Book Title: Jain Shatak
Author(s): Bhudhardas Mahakavi, Virsagar Jain
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 45
________________ ૪૪ जैन शतक ३०. वेश्यासेवन - निषेध (सवैया) धनकारन पापनि प्रीति करै, नहिं तोरत नेह जथा तिनकौ । लव चाखत नीचन के मुँह की, शुचिता सब जाय छियें जिनकी ॥ मद मांस बजारनि खाय सदा, अँधले विसनी न करें घिन कौं । गनिका सँग जे शठ लीन भये, धिक है धिक है धिक है तिनकाँ ॥ ५४ ॥ पापिनी वेश्या धन के लिए प्रेम करती है। यदि व्यक्ति के पास धन नहीं बचे तो सारा प्रेम ऐसे तोड़ फेंकती है जैसे तिनका । वेश्या अधम व्यक्तियों के होठों का चुम्बन करती है अथवा उनके मुँह से निःसृत लार आदि अपवित्र वस्तुओं का स्वाद लेती है। सम्पूर्ण शुचिता वेश्या के छूने से समाप्त हो जाती है । वेश्या सदा बाजारों में मांस-मदिरा खाती-पीती फिरती है। वेश्या - व्यसन घृणा वे ही नहीं करते, जो व्यसनों में अंधे हो रहे हैं । से जो मूर्ख वेश्या सेवन में लीन हैं, उन्हें बारम्बार धिक्कार है। ३१. आखेट - निषेध ( कवित्त मनहर ) कानन मैं बसै ऐसौ आन न गरीब जीव, प्रानन सौं प्यारौ प्रान पूँजी जिस यहै है । कायर सुभाव धरै काहूँ सौं न द्रोह करे, सबही सौं डरै दाँत लियें तृन रहै हैं ॥ काहू सौं न दोष पुनि काहू पै न पोष चहै, काहू के परोष परदोष नाहिं कहै है । नेकु स्वाद सारिवे कौं ऐसे मृग मारिवे कौं, हा हा रे कठोर तेरौ कैसै कर वहै है ॥ ५५ ॥ जो जंगल में रहता है, सबसे गरीब है, अपने प्राण ही जिसकी प्राणों से प्यारी पूँजी है, जो स्वभाव से ही कायर है, सभी से डरता रहता है, किसी से द्रोह नहीं . करता, बेचारा अपने दाँतों में तिनका लिये रहता है, किसी पर नाराज नहीं होता, किसी से अपने पालन-पोषण की अपेक्षा नहीं रखता, परोक्ष में किसी के दोष नहीं कहता फिरता अर्थात् पीठ पीछे परनिन्दा करने का दुर्गुण भी जिसमें नहीं है. ऐसे 'मृग' को अपने जरा से स्वाद के लिए मारने हेतु रे रे कठोर हृदय ! तेरा हाथ उठता कैसे है ?

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