प्राप्ति प्रत्याख्यानावरण के क्षय, क्षयोपशम अथवा उत्सर्पिणी के दुषम-सुषमा, सुषम-दुःषमा तथा अव- उपशम से होती है। सर्पिणी के सुषम-दुःषमा, दुःषम-सुषमा और दुःषमा इन ६. सामायिक और नय कालखंडों में होती है। उहिट्ठे च्चिय नेगमनयस्स कत्ताऽणहिज्जमाणो वि । स्थिति जं कारणमुद्देसो तम्मि य कज्जोवयारो त्ति ।। सम्मत्तस्स सुयस्स य छावटी सागरोवमाई ठिई। संगह-ववहाराणं पच्चासन्नयरकारणत्तणओ । सेसाण पूवकोडी देसूणा होइ उक्कोसा ।। उद्दिट्टम्मि तदत्थं गुरुपामूले समासीणो॥ (आवनि ८४९) उज्जुसुयस्स पढंतो तं कुणमाणो वि निरुवओगो वि । दो बारे विजयाइस गयस्स तिण्णच्चए य छावट्ठी। आसन्नासाहारणकारणओ सद्द-किरियाणं ।। नरजम्मपुवकोडीपुहुत्तमुक्कोसओ अहिअं॥ सामाइओवउत्तो कत्ता सह-किरियाविउत्तो वि । अंतोमुहुत्तमित्तं जहन्नयं चरणमेगसमयं तु। सहाईण मणन्नो परिणामो जेण सामइयं ।। उवओगंतमुहुत्तं नानाजीवाण सव्वद्धं ।। (विभा ३३९१-३३९४) (विभा २७६२, २७६३) नगम नय के अनुसार सामायिक अध्ययन के लिए सम्यक्त्व और श्रुत सामायिक की उत्कृष्ट स्थिति उद्दिष्ट शिष्य यदि वर्तमान में सामायिक का अध्ययन नहीं कुछ अधिक छियासठ सागरोपम की है। देशविरति और कर रहा है, तब भी वह सामायिक है। सर्वविरति सामायिक की उत्कृष्ट स्थिति देशोन पूर्वकोटि संग्रहनय और व्यवहारनय के अनुसार सामायिक की है। तेतीस सागर की स्थिति वाले विजय आदि विमानों अध्ययन को पढने के लिए गुरु चरणों में आसीन शिष्य सामायिक है । में दो बार उत्पन्न होने पर अथवा बाईस सागर की स्थिति वाले अच्युत विमान में तीन बार उत्पन्न होने पर सम्यक्त ऋजुसूत्र नय के अनुसार अनुपयोगपूर्वक सामायिक और श्रत सामाधिक की स्थिति छियासठ सागर की होती अध्ययन को पढ़ने वाला शिष्य सामायिक है। है। इन देब-भवों के मध्य में होने वाले मनुष्य भव की शब्द आदि तीनों नयों के अनुसार शब्द क्रिया से स्थिति मिलाने पर वह कुछ अधिक छियासठ सागर की वियुक्त सामायिक में उपयुक्त शिष्य सामायिक है। क्योंकि हो जाती है। इनके अनुसार विशुद्ध परिणाम ही सामायिक है । प्रथम तीन सामायिक की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहुर्त ७. सामायिक और लोक तथा चारित्र सामायिक की स्थिति एक समय की है। उपयोग की दृष्टि से चारों सामायिक की स्थिति जघन्य सम्म-सुआणं लंभो उड्ढं च अहे अतिरियलोए अ। विरई मणुस्सलोए विरयाविरई य तिरिएसुं ।। अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट नाना जीवों की अपेक्षा सर्वकाल पुव्वपडिवण्णगा पुण तीसुवि लोएसु निअमओ तिण्हं । चरणस्स दोसु नियमा भयणिज्जा उड्ढलोगम्मि ॥ ५. सामायिक : आवरणक्षय (आवनि ८०७,८०८) श्रुतसामायिकमपि मति-श्रुतक्षयोपशमाल्लभ्यते, सम्यक्त्व सामायिक और श्रुत सामायिक की प्राप्ति सम्यक्त्व-देश विरति-सर्वविरतिसामायिकानि तदावरणस्य तीनों- ऊर्ध्व, अधः और तिर्यक् लोक में होती है। देशयथासंभवं क्षयतः शमतः-उपशमत इत्यर्थः, अथवोभयतः विरति सामायिक की प्राप्ति केवल तिर्यक लोक में होती क्षयोपशमाद् भवन्ति । (विभामवृ २ पृ ३३०) है। सर्वविरति सामायिक की प्राप्ति मनुष्य लोक में होती श्रत सामायिक की प्राप्ति मतिज्ञानावरण और श्रुत- है। ज्ञानावरण के क्षयोपशम से होती है। सम्यक्त्व सामायिक श्रुत, सम्यक्त्व और देशविरति सामायिक के पूर्वप्रतिकी प्राप्ति दर्शन सप्तक के क्षयोपशम, उपशम अथवा क्षय पन्नक नियमतः तीनों लोकों में होते हैं । सर्वविरति Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विरहकाल ६९५ सामायिक सामायिक के पूर्वप्रतिपन्नक अधोलोक और तिरछे लोक पुनरुत्पद्यमानोऽनन्तं कालमवतिष्ठते, ततः पुनरपि में नियमतः होते हैं। ऊर्ध्व लोक में इसकी भजना है। द्वीन्द्रियादिष्वागत्य श्रुतं लभते, तस्यायमेकेन्द्रियावस्थितिमहाविदेह आदि क्षेत्र में सामायिक काललक्षणोऽनन्तकाल उत्कृष्टतोऽन्तरं भवति । अयं चासंख्यातपुद्गलपरावर्तमानो द्रष्टव्यः । पलिभागम्मि चउत्थे चउव्विहं चरणबज्जियमकाले। (विभा २७७५,२७७६ मवृ पृ १७२) चरणं पि हुज्ज गमणे सव्वं सव्वत्थ साहरणे ॥ श्रुत सामायिक के प्रतिपत्ता का अंतर काल (विभा २७१०) महाविदेह में सदा दुःषम-सुषमा नामक चौथा अर (ता (सामायिक की पुनः प्राप्ति का व्यवहित काल) जघन्यतः अन्तर्मुहर्त, उत्कृष्टतः अनंत काल है। शेष तीन सामायिक ही रहता है। वहां चारों सामायिक की प्रतिपत्ति हो सकती है। समयक्षेत्र के बाहर केवल तिर्यच होते हैं। के प्रतिपत्ता का अंतर काल जघन्यतः अंतर्मुहर्त, उत्कृष्टतः देशोन अपार्ध पुद्गलपरावर्त्त है । यह अंतरकाल एक जीव अतः वहां सर्वविरति सामायिक को छोड़कर शेष तीन की अपेक्षा से है, नाना जीवों की अपेक्षा अंतरकाल नहीं सामायिक की प्रतिपत्ति हो सकती है। नन्दीश्वर आदि द्वीपों में विद्याचारण मुनियों के जाने पर अथवा देवों के होता। श्रुत सामायिक का जघन्य और उत्कृष्ट अंतर काल द्वारा संहरण होने पर वहां सर्वविरति सामायिक पूर्वप्रतिपन्न हो सकता है। मिथ्या अक्षरश्रुत की अपेक्षा से है। कोई द्वीन्द्रिय आदि जीव श्रुत प्राप्त कर मृत्यु के पश्चात् पृथ्वी आदि में उत्पन्न अकर्मभूमि और सामायिक होता है, वहां अंतर्मुहूर्त रहकर पुनः द्वीन्द्रिय आदि में ""नोउस्सप्पुसप्पिणिकाले तिसु सम्मसुत्ताई ॥ उत्पन्न हो श्रुत प्राप्त करता है, उसके अंतर्मुहूर्त का अंतर (विभा २७०९) काल होता है । देवकूरूत्तरकूरुष सुषमसुषमाप्रतिभागः, हरिवर्ष- जो द्वीन्द्रिय आदि जीव मर कर पृथ्वी, वनस्पति आदि रम्यकेषु सुषमाप्रतिभागः, हैमवतरण्यवतेषु सुषमदुःषमा- एकेन्द्रिय में पुनः पुनः उत्पन्न होता है और वहां अनंतकाल प्रतिभागः......"सुषमसुषमाप्रतिभागादिषु त्रिषु प्रतिभागेषु तक रहता है, तत्पश्चात् द्वीन्द्रिय आदि में उत्पन्न हो द्वे सम्यक्त्वश्रुतसामायिके जीवः प्रतिपद्यते । __ श्रुत प्राप्त करता है, उसकी अपेक्षा अनंतकाल का उत्कृष्ट (विभामवृ २ पृ १५२) अंतर कहा गया है। देवकूरु-उत्तरकूरु आदि अकर्मभूमियों में उत्सपिणी यह अनंतकाल असंख्यात पुद्गलपरावर्त जितना अवसर्पिणी काल का अभाव होता है। अतः वहां केवल श्रुत और सम्यक्त्व सामायिक होते हैं। होता है। सम्यक् श्रुत सामायिक का अंतर काल सम्यक्त्व क्षेत्र काल सामायिक आदि सामायिक जितना ही है। १. देवकुरु-उतरकुरु सुषम-सुषमा श्रुत और सम्यक्त्व विरहकाल २. हरितर्ष-रम्यकवर्ष सुषमा श्रुत और सम्यक्त्व सुयसम्म सत्तयं खलुविरयाविरईए होइ बारसगं । ३. हैमवत-ऐरण्यवत सुषम-दुःषमा श्रुत और सम्यक्त्व विरईए पन्नरसगं विरहियकालो अहोरत्ता ॥ अन्तरकाल श्रुतसम्मक्त्वयोः प्रतिपत्तिविरहकालः " जघन्यतकालमणंत च सुए अद्धापरियट्टओ य देसूणो। स्त्वेकसमय:....."देशविरते: "'जघन्यतस्तु त्रयः समयाः आसायणबहुलाणं उक्कोसं अंतरं होइ ।। .... "सर्वविरते:....जघन्यतस्तु समयत्रयमेव । मिच्छसुयस्स वणस्सइकालो सेससामण्णो। (आवनि ८५५ हाव पृ २४२) हीणं भिण्णमुहुत्तं सव्वेसिमिहेगजीवस्स ।। जिस काल में सामायिक का प्रतिपत्ता कोई नहीं द्वीन्द्रियादिः कश्चित् श्रुतं लब्ध्वा मृतो यः पृथिव्या- होता, वह उसका विरहकाल है। दिषत्पद्य तत्रान्तमहत्तं स्थित्वा पुनरपि द्वीन्द्रियादिष्वागत: श्रत सामायिक और सम्यक्त्व सामायिक की प्रतिपत्ति श्रुतं लभते तस्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमन्तरं भवति । यस्तु का विरहकाल उत्कृष्टतः सात अहोरात्र, देशविरति द्वीन्द्रियादिम॑तः पृथिव्य-ऽप्-तेजो-वायु-वनस्पतिषु पुनः सामायिक का बारह अहोरात्र और सर्वविरति सामायिक Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायिक का पन्द्रह अहोरात्र है । इसके पश्चात् किसी न किसी जीव को सामायिक की प्रतिपत्ति अवश्य होती है। श्रुत सामायिक और सम्यक्त्व सामायिक की प्रतिपत्ति का विरहकाल जघन्यतः एक समय तथा देशविरति और सर्वविरति का विरहकाल जघन्यतः तीन समय है । : अविरहकाल समयअगारीणं आवलियअसंखभागमेत्ता उ। असमया चरिते सव्वेसु जहन्न दो समया ॥ ( आवनि ८५४) सम्यक्त्व सामायिक, श्रुत सामायिक और देशविरति सामायिक के प्रतिपत्ता आवलिका के असंख्येय भाग समयों तक निरन्तर एक, दो आदि मिलते हैं। तत्पश्चात् उनका विरहकाल प्रारम्भ हो जाता है । चारित्र सामायिक के प्रतिपत्ता का अविरहकाल आठ समय तक होता है । उस अवधि में एक, दो आदि प्रतिपत्ता मिलते हैं, तत्पश्चात् उनका विरह काल प्रारंभ हो जाता है। सामायिक चतुष्क का जघन्यतः अविरहकाल दो समय का होता है । भव सम्मत्तदेसविरई पलियस्स असंखभागमेत्ताओ । अट्ठ भवा उ चरिते अनंतकालं च सुयसमए ॥ सम्यक्त्व देशविरतिमन्तः " 'जघन्यतस्त्वेकः' चारित्रे----जघन्यतस्त्वेक एव सामान्यश्रुतसामायिके जघन्यतस्त्वेकभवमेव, मरुदेवीव । ( आवनि ८५६ हावु पृ. २४२) सम्यक्त्व सामायिक और देशविरति सामायिक के प्रतिपत्ता क्षेत्रपल्योपम के असंख्यातवें भाग में जितने आकाश प्रदेश होते हैं, उत्कृष्ट उतने भव करते हैं तत्पश्चात् मुक्त हो जाते हैं तथा जघन्यतः एक भव करते हैं । चारित्र सामायिक का प्रतिपत्ता उत्कृष्ट आठ भव तथा जघन्यतः एक भव करता है। श्रुत सामायिक का प्रतिपत्ता उत्कृष्टतः अनन्त भव तथा सामान्यतः जघन्यतः एक भव करता है । जैसे - मरुदेवी । आकर्ष तिह सहस्सपुहुत्तं सयप्पुहुत्तं च होइ विरईए । एगभवे आगरिसा एवतिया होंति नायव्वा || तिन्ह सहस्समसंखा सहसपुहुतं च होइ विरईए । पाणभवे आगरा एवइया होंति णायव्वा ॥ ६९६ सामायिक और क्षेत्रस्पर्शना सम्यक्त्व, श्रुत और देशविरति सामायिक के एक भव में सहस्रपृथक्त्व आकर्ष (२००० से ९००० बार प्राप्त) 'सकते हैं और सर्वविरति के शतपृथक्त्व आकर्ष (२०० से ९०० बार) हो सकते हैं । सम्यक्त्व और देशविरति सामायिक के नाना भवों में उत्कृष्टतः असंख्येय हजार आकर्ष होते हैं । सर्वविरति सामायिक के नाना भवों में २ से ९ हजार आकर्ष होते हैं । श्रुत सामायिक के अनन्त भवों में अनन्त आकर्ष होते हैं । ८. सामायिक और क्षेत्रस्पर्शना सम्मत्तचरणसहिया सव्वं लोगं फुसे णिरवसेसं । सत्तय चोभागे पंच य सुयदेसविरई || ( आवनि ८५९ ) सम्यक्त्व सामायिक और सर्वविरति सामायिक से सम्पन्न जीव केवली समुद्घात के समय सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करता है। श्रुत सामायिक और सर्वविरति सामायिक से सम्पन्न जीव इलिका गति से अनुत्तर विमान में उत्पन्न होता है तब वह लोक के सप्त चतुर्दश (१४) भाग का स्पर्श करता है । सम्यक्त्व सामायिक और श्रुत सामायिक से सम्पन्न जीव छुट्टी नारकी में इलिका गति से उत्पन्न होता है तब वह लोक के पञ्च चतुर्दश (१४) भाग का स्पर्श करता है । देशविरति सामायिक से सम्पन्न जीव यदि इलिका गति से अच्युत देवलोक में उत्पन्न होता है तो वह पञ्च चर्तुदश (१४) भाग का स्पर्श करता है । यदि अन्य देवलोकों में उत्पन्न होता है। तो वह द्विचतुर्दश (१४) आदि भागों का स्पर्श करता है । भावस्पर्शना सव्वजीवेहि सुयं सम्मचरित्तारं सव्वसिद्धेहि । भागेहि असंखेज्जेहिं फासिया देसविरईओ ॥ ( आवनि ८६० ) सर्वजीवैः सांव्यवहारिकराश्यन्तर्गतैः सामान्यश्रुतं स्पृष्टं सर्वसिद्धानां बुद्ध्याऽसंख्येयभागीकृतानामसंख्येयभागैर्भागोनैर्देशविरतिः स्पृष्टा असंख्येयभागेन तु न स्पृष्टा, यथा मरुदेवास्वामिन्या । ( आवनि ८६० हावृ पृ २४२ ) सामान्य श्रुत सामायिक संव्यवहार राशि के सब जीवों द्वारा स्पृष्ट है । सम्यक्त्व सामायिक और सर्व( आवनि ८५७ ८५८) विरति सामायिक की प्रतिपत्ति के बिना कोई भी जीव Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायिक और कर्मस्थिति सामायिक सिद्ध नहीं बन सकता, अतः ये दोनों सामायिक सब सिद्धों यास्तु प्रथमसम्यक्त्वलाभकालेऽन्तरकरणप्रविष्टस्याद्वारा स्पृष्ट है । सब सिद्धों को बुद्धि से कल्पित असंख्येय वस्थिताध्यवसायस्य सम्यक्त्वादिलब्धयो भवन्ति ता भागों में विभक्त करने पर कहा जा सकता है कि देश- अनाकारोपयोगेऽपि भवन्ति न कश्चिद् दोषः । अन्तरकरणे विरति सामायिक असंख्येय भाग न्यून सिद्धों के द्वारा च वर्तमानः सम्यक्त्वश्रतसामायिकलाभसमकालमेव स्पृष्ट है। कोई जीव देशविरति सामायिक का स्पर्श किये कश्चिदतिविशुद्धत्वाद् देशविरतिम्, अपरस्त्वतिविशुद्धबिना ही मुक्त हो जाते हैं । जैसे-मरुदेवी। तरत्वात् सर्वविरतिमपि प्रतिपद्यते, इत्यौपशमिकसम्य६. सामायिक और ज्ञान क्त्वलाभकालेऽवस्थितपरिणामस्यानाकारोपयोगवतिनोऽपि दोसु जुगवं चिय दुगं भयणा देसविरइए य चरणे य।। चत्वार्यपि सामायिकानि भवन्ति । ओहिम्मि न देसवयं पडिवज्जइ होइ पडिवन्नो ।। (विभामवृ २ पृ१६०) देसव्वयवज्ज पवनो माणसे समंपि च चरित्तं । सर्वप्रथम सम्यक्त्व की प्राप्ति के समय अंतरकरण भवकेवले पवन्नो पुव्वं सम्मत्त-चारित्तं ॥ में प्रविष्ट जीव के परिणाम अवस्थित होते हैं । अवस्थित (विभा २७२८,२७२९) परिणाम के कारण अनाकार उपयोग में भी सम्यक्त्व • मतिज्ञान और श्रुतज्ञान में सम्यक्त्व और श्रत सामा- आदि लब्धियां प्राप्त हो सकती हैं। यिक की प्राप्ति युगपत होती है । देशविरति और सम्यक्त्व और श्रुत की प्राप्ति के साथ ही परिणामसर्वविरति सामायिक की भजना है। विशुद्धि के कारण देशविरति और सर्वविरति सामायिक ० अवधिज्ञान में सम्यक्त्व, श्रुत और देश विरति सामा- भी प्राप्त हो सकते हैं । इस प्रकार औपशमिक सम्यक्त्व यिक पूर्व-प्रतिपन्न होते हैं। उसमें देशविरति सामा- प्राप्ति के समय अवस्थित परिणामी जीव अनाकार उपयिक की प्रतिपत्ति नहीं होती, सर्व विरति सामायिक योग में भी चारों सामायिक प्राप्त कर सकता है। की प्रतिपत्ति हो सकती है। ० मन:पर्यवज्ञान में देशविरति सामायिक को छोड़कर . ११. सामायिक और कर्मस्थिति तीन सामायिक पूर्व प्रतिपन्न होते हैं। चारित्र अट्ठण्हं पयडीणं उक्कोसट्ठिइइ वट्टमाणो उ । सामायिक मनःपर्यवज्ञान के साथ भी प्राप्त हो जीवो न लहइ सामाइयं चउण्हपि एगयरं ॥ सकता है। सत्तण्हं पयडीणं अभितरओ उ कोडिकोडीणं । ० भवस्थ केवली के सम्यक्त्व और चारित्र सामायिक काऊण सागराणं जह लहइ चउण्हमण्णयरं ।। पूर्वप्रतिपन्न होते हैं। (आवनि १०५,१०६) आठों कर्मप्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति में वर्तमान १०. सामायिक और उपयोग जीव सामायिक चतुष्टयी में से एक भी सामायिक प्राप्त "सम्बाओ लद्धीओ जइ सागारोवओगभावम्मि । नहीं कर सकता। इह कहमुवओगदुगे लब्भइ सामाइयचउक्कं ॥ आयुष्य को छोड़कर सात कर्मप्रकृतियों की स्थिति सो किर निअमो परिवड्ढमाणपरिणामयं पइ इहं तु। जब अंत: कोटि-कोटि सागरोपम रहती है, तब जीव जोऽवट्रियपरिणामो लभेज्ज स लभिज्ज बीए वि॥ चारों में से कोई भी सामायिक प्राप्त कर सकता है। - (विभा २७३१,२७३२) उक्कोसयट्रितीए पडिवज्जते य णत्थि पडिवण्णो। यदि सारी लब्धियां साकार उपयोग में ही उत्पन्न अजहण्णमणुक्कोसे पडिवज्जते य पडिवणे ॥ होती हैं तब साकार और अनाकार—दोनों में चारों . (आवनि ८१७) सामायिक की प्राप्ति कैसे हो सकती है ? आयुष्य कर्म को छोड़कर शेष कर्मों की उत्कृष्ट साकार उपयोग की बात परिवर्धमान परिणामों की स्थिति में संक्लिष्ट परिणामों के कारण जीव कोई भी अपेक्षा से कही गई है। अवस्थित परिणाम की अपेक्षा सामायिक प्राप्त नहीं कर सकता। कर्मों की मध्यम स्थिति अनाकार उपयोग में भी चारों सामायिक प्राप्त हो सकते होने पर ही जीव के चारों सामायिक पूर्व प्रतिपन्न भी हो सकते हैं और प्राप्त भी हो सकते हैं। Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायिक १२. सामायिक और संज्ञी - असंज्ञी भवसिद्धि य जीवो पडिवज्जइ सो चउण्हण्णयरं । डिसेहो पुण असण-मीसए सण्णि पडिवज्जे ।। ( आवनि ८१३) पुणसद्दाओ सण्णी सम्मसुए होज्ज पुव्वपडिवन्नो । मीसो भवत्थकाले सम्मत्त चरितपडिवन्नो || ( विभा २७१३) भव्य और संज्ञी जीव चारों में से किसी भी सामायिक के प्रतिपत्ता हो सकते हैं। असंज्ञी, नोसंज्ञीनोअसंज्ञी (सिद्ध) और अभव्य ये तीनों किसी भी सामायिक के प्रतिपत्ता या पूर्वप्रतिपन्न नहीं होते । _referrera सामायिक से पूर्वप्रतिपन्न होते हैं, किन्तु सम्यक्त्व वर्जित तीन सामायिक संसारी जीवों के ही संभव है । सामायिकत्रय के साहचर्य के कारण सम्यक्त्व सामायिक को भी संसारी जीवों से संबंधित मान कर सिद्धों में उसका निषेध किया गया है। असंज्ञी जीवों में भी सास्वादन सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा सम्यक्त्व सामायिक और श्रुत सामायिक पूर्व प्रतिपन्न होते हैं । नोसंज्ञी - नोअसंज्ञी -- भवस्थ केवली सम्यक्त्व सामायिक और चारित्र सामायिक से पूर्वप्रतिपन्न होते हैं । (देखें - विभामवृ २ पृ १५३) आहारक- पर्याप्तक आहारओ उ जीवो पडिवज्जइ सो चउण्हमण्णयरं । एमेव य पज्जत्तो सम्मत्तसुए सिया इयरो | ( आवनि ८१५) goraण्णोऽणाहारगो दुगं सो भवंतरालम्मि । चरणं सेलेसाइसु इयरो त्ति दुगं अपज्जत्तो ॥ (विभा २७१८ ) • आहारक और पर्याप्तक जीव चारों में से कोई भी सामायिक प्राप्त कर सकते हैं। पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा चारों सामायिक हो सकते हैं । • अन्तरालगति के समय अनाहारक अवस्था में पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा सम्यक्त्व और श्रुत दो सामायिक हो सकते हैं । ६९८ सामायिक : संज्ञी - असंज्ञी आदि अवस्था में पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा सम्यक्त्व और चारित्र सामायिक होते हैं । • अपर्याप्त अवस्था में पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा सम्यक्त्व और श्रुत सामायिक हो सकते हैं । संस्थान, संहनन, अवगाहना सव्वेवि संठाणेसु लहइ एमेव सव्वसंघयणे । उक्कोसजणं वज्जिऊण माणं लहे मणुओ ॥ ( आवनि ८२१) सभी संस्थानों और सहननों में पूर्वप्रतिपन्नता और प्राप्ति की अपेक्षा चारों सामायिक हो सकते हैं । उत्कृष्ट और जघन्य भवगाहना को छोड़कर मध्यम अवगाहना वाले गर्भज मनुष्य में पूर्व प्रतिपन्नता और प्राप्ति की अपेक्षा चारो सामायिक हो सकते हैं । न जहन्नोगाहणओ पवज्जए, दोण्णि होज्ज पडिवन्नो । कोसोगा हणगो दुहाfव दो तिन्नि उतिरिक्खो || ( विभा २७३९ ) जघन्य अवगाहना वाले गर्भज मनुष्य और तिर्यञ्च की अपेक्षा प्रथम दो सामायिक हो सकते हैं । उत्कृष्ट कोई भी सामायिक प्राप्त नहीं कर सकते । पूर्वप्रतिपन्न अवगाहना वाले मनुष्य और तिर्यञ्च में पूर्वप्रतिपन्नता और प्राप्ति की अपेक्षा प्रथम दो सामायिक हो सकते हैं । मध्यम अवगाहना वाले तिर्यञ्च प्रथम तीन सामायिक के प्रतिपत्ता हो सकते हैं । आयुष्य संखेज्जाऊ चउरो भयणा सम्मसुए संखवासाणं ।'''' ( विभा २७२७ ) संख्येय वर्ष की आयु वाले जीव चारों ही सामायिक के प्रतिपत्ता हो सकते हैं । असंख्येय वर्ष की आयु वाले जीवों में सम्यक्त्व सामायिक और श्रुत सामायिक वैकल्पिक है । चार गति उसु विगईसु नियमा सम्मत्त सुयस्स होइ पडिवत्ती । मणुसु होइ विरई विरयाविरई य तिरिएसु ॥ ( आवनि ८१२ ) नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देव-इन चारों गतियों में नियम से सम्यक्त्व सामायिक और श्रुत सामायिक के • केवली समुद्घात की अनाहारक अवस्था तथा शैलेशी प्रतिपत्ता होते हैं । सर्वविरति सामायिक के प्रतिपत्ता Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायिकसूत्र सामायिक मनुष्य तथा देशविरति सामायिक के प्रतिपत्ता मनुष्य और प्रशस्त-अप्रशस्त क्षेत्र तियंच-दोनों होते हैं। विणयवओ विय कयमंगलस्स तदविग्धपारगमणाय । १३. सामायिक के ग्राह्य और वर्जनोय नक्षत्र देज्ज सुकओवओगो खित्ताईसु सुपसत्थेसु ॥ मियसिर अद्दा पुस्से तिन्नि य पुवाई मूलमस्सेसा ।। उच्छवणे सालिवणे परुमसरे कुसुमिए व वणसंडे । हत्थो चित्ता य तहा दस विद्धि कराई नाणस्स ।। गंभीर साणुणाए पयाहिणजले जिणहरे वा ।। (विभा ३४०८) दिज्ज न उ भग्ग-ज्झामिय-मसाण-सुन्नामणुन्नगेहेसु । ज्ञानवृद्धिकारक इन दस नक्षत्रों में सामायिक ग्रहण छारंगारक्खयारामेझाईदव्वळेसु करना चाहिए (विभा ३४०३-३४०५) १. मृगशिर ६. पूर्वाषाढा जो विनय से सम्पन्न है, अप्रमत्त है, कृतमंगल है, उसे २ आर्द्रा ७. मूल अपने अनुष्ठान का निर्विघ्न पार पाने के लिए प्रशस्त क्षेत्र ३. पुष्य ८. अश्लेषा में श्रुत आदि सामायिक प्रदान करना चाहिए। ४. पूर्वाप्रोष्ठपदा ९. हस्त इक्षुवन, शालिवन, पद्मसर, कुसुमित वनखण्ड और ५. पूर्वाफाल्गुनी १०. चित्रा। ऐसा जिनमन्दिर जो गंभीर-द्राक्षा, चन्दनलता आदि से संझागयं रविगयं विड्डेरं सग्गहं विलंबं वा । आच्छादित हो सानुनाद-प्रतिध्वनित होने वाला हो राहहयं गहभिण्णं च वज्जए सत्त नक्खत्ते ।। तथा प्रदक्षिणजल वाला हो----जहां जल प्रदक्षिणा करता (विभा ३४०९) हुआ बहता हो-ये श्रुत आदि सामायिक देने के सामायिक ग्रहण में वर्जनीय सात नक्षत्र .. लिए प्रशस्त क्षेत्र हैं। १. संध्यागत ५. विलंबी भग्नभूमि-खण्डहर, दग्धभूमि, श्मशान, शून्यगृह, २. रविगत ६. राहुहत अमनोज्ञ गृह और क्षार, अंगार, अवस्कर, अमेध्य आदि ३. विड्डेर ७. ग्रहभिन्न । निकृष्ट द्रव्यों से युक्त स्थान-इन अप्रशस्त क्षेत्रों में ४. सग्रह सामायिक का आदान-प्रदान नहीं करना चाहिये। ग्राह्य और वर्जनीय तिथियां चाउद्दसि पण्णरसिं वज्जेज्जा अमि च नवमि च । १४.' छद्रिं च चउत्थि बारसिं च सेसासु देज्जाहि ॥ करेमि भंते ! सामाइयं-सव्वं सावज्जं जोगं पच्च (विभा ३४०७) क्खामि, जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं-मणेणं वायाए चतुर्दशी, पूर्णिमा या अमावस्या, अष्टमी, नवमी, कारणं, न करेमि न कारवेमि करतं पि अन्नं न समणषष्ठी, चतुर्थी और द्वादशी-ये तिथियां सामायिक ग्रहण । जाणामि । तस्स भंते ! पडिस्कमामि निंदामि गरिहामि के लिए वर्जनीय हैं। शेष तिथियों-१,२,३,५,७,१०, अप्पाणं वोसिरामि। ___(आव १।२) ११,१३ में श्रुत की वाचना दी जा सकती है। भगवन् ! मैं सामायिक करता हूं। मैं जीवन-पर्यन्त ग्राह्य दिशाएं समस्त पापकारी प्रवृत्ति का, तीन करण-मन, वचन पुव्वाभिमुहो उत्तरमुहो व दिज्जाहवा पडिच्छेज्जा। और काया से तथा तीन योग-करने, कराने और अनुजाए जिणादओ वा दिसाइ जिणचेइयाई वा ॥ मोदन करने का प्रत्याख्यान करता है (विभा ३४०६) भगवन ! अतीत में किए हए पाप का मैं प्रतिक्रमण सामायिक देने वाला या सामायिक ग्रहण करने करता है, आत्मसाक्षी से उसकी निन्दा करता हूं, वाला पूर्वाभिमुख य उत्तराभिमुख होना चाहिए अथवा आपकी साक्षी से उसकी गर्दा करता हैं और अपने वे दोनों उस दिशा के अभिमुख हों, जिस दिशा में जिन आपको सपाप प्रवृत्तियों से पृथक् करता हूं। - आदि विचरण कर रहे हों या जिनचैत्य हों। Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिदः ७०० सिद का निर्वचन १५. सामायिक का महत्त्व रहा है, किंतु मिथ्यात्व को अभी तक प्राप्त तत्थज्झयणं सामाइयं ति समभावलक्खणं पढमं । नहीं हुआ है, उसकी आत्म-विशुद्धि । गुणस्थान .जं सव्वगुणाहारो वोमं पिव सव्वदव्वाणं ।। का दूसरा प्रकार। (द्र. गुणस्थान) (विभा ९०५) सिद्ध-कर्मबंधन से मुक्त जीव, परमात्मा । समभावलक्खणं सव्वचरणादिगणाधारं वोमंपिव सव्वदवाणं सव्वविसेसलद्धीण य हेतुभूतं पायं पावअंकुस १. सिद्ध का निर्वचन दाणं । (अनुचू पृ१८) २. सिद्धों का स्वरूप आवश्यक सूत्र का प्रथम अध्ययन है-सामायिक। ३. सिद्ध मंगल सामायिक का लक्षण है-समभाव । जैसे आकाश ४. सिद्ध के एकार्थक सब द्रब्यों का आधार है, वैसे ही यह चारित्र आदि गुणों ५. सिद्ध के निक्षेप ६. सिद्धकेवलज्ञान के प्रकार का आधार है। यह सब विशिष्ट लब्धियों में हेतुभूत बनता है। इससे पापों पर अंकुश लगता है। ७. सिद्धों के प्रकार • तीर्थ सिद्ध, अतीर्थ सिद्ध.... अहवा तब्भेय च्चिय सेसा जंदसणाइयं तिविहं । • सिद्ध होने के स्थान न गुणो य नाण-दसण-चरणब्भहिओ जओ अत्थि ।। * प्रत्येकबुद्ध सिद्ध (विभा ९०६) (द्र. प्रत्येकबुद्ध) * सिद्धि का मार्ग : साध्य-सिद्धि का क्रम षडावश्यक में सामायिक प्रथम आवश्यक है। (द्र. मोक्ष) चविशति आदि शेष पांच आवश्यक एक अपेक्षा से * कर्मक्षय की प्रक्रिया (द्र. गुणस्थान) सामायिक के ही भेद हैं। क्योंकि सामायिक ज्ञान-दर्शन * अनादि कर्मसंबंध का अंत कैसे? (द. कर्म) चारित्र रूप है और चविंशति आदि में इन्हीं गुणों का * सिद्धिगमन के योग्य (द्र. भव्य) समावेश है । ज्ञान, दर्शन और चारित्र ही प्रधान गुण हैं । ८. सिद्धों के गुण .."सामाइएणं सावज्जजोगविरई जणयइ। ९. सिद्धों का सुख (उ २९९) १०. सिद्ध अनादि सामायिक से सावद्ययोग-असत् प्रवृत्ति की विरति ११. सिद्धों की कडवं गति होती है। १२. सिखों की अवगाहना चौदह पूर्वो का सार १२. सिद्ध होने से पूर्व की अवगाहना संखिवणं संखेवो सो जं थोवक्खरं महत्थं च । १४. सिद्धों का संस्थान सामाइयं संखेवो चोहसपूव्वत्थपिंडो त्ति ।। १५. सिद्धों की अवस्थिति (विभा २७९६) . सिद्धों का अवगाह क्षेत्र और स्पर्शना - सामायिक का एक निर्वचन है-संक्षेप । इसमें अक्षर । * सिद्धालय (द. ईषत्-प्रारभारा) कम और अर्थ महान् है। संक्षेप में सामायिक चौदह १६. परिमित क्षेत्र में अनंत सिद्ध कैसे? पूर्षों का सार है । सास्वादन सम्यक्त्व-औपशमिक-सम्यक्त्व से १. सिद्ध का निर्वचन गिरने वाला जीव जब मिथ्यात्व को प्राप्त दीहकालरयं जं तु कम्मं से सिअमट्टहा । होता है, तब अन्तराल काल में प्राप्त होने सियं धंतं ति सिद्धस्स सिद्धत्तमुवजाय ॥ वाला सम्यक्त्व । (द्र. सम्यक्त्व) सितं बद्धं.."मातं"ध्यानानलेन दग्धं "सिद्धः सास्वादन सम्यग्दृष्टि - जो जीव उपशम सम्यक्त्व (आवनि ९५३ हाव १ पृ.२९३) से च्युत होकर मिथ्यात्व की ओर अग्रसर हो सित का अर्थ है-बद्ध और ध्मात का अर्थ है-दग्ध Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्ध के निक्षेप ७०१ सिद्ध करना । जो आठ प्रकार की बद्ध कर्मरजों को ध्यानाग्नि सिद्ध को नमस्कार करने से सब पापोंका नाश से दग्ध करता है, वह सिद्ध है। होता है और यह सभी मंगलों में दूसरा मंगल है। २. सिद्धों का स्वरूप (द्र. नमस्कार; मंगल) अरूविणो जीवघणा, नाणदंसणसन्निया ।" ४. सिद्ध के एकार्थक (उ ३६६६६) सिद्धत्ति अ बुद्धत्ति अपारगयत्ति अ परंपरगयत्ति । सिद्ध जीव अरूप, सघन (एक-दूसरे से सटे हुए) उम्मूक्ककम्मकवया अजरा अमरा असंगा य॥ और ज्ञान-दर्शन में सतत उपयुक्त होते हैं। कम्मविवेगो असरीरयाय असरीरया अणाबाहा । (आवनि ९८७) होअणबाहनिमित्तं अवेयणमणाउलो निरुओ ।। सिद्ध के आठ एकार्थक हैंनीरुयत्ताए अयलो अयलत्ताए य सासओ होइ । सिद्ध-कृतकृत्य । सासयभावमुवगओ अव्वाबाहं सुहं लहइ ।। बुद्ध-सर्व ज्ञाता। (आवनि ७४७, ७४८) पारगत-संसार-समुद्र से पारगामी, तीर्ण । सिद्ध कर्ममुक्त होते हैं, अशरीरी होते हैं। कर्मविवेक परम्परागत-दर्शन, ज्ञान, चरण की क्रमबद्ध (कर्मक्षय) से अशरीरता, अशरीरता से अनाबाधा, अना साधना के द्वारा मुक्त होने वाले। बाधा से असंवेदन, असंवेदन से अनाकुलता, अनाकुलता से उन्मुक्त-कर्मकवच-सब कर्मों से मुक्त। अरुजता, अरुजता से अचलता, अचलता से शाश्वतता अजर- वय और बुढ़ापे से मुक्त । और शाश्वतता से अव्याबाध सुख प्राप्त होता है। इस अमर-मृत्यु से मुक्त। प्रकार इनमें परस्पर कारण-कार्य भाव है। असंग--सब क्लेशों से मुक्त । सोऽणवराहो व्व पुणो न बज्झए बंधकारणाभावा । ५. सिद्ध के निक्षेप जोगा य बंधहेऊ न य ते तस्सासरीरो त्ति । सिद्धो जो निप्फन्नो जेण गणेण स य चोहसविगप्पो। (विभा १८४०) नेओ नामाईओ ओयणसिद्धाइओ दव्वे । मुक्त जीव पुनः बद्ध नहीं होता, क्योंकि उसमें बन्ध के कम्मे सिप्पे य विज्जाए मंते जोगे य आगमे । कारणों का अभाव है । बन्ध का कारण है योग-प्रवृत्ति । अत्थजत्ताअभिप्पाए तवे कम्मक्खए इय ।। वह मुक्त जीव में नहीं होती, क्योंकि उनके शरीर नहीं (विभा ३०२७, ३०२८) होता। जो जिस गुण से निष्पन्न होता है तथा पुनः निष्पन्न .."सागारमणागारं लक्खणमेअंतु सिद्धाणं ।। होना नहीं पड़ता, वह उस गुण में सिद्ध कहलाता है। केवलनाणवउत्ता जाणंती सव्वभावगुणभावे । पासंति सव्वओ खलु केवल दिट्टीहिणताहि ॥ सिद्ध के चौदह प्रकार हैं(आवनि ९७७. ९७६) १. नामसिद्ध-जिसका नाम सिद्ध हो। सिद्धों का लक्षण है-साकार उपयोग और अनाकार २. स्थापनासिद्ध - सिद्ध की मूर्ति या कलाकृति । उपयोग । वे केवलज्ञानोपयुक्त हो सब पदार्थों के गुण- ३ द्रव्यसिद्ध-ओदन आदि द्रव्य पक जाने पर उन्हें पर्यायों को जानते हैं और अनंत केवलदर्शन से उन्हें देखते सिद्ध हुआ कहा जाता है। हैं । वे ज्ञानोपयोग में मुक्त होते हैं इसलिए यहां पहले ज्ञान ४. कर्मसिद्ध -कर्म-भारवहन, कृषि, वाणिज्य आदि का उल्लेख हुआ है। प्रवत्तियों में दक्ष । मुनि गुरुतरभारवाही होने के सिद्धों के युगपत् दो उपयोग नहीं होते । (द्र. केवली) कारण कर्मसिद्ध होते हैं। कहा है३. सिद्ध मंगल 'झंति नाम भारा ते पुण वुझंति वीसमंतेहिं । सिद्धाण नमुक्कारो सव्वपावपणासणो । सीलभरो वोडवो जावज्जीवं अविस्सामो।' मंगलाणं च सव्वेसि बिइ होइ मंगलं ।। ५. शिल्पसिद्ध-जो आचार्य द्वारा शिक्षित अथवा किसी (आवनि ९९२) ग्रन्थ द्वारा गृहीत विशिष्ट कर्म है, वह शिल्प कह Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्ध ७०२ लाता है घट निर्माण, मूर्ति निर्माण आदि शिल्प हैं। सोपारक नगर का वर्द्धकी कोवकास यांत्रिक वस्तुओं के निर्माण में दक्ष था। उसने अपने यांत्रिक कबूतरों से राजा के कोष्ठागार से गंधशाली का अपहरण कर लिया था । वह शिल्पसिद्ध वर्द्धकी था । ६. विद्यासिद्ध-जो समस्त विद्याओं का चक्रवर्ती है। अथवा महापुरुष द्वारा प्रदत्त महाविद्या का ज्ञाता है वह विद्यासिद्ध है । आर्य खपुट विद्यासिद्ध आचार्य थे । उनका एक शिष्य भृगुकच्छ में जाकर बोद्ध बन गया। वह आकाशमार्ग से बाच पदार्थों से भरे भांड मंगाने लगा | आचार्य को ज्ञात हुआ । वे वहां गए और आकाशमार्ग से आते हुए खाद्य भांडों को बीच में ही नष्ट कर दिया। एक दिन बौद्ध भिक्षु आचार्य को अपने मंदिर में ले गए और बोले- बुद्ध के चरणों में वंदना करो । आचार्य खपुट मूर्ति को संबोधित कर बोले- शुद्धोदनपुत्र आओ मेरे चरणों में वंदन करो। मूर्ति से बुद्ध की प्रतिकृति निकली और आचार्य के चरणों में नत हो गई। द्वार पर स्थित स्तुप से कहा- तुम भी वंदना करो स्तूप आया, । वन्दना की मुद्रा में स्थित हुआ। आचार्य ने कहाउठो, वह आधा उठा। आचार्य ने कहा बस । आज भी वह स्तुप अर्द्धगत स्थिति में है। ७. मंत्र सिद्ध- जिसने सभी प्रकार के मंत्र अथवा एक महामंत्र हस्तगत कर लिया है, वह मंत्रसिद्ध है । ८. योगसिद्ध परम आश्चर्य पैदा करने वाले द्रव्यसंमिश्रणों का ज्ञाता वज्रस्वामी के मातुल आर्य। समित योगसिद्ध थे । वे नदी पर गए । नदी से मार्ग मांगते हुए उन्होंने नदी में यौगिकद्रव्य का प्रक्षेप किया। नदी के दोनों तट सिमट गए । ९. आगमसिद्ध समस्त श्रुत का पारगामी इसका ज्ञान इतना विशद होता है कि स्वयंभूरमण के मत्स्य आदि जो चेष्टाएं करते हैं, वे सारी ज्ञात हो जाती हैं। वह संख्यातीत भवों का कथन कर सकता है अथवा प्रश्नकर्ता जिस भव की बात जानना चाहता है, वह उसका कथन करने में सक्षम होता है। १०. अर्थसिद्ध राजगृहवासी 'मम्मण' सेठ ने धन संग्रह की तृष्णा से अभिभूत होकर रत्नमय द्वितीय वृषभ की पूर्ति की, जिसकी पूर्ति राजगृह के अधिपति महाराज - सिद्ध केवलज्ञान के प्रकार श्रेणिक भी नहीं कर सकते थे। मम्मण अर्थसिद्ध या । ११. यात्रासिद्ध स्थल, जल तथा आकाश मार्गों में यथेष्ट यात्रा करने में निपुण जो बारह बार साधुद्रिक यात्रा में अपना कार्य संपन्न कर सकुशल लौट आता है तथा अन्यान्य यात्री जिससे यात्रासिद्धि के लिए मंत्रणा करते हैं, वह यात्रासिद्ध है। तुंडिक सामुद्रिक व्यापारी था। सैकड़ों बार उसके जहाज समुद्र में टूटे, परन्तु वह हताश नहीं हुआ । उसने कहा- 'जो जल में नष्ट होता है, उसकी पुन प्राप्ति जल में ही होती है।' वह अपना सामुद्रिक व्यापार चलाता रहा। देवता ने उसके साहस से प्रसन्न होकर उसको प्रचुर धन दिया । देवता ने उसे वर मांगने के लिए कहा । तत्र वह वणिक् बोला - 'जो मेरा नाम लेकर समुद्र का अवगाहन करे वह सकुशल लौट आए।' देवता ने तथास्तु कहा। तुंडिक यात्रासिद्ध था। १२. अभिप्रायसिद्ध अभिप्राय अर्थात् बुद्धि जिसकी | बुद्धि विस्तारवती एक पद के आधार पर अनेक पदों को जानने वाली, सर्वथा निर्मल और सूक्ष्म होती है, वह बुद्धिसिद्ध है । जो औत्पत्तिकी आदि चार प्रकार की बुद्धि से संपन्न होता है, वह बुद्धिसिद्ध होता है। १३. तपः सिद्ध प्रहारी की भांति बाह्य और आभ्यन्तर तप में क्लान्त नहीं होने वाला । १४. कर्मक्षय सिद्ध समस्त कर्मों का क्षय करने वाला अर्थात् समस्त कर्मक्षीण कर सिद्ध होने वाला । (देखें आवनि९२७-९५३ हा १२७२-२९३) ६. सिद्धकेवलज्ञान के प्रकार शैलेश्यवस्थापयंग्तवत्तिसमय समासादितसिद्धत्वस्य तस्मिन्नेव समये यत् केवलज्ञानं तदनन्तरसिद्ध केवलज्ञानम् । ततो द्वितीयादिसमवेष्वनन्तामप्यनागताद्धां परम्परसिद्ध केवलज्ञानम् । सिद्धानामेवानन्तरभवगतोपाधिभेदेन पञ्चदशभेदभिन्नत्वात् । ( नन्दीहावु पृ ३५ ) सिद्धों का केवलज्ञान सिद्ध केवलज्ञान कहलाता है। उसके दो भेद हैं १. अनंतर सिद्ध केवलज्ञान । २. परम्पर सिद्धकेवलज्ञान । (द. केवलज्ञान) शैलेश अवस्था के अनंतर सिद्धत्व प्राप्त होता है, उस क्षण का केवलज्ञान अनंतर सिद्धकेवलज्ञान है। सिद्धअवस्था से पूर्ववर्ती भवसंबंधी उपाधि के भेद से सिद्धों के पंद्रह प्रकार हैं। । Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयंबुद्धसिद्ध ७०३ सिद्ध ७. सिद्धों के प्रकार ३. तीर्थकरसिद्ध अणंतरसिसकेवलनाणं पण्णरसविहं पण्णत्तं, तं जहा- रिसभादयो तित्थ करा, ते जम्हा तित्थकरणामकम्मुतित्थसिद्धा अतित्थसिद्धा तित्थयरसिद्धा दयभावे द्विता तित्थकरभावातो वा सिद्धा तम्हा ते अतित्थयरसिद्धा सयंबुद्धसिद्धा पत्तेयबुद्धसिद्धा तित्थकरसिद्धा। (नन्दीच पृ २६) बुद्धबोहिय सिद्धा इथिलिंगसिद्धा पुरिसलिंगसिद्धा जिनके तीर्थंकर नामकर्म का उदय होता है और जो नपुंसकलिंगसिद्धा सलिंगसिद्धा अण्णलिंगसिद्धा तीर्थकर अवस्था में मुक्त होते हैं, वे ऋषभ आदि तीर्थकरगिहिलिंगसिद्धा एकसिद्धा अणेगसिद्धा। सिद्ध हैं। (नन्दी ३१) ४. अतीर्थंकरसिद्ध सिद्ध होने की पूर्व अवस्था के आधार पर अनंतर सिद्धकेवलज्ञान के पन्द्रह प्रकार हैं अतित्थकरा सामण्णकेवलिणो गोतमादि, तम्मि अतित्थकरभावे ट्रिता अतित्थकरभावातो वा सिद्धा १. तीर्थसिद्ध ९. पुरुषलिंगसिद्ध २. अतीर्थ सिद्ध अतित्थकरसिद्धा। १०. नपुंसकलिंगसिद्ध (नन्दीचू पृ २६) ३. तीथंकरसिद्ध ११. स्वलिंगसिद्ध ___ अतीर्थकर का अर्थ है सामान्य केवली, जैसे गौतम ४ अतीर्थंकरसिद्ध १२. अन्यलिंगसिद्ध आदि। जो सामान्यकेवली के रूप में मुक्त होते हैं, वे ५. स्वयंबुद्धसिद्ध १३. गृहलिंगसिद्ध अतीर्थंकरसिद्ध हैं। ६. प्रत्येकबुद्धसिद्ध १४. एकसिद्ध ५. स्वयंबुद्धसिद्ध ७. बुद्धबोधितसिद्ध १५. अनेकसिद्ध। स्वयमेव बुद्धा स्वयंबुद्धा, सतं अप्पणिज्ज वा जाइसर८. स्त्रीलिंगसिद्ध णादिकारणं पडुच्च बुद्धा सतंबुद्धा । स्फुटतरमुच्यते-- १. तीर्थसिद्ध बाह्यप्रत्ययमन्तरेण ये प्रतिबुद्धास्ते स्वयंबुद्धा। जे तित्थे सिद्धा ते तित्थसिद्धा, तित्थं च-चातुवण्णो (नन्दीचू पृ २६) समणसंघो। (नन्दीचू पृ २६) जो स्वयं ही बुद्ध होकर मुक्त होते हैं, वे स्वयंबुद्ध____ जो चातुर्वर्ण श्रमणसंघ में प्रवजित होकर मुक्त होते सिद्ध हैं। अथवा जिन्हें बाह्य निमित्त के बिना अपने हैं, वे तीर्थसिद्ध हैं। जातिस्मरण आदि के कारण बोधि प्राप्त होती है, वे २. अतीर्थसिद्ध स्वयंबुद्ध हैं। तीर्थस्याभावोऽतीथं तीर्थस्याभावश्चानुत्पादोऽपान्तराले बाह्यप्रत्ययमन्तरेण ये प्रतिबुद्धास्ते सयंबुद्धा । "सयंव्यवच्छेदो वा तस्मिन् ये सिद्धाः तेऽतीर्थसिद्धाः । तीर्थस्या बुद्धस्स बारसविहोऽवि उवहि भवति । पुव्वाधीतं से सुतं नुत्पादे सिद्धा मरुदेवीप्रभृतयः। न हि मरुदेव्यादिसिद्धि भवति वा ण वा। जति से णत्थि तो लिगं नियमा गुरुगमनकाले तीर्थमुत्पन्नमासीत् । तीर्थस्य व्यवच्छेदश्चन्द्र संनिहे पडिबज्जति गच्छे य विहरति । अहवा पुव्वाधीतसुयप्रभस्वामिसुविधिस्वाम्यपान्तराले। तत्र ये जातिस्मरणा संभवो अत्थि तो से लिंगं देवता पयच्छति गुरुसंनिहे वा दिनाऽपवर्गमवाप्य सिद्धाः ते तीर्थव्यवच्छेदसिद्धाः। पडिवज्जति । जदि य एगविहारविहरणजोग्गो इच्छा य से (नन्दीमवृ प १३०) तो एगो चेव विहरति । अन्नहा गच्छे विहरति । एयम्मि अतीर्थ के दो अर्थ हैं-१. तीर्थ की अनुत्पत्ति । भावे ठिता सिद्धा। (आवचू १ पृ७६) २. दो तीर्थंकरों के अन्तराल काल में तीर्थ का विच्छेद। उस समय मुक्त होने वाले जीव अतीर्थसिद्ध कहलाते हैं। बाह्य निमित्त के बिना जो प्रतिबुद्ध होते हैं, वे मरुदेवी माता तीर्थ स्थापना से पहले ही सिद्धगति को स्वयंबुद्ध हैं। स्वयंबुद्ध के बारह प्रकार की उपधि होती प्राप्त हो गई। चन्द्रप्रभु और सुविधिनाथ के अन्तराल है। उनके पूर्व अधीत श्रुत होता भी है और नहीं भी काल में तीर्थ का विच्छेद हो गया। उस समय जाति- होता। यदि वे अनधीतश्रुत होते हैं तो नियमतः गुरु के स्मरण आदि के द्वारा संबुद्ध हो मुक्त होने वाले जीव पास लिंग ग्रहण करते हैं और गच्छ में रहते हैं। जो पूर्वअतीर्थसिद्ध कहलाये। अधीतश्रत होते हैं, उन्हें देवता लिंग प्रदान करते हैं अथवा Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्ध ७०४ स्त्रीलिगसिद्ध.. वे गुरु के पास लिंग ग्रहण करते हैं। यदि वे एकाकी भवति । तं तिविह-वेदो सरीरनिव्वत्ती णेवच्छंच, इह विहार के योग्य हैं और उसके इच्छुक भी हैं तो एकाकी सरीरनिव्वत्तीए अधिकारो, ण वेद वच्छेहिं। तत्थ वेदे विहार करते हैं, अन्यथा गच्छ में विहरण करते हैं। इस कारणं-जम्हा खीणवेदो जहण्णेणं अंतोमुहत्तातो उक्कोअवस्था में सिद्ध होने वाले स्वयंबुद्धसिद्ध कहलाते हैं। सेणं देसूणपूष्वकोडीतो सिज्झति, जेवच्छस्स य अणियतत्त सहत्ति-स्वयमात्मनैव सम्बुद्धः-सम्यगवगततत्त्वः णतो तम्हा ण तेहिं अहिकारो। सरीरकारणणिवत्ती पुण सहसम्बुद्धो, नान्येन प्रतिबोधित इत्यर्थः, अथवा सहसा-- णियमा वेदुदयातो णामकम्मुदयाओ य भवति। तम्मि जातिस्मृत्यनन्तरं झगित्येव बुद्धः। (उशाव प ३०६) सरीरनिव्वत्तिलिंगे ठिता सिद्धा ततो वा सिद्धा इथिलिंग सह का अर्थ- स्वयं और संबुद्ध का अर्थ- सम्यक सिद्धा। एवं पुरिस...."लिंगा वि भाणितव्वा। तत्त्व का ज्ञाता। जो स्वयं तत्त्व को जानता है, किसी (नन्दीचू पृ २७) अन्य के द्वारा प्रतिबोधित नहीं है, वह सहसंबुद्ध है। स्त्रीलिंग का अर्थ है-स्त्री का लिंग या चिह्न । यह इसका वैकल्पिक अर्थ है --सहसा संबुद्ध अर्थात् जातिस्मृति स्त्री का उपलक्षण है। लिंग के तीन अर्थ हैं-वेद (कामके अनन्तर शीघ्र ही संबुद्ध होने वाला। विकार), शरीर-रचना और नेपथ्य (वेशभूषा)। यहां ते य दुविहा-तित्थगरा तित्थगरवतिरित्ता वा । इह शरीर-रचना प्रासंगिक है, वेद और नेपथ्य नहीं। क्षीणवइरित्तेहिं अधिकारो। (नन्दीचू पृ २६) वेद व्यक्ति जघन्य अन्तर्महत और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि स्वयंबुद्ध के दो प्रकार हैं-तीर्थकर और तीर्थंकर से में अवश्य सिद्ध हो जाता है। नेपथ्य के सन्दर्भ में सिद्धि अनियत है, इसलिए यहां वेद और नेपथ्य का प्रसंग नहीं इतर (साधु) । प्रस्तुत प्रसंग में तीर्थंकर से इतर विवक्षित है। शरीर की आकाररचना नियमत: वेदमोहनीय और शरीर नामकर्म के उदय से होती है। जो स्त्री की शरीर६. प्रत्येकबुद्धसिद्ध रचना में मुक्त होते हैं, वे स्त्रीलिंगसिद्ध हैं। जो पुरुष किसी एक निमित्त से संबुद्ध हो मुक्त होने वाले। की शरीर-रचना में मुक्त होते हैं, वे पुरुषलिंगसिद्ध हैं। (द्र. प्रत्येकबुद्ध) ___ सम्मूच्छिमादयो भवस्वभावत एव न सम्यग्दर्शनादिकं ७. बुद्धबोधितसिस यथावत् प्रतिपत्तुं शक्नुवन्ति, ततो न तेषां निर्वाणसम्भवः, जे सतंबुद्धेहि तित्थकरादिएहिं बोहिता, पत्तेयबुद्धेहिं स्त्रियस्तु प्रागुक्तप्रकारेण यथावत्सम्यग्दर्शनादिरत्नत्रयबा कविलादिएहि बोधिता ते बुद्धबोधिता। अहवा बुद्ध- सम्पद्योग्याः, ततस्तासां न निर्वाणाभावः । अपि चबोधिएहि बोधिता बुद्धबोधिता, एवं सुहम्मादिएहि भजपरिसर्पा द्वितीयामेव पृथिवीं यावद् गच्छन्ति, न परत:, जंबणामादयो भवंति । अहवा बुद्ध इति-प्रतिबुद्धा, तेहिं परपृथिवीगमन हेतूतथारूपमनोवीर्यपरिणत्यभावात्, तृतीयां प्रतिबोधिता बूद्धबोधिता, प्रभवादिभिराचार्यः । एतभावे ___यावत् पक्षिणः, चतुर्थी चतुष्पदाः, पञ्चमीमुरगाः, अथ च द्विता एतातो वा सिद्धा बुद्धबोधितसिद्धा। सर्वेऽप्यूर्ध्वमुत्कर्षतः सहस्रारं यावद्गच्छन्ति, तन्नाधोगति (नन्दीच पृ २६,२७) विषये मनोवीर्यपरिणतिवैषम्यदर्शनादर्वगतावपि तदैषम्य जो बुद्धबोधित होकर मुक्त होते हैं, वे बुद्धबोधित- तथा स सति सिद्ध स्त्रीपंसामधोगतिवैषम्येऽपि निर्वाणं सिद्ध हैं। बुद्धबोधित के चार अर्थ किये गये हैं----- समम् । (नन्दीमवृ प १३३) १. स्वयंबुद्ध तीर्थंकर आदि के द्वारा बोधि प्राप्त । सम्मूच्छिम जीव स्वभाव से ही सम्यक दर्शन आदि २. कपिल आदि प्रत्येकबुद्ध के द्वारा बोधि प्राप्त । की आराधना नहीं कर सकते, अत: उनका निर्वाण ३. सुधर्मा आदि बुद्धबोधित के द्वारा बोधि प्राप्त । असंभव है। ४. आचार्य के द्वारा प्रतिबुद्ध प्रभव आदि आचार्य से स्त्रियां ज्ञान-दर्शन-चारित्र- इस रत्नत्रयी की बोधि प्राप्त । आराधना कर सकती हैं। अतः उनके लिए निर्वाण ८,९. स्त्रीलिंगसिद्ध, पुरुषलिगसिद्ध असंभव नहीं है। इत्थीए लिंगं इथिलिंग, इत्थीए उवलक्खणं ति वृत्तं भुजपरिसर्प दूसरी नरकभूमि तक, पक्षी तीसरी Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेक सिद्ध नरकभूमि तक, चतुष्पद चौथी नरकभूमि तक और उरपरिसर्प पांचवीं नरकभूमि तक जा सकते हैं, उससे आगे जाने योग्य मनोवीर्य उनमें नहीं होता । ऊर्ध्वलोक में ये सब सहस्रार कल्प तक जा सकते हैं। इससे स्पष्ट है कि जिनके अधोगति संबंधी मनोवीर्य की परिणति में वैषम्य है, उनके ऊर्ध्वगति संबंधी वैषम्य नहीं है । इसी प्रकार स्त्री और पुरुष के अधोगति के संबंध में जैसे वैषम्य है, वैसे निर्वाण के संबंध में वैषम्य नहीं है । स्त्री सातवीं नरकभूमि में नहीं जाती, पुरुष सातवीं पृथ्वी तक जा सकते हैं । किन्तु स्त्री और पुरुष दोनों मुक्त हो सकते हैं। तीर्थकरा अपि स्त्रीलिङ्गसिद्धा भवन्ति ? भवन्तीत्याह यत उक्तं सिद्धप्राभूते - " सव्वत्थोवा तित्थगरीसिद्धा, तित्थगरितित्थे णोतित्थसिद्धा संखेज्जगुणा, तित्थगरितित्थे गोतित्थगरिसिद्धाओ संखेज्जगुणाओ, तित्थगरितित्थे णोतित्थगरसिद्धा संखेज्जगुणा । " ( नन्दी हावृप ३९ ) क्या तीर्थंकर भी स्त्रीलिंगसिद्ध होते हैं ? इसका सकारात्मक उत्तर सिद्धप्राभृत में मिलता है- "स्त्री तीर्थंकर सबसे कम होते हैं । उनके तीर्थ - शासन काल में तीर्थ सिद्ध संख्ये गुण, नोतीर्थंकरी सिद्ध ( सामान्य केवली स्त्री) उससे संख्येय गुण और नोतीर्थंकर सिद्ध ( सामान्य केवली पुरुष ) उससे संख्येय गुण होते हैं । " तीर्थंकर स्त्री और पुरुष - इन दो लिंगों में ही होते हैं । प्रत्येकबुद्ध पुरुष ही होते हैं । १०. नपुंसकल सिद्ध नपुंसकेषु वद्धितचिपितादिषु सिध्यति । (उशावृ १६५३) जो कृत्रिम नपुंसक के रूप में मुक्त होते हैं, वे नपुंसकलिंगसिद्ध हैं । ११. स्वलिंगसिद्ध दव्वलिंगं प्रति रजोहरण-मुहपोत्ति - पडिग्गह- धारणं सलिंगं, एतम्मि दव्वलिंगे ट्ठिता एततातो वा सिद्धा सलिंगसिद्धा । ( नन्दी पृ २७ ) स्वलिङ्गं च मुक्तिपथप्रस्थितानां भावतोऽनगारत्वादनगारलिङ्गमेव रजोहरणमुखवस्त्रिकादिरूपम् । ( उशावृप ६७८ ) सिद्ध जो भावतः अनगार हैं और बाह्यतः अपने लिंग - रजोहरण, मुखवस्त्रिका, प्रतिग्रह आदि मुनिवेश में मुक्त होते हैं, वे स्वलिंगसिद्ध हैं। १२. अन्यलिंगसिद्ध ७०५ तावसपरिवायगादिवक्कल का सायमादिदव्वलिंगट्ठिता सिद्धा अण्ण लिंगसिद्धा । (नन्दी पृ २७) जो तापस, परिव्राजक आदि वल्कल, काषाय वस्त्र, कमंडलू आदि द्रव्यलिंग में सिद्ध होते हैं, वे अन्यलिंगसिद्ध हैं । अन्नलिंग सिद्ध केवलणाणं णाम जं अन्नलिंगेण सम्मत्तं पडिवन्नस्स केवलणाणं समुप्पज्जति । समुप्पत्तिकालसमयमेव कालं करेति तं अन्न लिंगसिद्ध केवलणाणं भन्नति । सो य अन्नलिंगिकेवली जति आउयमप्पणो अपरिक्खीणं पासति ततो साधुलिंगं चेव पडिवज्जति । ( आवचू १ पृ७६) सम्यक्त्व - प्रतिपन्न अन्यलिंगी केवलज्ञान प्राप्त करता है और यदि वह उसी क्षण मुक्त हो जाता है तो उसका केवलज्ञान अन्यलिंग सिद्ध केवलज्ञान कहलाता है। यदि तत्काल उसका आयुष्य क्षीण नहीं होता है तो वह स्वलिंग - साधुवेश को ही स्वीकार करता है । १३. गृहलिंग सिद्ध सादि अलंकरणादिए दव्वलिंगे द्विता सिद्धा गिहिलिंग सिद्धा । ( नन्दीच पृ २७ ) गृहिलिङ्ग गृहस्थवेषे सिद्धा मरुदेवीस्वामिनीवत् । (उशावृप ६७८) केश, अलंकार आदि से युक्त द्रव्यलिंग-गृहस्थवेश में जो सिद्ध होते हैं, वे गृहलिंगसिद्ध हैं । जैसे - मरुदेवा । १४. एकसिद्ध एक्कसिद्धति - एकम्मि समए एक्को चेव सिद्धो । ( नन्दीचू पृ २७) एक समय में एक सिद्ध होता है, वह एकसिद्ध है । १५. अनेक सिद्ध अनेगसिद्धति - एकम्मि समए अणेगे सिद्धा दुगादि असतं । बत्तीसा अडयाला सट्ठी बावत्तरी य बोधव्वा । चुलसीती छण्णउती दुरहित अट्ठत्तरसतं च ॥ (नन्दी पृ २६, २७) Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्ध ७०६ सिद्ध होने के स्थान अनेकसिद्ध-एक समय में अनेक जीवों का सिद्ध चउरुड्ढलोए य दुवे समुद्दे, होना। तओ जले वीसमहे तहेव । एक साथ एक समय में जघन्य दो ओर उत्कृष्टतः सयं च अठ्ठत्तर तिरियलोए, एक सौ आठ सिद्ध हो सकते हैं । समएणेगेण उ सिज्झई ।। • यदि एक समय में उत्कृष्ट ३२ जीव सिद्ध हों तो (उ ३६।५१-५४) निरन्तर आठ समय तक बत्तीस-बत्तीस सिद्ध हो दस नपुंसक, बीस स्त्रियां और एक सौ आठ पुरुष सकते हैं, तत्पश्चात् अवश्य विरहकाल होता है। एक ही क्षण में सिद्ध हो सकते हैं। • यदि एक समय में उत्कृष्ट ४८ की संख्या में सिद्ध गृहस्थ वेश में चार, अन्यतीर्थिक वेश में दश और हों तो निरन्तर सात समय तक इतने हो सकते हैं। निग्रंथ वेश में एक सौ आठ जीव एक ही समय में सिद्ध • यदि एक समय में उत्कृष्ट ६० जीव सिद्ध हों तो हो सकते हैं। निरन्तर छह समय तक इतने हो सकते हैं। उत्कृष्ट अवगाहना में दो, जघन्य अवगाहना में • यदि एक समय में उत्कृष्ट ७२ सिद्ध हों तो निरन्तर चार और मध्यम अवगाहना में एक सौ आठ जीव एक पांच समय तक इतने सिद्ध हो सकते हैं। ही क्षण में सिद्ध हो सकते हैं। • यदि एक समय में उत्कृष्ट ८४ सिद्ध हों तो निरन्तर ऊंचे लोक में चार, समुद्र में दो, अन्य जलाशयों में चार समय तक इतने सिद्ध हो सकते हैं। तीन, नीचे लोक में बीस, तिरछे लोक में एक सौ आठ ० यदि एक समय में उत्कृष्ट ९६ जीव सिद्ध हों तो जीव एक ही क्षण में सिद्ध हो सकते है। निरन्तर तीन समय तक इतने जीव सिद्ध हो सकते तीर्थसिद्धा एव तीर्थकरसिद्धाः, अतीर्थकरसिद्धा अपि • यदि एक समय में उत्कृष्ट १०२ जीव सिद्ध हों तो तीर्थसिद्धा वा स्युः अतीर्थसिद्धा वेति, एवं शेषेष्वपि निरंतर दो ससय तक इतने जीव सिद्ध हो सकते हैं। को भावनीयमिति, अतः किमेभिः ? इति, अत्रोच्यते, म ० यदि एक समय में उत्कृष्ट १०८ जीव सिद्ध हों तो अन्तर्भाव सत्यपि पूर्वभेदद्वयादेवोत्तरोत्तरभेदाप्रतिपत्ते. दूसरे समय में अवश्य विरहकाल होता हैं उसमें अज्ञातज्ञापनार्थं च भेदाभिधानमिति । कोई जीव सिद्ध नहीं होता। (नन्दीहाव पृ ३९) एक समय में निरन्तरता/अविरहकाल तीर्थकरसिद्ध तीर्थ में ही सिद्ध होते हैं। अतीर्थकर३२ सिद्ध ८ समय तक सिद्ध तीर्थ और तीर्थांतर-दोनों में सिद्ध हो सकते हैं। इस प्रकार उपयुक्त पन्द्रह भेदों का तीर्थसिद्ध और अतीर्थसिद्ध-इन दो भेदों में ही अन्तर्भाव हो जाता है। ऐसा होने पर भी इन दो भेदों से ही उत्तरोत्तर भेदों की प्रतिपत्ति होती है। किन्तु अज्ञात का ज्ञापन करने के लिए इन पन्द्रह भेदों का प्रतिपादन हुआ है। १०२, सिद्ध होने के स्थान १०८, दस चेव नपुंसेसु बीसं इत्थियासु य। ऊर्ध्वलोके मेरुचलिकादौ सिद्धाः ।""अधोलोकेऽर्थादपुरिसेसु य अट्टसयं समएणेगेण सिज्झई ॥ धोलौकिकग्रामरूपेऽपि सिद्धाः । तिर्यग्लोके च अर्द्धतृतीयचत्तारि य गिहिलिंगे, अन्नलिंगे दसेव य । द्वीपसमुद्ररूपे । (उशावृ प ६८३) सलिंगेण य अट्ठसयं, समएणेगेण सिज्मई ॥ सिद्ध होने के तीन क्षेत्र हैंउक्कोसोगाहणाए य, सिझते जुगवं दुवे । १. ऊर्ध्वलोक-मेरुपर्वत की चूलिका से जीव सिद्ध चत्तारि जहन्नाए, जवमझऽठ्ठत्तरं सयं ।। होते हैं। | Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धों के गुण २. अधोलोक - अधोलोक के ग्राम से जीव सिद्ध होते हैं ( महाविदेह की दो विजय मेरु के रुचक प्रदेशों से हजार योजन नीचे तक चली जाती है । तिर्यक् लोक की सीमा नौ सो योजन है। उससे आगे अधोलोक की सीमा आ जाती है।) ३. तिर्यक्लोक - अढाई द्वीप समुद्र प्रमाण तिरछे लोक में कहीं से भी जीव सिद्ध हो सकते हैं। ८. सिद्धों के गुण सिद्धा: - सिद्धिपदप्राप्तास्तेषामादी - प्रथमकाल एवातिशायिनो वा गुणा: सिद्धादिगुणा: सिद्धातिगुणा वा संस्थानादिनिषेधरूपा एकत्रिंशत् । डिसेणसं ठाणो य । गंधर सफासवेए पणपण दुपट्टतिहा इगती समकाय संग रुहा ॥ अहवा कम्मे णव दरिसणंमि चत्तारि आउए पंच आइमे अंते । सेसे दो दो भैया, खीणभिलावेण इगतीसं ॥ ( उशावृ प ६१८ ) सिद्धों के आदिगुण का अर्थ है- सिद्धि पद प्राप्ति के प्रथम क्षण में होने वाले गुण । उनकी संख्या इकतीस है । यह संख्या दो प्रकार से बताई गई है । (क) आठ कर्मों के क्षय की निष्पत्ति के आधार पर १. अभिनिवोधिक ज्ञानावरण का क्षय २. श्रुत ज्ञानावरण का क्षय ३. अवधि ज्ञानावरण का क्षय ४. मनः पर्यव ज्ञानावरण का क्षय ५. केवल ज्ञानावरण का क्षय ६. चक्षुदर्शनावरण का क्षय ७. अचक्षु दर्शनावरण का क्षय ८. अवधि दर्शनावरण का क्षय ९. केवल दर्शनावरण का क्षय १०. निद्रा का क्षय ११. निद्रा-निद्रा का क्षय १२. प्रचला का क्षय १३. प्रचलाप्रचला का क्षय १४. स्त्यानद्धि का क्षय १५. सातावेदनीय का क्षय १६. असातावेदनीय का क्षय १७. दर्शनमोहनीय का क्षय ७०७ १८. चारित्रमोहनीय का क्षय १९. नैरयिक आयुष्य का क्षय २० तिर्यंच आयुष्य का क्षय २१. मनुष्य आयुष्य का क्षय २२. देव आयुष्य का क्षय २३. उच्च गोत्र का क्षय २४. नीच गोत्र का क्षय २५. शुभ नाम का क्षय २६. अशुभ नाम का क्षय २७. दानान्तराय का क्षय २८. लाभान्तराय का क्षय २९. भोगान्तराय का क्षय ३०. उपभोगान्तराय का क्षय ३१. वीर्यान्तराय का क्षय (ख) संस्थान आदि के निषेध के आधार पर पांच संस्थान - १. दीर्घ ह्रस्व २. वृत्त ३. त्यस्र ४. चतुरस्र और ५. परिमंडल से रहित । पांच वर्ण – ६. कृष्ण ७. नील ८. लोहित ९ हारिद्र और १०. शुक्ल वर्ण से रहित । सिद्ध दो गंध - ११. सुरभि गंध और १२. दुरभि गंध से रहित । पांच रस- १३. तिक्त १४. कटुक १५. कषाय १६. अम्ल १०. मधुर रस से रहित । आठ स्पर्श - १०. कर्कश १९. मृदु २०. लघु २१. गुरु २२. शीत २३. उष्ण २४, स्निग्ध २५. रूक्ष स्पर्श से रहित । तीन वेद- २६. स्त्रीवेद २७ पुरुषवेद २८. नपुंसकवेद से रहित । २९. अशरीरी ३० असंग ३१ अजन्मा । न पुणो तस्स पसूई बीयाभावादिहं कुरस्सेव । बीयं च तस्स कम्मं न य तस्स तयं तओ निच्चो ।। ( विभा १८४१ ) जैसे बीज के अभाव में अंकुर उत्पन्न नहीं होता, वैसे ही कर्मरूपी बीज के अभाव में मुक्त जीवों का पुनः संसार में आगमन नहीं होता, इसलिए मुक्तात्मा नित्य होता है । ६. सिद्धों का सुख ...''अउलं सुहं संपत्ता, उवमा जस्स नत्थि उ ॥ (३६/६६) Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्ध सिद्धों को वैसा सुख प्राप्त होता है, जिसके लिए संसार में कोई उपमा नहीं है । नवि अत्थि माणुसणं तं सुक्खं नेव जं सिद्धाणं सुक्खं अव्वाबाहं सुरगणसुहं सम्मत्तं न य पावइ सव्वदेवाणं । उवगाणं ॥ सव्वद्धापिडिअं अनंतगुणं । मुत्तिसुहंडणंताहिवि वग्गवग्गूहि || ( आवनि ९८०,९८१) सिद्धों को जैसा अव्याबाघ सुख प्राप्त है वैसा सुख सभी देवों और मनुष्यों को प्राप्त नहीं है । देवताओं के यदि तीनों काल के समस्त सुख को पिंडीभूत कर लिया जाए तो भी वह मोक्षसुख के अनन्तवें भाग जितना भी नहीं है । जह नाम कोई मिच्छो नगरगुणे बहुविहे न चएइ परिकहेउं उवमाइ तहि ७०८ विआणतो । असंतीए ॥ ( आवनि ९५३ ) एक म्लेच्छ नगर में गया और राज- प्रासाद में कुछ दिन रहा। फिर वह अपनी बस्ती में आ गया । स्वजनों ने 'पूछा- नगर कैसा था ? राजप्रासाद कैसा था ? उसने कहा- मैं वहां की विपुल सुखसुविधाओं को जानता हूं, किंतु मेरे पास ऐसे शब्द या ऐसी उपमा नहीं है, जिससे कुछ बता सकूं । इसी प्रकार मोक्ष का सुख अनुपम है । १०. सिद्ध अनादि हैं। भवओ सिद्धो त्ति मई तेणाइमसिद्धसंभवो जुत्तो । कलाणाइत्तणओ, पढमसरीरं व तदजुत्तं ॥ ( विभा १८५९ ) संसार से मुक्त आत्मा ही सिद्ध होती है । अतः कोई आदिसिद्ध होना चाहिए। किन्तु सिद्ध अनादि हैं। वैसे तो प्रत्येक शरीर और दिनरात की भी किन्तु काल अनादि होने से शरीर या दिन को नहीं जाना जा सकता। इसी प्रकार नहीं जाना जा सकता । काल अनादि होने अनादि हैं । एगतेण साईया, अणाईया, अपज्जवसिया वि य । अपज्जवसिया विय ॥ ( उ ३६ ६५ ) एक-एक की अपेक्षा से सिद्ध सादि-अनन्त और बहुत्व की अपेक्षा से अनादि-अनन्त हैं । आदि होती है। रात की आदि आदिसिद्ध भी से सिद्ध भी सिद्धों की ऊर्ध्वगति ११. सिद्धों की ऊर्ध्वगति .....उज्जुसेढिपत्ते अफुसमाणगई उड्ढं एगसम एवं अविग्गणं तत्थ गन्ता सागारोवउत्ते सिज्झइ बुज्झइ मुच्चइ परिनिव्वाएइ सव्वदुक्खाणमंत करेइ । ( उ २९/७४) जीव मोक्ष स्थान में पहुंच साकारोपयोग (ज्ञानप्रवृत्ति काल ) में सिद्ध होता है, प्रशान्त होता है, मुक्त होता है, परिनिर्वृत होता है और सब दुःखों का अन्त करता है । सिद्ध होने से पूर्व वह ऋजुश्रेणी ( आकाशप्रदेशों की सीधी पंक्ति) से गति करता है । उसकी गति अस्पृशद् ( मध्यवर्ती आकाश प्रदेशों का स्पर्श किए बिना ) तथा ऊपर की ओर होती है। वह एक समय की होती है— ऋजु होती है । रिउसेढीपडिवन्नो समयपएसंतरं अफुसमाणो । एगसमएण सिज्झइ अह सागारोवउत्तो सो ॥ ( विभा ३०८८ ) सिद्ध होने वाले जीव साकारोपयोगयुक्त और ऋजु श्रेणीप्रतिपन्न होते हैं । वे अस्पृशद्गति से एक समय में सिद्धगति को प्राप्त कर लेते हैं । वे समयान्तर और प्रदेशान्तर - अवगाढ प्रदेशों के अतिरिक्त आकाशप्रदेशों का स्पर्श नहीं करते । उड्ढगइहेउउ च्चिय नाही तिरियगमणं नवाचलया । सविसेसपच्चयाभावओ य सव्वन्नुमयओ य ॥ (विभा ३१५३ ) मुक्त आत्मा का स्वभाव है - ऊर्ध्वगति करना । न वह यहीं अचल रहती है, न नीची गति करती है, न तिरछी पूर्वी आदि कर्मों का अभाव है । गति करती है, क्योंकि उसमें विशेष निमित्त - नरकानु लाउअ एरंडफले अग्गी धूमे उसू धणुविमुक्के | as gauओगेणं एवं सिद्धाण वि गईओ ॥ ( आवनि ९५७ ) जह मिल्लेवावगमादलाबुणोऽवस्समेव गइभावो ।'''' तह कम्मले विगमे गइभावोऽवस्समेव सिद्धस्स ।'''' जह वा कुलालचक्कं किरियाहेउविरमे वि सक्किरियं । पुब्वप्पओगओ च्चिय तह किरिया मुच्चमाणस्स || ( विभा ३१४२ - ३१५० ) उड्गइत्ति अहुणा अगुरुलहुत्ता सभावउड्ढगई । दिट्ठतला उएणं एरंडफलाइएहिं च "I (दभा ५३ ) Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्ध होने से पूर्व की अवगाहना ७०९ सिद्ध जैसे एक तुम्बा, जिस पर मिट्टी के आठ लेप लगे एगा य होइ रयणी अद्वैव य अंगुलाइ साहीआ। हुए हैं, पानी में डूब जाता है। एक-एक लेप के हट जाने एसा खलु सिद्धाणं जहन्नओगाहणा भणिआ।। से निर्लेप बना हुआ तुम्बा जल-तल से ऊर्ध्वगति कर जल (आवनि ९७१-९७३) पर तैरने लगता है, वैसे ही आठ प्रकार के कर्मलेप से सिद्धों की उत्कृष्ट अवगाहना तीन सौ तेतीस धनुष्य मूक्त आत्मा की निःसंगता के कारण ऊध्र्वगति होती है। और धनष्य का तीसरा भाग (१ हाथ, अंगल), मध्यम वन्त से ट्टने पर एरंड की फली गति करती है तथा अवगाहना चार हाथ सोलह अंगुल तथा जघन्य अवगाहना अग्नि और धूम-इनकी स्वभाव से ही ऊर्ध्व गति होती एक हाथ आठ अंगुल की होती है। है । धनुष से छुटे हुए बाण और कुलालचक्र की पूर्वप्रयोग के कारण गति होती है। इसी प्रकार मुक्त आत्मा की १३. सिद्ध होने से पूर्व की अवगाहना अगुरुलघुत्व, पूर्वप्रयोग तथा स्वभाव के कारण ऊर्ध्व गति जेट्ठा उ पंचसयधणुस्स मज्झा य सत्तहत्थस्स। होती है। देहत्तिभागहीणा जहन्निया जा बिहत्थस्स ।। कि सिद्धालयपरओ न गई धम्मत्थिकायविरहाओ। कह मरुदेवीमाणं नाभीओ जेण किंचिद्रणा सा। सो गइउवग्गहकरो, लोगम्मि जमत्थि नालोए । तो किर पंचसय च्चिय अहवा संकोयओ सिद्धा॥ (विभा १८५०) सत्तूसिएसु सिद्धी जहन्नओ कहमिहं बिहत्थेसु । मुक्त जीव लोकान में रहते हैं। सिद्धालय से परे सो किर तित्थयरेसु सेसाणं सिझमाणाणं ।। अलोक में उनकी गति नहीं होती, क्योंकि अलोक में गति ते पुण होज्ज बिहत्था कुम्मापुत्तादओ जहन्नेणं । उपग्रहकारी धर्मास्तिकाय नहीं है। अन्ने संवट्रियसत्तहत्थसिद्धस्स हीण त्ति ।। १२. सिद्धों को अवगाहना बाहुल्लाओ सुत्तम्मि सत्त पंच य जहन्नमुक्कोसं । इहरा हीणब्भहियं होज्जंगुल-धणुपुहत्तेहिं ।। उस्सेहो जस्स जो होइ, भवम्मि चरिमम्मि उ । अच्छेरयाइं किंचि वि सामन्नसूए न देसि सव्वं । तिभागहीणा तत्तो य, सिद्धाणोगाहणा भवे ॥ होज्ज व अणिबद्धं चिय पंचसयाएसवयणं व ।। (उ ३६।६४) (विभा ३१६६-३१७१) अन्तिम भव में जिसकी जितनी ऊंचाई होती है, उससे त्रिभागहीन (एक तिहाई कम) अवगाहना सिद्ध सिद्ध होने वाले जीवों की उत्कृष्ट अवगाहना पांच होने वाले जीव की होती है। सौ धनुष, मध्यम अवगाहना सात हाथ और जघन्य देहत्तिभागो सुसिरं तप्पूरणओ तिभागहीणो त्ति । अवगाहना दो हाथ होती है। देह के विभाग न्यून होने सो जोगनिरोहे च्चिय जाओ सिद्धो वि तदवत्थो।। के कारण सिद्धों की उत्कृष्ट अवगाहना तीन सौ तैतीस (विभा ३१६३) धनुष एक हाथ आठ अगुल, मध्यम अवगाहना चार हाथ मुक्त होने वाला जीव अपने शरीर की अवगाहना का आठ अंगुल और जघन्य अवगाहना एक हाथ आठ अंगुन तीसरा भाग जो पोला होता है, उसे जीवप्रदेशों से परित होती है। कर देता है और तब सिद्ध अवस्था की अवगाहना एक सिद्धावस्था में मरुदेवी की तीन सौ तेतीस धनुष की तिहाई भाग कम हो जाती है-शेष दो भाग जितनी अवगाहना कैसे होगी ? नाभि कुलकर की अवमाहना अवगाहना रह जाती है । यह क्रिया काययोग-निरोध के पांच सौ पच्चीस धनुष थी और उतनी ही अवगाहना अन्तराल में ही निष्पन्न होती है । मरुदेवी की थी। इसका त्रिभाग न्यून करने पर सिद्धातिन्नि सया तित्तीसा धणुत्तिभागो अहोइ बोद्धव्वो। वस्था में मरुदेवी की अवगाहना साढे तीन सौ धनुष होनी एसा खलु सिद्धाणं उक्कोसोगाहणा भणिआ ॥ चाहिये । इसके समाधान में कहा गया है कि नाभि कुलचत्तारि अ रयणीओ रयणितिभागृणिआ य बोद्धव्वा । कर की अपेक्षा मरुदेवी की अवगाहना किंचित् न्यून थी। एसा खलू सिद्धाणं मज्झिमओगाहणा भणिआ॥ अतः पांच सौ धनूष माननी चाहिये। Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्ध ७१. सिद्धों की अवस्थिति २. उत्कृष्ट-पांच सौ धनुष ।। ३. मध्यम---दो हाथ से अधिक और पांच सौ धनुष से कम। अथवा मरुदेवी सिद्धि के समय हाथी पर आरूढ़ थी, उसके अंग संकुचित थे, इसलिए उपर्युक्त अवगाहना का कथन समीचीन है। सिद्धांत (ओवाइयं सूत्र १९५) में सिद्ध होने वाले जीवों की जघन्य अवगाहना सात हाथ प्रतिपादित है, फिर यहां दो हाथ की जघन्य अवगाहना का कथन कैसे ? सिद्धांत में सात हाथ की अवगाहना का निर्देश श्रमण महावीर आदि तीर्थंकर की अपेक्षा से है। जघन्य दो हाथ की अवगाहना का निर्देश सामान्य केवलियों की अपेक्षा से है । जैसे-राजकुमार कूर्मापुत्र । (कूर्मापुत्र अपने पूर्वभव में 'दुर्लभ' नाम का राजकुमार था। वह खेलते समय अन्य कुमारों को बांधकर गेंद की भांति आकाश में उछाल कर प्रमुदित होता था। अतः कर्मबंध के कारण इस जन्म में उसकी जन्मजात अवगाहना दो हाथ की हई। उसने घर में रहते कैवल्य प्राप्त किया और फिर उस अल्पतम अवगाहना में सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हुआ)। अन्य आचार्यों का अभिमत है-जघन्य सात हाथ की अवगाहना वाला भी यंत्रपीलन आदि कारणों से संवर्तितसंकुचित हो जाता है, उसकी अपेक्षा से दो हाथ की अवगाहना का प्रतिपादन हुआ है। अथवा सूत्र में जो जघन्य और उत्कृष्ट अवगाहना का निर्देश है, वह बहुलता की अपेक्षा से है। अन्यथा सिद्ध होने वाले जीवों की कादाचित्क जघन्य अवगाहना अंगुलपृथक्त्व (दो से नौ अंगुल) और उत्कृष्ट अवगाहना धनुषपृथक्त्व या इससे भी न्यून-अधिक हो सकती है। इसलिए कर्मापुत्र ओर मरुदेवी की अवगाहना में कोई विप्रतिपत्ति नहीं है। जैसे पांच सो आदेशवचन सूत्र में प्रतिपादित नहीं हैं, वैसे ही कुछ विस्मयबोधक तथ्यों का भी सामान्य श्रत में आकलन नहीं है। उत्कृष्टावगाहना पञ्चधनुःशतप्रमाणा तस्यां सिद्धाः जघन्यावगाहनायां द्विहस्तमानशरीररूपायां सिद्धा: मध्यमावगाहनायां च उक्तरूपोत्कृष्टजघन्यावगाहनान्तरालवत्तिन्यां सिद्धाः। (उशावृ प ६८३) सिद्ध होने से पूर्व जीव की अवगाहना तीन प्रकार की हो सकती है१. जघन्य-दो हाथ । १४. सिद्धों का संस्थान जं संठाणं तु इहं भवं चयंतस्स चरमसमयंमि । आसी अ पएसघणं तं संठाणं तहिं तस्स ।। (आवनि ९६९) सुसिरपरिपूरणाओ पुव्वागारनहाववत्थाओ। संठाणमणित्थंथं जं भणियं अणिययागारं ।। एत्तो च्चिय पडिसेहो सिद्धाइगुणेसु दीहयाईणं । जमणित्थंथं पुवागारावेक्खाए नाभावो । नामुत्तस्सागारो विन्नाणस्सेव न कुंभनभसो व्व । दिट्रो परिणामवओ नेयागारं च विन्नाणं ।। (विभा ३१७२-३१७४) सिद्धों का संस्थान अनित्थंस्थ- अनियत आकार वाला होता है। सिद्ध होने से पूर्व देह के शुषिर भाग आत्मप्रदेशों से पूरित होने से सघन हो जाते हैं, उनका आकार पूर्ववत् व्यवस्थापित नहीं रहता। इस पूर्व आकार की अपेक्षा से ही सिद्धों का संस्थान बताया गया है, अन्यथा सिद्ध अमूर्त हैं, उनमें दीर्घता, ह्रस्वता आदि मूर्त गुणों का व्यपदेश नहीं हो सकता। विज्ञान की तरह अमूर्त का आकार नहीं होतायह आपेक्षिक कथन है। जो परिणामी होता है, उस अमूर्त का भी आकार होता है । जैसे-घटपरिच्छिन्न आकाश घटाकार होता है। सिद्ध जीव परिणामी है, अतः अनन्तर भविक शरीर से परिच्छिन्न उस सिद्ध जीव का भी उपाधिमात्र से आकर होता है। विज्ञान भी ज्ञेयाकार होता है। अन्यथा नीलज्ञान से पीत आदि समग्र वस्तुज्ञान का प्रसंग आ जाता है। १५. सिद्धों को अवस्थिति कहिं पडिहया सिद्धा? कहिं सिद्धा पइट्ठिया ? | कहिं बोंदि चइत्ताणं ? कत्थ गंतूण सिज्झई ? ।। अलोए पडिहया सिद्धा, लोयग्गे य पइट्ठिया । इहं बोंदि चइत्ताणं, तत्थ गंतण सिझई ॥ (उ ३६.५५,५६) सिद्ध कहां रुकते हैं ? कहां स्थित होते हैं ? कहां शरीर को छोड़ते हैं ? और कहां जाकर सिद्ध होते हैं ? Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्ध ७११ सिद्ध अलोक से प्रतिहत होते हैं। वे लोक के अग्रभाग में अनंत ज्ञान प्रत्येक द्रव्य को जानता है। एक नर्तकी को प्रतिष्ठित होते हैं, मनुष्यलोक में शरीर को छोड़ते हैं हजारों आंखें देखती हैं। एक छोटे से कक्ष में अनेक और लोक के अग्रभाग में जाकर सिद्ध होते हैं। दीपकों का प्रकाश समा जाता है। जब अनेक मूर्त प्रदीपों उत्ताणउव्व पासिल्लउव्व अहवा निसन्नओ चेव । की प्रभा भी सीमित क्षेत्र में समा जाती है तो अनंत जो जह करेइ कालं सो तह उववज्जए सिद्धो॥ अमूर्त आत्माओं का सीमित क्षेत्र में अवगाह क्यों नहीं (आवनि ९६७) हो सकता ? उत्तानशयन, पार्श्वतःशयन, निषीदन अथवा अर्धावनत स्थान आदि जिस अवस्थिति में जीव मुक्त होते हैं, सुपार्श्व-सातवें तीर्थंकर। (द्र. तीर्थकर) उसी अवस्थिति में उनका लोकाग्र में अवस्थान होता सुमति- पांचवें तीर्थंकर। (द्र. तीर्थंकर) सुविधि-नौवें तीर्थंकर । इनका अपर नाम सिद्धों का अवगाहक्षेत्र और स्पर्शना पुष्पदन्त है। (द्र. तीर्थंकर) ईसीपब्भाराए सीआए जोअणंमि जो कोसो। सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान-जिसके केवल सूक्ष्म कोसस्स य छब्भाए सिद्धाणोगाहणा भणिआ ।। लोभांश शेष रहता है, तिन्नि सया तित्तीसा धणत्तिभागो अ कोसछब्भाओ। उसकी आत्म-विशुद्धि। जं परमोगाहोऽयं तो ते कोसस्स छब्भाए ॥ दसवां गुणस्थान । (आवनि ९६५, ९६६) * (द्र. गुणस्थान) सीता नाम की ईषत्-प्राग्भारा पृथ्वी से एक योजन सूक्ष्मसंपराय चारित्र-दशवें गुणस्थान में होने ऊपर लोक का अन्त है । उस योजन के उपरिवर्ती कोस वाला चारित्र। के छठे भाग में सिद्धों की अवगाहना होती है, क्योंकि (द्र. चारित्र) उनकी उत्कृष्ट अवगाहना तीन सौ तैतीस धनुष एक सूत्र-दृष्टिवाद का दूसरा भेद । इसमें ऋजुसूत्र, हाथ आठ अंगुल है और वह कोस का छठा भाग है। परिणतापरिणत, बहुभंगिक आदि बाईस ....अन्नुन्नसमोगाढा पुट्ठा सव्वे अ लोगते । सूत्र प्रतिपादित हैं। (द्र. दृष्टिवाद) फुसइ अणंते सिद्धे सव्वपएसेहि निअमसो सिद्धो ।..... सूत्र-कपास आदि से उत्पन्न सूत। (आवनि ९७५,९७६) सुयं पंचविहं पण्णत्तं, तं जहा-अंडयं बोंडयं कीडयं सब सिद्ध अचिन्त्य परिणमन के कारण परस्पर वालयं वक्कयं ।""अंडयं-हंसगब्भाइ।"बोंडयं फलिहसमवगाढ हैं-जहां एक सिद्ध है, वहां अनंत सिद्ध हैं। प्रत्येक सिद्ध अपने असंख्येय आत्मप्रदेशों से अनंत सिद्धों माइ ।""कीडयं पंचविहं पण्णत्तं, तं जहा-पट्टे मलए का स्पर्श करता है । सब सिद्ध लोकान्त का स्पर्श करते अंसुए चीणंसुए किमिरागे ।"" वालयं पंचविहं पण्णत्तं, तं जहा- उण्णिए उट्टिए मियलोमिए कुतवे किट्टिसे ।" वक्कयं सणमाइ। (अनु ४०-४५) १६. परिमित क्षेत्र में अनंत सिद्ध कैसे ? सूत के पांच प्रकार हैंपरिमियदेसेऽणता किह माया मूत्तिविरहियत्ताओ। १. अण्डज-हंसगर्भ आदि से उत्पन्न सूत । - व नाणा दिटीओ वेगरूवम्मि|| २. बोंडज-कपास आदि से उत्पन्न सत । मुत्तिमयामवि य समाणदेसया दीसए पईवाणं । ३. कीटज-इसके पांच प्रकार हैं--पट्ट, मलय, अंशुक, गम्मइ परमाणूण य मुत्तिविमुक्केसु का संका? ॥ चीनांशुक और कृमिराग। (विभा १८६०, ३१८२) ४. बालज-इसके पांच प्रकार हैं ऊन का सूत, परिमित सिद्धिक्षेत्र में अनंत सिद्धों का अवगाहन औष्ट्रिक सूत, मगरोम का सत, चहे के रोम कैसे संभव है? सिद्ध अमूर्त हैं इसलिए परिमित क्षेत्र सूत और मिश्रित बालों से बना हुआ सूत । में भी अनंत सिद्ध रह सकते हैं। जैसे-अनंत सिद्धों का ५. वल्कज-सण आदि से उत्पन्न सूत । Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१२ सूत्र (सूत) बालज सूत अंडज सूत २. मलय मलयदेश में निर्मित सूत मलयसूत अंडाज्जातं अंडज तं च हंसगब्भ, अंडमिति कोसि- कहलाता है। कारको सगभो भण्णाति सो पक्खी सो तं पतंगो तस्स ३.४. अंशक, चीनांशक-भारत आदि देशों में होने गम्भो, एवं चडयसुत्तं हंसगम्भं भण्णति । (अनुच पृ१५) वाला सूक्ष्म सूत अंशुक और चीन देश में बना हुआ सूक्ष्म ___ अण्ड का अर्थ है-कोशी (खोल) का निर्माण सूत चीनांशुक कहलाता है। करने वाला कीट । उससे उत्पन्न होने वाला सूत ५. कृमिराग-कमचिया रंग का सूत्र । इस सूत्र निर्माण अण्डज-हंसगर्भ कहलाता है। हंस का अर्थ है-पतंगा, की प्रक्रिया में बताया गया कि मनुष्य का रक्त निकालकर यह चतुरिन्द्रिय जीव विशेष होता है। उसके गर्भ से उसमें कोई रासायनिक पदार्थ मिलाकर एक पात्र में अथवा कोशिका से निकलने वाला सूत अण्डज होता है। रख दिया जाता है। उस रक्त में कृमि उत्पन्न होकर देशी भाषा में इसे चटकसूत भी कहा जाता है। वे हवा की खोज में पात्र के छेदों से बाहर निकलते हैं। आस-पास घूमते समय उनके मुख से लार टपकती है, कीटज सूत उससे सूत्र बन जाता है।। अरन्ने वणणिगुंजट्ठाणे मंसं चीड वा आमिसं पुंजेसु कुछ मानते हैं कि रक्त में उत्पन्न कृमियों को उसी ठविज्जइ, तेसिं पुजाण पासओ णिण्णुण्णता संतरा बहवे रक्त में मला जाता है। उनके खोलों को निकालकर उस खीलया भूमीए उद्धा णिहोडिज्जति, तत्थ वणंतरातो रस में कुछ पदार्थ मिलाकर वस्त्र को रंगा जाता है, पदंगकीडा आगच्छंति, तं तं मंसचीडाइयं आमिसं चरंता वही कृमिराग है। इतो ततो कीलंतरेसु संचरंता लालं मुयंति, एस पट्टो। बालज सूत मलयविसयुप्पण्णो मलयपट्टो भण्णति ।। चीणविसयबहिमुप्पण्णो असुपट्टो चीणविसयुप्पण्णो मिएहितो लहुतरा मृगाकृतयो बृहत्पिच्छा तेसि लोमा मियलोमा । कुतवो उंदुररोमेसु । उण्णितादीणं अवघाडो चीणंसुयपट्टो। ___मणुयादिरहिरं घेत्तुं किणावि जोगेण जुत्तं भायण किट्टिसमहवा एतेसिं दुगादिसंयोगजं किट्टिसं । संपुडंमि तविज्जति, तत्थ किमी उप्पज्जति, ते वाताभि (अनुचू प १५) लासिणो छिद्दनिग्गता इतो ततो य आसण्णं भमंति, तेसि १. मृगरोम-मृग की आकृति वाले, बड़ी पूंछ वाले णीहारलाला किमिरागपदो भण्णति, सो सपरिणामं आटविक जीवों के रोमों से निष्पन्न सूत को मृगरोम रंगरंगितो चेव भवति । अण्णे भणंति-जहा रुहिरे उप्पन्ना कहा जाता है। किमितो तत्थेव मलेत्ता कोसटें उत्तारेत्ता तत्थ रसे किंपि २. कौतव-चूहे के रोम से बना हआ सूत कौतव जोगं पक्खिवित्ता वत्थं रयं ति सो किमिरागो भण्णति । कहलाता है। (अनुचू पृ १५) ३. किट्टिस ऊन, मृगरोम आदि का सूत बनाने के बाद जो कचरा बचता है, उससे निर्मित सूत किट्रिस १. पट्ट सूत कहलाता है। अथवा ऊन, ऊंट के रोम, मृगरोम और वननिकुञ्ज में किसी स्थान पर मांस के टुकड़े चूहों के रोम-इनमें से दो-तीन के मिश्रण से जो सूत रख दिए जाते हैं। उनके आस-पास थोडी-थोडी दूरी पर ' ऊपर-नीचे कील गाड़ दिए जाते हैं। वन में घूमते हुए बनता है, वह किट्टिस कहलाता है। पतंगकीट मांस की गंध पाकर वहां पहुंचते हैं। मांस सूत्रकृतांग-अंगप्रविष्ट आगम । दसरा अंग । खाने के लिए वे कीलों के बीच में इधर-उधर घूमते हैं। (द. अंगप्रविष्ट) उस समय उनके मुख से लार का स्राव होता है जो कीलों पर चिपक जाता है। उस लाला से निर्मित सूत्र पट्टसूत्र कहलाता है। Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विंशतिस्तव स्तव स्तुति - भक्तिपूर्वक गुणोत्कीर्तन । १. स्तव स्तुति का अर्थ २. चतुविशतिस्तव ३. महावीरस्तुति ४. शक्रस्तुति संघस्तुति ५. स्तव के प्रकार * ६. स्तुति के प्रकार ७. स्तव स्तुति के परिणाम ( ब्र. संघ ) १. स्तव स्तुति का अर्थ स्तुतय: - एकादिसप्त स्तवा -- देवेन्द्रस्तवादयः । श्लोकान्ताः । ' एगदुगतिसिलोगा ( थुइओ) अन्नेसि जाव हुंति सत्तेव । देविदत्थवमाई तेण परं श्रुत्तया होंति । ' ( उशावृ प ५८१ ) देवेन्द्रस्तव आदि स्तव हैं। एक, दो यावत् सात श्लोक वाली उत्कीर्त्तना स्तुति कहलाती है । एक, दो या तीन श्लोक वाले गुणोत्कीर्त्तन को स्तुति और तीन से अधिक श्लोक वाले गुणोत्कीर्तन को स्तव कहा जाता है । कुछ आचार्य सात श्लोक तक के arati को स्तुति मानते हैं । २. चतुविशतिस्तव लोगस्स उज्जोयगरे, अरिहंते कित्तइस्सं, उसभमजयं च वंदे, संभवमभिनंदणं च सुमई च । पउमपहं सुपासं, जिणं च चंदप्पहं वंदे ॥ सुविहिं च पुष्पदंतं, सीअल सिज्जंस वासुपुज्जं च । विमलमणतं च जिणं, धम्मं संति च वंदामि ॥ कुंथुं अरं च मल्ल, वंदे मुणिसुव्वयं नमिजिणं च । वंदामि रिट्ठनेमि, पासं तह वद्धमाणं च ॥ एवं मए अभिथुआ, विहय- रयमला पहीण - जरमरणा । चउवीसंपि जिणवरा, तित्थयरा मे पसीयंतु ॥ कित्तिय वंदिय मए, जेए लोगस्स उत्तमा सिद्धा । आरोग्ग- बोहिलाभं समाहिवरमुत्तमं दितु ॥ चंदेसु निम्मलयरा, आइच्चेसु अहियं पयासयरा । सागरवरगंभीरा, सिद्धा सिद्धि मम दिसंतु ॥ ( आव २1१ ) धम्मतित्थयरे जिणे । चउवीसंपि केवली ॥ स्तव स्तुति जो लोक में प्रकाश करने वाले, धर्मतीर्थ के प्रवर्तक, जिनेश्वरं और अर्हत् हैं, मैं उन चौवीस केबलियों का कीर्तन करूंगा। मैं ऋषभ, अजित, संभव, अभिनंदन, सुमति, पद्मप्रभ, सुपार्श्व चन्द्रप्रभ, सुविधि ( पुष्पदंत), शीतल, श्रेयांस, वासुपूज्य, विमल, अनंत, धर्म, शांति, कुंथु, अर, मल्लि, मुनिसुव्रत, नमि, अरिष्टनेमि, पार्श्व और वर्द्धमान को वंदन करता हूं । इस प्रकार जिनकी मैंने स्तुति की है, जो कर्म-रजमल से मुक्त हैं, जो जरा और मरण से मुक्त हैं, वे चौवीस जिनेश्वर तीर्थंकर मुझ पर प्रसन्न हों । मैंने जिनका कीर्तन, वन्दन किया है, वे लोक में उत्तम सिद्ध भगवान् मुझे आरोग्य, बोधि-लाभ और उत्तम समाधि दें । ७१३ जो चन्द्रमाओं से भी निर्मलतर, सूर्यों से भी अधिक प्रकाश करने वाले और समुद्र के समान गंभीर हैं, वे सिद्ध भगवान् मुझे सिद्धि दें । fafe after वसोहिणिमित्तं पुण बोधिलाभत्थं च कम्मखवणत्थं च तित्थगराणमुक्कित्तणा कता । ( अनुचू पृ १८ ) है आवश्यक के छह विभाग हैं । उनमें दूसरा विभाग चतुर्विंशतिस्तव। इसमें चौवीस तीर्थंकरों की जो उत्कीर्तना की गई है उसके तीन प्रयोजन हैं - दर्शनविशोधि, बोधि - लाभ और कर्मक्षय । चउव्वीसत्थएणं दंसणविसोहि जणयइ । (उ२९/१० ) चतुर्विंशति - स्तव ( चौवीस तीर्थंकरों की स्तुति करने ) से जीव दर्शन ( सम्यक्त्व ) की विशुद्धि को प्राप्त करता है । दर्शनं सम्यक्त्वं, तस्य विशुद्धिः - तदुपघातिकर्मापगमतो निर्मलीभवनं दर्शनविशुद्धिः । ( उशावृप ५८० ) स्तुति के द्वारा दर्शन के उपघाती कर्म दूर होते हैं, फलतः सम्यक्त्व निर्मल हो जाता है। यही दर्शन-विशुद्धि है । दर्शन की विशुद्धि का तात्पर्य है - दर्शन के आचार का अनुपालन । स्तुति से तीर्थंकर के प्रति अनुराग उत्पन्न होता है। उससे दर्शनाचार के प्रति आस्था सुदृढ़ बनती है । दर्शनाचार - द्र. सम्यक्त्व भत्तीइ जिणवराणं खिज्जती पुव्वसंचिआ कम्मा | आयरियनमुक्कारेण विज्जा मंता य सिज्यंति ॥ Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तव-स्तुति ७१४ स्तव के प्रकार भत्तीइ जिणवराणं परमाए खीणपिज्जदोसाणं । ४. शक्रस्तुति आरुग्गबोहिलाभं समाहिमरणं च पावंति ॥ नमोत्थ णं अरहंताणं भगवंताणं आइगराणं तित्थयराणं (आवनि १०९७,१०९८) सहसंबुद्धाणं पुरिसोत्तमाणं पुरिससीहाणं पुरिसवरपुंडरीतीर्थंकरों की भक्ति करने से पूर्वसंचित कर्म क्षीण याणं रिसवरगंधहत्थीणं लोगुत्तमाणं लोगनाहाणं लोगहोते हैं और आचार्य की भक्ति करने से विद्या तथा मंत्र हियाणं लोगपईवाणं लोगपज्जोयगराणं अभयदयाणं दक्खुसिद्ध होते हैं। दयाणं मग्गदयाणं सरणदयाणं जीवदयाणं बोहिदयाणं राग-द्वेष-विजेता वीतराग अर्हतों की परम भक्तिमया समसया मनायगा शमसारदीयं करने से आरोग्य, बोधि और समाधिमृत्यु की प्राप्ति धम्मवरचाउरंतचक्कवीणं दीवो ताणं सरणं-गई पइट्टा होती है। अप्पडिहयवरनाणदंसणधराणं विअट्टछउमाणं जिणाणं ३. महावीरस्तुति जावयाणं तिण्णाणं तारयाणं बुद्धाणं बोहयाणं मुत्ताणं जयइ जगजीवजोणी-वियाणओ जगगुरू जगाणंदो। मोयगाणं सव्वण्णणं सव्वदरिसीणं सिवमयलमख्यमणंतजगणाही जगबंध जयइ जगप्पियामहो भयवं ॥ मक्खयमव्वाबाहमपुणरावत्तय सिद्धिगइनामधय ठाण जयइ सयाणं पभवो तित्थयराणं अपच्छिमो जयह। संपत्ताणं नमो जिणाणं जियभयाणं। (आव ६।११) जयइ गुरू लोगाणं जयइ महप्पा महावीरो। अर्हत् भगवान् को नमस्कार हो, जो धर्म के आदिभदं सव्वजगुज्जोयगस्स भदं जिणस्स वीरस्स । कर्ता, तीर्थकर, स्वयंसम्बुद्ध, पुरुषोत्तम, पुरुषसिंह, पुरुषों भद्द सुरासुरणमंसियस्स भई में प्रवर पुंडरीक और पुरुषों में प्रवर गन्धहस्ती के समान धुयरयस्स ॥ हैं। जो लोकोत्तम, लोकनाथ, लोकहितकारी, लोकप्रदीप निव्वु इपहसासणयं जयइ सया सव्वभावदेसणयं । और लोक में उद्योत करने वाले हैं, जो अभयदाता, कुसमयमयनाप्तणयं जिणिदवरवीरसासणयं ।। (नन्दी १-३,२२) चक्षदाता, मार्गदाता, शरणदाता, जीवनदाता, बोधिदाता, धर्मदाता, धर्मोपदेष्टा, धर्मनायक, धर्मसारथि और धर्म सज्झाय-झाण-तव-ओसहेसु, उवएसथुइपयाणेसुं । के चतुर्दिक व्यापी प्रवर चक्रवर्ती हैं, जो दीप, वाण, संतगुणकित्तणेसु य न होंति पुणरुत्तदोसा उ॥ शरण, गति और प्रतिष्ठा हैं, जो अबाधित प्रवर ज्ञान-दर्शन (नन्दीमवृ प १५) के धारक और आवरणरहित हैं, जो ज्ञाता, ज्ञापक, तीर्ण जगत के समस्त जीवों की उत्पत्ति के ज्ञाता, जगत् तारक. बद्ध, बोधिदाता, मुक्त और मुक्तिदाता है, जो के गुरु और आनन्द देने वाले, जगत् के स्वामी, बन्धु सर्वदर्शी, कल्याणकारी, अचल, अरुज, अनन्त, अक्षय, और पितामह भगवान् महावीर विजयी हों। अव्याबाध और पुनरावृत्ति से रहित हैं तथा सिद्धिगति सब शास्त्रों के उदभावक, तीर्थंकरों में अन्तिम, लोक नामक स्थान को प्राप्त उन भयविजेता जिनेश्वर को के गुरु महात्मा महावीर विजयी हों। नमस्कार हो। समूचे जगत् को प्रकाशित करने वाले, देव और ५. स्तव के प्रकार असुरों द्वारा नमस्कृत, कर्मरज को नष्ट करने वाले दव्वथओ भावथओ दव्वथओ बहुगुणत्ति बुद्धि सिआ । भगवान् महावीर का कुशल हो। अनिउणमइवयणमिणं छज्जीवहिअं जिणा बिति ।। मोक्षमार्ग के प्रतिपादक, सब पदार्थों के प्ररूपक, (आवभा १९२) कुत्सित सिद्धांतों के मदनाशक, जिनेन्द्रवर श्री महावीर स्तव के दो प्रकार हैं-द्रव्यस्तव और भावस्तव । का शासन विजयी हो। कुछ मानते हैं कि द्रव्यस्तव बहुगुण वाला है, किंतु यह शिष्य ने पूछा ---- इस स्तुति में 'जयइ' शब्द का अज्ञानियों का वचन है, क्योंकि तीर्थकर षड़जीवनिकाय असामियों का वजन गोंकि ia प्रयोग बार-बार हुआ है, क्या यह पुनरुक्त दोष नहीं है ? की रक्षा का उपदेश देते हैं और द्रव्यस्तव में जीवहिंसा गुरु ने कहा-स्वाध्याय, ध्यान, तप, औषधि, उपदेश, का प्रसंग आता है। स्तुति, संतगुणोत्कीर्तन- इतने स्थानों पर पूनरुक्त दोष ईसरतलवरमाइंबिआण सिवइंदखंदविण्हणं । नहीं होता। जा किर कीरइ पूआ सा पूआ दव्वओ होइ ।। Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तव-स्तुति - ७१५ स्थविरावलि तित्थयर केवलीणं सिद्धायरिआण सव्वसाहणं । • जो मुनि ज्ञान आदि की आराधना में अवसन्न हो जा किर कीरइ पूआ सा पूआ भावओ होइ॥ गया है उसे उन क्रियाओं में स्थिर करने वाला स्थविर (उनि ३१५,३१६) होता है।। . ईश्वर, तलवर, माडम्बिक, शिव, इंद्र, स्कन्द और जो धर्म में अस्थिर हैं, उनको धर्म में स्थिर करता विष्णु की पूजा द्रव्य पूजा है । है, वह स्थविर है। अर्थत सिट केवली. आचार्य और साधओं की पूजा स्थविरा जातिश्रतपर्यायभेदभिन्नाः, तत्र जातिस्थविरा: भाव पूजा है। षष्टिवर्षप्रमाणाः श्रुतस्थविराः समवायधराः पर्यायस्थविरा क्षायोपशमिक आदि प्रशस्त भावों में वर्तमान व्यक्ति विंशतिवर्षव्रतपर्यायाः ....."बहुश्रुतमापेक्षिक प्रतिपत्तव्यं, ही भाव पूजा कर सकता है। श्रतं च त्रिधा सवतोऽर्थत उभयतश्च. तत्र सत्रधरेभ्योर्थ धरा: प्रधानास्तेभ्योऽप्युभयधरा: प्रधानाः। ६. स्तुति के प्रकार (आवमवृ प १६१) स्तुतिद्विधा--प्रणामरूपा असाधारणगुणोत्कीर्तनरूपा स्थविर तीन प्रकार के होते हैंच । तत्र प्रणामरूपा सामर्थ्य गम्या। असाधरणगुणोत्कीर्तन- १. जातिस्थविर --साठ वर्ष की आयु वाले। रूपा च द्विधा--स्वार्थसम्पदभिधायिनी परार्थसम्पदभिधा २. श्रुतस्थविर -समवायांग के धारक । यिनी च, तत्र स्वार्थसम्पन्नः परार्थ प्रति समर्थो भवति । ३. पर्यायस्थविर ---बीस वर्ष की संयम पर्याय वाले। (नन्दीमवृ प २,३) श्रुत के तीन प्रकार हैं-सूत्र, अर्थ और सूत्रार्थ । ... स्तुति के दो प्रकार हैं--१. प्रणामरूप स्तुति २. सूत्रधर से अर्थधर प्रधान होता है और उनसे भी असाधारण गुणोत्कीर्तनरूप स्तुति । प्रणामरूप स्तुति प्रधान होता है-सत्रार्थधर । सामर्थ्य गम्य है । गुणोत्कीर्तनरूप स्तुति स्वार्थ और परार्थ स्थविरावलि सम्पदा की प्रतिपादिका है। स्वार्थ-सम्पदा से सम्पन्न व्यक्ति परार्थ को साधने में समर्थ होता है। सुहम्मं अग्गिवेसाणं, जंबूनामं च कासवं । पभवं कच्चायणं वंदे, वच्छं सिज्जंभवं तहा ।। ७. स्तव-स्तुति के परिणाम जसभदं तुंगियं वंदे, संभूयं चेव माढरं । थवथइमंगलेणं नाणदंसणचरित्तबोहिलाभं जणयइ । भद्दबाहुं च पाइण्णं, थूलभदं च गोयमं । नाणदंसणचरित्तबोहिलाभसंपन्ने य णं जीवे अंतकिरियं एलावच्चसगोतं, वंदामि महागिरि सुत्थि च । कप्पविमाणोववत्तिगं आराहणं आराहेइ। (उ २९।१५) "वड्ढउ वायगवंसो, जसवंसो अज्जनागहत्थीणं । स्तव और स्तुति रूप मंगल से जीव ज्ञान, दर्शन और जीवनात दर्शन और "जेसि इमो अणओगो, पयरइ अज्जावि अढभरहम्मि । चारित्र की बोधि का लाभ करता है। ज्ञान, दर्शन और बहुनयरनिग्गयजसे, ते वंदे खंदिलायरिए । चारित्र के बोधिलाभ से सम्पन्न व्यक्ति मोक्षप्राप्ति या "ओहसुयसमायारे, नागज्जुणवायए वंदे ।। वैमानिक देवों में उत्पन्न होने योग्य आराधना करता "अत्यमहत्थक्खाणि, सुसमणवक्खाणकहणनिव्वाणि । पयईए महरवाणि, पयओ पणमामि दूसगणि । ""पाए पावयणीणं, पाडिच्छगसएहिं पणिवइए।" स्त्रीलिंग सिद्ध-स्त्रीदशा में मुक्त होने वाले। (द्र. सिद्ध) (नन्दी गाथा २३-४२) स्थविर परंपरा स्थविरावलि-स्थविरों की परम्परा । १. सुधर्मा ६. संभूत विजय स्थविरो-यः सीदन्तं ज्ञानादो स्थिरीकरोति । २. जंबू ७. भद्रबाहु (ओनिव प ६१) ३ प्रभव ८. स्थूलभद्र धर्मेऽस्थिरान स्थिरीकरोतीति स्थविरः । ४. शय्यंभव ९. महागिरि (उशावृ ५५०) ५. यशोभद्र १०. सुहस्ती Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थविरावलि ७१६ स्याद्वाद ११. बहुल १९. वाचक रेवतिनक्षत्र ये। प्रावनिक रूप में नियुक्त युगप्रधान आचार्य दूष्य१२. स्वाति २०. वाचक सिंह गणी शास्त्रार्थ के व्याख्यान में तथा पृष्टार्थ के कथन में १३. आर्यश्याम २१. आचार्य स्कन्दिल अत्यंत शांत, मृदु और समाधिवान् थे। इस विशिष्ट गुण १४. शांडिल्य २२. हिमवन्त के कारण वे शिष्यों की अनुवर्तना अत्यंत कुशलता १५. आर्य समुद्र २३. वाचक नागार्जुन से करते थे। इसी गुण से प्रभावित होकर अन्यान्य १६. आर्य मंगु २४. भूतदिन गणों के मुनि अपने-अपने आचार्य से अनुमति लेकर १७. आर्य नन्दिल २५. लोहित्य इनके पास अनुयोग श्रवण के लिए आते थे । १८. आर्य नागहस्ति २६. दूष्यगणि स्थानांग-अंगप्रविष्ट आगम । तीसरा अंग । नन्दी के कर्ता आचार्य देववाचक द्वारा इस स्थविरा (द्र. अंगप्रविष्ट) वलि में २६ आचार्यों की स्तुति की गई है और साथ ही स्थावर-वे जीव, जो गतिशील नहीं हैं । साथ कुछेक आचार्यों के विषय में विशेष विवरण भी दिया (द्र. जीवनिकाय) गया है। इन आचार्यों में सुधर्मा पहले हैं और दूष्यगणि अंतिम । इनकी कालावधि लगभग हजार वर्ष की है। स्याद्वाद-अनेकान्तात्मक वाक्यविन्यास । यह स्थविरावलि क्रमशः एक के पश्चात् एक होने "सरिसासरिसं सव्वं निच्चानिच्चाइरूवं च ॥ वाले आचार्यों की नहीं है। यह विशिष्ट श्रुतधर, युग (विभा १७९६) प्रधान ओर वाचकवंशीय आचार्यों की अवलिका है। ये सब पदार्थ सदृश-असदृश, नित्य-अनित्य आदि अनन्त आचार्य विभिन्न कालावधि में हए हैं । इनमें से कुछेक धर्मों से युक्त हैं। अनन्त धर्मात्मक वस्तु की प्रतिपादनआचार्यों से संबंधित विशेष विवरण इस प्रकार हैं- शैली का नाम है-स्याद्वाद । ० वाचकवंशीय आर्य नागहस्ती व्याकरण, गणित, अहवा सव्वं वत्थु पइक्खणं चिय सुहम्म ! धम्मेहिं । ज्योतिष, भंगरचना और कर्मप्रकृति की प्ररूपणा संभवइ वेइ केहि वि केहि वि तदवत्थमच्चंतं ।। में प्रधान थे। तं अप्पणो वि परिसं न पुव्वधम्मेहिं पच्छिमिल्लाणं । ० ब्रह्मद्वीपक शाखा में प्रवजित, वाचक पद को प्राप्त सयलस्स तिहुअणस्स च सरिसं सामण्णधम्मेहि ।। सिंह मुनि कालिक श्रुत अनुयोग के धारक थे । (विभा १७९४, १७९५) ० स्कन्दिलाचार्य का अनुयोग आज भी अर्धभरत क्षेत्र वस्तु प्रतिक्षण पूर्व पर्यायों के समान या असमान में प्रचलित है। पर्याय के रूप में उत्पन्न होती है, उत्तर पर्यायों के समान • हिमवन्त क्षमाश्रमण कालिक श्रुत अनुयोग तथा या असमान पर्याय के रूप में विनष्ट होती है और कुछ पूर्वो के धारक थे। पर्यायों की अपेक्षा ध्रुव रहती है। • वाचक नागार्जुनाचार्य ने उत्सर्ग श्रुत का समा पूर्वपर्याय और उत्तरपर्याय की अपेक्षा आत्मा भी चरण किया। सदृश नहीं है। ० नागार्जुन ऋषि के शिष्य श्री भूतदिन्न आचार्य अर्धभरत में युगप्रधान तथा नाइलकुलवंश को ___ सामान्य धर्मों की अपेक्षा समस्त पदार्थ–सारा प्रमुदित करने वाले थे। जगत् सदृश है। • श्री दूष्यगणि की वाणी प्रकृति से ही मधुर थी। ..."सत्तादयोऽणवेक्खा घडाईणं ।। उनकी व्याख्यानविधि श्रोतृवर्ग को शांति देने न खल्वापेक्षिकमेव वस्तूनां सत्त्वम्, किन्तु स्वविषयवाली थी। वे सैकड़ों उपसम्पन्न मुनियों से ज्ञानजननाद्यर्थक्रियाकारित्वमपि । ततश्च ह्रस्वदीर्घोनमस्कृत थे। भयान्यात्मविषयं चेज्ज्ञानं जनयन्ति, तदा सन्त्येव तानि । दृष्यगणि इस स्थविरावलि के अंतिम आचार्य हैं। ये कथं तेषामसिद्धिः?..."तस्मात् स्वतः सत्यामेव प्रदेशिन्यां भाषा, विभाषा और वार्तिक रूप अनुयोग में अत्यन्त पटु वस्तुतोऽनन्तधर्मात्मकत्वात् तत्तत्सहकारिसंनिधौ तत्तद्रूपा Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभंगी ७१७ भिव्यक्ततज्ज्ञानमुत्पद्यते, न पुनरसत्यामेव तस्यामपेक्षा मात्रत एव ह्रस्वज्ञानमुपजायते । ( विभा १७१५ मवृ पृ ६२५ ) वस्तु का अस्तित्व केवल आपेक्षिक ही नहीं है । किन्तु स्वविषयक ज्ञान उत्पन्न करने के कारण अर्थक्रियाकारित्व भी अस्तित्व का बोधक है । इसलिए हस्व, या तदुभय-यह वस्तु-विषयक ज्ञान यदि उत्पन्न होता है। तो ये तीनों धर्म हैं ही। उनको असिद्ध कैसे माना जा सकता है ? ''प्रत्येक वस्तु अनन्तधर्मात्मक है । प्रदेशिनी अंगुली में भी अनन्त धर्म हैं । ह्रस्वत्व, दीर्घत्व आदि धर्म उसमें स्वतंत्र रूप से विद्यमान हैं। सहकारी कारणों से जब जो धर्म अभिव्यक्त होता है तब उस वस्तु के उस रूप का बोध होता है । जो धर्म उस वस्तु में है ही नहीं, असत् है, उसका अपेक्षामात्र से ज्ञान नहीं हो जाता। प्रदेशिनी में यदि ह्रस्वत्व धर्म नहीं है तो अपेक्षामात्र से उसका ज्ञान नहीं हो सकता । अत्थित्ति तेण भणिए घडोघडो वा घडो चूओऽचूओ व दुमो चूओ उ जहा उ अत्थेव । दुमो नियमा ॥ (विभा १७२४) घट की सत्ता घटधर्मता के कारण है, इसलिए वह घट ही है, पट आदि से भिन्न है । पट आदि अघट हैं। सबमें अपनी-अपनी सत्ता है । 'घट' कहने पर 'घट है ही ' क्योंकि उसकी सत्ता का सद्भाव उसमें ही है । जैसे द्रुम कहने पर आम्र और अनाम्र - नीम आदि का ग्रहण होता है क्योंकि उन सबमें द्रुमत्व है। किंतु आम्र कहने पर द्रुम का ही ग्रहण होगा, अद्रुम का नहीं । ... दीहंति व हस्सं ति व न उ सत्ता सेसधम्मा वा ॥ इहरा हस्ताभावे सव्वविणासो हवेज्ज दीहस्स । नय सो तम्हा सत्तादयोऽणवेक्खा घडाईणं ॥ सम्भावासम्भावोभयप्पिओ स-परपज्जओभयओ । कुंभाऽकुंभाऽवत्तव्योभयरूवाइभेओ सो ॥ स्वर मंडल तदेवं स्याद्वाददृष्टं सप्तभेदं घटादिकमर्थं यथाविवक्षमेकेन केनापि भङ्गकेन विशेषिततरमसौ शब्दनयः प्रतिपद्यते नयत्वात्, ऋजुसूत्राद् विशेषिततरवस्तुग्राहित्वाच्च, स्याद्वादिनस्तु सम्पूर्ण सप्तभंग्यात्मकमपि प्रतिपद्यन्ते । ( विभा २२३२ मवृ पृ १५) सद्भाव (अस्तित्व) और असद्भाव ( नास्तित्व) तथा स्वपर्याय और परपर्याय से विशिष्ट वस्तु के सात भंग बनते हैं १. स्व पर्याय की अपेक्षा घट है । २. पर पर्याय की अपेक्षा घट नहीं है । ३. युगपत् स्व-पर पर्याय की अपेक्षा घट अवक्तव्य है । ४. स्व पर्याय की अपेक्षा घट है, पर पर्याय की अपेक्षा वह नहीं है । ५. स्व पर्याय की अपेक्षा घट है, युगपत् स्व-पर पर्याय की अपेक्षा वह अवक्तव्य है । ६. पर पर्याय की अपेक्षा घट नहीं है, युगपत् स्व-पर पर्याय की अपेक्षा वह अवक्तव्य है । ७. स्व पर्याय की अपेक्षा घट है, पर पर्याय की अपेक्षा वह नहीं है । युगपत् स्व-पर पर्याय की अपेक्षा वह अवक्तव्य है । स्वयंबुद्ध सिद्ध - किसी बाहरी निमित्त के बिना अपने आप संबुद्ध होकर मुक्त होने वाले । ( द्र. सिद्ध ) ( विभा १७१४, १७१५ ) स्वरमंडल - षड्ज, ऋषभ आदि सात स्वर । वस्तु की सत्ता आपेक्षिक नहीं है। दीर्घ, ह्रस्व, रूप, रस आदि धर्म केवल आपेक्षिक ही नहीं हैं । यदि ह्रस्व के कारण दीर्घ की सत्ता मानी जाये तो ह्रस्वत्व के विनाश से दीर्घत्व का भी विनाश हो जायेगा । अतः घट आदि की सत्ता और रूप आदि धर्म अन्य की अपेक्षा से नहीं हैं। सप्तभंगी इस प्रकार स्याद्वाद से प्रतिपादित सप्तभंगयुक्त घट आदि पदार्थ किसी एक भंग से विशेषित होने पर शब्द नय और ऋजुसूत्र नय के विषय बनते हैं । स्याद्वाद का विषय सातों विकल्प । इनमें प्रथम तीन भंग सकलादेश और शेष चार भंग विकलादेश कहलाते हैं । १. स्वरों के प्रकार २. स्वरो के स्थान ३. जीवनिश्रित और अजीवनिश्रित स्वर ४. स्वरों के लक्षण ५. स्वरों के ग्राम ६. ग्राम की मूच्र्छनाएं • षड्ज ग्राम की मूच्र्छना Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वरमंडल • मध्यम प्राम की मूर्च्छना • बाम्धार ग्राम की मूर्च्छना ७. स्वर की उत्पत्ति, गीत की योनि ● गीत के दोष ● गीत के गुण • सप्तस्वर सीभर • गेम पदों के गुण के प्रकार • वृत्त • गीत की भाषा • रंग के आधार पर स्वर ८. काव्य के प्रकार ० गद्यकाव्य ० पद्यकाव्य ० येपकाव्य o चूर्ण काव्य ० १. स्वरों के प्रकार सज्जे रिसभे गंधारे, मज्झिमे पंचमे सरे । धेवए चेव नेसाए, सरा सत्त वियाहिया || स्वरों के सात प्रकार हैं१. षड्ज २. ऋषभ ३. गान्धार ४. मध्यम २. स्वरों के स्थान णाभिसमुत्यो अ सरो अविकारो पप्पं जं पदेसं तु । आभोगियरेणं वा उवकारकर सरद्वाणं ॥ जहा ( अनु २९८ ) ५. पंचम ६. चैत ७. निषाद । ( अनुच् पृ ४५) स्वर के उपकारी, विशेषता प्रदान करने वाले स्थान को स्वर स्थान कहा जाता है। जिस स्वर की उत्पत्ति में जिस स्थान का व्यापार प्रधान होता है, उसे उसी स्वर का स्थान कहा जाता है। गौण रूप से उसकी उत्पत्ति में दूसरे स्थान भी व्यापृत होते हैं । एएसि णं सतह सराणं सत्त सरद्वाणा पण्णत्ता, तं ७१८ सज्जं च अग्गजीहाए, उरेण रिसभं सरं । कंठुग्गएण गंधारं मज्जीहाए मज्झिमं ॥ जीवनिश्रित और अजीवनिश्रित स्वर नासाए पंचमं ब्रूया, दंतोट्ठेण य घेवतं । भमुहक्खेवेण नेसायं, सरद्वाणा वियाहिया ॥ ( अनु २९९ ) स्वर १. षड्ज २. ऋषभ ३. गान्धार ४. मध्यम ५. पंचम ६. पंत ७. निषाद स्थान जिल्ला का अग्रभाग । वक्ष । दांत और होठ का संयोग । भू-उत्क्षेप (जहां भौंह का उत्क्षेप होता है) । कज्जं करणावतं जीहा व सरस्स ता असंखेज्जा । सरसंख असंखेज्जा, करणस्स असंखयत्तातो ॥ जीवनिश्रित स्वर सात है कण्ठ । जिल्ला का मध्य भाग । नासिका । कार्य करण के अधीन होता है (ध्वनियां) असंख्येय हैं कारण (साधन) के कारण स्वरों की संख्या असंख्येय है । ३. जीवनिश्रित और अजीवनिश्रित स्वर सत्त सरा जीवनिस्तिया पण्णत्ता, तं जहा सज्जं रवइ मयूरो, कुक्कुडो रिसभं सरं । हंसो रas गंधारं मज्झिमं तु गवेलगा ॥ अह कुसुमसंभवे काले, कोइला पंचमं सरं । छट्ठे च सारसा कुंचा, नेसायं सत्तमं गजो ॥ सत्त सरा अजीवनिस्सिया पण्णत्ता तं जहा सज्जं रवइ मुयंगो, गोमुही रिसभं सरं । संखो रवइ गंधारं मज्झिमं पुण झल्लरी ॥ चउचलणपट्टाणा, गोहिया पंचमं सरं । आडंबगे घेवइयं महाभेरी य सत्तमं ॥ ( अनु ३००, ३०१) ( अनु पृ ४५) स्वर की जिह्वा असंख्येय होने १. मयूर षड्ज स्वर में बोलता है । २. कुक्कुट ऋषभ स्वर में बोलता है। ३. हंस गान्धार स्वर में बोलता है। ४. गवेलक (मेमना ) मध्यम स्वर में बोलता है। ५. वसंत में कोयल पंचम स्वर में बोलता है । ६. क्रौंच और सारस धैवत स्वर में बोलते हैं। ७. हाथी निषाद स्वर में बोलता है । Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्राम की मूर्छनाएं स्वरमंडल अजीवनिधित स्वर सात है मध्यम स्वर १. मृदङ्ग से षड्ज स्वर निकलता है। मध्यम स्वर वाले व्यक्ति सुख से जीते हैं, खाते-पीते २. गोमुखी (नरसिंघा नामक वाद्य) से ऋषभ स्वर हैं और दान करते हैं। निकलता है। पंचम स्वर ३. शंख से गान्धार स्वर निकलता है। पंचम स्वर वाले व्यक्ति राजा, शूर, संग्रहकर्ता और ४. झल्लरी से मध्यम स्वर निकलता है। अनेक गणों के नायक होते हैं। ५. चार चरणों पर प्रतिष्ठित गोधिका से पंचम धवत स्वर ___ स्वर निकलता है। धवत स्वर वाले व्यक्ति कष्टजीवी, पक्षियों, हिरणों ६. ढोल से धैवत स्वर निकलता है। और सूअरों को मारने वाले तथा घुसेबाज (मुष्टिमल्ल) ७. महाभेरी से निषाद स्वर निकलता है। होते हैं। ४. स्वरों के लक्षण निषाद स्वर सज्जेण लहइ वित्ति, कयं च न विणस्सइ । निषाद स्वर वाले व्यक्ति हिंसक, जंघाचार (तेज गावो पुत्ता य मित्ता य, नारीणं होई वल्लहो । गति से चलने वाले दूत), संदेशवाहक, घुमक्कड़ और रिसभेण उ एसज्ज, सेणावच्चं धणाणि य । भारवाही होते हैं। वत्थगंधमलंकार, इत्थीओ सयणाणि य ॥ ५. स्वरों के ग्राम गंधारे गीतजूत्तिण्णा, विज्जवित्ती कलाहिया। ___ सत्तण्हं सराणं तओ गामा पण्णत्ता, तं जहाहवंति कइणो पण्णा, जे अण्णे सत्थपारगा ।। सज्जगामे मज्झिमगामे गंधारगामे। (अनु ३०३) मज्झिमसरमंता उ, हवंति सुहजीविणो । खायई पियई देई, मज्झिमसरमस्सिओ ।। सात स्वरों के तीन ग्राम हैं-षड्ज ग्राम, मध्यम पंचमसरमंता उ, हवंति पुहवीपती । ग्राम और गान्धार ग्राम । सूरा संगह कत्तारो, अणेगगणनायगा ॥ (ग्राम शब्द समूह वाची है । संवादी स्वरों का वह धेवयसरमंता उ, हवंति दुहजीविणो । समूह ग्राम है जिसमें श्रुतियां व्यवस्थित रूप में विद्यमान साउणिया वाउरिया, सोयरिया य मुट्ठिया ॥ . हों और जो मूर्छना, तान, वर्ण, क्रम अलंकार इत्यादि नेसायसरमंता उ, हवंति हिंसगा नरा । का आश्रय हो।) जंघाचरा लेहबाहा, हिंडगा भारवाहगा। ६. ग्राम की मूर्च्छनाएं (अनु ३०२।१-७) अण्णोण्णसरविसेसा उप्पायंतस्स मुच्छणा भणिया । षड्ज स्वर कत्ता व मुच्छितो इव कुणते मुच्छ व सोयत्ति ॥ षड्ज स्वर वाले व्यक्ति आजीविका पाते हैं, उनका मंगिमादियाणं इगवीसमुच्छणाणं सरविसेसो पुव्वगते प्रयत्न निष्फल नहीं होता । उनको गाय, पुत्र और मित्रों सरपाहडे भणितो । तविणिग्गतेसु त भरहविसाखिलादिसु की उपलब्धि होती है तथा वे स्त्रियों के प्रिय होते हैं। विष्णेया। (अनुचू पृ ४५) ऋषभ स्वर परस्पर स्वर उत्पन्न करने पर मूछना होती है। ऋषभ स्वर वाले व्यक्ति को ऐश्वर्य, सेनापतित्व, मुर्छना का अर्थ है-सात स्वरों का क्रमपूर्वक आरोहधन, वस्त्र, गंध, अलंकार, स्त्री और स्वजनों की उपलब्धि होती है। अवरोह । इससे गायक मूच्छित जैसा हो जाता है और श्रोता को भी मूच्छित जैसा बना देता है। गान्धार स्वर गान्धार स्वर वाले व्यक्ति गाने में कुशल, चिकित्सा मंगी आदि इक्कीस प्रकार की मूर्च्छनाओं के स्वरों से आजीविका करने वाले, कला में कूशल, कवि, प्राज्ञ की विशद व्याख्या पूर्वगत के 'स्वरप्राभृत' में प्रतिपादित और शास्त्रों के पारगामी होते हैं। थी। वह अब लुप्त हो चुका है । इस समय इनकी जान Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वरमंडल ७२० गीत के गुण कारी उसके आधार पर निर्मित भरतनाट्य, वैशाखिल आदि ग्रन्थों से करनी चाहिए। षड्ज ग्राम की मूर्च्छना सज्जगामस्स णं सत्त मुच्छणाओ पण्णत्ताओ, तं जहा मंगी कोरव्वीया हरीय, रयणी य सारकंता य। छट्ठी य सारसी नाम, सुद्धसज्जा य सत्तमा ।। (अनु ३०४) षड्ज ग्राम की सात मूर्च्छनाएं१. मंगी ५. सारकान्ता २. कौरवीया ६. सारसी ३. हरित् ७. शुद्ध षड्जा । ४. रजनी मध्यम ग्राम की मूर्छना मज्झिमगामस्स णं सत्त मुच्छणाओ पण्णत्ताओ, तं जहा उत्तनमंदा रयणी, उत्तरा उत्तरायता । आसकंता य सोवीरा, अभिरु हवति सत्तमा ।। (अनु ३०५) मध्यम ग्राम की सात मूर्च्छनाएं१. उत्तरमंद्रा ५. अश्वकान्ता २. रजनी ६. सौवीरा ३. उत्तरा ७. अभिरुद्गता। ४. उत्तरायता गान्धार ग्राम की मूच्र्छना गंधारगामस्स णं सत्त मुच्छणाओ पण्णत्ताओ, तं जहानंदी य खुड्डिया पूरिमा य चउत्थी य सुद्धगंधारा । उत्तरगंधारा वि य, पंचमिया हवइ मुच्छा उ॥ सुठुत्तरमायामा, सा छट्ठी नियमसो उ नायव्वा । अह उत्तरायता कोडिमा य सा सत्तमी मुच्छा ॥ (अनु ३०३।१,२) गान्धार ग्राम की सात मूर्छनाएं१. नंदी ५. उत्तरगान्धारा २. क्षुद्रिका ६. सुष्ठतर आयामा ३. पूरिका ७. उत्तरायता कोटिमा। ४. शुद्धगान्धारा ७.स्वर को उत्पत्ति, गीत की योनि............ सत्त सरा नाभीओ, हवंति गीयं च रुण्णजोणीयं । पायसमा ऊसासा, तिण्णि य गीयस्स आगारा ।। आइमिउ आरभंता, समुव्वहंता य मज्झयारंमि । अवसाणे य झवेंता तिणि वि गीयस्स आगारा॥ (अनु ३०७।२,३) सातों स्वर नाभि से उत्पन्न होते हैं। रुदन गीत की योनि हैं। जितने समय में किसी छन्द का एक चरण गाया जाता है उतना उसका उच्छवास काल (परिमाण काल) होता है और उसके आकार (आकृतियां, स्वरूप) तीन हैं। गीत का आरम्भ करते समय आदि में मृदु, आरोहण करते समय मध्य में तीव्र और अवरोहण करते समय अन्त में मन्द । ये गीत के तीन आकार हैं। गीत के दोष भीयं दुयमुप्पिच्छं, उत्तालं च कमसो मूणेयव्वं । काकस्सरमणुणासं, छद्दोसा होति गीयस्स ॥ (अनु ३०७।५) १. भीत-भयभीत होते हुए गाना। २. द्रुत---शीघ्रता से गाना। ३. उप्पिच्छ-श्वासयुक्त गाना। ४. उत्ताल-ताल से आगे बढ़कर या ताल के अनुसार न गाना। ५. काकस्वर-कौए की भांति कर्णकट स्वर से गाना। ६. अनुनास-नाक से गाना । गीत के गुण पुण्णं रत्तं च अलंकियं च वत्तं च तहेव मविघटळं। महुरं समं सुललियं, अट्ठ गुणा होति गीयस्स ।। (अनु ३०७१६) गीत के आठ गुण हैं१. पूर्ण--स्वर में आरोह, अवरोह आदि से परिपूर्ण होना २. रक्त-गाए जाने वाले राग से परिष्कृत होना। ३. अलंकृत-विभिन्न स्वरों से सुशोभित होना। ४. व्यक्त-स्पष्ट स्वर वाला होना। ५. अविघुष्ट-नियत या नियमित स्वर युक्त होना । ६. मधुर-मधुर स्वर युक्त होना। ७. सम-ताल, वीणा आदि का अनुगमन करना। ८. सुललित-ललित, कोमल लययुक्त होना। Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मीत की भाषा ७२१ स्वरमंडल गीत। उर-कंठ-सिर-विसुद्ध, च गिज्जते मउय-रिभियपदबद्धं । ६. निःश्वसितोच्छ्वसित सम- श्वास लेने और छोड़ने के समतालपदुक्खेवं, सत्तस्सरसीभरं गीयं ॥ क्रम का अतिक्रमण न करते (अनु ३०७७) हुए गाया जाने वाला गीत। गीत के अन्य आठ गुण ७. संचारसम---सितार आदि के साथ गाया जाने वाला १. उरो विशुद्ध-जो स्वर वक्ष में विशाल होता है। इस प्रकार गीत स्वर, तन्त्री आदि से संबंधित होकर २. कण्ठ विशुद्ध--जो स्वर कण्ठ में नहीं फटता। सात प्रकार का हो जाता है। ३. शिरो विशुद्ध - जो स्वर सिर से उत्पन्न होकर भी । गेय पदों के गण नासिका से मिश्रित नहीं होता। ४. मृदु-जो राग कोमल स्वर से गाया जाता है। निद्दोसं सारवतं च हेउजुत्तमलंकियं । उवणीयं सोवयारं च, मियं महुरमेव य ।। ५. रिभित-घोलना-बहुल आलाप के कारण खेल-सा (अनु ३०४९) करते हुए स्वर। गेय पदों के आठ गुण६. पदबद्ध-गेय पदों में निबद्ध रचना। १. निर्दोष-बत्तीस दोष रहित होना। ७. समताल-पदोत्क्षेप-जिसमें ताल, झांझ आदि का २. सारवत्-अर्थयुक्त होना। शब्द और नर्तक का पादनिक्षेप ३. हेतुयुक्त-हेतुयुक्त होना । -ये सब सम हों-एक दूसरे ४. अलंकृत-काव्य के अलंकारों से युक्त होना। से मिलते हों। ५. उपनीत-उपसंहार युक्त होना । ८. सप्तस्वर सीभर-जिसमें सातों स्वर अक्षर, पद ६. सोपचार-कोमल, अविरुद्ध और अलज्जनीय का आदि से सम हों। प्रतिपादन करना अथवा व्यंग्य या हंसी सप्तस्वर सीभर युक्त होना। अक्खरसमं पदसमं, तालसमं लयसमं गहसमं च। ७. मित-पद और उसके अक्षरों से परिमित होना। निस्ससिउस्ससियसम, संचारसमं सरा सत्त ॥ ८. मधुर- शब्द, अर्थ और प्रतिपादन की दष्टि से प्रिय (अनु ३०७८) होना। सप्तस्वर सीभर की व्याख्या वृत्त के प्रकार १. अक्षरसम-जिसमें दीर्घ अक्षर आने पर गीत का समं अद्धसमं चेव, सव्वत्थ विसमं च जं । स्वर दीर्घ हो, ह्रस्व अक्षर आने पर गीत तिणि वित्तप्पयाराइं, चउत्थं नोवलब्भई।। का स्वर ह्रस्व हो, प्लुत अक्षर आने पर (अनु ३०७।१०) गीत का स्वर प्लुत हो और सानुनासिक वृत्त (छन्द) के तीन प्रकार हैंअक्षर आने पर गीत का स्वर सानुनासिक १. सम-जिसमें चरण और अक्षर सम हों, चार चरण हो, वह गीत । हों और उसमें लघु-गुरु अक्षर समान हों।। २. पदसम-स्वर के अनुकूल निर्मित गेय पद के अनुसार २. अर्द्धसम जिसमें चरण या अक्षरों में से कोई एक सम गाया जाने वाला गीत । हो-या तो चार चरण हो या विषम चरण होने ३. तालसम-तालवादन के साथ-साथ गाया जाने वाला पर भी उनमें लघ-गुरु अक्षर समान हों। गीत। ३. सर्व विषम-जिसमें चरण और अक्षर सर्वत्र विषम हों। ४. लयसम-वीणा आदि को आहत करने पर जो लय वृत्त का चौथा प्रकार उपलब्ध नहीं है। उत्पन्न होती है उसके अनुसार गाया जाने गीत की भाषा वाला गीत। सक्कया पायया चेव, भणितीओ होंति दोणि वि। ५. ग्रहसम-वीणा आदि के द्वारा जो स्वर पकड़, उसी सरमडलंमि गिज्जते, पसत्था इसिभासिया।। के अनुसार गाया जाने वाला गीत । (अनु ३०४११) Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वरमंडल भणिति (गीत की भाषा) के दो प्रकार हैं संस्कृत और प्राकृत । ये दोनों प्रशस्त और ऋषिभाषित हैं तथा स्वर-मण्डल में गाई जाती हैं। रंग के आधार पर स्वर सामा गाय महूरं काली गाय गोरी गाय चढरं, काणा य श्यामा स्त्री मधुर गीत गाती है। 12 काली स्त्री परुष और हवा गीत गाती है। गोरी स्त्री चतुर गीत गाती है। काणी स्त्री विम्बित गीत गाती है। अंधी स्त्री दुत गीत गाती है। पिंगला स्त्री विस्वर गीत गाती है। ( स्वर मण्डल की विशेष जानकारी के लिए देखें ठाणं ७३९-४८ के टिप्पण) 7 ८. काव्य के प्रकार T खरंच हवं च । विलंबियं दुतं अंधा ॥ , विस्सरं पुण पिंगला || ( अनु २०७।१३) गज्जं परमं गतं चूष्णं . तिसमुद्वाणं सव्वं इति ग्रथित (छन्दबद्ध) पद के चार प्रकार हैं १. गद्य २. प. और ४. चूर्ण सभी पद तीन समुत्थान वाले हैं। गडा काव्य मधुरं हेडनिडतं गतिमपादं विरामसंजुतं । अपरिमियं चवसाणे कव्वं गज्जं ति णायव्वं ॥ गय काव्य वह है च चव्विहं तु गहियपदं । बेंति सलक्खणा कइणो ॥ (दनि ७६) जो सूत्र आदि के विभाग से मधुर है। o • जो हेतुयुक्त है । ० • ७२२ • जो पादविहीन चरणबद्ध रचित नहीं है । ● जो विरामयुक्त है। • जो अपरिमित अंत वाला है । yurce (दनि ७७) पद्य काव्य पज्जं पि होति तिविहं सममतसमं च णाम विसमं च। पाएहि अक्खरेहिं य एवं विष्णू कई विति ॥ (दनि ७८ ) चूर्ण काव्य पद्य काव्य के तीन प्रकार १. सम जिसमें चारों चरण समान अक्षर, विराम और मात्रा वाले हों । २. अर्धसम जिसमें प्रथम और तृतीय चरण तथा द्वितीय और चतुर्थ चरण समान अक्षर, विराम और मात्रा वाले हों । ३. विषम - जिसके चारों चरणों में अक्षर, मात्रा और विराम विषम हों - समान न हों ! गेय काव्य तंतिसमं वण्णसमं तालसमं गहसमं लयसमं च । कव्वं तु होइ गेयं पंचविहं गेयसण्णाए । (दनि ७९) गेय काव्य के पांच प्रकार १. तन्त्रीसम बाचों के तारों पर अंगुलीसंचार के साथ गाया जाने वाला गीत । - २. वर्ण सम - ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत आदि अक्षरों के अनुरूप अथवा पदों के अनुरूप स्वरों वाला गीत । ३. तालसम - तालवादन के अनुरूप स्वर में गाया जाने वाला गीत । ४. ग्रहसम - वीणा आदि द्वारा गृहीत स्वरों के अनुसार गाया जाने वाला गीत । ५. लयसम-वाद्यों की धुनो के अनुसार गाया जाने वाला गीत । चूर्ण काव्य अत्यबहुलं महत्वं हेउनिया ओवसग्गगंभीरं । बहुपमवोच्छिन्नं गमणयमुद्धं च ष्णपदं ॥ (दनि ८० ) चूर्ण काव्य वह है • जो अर्थ बहुल है - जिसमें एक-एक पद के अनेक अर्थ हैं । VIS ० जो महान् अर्थ वाला है, जो अनेक नयवादों की गंभीरता से महान् है । M. • जो हेतुयुक्त है । • जो 'च', 'वा' आदि निपातयुक्त है । Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वलिंग सिद्ध ० जो 'प्र', 'परां' आदि उपसर्गयुक्त है । • जो बहुपद - अपरिमित पद वाला है । ● जो अव्यवच्छिन्न विरामरहित है । • जो गम और नयों से शुद्ध है । स्वलिंग सिद्ध-जैन मुनि के वेश में मुक्त होने (द्र सिद्ध ) वाला । स्वाध्याय - श्रुतग्रन्थों का अध्ययन-अध्यापन । १. स्वाध्याय क्या है ? * स्वाध्याय : तप का एक भेद २. स्वाध्याय के प्रकार * स्वाध्याय का प्रयोजन ३. स्वाध्याय के परिणाम ४. स्वाध्याय का महत्त्व * स्वाध्याय काल अस्वाध्याय काल * • आहार से पूर्व स्वाध्याय * रात्रिकालीन स्वाध्यायविधि ७२३ ( द्र. तप) ( द्र. श्रुतज्ञान) स्वाध्याय के पांच प्रकार हैं ( व्र. काल विज्ञान ) (द्र अस्वाध्याय) १. स्वाध्याय क्या है ? सुयधम्मो सज्झायो । सज्झातो नाम सामाइ - एमादी जावं दुवालसंगं गणिपिडगं । ( द्र. आहार ) ( द्र. श्रमण ) ( आवचू २ पृ७, ८) स्वाध्याय श्रुतधर्मरूप है । सामायिक से द्वादशांग पर्यंत आगमों का परिशीलन करना स्वाध्याय है । प्रवचनं श्रुतमित्यर्थस्तद्धर्मः स्वाध्यायः । ( उशावृ प ५८४) प्रवचन का अर्थ है श्रुत । श्रुतधर्म का आचरण करना स्वाध्याय है । २. स्वाध्याय के प्रकार वायणा पुच्छणा चेव, तहेव परियट्टणा । अणुपेहा धम्मका सज्झाओ पंचहा भवे ।। वाचना पाठनम् ।''''परावर्त्तना गुणनम् । अनुप्रेक्षा चिन्तनिका । ( उ ३०1३४ शावृ प ५८४) १. वाचना अध्यापन करना । २. प्रच्छना - अज्ञात विषय की जानकारी या ज्ञात विषय की विशेष जानकारी के लिए प्रश्न करना । स्वाध्याय के परिणाम ३. परिवर्तना परिचित विषय को स्थिर रखने के के लिए उसे बार-बार दोहराना । ४. अनुप्रेक्षा - परिचित और स्थिर विषय पर चिंतन करना, पर्यालोचन करना । ५. धर्मकथा - स्थिरीकृत और पर्यालोचित विषय का उपदेश करना । ३. स्वाध्याय के परिणाम है । ...सज्झाएणं नाणावर णिज्जं कम्मं खवेइ । ( उ २९/१९) स्वाध्याय से जीव ज्ञानावरणीय कर्म को क्षीण करता वाचना .... वायणाए णं निज्जरं जणयइ, सुयस्स य अणासायणा वट्टए । सुयस्स अणासायणात् वट्टमाणे तित्थधम्मं अवलंबइ । तित्थधम्मं अवलंबमाणे महानिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ । ( उ२९०२० ) वाचना ( अध्यापन) से जीव कर्मों को क्षीण करता है। श्रुत की उपेक्षा के दोष से बच जाता है । इस उपेक्षा के दोष से बचने वाला तीर्थ धर्म का अवलम्बन करता है। - वह शिष्यों को श्रुत देने में प्रवृत्त होता है। तीर्थधर्म का अवलम्बन करने वाला कर्मों और संसार का अन्त करने वाला होता है । प्रच्छना डिपुच्छणयाए णं सुत्तत्थतदुभयाई विसोहेइ । कंखामोहणिज्जं कम्मं वोच्छिदइ । (उ२९/२१) प्रतिप्रश्न करने से जीव सूत्र, अर्थ और उन दोनों से सम्बन्धित संदेहों का निवर्तन करता है और कांक्षामोहनीय कर्म का विनाश करता है । परिवर्तना .....परियणाए णं वंजणाई जणयइ, वंजणलद्धि च उप्पाएइ । ( उ २९।२२) परावर्त्तना (पठित पाठ के पुनरावर्तन) से जीव अक्षरों को उत्पन्न करता है- स्मृत को परिपक्व और विस्मृत को याद करता है तथा व्यंजन-लब्धि (वर्ण-विद्या) को प्राप्त होता है । अनुप्रेक्षा संभवति परिभावनीय इत्यनुप्रेक्षा । विस्मरणमतः सोऽपि ( उशावृप ५८४) Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वाध्याय का महत्त्व ७२४ हेतूपदेश सके ? . अर्थ का बार-बार चिंतन करना अनुप्रेक्षा है। इसके बारसविधम्मि वि तवे, सभितरबाहिरे कुसलदिठे। अभाव में अर्थ विस्मृत हो जाता हैं। ण वि अस्थि ण वि य होही, सज्झायसमं तवोकम्मं ॥ अणुप्पेहा णाम जो मण सा परियट्टेइ णो वायाए । (दअचू पृ २००) (दजिचू पृ २९) बारह प्रकार का तप दो भागों में विभक्त है-बाह्य अनुप्रेक्षा में मानसिक परावर्तन होता है, वाचिक तप और आभ्यंतर तप । स्वाध्याय आभ्यंतर तप का चौथा नहीं। प्रकार है। स्वाध्याय के समान अन्य कोई तप नहीं है। अनुप्रेक्षा के परिणाम (द्र. अनुप्रेक्षा) तज्ज्ञानमेव न भवति यस्मिन्नूदिते विभाति रागगणः । धर्मकथा तमसः कुतोऽस्ति शक्तिदिनकरकिरणाग्रतः स्थातुम् ।। (नन्दीहाव पृ ६२) धम्मकहाए णं निज्जरं जणयइ। धम्मकहाए णं वह ज्ञान ज्ञान ही नहीं है, जिसके उदित होने पर पवयणं पभावेइ। पवयणपभावे णं जीवे आगमिसस्स राग आदि निषेधात्मक भाव विद्यमान रहें। अंधकार में भद्दत्ताए कम्मं निबंधइ। (उ २९।२४) वह शक्ति कहां है, जो वह सूर्य की किरणों के समक्ष ठहर धर्मकथा से जीव कर्मों को क्षीण करता है और प्रवचन की प्रभावना करता है। प्रवचन की प्रभावना कम्ममसंखेज्जभवं खवेइ अणसमयमेव आउत्तो। करने वाला जीव भविष्य में कल्याणकारी फल देने वाले अन्नयरम्मिवि जोए सज्ज्झायमि य विसेसेणं ।। कर्मों का अर्जन करता है। (उशाव प ५८४) धर्मकथा के प्रकार (द्र. कथा) ध्यानयोग आदि किसी भी प्रकार की योगसाधना जोगं च समणधम्मम्मि जंजे अ लसो धुवं ।.. में सतत उपयुक्त साधक असंख्य भवों के संचित कर्मों को जोगं मणोवयणकायमयं अणुप्पेहणसज्झायपडिलेह- क्षीण करता है। स्वाध्याय योग से विशेष कर्मनिर्जरा णादिसु पत्तेयं समुच्चयेण वा च सद्देण नियमेण भंगितसुते होती है । तिविधमवि। (द ८।४२ अच पृ १९५) कसाया अग्गिणो वृत्ता, सूयसीलतवो जलं । - मुनि आलस्य-रहित हो श्रमणधर्म में योग का यथो- सुयधाराभिहया संता भिन्ना हुन डहति मे ।। चित प्रयोग करें। (उ २३।५३) यहां अनुप्रेक्षा, स्वाध्याय, प्रतिलेखना आदि श्रमण कषायों को अग्नि कहा गया है। श्रत, शील और चर्या को श्रमणधर्म कहा गया है। अनुप्रेक्षाकाल में मन तप-यह जल है । श्रुत की धारा से आहत किये जाने को, स्वाध्यायकाल में वचन को और प्रतिलेखनाकाल में पर निस्तेज बनी हुई वे अग्नियां मुझ नहीं जलाती। काया को श्रमणधर्म में लगाना चाहिये तथा भंगप्रधान (स्वाध्याय के पांच प्रकारों का अनुशीलन करने से (विकल्पप्रधान) श्रुत में तीनों योगों का प्रयोग करना श्रुत की आराधना होती है। श्रुतआराधना से अज्ञान चाहिये । उसमें मन से चिंतन, वचन से उच्चारण और क्षीण होता है । अज्ञान के कारण आग्रह और राग-द्वेष बढ़ते हैं। इससे चित्त संक्लिष्ट रहता है। निरन्तर काया से लेखन -तीनों होते हैं । स्वाध्याय करते रहने से विशिष्ट तत्त्वों की उपलब्धि ४. स्वाध्याय का महत्त्व होती है, तब सारे संक्लेश मिट जाते हैं।) जह जह सुंयमोगाहइ अइसयरसपसरसंजुयमपुवं । तह तह पल्हाइ मुणी णवणवसंवेगसद्धाए । ___ हिंसा-प्राण-वियोजन । प्राणातिपात ।(द्र. अहिंसा) (उशावृ प ५८६) हीयमान-अवधिज्ञान का एक भेद, जो उत्पत्ति मुनि जैसे-जैसे अपूर्व और अतिशयरसयक्त श्रत का काल से क्रमशः क्षीण होता जाता है। अवगाहन करता है, वैसे-वेसे उसे संवेग के नये-नये स्रोत (द्र. अवधिज्ञान) उपलब्ध होते हैं, जिससे उसे अपूर्व आनन्द का अनुभव हेतूपदेश-इष्ट-प्रवृत्ति और अनिष्ट-निवृत्ति का होता है। संज्ञान । संज्ञीश्रुत का एक भेद (द्र. श्रुतज्ञान) Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १. कथा-संकेत २. दार्शनिक और तात्त्विक चर्चा-स्थलों का संकेत Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ प्रस्तुत परिशिष्ट में पांच आगमों (नंदी, अनुयोगद्वार, दशवकालिक, उत्तराध्ययन और आवश्यक) तथा इनके व्याख्या ग्रन्थों (नियुक्ति, भाष्य, चूणि तथा बृत्ति) में प्रयुक्त कथाओं, दृष्टान्तों, घटनाओं के संकेत संगृहीत हैं। इसके तीन विभाग हैं प्रथम विभाग-कथाओं और दष्टांतों का विषयगत विभाजन, संकेत तथा सन्दर्भस्थल । द्वितीय विभाग-तीर्थकर, चक्रवर्ती, प्रत्येकबुद्ध, निह्नव, नगरों की उत्पत्ति-इन से संबद्ध जीवनवृत्तों तथा घटनाओं के ससंदर्म संकेत। तृतीय विभाग -आचार्य, मुनि, राजा तथा अन्य प्रसिद्ध कथानायकों का अकारादि क्रम से ससंदर्भ नामांकन । (प्रथम विभाग) विषय कथा-संकेत संदर्भ अंगुलि-निर्देश १ गीतार्थ-अगीतार्थ साधु विभा ८६८. म ३५२ २ रत्नदाहक वणिक् अज्ञान १. किसान और चित्रपट उचू १४८. शा २६२-२६४. सु १११ २. मूर्ख और दीनार आवचू २ पृ ३० अणुव्रत स्थल प्राणातिपात- १ कोंकणक, २ श्रावक पुत्र, आवचू २ पृ २८३-२९३. हा २१९-२२४ विरमण ३क्षेम अमात्य स्थल मृषावादविरमण १ कोंकणक श्रावक, २ वणिक् द्वारा रहस्यभेद स्थूल अदत्तादानविरमण चोरगोष्ठी और श्रावक का संकल्प स्थूल मैथुनविरमण १ गिरिनगर के मित्र २ गणिका के पुत्र-पुत्री का विसर्जन स्थूल परिग्रहविरमण लोभी नंद श्रावक अनियतवास आचार्य संगमस्थविर आवनि ११७७. चू २ पृ ३५,३६. हा ३१ अनुग्रह राजा द्वारा धनधान्य-वितरण ओभा १३ अनुज्ञा-विधि साधु और भद्र राजा ओनि ३८५ अनुयोग द्रव्यानुयोग गाय और वत्स आवनि १३३,१३४. चू १ पृ १०९-११५. क्षेत्रानुयोग शातवाहन और कुब्जा हा ५९-६४. म १३५-१३८ । विभा १४११, कालानुयोग तक्र-विक्रेता १४१२. म ५२२-५२७ Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ विषय वचनानुयोग भावानुयोग अनुशासन अन्धविश्वास अर्थसंग्रह अर्हत् आज्ञा अशरण अस्वाध्याय अहंकार अहसक यज्ञ अहिंसा आचार्य और शिष्य आज्ञा की आराधना आत्मवध आत्मानुशासन आय-व्यय में कुशल आवश्यक आहार में अनासक्ति बाहार विवेक कथा-संकेत १ बधिर कुटुंब, २ ग्रामेयक १ श्रावकभार्या, २ साप्तपदिक, ३ कोंकणकदारक, ४ नकुल, ५ कमलामेला ६ शांब का साहस ७ बेणिक और बेलना जहानाग मृगावती और चंदनबाला दो कुलपुत्र और अश्व शिवदेव मम्मण सेठ ग्रामभोजिक और राजा अट्टन मस्ल राजपुरोहित पुत्र अरघट्टमाला १ जितशत्रु राजा की घोषणा २ राजा और पांच पुरुष कूणिक जयघोष - विजयघोष ७२८ उज्जयनी का आवकपुत्र १ गाय का विक्रय, २ अशिवोप शमनी भेरी, ३ बेटी और अलंकार ४ आवक और शिष्य ५. बधिर, ६ गोह, ७ टेकणक सूर्योदय उद्यान कपिल पिंगल १ दो चोर भाई २ सेचनक गंधहस्ती तीन व्यापारी १ अगीतार्थ गच्छ २ रत्नवणिक रत्नवणिक् का दृष्टांत गर्दभ का दृष्टांत संदर्भ उ २२।४६. शा ४९६. सु २८४ अच् २५. जि ५०. हा ४९,५० उच् १२२. शा २२३. सु ९६ अबू २४. जि ४७. हा ४४ आवनि ९३५. चू १३७१,३७२. हा २७५, २७६ ओभा ४३, ४४ कथा-संकेत उच् १०९. शा १९२, १९३. सु७९,८० उच् ११४. शा २११. मु८३ ओभा २६ आवनि १३२४, १३२८, १३२९. चू २पृ २१७. २१८. हा १६१.१६२ अच् २६. जि ५१. हा ५०,५१ उ २५।१-४३. नि ४६३-४७९. चू २६८ उच् १७४. शा २९४ आवनि १३६. पू १ पृ ११७-१२०. हा ६५ ६७. म १३९-१४१ । विभा १४३५-१४४५. म ५३२-५३७ पिनि २१२,२१३ अचू २६. जि ५३. हा ५३, ५४ उच् ३३. शा ५२, ५३. सु ६,७ उ ७१४-१६. चू १६३. शा २७८,२७९. सु १२० आवचू १ पृ ७९. हा ३५ म८य विभा ८६८. म ३५२ अच् ८. जि १२. हा १९,२० ओनि १६२ Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथा-संकेत विषय इन्द्रिय श्रोत्रेन्द्रिय चक्षुरिन्द्रिय घ्राणेन्द्रिय रसनेन्द्रिय स्पर्शनेन्द्रिय ईर्ष्या उपसर्ग उपाय एषणा समिति द्रव्य गवेषणा भाव गवेषणा ग्रहणषणा ग्रासंषणा उद्गम के दोष द्रव्य उद्गम 'आधाकर्म कथा-संकेत पुष्पशाल गांधविक इभ्यपुत्र और धारिणी देवी गंधप्रियकुमार सोदास राजा सुकुमालिका स्थविरा १ क्षुल्लक और व्यन्तरी २ संगम ३ चन्द्रगुप्त और चाणक्य ४ सोमिल और गजसुकुमाल ५ ब्राह्मण और स्त्री ६ चार स्त्रियां और मुनि गंधर्वाचार्य १ कनकपृष्ठ मृग २ गजयूथ ३ वानरयूथ १ धर्मरुचि अनगार २ वज्रस्वामी गोवत्स और प्रियंगुलतिका मत्स्य का दृष्टांत ७२९ मोदकप्रियकुमार १ स्तेन २ राजकुमार विजित - समर, ३ भीमपल्ली और अरिमर्दन राजा, ४. गुणचन्द्र राजा और राजद्रोही वणिक् ५ जिनदत्त और शालिओदन ६ यशोधरा और वत्सराज ७ नूपुरहारिका हस्ती ८ उपतेज और सोदास ९ ग्रामणी वणिक और साधु १० गुणचन्द्र श्रेष्ठी और वेशधारी साधु ११ प्रियंकर तपस्वी संदर्भ आवचू १. पृ५२९-५३५. हा २६५-२६८. म ५०४-५०७ अबू ५२. जि ९८.९९ आवचू १ पृ ५३६, ५३७. हा २६९,२७०. म५०९ अचू २४. जि ४७, ४८. हा ४५ पिनि ८०-८४ । ओनि ४५०-४५४, ४५९-४६१ ओनि ४५६. भा २३२-२३९ पिनि २२५,२२६ । अनि ४७७ पिनि ६३० । ओनि ५३९-५४३ पिनि ९० पिनि ११८-१२७ परिशिष्ट १ पिनि १६२-१६७ पिनि १८१ पिनि १९२.१९३ पिनि १९८-२०० पिनि २०८-२११ Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ ७३० कथा-संकेत विषय द्रव्य पूति प्रादुष्करण क्रीत प्रामित्य परिवर्तित अभ्याहृत उद्भिन्न मालापहृत आच्छेद्य अनिसृष्ट उत्पादन के दोष धात्रीपिण्ड कथा-संकेत यक्षसभा का उपलेपन तीन साधु देवशर्मा सम्मत मुनि की भगिनी क्षेमंकर और लक्ष्मी धनावह आदि श्रावक यक्षदत्त और वसुमती सुरदत्त और वसुंधरा वत्सराज और जिनदास बत्तीस मोदक संदर्भ पिनि २४५,२४६ पिनि २९२-२९७ पिनि ३१०,३११ पिनि ३१७-३१९ पिनि ३२४-३२६ पिनि ३३७-३४० पिनि ३५९,३६० पिनि ३६२ पिनि ३६८,३६९ पिनि ३७८-३८१ दूती निमित्त क्रोध पिण्ड मान पिण्ड माया पिण्ड लोभ पिण्ड विद्या मंत्र चूर्ण संगमसूरि और दत्त शिष्य धनदत्त और देवकी भोजक कथा तपस्वी मुनि और ब्राह्मण क्षुल्लक का दृष्टांत मुनि आषाढ मुनि सुव्रत धनदेव और श्रमण पादलिप्तसूरि चाणक्य और क्षुल्लकद्वय समित सूरि १ सुंदरी और मुनि २ शृंगारमति और मुनि पिनि ४२७ पिनि ४३३,४३४ पिनि ४३६ पिनि ४६४ पिनि ४६५ पिनि ४७४-४८० पिनि ४८२,४८३ पिनि ४९५,४९६ पिनि ४९८ पिनि ५००.भा ४४-४६ पिनि ५०३-५०५ पिनि ५०६,५०७, ५१०,५११ योग मूलकर्म एषणा के दोष द्रव्यषणा दायक वानरयूथ और यूथाधिपति बालिका और मुनि मधुबिन्दु का दृष्टान्त पिनि ५१७-५१९ पिनि ५७९ । ओभा २४१ पिनि ६२८ छदित कथा अर्थ कथा काम कथा १ ब्रह्मदत्त आदि चार मित्र दनि ९४. अचू ५४,५५. जि १०३-१०५. २ गीदड़ की राजनीति हा १०७-१०९ १ विरूपा स्त्री २ अचल और मूलदेव १ चोरों द्वारा सैंध लगाना उ ४३. चू १११-११३. शा २०७-२०९. २ आभीरी और वंचक वणिक सु ८१, ८२ कर्मफल Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथा-संकेत ७३१ परिशिष्ट १ विषय कथा-संकेत संदर्भ कवाय क्रोध मान माया आवचू १ पृ ५१९-५२९. हा २६१-२६५. म ५००-५०३ लोभ कामना-जाल काममोग-विरति जामदग्न्य आदि सुभूम चक्रवर्ती १ पंडरा आर्या, २ शुकवृत्त ३ सर्वांगसुंदरी लुब्ध नन्द शिथिलाचारी साधु १ वणिक् पुत्र २, राजीमती और रथनेमि १ काकिणी, २ आम्रफल अचू ४१. जि ७८, ७९. हा ८९ अचू ४४, ४६. जि ८५-८८. हा ९४, ९५ काममोगों की तुच्छता कायोत्सर्ग सुभद्रा का शीलपरीक्षण कुशील-संसर्ग वर्जन उ ७।११, १२. चू १६१,१६२. शा २७६,२७७. सु ११८, ११९ आवनि १५५०. चू २ पृ २६६-२७१. हा २०६,२०७ आवनि ११११, १११२. चू २ पृ २१, २२. हा २० उचू ३२. शा ५०,५१. सु ५ अचू २१,२२. जि ४१-४३. हा ३७,३८ १ चंपकमाला, २ पांच ब्राह्मणपुत्र क्रोध का विफलीकरण कुलपुत्र नागदत्त क्षमा गुप्ति आव २ पृ.७८,७९. हा ५९ मनो गुप्ति वचन गुप्ति काय गुप्ति गौरव जुगुप्सा ज्ञान-क्रियावाद जिनदास श्रावक साधु और सेनापति साधु का दृष्टान्त मंगु आचार्य गणिकापुत्री और श्रेणिक अन्ध-पंगु आव २ पृ८०. हा ६० आवचू २ पृ २८०,२८१. हा २१७ आवनि १०१,१०२. चू १ पृ. ९६. हा ४७,४८. म १०९,११० अचू ५१-५३. जि ९८-१०१: हा १०४-१०६ ज्ञानाचार काल विनय बहुमान उपधान अनिलवन ज्ञानातिचार अधिकाक्षर हीनाक्षर १ शंखधमक, २ देवता और साधु एक स्तंभ पर प्रासादनिर्माण ब्राह्मण और भील अशकटेपिता नापित और परिव्राजक १ कुणाल, २ वानर १ विद्याधर, २ बाल और आतुर १ चाणक्य और सुबुद्धि, २ लकड़हारा विभा ८६१-८६५. म ३४८-३५१. अनुहा १०,११ अचू ४२,४३. जि८१-८४ हा ९१-९३ स्याग Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ विषय दण्ड मनोदण्ड वचन दण्ड काय दण्ड द्वेष की परम्परा धूर्तता धृति नमस्कार की निष्पत्ति नय निहा अर्था कामनापूर्ति आरोग्य-अभिरति सुकुल- जन्म जीवन दान द्रव्य नमस्कार स्त्यानद्धि निद्रा निर्जरा न्याय पदानुसारी लब्धि परिग्रह परीवह १. सुधा २. पिपासा ३ शीत ४ उष्ण ५ दंशमशक ७३२ कथा - संकेत कोंकणक क्षपक साधु का दृष्टांत चण्डरुद्र आचार्य धर्मरुचि अनगार और नन्द नाविक, नन्द के पांच भव ( हंस, सिंह आदि ) १ काटिक और श्रावक, २ परिव्राजक का स्वर्ण खोटक और श्रावक, ३ वणिक् पत्नी की माया, ४ लोक का मध्य ५ शकट तित्तिरी और 1 मध्यमान सत्तु, ६ त्रपुष रथनेमि श्रावकपुत्र और त्रिदंडी कृष्ण सर्प और पुष्पमाला मातुलिंग बन गणिका और चंडपिंगल इंडिक यक्ष जितशत्रु और दमक १ प्रस्थक का दृष्टांत, २ वसति का दृष्टान्त, ३ प्रदेश का दृष्टांत १ पौद्गल (मांस), २ मोदक, ३ हाथी दांत, ४ कुम्भकार, ५ वटशाखा योगवहन- दक्ष महिला दो माता, एक पुत्र विद्याधर और अभयकुमार धन का कूप हस्तिमित्र और हस्तिभूति धनमित्र और धनशर्मा भद्रवाह के चार शिष्य अर्हक मुनि धर्मघोष और भ्रमण भद्र संदर्भ आवच् २ पृ ७७, ७८. हा ५८, ५९ सु २५१, २५२ आव १ पृ ५१६,५१७. हा २५९,२६०. म ४९९ अचू २७, २८. जि ५४-६०. हा ५५-६१ कथा-संकेत आवनि १०१२ चू १. पृ ५८९-५९१. हा ३०१-३०३. म ५५४,५५५ आवचू १ पृ ५०३. हा २५२. म ४५६, ४८७ अनु ५५४-५५७. चू ७६-७७. हा १०५-१०८ विभा २३५. म ११७, ११५ भोनि ४९४-४९८ आवचू २ पृ १०. हा ८,९. म ६०० विभा ८६४. म ३५० उच् ११०, १११. शा २०६, २०७. सु ८०, ८१ उनि ८९-१४१ च ५३-९०. शा ८५-१३९. सु१-५५ Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथा - संकेत विषय ६ अचेल ७ अरति स्त्री ९ चर्या १० निषद्या ११ शय्या १२ आक्रोश १३ वध १४ याचना १५ अलाभ १६ रोग १७] तृणस्पर्श १८ जल्ल १९ सरकार पुरस्कार २० प्रज्ञा २१ अज्ञान २२ दर्शन प्रतिक्रमण के पर्यायवाची १ प्रतिक्रमण २ प्रतिचरण ३ परिहरण ४ वारण ५ निवृत्ति ६ निंदा ७ गाँ गोधि द्रव्य प्रतिक्रमण भाव प्रतिक्रमण कषाय प्रतिक्रमण प्रतिलेखना कथा - संकेत आरक्षित और सोमदेव मूक भ्राता की प्रव्रज्या आचार्य संभूतविजय और स्थूलभद्र आचार्य संगम और शिष्य दत्त कुरुदत्तमुत अनगार सोमदत्त और सोमदेव मुनि अर्जुनमालाकार स्कन्दक आदि ५०० साधु यंत्र- पीलित बलदेव १ श्री कृष्ण और क्रोध पिशाच २ उंडण मुनि कालवंशिक मुनि भद्र मुनि सुनन्द श्रावक इन्द्रदत्त पुरोहित आचार्य कालक ७३३ १ अशकटपिता और 'असंखयं' अध्ययन २ आचार्य स्थूलभद्र आचार्य आषाढभूति राजा और दो राहगीर afra पत्नी और प्रासाद की उपेक्षा कुलपुत्र और दुग्धघट की कापोती राजा और विषमिश्रित तालाब कौलिक सुता राजा और चित्रकार कन्या पतिमारक स्त्री राजा श्रेणिक और रजक पुनः पुनः प्रतिक्रमण तीन वैद्यों का दृष्टांत क्यों ? कुम्भकार मृगावती गंधर्व नागदत्त तथा पूर्वभविक मित्र राजा और आरक्षक संदर्भ आवनि १२४२. २५३-६१. हा ४१-४८ परिशिष्ट १ आवनि १०४८. हा ३२३, ३२४. म ५८४ आवनि १२५२-१२७०. २६५-६७. १ पृ ६१४,६१५. हा ५०-५३ आव २ पृ ६७. हा ५३ ओनि २६०, २६१. वृ १०५, १०६ Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ कथा-संकेत विषय प्रत्याख्यान ७३४ कथा-संकेत संदर्भ दामनक और सागर सेठ आवनि १६२०. चू २ पृ ३२४. हा २४८, २४९ १ धातुवादी २ अगडदत्त ३ म्लेच्छों उच ११५, ११६, १२३-१२५. का आक्रमण ४ वधू की विभूषा शा २१३-२१६, २२५, २२६. ५ वणिक महिला सु ८३-९३, ९७ प्रमाद-अप्रमाद औत्पत्तिकी बुद्धि १ भरतशिला २ शर्त ३ वृक्ष नन्दी ३८१३,४. म १४९ । आवनि ९४०,९४२. ४ मुद्रिका ५ वस्त्रखंड चू १ पृ ५४६-५५२. हा २७७-२८२. ६ गिरगिट ७ कौआ ८ उत्सर्ग म ५१९-५२३ ९ हाथी १० भांड ११ लाख की गोली १२ स्तम्भ १३ क्षुल्लक १४ मार्ग १५ स्त्री १६ पति १७ पुत्र १८ मधुमक्खियों का छाता १९ मुद्रिका २० अंक २१ रुपयों की नोली २२ भिक्ष २३ बालक का निधान २४ शिक्षा २५ अर्थशास्त्र २६ मेरी इच्छा २७ एक लाख २८ मेंढा २९ मुर्गा ३० तिल आवनि ९४१. च १ पृ ५४४-५४६. ३१ बालुका ३२ हाथी ३३ कूप हा २८०. म ५१६-५१८ । ३४ वनखंड ३५ खीर नन्दीम १४५-१४९ ३६ अजिका ३७ पत्र ३८ बकरी की मेंगनी अथवा गिलहरी ३९ पांच पिता १ निमित्त २ अर्थशास्त्र नन्दी ३८१६. म १६०-१६२ । ३ लेख ४ गणित ५ कूप आवनि ९४४,९४५. चू १ पृ ५५३-५५६. ६ अश्व (७ गर्दभ ८ लक्षण हा २८२-२८५. म ५२३-५२६ ९ गांठ १० औषध ११ रथिकगणिका १२ आर्द्रसाड़ी-दीर्घतृणउलटा घूमता हुआ क्रौञ्च पक्षी १३ नीव्रोदक (छत का पानी) १४ बैल, घोड़े और वृक्ष से गिरना १ स्वर्णकार २ कृषक ३ जुलाहा नन्दी ३८।९. म १६४, १६५ । आवनि ९४७. ४ दर्वी ५ मणिकार ६ घृत व्यापारी चू १पृ ५५६. हा २८५. म ५२६ ७ तैराक ८ रफू करने वाला ९ बढई १० रसोइया ११ कुम्भकार १२ चित्रकार वैनयिकी बुद्धि कर्मजा बुद्धि Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथा-संकेत ७३५ परिशिष्ट १ विषय कथा-संकेत संदर्भ नन्दी ३८।११-१३. म १६६, १६७ । आवनि ९४९-९५१. च १ पृ ५५७-५६८. हा १८५-२९२. म ५२७-५३४ पारिणामिकी बुद्धि १ अभयकुमार २ श्रेष्ठी ३ कुमार ४ देवी ५ उदितोदित राजा ६ साधु ७ नन्दीषेण ८ धनदत्त ९ श्रावक १० मंत्री ११ क्षपक १२ अमात्य १३ चाणक्य १४ स्थूलभद्र १५ नासिकपुर-सुंदरीनन्द १६ वज्र १७ चरण से हत १८ कृत्रिम आंवला १९ मणि २० सांप २१ गेंडा २२ स्तूप उखाड़ना भाषा विवेक ब्राह्मण और साधु मिक्षाचर्या वत्स और वधू भिक्षा हेतु दूर गमन कुब्जबदरी का दृष्टांत मंत्र चूर्ण १ मंत्रित चावल, २ चर्णकृत भिक्षा ३ विषभावित भिक्षा मनुष्य जन्म की दुर्लभता १ चोल्लग २. पाशक ३ धान्य ४ द्यूत ५ रत्न ६ स्वप्न ७ चक्र ८ चर्म ९ युग और १० परमाणु का दृष्टांत मनोनिग्रह राजपुत्र मुख्य और गौण रत्न, स्वर्ण, चांदी और लोहे की अ १९०. जि २८० अ८. जि १२ ओनि २३९. भा १४२, १४३ ओनि ५९७-६०३ आवनि ८३२. चू १ पृ ४४६-४५१. हा २२८-२३०. म ४५१-४५४ । उनि १६०. शा १४५-१५०. सु ५६-६७ अ ४४. जि ८४. हा ९४ ओभा ८,९ खाने मुधादायी-मुधाजीवी १ परिव्राजक भक्त २ क्षुल्लक अ १२४, १२५. जि १९०, १९१. हा १८१,१८२ आवचू १ पृ ३५५-३६६. हा १८१-१८३. म ३५५-३५९ मृत्यु के उपक्रम १ राग २ स्नेह ३ भय ४ आहार ५ स्पर्श मृवावाद मृषोपदेश यथाप्रवृत्तिकरण तरुणी वणिक पत्नी सोमिल विप्र ब्राह्मण का अति आहार ब्रह्मदत्त चक्री का स्त्रीरत्न श्रावक चोर और परिव्राजक . पथिक और चोर का दृष्टांत जि २१८ . आवचू २ पृ २८६ विभा, १२११-१२१४ । आवचू १ ९९ Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ विषय योगसंग्रह १ आलोचना २ निरपलाप ३ दृढधर्मिता ४ अनिश्रित उपधान ५ शिक्षा ६ निष्प्रतिकर्म ७ अज्ञात तप ८ अलोभ ९ तितिक्षा १० आर्जव ११ शुचि, सत्य १२ सम्यग्दृष्टि १३ समाधि १४ आचार १५ विनयोपग १६ धृतिमति १७ संवेग प्रत्याख्यान २५ ब्युत्सर्ग कथा - संकेत अट्टन महल, कर्पास महल धनमित्र और दृढमित्र १ सुरवर यक्ष और धनंजय सेठ २ यज्ञदत्त और पुत्र नारद राजा महाबल और चित्रकार शिशुनाग का पुत्र सुव्रत ब्राह्मण पुत्र ज्वलन और दहन अवधि ब्राह्मण और निम्बक पुत्र पांढषेण राजा और मति-सुमति पुत्र सार्थवाहपुत्र सुजात, अमात्य धर्मघोष, राजा चन्द्रध्वज और वारक ऋषि १ नभोवाहन और शालवाहन २ जिनदेव आचार्य और बौद्धभिक्षु धन्वन्तरी और वैतरणी वैद्य अर्हत् पार्श्व और नन्दश्री साध्वी २१ आत्मदोषोपसंहार अर्हन्मित्र श्रेष्ठी और जिनदेव पुत्र १५ प्रणिधि १९ सुविधि २० संवर २२ सर्वकामविरति २३ मूलगुण प्रत्याख्यान राजा देवलासुत और पुत्री अर्ध संकाशा चिलात राजा और जिनदेव श्रावक धर्मघोष और धर्मयश मुनि २४ उत्तरगुण ७३६ १ धर्मघोष अनगार, २ दण्ड अनगार आर्य महागिरि और सुहस्ती भद्रबाहु और स्थूलभद्र नागदत्त धर्मवश मुनि क्षुल्लक कुमार, यशोभद्र, श्रीकांता आदि इन्द्रदत्त और सुरेन्द्रदत्त अंगवि और रुद्रक १ करकंडू का पूर्वजन्म तथा राज्य-त्याग । २ कांपिल्य नगर के राजा दुर्मुख का राज्य - त्याग | ३ एकत्व भावना से नमि का राज्यत्याग । ४ गांधार जनपद के राजा नग्गति का राज्य-त्याग । संदर्भ कथा-संकेत आवनि १२७९-१३२०. पू. २१५२ २१२. हा. ११७-१५६ Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथा-संकेत ७३७ परिशिष्ट १ रसगृद्धि विषय कथा-संकेत संदर्भ २६ अप्रमाद जरासंध राजा, मगधसुंदरी और मगधश्री गणिका २७ लवालव भृगुकच्छ में विजय शिष्य .२८ ध्यानसंवरयोग आचार्य पुष्पभूति और शिष्य पुष्यमित्र २९ मारणांतिक धर्मरुचि अनगार वेदना अधिसहन ३० संगपरिज्ञा जिनदेव श्रावक ३१ प्रायश्चित्तकरण आचार्य धनगुप्त ३२ मारणांतिक मरुदेवा आराधना उरभ्र उ ७।१-४. नि २४९. चू १५८,१५९, शा २७२, २७३. सु ११६,११७ रस-विवर्जन उदायन राजा आवनि ११८५. चू २ पृ ३६. हा ३२ राग अर्हन्नक और अर्हन्मित्र आवचू १ पृ ५१४,५१५. हा २५९. म ४९८ रौद्रध्यान राजगृह का द्रमक उचू १३८. शा २५१. सु १०७ । लेश्या १ जम्बू खादक २ ग्रामवधक आव २ पृ ११३. हा १०३, १०४ लोभ १ वंजुल वृक्ष और वानर विभा ८६३. म ३४९, ३५० २ रुपयों की नौली अ २१. जि ४०,४१. हा ३५ लोभविजय कपिल मुनि उनि २५३-२५९. च १६८-१७०. शा २८६ २८९. सु १२४,१२५ वन्दना १ द्रव्य वंदना राजकुमार शीतल और उसके चार आवनि ११०४. चू २ पृ१४-१९. हा १५-१७ भाव वंदना भतीजे २ द्रव्य चिति क्षुल्लक मुनि ' भाव चिति ३ द्रव्य कृतिकर्म वासुदेव कृष्ण और वीरक भाव कृतिकर्म ४ द्रव्य पूजा १ दो सेवकों का परस्पर संघर्ष भाव पूजा २ वासुदेव और उनका पुत्र पालक वर्गणा गायों की कुविकर्ण गृहपति का दृष्टांत विभा ६३२ । आव १ पृ ४४,४५. हा २३ वाणी का प्रभाव किढी दासी आवनि ५७८. च १ पृ ३३१. हा १५८. म ३०८ विनय राजपुत्र मुनिविजय विभाम ३७४,३७५ विभूषा सती-असती का दृष्टांत ओनि ४०४. व १४६ विविक्तचर्या समुद्रपाल उ २१११-१०,२२-२४. नि ४२५-४३५. चू २६१ Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ विषय वैराग्य व्यंजनावग्रह व्युत्सर्ग शरीर में तीन शल्य शिक्षा शिक्षा व्यर्थ नहीं शिष्य शील श्रोता संख्या विनीत शिष्य अविनीत शिष्य उत्कृष्ट संय समता समिति संयम विराधना संसार भ्रमण १ ईर्ष्या २ भाषा ३ एषणा ४ आदाननिक्षेप ५ उत्सर्ग सम्यक्त्व के अतिचार शंका कांक्षा कथा - संकेत मत्स्यगलागल १ प्रतिबोधक का दृष्टांत २ मल्लक का दृष्टांत प्रसन्नचन्द्र राजर्षि योग्य-अयोग्य परिषद् १ मुद्गल, २ कूट, ३ चालनी, ४ परिपूर्णक, ५ हंस, ६ महिष, ७ मेष, ८ मशक, ९ जलौक, १० विडाली, ११ जाहक १२ गौ १३ भेरी, १४ आभीरी राजा और वैद्यसुता चाणक्य और कौलिक ग्वाला और राजा चण्डद्र आचार्य आचार्य द्वारा अनशन कूलबालक श्रमण सुभद्रा १ पल्य का दृष्टांत २ आंवले का दृष्टांत साधु द्वारा नमक-ग्रहण धन सार्थवाह भूतवादी का दृष्टांत मंडूकी विकुर्वणा भाषासमित मुनि नन्दीषेण मुनि प्रव्रजित श्रेष्ठीसुत १ धर्मरुचि अनगार २ ऊंट की विकुर्वणा ७३८ दो पुत्र राजा और कुमारामात्य संदर्भ उच् २६८ नन्दी ५२, ५३. ३७,३८. हा ११-५५. चू म १७९-१८३ आवनि १०५१. हा १ पृ ३२५. ५८६ ओनि ६२३,६२४ अचू २६. जि ५२. हा ५२ उ १३२,१३३. शा २४४, २४५. सु १०३ कथा - संकेत उच् ३१ मा ४९, ५०. सु ४,५ उच् ४२. मा ६२,६३. सु १३,१४ उसु २ अबू २४, २५. जि ४०-५०. हा ४६-४८ म ५८४ नन्दी गाथा ४४. म ५६-६३ । आवनि १३९. १ पृ १२१-१२४. हा ६७-६९. म १४२१४५ । विभा १४५४-१४८१. म ५३९-५४८ आवचू २ पृ ९३-९५. हा ८४-८६ अनु ५८६,५८७. चू ७८-८०. हा १०९-११२ ओनि २७३ आवनि ९०५. चू १ पृ ५०९-५११. हा २५६,२५७. म ४९४.४९५ उबू ३२. शा ५१. सु ५,६ आवच् २ पृ २७९-२०१. हा २१६-२१८ Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथा-संकेत विषय विचिकित्सा परपाखंड प्रशंसा सम्यक्त्व के आचार अमूड दृष्टि उपबृंहण सम्यक्त्व ग्रहण के अपवाद राजाभियोग गणाभियोग देवताभियोग गुरुनिग्रह वृत्तिकांतार सम्यक्त्व प्राप्ति के दृष्टांत ससार असार साधु का वेग सामाचारी इच्छाकार सामायिक की परम्परा सामायिक के निर्वचन सामायिक प्राप्ति के कारण १ अनुकम्पा २ अकामनिर्जरा ३ बाल तप ४ पात्रदान ५ विनय ६ विभंगजान ७ संयोग-वियोग ८ व्यसन ९ उत्सव कथा-संकेत श्रावक और चोर चन्द्रगुप्त और चाणक्य सुलसा श्रेणिक कार्तिक सेठ वरुण सारथि आवक और व्यन्तरी उपासक पुत्र और बावक पुत्री सौराष्ट्र का धावक और बौद्ध भिक्षु १ पल्प २ पर्वतनदी-पाषाण, 1 ३ पिपीलिका, ४ पुरुष, ५ मार्ग, ६ वर ७ कोद्रव, ८ जल, ९ वस्त्र समुद्रवणिक् का दृष्टान्त रुपये का दृष्टान्त ७३९ १ बालीक अश्व और मागध अश्व २ दरिद्र ब्राह्मण, ३ बन्दर और बया का घोंसला, ४ दो वणिक् मृगावती और चण्डप्रद्योत १ दमदन्त, २ मेतार्य, ३ कालकपृच्छा, ४ चिलात, ५ आत्रेय, ६ धर्मच ७ तेतलिपुत्र , धन्वंतरी और वैतरणी वैच महावत इन्द्रनाग कृतपुण्यक पुष्पशाल सुत शिवराज तापस अच् ५०. जि ९६. हा १०२, १०३ संदर्भ आवचू २ पृ २७६-२७८. हा २१४,२१५ परिशिष्ट १ आवनि १०७. हा ५०, ५१ । विभा १२०४-१२२१ ओनि ५७२ आवनि ११३८, ११३९. हा २ पृ २४, २५ आवनि ६७८-६८०. चू १ पृ ३४३-३४५. हा १७४, १७५. म ३४५, ३४६ विभा १०८२. म ४२३, ४२४ आवचू १ पृ८९-९१. हा ४३-४५ आवनि ८६५-८७६. चू १४९२-५०१. हा २४३ - २४९. म ४७५-४८२ मथुरा के दो वणिक् दो भ्राता ( कृष्ण-बलराम का पूर्वभव) आभीर आवनि ८४५, ८४६ च १ १ ४६०-४०५, हा २३२-२४०. म ४६१-४६९ Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ ७४० कथा-संकेत विषय १० ऋद्धि ११ असत्कार सुभिक्ष-दुभिक्ष का ज्ञान स्त्री का चरित्र स्थापित कुल कथा-संकेत संदर्भ दशार्णभद्र राजा इलापुत्र बहुश्रुत आचार्य और देव ओभा ३०. वृ २१ नपुरहारिका का आख्यान अचू ४७. जि ८९-९१. हा ९७-९९ १ गाय और उद्यान का दृष्टांत ओनि २३८. भा १३१,१३२,१३७ २ गृहिणी का दृष्टांत १ पाणि-प्रहार, २ गणिका द्वारा विभा ९२८. म ३७२,३७३ । आवचु १ पृ८१. चित्रांकन, ३ अमात्य द्वारा तालाब हा ३७. म ९२ निर्माण मरुक का दृष्टांत ओनि ६५४ मलदेव राजा और मंडिक चोर उचू ११८-१२१. शा २१८-२२२. सु ९५ स्वभाव परीक्षण स्वाध्याय स्वार्थवृत्ति Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय विभाग संदर्भ १३१-१३३. हा ७७-८०. विषय तीर्थकर ऋषम पूर्वभव • धन्ना सार्थवाह, महाबल, ललितकुमार, वैरजंघ, यौगलिक, सौधर्मदेव, वैद्यपुत्र, वज्रनाभ आदि • श्रेयांस आदि के स्वप्न, ऋषभ के वर्षांतप का पारणा---अक्षय तृतीया की उत्पत्ति अरिष्टनेमि आवनि १७०-१८५. चू १ म १५७-१६० आवनि ३२२. च १५१६२-१६४. हा ९७,९८. म २१७,२१८ उ २२।१-४९. सु २७७-२८२ सु २८७-२९५ आवनि १३०७. च २ पृ २०२. हा १४६ पाव पार्श्व और नन्दश्री साध्वी महावीर आवनि १४६. च १ पृ१२८. हा ७२,७३. म १५२ . आवनि १४८, १४९, ४२२-४३२, ४३७-४५०, चू १ पृ २२८-२३५. हा ७५, ११५-११८. म २३३, २३४,२४४, २४७-२५२ पूर्वभव ० सम्यक्त्व की प्राप्ति ० मरीचि विश्वभूति त्रिपृष्ठ वासुदेव प्रियमित्र चक्रवर्ती नंदन जन्म ० आमलकी क्रीडा लेखाचार्य के पास शिक्षा ० ब्राह्मण को देवदूष्य का दान साधना काल बैल की घटना आश्रम और पांच अभिग्रह शूलपाणि यक्ष द्वारा उपसर्ग महावीर के दस स्वप्न उत्पल द्वारा फलादेश तांत्रिक अच्छंदक • सामुद्रिक पुष्य की घोषणा गोशालक का मिलन आवचू १ पृ २४६-२४८. हा १२१,१२२. म २५८,२५९ आवचू १ पृ २६८. हा १२५. म २६६ आवनि ४६१-४६४. चू १ पृ २६९-२७७. हा १२५-१३०. म २६७-२७२ आवनि ४७२. चू १ पृ २८१-२८३. म २७५,२७६ Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ विषय • ग्वाला और खीर नन्द और उपनन्द • पार्श्वपत्यीय स्थविर मुनिचन्द्र • महावीर के पैरों का झुलसना • चण्डकौशिक का पूर्वभव और तत्कृत उपसर्ग • नौका विहार गोशालक की कुचेष्टा, सिंह और विद्युत्मती, स्कन्द और दंतिल्लिका • पार्श्वस्थ दरिद्र स्थविर, गोशालक का frष्कासन, नंगला ग्राम तथा आवर्त ग्राम मैं गोशालक द्वारा धावकों को डराना, लोगों द्वारा उपसर्ग • कालहस्ती द्वारा उपसर्ग मेघ द्वारा वंदना गोशालक को चोर समझकर पीटना • नंदीषेण स्थविर (पाश्र्वपित्थीय) ० विजया प्रगल्भा ० वासुदेव गृह में प्रतिमा वाणमंतरी सालज्जा द्वारा अभ्यर्थना जितशत्रु राजा द्वारा महावीर को बंदी तथा उत्पल द्वारा मुक्त करवाना • वग्गुर श्रेष्ठी को इंद्र द्वारा भगवान् का परिचय ० वाणमंतरी कटपूतना • लाढ क्षेत्र में बिहार ● तिल का पौधा बाल तपस्वी वैश्यायन गण्डकी नदी में नौका विहार • संगम कृत उपसर्ग महावीर के अभिग्रह और चन्दनवाला वृत्त वाइल वणिक् द्वारा तलवार का वार स्वातिदत्त के प्रश्न ७४२ संदर्भ आवनि ४७४, ४७५. चू १ पृ २८३,२८४. हा १३४. म २७६, २७७ आवनि ४७७. १ पृ २८५२६७. हा १३५.१३६. म २७८,२७९ आवनि ४७९. चू १२८८. हा १३७ आवनि ४६७. च् १ पृ २७७-२७९. हा १३०,१३१. म २७३ आवनि ४६९-४७६. १ पृ २६०-२८५. हा १३२-१३५. म २७४, २७७ आवनि ४७८४८०. पू १ पृ २८७-२०९. हा. १३६. म २७९ आवनि ४८१. चू १२०९. हा १३७,१३८. म २८१ आवनि ४८४. चू १ पृ २९१. हा १३८. म २८२ आवनि ४८४, ४८६. चू १ पृ २९१-२९३. हा १३८, १३९. म २८३ आवनि ४८८ ४९९. चू १ पृ २९३,२९४. हा १४०. म २८३.२८४ कथा - संकेत आवनि ४९०. चू १२९४,२९५. हा १४०, १४१. म २०४, २०५ आवनि ४९१. चू १ पृ २९३. हा १४१. म २८५ आवनि ४९२ ४९४, १ पृ २९७-२९९. हा १४१-१४३. म २८५ २८७ आवनि ४९८-५१३. चू १ पृ ३०१-३०४. हा १४४-१४७. म २०९-२९२ आवनि ५२०-५२३. चू १ पृ ३१६-३२१. हा १४८-१५१ म २९४-२९७ Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथा-संकेत ७४३ परिशिष्ट १ विषय संदर्भ चक्रवर्ती भरत ० चक्रोत्पत्ति, मरुदेवा सिद्धा, दिग्विजय, नी निधियां, अयोध्या प्रवेश, राज्याभिषेक, बाहुबली के साथ युद्ध, बाहुबलि को कैवल्य प्राप्ति ० भरत को केवलज्ञान आवनि ३४३-३४९. च १ पृ १८१-२१०. हा ९९-१०३. म २२९-२३६ ० सगर ० मघव • सनत्कुमार • शांतिनाथ ० कुंथ ० अर ० महापद्म ० हरिषेण • जय ० ब्रह्मदत्त आवनि ४३६. चू १ पृ २२६,२२७. हा ११३. म २४६ । सु २३३ सु २३४-२३६ सु २३६,२३७ उनि ८४. शा ७८. सु २३७-२४२ सु २४२-२४५ सु २४५ सु २४६ सु २४६-२५० सु २५० सु २५० उ १३।१-३५. नि १६०, ३३६-३५४. च २१३,२१४. शा ३७६,३७७. सु १८७-१९७ । आवचू १ पृ ३६६ आवनि ९१८. चू १ पृ ५२१. हा २६२. म ५०१,५०२ ० सुभूम प्रत्येकबुद्ध नमि करकंडु उ ९।१-६२. नि २६४-२६६,२६९.२७०,२७४. चू १५८,१७९. शा ३०३,३०४. सु १३६-१४१.१४५ । आव २ पृ २०७,२०८. हा १५३,१५४ उनि २६४,२७१. चू १७८. शा ३००-३०३. सु १३३-१३५,१४५ । आवचू २ पृ. २०४-२०७. हा १५१-१५३ उनि २६४,२७२. चू १७८. शा ३०३. सु १३५,१३६,१४५ । आव २ पृ २०७. हा १५३, द्विमुख नग्गति उनि २६४,२७५. च १७८. शा ३०४. सु १४१-१४५ । आवच २ पृ २०८. हा १५३,१५४ Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ ७४४ कथा-संकेत संदर्भ विषय निव १ जमालि, २ तिष्यगुप्त, ३ अश्वमित्र, ४ आषाढ, ५ गंग, ६ रोहगुप्त, ७ गोष्ठामाहिल, ८ शिवभूति आवनि ७७८-७८४. चू १ पृ ४१६-४२८. हा २०७-२१६. म ४०१-४२६ । उनि १६४-१७८. शा १५२-१८१. सु ६९-३६ । विभा २२९६-२६०९. म ३३-१२१ नगर आदि की उत्पत्ति कन्यकुब्ज चणकपुर दशपुर पाटलिपुत्र प्रयाग माहेश्वर राजगृह सेचनकहस्ती आवचू १ ५१८. हा २६१. म ५०० आवचू २ पृ १५८. हा १२० आवचू १ पृ ३९७-४०१. हा १९८-२०१. म ३९१-३९४ आव २ पृ १७७-१७९. हा १३३ आवहा २ पृ १३२,१३३ आवचू २ पृ१७५,१७६ आवचू २ पृ१५८. हा १२१ आव २ पृ १७०-१७४. हा १२७-१२९ उचू ३३,३४. शा ५३. सु ७ तृतीय विभाग कथा-संकेत अगडदत्त अट्टणमल्ल अनाथी मुनि अभयकुमार संदर्भ उचू ११६. शा २१३-२१६. सु८४-९३ आवनि १२७६. चू २ पृ १५२,१५३. हा ११७ । उचू १०९. शा १९२,१९३. सु ७९,८० उ २०१८-३५. चू २५९,२६०. शा ४७२-४७६ विभा ८६४. म ३५० । अनुहा १० । अचू २२,२३,४३. जि ४४,४५,८३. हा ४१ ४२,९३ । आवच २ पृ १५८-१६९. हा १२१-१२७ । आवचू १ पृ ५४६,५४७, ५५७. हा २७८,२७९,२८५,२८६ । नन्दीम १५०,१६६ उनि ११०. चू ७०. शा ११२-११४. सु ३५ उनि ९२. चू ५८. शा ९०,९१. सु २१ वि ८६२. म ३४८,३४९ । अनुहा १०,११ आवचु १ पृ ४५२-४५४. म ४५६,४५७ आवनि ७७४-७७७. चू १ ४०१-४१५. हा २०१-२०७. म ३९४-४०० सु २३-२५ उनि १२३-१४१. चू ८७-९०. शा १३३-१३९. सु ५२-५५ पिनि ४७४-४८० अर्जुनमालाकार अर्हन्नक अशोक-कुणाल-सम्प्रति आनन्द श्रावक आर्यरक्षित आषाढभूति आचार्य आषाढभूति मुनि Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथा-संकेत ७४५ परिशिष्ट १ कथा-संकेत इलापुत्र इषुकार और कमलावती उदयन और वासवदत्ता उदापन राजषि कनकमंजरी कपिल मुनि कामदेव गृहपति कातिक सेठ कालक आचार्य कालसौकरिक कुरुदत्त मुनि कुलपुत्र कणिक करभाजन (नागवत्त/कूरगडूक) कूलबालक श्रमण कृष्ण वासुदेव कोकाश वधंकि खपुट आचार्य गजसुकुमाल मुनि गर्गाचार्य गोतम गणधर (इन्द्रभूति) संदर्भ आवचू १ पृ ४८४,४८५. हा २४०. म ५६९ उ १४।१-५३. नि ३३३-३३५,३६२-३७३. चू २२०-२३२. शा ३९३-४१२. सु २०४-२१३ आव २ पृ १६१,१६२. हा १२२.१२३ आवनि ११८५. चू २ पृ ३६,३७. हा ३२ । सु २५२-२५५ सु १४१-१४५ उनि २५३-२५९. चू १६८-१७०. शा २८६-२८८. सु १२४,१२५ आवच १४५४,४५५. म ४५७ आव २ पृ २७६,२७७. हा २१४ उनि १२०. चू ८३,८४. शा १२७,१२८. सु ५० आवहा २ पृ १२७,१२८ उनि १०७. चू ६८. शा ११७. सु ४५ उचू ३२. शा ५०,५१. सु ५ अचू २६. जि ५१. हा ५०,५१ । आवचू २ पृ १६६-१७७. हा १२५-१३२ अचू २१.२२. हा ३७-३९ म २ उनि ११४. चू ७५. शा ११८. सु ३७-४५ आवनि ९३०. चू १ पृ ५४०,५४१. हा २७३,२७४. म ५१ आवनि ९३२. च १ पृ ५४१-५४३. हा २७४,२७५. म ५१४ आवचू १ पृ ५३६. हा २७०. म ५०९ उ २७।१-१७. शा ५५०-५५४. सु ३१६-३१८ आवचू १ पृ ३८१-३९०. हा १९१-१९३. म ३८३-३८७ । उनि २०४-३०६. चू १८६,१८७. शा ३२३-३३३. सु १५३-१५९ विभा १०८२. म ४२३,४२४ । आवचू १ पृ८८-९१. हा ४२-४५ उच ३१. शा ४९,५०. सु ४५।। आवनि ५२०,५२१. च १ पृ८८-९१,३१६-३२०. हा ४२-४५,१४८-१५०, ३२३,३२४ अचू ४२,४३ । आवचू २ पृ २८१. हा २१८ । सु ५७-५९ पिनि ५००. भा ४४-४६ । अचू २६,४२,४३. जि ५२,८१,८२. हा ५२,९१, ९२ । आवच २ पृ२८१. हा २१८ । शा १४६. सु ५७-५९ आवचू १ पृ ४९७. हा २४७,२४८. म ४७९ आवचू २ पृ १६४-१७३. हा १२४-१२६ आव २ पृ १६४-१७२. हा १२४-१२९ आवनि १३१४. चू २ पृ २०९. हा १५४ आवच १ पृ ५१८-५२०. हा २६१,२६२. म ५००,५०१ उनि ११४. च ७६. शा. ११९. सु ४५,४६ चण्डप्रद्योत चण्डरुद्र आचार्य चन्दनबाला चन्द्रगुप्त चाणक्य चिलातिपुत्र चेटक चेलना जरासंध राजा जामदग्न्य और परशुराम ढंढण मुनि Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ ७४६ कथा-संकेत कथा-संकेत तुंडिक वणिक तेतलीपुत्र दशार्णभद्र बढ़प्रहारी चोर द्वैपायन धनगुप्त आचार्य धर्मरुचि नन्द नन्दन राजा नन्दीषण नमि राजर्षि नमि-विनमि नूपुरपंडिता पांडुषेण राजा पावलिप्तसूरि पुण्डरीक और कण्डरीक पुष्पभूति आचार्य प्रसन्नचन्द्र राजषि बलदेव भद्रबाहु मंग आचार्य मंडिक चोर मदनरेखा मम्मण सेठ मरदेवा महागिरि और सुहस्ती आचार्य महाबल राजर्षि मूलदेव मृगापुत्र मृगावती संदर्भ आवनि ९३६. चू १ पृ ५४३. हा २७६. म ५१६ आवच १ पृ ४९९-५०१. हा २४९. म ४८१ आव १ पृ ४७५-४८४. हा २३९,२४०. म ४६८ । सु २५०,२५१ आवनि ९५२. चू १ पृ ५६८. हा २९२. म ५३४ अचू २१. हा ३६,३७ । सु ३७-३९ आवनि १३२०. चू २ पृ २१२. हा १५६ आवनि १३१८. च २ पृ २११. हा १५५,१५६ । च १ पृ ४९८. हा २४८. म ४८० । ओभा २३२-२३८ अच ४२. जि. ८१,८२. हा ९१,९२ । आवनि १२८४. च २ पृ १७९-१८८. हा १२०-१३९ । सु २८-३१,५७-५९ सु २५५,२५६ आवचू २ पृ ९४. हा ८४,८५ सु १३६-१४१ आवनि ३१७. चू १ पृ १६० पिनि १८१ । अचू ४७. जि ८९-९१. हा ९७-९९ आवनि १३०१. चू २ पृ १९७. हा १४६ पिनि ४९८ शा. ३२६-३३३. सु १५६-१५९ आवनि १३१७. चू २ पृ २१०. हा १५५ आवनि १०५१. चू १ पृ ४५५-४६०. हा ३२५. म ४५७-४६० उनि ११४. चू ७५. शा ११७. सु ३७-४५ आवनि १२८४. चू २ पृ १८७,१८८. हा १३८,१३९ आवचू २ पृ८०. हा ६० उचू ११८-१२१. शा २१८-२२२. सु ९५ सु १३६-१४१ आवनि ९३५. चू १ पृ ३७१,३७२. हा २७५,२७६ आवनि १३२०. चू २ पृ २१२. हा १५६ । विभा ३१६७ आवनि १२८३. चू २ पृ १५५-१५७. हा ११९,१२० सु २५६-२५९ उनि १६०. सु ५९-६५, ९५ । अचू ५५. जि. १०५ उ १९. नि ४०७-४१९ आवनि ५२०.५२१,१०४८. चू १ पृ८८-९१, ३१६-३२०. हा ४२-४५, । १४०-१५०, ३२३,३२४ । विभा १०८२. म ४२३,४२४ अचू २५. जि ५०. हा ४९,५० आवचू १ पृ ४९३. हा २४४,२४५. म ४७६-४७८ आवचू १ पृ१८३,१८४. हा १३६,१३७ । सु २८ मेतार्य मुनि यक्षा Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथा-संकेत कथा-संकेत रथनेमि राजीमती रोहक वज्र आचार्य वररुचि वल्कलचीरि विजय राजा विमलवाहन कुलकर शकडाल शतानीक शय्यंभव और मनक श्रीयक श्रेणिक संजय नृप समित आचार्य समुद्रपाल सम्भूतिविजय सिंहगुफावासी मुनि सुकुमालिका सुभद्रा सुलसा सुव्रत मुनि सोदास सोमिल विप्र स्कन्दक मुनि स्थूलभद्र हरिकेशी मुनि ७४७ संदर्भ द २७-११, अच् ४६-४८. जि८७८८. हा ९६,९७ उ २२।३२-४९. नि ४४३-४४७. सु २५० - २८२ २७-११. अच् ४६-४०. जि ८७ ८८. हा ९६,९७ उ २२।६-४६. नि ४४६, ४४७. सु२७७-२८२ आवनि ९४१. १ पृ ५४५, ५४६. हा २७७,२७८. म ५२७,५२८ । नन्दीम १४५-१४९ आवनि ७६३-७७३. चू १ पृ ३९०-३९६. हा १९३-१९७. म ३८७-३९१ । सु २३-२५ ओनि ४५६. भा २३९ आवनि १२८४. चू २ पृ १८३-१८५. हा १३६, १३७ । सु २८-३१ आवचू १ पृ ४५५-४६० म ४५७-४६० २५६ आवनि १५३, १५४. चू १ पृ १२, १२९. हा ७४. म १५३ आवनि १२८४ चू२ पृ १०३-१८८. हा १३६,१३७ सु २८-३१ । आवनि ५२०,५२१. १९१३१६-३२०. हा ४२-४५ १४८-१५० अच् ४,५. जि ६.७. हा १० १२. आवनि १२८४. चू २ पृ १७९-१८८. हा १२०-१३९ आवचू २ पृ १५८-१७२. हा १२१-१२७ अच ५०, जि ९६. हा १०२.१०३ परिशिष्ट १ उ १५।१-१९. सु २२५-२३२ आवनि ९३४. १ पृ ५४३ हा २७५. म ५१५ पिनि ५०३-५०५ उ २१।१-२४ आवबू २१ १०५-१५७. हा १३७,१३८ । उसु ३०,३१ उनि १००-१०५. चू ६६. शा १०४ १०७. सु २८-३१ आवचू १ पृ ५२९-५३५. हा २५५-२६८. म ५०४-५०७ आवनि १५५० चू २ २६६-२७१ हा २०६, २०७ हा ४६-४८ अब २४, २५. जि ४८-५० अचू ५०. जि ९६. हा १०२ पिनि ४८२,४८३ आवचू २ पु १६४. हा १२४ आवचू १ पृ ५३४. हा २६०. म ५०६, ५०७ १३५५-३६५ आव उनि १११-११३. चू ७२-७४. शा ११४-११६. सु ३६ आवनि १२८४. चू २ १७९१५८ हा १२०-१३९ उनि १२२. ८६. शा १३०,१३१. सु २५-३१, ५२ उ १२।१-४७, नि३२२-३२७. च् २०१-२०३. शा ३५५-३५७. सु १७३-१७५. Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अच प्रथम परिशिष्ट में प्रयुक्त संदर्भ-ग्रन्थों के संक्षिप्त रूपों का विवरण१. आवश्यक आवनि आवश्यक नियुक्ति गाथा आवश्यक चणि प्रथम भाग आवश्यक चणि द्वितीय भाग आवश्यक नियुक्ति हारिभद्रीया वृत्ति पत्र आवश्यक मलयगिरीया वृत्ति पत्र विभा विशेषावश्यक भाष्य गाथा विशेषावश्यक भाष्य मलधारीया वृत्ति पृष्ठ २. दशवैकालिक दशवकालिक दशवकालिक नियुक्ति गाथा दशवकालिक अगस्त्यचूणि पृष्ठ दशवकालिक जिनदासणि पृष्ट दशवकालिक हारिभद्रीया वृत्ति पत्र ३. उत्तराध्ययन उत्तराध्ययन उत्तराध्ययन चणि पृष्ठ उत्तराध्ययन बृहदवृत्ति पत्र उत्तराध्ययन सुखबोधा वृत्ति पत्र ४. नन्दी नन्दी नन्दी सूत्र नन्दी चणि पृष्ठ नन्दो हारिभद्रीया वृत्ति पृष्ठ नन्दी मलयगिरीया वृत्ति पत्र ५. अनुयोगद्वार अनु अनुयोगद्वार सूत्र अनुयोगद्वारणि पृष्ठ अनुयोगद्वार हारिभद्रीया वृत्ति पृष्ठ अनुयोगद्वार मलधारीया वृत्ति पत्र ६. ओनियुक्ति ओनि ओघनियुक्ति गाथा ओघनियुक्ति द्रोणोया वृत्ति पत्र ७. पिंडनियुक्ति पिनि पिण्डनियुक्ति गाथा पिण्डनियुक्ति मलयगिरीया वृत्ति पत्र 444 चू हा Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ प्रस्तुत परिशिष्ट में पांच आगमों-आवश्यक, दशवकालिक, उत्तराध्ययन, नन्दी और अनुयोगद्वार के व्याख्या ग्रंथों (निर्यक्ति, चणि आदि) में विश्लेषित दार्शनिक और तात्त्विक चर्चास्थलों का ससंदर्भ संकेत है। कहींकहीं आचार संबंधी विमर्श भी संगृहीत है। विषयों का संकेत एक-एक ग्रंथ के अनुसार दिया गया है, इसलिए कुछेक विषयों की पुनरावृत्ति भी हुई है। आवश्यक विषय संदर्भ अक्षरधुत अनुयोग अबद्धिकवाद अवधिज्ञान अव्यक्तवाद आत्मा और शरीर की भिन्नता आत्मा का अस्तित्व आदिम युग की सभ्यता-संस्कृति आनुपूर्वी इंद्रिय और मन : प्राप्यकारी-अप्राप्यकारी इंद्रियज्ञान : संव्यवहार प्रत्यक्ष उपशमणि-क्षपकश्रेणि चू १ पृ २५-२९. हा १६. म ४६ नि १३१-१३६. चू १ पृ८० ८५, १०८-१२०. हा ३४-३९, ५८-६७. म ९०-९६, १३०-१३८ चु १ पृ४१३,४१४. हा २१४,२१५. म ४१५-४१८ नि २५-६७. चू १ पृ ३७-६८. हा १८-३१. म ५०-७७ चू १ पृ ४२१. हा २१०,२११. म ४०६-४०८ हा १६४. म ३२४ हा १६१,१६२. म ३१४-३२० नि १९७-२०७. च १पृ५४-५७. हा ८५-८९. म १९३-२०१ म ९३-९५ नि ५. चू १ पृ १३,१४. हा ८,९. म २४-२९ चू १ पृ ७. म १३-१६ नि ११६-१२७. चू १ पृ१०४-१०७. हा ५४-५७. म १२३-१२८ चू १ पृ ५९५-६०१. हा ३०४-३११ म ५५७-५६८ नि १०५-१०७. चू १ पृ ९८-१०१. हा ४९-५१ म ११३-११६ नि १४१८-१५५४. चू २ पृ २४७-२७१ नि ७३७-७४८. च १पृ ३७२,३७३. हा १८५-१८७. म ३६४,३६५ हा १६३. म ३२०-३२३ नि ७७,७८. च १ पृ ७२-७७. हा ३३. म ८२-८६ चू २ पृ८७-९२. हा ८१-८३ करण करण : यथाप्रवृत्ति आदि कायोत्सर्ग नियुक्ति कारण : निमित्त आदि कर्म का अस्तित्व केवलज्ञान क्रिया : कायिकी आदि Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ ७५० दार्शनिक और तात्त्विक चर्चास्थल विषय संदर्भ क्रियास्थान जीवप्रादेशिकवाद ज्ञान के भेदों का हेतु ज्ञान-क्रियावाद ज्ञान प्राप्ति का क्रम ज्ञान : मति आदि तीर्थ राशिकवाद दिशा निरूपण देवों का अस्तित्व द्रव्य-गुण-पर्याय द्विक्रियावाद ध्यान और लेश्या नमस्कारनियुक्ति नय चू २ पृ १२७-१३२. हा १०६ चू १ पृ ४२०. हा २०९,२१०. म ४०५,४०६ म १७-१९ नि ११३९-११५३. चू २ पृ २८-३१. चू १ पृ ७२,७३ नि १-७८. चू १ पृ ७-७७. हा ५-३३. म १२-८६ म ९७,९८ चू १ पृ ४२४-४२६. हा २१२-२१४. म ४११-४१५ नि ८०९,८१०. हा २२१. म ४३७-४४० हा १६७. म ३३०,३३१ नि ७९२-७९५. च १पृ ४३४,४३५. हा २१९. म ४३२,४३३ चू १ पृ ४२३. हा २१२ चू २ पृ ८१-८७. नि ८८७-१०१३. चू १ प ५०२-५९१. हा २५१-३०३. म ४८५-५५५ नि ७५४-७६३. चू १ पृ ३७७-३८१. हा १८८-१९० म १०-१२, ३६९-३८३ चू १ पृ४-६. हा ३-५. म. ५-१० हा १६९,१७०. म ३३५-३३७ हा १६७,१६८. म ३३१,३३२ हा १६४,१६५. म ३२५-३२७ हा १६९. म ३३४ म ११९-१२२ चू १ पृ २९,३०. म ६१ चू २ पृ ९६-११२. हा ८६-१०३ हा १६८,१६९. म ३३२,३३३ हा १६६,१६७. म ३२८,३२९ चू १ पृ ४१६-४१८. हा २०८,२०९. म ४०२-४०५ चू १ पृ ४२७,४२८. हा २१५-२१७. म ४१८-४२६ नि ६-११. चू १ पृ १४-१६. हा ९-१२. म ३१-३८ चू १ पृ ३-६. हा २-५. म २-१० नि २-१६. चू १ ७-२४. हा ६-१५. म २२-४४ चू १ पृ.७,८. हा ५,६. म २०-२२ निक्षेप निर्वाण का अस्तित्व नैरयिकों का अस्तित्व पंच भूतों का अस्तित्व परलोक का अस्तित्व परिहारविशुद्धि चारित्र पर्याय : अगुरुलघु पर्याय पारिष्ठापनिकी नयुक्ति पुण्य-पाप का अस्तित्व बंध-मोक्ष का अस्तित्व बहुरतवाद बोटिक मत : दिगम्बर-उत्पत्ति भाषा द्रव्य मंगल मतिज्ञान मतिज्ञान और श्रतज्ञान में भेद-अभेद Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दार्शनिक और तात्त्विक चर्चास्थल परिशिष्ट २ विषय संदर्भ मन:पर्यवज्ञान नि ७६. चू १ पृ ७१,७२. हा ३३. म ८१,८२ मृत्यु के उपक्रम नि ७२४-७२६.चू १ पृ ३५५-३६६. हा १८१-१८३. म ३५५-३६० मोक्षमार्ग : ज्ञान-दर्शन-चारित्र नि ९३-१०३. चू १ पृ ९४-९७. हा ४६-४८. म १०६-११० । नि ११५३-११७३. चू २ पृ २८-३८ यादश- ताश हा १६५,१६६. म ३२७,३२८ लक्षण के बारह भेद नि ७५१-७५३. चू १ पृ ३७४-३७७. हा १८७,१८८. म ३६५-३६९ लब्धि : आमशीषधि आदि नि ६९-७५. चू १ पृ ६८-७१. हा ३१,३२. म ७८-८१ लोक चू २ पृ ३-९. शब्द आकाश का गुण नहीं म २८,२९ श्रुतज्ञान नि १७-२४. चू १ पृ २४-३६. हा १५-१८. म ४५-५० सामायिक : श्रुत आदि सामायिक नि ७८९-८७९. चू १ पृ ४३१-५०१. हा २१७-२५०. म ४२७-४८२ सामुच्छेदिकवाद चू १५ ४२२,४२३. हा २११. म ४०८-४१० सन्दर्भ विवरणनि-आवश्यकनियुक्ति गाथा । चू १-चूणि, पूर्वभाग। चू २--चूणि, उत्तरभाग । हा-हारिभद्रीयावृत्ति पृष्ठ । म-मलयगिरीयावृत्ति पत्र । • विशेषावश्यक भाष्य अक्षरभूत वि ४५५-५०० म २१५-२३३ अनुयोग : व्याख्या लक्षण वि ९०७-९७४, १००२-१०१३ मयिकबाद वि २५०९-२५४९. म ९०-१०४ अर्हत् नमस्कार वि ३००९-३०२५ म २३३-२३५ अवाह आदि संशय नहीं वि ३१२-३३१ म १५६-१६७ अवधिज्ञान वि ५६७-७७८ म २५९-३२१ अव्यक्तवाद वि २३५६-२३८८. म ५०-५५ मानुपूर्वी वि ९४२.९४३. म ३७७-३७९ इनिय और मन् : प्राप्यकारी-अप्राप्यकारी वि २०४-२५२ म १०२-१२० उपशमणि-क्षपकमेणि वि १२८३-१३३३. म ४८२-४९५ वि ३३०२-३३६२. म २९९-३१७ करण: वयाप्रवृत्ति आदि वि १२०२-१२२१. म ४५८-४६४ कर्म और उपक्रम वि २०४६-२०६१. म ७२२-७२९ Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ विषय कार्य-कारण काल कृत अकृत की चर्चा केवलज्ञान केवलज्ञान : आत्मप्रत्यय चारित्र जिनकल्प जीवप्रादेशिकवाद ज्ञान तीर्थं राशिकबाद दिशा निरूपण द्विक्रियावाद नमस्कार नियुक्ति नय नय : द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक निक्षेप नित्यानित्यत्व की सिद्धि न्याय हेतु उदाहरण पुद्गल परिणमन की विचित्रता प्रमाण संव्यवहार प्रत्यक्ष बहरतवाद बोटिकमत भाव ( औदयिक आदि) का काल भाषा द्रव्य मंगल मतिज्ञान: अयुतनिथित मति मतिज्ञान और श्रुतज्ञान में वेद मन:पर्ययज्ञान के उपक्रम मृत्यु ? मोक्षमार्ग ज्ञान-दर्शन- चारित्र रात्रिभोजनविरमण मूलगुण या उत्तरगुण लक्षण की परिभाषा और उसके बारह मेव लब्धि ७५२ दार्शनिक और तात्त्विक चर्चास्थल संदर्भ वि २०९९-२११८. म ७४०-७४६ वि २०२०-२०३९, २०६८-२०७२. म ७१५-७१९, ७३०-७३२ वि ३३६३-३३०१. म ३१७-३२१ वि ८२३-८३६. म ३३७-३३९ वि २१३२-२१४५. म ७५०-७५४ वि १२३४-१२-२. म ४६७-४८१ वि७.८-१४ वि २३३३-२३५५. म ४४-४९ वि ७९-९२. म ४५-५१ वि १०२६-१०५१. म ४०८-४१५ वि २४५१-२५०८ म७३-९० वि २६९७-२७०७. म १४७-१५१ वि २४२४- २४५०. म ६५-७३ वि २००१-२९५६. म १७९-२२१ वि २१-१-२२७८. म १ -२८ वि २६४१-२६७२. म १३१-१४० वि २४-७८. म २०-४४ वि ५४३,५४४. म २४६-२५० वि १०७६-१०७८. म ४२१,४२२ वि १९०६-१९९०. म ७०१ वि ९३-९५ म ५१-५३ वि २३०६-२३३२ म ३५-४३ वि २५५०-२६०९. म १०५-१२१ वि २०७५-२००१ म ७३३,७३४ वि ३५१-३९५ म १७५-१९२ वि १०-५९ म १५-३५ वि ३०४-३११. म १५२ - १५६ वि ९६ - १००, १०५-१७५ म ५४ ५७, ६०-८९ वि८०९८२२३३१-३३६ वि २०४१ २०६१. म ७२० ७२९ वि ११२६-११७८. म ४३६-४५१ वि १२४०-१२४५. म ४७०, ४७१ वि २१४६-२१७९. म ७५४-७६४ वि ७७९-८०४. म ३२२-२२८ Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दार्शनिक एवं तात्त्विक चर्चास्थल ७५३ परिशिष्ट २ विषय संदर्भ वर्गणा वि ६३१-६६७ म २७८-२८९ वस्तु का स्वरूप : भाव-अभाव वि २१६५-२१७१. म ७६०-७६२ श्रुतज्ञान वि ४४४-५६६. म २१२-२५८ श्रुतज्ञान : एकेन्द्रिय में श्रुतज्ञान वि १०१-१०४. म ५७-५९ श्रुतज्ञान का प्रत्ययत्व वि २१३८-२१४५. ७५२-७५४ श्रुतज्ञान : द्रव्यश्रुत-मावश्रुत वि ८७७-८९४ सम्यक्त्व वि ५२८-५३६. म २४०-२४५ सामायिक : विस्तृत विमेचन वि २६७३-२८०१, ३२९५-३५८३ सामायिक (सम्यक्त्व आदि) की प्राप्ति कब ? वि ११८६-१२०१. म ४५३-४५८ सामुच्छेदिकवाद वि २३८९-२४२३. म ५६-६५ सिद्ध वि ३०२७-३१८९. म २३६-२७४ स्थविरकल्प-जिनकल्प वि ७. म ८-१४ सन्दर्भ विवरणवि—विशेषावश्यकभाष्य गाथा। म-मलयधारीया वृत्ति पृष्ठ । दशवकालिक आचार:ज्ञान आदि अ ५०-५३. जि ९४-१०२. हा १०१-१०६ कथा : आक्षेपणी आदि अ ५४-५९. जि १०२-१११. हा १०६-११५ जीव का लक्षण और अस्तित्वसिद्धि अ६६-७१. जि १२०-१२८. हा १२१-१२७ तप के भेद अ १२-१९. जि २१-३७. हा २६-३२ न्याय के अवयव : हेतु आदि अ २०-३१. जि ३८-६९. हा ३३-६८ सन्दर्भ विवरणअ-दशवकालिक अगस्त्यचूणि पृष्ठ। जि—जिनदास चूणि पृष्ठ । हा-हारिभद्रीया वृत्ति पत्र । उत्तराध्ययन अचेलता-सचेलता आनुपूर्वी शा ९२-९८ चू ९,१०. शा १३ नि १८२-२०४. चू १०३-१०८. शा १९४-२०५ शा ३९,४० चू २२६ नि २३७-२३९. चू २५१-२५९. शा २५५-२६० गणि-सम्पदा जीव का अस्तित्व निर्ग्रन्थ निह्नववाद बहुरतवाद जीवप्रादेशिकवाद शा १५३-१५७ शा १५८-१६० Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ दार्शनिक और तात्त्विक चर्चास्थल विषय संदर्भ अव्यक्तवाद शा १६०-१६२ सामुच्छेदिकवाद शा १६३-१६५ द्विक्रियावाद शा १६५-१६७ त्रैराशिकवाद शा १६८-१७२ अबद्धिकवाद शा १७३-१७८ बोटिक मत शा १७८-१८१ परमाणु पुदगल की संरचना चू १६-२१. शा २४-२९ विनय के भेद शा १६,१७ सन्दर्भ विवरण --- नि-उत्तराध्ययन नियुक्ति गाथा। च-चूणि पृष्ठ । शा-शान्त्याचार्य की बृहवृत्ति पत्र । सु-सुखबोधावृत्ति पत्र । नन्दी अक्षर के स्वपर्याय-परपर्याय चू ५४,५५. हा ६८,६९. म १९८-२०२ अक्षर पटल च ५२-५५ अक्षरश्रुत म १८७-१८९ अनुयोग विधातरगण्डिका आदित्ययश राजा आदि चू ७७-७९. हा ९०-९२. म २४२-२४६ का मुक्तिगमन अन्तीय म १०२-१०४ अपौरुषेयवचननिरसन म १६-२४ आत्मा की अस्तित्वसिद्धि और चार्वाक मतनिरसन म ३-७ इन्द्रिय और मन : प्राग्यकारी-अप्राप्यकारी म १६९-१७३ कालचक्र : छह अर म १९६, १९७ केवलज्ञान : क्रमोपयोग-युगपद उपयोग आदि हा ३७-४४. म ११२-१३९ क्रियावादी आदि ३६३ मतों की चर्चा हा ७७-७९. म २१३-२२८ क्षयोपशम विधि : देशसर्वघाती रसस्पर्धक म ७७-८० क्षुल्लक प्रतर म ११० जंघाचारण ऋद्धि म १०६, १०७ ज्ञान के पांच भेदों का हेतु म ६५-७१ ज्ञान : प्रत्यक्ष परोक्ष प्रमाण और वैशेषिक आदि मत। म ७१-७६ पर्याय : गुरुलघु-अगुरुलघु चू ५२-५४. प्रमाण : संव्यवहार प्रत्यक्ष म ७४-७६ बौद्ध मत : नैरात्म्यनिराकरण म ३४-३९ भाषा : एक समय में लोकांत तक गति म १८६ मतिज्ञान और श्रुतज्ञान में भेद म १४०-१४२ Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दार्शनिक और तात्त्विक चर्चास्थल विषय मतिज्ञान : व्यंजनावग्रह आदि मोक्ष : राग-द्वेष का आत्यंतिक क्षय शाब्दप्रामाण्य सर्वज्ञसिद्धि सांख्यमुक्ति निराकरण सिद्ध अनादि सिद्ध का निरसन : स्त्रीमुक्ति हिंसा से पुण्य बंध नहीं अंगुल : आत्मांगुल आदि अनुयोग विधि अवगाहना आनुपूर्वी काल समय शीर्षप्रहेलिका चारित्र ज्ञान द्रव्य-गुण- पर्याय नय निक्षेप पत्योषम- सागरोपम प्रमाण : प्रत्यक्ष आदि भाव : औदयिक आदि लोक लोकघनीकरण लोकश्रेणि शरीर स्वरूप और संख्यामान श्रुतज्ञानयत-भावत संख्या संख्येय असंख्येय- अनंत : ७५५ संदर्भ म १६८-१८३ म ३१-३४ म -१२ सन्दर्भ विवरण 1 चू-नन्दी चूर्णि पृ हाहारिमडीया वृत्ति पृष्ठ म- मलयगिरीया वृत्ति पत्र । म २५-३० म ४०, ४१ म १९२ म १३१-१३३ म १३-१५ अनुयोगद्वार चू ५२-५६. हा ७७-८२. म १४३-१५९ १-५. हा १-५. म ३-५ म १५०-१५९ चू २०-३७. हा २०-५७. म ४६-९५ च ३७-४०. हा ५४ ५७. म ९०,९१,१६१-१६५ ७६. हा १०१-१०५. म २०३-२०५ म १-३ म १००-१०२ चू ७६,७७. हा १०५-१००. म २०५-२१२. पू८९-९१. हा १२३-१२७. म २४४-२५० म ९-२० चू ५७, ५८. हा ८४-८६. म १६५-१७८ ७४-७६. हा ९९-१०३. म १९४-२०२ म १०४-११७ च् ३४-३६. हा ४९-५०. म८०-८४ चू ५१,५२ हा ७६,७७. म १५९-१६१ च् ६०-७३. हा ८७-९९. म १६०-१९३ म २९-३४ चू ७८-८५. हा १०९-११६. म२१७-२२४ सन्दर्भ विवरण - चू- अनुयोगद्वार चूर्णि पृष्ठ हा-हारिभद्रया वृत्ति पृष्ठ । म- मलधारीया वृत्ति पत्र । परिशिष्ट २ Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ ७५६ दार्शनिक और तात्त्विक चर्चास्थल विषय ओघनियुक्ति संदर्भ आयतन-अनायतन नि ७६३-७८४. व २२२-२२४ आलोचना विधि नि ५१३-५२०. वृ १७५-१७८ उपधि (वस्त्र, पात्र आदि) नि ६६५-६८४. वृ २०७-२१० कालप्रतिलेखना विधि नि ६३८-६६३. वृ २००-२०७ पात्र आदि के लक्षण-अलक्षण और प्रमाण नि ६८५-७४६. व २११-२१९ पात्रलेपन की उपयोगिता नि ३७१-४०६. वृ १२९-१३५ पारिष्ठापनिका विधि नि ५९४-६२२. भा ३०३-३०८. वृ १९२-१९८ प्रतिलेखना उपकरण प्रतिलेखना नि २६४-२७९. वृ १०८-११३ पात्र प्रतिलेखना नि २८७-२९५. वृ ११६-११९ स्थण्डिल प्रतिलेखना नि २९६-३२३. व ११९-१२६ भिक्षाचर्या : काल, गवेषणा विधि, एकाकी नि ४११-४३१. भा २१३-२३१. वृ १४७-१५५ भिक्षाटन का निषेध रोगचिकित्सा : मिट्री, सीपी आदि के द्वारा रोग नि ३३५-३७०. वृ १२९-१३५ अपनयन आदि वस्त्रप्रक्षालन : विधि-निषेध नि ३४७-३५६. वृ १३१,१३२ विहारविधि नि १३-४९. वृ २३-३६ ० गीतार्थ-विहार और क्षेत्रप्रत्युपेक्षण नि ११९-१४९. व ६०-६८ ० ग्रामप्रवेश नि १५६-२०१ नि ६८-८३. व ४०-४७ स्थापनाकुल भा १२२-१४५. वृ ९५-१०० सन्दर्भ विवरणनि-ओघनियुक्ति गाथा। भा-भाष्य गाथा । व-द्रोणीया वृत्ति पत्र । वैयावृत्त्य पिण्डनियुक्ति नि १७९-१८२ नि ६९-७१ नि ४०३-५१३. वृ १२०-१४५ अतिक्रम, व्यतिक्रम".. आहार शुद्धि : मोक्ष का परंपर कारण उत्पाद दोष उद्गम दोष ० आधाकर्म ० औद्देशिक ० पूतिकर्म मिश्र आदि नि ९४-२१७. वृ ३५-७६ नि २१८-२४२ नि २४३-२६८ नि २७१-३९१ Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ दार्शनिक और तात्त्विक चर्चास्थल ७५७ विषय संदर्भ ० विशोधि-अविशोधि कोटि नि ३९२-४०२. वू ११६-११९ एषणा दोष नि ५१४-६२८. वृ १४६-१७० ग्रासैषणा • संयोजना आदि पांच दोष नि १ ० पांच दोषों का विवरण नि ६२९-६७१ निक्षेप : पिण्ड शब्द के निक्षेप नि ४-६६. वृ ३-२७ पृथ्वी आदि जीवनिकाय ० भेद-प्रभेद . . अचित्त पृथ्वी आदि का प्रयोजन नि ८-४७. वृ ७-२० प्रतिसेवन-प्रतिश्रवण-संवासन-अनुमोदन नि १११-१२८. वृ ४५-५० (कृत-कारित-अनुमति) रोगचिकित्सा : शंख, सीपी, उदेहिका आदि द्वारा नि ४८-५२. व २०,२१ रोगों का शमन वस्त्रप्रक्षालन : विधि-निषेध नि २३-३४. व ११-१६ सार्मिक के बारह प्रकार और उनका व्यवहार-बोध नि १३७-१५९. व ५२-६२ सन्दर्भ विवरणनि-पिण्डनियुक्ति गाया। वृ-मलयगिरीया वृत्ति पत्र । Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जह जह सुयमोगाहइ अइसयरसपसरसंजुयमपुव्वं / तह तह पल्हाइ मुणी णवणवसंवेगसद्धाए॥