Book Title: Jain Shatak
Author(s): Bhudhardas Mahakavi, Virsagar Jain
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 34
________________ जैन शतक ३३ (कवित्त मनहर) देखो भरजोबन मैं पुत्र को वियोग आयौ, तैसें ही निहारी निज नारी कालमग मैं । जे जे पुन्यवान जीव दीसत हे या मही पै, रंक भये फिरैं तेऊ पनहीं न पग मैं ॥ एते पै अभाग धन-जीतब सौं धरै राग, होय न विराग जानै रहूँ गौं अलग मैं । आँखिन विलोकि अंध सूसे की अँधेरी करै, ऐसे राजरोग को इलाज कहा जग मैं ॥ ३५ ॥ अहो ! इस संसार में लोगों को भरी जवानी में पुत्र का वियोग हो जाता है और साथ ही अपनी पत्नी भी मृत्यु के मार्ग में देखनी पड़ती है । तथा जो कोई पुण्यवान जीव दिखाई देते थे, वे भी एक दिन इस पृथ्वी पर इस तरह रंक होकर भटकते फिरे कि उनके पाँवों में जूती तक नहीं रही । परन्तु अहो ! ऐसी स्थिति होने पर भी अज्ञानी प्राणी धन और जीवन से राग करता है, उनसे विरक्त नहीं होता । सोचता है कि मैं तो अलग (सुरक्षित) रहूँगा – मेरे साथ ऐसा कुछ भी नहीं घटित होने वाला है। अपनी आँखों से देखता हुआ भी वह उस खरगोश की तरह अन्धा (अज्ञानी) बन रहा है जो अपनी आँखें बन्द करके समझता है कि सब जगह अँधेरा हो गया है, मुझे कोई नहीं देख रहा है, मुझ पर अब कोई आपत्ति आने वाली नहीं है । अहो ! इस राजरोग का इलाज क्या है ? विशेष 'राजरोग' का अर्थ यहाँ महारोग भी है और आम रोग (सार्वजनिक बीमारी) भी । महारोग तो इसलिए क्योंकि यह सबसे बड़ा रोग है, अन्य ज्वर- कैंसरादि रोग तो शरीर में ही होते हैं, उपचार से ठीक भी हो जाते हैं और यदि ठीक न हों तो भी एक ही जन्म की हानि करते हैं, परन्तु उक्त महारोग तो आत्मा में होता है, किसी बाह्य उपचार से ठीक भी नहीं होता है और जन्मजन्मांतरों में जीव की महाहानि करता है। और यह आम रोग इसलिए है, क्योंकि प्रायः सभी सांसारिक प्राणियों में पाया जाता है । -: १. यहाँ ' दीसत हे या मही पै' के स्थान पर किसी-किसी प्रति में ' दीसत थे यान ही पै' – ऐसा पाठ भी मिलता है । उसे मानने पर अर्थ होगा - जो सदा वाहनों पर दिखाई देते थे।

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