Book Title: Jain Lakshanavali Part 2
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 16
________________ करुणरस] ३१८, जैन-लक्षणावली [कर्ता (कारक) णाणि उवसंताणि, काणि वि करणाणि अणुवसंताणि, जो वचन कानों में प्रवेश करते ही दूसरों के लिए तेणेसा देसकरणोवसमणा ति भण्णदे। (जयध. क. अप्रीतिकर होता है उसे कर्कशवचन कहते हैं। पा. टि. २, पृ. ७०७); सबेसि करणाणमुवसामणा कर्ण-ध्यात्वा हृद्यष्टपत्राब्जं श्रोत्रे हस्ताग्रपीडिते । सव्वकरणोवसामणा । (जयध.- क. पा. टि. १, न येताग्निनिर्घोषो यदि स्व: पंच वासरान् ॥ दश पृ. ७०८)। ३. तत्र करणं क्रिया यथाप्रवृत्तापूर्वा वा पंचदश वा विशति पंचविंशतिम् । तदा पंचनिवृत्तिकरणसाध्यः क्रियाविशेषः, तेन कृता करण- चतुस्त्रि-द्वयेकवर्षेमरणं भवेत् ॥ (योगशा. ५-१२५, कृता । (कर्मप्र. उपश. १, मलय. वृ.) । १२६)। ३ यथाप्रवृत्त, अपूर्व और अनिवृत्ति करणों के द्वारा हृदय में अष्टदल कमल का ध्यान कर दोनों कानों सिद्ध किये जाने वाले क्रियाविशेष से जो उपशमना को हाथों से दबाने पर यदि अग्नि का तड़तड़ादि-रूप की जाती है उसे करणोपशामना कहते हैं। शब्द पांच, दश, पन्द्रह, बीस, अथवा पच्चीस दिन न करुणरस-१. पिअविप्पयोग-बंध-वह-वाहि [बंध- सुना जाय तो क्रम से पांच, चार, तीन, दो और व-बह-वाहि] विणिवाय-संभमुप्पण्णो। सोइअ-विल- एक वर्ष में मरण होने वाला है, ऐसा जानना चाहिए। विप्र-पम्हाणरुण्णलिंगी रसो करुणो ।। करुणो रसो यह कर्ण का लक्षण है। जहा.- पज्झायकिलामिअयं बाहागयपप्पुअच्छिदं कर्णसंस्कार-१. ह्रस्वयोलम्बतापादनम्, दीर्घबहुसो । तस्स विओगे पुत्तिय दुब्बलयं ते मुहं जायं। योर्वा ह्रस्वकरणग, तन्मलनिरासोऽलंकारग्रहणं कर्ण(अनुयो. गा.७८-७९, पृ. १३६)। २. प्रियविप्र- संस्कारः । (भ. प्रा. विजयो. ६३)। २. ह्रस्वीयोग-बांधवव्याधिनिपातसंभ्रमोत्पन्न: सोचित-विल- करण-लम्बीकरण-मलापकर्षणाभरणादिक: कर्णसंपित-अम्लानरुदितलिंगो रस: करुणः । (अनुयो. हरि. स्कारः। (भ. प्रा. मला. ६३)।। वृ. पृ. ७०)। छोटे कानों को लम्बा करना, लम्बे कानों को छोटा १ इष्ट के वियोग, बन्धन, वध, व्याधि, मरण और करना, उनका मैल निकालना और कुण्डल अदि परचक्र आदि की भीति से उत्पन्न होने वाला करुण- पाभरण पहिनना; इत्यादि प्रकार से कानों का रस कहलाता है। उसके चिह्न हैं शोक, विलाप, शृंगार करने को कर्णसंस्कार कहते हैं। म्लानता और रुदन। कर्ता-सुहमसुहं करेदि त्ति कत्ता। (धव. पु. १, करणा--देखो कारुण्य । xxx परदुःखविना- प. ११६); शुभमशुभं करोतीति कर्ता। (धव. पु. शिनी तथा करुणा । (षोडशक ४-१५)। ६, पृ. २२०)। दूसरे जीवों के दुःखों के दूर करने की इच्छा को शुभ या अशुभ परिणाम करने वाले जीव को कर्ता करुणा कहते हैं। कहते हैं। कर्कशनाम-१. जस्स कम्मस्स उदएण सरीरपो- कर्ता ( कर्ता (कारक)-१. एदेसु य उवयोगो तिविहो ग्गलाणं कक्खडभावो होदि तं कक्खडं णाम । (धव. सूद्धो णिरंजणो भावो । जं सो करेदि भाव उवयोगो पु. ६, पृ. ७५)। २. यस्य कर्मस्कन्धस्योदयेन शरीर- तस्स सो कत्ता ।। जं कुणदि भावमादा कत्ता सो पुदगलानां कर्कशभावो भवति तत्कर्कशनाम । (मला. होदि तस्स भावस्स । कम्मत्तं परिणमदे तम्हि सयं बु. १२-१९४)। ३. यदुदयाज्जन्तुशरीरेषु कर्कशः पुग्गलं दव्वं ।। जं कुणदि भावमादा कत्ता सो होदि स्पों भवति, यथा पाषाणविशेषादीनाम्, तत्कर्कश- तस्स भावस्स । णाणिस्स दु णाणमनो अण्णाणमयो नाम । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. २३-२६३, पृ. ४७३)। अणाणिस्स ।। (समयप्रा. ६७-६८ व १३६)। २. १ जिस कम के उदय से शरीरपुद्गलों में कर्कशता स्वतंत्रः कर्ता । (जैनेन्द्र. १२, ११२)। ३. यः (कठोरता) उत्पन्न होती है उसे कर्कश नामकर्म परिणमति स कर्ताxxx॥ (नाटकस ३-६)। कहते हैं। जीव जो भाव करता है उसका वह कर्ता होता कर्कशववचन-कर्णशष्कुलिविवराभ्यर्णगोचरमात्रेण है, अथवा जो परिणमन करता है वह कर्ता होता परेषामप्रीतिजननं हि कर्कशवचः। (नि. सा. व. है। जो क्रिया के करने में स्वतंत्र होता है वह कर्ता ६२)। कहलाता है। मिथ्यादर्शन, अज्ञान और प्रविरति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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