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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् अर्थ-हे मुने! यह चित्तरूपी हस्ती ऐसा प्रबल है कि इसका पराक्रम अनिवार्य है सो जबतक यह समीचीनसंयमरूपी घरको नष्ट करता, उससे पहिले २ तूं इसका निवारण कर । यह चित्त निरर्गल (खच्छन्द) रहेगा तो संयमको विगाइँगा ॥ २२ ॥
विभ्रमद्विषयारण्ये चलच्चतोवलीमुखः।
येन रुद्धो ध्रुवं सिद्ध फलं तस्यैव वाञ्छितम् ॥ २३ ॥ अर्थ-यह चंचलचित्तरूपी वंदर विषयरूपी वनमें भ्रमता रहता है सो जिस पुरुपने इसको रोका, वश किया, उसीके वांछित फलकी सिद्धि है ॥ २३ ॥
चित्तमेकं न शक्नोति जेतुं स्वातन्त्र्यवर्ति यः।
ध्यानवार्ता ब्रुवन्मूढः स किं लोके न लज्जते ॥ २४ ॥ । अर्थ---जो पुरुष खतन्त्रतासे वर्तनेवाले एक मात्र चित्तको जीतनेमें समर्थ नहीं है वह मूर्ख ध्यानकी चर्चा करता हुआ लोकमें लज्जित नहीं होता। भावार्थ-चित्तको तो जीत नहीं सक्ता और लोकमें ध्यानकी चर्चावार्ता करै कि मैं ध्यानी हूं, ध्यान करता रहता हूं सो वह बड़ा निर्लज्ज है ॥ २४ ॥
यदसाध्यं तपोनिष्टमुनिभिर्वीतमत्सरैः।
तत्पदं प्राप्यते धीरैश्चित्तप्रसरवन्धकैः ॥२५॥ अर्थ-जो पद निर्मत्सर तपोनिष्ठ मुनियोंके द्वारा भी असाध्य है वह पद चित्तके प्रसरको रोकनेवाले धीर पुरुपोंके द्वारा ही प्राप्त किया जाता है । भावार्थ-केवल बाथतपसे उत्तम पद पाना असंभव है ॥ २५ ॥ . अनन्तजन्मजानेककर्मवन्धस्थितिढा।
भावशुद्धिं प्रपन्नस्य मुनेः प्रक्षीयते क्षणात् ॥ २६ ॥ अर्थ-जो अनन्त जन्मसे उत्पन्न हुई दृढ़ कर्मवन्धकी स्थिति है सो भावशुद्धिको प्राप्त होनेवाले मुनिके क्षणभरमें नष्ट हो जाती है क्योंकि कर्मक्षय करने में भावोंकी शुद्धता ही प्रधान कारण है ॥२६॥
यस्य चित्तं स्थिरीभूतं प्रसन्नं ज्ञानवासितम् ।
सिद्धमेव मुनेस्तस्य साध्यं किं कायदण्डनः ॥ २७ ॥ अर्थ-जिस मुनिका चित्त स्थिरीभूत है, प्रसन्न है, रागादिककी कलुपता जिसमें नहीं है और ज्ञानकी वासनासहित है उस मुनिके साध्य अर्थात् अपने खरूपादिककी प्राप्ति आदि सब कार्य सिद्धही हैं । अतएव उस मुनिको बाह्यतपादिकसे कायको दंडनेसे कुछ लाभ नहीं
तपाश्रुतमयज्ञान-तनुक्लेशादिसंश्रयम् । अनियन्त्रितचित्तस्य स्यान्मुनेस्तुषखण्डनम् ॥ २८॥