Book Title: Jain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Author(s): Shreepalchandra Yati
Publisher: Pandurang Jawaji
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चतुर्थ अध्याय ।
- उद्यम
इस विषय में यद्यपि अन्य आचार्यों में से बहुतों का मत यह है किकी अपेक्षा कर्मगति अर्थात् देव प्रधान है परन्तु इस के विरुद्ध चिकित्साशास्त्र और उन ( चिकित्साशास्त्र ) के निर्माता आचार्यों की तो यही सम्मति है किमनुष्य उद्यम ही प्रधान है, यदि उद्यम को प्रधान न मानकर कर्मगति को प्रधान पाना जावे तो चिकित्साशास्त्र अनावश्यक हो जायगा, अतएव शरीरसंरक्षणविय चिकित्साशास्त्र के सिद्धान्त के अनुसार उद्यम को प्रधान मान कर शरीर रक्षण के नियमों पर ध्यान देना मनुष्यमात्र का परम कर्त्तव्य और प्रधान पुरुषार्थ है, अब समझने की केवल यह बात है कि - यह उद्यम भी पूर्व लिखे अनुसार दो ही भागों में विभक्त है - अर्थात् रोग को समीप में आने न देना और आये हुए को हटा देना, इन दोनों में से पूर्व भाग का वर्णन इस अध्याय में कुछ विस्तारावक तथा उत्तर भाग का वर्णन संक्षेप से किया जायगा ।
स्वास्थ्य वा आरोग्यता ।
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द्य शरीर का नीरोग होना वा रहना पूर्व कृत कर्मों पर भी निर्भर है- अर्थात् जिस ने पूर्व जन्म में जीवदया का परिपालन किया है तथा भूखे प्यासे और दीन हीन प्राणीका जिसने सब प्रकार से पोषण किया है वह प्राणी नीरोग शरीरवाला, दीर्घायु तथा उद्यम वल और बुद्धि आदि सर्व साधनोंसे युक्त होता है - तथापि fararara की सम्मति के अनुसार मनुष्य को केवल कर्मगति पर ही नहीं रहना चाहिये - किन्तु पूर्ण उद्योग कर शरीर की नीरोगता प्राप्त करनी चाहिये, क्योंकि जो पूर्ण उद्योग कर नीरोगता को प्राप्त नहीं करता है उसका जीवन संसार में व्यर्थ ही है, देखो । जगत् में जो सात सुख माने गये हैं उन में से मुख्य और सबसे पहिला सुख नीरोगता ही है, क्योंकि यही ( नीरोगता का सुख ) अन्य प ६ सुखों का मूल कारण है, न केवल इतना ही किन्तु आरोग्यता ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का भी मूल कारण है, जैसा कि शास्त्रकारोंने कहा भी है कि - "धर्मार्थकाममोक्षाणामारोग्यं मूलकारणम्" इसी प्रकार लोकोकि भी है क "काय राखे धर्म" अर्थात् धर्म तब ही रह सकता वा किया जा सकता है जब कि शरीर नीरोग हो, क्योंकि शरीर की आरोग्यता के विना मनुष्य को ससारिक सुखों के स्वप्न में भी दर्शन नहीं होते हैं, फिर भला उस को पारमार्थिक सुख क्योंकर प्राप्त हो सकता है! देखो ! आरोग्यता ही से मनुष्य का
१- " आरोग्यता" यह शब्द यद्यपि संस्कृत भाषा के नियम से अशुद्ध है अर्थात् 'अरोगता' वा 'आय' शब्द ठीक है, परन्तु वर्त्तमान में इस 'आरोग्यता' शब्द का अधिक प्रचार हो रहा है, इसी लिये हमने भी इसी का प्रयोग किया है ।। २-पहिलो सुक्ख निरोगी काया । दूजो सुब घर में हो माया || तीजो सुख सुधान वासा । चौथो सुख राजमें पासा ॥ पाँचवीं सुख कुवन्ती नारी । छट्टो सुख सृत आज्ञाकारी ॥ : सातमो सुख धर्म में मती । शास्त्र सुकृत गुरु पडित यती ॥ १ ॥
१३ जै० सं०
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