Book Title: Jain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Author(s): Shreepalchandra Yati
Publisher: Pandurang Jawaji
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चतुर्थ अध्याय ।
२०५ घटानेवाले, शरीर के रंग खून तथा कान्ति को घटानेवाले, बुद्धि का क्षय करनेवाले. बालों को श्वेत करनेवाले, तथा स्मरणशक्ति और गति को कम करनेवाले हैं, इसी लिये वैद्यकशास्त्रों का सिद्धान्त है कि सब शाकों में रोग का निर्वास है, और रोग ही शरीर का नाश करता है, इस लिये विवेकी लोगों को उचित है कि - प्रतिदिन खुराक में शाक का भक्षण न केरें, जो २ दोष खट्टे पदार्थों में कह चुके हैं प्रायः उन्हीं के समान सब दोष शाकों में भी हैं, यह तो सामान्यतया शास्त्र का अभिप्राय कहा गया है परन्तु पाश्चात्य विद्वानों ने तो यह निश्चय किया है कि- ताजे फल और शाक तरकारी बिलकुल न खाने से स्कर्वी अर्थात रक्तपित्त का रोग हो जाता है ।
यह रोग पहिले फौज़ में, जेलों में, जहाजों में तथा दूसरे लोगों में भी बहुत बढ़ गया था, सुना जाता है कि आसन नामक एक अंग्रेज ने ९०० आदमियों को साथ लेकर जहाज़ पर सवार होकर सब पृथिवी की प्रदक्षिणा का प्रारम्भ किया था, उस यात्रा में ९०० आदमियों में से ६०७ आदमी इसी स्कर्वी के रोग से इस संसार से विदा होगये तथा शेष बचे हुए ३०० में से भी आधे ( १५० ) उसी रोग से ग्रस्त होगये थे, इस का कारण यही था कि वनस्पति की खुराक का उपयोग उन में नहीं था, इस के पश्चात् केप्टिन कुके ने पृथ्वी की प्रदक्षिणा का प्रारम्भ कर उसी में तीन वर्ष व्यतीत किये, उन के साथ ( ११८) आदमी थे परन्तु उन में से एक भी स्कर्वी के रोग से नहीं मरा, क्योंकि केप्टिन को मालूम था कि खुराक में वनस्पति का उपयोग करने से तथा नींबू का रस खाने से यह रोग नहीं होता है, आखिरकार धीरे २ यह बात कई विद्वानों को मालूम होगई और इसके मालूम हो जाने से यह नियम कर दिया गया कि जितने जहाज़ यात्रा के लिये निकलें उन में मनुष्यों की संख्या के परिमाण से नींबू का रस साथ रखना चाहिये और उस का सेवन प्रतिदिन करना चाहिये, तब से लेकर यही नियम सर्कारी फौज़ तथा जेलखानों के लिये भी कर के द्वारा कर दिया गया अर्थात् उन लोगों को भी महीने में एक दो वार वनस्पति की खुराक दी जाती है, ऐसा होने से इस स्कवीं ( रक्तपित्त ) रोग से जो हानि होती थी वह बहुत कम हो गई है ।
ऊपर के लेख को पढ़ कर पाठकों को यह नहीं समझ लेना चाहिये कि - इस ( रक्तपित्त ) रोग के कारण को डाक्टरों ने ही खोज कर बतलाया है, क्योंकि- पूर्व समय के जैन श्रावक लोग भी इस बात को अच्छी तरह से जानते
१ - जैसा लिखा है कि- “सर्वेषु शाकेषु वसन्ति रोगाः” इत्यादि ॥ २- परन्तु मेरी सम्मति में उत्तम फलादि का बिलकुल त्याग भी नहीं कर देना चाहिये || १८ जै० सं०
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