Book Title: Jain Shatak
Author(s): Bhudhardas Mahakavi, Virsagar Jain
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 20
________________ जैन शतक [इस द्वितीय छन्द (१०वें) में] यह सिद्ध कर रहे हैं कि उनके बहिरंग गुणों का वर्णन करने की भी सामर्थ्य किसी में नहीं है। २. भगवान के १००८ लक्षणों को जानने के लिए आचार्य जिनसेन कृत 'महापुराण' (सर्ग १५, श्लोक ३७ से ४४) देखें। वहाँ बताया गया है कि श्रीवृक्ष, शंख, कमल, स्वस्तिक, अंकुश, तोरण, चमर, सफेद छत्र, सिंहासन, पताका आदि १०८ लक्षण और मसूरिका आदि ९०० व्यंजन भगवान के शरीर में विद्यमान थे। ७. श्री सिद्ध स्तुति (मत्तगयंद सवैया) ध्यान-हुताशन मैं अरि-ईंधन, झोंक दियो रिपुरोक निवारी। शोक हरयो भविलोकन कौ वर, केवलज्ञान-मयूख उघारी॥ लोक-अलोक विलोक भये शिव, जन्म-जरा-मृत पंक पखारी। सिद्धन थोक बसैं शिवलोक, तिन्हैं पगधोक त्रिकाल हमारी॥११॥ जिन्होंने आत्मध्यानरूपी अग्नि में कर्मशत्रुरूपी ईंधन को झोंककर समस्त बाधाओं को दूर कर दिया है, भव्य जीवों का सर्व शोक नष्ट कर दिया है, केवलज्ञानरूपी उत्तम किरणें प्रकट कर ली हैं, सम्पूर्ण लोक-अलोक को देख लिया है, जो मुक्त हो गये हैं और जिन्होंने जन्म-जरा-मरण की कीचड़ को साफ कर दिया है ; उन मोक्षनिवासी अनन्त सिद्ध भगवन्तों को त्रिकाल - सदैव हमारी पाँवाढोक मालूम होवे। (मत्तगयंद सवैया) तीरथनाथ प्रनाम करें, तिनके गुनवर्णन मैं बुधि हारी। मोम गयौ गलि मूस मँझार, रह्यौ तहँ व्योम तदाकतिधारी॥ लोक गहीर-नदीपति-नीर, गये तिर तीर भये अविकारी। सिद्धन थोक बसैं शिवलोक, तिन्हैं पगधोक त्रिकाल हमारी॥१२॥ जिन्हें तीर्थंकरदेव प्रणाम करते हैं, जिनके गुणों का वर्णन करने में बुद्धिमानों की बुद्धि भी हार जाती है, जो मोम के साँचे में मोम के गल जाने पर बचे हुए तदाकार आकाश की भाँति अपने अंतिम शरीराकाररूप से स्थित हैं, जिन्होंने संसाररूपी महा समुद्र को तिरकर किनारा प्राप्त कर लिया है और जो विकारी भावों से रहित शुद्ध दशा को प्राप्त हुए हैं; उन अनन्त सिद्ध भगवन्तों को त्रिकाल – सदैव हमारी पाँवाढोक मालूम होवे।

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