Book Title: Param Guru Pravachan 01
Author(s): Pratap J Tolia
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

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Page 25
________________ अंतर्लक्ष बहिंदृष्टि, मेषोन्मेष वर्जितः । सा भवेत् शांभवी मुद्रा, सर्व तंत्रेषु गोपिता ॥ " शंभो इदं शांभवी" एटले के अंतर्लक्ष बर्हिदृष्टिः ' :दृष्टि भले बहार रहे, लक्ष महि, · मेषोन्मेष वर्जितः ' आंख मिचौनीथी रहित. आंख बंध थाय अने खुले ए क्रियानुं नाम - मेषोन्मेष' ' मेषोन्मेष वर्जितः' क्यां जोइ रह्या छे ? माहे लक्ष क्यां छे ? मांहे. दृष्टि भले बहार देखाय छे, पण लक्ष क्यां छे ? अंतर्लक्ष राखीने बहारनु बघु काम थइ शके छे. अखंडधारा अंतरलक्ष राखीने बहारनुं काम थइ शके छे. ए लक्ष वगर जे कांई तीर फेकवामां आवे ते क्रिया तो थइ, पण लक्ष्यवेध थाय नहीं, तो लक्ष्यवेध कर छे. पेला पडदाने वींधवा छे - जे दृष्टि अने दृष्टानी वच्चे छे. दृष्टा-ज्ञाता साक्षीतत्त्व क्यां छे ? बहार के माह्य ? जेने साक्षात्कार थयो छे ते - बहार के माह्य ? “ जिन खोजा तिन पाईया, गहरे पानी पैठ ।" तो अंतर्लक्ष्य, आत्माना भानपूर्वक जाळवीने, आ स्वभावने अनुकूळ करीने, स्क्काळ, स्वद्रव्य अने स्वक्षेत्रने संभाळीए तो मळे छे. जे आपणे इच्छीए ते मळे छे. बहार- कंइ इच्छवा जेवू नथी, अत्यार सुधी जे कंइ अनुभव्यु ते बधु दुःखरुप छे, अने जे अनुभव्यु नथी ते मांद्य छे. ज्यारे ते प्राप्त थाय छे त्यारे मन शांत थइ जाथ

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