Book Title: Jain Shatak
Author(s): Bhudhardas Mahakavi, Virsagar Jain
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 28
________________ नशतक (सोरठा) कानी कौड़ी काज, कोरिन को लिख देत खत। ऐसे मूरखराज, जगवासी जिय देखिये ॥२३॥ अहो ! इस जगत् में ऐसे-ऐसे मूर्खराज (अज्ञानी प्राणी) दिखाई देते हैं, जो कानी कौड़ी के लिए करोड़ों का कागज लिख देते हैं । अर्थात् क्षणिक विषयसुख के लोभ में अपने अमूल्य मनुष्य भव को बरबाद कर घोर दुःख देने वाले प्रबल कर्मों का बन्ध कर लेते हैं। (दोहा) कानी कौड़ी विषयसुख, भवदुख करज अपार। विना दियै नहिं छूटिहै, बेशक लेय उधार ॥२४॥ हे भाई ! ये विषय-सुख तो कानी कोड़ी के समान हैं परन्तु इन्हें प्राप्त करने पर संसार के अपार दु:खों का कर्ज सिर चढ़ता है जो कि पूरा-पूरा चुकाना ही पड़ता है, लेश मात्र भी बिना चुकाये नहीं रहता। ले-ले खूब उधार ! . १६. शिक्षा .. (छप्पय) दश दिन विषय-विनोद फेर बहु विपति परंपर। अशुचिगेह यह देह नेह जानत न आप जर। मित्र बन्धु सम्बन्धि और परिजन जे अंगी। अरे अंध सब धन्ध जान स्वारथ के संगी। परहित अकाज अपनी न कर, मूडराज! अब समझ उर। तजि लोकलाज निज काज कर, आज दाव है कहत गुर ॥२५॥ हे भाई ! विषयों का विनोद तो बस कुछ ही दिन का है, उसके बाद तो विपत्तियों पर विपत्तियाँ आने वाली हैं। विषय-विनोद का साधन यह शरीर तो अशचिगृह है, अचेतन है, जीव द्वारा किये गये स्नेह को समझता तक नहीं है। मित्रजन, बन्धु-बांधव, कुटुम्बी आदि समस्त रिश्ते-नातेदारों के भी सारे व्यवहार अज्ञानजन्य और दुःखदायी हैं। वे सब तो स्वार्थ के साथी हैं। .. अत: हे मूढराज ! तू दूसरों के लिए अपना नुकसान न कर। अब तो अपने हृदय में समझा गुरुवर कहते हैं कि आज तुझे अच्छा अवसर प्राप्त हुआ है, अतः लोकलाज का त्यागकर आत्मा का कल्याण कर ले। १. पाठान्तर : लेशक दाम उधार। २. पाठान्तर : पर। ३. पाठान्तर : बन्ध।

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