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ज्ञानार्णवः ।
आगे जो लोग विषयोंमें सुख ढूंढते हैं, वे क्या करते हैं सो कहते हैं, - वह्निं विशति शीतार्थ जीवितार्थ पिवेद्वियम् । विषयेष्वपि यः सौख्यमन्वेषयति मुग्धधीः ॥ २६ ॥
अर्थ- जो मूढघी पञ्चेन्द्रियोंके विषय सेवनेमें सुख ढुंढते हैं, वे मानों शीतलताके - लिये अग्निमें प्रवेश करते हैं और दीर्घ जीवनके लिये विष पान करते हैं । उन्हें इस विपतबुद्धिसे सुखकें स्थान दुःख ही होगा ॥ २६ ॥
२१
कृते येषां त्वया कर्म कृतं श्वभ्रादिसाधकम् ।
त्वामेव यान्ति ते पापा वञ्चयित्वा यथायथम् ॥ २७ ॥
अर्थ – हे आत्मन् ! जिन कुटुंबादिककेलिये तूने नरकादिकके दुःख देनेवाले पापकर्म किये, वे पापी तुझे अवश्य ही धोखा देकर अपनी २ गतिको चले जाते हैं । उनकेलिये जो तूने पापकर्म किये थे, उनके फल तुझे अकेले ही भोगने पड़ते हैं, वा भोगने पड़ेंगे ॥ २७ ॥
आगे इस जीवको करनेयोग्य कार्यका उपदेश देते हैं, -
अनेन शरीरेण यलोकमयशुद्धिदम् ।
विवेच्य तदनुष्ठेयं हेयं कर्म ततोऽन्यथा ॥ २८ ॥
अर्थ - इस प्राणीको चाहिये कि, इस मनुष्य देहसे उभय लोकमं शुद्धताको देनेवाले कार्यका विचारकरके अनुष्ठान करे और उससे भिन्न अन्य सब कार्य छोड दे । यह सामान्यतया उपदेश है ॥ २८ ॥
आगे कहते हैं कि, जो जीव उक्त प्रकारसे नहिं करते, वे क्या करते हैं,वर्द्धयन्ति स्वघाताय ते नूनं विषपादपम् ।
नरत्वेऽपि न कुर्वन्ति ये विवेच्यात्मनो हितम् ॥ २९ ॥
अर्थ – जिसमें समस्त प्रकारके विचार करनेकी सामर्थ्य है, तथा जिसका पाना दुर्लभ है ऐसे मनुष्य जन्मको पाकर भी जो अपना हित नहीं करते, वे अपने घात करनेकेलिये विपवृक्षको बढाते हैं । भावार्थ- पापकार्य विपके वृक्षसमान हैं, इस कारण इसका फल भी मारनेवाला है ॥ २९ ॥
आगे प्राणी किसी कुलमें आकर कैसे जन्म लेते हैं, सो दृष्टान्तपूर्वक वर्णन करके दिखाते हैं,
यद्देशान्तरादेत्य वसन्ति विहगा नगे ।
तथा जन्मान्तरान्मूढ प्राणिनः कुलपादपे ॥ ३० ॥
अर्थ — जैसे पक्षी नानादेशोंसे आ आकर सन्ध्याके समय वृक्षोंपर वसते हैं, तैसे ही