Book Title: Jain Digvijay Pataka
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 26
________________ ४ श्रीजैनदिग्विजय पताका (सत्यासत्यनिर्णय) । के पीछे सूर्य की मानों विडंबना करता है, अपनी शोभा से ऐसा मामंडल शोभता है (३) साढे पचवीस योजन क्षेत्र में चारों दिशि में उपद्रव ज्वरादि रोगोंकी निवृत्ति होतीहै (४) परस्पर विरोध नहींहोता (५) सात धान्यादि उपद्रवकारीमुपकादि नहीं होते (६) अतिवृष्टि हानिकारक नहींहोती(७) अनाथष्टि वर्षातका प्रभाव नहीं होता (८) दुर्भिक्ष (काल) नहीं गिरे (ह) स्खचक परचक्र का भय नहीं होय पुनः ग्यारे अतिशय ज्ञानावरणीय आदि चार घनघाती कर्मों के क्षय होने से उत्पन्न होते हैं। (१) आकाश में धर्म प्रकाशक चक्र होता है (२) आकाश गत चामर (३) आकाश में पाद पीठ युक्त स्फटिकमय सिंहासन होता है (४) आकाश में तीन छत्र (५) श्राकाश में रत्नमय ध्वज (६)जत्र भगवान् चलते हैं तब पग के नीचे सुवर्ण नव कमल देव रचते हैं (७) समवसरण में रत्न, सुवर्ण और रूपेमयी तीन गढ (कोट) मनोहर देव रचते हैं (८) समवसरण में चारों दिशि में प्रभु के चार मुख दीखते हैं (६) स्वर्ण रत्नमय अशोक वृक्ष की छाया सर्वदा प्रभु पर देव करते हैं (१०) कांटे अधोमुख होजाते हैं (११).वृक्ष ऐसे नम जाते हैं मानो नमस्कार करते हैं (१२) उच्च नाद से दुंदुमि भुवन व्यापक निनाद करती है (१३) पवन सुखदाई चलती है (१४) पक्षी प्रदक्षिणा देते उड़ते हैं (१५) सुगंध जल का छिड़काव होता है (१६) गोडे प्रमाण जल थल के उत्पन्न पंच वर्ण सरस सुगन्धित फूलों की वर्षा होती है (१७) भगवान् के डाढी मूंछ के बाल, नख शोभनीक अवस्थित रहते हैं (१८) चार निकाय के देवता कम से कम एक कोटि प्रभु की सेवा में सर्वदा रहते हैं (१६) पद ऋतु अनुकूल शुभ स्पर्श, रस, गंध, रूप और शब्द ये पांच बुरे तो लुस - होजाते हैं और अच्छे प्रकट होजाते हैं। ये उगणीस अतिशय देवता करते हैं। वाचनांतर मतान्तर से कोई २ अतिशय अन्य प्रकार से भी मानते हैं एवं १. तत्वार्थ सूत्र के टीकाकार समंत भद्राचार्य ने लिखा है कि हे जगदीश्वर! देव रचित जो १९ अतिशयादि बाब विभूति इंद्र जाल विद्यावाला भी दिखा सकता है लेकिन जो तुझ में १८ दूषण के क्षय होने से आत्मगुण अनंत प्रकटे है वे

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