Book Title: Ashtpahud Author(s): Jaychandra Chhavda Publisher: Anantkirti Granthmala Samiti View full book textPage 4
________________ भूमिका। अनेक आनंदधाम अतिरमणीय इस पवित्र भारतीय वसुंधरामें स्वयं अहिं. सात्मक तथा संतोष कर जीती है राग द्वेष परिणति जिनने ऐसे धर्मामृत पोषक अगणनीय ऋषिगणगणनीय भगवत् कुन्दकुन्दाचार्यका शासन साक्षात्तीर्थेश पूज्य श्री १००८ भगवान् वर्द्धमान जिनके समान ही आज इस कलिकाल नाम पंचम कालमै मान्यगणना रूप परिणत हो रहा है क्योंकि उनके अमूल्य स्मृतिबोधक ग्रंथराज आज भी उनकी उस शान्तिस्राविणी दिव्य भव्य, तथा लोकान्त चिदानन्द प्रापयित्री पावना मूर्तिको प्रत्यक्ष भासुरीय आभामें नयन विषय कर रहे हैं। यद्यपि इस दिगम्बर जैन समाजमें आत्मविज्ञान कर्मविज्ञान तथा तत्साधक अनेक करणात्मक ऐसे ग्रंथराज हैं कि जिनके अंशमात्र ज्ञानसे ही आज कल धुरंधर विद्वत् श्रेणिकी गणना प्राप्त हो जाती है इसी सबब यदि अगाधतामें रत्नाकर इनका प्रतिस्पर्धी हो तो विशेष अतिशयोक्ति न होगी क्यों कि गुणरत्न समुद्ररत्नवत् इनमें भी भरे हैं। और वे बड़े ही प्रज्ञाशील कर्मशूरको प्राप्त हो सकते हैं । इसी कारण इनका रचयिता यदि ब्रह्मदेव सर्वज्ञके अनुरूप हो तो वह अंशकतामें सत्यही है । क्यों कि हमारे जैसेके लिये तो यहां भी वही वात है। अतएव इनकी वाणी साक्षात् तीर्थेशकी वाणी और ये साक्षात्तीर्थेशके समानही हमारे लिये हितावह हैं । इनके विषयमें तथा इनकी सर्वज्ञ परंपरागत कृतिके विषयमें यदि किसीकी आक्षेप विक्षेपता होगी वह केवल अगाधजल-आभात्मक मृगतृष्णाके समानही उसके लिये होगी। स्वामी कुंदकुंद सरीखे ग्रंथकार तथा उनके ग्रंथमें कहीं भी ऐसा अंश नहीं है कि जिसमें किसीका आक्षेप विक्षेप हो क्योंकि उनकी ग्रंथशैली आध्यात्म प्रधानता से मुनि मार्गानुशासिनी है फिर भी यहां सर्वत्र इस प्रकारका गुंठन है कि किसी भी प्रतिपक्षी तथा परीक्षकको आदिसे अंततक कहीं भी ऐसा अंश न मिलेगा कि जिसमें आक्षेप विक्षेपको जगह हो । इसीलिये इनको प्रधान तथा पूज्य प्रमाण कोटीमें भगवान् महावीर तथा गौतमगणीके तुल्य माना है क्योंकि शास्त्रकी आदिमें शास्त्र वांचने वाले मंगलाPage Navigation
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