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. रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् चरणज्ञानयोजि यमप्रशमजीवितम् ।
तपाश्रुताद्यधिष्ठानं सद्भिः सद्दर्शनं मतम् ॥ १४ ॥ अर्थ-इस सम्यग्दर्शनको सत्पुरुषोंकोनिवारित्र और ज्ञानका बीज अर्थात् उत्पन्न करनेका कारण माना है । क्योंकि इसके विना सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र होताही नहीं, तथा यम ( महाव्रतादि) और प्रशम (विशुद्धभाव) का यह जीवनस्वरूप है । इस सम्यग्दर्शनके विना यम व प्रशम निर्जीवके समान हैं । इसी प्रकार तप और स्वाध्यायका आश्रय है । इसके विना ये निराश्रय हैं । इस प्रकार जितने शमदमवोधनततपादि कहे हैं उनको यह सफल करता है। इनके विना वे मोक्षफलके दाता नहीं हो सकते हैं ॥ ५४ ॥
अप्येक दर्शनं श्लाघ्यं चरणज्ञानविच्युतम् ।
न पुनः संयमज्ञाने मिथ्यात्वविषदूपिते ॥५५॥ अर्थ-यह सम्यग्दर्शन चारित्रज्ञानके होनेपर भी प्रशंसनीय कहलाता है. और इसके विना संयम ( चारित्र ) और ज्ञान मिथ्यात्वरूपी विपसे दूपित होते हैं. अर्थात् सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिके विना ज्ञान मिथ्याज्ञान और चारित्र कुचारित्र कहाता है ॥ ५५ ॥
अत्यल्पमपि सूत्र दृष्टिपूर्व यमादिकम् ।
प्रणीतं भवसम्भूतक्लेशमारभारभेषजम् ॥ ५६ ॥ अर्थ-सम्यग्दर्शनसहित यम नियम तपादिक थोड़े भी हों, तो उन्हे सूत्रके ज्ञाता आचार्योंमें संसारसे उत्पन्न हुए क्लेशदुःखोंके बड़े भारको भी औषधिके समान कहा है। भावार्थ-सम्यग्दर्शनके होते हुए व्रतादिक अल्प होवें, तो भी वे संसारजनित दुःखरूपी रोगोंको नष्ट करने के लिये औपधके समान हैं ॥ ५६ ॥
मन्ये मुक्तः स पुण्यात्मा विशुद्धं यस्य दर्शनम् ।
यतस्तदेव मुक्त्यङ्गमग्रिमं परिकीर्तितम् ॥ ५७ ॥ अर्थ-आचार्य महाराज कहते हैं कि, जिसको निर्मल अतीचाररहित सम्यग्दर्शन है वही पुण्यात्मा वा महाभाग्य मुक्त है ऐसा मैं मानता हूं। क्योंकि सम्यग्दर्शनही मोक्षका मुख्य अंग कहा गया है । मोक्षमार्गके प्रकरणमें सम्यग्दर्शनही मुख्य कहा गया है ॥५७॥
प्रामुवन्ति शिवं शश्वचरणज्ञानविश्रुताः ।
अपि जीवा जगत्यस्मिन्न पुनदर्शनं विना ॥ ५८॥ अर्थ-इस जगतमें जो जीव चारित्र और ज्ञानके कारण सदा जगतमें प्रसिद्ध हैं, वे भी सम्यग्दर्शनके विना मोक्षको नहीं पाते ॥ ५८ ॥