Book Title: Bhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Author(s): Vimalprajna, Siddhpragna
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 713
________________ समाधि ६६८ विनय-समाधि अब्भंतर मज्झ बहिं विमाणजोइभवणाहिवकया उ। समाधि का अर्थ है-चित्त की स्वस्थता, समाधान । पागारा तिण्णि भवे रयणे कणगे य रयए य॥ समाधि के दो प्रकार हैं (आवनि ५४९) द्रव्यसमाधि और भावसमाधि। द्रव्यसमाधि का वैमानिक देव भीतरी रत्नमय परकोटे की रचना अर्थ है-वे साधन जिनके उपयोग से शारीरिक स्वास्थ्य करते हैं। ज्योतिष्क देव मध्य में स्वर्णमय और भवनपति बना रहता है, जैसे-दूध और शर्करा। ये द्रव्य परस्पर देव बाहरी रजतमय परकोटे की रचना करते हैं। अविरोधी हैं और इनसे स्वास्थ्यलाभ होता है। चेइदुमपेढछंदयं च आसणछत्तं चामराओ य । भावसमाधि का अर्थ है-अनुपम स्वास्थ्य की उपजं चऽण्णं करणिज्जं करेंति तं वाणमंतरिया ।। लब्धि । यह है आध्यात्मिक स्वास्थ्य और इसके उपयोगी (आवनि ५५३) साधन हैं-ज्ञान, दर्शन आदि । समवसरण में भगवान के शरीर प्रमाण से बारह गुणा समाधि:-चित्तस्वास्थ्यं तत्प्रधाना योगा: शुभमनोऊंचा अशोक वृक्ष होता है । उसके नीचे रत्नमयपीठ होता वाक्कायव्यापाराः समाधियोगाः । यद्वा समाधिश्च शुभहै। उसके ऊपर देवछंदक होता है। उस पर सिंहासन और चित्तकाग्रता योगाश्च-पृथगेव प्रत्यूपेक्षणादयो व्यापारा: सिंहासन के ऊपर छत्र होते हैं । यक्षों के हाथ में चामर समाधियोगाः । (उशावृ प २९६) होते हैं और पद्म पर धर्मचक्र होता है। शेष करणीय समाधियोग के दो अर्थ हैंकार्यों की रचना व्यन्तर देव करते हैं। १. चित्त की स्वस्थता से युक्त मन, वचन और काया तित्थपणामं काउं कहेइ साहारणेण सद्देणं । की प्रवृत्ति। सव्वेसि सण्णीणं जोयणणीहारिणा भगवं ।। २. शुभचित्त की एकाग्रता से होने वाली प्रत्युपेक्षणा (आवनि ५६६) आदि प्रवृत्तियां। प्रवचन करने से पूर्व तीर्थकर तीर्थ को प्रणाम करते समाधानं समाधिः-परमार्थत आत्मनो हितं सुखं हैं (यह नियुक्तिकार की मान्यता है), फिर सर्वसामान्य स्वास्थ्यम् । (दहावृ प २५६) शब्दों में प्रवचन करते हैं। उनकी वाणी योजनव्यापी समाधि का अर्थ है-आत्मा का हित, सुख और होती है और उससे समवसरणस्थ सभी संज्ञी प्राणियों की स्वास्थ्य । जिज्ञासाएं शांत हो जाती है । यह भगवान् का अतिशय समाधि के प्रकार विशेष है। मणुए चउमण्णयरं तिरिए तिण्णि व दुवे व पडिवज्जे। चत्तारि विणयसमाहिद्वाणा पन्नत्ता, तंजहा-विनयजइ णत्थि नियमसो च्चिय सुरेसु सम्मत्तपडिवत्ती॥ समाही सुयसमाही तवसमाही आयारसमाही। (आवनि ५६५) (द ९।४। सूत्र ३) भगवान के समवसरण में मनुष्य चारों प्रकार की विनय-समाधि के चार प्रकार हैंसामायिक, तिथंच तीन अथवा दो प्रकार की सामायिक विनय-समाधि, श्रुत-समाधि, तप-समाधि और स्वीकार करते हैं। प्रथम समवसरण में यदि सामायिक ग्रहण आचार-समाधि । करने वाले मनुष्य और तिर्यञ्च नहीं होते हैं तो देवता विनय-समाधि निश्चित रूप से सम्यक्त्व सामायिक स्वीकार करते हैं। चउबिहा खलु विणयसमाही भवइ, तं जहासमवायांग-अंगप्रविष्ट आगम । (द्र. अंगप्रविष्ट) अणुसासिज्जंतो सुस्सूसइ, सम्म संपडिवज्जइ, वेयमाराहयइ, समाधि-समाधान । चैतसिक स्वास्थ्य । न य भवइ अत्तसंपग्गहिए। (द ९।४। सूत्र ४) समाधिः-चेतसः स्वास्थ्यम् । समाधानं समाधिः । विनय-समाधि के चार प्रकार हैं स च द्विधा-द्रव्यतो भावतश्च । द्रव्यसमाधिर्यदु- १. शिष्य आचार्य के अनुशासन को सुनना चाहता है। पयोगात्स्वास्थ्यं भवति । यथा वा पयःशर्करादिद्रव्याणां २. अनुशासन को सम्यग् रूप से स्वीकार करता है। परस्परमविरोधः । भावसमाधिस्तु ज्ञानादीनि, तदुपयोगा- ३. वेद (ज्ञान) की आराधना करता है अथवा अनुदेवानुपमस्वास्थ्ययोगात् । (उशावृ प ६६,५५०) शासन के अनुकूल आचरण कर आचार्य की वाणी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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