Book Title: Jain Shatak
Author(s): Bhudhardas Mahakavi, Virsagar Jain
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 27
________________ जैन शतक १५. संसार का स्वरूप और समय की बहुमूल्यता (कवित्त मनहर) काहू घर पुत्र जावी कार के वियोग आयौ, काहू राग-रंग काहू रोआ रोई करी है। जहाँ भान ऊगत उछाह गीत गान देखे, सांझ समै ताही धान हाय हाय परी है। ऐसी जगरीति को न देखि भयभीत होय, हा हा नर मूड ! तेरी मति कौने हरी है। मानुषजनम पाय सोवत विहाय जाय, खोवत करोरन की एक-एक घरी है॥२१॥ ... अहो! इस संसार की रीति बड़ी विचित्र और वैराग्योत्पादक है। यहाँ किसी के घर में पुत्र का जन्म होता है और किसी के घर में मरण होता है। किसी के राग-रंग होते हैं और किसी के रोया-रोई मची रहती है। यहाँ तक कि जिस स्थान पर प्रातःकाल उत्सव और नृत्य-गानादि दिखाई देते हैं,शाम को उसी स्थान पर 'हाय! हाय!' का करुण क्रन्दन मच जाता है। संसार के ऐसे स्वरूप को देखकर भी हे मूढ पुरुष ! तुम इससे डरते नहीं हो- विरक्त नहीं होते हो; पता नहीं, तुम्हारी बुद्धि किसने हर ली है? तथा जिसकी एक-एक घड़ी करोड़ों रुपयों से भी अधिक मूल्यवान है - ऐसे मनुष्य जन्म को पाकर भी तुम उसे प्रमाद और अज्ञान दशा में ही रहकर व्यर्थ खो रहे हो। (सोरठा) कर कर जिनगुन पाठ, जात अकारथ रे जिया। आठ पहर मैं साठ, परी घनेरे मोल की॥२२॥ हे जीव ! (अथवा हे मेरे मन !) तू जिनेन्द्र के गुणों का स्तवन कर, अन्यथा तेरी प्रतिदिन आठों पहर की साठ-साठ घड़ियाँ व्यर्थ ही समाप्त होती जा रही हैं, जो कि अत्यधिक मूल्यवान हैं। विशेष :-एक घड़ी = २४ मिनट। एक पहर = ३ घण्टे। एक घण्टा = ढाई पड़ी।

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