Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं ___ एक बार आचार्यश्री के सुशिष्य आत्मलक्ष्यी तत्त्वचिन्तक पूज्य श्री प्रमोदमुनिजी म.सा. के पास आचार्य श्री की हस्तलिखित दैनन्दिनी देखने का प्रसंग आया। आपकी दैनन्दिनी में गुणग्राहकता व गुणानुवाद की विशेषता को देखकर अत्यन्त प्रभावित हुआ। उस डायरी में झालावाड (राज) जिले के रायपुर निवासी श्री पूनमचन्दजी धूपिया एवं मन्दसौर जिले के रामपुरा निवासी आगमज्ञ श्रावक श्री केसरीमल जी की विशेषताओं का वर्णन अंकित था।
सन्त का जीवन सूपड़े (छाजले) की तरह होता है। जैसे सूपडा अनाज में से कंकर-कचरा आदि विजातीय द्रव्य निकालकर अनाज को छाँटकर रख लेता है, उसी प्रकार सन्त अनुकूल, प्रतिकूल प्रसंग, व्यवहार, वचन आदि में अपने हित की बात ध्यान में ले लेते हैं शेष को माध्यस्थ भावना रखते हुए छोड देते हैं, पकड़ नहीं करते हैं ऐसा मैंने उनके जीवन में अनेक बार देखा। वास्तव में उस महापुरुष को जिसने भी निकट से देखा, वह अनुभव करता है कि उनकी प्रत्येक प्रवृत्ति में मौन, ध्यान, विचक्षणता, सजगता आदि गुण झलकते थे। साथ में सीख भी मिलती थी। वास्तव में महापुरुषों की जिह्वा नहीं, जीवन शैली बोलती है। वह सबके लिए हितकर होती है।
-पूर्व महामंत्री , अ.भा. श्री सुधर्म जैन श्रावक संघ,
चौगान गेट बूंदी