Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं के इस प्रयोग में मानव भले ही अन्तरिक्ष में उडान का उपक्रम करले पर उसे अन्ततः नीचे आना ही पडता है। हमारा आध्यात्मिक विज्ञान मानव को अन्तर के अनन्त आकाश में ऊपर उठने की शिक्षा देता है। अन्तरिक्ष - यात्री को कई मास की साधना से शरीर को हल्का और वातावरण के अनुकूल बनाना | होता है। यदि हम आत्मा को हल्का करें और मन को संतुलित रखने की तालीम हासिल करें तो अनन्त आकाश में स्थित हो सकते हैं और सदा-सदा के लिये लोकाग्र में स्थित सिद्ध शिला में स्थिर ज्योति पञ्ज बन सकते हैं, जहाँ से कभी भी वापस नीचे नहीं आना पड़ता। साधकों का यह विलक्षण उड्डयन है।" यह उड़ान सामायिक की साधना से ही सम्भव है। कहा भी है -
“करने जीवन का उत्थान, करो नित समता रस का पान ।" ___ चातुर्मास में श्रमणसंघ के अनुशासन को दृष्टिगत रख कर एक दिन आपने फरमाया- "शास्त्र और श्रमण || संघ की मर्यादा है कि साधु साध्वी फोटो नहीं खिचवावें और मूर्ति पगल्ये आदि कोई स्थापन्न करे तो उपदेश देकर रोके। रुपये पैसे के लेन-देन में नहीं पड़े और न कोई टिकिट आदि पास रखे। साधु-साध्वी स्त्री-पुरुषों को पत्र नहीं लिखे और न मर्यादा विरुद्ध स्त्रियों का सम्बन्ध ही रखे। तपोत्सव पर दर्शनार्थियों को बुलाने की प्रेरणा नहीं करे। महिमा पूजा एवं उत्सव से बचे। धातु की वस्तु नहीं रखे, न अपने लिए क्रीत वस्तु का उपयोग करे। इत्यादि बहुत सी बातों का सम्मेलन में निर्णय हो चुका है। जिनको हमने चतुर्विध संघ के समक्ष स्वीकार किया है। इसको दृढ़ता से पालन करना हम साधु-साध्वी का पुनीत कर्तव्य है। " (जिनवाणी, नवम्बर १९६३ के अंक से उद्धृत) श्रमण सम्मेलनों में स्वीकृत समाचारी श्रावकों के समक्ष रखने का स्पष्ट हेतु यही प्रतीत होता है कि जिन लक्ष्यों व पुनीत भावना से श्रमण संघ का गठन किया गया था, वह समाज के समक्ष रखा जावे व संघ में आती शिथिलता दूर हो सके। चरितनायक संगठन के लिये संयम व साध्वाचार निष्ठा को अनिवार्य मानते थे। संगठन के नाम पर संयम व मर्यादा में शैथिल्य आपको कतई इष्ट नहीं था।
चातुर्मास में उपासकदशांग सूत्र के आधार पर कामदेव आदि श्रावकों के जीवन का बहुत ही रोचक एवं प्रेरणाप्रद विवेचन हुआ। लेखन, आगम वाचनी आदि के कार्यक्रम नियमित रूप से चलते रहे । चरितनायक स्वयं भी कभी-कभी आहार-गवेषणा के लिए पधारते थे।
यहाँ पर बहुत से लोगों ने निम्नांकित त्याग-प्रत्याख्यान या नियम किये१. चैत्र की अमावस्या के बाद तिल को अधिक समय नहीं रखना। २. बारात वालों को रात्रि भोजन नहीं कराना, खाने के बाद जूठा नहीं छोड़ना। ३. प्रतिदिन सामायिक स्वाध्याय करना। ४. बीड़ी-सिगरेट शिकार, मांस-मदिरा और चाय का उपयोग नहीं करना। ५. सामूहिक बंदोली में बीड़ी सिगरेट नृत्य आदि का त्याग रखना। ६. गाय, भैंस, सुअर आदि की हिंसा के कारणभूत चरबी लगे वस्त्रों का त्याग करना। ७. तपस्या में आडम्बर और जीमणवार में रात्रि-भोजन का त्याग करना। ८. मुनि दर्शन के लिए जाने पर रात्रि-भोजन नहीं करने का सामूहिक नियम।