Book Title: Jain Shatak
Author(s): Bhudhardas Mahakavi, Virsagar Jain
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 36
________________ जैन शतक २१. बुढ़ापा (मत्तगयंद सवैया) दृष्टि घटी पलटी तन की छबि, बंक भई गति लंक नई है। रूस रही परनी घरनी अति, रंक भयौ परियंक लई है ॥ काँपत नार बहै मुख लार, महामति संगति छाँरि गई है। अंग उपंग पुराने परे, तिशना उर और नवीन भई है ॥ ३८ ॥ ३५ कमर अहो ! यद्यपि वृद्धावस्था के कारण इस प्राणी की आँखों की रोशनी कमजोर हो गई है, शरीर की शोभा समाप्त हो गई है, चाल भी टेढ़ी हो गई है, भी झुक गई है, ब्याहता पत्नी भी इससे अप्रसन्न हो गई है, यह बिल्कुल अनाथ हो गया है, चारपाई पकड़ ली है, इसकी गर्दन काँपने लगी है, मुँह से लार बहने लगी है, बुद्धि इसका साथ छोड़कर चली गई है और अंग- उपांग भी पुराने पड़ गये हैं; तथापि हृदय में तृष्णा और अधिक नवीन हो गई है। ( कवित्त मनहर) रूप कौ न खोज रह्यौ तरु ज्यौं तुषार दह्यौ, भयौ पतझार किधौं रही डार सूनी-सी । कूबरी भई है कटि दूबरी भई है देह, ऊबरी इतेक आयु सेर माहिं पूनी-सी ॥ जोबन नैं विदा लीनी जरा नैं जुहार कीनी, हीनी भई सुधि - बुधि सबै बात ऊनीसी । तेज घट्यौ ताव घट्यौ जीतव को चाव घट्यो, और सब घट्यो एक तिस्ना दिन दूनी-सी ॥ ३९ ॥ वृद्धावस्था के कारण अब शरीर में सुन्दरता का नामोनिशान भी नहीं रहा है; शरीर ऐसा हो गया है मानों कोई वृक्ष बर्फ (पाला पहने) से जल गया हो अथवा मानों पतझड़ होकर कोई डाल सूनी हो गई हो; कमर में कूब निकल आई है, देह दुर्बल हो गई है, आयु इतनी अल्प रह गई है मानों एक किलो रूई में से एक पूनी, युवावस्था ने अब विदाई ले ली है और वृद्धावस्था ने आकर जुहार ( नमस्कार) कर ली है, सारी सुधि-बुधि कम हो गई है, सभी बातें उन्नीसी रह गई हैं, तेज भी घट गया है, ताव (उत्साह) भी घट गया है और जीने का चाव (अभिलाषा) भी घट गया है; सब कुछ घट गया है, किन्तु एक तृष्णा ही ऐसी है जो दिन-प्रतिदिन दूनी होती जा रही है । १. पाठान्तर : दई

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