Book Title: Param Guru Pravachan 01
Author(s): Pratap J Tolia
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

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Page 21
________________ एटले परिवर्तनो थया ज करे पण कायमन कायम ! तेने जेम " सत्" कहे छे तेम बीजा शब्दोमां एने “ द्रव्य" कहे छे. आत्म द्रव्य, पुद्गल द्रव्य... हवे स्वद्रव्यनो, पोताना आत्मद्रव्यनो जे विस्तार छे – आ एक कपडं, तेनो विस्तार केटलो ? खोलशुं एटले, आटलो. तेम आ आत्मा जो एने विस्तृत करीए. आ देहदेवळमां रहेतां छतां विस्तृत करीए तो आखा विश्वमा फेलाइ जाय ! सर्वव्यापक ! ! ज्यां सुधी गतिना माध्यम रुपे ' धर्मास्तिकाय' नामनुं तत्त्व छे त्यां सुधी विस्तरे. आगळ पण विस्तरी शके छे, पण गतिना माव्यमरुपे पदार्थ नथी. जेन कारनी अंदर स्टार्टर, ब्रेक, अन्य चक्रोने आधार रुप धुरा, आ मोटर बनेली ते, पोते कलेवर, महीं ड्राइवर ने रोड : आ बधी वस्तुओ अपेक्षित छे. तो 'स्टार्टर ' वडे चाले छे, 'ब्रेक' वडे मोटर ऊभी रहे छे, अने धुराने आधारे चक्र फरे छे. तेम पुद्गल परमाणुनी बनेली आ “ मोटर" अने तेमां बेठेलो छे ते " ड्राइवर " अने आ चाले छे जेमां ते आकाश, खाली जग्या, रोड. विधमां सब कवोलीटीना पदार्थो छे. स्वतंत्र, अनुत्पन्न, अविनाशी अने एमां जे जीव छे ते केटला विस्तारने लइने छ ? जेम आ ट्यूब. एमां करंट पसार करीए एटला विस्तारमा फेलाइ जाय. नानो झीरो बल्ब लगाडीए तो एटलामां. एथी मोटो लगाडीए तो ? आ निर्दिष्ट संस्थान, कोइ खास आकार एनो नथी. आ मांय जे बेठो छे-आ देह जन्म्यो त्यारे केवडो हतो ? आटलोक हशे !

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