Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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उत्तराध्ययनसत्रे
आत्मन् स्वस्य च सगरम्परिप्णुत्वासहिरप गावा-यशात्मन गयमयोग हानि न स्यात्त या जात्वा रादि-गण्डले उपमणवार गामाता च यदविहार फतवान् । तया च-सिंह इचग देन-भयोत्पाटकेनन न समास्गद-गन्त्रता नामृत-सत्यान्नैव चलितमानिति भार , मिष्टान्ताभिधान ग तम्य सावित्व नातिस्थिरत्वात । तथा-पचोयोग-धाग्योगन्दुमापाचन सुधाऽपि स श्रम भ्यम् अश्लील पाक्यम्-न अबवीव-नारवान। आत्मानुशासनपक्ष-विहरत, सन स्थेत, स्यादिति पोध्यम् । 'पयोग' इति' आपत्राद लसानुस्वारी निर्दिष्ट ॥१४॥ पुनरप्याह-
मूलम्-- उवेहमाणो उं परिएज्जा, पियमप्पिय सव्वं तितिस्सएन्जा । नं संघ सव्वत्थऽभिरोय इज्जा, ने योवि य गैरह च सजेए ॥१५॥ द्वितीयपौरपी आदि मे ध्यान करना, चतुकाल म्वाभ्यार करना तथा अपनी शक्ति के अनुसार तपश्चरण करना यह मत्र ययाविधि (कुर्वन् ) करते हुए (अप्पणोय गरल जाणिय-आगमन.-पलाल ज्ञात्वा) अपना सहिष्णुत्व एव असहिष्णुत्वरूप लावल को जानकर (रसेवितरित-राप्टे व्यवहरत्) देश मे तथा उपलक्षण से ग्राम आदि में विचरे । तया (मण सीहोव न सतसिज्जा-शब्देन सिह इब न ममत्रस्यत्) भगोत्पादक शब्द से वे सिह की तरह कभी भी अपने धैर्यसे विचलित नहीं होते। और न कभी (वयजोग सुच्चा-बचोयोग श्रुत्वा) दूसरों के असभ्य वचना को सुनकर भी (असम्भ ण आहु-असभ्य न अब्रवीत्) वे असभ्य वचन न बोले । आत्मानुशासनपक्षमे "विहरिज" की सस्कृत छाया "विहरेत्" "सतसिजा" की "सत्रस्येत्” "आद" की "व्यात्” जाननी चाहिये ॥१४॥ ધ્યાન કરવું, અથવા ચેથા કાળમા સ્વાધ્યાય કર તથા પિતાની શક્તિ અનુસાર तपश्चरय ४२७ मा सघणु यथाविधि ४२ता ४२ता अप्पणो बलाबल जाणिय
आत्मन वलापल ज्ञात्वा पोताना सहित्य मन मसाहित्१३५ ने aajीन रहे विहरिज-राष्ट्र व्यवहरत देशमा तथा BARथी गाभेगास वियर
यु तथा सण सीहोव न सतसिज्जा-शब्देन सिंह न समत्रस्यत लयापा शपथी त सिडनी भा ही ५ पोते धैर्य थी वियसित न थता मने वयजोग मुच्चा-बचोयोग श्रुत्वा भीगना मसल्य वयनाने सासनीन तसाही ५ असब्भ ण आइ-असभ्यन अबवीत असल्य क्यन माया नथी मात्भानुशासन पक्षमा "विहरिज" सश्त छाया "विहरेत्" "सतसिजा" "सनस्येत्” “आहे" नी "यात्" वा नये ॥१४॥