Book Title: Jain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Author(s): Shreepalchandra Yati
Publisher: Pandurang Jawaji
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जैनसम्प्रदायशिक्षा |
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स्मरण रहे कि स्त्री की इच्छा के विना स्त्रीगमन करने में और हाथ से वीर्यपात करने में बिलकुल फर्क नहीं है, इस लिये हाथ के द्वारा वीर्यपात की क्रिया को भी भूलकर भी नहीं करना चाहिये, इच्छा के बिना संयोग होने से काम की शान्ति नहीं होती है किन्तु उलटी काम की वृद्धि ही होती है और ऐसा होने से यह बड़ी हानि होती है कि स्त्री का रज जिस समय पक्क होना चाहिये उस की अपेक्षा शीघ्र
अर्धपक्क ( अधपका ) होकर गर्भाशय में प्रविष्ट हो जाता है और वहां पुरुष के वीर्य के प्रविष्ट होने से कच्चा गर्भ बँध जाता है ।
६- पवित्रता - विहार के विषय में पवित्रता अथवा शारीरिक शुद्धि का विचार रखना भी बहुत ही आवश्यक बात है, क्योंकि स्त्री पुरुषों के गुप्त अंगोंकी व्याधि प्रायः स्थानिक अपवित्रता और मलिनता से ही उत्पन्न होती है, इतना ही नहीं किन्तु यह स्थानिक मलिनता इन्द्रियों को विकारी ( विकार से युक्त ) बनाती है, परन्तु बड़े ही सन्ताप कि बात है कि इस प्रकार की बातों की तरफ लोगों का बहुत ही कम ध्यान देखा जाता है, इसी का जो कुछ परिणाम हो रहा है वह प्रत्यक्ष ही दीख रहा है कि-चांदी, सुजाख और गर्मी आदि अनेक दुष्ट और मलिन व्याधियों से शायद कोई ही भाग्यवान् जोड़ा बचा हुआ देखा जाता है, कहिये यह कुछ कम खेद की बात है ?
शरीर के अवयवों पर मैल जम कर चमड़ी को चञ्चल कर देता है और अज्ञान मनुष्य इस चञ्चलता का खोटा खयाल और खोटा उपयोग करने को उस्कराते हैं, इस लिये स्त्री पुरुषों को अपने शरीर के अवयवों को निरन्तर पवित्र और शुद्ध रखने के लिये सदा यत्न करना चाहिये, यद्यपि ऊपरी विचार से यह बात साधारण सी प्रतीत होती है परन्तु परिणाम का विचार करने से यह बड़े महत्त्व की बात समझी जा सकती है, क्योंकि पवित्रता शारीरिक धर्म का एक मुख्य सद्गुण "गुड क्वालिटी" है, इसी लिये बहुत से धर्मवालों ने पवित्रता को अपने २ धर्म में मिला कर कठिन नियमों को नियत किया है, इस का गम्भीर वा मुख्य हेतु इस के सिवाय दूसरा कोई भी नहीं हो सकता है कि पवित्रता ही सब सद्गुणों और सद्धर्मों का मूल है I
७- एकपत्नीव्रत - अपनी विवाहिता पत्नी के साथ ही सम्बन्ध रखने को एकपत्रीत कहते हैं, विचार कर देखा जावे तो यह ( एकपत्नीव्रत ) भी ब्रह्मचर्य का एक मुख्य अंग और गृहस्थाश्रम का प्रधान भूषण है, जो पुरुष एकपत्नीव्रत का पालन करते हैं वे निस्सन्देह ब्रह्मचारी हैं और जो स्त्रियां एकपतिव्रत का पालन करती हैं वे निस्सन्देह ब्रह्मचारिणी हैं, स्त्री के लिये एक ही पुरुष का और पुरुष के लिये एक ही स्त्री का होना जगत् में सब से बड़ी नीति है और इसी पर शारीरिक और व्यावहारिक आदि सर्व प्रकार की उन्नति निर्भर है ।
१ - इस निकृष्ट व्यापार के द्वारा अनेक हानियां होती हैं जिन का कुछ वर्णन आगे पन्द्रहवें प्रकरण में सुजाख रोग के वर्णन में किया जावेगा ॥
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