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ज्ञानार्णवः । क्षपत्यन्तहीनं चिरतरचित कर्मपटलम् । ततो ज्ञानाम्भोधि विशति परमानन्दनिलयम् ॥१॥ अर्थ-पवित्र आचरणवाला सुकृतीपुरुष प्रथम अनशनादि बाटतपांका आचरण करता है, तत्पश्चात् आत्माधीन आभ्यन्तर तपांको आचरता है । और उनमें भी नियतविपयवाले ध्याननामा उत्कृष्टतपको आचरता है । इस तपसे चिरकालसे संचित किये हुए कर्मरूपी पटलको (घातियाकांको) क्षय करता है, और पश्चात् परमानंदके (अतीन्द्रियसुखके ) घर ज्ञानरूपी समुद्रमें प्रवेश करता है । भावार्थ-सम्यग्दृष्टिीव दोनो प्रकारके तपोंसे, विशेषतया ध्याननामक उत्कृष्टतपसे घातिया कर्मोको नष्ट करके केवलज्ञानादि अनन्तचतुष्टयको प्राप्त होते हैं । इस प्रकार निर्जराभावनाका व्याख्यान किया है ॥ ९ ॥ __इसका संक्षिप्त आशय यह है कि, आत्मा और कर्मका सम्बन्ध अनादिकालसे है । काललब्धिके निमित्तसे यह आत्मा अपने खरूपको जब सम्हारे और तपश्चरण करके ध्यानमें लीन हो, तब संवररूप हो । और जब यह आगामी नये कर्म नहिं वांधे और पुराने कर्मोंकी निर्जरा करे, तब मोक्षको प्राप्त हो ॥९॥
दोहा। संवरमय है आतमा, पूर्वकर्म झड़ जाय । निजस्वरूपको पायकर, लोकशिखर जब थाय ॥ ९ ॥
इति निर्जराभावना ॥१॥
अथ धर्मभावना लिख्यते ।
अब धर्मभावनाका व्याख्यान करते हैं,
पवित्रीक्रियते येन येनैवोद्भियते जगत् ।
नमस्तस्यै दयाद्रीय धर्मकल्पाधिपाय वै ॥१॥ • अर्थ-जिस धर्मसे जगत् पवित्र किया जाता है, तथा उद्धार किया जाता है, और जो दयारूपी रससे आदित (गीला ) और हरा है; उस धर्मरूपी कल्पवृक्षकेलिये मेरा नमस्कार है । इस प्रकार आचार्यमहाराजने धर्मका माहात्म्य कथनपूर्वक नमस्कार किया है ॥१॥
दशलक्ष्मयुतः सोऽयं जिनधर्मः प्रकीर्तितः। यस्यांशमपि संसेव्य विन्दन्ति यमिनः शिवम् ॥ २॥ अर्थ-वह धर्म जिसके अंशमात्रको भी सेवनकरके.संयमीमुनि मुक्तिको प्राम होत हैं, उसे जिनेन्द्रभगवान्ने दशलक्षणयुक्त कहा है ॥ २ ॥