Book Title: Jain Shatak
Author(s): Bhudhardas Mahakavi, Virsagar Jain
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 48
________________ जैन शतक हैं (दुर्मिल सवैया) 1 दिढ़ शील शिरोमन कारज मैं जग मैं जस आरज तेइ लहैं । तिनके जुग लोचन वारिज हैं, इहि भाँति अचारज आप कहैं ॥ परकामिनी कौ मुखचन्द चितैं, मुँद जांहि सदा यह टेव धनि जीवन है तिन जीवन कौ, धनि माय उनैं उर मांय' गहैं । वहैं ॥ ॥ ५९ ॥ जो व्यक्ति शीलरूपी सर्वोत्तम कार्य में दृढ़तापूर्वक लगे हैं, वे ही आर्य पुरुष श्रेष्ठ पुरुष हैं, वे ही जगत् में यश प्राप्त करते हैं । - ४७ आचार्य कहते हैं कि ऐसे ही व्यक्तियों की आँखें वास्तव में कमल की उपमा देने लायक हैं, क्योंकि वे आँखें परस्त्री के मुखरूपी चन्द्रमा को देखकर सदा मुँद जाने की आदत ग्रहण किये हुए हैं । धन्य है ऐसे व्यक्तियों का जीवन तथा धन्य हैं उनकी मातायें जो ऐसे आर्यपुरुषों को अपने गर्भ में धारण करती हैं । ३५. कुशील - निन्दा (मत्तगयन्द सवैया) जे परनारि निहारि निलज्ज, हँसें विगसैं बुधिहान बड़े रे । जूँठन की जिमि पातर पेखि खुशी उर कूकर होत घनेरे ॥ जिनकी यह टेव वहै, तिनकौं इस भौ अपकीरति है रे । ह्वै परलोक विषै दृढ़दण्ड', करै शतखण्ड सुखाचल केरे ॥ ६०॥ जो निर्लज्ज व्यक्ति परस्त्री को देखकर हँसते हैं, खिलते हैं प्रसन्न होते हैं, वे बड़े बुद्धिहीन (बेवकूफ) हैं। परस्त्री को देखकर उनका प्रसन्न होना ऐसा है, मानों झूठन की पत्तल देखकर कोई कुत्ता अपने मन में बहुत प्रसन्न हो रहा हो । १. पाठान्तर : माँझ । २. पाठान्तर : बिजुरी सु । जिन व्यक्तियों की ऐसी ( परस्त्री को देखकर निर्लज्जतापूर्वक हँसने और प्रसन्न होने की ) खोटी आदत पड़ गई है, उनकी इस भंव में बदनामी होती है, और परभव में भी कठोर दण्ड मिलता है, जो उनके सुखरूपी पर्वत के टुकड़ेटुकड़े कर डालता है अर्थात् समस्त सुख-शांति का विनाश कर देता है । -

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