Book Title: Bhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Author(s): Vimalprajna, Siddhpragna
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 722
________________ क्षायोपशमिक सम्यक्त्व ६७७ सम्यक्त्व है । अथवा जो तीन पुंज (शुद्ध, मिश्र, अशुद्ध) नहीं बनाता, विद्यमान (अन्तर्मुहूर्त के बाद उदय में आने वाले) जिसका मिथ्यात्व क्षीण नहीं होता, उसके औपशमिक स्पर्धकों का उपशम होने पर क्षयोपशम सम्यक्त्व होता सम्यक्त्व होता है। है । इसमें सम्यक्त्व मोहनीय का उदय रहता है। उपशम श्रेणी : मोह उपशम की प्रक्रिया । मिच्छत्तं जमुइण्ण तं खीणं अणइयं य उवसंतं । (द्र. गुणस्थान) मीसीभावपरिणयं वेइज्जंतं खओवसमं ।। औपशमिक भाव। (द्र. भाव) (विभा ५३२) प्रथम बार औपशमिक सम्यक्त्व" (द्र. करण) उदीर्ण मिथ्यात्व का क्षय और अनूदीर्ण मिथ्यात्व ६. सास्वादन सम्यक्त्व का उपशम-~~-दोनों का मिश्रण चलता रहता है, इस उवसमसम्मत्ताओ चयओ मिच्छं अपावमाणस्स । मिश्रीभाव परिणत अवस्था का वेदन करना क्षयोपशम सासायणसम्मत्तं तयंतरालम्मि छावलियं ।। सम्यक्त्व है। इहान्तरकरणे औपशमिकसम्यक्त्वाद्धायां जघन्यतः यदुदीर्णमुदयमागतं मिथ्यात्वं तद् विपाकोदयेन समयशेषायां, उत्कृष्टतस्तु षडावलिकावशेषायां वर्तमानस्य वेदितत्वात् क्षीणं निर्जीणं, यच्च शेषं सत्तायामनुदयागतं कस्यचिदनन्तानबन्धिकषायोदयो भवति । अतस्तेन कषायो- वर्तते तदपशान्तम। उपशान्तं नाम विकभितोटयम्पनीतदयेनोपशमिकसम्यक्त्वाच्च्यवमानस्य मिथ्यात्वमद्याप्य- मिथ्यास्वभावं च शेषमिथ्यात्वं, मिथ्यात्व-मिश्रपुञ्जावाप्राप्नवतोऽत्रान्तरे जघन्यतः समयं, उत्कृष्टतस्तु षडावलिका श्रित्य विष्कम्भितोदयं, शद्धपञ्जमाश्रित्य पूनरपनीतसास्वादनसम्यक्त्वम् । मिथ्यास्वभावमित्यर्थः।"तस्य विपाकेन साक्षादनुभूयमान(विभा ५३१ मवृ पृ २४२) त्वादिति ।..."अपनीतमिथ्यास्वभावत्वात् स्वरूपेणऽनुदयात् सम्यक्त्वप्राप्ति की प्रक्रिया में अन्तरकरण में औप- तस्याऽप्यनुदीर्णतोपचारः क्रियते । अनुदीर्णत्वमशुद्धमिश्रशमिक सम्यक्त्व प्राप्त होता है। उसका कालमान अन्त- पुजद्वयरूपस्य मिथ्यात्वस्यव योज्यते, न तु सम्यक्त्वस्य, मुहर्त है। जब उस काल का जघन्यतः एक समय अथवा तस्यापनीतमिथ्यास्वभावत्वलक्षणम्पशान्तत्वमेव योज्यते । उत्कृष्टतः छह आवलिका जितना काल शेष रहता ..."शद्धपुञ्जलक्षणं मिथ्यात्वमपि क्षयोपशमाभ्यां निर्वत्तहै, उस समय जिस जीव के अनंतानुबंधी कषाय का त्वात क्षायोपशमिकं सम्यक्त्वमुच्यते । शोधिता हि मिथ्यात्वउदय हो जाता है, वह औपशमिक सम्यक्त्व से च्युत हो पूदगला अतिस्वच्छवस्त्रमिव दष्टेर्यथावस्थिततत्त्वरुच्यध्यजाता है. किन्तु जब तक मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं होता, सायरूपस्य सम्यक्त्वस्याऽवारका भवति । तब तक उसके सास्वादन सम्यक्त्व होता है। इसका (विभामवृ १ पृ २४३) कालमान जघन्यत एक समय, उत्कृष्टतः छह आवलिका है। क्षायोपशमिक सम्यक्त्व का अर्थ है उदीर्ण मिथ्यात्व द्वित्रिचतुरिन्द्रियास्तु करणापर्याप्तावस्थायां पूर्वभवा का विपाकोदय में वेदन कर उसे क्षीण कर देना तथा यातं सास्वादनसम्यक्त्वम् । (आवमवृ प ३९) शेष अनुदीर्ण मिथ्यात्व का उपशम करना। यहां उपशम द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जीवों के अपर्याप्त दो रूप वाला है - अवस्था में पूर्वभव से आयातित सास्वादन सम्यक्त्व १.मिथ्यात्व, मिश्र और सम्यक्त्व-दर्शनमोह के होता है। सास्वादन गुणस्थान इन तीन पुंजों में से प्रथम दो पुंजों के उदय का (द्र. गुणस्थान) विष्कभित होना। ७. क्षायोपशमिक सम्यक्त्व २. सम्यक्त्वमोह के पुंज का शुद्ध (मिथ्या स्वभाव दसणमोहस्स खवोवसमेण अणंताणुबंधिअणुदए से रहित) होना। मिच्छत्तस्स सव्वघातिफड्डगाण उदयक्खते तेषामेव सवसमे सम्मत्तमोहणीयस्स उदये। (आव १ पृ ९७) यद्यपि इसमें सम्यक्त्वमोह का मन्द विपाकोदय रहता दर्शनमोह का क्षयोपशम होने पर क्षायोपशमिक है, किन्तु वह स्वरूप से इस सम्यक्त्व में बाधक नहीं सम्यक्त्व होता है। अनन्तानुबन्धीचतुष्क का अनुदय, बनता, इसलिए उसको उपचार से अनुदीर्ण कहा गया उदयप्राप्त मिथ्यात्व के सर्वघाति स्पर्धकों का क्षय तथा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 720 721 722 723 724 725 726 727 728 729 730 731 732 733 734 735 736 737 738 739 740 741 742 743 744 745 746 747 748 749 750 751 752 753 754 755 756 757 758 759 760 761 762 763 764 765 766 767 768 769 770 771 772 773 774 775 776 777 778 779 780 781 782 783 784 785 786 787 788 789 790 791 792 793 794 795 796 797 798 799 800 801 802 803 804