Book Title: Bhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Author(s): Vimalprajna, Siddhpragna
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 758
________________ चतुर्विंशतिस्तव स्तव स्तुति - भक्तिपूर्वक गुणोत्कीर्तन । १. स्तव स्तुति का अर्थ २. चतुविशतिस्तव ३. महावीरस्तुति ४. शक्रस्तुति संघस्तुति ५. स्तव के प्रकार * ६. स्तुति के प्रकार ७. स्तव स्तुति के परिणाम ( ब्र. संघ ) १. स्तव स्तुति का अर्थ स्तुतय: - एकादिसप्त स्तवा -- देवेन्द्रस्तवादयः । श्लोकान्ताः । ' एगदुगतिसिलोगा ( थुइओ) अन्नेसि जाव हुंति सत्तेव । देविदत्थवमाई तेण परं श्रुत्तया होंति । ' ( उशावृ प ५८१ ) देवेन्द्रस्तव आदि स्तव हैं। एक, दो यावत् सात श्लोक वाली उत्कीर्त्तना स्तुति कहलाती है । एक, दो या तीन श्लोक वाले गुणोत्कीर्त्तन को स्तुति और तीन से अधिक श्लोक वाले गुणोत्कीर्तन को स्तव कहा जाता है । कुछ आचार्य सात श्लोक तक के arati को स्तुति मानते हैं । २. चतुविशतिस्तव लोगस्स उज्जोयगरे, अरिहंते कित्तइस्सं, उसभमजयं च वंदे, संभवमभिनंदणं च सुमई च । पउमपहं सुपासं, जिणं च चंदप्पहं वंदे ॥ सुविहिं च पुष्पदंतं, सीअल सिज्जंस वासुपुज्जं च । विमलमणतं च जिणं, धम्मं संति च वंदामि ॥ कुंथुं अरं च मल्ल, वंदे मुणिसुव्वयं नमिजिणं च । वंदामि रिट्ठनेमि, पासं तह वद्धमाणं च ॥ एवं मए अभिथुआ, विहय- रयमला पहीण - जरमरणा । चउवीसंपि जिणवरा, तित्थयरा मे पसीयंतु ॥ कित्तिय वंदिय मए, जेए लोगस्स उत्तमा सिद्धा । आरोग्ग- बोहिलाभं समाहिवरमुत्तमं दितु ॥ चंदेसु निम्मलयरा, आइच्चेसु अहियं पयासयरा । सागरवरगंभीरा, सिद्धा सिद्धि मम दिसंतु ॥ ( आव २1१ ) Jain Education International धम्मतित्थयरे जिणे । चउवीसंपि केवली ॥ स्तव स्तुति जो लोक में प्रकाश करने वाले, धर्मतीर्थ के प्रवर्तक, जिनेश्वरं और अर्हत् हैं, मैं उन चौवीस केबलियों का कीर्तन करूंगा। मैं ऋषभ, अजित, संभव, अभिनंदन, सुमति, पद्मप्रभ, सुपार्श्व चन्द्रप्रभ, सुविधि ( पुष्पदंत), शीतल, श्रेयांस, वासुपूज्य, विमल, अनंत, धर्म, शांति, कुंथु, अर, मल्लि, मुनिसुव्रत, नमि, अरिष्टनेमि, पार्श्व और वर्द्धमान को वंदन करता हूं । इस प्रकार जिनकी मैंने स्तुति की है, जो कर्म-रजमल से मुक्त हैं, जो जरा और मरण से मुक्त हैं, वे चौवीस जिनेश्वर तीर्थंकर मुझ पर प्रसन्न हों । मैंने जिनका कीर्तन, वन्दन किया है, वे लोक में उत्तम सिद्ध भगवान् मुझे आरोग्य, बोधि-लाभ और उत्तम समाधि दें । ७१३ जो चन्द्रमाओं से भी निर्मलतर, सूर्यों से भी अधिक प्रकाश करने वाले और समुद्र के समान गंभीर हैं, वे सिद्ध भगवान् मुझे सिद्धि दें । fafe after वसोहिणिमित्तं पुण बोधिलाभत्थं च कम्मखवणत्थं च तित्थगराणमुक्कित्तणा कता । ( अनुचू पृ १८ ) है आवश्यक के छह विभाग हैं । उनमें दूसरा विभाग चतुर्विंशतिस्तव। इसमें चौवीस तीर्थंकरों की जो उत्कीर्तना की गई है उसके तीन प्रयोजन हैं - दर्शनविशोधि, बोधि - लाभ और कर्मक्षय । चउव्वीसत्थएणं दंसणविसोहि जणयइ । (उ२९/१० ) चतुर्विंशति - स्तव ( चौवीस तीर्थंकरों की स्तुति करने ) से जीव दर्शन ( सम्यक्त्व ) की विशुद्धि को प्राप्त करता है । दर्शनं सम्यक्त्वं, तस्य विशुद्धिः - तदुपघातिकर्मापगमतो निर्मलीभवनं दर्शनविशुद्धिः । ( उशावृप ५८० ) स्तुति के द्वारा दर्शन के उपघाती कर्म दूर होते हैं, फलतः सम्यक्त्व निर्मल हो जाता है। यही दर्शन-विशुद्धि है । दर्शन की विशुद्धि का तात्पर्य है - दर्शन के आचार का अनुपालन । स्तुति से तीर्थंकर के प्रति अनुराग उत्पन्न होता है। उससे दर्शनाचार के प्रति आस्था सुदृढ़ बनती है । दर्शनाचार - द्र. सम्यक्त्व भत्तीइ जिणवराणं खिज्जती पुव्वसंचिआ कम्मा | आयरियनमुक्कारेण विज्जा मंता य सिज्यंति ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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