Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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६.८
उत्तराध्ययनमः टन्ति जन्तयो ऽस्मिन्निति सम्पराय ससारस्तस्य पारगः पारगामी खल्लु-निश्च येन न भवति । 'सपराए' इति पटवर्थे सप्तमी ॥४१॥
मूलम्-- पोल्लेव मुट्टी जह से असारे, अयतिए कूडकहावणेवा । राढामणी वेरुलियप्पगासे, अमहग्गए होड हु जाणएसु ॥४२॥ छाया--पोलैब मुष्टियथा सोऽसारः, अयन्त्रित. झूटकापापण इव ।
राठामणियेप्रकाश , अमहाधको भर्यात सलु मायकेषु ॥४२॥
टीका---'पोलेव' इत्यादि। पोल्लेव अन्त मुपिरैव-एकारोऽधारणे, या कदाचिदरि निविडा नैव भवति, एवविधा मुष्टियथा-मुष्टिरि स द्रव्यमुनिः असार'साररहितो भवति, सदर्थ गून्यत्वात; तथा कूटकापण इव-कृटकापणवत् अयन्त्रित' अनियमितो भवति, यथा यूटकापण कूटतया न केनापि नियन्यते अर्थात-क्रयविक्र यादौ न व्यवहियते, एवमेव असो सयताभासो निर्गगत्वेन न केनाप्याद्रियते उपेक्षा भाव रखता है वह अस्थिर नती होकर अपने तप एव नियमों से भ्रष्ट ही माना गया है। ऐसा व्यक्ति चाहे जितना भी अपने आपको हेशित करे तो भी ससार से पार नहीं हो सकता है ॥४१॥
'पोल्लेव' इत्यादि। __ अन्वयार्थ (जहा पोल्ला मुट्ठी असारे एक-यथा पोल्ला मुष्टि, असारा एव भवति) जैसे पोली मुट्ठी सार रहित ही होती है उसी तरह (से असारे-स'असार) वह द्रव्यमुनि रत्नत्रय से शून्य होने से सार रहित होता है। (इव) तथा जैसे (कूटकहावणे अयतिरा-कूटकार्षापण अयन्त्रित भवति) तथा अयमपि अयन्त्रित, भवति) खोटा पैसा-रूप्या-सिक्का-क्रयविक्रय आदि में व्यवहार योग्य नहीं होता है उसी तरह यह सयता પાતાદિક વિરમણ વ્રતમાં ઉપેક્ષાભાવ રાખે છે તે સ્થિતિ થઈને પિતાના તપ અને નિયમથી ભ્રષ્ટજ માનવામાં આવેલ છે એવી વ્યકિત પિતે પિતાની જાતને કલેશિત કરે તે પણ તે સ સારથી પાર થઈ શકતું નથી લાલા
"पोले".-छत्याहा
स-यार्थ-जहा पोल्ला मुट्टी असारे एक-यथा पोल्ला मुष्टि असारा एव भवति २ प्रभारी पी मुही सार कानी हाय छ मे प्रभाव से असारे-स असार તે દ્રવ્ય મુનિ રત્નત્રયથી શૂન્ય હોવાથી સાર રહિત બને છે તથા જેમ શ્રદ દા वणे अपतिए-दूट कापण अपन्त्रित भवति मोटा पैसा-३षीया सी-४५