Book Title: Jain Digvijay Pataka
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 77
________________ ग्रामण लोग क्रम २ से जैनधर्म त्यांगते गये। ५३ कई एक ग्रन्थ बनाये क्योंकि सूना घर देख के कुत्ता भी आटा खाजाता है। शनैः २ नदी देव, पहाड देव, घृक्ष देव, ब्रह्मा देव, रुद्र देव, इंद्र देव, विष्णु देव, गणेश देव, शालग देव इत्यादि अनेक पाखंडों की स्थापना करते चले उन सबों में अपनी स्वार्थ सिद्धि का वीज बोते रहे और भी जो वाममार्ग होली प्रमुख जितने कुमार्ग प्रचलित हुए हैं वे सब इन्हों ही ने चलाया है मानों आदीश्वर भगवान की प्रचलित की हुई अमृत रूप सृष्टि के प्रवाह में जहर डालने वाले हुये क्योंकि आगे तो जैन धर्म और कपिल मत के विना और कोई भी मत नहीं था। कपिल के मतावलम्बी भी श्री आदीश्वर ऋषभदेवजी को ही देव मानते रहे। यह असंयतियों की पूजा होनी इस हुंडा अवसर्पिणी में जैन धर्म के शास्त्रों में १० आश्चर्यों में आश्चर्य माना है। तिस पीछे भहिलपुर नगर के इक्ष्वाकु वंशी दृढरथ राजा की नंदा नामा राणी उन्हों का पुत्र श्री शीतलनाथ नाम का दमवां तीर्थकर हुआ इन्हों के समय हरिवंश कुल की उत्पत्ति हुई वह वृत्तांत लिखते हैं कोशांनी नगरी में बीरा नाम का. कोली रहताथा । उसकी प्रतिरूपवती वनमाला नामा स्त्री थी, उसको उस नगर के नृप ने अपने अंतेउर में डाल ली। बीरा कोली उस स्त्री के विरह में प्रथिल हो हा! वनमाला, हा! वनमाला, ऐसा उच्चारण कर्त्ता नगर में घूमने लगा, एकदा वर्षाकाल में राजा बनमाला के साथ अपने गौख में बैठा था। दोनों ने ऐसी अवस्था चीरे की देख बडा पश्चाचाप किया और विचारने लगे, हमने बहुत निकृष्ट कृत्य किया, इतने में अकस्मात् दोनों पर विद्यत्पात हुआ। राजा और वनमाला शुम ध्यान से मरके हरिवास क्षेत्र में युगलपणे उत्पन्न भये। बीरा कोली दोनों को मरा सुन के अच्छा होकर तापस बन अज्ञान तपकर किल्विष देवता मर के हुआ। अवधि ज्ञान से उन दोनों को युगलिये पणे में देख विचार करने लगा, ये दोनों भद्रक परिणामी अन्यारंभी है, इस वास्ते भर के देवता होवेंगे तो फिर मैं अपना वैर किस तरह लूंगा ऐसा करूं कि जिस से ये मर के नर्क जावें । अब उन दोनों को वहां से उठाया उस

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