Book Title: Jain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Author(s): Shreepalchandra Yati
Publisher: Pandurang Jawaji

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Page 662
________________ ६४८ जैनसम्प्रदायशिक्षा। ग्राम में रहते थे, इसी से इन को सब लोग ढेलड़िया बोहरा कहने लगे थे, इन में सोनपाल नामक एक बोहरा बड़ा आदमी था, उस को दैववश सर्प ने काट खाया था तथा एक जती ( यति) ने उसे अच्छा किया था इसी लिये उस ने दयामूल जैन धर्म का ग्रहण किया था, उस के बहुत काल के पीछे उस ने शत्रुञ्जय की यात्रा करने के लिये अपने खर्च से संघ निकाला था तथा यात्रा में ही उस के पुत्र उत्पन्न हुआ था, संघ ने मिल कर उसे संघवी (संघपति) का पद दिया था अतः उस की औलादवाले लोग सिंगी कहलाये, क्योंकि ऐसा प्रतीत होता है कि-संघवी का अपभ्रंस सिंगी हो गया है, इन (सिंगियों) के भी-महेवावत, गढावत, भीमराजोत और मूलचन्दोत आदि कई फिरके हैं। ओसवाल जाति का गौरव । प्रिय पाठकगण! इस जाति के विषय में आप से विशेष क्या कहें ! यह वही जाति है जो कि-कुछ समय पूर्व अपने धर्म, विद्या, एकता और परस्पर प्रीतिभाव आदि सद्गुणों के बल से उन्नति के शिखर पर विराजमान थी, इस जाति का विशेष प्रशंसनीय गुण यह था कि-जैसे यह धर्मकार्यों में कटिवद्ध थी वैसे ही सांसारिक धनोपार्जन आदि कार्यों में भी कटिवद्ध थी, तात्पर्य यह है कि-जिस प्रकार यह पारमार्थिक कामों में संलग्न थी उसी प्रकार लौकिक कार्यों में भी कुछ कम न थी अर्थात् अपने-'अहिंसा परमो धर्मः, रूप सदुपदेश के अनुसार यह सत्यतापूर्वक व्यापार कर अगणित द्रव्य को प्राप्त करती थी और अपनी सत्यता के कारण ही इस ने 'शाह, इन दो अक्षरों १-"ढेलड़िया" अर्थात् ढेलडी के निवासी ॥ २-गुजरात और कच्छ आदि देशों में संघवी गोत्र अन्य प्रकार से भी अनेकविध ( कई तरह का) माना जाता है ॥ ३-ये सिंगी (संघवी) जोधपुर आदि मारवाड वाले समझने चाहियें ॥ ४-प्रीति के तीन भेद हैं-भक्ति, आदर और स्नेह, इन में से भक्ति उसे कहते हैं किं-जो पुरुष अपनी अपेक्षा पद में श्रेष्ठ हो, सद्गुणों के द्वारा मान्य हो और विद्या तथा जाति में बडा हो, उस की सेवा करनी चाहिये तथा उस पर श्रद्धाभाव रखना चाहिये, क्योंकि वही भक्ति का पात्र है, सत्य पूछो तो यह गुण सब गुणों से उत्कृष्ट है, क्योंकि-यही सब गुणों की प्राप्ति का मूल कारण है अर्थात् इस के होने से ही मनुष्य को सब गुण प्राप्त हो सकते हैं, इस की गति ऊर्ध्वगामिनी है, प्रीति का दूसरा भेद आदर है-आदर उसे कहते हैं कि-जो पुरुष अवस्था, द्रव्य, विद्या और जाति आदि गुणों में अपने समान हो उस के साथ योग्य प्रतिष्ठापूर्वक वर्ताव करना चाहिये, इस (आदर ) की गति समतलवाहिनी है तथा प्रीति का तीसरा भेद स्नेह है-स्नेह उसे कहते हैं कि-जो पुरुष अवस्था, द्रव्य, विद्या और बुद्धि के सम्बन्ध में अपने से छोटा हो उस के हित को विचार कर उस की वृद्धि का उपाय करना चाहिये, इस (लेह) का प्रवाह जलस्रोत के समान अधोगामी है, बस प्रीति के ये ही तीनों प्रकार हैं, क्योंकि उक्त तीनों बातों के शान के विना वास्तव में प्रीति नहीं हो सकती है-इस लिये इन तीनों मेदों के स्वरूप को जान कर यथायोग्य इन के वर्ताव का ध्यान रखना आवश्यक है ।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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