Book Title: Jain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Author(s): Shreepalchandra Yati
Publisher: Pandurang Jawaji
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चतुर्थ अध्याय ।
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वैद्यक शास्त्रों में इस (प्रातः काल के ) समय में नाके से जल पीने के लिये आज्ञा दी है, क्योंकि नाक से जल पीने से बुद्धि तथा दृष्टि की वृद्धि होती है तथा पीनस आदि रोग जाते रहते हैं ।
शौच अर्थात् मलमूत्र का त्याग ।
प्रातःकाल जागकर आधे मील की दूरीपर मैदान में मल का त्याग करने के लिये जाना चाहिये, देखो ! किसी अनुभवी ने कहा है कि- "ओढे सोवै ताजा खावै, पाव कोस मैदान में जावै । तिस घर वैद्य कभी नहिं आवै" इस लिये मैदान में जाकर निर्जीव साफ ज़मीनपर मस्तक को ढांक कर मल का त्याग करना चाहिये, दूसरे के किये हुए मलमूत्र पर मल मूत्र का त्याग नहीं करना चाहिये, क्योंकि ऐसा करने से दाद खाज और सुज़ाख आदि रोगों के हो जाने का सम्भव है, मलमूत्र का त्याग करते समय बोलना नहीं चाहिये, क्योंकि इस समय बोलने से दुर्गन्धि मुख में प्रविष्ट होकर रोगों का कारण होती है तथा दूसरी तरफ ध्यान होने से मलादि की शुद्धि भी ठीक रीतिसे नहीं होती है, मलमूत्र का त्याग बहुत बल करके नहीं करना चाहिये ।
मल का त्याग करने के पश्चात् गुदा और लिंग आदि अंगों को जल से खूब धोकर साफ करना चाहिये ।
जो वनुष्य सूर्योदय के पीछे ( दिन चढ़ने पर ) पाखाने जाते हैं उन की बुद्धि मलिन और मस्तक न्यून बलवाला हो जाती है तथा शरीर में भी नाना प्रकार के रोग हो जाते हैं ।
बहुत से मूर्ख मनुष्य आलस्य आदि में फँस कर मल मूत्र आदि के वेग को रोक लेते हैं, यह बड़ी हानिकारक बात है, क्योंकिक- इस से मूत्रकृच्छ्र, शिरोरोग
१- इस की यह विधि है कि - ऊपर लिखे अनुसार जागृत होकर तथा परमेष्ठी का ध्यान कर आठ अञ्जलि, अर्थात् आध सेर पानी नाक से नित्य पीना चाहिये, यदि नाक से न पिया जासके तं मुँह से ही पीना चाहिये, फिर आध घण्टे तक वांये कर बट से लेट जाना चाहिये परन्तु निद्रा नहीं लेनी चाहिये, फिर मल मूत्र के त्याग के लिये जाना चाहिये, इस ( जलपान ) का गुण वैद्यक शास्त्रों में बहुत ही अच्छा लिखा है अर्थात् इस के सेवन से आयु बढ़ता है तथा हरस, शोथ, दस्त, जीर्णज्वर, पेट का रोग, कोढ़, मेद, मूत्र का रोग, रक्तविकार, पित्तविकार तथा कान आंख गले और शिर का रोग मिटता है, पानी यद्यपि सामान्य पदार्थ है अर्थात् सब ही की प्रकृति के लिये अनुकूल है, परन्तु जो लोग समय विताकर अर्थात् देरी कर उठते हैं उन लोगों के लिये तथा रात्रि में खानपान के त्यागी पुरुषों के लिये एवं कफ और वायु के रोगों में सन्निपात में तथा ज्वर में प्रातःकाल में जलपान नहीं करना चाहिये, रात्रि में जो खान पान के त्यागी पुरुष हैं उन को यह भी स्मरण रखना चाहिये कि जो लाभ रात्रि में खानपान के त्याग में है उस लाभका हजार वां भाग भी प्रातःकाल के जलपान में नहीं है, इसलिये जो रात के खान पान के त्यागी नहीं है उन को उषापान ( प्रातःकाल में जलपीना ) कर्तव्य है ॥ २- सूर्य का उदय हो जाने से पेट में गर्मी समाकर मल शुष्क हो जाता हैं उसके शुष्क होनेसे मगज़ में खुश्की और गर्नी पहुँचती है, इसलिये मस्तक न्यून बलवाला होजाता है ॥
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