Book Title: Bhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Author(s): Vimalprajna, Siddhpragna
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 741
________________ सामायिक का पन्द्रह अहोरात्र है । इसके पश्चात् किसी न किसी जीव को सामायिक की प्रतिपत्ति अवश्य होती है। श्रुत सामायिक और सम्यक्त्व सामायिक की प्रतिपत्ति का विरहकाल जघन्यतः एक समय तथा देशविरति और सर्वविरति का विरहकाल जघन्यतः तीन समय है । : अविरहकाल समयअगारीणं आवलियअसंखभागमेत्ता उ। असमया चरिते सव्वेसु जहन्न दो समया ॥ ( आवनि ८५४) सम्यक्त्व सामायिक, श्रुत सामायिक और देशविरति सामायिक के प्रतिपत्ता आवलिका के असंख्येय भाग समयों तक निरन्तर एक, दो आदि मिलते हैं। तत्पश्चात् उनका विरहकाल प्रारम्भ हो जाता है । चारित्र सामायिक के प्रतिपत्ता का अविरहकाल आठ समय तक होता है । उस अवधि में एक, दो आदि प्रतिपत्ता मिलते हैं, तत्पश्चात् उनका विरह काल प्रारंभ हो जाता है। सामायिक चतुष्क का जघन्यतः अविरहकाल दो समय का होता है । भव सम्मत्तदेसविरई पलियस्स असंखभागमेत्ताओ । अट्ठ भवा उ चरिते अनंतकालं च सुयसमए ॥ सम्यक्त्व देशविरतिमन्तः " 'जघन्यतस्त्वेकः' चारित्रे----जघन्यतस्त्वेक एव सामान्यश्रुतसामायिके जघन्यतस्त्वेकभवमेव, मरुदेवीव । ( आवनि ८५६ हावु पृ. २४२) सम्यक्त्व सामायिक और देशविरति सामायिक के प्रतिपत्ता क्षेत्रपल्योपम के असंख्यातवें भाग में जितने आकाश प्रदेश होते हैं, उत्कृष्ट उतने भव करते हैं तत्पश्चात् मुक्त हो जाते हैं तथा जघन्यतः एक भव करते हैं । चारित्र सामायिक का प्रतिपत्ता उत्कृष्ट आठ भव तथा जघन्यतः एक भव करता है। श्रुत सामायिक का प्रतिपत्ता उत्कृष्टतः अनन्त भव तथा सामान्यतः जघन्यतः एक भव करता है । जैसे - मरुदेवी । आकर्ष तिह सहस्सपुहुत्तं सयप्पुहुत्तं च होइ विरईए । एगभवे आगरिसा एवतिया होंति नायव्वा || तिन्ह सहस्समसंखा सहसपुहुतं च होइ विरईए । पाणभवे आगरा एवइया होंति णायव्वा ॥ Jain Education International ६९६ सामायिक और क्षेत्रस्पर्शना सम्यक्त्व, श्रुत और देशविरति सामायिक के एक भव में सहस्रपृथक्त्व आकर्ष (२००० से ९००० बार प्राप्त) 'सकते हैं और सर्वविरति के शतपृथक्त्व आकर्ष (२०० से ९०० बार) हो सकते हैं । सम्यक्त्व और देशविरति सामायिक के नाना भवों में उत्कृष्टतः असंख्येय हजार आकर्ष होते हैं । सर्वविरति सामायिक के नाना भवों में २ से ९ हजार आकर्ष होते हैं । श्रुत सामायिक के अनन्त भवों में अनन्त आकर्ष होते हैं । ८. सामायिक और क्षेत्रस्पर्शना सम्मत्तचरणसहिया सव्वं लोगं फुसे णिरवसेसं । सत्तय चोभागे पंच य सुयदेसविरई || ( आवनि ८५९ ) सम्यक्त्व सामायिक और सर्वविरति सामायिक से सम्पन्न जीव केवली समुद्घात के समय सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करता है। श्रुत सामायिक और सर्वविरति सामायिक से सम्पन्न जीव इलिका गति से अनुत्तर विमान में उत्पन्न होता है तब वह लोक के सप्त चतुर्दश (१४) भाग का स्पर्श करता है । सम्यक्त्व सामायिक और श्रुत सामायिक से सम्पन्न जीव छुट्टी नारकी में इलिका गति से उत्पन्न होता है तब वह लोक के पञ्च चतुर्दश (१४) भाग का स्पर्श करता है । देशविरति सामायिक से सम्पन्न जीव यदि इलिका गति से अच्युत देवलोक में उत्पन्न होता है तो वह पञ्च चर्तुदश (१४) भाग का स्पर्श करता है । यदि अन्य देवलोकों में उत्पन्न होता है। तो वह द्विचतुर्दश (१४) आदि भागों का स्पर्श करता है । भावस्पर्शना सव्वजीवेहि सुयं सम्मचरित्तारं सव्वसिद्धेहि । भागेहि असंखेज्जेहिं फासिया देसविरईओ ॥ ( आवनि ८६० ) सर्वजीवैः सांव्यवहारिकराश्यन्तर्गतैः सामान्यश्रुतं स्पृष्टं सर्वसिद्धानां बुद्ध्याऽसंख्येयभागीकृतानामसंख्येयभागैर्भागोनैर्देशविरतिः स्पृष्टा असंख्येयभागेन तु न स्पृष्टा, यथा मरुदेवास्वामिन्या । ( आवनि ८६० हावृ पृ २४२ ) सामान्य श्रुत सामायिक संव्यवहार राशि के सब जीवों द्वारा स्पृष्ट है । सम्यक्त्व सामायिक और सर्व( आवनि ८५७ ८५८) विरति सामायिक की प्रतिपत्ति के बिना कोई भी जीव For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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