Book Title: Jain Digvijay Pataka
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 67
________________ प्राचीन वेद के बिगड़ने का इतिहास! ४३ - लगा, तब अनेक सजा इस महिमा से वसु की भाशा मानने लगे, सत्य . हो या असत्य परंतु लोकों में जो प्रसिद्धि हो जाती है वह वसु राजा की। तरह जयपद हो जाती है । तत्वगवेषी थोड़े ही बुद्धिमान् मिलते हैं। , , नारद कहता है, हे महाराजा रावण में एक दिन शुक्तमति नगरी गया। गुरु के गृह गया, वो पागे पर्वत छात्रों को वेद पढ़ा रहा है, उस में एक ऐसी अति आई, अजैर्यष्टव्यमिति, अब यह श्रुति अग्वेद में विद्यमान है, इस का मर्थ पर्वत ने ऐसा करा, अज (बकरा) से यज्ञ करना, तब मैंने पर्वत को कहा, हे प्राता, यह व्याख्या तूं क्या प्रान्ति से करता है, गुरु खीरकदंब ने तो इस श्रुति का अर्थ इस मुजव कराया था, (न जायंत इत्यजा) जो बोने से नहीं उत्पन्न होय ऐसे तीन वर्ष के पुराने जौ से हवन करना। ये अर्थ तुमको हमको और वसु को सिखाया था, सो तूं कैसे भूल गया? वैने करा सो अर्थ गुरुजी ने कभी भी नहीं करा था, तब पर्वत बोला, हे नारद, तूं भूल गया, गुरुजी ने मैंने करा वोही अर्थ करा था, क्योंकि निघड में भी मजा नाम बकरे का ही लिखा है, तब मैंने कहा, शब्दों का अर्थ दो तरह से होता है, एक तो मुख्यार्थ, दूसरा गौणार्थ, इस श्रुति का गुरुजी ने गौणार्थ करा था, हे भ्राता, एक तो गुरु वाक्य, धर्मोपदेष्टा के और दूसरा श्रुति का अर्थ दोनों को अन्यथा करके तूं महापाप उपार्जन प्रवकर, तब पर्वत ने कहा, गुरु वाक्यार्थ, श्रुत्यर्थ, दोनों तूं विराधता है। मैं तो यथार्थ ही अर्थ कर्ता हूंअपना सहाध्याई राजा वसु हैं। इस को मध्यस्थ करो, जो झूठा होय उस की जिवा छेद डालना, तब मैंने इस प्रतिज्ञा को मंतव्य करी, क्योंकि साच को पांच क्या, मैं दूसरों से मिलने गया, भव पीछे से पर्वत की मा ने पुत्र को कहा, हे पर्वत, नारद सच्चा है, मैंने केह वक्त तेरे पिता के मुंह से इस श्रुति का नारदोक्त ही अर्थ सुणा था, तूं झूठा कदाग्रह मत कर, नारद को बुलाकर घर ही में अपने विस्मृति की क्षमा मांगले, तब पर्वत ने कहा हे माताजी, जो मैं प्रतिज्ञा कर चुका, उस से मैं किसी तरह भी हट नहीं सकता, तब पेट की ज्वाला दुर्निवार्य, अपने पुत्र के दुःख से दुःखखी पर्वत की माता, बसु राजा के पास पहुंची।

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