Book Title: Param Guru Pravachan 01
Author(s): Pratap J Tolia
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

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Page 31
________________ २० करे छे, तन एजें काम करे छे अने आत्मा ब्रह्मसमाधिमां छे. पूर्व प्रयोगवश आ बधी — अक्टींग' थाय छे. एटली हद सुधी के भोजनमो समय थाय अने बाह्यज्ञानशून्य-स्थिति होय, सहजसमाधि स्थिति होय, त्यारे रसोइयो जुओ के एमनी अत्यारे आ स्थिति छे, बाळकने जेम मा ऊंघमांथी ऊठाडीने घवरावे के नहीं ? आंख बंध ज होय ने ? अने स्वाभाविकपणे घावण धाव्या करे के नहीं ? तेवी क्रिया एमनी साथे करवामां आवती ! रसोइयो एवा प्रकारनो भक्त हतो. ए क्रिया थइ जाय पण पोताने खबर ज न पडे ! ! ज्यारे बाह्य ज्ञान – बाह्य लक्ष-आवे त्यारे, पेटमां वजन जेवू जणाय त्यारे पूछे के “ में जमी लीधुं ? " " हा, आपy भोजन पती गयुं छे." आ दशा हती हों ! आ सहज समाधि ! ! योगीओने कंदराओमां रहीने पण जे कठण, ते एमने सहज हतु-मोहमयी नगरीमां. मुंबइ एटले शुं ? मोहमयी नगरी. मोहनु साम्राज्य विशेषपणे त्यां वर्ते छे. केम, मजा आवे छे ने मोहना साम्राज्यमां ? मोह एटले शु ? बेभानपणुं. “ हु आत्मा छु, हुं ब्रह्म छु तेवू भान न रहेवू तेनुं नाम मोह छे. मोह मूर्छायां। जेमने आत्मानुं भान होय एवी व्यक्तिओ मुंबइमां केटली मळशे ? कोइ विरला भाग्यशाळीओ. बहुरत्नानि वसुंधरा । बाकी लगभग बेभानपणे वर्ते छे. आत्मानु भान ज नथी ! पोताने पुरुष अने स्त्री मानीने टापटीप करता ते नजरे जोवाय छे. सजावट करता होय वस्त्रोनी. तेमां अमारी बहेनो शुं अने भाइओ शुं ? आजकालना युवानो, कोलेजीयनो तो

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