Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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फक्कड़ सन्त : महक अनन्त
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• श्री देवेन्द्रराज महता परम पूज्य आचार्य श्री हस्तीमलजी म.सा. की मेरे एवं मेरे परिवार पर असीम कृपा थी। मेरे बचपन से लेकर उनके समाधिमरण तक यह कृपा बनी रही जो मेरा परम सौभाग्य था। जब मुझे दिल्ली में यह सूचना मिली कि आचार्य श्री का स्वास्थ्य अनुकूल नहीं है तो मैं २३ मार्च १९९१ को उनके दर्शनार्थ निमाज पहुँचा। मुझे वहाँ यह बताया गया कि ४ दिन से आचार्य श्री मौनरत हैं अत: उनके दर्शन तो हो सकते हैं, पर चर्चा-वार्ता नहीं। पर जब मैं उनके सान्निध्य में पहुंचा तो उन्होंने स्वत: ही मुझे एवं मेरे परिवार को आशीर्वाद दिया। रत्नवंशीय साधु-परिवार एवं मेरे स्वयं के परिवार के सात से अधिक पीढ़ियों के संबंधों का प्रमोद भाव से उल्लेख किया और काफी अस्वस्थ होने के उपरान्त लगभग ३० मिनिट तक बातचीत की, व अन्त में सदा की भांति नैतिक एवं प्रामाणिक जीवन जीने के बिन्दु पर बल दिया। अहिंसा एवं सेवा के क्षेत्र में और अधिक रुचि लेने तथा कार्य बढ़ाने की विशेष प्रेरणा दी। आचार्य श्री के इस आशीर्वाद और आत्मीयतापूर्ण अंतिम निर्देश को पाकर मैं आत्म-विभोर व भाव-विह्वल हो उठा। मुझे बाद में बताया गया कि इसके बाद आचार्य श्री समाधिमरण तक पूर्ण मौन में रहे और अन्य किसी से वार्ता नहीं की, यह उनकी अन्तिम वार्ता थी।
मेरे एवं मेरे परिवार का यह सौभाग्य है कि रत्नवंशीय चतुर्विध संघ-परम्परा के साथ पीढ़ियों से हमारा श्रद्धा, भक्ति एवं प्रेमपूर्ण संबंध रहा है जिसका उल्लेख आचार्य श्री स्वयं यदा-कदा करते रहते थे। मुझे वह प्रसंग स्मरण हो आया जब आचार्य श्री आलनपुर सवाईमाधोपुर चातुर्मास में विराज रहे थे। मैं जयपुर से रात्रि के समय वहाँ आचार्य श्री के दर्शनार्थ पहुँचा- अन्धेरा था। अत: वहाँ उपस्थित श्रावकों ने पूछा - आप कौन हैं? कहाँ से आये हैं? मैंने अपना नाम आदि बताया। आचार्य श्री ने इस पर सहज भाव से कहा- सरकार में ये क्या कार्य करते हैं, यह तो मुझे पता नहीं, पर कम से कम सात पीढ़ियों से - हमारे साधु संघ व इनके परिवार से सम्बन्ध रहे हैं। इस सम्बन्ध में आचार्य श्री ने एक घटना सुनाई जो उनके स्वयं के जीवन एवं वंश-परम्परा में व्याप्त फक्कड़पन तथा अनासक्त भाव को उजागर करती है।
आचार्य श्री ने कहा कि महान् क्रियोद्धारक आचार्य श्री रत्नचन्द्रजी म. (जिनके नाम पर रत्नवंश परम्परा चल रही है) जब कभी जोधपुर पधारते तो श्री जसरूपजी सा. मेहता (मेरे पूर्वज) उन्हें अपने घर लाडनूं की हवेली में अवश्य आते-जाते ठहराते थे। श्री जसरूपजी सा. अपने समय के प्रमुख श्रावक थे और जोधपुर राजघराने में उनका अत्यधिक प्रभाव था। उनके प्रभाव का एक दृष्टान्त यह है कि उन्होंने अपने कामदार श्री कालूराम पंचोली को राज्य का दीवान बना दिया। उस समय जोधपुर के नरेश महाराजा मानसिंह थे जिनका व्यक्तित्व विचित्र और विरोधाभासी था। एक ओर वे गहन आध्यात्मिक एवं ज्ञानी थे तो दूसरी ओर प्रशासन में कूटनीतिज्ञ तथा कठोर थे।
जसरूपजी सा. ने जोधपुर नरेश से निवेदन किया कि रत्नचन्दजी म.सा. उनकी हवेली में ठहरे हुए हैं। उनके | दर्शन करने वे पधारें। उनसे यह सुनकर कि रत्नचन्दजी म.सा. एक पहुँचे हुए सन्त हैं तो नरेश ने दूसरे दिन उनकी हवेली पर आने की स्वीकृति दे दी। यह घटना प्रधान चर्चा का विषय हो गयी, क्योंकि उन दिनों में नरेश का किसी