Book Title: Jain Digvijay Pataka
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 51
________________ बैनधर्म की प्राचीनता का इतिहास ।. २७ यह जिन-सहस्त्रनाम है, साढी आठसे वर्ष हुए रामानुज स्वामी से वैष्णव मत प्रगटा,तब उस जिन सहसूनाम की प्रतिच्छाया विष्णुसहस्रनाम रचा गया, विक्रम सम्बत् १५३५ में वलभाचार्यजी से गोपालसहस्र नाम रचा गया । तदनंतर वह कर्म एक वर्ष पीछे क्षय होने से वैशाख सुदि तीज को हस्तिनापुर में आये वहां श्री ऋषभदेवजी का पड़ पोता जाति स्मरण ज्ञान के पल से प्रभु को भिक्षा वास्ते पर्यटन करते देख के महल से नीचे उतरा, प्रभु के पीछे हजारों लोक, कोई हाथी, कोई घोडा, कोई कन्या, साल, दुशासा, रत्न, मणि, सोना इत्यादि भेट कर रहे हैं, स्वामी तो विष्ठा, वो पदार्थ इच्छते नहीं, क्योंकि उस समय के लोकों ने आहारार्थी, मिक्षाचर, कोई भी देखा नहीं था, तब श्रेयांस कुमार ने सौ इन्तु, रस के मरे घड़ों से पारणा कराया तब सब लोक श्रेयांस कुमार को पूछने लगे तुमने भगवान् को आहारार्थी कैसे जाना, तब श्रेयांस ने अपने और अपभदेवजी के पूर्व पाठ भवों का संबंध कहा, उहां साधुओं को दान दिया था इस बास्ते पाहारार्थी भगवान को जाना तब से सब लोक ने साधुनों को आहार दान की विधि सीखी, तदनंतर प्रमु एक हजार वर्ष तक देशों में छमस्थपणे विचरते रहे। उस समय में कच्छ और महाकच्छ के बेटे नमि, विनमी ने आकर प्रभु की बहुत भक्ति सेवा करी, तव धरणेंद्र ने प्रभु का रूप रच कर अडतालीस हजार सिद्ध विद्या उनों को देकर वैताढय गिरि की दक्षिण और उचर यह दोनों श्रेणिका राज्य दिया। विद्या से मनुष्यों को लाकर बसाया, वह तिन्वत प्रसिद्ध है इन ही विद्याधरों के वंश में रावण, कुंभकर्ण तथा बाली, सुप्रीवादि और पवन, हनुमानादि, इन्द्र आदि असंख्य विद्याधर राजा होगये, इनों में से रावणादि ३ प्रातापाताल लंका में जन्मे थे, केइयक इसको अमेरिका अनुमान करते हैं, नीची बहुत होने से श्रीकृष्ण भी द्रौपदी साने को अमरकका रथ से समुद्र में देवतादत्त स्थल मार्ग से ४-५ मास में पहुंचे का जैन शास्त्रों में उल्लेख है परंतु उस अमरकंका को, घात की : खंडनामा दूसरे द्वीप की एक राजधानी लिखी है, बहुश्रुति के वाक्य इस में 1 प्रमाण हैं तत्व केवली गम्य है। अब श्री ऋपमदेवजी छमस्थपणे विहार करते बाहुबलि की तच्च

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