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ज्ञानार्णवः। अर्थ--बुद्धिके वल वस्तुसमूहको लोपनेवाले (नास्तिक), सत्यार्थज्ञानसे शून्य चित्तवाले तथा अपने विषयादिकके प्रयोजनमें उद्यमी ऐसे प्राणी तो घरघरमें विद्यमान हैं; परन्तु आनन्दरूप अमृतके समुद्रके कणसमूहसे संसाररूप ज्वरके दाहको (अमिको) बुझाकर मुक्तिरूपी स्त्रीके मुखरूपी चन्द्रमाके विलोकन करनेमें जो तत्पर हैं, वे दि हैं तो दो तीन ही नहीं, २४
यैः सुप्तं हिमशैलशृङ्गसुभगप्रासादगर्भान्तरे
पल्यङ्के परमोपधानरचिते दिव्याङ्गनाभिः सह । तैरेवाद्य निरस्तविश्वविषयैरन्तःस्फुरज्योतिषि
क्षोणीरन्ध्रशिलादिकोटरगतैईन्यैर्निशा नीयते ॥ २५ ॥ अर्थ-जिन्होंने पूर्वावस्थामें हिमालयके शिखरसमान सुंदर महलोंमें उत्कृष्ट उपधान हंसतूलिकादिसे रची हुई शय्याम सुंदर स्त्रियोंके साथ शयन किया था, वही, समस्त संसारके विषयोंके निरस्त करनेवाले पुण्यशाली पुरुष अन्तरंगमें ज्ञानज्योतिके स्फुरण होनेसे पृथ्वीमें तथा पर्वतोंकी गुफाओंमें एवम् शिलाओंपर अथवा वृक्षके कोटरोंमें प्राप्त होकर रात्रि बिताते हैं. उन्हें धन्य है ॥ २५ ॥
चित्ते निश्चलतां गते प्रशमिते रागाद्यविद्यामये
विद्राणेऽक्षकदम्बके विघटिते ध्वान्ते भ्रमारम्भके । आनन्दे प्रविजृम्भिते पुरपतेाने समुन्मीलिते
त्वां दृश्यन्ति कदा वनस्थमभितः पुस्तेच्छया श्वापदाः ॥ २६ ॥ अर्थ-हे आत्मन् ! तेरे मनमें निश्चलता होते हुए, रागादि अविद्यारूप रोगोंमें उपशमता होते हुए, इन्द्रियों के समूहको विषयोंमें नही प्रवर्तते हुए, अमोत्पादन करनेवाले अज्ञानांधकारके नष्ट होते हुए, और आनंदको विस्तारते हुए आत्मज्ञानके प्रगट होनेपर ऐसा कौनसा दिन होगा जब तुझे वनमें चारों ओरसे मृगादि पशु चित्रलिखित मूर्ति अथवा सूखे हुए वृक्षके ढूंठके समान देखेंगे । जिस समय तू ऐसी निश्चलमूर्तिमें ध्यानस्थ होगा, उसी समय धन्य होगा ॥ २६ ॥ ।
स्वग्धरा।
आत्मन्यात्मप्रचारे कृतसकलबहिः सङ्गसन्यासवीर्या
दन्तज्योति प्रकाशादिलयगतमहामोहनिद्रातिरेकः । निर्णीते स्वस्वरूपे स्फुरति जगदिदं यस्य शून्यं जडं वा ।
तस्य श्रीवोधवाधैर्दिशतु तव शिवं पादपङ्केरहश्रीः ॥२७॥ १ यहां दो तीनका अर्थ विरलवचन जानना. संख्याका कुछ नियम नहीं है।
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