Book Title: Jain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Author(s): Shreepalchandra Yati
Publisher: Pandurang Jawaji
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तृतीय अध्याय । क्योंकि विकारवाले पदार्थ गर्भ को बहुत बाधा पहुंचाते हैं, इस लिये उन का त्याग करना चाहिये। ५-पांचवें महीने में हाथ पांव और मुख आदि पांचों इन्द्रियां तैयार हो जाती हैं,
मांस और रुधिर की भी विशेषता होती है, इस लिये गर्भवती का शरीर उस दशा में बहुत दुर्बल हो जाता है, अतः उस समय में स्त्री को घी और दूध के
साथ अन्न देते रहना चाहिये। ६-छठे महीने में पित्त और रक्त (लोह) बनने का आरम्भ होता है तथा बालक
के शरीर में बल और वर्ण का सझार होता है, इस लिये गर्भवती के शरीर का बल और वर्ण कम हो जाता है, अतः उस समय में भी उस को घी और दूध
का आहार ऊपर लिखे अनुसार देते रहना चाहिये। ७-सातवें महीने में छोटी बड़ी नसें तथा साढ़े तीन कोटि (करोड़) रोम भी बनते हैं और बालक के सब अंग अच्छे प्रकार से मालूम पड़ने लगते हैं तथा उस का शरीर पुष्ट हो जाता है परन्तु ऐसा होने से गर्भिणी दुर्बल होती जाती है, इस लिये इस समय में भी गर्भिणी को ऊपर लिखे अनुसार ही आहार देते रहना चाहिये। ८-आठवें महीने में बालक का सम्पूर्ण शरीर तैयार हो जाता है, ओज धातु स्थिर होता है, माता जो कुछ खाती पीती है उस आहार का रस गर्भ के साथ सम्बन्ध रखनेवाली नाड़ी के द्वारा पहुँच कर गर्भ को ताकद मिलती रहती है, अंधेरी कोठरी में पड़े हुए मनुष्य के समान प्रायः उस को तकलीफ ही उठानी पड़ती है, इस महीने में गर्भ के साथ सम्बन्ध रखनेवाली उक्त नाड़ी के द्वारा माता तो गर्भ का और गर्भ माता का ओज वारंवार ग्रहण करता है अर्थात् परस्पर में ओज का सञ्चार होता है इसलिये गर्भिणी किसी समय तो हर्षयुक्त तथा किसी समय खेदयुक्त रहा करती है तथा ओज की स्थिरता न रहने के कारण इस मास में गर्भ स्त्री को बहुत ही पीड़ायुक्त करता है, इस लिये इस समय में गर्भवती को भात के साथ में घी तथा दूध मिला कर
खाना चाहिये, किन्तु इस में (खुराक में) कभी चूकना नहीं चाहिये। ९ वा १०-नवें तथा दशवें महीने में गर्भाशय में स्थित बालक उदर (पेट) में
ही ओज के सहित स्थिर होकर ठहरता है, इस लिये पुष्टि के लिये घी और
१-क्योंकि गर्भिणी के ही रस आदि धातुओं से गर्भस्थ बालक पुष्टि को पाता है ॥ २-यह वही नाड़ी है जो कि माता की नाभि के नीचे बालक की नाड़ी से लगी रहती है, जिस को नाल भी कहते हैं तथा जो बालक के पैदा होनेके पीछे उस की नाभि पर लगी रहती है । ३-इसी लिये आठवें महीने में उत्पन्न हुआ बालक प्रायः नहीं जीता है, क्योंकि ओज धातु के विना जीवन कदापि नहीं हो सकता है, क्योंकि जीवन का आधार ओज ही है-इस विषय का विशेष वर्णन वैद्यक ग्रन्थों में देखो।
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