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ज्ञानार्णवः । प्राप्त होकर उत्पन्न हुआ है हर्ष आनंदका रोमांच जिसके ऐसा श्रीमान् उत्तम मुनि पर्यसासन (पद्मासन) करके ध्यान करै ।। ३३ ॥
पर्यादेशमध्यस्थे प्रोत्ताने करकुदाले।
करोत्युत्फुल्लराजीवसन्निभे च्युतचापले ॥३४॥ अर्थ-पथ्येक देशके मध्यभागमें स्थित उन्नत दोनों हस्तके मुकुल (करकमल) विकसित कमलके सदृश चपलतारहित करै । भावार्थ-दोनों हाथ अपनी गोदविपे विकसित कमलसदृश कर निश्चल यापै ॥ ३४ ॥
नासाग्रदेशविन्यस्ते धत्ते नेत्रेऽतिनिश्चले ।
प्रसन्ने सौम्यतापन्ने निष्पन्दे मन्दतारके ॥ ३५॥ अर्थ-अति निश्चल, सौम्यताके लिये सन्दरहित हैं मन्द तारे जिनमें ऐसे दोनो नेत्रोंको नासिकाके अग्रभागमें धारण करै अर्थात् ठहरावै ॥ ३५ ॥
भ्रूवल्लीविक्रियाहीनं मुश्लिष्टाधरपल्लवम् ।
सुप्तमत्स्यहृदप्रायं रिध्यान्मुखपङ्कजम् ॥ ३६॥ अर्ध-तथा मुखको इसप्रकार कर कि-भौहें तो विकाररहित हों, अधरपल्लव अर्थात् दोनों होट न तो बहुत खुले और न अतिमिले हो. ऐसे सोते हुए मत्स्यके हृदकी समान मुखफमलको करें ॥ ३६॥ |
अगाधकरुणाम्भोधौ मग्नः संविग्नमानसः।
ऋज्वायतं वपुर्धत्ते प्रशस्तं पुस्तमूर्तिवत् ॥ ३७॥ अर्थ-योगी मुनिको चाहिये कि-अपने शरीरको अगाधकरुणा समुद्रमें मग्न होगया है संवेगसहित मन जिसका ऐसा सीधा और लंबा रखै, जैसे कि दीवारपर चित्रामकी मूर्ति हो उसप्रकार बनावै ॥ ३७ ॥
विवेकवाद्विंकल्लोलेनिर्मलीकृतमानसः । ज्ञानमन्त्रोद्धृताशेपरागादिविपमग्रहः ॥३८॥ रत्नाकर इवागाधः सुराद्रिरिव निश्चलः । प्रशान्तविश्वविस्पन्दप्रणष्टमकलभ्रमः॥ ३९ ॥ किमयं लोष्ठनिप्पन्नः किंवा पुस्तप्रकल्पितः ।
समीपस्थैरपि प्रायः प्राजानीति लक्ष्यते ॥४०॥ अर्थ-मुनि जब ध्यानका आसन जमाकर बैठे तब ऐसा होना चाहिये कि-प्रथम तो विवेक-भेदनानरूप समुद्रकी कलोलोंसे निर्मल किया हुआ है मन जिसका ऐसा हो, तथा ज्ञानरूप मंत्रसे निकाल दिये हैं समस्तरागादिक विपम ग्रह अर्थात् पिशाच जिसने ऐसा हो तथा समुद्र के समान अगाध हो, मेरुपर्वतके समान निश्चल हो अर्थात् जिसका अंग वा मन