Book Title: Jain Lakshanavali Part 2
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 15
________________ कर(हस्त)] ३१७, जैन-लक्षणावली [करणोपसामना निराकुलम् ।। XXX नलिनं कमलाङ्गं च तथा- (न्यायकु. १-३, पृ. ३६)। ३.xxx साधकन्यत् कमलं विदुः । (म. पु. ३, २१६-२४; लो. विशेषस्यातिशयवतः करणत्वात् । तदुक्तं जैनेन्द्रवि. ५, १२८-३३)। ४. चतुरशीतिमहापद्मशत- साधकतमं करणमिति । (न्यायदी. पृ. १३) । सहस्राण्येक कमलाङ्गम् । (ज्योतिष्क. मलय, वृ. १ अतिशय साधक कारक को करण कहते हैं। २-६७)। करणसत्य-करणसत्यं यत्प्रतिलेखनाक्रियां यथो१ चौरासी से गुणित नलिन प्रमाण एक कमलाङ्ग । क्तां सम्यगुपयुक्त: कुरुते ।। (समवा. अभय. वृ. होता है। ४ चौरासी लाख महापद्मों का एक २७, पृ. ४६)। कमलांग होता है। प्रागमानुसार सम्यक् उपयोग के साथ प्रतिलेखन कर (हस्त)- करश्चतुर्विशत्यंगुल: । (समवा. क्रिया के करने को करणसत्य कहते हैं । अभय. वृ. ६६, पृ. ६८)। करणानयोग-१. लोकालोकविभक्तेर्यगपरिवत्तेचौबीस अंगुलों को एक कर या हस्त कहते हैं। श्चतुर्गतीनां च । प्रादर्शमिव तथामतिरवैति करणाकर (वन्दनादोष)-करः-कर इव राजदेयभाग नुयोगं च ।। (रत्नक. २-३)। २. द्वितीयः करइव-अर्हत्प्रणीतो वन्दनककरोऽवश्यं दातव्य इति णादि: स्यादनुयोगः स यत्र वै। त्रैलोक्यक्षेत्रसंख्यानं धिया वन्दनम् । (योगशा. स्वो. विव. ३-१३०)। कुलपत्रेऽधिरोपितम् ।। (म. पु. २-९६)। ३. अधोजैसे राजा को भूमि प्रादि का कर (टैक्स) देना मध्योर्ध्वलोकेषु चतुर्गतिविचारणम् । शास्त्रं करणप्रावश्यक होता है, उसी प्रकार जिनदेव का कहा मित्याहुरनुयोगपरीक्षणम् ॥ (उपासका. ६१७) हुमा वन्दना रूप धार्मिक कर देना चाहिए, ऐसी ४. त्रिलोकसारे जिनान्तरलोकविभागादिग्रन्थव्याख्याबुद्धि से जो वन्दना की जाती है वह कर नामक नं करणानुयोगो विज्ञेयः । (बृ. द्रव्यसं. टी. ४२)। दोष से दूषित होती है। यह वन्दना के ३२ दोषों ५. चतुर्गतियुगावर्तलोकालोकविभागवित् । हृदि प्र. में एक (२४वां) है। णेयःकरणानुयोगः करणातिगैः ।।(अन.ध.३, १०)। करण (परिणाम)--१. कम्मबंधादिपरिणामण- १लोक-प्रलोक के विभाग, युगों के परिवर्तन और समत्थो जीवस्स सत्तिविसेसो करणमिति वच्चति । चारों गतियों के स्वरूप को स्पष्ट दिखलाने वाले (कर्मप्र.चु. १, पृ. २)। २.xxx भण्णइ ज्ञान को करणानुयोग कहते हैं। करणं तु परिणामो। (धर्मसं. हरि. ७९४)। ३. करणापर्याप्तक-ये पुनः करणानि शरीरेन्द्रियाकरणा: परिणामाः। (धव. पु. १, प. १८०); कधं दीनि न तावन्निवर्तयन्ति, अथ चावश्यं पुरस्तान्निपरिणामाणं करणसण्णा ? ण एस दोपो, असि- वर्तयिष्यन्ति ते करणापर्याप्तकाः। (षडशीति मलय, वासीणं व साहयतमभावविवक्खाए परिणामाणं वृ. ३)। करणत्तुवलंभादो। (धव. पु. ६, पृ. २१७) । ४. जिन जीवों के करणों की-शरीर व इन्द्रियादिक करणं नाम सम्यक्त्वाद्यनुगुणो विशुद्धिरूपः परिणाम- की-अभी रचना नहीं हुई है, किन्तु आगे नियम से विशेषः । (प्राव. नि. मलय. व. १०६, पृ. ११३)। होने वाली है उन्हें करणापर्याप्तक या निवृत्त्यपर्या५. करणानि वीर्यविशेषरूपाणि । (पंचसं. मलय. प्तक कहते हैं। वृ. १, पृ. १)। ६. करणं पुनर्भण्यते तीर्थकरगण- करणोपशामना-देखो प्रकरणोपशामना। १. जा धरैः, परिणामो-जीवस्याध्यवसायविशेषः । तदु- सा करणोवसामणा सा दूविहा-देसकरणोवक्तम्-करणं परिणामो ऽत्र सत्त्वानामिति । (धर्म- सामणा त्ति वि सव्वकरणोवसामणा त्ति वि । सं. मलय. व. ७६४)। देसकरणोवसामणाए दुवे णामाणि देसकरणोव१ जीव की जो विशिष्ट शक्ति कर्मबन्धादि के परि- सामणा त्ति वि अप्पसत्थउवसामणा त्ति वि।xx णमाने में समर्थ होती है उसे करण कहा जाता है। x जा सा सव्वकरणोवसामणा तिस्से वि दुवे ३ जीव के परिणामविशेष को करण कहते हैं। णामाणि सव्वकरणोवसामणा त्ति वि पसत्थकरणोवकरण (कारक)-१. साधकतमं करणः । (जैनेन्द्र. सामणा त्ति वि । (क. पा. प. ७०७-८)। २. दंसण१, २, १३८)। २. करणं तु साधकतमत्वम् । मोहणीये उवसमिते उदयादिकरणेसु काणि वि कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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