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जे प्रकाश वडे जणाय छे-आंख बंध होयं तो कंइ न देखाय. बहारना प्रकाशथी ज जोवा अने जाणवानी क्रिया थती नथी. उपादान रुपे माहींनो प्रकाश छे, ते स्वयं प्रकाश छे. ए प्रकाश जेमां छे, एनुं जे केन्द्र छे-अधिष्ठान छे–ते आत्मा. तेमांथी प्रकाश, चेतनाशक्ति प्रकाशरुपा छे, एमांथी स्फुरे छे अने पोतानी स्वरुपमर्यादानी बहार आ देह, इन्द्रियो, इत्यादि एनी अंदर ए 'करंट' आवे छे. एनुं भवन "पर"भणी छे. एटले एने "स्व"भणी वाळवू घटे छे. “ भवनं भाव"-'भू' धातुथी " भाव" शब्द बने छे, " भवन " शब्द बने छे. ' भवति, भवतः, भवन्ति ' एटले “ थाय छे”, “होय छे "-ए एना अर्थो छे. थवू, होवू एटले शुं ? के " पर " ने अनुकूळ थQ ते परभाव अने " व "ने अनुकूळ थर्बु ते खभाव. “स्व” एटले पोतानुं जे स्वरुप छे, जे ज्ञाता, दृष्टा, साक्षी तत्त्व छे, जे " ड्राइवर" तत्त्व छे आ “ मोटर "मां तेने जोवाजाणवा माटे ए चेतनाशक्तिनुं समावं, स्वने अनुकूळ रहेg, अनुकूळ थर्बु, ते स्वभाव. आत्मशुद्धि अने आत्मसिद्धि करवी ज छे, ए कार्य करवू ज छे तेणे सौथी पहेलां आ काम करवानुं छे : एक निर्णय. ते निर्णय कर्या पछी आ प्रयोग. समग्र शक्ति जे बहार वपराय छे, ते बधी पोताना आत्माने अनुकूळ वापरवी. ते अनुकूळपणे अंतर्मुख एर्नु होवू, तेनुं नाम स्वभाव..ए स्वभावने साच्या वगर, केवळ परभाव वडे आत्मशुद्धि के सिद्धि थइ नथी, यवानी नथी, थइ शके एम ज नथी ! जे काळे आ जीव आ