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ज्ञानार्णवः। इसप्रकार लो भकपायका वर्णन किया । अब सामान्यरूपसे चारों कपायोंके त्याग कर नेका उपदेश करते हैं,
वंशस्थ । शमाम्बुभिः क्रोधशिखी निवार्यताम्
नियम्यतां मानमुदारमार्दवैः । इयं च मायाऽऽर्जवतः प्रतिक्षणं
निरीहतां चाश्रय लोभशान्तये ॥७२॥ अर्थ-हे आत्मन् ! शान्तभावरूपी जलसे तो क्रोधरूपी अमि निवारण कर और उदार मार्दव अर्थात् कोमल परिणामोंसे मानको ( मानरूप हाथीको ) नियन्त्रित कर (वश कर ) तथा मायाको निरन्तर आर्जवसे दूर कर और लोभकी शान्तिके लिये निर्लोभताका आश्रय कर । इसप्रकार चारों कषायोंको दूर करनेका उपदेश है ।। ७२ ॥
यत्र यत्र प्रसूयन्ते तव क्रोधादयो द्विषः।
तत्तत्प्रागेव मोक्तव्यं वस्तु तत्सूतिशान्तये ॥७३॥ अर्थ-हे आत्मन् ! तेरे जिस जिस पदार्थमें क्रोधादिक शत्रु उत्पन्न होते हैं वही वही वस्तु उन क्रोधादिकी शान्तिके लिये प्रथमहीसे त्याग देनी चाहिये । इसप्रकार कषायोंके वाद्य कारणोंके त्यागका उपदेश है ॥ ७३ ॥
येन येन निवार्यन्ते क्रोधाद्याः परिपन्थिनः ।
स्वीकार्यमप्रमत्तेन तत्तत्कर्म मनीषिणा ॥७४ ॥ अर्थ-तथा जिस जिस कार्यके करनेसे क्रोधादिक शत्रुओंका निवारण हो, वुद्धिमानको वह वह कार्य निरालस्य हो खीकार करना चाहिये ।। ७४ ॥ .
गुणाधिकतया मन्ये स योगी गुणिनां गुरुः ।।
तन्निमित्तेऽपि नाक्षिप्तं क्रोधाद्यैर्यस्य मानसं ॥ ७९ ॥ अर्थ-जिस मुनिका मन क्रोधादिक कपायोंके निमित्त मिलनेपर क्रोधादिकसे भी विक्षिप्त न हो अर्थात् जिसके क्रोधादिक उत्पन्न न हों वही योगी गुणाधिकतासे गुणीजनोंका गुरु है, ऐसा मैं मानता हूं। यहां क्रोधादिकका कारण मिलनेपर भी जिनके क्रोधादिक न हों उनकी प्रशंसा कीगई ।। ७५ ।।
यदि क्रोधादयः क्षीणास्तदा किं खिद्यते वृथा ।
तपोभिरथ तिष्ठन्ति तपस्तत्राप्यपार्थकम् ॥ ७६ ॥ अर्थ-हे मुने ! यदि क्रोधादिक कपाय क्षीण हो गये तो तप करके खेद करना व्यर्थ है, क्योंकि क्रोधादिकका जीतना ही तप है । और यदि क्रोधादिक तेरे तिष्ठते हैं तो भी तप करना व्यर्थ है, क्योंकि कषायीका तप करना व्यर्थ ही होता है ।। ७६ ॥