Book Title: Yog Granth Vyakhya Sangraha
Author(s): Kirtiyashsuri
Publisher: Suri Ramchandra Shatabdi Samiti

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Page 84
________________ [75 गाथा 1/13 16/6 231 5/2 1/20 प्रत्यभिज्ञानम्] | नाम व्याख्या प्रत्यभिज्ञानम् = अनुभवस्मृतिहेतुकं तिर्यगूर्ध्वतासामान्यविषयं प्रसिद्धम् / त.उ. = सोऽयमित्येवंरूपः प्रत्यवमर्शः / अ. प्रत्ययः = प्रतीयते भाव्यर्थोऽस्मादिति / यो.बि. प्रत्याख्यानपरिज्ञा = तद्गर्भक्रियारूपा / पञ्च. प्रत्याख्यानम् = प्रति प्रवृत्तिप्रातिकूल्येन, आ मर्यादया, ख्यानं कथनम्, प्रत्याख्यानम्, * निषेधेन विधिना वा प्रतिज्ञा / अ. = प्रति-प्रवृत्तिप्रतिकूलतया आ-मर्यादया ख्यानं-प्रकथनम् - प्रत्याख्यानम् / पं. __ = रागेण व दोसेण व परिणामेण व न हीलियं जं तु / तं खलु भावविसुद्धं पच्चक्खाणं मुणेयव् // पं. प्रत्याख्यानाध्ययनम् - = मूलोत्तरगुणधारणीयता यत्र ख्याप्यते तत् / त.उ. = किइकम्माइविहिण्णू उवओगपरो च असढभावो य / . संविग्गथिरपइण्णो पच्चक्खावितओ होइ // पं. प्रत्याहारः = स्थानात् स्थानान्तरोत्कर्षः प्रत्याहारः प्रकीर्त्यते / यो.शा. प्रत्येकबुद्धः = बाह्यवृषभादिदर्शनसापेक्षदीक्षालाभः / उ.प. प्रधानकार्यम् '= विशिष्टफलदायिनं प्रयोजनम् / यो.बि. प्रधानद्रव्याज्ञा = क्रियायां विधिशुद्धोपयोगयोगादेव / उ.र. प्रभादृष्टिः ... = ध्यानप्रिया प्रभा प्रायो नास्यां रूगत एव हि / तत्त्वप्रतिपत्तियुता विशेषेण शमान्विता // 170 // यो.दृ. प्रभावकाः = पावयणी धम्मकही वादी नेमित्तओ तवस्सी य / विज्जा सिद्धो य कवी, अठेव पभावगा भणिया // अ. श्रावकस्तु कार्पण्यपरिहारतो विधिमता जिनबिम्बस्थापनयात्राकरणेन शासनप्रभावकः / अ. प्रभावनम् = प्रावनिकत्वादिप्रकारैर्जिनप्रवचनप्रकाशनापादनम् / पं. = तैस्तैर्धर्मकृत्यैरहन्मतोन्नतिकरणम् / स.स. प्रमाणम् = अविसंवादिज्ञानम् / द्वा. = जं सव्वहा न सुत्ते पडिसिद्धं नेव जीववहहेऊ / तं सव्वंपि पमाणं, चारित्तधणाण भणिअं च // 10 // यति. प्रत्याख्यापक: 5/8 419 129 38 170 23/3 15/24 40 8/12 10

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