Book Title: Jain Shatak
Author(s): Bhudhardas Mahakavi, Virsagar Jain
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 76
________________ जैन शतक निःसारता के सम्बन्ध में इन्होंने जो कुछ लिखा है वह बड़ा ही प्रभावपूर्ण है। इनके 'जैन शतक' का प्रत्येक छन्द याद कर लेने योग्य है। यह शतक सचमुच ही दुःखी मनुष्य को बड़ा ढाढस देनेवाला है। ..... इसमें कुल मिलाकर १०७ छन्द हैं और ये एक से एक बढ़कर हैं । भूधर की वाणी में तर्कपूर्ण ओज है और ..... कल्पनाएँ सुन्दर मनमोहक और हृदयस्पर्शी हैं।" १०. श्री बुद्धिप्रकाश जैन लिखते हैं - ___'जैन शतक' भी कवि भूधरदासजी की एक उत्कृष्ट रचना है जिसमें जीव की विभिन्न परिस्थितियों का गीतात्मक पदों में सुन्दर ढंग से वर्णन किया गया है। प्रत्येक पद अपने पीछे एक उपदेश देता हुआ हृदय को स्पर्श करने लगता है। हिन्दी-जैनसाहित्य को भूधर जैसे कवियों पर अत्यन्त गर्व है।" ११. श्री गुलाबचन्द छाबड़ा जैनदर्शनाचार्य लिखते हैं - __"आपके काव्य में रीतिकालीन काव्यों की छाप बिल्कुल नहीं है। आप भक्तिकालीन कवियों की श्रेणी में बैठते हैं। किन्तु भक्तकवियों से भी आपका स्तर ऊँचा दृष्टिगोचर होता है। कारण यह है कि आप भक्त होने के साथ-साथ वैरागी भी हैं। आपको वैराग्य की भावनाएँ न केवल भक्त ही सिद्ध करती हैं, बल्कि आध्यात्मिक पुरुष भी सिद्ध करती हैं। आपकी भावनाओं का सच्चा ज्ञान आपके पदों में मिलता है। आपके अनेकों आध्यात्मिक पद आपको भक्तिकालीन और रीतिकालीन कवियों से निराला सिद्ध करते हैं। कविवर भूधर की रचनाओं को जब हम आद्योपान्त पढ़ते हैं तो उनमें हमें लोकरंजन तथा मनोरंजन नहीं दिखाई पड़ता, अपितु आत्मरंजन दिखाई पड़ता है।" १२. पण्डित परमानन्द शास्त्री लिखते हैं - "हिन्दी-भाषा के जैन-कवियों में पण्डित भूधरदासजी का नाम भी उल्लेखनीय है। .... कविवर की आत्मा जैनधर्म के रहस्य से केवल परिचित ही नहीं थी, किन्तु उसका सरस रस उनके आत्मप्रदेशों में भिद चुका था जो उनकी परिणति को बदलने तथा सरल बनाने में एक अद्वितीय कारण था। उन्हें कविता करने का अच्छा अभ्यास था। ..... अध्यात्मरस की चर्चा करते हुए कविवर आत्मरस में विभोर हो उठते थे।२" ९. वीरवाणी (पाक्षिक), जयपुर, ३ अक्टूबर, १९४७, पृष्ठ १७१ एवं १७३ १०. वीरवाणी (पाक्षिक), जयपुर, १८ अगस्त, १९६०, पृष्ठ ३०२ ११. वीरवाणी (पाक्षिक), जयपुर, ३ नवम्बर, १९६३, पृष्ठ ४३ १२. अनेकान्त (मासिक), दिल्ली, मार्च १९५४, पृष्ठ ३०५

Loading...

Page Navigation
1 ... 74 75 76 77 78 79 80 81 82