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ज्ञानार्णवः । संत्रासोद्धान्तचेतस्कश्चौरो जागर्त्यहर्निशम्। . . वध्येयात्र धियेयान मार्ययात्रेति शङ्कितः ॥ ११ ॥
अर्थ-मैं यहां पकड़ा जाऊंगा या मारा जाऊंगा तथा यहांपर पीटा जाऊंगा इत्यादि आकुलतासे पागलसा होकर चोर रातदिन जागता रहता है, अर्थात् सचेत रहता है अतः कभी असावधान नहिं रहता ॥ ११ ॥
नात्मरक्षां न दाक्षिण्यं नोपकारं न धर्मतां।। - न सतां शंसितं कर्म चौरः खमेपि बुद्ध्यति ॥ १२॥
अर्थ-चोर अपनी रक्षाको नहिं जानता और सव चतुराई भूल जाता है, वह परोपकार तथा धर्मकोभी नहिं जानता और न सत्पुरुषोंके करने योग्य कार्योंकोही
खप्नमें याद करता है । भावार्थ-चोरका चित्त निरन्तर चोरी करनेमें और भयमें मग्न रहता है, उसे उत्तमकार्य करनेका अवसर कैसे मिलै ? ॥ १२ ॥
गुरवो लाघवं नीता गुणिनोऽप्पन खण्डिताः।
चौरसंश्रयदोषेण यतयो निधनं गताः ॥ १३ ॥ अर्थ-इस लोकमें चोरकी संगतिसे बड़े २ महापुरुष तो लघुताको प्राप्त हुए तथा गुणी पुरुष खंडित किये गये और मुनिगणभी मारे गये । भावार्थ-चोरका संसर्गमात्र भी महादुःखदायक है ॥ १३ ॥
तृणाङ्कुरमिवादाय घातयन्त्यविलम्वितम् । . चौरं विज्ञाय निःशङ्क धीमन्तोऽपि धरातले ॥ १४ ॥
अर्थ--इस पृथिवीतलमें चोर जाननेपर बुद्धिमान् पुरुष भी तत्काल उसे तृणांकुरके समान पकड़कर निःशंक हो मारने पीटने लग जाते हैं। भावार्थ-चोरपर कोईभी दया नहिं करता ॥ १४ ॥
विशन्ति नरकं घोरं दुःखज्वालाकरालितं ।
अमुत्र नियतं मूढाः प्राणिनश्चौर्यचर्विताः ॥१५॥ अर्थ-चोरी करनेवाले मूढ पुरुष परलोकमें दुःखरूपी ज्वालासे भयानक घोर नरकमें नियमपूर्वक प्रवेश करते हैं ॥ १५ ॥
सरित्पुरगिरिग्रामवनवेइमजलादिषु। .
स्थापितं पतितं नष्टं परस्वं त्यज सर्वथा ॥१६॥ अर्थ-आचार्य महाराज उपदेश करते हैं कि हे आत्मन् ! नदी, नगर, पर्वत, ग्राम, वन, घर तथा जल इत्यादिमें रक्खेहुए, गिरेहुए तथा नष्ट हुए धनको मन-वचन-कायसे ग्रहण करना छोड़ ॥ १६ ॥