________________
रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् वस्तुतत्त्वापरिज्ञानात्किं ध्येयं क च भावना।
ध्यानाभ्यासस्ततस्तेषां प्रयासायैव केवलम् ॥ २२ ॥ अर्थ-उक्त मिथ्यादृष्ट अन्यमतावलम्बियोंके यथार्थखरूपके ज्ञानके अभावसे ध्येय कहां और भावना कहां? इसकारण उनको ध्यानका कहना केवल प्रयासमात्र ही हैं अर्थात् निष्फल खेद करना है ॥ २२ ॥
उक्तंच ग्रन्थान्तरे।
"शतमाशीतं प्रथितं क्रियाविदां वादिनां प्रचण्डानाम् । चतुरधिकाशीतिरपि प्रसिद्धमहसां विपक्षाणाम् ॥१॥ षष्टिविज्ञानविदां सप्तसमेता प्रसिद्धबोधानाम् ।
द्वात्रिंशद्वैनयिका भवन्ति सर्वे प्रवादविदः ॥२॥" (युग्मम्) अर्थ-"प्रचंड क्रियावादियोंके तो विस्ताररूप एकसो अस्सी भेद हैं और उनके विपक्षी प्रसिद्ध अक्रियावादियोंके चौरासीभेद हैं ॥१॥ तथा प्रसिद्ध है.ज्ञानवाद जिनका ऐसे ज्ञानवादियोंके सड़सठ भेद हैं और विनयवादियोंके बत्तीस भेद हैं । इस प्रकार तीनसौ त्रेसठ प्रकारके मत आदिनाथखामीके समयमें ही थे और अब तो इनके भेद प्रभेद अनगिनती हो गये और होते जाते हैं । इन मतोंका विशेष वर्णन गोमठसार ग्रंथसे जानना" ॥२॥
ज्ञानादेवेष्टसिद्धिः स्यात्ततोऽन्यः शास्त्रविस्तरः।
मुक्तरुक्तमतो बीजं विज्ञानं ज्ञानवादिभिः ॥ २३ ॥ अर्थ-ज्ञानवादियोंका मत तो ऐसा है कि एकमात्र ज्ञानसेही इष्टसिद्धि होती है। इससे अन्य जो कुछ है सो सब शास्त्रका विस्तारमात्र है। इस कारण मुक्तिका बीजभूत विज्ञान ही है ॥ २३ ॥
कैश्चिच्च कीर्तिता मुक्तिदर्शनादेव केवलम् ।
वादिनां खलु सर्वेषामपाकृत्य नयान्तरम् ॥ २४॥ अर्थ-और कई वादियोंने अन्यसमस्तवादियोंके अन्य नयपक्षोंका निराकरण करके केवल दर्शन ( श्रद्धा ) से ही मुक्ती होनी कही है.॥ २४ ॥ , अथान्यैर्वृत्तमेवैकं मुक्त्यङ्गं परिकीर्तितम् ।
अपास्य दर्शनज्ञाने तत्कार्यविफलश्रमे ॥ २५॥ __ अर्थ-अथवा अन्य कई वादियोंने चारित्रको ( क्रियाको) ही मुक्तिका अंग माना है और ज्ञानदर्शनको मुक्तिमार्गके कार्यमें व्यर्थ मानकर उसका खंडन किया है ॥ २५ ॥
विज्ञानादित्रिवर्गेऽस्मिन्ढे हे इष्टे तथा परैः। . खखिद्धान्तावलेपेन जन्मसन्ततिशातने ॥ २६॥ .